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________________ 584 / ज्योतिष-निमित्त शकुन सम्बन्धी साहित्य सहज प्रवृत्ति के निरीक्षण द्वारा फलोदश का निरूपण करता है । अतः मनुष्य के हलन-चलन और रहन-सहन आदि के विषय में विपुल वर्णन इस ग्रन्थ में पाया जाता है। कई दृष्टियों से इस ग्रन्थ को विधि-विधान परक भी कहा जा सकता है भूमिकर्म नामक आठवें अध्याय में अंगविद्या को सिद्ध करने की कई विधियाँ दी गई हैं और भी कई स्थलों पर विधि-विधान के विषय दृष्टिगत होते हैं। सामान्य तौर पर प्रश्नों का फलादेश करना भी एक प्रकार की विधि है । प्रस्तुत ग्रन्थ की एक विशेषता यह है कि इस ग्रन्थ के निर्माता ने एक बात स्वयं ने स्वीकार की है कि इस शास्त्र का वास्तविक परिपूर्ण ज्ञाता कितनी भी सावधानी से फलादेश करेगा तो भी उसके सोलह फलादेशों में से एक असत्य ही होगा अर्थात् इस शास्त्र की यह एक त्रुटि है। यह शास्त्र यह भी निश्चित रूप से निर्देश नहीं करता कि सोलह फलादेशों में से कौनसा असत्य होगा। यह शास्त्र इतना ही कहता है कि 'सोलस वाकरणाणि वाकरेहिसि, ततो पुण एक्कं चुक्किहिसि । पण्णरह अच्छिड्डाणि भासिहिसि, ततो अजिणो जिणसंकासो भविहिसि" अर्थात् जो ‘सोलह फलादेश करेगा उनमें से वह एक चूक जायेगा, पन्द्रह को संपूर्ण कह सकेगा- इससे केवलज्ञानी न होने पर भी वह केवली के समान होगा। ' इस शास्त्र के ज्ञाता को फलादेश करने के पहले प्रश्न करने वाले की क्या प्रवृत्ति है? प्रश्न करने वाला किस अवस्था में रहकर प्रश्न करता है ? इस ओर विशेष ध्यान रखना होता है। प्रश्न करने वाला प्रश्न करने के समय अपने कौन-कौन से अंगों का स्पर्श करता है? वह बैठकर प्रश्न करता है या खड़ा रहकर प्रश्न करता है ? रोता है या हँसता है ? वह गिर जाता है या सो जाता है ? विनीत है या अविनीत? उसका आना-जाना, आलिंगन - चुंबन रोना- विलाप करना या आक्रन्दन करना, देखना, बात करना इत्यादि सब क्रियाओं को देखना होता है; प्रश्न करने वाले के साथ कौन है? कौन से फलादि लेकर आया है? उसने कौन से आभूषण पहने हैं? इत्यादि विषय का भी अनुशीलन करना होता है, उसके बाद ही वह फलादेश करता है। वस्तुतः इस शास्त्र के परिपूर्ण एवं अतिगंभीर अध्ययन के बिना एकाएक फलादेश करना किसी के लिए भी शक्य नहीं है। करना, यदि कोई वैज्ञानिक दृष्टिवाला फलादेश की अपेक्षा से इस शास्त्र का अध्ययन करें तो यह ग्रन्थ बहुत कीमती है। अन्य दृष्टियों की अपेक्षा भी यह ग्रन्थ अति महत्त्व का है। इसमें आयुर्वेद, वनस्पतिशास्त्र, प्राणीशास्त्र, मानसशास्त्र, समाजशास्त्र आदि के लिए परम उपयोगी सामग्री का संकलन हुआ है। भारत के १ अंगविज्जा देखिये पृ. २६५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001679
Book TitleJain Vidhi Vidhan Sambandhi Sahitya ka Bruhad Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2006
Total Pages704
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Ritual, History, Literature, & Vidhi
File Size11 MB
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