Book Title: Gommatsara Jivkand
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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३२/मो. मा. जीवकाण्ड
गाथा ३०-३१
जो तसबहाउविरदो अविरदनो तह य थावरबहादो।
एक्कसमयम्हि जीवो विरदाविरको जिरोक्कमई ॥३१॥ गाथार्थ---प्रत्याख्यानावरण कषाय के उदय से सकलसंयम नहीं होता, किन्तु स्तोकव्रत (अणवत) होते हैं। इसलिए देशव्रत अर्थात् अणुवन या देशसंयमरूप पंचम गुणस्थान होता है ।।३०॥ जो जीब जिनेन्द्र देव में अद्वितीय श्रद्धा रखना हा एक ही समय में अस जीवों की हिंसा से विरत है और स्थावर जीवों को हिसा रो अबिरत है, वह विरताविरत होता है ।।३१॥
विशेषार्थ--कषाय चार प्रकार की है--अनन्तानुबन्धी, अप्रत्याख्यानावरण, प्रत्याख्यानावरण और संज्वलन । इनमें से तीसी डिनराख्यातापरा पा सकलसंथम का बात करती है, देशसंयम का पात नहीं करती । कहा भी है--
पढमो सणघाई विदिनो तह घाइ देस विरह ति ।
तइबो संजमघाई अउथो जहखायघाईया ॥११॥ [प्रा.पं.सं.अ.१] -प्रथम अनन्तानुबन्धी कषाय सम्यग्दर्शन का घात करती है। द्वितीय अप्रत्याख्यानावरण कषाय देशसंयम का घात करती है अर्थात् एकदेशविरति को घातक है । तृतीय प्रत्याख्यानावरग कपाय सकलसंयम की घातक है और चौथी संज्वलन कषाय यथाख्यात चारित्र की घातक है।
अतः तृतीय प्रत्याख्यानावरण कषाय के उदय में सकलसंयम तो हो नहीं सकता, किन्तु स्तोक व्रत अर्थात् देशव्रत के होने में कोई बाधा नहीं है, क्योंकि देशव्रत को घातक द्वितीय अप्रत्याख्यानाबरण कषायोदय का पंचम मुगास्थान में प्रभाव है ।
जो संयत होते हुए भी असंयत होता है, उसे संयतासंयत अथवा विरताविरत वाहते हैं ।
शङ्का-जो संयत होता है वह असंयत नहीं हो सकता है और जो असंयत होता है वह संयत नहीं हो सकता, क्योंकि संयमभाव और असंयम भाव (विरतभाव और अविरतभात्र) का परस्पर विरोध है अतः विरताविरतरूप यह पंचम गुण स्थान नहीं बनता है।
___ समाधान--बिरोध दो प्रकार का है-परस्परपरिहार लक्षग्ग विगेत्र और सहानवस्थालक्षण विरोध । इनमें से एक द्रव्य के अनन्त गुणों में परस्परपरिहारलक्षण विरोध इष्ट है। यदि गुणों का अस्तित्व एक-दूसरे का परिहार करके न माना जाय तो उनके स्वरूप की हानि का प्रसंग आता है, परन्तु इसने मात्रसे गुरषों में महानवस्थालक्षण विरोध सम्भव नहीं है । यदि मानागुणों का एक साथ । रखनाही विरोध स्वरूप मान लिया जावे तो वस्तुका अस्तित्व ही नहीं बन सकता है. क्योंकि वम्तका सद्भाव अनेकान्त निमित्तक है । जो अर्थक्रिया करने में समर्थ है, यह वस्तु है, परन्तु वह प्रक्रिया : एकान्तपक्ष में नहीं बन सकती, क्योंकि अर्थक्रिया को यदि एकरूप माना जावे नो पुनःपुन: उसी अर्थ- . क्रिया को प्राप्ति होने से और यदि अनेकरूप माना जावे तो अनवस्था दोष पाने से एकान्तपक्ष में : अर्थक्रिया के होने में विरोध पाता है।
१. यह गाथा ध. पु. १ सूत्र १३ की टीका के अन्त में पृ. १७५ पर है किन्तु वहाँ पाठ इस प्रकार है---
"जो तस-वहाउ विरो अविरयो, तह य बावर-वहायो। एक्क-समयम्हि जीवा विरयाविरो जिणेक्क्रमई।।११२॥"