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अध्याय १२
ज्योतिष - निमित्त - शकुन सम्बन्धी विधि- विधानपरक साहित्य
जैन विधि-विधान सम्बन्धी साहित्य का बृहद् इतिहास / 583
अंगविज्जापइण्णयं (अंगविद्याप्रकीर्णक)
यह प्राकृत जैन साहित्य की अमूल्य और अपूर्व कृति' है। यह रचना पूर्वाचार्य विरचित मानी जाती है। वस्तुतः 'अंगविज्जा' एक अज्ञातकर्तृक रचना है। यह फलादेश का एक अत्यन्त महत्त्वपूर्ण ग्रंथ है, जो सांस्कृतिक सामग्री से भरपूर है । यह गद्य-पद्यमिश्रित प्राकृत भाषा में प्रणीत है तथा प्रथम द्वितीय शताब्दी के भी पूर्व का है। यह नव हजार श्लोक परिमित साठ अध्यायों में समाप्त होता है । इस कृति का साठवाँ अध्याय दो भागों में विभक्त है, दोनों स्थान पर साठवें अध्याय की समाप्ति सूचक पुष्पिका है । यद्यपि पुष्पिका अन्त में होनी चाहिए फिर भी दोनों जगह होने से मुनि पुण्यविजयजी ने प्रस्तुत ग्रन्थ की प्रस्तावना में पुष्पिका के आधार पर ६० वें अध्याय के पूर्वार्ध एवं उत्तरार्ध ऐसे दो विभाग किये हैं। पूर्वार्ध में पूर्वजन्म विषयक प्रश्न एवं फलादेश है और उत्तरार्ध में आगामी जन्म विषयक प्रश्न एवं फलादेश है।
वस्तुतः यह लोक प्रचलित विद्या थी, जिससे शरीर के लक्षणों को देखकर अथवा अन्य प्रकार के निमित्त या मनुष्य की विविध चेष्टाओं द्वारा शुभ-अशुभ फलों का विचार किया जाता था । 'अंगविद्या' के अनुसार अंग, स्वर, लक्षण, व्यंजन, स्वप्न, छींक, भौम और अंतरिक्ष ये आठ निमित्त के आधार हैं और इन आठ महानिमित्तों द्वारा भूत एवं भविष्यकाल का ज्ञान प्राप्त किया जाता है।
सामान्यतः अंगविद्याशास्त्र एक फलादेश का महाकाय ग्रन्थ है। इसका उल्लेख अनेक प्राचीन ग्रन्थों में मिलता है। यह ग्रन्थ ग्रह-नक्षत्र - तारा आदि के द्वारा या जन्मकुंडली के द्वारा फलादेश का निर्देश नहीं करता है किन्तु मनुष्य की
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(क) इस कृति का संशोधन- संपादन मुनि पुण्यविजयजी ने किया है। उन्होंने इस ग्रन्थ की प्रस्तावना अति विस्तार के साथ लिखी है। वह पठनीय है।
(ख) यह ग्रन्थ वि.सं. २०१४ में, प्राकृत ग्रन्थ परिषद् वाराणसी ५ से प्रकाशित हुआ है।
'पिंडनिर्युक्तिटीका' (४०८) में अंगविज्जा की निम्नलिखित गाथा उद्धृत है
इंदिएहिं दियत्थेहिं, समाधानं च अप्पणो ।
नाणं पवत्ताए जम्हा, निमित्तं तेण अहियं ॥
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