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जैन विधि-विधान सम्बन्धी साहित्य का बृहद् इतिहास/453
विधि, पूजन-विधि के भेद आदि का वर्णन हुआ है। तीसरे खण्ड में समसामयिक दृष्टि से दर्शन-पूजन विधि का निरूपण किया गया है।
चौथे से लेकर आठवाँ खण्ड परिशिष्ट विभाग से युक्त है। चौथे में अरिहंत स्वरूप का, नवग्रह पूजन का, पंचोपचार पूजा का, पूजन फल का पूजन के अष्ट द्रव्य का, पूजन के लिए पात्रता आदि का तथा प्रतिक्रमण, प्रतिष्ठा, प्रदक्षिणा, भावपूजा, मण्डल विधान का श्रावक के षट् आवश्यक आदि का और ॐ ही-श्रीं आदि का वर्णन है। पाँचवें-छठे में सन्दर्भ ग्रन्थ सूची है, सातवें में कतिपय दिगम्बर प्रमुख जैन पूजा-सम्बन्धी साहित्य प्रणेता एवं उनके ग्रन्थ दिये गये हैं और आठवें खण्ड में आवश्यक चित्रमाला दी गई है। नन्दीश्वरद्वीपबृहविधान
यह अष्टम नन्दीश्वर द्वीप में स्थित अकृत्रिम जिनालयों की एवं अक त्रिम जिन प्रतिमाओं की परोक्ष आराधना का श्रेष्ठ ग्रन्थ है। यह ग्रन्थ मूलतः संस्कृत में है किन्तु महाकवि पं. जिनेश्वरदासजी ने इसका हिन्दी पद्यानुवाद किया है और जन सामान्य के लिए आराधना का प्रशस्त मार्ग प्रदान किया है। यह ग्रन्थ दिगम्बरीय परम्परानुसार रचा गया है।'
ग्रन्थों में उल्लेख है कि कार्तिक, फाल्गुन और आषाढ़ माह के शुक्लपक्ष की अष्टमी से लेकर पूर्णमासी तक अष्टहिका पर्व रहता है। इन पर्व दिनों में असंख्यात देव-देवियाँ, इन्द्र-इन्द्राणियाँ नन्दीश्वर द्वीप में वंदन-पूजन के लिए आते हैं और अपना जीवन धन्य करते हैं। प्रस्तुत ग्रन्थ में निर्देश है कि इस विधान को अष्टाहिक पर्व में आठ वर्ष तक निरन्तर व्रत करके पूर्ण करना चाहिए। इस विधान में इसका व्रत भी किया जाता है जो १०८ दिन में पूरा होता है। इसमें ५६ उपवास और ५२ पारणा के दिन होते हैं।
यह ज्ञातव्य है कि नन्दीश्वर द्वीप की चारों दिशाओं में चार अंजनगिरि पर्वत हैं। प्रत्येक अंजनगिरि के चारों कोनों पर एक-एक वापिका है। प्रत्येक वापिका के बीच एक-एक दधिमुख पर्वत है। प्रत्येक दधिमुख के चारों कोनों पर दो-दो रतिकर पर्वत हैं। इस प्रकार एक दिशा के १३ पर्वतों पर १३ अकृत्रिम जिनालय हैं और इस प्रकार कुल चारों दिशाओं में ५२ जिनालय एवं ५६१६ अकृत्रिम विशाल जिन प्रतिमाएँ हैं।
'यह पुस्तक सन् २००३, वीतराग वाणी ट्रस्ट सैलसागर, टीकमगढ़ से प्रकाशित है।
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