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जैन विधि-विधान सम्बन्धी साहित्य का बृहद् इतिहास/637
स्तोत्रादि का वर्णन है। सप्तम खण्ड में भी कुछ महत्त्वपूर्ण स्तोत्रादि संकलित है। अष्टम खण्ड में तीर्थंकर भगवन्तों की आरती जाप्यमंत्र, सूतकविधि एवं प्रमुख जैन पर्व आदि का वर्णन किया गया है। इस संग्रह के तेरह संस्करण निकल चुके हैं। जैन विधि-विधान
___ यह पुस्तक गुजराती लिपि में निबद्ध है। इसका आलेखन पं. कनकसुंदर जी ने किया है। इस कृति का अवलोकन करने से यह प्रतीत होता है कि इसमें निर्दिष्ट विषयवस्तु का संकलन जैन पाठशाला, शिविर और प्राथमिक भूमिका के लोगों की अपेक्षा को ध्यान में रखकर किया गया है।
इस कृति की कई विशिष्टताएँ हैं। इसमें प्रायः विधि-विधान सचित्र दिये गये हैं; जैसे 'सामायिक ग्रहण करने की विधि' से सम्बन्धित पंचांगप्रणिपातमुद्रा, अर्धावनत मुद्रा आदि दी गई हैं। 'मन्दिर-दर्शन एवं पूजन-विधि' से सम्बन्धित प्रक्षालअभिषेक पूजा, तिलक पूजा, मुखकोश बांधने की विधि, चैत्यवंदन में बैठने की मुद्रा, कायोत्सर्ग, मुद्रा, जिन मन्दिर में प्रवेश करने की विधि आदि के चित्र दिये गये हैं। इसमें मूलसूत्रों के साथ-साथ उनका भावार्थ, स्पष्टार्थ तथा आवश्यक कथाएँ भी वर्णित हैं।
मुख्यतः गुरुवंदन, सामायिक, जिनदर्शन और जिनपूजन की विधियाँ निरूपित की गई हैं इसके साथ ही जिनभक्ति से होने वाले महान लाभ, मंत्रग्रहणविधि, मंत्र स्मरणविधि, गुरुवंदन सामायिक से होने वाले लाभ एवं बाईस अभक्ष्यो की चर्चा के साथ ही फटाका, टी.वी. के दुष्परिणामों की भी चर्चा की गई है। तंदुलवेयालियपइण्णयं (तंदुलवैचारिक प्रकीर्णक)
__ 'तंदलवैचारिक' नामक यह प्रकीर्णक प्राकृत गद्य-पद्य मिश्रित भाषा में निबद्ध है। इसमें कुल १७७ गाथाएँ है। इस ग्रन्थ के लेखक के सम्बन्ध में कहीं पर भी कोई निर्देश प्राप्त नहीं होता है। डॉ. सागरमल जैन के अनुसार उन्हें जो संकेत मिले हैं उसके आधार पर उन्होंने ईसा ५ वीं शताब्दी या उसके पूर्व के किसी स्थविर आचार्य की कृति है, ऐसा माना है। इस प्रकार उनकी दृष्टि में कृति
' यह पुस्तक 'पारसपूजा सेन्टर अंधेरी' (ईस्ट) में उपलब्ध है। २ (क) यह रचना मुनि पुण्य विजय जी द्वारा संपादित है।
(ख) यह कृति हिन्दी भाषान्तर के साथ सन् १६६१ में, 'आगम अहिंसा समता एवं प्राकृत संस्थान, उदयपुर' से प्रकाशित हो चुकी है। ३ देखें, तंदुलवैचारिक भूमिका पृ. ६
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