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जैन विधि-विधान सम्बन्धी साहित्य का बृहद् इतिहास/639
और मुडे हुए नहीं हो वैसी चौडाई का होना चाहिए अथवा दो वर्ष के हाथी के बच्चे के पूंछ के दो बाल जो टूटे हुए नहीं हो, उस आकार का घड़ी का छिद्र होना चाहिए अथवा चार मासे सोने की एक गोल और कठोर सुई, जिसका परिमाण चार अंगुल का हो, उसके समान घड़ी का छिद्र करना चाहिए। उस घड़ी में पानी का परिमाण दो आढ़क होना चाहिए। पुनः उस पानी को कपड़े के द्वारा छानकर प्रयोग करना चाहिए। इस प्रकार काल परिमाण जानने संबंधी घटिका यन्त्र विधान की विधि जाननी चाहिए। उपरोक्त वर्णन से स्पष्ट होता है कि प्रस्तुत कृति में भले ही दो विधान प्रतिपादित है परन्तु वे गूढ़ एवं महत्त्वपूर्ण है। दश-भक्ति
दिगम्बर परम्परा में 'भक्ति' के नाम से प्रसिद्ध दो कृतियाँ मिलती हैं - १. जैन शौरसेनी में रचित और २. संस्कृत में रचित। प्रथम' कृति के प्रणेता कुन्द- कुन्दाचार्य है और दूसरी के पूज्यपाद है। परन्तु दोनों कृतियों में कितनी-कितनी भक्तियों हैं ? स्पष्ट इसका उल्लेख नहीं मिलता है।
यहाँ यह जानने योग्य हैं कि दिगम्बर आम्नाय में भक्तियों का महत्त्वपूर्ण स्थान है। प्रत्येक विधि-विधान भक्तिपाठों द्वारा ही सम्पन्न किये जाते हैं यानि भक्तिपाठ विधि-विधान का आवश्यक अंग है। उन भक्तियों का संक्षिप्त वर्णन इस प्रकार है - १. सिद्धभक्ति - इस भक्ति में कहाँ-कहाँ से और किस-किस रीति से जीव सिद्ध हुए हैं यह कहकर उन्हें वन्दन किया गया है। अन्त में आलोचना का विषय आता है। २. श्रुतभक्ति - इसमें बारह अंगों के नाम देकर दृष्टिवाद के भेद एवं प्रभेदों के विषय में निर्देश किया गया है। ३. चारित्रभक्ति - इसमें चारित्र के सामायिक आदि पाँच प्रकार तथा साधुओं के मूल एवं उत्तर गुणों का वर्णन है। ४. अनगारभक्ति - इस कृति में गुणधारी अनगारों का संकीर्तन है। साथ ही उनकी तपश्चर्या एवं भिन्न-भिन्न प्रकार की लब्धियों का यहाँ उल्लेख किया गया है। ५. आचार्यभक्ति - इसमें आदर्श आचार्य का स्वरूप बतलाया गया है। उन्हें पृथ्वीसम क्षमावान्, नीरवत् निर्मल, वायु सम निःसंग आदि उपमाओं से उपमित भी किया है।
'कुन्दकुन्दाचार्य रचित भक्तियाँ प्रभाचन्द की क्रियाकल्प नामक संस्कृतटीका एवं पं. जिनदास के मराठी अनुवाद के साथ सोलापुर से सन् १६२१ में प्रकाशित हुई है।
उपर्युक्त दोनों प्रकार की भक्तियाँ 'दशभक्त्यादिसंग्रह' में संस्कृत-हिन्दी अन्वय और भावार्थ के साथ 'अखिल विश्व जैन मिशन' द्वारा सलाल (साबरकांठा) से वि.सं. २४८१ में प्रकाशित हुई है।
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