Book Title: Gommatsara Jivkand
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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३६/गो. सा. जीवकाण्ड
गाथा ३५-३७ शङ्का-चित्तलायरणो' का क्या अभिप्राय है ?
समाधान-जो पाचरण प्रमादमिश्रित है, वह चित्रल आचरण है, अथवा चित्तल (चीतल) सारङ्ग को कहते हैं इसलिए जो पाचरण सारङ्ग के समान शबलित अर्थात अनेक प्रकार का है, अथवा जो आचरण प्रमाद को उत्पन्न करने वाला है, वह चित्रलाचरण है ।
स्त्रीकथा, भक्तकथा, राष्ट्रकथा और राजकथा ये चार विकथाएँ हैं 1 क्रोध, मान, माया और लोभ ये चार कषाय हैं। स्पर्शन, रसना, घारण, चक्ष और श्रोत्र ये पाँच इन्द्रियाँ हैं । दर्शनावरण कर्मोदय से जो शयन करना बह निद्रा है । प्रणय स्नेह को कहते हैं ।
प्रमाद के पांच प्रकार१संखा तह पत्थारो परियट्टरण गट तह समुट्ठि ।
एदे पंग एगार मानसमुक्कित्तणे या ॥३५॥ गाथार्थ-संस्था, प्रस्तार, परिवर्तन, नष्ट, समृद्दिष्ट ये पाँच प्रकार प्रमादसमुत्वीर्तन में जानने चाहिए ।।३।।
विशेषार्थ-संख्या अर्थात् भेद या भङ्गगणना । प्रस्तार अर्थात् न्यास । परिवर्तन अर्थात् अक्षसंचार । नष्ट अर्थात् संख्या रखकर अक्ष का पानयन । उद्दिष्ट अर्थात् अक्ष रखकर संख्या का आनयन । इन पाँच प्रकार से प्रमाद की समुत्कीर्तना करनी चाहिए।
संख्या की उत्पत्ति का क्रम . सव्ये वि पुष्यभंगा उवरिमभंगेसु एक्कमेक्केसु ।
मेलति ति य कमसो गुरिषदे उप्पज्जदे संखा ॥३६॥ गायार्थ-- सर्व ही पूर्व भंग अपने-अपने से ऊपर के प्रत्येक भंग में मिलते हैं अतः इनको परस्पर ग्राम से गुणा करने से भंग-संख्या को उत्पत्ति होती है ।।३६।।
विशेषार्थ-पूर्वभंग विकथा है सो चार प्रकार है। इससे ऊपर चार कषाय हैं । उनमें से प्रत्येक कषाय में चारों विकथाएँ सम्भव हैं । इस प्रकार चार विकथाएँ और चार कषाये इनको परस्पर गुणा करने से सोलह संख्या उत्पन्न होती है । ये मोलह अधस्तन भंग हैं । इनके ऊपर पांच इन्द्रियाँ है। प्रत्येक इन्द्रिय में उक्त १६-१६ भङ्ग सम्भव है। अतः इन
भड साभवहैं। अत: इन पाँच इन्द्रियों से १६ को गुणा करने पर भङ्गों की संख्या ८० उत्पन्न होती है । इनसे ऊपर निद्रा का भी एक भेद है अतः अस्सी (८०) को एक से गुणा करने पर अस्सी ही प्राप्त होते हैं । उसके ऊपर प्रणय (स्नेह) है, वह भी एक प्रकार का है, सो ८० को पुनः एक से गुणा करने पर भो ५० ही भंग होते हैं ।
प्रस्तार-क्रम पढम पमदपमाणं कमेण रिएक्विविय उवरिमारणं च ।
पिडं पडि एक्केक्कं गिक्खित्ते होवि पत्थारो ॥३७॥ १. व. पु. ७ पृ. ४५। २. वही। ३. वही ।