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226/संस्कार एवं व्रतारोपण सम्बन्धी साहित्य
सात और वस्त्र की चार एषणा, जिनकल्पी के प्रकार, दस प्रकार की सामाचारी, जिनकल्पी की सामाचारी, आत्महत्या से संलेखना की पृथक्ता, संलेखना का फल, संलेखना ग्रहण का अधिकारी कौन? संलेखना में रखने योग्य सावधानी, आदि। अन्त में ग्रन्थ रचना का हेतु एवं गाथाओं का परिमाण बताते हुए पंचवस्तुक ग्रंथ का समापन किया गया है।' टीका - इस कृति की ५०५० श्लोक परिमाण 'शिष्यहिता' नामक स्वोपज्ञ टीका भी मिलती है। न्यायाचार्य यशोविजयजी ने 'मार्गविशुद्धि' नामक एक कृ ति 'पंचवस्तुक' के आधार पर लिखी है। इन्होंने 'प्रतिमाशतक' के श्लोक ६७ की स्वोपज्ञ टीका में 'थयपरिण्णा' को उद्धृत करके उसका संक्षेप में स्पष्टीकरण भी किया है। पंचस्थानक
पंचस्थानक नामक यह कृति हरिभद्रसूरि की है। इस कृति के नाम से अवगत होता है कि इसमें पाँच स्थानों अर्थात पाँच प्रकार के विधानों का विवचेन होना चाहिये। इस कृति का गुजराती अनुवाद एम.डी.देसाई द्वारा किया गया है। यह कृति गुजराती अनुवाद के साथ 'जैन श्वेताम्बर कान्फरेन्स मुंबई' से सन् १६३५ में प्रकाशित हुई है। पंचाचारकुलक
इस कुलक के रचनाकार का नाम अज्ञात है। यह प्राकृत भाषा में निबद्ध है। इसमें कुल ८ गाथाएँ हैं। इस कृति में अग्रलिखित पंचाचार का स्वरूप एवं पंचाचार पालन करने की विधि वर्णित है, ऐसा कृति नाम से स्पष्ट हो जाता हैं। पंच आचार के नाम ये हैं- १. ज्ञानाचार २. दर्शनाचार ३. चारित्राचार ४. तपाचार ५. वीर्याचार।
इस कृति का रचनाकाल एवं कर्ता आदि अज्ञात है। पंचाशकप्रकरण
आचार्य हरिभद्र की यह कृति जैन महाराष्ट्री प्राकृत में रचित है। इस कृति में उन्नीस पंचाशक संगृहीत हैं, जिसमें दूसरे में ४४ और सत्तरहवें में ५२
' यह कृति गुजराती अनुवाद के साथ अरिहंतआराधकट्रस्ट, मुंबई- भिवंडी से प्रकाशित है। २ आगमोद्धारक आनन्दसागरसूरि ने इसका गुजराती अनुवाद किया है और वह ऋषभदेवजी केसरीमलजी श्वेताम्बर संस्था ने सन् १६३७ में प्रकाशित की है। ३ देखें, जिनरत्नकोश पृ. २३०
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