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जैन विधि-विधान सम्बन्धी साहित्य का बृहद् इतिहास/441
हिन्दी की पद्यमय कृति में ऋषिमण्डल पूजाविधान का स्वरूप इस प्रकार उपलब्ध होता है - इसमें सर्वप्रथम पूजा रचना का उद्देश्य बताया गया है फिर यजमान याचक का लक्षण, मंडप का लक्षण, मंडल रचना विधि, सकलीकरण विधि, यंत्र का प्रभाव, ऋषिमंडल विधान का फल, यंत्र को पास रखने का फल, यंत्र आराधना विधि इत्यादि विषयों पर प्रकाश डाला गया है।
तत्पश्चात् ऋषिमण्डल पूजा के सम्बन्ध में क्रमशः प्रधान बीजाक्षर ही की पूजा, प्रत्येक का नाम लेकर चौबीस तीर्थंकरों की पूजा, शब्दब्रह्म की पूजा, अरिहंतादि पंचपरमेष्ठी की पूजा, रत्नत्रय की पूजा, ज्ञान, बल, तप, रस आदि नौ प्रकार की ऋद्धियों के धारक मुनियों की पूजा, चतुर्निकाय देवेन्द्र की पूजा और
श्री आदि देवियों की पूजा करने का विधान निर्दिष्ट किया है। इस प्रकार पूर्वोक्त निर्देशानुसार ऋषिमण्डल पूजा का विधान जानना चाहिए। कर्मदहनपूजाविधि
इस पर चार कृतियाँ रची गई हैं। पहली कृति मुनि रत्नानन्द की है। दूसरी रचना चन्द्रकीर्ति की है। तीसरी मुनि शुभचन्द्र की है और चौथी रचना अज्ञातकर्तृक है। एक कृति विद्याभूषण की भी प्राप्त होती है।' मुनि सोमदत्त ने 'कर्मदहनव्रतोद्यापन' नामक कृति की रचना की है। इसमें कहा गया है कि कर्मदहनव्रत की पूर्णाहुति होने पर उद्यापन करना चाहिए। कल्याणमन्दिरपूजा
इसमें कल्याणमन्दिर स्तोत्र की पूजा विधि बतायी गई है। इसकी रचना विजयकीर्ति ने की है। कल्याणमन्दिरव्रतोद्यापन
___ इस नाम की दो कृतियाँ हैं- एक देवेन्द्रकीर्ति की है और दूसरी सुरेन्द्रकीर्ति की है। दोनों गुरुभ्राता प्रतीत होते हैं। कर्मनिर्झरव्रतपूजा
यह पूजा हिन्दी पद्य में है। मूल पूजा संस्कृत भाषा में रची गई थी, किन्तु वह संशोधित न होने के कारण उसी के आधार पर गुलाबचन्द जैन ने
'जिनरत्नकोश प. ७१ २ वही. पृ. ८० ३ यह पुस्तक वी.सं. २५१६ में, सरल जैन ग्रन्थ भण्डार, जवाहरगंज, जबलपुर से प्रकाशित है। यह १० वाँ संस्करण है।
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