SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 75
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जैन विधि-विधान सम्बन्धी साहित्य का बृहद् इतिहास/45 इसका रचना काल अज्ञात है। इस कृति के प्रथम उल्लास में स्वप्न, स्वप्नफल, अशुभस्वप्न निवारण का विधान, स्वर के अनुसार उठने का विधान, व्यायाम करने का विधान, गृहस्थित देवपूजन करने का विधान, आचार्य, कवि, विद्वान और कलाकारों को सदा प्रसन्न रखने का विधान, सार्वजनिक धर्मस्थान में देवपूजनादि का विधान, जिनचैत्य और जिनप्रतिमा के निर्माण का विधान आदि का वर्णन हुआ है। दूसरे उल्लास में विभिन्न तिथियों में स्नान करने के फलाफल, अपनी आय के अनुसार वेशभूषा धारण करने का विधान, नवीन वस्त्र धारण करने योग्य दिनादि का विधान, सेवक की सभा में नहीं करने योग्य कार्यों का विधान इत्यादि व्यावहारिक विषयों पर प्रकाश डाला गया है। तीसरे उल्लास में भोजन कब, कैसा, क्यों, खाद्य वस्तुओं के खाने का क्रम, भोजन करने के बाद के नियम आदि का वर्णन है। चौथे-पाँचवे उल्लास में संध्याकालीन कृत्य, रात्रिकालीन कृत्य, विवाह के लिए कन्या के खोज का विधान, तिल, मसक आदि चिहों का शुभाशुभफल, स्त्रियों के प्रकार, गर्भस्थ स्त्री के नियम आदि का उल्लेख हुआ है। छठे उल्लास में बसन्त, हेमन्त, शरद आदि ऋतुओं में करने योग्य आहार-विहार आदि का वर्णन है। सातवें उल्लास में मनुष्य भव की महत्ता एवं मनुष्य के लिए करने योग्य उत्तम कार्यों का निरूपण है। आठवें उल्लास में मनुष्य के रहने योग्य निवास, वास्तुशुद्धि, गृहप्रकार, विद्याध्ययन के लिए शुद्धि, सर्प के प्रकार एवं विष उतारण, बौद्ध-मीमांसक आदि छः दर्शन इत्यादि अनेकानेक विषय विवेचित हैं। नौवें उल्लास में सप्तव्यसन, छ:लेश्या, आठ मद आदि का शुभाशुभ फल बताया है। दशवें उल्लास में धर्म महिमा, गृहत्याग का महत्त्व एवं उत्तम भावनाओं का निरूपण हुआ है। ग्यारहवें उल्लास में आत्म अस्तित्व की सिद्धि का प्रमुखता से वर्णन किया है। बारहवें उल्लास में सन्यास धारण और समाधिमरण का उपदेश दिया गया है। गुणभषण-श्रावकाचार मुनिगुणभूषण रचित यह श्रावकाचार संस्कृत के २६४ पद्यों एवं तीन उद्देशों में विभक्त है। इसका समय १२ वीं शती के बाद का है। यह कृति अतिविस्तृत नहीं है तथापि श्रावकाचार विधि का एवं उसके आवश्यक कृत्य का सम्यक् निरूपण करती है। इसके प्रथम उद्देश में मनुष्यभव . और सद्धर्म की प्राप्ति दुर्लभ बताकर सम्यग्दर्शन धारण करने का उपदेश दिया गया है तथा सम्यक्त्व के भेदों, उसके अंगों एवं उसकी महिमा का वर्णन किया गया है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001679
Book TitleJain Vidhi Vidhan Sambandhi Sahitya ka Bruhad Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2006
Total Pages704
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Ritual, History, Literature, & Vidhi
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy