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________________ 552/मंत्र, तंत्र, विद्या सम्बन्धी साहित्य आदि सम्बन्धी मंत्र-यंत्रों का संग्रह है। यह कृति श्री सोहनलाल दैवोत के निजी भण्डार में सुरक्षित है। मन्त्रराजरहस्यम् मन्त्रराजरहस्यम् नामक यह ग्रन्थ' यशोदेवसूरि के प्रशिष्य एवं विबुधचन्द्रसूरि के शिष्य सिंहतिलकसूरि द्वारा विरचित है। यह संस्कृत के ६२३ पद्यों में निबद्ध ८०० श्लोक परिमाण की रचना है। इस ग्रन्थ का रचनाकाल चौदहवीं शती (१३२७) का पूर्वार्ध माना गया है। यह कृति सूरिमन्त्र कल्पों की अपेक्षा प्राचीनतम प्रतीत होती है इसे उस विद्या का आकार ग्रन्थ भी माना जा सकता है। जैनाचार्यों के लिए यह कृति अत्यन्त उपयोगी सिद्ध हुई है। सूरिमंत्र विषयक समग्र जानकारी प्राप्त हो सके, एतदर्थ सिंहतिलकसूरि ने उस समय में जो-जो आम्नाय प्रचलित थीं, उनका भी इसमें संग्रह कर लिया है। यहाँ दो महत्त्वपूर्ण बातें उल्लिखित करना आवश्यक मानती हूँ - प्रथम तो यह है कि तीर्थंकर प्रभु स्वयं ही गणधर भगवन्त को सूरिमंत्र प्रदान करते हैं अर्थात् सुनाते है इस मन्त्र को लिखा नहीं जाता हैं और दूसरी बात यह है कि इस मन्त्र साधना के द्वारा अनेक विद्याएँ, लब्धियाँ और शक्तियाँ प्राप्त की जा सकती है अतः योग्य शिष्य को ही यह मंत्र प्रदान करने का विधान है। इससे संबंधित कई विधियाँ गुप्त रखी गई हैं। यहाँ यह भी ज्ञातव्य है कि सूरिमंत्र की पाँच पीठों में पाँचवीं पीठ मंत्रराजपीठ है। यह मंत्रराजपीठ अरिहंत रूप है। फिर भी इसको सूरिमंत्र कहा जाता है, क्योंकि अरिहंत गुरु है और गणधर शिष्य है। गुरूभक्त शिष्य (गणधर) गुरुमय बन जाने से तीर्थकर के प्रतिरूप कहलाते हैं। इस कारण इस मंत्र को सूरिमंत्र कहा गया हैं। इस ग्रन्थ के प्रारंभ में मंगलरूप एक श्लोक दिया गया है उसमें गुरु को नमस्कार करके, सिद्ध किये हुए ज्ञान को क्वचित रूप से कहने की इच्छा प्रगट की गई है। अन्त में प्रशस्ति रूप चार श्लोक दिये गये हैं उसमें लिखा गया हैं कि सद्गुरु के वचनों के द्वारा जो सुना गया है वही प्रमाण रूप है और उसको ही विबुधचन्द्रसूरि के शिष्य सिंहतिलकसूरि के द्वारा लीलावती नामक वृत्ति सहित इस ग्रन्थ में लिखा है। यह रचना वि.सं. १३२७ में, दीपावली पर्व के दिन पूर्ण हुई है प्रस्तुत कृति में उल्लिखित सूरिमन्त्र की साधनाविधि एवं तत्सम्बन्धी ' मन्त्रराजरहस्यम् श्री सिंहतिलकसूरि, संपा. जिनविजयमुनि, सन् १६८० प्र. भारतीयविद्याभवन, मुंबई Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001679
Book TitleJain Vidhi Vidhan Sambandhi Sahitya ka Bruhad Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2006
Total Pages704
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Ritual, History, Literature, & Vidhi
File Size11 MB
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