Book Title: Gommatsara Jivkand
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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३०/गो. मा. जोत्रकाण्ड
गाथा २८-२९
सत्तादो त सम्म दरिसिज्जंतं जदा ग सहहदि । सो चेव हवाइ मिच्छाइट्टी जीवो तदो पहुदी ॥२८॥
गाथार्थ--सूत्र से समीचीनरूप से दिखलाये गये उस अर्थ का जब यह जीव श्रद्धान नहीं करता है, उस समय से यह जीव मिथ्यादृष्टि हो जाता है ।।२८।।
विशेषार्थ-गाथा २७ में कथित असद्भुत पदार्थ के श्रद्धान करने वाले सम्यग्दृष्टि को यदि पुनः कोई परमागम का ज्ञाता विसंवादरहित दूसरे सूत्र द्वारा उस असद्भूत अर्थ को यथार्थरूप से बतलावे, फिर भी वह जीव असत् आग्रहवश असद्भुत को ही स्वीकार करे, यथार्थ को स्वीकार नहीं करे तो उसी समय से वह जीव मिथ्यादृष्टित्व को प्राप्त हो जाता है, क्योंकि वह प्रवचनविरुद्ध बुद्धिवाला है, ऐसा परमागम में कहा गया है। इसलिए यह ठीक कहा है कि प्रवचन में उपदिष्ट हए अर्थ का प्राज्ञा और अधिगम से विपरीतता के बिना बद्धान करना सम्यग्दृष्टि का लक्षण है।'
चतुर्थगुणस्थानवर्तीजीय का और भी विशेष स्वरुप ३गो इंदिएस विरदो पो जीवे थावरे तसे वापि ।
जो सद्दहदि जिणुत्तं सम्माइट्ठी अविरदो सो ॥२६॥ गाथार्थ-जो इन्द्रियों के विषयों से विरक्त नहीं है तथा स-स्थावर जीबों की हिंसा से भी विरति रहित है, किन्तु जिसकी जिनेन्द्र के उपदेश पर श्रद्धा है, वह जीव अविरत सम्यग्दृष्टि है ।।२६।।
विशेषार्थ-पांचों इन्द्रियों को और मन को वश में न करना तथा पांच स्थावरकाय और त्रस इन छह काय के जीवों की हिंसा का त्याग न करना, यह बारह प्रकार की अविरति है । आगे माथा ४७८ में असंयम का लक्षण इसप्रकार कहा गया है--
जीवा चोइसभेया इंदियविसया तहट्टवीसं तु ।
जे तेसु णेव विरया असंजदा ते मुणेच्या ॥४७८।। |गो. जी.] -जीवसमास चौदह प्रकार के होते हैं, इन्द्रिय तथा मन के विषय अट्ठाईस प्रकार के होते हैं। जो जीव इनसे विरत नहीं हैं, वे असंयत या अविरत हैं।
शङ्खा-जीव के चौदह भेद किस प्रकार हैं ? समाधान–जीव के चौदह भेद इस प्रकार हैं--
बावरसुहमे गिविय-वि-ति-घरिदिय-प्रसणि-सष्णी य । पज्जत्तापजत्ता एवं ते चोइसा होति ॥१/३४॥ [प्रा.पं.सं.]
१. घ. पु. १५२२२ मूत्र ३६ की टीका, लब्धिमार गा. १०६ । २. ज.ध.पु. १२ पृ. ३२१-२२ । ३. घ. पु. १ सूत्र १२ की टोका पृ. १७३ गा. १११, किन्तु वहाँ ‘वापि' के स्थान पर 'चादि' पाठ है ।