Book Title: Gommatsara Jivkand
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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२६/गो. सा. जीवकाण्ड
गाथा २५
शङ्का-सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीव अपना काल पूरा कर पश्चात् संयम को अथवा संयमासंयम को क्यों नहीं प्राप्त कराया गया है ?
समाधान नहीं प्राप्त कराया गया, क्योंकि उस सम्यग्मिध्याष्टि जीब का मिथ्यात्व सहित मिथ्यादृष्टि गुणस्थान को प्रथवा सम्यक्त्व सहित असंयत सम्यग्दृष्टि गुणस्थान को छोड़कर दूसरे गुणस्थानों में गमन का अभाव है। (गो. क. गा. ५५६-५५६)
शङ्का--अन्य गुणस्थानों में नहीं जाने का क्या कारण है ?
समाधान---ऐसा स्वभाव ही है और स्वभाव दूसरों के प्रश्न के योग्य नहीं हुआ करता है, क्योंकि उसमें विरोध पाता है । (धवल पु. ४. पृ. ३४३)
जो जीव सम्यग्दृष्टि होकर और प्रायु का वध करके सम्यग्मिथ्यात्व को प्राप्त होता है, वह सम्यक्त्व के साथ ही उस गति से निकलता है । अपवा जो मिथ्यादृष्टि होकर और आयु बांधकर सभ्यग्मिथ्यात्व को प्राप्त होता है, वह मिथ्यात्व के साथ ही उस गति से निकलता है (ध. पु.५ पृ.३१) अर्थात् यदि सम्यग्दृष्टि प्रायु-बन्ध करके सम्यग्मिथ्यात्व को प्राप्त होता है तो वह सम्यग्मिध्यात्व से असंयतसम्यग्दृष्टि होकर मरण को प्राप्त होता है। यदि मिथ्यात्व के साथ प्राय-बन्ध करके सम्यमिथ्यात्व को प्राप्त होता है तो बह सम्यग्मिथ्यात्व से मिथ्यादष्टि होकर मरण को प्राप्त होता है, ऐसा नियम है।
क्षायोपशामिक सम्यक्त्व का लक्षण सम्मसदेसघादिस्सुक्यादो वेदगं हवे सम्म ।
चलमलिनमगाढं तं गिच्च कम्मखवरणहेदु ॥२५॥ गाथार्थ देशघाती सम्यक्त्वप्रकृति के उदय से बेदकसम्यक्त्व होता है। वेदकसम्यक्त्व चल, मलिन, अगाढ़रूप होता है तथा नित्य होता है अर्थात् इसकी उत्कृष्ट स्थिति ६६ सागर की होती है और यह दर्शन मोहनीयकम के क्षय का हेतु है ।
विशेषार्थ-दर्शनमोहनीय कर्म की तीन प्रकृतियाँ है—सम्यक्त्वप्रकृति, सम्यग्मिथ्यात्वप्रकृति, मिथ्यात्वप्रकृति । सम्यक्त्वप्रकृति में लतास्थान के सर्व देशघाती स्पर्द्धक तथा दारुस्थान के अनन्तवें भागरूप स्पर्धक देशघाती हैं। अर्थात प्रथम देशघाती लतारूप स्पर्धक से अन्तिम देशघाती (दारु के अनन्तवें भाग के चरम) स्पर्धक पर्यन्त ये स्पर्धक सम्यक्त्वप्रकृति के होते हैं। सम्यक्त्वप्रकृति में सर्वघाती स्पर्धकों का अभाव है इसलिए सम्यक्त्वप्रकृति सम्यग्दर्शन का पूर्णरूपेण घात करने में असमर्थ है किन्तु उस सम्यक्त्व का एकदेश अर्थात् सम्यग्दर्शन की स्थिरता और निष्कांक्षता का घात करती है। इसका अभिप्राय यह है कि सम्यक्त्वप्रकृति के उदय होने से सम्यग्दर्शन का मल से विनाश तो नहीं होता, किन्तु स्थिरता व निष्कांक्षता का घात होने से सम्यग्दर्शन में चल, मलिन प्रादि दोष लग जाते हैं। जिस कर्म के उदय से प्राप्त, आगम और पदार्थों को श्रद्धा में शिथिलता होती है वह सम्यक्त्व प्रकृति है (धवल पुस्तक ६ पृष्ठ ३६) अथवा उत्पन्न हुए सम्यक्त्व में शिथिलता का उत्पादक और उसको अस्थिरता का कारणभूत कर्म सम्यक्त्वप्रकृति है ।
१. ज.ब.पु. ५ पृ. १२६ ।
२. ज.घ.पु. ५ पृ. १३० ।
३.ध.पु. १३ पृ. १५८ ।