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316/प्रायश्चित्त सम्बन्धी साहित्य
करने की विधि ११. द्वितीय-तृतीय-चतुर्थ एवं पँचम महाव्रत में लगे हुए अतिचारों का प्रायश्चित्त विधान। १२. सोलह उद्गम दोष सम्बन्धी प्रायचित्त विधान १३. सोलह उत्पादना दोष सम्बन्धी प्रायश्चित्त विधान १४. दस ग्रहणैषणा दोष सम्बन्धी प्रायश्चित्त विधान १५. पाँच ग्रासैषणा दोष सम्बन्धी प्रायश्चित्त विधान १६. उपधि सम्बन्धी प्रायश्चित्त विधान १७. पात्र विषयक प्रायश्चित्त विधान १८. साध्वियों के लिए वस्त्रदान की विधि १६. अवधावित प्रत्यावृत्त साधु विषयक प्रायश्चित्त २०.
आरोपणा आदि प्रायश्चित्त के पाँच प्रकार २१. छेदयोग्य और मूलयोग्य प्रायश्चित्त विधान २२. अनवस्थाप्य योग्य प्रायश्चित्त विधान २३. अनवस्थाप्य तप विधि २४. पारांचिक प्रायश्चित्त का विधान २५. योगविधि विषयक अतिचारों का प्रायश्चित्त विधान २६. प्रव्रज्यादि विधि।
उक्त विधि-विधानों के अनन्तर आगमादि पाँच प्रकार का निरूपण किया गया है। व्रतषट्क के अठारह स्थान बताये गये हैं। इसके साथ ही पाँच प्रकार की उपसम्पदा, इच्छादि सामाचारी, लघुमृषा के दृष्टान्त, आठ प्रकार के ज्ञानातिचार, आठ प्रकार के दर्शनातिचार, श्रुत अध्ययन के लिए योग्य पर्याय, दीक्षा के लिए अयोग्य कौन?, शय्यातर, नवप्रकार की वसति, प्रक्षेप दोष का स्वरूप, यथाछन्दादि का स्वरूप, अतिक्रमादि का स्वरूप, आलोचना ग्रहण करने योग्य पुरुष, नौ प्रकार का तपदान सम्बन्धी व्यवहार, नौ प्रकार का आपत्ति तप सम्बन्धी इत्यादि विषयों पर भी प्रकाश डाला गया है। टीका - यतिजीतकल्प पर सोमतिलकसूरि ने एक वृत्ति लिखी थी, किन्तु वह अप्राप्य है। दूसरी वृत्ति देवसुन्दरसूरि के शिष्य साधुरत्नसूरि ने रची है। यह ५७०० श्लोक परिमाण है। उन्होंने सोमतिलकसूरि की वृत्ति का उल्लेख किया है।
निःसन्देह यह कृति मुनिजीवन के लिए, जीवन विशुद्धि के लिए एवं शुद्ध दशा को उपलब्ध करने के लिए अति उपयोगी है। दशाश्रुतस्कन्धसूत्र
आगमों का प्राचीनतम वर्गीकरण अंग एवं पूर्व इन दो भागों में मिलता है। आर्यरक्षित ने आगम साहित्य को चार अनुयोगों में विभक्त किया। वे विभाग ये हैं- १. चरणकरणानुयोग, २. धर्मकथानुयोग, ३. गणितानुयोग और ४. द्रव्यानुयोग। आगम संकलन के समय आगमों को दो वर्गों में विभक्त किया गया (१) अंग प्रविष्ट एवं (२) अगबाह्य। नंदीसूत्र में आगमों का विभाग काल की दृष्टि से भी किया गया है। प्रथम एवं अंतिम प्रहर में पढ़े जाने वाले आगम को 'कालिक' तथा सभी प्रहरों में पढ़े जाने वाले आगम को 'उत्कालिक' कहा गया
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