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६. नमस्कारभावना द्वार इस अन्तिम द्वार में यह विवेचित हैं कि आराधक को स्वसाधना की सफलता के लिए पंचपरमेष्ठियों को भावपूर्वक वन्दन करना चाहिए। साथ ही नमस्कार मन्त्र का महात्म्य बताया गया है।
जैन विधि-विधान सम्बन्धी साहित्य का बृहद् इतिहास / 271
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आतुरप्रत्याख्यान ( प्रथम )
आतुरप्रत्याख्यान नाम से तीन प्रकीर्णक उपलब्ध होते हैं। इनमें से एक वीरभद्राचार्य (१० वीं शताब्दी) रचित है। नन्दीसूत्रचूर्णि, हरिभद्रसूरि की नन्दीवृत्ति और पाक्षिकवृत्ति में इस प्रकीर्णक का परिचय इस प्रकार दिया गया है- यदि कोई मुनि दारुण या असाध्य बीमारी से पीडित हो तो गीतार्थ पुरुष प्रतिदिन उस असाध्य बीमारी में आहार की मात्रा घटाते हुए प्रत्याख्यान करवायें, जब वह व्यक्ति धीरे-धीरे आहार के विषय में पूर्णतया अनासक्त हो जाये तब उसे भवचरिम प्रत्याख्यान करवायें अर्थात् जीवन पर्यन्त आहार पानी का त्याग करवायें। यह निरूपण जिस अध्ययन में हो उसे आतुर प्रत्याख्यान कहते हैं।
उपर्युक्त परिभाषा से सिद्ध होता है कि आतुरप्रत्याख्यान प्रकीर्णक भवचरिम प्रत्याख्यान (अणगारी संथारा ) ग्रहण करने की विधि से सम्बन्धित है। इसमें मुख्य रूप से क्षमापना, दुष्कृतगर्हा, सुकृत अनुमोदना, एवं एकत्व भावना इत्यादि पूर्वक संथारा ग्रहण करने की विधि का संकेत दिया गया है।
प्रस्तुत प्रकीर्णक की रचना गद्य-पद्य मिश्रित है। इसमें सूत्र और गाथाओं की मिली जुली संख्या तीस है। इसमें प्रथम पाँच गाथाओं में क्रमशः पंचपरमेष्ठी की स्तुति करते हुए पाप - त्याग करने की प्रतिज्ञा की गई है। इसके पश्चात् अरिहंत, सिद्ध, प्रवचन, आचार्य, गणधर या चतुर्विध संघ की आशातना की हो, उसके लिए इन सभी से क्षमापना करने का निर्देश है। फिर गाथा ११ और १२ में शरीरादि के ममत्व त्याग की बात कही गई हैं। गाथा १३ और १४ में सागार एवं निरागार प्रत्याख्यान का स्वरूप बताया गया है। इसके पश्चात् संसार में अनन्त काल तक परिभ्रमण करते हुए विविध जातीय स्थावर जीवों, विकलेन्द्रिय जीवों एवं चार गति के जीवों को मन-वचन-काया से कष्ट पहुँचाया हों तो क्षमापना करता हूँ- ऐसा कहा गया है। अन्तिम तीन गाथाएँ आत्मशिक्षा के रूप में हैं। इनमें एकत्व भाव द्वारा आत्मा को अनुशासित करने का निर्देश है तथा सभी बहिर्भावों के त्याग का उपदेश है।
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9 पइण्णयसुत्ताई, भा. १, गा. ७७-८५
आउरपच्चक्खाणं पइण्णयं पइण्णयसुत्ताइं, भा. १, पृ. १६०-१६३
३ आउरपच्चक्खाणं पइण्णयं - पइण्णयसुत्ताइं भा. १, गाथा २८-३०
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