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जैन विधि-विधान सम्बन्धी साहित्य का बृहद् इतिहास/205
यथाप्रसंग विस्तार से करेंगे। आगे पात्र का लक्षण, पात्र ग्रहण करने की आवश्यकता, पात्र के प्रयोजन आदि बताये गये हैं। तदनन्तर अनायतनवर्जन द्वार, (७६२-८४), प्रतिसेवना द्वार (७८५-८८), आलोचना द्वार- (७८६-६१) एवं विशुद्धि द्वार (७६२-८०४) का निरूपण किया गया है। संक्षेपतः यह ग्रन्थ जैन मनि की आचारविधि का विशद निरूपण करने वाला और विस्तृत प्रतिपादन करने वाला है। इसमें जैन मुनि की आवश्यक एवं आचार विषयक प्रायः सभी प्रकार के विधि-विधान उल्लिखित हुए हैं। उपस्थानविधि
यह कृति शिवनिधानगणि की है। इसमें उपस्थापना (बड़ी दीक्षा) विधि का वर्णन हुआ है। उपासकसंस्कार
इसके कर्ता दिगम्बर मुनि पद्मनन्दि है। यह रचना संस्कृत के ६२ पद्यों में है।' इसमें श्रावक के संस्कार ग्रहण का विवेचन हुआ है। उपधानस्वरूप
इसका लेखन श्री देवसूरि ने किया है। इसमें भी उपधानविधि का स्वरूप विवेचित है। उपधानविधि
यह रचना अज्ञातकर्तृक है। अनेक ज्ञान भंडारों में उपलब्ध है। उपधानपौषधविशेषविधि
___ इसके कर्ता श्री चक्रेश्वरसूरि है। इसमें उपधान और पौषध दोनों प्रकार की विधियों का विवेचन हुआ है। उपाध्यायपदोपस्थान
यह रचना अप्रकाशित है। हमें उपलब्ध भी नहीं हुई है। इसके बारे में इतना निःसंदेह कह सकते हैं कि इसमें उपाध्यायपदस्थापना विधि का उल्लेख हुआ है।
' जिनरत्नकोश पृ. ५६ २ वही, पृ. ५४ ३ वही पृ. ५४ ४ वही, पृ. ५५
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