Book Title: Gommatsara Jivkand
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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गाथा २३-२४
गुणस्थान /२५
पुन: उसी प्रक्रिया की प्राप्ति होने से और यदि अनेकरूप माना जावे तो अनवस्था दोष याने से एकान्तपक्ष में अर्थक्रिया के होने में विरोध आता है। इस कथन से चैतन्य और अचैतन्य के साथ भी अनेकान्त दोष नहीं आता है, क्योंकि चैतन्य और अचेतन्य ये दोनों गुण नहीं हैं। जो सद्भावी होते हैं उन्हें गुण कहते हैं, परन्तु ये दोनों सदैव सहभावी नहीं हैं, क्योंकि बन्ध अवस्था के नहीं रहने पर चैतन्य और चैतन्य ये दोनों एकसाथ नहीं पाये जाते। दूसरी बात यह है कि दो विरुद्ध धर्मों की उत्पत्ति का कारण यदि समान अर्थात् एक मान लिया जावे तो विरोध प्राता है' । यह सब कथन काल्पनिक नहीं है, क्योंकि पूर्वस्वीकृत अन्य देवता के अपरित्याग के साथ-साथ अरिहंत भी देव है, ऐसी सम्यग्मिथ्यारूप श्रद्धावाला जीव पाया जाता है ।
यहाँ पर दही और गुड़ का दृष्टान्त दिया गया है जिसका अभिप्राय यह है कि दही का स्वाद खट्टा और गुड़ का स्वाद मीठा होता है तथा दही-गुड़ दोनों को मिलाने से खट्टा-मीठा मिश्रित स्वाद पृथक् जाति ( जात्यन्तर ) का स्वाद हो जाता है । दही-गुड़ के मिश्रित द्रव्य में से अब खटास या मिठास को पृथक् करना जिसप्रकार शक्य नहीं है, उसी प्रकार सम्यग्मिथ्यात्व भी जात्यन्तर है जो न सम्यत्वरूप है और न मिथ्यात्वरूप है, किन्तु दोनों का मिश्रितरूप है जिसमें से सम्यक्त्व या मिथ्यात्व को पृथक् करना शक्य नहीं है ।
इस गुणस्थान में होने वाली विशेषताएँ
सो संजमं ण गिरहदि बेसजमं वा रग बंधदे श्राउं । सम्मं वा मिच्छं या पडिवज्जिय मरदि रियमेर ||२३||
सम्मत्तमिच्छ परिणामेसु जहि श्राउगं पुरा बद्ध । तह मरणं मरणंतसमुग्धादो वि य ग मिस्सम्मि ||२४||
गायार्थ -- वह सम्यग्मिध्यादृष्टि संयम या देशसंयम को ग्रहण नहीं करता है और न आयु का अन्ध करता है। सम्यक्त्व या मिथ्यात्व परिणामों में से जिस परिणाम में पहले आयुका बन्ध किया है, नियम से उस सम्यक्त्व या मिथ्यात्व-परिणाम को प्राप्त होकर मरण करता है, क्योंकि मिश्र (सम्यग्मिथ्यात्व ) में मरा नहीं है तथा मारणान्तिक- समुद्घात भी मिश्र स्थान में नहीं है | २३-२४|
विशेषार्थ - - सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीव के परिणामों में इतनी विशुद्धता नहीं होती कि वह संयम र्थात् महाव्रत या देणसंयम यर्थात् अणुव्रत को ग्रहण कर सके। कहा भी है-
णय मरइ णेय संजममुवेद तह बेससंजमं वा वि ।
सम्मामिच्छाविट्ठी ण उ मरणंतं समुग्घाश्री ॥ [ धवल पु. ४ पृ. ३४६ ]
- सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीव न तो मरता है, न संयम को प्राप्त होता है, देशसंयम को भी प्राप्त नहीं होता है तथा उसके मारणान्तिक समुद्घात भी नहीं होता है ।
१. प्र. पु. १ पृ. १७४ | २. घ. पु. १ पृ. १६७ तथा उपासकाध्ययन ४ / १४३-४४ ।