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144 / षडावश्यक सम्बन्धी साहित्य
पंचप्रतिक्रमणसूत्रविधि ( श्रावकप्रतिक्रमण )
नागपुरीयबृहत्तपागच्छ' (पार्श्वचंद्रगच्छ ) की श्रावक परम्परा से सम्बन्धित यह कृति मुख्यतः प्राकृत, संस्कृत एवं हिन्दी पद्य में निबद्ध है। इस पुस्तक में पार्श्वचन्द्रगच्छ की परम्परा के अनुसार अनुष्ठित की जाने वाली विधियाँ दी गई हैं। वे निम्न हैं १. सामायिक ग्रहण सम्बन्धी सूत्र एवं विधि, २ . दैवसिक प्रतिक्रमण सम्बन्धी सूत्र एवं विधि, ३. सामायिक पारण सम्बन्धी सूत्र एवं विधि, ४. रात्रिकप्रतिक्रमण सम्बन्धी सूत्र एवं विधि, ५. पाक्षिक, चातुर्मासिक एवं सांवत्सरिक प्रतिक्रमण करते समय प्रयुक्त होने वाले सूत्र एवं विधि, ६. पौषधव्रत ग्रहण करने और पौषधव्रत पूर्ण करने की विधि । उसके बाद नित्योपयोगी चैत्यवंदन, स्तुति, स्तवन, सज्झाय आदि संकलित है । पुस्तक के प्रारम्भ में श्री नागपुरीय बृहत्तपागच्छ की पट्टावली भी दी गई है। साथ ही उसकी उत्पत्ति का इतिहास' भी संक्षिप्त में दिया गया है।
पंचप्रतिक्रमणसूत्र (खरतरगच्छीय)
यह रचना' गुजराती भाषा में है। इसमें खरतरगच्छ की परम्परानुसार पंचप्रतिक्रमण के सूत्रपाठ दिये गये हैं । प्रतिक्रमण के सूत्रपाठों को कंठाग्र करने वाले आराधकों की दृष्टि से यह कृति उपयोगी सिद्ध हुई है। इसमें सामायिकग्रहणविधि, सामायिकपारणविधि, चैत्यवंदनविधि, गुरूवंदनविधि, रात्रिकदैवसिक-पाक्षिक-चातुर्मासिक - सांवत्सरिक प्रतिक्रमणविधि, पौषध ग्रहण - पारण विधि, देशावगासिक ग्रहण -पारण विधि भी दी गई हैं। साथ ही सप्तस्मरण, चैत्यवंदन, स्तवन, स्तुति एंव दादागुरूदेव के विविधस्तवनादि उपयोगी सामग्री का संकलन किया गया है।
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यह इस गच्छ का मूल नाम है परन्तु वर्तमान में 'पार्श्वचन्द्रगच्छ' इस नाम से प्रचलित है। वि.सं. ११७७ में श्री वादिदेवसूरि नाम के आचार्य हुए थे, जिन्होंने साढ़े तीन लाख श्रावकों को प्रतिबोध दिया था, इस कारण उन्हें वृहद् तपा विरुद्ध दिया, तब से उनकी परम्परा 'श्रीमन्नागपुरीय बृहत्तपागच्छ' नाम से प्रसिद्ध हुई। स्पष्टतः इस गच्छ का प्रादुर्भाव १२ वीं शती के उत्तरार्ध में हुआ था, किन्तु पार्श्वचन्द्रसूरि के क्रियोद्धार के पश्चात् यह गच्छ पार्श्वचन्द्रगच्छ (पायचंदगच्छ ) कहा जाने लगा। यह पुस्तक श्री पार्श्वचंद्रगच्छ जैन संघ, चेम्बुर, मुंबई ७१, वि. सं. २०४८ में प्रकाशित हुई है। यह दूसरी आवृत्ति है।
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इसका प्रकाशन श्री खरतरगच्छ जैन उपाश्रय, झवेरीवाड़ अहमदाबाद - १, सन् १६७० में
हुआ है।
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