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246 / संस्कार एवं व्रतारोपण सम्बन्धी साहित्य
तदनन्तर कालग्रहण विधि, कालमंडल विधि, काल दिशा, कालग्रहण के भेद, कालग्रहण के प्रकार, स्वाध्यायप्रस्थापना विधि, संघट्टाग्रहण विधि, योगउत्क्षेप विधि, योगनंदी विधि, योगनिक्षेप विधि, योगवाहियों की कृत्य सामाचारी, योग की कल्प्याकल्प्य विधि, इत्यादि का निरूपण किया गया है। उसके बाद आवश्यकादि सूत्रों का पृथक्-पृथक् तपोविधान बतलाया गया है। इस विधान में प्रायः सभी सूत्रों के अध्ययनादि का संक्षेप में निर्देश कर दिया गया है। इसके अन्त में इस समग्र योगविधि का विवेचन करने वाला ६८ गाथाओं का 'जोगविहाण' नामक प्रकरण दिया गया है, जो शायद ग्रन्थकार की अपनी एक स्वतंत्र रचना है।
बीसवाँ- कष्पतिष्पविधि द्वार - यह योगोद्वहन ' कप्पतिप्प' कल्पत्रेप अर्थात् आचारादि की शुद्धिपूर्वक किया जाता है इसलिए इस द्वार में स्थानशुद्धि, वस्त्रशुद्धि, पात्रशुद्धि, शरीरशुद्धि आदि की दृष्टि से कल्पत्रेप सामाचारी वर्णित की गई है। इसमे 'छहमासिक कल्प उत्तारण' की विधि भी कही गई है।
इक्कीसवाँ - वाचनाविधि द्वार जब कल्पत्रेप पूर्वक सूत्रों का योगोद्वहन कर लिया जाये, तब सूत्रों के ज्ञान का अर्जन करने के लिए साधु को दशवैकालिक, उत्तराध्ययन, नन्दी, अनुयोगद्वार, अंग, उपांग, प्रकीर्णक, छेद आदि आगम ग्रन्थों का अध्ययन करना चाहिए, इसलिए इक्कीसवें द्वार में वाचना प्रदान और वाचना ग्रहण की विधि बतलायी गई है। इसमें वाचना प्रदान करने वाले उपाध्याय (साधु) कुछ विशेष कृत्य भी कहे गये हैं।
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बाईसवाँ- वाचनाचार्यपदस्थापनाविधि द्वार जब श्रमण वाचना देने के योग्य हो जायें, उस समय उस श्रमण को वाचनाचार्यपद पर स्थापित किया जाना चाहिए, इसलिए इस द्वार में वाचनाचार्यपदस्थापना विधि का उल्लेख किया गया है। साथ ही इसमें वर्धमानविद्या को प्रदान करने की विधि और उसकी साधना विधि को भी समुचित रूप से उल्लिखित किया है।
तेइसवाँ- उपाध्यायपदस्थापना विधि द्वार इसमें उपाध्यायपदस्थापना की विधि कही गई है। इस विधि के प्रारंभ में यह स्पष्ट रूप से कह दिया गया है कि उसी साधु को वाचनाचार्य या उपाध्याय बनाना चाहिए, जो समग्र सूत्रार्थ के ग्रहण धारण और व्याख्यान करने में समर्थ हों, सूत्र की वाचना देने में पूर्ण परिश्रमी हों और आचार्य पद के योग्य हों। इस पद पर आसीन मुनि को आचार्य के अतिरिक्त अन्य सभी साधु-साध्वी चाहें वे दीक्षा पर्याय में छोटे हों या बड़े हों वन्दन करें, ऐसी सामाचारी दिखलायी गई है।
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चौबीसवाँ - आचार्यपदस्थापनाविधि द्वार इस द्वार में अत्यन्त विस्तार के साथ आचार्यपदस्थापना विधि बतलायी गयी है। विधि के प्रारम्भ में आचार्य पद के योग्य
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