Book Title: Gommatsara Jivkand
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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पापा ३०-३१
गुणस्थान/३३ यदि विरुद्ध दो धर्मों की उत्पत्ति का कारण समान अर्थात् एक मान लिया जावे तो विरोध माता है, किन्तु संयमभाव और असंयमभाव इन दोनों को एक प्रात्मा में स्वीकार कर लेने पर भी कोई विरोध नहीं आता है, क्योंकि इन दोनों की उत्पत्ति का कारण भिन्न-भिन्न है । संयमभाव की उत्पत्ति का कारण अस हिंसा से विरति भाव है और असंयमभाव की उत्पत्ति का कारण स्थावरहिंसा से प्रविरति भाव है । इसलिए संयमासंयम अर्थात् विरताविरत नामक पंचम गुणस्थान बन जाता है।
शङ्का-प्रौदयिकादि पाँच भावों में से किस भाव के प्राश्रय से संयमासंयम भाव होता है ?
समाधान-संयमासंयम भाव क्षायोपशमिक है, क्योंकि अप्रत्याख्यानावरणीय कषाय के अर्तमानकालिक सर्वघाती स्पर्द्धकों के उदयाभावी क्षय होने से और आगामी काल में उदय आने योग्य उन्हीं स्पर्द्धकों के सदवस्थारूप उपशम होने से तथा प्रत्याख्यानावरणीय कषाय के उदय से संयमासंयमअप्रत्याख्यान चारित्र (एकदेशचारित्र) उत्पन्न होता है।
शङ्का-संयमासंयम देशचारित्र की धारा से सम्बन्ध रखने वाले कितने सम्यग्दर्शन होते हैं ?
समाधान- क्षायिक, क्षायोपशमिक और प्रौपशमिक इन तीनों में से कोई एक सम्यग्दर्शन विकल्प से होता है, क्योंकि उनमें से वि.सी एक के बिना अप्रत्याख्यान-चारित्र का प्रादुर्भाव ही नहीं ? हो सकता।
शङ्का--सम्यग्दर्शन के बिना भी देशसंयमी होते हैं ?
समाधान नहीं होते, क्योंकि जो जीव मोक्ष की प्राकांक्षा से रहित है और जिनकी विषयपिपासा दूर नहीं हुई है, उनके अप्रत्याख्यानसंयम (देशचारित्र) की उत्पत्ति नहीं हो सकती।'
चार संज्वलन और नव नोकषायों के क्षयोपशम संज्ञावाले देशघाती स्पर्द्धकों के उदय से संयमासंयम की उत्पत्ति होती है ।
शा--चार संज्वलन और नव नोकषाय इन तेरह प्रकृतियों के देशघाती स्पर्धकों का उदय तो संयम की प्राप्ति में निमित्त होता है, वह संयमासंयम का निमित्त कैसे स्वीकार किया गया?
समाधान-नहीं, क्योंकि प्रत्याख्यानावरण के सर्वघाती स्पर्धकों के उदय से जिन चार संज्वलनादिक के देशघाती स्पर्धकों का उदय प्रतिहत, हो गया है, उस उदय के (में) संयमासंयम को छोड़ संयम उत्पन्न करने का सामर्थ्य नहीं होता।
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प्रत्यास्यानावरण कषाय अपने प्रतिपक्षी सर्वप्रत्याख्यान (सकलसंयम) को घातता है इसलिए वह सर्वघाती है, किन्तु समस्त अप्रत्याख्यान को नहीं घातता, क्योंकि उसका इस विषय में व्यापार नहीं है। इस प्रकार से परिणत प्रत्याख्यान कषाय के सर्वघाती संज्ञा सिद्ध है, किन्तु जिस प्रकृति के उदय होने पर जो गुण उत्पन्न होता है उसकी अपेक्षा वह प्रकृति सर्वघाती संज्ञा को प्राप्त नहीं होती। यदि ऐसा न माना जाय तो अतिप्रसंग दोष या जायेगा।
१. घ. पु. १ पृ. १७३ से १७५. सक । २. प. पु. ७ पृ. ६४