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________________ जैन विधि-विधान सम्बन्धी साहित्य का बृहद् इतिहास/275 विस्तार से कहें तो इसमें सामान्यतया आराधना की उपयोगिता, सम्यग्दर्शन सम्यक् ज्ञान, सम्यक् चारित्र और सम्यक् तप इन चार प्रकार के आराधना की महिमा, मरण के सत्रह प्रकार, सूत्रकार के चार प्रकार, सम्यक्त्व के आठ अतिचार, सम्यक्त्व की आराधना का फल, सम्यक्त्व के स्वामी आदि भक्तपरिज्ञामरण के प्रकार तथा सविचार भक्त प्रत्याख्यान का निरूपण अधोलिखित चालीस अधिकारों में किया गया है१. तीर्थंकर, २. लिंग, ३. शिक्षा, ४. विनय, ५. समाधि, ६. अनियतविहार, ७. परि- णाम, ८. उपाधित्याग, ६. द्रव्यथिति और भावश्रिति, १०. भावना, ११. सल्लेखना, १२. दिशा, १३. क्षमण, १४. अनुविशिष्ट शिक्षा, १५. परगणचर्चा, १६. मार्गणा, १७. सुस्थित, १८. उपसम्पदा, १६. परीक्षा, २०. प्रतिलेखना, २१. आपृच्छा, २२. प्रतिच्छन्न, २३. आलोचना, २४. आलोचना के गुण-दोष, २५. शय्या, २६. संस्तर, २७. निर्यापक, २८. प्रकाशन, २६. आहार, ३०. प्रत्याख्यान, ३१. क्षामण, ३२. क्षपण, ३३. अनुशिष्टि, ३४. सारण, ३५. कवच, ३६. समता, ३७. ध्यान, ३८. लेश्या, ३६. आराधना का फल और ४०. विजहना क्षपक की मरणोत्तर क्रिया।। ___ इन अधिकारों में यथालन्दी की आचार विधि गच्छप्रतिबद्ध यथालन्द तपविधि, परिहारसंयम विधि, जिनकल्पविधि, परिग्रहत्यागविधि, प्रायश्चित्तदानविधि, क्षपक की परीक्षाविधि, आलोचना की विधि, क्षपक की मरणोत्तर क्रियाविधि, आर्यिका की मरणोत्तर विधि, मृतक के साथ पुतले का विधान, निरुद्धतर समाधि की विधि, इंगिनीमरण- अनशनविधि, प्रायोपगमन अनशनविधि, क्षपकश्रेणि पर आरोहण करने की विधि, क्षपक के शरीर स्थापन आदि की विधि का उल्लेख हुआ है। इन विधि-विधानों के अतिरिक्त जिनलिंग धारण करने वाले के गुण, केशलोच न करने से लगने वाले के दोष, पीछी से प्रतिलेखना करने का प्रयोजन, पाँच प्रकार की शुद्धि, भक्त प्रत्याख्यान का काल, शरीर सल्लेखना एवं आभ्यन्तर सल्लेखना का क्रम, समाधि के लिए निर्यापक की खोज, खोज के लिए जाते हुए क्षपक के गुण, पाँच प्रकार का व्यवहार, आलोचना करने योग्य स्थान, हिंसा आदि पाँच पापों का स्वरूप, पंच महाव्रत की महिमा, तप के गुण, क्षपक विचलित हो तो उसको स्थिर करने के उपाय, समुद्घात विधान, उत्कृष्ट-मध्यम-जघन्य आराधना का फल आदि बिन्दुओं पर भी विचार किया गया है। संक्षेपतः यह रचना सल्लेखना विधि से सम्बन्धित है। इसके साथ ही तत्सम्बन्धी विषयों एवं विधियों का भी निरूपण हुआ है। इस ग्रन्थ के प्रारम्भ में अरिहंत परमात्मा को वन्दन किया गया है तथा चार प्रकार की आराधना का फल Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001679
Book TitleJain Vidhi Vidhan Sambandhi Sahitya ka Bruhad Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2006
Total Pages704
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Ritual, History, Literature, & Vidhi
File Size11 MB
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