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312/प्रायश्चित्त सम्बन्धी साहित्य
८. मूलयोग्य - पंचेन्द्रिय जीव का घात करना, मैथुन प्रतिसेवन करना आदि अपराध स्थानों के लिए मूल नामक प्रायश्चित्त का विधान है।' ६. अनवस्थाप्ययोग्य - तीव्र क्रोधादि करने वाले, तीव्र द्वेष रखने वाले, घोर हिंसा करने वाले श्रमण के लिए अनवस्थाप्य-प्रायश्चित्त का विधान किया गया है। १०. पारांचिकयोग्य - तीर्थकर, प्रवचन, श्रुत, आचार्य, गणधर आदि की पुनः पुनः आशातना करने वाला पारांचिक प्रायश्चित्त का अधिकारी होता है। इसी प्रकार कषायदुष्ट, विषयदुष्ट, स्त्यानर्द्धि, निद्राप्रमत्त एवं अन्योन्यकारी पारांचिक प्रायश्चित्त के भागी होते हैं।
उपर्युक्त दस प्रायश्चित्तों में से अन्तिम के दो प्रायश्चित्त (अनवस्थाप्य व पारांचिक) चतुर्दशपूर्वधर (भद्रबाहु स्वामी) तक ही अस्तित्व में रहे। तदनन्तर उनका विच्छेद हो गया। जीतकल्पभाष्य
यह भाष्य मूलसूत्र पर रचा गया है। यह प्राकृत पद्य में है। इसमें कुल २६०६ गाथाएँ हैं। जीतकल्पभाष्य के प्रणेता जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण है। यह ग्रन्थकार की स्वोपज्ञटीका है।
इस भाष्य में बृहत्कल्प-लघुभाष्य, व्यवहारभाष्य, पंचकल्पमहाभाष्य, पिंडनियुक्ति आदि ग्रन्थों की अनेक गाथाएँ अक्षरशः मिलती है। इससे यह कहा जा सकता है कि प्रस्तुत भाष्यग्रन्थ कल्पभाष्य आदि ग्रन्थों की गाथाओं का संग्रहरूप ग्रंथ है। इस भाष्य की रचना मूलसूत्र पर होने से इसमें प्रायश्चित्तस्थान, प्रायश्चित्तदाता, प्रायश्चित्त की सापेक्षता, प्रायश्चित्त के भेद, आगमादि पाँच व्यवहार आदि का सुन्दर विवेचन हुआ है। प्रायश्चित्त का अर्थ - प्रस्तुत भाष्य के प्रारंभ में सर्वप्रथम प्रवचन शब्द का निरुक्तार्थ कर प्रवचन को नमस्कार किया है। फिर 'प्रायश्चित्त' शब्द का निरुक्तार्थ किया है। प्रायश्चित्त के प्राकृत में दो रूप प्रचलित है; 'पायच्छित' और 'पच्छित्त' इन दोनों की व्युत्पत्तिमूलक व्याख्या करते हुए कहा गया है कि जो पाप का छेद करता है वह 'पायच्छित' है और प्रायः जिससे चित्त शुद्ध होता है वह 'पच्छित्त' है। प्रायश्चित्त के स्थान - आगे प्रायश्चित्त का विवेचन करते हुए प्रायश्चित्त दान के योग्य व्यक्ति का स्वरूप बताया गया है, आलोचना के श्रवण का क्रम
'जीतकल्पसूत्र. ८३-५ २ वही. ८५-६३ ३ वही. ६४-६
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