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________________ जैन विधि-विधान सम्बन्धी साहित्य का बृहद् इतिहास/93 देववन्दन करने के पश्चात् दो घटिका कम मध्याह तक स्वाध्याय करना चाहिए। तदनन्तर भिक्षा के लिए जाना चाहिए। फिर प्रतिक्रमण करके मध्याह काल की दो घटिका के पश्चात् पूर्ववत् स्वाध्याय करना चाहिए। जब दो घड़ी दिन शेष रहे तो स्वाध्याय का समापन करके दैवसिक प्रतिक्रमण करना चाहिए। फिर रात्रियोग ग्रहण करके आचार्य को वन्दन करना चाहिए। आचार्य वन्दना के पश्चात् देववन्दन करना चाहिए। दो घड़ी रात बीतने पर स्वाध्याय आरम्भ करके अर्धरात्रि से दो घड़ी पूर्व ही समाप्त कर देना चाहिए। स्वाध्याय न कर सके तो देववन्दन करना चाहिए इस प्रकार साधु की दिनचर्या संबंधी नित्य क्रियाओं का उल्लेख किया है तथा तत्संबंधी प्रत्याख्यान आदि ग्रहण करने की विधि, भोजन, प्रतिक्रमण आदि की विधि, दैवसिक प्रतिक्रमण की विधि, आचार्य वन्दन के पश्चात् की विधि, तथा रात्रि में निद्रा जीतने के उपाय आदि का भी विवेचन किया गया है। नैमित्तिक क्रियाविधियों में चतुर्दशी के दिन की क्रियाविधि, अष्टमी की क्रियाविधि, पक्षान्त की क्रियाविधि, सिद्धप्रतिमा आदि को वन्दन करने की विधि, अपूर्व चैत्यदर्शन होने पर क्रिया-प्रयोग विधि, प्रतिक्रमण प्रयोग विधि, श्रुतपंचमी की क्रियाविधि, सिद्धान्त आदि की वाचना संबंधी क्रियाविधि, सन्यासमरण की विधि, अष्टाहिक क्रियाविधि, अभिषेक वन्दना क्रियाविधि, मंगलगोचर क्रियाविधि, वर्षायोगग्रहण और वर्षायोगमोक्ष (त्याग) की विधि, वीरनिर्वाण की क्रियाविधि, पंचकल्याण के दिनों की क्रियाविधि, मृत मुनि आदि के शरीर की क्रियाविधि, जिनबिम्ब प्रतिष्ठा के समय की क्रियाविधि, आचार्य पद प्रतिष्ठापन की क्रियाविधि, प्रतिमायोग में स्थित मुनि की क्रियाविधि, दीक्षा ग्रहण की विधि, केशलोच की विधि, भूमिशयन की विधि, खड़े होकर भोजन करने की विधि आदि का वर्णन हुआ है। इसके साथ ही आचार्य के गुण, दस प्रकार के स्थितिकल्प, खड़े होकर भोजन करने का कारण, केशलोच का फल, यतिधर्म के पालन का फल आदि का कथन भी किया गया है। संक्षेपतः यह कृति दिगम्बर मुनियों की आचारविधि, आवश्यकविधि, नित्यविधि और नैमित्तिकविधि का विवरण प्रस्तुत करती है। इसमें मुनि जीवन संबंधी सभी प्रकार के क्रियाकल्प समाविष्ट किये गये हैं। टीकाएँ - इस ग्रन्थ पर ग्रन्थकार आशाधरजी ने 'ज्ञानदीपिका' नाम की पंजिका लिखी है। 'भव्यकुमुदचन्द्र' नाम की एक अन्य टीका भी रची गई है। दोनों संस्कृत में है। पंजिका की अपेक्षा टीका बड़ी है। अनगारधर्मामृत की यह स्वोपज्ञटीका वि. सं. १३०० में रची गई है जबकि सागारधर्मामृत की स्वोपज्ञ टीका का समय वि. सं. १२८६ है। टीका और पंजिका दोनों की एक विशेषता यह है कि ये केवल Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001679
Book TitleJain Vidhi Vidhan Sambandhi Sahitya ka Bruhad Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2006
Total Pages704
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Ritual, History, Literature, & Vidhi
File Size11 MB
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