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प्रभु की अष्टप्रकारी पूजाविधि एवं जापविधि २३. शनिग्रह अरिष्ट निवारक श्री मुनिसुव्रतस्वामी की अष्टप्रकारी पूजाविधि एवं जापविधि २४. राहुग्रह अरिष्ट निवारक श्री नेमिनाथप्रभु की अष्टप्रकारी पूजाविधि एवं जापविधि २५. केतुग्रह अरिष्ट निवारक श्री मल्लिनाथप्रभु की अष्टप्रकारी पूजाविधि एवं जापविधि
अन्त में नवग्रहयन्त्र, नवग्रहस्तोत्र एवं सर्वग्रहदोषनिवारण मंत्रादि दिये गये हैं। पद्मावतीदेवी सहस्त्रनाम विधान
यह एक संकलित रचना' है। इसका संकलन पं. सुरेशकुमार जैन ने किया है। यह मुख्यतः संस्कृत की पद्यात्मक शैली में है। इसमें मंत्रों का बाहुल्य है । यह कृति दिगम्बर परम्परा से सम्बन्धित है।
जैन विधि-विधान सम्बन्धी साहित्य का बृहद् इतिहास / 455
वर्तमान में जो लोग अपनी स्वार्थपूर्ति हेतु कुदेव - कुगुरु की उपासना करने लगे हैं और अन्य मिथ्यात्वी देवी-देवता को मानने लगे हैं उन जीवों के लिए यह कृति अधिक मूल्य रखती है। इस विधान में पद्मावती देवी के हजार नामों की पूजा की जाती है। सर्वप्रथम एक मंडल बनाया जाता है उसमें दस वलय बनाते हैं। प्रत्येक वलय में मन्त्रोच्चारण पूर्वक पद्मावती देवी के १००-१०० नामों के अर्ध के साथ पूजन करते हैं। इस विधान की यही मुख्य प्रक्रिया है ।
मंडल के बीचों बीच वलय पर १०८ बार पूजन करते हैं । यहाँ पूजन में मंत्र के साथ लवंगचूर्ण या सिन्दूर चढ़ाते हैं फिर प्रत्येक वलय पर १०० - १०० फल चढ़ाकर १-१ महार्घ्य देते हैं। इस प्रकार इस पूजन विधान में कुल ११०८ अर्घ्य, ११ महार्घ्य होते हैं। इसमें निर्देश है कि यह विधान नवरात्री में करना अति श्रेयस्कर है।
इस कृति के अन्त में पद्मावतीव्रत करने की विधि एवं तत्सम्बन्धी कथा दी गई हैं। इसके साथ ही इसमें पद्मावती के स्तोत्र, चालीसा, आरती आदि भी है। जिनरत्नकोश (पृ. २५५) में जिनपूजा से सम्बन्धित निम्नांकित कृतियों का उल्लेख हुआ है उनका उपलब्ध विवरण इस प्रकार है
पूजापंचाशिका - यह हरिभद्रसूरि द्वारा रचित है। इस पर अभयदेवसूरि ने एक यह रचना अचलगच्छीय उदयसागरसूरि की है। यह अज्ञातकर्तृक है। इस पर एक अवचूरी लिखी गई है। पूजा
टीका रची है। पूजापंचाशिका
पूजापंचाशिका
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यह कृति श्री १०८ शिवसागर ग्रन्थमाला, श्री शांतिवीर दिगम्बर जैन संस्थान, श्री शांतिवीर नगर (श्रीमहावीरजी) से वी.सं. २५२६ में प्रकाशित हुई है।
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