Book Title: Gommatsara Jivkand
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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गाथा ३०
मों:
गुसास्थान / ३१
बादर एकेन्द्रिय, सूक्ष्म एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, श्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, श्रसंज्ञिपंचेन्द्रिय, संज्ञिपंचेन्द्रिय ये सातों ही पर्याप्त और पर्याप्तक होते हैं । इस प्रकार जीवों के १४ भेद होते हैं ।
शङ्का - इन्द्रियों के २८ विषय किस प्रकार हैं ?
समाधान- इन्द्रियों के २८ विषय इस प्रकार से जानने चाहिए
पंचरस पंचवण्णा बोगंधा फासासरा । मणसविट्ठावीसा इंदियविसया मुणेदव्वा ।। ४७६ ॥ गो.जी.
- मीठा, खट्टा, कषायला, कडुप्रा और चरपरा ये पांच रस, सफेद, पीला, हरा, लाल और काला ये पाँच वर्ण: सुगन्ध और दुर्गन्ध ये दो गन्ध; कोमल-कठोर, हलका भारी, शीत-उष्ण, स्निग्ध-क्ष ये आठ स्पर्श: षड़ज, ऋषभ, गान्धार, मध्यम, पंचम, बैवत, निषाद ये सप्त स्वर तथा एक मन का विषय ऐसे सर्व मिलाकर ये (५+५+२+८+७+१) २८ पंचेन्द्रियों और मन सम्बन्धी विषय हैं ।
शङ्का -- किस कर्म के उदय से जीव असंगत होता है ?
समाधान-संयमचाती कर्मों के उदय से जीव असंयत होता है ।
शङ्का -- एक अप्रत्याख्यानावरण कषायोदय ही असंयम का हेतु है, क्योंकि यही संयमासंयम के प्रतिषेध से प्रारम्भ कर समस्त संघम का पानी होता है । फिर संयमघाती कर्मों के उदय से असंयत होता है' ऐसा कहना कैसे घटित होता है ?
समाधान -- नहीं, क्योंकि दूसरे भी चारित्रावरण कर्मों के उदय के बिना केवल अप्रत्याख्यानावरण में देणसंयम को घात करने का सामर्थ्य नहीं है ।"
गाथा २७ में 'सम्माइट्ठी जीवो उवहट्ठ पत्रयणं तु सहवि' इन पदों के द्वारा कहा गया है कि सम्यग्टजीव नियम से उपदिष्ट प्रवचन का श्रद्धान करता है । उसी बात को 'जो सदहवि जिणुत्त सम्माइष्ट्टी' इस वाक्यांश द्वारा कहा गया है, क्योंकि जो 'जिणुस" अर्थात् जिनेन्द्र के द्वारा कहा गया है। ही 'वट्ट' पवयणं' उपदिष्ट प्रवचन है। 'प्रवचन में उपदिष्ट अर्थ का श्रद्धान करना' सम्यग्दष्टिका लक्षण है।
गाथा में सम्यष्टि के लिए जो 'असंयत विशेषण दिया गया है, वह अन्त्यदीपक है, अतः यह अपने से नीचे के समस्त गुणस्थानों के असंयतपनेका निरूपण करता है । इस गाथा में जो सम्यग्दृष्टि पद है, वह गङ्गा नदी के प्रवाह के समान ऊपर के समस्त गुणस्थानों में अनुवृत्ति को प्राप्त होता है अर्थात् पाँचवें आदि समस्त गुणस्थानों में सम्यग्दर्शन पाया जाता है | अ
पंञ्चस गुणस्थान का स्वरूप
पच्चक्खाणुदयादो संजमभावो रंग होदि गवर तु
योववदो होदि तदो देसववो होदि पंचमप्रो ||३०||
१. ध. पु. ७ पृ. ६५ । २. ध. ए १ पृ. १७३ ।