Book Title: Gommatsara Jivkand
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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गाथा २५
शङ्का - प्राप्त, श्रागम और पदार्थों में सन्देह किस कर्म के उदय से उत्पन्न होता है ?
समाधान--- सम्यग्दर्शन का घात नहीं करने वाला सन्देहः सम्यक्त्वप्रकृति के उदय से उत्पन्न होता है । किन्तु सर्वे सन्देह अर्थात् सम्यक्त्व का सम्पूर्ण रूप से घात करने वाला सन्देह और मूढत्व मिथ्यात्व कर्म के उदय से उत्पन्न होता है ।
शङ्का- उस प्रकृति का 'सम्यक्त्व' ऐसा नाम कैसे
'हुआ
समाधान — सम्यग्दर्शन के सहचरित उदय होने के कारण उपचार से 'सम्यक्त्व' ऐसा नाम कहा जाता है । प्राप्त ग्रागम और पदार्थों की श्रद्धा में शिथिलता और श्रद्धा की हानि होना सम्यक्त्व प्रकृति का कार्य है ।
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सम्यक्त्वप्रकृति के उदय का वेदन होने से इस सम्यग्दर्शन का नाम वेदक- सम्यक्त्व है । वेदक सम्यग्दृष्टि जीव शिथिलश्रद्धानी होता है । बृद्धपुरुष जिस प्रकार अपने हाथ में लकड़ी को शिथिलता पूर्व पकड़ता है, उसी प्रकार वेदक- सम्यग्दृष्टि भी तत्त्वार्थ के विषय में शिथिलग्राही होता है | अतः कुहेतु और कुहष्टान्त से वेदकसम्यग्दष्टि को सम्यक्त्व की विराधना करने में देर नहीं लगती ।
नानात्मीयविशेषेषु चलतोसि चलं स्मृतं । लसत्कल्लोलमाला जलमेकमवस्थितं 11 स्वकारितेत्यादौ देवोऽयं मेऽन्यकारिते । अन्यस्यामिति भ्राम्यन् मोहाच्छ्राद्धोऽपि चेष्टते ।
- नानाप्रकार की आत्मा के विशेषों में चलदोष है । अपने द्वारा स्थापित कराई हुई स्थापित कराई गई मूर्ति में 'यह अन्य का देव प्रकार जल एक होते हुए भी नाना तरङ्गों में से श्रद्धान भी भ्रमरणरूप चेष्टा करता है" ।
१. घ. पु ६ पृ. ३६-४० । संस्कृत टीका । ५. वही ।
गुणस्थान /२७
( गुणपर्यायों में ) जो श्रद्धान, उसमें चलायमान होना अन्तमूर्ति में यह देव मेरा है' और अन्य के द्वारा है' इस प्रकार देव का भेद करना चल दोष है । जिस भ्रमण करता है, उसी प्रकार सम्यक्त्व प्रकृति के उदय
तवयलब्ध माहात्म्यं पाकात्सम्यक्त्वकर्मणः । मलिनं मलसंगेन शुद्ध ं स्वर्णमियोद्भवेत् ॥
– सम्यक्त्वप्रकृति के उदय से वेदक- सम्यक्त्व को सम्यग्दर्शन का माहात्म्य प्राप्त नहीं होता जैसे शुद्ध स्वर्ण मल से मलिन हो जाता है उसी प्रकार सम्यग्दर्शन भी सम्यक्त्वप्रकृति के उदय से शङ्कादि दोषों द्वारा मलिन हो जाता है" ।
स्थान एव स्थितं कम्पमगादमिति कीर्त्यते । वृद्धयष्टिरिवात्स्याना— करतले स्थिता ॥ समेध्यनन्तशक्तित्वे सर्वेषामतामयं । देवोsसमै प्रभुरेषोऽस्मा इत्यास्था सुदृशामपि ।।
२. प्र. पु. १ पृ. ३६८ । ३. ष. पु. १ पृ. १७१-७२ । ४. गो. जी. गाथा २५ की