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जैन विधि-विधान सम्बन्धी साहित्य का बृहद् इतिहास/557
मायाबीजकल्प
यह प्रति श्री सोहनलाल देवोत के निजी संग्रह में उपलब्ध है। उनकी सचना के अनुसार यह कृति जिनप्रभसूरि द्वारा संस्कृत गद्य में रचित है। इस कृति में मायाबीज 'ही' वर्ण को सिद्ध करने संबंधी विधि-विधान विवेचित हैं। इसमें सर्वप्रथम इसकी साधना के लिए अपेक्षित शुक्लपक्ष की पूर्णातिथि का तथा साधना के प्रारम्भिक विधि-विधानों का उल्लेख किया गया है। तत्पश्चात् उसमें यह बताया गया है कि 'ऊँ ह्रीं नमः' इस मूल मन्त्र का एक लक्ष जप किस प्रकार करना चाहिए? इसमें मूल मन्त्र के साथ-साथ पल्लवों को लगाकर शान्ति, पुष्टि, वशीकरण, विद्वेषण, उच्चाटन संबंधी तांत्रिक विधि-विधानों का भी निरूपण किया गया है। टीका- इस मूल कृति के ऊपर जिनप्रभसूरि ने एक विवरण भी लिखा है। उसमें कुछ भाग संस्कृत में है तो कुछ मरूगुर्जर में है। यन्त्रराज
इसकी रचना मदनसूरि के शिष्य महेन्द्रसूरि ने की है। यह रचना शक् सं. १२६२ में हुई है। इसमें १७८ पद्य हैं।इसे यन्त्रराजागम और सक्यन्त्रराजागम' भी कहते हैं। यह कृति पाँच अध्यायों में विभक्त है। उन अध्यायों के शीर्षक नाम ये हैं- १. गणित २. यन्त्रघटना ३. यन्त्र रचना ४. यन्त्रशोधन और ५. यन्त्रविचारणा।
इसके पहले अध्याय में ज्या, क्रान्ति, सौम्य, याम्य आदि यन्त्रों का निरूपण है। दूसरे अध्याय में यन्त्र की रचना के विषय में विचार किया गया है। तीसरे में यन्त्र के प्रकार और साधनों का उल्लेख हुआ है। चौथे में यन्त्र के शोधन का विषय निरूपित है। पाँचवें में ग्रह एवं नक्षत्रों के अंश, शंकु की छाया तथा भौमादि के उदय और अस्त का वर्णन है। संक्षेपतः यह कृति यन्त्र विषयक विधि-विधान से सम्बन्धित है। टीका- इस पर मलयेन्दुसूरि ने टीका रची है। उसमें यन्त्र सम्बन्धी विविध कोष्टक आते हैं।
' यह कृति मलयेन्दुसूरि की टीका के साथ निर्णयसागर मुद्रणालय ने सन् १६३६ में प्रकाशित की है। २ इसका विशेष विवरण 'जैन संस्कृत साहित्यनो इतिहास' (ख. १) के उपोद्घात (पृ. ७६-७) में तथा 'यन्त्रराज का रेखादर्शन' नामक लेख में दिया गया है। यह लेख जैनधर्मप्रकाश (पृ. ७५ अंक ५-६) में प्रकाशित हुआ है। उद्धृत- जैन साहित्य का बृहद् इतिहास- भा. ४
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