________________
186/संस्कार एवं व्रतारोपण सम्बन्धी साहित्य
पालन करने की विधि बतायी गयी है। मुख्यतया यह कृति विधि-विधानों से सम्बन्धित है। इसमें वर्णित विधि-विधान प्रायः सर्व परम्पराओं में मान्य है। विधि-विधान के सम्बन्ध में यह कृति बहुचर्चित एवं महत्त्वपूर्ण भी है। यह ग्रन्थ दो भागों में प्रकाशित हुआ है इस कृति में कुल ४० विधि-विधान उल्लिखित किये गये हैं कुछ अवान्तर विधि-विधान भी दिये गये हैं।'
इसमें प्रारम्भ के सोलह विधान गृहस्थ जीवन से सम्बन्धित कहे गये हैं जिनमें सोलह संस्कारों का वर्णन किया गया है। आगे के सोलह विधान साधु जीवन से सम्बद्ध है तथा अन्त के आठ विधि-विधान साधु और गृहस्थ दोनों के द्वारा सम्पन्न करने योग्य हैं। अब, प्रस्तुत कृति में वर्णित विधि-विधानों की संक्षिप्त चर्चा इस प्रकार हैं(क) गृहस्थ जीवन से सम्बन्धित विधि विधान
इन विधि-विधानों के अन्तर्गत १६ संस्कारों का वर्णन किया गया है। उन १६ संस्कारों के विषय में सामान्य रूप से जानने योग्य कुछ बिन्दू निम्न हैं:१. प्रस्तुत कृति में वर्णित प्रायः सभी संस्कारों में मंत्रो का उल्लेख 'वेद मन्त्र' के नाम से हुआ है, जबकि मूलतः वे मंत्र जैन परम्परा के आधार पर निर्मित हैं। २. इसमें संस्कार-विधि को सम्पन्न करने के लिए एक गृहस्थ गुरु का और दूसरे यति गुरु का उल्लेख है, कहीं-कहीं जैन ब्राह्मण को भी संस्कार विधि सम्पन्न करवाने का अधिकारी बताया गया है। ३. संस्कार विधि को सम्यक् प्रकार से सम्पन्न करने के लिए जिनमंदिर जाना, बृहत्स्नात्र करना, नैवेद्यादि सामग्री चढ़ाना, जल के द्वारा अभिसिंचित करना इत्यादि कार्य प्रायः आवश्यक माने गये हैं। ४. संस्कार विधि की सम्पन्नता के लिए उपाश्रय में बिराजित साधुओं के दर्शनार्थ जाना, उन्हे वंदन करना, उनसे वासचूर्ण ग्रहण करना, उन्हें निर्दोष आहारादि बहराना आदि कृत्य भी प्रायः आवश्यक माने गये हैं। ५. संस्कार सम्पन्न कराने वाले गृहस्थ गुरु को दक्षिणा रूप में यथाशक्ति वस्त्र-स्वर्ण-ताम्बूल आदि प्रदान करने का भी प्रायः उल्लेख किया गया है। गृहस्थ गुरु के बिना कोई भी संस्कार सम्पन्न नहीं हो सकता है ऐसा दिखलाया गया है। यति गुरु को वस्त्र, पात्र और आहार दान करने का उल्लेख है। ६. प्रत्येक संस्कार को सम्पन्न करने के लिए उस संस्कार के अन्त में आवश्यक सामग्री का भी निरूपण किया गया है।
' यह ग्रन्थ शाह जसवंतलाल गीरधरलाल दोशीवाडानी पोल, अहमदाबाद से, वि.सं. २०३८ में प्रकाशित हुआ है।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org