________________
जैन विधि-विधान सम्बन्धी साहित्य का बृहद् इतिहास / 313
निरूपित किया गया है तथा प्रायश्चित्त के अठारह, बत्तीस एवं छत्तीस स्थानों का विचार किया गया है।
प्रायश्चित्त दाता इस भाष्य में प्रायश्चित्तदान की चर्चा करते हुए यह स्पष्ट किया है कि संप्रति प्रायश्चित्त देने वाले योग्य व्यक्ति का अभाव होने पर भी यह मानना होगा कि प्रायश्चित्त विधि का मूल स्रोत प्रत्याख्यानपूर्व की तृतीय वस्तु में है और उसके आधार पर कल्प, प्रकल्प तथा व्यवहार ग्रन्थों का निर्माण हुआ है। ये ग्रन्थ और इनके ज्ञाता आज भी विद्यमान हैं अतः प्रायश्चित्त का व्यवहार इन सूत्रों के आधार पर सरलता पूर्वक किया जा सकता है और इस प्रकार चारित्र की शुद्धि हो सकती है।
प्रायश्चित्त दान की सापेक्षता- आगे के प्रसंग में प्रायश्चित्त विधाताओं का सद्भाव सिद्ध किया गया है। सापेक्ष प्रायश्चित्त दान के लाभ और निरपेक्ष प्रायश्चित्त दान की हानि का वर्णन किया गया है। इसमें मूलरूप से निर्देश दिया है कि प्रायश्चित्त दान में दाता को दया भाव रखना चाहिए तथा जिसे प्रायश्चित्त देना है उसकी शक्ति की ओर भी ध्यान रखना चाहिए। ऐसा होने पर ही प्रायश्चित्त का प्रयोजन सिद्ध होता है। इस सन्दर्भ में यह बात भी कही गई है कि कहीं प्रायश्चित्त देने में इतना अधिक दयाभाव भी न आ जाए कि दोषों की परम्परा बढ़ने लगे और साधक के चारित्र की शुद्धि ही न हो सके। यह शास्त्रोक्त वचन है कि प्रायश्चित्त के अभाव में चारित्र स्थिर नहीं रह सकता है । चारित्र के अभाव में तीर्थ की शून्यता का प्रसंग बनता है। तीर्थ के अभाव में निर्वाण प्राप्ति के विच्छेद का प्रसंग उपस्थित होता है तथा निर्वाण के अभाव में दीक्षा स्वीकार की शून्यता का प्रश्न उपस्थित होता है पुनः दीक्षा के अभाव में चारित्र का अभाव, चारित्र के अभाव में तीर्थ का अभाव इस प्रकार अनवस्था की परम्परा चलती रहती है अतः प्रायश्चित्त की विद्यमानता अत्यन्त जरूरी है।
भक्तपरिज्ञा - इंगिनीमरण व पादपोपगमन -
इसी क्रम में प्रायश्चित्त के विधान का विशेष समर्थन करते हुए प्रसंगवशात् भक्तपरिज्ञा, इंगिनीमरण एवं पादपोपगमन इन तीन प्रकार की मारणान्तिक साधनाओं की विधि का निरूपण किया गया है।
प्रायश्चित्त के भेद - आगे प्रायश्चित्त के दस भेद और उन-उन प्रायश्चित्त के योग्य दोषपूर्ण क्रियाओं का संक्षिप्त स्वरूप वर्णित किया गया है। साथ ही प्रायश्चित्त स्थान के योग्य विषयों पर कुछ उदाहरण भी दिये गये हैं। दस प्रकार के प्रायश्चित्त की चर्चा मूलसूत्र में कर चुके हैं। अतः पुनरावर्तन अपेक्षित नहीं हैं। हाँ ! इतना अवश्य है कि भाष्य में तत्सम्बन्धी चर्चा अधिक विस्तार के साथ हुई है ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org