Book Title: Gommatsara Jivkand
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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४०/गो. सा, जीवकाण्ड
गाया ४२
द्वितीय प्रस्तार की अपेक्षा प्रमाद दा : ५ना मंग निकालने के लिए १५ को प्रथम अक्ष. विकथा के पिण्डप्रमाण चार से भाग देने पर (१५:४) लब्ध ३ और शेष भी तीन ही प्राप्त होते हैं। शेष तीन को लक्षित करके विकथा के तृतीय भेद 'राष्ट्रकथा' का ग्रहण होता है । लब्ध तीन में एक अङ्क जोड़ने पर (३ +१) चार प्राप्त होते हैं । इस चार को द्वितीय अक्ष-कषाय के पिण्ड प्रमाण चार से भाग देने पर (४:४) लब्ध एक और शेष शून्य प्राप्त होता है, क्योंकि यह राशि शुद्ध है । अतः कषाय के अन्तिम भेद लोभ का ग्रहण होता है। लब्ध एक में एक अङ्क नहीं मिलाने से एक ही रहा । इस एक को तृतीय अक्ष-इन्द्रिय के पिण्ड प्रमाण पाँच का भाग देने पर (१५) लब्ध शून्य और शेष एक प्राप्त होता है। अतः इन्द्रिय के प्रथम भेद 'स्पर्शन' का ग्रहण होता है । इस प्रकार द्वितीय प्रस्तार की अपेक्षा प्रमाद का पन्द्रा भंग-राष्ट्रकथालापी लोभी स्पर्शनेन्द्रिय के वशीभूत निद्रालु स्नेहवान् है । प्रमाद के अन्य भंगों को इसीप्रकार सिद्ध करके जानना चाहिए ।
पालाप की संख्या प्राप्त करने का विधान संठाविदूण रूवं उवरीदो संगुरिंगत्तु सगमाणे । अवणिज्ज प्रगकिवयं कुज्जा एमेव सम्वत्थ ॥४२॥
गाथार्थ-एक अल को स्थापन करके अपने पिण्डप्रमाण से गुणा करे, जो गुरगनफल प्राप्त हो उसमें से अनङ्कित को घटाना चाहिए। ऐसा सर्वत्र करना चाहिए अर्थात् अन्तिम नृतीय अक्ष से प्रथम अक्ष तक यह क्रम ले जाना चाहिए ॥४२॥
विशेषार्थ-शङ्का- अनङ्कित किसे कहते हैं ?
समाधान-अक्ष के विवक्षित भेद से आगे के भेदों की संख्या को 'अनंकित' कहते हैं। जैसेविकथा अक्ष का प्रथमभेद स्त्रीकथा विवक्षित है। स्त्रीकथा से आगे भक्तकथा, राष्ट्रकथा, राजकथा, ये तीन कथाएँ हैं अतः 'तीन' संख्या अनङ्कित है।
उदाहरण द्वारा इस गाथा का अर्थ स्पष्ट किया जाता है । जैसे—स्नेहवान, निद्रालु श्रोत्रेन्द्रिय के वशीभूत मायावी स्त्रीकथालापी इस आला की संख्या ज्ञात करनी है कि यह कौनसा भंग है? एक का अङ्क स्थापित करके प्रथम अक्ष-विकथा के पिण्डप्रमाण चार से उसे गुणा करने पर (१४४) गुणनफल चार प्राप्त होता है। विकथा के भेदों में से स्त्रीकथा प्रथम भेद है, इसके धागे अन्य तीन विकथाएँ और होने से अनङ्कित का प्रमाण तीन प्राप्त हुआ । उक्त गुणनफल चार में से विकथा सम्बन्धी अनङ्कित ३ घटाने से (४-३) १ शेष रहता है । इस एक को द्वितीय अक्ष-कषाय के पिण्ड प्रमाण चार से गुरणा करने पर गुरणनफल (१४४) चार प्राप्त होता है । कषाय के चार भेदों में से 'माया' तृतीय भेद है और भागे एक लोभकषाय शेष रहने से अनङ्कित के प्रमाण एक को उक्त गुणनफल ४ में से घटाने पर शेष (४-- १) तीन रहते हैं । इस तीन को तृतीय अक्ष इन्द्रिय के पिण्ड प्रमारग ५ से गुणा करने पर(३ x ५) गुणनफल १५ प्राप्त होते हैं । चूंकि इन्द्रिय के पाँच भेदों
१. घ. पु. ७ पृ. ४६ गाथा १३; किन्तु वहाँ पाठ भेद है-'अबणिज्ज अरणंकिदयं' के स्थान पर 'अबणेज्जोणं कदियं" यह पाठ है तथा 'एमेव सम्वत्थ' के स्थान पर 'पढमंतियं जाव' यह पाठभेद है ।