Book Title: Gommatsara Jivkand
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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गाथा ३८०३६
गुणस्थान / ३७
गाथार्थ -- प्रमाद के प्रथम भेद की संख्या (प्रमाण) विरलन करके प्रत्येक एक-एक के ऊपर उपरम प्रमादभेद के पिंडप्रमाण को निक्षेपण करने से प्रस्तार होता है ||३७||
विशेषार्थ - प्रमाद के प्रथम भेद विकथा का प्रमाण चार है। इस चार का विरलन करके चार स्थानों पर एक-एक लिखना चाहिए ( १ १ १ १ ) । इनमें से प्रत्येक के ऊपर उपरिम प्रमाद-भेद कषाय के पिंडप्रमाण चार का निक्षेपण करना चाहिए। (7) । इस प्रकार निक्षेपण करने से प्रमाद के १६ भंग हो जाते हैं । पुनः इन सोलह का विरलन करके एक-एक के ऊपर उपरितन प्रमादभेद इन्द्रिय पिण्डप्रमाण ५ संख्या का निक्षेपण करना चाहिए ( ¥¥¥¥¥ ) । इस प्रकार निक्षेपण करने से प्रभाव के कस्सी () का एक भेद है । इससे यह ज्ञात होता है कि पूर्व साथ पाये जाते हैं ।
प
हो जाते हैं. यह प्रस्तार समस्त प्रमाद, आगे के प्रमाद के प्रत्येक भेद के
प्रस्तार का दूसरा क्रम
वित्तु विदियमेतं पढमं तस्सुवरि विदियमेव वकं । पिंड
गाथार्थ - प्रमाद के दूसरे भेद कषाय की संख्याप्रमाशा एक-एक स्थान पर प्रमाद के प्रथम भेद face की संख्या का स्थापन करके (४४४४) उसके ऊपर प्रमाद के दूसरे भेद को विरलन करके प्रत्येक पिंड पर एक-एक अङ्क का निक्षेपण करना चाहिए ( 23 ) । इस प्रकार निक्षेपण करने पर प्रमाद के १६ भङ्ग हो जाते हैं । ऊपर भी सर्वत्र इसी प्रकार निक्षेपण करना चाहिए। जैसेउपरिम इन्द्रिय संख्या प्रमाण जितने रूप ( ग्रक) हैं, उतने स्थानों पर सोलह पिंड को स्थापित करना चाहिए (१६ १६ १६ १६ १६) । प्रमाद के उपरिम भेद की संख्या को विरलन करके प्रत्येक fre के ऊपर एक एक का निक्षेप करना चाहिए ( ) । इसप्रकार निक्षेपण करने पर प्रमाद के सर्व भङ्ग अस्सी (६०) हो जाते हैं। यह प्रस्तार का दूसरा क्रम है ||३८||
पडि विखेश्रो एवं सव्वत्थ कायन्यो ||३८||
प्रथम प्रस्तार की अपेक्षा अक्षपरिवर्तन'
तदियो अंतगदी प्रादिगदे संकमेदि विदियक्खो ।
दोणिनि गंतुणंतं श्राविगदे संकमेदि पढमक्खो ॥३६॥
गाथार्थ- - जब तृतीय प्रक्ष- इन्द्रियभेद आदि से लेकर परिवर्तित होता हुआ अन्त को प्राप्त होकर पुनः यादि को प्राप्त होता है तत्र द्वितीय प्रक्ष-कपायभेद में परिवर्तन होता है। इसी प्रकार यह द्वितीय अक्ष भी परिवर्तित होता हुआ अन्त को प्राप्त हो जाता है और उसके साथ-साथ प्रथम अक्ष भी अन्त को प्राप्त हो जाता है अर्थात् जब दोनों पक्ष अपने श्रन्त को प्राप्त होते हैं तब प्रथम अक्ष में परिवर्तन होता है ||३९||
विशेषार्थ - प्रमाद के पाँच भेद हैं- १. विकथा २. कषाय ३. इन्द्रिय ४. निद्रा ५. स्नेह । इनमें
घ. पु. ७ पृ. ४५ गा. १० परन्तु वहाँ 'सिक्यो' के स्थान पर 'शिक्खिसे' पाठ है। छोड़कर दूसरे स्थान पर जाने को परिवर्तन कहते हैं ।
२. एक स्थान को