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________________ 434/मंत्र, तंत्र, विद्या सम्बन्धी साहित्य ग्यारह कला दूर है। दीपविजय रचित जलपूजा की ढाल में कहा गया है कि श्री सिद्धाचलतीर्थ से अष्टापद तीर्थ एक लाख पंचासी हजार कोश दूर है। भले ही यह तीर्थ वर्तमान में हमको प्रत्यक्ष न हों, किन्तु इसके उल्लेख और इससे सम्बन्धित कई घटनाएँ शास्त्रों में देखने-सुनने को मिलती हैं। ग्रन्थों में उल्लेख हैं कि भरतचक्रवर्ती ने ऋषभदेव की निर्वाणभूमि (अष्टापद तीर्थ) पर चौबीस बिंब युक्त सिंहनिषद्या नाम का जिनमंदिर बनवाया था, वह ऊँचाई में तीन कोश और विस्तार में चार कोश का था। श्री गौतमगणधर ने अष्टापद पर्वत की यात्रा कर वहाँ 'जगचिंतामणी' चैत्यवंदन की रचना की तथा पन्द्रह सौ तीन तापसों को प्रतिबोध दिया। 'सिद्धाणंबुद्धाणंसूत्र की अन्तिम गाथा भी इस तीर्थ की सिद्धि में प्रमाणभूत है। यह ज्ञातव्य रहें कि अष्टापद तीर्थ की रक्षा के लिए भरत चक्रवर्ती ने योजन-योजन प्रमाणवाले आठ पगथिये दंडरत्न से निर्मित करवाये, उस कारण इस तीर्थ का गुण निष्पन्न नाम अष्टापद है। आचार्य हेमचंद्र रचित श्री ऋषभदेव के चरित्र में इस तीर्थ को 'आठ आपदाएँ दूर करने वाला' कहा गया है और इस प्रसंग में वज्रस्वामी, कंडरीक, पुंडरीक, तिर्यग्नन्द, भवदेव, प्रतिवासुदेव रावण आदि के कथानक कहे गये हैं। उपर्युक्त विवरण से यह ज्ञात होता है कि यह कृति अष्टापद तीर्थ और उसकी महिमा से सम्बन्धित है। साथ ही अष्टप्रकारी पूजा के साथ १४ ढालों में रचित है, जिसमें अष्टापदतीर्थ की प्राचीनता आदि का सुन्दर विवेचन हुआ है। अष्टादश-अभिषेक विधि ___ यह कृति संस्कृत पद्य एवं गुजराती गद्य मिश्रित भाषा में निबद्ध है।' इसका संकलन जशवंतलाल सांकलचंद शाह (विधिकार) ने किया है। जैन परम्परा के मूर्तिपूजक सम्प्रदाय में प्रस्तुत विधान का प्रचलन उत्तरोत्तर बढ़ता जा रहा है। वस्तुतः यह विधान नवीन प्राचीन प्रतिमाओं की अशुद्धि या आशातनादि का निवारण करने के प्रयोजन से किया जाता है इस कृत्य को सम्पन्न करने हेतु स्वर्ण, पंचरत्न, कषायचूर्ण, मंगलमृत्तिका, पंचामृत, पुष्प, चंदन, कपूर आदि पृथक्-पृथक् श्रेष्ठ वस्तुओं द्वारा १८ प्रकार का स्नात्र जल तैयार किया जाता है। साक्षात् तीर्थकर परमात्मा के जन्मकल्याणक महोत्सव पर ६४ इन्द्र एवं अगणित देव-देवीयाँ अपने परिवार के साथ मेरुपर्वत के ऊपर भव्यातिभव्य ' यह प्रकाशन कहान पब्लिकेशन्स, अलीसब्रीज, पो.ओ. के पास, अहमदाबाद से वि.सं. २०५२ में हुआ है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001679
Book TitleJain Vidhi Vidhan Sambandhi Sahitya ka Bruhad Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2006
Total Pages704
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Ritual, History, Literature, & Vidhi
File Size11 MB
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