Book Title: Gommatsara Jivkand
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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मामा ३२-३४
गुणस्थान/३५ समाधान-प्रमाद के रहते हुए संयम का सद्भाव अन्यथा बन नहीं सकता, इसलिए निश्चय होता है कि यहाँ पर संयम में मल उत्पन्न करने वाला प्रमाद ही अभीष्ट है। दूसरे, स्वल्पकालवर्ती भन्दतम प्रमाद संयम का नाश भी नहीं कर सकता, क्योंकि सफलसंयम का उत्कृष्ट रूप से प्रतिबन्ध करने वाले प्रत्याख्यानावरण के अभाव में संयम का नाश नहीं पाया जाता है।
यहाँ प्रमत्त शब्द अन्त्यदीपक है इसलिए प्रमत्तसंयत गुणस्थान में पूर्व के सर्व गुणस्थानों में प्रमाद के अस्तित्व को सूचित करता है ।
वर्तमान में प्रत्याख्यानाबरण के सर्वघाती स्पर्धकों के उदयक्षय से और आगामी काल में उदय में पाने वाले सत्ता में स्थित उन्हीं के उदय में न आने स्प उपशम से (सददस्थारूप उपशम से) एवं संश्वलन कषाय के उदय से प्रत्याख्यान (सकल संयम) उत्पन्न होता है।'
शङ्का---यदि संज्वलन कषायोदय से संयम होता है तो उसे प्रौदयिक भाव कहना चाहिए ? समाधान---नहीं, क्योंकि संज्वलन कषायोदय से संयम की उत्पत्ति नहीं होती है। शङ्का-संज्वलन का व्यापार कहाँ होता है ?
समाधान–प्रत्याख्यानावरण कषाय के सर्वघाती स्पर्द्धकों के उदयाभावी क्षय से उत्पन्न हुए संयम में मल को उत्पन्न करने में संज्वलनकषाय का व्यापार होता है ।
शङ्का--क्या सम्यग्दर्शन के बिना भी संयम की उपलब्धि होती है ?
समाधान--ऐसा नहीं है, क्योंकि प्राप्त, आगम और पदार्थों में जिस जीव के श्रद्धा उत्पन्न नहीं हुई तथा जिसका चित्त तीन मूढ़तामों से व्याप्त है, उसके संयम की उत्पत्ति नहीं हो सकती।
शङ्का-यहाँ द्रव्यसंयम का ग्रहण नहीं है, यह कैसे जाना जाता है ?
__ समाधान नहीं है क्योंकि भले प्रकार जानकर और श्रद्धान कर जो यम सहित है वह संयत - .. है। इस प्रकार व्युत्पत्ति करने से यह जाना जाता है कि यहाँ पर द्रव्यसंयम का ग्रहण नहीं किया गया है।
शङ्का-ब्यक्त और अव्यक्त से क्या अभिप्राय है ?
समाधान—जो स्व और पर या दोनों में से किसी एक के ज्ञान का विषय हो वह व्यक्त है। जो स्व और पर दोनों में से किसी के ज्ञान का विषय न हो, मात्र प्रत्यक्षज्ञान का विषय हो, वह अध्यक्त है।
शङ्का-प्रमाद किसे कहते हैं ?
समाधान-चार संज्वलनकषाय और नव नोकषाय इन तेरह प्रकृतियों के तीव्र उदय का नाम प्रमाद है। १. घ. पु. १ पृ. १७६ । २. ध. पु. १ पृ. १७७ । ३. प. पु. ७ पृ. ११ ।