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'योग' से 'महायोग' के 'संयोग' को प्रणाम
'योग' जैन परंपरा का साधना–पथ है जैनदर्शन में मन-वचन-काया के संयम की साधना 'त्रिकरण योग' कहलाती है. 'तीन गुप्ति' और 'पांच समिति' इसके व्यावहारिक स्वरूप है. यहीं से योग जन्म लेता है. इसीलिए इनको प्रवचन माताएं' कहते है. ____मां, जन्मदात्री है हमारी तीन गुप्ति और पांच समिति जन्मदात्री है योग की, निर्वाण की संसार में हमारे लिये दो ही विकल्प है. एकः योग, दूसराः भोग योग उन्नति है, भोग अवनति है.
जब योग के रूप में अध्यात्म की साधना नहीं होती तो भोग के रूप में आत्म-पतन का पथ तो प्रशस्त हो ही जाता है. इसीलिए योग जीवन के लिये अनिवार्य है. ___जैन विचारधारा में योग के दो स्वरूप है. एकः ज्ञानयोग, दूसराः क्रियायोग. दोनों एक-दूसरे के परस्पर पूरक है. इसीलिए ये दो होते हुए भी एक है।
इनको अलग-अलग समझ तो सकते हैं, पर अलग-अलग अपना नहीं सकते । क्रम में ज्ञान पहले हैं और क्रिया बाद में, लेकिन ज्ञानयोग के बिना क्रियायोग कसरत बन जाता है और क्रियायोग के बगैर ज्ञानयोग अधूरा रह जाता है ।
ज्ञान चक्षुवान् है, किन्तु पैरों से विकल है. क्रिया अंध है, लेकिन पैरों से सक्षम है. दोनों का मिलन ही साधना है. सम्यग्दर्शन की आधारशीला इन दोनों योगों के संयोग को आत्म-कल्याणकारी बनाती है.
जैन परंपरा में दोनों योगों पर खूब काम हुआ है, लेकिन ज्ञानयोग जितना प्रकाश में आया है, उतना क्रियायोग नहीं आ पाया
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