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जैन विधि-विधान सम्बन्धी साहित्य का बृहद् इतिहास/597
मुनिजगच्चन्द्र के शिष्य मुनि लक्ष्मीचन्द्र ने वि.सं. १७६० में की है। इस ग्रन्थ में तिथिध्रुवांक, अंतरांकी, तिथिकेन्द्रचक्र, नक्षत्रध्रुवांक, नक्षत्रचक्र, योगकेन्द्रचक्र, तिथिसारणी, तिथि-केन्द्र, घटी अंशफल, नक्षत्रफल सारणी, नक्षत्रकेन्द्रफल, योगगणकोष्ठक आदि विषय निरुपित हैं। गणहरहोरा (गणधर होरा)
यह कृति किसी अज्ञात विद्वान ने रची है। इसमें २६ गाथाएँ है। इस ग्रंथ के मंगलाचरण में 'नमिऊण इंदभूइं' का उल्लेख होने से यह किसी जैनाचार्य की रचना प्रतीत होती है। इसमें ज्योतिषविषयक होरा संबंधी विचार है। इसकी तीन पत्रों की एक प्रति पाटन के जैन भंडार में है। ग्रहलाघव-टीका
ग्रहलाघव की रचना गणेश नामक विद्वान ने की है। वे बहुत बड़े ज्योतिषी थे। यह रचना १६ वीं शती के आस-पास की है। यह टीका ग्रन्थ चौदह अधिकारों में विभक्त है - १. मध्यमाधिकार, २. स्पष्टाधिकार, ३. पंचताराधिकार, ४. त्रिप्रश्न, ५. चन्द्रग्रहण, ६. सूर्यग्रहण, ७. मासग्रहण, ८. स्थूलग्रहसाधन ६. उदयास्त, १०. छाया, ११. नक्षत्र-छाया १२. श्रृंगोन्नति, १३. ग्रहयुति और १४. महापात।
इसमें सब मिलाकर १८७ श्लोक हैं। इस ग्रन्थ पर चारित्रसागर के शिष्य यशस्वत्सागर ने वि.सं. १७६० में टीका रची है। चन्द्रप्रज्ञप्ति
यह जैन आगमों का सातवाँ उपांगसत्र है। मलयगिरि ने इस पर टीका रची है। श्री अमोलक ऋषिजी ने इसका हिन्दी अनुवाद किया है, जो हैदराबाद से प्रकाशित हुआ है। वर्तमान में उपलब्ध चन्द्रप्रज्ञप्तिसूत्र और सूर्यप्रज्ञप्तिसूत्र का विषय लगभग समान है। अतः सूर्यप्रज्ञप्तिसूत्र के समान ही इस ग्रन्थ का विवरण समझना चाहिए। चतुर्विशिकोद्वार
इस ज्योतिष ग्रन्थ के कर्ता कासहृदगच्छीय मुनि नरचन्द्र उपाध्याय है। उन्होंने इस कृति के प्रथम श्लोक में ही ग्रन्थ का उद्देश्य प्रस्तुत कर दिया है। यह सतरह श्लोकों की लघुकृति है। इसमें होराद्यानयन, सर्वलग्नग्रहबल, प्रश्नयोग, जयाजयपृच्छा, रोगपृच्छा आदि विषयों की चर्चा हुई है। यह ग्रन्थ अत्यन्त गूढ़
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