Book Title: Gommatsara Jivkand
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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गुणास्थान/३४
ग्रहण करना चाहिए । पुनः विकथा के चारों भेदों को क्रम से पलट-पलट कर कहना चाहिए, किन्तु हिबार कषाय के दूसरे भेद मान को ग्रहण करके इन्द्रिय का प्रथम भेद स्पर्शन ही ग्रहण करना चाहिए। भी प्रकार मान को छोड़कर कषाय के तीसरे भेद 'माया' को ग्रहण कर विकथा के आदिभेद से अन्तभेद पाय पार पालाप कहने चाहिए, किन्तु इन चारों में भी इन्द्रिय का आदिभेद स्पर्शन कहा जाता है। सी प्रकार कषाय के तृतीय भेद माया को एलदकर अन्तिम भेद लोभ को ग्रहण कर चार पालाप तथा परिवर्तन की अपेक्षा इन्द्रिय के आदिभेद स्पर्शन के साथ कहना चाहिए । इन १६ भंगों में बम प्रक्ष विक्रमा' के जार भेजनाधितो बना एक परकार जगतस-पलट कर पुनः ग्रहण किये गये हैं,
द्वितीय अक्ष 'कषाय' के चार भेद एक ही बार आदि से अन्त तक प्राप्त हुए हैं और इन १६ ही में में तृतीय अक्ष-इन्द्रिय के प्रथम भेद 'स्पर्शन' का ही ग्रहरण हुअा है। पुनः प्रथम प्रक्ष विकथा
पादि से अन्त तक चार बार पलटकर और द्वितीय अक्ष-कषाय को आदि से अन्त तक एक बार पटकर इन १६ पालापों को इन्द्रिय के द्वितीय भेद रसना' के साथ कहना चाहिए। इसी प्रकार ना इन्द्रिय को पलटक र घारग' इन्द्रिय के साथ १६ भेद कहने चाहिए। तृतीय अक्ष इन्द्रिय का परिवर्तन उसके अन्तिम भेद थोत्र इन्द्रिय तक करते हुए पूर्वोक्त १६-१६ आलाप कहने चाहिए। प्रकार तीनों ही (विकथा-कषाय-इन्द्रिय) प्रक्ष अपने-अपने अन्तिम भेद को प्राप्त कराने चाहिए। वितीय प्रस्तार की अपेक्षा अक्षसंचार में परिवर्तन का कथन जानना ।
नष्ट प्राप्त करने का विधान सगमाहि विहत्ते सेसं लक्खित्तु जारण अक्सपएं । लद्धरुवं पक्खिव सद्ध अंते ग रूख-पक्खेत्रो ॥४१॥
गाथार्थ-(प्रमादभंग को) अपने अक्ष पिण्डप्रमाण से भाग देने पर जो शेष प्राप्त हो, उस शेष मक्षित करके अक्षस्थान जानना । लब्ध में एक अङ्क जोड़ना । यदि भाग देने पर राशि शुद्ध हो र पूर्ण रूप से विभाजित हो जाये, शेष शून्य हो तो प्रक्ष का अन्तिम भेद ग्रहण करना चाहिए और र में एक अङ्क नहीं जोड़ना चाहिए ॥४१।।
विशेषार्थ-इस गाथार्थ को प्रथम प्रस्तार की अपेक्षा उदाहरण द्वारा स्पष्ट किया जाता है। का पन्द्रहवाँ भंग प्राप्त करने के लिए १५ को तृतीय पक्ष 'इन्द्रिय' के पिण्ड प्रमाण पांच का भाग पर (१५५) लब्ध तीन और शेष शून्य प्राप्त हुआ । अतः इन्द्रिय प्रक्ष के अन्तिम भेद "श्रोत्रसब का ग्रहण होता है। लब्ध तीन को पुनः द्वितीय अक्ष 'कषाय' के पिण्ड प्रमाण चार से भाग पर (३:४) लब्ध शून्य और शेष तीन रहे । अतः शेष तीन को लक्षित करके कषाय के तृतीय मायाकषाय' का ग्रहण होता है। लब्ध शून्य में एक जोड़ने से (०+१) एक प्राप्त हुया । इस को प्रथम अक्ष-विकथा के पिण्ड प्रमाण चार से भाग देने पर (१-:४) लब्ध शून्य और शेष एक हुमा । अतः बिकथा के पहले भेद 'स्त्रीकथा' का ग्रहण होता है । इसलिए स्नेहवान् निद्रालु इन्द्रिय के वशीभूत मायावी स्त्रीकथालापी ऐसा प्रमादका १५वाँ भंग है । यह कथन प्रथम पार की अपेक्षा जानना चाहिए ।
रस पु. पृ. ४६ गाथा १२ ।