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________________ 412/योग-मुद्रा-ध्यान सम्बन्धी साहित्य जिस प्रकार ध्वनि के संकेतों से देवता आदि का आहान किया जाता है उसी प्रकार मुद्रा से उन्हें आमंत्रित किया जाता है। शास्त्रों का मानना है कि ध्वनि और मुद्रा पूर्वक किया गया आह्वान ही सफल होता है। जिस प्रकार व्यक्ति की पहचान नाम से होती है उसी प्रकार देवी-देवताओं के अपने गोपनीय सांकेतिक शब्द होते हैं। जैसे सेना में सांकेतिक शब्दों के द्वारा एक-दूसरे को गोपनीय सूचनाएँ संप्रेषित की जाती हैं वैसे - देवताओं को आमंत्रित करने के लिए मंत्र एवं मुद्रा की सांकेतिक ध्वनियों से स्मरण किया जाता है। इससे हमारी प्रार्थनाएँ उन तक पहुँच जाती हैं। मुद्राओं से केवल शरीर में ही परिवर्तन घटित नहीं होता है अपितु एक सौम्य वातावरण का निर्माण भी होता है जिससे दिव्य शक्तियों को अवतरित होने में सुविधा होती है। इतना ही नहीं, रोग की विकृति के शमन के लिए भी मुद्राओं का प्रयोग किया जाता है। मुद्राओं के द्वारा शरीर में ठहरे विजातीय तत्त्वों को बाहर निकालने एवं संतुलित करने की प्रक्रिया होती है। यह जानने योग्य हैं कि शरीर में जितने प्रकार की आकृतियाँ होती हैं उतनी ही मुद्राएँ बन जाती हैं। इस कृति में विशिष्ट सत्तरह मुद्राओं का विवरण दिया गया है। ये मुद्राएँ रोग शमन के साथ-साथ मानसिक प्रसन्नता देती हैं, चित्त की स्वस्थता बढ़ाती हैं, वातावरण को पवित्र करती हैं और जीवन को आध्यात्मिकता की ओर प्रवृत्त करती हैं। इसमें वर्णित मुद्राओं के नाम निम्न हैं - १. सूर्य मुद्रा २. ज्ञान मुद्रा, ३. वायु मुद्रा, ४. आकाश मुद्रा, ५. पृथ्वी मुद्रा, ६. वरुण मुद्रा, ७. अपान मुद्रा, ८. प्राण मुद्रा, ६. अंगुष्ट मुद्रा, १०. सुरभि मुद्रा, ११. मृगी मुद्रा, १२. हंसी मुद्रा, १३. शंख मुद्रा, १४. पंकज मुद्रा, १५. अनुशासन मुद्रा, १६. समन्वय मुद्रा, १७. वीतराग मुद्रा। ज्ञानार्णव यह कृति दिगम्बर आचार्य श्री शुभचन्द्र की है। इसके अन्य दो नाम नाम योगार्णव और योगप्रदीप हैं। यह रचना संस्कृत भाषा के २०७७ श्लोकों में गुम्फित है। तथा ४२ सगों में विभक्त है। इस ग्रन्थ का रचनाकाल विवादास्पद है तथापि ज्ञानार्णव के कई श्लोक इष्टोपदेश की वृत्ति में पं. आशाधरजी ने उद्धृत किये हैं। इस आधार पर वि.सं. १२५० के आस-पास इसकी रचना का होना मालूम होता है। ज्ञानार्णव में जिनसेन और अकलंक का उल्लेख हैं अतः उस ' यह ग्रन्थ हिन्दी अनुवाद सहित वि.सं. २०३७ में, श्री परमश्रुत प्रभावक मंडल, श्री मद्राजचंद्र आश्रम, आगास से प्रकाशित है। यहा पाँचवां संस्करण है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001679
Book TitleJain Vidhi Vidhan Sambandhi Sahitya ka Bruhad Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2006
Total Pages704
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Ritual, History, Literature, & Vidhi
File Size11 MB
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