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________________ जैन विधि-विधान सम्बन्धी साहित्य का बृहद् इतिहास / 349 को लगने वाले दोष और उनका प्रायश्चित्त विधान, एक गच्छ रुग्ण साधु की सेवा कितने समय तक करे और बाद में उस साधु को किसे सौंपे इत्यादि की विधि, गच्छ के साथ सम्बन्ध रखने वाले यथालंदिक कल्पधारियों के वन्दनादि व्यवहार विधि, एक क्षेत्र में एक मास से अधिक रहने के आपवादिक कारण तथा उस क्षेत्र में रहने एवं भिक्षाचर्या करने की विधि, ग्राम, नगरादि के बाहर दूसरा मासकल्प करते समय तृण, फलक आदि विधि - अविधि से ले जाने पर लगने वाले दोष और प्रायश्चित्त, निर्ग्रन्थी के मासकल्प की मर्यादा विधि, निर्ग्रन्थी की विहार विधि, निर्ग्रन्थियों के रहने योग्य क्षेत्र की गणधर द्वारा प्रतिलेखना, साध्वियों के रहने योग्य वसति एवं उनके रहने योग्य क्षेत्र में ले जाने की विधि, भिक्षाचर्या के लिए समूह रूप से जाने के कारण और उसकी यतना विधि एक द्वार वाले क्षेत्र में रहने वाले साधु-साध्वियों की विचारभूमि - स्थंडिलभूमि, भिक्षाचर्या, विहारभूमि, चैत्यवन्दनादि कारणों से लगने वाले दोष और उनके लिए प्रायश्चित्त विधान, जहाँ निर्ग्रन्थ-निर्ग्रन्थियाँ एक-दूसरे के पास में रहते हों वहाँ रात्रि के समय धर्मकथा, स्वाध्याय आदि करने की विधि, दुर्भिक्ष आदि कारणों से अकस्मात् अनेक द्वार वाले ग्रामादि में एक साथ आने का अवसर उपस्थित होने पर उपाश्रय आदि की प्राप्ति का प्रयत्न तथा योग्य उपाश्रय के अभाव में एक-दूसरे के उपाश्रय के समीप रहने का प्रसंग आने पर एक-दूसरे के व्यवहार से सम्बन्ध रखने वाली यतनाविधि, ग्राम आदि में श्रमण और श्रमणियों की भिक्षा- भूमि, स्थंडिल - भूमि, विहार भूमि आदि भिन्न-भिन्न हों वहीं उन्हें रहने का विधान, आपणगृह, रथ्यामुख श्रृंगाटक, चतुष्क, अंतरापण आदि के स्थानों पर बने हुए उपाश्रय में रहने वाली साध्वियों के लिए विविध यतनाविधि, बिना दरवाजे वाले उपाश्रय में रहने वाली प्रवर्त्तिनी, गणावच्छेदिनी, अभिषेका और श्रमणियों को लगने वाले दोष और प्रायश्चित्त विधान, आपवादिक रूप से बिना द्वार के उपाश्रय में रहने की विधि, इस प्रकार के उपाश्रय में द्विदलकटकादि बाँधने की विधि, प्रस्रवण- पेशाब आदि के लिये बहार जाने आने में विलम्ब करने वाली श्रमणियों को फटकारने की विधि, श्रमणी के बजाय कोई अन्य व्यक्ति उपाश्रय में न घुस जाए इसके लिए उसकी परीक्षा करने की विधि, प्रतिहार साध्वी द्वारा उपाश्रय के द्वार की रक्षा एवं शयन संबंधी यतना विधि, रात्रि के समय कोई मनुष्य उपाश्रय में घुस जाए तो उसे बाहर निकालने की विधि, पानी के पास खड़े रहने आदि दस स्थानों से सम्बन्धित सामान्य प्रायश्चित्त विधान, जल के किनारे बैठने आदि दस स्थानों का सेवन करने वाले आचार्य, उपाध्याय भिक्षु, स्थविर और क्षुल्लक इन पाँच प्रकार के श्रमणों तथा प्रवर्त्तिनी, अभिषेका, भिक्षुणी, स्थविरा और क्षुल्लिका इन पाँच प्रकार की श्रमणियों की दृष्टि से विविध प्रकार की प्रायश्चित्त विधि, देवप्रतिमायुक्त Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001679
Book TitleJain Vidhi Vidhan Sambandhi Sahitya ka Bruhad Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2006
Total Pages704
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Ritual, History, Literature, & Vidhi
File Size11 MB
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