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जैन विधि-विधान सम्बन्धी साहित्य का बृहद् इतिहास/117
हैं जो मुनियों के लिए आवश्यक आचारविधि रूप होते हैं।
इस ग्रन्थ के अन्त में प्रशस्ति रूप कोई सामग्री उपलब्ध नहीं होती है किन्तु मूलाचार का एक अन्य संस्करण जो ‘दिगम्बर जैन सरस्वती भण्डार धर्मपुरा दिल्ली' से प्रकाशित हुआ है उस प्रति के अन्त में ७० श्लोकों की एक प्रशक्ति भी मुद्रित है वह मेधावी पण्डित द्वारा रची गई है और वह प्रशस्ति हिन्दी अनुवाद के साथ प्रस्तुत ग्रन्थ के अन्त में भी उल्लिखित है।
___ अब, प्रस्तुत कृति के बारह अधिकारों का संक्षेप वर्णन निम्नलिखित हैं१. मूलगुणाधिकार- इस अधिकार में अट्ठाईस मूलगुणों के नाम बतलाकर, प्रत्येक का पृथक्-पृथक् लक्षण बताया गया है। अनन्तर इन मूलगुणों का पालन करने से क्या फल प्राप्त होता है यह भी निर्दिष्ट है। २. बृहत्प्रत्याख्या-संस्तरस्तवाधिकार- इस अधिकार में पापयोग के प्रत्याख्यान (त्याग करने) का कथन किया है इसके साथ ही आलोचना की विधि, आलोचना के अनन्तर क्षमापन की विधि, बाह्याभ्यंतर उपधि त्याग की विधि का भी उल्लेख हुआ है। ३. संक्षेप-प्रत्याख्यानाधिकार- इसमें अतिसंक्षेप में पापों के त्याग की उपदेशविधि कही गई है। दस प्रकार के मुण्डन का भी अच्छा वर्णन हुआ है। ४. समाचाराधिकार- इस अधिकार में मुनियों की अहोरात्रचर्याविधि का वर्णन है। इसके औधिक और पद-विभागी ऐसे दो भेद किये गये हैं। साथ ही मनियों के एकलविहारी होने का निषेध भी किया गया है। साधु को किस प्रकार के साधु-संघ में निवास करना चहिए ? आर्यिकाओं का गणधर (आचार्य) कैसा होना चाहिए ? आर्यिकाओं की चर्यादि किस प्रकार होनी चाहिए ? इस पर भी सम्यक् प्रकाश डाला गया है। ५. पंचाचाराधिकार- इसमें दर्शनाचार, ज्ञानाचार, चारित्राचार, तपाचार और वीर्याचार इन पाँच आचारों का बहुत ही सुन्दर विवेचन है। ६. पिंडशुद्धिअधिकार- इस अधिकार में उद्गम के सोलह, उत्पादन के सोलह, एषणा के दस, इस प्रकार साधु की आहार विधि में लगने वाले ४२ दोषों का विवेचन हुआ है। पुनः साधु की आहार विधि में लगने वाले संयोजना आदि चार दोष भी बताये गये हैं। इसके साथ ही आहार ग्रहण करने के कारण, आहार त्याग के कारण, मुनि का आहार कैसा हो, साधु के भोजन का परिमाण, आहार के योग्य काल, साधु की चर्या विधि, बत्तीस अन्तराय, इत्यादि विषय भी चर्चित
हुए हैं।
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