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20 / जैन विधि-विधानों का उद्भव और विकास
आदि उपकरणों की प्रतिलेखन विधि, गोचरीगमन विधि, आहारग्रहण - विधि, गोचरीआलोचना विधि, संथारापौरुषी पढ़ने की विधि, चौबीसमांडला विधि आदि प्रमुख हैं। दिगम्बर परम्परा में इनमें से प्रतिक्रमण, आहार ग्रहण आदि विधियाँ ही प्रचलित हैं। उनके यहाँ आवश्यक क्रिया विधानों में भक्तिपाठ करने का प्रचलन विशेष है।
साधु जीवन सम्बन्धी नैमित्तिक क्रियाकलापों में दीक्षा-विधि, लूंचन-विधि, उपस्थापना-विधि, योगवहन ( शास्त्र अध्ययन ) विधि, आचार्य - उपाध्याय - वाचनाचार्यमहत्तरा प्रवर्त्तिनी आदि पदस्थापना - विधि, मृतसाधु के देह-परिष्ठापन की विधि आदि प्रमुख हैं। इनके अतिरिक्त अन्य कुछ विधि-विधान उभयकोटि के हैं जो गृहस्थ और साधु दोनों के द्वारा सम्पन्न किये जाते हैं उनमें तप - विधि (दो सौ से अधिक तप निरूपित हैं), अनशन-विधि, आलोचना-विधि, प्रायश्चित - विधि, तीर्थयात्रा - विधि, मुद्रा-विधि, प्रतिष्ठा - विधि आदि प्रमुख हैं।
इन विधानों के अतिरिक्त जैन श्वेताम्बर परम्परा में पर्यूषण पर्व, नवपद ओली - पर्व, चैत्री पूर्णिमा - पर्व, कार्तिकपूर्णिमा पर्व, चातुर्मासिक-पर्व आदि सामूहिक रूप से मनाये जाने वाले अनुष्ठान हैं। उपधान नामक तप अनुष्ठान भी श्वेताम्बर परम्परा में बहुप्रचलित हैं और वह भी समूह रूप में ही सम्पन्न किया जाता है।
दिगम्बर परम्परा में गृहस्थ एवं साधु दोनों के द्वारा सम्पन्न किये जाने प्रमुख अनुष्ठान या व्रत विधान निम्न है- दशलक्षण व्रत, अष्टामिका-व्रत, द्वारावलोकन-व्रत, जिनमुखावलोकन-व्रत, जिनपूजा - व्रत, गुरुभक्ति एवं शास्त्रभक्तिव्रत, तपांजलि-व्रत, मुक्तावलि - व्रत, कनकावलि - व्रत, एकावलि-व्रत, द्विकावलि - व्रत, रत्नावलि - व्रत, मुकुटसप्तमी - व्रत, सिंहनिष्क्रीडित - व्रत, निर्दोषसप्तमी - व्रत, अनन्त - व्रत, षोडशकारण- व्रत, ज्ञानपच्चीसी - व्रत, चन्दनषष्ठी - व्रत, रोहिणी व्रत, अक्षयनिधि - व्रत, पंचपरमेष्ठी व्रत, सर्वार्थसिद्धी - व्रत, धर्मचक्र - व्रत, नवनिधि-व्रत, कर्मचूर - व्रत, सुखसम्पत्ति-व्रत, इष्टसिद्धिकारकनिःशल्य अष्टमी व्रत आदि। इनके अतिरिक्त दिगम्बर में पंचकल्याणक बिम्ब-प्रतिष्ठा, वेदी - प्रतिष्ठा, सिद्धचक्र-विधान, इन्द्रध्वज - विधान, समवसरण - विधान, ढाईद्वीप - विधान, त्रिलोक-विधान, बृहद्चारित्रशुद्धि-विधान, महामस्तकाभिषेक आदि ऐसे प्रमुख अनुष्ठान हैं जो कि बृहद् स्तर पर मनाये जाते हैं। इनके अलावा पद्मावती आदि देवियों एवं विभिन्न यक्षों, क्षेत्रपालों- भैरवों आदि के भी पूजा विधान जैन परम्परा में प्रचलित हैं।
परम्परा
निष्कर्षतः श्रमण संस्कृति में भी विधि-विधानों का बाहुल्य है। इस दृष्टि से कहा जा सकता है कि जैनधर्म अध्यात्मप्रधान और उपासनामूलक धर्म होते हुए भी विधि-विधानों से अछूता नहीं रहा है।
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