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442 / मंत्र, तंत्र, विद्या सम्बन्धी साहित्य
इसको रचना पद्य में रचा है।
दिगम्बर जैन समाज में कर्मनिर्झरव्रत के तेले का काफी महत्त्व रहा हुआ है। इसे झर का तेला अथवा जलहरव्रत या कर्मनिर्झरव्रत आदि कई नामों से पुकारा जाता है। यह व्रत भाद्रपद शुक्ला १२, १३, १४ तीन दिन किया जाता है और तीन वर्ष तक किया जाता है। इस व्रत में निगोदादि बारह मिथ्या स्थानों का नाश, बारह प्रकार के तप एवं बारह भावना इन तीन का चिन्तन किया जाता है। इन्हीं के अनुरूप मंडल बनाया जाता है
गणधरवलयपूजा
इस नाम की चार रचनाएँ मिलती हैं। एक रचना मुनि शुभचन्द्र की है। दूसरी रचना मुनि श्रुतसागर की है। तीसरी सकलकीर्ति की है और चौथी अज्ञातकर्तृक है।
यहाँ गणधरवलयपूजा से तात्पर्य है- आचार्यपद के समय नूतनसूरि को सूरिमन्त्र की साधना के लिए जो पट्ट दिया जाता है उसकी विधिपूर्वक
आराधना करना।
गणधरवलय ऋषिमंडल विधान
यह दिगम्बर रचना हिन्दी पद्य में है। इसके रचयिता राजमल पवैया है। यह विधान अपने आप में महत्त्व का है। इस विधान में वर्तमान चौबीसी के वृषभसेनादिक गणधरों की भावपूर्ण अर्चना के साथ-साथ उनके समय के सर्व सर्वज्ञ केवली, पूर्वधारी, शिक्षक, अवधिज्ञानी, मनः पर्यवज्ञानी, वैक्रियऋद्धिधारी और वादी मुनियों की स्तवना पूर्वक पूजा की जाती है। इसमें इस पूजा विधि का वर्णन हुआ है।
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सम्यक्
गुरु अष्टप्रकारी पूजा
यह कृति गुजराती पद्य में रची गई है। इसमें नागपुरीय बृहत्तपागच्छ के क्रियोद्धारक श्री पार्श्वचन्द्रसूरि की अष्टप्रकारी पूजा एवं उसकी विधि कही गई है। इस कृति का अपना विशिष्ट महत्त्व है। इस कृति में रचित पूजाएँ किसी एक की बनाई हुई नहीं है अपितु प्रत्येक पूजा भिन्न-भिन्न साधुओं के द्वारा निर्मित की गई है। प्रथम जलपूजा - मुनि जसचंद्र कृत है। द्वितीय चंदनपूजा - मुनि पूरणचंद्र के द्वारा रची गई है। तृतीय पुष्पपूजा- मुनि आंनदधन ने रची है। चतुर्थ धूप पूजा - जयचंद्रसूरि के
9 जिनरत्नकोश
पृ. १०२
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प्रका. भरतकुमार पवैया, तारादेवी पवैया ग्रंथमाला, ४४, इब्राहिमपुरा, भोपाल
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