Book Title: Gommatsara Jivkand
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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२८/गो. सा. जीवकाण्ड
गाथा २६ -जिस प्रकार बुद्धपुरुष के हाथ की लकड़ी कॉपती रहती है, किन्तु हाथ से गिरती नहीं है सुली प्रकार का बडन मंगल तो होता है, किन्तु यथार्थ श्रद्धान (स्थान) में स्थित रहता है, वहां से च्युत नहीं होता। सर्व अर्हन्त भगवान में अनन्तशक्ति समान होते हुए भी "श्री माान्तिनाथ भगवान शान्ति के कर्ता हैं और श्री पार्श्वनाथ भगवान विघ्नों का नाश करने वाले हैं।" इस प्रकार वेदकसम्यग्दृष्टि का श्रद्धान शिथिल होने के कारण अगाढ़-दोष युक्त है।
वेदकसम्यग्दृष्टि नित्य है अर्थात् तीनों सम्यग्दर्शनों में संसारावस्था का सबसे अधिक काल वेदकसम्यग्दर्शन का है । यह काल ६६ सागर प्रमाण है, जो इस प्रकार है----एक जीव उपशमसम्यक्त्व से बेदकसम्यक्त्व को प्राप्त होकर शेष भुज्यमान प्रायु से कम बीस सागरोपम आयु वाले देवों में उत्पन्न हुआ। फिर वहाँ से मनुष्यों में उत्पन्न होकर पुन: मनुष्यायु से कम बावीस (२२) सागरोपम आयू वाले देवों में उत्पन्न हुआ। वहाँ से पुनः मनुष्यों में उत्पन्न होकार, भुज्यमान मनुष्यायु से तथा दर्शनमोह के क्षपरण पर्यन्त आगे भोगी जाने वाली मनुष्यायु से कम चौबीस (२४) सागरोपम आयुवाले देवों में उत्पन्न हुआ। वहाँ से पुन; मनुष्यगति में प्राकर बहाँ बेदकसम्यक्त्व काल के अन्तर्मुहर्त मात्र शेष रहने पर दर्शनमोह की क्षपणा को प्रारम्भ कर कृतकरणीय हो गया। ऐसे कृतकरगीय के अन्तिम समय में स्थित जीव के वेदकसम्यक्त्व का ६६ सागरोपमकाल पाया जाता है।
वेदकसम्यक्त्व 'कर्मक्षपण हेतु है अर्थात् दर्शनमोहनीय कर्म के क्षय का कारण है, क्योंकि वेदकसम्यग्दृष्टि के अतिरिक्त अन्य कोई भी जीव (मिथ्याष्टि, सासादनसम्यग्दष्टि, सम्यग्मिथ्याष्टि या उपशमसम्यग्दृष्टि) दर्शनमोहनीय कर्म की क्षपणा नहीं कर सकता। वेदकसम्यग्दृष्टि, दर्शनमोहनीय की तीन प्रकृतियों और अनन्तानुबन्धी चतुष्क, इन सप्त प्रकृतियों के अतिरिक्त अन्य कर्मप्रकृतियों के क्षपरण का हेतु नहीं है, क्योंकि वेदक सम्यग्दृष्टि असयंतसम्यग्दृष्टि (चतुर्थ) गुग्गस्थान से अप्रमत्तसंयत (सप्तम) गुणस्थान तक ही हो सकते हैं ।
शा-ऊपर के आठवें आदि मुरास्थानों में बेदकसम्यग्दर्शन क्यों नहीं होता है ?
समाधान--पाठवें आदि गुणस्थानों में वेदकसम्यक्त्व नहीं होता, क्योंकि प्रगाढ़ प्रादि मलसहित श्रद्धान के साथ क्षपक और उपशमश्रेणी का चलना नहीं बनता ।
औपशभिक व क्षायिक सम्यग्दर्षन का स्वरूप । सत्तण्हं उवसमदो उबसमसम्मो खयाद खइयो य । बिदियकसायुदयादो प्रसंजदो होवि सम्मो ५ ॥२६।।
अर्थ-सात प्रकृतियों के उपशम से उपशम सम्यक्त्व और सर्वथा क्षय से क्षायिय सम्यक्त्व होता है । तथा दूसरी-अप्रत्याख्यानावरण कषाय का उदय रहने से यह सम्यक्त्व असंयत होता है (अत एव इस गुणास्थानवर्तीजीव को असंयत सम्यम्दृष्टि कहते हैं ) ॥२६॥
१. गो. जी. गापा २५ की संरकृत टीका।
२. ध. पु. ७ पृ. १८०-१८१ ।
३. प. पु. १. ३५७ ।