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है, यही वजह है कि क्रियायोग के बारे में जनमानस में अनेक भ्रांतियां भी हैं और अरूचि भी.वैसे, अध्यात्म की प्रारंभिक साधना में विधि-विधान के रूप में क्रियायोग बहुत महत्त्वपूर्ण है. बालक ज्यों खिलौनों के सहारे चलना सीखते हैं. त्यों जैन साहितय में परिभाषित 'बालजीव' क्रियायोग से ही साधना-पथ पर आगे बढ़ पाते हैं.
ज्ञानयोग कठिन है. वह श्रमसाध्य है. वह ज्ञानावरणीय कर्मों के क्षयोपशम के अधीन है. हर किसी की जिन्दगी में ज्ञानसाधना के पुष्प भव्यता से नहीं खिलते है.
आत्म-साधना के पथ पर काफी आगे बढ़ने के बाद महान योगी-पुरुषों के जीवन में आत्म अनुभूति के ऐसे अमूल्य अवसर आते हैं, जब क्रियायोग के विधि-विधान गौण बन जाते हैं और ज्ञान की 'योगदृष्टि' प्रधान हो जाती है. लेकिन यह असामान्य उपलब्धि है. आत्म-अनुभूति का यह विषय बालजीवों की समझ से बहुधा परे है ।
अतः आत्म-साधना के परम शिखर के स्पर्श से पूर्व सम्यग्ज्ञान के आलोक में विधि-विधानों के द्वारा होता क्रियायोग ही श्रेयष्कर है, आत्मउत्कर्ष का राजमार्ग है.
खरतरगच्छीय परंपरा के स्वनामधन्य महान आचार्य श्री जिनप्रभसूरिजी ने 'विधिमार्गप्रपा तथा वर्धमानसूरिजी ने आचार दिनकर में ऐतिहासिक ग्रन्थों की रचना कर धार्मिक क्रियाओं और विधि-विधानों को कालजयी बनाने का महत्तम कार्य किया है. जैन साहित्य और परंपरा के संदर्भो को लेकर अस्तित्व में आयी पूज्यवरों की यह अमर कृति बालजीवों और योग-साधकों के लिये प्रकाश-स्तम्भ' है ।
आदरणीया मातृहृदया प्रवर्तिनी साध्वी श्री सज्जनश्रीजी महाराज के ज्ञानयोग व क्रियायोग की साधना के आलोक में पली-बढ़ी ज्ञानपिपासु होनहार साध्वी श्री सौम्यगुणाश्रीजी महाराज ने 'विधिमार्गप्रपा' पर 'शोध-प्रबंध लिख कर श्रद्धेय आचार्य श्री जिनप्रभसूरिजी महाराज के विगत काल के 'श्रम' को 'संगीत' में बदल दिया है।
___ गौरवशाली संत' के 'गौरवशाली ग्रन्थ' को लेकर 'सौम्यगुणाजी भी 'गौरवान्वित हुई है. महान और ऐतिहासिक कार्यों का संपादन हर एक के नसीब में नहीं होता. ज्ञानावरणीय कर्मों का तीव्र क्षयोपशम ही ऐसे सत्कार्यों का आधार बनता
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