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________________ 664/विविध विषय सम्बन्धी साहित्य 'वीरस्तव' में ग्रन्थकर्ता ने कहीं पर भी अपने नाम का संकेत नहीं किया है। इसके पीछे ग्रन्थकार की यह भावना रही होगी कि महावीर के विभिन्न नामों से उनकी मैं जो स्तुति कर रहा हूँ वह सर्वप्रथम मेरे द्वारा तो नहीं की गयी है। अनेक पूर्वाचार्यों एवं ग्रन्थकारों द्वारा इन नामों से महावीर की स्तुति की जा चुकी है। इस स्थिति में मैं ग्रन्थ का कर्ता कैसे हो सकता हूँ? इसमें ग्रन्थकार की विनम्रता एवं प्रामाणिकता सिद्ध होती है। वैसे भी प्राचीन स्तर के आगम ग्रन्थों में कर्ताओं के नामोल्लेख नहीं पाये जाते हैं इस दृष्टि से वीरस्तव प्राचीन स्तर का ग्रन्थ सिद्ध होता है। 'वीरस्तव' का रचनाकाल भी मत वैभिन्य का विषय है। नन्दी एवं पाक्षिक सूत्र में आगमों का जो वर्गीकरण प्राप्त होता है उसमें वीरस्तव का कोई उल्लेख प्राप्त नहीं होता है। प्रस्तुत कृति का सर्वप्रथम उल्लेख 'विधिमार्गप्रपा' नामक ग्रन्थ में प्राप्त होता है इससे यह स्पष्ट है कि वीरस्तव प्रकीर्णक नन्दी एवं पाक्षिकसूत्र के पश्चात् अर्थात् छठी शताब्दी के पश्चात् तथा 'विधिमार्गप्रपा' १४ वीं शताब्दी के पूर्व अस्तित्व में आया है। डॉ. सागरमल जैन' के अनुसार इसका रचनाकाल १० वीं शताब्दी है। वीरस्तव प्रकीर्णक में कुल ४३ गाथाएँ हैं। इन गाथाओं में श्रमण भगवान महावीर के छब्बीस नामों की व्युत्पत्तिपरक स्तुति है। वे छब्बीस नाम ये हैं - १. अरुह, २. अरिहंत, ३. अरहंत, ४. देवनाम, ५. जिन, ६. वीर, ७. परमकारुणिक, ८. सर्वज्ञ, ६. सर्वदर्शी, १०. पारग, ११. त्रिकालज्ञ, १२. नाथ, १३. वीतराग, १४. केवली, १५. त्रिभुवन गुरु, १६. सर्व, १७. त्रिभुवन श्रेष्ठ, १८. भगवन्, १६. तीर्थकर, २०. शकेन्द्रनमस्कृतः २१. जिनेन्द्र, २२. वर्धमान, २३. हरि, २४. महादेव, २५. ब्रह्मा, २६. त्रिकालविज्ञा विषयनिग्रहकुलक यह अज्ञातकर्तृक कृति है। इसमें इन्द्रियों को संयम में रखने की उपदेश विधि कही गई है। टीका - इस पर भालचन्द्र ने वि.सं. १३३७ में १०,००८ श्लोक-परिमाण एक वृत्ति लिखी है। षोडशक-प्रकरण इस कृति के प्रणेता श्री आचार्य हरिभद्र है। उनकी यह कृति संस्कृत ' देखें, वीरस्तव भूमिका पृ. २२ । २ यह ग्रन्थ 'कल्याणकंदली' टीका सहित दो भाों में 'श्री अंधेरी गुजराती जैन संघ, अंधेरी (वेस्ट) मुंबई' से वि.सं. २०५२ में प्रकाशित हुआ है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001679
Book TitleJain Vidhi Vidhan Sambandhi Sahitya ka Bruhad Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2006
Total Pages704
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Ritual, History, Literature, & Vidhi
File Size11 MB
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