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जैन विधि-विधान सम्बन्धी साहित्य का बृहद् इतिहास/443
शिष्य फ्यचंद्रसूरि द्वारा रचित है। पंचम दीपकपूजा- मुनि वीर द्वारा रची गई है। षष्टम अक्षतपूजा- मुनि सागरचंद्र ने लिखी है। सप्तम नैवैद्य पूजा- मुनि विमल चारित्र ने लिखी है। अष्टम फलपूजा- समरचंद्रसूरि द्वारा विरचित है।
इसके अन्त में उपयोगी भजनादि का संकलन है। यह पुस्तक प्रवत्तिर्नी ऊँकार श्री जी म. की प्रेरणा से 'श्री नवीनभाई गांगजी नवावास' (कच्छ) से प्रकाशित हुई है। चारित्रशुद्धिविधान
यह अज्ञातकर्तृक है। इस सम्बन्ध में कोई जानकारी प्राप्त नहीं हुई है।' चौबीसतीर्थकर पूजनविधान
यह दिगम्बर रचना हिन्दी पद्य में हैं किन्तु इसमें संस्कृत की अधिकता है। यह रचना कविवर वृन्दावनदास की है। जैसा कि नाम से ही सूचित होता है, इसमें वर्तमान अवसर्पिणी के चौबीस तीर्थंकरों की पृथक्-पृथक् पूजा विधि दी गई हैं। चौदहसौबावनगणधरवलयविधान
यह दिगम्बर कृति हिन्दी पद्य में है। इसकी मूल रचना शुभचन्द्राचार्य द्वारा संस्कृत भाषा में की गई है। उसका हिन्दी भाषानुवाद कुन्थुसागरजी ने किया है। इस नाम की तीन रचनाएँ हैं वे क्रमशः पद्मनन्दी, सोमसेन व शुभचन्द्र द्वारा लिखी गई हैं। ये तीनों रचनाएँ संस्कृत में हैं और अभी अनुपलब्ध हैं। यह विधान अन्य रचनाओं की अपेक्षा बृहद् है।
__ यह स्मरण रहें कि प्रत्येक तीर्थकर के अलग-अलग गणधर होते हैं। ऐसा नियम है कि तीर्थकर की मूलवाणी को सूत्र रूप में गूंथने का कार्य गणधर मुनि करते हैं। गणधर अनेक ऋद्धियों एवं चार ज्ञान के धारक होते हैं, तद्भवमोक्षगामी होते हैं। यह रचना गणधरपूजा से सम्बन्धित है। इसमें वर्तमान चौबीसी के प्रत्येक तीर्थंकर के गणधरों की पृथक्-पृथक् पूजा विधि उल्लिखित हुई हैं। चौबीस तीर्थकर के कुल १४५२ गणधर हुये हैं। यह विधान आराधना की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण प्रतीत होता है। छयानवे क्षेत्रपालमंडलपूजाविधान
यह दिगम्बर कृति गणधराचार्य कुन्थुसागरजी द्वारा लिखित एवं सम्पादित
' जिनरत्नकोश पृ. १२२ २ प्रका. अखिल भारतीय जैन युवा फैडरेशन ए-४, बापूनगर, जयपुर २ प्रका. चिन्तामणि ग्रन्थमाला शोध प्रकाशन अतिशय क्षेत्र, रोहतक (हरियाणा) सन् १९६६
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