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जैन विधि-विधान सम्बन्धी साहित्य का बृहद् इतिहास/247
व्यक्ति का विधान करते हुए कहा है कि जो साधु आचार, श्रुत, शरीर, वचन, वाचना, मतिप्रयोग, मतिसंग्रह और परिज्ञा रूप इन आठ गणिसंपदाओं से युक्त हों, देश, कुल, जाति और रूप आदि से निर्दोष हों, बारह वर्ष तक जिसने सूत्रों का अध्ययन किया हो, बारह वर्ष तक जिसने शास्त्रों के सार का अर्थ प्राप्त किया हों, और बारह वर्ष तक अपनी प्रभावक शक्ति की परीक्षा के निमित्त जिसने देश पर्यटन किया हों- वह साधु आचार्य बनने के योग्य हैं और ऐसे योग्य व्यक्ति को आचार्य पद पर नियुक्त करना चाहिए।
आचार्यपदस्थापना विधि के अन्तर्गत कुछ प्रमुख बिन्दुओं को विशेष रूप से उजागर किया है। जैसे कि- नन्दिरचना के साथ निर्णीत लग्न में पूर्वआचार्य नवीन आचार्य को सूरिमन्त्र प्रदान करें। यह सूरिमन्त्र मूल रूप से २१०० अक्षर प्रमाण वाला था, वह भगवान महावीरस्वामी ने गौतमस्वामी को दिया था और उन्होंने उसे ३२ श्लोकों में गुम्फित किया था। कालक्रम के प्रभाव से इस मन्त्र का हास हो रहा है और दुःषम नामक पाँचवे आरे के अन्तिम आचार्य दुःप्रसहसूरि के समय में यह सूरिमन्त्र ढाई श्लोक परिमाण रह जायेगा। यह मन्त्र गुरुमुख से ही पढ़ा-सुना जाता है। इसे लिखकर प्रदान नहीं किया जाता है। ग्रन्थकार ने इस विधि के अन्तर्गत यह भी निर्देश दिया है कि जिस साधु (आचार्य) को इस सूरिमन्त्र की साधना विधि देखनी हों, उन्हें जिनप्रभसूरि रचित सूरिमन्त्रकल्प नामक प्रकरण का अवश्य अध्ययन करना चाहिये। इसमें एक विशेष बात यह कही गई है कि जब शिष्य को आचार्य पद देने की विधि समाप्ति पर हों तब स्वयं आचार्य अपने आसन से उठकर शिष्य की जगह बैठे और शिष्य को अपने आसन पर बिठायें तथा स्वयं उसको द्वादशावर्त्त विधि से वन्दन करें। यह 'वन्दनविधि' यह बतलाने के लिए की जाती है कि तुम भी मेरे ही समान आचार्य पद के धारक हो गये हों- इसी क्रम में पद-प्रदाता आचार्य नवीन आचार्य को कुछ उपदेश (व्याख्यान) देने को कहते हैं तब गुरु आज्ञा को स्वीकार करके नवीन आचार्य परिषदा के योग्य कुछ व्याख्यान करते हैं। उपदेश की समाप्ति पर सब साधु नवीन पदधारी को द्वादशावर्त वन्दन करते हैं यह सामाचारी है। फिर वह नवीन आचार्य गुरु (पूर्व आचार्य) के आसन पर से उठकर अपने आसन पर जाकर बैठते हैं और गुरु (पूर्व आचार्य) अपने मूल आसन पर बैठते हैं। तदनन्तर मूल गुरु नूतन आचार्य को शिक्षाबोध देते हैं उसे अनुशिष्टि कहा गया है। इस अनुशिष्टि में मूल आचार्य नवीन आचार्य को किन-किन बातों की शिक्षा देता है, इसका प्रतिपादन करने के लिए जिनप्रभसूरि ने ५५ गाथाओं का एक स्वतंत्र प्रकरण दिया है, जो बहुत ही भावप्रवण और सारगर्भित है।
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