Book Title: Gommatsara Jivkand
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
View full book text
________________
२४/गो. मा. जीवकाराष्ट
गाथा २१-२२ काल है। इसी प्रकार आगे-पागे संज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यंच, असंज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यच, चतुरिन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, द्वीन्द्रिय और एकेन्द्रियों में उत्पन्न होने योग्य काल होता है।
तृतीय गुणस्थान का स्वरुप सम्मामिच्छुदयेण य जत्तरसन्दधाविकज्जेरण । रणय सम्म मिच्छ पि य सम्मिस्सो होदि परिणामो ॥२१॥ बहिगुडमिव बामिस्सं पुहभावं पेय कारिद् सक्कं ।
एवं मिस्सयभावो सम्मामिच्छोत्ति रणादयो२ ॥२२॥ माथार्थ-सम्यग्मिथ्यात्वरूप मिश्नपरिणाम जात्यन्तर सर्वघातिया सम्यग्मिथ्यात्व प्रकृति के उदय का कार्य है । यह मिश्रपरिणाम न सम्यक्त्वरूप है और न मिथ्यात्वरूप है ॥२१जिस प्रकार दही और गुड़ का परस्पर मिश्रण होने से जात्यन्तर पृथकभाव (स्वाद) उत्पन्न हो जाता है जिसे पृथक् करना शक्य नहीं है, उसी प्रकार सम्यग्मिथ्यात्वरूप मिश्रभाव जानना चाहिए ।।२२।।
विशेषार्थ-तृतीयगुणस्थान का नाम सम्यग्मिथ्याष्टि है । दृष्टि, श्रद्धा, रुचि और प्रत्यय (प्रतीति) ये पर्यायवाची नाम हैं । जिस जीव के समीचीन और मिश्या दोनो प्रकार की मिश्रित दृष्टि होती है, वह सभ्यग्मिथ्यादृष्टि जीव है।
शङ्का--एक जीव में एक साथ सम्यक और मिथ्यारूप दृष्टि सम्भव नहीं है, क्योंकि इन दोनों दृष्टियों का एक जीव में एक साथ रहने में बिरोध आता है । यदि कहा जाय कि ये दोनों दष्टियां क्रम से एक जीव में रहती हैं, तो उनका सम्यग्दृष्टि और मिथ्यादृष्टि नाम के स्वतन्त्र गुरास्थानों में हो अन्तर्भाव मानना चाहिए । अतः सम्यग्मिथ्यादृष्टि नामक तीसरा गुणस्थान नहीं बनता है।
समाधान--युगपत् समीचीन और असमीचीन श्रद्धावाला जीव सम्यग्मिथ्यादृष्टि है, ऐसा मानते हैं। ऐसा मानने में विरोध भी नहीं पाता है, क्योंकि आत्मा अनेक धर्मात्मक है इसलिए उसमें अनेक धर्मों का सहानवस्थानलक्षरए चिरोध असिद्ध है । यदि कहा जाय कि आत्मा अनेक धर्मात्मक है, यह बात ही प्रसिद्ध है, सो यह कहना भी ठीक नहीं, क्योंकि अनेकान्त के बिना अर्थक्रियाकारीपना नहीं बन सकता है।
अथवा, विरोध दो प्रकार का है. परस्पर परिहारलक्षण विरोध और सहामवस्थालक्षण विरोध । इनमें से एक द्रव्य के अनन्तगुणों में परस्पर परिहारलक्षण विरोध इष्ट ही है, यदि गुणों का एक दूसरे का परिहार करके अस्तित्व नहीं माना जावे तो उनके स्वरूप की हानि का प्रसङ्ग पाता है, किन्तु इतने मात्र से गुणों में सहानवस्था लक्षण विरोध सम्भव नहीं है । यदि नानागुणों का एक साथ रहना ही विरोध स्वरूप मान लिया जाये तो वस्तु का अस्तित्व ही नहीं बन सकता, क्योंकि बस्तु का सदभाव अनेकान्त-निमित्तक ही होता है। जो अर्थक्रिया करने में समर्थ है, वह वस्तु है; परन्तु यह अर्थ क्रिया एकान्त पक्ष में नहीं बन सकती है, क्योंकि अर्थक्रिया को यदि एकरूप माना जाये तो पुन:
१. ध.पु. ५ पृ. ३५।
२. प. पु. १ पृ. १७०, प्रा. पं. सं. म. १ गा. १०।
३. ध. पु. १ पृ. १६७ ।