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260 / संस्कार एवं व्रतारोपण सम्बन्धी साहित्य
है। छठा द्वार पौषध ग्रहण विधि का निरूपण करता है। सातवाँ द्वार प्रव्रज्या ग्रहण की विधि का विवेचन करता है। आठवाँ द्वार उपस्थापना विधि से समन्वित है। नवमाँ द्वार कालग्रहण की विधि को व्याख्यायित करता है । दशवाँ द्वार योगवहन की तप विधि का वर्णन करता है। ग्यारहवाँ द्वार आचार्यपदस्थापना विधि का उल्लेख करता है। बारहवाँ द्वार उपाध्याय पदस्थापना विधि की प्रतिपादना करता है। तेरहवाँ द्वार प्रवर्त्तकपदस्थापना विधि से सम्बन्धित है। चौदहवाँ द्वार स्थविरपदस्थापना विधि की चर्चा करता है । पन्द्रहवाँ द्वार गणावच्छेदकपदस्थापना विधि प्रस्तुत करता है। सोलहवाँ द्वार महत्तरापद की स्थापना विधि से युक्त है। सतरहवाँ द्वार प्रवर्त्तिनीपद की स्थापना विधि को प्ररूपित करता है। अठारहवाँ द्वार वाचनाचार्यपद की स्थापना विधि को प्रस्तुत करता है। उन्नीसवाँ द्वार अंतिम समय की आराधना विधि को प्रगट करता है। बीसवाँ द्वार अचित्तसंयत महापरिष्ठापना ( मुनि के मृतशरीर के प्रतिस्थापित ) विधि की जानकारी देता है। इक्कीसवाँ द्वार जिन बिम्ब की प्रतिष्ठा विधि का उल्लेख करता है।
इसमें ग्रन्थ समाप्ति के अनन्तर परिशिष्ट के रूप में योगविधि से सम्बन्धित यन्त्रादि दिये गये हैं। इसके साथ ही नीवि संबंधी कल्प्याकल्प्य विधि, योग - विधान में प्रयुक्त होने वाली स्तुतियाँ, तीस नीवियाता, अस्वाध्याय विधि, नष्टदंत विधि, एवं योग के विशेष बोल आदि की चर्चा भी की गई हैं। यह कृति अप्रकाशित है।
सामाचारी
तिलकाचार्य द्वारा रचित सामाचारी नामक यह कृति मुख्यतः संस्कृत गद्य में है।' ये पूर्णिमागच्छीय' चन्द्रप्रभसूरि के वंशज शिवप्रभसूरि के शिष्य थे। उनकी यह कृति १४२१ श्लोक परिमाण है। इस कृति का रचनाकाल लगभग १३ वीं शती का उत्तरार्ध है। इसके प्रारंभ में एक श्लोक मंगलरूप और अन्त में सात श्लोक प्रशस्ति रूप दिये गये हैं । प्रस्तुत सामाचारी के प्रारम्भिक श्लोक में सम्यग्दर्शन आरोपण नन्दी' आदि विधियों के कथन करने की प्रतिज्ञा की गई है । तत्पश्चात्
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यह कृति शेठ डाह्याभाई मोकमचंद पांजरापोल, अहमदाबाद से प्रकाशित है। इसकी एक ताडपत्रीय हस्तलिखित प्रति वि.सं. १४०६ की प्राप्त है। देखें, जैन साहित्य का बृहद् इतिहास भा. ४, पृ. २६८
२ पाठांतरे आगमिकगच्छीय
यहाँ नन्दि शब्द से तात्त्पार्य- समवसरण के प्रतिरूप में तीर्थंकर परमात्मा की प्रतिमा को उच्च आसन पर बिराजमान करना है। तथा अक्षत- नैवेद्य आदि के द्वारा स्थापित प्रतिमा की पूजा करना है ।
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