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308 / प्रायश्चित्त सम्बन्धी साहित्य
जिनरत्नकोश' में आलोचना नाम से तीन कृतियाँ दी गई है। इनका विवरण इस प्रकार प्राप्त हुआ है
१. आलोचना - इसके कर्त्ता दिगम्बर मुनि पद्मनन्दि है । यह संस्कृत भाषा के ३३ पद्यों में कारिका नाम से रची गई है।
२. आलोचना यह अज्ञातकर्तृक है। इसमें १७५ श्लोक हैं। इस पर एक टीका ग्रन्थ भी लिखा गया है।
३. आलोचना यह कृति गणधरगौतमस्वामी रचित मानी गई है। इसे दैवसिक प्रतिक्रमण विधि भी कहते हैं ।
इस पर पं. प्रभचन्द्र ने टीका लिखी है। उक्त तीनों रचनाएँ आलोचनाविधि से सम्बन्धित प्रतीत होती हैं।
छेदशास्त्र
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इसका दूसरा नाम 'छेदनवति' भी है, क्योंकि इसमें नवति ६० गाथाये हैं लेकिन मुद्रित ग्रन्थ ६४ गाथाओं में है। यह कृति प्राकृत पद्य में है। इसके साथ एक छोटी सी वृत्ति भी है परन्तु इससे न तो मूलग्रन्थ के कर्त्ता का नाम ज्ञात हो सका है और न वृत्ति के कर्त्ता का नाम ही । ऐसी स्थिति में इसके रचनाकाल का निश्चय करना और भी असम्भव है ।
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इसकी संस्कृतछाया पं. पन्नालाल सोनी द्वारा लिखी गई है। प्रस्तुत कृति में साधुओं के मूलगुण और उत्तरगुण में लगने वाले दोषों के प्रायश्चित्त विधान की चर्चा है। यह बात ग्रन्थ के मंगलाचरण से स्पष्ट होती है। जैसा कि ग्रन्थ के प्रारम्भ में पाँच गुरुओं एवं गणधर देवों को नमस्कार करके साधुओं के शोधनस्थानों को कहने की प्रतिज्ञा की गई है। उसके बाद प्रायश्चित्त के पर्यायवाची और प्रायश्चित्त योग्य तप का उल्लेख किया है। मुख्यतया इस ग्रन्थ में पाँच महाव्रत, छठा रात्रिभोजनव्रत, पाँच समिति, इन्द्रियनिरोध, आवश्यकशुद्धि, लोच, अचेलक, दन्तधावन, प्रतिक्रमण, चूलिका और साध्वियों के कुछ विशेष प्रायश्चित्त कहे गये हैं । अन्त में तीन गाथाओं की प्रशस्ति दी गई है।
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जिनरत्नकोश पृ. ३४
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यह कृति 'प्रायश्चित्तसंग्रह' नामक ग्रन्थ में संकलित है, इसका प्रकाशन नाथुरामप्रेमी माणिकचन्द्र- जैनग्रन्थमाला, हीराबाग, मुंबई नं. ४, वि.सं. १६७८ में हुआ है।
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