Book Title: Agam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Part 01 Sthanakvasi
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Catalog link: https://jainqq.org/explore/006369/1

JAIN EDUCATION INTERNATIONAL FOR PRIVATE AND PERSONAL USE ONLY
Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ નમો અરિહંતાણે નમો સિદ્ધાણં, નમો આયરિયાણં નમો ઉવજઝાયાણં નમો લોએ સવ્વ સાહૂણં એસો પંચ નમુકકારો સવ્વ પાવપ્પણાસણો મંગલાણં ચ સવ્વસિં પઢમં હવઈ મંગલ Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ જિનાગમ પ્રકાશન યોજના પ. પૂ. આચાર્યશ્રી ઘાંસીલાલજી મહારાજ સાહેબ કૃત વ્યાખ્યા સહિત DVD No. 1 (Full Edition) ઃઃ યોજનાના આયોજક :: શ્રી ચંદ્ર પી. દોશી - પીએચ.ડી. website : www.jainagam.com Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ RADHYA UTTARA Dolabella SUTRA PART : 1 C712184442421 : 410-4 BLOL- 9 Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनाचार्य - जैनधर्मदिवाकर - पूज्यश्री - घासीलालजी - महाराजविरचितया प्रियदर्शिन्याख्यया - व्याख्यया समलङ्कृतं हिन्दी - गुर्जर भाषाऽनुवादसहितम् ॥ उत्तराध्ययन सूत्रम् ॥ UTTARADHYAYNA SUTRA प्रथमो भागः (अध्य० १-३ ) नियोजक : संस्कृत - प्राकृतज्ञ - जैनागमनिष्णात - प्रियव्याख्यानि - पण्डितमुनि श्री कन्हैयालालजी - महाराजः प्रकाशकः अहमदाबादवासि श्रेष्ठि- श्री मणिलाल - जेसींग भाईप्रदत्त - द्रव्यसाहाय्येन अ० भा० श्वे० स्था० जैनशास्त्रोद्धार समितिप्रमुखः श्रेष्ठि- श्री शान्तिलाल - मङ्गलदास भाई - महोदयः प्रथम आवृत्ति प्रति १००० मु० राजकोट वीर संवत् २४८५ विक्रम संवत् २०१५ मूल्यम् - रू० १५-०-० ईस्वी सन् १९५९ Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ મળવાનું ઠેકાણું: શ્રી. અ. ભા. . સ્થાનકવાસી જૈન શાસ્ત્રોદ્ધાર સમિતિ ઠે. ગરેડિયા કુવારેડ, ગ્રીન લેજ પાસે, રાજકોટ. (સૌરાષ્ટ્ર) પ્રથમ આવૃત્તિ ઃ પ્રત ૧૦૦૦ વીર સંવત : ૨૪૮૫ વિક્રમ સંવતઃ ૨૦૧૫ ઈસ્વી સન : ૧૯૫૯ : મુદ્રક : મણિલાલ છગનલાલ શાહ ધી નવપ્રભાત પ્રિન્ટીંગ પ્રેસ ઘીકાંટા રેડ અમદાવાદ ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ પૂજ્ય શ્રી ઘાસીલાલજી મહારાજ-રચિત સૂત્રેની ટીકા માટે શ્રી– વમાન-શ્રમણ-સંઘના આચાર્યશ્રી પૂજ્ય આત્મારામજી મહારાજશ્રીએ આપેલ સમ્મતિપત્ર તેમજ અન્ય મહાત્માઓ, મહાસતીજીએ, અદ્યતન-પદ્ધતિવાળા કેલેજના પ્રોફેસરે તેમજ શાસ્ત્ર શ્રાવકેના અભિપ્રાય છે. ગ્રીન લોજ પાસે,] મંત્રી ગરેડીઆકુવા રોડ પર શ્રી અખિલ ભારત સ્પે. સ્થા. જૈન રાજકોટ. શાસ્ત્રોદ્ધારસમિતિ ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (श्री दशवैकालिकसूत्रका सम्मतिपत्र ) ॥ श्रीवीरगौतमाय नमः॥ सम्मत्ति-पत्रम् मए पंडियमुणि-हेमचंदेण य पंडिय-मूलचन्दवासवारापत्ता पंडिय-रयण-मुणि-घासीलालेण विरइया सक्कय-हिंदी-भाषाहिँ जुत्ता सिरि - दसवेयालिय - नाम सुत्तस्स आयारमणिमंजूसा वित्ती अवलोइया, इमा मणोहरा अस्थि, एस्थ सद्दाणं अइसयजुत्तो अत्थो वणिओ विउजणाणं पाययजणाण य परमोक्यारिया इमा वित्ती दीसइ ! आयारविसए वित्तीकत्तारेण अइसयपुव्वं उल्लेहो कडो, तहा अहिंसाए सरूवं जे जहा-तहा न जाणंति तेसिं इमाए वित्तीए परमलाहो भविस्सइ, कत्तुणा पत्तेयविसयाणं फुडरूवेण वण्णणं कड, तहा मुणिणो अरहत्ता इमाए वित्तीए अवलोयणाओ अइसयजुत्ता सिज्झइ ! सक्कयछावा सुत्तययाणं पयच्छेओ य सुबोहदायगो अत्थि, पत्तेयजिण्णासुणो इमा वित्ती दडव्या। अम्हाणं समाजे एरिसविज्ज-मुणिरयणाणं सम्भावो समाजस्स अहोभग्गं अत्थि, किं ? उत्तविज्जमुणिरयणाणं कारणाओ जो अम्हाणं समाजो सुत्तप्पाओ, अम्हकेरं साहिच्चं च लुत्तप्पायं तेर्सि पुणोवि उदओ भविस्सइ जस्स कारणाओ भवियप्पा मोक्खस्स जोग्गो भवित्ता पुणो निव्वाणं पाविहिह अओहं आयारमणि-मंजूसाए कत्तुणो पुणो पुणो धनवायं देमि-॥ वि. सं. १९९० काल्गुन शुक्लत्रयोदशी मङ्गले (अलवर स्टेट) उवज्झाय जइण-मुणी, आयारामो (पचनईओ) ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनागमवेत्ता जैनधर्मदिवाकर उपाध्याय श्री १००८ आत्मारामजी महाराज तथान्याय व्याकरण के ज्ञाता परम पण्डित मुनिश्री १००७ श्री हेमचंद्रश्री महाराज, इन दोनों महात्माओंका दिया हुआ श्री उपासकदशाङ्ग सूत्रका प्रमाण पत्र निम्न प्रकार है सम्मइवत्तं सिरि-वीरनिव्वाण संवच्छर २४५८ आसोई (पुण्णमासी ) १५ सुकवारो लुहियाणाओ। मए मुणिहेमचंदेण य पंडियरयणमुणिसिरि-घासीलालविणिम्मिया सिरिउवासगसुत्तस्स अगारधम्मसंजीवणीनामिया वित्ती पंडियमूलचन्दवासाओ अज्जोवंतं सुया, समीईणं, इयं वित्ती जहाणामं तहा गुणेवि धारेइ, सच्चं, अगाराणं तु इमा जीवण (संजमजीवण) दाई एव अस्थि । वित्तीकत्तुणा मूलमुत्तस्स भावो उज्जुसेलीओ फुडीकओ, अहय उवासयस्स सामण्णविसेसधम्मो, णयसियवायवाओ, कम्मपुरिसठवाओ, समणोवासयस्स धम्मदढत्ता य, इच्चाइविसया अस्सि फुडरीइओ वणिया, जेव कत्तुणो पडिहाए सुटुप्पयारेण परिचओ होइ, तह इइहासदिहिओवि सिरिसमणस्स भगवओ महावीरस्स समए वट्टमाण-भरहवासस्स य कत्तुणा विसयप्पयारेण चितं चित्तितं, पुणो सक्कयपाढीणं, वट्टमाणकाले हिन्दोणामियाए भासाए भासीणं य परमोवयारो कडो, इमेण कत्तुणी अरहित्ता दीसइ, कत्तुणो एयं कर्ज परमप्पसंसणिज्जमत्थि । पत्तेयजणस्स मज्झत्थभावाओ अस्स मुत्तस्स अवलोयणमईव लाहप्पयं, अविउ सावयस्स तु (उ) इमं सत्थं सव्वस्समेव अत्थि, अओ कत्तुणो अणेगकोडीसो धनवाओ अस्थि, जेहिं, अच्चंतपरिस्समेण जइणजणतोवरि असीमोवयारो कडो, अहय सावयस्स बारस नियमा उ पत्तेयजगस्स पढणिज्जा अत्थि, जेसि पहावओ वा गहणाओ आया निव्वाणादिगारी भवइ, तहा भवियव्वयावाओ पुरिसकारपरकवाओ य अवस्समेव दंसणिज्जो, किंबहुणा इमी से वीत्तीए पत्तेयविसयस्स फुडसद्देहिं वण्णणं कयं, जइ अन्नोधि एवं अम्हाणं पसुत्तप्पाए समाजे विजं भवेज्जा तथा नाणस्स चरित्तस्स तहा संघस्स य खिप्पं उदयो भविस्सइ, एवं हं मन्ने। भवईओउवज्झाय-जइणमुणि-आयाराम,-पंचनईओ मवा ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्मतिपत्र (भाषान्तर) श्री वीर निर्वाण सं० २४५८ असोज शुक्ला (पूर्णिमा ) १५ शुक्रवार लुधियाना मैंने और पंडितमुनि हेमचन्द्रजीने पंडितरत्नमुनिश्री घासीलालजीकी रची हुई उपासकदशांग सूत्रकी गृहस्थधर्मसंजीवनी नामक टीका पंडित मूलचंदजी व्याससे आद्योपान्त सुनी है। यह वृत्ति यथानाम तथागुणावली-अच्छी बनी-है। सच यह गृहस्थोंके तो जीवनदात्रीसंयमरूप जीवनको देनेवाली-ही है। टीकाकारने मूलसूत्र के भावको सरल रीतिसे वर्णन किया है, तथा श्रावकका सामान्य धर्म क्या है? और विशेष धर्म क्या हैं ? इसका खुलासा इस टीकामें अच्छे ढंगसे बतलाया है । स्याद्वादका स्वरूप कर्म-पुरुषार्थ-वाद और श्रावकको धर्मके अन्दर दृढ़ता किस प्रकार रखना, इत्यादि विषयोंका निरूपण इसमें भलीभाँति किया है। इससे टीकाकारकी प्रतिभा खूब झलकती है। ऐतिहासिक दृष्टि से श्रमण भगवान महावीर के समय जैनधर्म किस जाहोजलाली पर था? और वर्तमान समय जैनधर्म किस स्थितिमें पहुंचा है ? इस विषयका तो ठीक चित्र ही चित्रित कर दिया है! फिर संस्कृत जाननेवालोंको तथा हिन्दीभाषाके जाननेवालीको भी पुरा लाभ होगा, क्योंकि टीका संस्कृत है, उसकी सरल हिन्दी करदी गई है। इसके पढनेसे कर्ताकी योग्यताका पता लगता है कि वृत्तिकारने समझानेका कैसा अच्छा प्रयत्न किया है। टीकाकारका यह कार्य परम प्रशंसनीय है। इस सूत्रको मध्यस्थ भावसे पढने वालोंको परम लाभकी प्राप्ति होगी। क्या कहें श्रावकों (गृहस्थों ) का तो यह सूत्र सर्वस्व ही है, अतः टीकाकारको कोटिशः धन्यवाद दिया जाता है, जिन्होंने अत्यन्त परिश्रमसे जैनजनताके ऊपर असीम उपकार किया है। इसमें श्रावकके बारह नियम प्रत्येक पुरुषके पढने योग्य हैं, जिनके प्रभावसे अथवा यथायोग्य ग्रहण करनेसे आत्मा मोक्षका अधिकारी होता है ! तथा भवितव्यतावाद और पुरुषकार ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पराक्रमवाद हरएकको अवश्य देखना चाहिये। कहांतक कहें इस टीकामें प्रत्येक विषय सम्यक प्रकारसे बताये गये हैं। हमारी सुप्तप्राय (सोई हुईसी) समाजमें अगर आप जैसे योग्य विद्वान् फिर भी कोई होगे तो ज्ञान चारित्र तथा श्रीसंघका शीघ्र उदय होग, ऐसा मैं मानता हूं आपका उपाध्याय जैनमुनि आत्माराम पंजाबी इसी प्रकार लाहोरमें विराजते हुए पंण्डितवर्य विद्वान् मुनिश्री १००८ श्री भागचन्दजी महाराज तथा पं. मुनिश्री त्रिलोकचन्दजी महाराजके दिये हुए श्री उपासकदशाङ्ग सूत्रके प्रमाणपत्रका हिन्दी सारांश निम्न प्रकार है श्री श्री स्वामी घासीलालजी महाराज कृत श्री उपासकदशाङ्ग सूत्रकी संस्कृत टीका व भाषाका अवलोकन किया, यह टीका अतिरमणीय व मनोरञ्जक है, इसे आपने बड़े परिश्रम व पुरुषार्थसे तैयार किया है सो आप धन्यवादके पात्र हैं। आप जैसे व्यक्तियोकी समाजमें पूर्ण आवश्यकता है। आपकी इस लेखनीसे समाजके विद्वान् साधुवर्ग पढकर पूर्ण लाभ उठावेंगे, टीकाके पढनेसे हमको अत्यानन्द हुवा, और मनमें ऐसे विचार उत्पन्न हुए कि हमारी समाजमें भी ऐसे २ सुयोग्य रत्न उत्पन्न होने लगे-यह एक हमारे लिये बड़े गौरवकी बात है। वि. सं. १९८९ मा. आश्विन कृष्ण १३ वार भौम लाहोर. ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री ज्ञाताधर्मकथाङ्ग सत्र की 'अनगार धर्माऽमृतवर्षिणा' टीका पर जैनदिवाकर साहित्यरत्न जैनागमरत्नाकर परमपूज्य श्रद्धेय जैनाचार्य श्री आत्मारामजी महाराजका सम्मतिपत्र लुधियाना, ता. ४-८-५१. मैंने आचार्यश्री घासीलालजी म. द्वारा निर्मित 'अनगार-धर्मा:मृत-वर्षिणी' टीका वाले श्री ज्ञाताधर्मकथाङ्ग सूत्रका मुनि श्री रत्नचन्द्रजीसे आद्योपान्त श्रवण किया। यह निःसन्देह कहना पड़ता है कि यह टीका आचार्य श्री घासीलालजी म. ने बड़े परिश्रम से लिखी है। इसमें प्रत्येक शब्दका प्रामाणिक अर्थ और कठिन स्थलों पर सार-पूर्ण विवेचन आदि कई एक विशेषतायें हैं। मूलस्थलोकों सरल बनाने में काफी प्रयत्न किया गया हैं, इससे साधारण तथा असाधारण सभी संस्कृतज्ञ पाठकों का लाभ होगा ऐसा मेरा विचार है। ___ मैं स्वाध्यायप्रेमी सज्जनों से यह आशा करूँगा कि वे वृत्तिकारके परिश्रम को सफल बनाकर शास्त्र में दी गई अनमोल शिक्षायों से अपने जीवनको शिक्षित करते हुए परमसाध्य मोक्षको प्राप्त करेंगे। श्रीमान्जी जयवीर आपकी सेवामें पोष्ट द्वारा पुस्तक भेज रहे हैं और इसपर आचार्यश्रीजी की जो सम्मति है वह इस पत्रके साथ भेज रहे हैं पहुचन पर समाचार देवें । श्री आचार्यश्री आत्मारामजी म. ठाने ५ सुख शान्तिसे विराजते हैं। पूज्य घासीलावजी म. सा. ठाने ४ को हमारी ओरसे वन्दना अजैकर सुखशाता पूछे।। ___ पूज्य श्री घासीलालजी म. जी का लिखा हुआ (विपाकसूत्र) महाराजश्रीजी देखना चाहते हैं इसलिये १ कॉपी आप भेजने की कृपा करें, फिर आपको वापिस भेज देवेंगे। आपके पास नहीं हो तो जहां से मिले वहांसे १ काँपी जरूर भिजवाने का कष्ट करें, उत्तर जल्द देनेकी कृपा करें। योग्य सेवा लिखते रहें। लुधियाना ता. ४-८-५१ निवेदक प्यारेलाल जैन ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनागमवारिधि-जैनधर्मादिवाकर - उपाध्याय - पण्डित - मुनि श्रीआत्मारामजी महाराज (पंजाब) का आचारागसूत्र की आचारचिन्तामणि टीका पर सम्मति-पत्र मैने पूज्य आचार्यवर्य श्रीघासीलालजी (महाराज) की बनाई हुई श्रीमद् आचारागसूत्र के प्रथम अध्ययन की आचारचिन्तमणि टीका सम्पूर्ण उपयोगपूर्वक सुनी। यह टीका-न्याय सिद्धान्त से युक्त, व्याकरण के नियम से निबद्ध है। तथा इसमें प्रसङ्ग २ पर क्रम से अन्य सिद्धान्त का संग्रह भी उचित रूप से मालूम होता है। टीकाकारने अन्य सभी विषय सम्यक् प्रकार से स्पष्ट किये हैं, तथा प्रौढ विषयों का विशेषरूप से संस्कृत भाषा में स्पष्टतापूर्वक प्रतिपादन अधिक मनोरंजक है, एतदर्थ आचार्य महोदय धन्यवाद के पात्र हैं। ____ मैं आशा करता हूँ कि-जिज्ञासु महोदय इसका भलीमाति पठन द्वारा जैनागम-सिद्धान्तरूप अमृत पी-पी कर मन को हर्षित करेंगे, और इसके मनन से दक्ष जन चार अनुयोगों का स्वरूपज्ञान पावेंगे। तथा आचार्यवर्य इसी प्रकार दूसरे भी जैनागमों के विशद विवेचन द्वारा श्वेताम्बर-स्थानकवासी समाज पर महान उपकार कर यशस्वी बनेंगे। वि. सं. २००२ जैनमुनि-उपाध्याय आत्माराम मृगसर मुदि १ लुधियाना (पंजाब) -::- शुभमस्तु । बीकानेरवाला समाजभूषण शास्त्रज्ञ भेरुदानजी शेठिआजीका अभिप्राय आप जो शास्त्रका कार्य कर रहे हैं यह बडा उपकारका कार्य है। इससे जैनजनता को काफी लाभ पहुँचेगा. (ता. २८-३-५६ ना पत्रमाथी) ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ श्रीः॥ जैनागमवारिधि-जैनधर्मदिवाकर-जैनाचार्य-पूज्य-श्री आस्मारामजीमहाराजनां पश्चनद-(पंजाब) स्थानामनुत्तरोपपातिकसूत्राणा मर्थबोधिनीनामकटीकायामिदम् सम्मतिपत्रम्. आचार्यबर्यैः श्री घासीलालमुनिभिः सङ्कलिता अनुत्तरोपपातिकसूत्राणामर्थबोधिनीनाम्नी संस्कृतत्तिरुपयोगपूर्वकं सकलाऽपि स्वशिष्यमुखेनाऽश्रावि मया, इयं हि वृत्तिर्मुनिवरस्य वैदुष्यं प्रकटयति। श्रीमद्भिर्मुनिभिः सूत्राणामनि स्पष्टयितुं यः प्रयत्नो व्यधायि तदर्थमनेकसौ धन्यवादानहन्ति ते । यथा चेयं वृत्तिः सरला सुबोधिनी च तथा सारवत्यपि । अस्याः स्वाध्यायेन निर्वाणपदमभीप्सुभिनिर्वाणपदमनुसरद्भिनि-दर्शन-चारित्रेषु प्रयतमानैर्मुनिभिः श्रावकैश्च ज्ञान-दर्शन-चारित्राणि सम्यक् सम्प्राप्यान्येऽप्यात्मानस्तत्र प्रवर्तयिष्यन्ते । ___ आशासे श्रीमदाशुकविर्मुनिवरो गीर्वाणवाणीजुषां विदुषां मनस्तोषाय जैनागममूत्राणां सारावबोधाय च अन्येषामपि जैनागमानामित्थं सरलाः सुस्पष्टाश्च वृत्तीविधाय तांस्तान् सूत्रग्रन्थान् देवगिरा सुस्पष्टयिष्यति । ___ अन्ते च " मुनिवरस्य परिश्रमं सफलयितुं सरला सुबोधिनी चेमां मूत्रवृत्ति स्वाध्यायेन सनाथयिष्यन्त्यवश्यं सुयोग्या हंसनिभाः पाठकाः।" इत्याशास्ये विक्रमाब्द २००२ श्रावणकृष्णा प्रतिपदा उपाध्याय आत्मारामो जैनमुनिः । लुधियाना एसेही: मध्यभारत सैलाना-निवासी श्रीमान् रतनलालजी डोसी श्रमणोपासक जैन लिखते हैं कि: श्रीमान् की की हुई टीकावाला उपासकदशांग सेवक के दृष्टिगत हुवा, सेवक अभी उसका मनन कर रहा है यह ग्रन्थ सर्वांग-सुन्दर एवम् उच्चकोटि का उपकारक है। ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર: ૧ Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरयावलिकासूत्रका सम्मतिपत्र आगमवारिधि-सर्वतन्त्रस्वतन्त्र-जैनाचार्य-पूज्यश्री आत्मारामजी महाराजकी तरफ का आया हुवा सम्मतिपत्र लुधियाना ता. ११ नवम्बर ४८ श्रीयुत गुलाबचन्दजी पानाचन्दजी। सादर जयजिनेन्द्र ॥ पत्र आपका मिला ! निरयावलिका विषय पूज्यश्रीजीका स्वास्थ्य ठीक न होने से उनके शिष्य पं. श्री हेमचन्द्रजी महाराजने सम्मतिपत्र लिख दिया है वह आपको भेज रहे हैं ! कृपया एक कोपी निरयावलिका की और भेज दिजिये और कोई योग्य सेवा कार्य लिखते रहें। भवदीय गुजरमल-बलवंतराय जैन ॥ सम्मतिः ॥ (लेखक जैनमुनि पं. श्री हेमचन्द्रजी महाराज) सुन्दरबोधिनीटीकया समलङ्कतं हिन्दी-गुर्जरभाषानुवादसहितं च श्रीनिरयावलिकासूत्रं मेधाविनामल्पमेधसां चोपकारकं भविष्यतीति सुदृढ मेऽभिमतम् , संस्कृतटीकेयं सरला सुबोधा सुललिता चात एव अन्वर्थनाम्नी चाप्यस्ति । सुविशदत्वात् सुगमत्वात् प्रत्येकदुवधिपद-व्याख्यायुतत्वाच्च टीकैषा संस्कृतसाधारणज्ञानवतामप्युपयोगिनो भाविनीत्यभिप्रेमि । हिन्दी-गुर्जरभाषानुवादावपि एतद्भाषाविज्ञानां महीयसे लाभाय भवेतामिति सम्यक् संभावयामि । जैनाचार्य-जैनधर्मदिवाकर-पूज्यश्री घासीलालजी महाराजनां परिश्रमोऽयं प्रशंसनीयो धन्यवादाश्चि ते मुनिसत्तमाः । एवमेव श्री समीरमल्लजी श्री कन्हैयालालजी मुनिवरेण्ययोनियोजनकार्यमपि श्लाध्य, तावपि च मुनिवरौ धन्यवादाही स्तः। सुन्दरप्रस्तावनाविषयानुक्रमादिना समलते सूत्ररत्नेऽस्मिन् यदि शब्दकोषोऽपि दत्तः स्यात्तर्हि वरतरं स्यात् । यतोऽस्यावश्यकतां सवऽप्पवेषकविद्वांसोऽभवन्ति । पाठका : सूत्रस्यास्याध्ययनाध्यापनेन लेखकनियोजकमहोदयानां परिश्रम सफलयिष्यन्तीत्याशास्महे । इति । ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२ श्री उपासकदशाङ्ग सूत्र परत्वे जैन समाजना अग्रगण्य जैनधर्मभूषण महान् विद्वान् संतोए तेमज विद्वान् श्रावको सम्मतिओ समर्पी छे मनां नामो नीचे प्रमाणे छे. (१) लुधियाना - सम्वत् १९८९, आश्विन पूर्णिमा का पत्र, श्रुतज्ञान के Here आगरत्नाकर जैनधर्मदिवाकर श्री १००८ श्री उपाध्याय श्री आत्मारामजी महाराज, तथा न्यायव्याकरणवेत्ता श्री १००७ तच्छिष्य श्री मुनि हेमचन्दजी महाराज. (२) लाहौर - वि० सं० १९८९ आश्विन वदि १३ का पत्र, पण्डितरत्न श्री १००८ श्री भागचन्दजी महाराज तथा तच्छिष्य पण्डितरत्न श्री १००७ श्री त्रिलोकचंदजी महाराज. (३) खिचन से ता. ९-११-३६ का पत्र, क्रियापात्र स्थविर श्री १००८ श्री भारतरत्न श्री समरथमलजी महाराज. (४) बालाचोर - ता. १४-११-३६ का पत्र, परम प्रसिद्ध भारतरत्न श्री १००८ श्री शतावधानीजी श्री रतनचन्दजी महाराज. (५) बम्बई - ता. १६-११-३६ का पत्र, प्रसिद्ध कवीन्द्र श्री १००८ श्री कवि नानचन्द्रजी महाराज. (६) आगरा - ता. १८-११-३६, जगत् वल्लभ श्री १००८ श्री जैनदिवाकर श्री चौथमलजी महाराज, गुणवन्त गणीजी श्री १००७ श्रीसाहित्यप्रेमी श्री प्यारचन्दजी महाराज. (७) हैद्राबाद (दक्षिण) ता. २५-११-३६ का पत्र, स्थविरपदभूषित भाग्यवान पुरुष श्री ताराचन्दजी महाराज तथा प्रसिद्ध वक्ता श्री १००८ श्री सोभाग्यमलजी महाराज. (८) जयपुर - ता. २६ - ११ - ३६का पत्र, संप्रदाय के गौरववर्धक शांत स्वभावी श्री १००८ श्री पूज्य श्री खूबचन्दजी महाराज. (९) अम्बाला - ता. २९-११-३६ का पत्र, परम प्रतापी पंजाब केशरी श्री १००८ श्री पूज्य श्री काशीरामजी महाराज. ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર ઃ ૧ Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१०) सेलाना-ता. २९-११-३६ का पत्र, शास्त्रों के ज्ञाता श्रीमान् रतनलालजी डोसी. (११) खीचन-ता. ९-११-३६ का पत्र, पंडितरत्न न्यायतीर्थ सुश्रावक श्रीयुत् माधवलालजी. सादर जय जिनेन्द्र ता. २५-१२-३६ आपका भेजा हुवा उपासकदशांगसूत्र तथा पत्र मिला यहाँ विराजित प्रवर्तक वयोवृद्ध श्री १००८ श्री ताराचंदजी महाराज पण्डित श्री किशनलालजी महाराज आदि ठाणा १४ सुख शांति में विराजमान हैं आपके वहां विराजित जैनशास्त्राचार्य पूज्यपाद श्री १००८ श्री घासीलालजी महाराज आदि ठाणा नव से हमारी वन्दना अर्ज कर मुख शांति पूछे आपने उपासकदशांगसूत्र के विषय में यहां विराजित मुनिवरों की सम्मती मंगाई उसके विषय में वक्ता श्री सोभागमलजी महाराज ने फरमाया है कि वर्तमान में स्थानकवासी समाज में अनेकानेक विद्वान मुनि महाराज मौजूद हैं मगर जैनशास्त्र की वृत्ति रचने का साहस जैसा घासीलालजी महाराज ने किया है वैसा अन्य ने किया हो ऐसा नजर नहीं आता दूसरा यह शास्त्र अत्यन्त उपयोगी तो यों हैं संस्कृत प्राकृत हिन्दी और गुजराती भाषा होने से चारों भाषा वाले एक ही पुस्तक से लाभ उठा सकते है जैन समाज में ऐसे विद्वानों का गौरव बढे यही शुभ कामना है आशा है कि स्थानकवासी संघ विद्वानों की कदर करना सीखेगा। योग्य लिखें शेष शुभ। भवदीय जमनालाल रामलाल कीमती आगरा से श्री जैनदिवाकर प्रसिद्ध वक्ता जगदवल्लभ मुनि श्री चोथमलजी महाराज व पण्डितरत्न सुव्याख्यानी गणीजी श्री प्यारचन्दजी महाराज ने इस पुस्तक को अतीव पसन्द किया है। ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीमान् न्यायतीर्थ पण्डित १४ माधवलालजी खीचन से लिखते हैं कि उन पंडितरत्न महाभाग्यवंत पुरुषों के सामने उनकी अगाध - तवगवेषणा के विषय में मैं नगण्य क्या सम्मति दे सकता हूं । परन्तुः - मेरे दो मित्रों ने जिन्हों ने इसको कुछ पढा हैं बहुत सराहना की है वास्तव में ऐसे उत्तम व सबके समझाने योग्य ग्रन्थों की बहुत आवश्यकता है और इस समाज का तो ऐसा ग्रन्थ ही गौरव बढा सकते हैं- ये दोनों ग्रन्थ वास्तव में अनुपम है ऐसे ग्रन्थरत्नों के सुप्रकाश से यह समाज अमावास्या के घोर अन्धकार में दीपावली का अनुभव करती हुई महावीर के अमूल्य वचनों का पान करती हुई अपनी उन्नति में अग्रसर होती रहेगी । ता. २९-११-३६ अम्बाला ( पंजाब ) पत्र आपका मिला श्री श्री १००८ पंजाब केशरी पूज्य श्री काशीरामजी महाराज की सेवा में पढ कर सुना दिया। आपकी भेजी हुई उपासकदशाङ्ग सूत्र तथा गृहिधर्मकल्पतरु की एक प्रति भी प्राप्त हुई । दोनों पुस्तकें अति उपयोगी तथा अत्यधिक परिश्रम से लिखी हुई हैं, ऐसे ग्रन्थरत्नों के प्रकाशित करवाये की बड़ी आवश्यकता है। इन पुस्तकों से जैन तथा अजैन सबका उपकार हो सकता है । आपका यह पुरुषार्थ सराहनीय है । ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર ઃ ૧ आपका शशिभूषण शास्त्री अध्यापक जैन हाईस्कूल अम्बाला शहर. Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शान्त स्वभावी वैराग्यमूर्ति तत्ववारिधि, धैर्यवान श्री जैनाचाय पूज्यवर श्री श्री १००८ श्री खूबचन्दजी महाराज साहेबने सूत्र श्री उपासक दशाङ्गजी को देखा। आपने फरमाया कि पण्डित मुनि घासीलालजी महाराज ने उपासकदशाङ्ग सूत्रकी टीका लिखने में बड़ा ही परिश्रम किया है। इस समय इस प्रकार प्रत्येक सूत्रोंकी संशोधनपूर्वक सरल टीका और शुद्ध हिन्दी अनुवाद होने से भगवान् निर्ग्रन्थों के प्रवचनों के अपूर्व रस का लाभ मिल सकता है. बम्बई शहर में विराजमान कवि मुनि श्री नानचन्दजी महाराजने फरमाया है कि पुस्तक सुन्दर है प्रयास अच्छा है। खीचन से स्थविर क्रिया पात्र मुनि श्री रतनचन्दजी महाराज और पंडितरत्न मुनि सम्रथमलजी महाराज श्री फरमाते हैं किविद्वान् महात्मा पुरुषों का प्रयत्न सराहनीय है क्या जैनागम श्रीमद् उपासकदशाङ्गसूत्र की टीका, एवं उसकी सरल सुबोधनी शुद्ध हिन्दी भाषा बड़ी ही सुन्दरता से लिखी है। श्री वीतरागाय नमः॥ श्री श्री श्री १००८ जैनधर्मदिवाकर जैनागमरत्नाकर श्रीमज्जैनाचार्य श्री पूज्य घासीलालजी महाराज चरणवन्दन स्वीकार हो। अपरश्च समाचार है कि आपके भेजे हुए ९ शास्त्र मास्टर सोभालालजी के द्वारा प्राप्त हुए, एतदर्थ धन्यवाद ! आपश्रीजीने तो ऐसा कार्य किया है जो कि हजारों वर्षों से किसी भी स्थानकवासी जैनाचार्य ने नहीं किया। ___ आपने स्थानकवासीजैनसमाज के ऊपर जो उपकार किया है यह कदापि भुलाया नहीं जा सकता और नहीं भुलाया जा सकेगा। ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६ हम तीनों मुनि भगवान महावीर से अथवा शासनदेव से प्रार्थना करते हैं कि आपकी इस वज्रमयी लेखनी को उत्तरोत्तर शक्ति प्रदान करें ता कि आप जैनसमाज के ऊपर और भी उपकार करते रहें और आप चिरञ्जीव हों ! उदेपुर. ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર ઃ ૧ हम आपके मुनि तीन मुनि सत्येन्द्रदेव - मुनि लखपतराय - मुनि पद्मसेन * इतवारी बाजार नागपुर ता. ११-१२-५६ प्रखर विद्वान जैनाचार्य मुनिराज श्री घासीलालजी महाराजद्वारा जो आगमोद्धार हुआ और हो रहा है, सचमुच महाराजश्री का यह स्तुत्य कार्य है । हमने प्रचारकजी के द्वारा नौ सूत्रों का सेट देखा और कह मार्मिक स्थलोंको पढा, पढ़ कर विद्वान मुनिराजश्री की शुद्ध श्रद्धा तथा लेखनीके प्रति हार्दिक प्रसन्नता फुट पडी । वास्तव में मुनिराज श्री जैन समाज पर ही नहीं इतर समाज पर भी महा उपकार कर रहे हैं। ज्ञान किसी एक समाज का नहीं होता वह सभी समाज की अनमोल निधि है जिसे कठिन परिश्रम से तैयार कर जनता के सम्मुख रक्खा जा रहा है जिसका एक एक सेट हर शहर गांव और घर घर में होना आवश्यक है । साहित्यरत्न मोहनमुनि सोहनमुनि जैन. Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेवाडदेशपाक्नकतॄणां श्री श्रमणसंवीय पण्डित मुनिश्री मांगीलालजी महाराजानां शिष्यस्य हस्तिमुनेः सम्मतिपत्रम् २०१५ वर्षीय-वर्षावास-दीपावली राजकरेडा ( राजस्थान ) पुरतो जिनवाणीरसिक सज्जनानां पूज्यश्री १००८ श्री घासीलालजी महा. राजविरचित जैनागमव्याख्याऽध्ययनजन्मनो मत्स्वान्ते परिमितिमप्राप्नुवतो निर्भरानन्दस्यानुभवं प्रसन्नमनसा कतिपयैः शब्दैनिर्दिशामि। ___ अस्माकमहोभाग्येन विराजमा विधया वयसा च वृद्धः सज्जनशिरोमणिभिः पूज्यपदवीमलकुर्वद्भिः श्रीमज्जैनाचार्य घासीलालजीमहाराजैः प्रणीतया व्याख्यया समलङ्कताः जैनागमा दृष्टिगोचरीकृताः । मनोहारिणी संस्कृत टीका हिन्दीगुर्जरभाषानुवादद्वयं च बलान्मानसं समाकर्षति । पूज्यश्रीविरचितजैनागमव्याख्यानसहस्रभानुना मम जैनागमरहस्याज्ञानतमस्संहतिरपहृता, हृत्पद्यं च प्रफुल्लितं जातम् । आसीदभावो बहोः कालाज्जैनागमेषु स्थानकवासिसंप्रदायाभिमतसंस्कृतव्याख्यानस्य, परतन्त्रश्चासीदद्यावधिस्थानकवासीजैनसमुदायः। परं परमकृपालुना श्रीमताऽऽचार्यप्रवरेणाऽनवर परिश्रम्य जैनागमेषु स्वसंपदायपरिपोषिका टीका विधाय सकलोऽपि स्थानकवासिजैनसंघः स्वावलम्बीकृतः । श्रीमज्जैनाचार्यकृतेय मुपकृतिः सकलस्थानकवासिजैनहृदयेषु वज्रलेपायिता भविष्यतीति मन्ये । ___अनादिघोराज्ञानतमसिपततां जनानां त्राणोपायः केवलं जिनभाषितमेवेति सर्वविदितमेव । तत्र सर्वजनकल्याणकामनया पूज्यश्रीचरणैर्या टीका विरचिता सा सर्वेषामपि सिद्धिपदा विजयप्रदा कल्याणपदा सन्मार्गप्रदर्शिका चास्तीति मे सुदृढो विश्वासः । अतोऽहं सर्वानपि जैनबन्धून प्रोत्साहयामि, यत्ते स्वहितमभिसंधाय श्रीमत्पूज्यजैनाचार्यविरचितव्याख्यासाहाय्येन जैनागमहृदयं सम्यगवगम्य तन्निर्दिष्टमार्गेण स्व-स्वजोवनं सफलयन्तो लोकद्वयं साधयन्त्वित्यलमतिविस्तरेण ।। ___ अन्ते व शासनाधीशमभ्यर्थये-यदस्मदीयाचार्यप्रवराः शतायुषो निरामयश्च भवन्विति । इत्थं पूज्यश्री १००८ श्रीघासीलालजी महाराजविरचितजैनागमव्याख्यायां स्वसम्मतिं प्रदर्शयति श्री श्रमणसंघीय पण्डित मुनिश्री मांगीलालजी महाराजचरणरजो हस्तीमुनिः ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્રનું સમ્મતિ પત્ર શ્રમણસંઘના મહાન આચાર્ય આગમવારિધિ સર્વતન્ન સ્વતંત્ર જૈનાચાર્ય પૂજ્ય શ્રી આત્મારામજી મહારાજે આપેલા સમ્મતિ પત્રને ગુજરાતી અનુવાદ, મેં તથા પંડિત મુનિ હેમચંદ્રજીએ પંડિત મુલચંદ વ્યાસ (નાર કરવાહ વદિા) દ્વારા મળેલી પંડિતરત્ન શ્રી. ઘાસીલાલજી નિ વિચરિત સંસ્કૃત અને હિન્દી ભાષા સહિત શ્રી દશવૈકાલિકસૂત્રની આચારમણિમજૂષા ટકાનું અવલોકન કર્યું. આ ટીકા સુંદર બની છે. તેમાં પ્રત્યેક શબ્દને અર્થ સારી રીતે વિશેષ ભાવ લઈને સમજાવવામાં આવેલ છે. તેથી વિદ્વાને અને સાધારણ બુદ્ધિવાળાઓ માટે પરમ ઉપકાર કરવાવાળી છે. ટીકાકારે મુનિના આચાર વિષયને સારો ઉલ્લેખ કરેલ છે. જે આધુનિક મતાવલંબી અહિંસાના સ્વરૂપને નથી જાણતા, દયામાં પાપ સમજે છે તેમને માટે અહિંસા શું વસ્તુ છે” તેનું સારી રીતે પ્રતિપાદન કરેલ છે. વૃત્તિકાર સૂત્રના પ્રત્યેક વિષયને સારી રીતે સમજાવેલ છે. આ વૃત્તિના અવલોકનથી વૃત્તિકારની અતિશય ગ્યતા સિદ્ધ થાય છે. આ વૃત્તિમાં એક બીજી વિશેષતા એ છે કે મૂલ સૂત્રની સંસ્કૃત છાયા હોવાથી સૂત્ર, સૂત્રનાં પદ અને પદચછેદ સુબોધ દાયક બનેલ છે. પ્રત્યેક જીજ્ઞાસુએ આ ટીકાનું અવલોકન અવશ્ય કરવું જોઈએ. વધારે શું કહેવું અમારા સમાજમાં આવા પ્રકારના વિદ્વાન મુનિરત્નનું હોવું એ સમાજને અહોભાગ્ય છે. આવા વિદ્વાન મુનિરોના કારણે સુપ્તપ્રાય સુતેલો સમાજ અને લુપ્તપ્રાય એટલે લેપ પામેલું સાહિત્ય એ બંનેને ફરીથી ઉદય થશે. જેનાથી ભાવિતાત્મા મોક્ષ એગ્ય બનશે અને નિર્વાણ પદને પામશે આ માટે અમે વૃત્તિકારને વારંવાર ધન્યવાદ આપીએ છીએ. વિક્રમ સંવત ૧૯૯૦ ફાલ્ગન શુકલ. તેરસ મંગળવાર ઈવજઝાયજઈશું સુણી આયારામે (અલવર સ્ટેટ) પંચનઈઓ શતાવધાની પંડિતરત્ન મુનિ શ્રી રતનચંદજી મ. સા. ને અભિપ્રાય બાલાચારથી ભારતરત્ન શતાવધાની પંડિત મુનિ શ્રી ૧૦૦૮ શ્રી રતનચંદજી મહારાજ ફરમાવે છે કે – ઉત્તરોત્તર જોતાં મૂલસૂત્રની ટીકાઓ રચવામાં ટીકાકારે સ્તુત્ય પ્રયાસ કર્યો છે, જે સ્થાનકવાસી સમાજ માટે મગરુરી લેવા જેવું છે, વળી કરાંચીના શ્રી સંઘ સારા કાગળમાં અને સારા ટાઈપમાં પુસ્તક છપાવી પ્રગટ કર્યું છે જે એક પ્રકારની સાહિત્ય સેવા બજાવી છે. ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ શ્રમણ સંઘના પ્રચાર મંત્રી પંજાબ કેશરી મહારાજ શ્રી પ્રેમચંદજી મહારાજ જેઓશ્રી રાજકેટમાં પધારેલા હતા ત્યારે તેના તરફથી શાને માટે મળેલ અભિપ્રાય. શાસ્ત્રોદ્ધાર સમિતિ તરફથી પૂજ્યપાદ શાવારિધિ પંડિતરાજ સ્વામિ શ્રી. ઘાસલાલજી મહારાજદ્વારા શાસ્ત્રોદ્ધારનું જે કાર્ય થઈ રહ્યું છે તે કાર્ય જનસમાજ તેમાં ખાસ કરીને સ્થાનકવાસી જૈન સમાજને માટે મૂળભૂત મોલિક સંસ્કૃતિની જડને મજબૂત કરવાવાળું છે, એટલા ખાતર આ કાર્ય અતિ પ્રશંસનીય છે માટે દરેક વ્યક્તિએ તેમાં યથાશક્તિ ભેગ દેવાની ખાસ આવશ્યકતા છે અને તેથી એ ભગીરથ કાર્ય જલદી સંપૂર્ણપણે પાર પાડી શકાય અને જનતા શ્રુતજ્ઞાનને લાભ મેળવી શકે. દરીયાપુરી સંપ્રદાયના પૂજ્ય આચાર્ય શ્રી ઈશ્વરલાલજી મહારાજ સાહેબનાં સૂત્રો સંબંધે વિચારે નમામિ વીર ગિરી સાર ધીર પૂજ્ય પાદ જ્ઞાનપ્રવર શ્રી ઘાસીલાલજી મહારાજ તથા પંડિત શ્રી કનૈયાલાલજી મહારાજ આદિ થાણું છની સેવામાં– અમદાવાદ શાહપુર ઉપાશ્રયથી મુનિ દયાનંદજીના ૧૦૮ પ્રણિપાત. આપ સર્વે થાણાએ સુખસમાધિમાં હશે નિરંતર ધમધ્યાન ધર્મરાધનમાં લીન હશે. સૂત્ર પ્રકાશન કાર્ય ત્વરિત થાય એવી ભાવના છે દેશવૈકાલિક તથા આચારાંગ એક એક ભાગ અહીં છે. ટીકા ખૂબ સુંદર, સરળ અને પંડિતજનેને સુપ્રિય થઈ પડે તેવી છે. સાથે સાથે ટીકા વીનાના મૂળ અને અર્થ સાથે પ્રકાશન થાય તે શ્રાવકગણ તેને વિશેષ લાભ લઈ શકે અને પૂજ્ય આચાર્ય ગુરુદેવને આંખે મોતીયે ઉતરાવ્યો છે અને સારું છે એજ. આસો સુદ ૧૦, મંગળવાર તા. ૨૫-૧૦-૫૫ પુનઃ પુનઃ શાતા ઈચ્છતે, દયા મુનિના પ્રાણિપાત. ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ દરીયાપુરી સંપ્રદાયના પંડિતરત્ન શ્રી ભાઈચંદજી મહારાજને અભિપ્રાય રાણપુર તા. ૧૯-૧૨-૫૫ પૂજ્યપાદ જ્ઞાનપ્રવર પંડિતરત્ન પૂજ્ય શ્રી ઘાસીલાલજી મહારાજ આદિ મુનિવરોની સેવામાં આપ સર્વ સુખ સમાધીમાં હશે. સૂત્ર પ્રકાશનનું કામ સુંદર થઈ રહ્યું છે તે જાણું અત્યંત આનંદ, આપનાં પ્રકાશિત થયેલાં કેટલાંક સૂત્રે જયાં. સુંદર અને સરલ સિદ્ધાંતના ન્યાય ને પુષ્ટિ કરતી ટીકા પંડિતરત્નને સુપ્રિય થઈ પડે તેવી છે. સૂત્ર પ્રકાશનનું કામ ત્વરિત પૂર્ણ થાય અને ભાવિ આત્માઓને આત્મકલ્યાણ કરવામાં સાધનભૂત થાય એજ અભ્યર્થના. લી ૫ડિતરત્ન બાળબ્રહ્મચારી પૂ. શ્રી ભાઈચંદ મહારાજની આજ્ઞાનુસાર શાન્તિમુનિના પાયવંદન સ્વીકારશે, તા. ૧૧-૫-૫૬ વીરમગામ ગચ્છાધિપતિ પૂજ્ય મહારાજ શ્રી જ્ઞાનચંદજી મહારાજના સંપ્રદાયના આત્માર્થી, ક્રિયાપાત્ર, પંડિતરત્ન મુનિશ્રી સમરથમલજી મહારાજને અભિપ્રાય. ખીચનથી આવેલ તા. ૧૧-૨-પદના પત્રથી ઉક્તિ પૂજ્ય આચાર્ય ઘાસીલાલજી મહારાજના હસ્તક જે સૂત્રોનું લખાણ સુંદર અને સરળ ભાષામાં થાય છે. તે સાહિત્ય, પંડિત મુનિશ્રી સમરથલાલજી મહારાજ, સમય મળવાને કારણે સંપૂર્ણ જોઈ શક્યા નથી. છતાં જેટલું સાહિત્ય જેવું છે, તે બહુ જ સારું અને મનન સાથે લખાએલું છે. તે લખાણ શાસ્ત્ર આજ્ઞાને અનુરૂપ લાગે છે આ સાહિત્ય દરેક શ્રધ્ધાળુ જીને વાંચવા ગ્ય છે, આમાં સ્થાનકવાસી સમાજની શ્રધ્ધા, પ્રરુ૫ણા અને ફરસણાની દઢતા શાસ્ત્રાનુકૂળ છે. આચાર્ય શ્રી અપૂર્વ શ્રમ લઈ સમાજ ઉપર મહાન ઉપકાર કરે છે. લી. કીશનલાલ પૃથ્વીરાજ માલુ મુ. ખીચન. ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ લીંબડી સંપ્રદાયના સદાનંદી મુનિશ્રી છોટાલાલજી મહારાજને અભિપ્રાય શ્રી વીતરાગદેવે-જ્ઞાનપ્રચારને તીર્થકર નામ ગોત્ર બાંધવાનું નિમિત્ત કહેલ છે. જ્ઞાનપ્રચાર કરનાર, કરવામાં સહાય કરનાર અને તેને અનુમોદન આપનાર જ્ઞાનાવણિય કર્મને ક્ષય કરી-કેવળ જ્ઞાનને પ્રાપ્ત કરી પરમપદનાં અધિકારી બને છે. શાસ્ત્રજ્ઞ–પરમ શાન્ત, અને અપ્રમાદિ પૂજ્યશ્રી ઘાસીલાલજી મહારાજ પિતે અવિશ્રાન્તપણે જ્ઞાનની ઉપાસના અને તેની પ્રભાવના અનેક વિકટ પ્રસંગોમાં પણ કરી રહ્યા છે. તે માટે તેઓશ્રી અનેકશઃ ધન્યવાદના અધિકારી છે. વંદનીય છે–તેમની જ્ઞાન પ્રભાવનાની ધગશ ઘણા પ્રમાદિઓને અનુકરણીય છે. જેમ પૂજ્યશ્રી ઘાસીલાલજી મહારાજ પિતે જ્ઞાનાપ્રચાર માટે અવિશ્રાન્ત પ્રયત્ન કરે છે. તેમજશાસ્ત્રધાર સમિતિના કાર્યવાહકે પણ એમાં સહાય કરીને જે પવિત્ર સેવા કરી રહેલ છે. તે પણ ખરેખર ધન્યવાદના પૂર્ણ અધિકારી છે. એ સમિતિના કાર્યવાહકેને મારી એક સૂચના છે કે : શાસ્ત્રો ધારક પ્રવર પંડિત અપ્રમાદિ સંત ઘાસીલાલજી મહારાજ જે શાસ્ત્રોદ્ધારનું કામ કરી રહેલ છે. તેમાં સહાય કરવા માટે-પંડિત વિગેરેના માટે જે ખર્ચો થઈ રહેલ છે. તેને પહોંચી વળવા માટે સારું સરખું ફંડ જોઈએ. એના માટે મારી એ સૂચના છે કે – શાધાર સમિતિના મુખ્ય કાર્યવાહક–જે બની શકે તે પ્રમુખ પોતે અને બીજા બે ત્રણ જણાએ ગુજ. રાત, સૌરાષ્ટ્ર અને કચ્છમાં પ્રવાસ કરી મેમ્બરો બનાવે અને આર્થિક સહાય મેળવે. જો કે અત્યારની પરિસ્થિતિ વિષમ છે. વ્યાપારીઓ, ધંધાદારીઓને પિતાના વ્યવહાર સાચવવા પણ મુશ્કેલ બને છે. છતાં જે સંભવિત ગૃહસ્થ પ્રવાસે નિકળે તે જરૂરી કાર્ય સફળ કરે એવી મને શ્રધ્ધા છે. આર્થિક અનુકૂળતા થવાથી શાસ્ત્રોદ્ધારનું કામ પણ વધુ સરલતાથી થઈ શકે, પૂજ્યશ્રી ઘાસીલાલજી મહારાજ જ્યાં સુધી આ તરફ વિચરે છે ત્યાં સુધીમાં એમની જ્ઞાન શક્તિને જેટલો લાભ લેવાય તેટલો લઈ લે. કદાચ સૌરાષ્ટ્રમાં વધુ વખત રહેવાથી તેમને હવે બહાર વિહરવાની ઈચ્છા હોય તે શાન્તિભાઈ શેઠ જેવાએ વિનંતી કરી અમદાવાદ પધરાવવા અને ત્યાં–અનુકૂળતા મુજબ બે-ત્રણ વર્ષની સ્થિરતા કરાવીને તેમની પાસે શાધારનું કામ પૂર્ણ કરાવી લેવું જોઈએ. થોડા વખતમાં જામજોધપુરમાં શાદ્ધાર કમીટી મળવાની છે. તે વખતે ઉપરની સૂચના વિચારાય તે ઠીક. ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ફરી શાસધ્ધારક પૂજ્યશ્રી ઘાસીલાલજી મહારાજને એમની આ સેવા અને પરમ કલ્યાણકારક પ્રવૃત્તિને માટે વારંવાર અભિનંદન છે. શાસનનાયક દેવ તેમના શરિરાદીને સશક્ત અને દીર્ધાયુ રાખી સમાજ ધર્મની વધુ ને વધુ સેવા કરી શકે. 35 અતુ. ચતુર્માસ સ્થળ. લીંબડી સાં. ૨૦૧૦ શ્રાવણ વદ ૧૩ ગુરૂ. સદાનંદી જનમુનિ છોટાલાલજી. શ્રી વર્ધમાન સંપ્રદાયના પૂજ્ય શ્રી પુનમચંદ્રજી મહારાજના અભિપ્રાય શાઅવિશારદ પૂજ્ય આચાર્ય મહારાજ શ્રી ઘાસીલાલજી મહારાજશ્રીએ જૈન આગમ ઉપર જે સંસ્કૃત ટીકા વગેરે રચેલ છે. તે માટે તેઓશ્રી ધન્યવાદને પાત્ર છે. તેમણે આગ ઉપરની સ્વતંત્ર ટીકા રચીને સ્થાનકવાસી જૈન સમાજનું ગૌરવ વધાર્યું છે. આગામે ઉપરની તેમની સંસ્કૃત ટીકા ભાષા અને ભાવની દષ્ટિએ ઘણી જ સુંદર છે. સંસ્કૃત રચના માધુર્ય તેમજ અલંકાર વગેરે ગુણેથી યુક્ત છે, વિદ્વાનોએ તેમજ જૈન સમાજના આચાર્યો, ઉપાધ્યાયે વગેરેએ શા ઉપર રચેલી આ સંસ્કૃત રચનાની કદર કરવી જોઈએ અને દરેક પ્રકારનો સહકાર આપવું જોઈએ. આવા મહાન કાર્યમાં પંડિતરત્ન પૂજ્ય શ્રી ઘાસીલાલજી મહારાજ જે પ્રયત્ન કરી રહ્યા છે તે અલૌકિક છે. તેમનું આગમ ઉપરની સંસ્કૃત ટીકા વગેરે રચવાનું ભગીરથ કાર્ય શીધ્ર સફળ થાય એજ શુભેચ્છા સાથે. અમદાવાદ તા. ૨૨-૪--૫૬ રવિવાર મુનિ પૂર્ણચંદ્રજી મહાવીર જયંતિ ખંભાત સંપ્રદાયના મહાસતી શારદાબાઈ સ્વામીને અભિપ્રાય શ્રીમાન શેઠ શાંતિલાલભાઈ મંગળદાસભાઈ પ્રમુખ સાહેબ અખિલ ભારત વે, સ્થા. જૈન શાસ્ત્રોદ્ધાર સમિતિ મુ. અમદાવાદ. અમે અત્રે દેવગુરુની કૃપાએ સુખરૂપ છીએ. વિ. માં આપની સમિતિ દ્વારા પૂજ્ય આચાર્ય મહારાજ શ્રી ઘાસીલાલજી મહારાજ સાહેબ જે સૂત્રોનું કાર્ય કરે છે તે પૈકીનાં સૂત્રોમાંથી ઉપાસકદશાંગસૂત્ર, આચારાંગસૂત્ર, અનુત્તપિપાકિસૂત્ર, દશવૈકાલિકસૂત્ર વિગેરે સૂત્રે જેમાં તે સુગે સંસ્કૃત ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ર૩ હિન્દી અને ગુજરાતી ભાષાઓમાં હાવાને કારણે વિદ્વાન અને સામાન્ય જનાને ઘણાંજ લાભદાયક છે. તેનું વાંચન ઘણુંજ સુંદર અને મનેારંજક છે. આ કાર્યોંમાં પૂજ્ય આચાર્ય શ્રી જે અઘાત પુરૂષાર્થે કાર્ય કરે કે તે માટે વાર વાર ધન્યવાદને પાત્ર છે. આ સૂત્રેાથી સમાજને ઘણું લાભનુ કારણ છે. હસ સમાન બુદ્ધિવાળા આત્માએ સ્વપરના ભેદથી નિખાલસ ભાવનાએ વલાયન કરશે તેા આ સાહિત્ય સ્થાનકવાસી સમાજ માટે અપૂર્વ અને ગૌરવ લેવા જેવું છે. માટે દરેક ભવ્ય આત્માઓને સૂચન કરૂ છું કે આ સૂત્રો પોતપાતાના ઘરમાં વસાવવાની સુંદર તક ચૂકશે! નહિ. કારણ આવા શુષ પવિત્ર અને સ્વપર'પરા ને પુષ્ટીરૂપ સૂત્ર મળવા બહુ મુશ્કેલ છે. આ કાર્યને આપશ્રી તથા સમિતિના અન્ય કાર્યકરી જે શ્રમ લઈ રહ્યા છે તેમાં મહાન નિર્જરાનું કારણ જોવામાં આવે છે તે બદલ ધન્યવાદ. એજ * બરવાળા સંપ્રદાયના વિદુષી મહાસતીજી મેઘીબાઈ સ્વામીના અભિપ્રાય, શ્રીમાન શેઠ શાન્તીલાલ મગળદાસભાઈ લી. શારદાબાઈ સ્વામી ખભાત સંપ્રદાય. પ્રમુખ અ॰ ભા॰ વે॰ સ્થા॰ જૈનશાસ્ત્રાધાર સમિતિ મુ ાજકાટ. ધંધુકા તા. ૨૭–૧–૫૬ અત્રે ખિરાજતા ગુ॰ ગુના ભ ́ડાર મહાસતીજી વિદુષી માંઘીબાઈ સ્વામી તથા હિરાખાઈ સ્વામી આદિ ઠાણા અને સુખશાતામાં બિરાજે છે. આપને સૂચન છેકે અસમત અવસ્થામાં રહી નિવૃત્તિ ભાવને મેળવી ધર્મધ્યાન કરશેાજી એજ આશા છે. ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર ઃ ૧ વિશેષમાં અમને પૂજ્ય આચાર્ય રચેલાં સૂત્રેા ભાઈ પાપઢ ધનજીભાઇ તમામ આઘોપાન્ત વાંચ્યાં મનન કર્યો. વાસી સમાજને અને વીતરાગ માને ખૂબજ ઉન્નત્ત બનાવનાર છે, તેમાં આપણી શ્રધ્ધા એટલી ન્યાય રૂપથી ભરેલી છે તે આપણા સમાજ માટે ગૌરવ મહારાજ શ્રી ચાસીલાલજી મહારાજના તરફથી ભેટ તરીકે મળેલાં તે સૂત્રા અને વિચાર્યા છે તે સૂત્રેા સ્થાનક Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨૪ લેવા જેવું છે. હંસ સમાન આત્માઓ જ્ઞાન ઝરણુઓથી આત્મરૂપ વાડીને વિકસિત કરે છે. ધન્ય છે આપને અને સમિતિના કાર્યકરોને જે સમાજ ઉત્થાન માટે કેઈની પણ પરવા કર્યા વગર જ્ઞાનનું દાન ભવ્ય આત્માઓને આપવા નિમિત્તરૂપ થઈ રહ્યા છે. આવા સમર્થન વિદ્વાન પાસેથી સંપૂર્ણ કાર્ય પુરૂં કરાવશે તેવી આશા છે. એજ લિ. બરવાળા સંપ્રદાયના વિદુષી મહાસતીજી સેંઘીબાઈ સ્વામી ના ફરમાનથી લી. ખેડીદાસ ગણેશભાઈ-ધંધુકા સ્થાનકવાસી જૈન સંઘના પ્રમુખ. અઘતક પદ્ધતિને અપનાવનાર વડોદરા કેલેજના એક વિદ્વાન કેસરને અભિપ્રાય સ્થાનક્વાસી સંપ્રદાયના મુનિશ્રી ઘાસીલાલજી મહારાજ જેનશાના સંસ્કૃત ટીકાબદ્ધ, ગુજરાતીમાં અને હિન્દીમાં ભાષાંતર કરવાના ઘણા વિકટ કાર્યમાં વ્યાપ્ત થયેલા છે. શાસ્ત્રો પૈકી જે શાસ્ત્રમાં પ્રસિદ્ધ થયાં છે તે હું જોઈ શક છું, મુનિશ્રી પોતે સંસ્કૃત, અર્ધમાગધી હિન્દી ભાષાઓના નિષ્ણાત છે, એ એમને ટુંકો પરિચય કરતાં સહજ જણાઈ આવે છે. શાસ્ત્રોનું સંપાદન કરવામાં તેમને પોતાના શિષ્યવર્ગને અને વિશેષમાં ત્રણ પંડિતેને સહકાર મળે છે, તે જોઈ મને આનંદ થયો. સ્થાનકવાસી સંપ્રદાયના અગ્રેસરેએ પંડિતેને સહકાર મેળવી આપી મુનિશ્રીના કાર્યને સરળ અને શિષ્ટ બનાવ્યું છે. સ્થાનકવાસી સમાજમાં વિદ્વત્તા ઘણી ઓછી છે. તે દિગંબર મૂર્તિપૂજક તાંબર વગેરે જૈનદર્શનના પ્રતિનિધિઓના ઘણા સમયથી પરિચયમાં આવતાં હું વિરોધના ભય વગર. કહી શકું. પૂ. મહારાજને આ પ્રયાસ સ્થાનકવાસી સંપ્રદાયમાં પ્રથમ છે એવી મારી માન્યતા છે. સંસ્કૃત સ્પષ્ટીકરણે સારાં આપવામાં આવ્યા છે ભાષા શુધ છે એમ હું ચક્કસ કહી શકું છું. ગુજરાતી ભાષાન્તરે પણ શુદ્ધ અને સરળ થયેલાં છે. મને વિશ્વાસ છે કે મહારાજશ્રીના આ સ્તુત્ય પ્રયાસને જૈનસમાજ ઉત્તેજન આપશે અને શાસ્ત્રોના ભાષાંતરેને વાંચનાલયમાં અને કુટુંબમાં વસાવી શકાય તે પ્રમાણે વ્યવસ્થા કરશે. પ્રતાપગંજ વડોદરા કામદાર કેશવલાલ હિંમતરામ, તા. ૨૬-૨-૧૯૫૬ એમ. એ. ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ સુબઈની એ કાલેજના પ્રફેસરાના અભિપ્રાય. મુંબઇ તા. ૩૧-૩-૫૬ શ્રીમાન શેઠે શાંતિલાલ મગળદાસ પ્રમુખ : શ્રી અખિલ ભારત વે. સ્થા. જૈન શાોધ્ધાર સમિતિ, રાજકાઢ. પૂજ્યાચાર્ય શ્રી ઘાસીલાલજી મહારાજે તૈયાર કરેલા આચારાંગ, દેશવૈકાલિક આવશ્યક, ઉપાસકઇશાંગ વગેરે સૂત્રે અમે જોયાં. આ સૂત્ર ઉપર સંસ્કૃતમાં ટીકા આપવામાં આવી છે અને સાથે સાથે હિન્દી અને ગુજરાતી ભાષાંતર પણ આપવામાં આવ્યાં છે, સંસ્કૃત ટીકા અને ગુજરાતી તથા હિન્દી ભાષાંતર જોતાં આચાર્યશ્રીના આ ત્રણે ભાષા પર એકસરખા અસાધારણ પ્રભુત્વની સચાટ અને સુરેખ છાપ પડે છે. આ સૂત્ર ગ્રંથામાં પાને પાને પ્રગટ થતી આચાર્યશ્રીની અપ્રતિમ વિદ્વત્તા મુગ્ધ કરી દે તેવી છે. ગુજરાતી તથા હિન્દીમાં થયેલા ભાષાન્તરમાં ભાષાની શુધ્ધિ અને સરળતા નોંધપાત્ર છે. એથી વિદ્વજન અને સાધારણ માણસ ઉભયને સાષ આપે એવી એમની લેખિનીની પ્રતીતિ થાય છે. ૩૨ સૂત્રેામાંથી હજુ ૧૩ સૂત્રેા પ્રગટ થયાં છે. બીજા છ સૂત્રેા લખાઈને તૈયાર થઈ ગયાં છે. આ બધાં જ સૂત્રેા જ્યારે એમને હાથે તૈયાર થઈને પ્રગટ થશે ત્યારે જૈન સૂત્ર~સાહિત્યમાં અમૂલ્ય સંપત્તિરૂપ ગણાશે એમાં સંશય નથી. આચાર્યશ્રી આ મહાન કાર્યને જૈન સમાજને—વિશેષતઃ સ્થાનકવાસી સમાજના સ ́પૂર્ણ સહકાર સાંપડી રહેશે એવી અમે આશા રાખીએ છીએ. પ્રે. રમણલાલ ચીમનલાલ શાહ સેટ ઝેવિયર્સ કૉલેજ, મુંબઈ, પ્રેો. તારા રમણલાલ શાહ. સેસિયા કાલેજ, મુંબઈ રાજકોટની ધર્મેન્દ્રસિંહજી કાલેજના પ્રોફેસરના અભિપ્રાય. ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર ઃ ૧ જયમહાલ જાગનાથ પ્લેટ રાજકાટ તા. ૧૮-૪-૫૭ પૂજ્યાચા ૫૦ મુનિ શ્રી ઘાસીલાલજી મહારાજ આજે જૈનસમાજ માટે એક એવા કાર્યમાં વ્યાપ્ત થએલા છે કે જે સમાજ માટે બહુ ઉપયેગી થઇ પડશે. મુનિશ્રીએ તૈયાર કરેલાં આચારાંગ, દશવૈકાલિક. શ્રી વિપાકશ્રત Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ વિ. મેં જોયાં. આ સૂત્રે જોતાં પહેલી જ નજરે મહારાજશ્રીને સંસ્કૃત, અર્ધ માગધી, હિન્દી તથા ગુજરાતી ભાષાઓ ઉપરને અસાધારણ કાબુ જણાઈ આવે છે. એક પણ ભાષા મહારાજશ્રીથી અજાણ નથી. આપણે જાણીએ છીએ કે એ સૂત્રે ઉચ્ચ અને પ્રથમ કેટિના છે. તેની વસ્તુ ગંભીર વ્યાપક અને જીવનને તલસ્પર્શી છે. આટલા ગહન અને સર્વગ્રાહ્ય સૂત્રોનું ભાષાન્તર પૂ. ઘાસીલાલજી મહારાજ જેવા ઉચ્ચ કેટિના મુનિરાજને હાથે થાય છે તે આપણા અહેભાગ્ય છે. યંત્રવાદ અને ભૌતિકવાદના આ જમાનામાં જ્યારે ધર્મભાવના ઓસરતી જાય છે. એવે વખતે આવા તત્ત્વજ્ઞાન આધ્યાત્મિકતાથી ભરેલા સૂત્રોનું સરળ ભાષામાં ભાષાંતર દરેક જીજ્ઞાસુ, મુમુક્ષુ અને સાધકને માર્ગદર્શક થઈ પડે તેમ છે. જૈન અને જૈનેતર વિદ્વાન અને સાધારણ માણસ, સાધુ અને શ્રાવક દરેકને સમજણ પડે તેવી સ્પષ્ટ, સરળ અને શુદ્ધ ભાષામાં સૂત્રો લખવામાં આવ્યા છે. મહારાજશ્રીને જ્યારે જોઈએ ત્યારે તેમના આ કાર્યમાં સંકળાયેલા જોઈએ છીએ. એ ઉપરથી મુનિશ્રીના પરિશ્રમ અને ધગશની કલ્પના કરી શકાય છે. તેમનું જીવન સૂત્રેમાં વણાઈ ગયું છે. સુનિશ્રીના આ અસાધારણ કાર્યમાં પોતાના શિષ્યોને તથા પંડિતોને સહકાર મળે છે. મને આશા છે કે જે દરેક મુમુક્ષુ આ પુસ્તકને પિતાના ઘરમાં વસાવશે અને પોતાના જીવનને સાચા સુખને માર્ગે વાળશે તો મહારાજશ્રીએ ઉઠાવેલ શ્રમ સંપૂર્ણપણે સફળ થશે. છે. રસિકલાલ કસ્તુરચંદ ગાંધી એમ. એ એલ. એલ. બી. ધર્મેન્દ્રસિંહજી કેલેજ રાજકેટ (સૌરાષ્ટ્ર) મુંબઈ અને ઘાટકોપરમાં મળેલી સભાએ ભિનાર કોન્ફરન્સ તથા સાધુસંમેલનમાં મોકલાવેલ ઠરાવ. હાલ જે વખતે શ્રી શ્વેતાંબર સ્થાનકવાસી જૈનસંધ માટે આગમસંશોધન અને સ્વતંત્ર ટીકાવાળા શાસ્ત્રોધ્ધારની અતિ આવશ્યકતા છે એને જે મહાનુભાએ આ વાત દીર્ઘદ્રષ્ટિથી પહેલી પિતાના મગજમાં લઈ તે પાર પાડવા મહેનત લઈ રહ્યા છે તેવા મુનિ મહારાજ પંડિતરત્ન શ્રી વાસીલાલજી મહારાજ કે જેઓને સાદડી અધિવેશનમાં સર્વાનુમતે સાહિત્ય મંત્રી છે તેઓશ્રીની દેખરેખ નીચે અ. ભા. ૨. સ્થા. જૈન શાસ્ત્રોદ્ધાર સમિતિ જે એક મેટી વગવાળી કમિટી છે તેની મારફતે કામ થઈ રહ્યું છે જેને ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૧૭ પ્રધાનાચાર્ય શ્રી તથા પ્રચાર મંત્રીશ્રી તથા અનેક અનુભવી મહાનુભાવાએ પેાતાની પસંદગીની મહાર છાપ આપી છે એને છેલ્લામાં છેલ્લા વડાદરા યુનિવર્સીટીના પ્રોફેસર કેશવલાલ કામદાર એમ. એ. એ પેાતાનું સવિસ્તર પ્રમાણપત્ર આપ્યું છે કે તે શાસ્રોધ્ધાર કમિટીના કામને આ સમેલન તથા કોન્ફરન્સ હાર્દિક અભિનંદન આપે છે. અને તેમના કામને જ્યાં જ્યાં અને જે જે જરૂર પડે-પતિની અને નાણાંની-પેાતાની પાસેના કુંડમાંથી અને જાહેર જનતા પાસેથી મદદ મળે તેવી ઈચ્છા ધરાવે છે. આ શાસ્ત્રો અને ટીકાઓને જ્યારે આટલી બધી પ્રસંશાપૂર્વક પસંદગી મળી છે ત્યારે તે કામને મદદ કરવાની આ કાન્સ પેાતાની ફરજ માને છે અને જે કાંઇ ત્રુટી હેાય તે ૫' ૨. શ્રી ઘાસીલાલજી મહારાજની સાંનિધ્યમાં જઈ. બતાવીને સુધારવા પ્રયત્ન કરવા. આમને ટલ્લે ચઢાવવા જેવું કોઇપણ કામ સત્તા ઉપરના અધિકારીઓના વાણી કે વર્તનથી ન થાય તે જોવા પ્રમુખ સાહેબને ભલામણ કરે છે. (સ્થા. જૈન પત્ર તા. ૪-૫-૫૬) સ્વતંત્રવિચારક અને નિડર લેખક જૈનસિદ્ધાંત ના તંત્રી શેઠ નગીનદાસ ગીરધરલાલના અભિપ્રાય X શ્રી સ્થાનકવાસી શાસ્રોદ્ધાર સમિતિ સ્થાપીને પૂ. શ્રી ઘાસીલાલજી મહારાજને સૌરાષ્ટ્રમાં ખેલાવી તેમની પાસે બત્રીસે સૂત્રેા તૈયાર કરવાની હિલચાલ ચાલતી હતી ત્યારે તે હિલચાલ કરનાર શાસ્ત્રજ્ઞ શેઠશ્રી દામેાદરદાસ સાથે પત્રવ્યવહાર ચાલેલે. ત્યારે શેઠશ્રી દામેાદરદાસભાઈએ તેમનાં એક પત્રમાં મને લખેલું કે— 66 આપણા સૂત્રેાના મૂળ પાઠ તપાસી શુદ્ધ કરી સંસ્કૃત તૈયાર કરી શકે તેવા સ્થાનકવાસી સંપ્રદાયમાં મુનિશ્રી ઘાસીલાલજી મ. સિવાય મને કાઈ વિશેષ વિદ્વાન મુનિ જાવામાં આવતા નથી. લાંખી તપાસને અંતે મેં મુનિશ્રી ઘાસીલાલજી મને પસ કરેલા છે. 2 શેઠ શ્રી દામાદરદાસભાઇ પોતે વિદ્વાન હતા. શાસ્ત્રજ્ઞ હતા તેમ વિચારક પણ હતા. શ્રાવકે। તેમજ મુનિએ પણ તેમની પાસેથી શિક્ષા વાંચન લેતા, તેમ જ્ઞાનચર્ચા પણ કરતા. એવા વિદ્વાન શેઠશ્રીની પસદગી થા ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર ઃ ૧ Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨૮ જ હોય એમાં નવાઈ નથી. અને પૂ. શ્રી ઘાસીલાલજી મના બનાવેલાં સૂત્રો સૌ કોઈને ખાત્રી થાય તેમ છે કે દામોદરદાસભાઈએ તેમજ સ્થાનકવાસી સમાજે જેવી આશા શ્રી ઘાસીલાલજી મ. પાસેથી રાખેલી તે બરાબર ફળીભૂત થયેલ છે. - શ્રી વર્ધમાન શ્રમણ સંધના આચાર્ય શ્રી આત્મારામજી મહારાજે શ્રી ઘાસીલાલજી મહારાજના સૂત્રો માટે ખાસ પ્રશંસા કરી અનુમતિ આપેલ છે તે ઉપરથી જ શ્રી ઘાસીલાલજી મ.ના સૂત્રેની ઉપયોગીતાની ખાત્રી થશે. આ સૂત્ર વિદ્યાથીને, અભ્યાસીને તેમજ સામાન્ય વાચકને સર્વને એક સરખી રીતે ઉપયોગી થઈ પડે છે વિદ્યાર્થીને તેમજ અભ્યાસીને મૂળ તથા સંસ્કૃત ટીકા વિશેષ કરીને ઉપયોગી થાય તેમ છે ત્યારે સામાન્ય હિન્દી વાચકને હિન્દી અનુવાદ અને ગુજરાતી વાંચકને ગુજરાતી અનુવાદથી આખું સૂત્ર સરળતાથી સમજાય જાય છે. કેટલાકને એ ભ્રમ છે કે સૂત્રે વાંચવાનું આપણું કામ નહિ, સૂત્રે આપણને સમજાય નહિ. આ ભ્રમ તદન ખેટ છે. બીજા કેઈપણ શાસ્ત્રીય પુસ્તક કરતાં સૂત્ર સામાન્ય વાચકને પણ ઘણું સરળતાથી સમજાઈ જાય છે. સામાન્ય માણસ પણ સમજી શકે તેટલા માટે જ ભ૦ મહાવીરે તે વખતની લોકભાષામાં ( અર્ધ માગધી ભાષામાં સૂત્રો બનાવેલાં છે, એટલે એ સૂત્ર વાંચવા તેમજ સમજવામાં ઘણું સરળ છે. માટે કેઈપણ વાચકને એને ભ્રમ હોય તે તે કાઢી નાંખે. અને ધર્મનું તેમજ ધર્મના સિદ્ધાંતનું સાચું જ્ઞાન મેળવવા માટે સૂત્રે વાંચવાને ચૂકવું નહિ એટલું જ નહિ પણ જરૂરથી પહેલાં સૂત્રે જ વાંચવા. સ્થાનકવાસીઓમાં આ શ્રી સ્થા. જૈન શાસ્ત્રોદ્ધાર સમિતિએ જે કામ કર્યું છે. અને કરી રહી છે તેવું કોઈ પણ સંસ્થાએ આજ સુધી કર્યું નથી. સ્થા. જૈન શાસ્ત્રોદ્ધાર સમિતિના છેલ્લી રિપોર્ટ પ્રમાણે બીજા છ સૂત્રો લખાયેલ પડયા છે, બે સૂત્રો-અનુગદ્વાર અને ઠાણાંગ સૂત્રો–લખાય છે તે પણ થોડા વખતમાં તૈયાર થઈ જશે. તે પછી બાકીના સૂત્રે હાથ ધરવામાં આવશે. તૈયાર સૂત્રો જલદી છપાઈ જાય એમ ઈચ્છીએ છીએ અને સ્થા. બંધુએ સમિતિને ઉત્તેજન અને સહાયતા આપીને તેમનાં સૂત્રે ઘરમાં વસાવે એમ ઈચ્છીએ છીએ. જેન સિદ્ધાન્ત’ પત્ર–મે ૧૯૫૫ ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ શ્રુત ભકિત (પૂ. આચાર્ય શ્રી ઈશ્વરલાલજી મ સા. ની આજ્ઞા અનુસાર લખનાર) ૬. સં. ના જૈન મુનિ શ્રી દયાનંદજી મહારાજ તા. ૨૩-૬-૫૬ શાહપુર, અમદાવાદ, આજે લગભગ ૨૦ વર્ષથી શ્રદધેય પરમપૂજ્ય જ્ઞાન દિવાકર પં. મુનિશ્રી ઘાસીલાલજી મ. ચરમ તીર્થકર ભગવાન મહાવીરના અનુત્તર અનુપમ ન્યાય યુક્ત, પૂર્વાપર અવિરોધ, સ્વપર, કલ્યાણકારક, ચરમ શીતળ વાણીના તક એવા શ્રી જિનાગમ પર પ્રકાશ પાડે છે, તેઓશ્રી પ્રાચીન, પૌર્વાત્ય સંકતાદિ અનેક ભાષાના પ્રખર પંડિત છે અને જિન વાણીનો પ્રકાશ સંસ્કૃત ગુજરાતી અને હિન્દીમાં મૂળ શબ્દાર્થ, ટીકા, વિસ્તૃત વિવરણ સાથે પ્રકાશમાં લાવે છે એ જૈન સમાજ માટે અતિ ગૌરવ અને આનંદને વિષય છે. ભ૦ મહાવીર અત્યારે આપણી પાસે વિદ્યમાન નથી. પરંતુ તેમની વાણીરૂપે અક્ષર દેહ ગણધર મહારાજેએ શ્રુત પરંપરાએ સાચવી રાખે. શ્રુત પરંપરાથી સચવાતુ જ્ઞાન જ્યારે વિસ્મૃત થવાને સમય ઉપસ્થિત થવા લાગ્યો ત્યારે શ્રી દેવર્ધ્વિગણિ ક્ષમાશ્રમણે વલભીપુર–વળામાં તે આગમને પુસ્તક રૂપે આરૂઢ કર્યો. આજે આ સિદ્ધાન્ત આપણી પાસે છે. તે અર્ધમાગધી પાલી ભાષામાં છે. અત્યારે આ ભાષા ભગવાનની, દેવાની તથા જનગણની ધર્મ ભાષા છે. તેને આપણું શમણે અને શ્રમણીઓ તથા મુમુક્ષુ શ્રાવક તથા શ્રાવિકાઓ મુખપાઠ કરે છે, પરંતુ તેને અર્થ અને ભાવ ઘણું છેડાઓ સમજે છે. જિનાગમ એ આપણાં શ્રધેય પવિત્ર ધર્મસૂત્ર છે. એ આપણી આંખે છે. તેને અભ્યાસ કરે એ આપણી સૌની–જેન માત્રની ફરજ છે. તેને સત્ય સ્વરૂપે સમજાવવા માટે આપણાં સદ્દભાગ્યે જ્ઞાન દિવાકર શ્રી ઘાસીલાલજી મહારાજે સત્સંકલ્પ કર્યો છે. અને તે લેખિત સૂત્રેને પ્રગટાવી શાસ્ત્રોદ્ધાર સમિતિ દ્વારા જ્ઞાન પરબ વહેતી કરી છે. આવા અનુપમ કાર્યમાં સકળ જિનેને સહકાર અવશ્ય હે ઘટે અને તેને વધારેમાં વધારે પ્રચાર થાય તે માટે પ્રયત્ન કરવા ઘટે. ભ૦ મહાવીરને ગણધર ગોતમ પૂછે છે કે હે ભગવાન, સૂત્રની આરાધના કરવાથી શું ફળ પ્રાપ્ત થાય છે? ભગવાન તેને પ્રતિ ઉત્તર આપે છે કે શ્રતની આરાધનાથી છાના અજ્ઞાનને નાશ થાય છે. અને તેઓ સંસારના લેશોથી નિવૃત્તિ મેળવે છે, અને સંસારના કલેશથી નિવૃત્તિ અને અજ્ઞાનને નાશ થતાં મેક્ષ ફળની પ્રાપ્તિ થાય છે. આવા જ્ઞાન કાર્યમાં મૂર્તિપૂજક જેને દિગંબરે અને અન્યધમીઓ હજારે અને લાખ રૂપિયા ખર્ચે છે. હિન્દુ ધર્મમાં પવિત્ર મનાતા ગ્રંથ ગીતાના સેંકડો નહિ પણ હજારો ટીકાગ્ર થે દુનિયાની લગભગ સર્વ ભાષાઓમાં પ્રગટ થયા છે. ઈસાઈ ધર્મના પ્રચારકે તેમના પવિત્ર ધર્મગ્રંથ બાઈબલના પ્રચારાર્થે તેનું જગતની સર્વ ભાષાઓમાં ભાષાંતર કરી, તેને પડતર ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ કરતાં પણ ઘણી ઓછી કિંમતે વેચી ધર્મસૂત્રને પ્રચાર કરે છે. મુસ્લિમ લાકે પણ તેમના પવિત્ર મનાતા ગ્રન્થ કુરાનનું પણ અનેક ભાષાઓમાં ભાષાંતર કરી સમાજમાં પ્રચાર કરે છે. આપણે પિસા પર મોહ ઉતારી ભગવાન નના સિદ્ધાંતને પ્રચાર કરવા માટે તન, મન, ધન સમર્પણ કરવાં જોઈએ. અને સૂત્ર પ્રકાશનના કાર્યને વધુને વધુ વેગ મળે તે માટે સક્રીય પ્રયત્ન કરવાં જોઈએ આવા પવિત્ર કાર્યમાં સાંપ્રદાયિક મતભેદ સૌએ ભૂલી જવા જોઈએ અને શુધ્ધ આશયથી થતા શુધ્ધ કાર્યને અપનાવી લેવું જોઈએ. સમિતિના નિયમાનુસાર રૂ. ૨૫૧] ભરી સમિતિના સભ્ય બનવું જોઈએ. ધાર્મિક અનેક ખાતાઓને મુકાબલે સૂત્ર પ્રકાશનનું જ્ઞાન પ્રચારનું આ ખાતું સર્વશ્રેષ્ઠ ગણાવવું જોઈએ. આ કાર્યને વેગ આપવાની સાથે સાથે એ આગમ–ભગવાનની એ મહાવાણીનું પાન કરવા પણ આપણે હર હંમેશ તત્પર રહેવું જોઈએ જેથી પરમ શાંતિ અને જીવન સિદ્ધિ મેળવી શકાય (સ્થા. જન તા. ૫-૭-૫૬) શ્રી. અ. ભા. . સ્થા. જૈન શાસ્ત્રોદ્ધાર સમિતિનાં પ્રમુખ શ્રી વગેરે. રાણપુર પરમ પવિત્ર સૌરાષ્ટ્રની પુણ્ય ભૂમિ પર જ્યારથી શાન્ત-શાસ્ત્રવિશારદ અપ્રમાદિ પૂજ્ય આચાર્ય મહારાજ શ્રી ઘાસીલાલજી મહારાજના પુનિત પગલાં થયાં છે ત્યારથી ઘણા લાંબા કાળથી લાગુ પડેલ જ્ઞાનાવરણીય કર્મનાં પડળ ઉતારવાને શુભ પ્રયાસ થઈ રહ્યો છે અને જે પ્રવચનની પ્રભાવના તેઓશ્રી કરી રહ્યા છે તે અનંત ઉપકારક કાર્યમાં તમે જે અપૂર્વ સહાય આપી રહ્યાં છે તે માટે તમે સર્વને ધન્ય છે અને એ શુભ પ્રવૃત્તિના શુભ પરિણામને જનતા લાભ યે છે મને તે સમજાય છે કે સાધુજી છઠું ગુણસ્થાનકે જ હોય છે. પણ પૂજ્ય શ્રી ઘાસીલાલજી મહારાજ તે બહુધા સાતમે અપ્રમત્ત ગુણસ્થાનકે જ રહે છે. એવા અપ્રમત્ત માત્ર પાંચ-સાત સાધુઓ. જે સ્થાનકવાસી જૈન સમાજમાં હોય તે સમાજનું શ્રેય થતાં જરાએ વાર ન લાગે. સમજાકાશમાં સ્થા. જૈન સંપ્રદાયને દિવ્ય પ્રભાકર જળહળી નીકળે પણ વો દિન... શ્રી શાસ્ત્રોદ્ધાર સમિતિને હારી એક નમ્ર સૂચના છે કે–પૂજ્યશ્રીની વૃદ્ધાવસ્થા છે, અને કાર્યપ્રણાલિકા યુવાનને શરમાવે તેવી છે. તેમને ગામેગામ વિહાર કરવા અને શાસ્ત્રોદ્ધારનું કાર્ય કરવું તેમાં ઘણું શારીરિકમાનસિક અને વ્યવહારિક મુશ્કેલી વેઠવી પડે છે. તે કોઈ યોગ્ય સ્થળ કે જ્યાંના શ્રાવકે ભક્તિવાળા હેય. વાડાના રાગને વિષથી અલિપ્ત હેય એવા કેઈ સ્થળે શાસ્ત્રોદ્ધારનું કાર્ય પૂર્ણ થાય ત્યાં સુધી સ્થીરતા કરી શકે એના માટે પ્રબંધ કર જોઈએ. બીજા કઈ એવા સ્થળની અનુકૂળતા ન મળે તે છેવટે અમદાવાદમાં યોગ્ય સ્થળે રહેવાની સગવડતા કરી અપાય તે વધુ સારું હારી આ સૂચના પર ધ્યાન આપવા ફરી યાદ આપું છું. ફરીવાર પૂજ્ય આચાર્યશ્રીને અને તેમના સત્કાર્યના સહાયકોને મારા અભિનંદન પાઠવું છું તે સ્વીકારશે. લિ. સદાનંદી જૈનમુનિ છોટાલાલજી. ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ “જૈન સિદ્ધાંતના તંત્રીશ્રીને અભિપ્રાય ” સ્થાનકવાસીઓમાં પ્રમાણભૂત સૂત્ર બહાર પાડનારી આ એકની એક સંસ્થા છે. અને એના આ છેલ્લા રિપોર્ટ ઉપરથી જણાય છે કે તેણે ઘણી સારી પ્રગતિ કરી છે તે જોઈ આનંદ થાય છે. મૂળ પાઠ, ટીકા, હિન્દી તથા ગુજરાતી અનુવાદ સહિત સૂત્ર બહાર પાડવાં એ કાંઈ સહેલું કામ નથી. એ એક મહાભારત કામ છે. અને તે કામ આ શાસ્ત્રોદ્ધાર સમિતિ ઘણી સફળતાથી પાર પાડી રહી છે તે સ્થાનક વાસી સમાજ માટે ઘણું ગૌરવને વિષય છે અને સમિતિ ધન્યવાદને પાત્ર છે. સમિતિ તરફથી નવ સૂત્રે બહાર પડી ચૂક્યા છે. હાલમાં ત્રણ સૂત્રે છપાય છે. નવ સૂત્રો લખાઈ ગયાં છે અને જંબુદ્વીપપ્રજ્ઞપ્તિ તથા નંદીસૂત્ર તૈયાર થઈ રહ્યાં છે. હાલમાં મંત્રી શ્રી સાકરચંદ ભાઈચંદ સમિતિના કામમાં જ તેમને આખો વખત ગાળે છે અને સમિતિના કામકાજને ઘણે વેગ આપી રહ્યા તેમના ખંત માટે ધન્યવાદ. અને આ મહાભારત કામના મુખ્ય કાર્યકર્તા તે છે વૃદ્ધ પંડિત પૂજ્ય મુનિશ્રી ઘાસીલાલજી મહારાજ. મૂળ પાઠનું સંશોધન તથા સંસ્કૃત ટીકા તેઓશ્રી જ તૈયાર કરે છે. મુનિશ્રીને આ ઉપકાર આખાય સ્થા. જૈન સમાજ ઉપર ઘણે મહાન છે. એ ઉપકારને બદલે તે વાળી શકાય તેમજ નથી. પરંતુ આ સમિતિના મેમ્બર બની, તેના બહાર પડેલાં સૂત્રો ઘરમાં વસાવી તેનું અધ્યયન કરવામાં આવે તે જ મહારાજશ્રીનું થોડું ઋણ અદા કર્યું ગણાય. ભગવાને કહ્યું છે કે વર્ષ ગાળ તો ત્યાં પહેલું જ્ઞાન પછી દયા, દયા ધર્મને યથાર્થ સમજે હોય તે ભગવાનની વાણીરૂપ આપણાં સૂત્રો વાંચવા જ જોઈએ તેનું અધ્યયન કરવું જ જોઈએ અને તેને ભાવાર્થ યથાર્થ સમજ જોઈએ. એટલા માટે આ શાસ્ત્રોદ્ધાર સમિતિના સર્વ સૂત્રો દરેક સ્થા. જેને પિતાના ઘરમાં વસાવવા જ જોઈએ સર્વ ધર્મજ્ઞાન આપણું સૂત્રોમાંજ સમાયેલું છે અને તે સૂત્રો સહેલાઈથી વાંચીને સમજી શકાય છે, માટે દરેક સ્થા. જન આ સૂત્રે વાંચે એ ખાસ જરૂરનું છે. જૈન સિદ્ધાંત ” ડીસેમ્બર-૫૬ ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ શ્રી ઉપાસદશાંગસુત્રને માટે અભિપ્રાય. મૂળ સૂત્ર તથા પૂ. મુનિશ્રી ઘાસીલાલજીએ બનાવેલા સંસ્કૃત છાયા તથા ટીકા અને હિન્દી તથા ગુજરાતી-અનુવાદ સહિત પ્રકાશક-અ. ભા. . સ્થાનકવાસી જૈનશાસ્ત્રોદ્ધાર સમિતિ, ગરેડીઆ કુવારેડ, ગ્રીન લેજ પાસે, રાજકેટ (સૌરાષ્ટ્ર) પૃષ્ઠ ૬૧૬ બીજી આવૃત્તિ બેવડું (મેટું) કદ, પાકું પુછું. જેકેટ સાથે સને ૧૯૫૬ કિંમત ૮-૮-૦ આપણું મૂળ બાર અંગ સૂત્રોમાંનું ઉપાસકદશાંગ એ સાતમું અંગ સૂત્ર છે, એમાં ભગવાન મહાવીરના દસ ઉપાસકો શ્રાવકના જીવનચરિત્રો આપેલાં છે તેમાં પહેલું ચરિત્ર આનંદ શ્રાવકનું આવે છે. આનંદશ્રાવકે જૈનધર્મ અંગીકાર કર્યો અને બારવ્રત ભગવાન મહાવીર પાસે અંગીકાર કરી પ્રતિજ્ઞા (પ્રત્યાખ્યાન) લીધાં તેનું સવિસ્તર વર્ણન આવે છે. તેની અંતર્ગત અનેક વિષયે જેવા કે, અભિગમ, લેકોલકસ્વરૂપ, નવતત્વ, નરક દેવલોક વગેરેનું વર્ણન પણ આવે છે. આનંદશ્રાવકે બાર વ્રત લીધા તે બાર વ્રતની વિગત અતિચારની વિગત વિગેરે બધું આપેલું છે. તે જ પ્રમાણે બીજા નવ શ્રાવકેની પણ વિગત આપેલ છે. આનંદ શ્રાવકની પ્રતિજ્ઞામાં રારિહંત જેવા શબ્દ આવે છે. મૂર્તિપૂજકે મૂર્તિપૂજા સિદ્ધ કરવા માટે તેને અર્થ અરિહંતનું ચિત્ય (પ્રતિમા ) એ કરે છે. પણ તે અર્થ તદ્દન ખેડે છે. અને તે જગ્યાએ આગળ પાછળના સંબંધ પ્રમાણે તેને એ છેટે અર્થ બંધ બેસતું જ નથી તે મુનિશ્રી ઘાસીલાલજીએ તેમની ટીકામાં અનેક રીતે પ્રમાણે આપી સાબિત કરેલ છે. અરિહંત વેરા ને અર્થ સાધુ થાય છે તે બતાવી આપેલ છે. આ પ્રમાણે આ સૂત્રમાંથી શ્રાવકના શુદ્ધ ધર્મની માહિતી મળે છે તે ઉપરાંત તે શ્રાવકની ઋદ્ધિ, રહેઠાણ, નગરી વગેરેના વર્ણન ઉપરથી તે વખતની સામાજિક સ્થિતિ, રિતરિવાજ રાજવ્યવસ્થા વગેરે બાબતની માહિતી મળે છે. એટલે આ સૂત્ર દરેક શ્રાવકે અવશ્ય વાંચવું જોઈએ એટલું જ નહિ પણ વારંવાર અધ્યયન કરવા માટે ઘરમાં વસાવવું જોઈએ. પુસ્તકની શરૂઆતમાં વર્ધમાનશ્રમણ સંઘના આચાર્યશ્રી આત્મારામજી મહારાજનું સંમતિ પત્ર તથા બીજા સાધુએ તેમજ શ્રાવકના સંમતિ પત્રો આપેલા છે, તે સૂત્રની પ્રમાણભૂતતાની ખાત્રી આપે જૈન સિદ્ધાંત” જાન્યુઆરી, ૨૭ ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ સેંકડો સટીફીકેટ ઉપરાંત હાલમાં મળેલા કેટલાક તાજા અભિપ્રાયો. શા રયો દ્ધા ર ના કાર્ય ને વેગ આ પ.. તથી સ્થાનેથી (જનજ્યોતિ) તા. ૧૫-૯૫૭ પૂજ્ય શ્રી ઘાસીલાલજી મહારાજ ઠાણું ૪ હાલમાં અમદાવાદ મુકામે સરસ્પરના સ્થાનકવાસી જૈન ઉપાશ્રયમાં બિરાજમાન છે. તેઓશ્રી શાસધ્ધારનું કાર્ય ખૂબ જ ખંત અને ઉત્સાહથી વૃદ્ધ વયે પણ કરી રહ્યા છે. તેઓશ્રી વૃધ્ધ છે છતાં પણ આખો દિવસ શાસ્ત્રની ટીકાઓ લખી રહ્યા છે. આજ સુધીમાં તેમણે લગભગ ૨૦ જેટલા શાસ્ત્રની ટીકાઓ લખી નાખી છે અને બાકીના સૂત્રોની ટીકા જેમ બને તેમ જલદી પૂર્ણ કરવી તેવા મને રથ સેવી રહેલ છે. સ્થા. જિન સમાજમાં શાસ્ત્ર ઉપર સંસ્કૃત ટીકા લખવાને આ પ્રથમ જ પ્રયાસ છે અને તે પ્રયાસ સંપૂર્ણ બને એવી અમે શાસનદેવ પ્રત્યે પ્રાર્થના કરીએ છીએ. આજ સુધી ઘણા મુનિવરોએ શાસ્ત્રનું કામ શરૂ કરેલ છે. પણ કેઈએ પૂર્ણ કરેલ નથી. પૂજ્યશ્રી અમુલખઋષીજી મહારાજે બત્રીસે શાસ્ત્ર ઉપર હિન્દી અનુવાદ કરેલ અને સંપૂર્ણ બનેલ. ત્યાર બાદ આચાર્ય શ્રી આત્મારામજી મહારાજશ્રીએ હિન્દી ટીકા કેટલાક શાસા ઉપર લખેલ પણ ઘણાં શાસ્ત્રા બાકી રહી ગયાં પૂજય હસ્તિમલજી મહારાજે એક બે શાઓ ઉપરની ટીકાઓના અનુવાદ કરેલ પૂજ્ય શ્રી જવાહરલાલજી મહારાજશ્રીએ સૂયગડાંગ સૂત્ર ટીકા સહિત હિન્દી અનુવાદ કરેલ. શ્રી સૌભાગ્યમલજી મહા રાજે આચારાંગની હિન્દી ટીકા લખેલ. પણ સંપૂર્ણ શાસ્ત્રો ઉપર સંસ્કૃત ટીકા હજી સુધી સ્થા. જૈન સાધુઓ તરફથી થયેલ નથી. જ્યારે પૂજ્યશ્રી ઘાસી લાલજી મહારાજશ્રીએ ૨૦ શાસ્ત્રો ઉપર સંસ્કૃત ટીકા તેને હિન્દી ગુજરાતી અનુવાદ કરાવેલ છે આથી હવે આશા બંધાય છે કે તેઓશ્રી બત્રીસે બત્રીસ શાસ્ત્રો ઉપર સંસ્કૃત ટીકા લખવામાં સફળ થશે અને શાસ્ત્રોદ્ધાર સમિતિએ આજ સુધી ૧૦ થી ૧૨ શાસ્ત્રો છપાવી પણ દીધાં છે અને હજી પણ તે શાસ્ત્રો વિશેષ જલદી છપાય તે માટે શાસ્ત્રોદ્ધાર સમિતિ સંપૂર્ણ પ્રયત્ન કરી રહેલ છે તે ધન્યવાદને પાત્ર છે. જૈન શાસ્ત્રો ધાર સમિતિના રૂ. ૨૫૧ભરીને લાઈફ મેમ્બર થનારને શા તમામ, શાસ્ત્રધાર સમિતિ તરફથી ભેટ મળે છે, આ રીતે એક પંથ અને દે કાજ. બન્ને રીતે લાભ થાય તેમ છે. રૂા. ૨૫૧) માં ૫૦૦ કિંમતના શાસે મળે એ પણ મટે લાભ છે અને પ્રવચનની પ્રભાવના કરવાને ધર્મલાભ પણ મળે છે. ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ક આ સાલે પૂજ્યશ્રી શ્વાસીલાલજી મહારાજના સુશિષ્ય મુનિશ્રી કન્હયાલાલજી મહારાજ મલાડ મુકામે ચતુર્માસ બિરાજે છે અને તેઓશ્રી શાસ્ત્રઓના મેમ્બરો કરવા માટે અથાગ પ્રયત્ન કરીને પ્રવચનની સેવા બજાવી રહ્યા છે. અને અત્યાર સુધીમાં મુંબઈ તેમજ પરાઓના લગભગ ૪૦ જેટલા ગૃહસ્થા લાઇફ મેમ્બર અની ગયા છે. અને સુખઇમાં લગભગ ૩૦૦ જેટલા મેમ્બરા થાય તે ઈચ્છવા ચાગ્ય છે. શ્રીમંત ગૃહસ્થા હજારો રૂપિયા પેાતાના ઘર ખર્ચમાં તેમજ માજશાખના કામેામાં તેમજ વ્યવહારિક કામામાં વાપરી રહ્યા છે તા આવા શાશ્ત્રાધાર જેવા પવિત્ર કાર્યોંમાં રૂપિયા વાપરશે તા ધની સેવા કરી ગણાશે અને બદલામાં ઉત્તમ આગમસાહિત્યની એક લાયબ્રેરી બની જશે. જેનું વાંચન કરવાથી આત્માને શાંતિ મળશે અને શાસ્ત્રઆજ્ઞા પ્રમાણે વર્તવાથી જીવન સફળ થશે. ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર ઃ ૧ Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५ શતાવધાની મુનિશ્રી જય'તિલાલજી મહારાજશ્રીના અમદાવાદના પુત્ર “સ્થાનકવાસી જૈન ‰ તા. ૫-૯-૫૭ના અંકમાં છુપાએલ છે જે નીચે મુજબ છે. સૂત્રાના મૂળ પાઠમાં ફેરફાર હાઇ શકે ખરા? તા. ૭-૮-૫૭ના રોજ અત્રે બિરાજતા શાસ્ત્રાદ્ધારક આચાર્ય મહારાજશ્રી ઘાસીલાલજી મહારાજ પાસે, મારા ઉપર આવેલ એક પત્રને લઈને હું ગર્ચા હતા, તે સમયે પૂ. મ. સા. સાથે જે વાતચીત થઈ તે સમાજને જાણુ કરવા સારૂં લખું છું. 6 શાસ્ત્રોનું કામ એક ગહન વસ્તુ છે. અપ્રમાદી થઈ તેમાં અવિરત પ્રયત્ના કરવા જોઇએ. સંપૂર્ણ શાસ્ત્રોનું જ્ઞાન તેમજ દરેક પ્રકારની ખાસ ભાષાઓનું જ્ઞાન હાય તેજ આગમાદ્ધારકનું કાર્ય સફળતાથી થાય છે. આ પ્રકારના પ્રયત્ન હાલ અમદાવાદ ખાતે સરસપુર જૈન સ્થાનકમાં બિરાજતા પૂજ્ય શ્રી ઘાસીલાલજી મહારાજ કરી રહ્યા છે. શાસ્ત્ર લેખનનું આ કાર્ય થઈ રહ્યું છે, તેમાં અનેક વ્યક્તિઓને અનેક પ્રકારની શંકા થાય છે તેમાં શાઓના મૂળ પાઠમા ફેરફાર થાય છે? કરવામાં આવે છે ? એવા પ્રશ્ન પણ કેટલાકને થાય છે અને તેવા પ્રશ્ન થાય તે સ્વાભાવિક છે, કેમકે અમુક મુનિરાજો તરફથી પ્રગટ થયેલા સૂત્રેાના મૂળ પાઠમાં ફેરફાર થયેલા છે જેથી આ કાર્યમાં પણું સમાજને શકા થાય. પણ ખરી રીતે જોતાં, અત્યારે જે શાસ્ત્રોદ્ધારનુ' કામ ચાલી રહ્યું છે તે વિષે સમાજને ખાત્રી આપવામાં આવે છે કે, શાસ્ત્રોદ્ધાર સમિતિ તરફ્થી અત્યાર સુધીમાં પ્રગટ થયેલાં આગમાના મૂળ પાઠમાં જરાપણ ફેરફાર થશે નહિ તેની સમાજ નોંધ થૈ. ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર ઃ ૧ લિ. શતાવધાની શ્રી જયંત મુનિ-અમદાવાદ Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ “શ્રી અખિલ ભારત શ્વેતામ્બર સ્થાનકવાસી જૈનશાસ્ત્રોદ્ધાર સમિતિને રંક પરિચય સ્થાનકવાસી સમાજની આ એકની એક સંસ્થા છે, કે જેણે અત્યાર સુધીમાં તેર સૂત્રો છપાવી બહાર પાડી દીધાં છે. સાત સૂત્ર છપાય છે અને બીજા કેટલાક છાપવા માટે તૈયાર થઈ ચૂક્યા છે. આ પ્રમાણે આ સંસ્થાએ મહાન પ્રગતિ સાધી છે તેને ટૂંક પરિચય આ પત્રિકામાં આપેલ છે તે વાંચી જઈ સર્વ સ્થા. જૈન ભાઈબહેનોએ આ સંસ્થાને યથાશક્તિ મદદ કરી તેના કાર્યને હજુ વિશેષ વેગવાન બનાવવાની જરૂર છે. ખાલી ઘડો વાગે ઘણે એમ સ્થા. કેન્ફરન્સ જેમ બેટાં બણગાં ફેંકનારી સંસ્થાની કઈ કિંમત નથી, ત્યારે નક્કર કામ કરનારી આ શાસ્ત્રોદ્ધાર સમિતિને દરેક પ્રકારે ઉત્તેજન આપવાની દરેક સ્થાનકવાસી જૈનની અનિવાર્ય ફરજ છે. અને આ સર્વ સૂત્રો તૈયાર કરનાર પૂજ્ય મુનિશ્રી ઘાસીલાલજી મહારાજને સ્થાનકવાસી સમાજ ઉપર ઘણે મહાન ઉપકાર છે. વયેવૃદ્ધ હોવા છતાં તેઓશ્રી જે મહેનત લઈ સૂત્રો તૈયાર કરાવે છે. તેવું કામ હજુ સુધી બીજા કેઈએ કર્યું નથી અને બીજું કોઈ કરી શકશે કે નહિ તે પણ શંકાભર્યું છે. પૂજ્ય મુનિશ્રીના આ મહાન ઉપકારને કિંચિત બદલે સમાજે આ શાસ્ત્રોદ્ધાર સમિતિને બની શકતી સહાય કરીને વાળવાને છે. સ્થાનકવાસી સમાજ જ્ઞાનની કદર કરવામાં પાછા હઠે તેમ નથી એવી અમે આશા રાખીએ છીએ. “જૈન સિદ્ધાંત” પત્ર ઓકટોમ્બર ૧૫૭ ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ શ્રી દશવૈકાલિક તથા ઉપાસકદશાંગ સૂત્રો ગુજરાતી ભાષામાં અનુવાદ થયેલાં પૂજ્ય શ્રી ઘાસીલાલજી મહારાજ વિરચિત શ્રી ઉપરોક્ત બે સૂત્રો જૈન ધર્મ પાળતા દરેક ઘરમાં હોવા જ જોઈએ. તે વાંચવાથી શ્રાવકધર્મ અને શ્રમણધર્મના આચારનું જ્ઞાન પ્રાપ્ત થઈ શકે છે અને શ્રાવકે પિતાની નિરવદ્ય અને એષણીય સેવા શ્રમણ પ્રત્યે બજાવી શકે છે. વર્તમાનકાળે શ્રાવકમાં તે જ્ઞાન નહિ હોવાને લીધે અંધશ્રદ્ધાએ શ્રમણવર્ગની વૈયાવચ્ચ તે કરી રહેલ છે. પરંતુ “કલ્પ શું અને અકલ્પ શું” એનું જ્ઞાન નહિ હોવાને લીધે પિતે સાવધ સેવા આપી પોતાના સ્વાર્થને ખાતર શ્રમ વર્ગને પોતાને સહાય થવામાં ઘસડી રહ્યા છે અને શ્રમણ વગરની પ્રાયઃ કુસેવા કરી રહ્યા છે. તેમાંથી બચી લાભનું કારણ થાય અને શ્રમણને યથાતથ્ય સેવા અર્ધી તેમને પણ જ્ઞાનદર્શન ચારિત્રની આરાધના કરવામાં સહાયક થઈ પિતાના જ્ઞાનદર્શન ચારિત્રની આરાધના કરી સુગતિ મેળવી શકે. શ્રમણની યથાતથ્ય સેવા કરવી તે અવશ્યગૃહસ્થની ફરજ છે. પૂજ્ય શ્રી ઘાસીલાલજી મ. શાસ્ત્રોદ્ધારને અનુવાદ ત્રણ ભાષામાં રૂડી રીતે કરી રહ્યા છે અને રૂપીયા ૨૫ ભરી મેમ્બર થનારને રૂા. ૪૦૦-૫૦૦ લગભગની કીંમતના બત્રીસે આગમ કી મળી શકે છે તે તે રૂા. ૨૫૧ ભરી મેમ્બર થઈ બત્રીસે આગમાદરેક શ્રાવકઘરે મેળવવા જોઈએ. બત્રીસે શાસ્ત્રના લગભગ ૪૮ પુસ્તકો મળશે. તે તે લાભ પિતાની નિર્જરા માટે પુણ્યાનુબંધી પુણ્ય માટે જરૂર મેળવે ઉપરોક્ત બંને સૂત્રોની કીંમત સમિતિ કંઈક ઓછી રાખે તે હરકેઈગામમાં શ્રીમંત હોય તે સૂત્રો લાવી અરધી કીંમતે, મફત અથવા પૂરી કીંમતે લેનારની સ્થિતિ જોઈ દરેક ઘરમાં વસાવી શકે. – એક ગૃહસ્થ નોંધ-ઉપરની સૂચનાને અમે આવકારીએ છીએ. આવાં સૂત્રો દરેક ઘરમાં વસાવવા ચગ્ય તેમજ દરેક શ્રાવકે વાંચવા યોગ્ય છે. તંત્રી રત્નત” પત્ર તા. ૧-૧૦-૧૭ ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ 2: ૧ Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ શ્રી સ્થા. જૈન શાસ્ત્રોદ્ધાર સમિતિની કાર્યવાહક કમીટીને અહેવાલ. મે મહીનાની શરૂઆતમાં શાસ્ત્રોદ્ધાર સમિતિની મીટીંગ અમદાવાદમાં મળી હતી તેને હેવાલ અમને મળેલા છે તેમાં સમિતિએ સરસ કામ કર્યું છે. આ ઉપરથી સમજી શકાય છે કે સ્થાનકવાસી સમાજમાં આજ સુધી કોઈ પણ નથી કરી શકયું એવું મહાભારત કાર્ય પૂજ્ય શ્રી ઘાસીલાલજી મહારાજ તથા શાસ્ત્રોદ્ધાર સમિતિ ઘણી સફળતાથી કરી રહી છે. અને તેઓ થોડા વખતમાં માથે લીધેલું સર્વકામ સંપૂર્ણ રીતે પાર ઉતારશે એવી મને ખાત્રી છે. આવા ઉત્તમ કાર્ય માટે સમસ્ત સ્થાનકવાસી જેને શાસ્ત્રોદ્ધાર સમિતિને પિતાથી બની શકે તે રીતે સંપૂર્ણ ટેકે આપવો જોઈએ, તે તેમની પહેલી ફરજ બની રહે છે. જેને માટે સૂત્રે એ પહેલી જરૂરીઆતની વસ્તુ છે સૂત્રના આધારે જ ધર્મજ્ઞાન મળે છે, આજ સુધી જે આપણને અપ્રાપ્ય હતા તે આપણા જન સૂત્રો પૂ. શ્રી ઘાસીલાલજી મહારાજે તથા શાદધાર સમિતિએ સુલભ કરી આપ્યા છે. તે હવે સ્થાનકવાસી જેને શાસ્ત્રધાર સમિતિના સભાસદ બની સમિતિનું કામ ઉતાવળે પુરૂ થાય તેમ કરવાની ખાસ જરૂર છે. વાચકેમાંથી જેઓથી બની શકે તેમણે પહેલા વર્ગને શાસ્ત્રધાર સમિતિના સભ્ય બની જવું જોઈએ. તેથી સમિતિના કામને ઉત્તેજમ મળવા ઉપરાંત સભ્યને સૂત્રને આખે સેટ મફત મેળવવાને લાભ મળશે અને સૂત્રે વાંચીને ધર્મારાધન કરવાને જે લાભ મળશે તે તે અમૂલ્ય જ છે. માટે સમિતિના સભ્ય થઈ જવાની અમારી દરેક સ્થા. જૈનેને ખાસ ભલામણ છે. જેન સિદ્ધાંત” જુલાઈ-૧૯૫૮ ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३९ દક્ષિણ ઉત્તર પ્રદેશ, રાજસ્થાન, દિલ્હી, પંજાબ અને હાલમાં ગુજરાત સૌરાષ્ટ્રમાં વિચરી રહેલા ઉગ્ર વિહારી પૂ. મહાસતીજી શ્રી રંભાકુવરજી તથા પ્રસિદ્ધ વ્યાખ્યાની વિવિધ ભાષા વિશારદા પૂ. મહાસતીજી શ્રી સુમતિ વ૨૭ના, પૂજ્ય શ્રી ૧૦૦૮ શ્રી ઘાસીલાલજી મ. સા. નિર્મિત નાગમાની સૌંસ્કૃત ટીકા તથા હિન્દી-ગુજરાતી ભાષાન્તર પર અભિપ્રાયઃ ૐ નમા સિદ્ધાણુ શાસ્ત્રવિશારદ શ્રધેય પડિતરત્ન પૂજ્ય આચાય મુનિશ્રી ઘાસીલાલજી મહારાજ સાહેબ જેનાગમાના એક વિદ્વાન, વૃઘ્ધવિચારક અને ઉત્તમ લેખક છે. સાહિત્ય સર્જન એ તેમના જીવનને એક ઉત્તમ સપ છે. સામાજિક પ્રપંચેાથી દૂર રહો, અથાગ પરિશ્રમ દ્વારા વિરચિત, સંપાદિત અને અનુવાહિત અનેક ગ્રંથા તેમના દ્વારા પ્રકાશિત થયા છે, જે તમામ જૈનાને માટે ચિંતન, મનન અને અધ્યયન-અધ્યાપન માટે એક અપૂર્વ સાધનરૂપ છે. આવું ઉત્તમ સાહિત્ય તૈયાર કરીને તેઓશ્રીએ સાહિત્ય સેવીના મહાન પન્નુને દીપાવ્યુ` છે. આગમના રહસ્યાથી અનભિજ્ઞ (અજાણુ) આજની પ્રજામાં શ્રધેય શ્રી મહારાજ સાહેબનું સાહિત્ય અત્યંત ઉપયાગી છે, તેમ હું માનું છું. આર્યા–સુમતિકું વર્ અમદાવાદ. તા. ૧-૫-૫૮ ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર ઃ ૧ Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ શ્રી શ્રમણ સંઘના ઉપાધ્યાય કવિ મુનિશ્રી અમરચંદજી મહારાજના કલ્પસૂત્ર માટે અલવરના આવેલ પત્ર શ્રીચુત ભોગીલાલજી-અમ વા . જયવીર્ આપને ત્યાં બીરાજમાન પરમ શ્રદ્ધેય શ્રી શ્રી ૧૦૦૮ શ્રી પૂજ્યપાદશ્રી ઘાસીલાજી મહારાજ આદિ અધા સતાની સેવામાં વદન સુખશાન્તિ નિવેદન છે. ४० આપે શ્રદ્ધેય કવિજીને મેકલેલ કલ્પસૂત્ર” મેળવીને પ્રસન્નતા પ્રગટ કરી છે અને સાદર યથાયેાગ્ય અભિનંદન પૂર્વક લખાયું છેકે કલ્પસૂત્ર”નું પ્રકાશન બહુજ ઉત્કૃષ્ટકેતુ છે. તેની ટીકા સુંદર–વિસ્તારપૂર્ણાંક સારી રીતે લખેલ છે. ટાઈમ મળતાં અધ્યયન કરવા માટે પ્રયત્ન કરવામાં આવશે. છાપવામાં આવેલ આવૃત્તિ માટે કેટિ ધન્યવાદ આપવામાં આવે છે. કવિશ્રીનું સ્વાસ્થ્ય સારી રીતે ચાલે છે પહેલાની અપેક્ષાએ કઈક સારૂ છે. આ પત્ર વીલમ્બથી લખવામાં આવેલ છે તા ક્ષમા કરો, અલવર (રાજસ્થાન) તા. ૯-૮-૧૯૫૮ ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર ઃ ૧ } ભવદીય: રતનલાલ સચેતી (હિન્દીના ગુજરાતીમાં અનુવાદ ) Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वन्देवीरम् घाटकोपर (बम्बई) ता. ९-२-५९ सम्मति-पत्रम् यहां पर श्रमणसंघीय पं० र० श्री प्रतापमलजी महाराज श्री जैनसिद्धांत विशारद श्री राजेन्द्रमुनिजी जैनसिद्धान्तविशारद श्री रमेशमुनिजी महाराज आदि ठाणा ३से सुख शांतिपूर्वक विराजमान है। __ आप के वहां जैनाचार्य पूज्य श्री घासीलालजी महाराज आदि तत्र विराजित समस्त मुनिमण्डल की वन्दना अर्ज करे और सुखशाता पूर्छ । ___ आचार्य श्रीके द्वारा अनुवादित कितनेक शास्त्र देखे । जिन का अनुवादन अत्यन्त सुन्दर ढंग से हुआ है। प्रत्येक व्यक्ति इन शास्त्रों से सरलता पूर्वक लाभ उठा सकता है। आपका यह अथक प्रयत्न जैन समाज पर अत्यन्त उपकारी होगा, जो कि कभी भुलाया नहीं जा सकता है। आपका रामचन्द्र जैन ता. ९-२-५९ हमारा पता: पं. र. श्री प्रतापमलजी म. श्री की सेवामें C/o भोगीलाल केशवजी एन्ड के. "N" गली, दाणा बंदर, बम्बई ९ Bombay-9 ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર: ૧ Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ સ્વાધ્યાય માટે ખાસ સૂચના આ સૂત્રના મૂલપાઠનો સ્વાધ્યાય દિવસ અને રાત્રિના પ્રથમ પ્રહરે તથા ચોથા પ્રહરે કરાય છે. (૨) પ્રાત:ઉષાકાળ, સન્યાકાળ, મધ્યાહ્ન, અને મધ્યરાત્રિમાં બે-બે ઘડી (૪૮ મિનિટ) વંચાય નહીં, સૂર્યોદયથી પહેલાં ૨૪ મિનિટ અને સૂર્યોદયથી પછી ૨૪ મિનિટ એમ બે ઘડી સર્વત્ર સમજવું. માસિક ધર્મવાળાં સ્ત્રીથી વંચાય નહીં તેમજ તેની સામે પણ વંચાય નહીં. જ્યાં આ સ્ત્રીઓ ન હોય તે ઓરડામાં બેસીને વાંચી શકાય. (૪) નીચે લખેલા ૩૨ અસ્વાધ્યાય પ્રસંગે વંચાય નહીં. (૧) આકાશ સંબંધી ૧૦ અસ્વાધ્યાય કાલ. (૧) ઉલ્કાપાત–મોટા તારા ખરે ત્યારે ૧ પ્રહર (ત્રણ કલાક સ્વાધ્યાય ન થાય.) (૨) દિગ્દાહ–કોઈ દિશામાં અતિશય લાલવર્ણ હોય અથવા કોઈ દિશામાં મોટી આગ લગી હોય તો સ્વાધ્યાય ન થાય. ગર્જારવ –વાદળાંનો ભયંકર ગર્જારવ સંભળાય. ગાજવીજ ઘણી જણાય તો ૨ પ્રહર (છ કલાક) સ્વાધ્યાય ન થાય. નિર્ધાત–આકાશમાં કોઈ વ્યંતરાદિ દેવકૃત ઘોરગર્જના થઈ હોય, અથવા વાદળો સાથે વીજળીના કડાકા બોલે ત્યારે આઠ પ્રહર સુધી સ્વાધ્યાય ના થાય. (૫) વિદ્યુત—વિજળી ચમકવા પર એક પ્રહર સ્વાધ્યાય ન થા. (૬) ચૂપક–શુક્લપક્ષની એકમ, બીજ અને ત્રીજના દિવસે સંધ્યાની પ્રભા અને ચંદ્રપ્રભા મળે તો તેને ચૂપક કહેવાય. આ પ્રમાણે ચૂપક હોય ત્યારે રાત્રિમાં પ્રથમ ૧ પ્રહર સ્વાધ્યાય ન કરવો. (૭) યક્ષાદીત-કોઈ દિશામાં વીજળી ચમકવા જેવો જે પ્રકાશ થાય તેને યક્ષાદીપ્ત કહેવાય. ત્યારે સ્વાધ્યાય ન કરવો. (૮) ઘુમિક કૃષ્ણ-કારતકથી મહા માસ સુધી ધૂમાડાના રંગની જે સૂક્ષ્મ જલ જેવી ધૂમ્મસ પડે છે તેને ધૂમિકાકૃષ્ણ કહેવાય છે. તેવી ધૂમ્મસ હોય ત્યારે સ્વાધ્યાય ન કરવો. (૯) મહિકાશ્વેત–શીતકાળમાં શ્વેતવર્ણવાળી સૂક્ષ્મ જલરૂપી જે ધુમ્મસ પડે છે. તે મહિકાશ્વેત છે ત્યારે સ્વાધ્યાય ન કરવો. (૧૦) રજઉદ્દઘાત–ચારે દિશામાં પવનથી બહુ ધૂળ ઉડે. અને સૂર્ય ઢંકાઈ જાય. તે રજઉદ્દાત કહેવાય. ત્યારે સ્વાધ્યાય ન કરવો. Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (૨) ઔદારિક શરીર સંબંધી ૧૦ અસ્વાધ્યાય (૧૧-૧૨-૧૩) હાડકાં-માંસ અને રૂધિર આ ત્રણ વસ્તુ અગ્નિથી સર્વથા બળી ન જાય, પાણીથી ધોવાઈ ન જાય અને સામે દેખાય તો ત્યારે સ્વાધ્યાય ન કરવો. ફૂટેલું ઇંડુ હોય તો અસ્વાધ્યાય. (૧૪) મળ-મૂત્ર—સામે દેખાય, તેની દુર્ગન્ધ આવે ત્યાં સુધી અસ્વાધ્યાય. (૧૫) સ્મશાન—આ ભૂમિની ચારે બાજુ ૧૦૦/૧૦૦ હાથ અસ્વાધ્યાય. (૧૬) ચંદ્રગ્રહણ—જ્યારે ચંદ્રગ્રહણ થાય ત્યારે જઘન્યથી ૮ મુહૂર્ત અને ઉત્કૃષ્ટથી ૧૨ મુહૂર્ત અસ્વાધ્યાય જાણવો. (૧૭) સૂર્યગ્રહણ—જ્યારે સૂર્યગ્રહણ થાય ત્યારે જઘન્યથી ૧૨ મુહૂર્ત અને ઉત્કૃષ્ટથી ૧૬ મુહૂર્ત અસ્વાધ્યાય જાણવો. (૧૮) રાજવ્યુદ્ગત—નજીકની ભૂમિમાં રાજાઓની પરસ્પર લડાઈ થતી હોય ત્યારે, તથા લડાઈ શાન્ત થયા પછી ૧ દિવસ-રાત સુધી સ્વાધ્યાય ન કરવો. (૧૯) પતન—કોઈ મોટા રાજાનું અથવા રાષ્ટ્રપુરુષનું મૃત્યુ થાય તો તેનો અગ્નિસંસ્કાર ન થાય ત્યાં સુધી સ્વાધ્યાય કરવો નહીં તથા નવાની નિમણુંક ન થાય ત્યાં સુધી ઊંચા અવાજે સ્વાધ્યાય ન કરવો. (૨૦) ઔદારિક શરીર—ઉપાશ્રયની અંદર અથવા ૧૦૦-૧૦૦ હાથ સુધી ભૂમિ ઉપર બહાર પંચેન્દ્રિયજીવનું મૃતશરીર પડ્યું હોય તો તે નિર્જીવ શરીર હોય ત્યાં સુધી સ્વાધ્યાય ન કરવો. (૨૧થી ૨૮) ચારે મહોત્સવ અને ચાર પ્રતિપદા—આષાઢ પૂર્ણિમા, (ભૂતમહોત્સવ), આસો પૂર્ણિમા (ઇન્દ્ર મહોત્સવ), કાર્તિક પૂર્ણિમા (સ્કંધ મહોત્સવ), ચૈત્ર પૂર્ણિમા (યક્ષમહોત્સવ, આ ચાર મહોત્સવની પૂર્ણિમાઓ તથા તે ચાર પછીની કૃષ્ણપક્ષની ચાર પ્રતિપદા (એકમ) એમ આઠ દિવસ સ્વાધ્યાય ન કરવો. (૨૯થી ૩૦) પ્રાતઃકાલે અને સન્ધ્યાકાળે દિશાઓ લાલકલરની રહે ત્યાં સુધી અર્થાત્ સૂર્યોદય અને સૂર્યાસ્તની પૂર્વે અને પછી એક-એક ઘડી સ્વાધ્યાય ન કરવો. (૩૧થી ૩૨) મધ્ય દિવસ અને મધ્ય રાત્રિએ આગળ-પાછળ એક-એક ઘડી એમ બે ઘડી સ્વાધ્યાય ન કરવો. ઉપરોક્ત અસ્વાધ્યાય માટેના નિયમો મૂલપાઠના અસ્વાધ્યાય માટે છે. ગુજરાતી આદિ ભાષાંતર માટે આ નિયમો નથી. વિનય એ જ ધર્મનું મૂલ છે. તેથી આવા આવા વિકટ પ્રસંગોમાં ગુરુની અથવા વડીલની ઇચ્છાને આજ્ઞાને જ વધારે અનુસરવાનો ભાવ રાખવો. Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वाध्याय के प्रमुख नियम (१) (३) इस सूत्र के मूल पाठ का स्वाध्याय दिन और रात्री के प्रथम प्रहर तथा चौथे प्रहर में किया जाता है। प्रात: ऊषा-काल, सन्ध्याकाल, मध्याह्न और मध्य रात्री में दो-दो घडी (४८ मिनिट) स्वाध्याय नहीं करना चाहिए, सूर्योदय से पहले २४ मिनिट और सूर्योदय के बाद २४ मिनिट, इस प्रकार दो घड़ी सभी जगह समझना चाहिए। मासिक धर्मवाली स्त्रियों को स्वाध्याय नहीं करना चाहिए, इसी प्रकार उनके सामने बैठकर भी स्वाध्याय नहीं करना चाहिए, जहाँ ये स्त्रियाँ न हों उस स्थान या कक्ष में बैठकर स्वाध्याय किया जा सकता है। नीचे लिखे हुए ३२ अस्वाध्याय-प्रसंगो में वाँचना नहीं चाहिए(१) आकाश सम्बन्धी १० अस्वाध्यायकाल (१) उल्कापात-बड़ा तारा टूटे उस समय १ प्रहर (तीन घण्टे) तक स्वाध्याय नहीं करना चाहिए । (२) दिग्दाह—किसी दिशा में अधिक लाल रंग हो अथवा किसी दिशा में आग लगी हो तो स्वाध्याय नहीं करना चाहिए । गर्जारव-बादलों की भयंकर गडगडाहट की आवाज सुनाई देती हो, बिजली अधिक होती हो तो २ प्रहर (छ घण्टे) तक स्वाध्याय नहीं करना चाहिए। निर्घात–आकाश में कोई व्यन्तरादि देवकृत घोर गर्जना हुई हो अथवा बादलों के साथ बिजली के कडाके की आवाज हो तब आठ प्रहर तक स्वाध्याय नहीं करना चाहिए । विद्युत—बिजली चमकने पर एक प्रहर तक स्वाध्याय नहीं करना चाहिए यूपक-शुक्ल पक्ष की प्रथमा, द्वितीया और तृतीया के दिनो में सन्ध्या की प्रभा और चन्द्रप्रभा का मिलान हो तो उसे यूपक कहा जाता है। इस प्रकार यूपक हो उस समय रात्री में प्रथमा १ प्रहर स्वाध्याय नहीं करना चाहिए (८) यक्षादीप्त—यदि किसी दिशा में बिजली चमकने जैसा प्रकाश हो तो उसे यक्षादीप्त कहते हैं, उस समय स्वाध्याय नहीं करना चाहिए । धूमिका कृष्ण-कार्तिक से माघ मास तक धुंए के रंग की तरह सूक्ष्म जल के जैसी धूमस (कोहरा) पड़ता है उसे धूमिका कृष्ण कहा जाता है इस प्रकार की धूमस हो उस समय स्वाध्याय नहीं करना चाहिए । Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (९) महिकाश्वेत-शीतकाल में श्वेत वर्णवाली सूक्ष्म जलरूपी जो धूमस पड़ती है वह महिकाश्वेत कहलाती है, उस समय स्वाध्याय नहीं करना चाहिए । (१०) रजोद्घात–चारों दिशाओं में तेज हवा के साथ बहुत धूल उडती हो और सूर्य ढंक गया हो तो रजोद्घात कहलाता है, उस समय स्वाध्याय नहीं करना चाहिए। (२) ऐतिहासिक शरीर सम्बन्धी १० अस्वाध्याय— (११,१२,१३) हाड-मांस और रुधिर ये तीन वस्तुएँ जब-तक अग्नि से सर्वथा जल न जाएँ, पानी से धुल न जाएँ और यदि सामने दिखाई दें तो स्वाध्याय नहीं करना चाहिए । फूटा हुआ अण्डा भी हो तो भी अस्वाध्याय होता है। (१४) मल-मूत्र—सामने दिखाई हेता हो, उसकी दुर्गन्ध आती हो तब-तक अस्वाध्याय होता है। श्मशान—इस भूमि के चारों तरफ १००-१०० हाथ तक अस्वाध्याय होता (१६) चन्द्रग्रहण-जब चन्द्रग्रहण होता है तब जघन्य से ८ मुहूर्त और उत्कृष्ट से १२ मुहूर्त तक अस्वाध्याय समझना चाहिए । (१७) सूर्यग्रहण-जब सूर्यग्रहण हो तब जघन्य से १२ मुहूर्त और उत्कृष्ट से १६ मुहूर्त तक अस्वाध्याय समझना चाहिए । (१८) राजव्युद्गत-नजदीक की भूमि पर राजाओं की परस्पर लड़ाई चलती हो, उस समय तथा लड़ाई शान्त होने के बाद एक दिन-रात तक स्वाध्याय नहीं करना चाहिए। पतन-कोई बड़े राजा का अथवा राष्ट्रपुरुष का देहान्त हुआ हो तो अग्निसंस्कार न हो तब तक स्वाध्याय नहीं करना चाहिए तथा उसके स्थान पर जब तक दूसरे व्यक्ति की नई नियुक्ति न हो तब तक ऊंची आवाज में स्वाध्याय नहीं करना चाहिए । (२०) औदारिक शरीर-उपाश्रय के अन्दर अथवा १००-१०० हाथ तक भूमि पर उपाश्रय के बाहर भी पञ्चेन्द्रिय जीव का मृत शरीर पड़ा हो तो जब तक वह निर्जीव शरी वहाँ पड़ा रहे तब तक स्वाध्याय नहीं करना चाहिए । (२१ से २८) चार महोत्सव और चार प्रतिपदा-आषाढ़ी पूर्णिमा (भूत महोत्सव), आसो पूर्णिमा (इन्द्रिय महोत्सव), कार्तिक पूर्णिमा (स्कन्ध महोत्सव), चैत्र पूर्णिमा (यक्ष महोत्सव) इन चार महोत्सवों की पूर्णिमाओं तथा उससे पीछे की चार, कृष्ण पक्ष की चार प्रतिपदा (ऐकम) इस प्रकार आठ दिनों तक स्वाध्याय नहीं करना चाहिए । Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२९ से ३०) प्रातःकाल और सन्ध्याकाल में दिशाएँ लाल रंग की दिखाई दें तब तक अर्थात् सूर्योदय और सूर्यास्त के पहले और बाद में एक-एक घड़ी स्वाध्याय नहीं करना चाहिए । (३१ से ३२) मध्य दिवस और मध्य रात्री के आगे-पीछे एक-एक घड़ी इस प्रकार दो घड़ी स्वाध्याय नहीं करना चाहिए। उपरोक्त अस्वाध्याय सम्बन्धी नियम मूल पाठ के अस्वाध्याय हेतु हैं, गुजराती आदि भाषान्तर हेतु ये नियम नहीं है । विनय ही धर्म का मूल है तथा ऐसे विकट प्रसंगों में गुरू की अथवा बड़ों की इच्छा एवं आज्ञाओं का अधिक पालन करने का भाव रखना चाहिए । Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययन सूत्रकी विषयानुक्रमणिका विषय १ मङ्गलाचरण २ उपाद्घात ३ अध्ययनोंके नामनिर्देश ४२ ४ विनयका उपदेश ५ संयोग के विषय में दृष्टान्त ६ विनीत शिष्यादिका लक्षण ७ विनयके विषयमें गुणनिधि शिष्यका दृष्टान्त ८ अविनीत शिष्यका लक्षण और उस विषय में क्षुद्रबुद्धि शिष्यका दृष्टान्त दृष्टान्त सहीत अविनीतका लक्षण और afalta शिष्यका दृष्टान्त १० अविनीत प्रवृत्ति में सूकरका दृष्टान्त श्वानआदि दृष्टान्तके श्रवण से विनीतशिष्यका कर्तव्य ११ विनय का फल १२ विनय पालन करने का उपाय १३ बालपार्श्वस्थादिकोंका संसर्गकी निंदना १४ हास्य क्रीडा की निंदा १५ क्रोधवश होकर झुठ बोलना आदिका निषेध १६ शिष्यको प्रतिदिन गुरुके इङ्गित जाननेमें तत्पर रहना चाहिये १७ शत्रुमर्दन राजाका दृष्टान्त १८ मणिनाथ का दृष्टान्त १९ अविनीत और विनीत शिष्यका आचरण २० चंड रुद्राचार्य के शिष्यका दृष्टान्त २१ गुरु चित्तानुसारी शिष्यका दृष्टान्त ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર ઃ ૧ पृष्ठाङ्कः १-५ ६-८ ९-१० ११-१२ १३-२२ २३-२४ २५-२८ २९ ३० - ३७ ३८-४४ ४५-५२ ५५-५७ ५८- ६४ ६५-६६ ६७ ६८-७३ ७४-७५ ७६-७८ ७९-८० ८१ ८२-९० ९१-९२ Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय पृष्टाङ्क२२ क्रोधको निष्फल बनाने में दृष्टान्त ९३-९६ २३ प्रशंसामें मुनिको अपना उत्कर्षका त्यागका उपदेश ९७-९८ २४ अपनी निन्दामें मुनिको अपकर्ष (हलकापना) का त्याग करनेका उपदेश ९९-१०१ २५ आत्माका दमन करनेसेही क्रोधकों निष्फल बनासकते है इस हेतु से आत्मदमनका उपदेश और उस विषयमें अनेक दृष्टान्त १०२-१२७ विनयका उपदेश और उस विषयमें आसन विनय पृच्छा प्रकार विगेरह विनयशालि होनेका दृष्टान्त १२८-१३७ २७ विनीत शिष्यकों वाचनादानका प्रकार १३८-१४० २८ सूत्र शब्दका अर्थ और सूत्र निक्षेप लक्षण १४१-१४४ २९ सूत्रके ३२ दोषोंका वर्णन १४५-१५६ ३० सूत्रके आठ ८ और छह ६ गुणोंका वर्णन १५७-१६० ३१ सूत्रका भेद और सूत्रका उच्चारणविधि १६१-१६३ ३२ सूत्रके बोलने में दोषोका कथन १६४-१६८ ३३ वाचना द्वारका वर्णन १६९-१७३ ३४ वाचना द्वारके विषयमें राजाका दृष्टान्त १७४-१७५ ३५ सूत्रार्थकापौर्वापर्य निरूपण नामका आठवां द्वारका वर्णन १७५-१७९ ३६ सूत्र अर्थ एवं सूत्रार्थमें यथोत्तर प्रबलताका कथन नामका नवमां द्वारका वर्णन १८०-१८४ ३७ निरवध भाषणविधि १८४-१९२ ३८ निरवद्य भाषा का भेद १९३-२०० ३९ सावध भाषण बोलनेका निषेध २०१-२०२ १० सावध भाषणके विषयमें अश्वपतिका दृष्टान्त २०३-२०५ ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१७-२१८ विषय पृष्ठाङ्क४१ निरर्थक भाषण बोलने का निषेध और उस विषयमें दृष्टान्त २०५-२०७ ४२ मार्मिक भाषण बोलनेका निषेध और धनगुप्त श्रेष्टिका दृष्टान्त २०८-२१६ अन्य का संसर्गसे होनेवाला दोषका परिहार और ब्रह्मचारिका कर्तव्य ४४ ब्रह्मचारिका कर्तव्य और शिष्यों को शिक्षा २१९-२२७ ४५ एषणा समिति विषयक विनय धर्मका कथन २२८-२३३ ४६ गृहेषणा समिति की विधि २३४-२३५ ४७ ग्रासैषणा की विधि २३६ ४८ वचनकी यतना (नियमन) की विधि २३६-२४१ ४९ विनीत शिष्यको और अविनीत शिष्य को उपदेश देनेमें फल का भेद और कुशिष्यकी दुर्भावना २४२-२४५ ५० सत् शिष्य की भावनाका वर्णन ५१ विनीत शिष्य को विनय सर्वस्व का उपदेश द्वारा शिक्षा का वर्णन २४७-२४८ बुद्धोपघाती न बननेके विषयमें वीर्योल्लासाचार्य का दृष्टान्त २४९-२५३ आचार्य महाराज कुपित होनेपर शिष्यके कर्तव्य का उपदेश २५४-२५८ अध्ययन के अर्थ का उपसंहार और आचार्यादिकों का प्रसन्न होनेपर फल २५९-२६० श्रुतज्ञान के लाभका फल और श्रुतज्ञान का लाभ होनेपर मोक्षप्राप्ति अथवा देवत्व प्राप्तिका वर्णन और प्रथमाध्ययन समाप्ति २६१-२६५ ५६ द्वितीयाध्ययन प्रारम्भ-बाईस परीषहों का प्रस्ताव २६६-२७२ ५२ ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय पृष्ठा५७ बाईस परीषहों का नामनिर्देष २७२-२७५ ५८ परीपहों का स्वरूपवर्णन में क्षुधापरीषहजय का वर्णन और दृढवीर्य मुनि का दृष्टान्त २७६-२८७ पिपासापरीषह का वर्णनमें पानभेद का वर्णन और धनमियमुनि दृष्टान्त २८८-२९९ शीतपरीषह जय का वर्णन और उस विषयमें मुनिचतुष्टय का दृष्टान्त ३००-३०७ उष्णपरीषह जय का वर्णन और अरहन्नक मुनि का दृष्टान्त ३०८-३१७ ६२ दंशमशकपरीषह का वर्णन और उस विषयमें सुदर्शन मुनि का दृष्टान्त ३१८ -३२४ ६३ अचेलपरीषह जय का वर्णन ३२४-३३० ६४ स्थविरकल्पका वर्णन और उस विषयमें संलेखना, पादपोपगमन, और संस्तारक विधि का वर्णन ३३१-३३८ ६५ जिनकल्पिका वर्णनमें पिण्डैषणा विधि जिनकल्पमर्यादा ३३९-३४७ ६६ स्थविरकल्प और जिनकल्पका दश प्रकार का वर्णन ३४७६७ आचैलक्य वर्णन और उस विषयमें सोमदेव मुनिका दृष्टान्त ३४८-३६८ ६८ अरतिपरीषह जयका वर्णन और उस विषयमें । अर्हदत्तमुनि का दृष्टान्त ३६९-३९० ६९ स्त्री परीषहजयका वर्णन और लावण्यमुनि का दृष्टान्त ३९१-४०४ ७० चर्यापरीषह जयका वर्णन ४०५-४१५ ७१ नैषधिकी, शय्या, आक्रोश परीषह वर्णन ४१६-४३६ ७२ वधपरीषह याचनापरीषह और अलाभपरीषह का वर्णन ४३७-४६२ ७३ रोगपरीषह, तृणपाश, जलपरीषहका वर्णन ४६३-४८४ ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय ७४ सत्कारपुरस्कार परीषद, प्रज्ञापरीषद, अज्ञानपरीषका वर्णन ७५ दर्शन परीषह का वर्णन ७६ परीषहोंका अवतरण और छद्मस्थ परीषहोंका भेद वर्णन સફ ७९ ८० ७८ ७७ केवली परीषद्दों के भेदों का वर्णन अध्ययनका उपसंहार और द्वितीयाध्ययन समाप्ति तृतीयाध्ययन प्रारंभ और अङ्ग चतुष्टयका वर्णन और उस विषय में दश दृष्टान्त जीवका अनेक जातिमें भ्रमण और संसार स्वरूपका वर्णन ८१ जीवका केन्द्रि आदिमें भ्रमण ८२ जीवका मनुष्यभव प्राप्तिका क्रम वर्णन ८३ मनुष्यभवका लाभ होनेपर भी धर्मश्रवणकी दुर्लभता ८४ धर्मश्रवण करने पर भी श्रद्धारहित होनेपर धर्मसे भ्रष्ट होना ८५ श्रद्धा लदौभ्यका वर्णन प्रथमनिव जमालि मुनिका दृष्टान्त ८६ द्वितीय निह्नव तिष्यगुप्त मुनिका दृष्टान्त ८७ तृतीय निह्नव आषाढाचार्यका दृष्टान्त ८८ चतुर्थ निहव अश्वमित्रका दृष्टान्त ८९ पंचमनिहव गङ्गाचार्यका दृष्टान्त छट्ठा निह्नव रोहगुप्तका दृष्टान्त ९० ९१ ९२ सप्तम नित्र गोष्ठमाहिल मुनिका दृष्टान्त वोटिक दृष्टान्त ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર ઃ ૧ Y— ४८५-५२४ ५२५-५५२ ५५३-५६४ ५६५-५६६ ५६७-५६९ ५७०-६२६ ६२७-६३४ ६३५ ६३६-६३८ ६३९-६४० ६४१–६४२ ६४३-६७६ ६७७-६९५ ६९६-७०२ ७०३-७१० ७११-७२७ ७२८-७६० ७६१-७७६ ७७७-७८७ Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय ९३ मनुष्यत्व प्राप्त होनेपर भी संयमवीर्यको दुलेभता ७८८-७८९ मनुष्यत्व प्राप्त होनेका फल और मनुष्यत्व प्राप्तकरके चतुरङ्गी संपन्नको मोक्षफलकीप्राप्ति ७९०-७९१ ९५ शिष्योंको उपदेशमें पुण्यकर्म अवशेष से देवगतिकी प्राप्ति ७९२-७९५ ९६ दशांग का प्रदर्शन और पुण्यकर्म भोगनेपर मोक्षमाप्ति ७९६-८०० RS KESARNE VIE ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ श्रीवीतरागाय नमः ॥ जैनाचार्य-जैनधर्मदिवाकर-पूज्यश्री-घासीलाल-व्रतिविरचितया प्रियदर्शिन्याख्यया व्याख्यया समलङ्कृतम्उत्तराध्ययनसूत्रम्। –xxx:०:xxx॥ अथ मङ्गलाचरणम् ॥ ( मालिनी-छन्दः) (१) भवजलधिनिमज्जज्जीवरक्षककृत्यं, विमलहितवचोभिर्दर्शितात्मैकमृत्यम् । सुर-नर-मुनिवृन्दैबन्धमानापिनम् , सकलगुणनिधानं वर्धमानं प्रणौमि ॥ (२) चरमजिनवरस्य प्राणिकल्याणकर्ती, चरमसमयजाता देशना सोत्तरारव्या । भवतु भविजनानां सुप्रवेद्या सुहृद्या, इति सरलसरण्या वृत्तिरातन्यतेऽस्याः॥ (पृथ्वी-छन्दः) सगुप्तिसमितिं समां विरतिमादधानं सदा, क्षमावदखिलक्षम कलितमजुचारित्रकम् । सदोरमुखवस्त्रिकाविलसिताऽऽननेन्दु गुरु, प्रणौमि भववारिधिप्लवमपूर्वबोधपदम् ॥ ( अनुष्टुप् छन्दः) जैनी सरस्वतीं नत्वा, गौतमं गणनायकम् । उत्तराध्ययने वृत्ति, करोमि भियदर्शिनीम् । ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २ 6 उत्तराध्ययन सूत्रे | हिन्दी भाषानुवाद | उत्तराध्यनसूत्र पर संस्कृत टीका करने के पहले टीकाकार सर्वप्रथम अन्तिम तीर्थकर श्रीवर्धमान जिनेन्द्र को नमस्कार करते हैंभवजलधि० ' इत्यादि । (भवजलधिनिमज्जज्जीवरक्षैककृत्यं) अपार संसाररूप समुद्र में डूबते हुए जीवों की रक्षा करना ही जिनका कार्य था, (विमल - हितवचोभिर्दर्शितात्मैकसूत्यम् ) जिन्होंने अपनी निर्मल हितावह देशनाओं के द्वारा भव्यात्माओं को आत्मकल्याण का मार्ग प्रदर्शित किया, तथा (सुर नर मुनिवृन्दैर्वन्यमानाङ्गिपद्मम् ) जिनका चरणकमल सुर-नर और मुनियों के समूह से वन्द्यमान था, ऐसे (सकल गुणनिधानं ) सभी गुणों के समस्त क्षायिक गुणों के निधानस्वरूप ( वर्धमानं ) चरम तीर्थंकर श्रीवर्धमानस्वामी को ( प्रणौमि ) मनवचन काया से मैं नमस्कार करता हूँ ॥ १ ॥ भावार्थ - वर्धमान प्रभुने इस अपार संसाररूपी समुद्र में डूबते हुए जीवों को आत्म उद्धार का मार्ग बतलाया, उस मार्ग से ગુજરાતીભાષાનુવાદ. ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર ઉપર સંસ્કૃત ટીકા કરતાં પહેલાં ટીકાકાર સર્વ પ્રથમ अन्तिम तीर्थ ४२ श्री वर्धमान भनेन्द्र नमस्२ १२ छे :-'भवजलधि०' त्यिाहि. भव जलधिनिमज्जज्जीवरक्षैककृत्यं —અપાર સંસારરૂપ સમુદ્રમાં ડુબતા वोनी रक्षा श्वानुं ४ मनु' अर्थ तुं, विमलहितवचोभिर्दर्शितात्मैकसृत्यम्જેમણે પેાતાની નિર્મલ હિતાવહ દેશનાએથી ભવ્યાત્માઓના આત્મउद्याशुना भार्ग सभलव्यो, तथा सुर नर मुनि - वृन्दैर्वन्यमानाङ्घ्रिपद्मम्— मनां थरण उभा सुर-नर भने भुनियोना सभूडने वहनीय हुतां, मेवा सकलगुणनिधानं—मधा गुणेोना-समस्त क्षायि गुणाना - निधानस्व३५, वर्धमानं— थरभ तीर्थ १२ श्री वर्धमान स्वाभीने प्रणौमि — भन वयन प्रयाथी नभस्र ३ . ભાવાવ માન પ્રભુએ આ અપાર સંસારરૂપી સમુદ્રમાં ડુબતા જીવાને આત્મ ઉદ્ધારના માર્ગ ખતાન્યા. તે માર્ગથી તેમની રક્ષા થઈ. આથી ભગવાનને ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર ઃ ૧ Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रियदर्शिनी टीका. अ० १ मङ्गलाचरणम् उनकी रक्षा हुई। इससे भगवानका तरण- तारण- शक्तिमत्त्व सूचित किया गया है, क्योंकि आत्मा जब तक स्वयं तरण- तारण शक्तिसम्पन्न नहीं होता, तब तक वह न स्वयं तर सकता है न दूसरों को तार सकता है । तरणतारणशक्तिसम्पन्न आत्मा तभी बनता है कि जब उससे समस्त विकारी भाव - रागादिक - नष्ट हो जाते हैं। इस बात को गणधरों ने सूत्रों में तथा दर्शनकारों ने अनुमान प्रमाण से दार्शनिक ग्रन्थों में अच्छी तरह से स्पष्ट किया है। प्रभु की देशना से ही जीवों को अभय प्राप्त होता है । देशना प्रभु की केवलज्ञानप्राप्ति के अनन्तर ही होती है, तभी जीवों की रक्षा होती है । " भवजलधिनिमज्जज्जीवरक्षैककृत्यम् ” इस विशेषण की सार्थकता प्रभु में निर्बाध - रूप से साबित होती है । इसी बात को हेतुपरक " विमलहितवचोभिर्दर्शितात्मैकसृत्यम् " इस विशेषणद्वारा टीकाकार ने चरितार्थ किया है। प्रभु ने संसाररूपी समुद्र से जीवों का उद्धार कैसे किया ? क्या सिखाकर उन्हें अपने कर्त्तव्य की ओर प्रेरित किया ? किस प्रकार की वाणी से विस्मृत हुए मार्ग पर लगाकर उन्हें आत्मकल्याण का पथिक बनाया ? यही सब बातें इस विशेषण से पुष्ट की गई है । તરણ-તારણના શક્તિમાન માનવામાં આવ્યા છે. કેમકે આત્મા જ્યાં સુધી સ્વયં તરણ—તારણશક્તિશાળી નથી અનતા ત્યાં સુધી ન તે તે પોતે તરી શકે છે કે ન બીજાને તારી શકે છે. તરણતારણુશક્તિસંપન્ન આત્મા ત્યારે બને છે કે જ્યારે તેનાથી સઘળા વિકારી ભાવ-રાગવગેરે નાશ પામે છે. આ વાતને ગણધરાએ સૂત્રેામાં તથા દર્શનકારોએ અનુમાન પ્રમાણથી દાર્શનિક ગ્રંથામાં સારી રીતે સ્પષ્ટ કરેલ છે. પ્રભુની દેશનાથી જ જીવાને અભય પ્રાપ્ત થાય છે. દેશના પ્રભુની કેવળજ્ઞાનની પ્રાપ્તિ થયા પછી જ થાય છે, ત્યારે જ लवोनी रक्षा थाय छे. भेटले, “भवजलधिनिमज्जज्जीवरक्षैककृत्यं" या विशेषणुनी સાકતા પ્રભુમાં નિર્માધિતરૂપથી સાખીત થાય છે. આ વાતને હેતુપરક " विमलहितवचोभिर्दर्शितात्मैकसृत्यम् ” मा विशेषाशुद्वारा टीअारे थरितार्थ કરેલ છે. પ્રભુએ સંસારરૂપી સમુદ્રથી જીવાના ઉદ્ધાર કેવી રીતે કર્યું? શું શિખવીને તેમને પેાતાના કર્તવ્ય તરફ પ્રેરણા લેતા કર્યાં? કયા પ્રકારની વાણીથી એમણે વિસ્તૃત થયેલા માર્ગ ઉપર લાવી આત્મકલ્યાણના પંથે વાળ્યાં ? આ સઘળી વાતાનું આ વિશેષણથી સમન કરવામાં આવેલ છે. 66 ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર ઃ ૧ Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययनसूत्रे प्रभुने जो भी आत्मा के हित का मार्ग बतलाया वह "विमल" अर्थात् पूर्वापरविरोध रहित है । ज्ञान में सर्वथा शुद्धि आये विना वचन में सर्वथा प्रमाणता नहीं आती है, यह एक सर्वमान्य सिद्धान्त है। इससे भगवान में "आदेयवचनतारूप अतिशय” प्रगट किया गया है। वचनों में सर्वथा प्रमाणता का सद्भाव ही उनकी विमलता है। ऐसे वचनों से त्रिकाल में भी किसी का अहित नहीं होता है । वे सदा हितकारक ही होते हैं। वचन के इन दो विशेषणों से टीकाकारने अन्य तीर्थकों के पचनों में सर्वथा प्रमाणता का अभाव प्रतिपादित किया है । अतः “ भवजलधि०” और “विमलहितवचोभिर्दर्शिता" ये दोनों विशेषण “ अन्ययोगव्यच्छेदक” हैं। तथा “सुर-नर-मुनि वृन्दैर्वन्द्यमानाधिपद्मम्” इस विशेषण से भगवान में “त्रिलोकवन्धत्व" सूचित किया गया है। सुरवृन्द-इन्द्रादिक देवसमूह, नरवृन्दचक्रवर्ती आदि, तथा मुनिवृन्द-सर्वविरतिमुनिसमूह, ये सभी संसारी जीवों के द्वारा पूज्य होते हैं। इन पूज्यों द्वारा भी प्रभु के चरणकमल पूज्य हुए हैं। इससे प्रभु में “त्रिलोकवन्द्यता” सूचित होती है । तथा-"सकलगुणनिधानं” इस विशेषण से प्रभु में ज्ञानाप्रभुणे यात्माना तिना xis मा मतव्यो ते “ विमल" अर्थात् પૂર્વાપરવિરોધથી રહિત છે. જ્ઞાનમાં સંપૂર્ણપણે શુદ્ધિ આવ્યા વિના વચનમાં સર્વથા પ્રમાણુતા આવતી નથી, આ એક સર્વમાન્ય સિદ્ધાંત છે. આથી ભગવાનમાં “આદેયવચનતારૂપ અતિશય” પ્રગટ કરેલ છે. વચનમાં સર્વથા પ્રમાણુતાને સદભાવ જ તેની વિમળતા છે. એવા વચનેથી ત્રણ કાળમાં પણ કેઈનું અહિત થતું નથી. તે સદા હિત કરનાર જ હોય છે. વચનના આ બે વિશેષણથી ટીકાકારે બીજા ધર્મવાળાના વચનેમાં સર્વથા પ્રમાણતાને ममा प्रतिपादित ४२ छ. मेटले “भवजलधि० " अने " विमलहितवचोभिर्दर्शिता०" 20 भन्ने विशेषए “ अन्ययोगव्यवच्छे४४" छ. तथा “सुर-नरमुनिन्देन्द्यमानाध्रिपनम् " 21 विशेषथा मापानमा “त्रिवन्धत्व" સૂચિત કરવામાં આવેલ છે. સુરવૃન્દ-ઈન્દ્રાદિક દેવસમૂહ, નરવૃ–ચકવતી આદિ, તથા મુનિવૃન્દ–સર્વવિરતિમુનિસમૂહ, આ બધા સંસારી જીવો માટે પૂજ્ય હોય છે. આ પૂજ્ય મારફત પ્રભુનાં ચરણ કમળ પૂજ્ય થયેલ છે. આથી प्रभुमा “त्रिवन्धता" सूचित थाय छे. तथा-“ सकलगुणनिधानं" ॥ ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रियदर्शिनी टीका. अ० १ मङ्गलाचरणम् तिशय का सूचन किया गया है, क्योंकि-सकलगुणनिधान-अनन्तचतुष्टयादिरूप शुद्ध निर्मल गुण, केवल ज्ञान जागृत होने पर ही आत्मा में प्रकट होता है ॥ १ ॥ इस प्रकार चोंतीस अतिशयों से विराजमान श्रीवर्धमान प्रभु को नमस्कार कर टीकाकार अब उनकी दिव्यदेशनारूप इस शास्त्र की टीका करने का कारण निर्दिष्ट करते हैं— 'चरमजिन० ' इत्यादि । ( प्राणिकल्याणकर्त्री) संसारस्थ समस्त प्राणियों के कल्याण करने वाली जो ( चरमजिनवरस्य ) अन्तिम तीर्थंकर श्री भगवान महावीर स्वामी द्वारा ( चरमसमयजाता) अन्तिम समय में अर्थात् निर्वाणासन्न समय में दी गई ( देशना ) देशना ( सोत्तराख्या) वह उत्तराध्ययन नाम से प्रसिद्ध है । वह उत्तराध्ययनरूप देशना (भविजनानां ) भव्यात्माओं के लिये (सुप्रवेद्या) सुबोध्य एवं (सुहृद्या ) हृदयंगम्य हो, (इति) इस हेतु से ( अस्याः ) इसकी (सरलसरण्या) सुगमशैली से ( वृत्तिरातन्यते ) वृत्ति की रचना करता हूँ ॥ २ ॥ अब टीकाकार गुरुको नमस्कार करते हैं— 'सगुप्ति०' इत्यादि । વિશેષણથી પ્રભુમાં “ જ્ઞાનાતિશય ”નું સૂચન કરાયેલ છે, કેમ કે–સકલ ગુણનિધાન-અનન્તચતુષ્ટયાદિરૂપ શુદ્ધ નિર્મળ શુષુ, કેવળજ્ઞાન જાગૃત થવાથી જ આત્મામાં પ્રગટ થાય છે. આ પ્રકારે ચેત્રીસ અતિશયાથી વિરાજમાન શ્રી વમાન પ્રભુને નમસ્કાર કરી ટીકાકાર હવે એમની દિવ્ય દેશનારૂપ આ શાસ્ત્રની ટીકા કરવાનું आरएणु निर्देश अरे छे -- चरमजिन० छत्याहि. :– દ્વારા प्राणिकल्याणकर्त्री : - संसारना समस्त प्राणियोनुं उदयालु उरवावाजी ने चरमजिनवरस्य - छेस्सां तिर्थर श्री लगवान महावीर स्वाभी चरमसमयजाता-अतिभ सभये भेटले निर्वाणासन्न सभये आपवामां आवेद देशना देशना - सोत्तराख्या- ने उत्तराध्ययन नाभथी प्रसिद्ध छे. ते उत्तराध्ययन३५ देशना भविजनानां -लव्यात्मागौने भाटे सुप्रवेद्या- सुमध्य सेभन सुहृद्या - हृह्यगभ्य मो. इति-या हेतुथी अस्याः - मानी सरलसरण्या - सुगभ शैक्षीथी वृत्तिरातन्यते - वृत्तिनी रचना ४३ छु. डवे टीअार गुरुने नमस्र २ छे– 'सगुप्ति०' इत्याहि. ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર ઃ ૧ Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययनसूत्रे (सगुप्तिसमितिं समां विरतिमादधानं सदा) जो पांच समिति और तीन गुप्तियों के धारक हैं, तथा सर्वदा सर्वविरति को पालने वाले हैं, (क्षमावदखिलक्षम) पृथिवी के समान जो सर्व प्रकार के अनुकूल प्रतिकूल परीषहादिक को सहन करते हैं, (कलितमजुचारित्रकम् ) जो निरतिचार चारित्र अराधन में सदा तत्पर रहते हैं, तथा-(सदोरमुखवस्त्रिकाविलसिताननेन्दु) वायुकायादि की यतना के लिये जिनका मुखरूपी चन्द्रमण्डल सदा सदोरक मुखवस्त्रिका से सुशोभित है, तथा(अपूर्वबोधप्रदं ) जो अपूर्व समकितरूपी बोध-बीज के दाता हैं और (भववारिधिप्लवम् ) इस संसारसमुद्र से भव्य जीवों के पार होने के लिये नौका समान हैं, ऐसे (गुरु) निर्ग्रन्थ गुरु महाराज को (प्रणौमि) मैं नमस्कार करता हूँ॥३॥ अब टीकाकार भगवानकी वाणी आदिको नमस्कार करके अपनी व्यक्तव्यता प्रकट करते हैं-'जैनों' इत्यादि । (जैनों सरस्वती) जिनेन्द्र के मुखकमल से निर्गत द्वादशाङ्गीरूप सरस्वती देवी को, एवं (गणनायकं गौतमं) गणनायक-गच्छ के नायक (सगुप्तिसमितिं समां विरतिमादधानं सदा )- पांच समिति भने त्रा शुतियाना धा२४ छ, तथा सर्वहा सावितिने पावणा छ, (क्षमावदखिलक्षम) पृथ्वीना समान सब ४।२ना मनु प्रति परिषडाने सहन ४२ छ, (कलितमंजुचारित्रकम् )- नितिया२ यात्रिना आराधना सही तत्५२ २ छ. तथा (सदोरमुखवस्त्रिकाविलसिताननेन्दं) वायुधाय माहिनी યતનાને માટે જેમનું મુખરૂપી ચન્દ્રમંડળ સદા દેરાસહિતની મુંહપત્તીથી सुशालित छ, तथा (अपूर्वबोधप्रदं) अपूर्व समठित३पी माध-भीमना हाता छ भने (भववारिधिप्लवम् ) मा संसारसमुद्रथा भव्य वान पार ४२वामा नौ।समान छ, मेवा (गुरुं) निन्थ शु३ मडा२।०४ने (प्रणौमि) હું નમસ્કાર કરું છું. હવે ટીકાકાર જીન ભગવાનની વાણું આદિને નમસ્કાર કરી સ્વવક્તव्यता प्र४८ ४२ छे--'जैनी' छत्यादि. (जैनी सरस्वती) जिनेन्द्रना मु५४मगथी नित शis0३५ स२२वती हेवान, मने. (गणनायकम् गौतम ) आशुनाय४-२छन्नायमावान गौतम ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रियदर्शिनी टीका. अ० १ उपोद्धातः __ अस्यामवसर्पिण्या जातस्य चतुर्विंशस्य चरमतीर्थकरस्य भगवतः श्रीवर्धमानस्वामिनश्चरमचातुर्मास्यं पावापुर्यामासीत् । तत्र कृतषष्ठभक्तेषु नवमल्लकि-नवलेच्छकि काशी-कौशलकेषु अष्टादशसु गणराजेषु समुपस्थितेषु तस्य चरमदेशना षट्त्रिंशदध्ययनामिका उत्तराध्ययननामतः प्रसिद्धा, विंशत्यध्ययनात्मिका तु विपाकश्रुतारव्या। तत्रोत्तराध्ययनस्य शब्दार्थस्त्वेवम्-उत्तराणि मोक्षसाधकत्वात् प्रधानानि अध्ययनानि यत्र तदुत्तराध्ययनम् ।। नन्विदमेव शास्त्रं प्रधानं चेत् आचाराङ्गादिद्वादशाङ्गी भगवत्मज्ञप्ताऽपि प्रधानतयाऽनुक्तत्वादितोऽपकृष्टतया प्रेक्षावद्भिरनुपादेया स्यादिति चेद् ? अत्रोभगवान गौतम गणधर को (नत्वा ) नमस्कार कर मैं (उत्तराध्ययने) इस उत्तराध्ययन सूत्र के ऊपर (प्रियदर्शिनों वृत्ति) प्रियदर्शिनी नामक वृत्ति की (कुर्वे ) रचना करता हूँ ॥४॥ टीकार्थ-इस अवसर्पिणी काल में उत्पन्न चौवीसवें अन्तिम तीर्थकर भगवान श्रीवर्धमान स्वामी का अन्तिम चातुर्मास पावापुरी में हुआ। वहां पर भगवान की सेवा में, नवमल्लकि नवलेच्छकि जो काशी एवं कौशल देश के अठारह गणराजाथे वे उपस्थित हुए। उन सबों ने षष्ठभक्त किया। उस समय उन श्री भगवान महावीर स्वामी की अन्तिम देशना हुई, जो देशना छत्तीस अध्ययनरूप 'उत्तराध्ययन' इस नाम से प्रसिद्ध हुई, तथा बीस अध्ययनरूप विपाकश्रुत, इस नाम से भी प्रसिद्ध हुई। उनमें 'उत्तराध्ययन' शब्द का अर्थ इस प्रकार है-मोक्ष साधक होने से उत्तर-प्रधान हैं अध्ययन जिसमें वह उत्तराध्ययन है। गणुधरने (नत्वा) नभ२४२ ४३ ई (उत्तराध्ययने) उत्तराध्ययन सूत्र ७५२ (प्रियदर्शिनीम् वृत्तिं ) प्रियहशिनी नामनी वृत्तिनी (कुर्वे ) स्यना ४३ छु. ॥४॥ ટીકા–આ અવસર્પિણી કાળમાં ઉત્પન્ન થયેલા વીસમા છેલ્લા તીર્થકર ભગવાન શ્રી વર્ધમાન સ્વામીને છેલ્લે ચાતુર્માસ પાવાપુરીમાં થયો. ત્યાં આગળ ભગવાનની સેવામાં નવમલકિ નવલેચ્છક જે કાશી અને કૌશલ દેશના અઢાર ગણરાજા આવેલ હતા એ બધાએ ષષ્ઠભત કરેલ. આ સમયે ભગવાન શ્રી મહાવીર સ્વામીની અંતિમ દેશના થઈ, જે દેશના છત્રીસ અધ્યયનરૂપ ઉત્તરાધ્યયન આ નામથી પ્રસિદ્ધ થઈ, તથા વીસ અધ્યયનરૂપમાં વિપાકશ્રત નામથી પણ પ્રસિદ્ધ થઈ, આમાં “ઉત્તરાધ્યયન' શબ્દને અર્થ આ પ્રકારે છેમોક્ષસાધક હોવાથી ઉત્તર–પ્રધાન છે અધ્યયન જેમાં તે ઉત્તરાધ્યયન છે. ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययनसूत्रे च्यते यद्यपि सर्व प्रवचनं प्रधानमेव, तथाप्येतानि विनयश्रुतादीनि षट्त्रिंशदध्ययनानि रूढिवशात् प्रधानानि । भगवच्चरमदेशनास्वरूपतयाऽस्मिन् शास्त्रे द्वादशाङ्गी प्रतिपादितार्थमुपसंहरता भगवता प्राधान्यं रूढ्या प्रदर्शितम् , सविस्तरं तु तत्त्वं तत्र तत्र सूत्रे वर्णितमिति न काऽप्यनुपपत्तिः। प्रश्न-यदि छत्तीस अध्ययनात्मक यह शास्त्र ही प्रधान माना जावेगा तो आचारांग आदि द्वादशांग कि जिनका प्ररूपण भी स्वयं भगवान् ने ही किया है, प्रधानरूप से नहीं कहे जाने के कारण इसकी अपेक्षा अपकृष्ट-अप्रधान हो जायेंगे, और इस कारण वे प्रेक्षावान्बुद्धिमानों-की दृष्टि में उपादेय नहीं रह सकेंगे, सो इस प्रकार यदि कोई प्रश्न करे तो उसका समाधान इस प्रकार है भगवत्प्रतिपादित होने के कारण यद्यपि सभी द्वादशांगात्मक प्रवचन प्रधान है फिर भी यहांजो इन विनयश्रुतादिक छत्तीस अध्ययनों में प्रधानता प्रदर्शित की गई है वह केवल प्रसिद्धि के वश समझना चाहिये। भगवान की अन्तिमदेशनास्वरूप होने से इस शास्त्र में द्वादशांगप्रतिपादित अर्थ का संक्षेप से समावेश किया गया है, अतः सूत्रकार ने प्रसिद्धि से ही इसमें प्रधानता प्रकट की है। द्वादशांग का विस्तारसहित वास्तविक तत्त्व, आचारांग, सूत्रकृतांग आदि आगमोंमें પ્રશ્ન–જે છત્રીસ અધ્યયનાત્મક આ શાસ્ત્ર જ પ્રધાન મનાશે તે આચારાંગ વગેરે દ્વાદશાંગ કે જેનું પ્રરૂપણ પણ સ્વયં ભગવાને જ કરેલ છે, તે પ્રધાનરૂપનાં ન કહેવાવાને કારણે આની અપેક્ષા અપકૃષ્ટ-અપ્રધાન બની જશે, અને આ કારણથી તે પ્રેક્ષાવાન-બુદ્ધિમાને-ની દષ્ટિએ ઉપાદેય નહીં રહે. જે આ પ્રકારને કદાચ કોઈ પ્રશ્ન કરે તે એનું સમાધાન આ પ્રકારથી છે– સ્વયં ભગવાનથી પ્રતિપાદિત રહેવાના કારણે કે બધાં દ્વાદશાંગાત્મક પ્રવચન પ્રધાન છે છતાં પણ અહિં આ વિનયકૃતાદિક છત્રીસ અધ્યયનમાં પ્રધાનતા પ્રદર્શિત કરાયેલ છે, તે કેવળ પ્રસિદ્ધિને વશ હોવાનું સમજવું જોઈએ. ભગવાનની છેલ્લીદેશના સ્વરૂપ હોવાથી આ શાસ્ત્રમાં દ્વાદશાંગપ્રતિપાદિત અર્થને સંક્ષેપમાં સમાવેશ કરવામાં આવેલ છે, એટલે સૂત્રકારે પ્રસિદ્ધિથી જ આમાં પ્રધાનતા પ્રગટ કરી છે. દ્વાદશાંગનું વિસ્તારસહિત વાસ્તવિક તત્ત્વ, આચારાંગ, સૂત્રકૃતાંગ વગેરે આગમાં ઠેકઠેકાણે વર્ણન થયેલ ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रियदर्शिनी टीका. अ० १ अध्ययननामानि (३६) तत्र षट्त्रिंशदध्ययनानां नामानि प्रदर्श्यन्ते१-विनयश्रुतम् , २-परीषहः, ३-चतुरङ्गीयम् , ४-असंस्कृतम् , ५-अकामसकाममरणीयम् , ६-क्षुल्लकनिर्ग्रन्थीयं, ७-एलकीयम् (उरभ्रीयम् ), ८कापिलकम्, ९-नमिप्रव्रज्या, १०-द्रमपत्रकम्, ११-बहुश्रुतम् , १२-हरिकेशीयम्, १३-चित्तसंभूतीयम् , १४-इषुकारीयम् , १५-सभिक्षु, १६-ब्रह्मचर्यसमाधिः, १७-पापश्रमणीयम् , १८-संयतीयम् , १९-मृगापुत्रीयम् , २०-महानिर्ग्रन्थीयम् , २१-समुद्रपालीयम् , २२-रथनेमीयम् , २३-केशिगौतमीयम् , २४-समितीयम् , २५-यज्ञीयम् , २६--सामाचारी,२७-खलुकीयम्, २८-मोक्षमार्गगतिः, २९-सम्यत्वपराक्रमः, ३०-तपोमार्गः, ३१-चरणविधिः, ३२-प्रमादस्थानम् , ३३-कर्मजगह-जगह वर्णित हुआ है, अतः प्रसिद्धिवश इसे प्रधान कहना कोई अनुचित नहीं है। इसलिए इस मूलसूत्र का नाम उत्तराध्ययन कहा गया है। उत्तराध्ययन के ३६ अध्ययन ये हैं (१) विनयश्रुत, (२) परीषह, (३) चतुरंगीय, (४) असंस्कृत, (६) अकामसकाममरण, (६) क्षुल्लकनिर्ग्रन्थीय, (७) एलकीय, (८) कापिलक, (९) नमिप्रव्रज्या, (१०) द्रुमपत्रक, (११) बहुश्रुत, (१३) हरिकेशीय, (१३) चित्तसंभूतीय, (१४) इषुकारीय, (१५) सभिक्षु, (१६) ब्रह्मचर्यसमाधि, (१७) पापश्रमणीय, (१८) संयतीय, (१९) मृगापुत्रीय, (२०) महानिर्ग्रन्थीय, (२१) समुद्रपालीय, (२२) रथनेमीय, (२३) केशिगौतमीय, २४) समितीय, (२५) यज्ञीय, (२६) सामाचारी, (२७) खलुंकीय, (२८) मोक्षमार्गगति, (२९) सम्यक्त्वपराक्रम, (३०) तपोमार्ग, એટલે પ્રસિદ્ધિવશ આને પ્રધાન કહેવામાં કાંઈ અનુચિત જેવું નથી. આ માટે આ મુલસૂત્રનું નામ ઉત્તરાધ્યયન કહેવાયેલ છે. ઉત્તરાધ્યયનના છત્રીસ અધ્યયન આ પ્રકારે છે– (१) विनयश्रुत, (२) परिषड, (3) यतुरीय, (४) असत, (५) माभसामम२], (६) क्षुदसनिन्थीय, (७) मेसीय (८) पि४, (८) नभिप्रoril (१०) द्रुमपत्र: (११) महुश्रुत, (१२) ७२शीय, (१३) वित्तस भूतीय (१४) ४९४रीय, (१५) समिक्षु, (१६) ब्रह्मयसमाधि, (१७) ५५श्रमणीय, (१८) संयतीय, (१८) भृगापुत्रीय, (२०) मडानिन्थीय (२१) समुद्रपालीय, (२२) २थनेभीय, (२३) शिगौतभीय, (२४) समितीय, (२५) यज्ञीय, (२६) सामायारी, (२७) मjीय, (२८) भाक्ष भाति , (२८) सभ्यत्व५२।भ, ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययनसूत्रे प्रकृतिः, ३४-लेश्या, ३५-अनगार मार्गगतिः, ३६-जीवाजीव-विभक्तिः, इति । तत्र-श्रीसुधर्मा स्वामी जम्बूस्वामिनमन्यानपि शिष्यानुत्तराध्ययनमूत्रार्थ प्रतिबोधयितुं प्रवृत्तः सन् धर्मस्य विनयमूलकत्वात्पथमं विनयश्रुताख्यमध्ययनं प्रस्तुवंस्तस्याचं सूत्रमाह संजोगा विप्पमुक्कस्स, अणगारस्स भिक्खुणो। विणयं पाउकरिस्सामि, आणुपुंठिवं सुहं में ॥१॥ छायासंयोगाद् विप्रमुक्तस्य, अनगारस्य भिक्षोः । विनयं पादुष्करिष्यामि, आनुपूर्वी शृणुत मे ॥१॥ टीका'संजोगा.' इत्यादि । संयोगादिति, संयोगः सम्बन्धः, स द्विविधःद्रव्यसंयोगः भावसंयोगश्च । तत्र द्रव्यसंयोगो द्विविधः-पूर्वसंयोगः पश्चात्संयोगश्च । तत्र पूर्वसंयोगो मातापित्रादिभिः सार्ध सम्बन्धः। पश्चात्संयोगस्तु श्वशुरादिभिः (३१) चरणविधि, (३२) प्रमादस्थान, (३३) कर्मप्रकृति, (३४) लेश्या, (३५) अनगारमार्गगति, (३६) जीवाजीवविभक्ति। __ इन में श्री सुधर्मास्वामीने सर्व प्रथम जंबूस्वामी एवं और भी दूसरे शिष्योंको इस उत्तराध्ययन सूत्र के अर्थको समझाने के लिये " विनय है मूल कारण जिसका ऐसा धर्म है" ऐसा समझकर पहले इस विनयश्रुत नाम अध्ययनका प्ररूपण करते हुए प्रथम सूत्र कहते हैं-'संजोगा' इत्यादि । __अन्वयार्थ-(संजोगा-संयोगात् ) संयोग से (विप्पमुक्कस्स-विप्रमु(३०) तपोमा, (३१) २२४ विधि, (३२) प्रभास्थान, (33) ४भप्रकृति, (३४) वेश्या, (३५) मन॥रभाति , (३९) ७१०विमात. આમાં શ્રી સુધર્મા સ્વામીએ સર્વ પ્રથમ જખ્ખસ્વામી અને બીજા ઘણા શિષ્યોને આ ઉત્તરાધ્યયન સૂત્રને અર્થ સમજાવવા માટે “વિનય છે મૂળ કારણ જેનું એ ધર્મ છે” એવું સમજી પહેલાં આ વિનયકૃત નામના अध्ययनन प्र३५॥ ४२i प्रथम सूत्र छ-'संजोगा विप्पमुक्कस्स' त्यादि। मन्वयार्थ :-(संजोगा-संयोगात्) संयोगथा (विप्पमुक्कस्स-विषमुक्तस्य) सर्वथा ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रियदर्शिनी टीका. अ० १ गा० १ विनयोपदेश सह सम्बन्धः । भावसंयोगः-अशुभभावैः सहात्मनः सम्बन्धः, तस्मात् सर्वविधसंयोगाद् विप्रमुक्तस्य-विप्रयुक्तस्य, अनित्याशरणादिद्वादशभावनाभिः संयोगस्य फलं संसारपरिभ्रमणादिरूपं विज्ञाय संयोगं परित्यक्तवत इत्यर्थः । संयोगो हि मृगतृष्णावद् भ्रमोत्पादकः, कुगतिसाधकः, विवेकतरून्मूलने मत्तगजराजोपमः, अमन्दात्मानन्दरसशोषणे प्रचण्डमार्तण्डसमः, श्रुतचारित्रधर्मारामदावानलः, सद्ध्यानवारिदविक्षेपणे शैलशिखरानिलः । संयोगस्य प्रियवियोगजनकत्वेन दारुणदुःखोत्पादकतयाऽपि परिहार्यता, क्तस्य ) सर्वथा रहित (अणगारस्स-अनगारस्य ) अनगार (भिक्खुणो -भिक्षोः)-साधु के (विणयं-विनयं ) विनय को मैं (आणुपुब्धि-आनुपूर्वी ) शास्त्रोक्तपद्धति के अनुसार (पाउकरिस्सामि-प्रादुष्करिष्यामि) प्रकट-क गा । अतः हे जम्बू ! तुम सब उसे (मे-मत्तः) मुझ से (सुणेह-शृणुत ) सुनो॥१॥ भावार्थ-संयोग शब्द का अर्थ संबंध है। द्रव्यसंयोग और भावसंयोग के भेद से यह संयोग दो प्रकार का है। पूर्वसंयोग और पश्चात्संयोग के भेद से द्रव्यसंयोग भी दो तरह का बतलाया गया है। माता पिता आदि के साथ जो जन्म से संबंध है वह पूर्वसंयोग है। श्वशुर अदि के साथ पीछे से हुआ संबंध पश्चात्संयोग है। अशुभ भावों के साथ आत्मा का संबंध रहता है वह भावसंयोग है। इस संयोग का सर्वथा परित्याग वही आत्मा कर सकता है जो अनित्य २डित (अणगारस्स-अनगारस्य) २७॥२ (भिक्खुणो-भिक्षोः) साधुना (विणयंविनयं) विनयने हुँ (आणुपुट्वि-आनुपूर्वी) शास्त्रोत पति अनुसार (पाउकरिस्सा मि-प्रादुष्करिष्यामि ) प्रगट ४२११. अटले ४५! तमे १५॥ येने (मे-मत्तः) भारी पासेथी (सुणेह-श्रुणुत) सली . - ભાવાર્થ–સંગ શબ્દને અર્થ સંબંધ છે. દ્રવ્યસંયોગ અને ભાવસંયોગના ભેદથી આ સંગ બે પ્રકારે છે. પૂર્વસંયોગ અને પશ્ચાત્સગના ભેદથી દ્રવ્ય સંયોગ પણ બે રીતને બતાવેલ છે. માતા પિતા વગેરેની સાથે જે જન્મના સંબંધ છે, તે પૂર્વસંગ છે. શ્વશુર વગેરેની સાથે પછીથી થયેલ સંબંધ એ પશ્ચાત્સગ છે. અશુભ ભાવની સાથે આત્માને જે સંબંધ રહે છે એ ભાવસંગ છે. આ સંગને સર્વથા પરિત્યાગ એજ આત્મા કરી શકે છે. ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२ उत्तराध्ययनसूत्रे अशरण आदि बारह प्रकारकी भावनाओं के परिचिन्तन से वासितान्तःकरण होकर यह समझता है कि इसका फल एक मात्र संसार में परिभ्रमण करना ही है । जिस प्रकार मृगतृष्णा अभागे भृग के लिये केवल जलके ही भ्रमको उत्पन्न करती है उसी प्रकार यह संयोग भी इस जीव को अनात्मीय पदार्थों में केवल सुखादि का भ्रम कराता रहता है । यही कारण है कि यह अज्ञानी जीव उस भ्रमज्ञान से मूञ्छित बना हुआ अपने संयोगी पदार्थों में सुखको ढूंढने की अहर्निश चिन्ता से अपने असली कर्तव्य मार्गसे अर्थात् मोक्षमार्ग से भी पराङ्मुख हो जाता है। जिसका भयंकर परिणाम कुगति में जाकर इसे भोगना पडता है। मदोन्मत्त गजराज जैसे मजबूत से मजबूत वृक्षको भी क्षणमात्र में उखाडकर फेंक देता है उसी प्रकार अपने संयोगी पदार्थके नशे से बेभान बना हुआ यह जीवात्मा भी विवेक जैसे सर्वश्रेष्ठ तरु को नष्ट भ्रष्ट कर देता है। ग्रीष्मकाल का विशेषकर ज्येष्ठमास का सूर्य अपनी प्रचण्ड किरणोंसे जैसे रस को सुखा देता है उसी प्रकार यह संयोग भी आत्मा के तपसंयमजनित अमन्दआनंदरस को सुखा देता है। જે અનિત્ય અશરણ આદિ બાર પ્રકારની ભાવનાઓના પરિચિન્તનથી વાસિતાન્તઃકરણ થઈ એ સમજે છે કે આનું ફલ એક માત્ર સંસારમાં પરિભ્રમણ ४२j से छे. જે રીતે મૃગતૃષ્ણ અભાગિયા મૃગને માટે કેવળ જળનાજ ભ્રમને ઉત્પન્ન કરે છે, એજ રીતે આ સંયોગ પણ આ જીવને અનાત્મીય પદાર્થોમાં કેવળ સુખાદિને ભ્રમ કરાવે છે. એજ કારણ છે કે આ અજ્ઞાની જીવે એ ભ્રમ જાલમાં મૂચ્છિત બની જઈ પોતાના સંયેગી પદાર્થોમાં સુખને ખોળવાની અહર્નિશ ચિંતામાં પોતાના અસલ કર્તવ્ય માર્ગથી અર્થાત્ મોક્ષમાર્ગથી પણ પરાક્ષુખ થઈ જાય છે. જેનું ભયંકર પરિણામ કુગતિમાં પડી એણે ભેગવવું પડે છે. મદોન્મત ગજરાજ (હાથી) મજબુતમાં મજબુત વૃક્ષને પણ ક્ષણ માત્રમાં જેમ ઉખેડીને ફેંકી દે છે એજ રીતે પોતાના સંયેગી પદાર્થના નશામાં બેભાન બનેલ આ જીવાત્મા પણ વિવેક જેવા સર્વશ્રેષ્ઠ તરૂને નષ્ટ ભ્રષ્ટ કરી દે છે. ગ્રીષ્મકાળને તેમાં ખાસ કરીને છ મહિનાને સૂર્ય પિતાનાં પ્રચડ કિરણોથી જેમ રસને સુકવી નાખે છે એજ પ્રકારે આ સંયોગ પણ તપસંયમ વગરના આત્માના અમન્દઆનંદરસને સુકવી નાખે છે. ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रियदर्शिनी टीका. अ० १ गा० १ संयोगे दृष्टान्तः तथा चोक्तम् अपरं च - संयोगो हि वियोगस्य, संसूचयति संभवम् । अनतिक्रमणीयस्य, जन्म मृत्योरिवागमम् ॥ १ ॥ यथाकाष्ठं च काष्ठं च, समेयातां महोदधौ ॥ समेत्य च व्यपेयातां, तद्वद् भूतसमागमः ॥ २॥ तथा यह संयोग श्रुतचारित्र - धर्मरूपी उद्यान के भस्म करने में दावानल समान है, सद्बयानरूपी मेघको उडाने में पर्वतशिखर के प्रचण्ड वायु समान है । कहा भी है संयोगो हि वियोगस्य, संसूचयति संभवम् । अनतिक्रमणीयस्य, जन्म मृत्योरिवागमम् ॥ १॥ १३ संयोग, अवश्य होने वाला वियोग का सूचक है, जिस प्रकार जन्म, अवश्य होने वाले मृत्यु के आगमन का सूचक होता है ॥ १ ॥ फिर भी - यथाकाष्ठं च काष्ठं च समेयातां महोदधौ । समेत्य च व्यपेयातां, तद्वद् भूतसमागमः ॥ २ ॥ जिस तरह समुद्र में अनेक काष्ठ इधर उधर से बहते हुए आकर मिल जाते हैं और कुछ ही क्षण बाद फिर वे अलग अलग हो जाते हैं, उसी प्रकार इस संसार में इन संसारी जीवों का मिलने पर अवश्य वियोग होता है ॥ २॥ તથા આ સયેાગ શ્રુતચરિત્ર-ધરૂપી ઉદ્યાનને ભસ્મ કરવામાં દાવાનળ સમાન, સહચાનરૂપી મેઘને ઉડારવામાં પતશિખરના પ્રચંડ વાયુ સમાન છે. કહ્યું પણ છે— संयोगो हि वियोगस्य, संसूचयति संभवम् । अनतिक्रमणीयस्य, जन्म मृत्योरिवागमम् ॥ १ ॥ સયેાગ, અવશ્ય થવાવાળા વિયોગના સૂચક છે, જે રીતે જન્મ એ થનારા મૃત્યુના આગમનનું અવશ્ય સૂચક છે (૧). वणी.... यथा काष्ठं च काष्ठं च, समेयातां महोदधौ । समेत्य च व्यपेयातां तद्वद् भूतसमागमः ॥ २ ॥ જે રીતે સમુદ્રમાં ચારે તરફથી અનેક લાકડાએ તણાઇને આવે છે, ભેળાં મળે છે અને થાડા જ ક્ષણ પછી તે પાછાં વખરાઇ જાય છે. આજ રીતે આ સંસારમાં આ સંસારી જીવાનું મીલન અને એ પછી અવશ્ય વિયાગ થાય છે (ર). ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર ઃ ૧ Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययनसूत्रे अन्यच्च- न खलु विघटिताः पुनर्घटन्ते, __न च घटिताः स्थिरसंगतं श्रयन्ते । पिपतिषुमवशं रुजन्ति वश्या, स्तटतरुमाप इवापगागणस्य ॥ ३॥ ___अत्र विषये दृष्टातं कथयतिकश्चिद् वणिक्पुत्रः संयोगस्य कटुकफलं विज्ञाय विरज्य संयोगं परित्यक्तवान् । तथाहि-मथुरानगर्या सुभग-सुनन्दनामानौ द्वौ वणिजौ स्तः, सुभगस्तत्र और भी न खलु विघटिता पुनर्घटन्ते, नच घटिताः स्थिरसंगतंश्रयन्ते । पिपतिषुमवशं रुजन्ति वश्यास्तटतरुमाप इवायगागणस्य ॥ ३ ॥ जो मिलकर फिर अलग हो जाते हैं उनका उसी पर्याय में उसी रूप से फिर मिलना होगा, यह सर्वथा असम्भव है। जो मिले हैं वे हमारे साथ सदा स्थिर ही रहेगें-यह भी कोई नहीं कह सकता। जिस प्रकार नदियों का पानी अपने तट पर रहे हुए वृक्षोंको दुःख देता है, उसी प्रकार वश्य-प्रिय स्त्रीपुत्रादि मरते समय मनुष्य को दुःखी करते हैं, अर्थात् ये स्त्री पुत्रादिक इस जीव को अनेक प्रकार से व्यथित करते रहते हैं । इस लिये माता पिताआदि का संयोग सर्वथा त्यागने योग्य है। इस पर सुधन नामक वणिक्पुत्र का दृष्टान्त इस प्रकार है सुधन नामक एक वणिक्पुत्र ने किस तरह इस संयोग का फल कटुक जाना और किस तरह विरक्त होकर उसका परित्याग किया? यह qणी ५४....न खलु विघटिताः पुनर्घटन्ते, न च घटिताः स्थिरसंगतं श्रयन्ते । पिपतिषुमवशं रुजन्ति वश्यास्तटतरुमाप इवापगागणस्य ॥ ३ ॥ જે મળીને ફરી જુદા થઈ જાય છે. એમનું એજ પર્યાયમાં એજ રૂપમાં ફરી મળવાનું થાશે, એ સર્વથા અસંભવ છે. જે મળ્યા છે તે અમારી સાથે સદા સ્થિર જ રહેશે–આ પણ કોઈ કહી શકતું નથી. જે રીતે નદિયોનું પાણી પિતાના તટ ઉપરનાં વૃક્ષોને દુઃખ આપે છે, એજ પ્રકારે વણ્ય-પ્રિય સ્ત્રી પુત્રાદિ મરતી સમયે મનુષ્યને દુઃખી કરે છે, અર્થાત્ એ સ્ત્રીપુત્રાદિક આ જીવને અનેક પ્રકારથી દુઃખી કરતાં રહે છે. આ માટે માતાપિતા આદિને સંગ સર્વથા ત્યાગવા ગ્ય છે. આ અંગે સુધન નામના વણિપુત્રનું દૃષ્ટાંત આ પ્રકારનું છે– સુધન નામના એક વણિકપુત્રને કેવી રીતે આ સંગનું ફળ કડવું માલુમ પડ્યું? અને કેવી રીતે વિરક્ત બનીને તેને પરિત્યાગ કર્યો? એ વાત ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર: ૧ Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ M प्रियदर्शिनी टीका. अ० १ गा० १ संयोगे दृष्टान्तः दक्षिणतः, सुनन्दश्वोत्तरतो निवसन्नासीत् । तत्रैकोऽपरस्य गृहे प्राघुणिकोऽभवत् , तदोभौ मिथश्चिन्तितवन्तौ-आवयोः प्रीतिदृढतरा कथं भविष्यति ?, यद्यावयोर्मध्ये एकस्य पुत्रः स्यादेकस्य च पुत्री, तदा तयोर्वैवाहिकसम्बन्धेनावयोः संयोगस्तज्जनिता प्रीतिश्च स्थिरतरा भविष्यति । अथैकदा दक्षिणदिग्वर्तिनः श्रेष्ठिनः मुधननामकः पुत्रो जातः, उत्तरदिग्यासिनः श्रेष्ठिनश्च पुत्री, कुसुमवती-नाम्नी समजनि । तयोः परस्परं वाग्दानं संजातम् । तदनन्तरं दक्षिणदिग्वासी वणिग् मृतः। तस्मिन् मृतेसति तत्पुत्रः सुधनः पितुर्धनाधिकारी संजातः । प्रचुरं पितृधनं प्राप्य स प्रमुदितोबात उसीके आख्यान द्वारा प्रकटित की जाती है-मथुरा नगरीमें सुभग और सुनन्द नाम के दो वणिक् निवास करते थे। सुभग का घर दक्षिण दिशा में था और सुनन्द का घर उत्तर दिशा में । एक दिनकी बात है कि इन दोनों में से एक दूसरे के घर मेहमान हुआ था, वहाँ इन दोनों ने परस्पर यह विचार किया कि-अपने दोनों का यह स्नेह सर्वदा इसी तरह से बना रहे, इस हेतु अपने दोनों में से यदि एक को पुत्र हो और दूसरे को पुत्री हो तो दोनों का विवाह कर दें। भाग्यवशात् ऐसा ही हुआ कि-सुभग के यहां पुत्र का जन्म हुआ। लडकेका नाम सुधन रखा गया। उत्तरदिशा में निवास करनेवाले उस सुनन्दके यहां एक पुत्री हुई । उसका नाम कुसुमवती रखा गया, पूर्वनिश्चित के अनुसार इनकी सगाई-वाग्दान पक्की कर दी गई । सगाई पक्की करके सुभग का तो देहांत हो गया। पिता के धन का अधिकारी पुत्र होता है, इस नियम તેના આખ્યાન દ્વારા પ્રગટ કરવામાં આવે છે-મથુરા નગરીમાં સુભગ અને સુનંદ નામના બે વણિકૂ નિવાસ કરતા હતા. સુભગનું ઘર દક્ષિણ દિશામાં હતું અને સુનંદનું ઘર ઉત્તર દિશામાં. એક દિવસની વાત છે કે એ બન્નેમાંથી એક બીજાને ઘેર મહેમાન બનેલ, ત્યાં આ બન્નેએ પરસ્પર વિચાર કર્યો કે... આપણે બન્નેને આ સ્નેહ કાયમ ટકી રહે તે હેતુથી આપણા બન્નેમાંથી કદાચ એકને પુત્ર હોય અને બીજાને પુત્રી હોય તે બન્નેના વિવાહ કરી દેવા. ભાગ્યવશાત્ એવું જ બન્યું કે, સુભગને ત્યાં પુત્રને જન્મ થયે, છોકરાનું નામ સુધી રાખવામાં આવ્યું ઉત્તર દિશામાં નિવાસ કરવાવાળા તે સુનંદને ત્યાં પુત્રી અવતરી, તેનું નામ કુસુમવતી રાખવામાં આવ્યું. અગાઉના નિશ્ચય અનુસાર તેમની સગાઈ કરવામાં આવી. સગાઈ પાકી કર્યા પછી સુભગનું મૃત્ય થયું. પિતાને ધનને અધિકારી પુત્ર હોય છે, આ નિયમ અનુસાર પોતાના પિતાના ધનને સુધન અધિકારી બ. કે એક સમયે સુધને સ્નાન ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययनसूत्रे ऽभवत् । अथैकदा तेन स्नानार्थ पार्श्वतः पृष्ठतः पुरतश्चतुर्दिक्षु चत्वारः स्वर्ण-कलशाश्चत्वारो रौप्यकलशाश्चत्वारस्ताम्रकलशाश्चत्वारो मृन्मयकलशा जलपूर्णाः स्थापिताः, अन्यान्यपि स्नानोपकरणानि तत्रोपस्थापितानि । अत्रान्तरे तत्पूर्वभवमित्रदेवस्तं प्रतिबोधयितुं समागतः। स वणिपुत्रः सुधनः स्नानार्थ स्वर्णकलशमुत्थापयति, स स्वर्णकलशस्तदानीमेव मित्रदेवप्रभावात्प्रणष्टः, एवं चतुर्दिक्षु सर्वे कलशाः प्रणष्टाः। ततोऽसौ स्नानपीठादुत्तिष्ठति । तस्मिन्नुत्थिते सति स्नानपीठमपि नष्टम् । ततस्तस्य धृतिर्नष्टा । यावद् गृहं प्रविष्टः, भृत्यैभॊजनविधिरुपस्थापितः, स्वर्णरौप्यके अनुसार सुधन अपने पिताके धनका अधिकारी बना। किसी एक समय सुधनने स्नान के अवसर पर भृत्यों से चार सोने के कलश, चार चांदी के कलश, चार ताँबे के कलश और चार ही मिट्टी के कलश पानी से भरवाकर अपनी चारों ओर आजू बाजू और समक्ष एवं पीछे की ओर, इस प्रकार चारों दिशाओं में रखवा लिये। इसके बाद इसका पूर्वभवका मित्र जो देवपर्याय में था इसकी इस तरह संयोगी पदार्थों के सेवन में अधिक लालसा का निरीक्षण कर उसको प्रतिबोध देने के लिये वहां आया। वणिक्पुत्र उस सुधन ने ज्योंही नहाने के लिये सुवर्ण के कलश को ऊपर उठाया कि उसी समय वह कलश उस अदृश्य हुए देव के प्रभाव से शीघ्र ही अदृश्य हो गया। इसी तरह अवशिष्ट तीन कलशों की भी यही हालत हुई। वह एकदम स्नान पीठ से उठ कर खडा हो गया और ज्यों ही उससे नीचे उतरा तो वह स्नान पीठ भी इसकी नजरों के समक्ष ही नष्ट-अदृश्य हो गया। उसने आश्चर्यचकित होकर इधर उधर देखा पर कुछ समझ में नहीं आया । यह क्या बात है इससे કરવાના સમયે નોકરથી ચાર સોનાના કળશ, ચાર ચાંદીના કળશ, ચાર તાંબાના કળશ, અને ચાર માટીના કળશ પાણીથી ભરાવીને પોતાની ચારે તરફ–આજુબાજુ ચારે દિશાઓમાં રખાવ્યા. આ પછી એના પૂર્વ ભવને મિત્ર જે દેવ પર્યાયમાં હતું તેણે આ રીતે સંગી પદાર્થના સેવનમાં અધિક લાલસાનું નિરીક્ષણ કરી તેને પ્રતિબંધ આપવા માટે ત્યાં આવ્યું. વણિકપુત્ર સુધને ન્હાવો માટે જ્યાં સુવર્ણ કળશને ઉપાડ્યો ત્યાં અદશ્ય રહેલા દેવના પ્રભાવથી તે કળશ તુરત જ અદશ્ય થઈ ગયા. આજ રીતે બીજા ત્રણ કળશેની પણ એજ હાલત થઈ. વણિકપુત્ર સ્નાનની જગ્યાએથી એકદમ ઉભું થઈ ગયો અને પાટલા ઉપર પિતે બેઠે હતો તેનાથી નીચે ઉતર્યો ત્યાં એ પાટલે પણ અદશ્ય થઈ ગયે. એણે આશ્ચર્યચકિત બની ચારે તરફ જોવા માંડયું ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रियदर्शिनी टीका. अ० १ गा० १ संयोगे दृष्टान्तः १७ मयभोजनपात्राणि समानीतानि, तत्रैकैकभाजनं क्रमेण नष्टमभवत् । यदाऽसौ स्वर्णमयस्थालमग्रतो धावमानं व्योम्नि पश्यति, तदा तत् स्थालं हस्तेन गृह्णाति, गृहीते सति तदग्रभागतः खण्डमेकं तस्य करतललग्नमासीत्, अपरभागतः स्वर्णमयस्थालं सर्व प्रणष्टम् । ततः त्रुटितस्थालैकखण्डहस्तः सुधनः सर्व नश्यद विलोकयन् मूलधनं द्रष्टुमागच्छति, तावत् सर्व मूलधनमपि नष्टम् । एवं सर्वाऽपि तस्य श्री विनष्टा । अथ निधिं द्रष्टुमागच्छति तदा सर्वे निधानमपि नष्टम् । एवं दासीवर्गः, परिवारवर्गोऽपि तस्य नष्टः । इसका धैर्य नष्ट हो गया। घर में जाकर यह ज्यों ही भोजन करने के लिये भोजनालय में गया तो रसोईयेने पहिलेसे सजाकर रखे हुए सुवर्ण एवं चांदी के भोजनपात्रों में इसके बैठने पर भोजन परोस दिया परन्तु इसके समक्ष ही वे सब के सब भोजनपात्र क्रम २ से नष्ट हो गयेपता नहीं पडा कहां चले गये। जब एक सुवर्ण का थाल जो इसके समक्ष ही आगे से उठकर आकाश में उडने लगा तो इसने उसे थाम कर पकड लिया। पकड़ते ही उस थाल की किनार टूटकर इसके हाथ में रह गयी। बांकी का थाल नष्ट हो गया । यह फिर उस टुकड़े को हाथ में लिये हुए ही अपने मूल धन को देखने के लिये वहां से दूसरी तरफ चला तो क्या देखता है कि इसका मूल धन भी सब नष्ट हो चुका है। इस तरह समक्ष ही देखते २ इसकी समस्त लक्ष्मी नष्ट हो गई । निधान नष्ट हो गया । दासी- दास आदि और परिवार वर्ग भी नष्ट हो गये । अब यह उस પરંતુ કાંઇ સમજવામાં ન આવ્યું. એનામાં ધિરજ ન રહી. આથી અકળાઇ નાવાનું છેાડી દઇ ઘરમાં ગયા અને ભાજન કરવા ભેાજનાલયમાં પહોંચ્યા જ્યાં રસોઇયાએ સાના ચાંદિના વાસણામાં એના બેઠા પછી ભાજન પીરસ્યું. ભેાજન પિરસાયા પછી તેની નજર સામે જોત જોતામાં ક્રમ ક્રમથી ભેજનપાત્રા અદૃશ્ય થવા લાગ્યાં. ખબર ન પડી કચાં ચાલ્યાં ગયાં. એક સુવણુ થાળ જે તેની સામેથી ઉડવા માંડેલા તેને હાથથી પકડતાં એ થાળની કિનાર તુટીને તેના હાથમાં રહી ગઇ. અને ખાકીના થાળ અદૃશ્વ બની ગયા. થાળના તુટેલા ટુકડાને હાથમાં રાખીને પેાતાના મુળ ધનને જોવા માટે ત્યાંથી બીજી તરફ ગયા. ત્યાં જતાં શું દેખે છે કે પેાતાનું મુળ ધન પણ અદૃશ્ય બની ગયું હતું આ રીતે પોતાની નજર સામે તેની સઘળી લક્ષ્મી અદૃશ્ય ખની ગઇ, નિધાન નષ્ટ થઇ ગયા. દાસી દાસ વગેરે પરિવાર પશુ उ-३ ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર ઃ ૧ Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययनसूत्रे ___ अथासौ स्वर्णमयस्थालेकखण्डहस्तः सनितस्ततो भ्राम्यनकस्मादुत्तरभागवासिनः पितृमित्रस्य सुनन्दनामकस्य वणिजो गृहं जगाम । तं दृष्ट्वा सुनन्दस्तं सादरं भोजयामास । भोजनसमये सुधनस्तानि तानि रत्नानि, तांश्च स्वर्णकलशान् , तानि स्वर्णमयस्थालानि सर्वाणि स्वकीयानि वस्तूनि तत्र ददर्श । तत्तद् वस्तुजातं प्रेक्षमाणं वणिक्पुत्रं सुधनं सुनन्दो वणिक् पृच्छति-किं मम पुत्रीं पश्यसि ? सुधनेनोक्तम्-नाहं तव पुत्रीं पश्यामि, किं तु त्वद्गृहस्थितान्येतानि रत्नमयानि वस्तूनि मदीयानि सन्तीति विलोकयामि । सुनन्देन वणिजा प्रोक्तम्-किमत्र सोने के थाल के टुकडे को हाथ में लिये हुए इधर-उधर घूमने फिरने लगा। फिरते २ इसकी दृष्टि उस उत्तर दिशा में रहने वाले सुनन्द के मकान ऊपर पडी, जो इसके पिता का मित्र था । यह उसके घर पर गया। सुनन्द ने उसको आदर के साथ भोजन करने के लिये बैठाया। वहां पर सुधन ने अपनी समस्त नष्ट हुई वस्तुएँ देखीं-वे ही सोने के थाल, वे ही सुवर्णादि के कलशऔर वे ही रत्न आदि। जब उसकी दृष्टि उन अपनी चीजोंके निरीक्षण करने में आसक्त हो रही थी, तब अचानक ही बीचमें टोकते हुए सुनन्द ने कहा-सुधन ! यह क्या करते हो? तुम्हारी दृष्टि इस समय कहां है, क्या हमारी पुत्री को देख रहे हो ? सुनन्द के वचन सुन कर सुधन ने कहा-महाशय ! मैं आपकी पुत्री को नहीं देख रहा हूँ, किन्तु यह विचार कर रहा हूँ कि “ तुम्हारे यहां रही हुई ये सबही रत्नादिक वस्तुएँ मेरी हैं, यहां ये कैसे आ गई" इस बात का विचार कर रहा हूँ। सुनन्द ने कहा-तुम्हारी होने का क्या प्रमाण है? નષ્ટ થઈ ગયા, આ પછી સેનાના થાલના ટુકડાને હાથમાં રાખીને તે અહિં તહિં ઘુમવા લાગ્યો. ફરતાં ફરતાં તેની દષ્ટિ ઉત્તર દિશામાં રહેવાવાળી સુનંદના મકાન ઉપર પડી, જે તેના પિતાને મિત્ર હતું. તે એના ઘેર ગયે. સુનંદે તેને આવકારી પ્રેમપૂર્વક ભેજન કરવા બેસાડે. ત્યાં સુધને પિતાની નષ્ટ થએલી સઘળી વસ્તુઓ જોઈ–તેજ સેનાને થાળ, એજ સેનાના કળશ અને એજ રત્ન આદિ. જ્યારે તેની દષ્ટિ એ પિતાની ચીજોનું નિરીક્ષણ કરવામાં આસક્ત થઈ રહી હતી, ત્યારે અચાનક જ તેને ટકતાં સુનંદે કહ્યું-સુધન ! આ શું કરે છે ? તમારી દષ્ટિ આ સમયે ક્યાં છે, શું મારી પુત્રીને જોઈ રહ્યા છે ? સુનંદના વચન સાંભળીને સુધને કહ્યું-મહાશય ! હું આપની પુત્રી તરફ જોતું નથી, પરંતુ એ વિચાર કરું કે “તમારે ત્યાં રહેલી આ સઘળી રત્નાદિક વસ્તુઓ મારી છે, અહિં એ કઈ રીતે આવી” આ વાતનો વિચાર કરી રહ્યો છું. સુનંદે કહ્યું–તમારી હેવાનું શું પ્રમાણ છે. હા, પ્રમાણ છે. ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रियदर्शिनी टीका. अ० १ गा० १ सयोगे दृष्टान्तः प्रमाणम् ? । सुधनः प्रत्याह-त्वद्गृहावस्थितस्यैतस्य त्रुटितस्वर्णमयस्थालस्य खण्डमेकं मम हस्ते विद्यते, पश्य संयोजयामीत्युक्त्वा संयोजयति, संयोजिते सति तत् खडं तत्र सम्यक् संलग्नम् । अथ सुनन्दः पृच्छति-कस्त्वम् , सुनन्देन पृष्टोऽसौ वणिपुत्रः सुधनः स्वपितुर्नाम कथयित्वा परिचयं दत्तवान् । तस्मिन् वणिक्पुत्रे परिचिते सति सुनन्दः पुनराह-त्वं तु मम जामाताऽसि, इति । इत्थं सर्व हां, प्रमाण है तभी तो ऐसा कह रहा हूँ, नम्रता से सुधन ने जबाब दिया। साबित करनेकी चेष्टा करते हुए सुधन ने वह एक सोने के थाल की किनार जो उसके हाथ में पहिलेसे थी उसको दिखलाया, और यह भी बतलाया कि देखो यह सुवर्ण का थाल जो भग्न अवस्था में आप के यहां है उसी की यह किनार है। मैं आप के ही समक्ष उसे इसमें जोडता हूँ, यदि यह उस थाल में जुट जाये तो आपको मेरी बात सत्य माननी पडेगी। सुनंद ने यह सब स्वीकार कर लिया। सुधन ने सुनंद के समक्ष ही उस किनार को उस थाल में ज्यों ही योजित किया तो वह उस में अच्छी तरह जुट गया। यह देखकर सुनंद ने कहा-ठीक है। अब तुम यह तो बतलाओ कि तुम हो कौन ? इस प्रकार सुनंद के पूछ ने पर सुधन ने उसे अपना परिचय दे दिया । परिचय पाकर सुनंद बहुत हर्षित हुआ और कहने लगा कि धन्य है आज का दिन जो आपके दर्शन हुए । आपके पिताने मेरी पुत्री के साथ आप का पहिले से वाग्दान निश्चित कर दिया था, अतः आप मेरे संबंध में जामाता हैं। अब आप योग्य हो चुके हैं, इस ત્યારે તે એવું કહી રહ્યો છું તે નમ્રતાથી જવાબ સુધને આપ્યો. સાબીત કરવાની ચેષ્ટા કરતાં પિતાના હાથમાં રહેલી સેનાના થાળની કિનાર તેને બતાવી, અને એ પણ જણાવ્યું કે જુઓ સેનાને થાળ જે તુટેલી અવસ્થામાં તમારે ત્યાં છે તેની આ કિનાર છે. આપની સમક્ષ જ હું તેને આ સાથે જોડું છું, કદાચ તે આ થાળ સાથે જોડાઈ જાય તો આપને મારી વાત સત્ય માનવી પડશે. સુનંદે એ વાતને સ્વીકાર કર્યો. સુધને સુનંદની સામે જ એ કિનાર તુટેલા થાળ સાથે જોડતાં તેની સાથે બરાબર મળી ગઈ. આ જોઈ સુનંદે કહ્યું-ઠીક છે, હવે તમે એ તે બતાવે કે તમે છો કેણ? આ પ્રકારે સુનંદના પૂછવાથી સુધને તેને પોતાને પરિચય આપે. પરિચય સાંભળતાં જ ખૂબ જ હર્ષ પામ્યો અને કહેવા લાગ્યું કે ધન્ય છે આજનો દિવસ, કે આપનાં દર્શન થયાં. તમારા પિતાએ મારી પુત્રી સાથે તમારું વેવિશાળ અગાઉ નકકી કરેલું એટલે તમે મારા જમાઈ છે, અને તમે યોગ્ય ઉમરના થયા છે, એ માટે મારી ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २० उत्तराध्ययनसूत्रे पूर्ववृत्तं वर्णयित्वा सुनन्दो वणिक् पुनरवोचत् गृहाण मम पुत्री, मदीयं सर्वस्वं च । एतद्वचनं श्रुत्वा सुधनोऽब्रवीत् पुरुषः पूर्वं कामभोगान् परित्यजति कामभोगा वा पुरुषम्, मां तु कामभोगा एवं पूर्व परित्यक्तवन्तस्तेनाहं तान् परित्यजामि, नास्ति मे किंचित् प्रयोजनं तव पुत्र्या सर्वस्वेन चेति । एवं संवेग संवलितं सुधनवचनं श्रुत्वा सुनन्दो वणिक् संवेगं प्राप्तवान् । अथ वणिक्पुत्रस्य सुधनस्य वैराग्यं दृष्ट्टा तत्पूर्वभव मित्रदेवः प्रत्यक्षीभूय तमब्रवीत् त्वां प्रतिबोधयितुं मया सर्वमेतत् समाचरितम् इत्युक्त्वा तस्मै सदोरकमुखवस्त्रिकारजोहरणपात्रादीनि साधूपकरणानि समर्पितानि । तदा सुधनः सुनन्देन सह प्रत्रजित इति । " " अच्छा लिये मेरी पुत्री को और मेरे सर्वस्व को अपनाकर मुझे कृतार्थ करें । सुनंद के वचनों को सुनकर सुधन ने कहा- संसार की विचित्रता को देखो । प्रायः पुरुष ही पहिले काम-भोगोंका परित्याग किया करता है परन्तु आश्चर्य है कि जब काम-भोगों ने ही मुझे पहिले से छोड दिया है, तब अब सुन्दर मार्ग यही है कि मैं भी अब इन्हें सर्वथा छोड़ दूं अतः मुझे अब न आपकी पुत्री से मतलब है और न आपके सर्वस्व से। इस प्रकार वैराग्य से युक्त सुधन के वचन को सुनकर सुनंद भी वैराग्य को प्राप्त हुआ । वणिक्पुत्र सुधन के वैराग्य को देखकर उसका पूर्वभवीय वह मित्र जो देव था प्रत्यक्ष होकर उससे कहने लगा-मित्र सुधन ! तुम्हें प्रतिबोधित करने के लिये ही मैंने यह सब खेल रचा है, हुआ तुम प्रतिबोधित हो गये । इस प्रकार कहते हुए उसने उसके लिये પુત્રીને અને મારા સર્વસ્વને પાતાનુ માની મને કૃતાર્થ કરો. સુનંદનાં વચના સાંભળી સુધને કહ્યું–સ’સારની વિચિત્રતાને જુએ, ખરી રીતે પુરૂષ જ કામ ભાગાના પરિત્યાગ કરતા આવેલ છે, પરંતુ આશ્ચય છે કે જ્યારે કામ-ભાગાએ જ પહેલેથી મને છોડી દીધેલ છે, ત્યારે સારામાં સારા માર્ગ એ છે કે હું પણ આને સ`થા છોડી દઉં, એટલે મને હવે નથી આપની પુત્રીથી મતલબ કે ન આપના સર્વાંસ્વથી. આ પ્રકારનાં વૈરાગ્યથી યુક્ત એવાં સુધનનાં વચને સાંભળીને સુનંદને પણ વૈરાગ્ય પ્રાપ્ત થયે. હવે પુિત્ર સુધનના વૈરાગ્યને જોઈ તેના પૂર્વભવના મિત્ર કે જે દેવ છે તે પ્રત્યક્ષ મની તેને કહેવા લાગ્યા -મિત્ર સુધન ! તને પ્રતિષ્ઠિત કરવા માટે જ મે આ સઘળે ખેલ રચેલ છે. ઠીક થયું કે તમે પ્રતિધ પામ્યા. આ પ્રકારે કહેતાં તેણે તેના માટે ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર ઃ ૧ Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रियदर्शिनी टीका. अ० १ गा० १ विनयोपदेशः ___अनगारस्य=न विद्यतेऽगारं = गृहं यस्य सोऽनगारः द्रव्यभावगृहरहितः, तत्र द्रव्यागारं-नियतवासस्थानम् , भावागारं कषायमोहनीयं कर्म, तस्य स्थित्यादिभूयस्त्वे नास्ति विरतिसंभवस्तस्मादल्पकषायमोहनीयो भावतोऽनगारस्तस्य भिक्षोः हननघातनादिनवकोटिपरिशुद्धभिक्षाग्राहिणः विनयम्-विशिष्टो साधु के उपकरणरूप सदोरक मुखवस्त्रिका रजोहरण एवं पात्र आदि समर्पित किये । इस प्रकार संयोग का कटुक फल जानकर सुधनके साथ सुनन्द भी प्रव्रजित हो गया। अब 'अणगारस्स भिक्खुणो' का अर्थ कहते हैं-अनगार शब्द का अर्थ घर का परित्याग करना है । द्रव्य और भावके भेदसे अगार के दो भेद हैं। नियत जो निवास का स्थान है-वह द्रव्य-अगार है। कषाय-मोहनीय कर्म भाव-अगार है। इसकी उत्कृष्ट स्थिति आदि में जीव को विरतिका लाभ नहीं होता है । विरति का लाभ होने के लिये इसकी स्थिति आदि अल्प अपेक्षित होती है, इसलिये अल्पकषायमोहनीयवाला भावानगाररूप से विवक्षित हुआ है। अब 'भिक्षु' शब्द का अर्थ कहते हैं-भिक्षु वही हो सकता है जो हनन घातन आदि क्रियाओं का नवकोटि से परित्यागी होता है, अर्थात् हनना, हनवाना, उसका अनुमोदन करना, पकाना, पकवाना, उसका अनुमोदन करना, खरीदना, खरीदवाना, उसका अनुमोदन करना, इन नवकोटि दोषोंसे સાધુનાં ઉપકરણરૂપ દેરાસાથેમુખવસ્ત્રિકા, રજોહરણ અને પાત્ર આદિ સમર્પિત કર્યા. આ પ્રકારે સંયોગનાં કડવાં ફળને જાણીને સુધનની સાથોસાથ સુનદે પણ પ્રવજ્યા અંગીકાર કરી. __वे “अणगारस्स भिक्खुणो "ने! ४९ छ-मना२ ५४ने। અર્થ ઘરને પરિત્યાગ કરવો. તે દ્રવ્ય અને ભાવના ભેદથી અગારના બે ભેદ છે. નિયત જે નિવાસનું સ્થાન છે તે દ્રવ્ય–અગાર છે. કષાય મેહનીય કર્મ ભાવ-અગાર છે. તેની ઉત્કૃષ્ટ સ્થિતિ આદિમાં જીવને વિરતિને લાભ થતો નથી. વિરતિને લાભ થવા માટે એની સ્થિતિ આદિ અલ્પ અપેક્ષિત થાય છે, આ માટે અલ્પકષાયમેહનીયવાળા ભાવનગારરૂપથી વિવક્ષિત થયેલ છે. હવે “શું” શબ્દનો અર્થ કહે છે–ભિક્ષુ એજ થઈ શકે છે જે હનન ઘાતન આદિ ક્રિયાઓને નવકેટીથી પરિત્યાગ કરે છે. અર્થાત્ હણવું, હણાવવું અને તેનું અનુદન કરવું. પકાવવું, બીજાથી તૈયાર કરાવવું, તેનું અનુમોદન કરવું, ખરીદવું, ખરીદાવવું, અને તેનું અનુદન કરવું, આ નવકેટી દેથી રહિત ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ___उत्तराध्ययनसूत्रे नयो नीतिविनयः साधुसमादृतः समाचारस्तम्, यद्वा-विनयति-नाशयति सकलक्लेशजनकमष्टविधं कम स विनयस्तम् , गुरुं प्रति नीचैर्वृत्तिलक्षणा नम्रता द्रव्यतो विनयः, साध्वाचारं प्रति प्रवणत्वं भावतो विनयस्तमित्यर्थः, प्रादुष्करिष्यामिप्रकटयिष्यामि । केन प्रकारेण प्रादुष्करिष्यामीत्याकाङ्क्षायामाह-'आणुपुन्धि' इति। आनुपूर्वीमिति, अत्र-सौत्रत्वात् तृतीयार्थे द्वितीया, आनुपूर्व्या-क्रमेण शास्त्रोक्तपरिपाटयेत्यर्थः, हे शिष्याः ! मे मम मत्सकाशादित्यर्थः, यद्वा-'मे' इति विभक्त्यन्तप्रतिरूपकमव्ययम् मे मत्तः, शृणुत-यूयमाकर्णयत श्रवणं प्रति सावधाना भवतेत्यर्थः । स्वशिष्याभिमुखीकरणार्थमिदम् ॥१॥ ___ विनयं प्रादुष्करिष्यामी'त्युक्तं', तत्र विनीतलक्षणे विज्ञाते सति विनयस्वरूपं विदितं स्यादिति विनीतलक्षणमाहरहित भिक्षा का ग्रहण करनेवाला भिक्षु कहा गया है। विनय का अर्थ है-विशिष्ट नय, इसलिये यहाँ ‘विनय' शब्द से साधुओंका आचार समझना चाहिये । अथवा-जो अष्टविध कर्मोंका नाश करे सो 'विनय' है। वह विनय द्रव्य-विनय और भाव-विनय के भेद से दो प्रकार का है । गुरु के प्रति, तथा पर्यायज्येष्टोंके प्रति नम्र होना, तथा उनकी सेवा करना यह द्रव्य-विनय है। साध्वाचार में तत्पर रहना यह भाव-विनय है। उस विनय को मैं शास्त्रोक्त पद्धति के अनुसार प्रकट करूँगा, अतः हे जंबू ! तुम सब मुझ से इस बात को अच्छीतरह सुनो ॥१॥ विनीत के लक्षण का जबतक ज्ञान न हो जाय तब तक विनय का स्वरूप जाना नहीं जा सकता है, इसलिये सूत्रकार विनीत का लक्षण कहते हैं-'आणाणिद्देसकरे' इत्यादि । ભિક્ષાને ગ્રહણ કરવાવાળા “ભિક્ષુ કહેવાય છે. વિનયન અર્થ છે-વિશિષ્ટ નય, આ માટે અહિં “વિનય” શબ્દથી સાધુઓને આચાર સમજ જોઈએ. અથવાજે અષ્ટવિધ કર્મોનો નાશ કરે તે “વિનય છે. તે વિનય દ્રવ્ય-વિનય અને ભાવ -વિનયના ભેદથી બે પ્રકારે છે. ગુરૂના પ્રતિ તથા પર્યાયથી બડાઓ પ્રતિ નમ્ર થવું, તથા તેની સેવા કરવી તે દ્રવ્ય વિનય છે. સાધુના આચારમાં તત્પર રહેવું એ ભાવ-વિનય છે. તે વિનયને હું શાસ્ત્રોક્ત પદ્ધતિ અનુસાર પ્રગટ કરીશ, માટે હે જમ્મુ ! તમે મારાથી આ સઘળી વાતને સારી રીતે સાંભળો (૧). વિનીતના લક્ષણનું જ્યાં સુધી જ્ઞાન ન થાય ત્યાં સુધી વિનયનું સ્વરૂપ જાણું शतुं नथी. २॥ भाटे सूत्रा२ विनीतना सक्ष छ.-'आणाणिदेसकरे'. त्याहि. ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रियदर्शिनी टीका. अ० १ गा० १ विनीतलक्षणम् मूलम्-आणांणिदेसकरे, गुरूणमुववार्यकारए। इंगियाारसंपण्णे, से विणीएं त्ति बुच्चईं ॥२॥ छायाआज्ञानिर्देशकरः गुरूणामुपपातकारकः । इङ्गिताकारसम्पन्नः स विनीत इत्युच्यते ॥२॥ टीका'आणाणिद्देसकरे' इत्यादि। आज्ञानिर्देशकरः आज्ञा-विधिरूपं प्रतिषेधरूपं वा गुरुवचनं, यथा-'इदं कुरु' 'इदं मा कुरु' इति, तस्या निर्देशःभवद्वचनानुसारेण करिष्यामीति कथनं, तस्य करः कर्ता, यद्वा-आज्ञायाः तीर्थकरवाण्या निर्देशः उत्सर्गापवादकथनं, तस्य कारकः, तथा-गुरूणाम्-आचार्यादीनाम्, उपपातकारका उपपाता=समीपेऽवस्थानं, तस्य कारकः, आचार्यादिसंनिहितस्थानवर्ती, न तु तन्नियोगवचनभयाद् दूरावस्थायीत्यर्थः, तथा-इङ्गिताकारसम्पन्नः, इङ्गित-निपुणमतिगम्यं स्वाभिप्रायसूचकमीषद्भूचालनादिकम् , आकार: स्थूलमतिगम्यः प्रस्थानादिम्चको दिगवलोकनादिः, ताभ्यां संपन्नः युक्तः, गुरुमनोवृत्तिज्ञानवानित्यर्थः, एवंभूतो यः शिष्यः सः विनीतः विनयवान् , इत्युच्यते तीर्थकरगणधरादिभिरिति शेषः। अन्वयार्थ (गुरूणं-गुरूणां)आचार्य आदिकी (आणाणिद्देसकरेआज्ञानिर्देशकरः) आज्ञा को मानने वाला (उचवायकारए-उपपातकारकः) उनके निकट सदा रहने वाला (इंगियागारसंपण्णे-इंगिताकारसंपन्नः) इंगित-सूक्ष्म बुद्धि वालों से जानने योग्य गुरु आदि की भ्रूचालन आदि चेष्टा । आकार-स्थूल बुद्धि वालों से भी समझने योग्य गुरु आदि की गमनादिसूचक दिशाका अवलोकनादि चेष्टा । गुरु आदि की इन दोनों चेष्टाओं को अच्छी तरह जानने वाला जो शिष्य होता है (से विणीए मन्वयार्थ-(गुरूणं-गुरूणां) Pायाय पोरेनी (आणाणिद्देसकरे-आज्ञानिर्देशकरः)माज्ञाने मानवावा ( उववायकारए-उपपातकारकः) भनी पासे सहा २डेवावा. (इंगियागारसंपण्णे-इंगिताकारसंपन्नः) गित-सूक्ष्म भुद्धिवाणाथी જાણવા યોગ્ય ગુરૂની ભ્રચાલન-(આંખને ઇશારે) આદિની ચેષ્ટા, આકાર-સ્કૂલ બુદ્ધિવાળાથી પણ સમજવા યોગ્ય ગુરૂ આદિની ગમનાદિસૂચક દિશાનું અવલોકન આદિ ચેષ્ટા, ગુરૂ આદિની આ બને ચેષ્ટાઓને સારી રીતે જાણવાવાળા ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४ उत्तराध्ययनसूत्रे त्ति पुच्चइ-सः विनीत इति उच्यते) वह तीर्थकर गणधर आदि के द्वारा विनीत कहा गया है ॥२॥ भावार्थ-"आज्ञानिर्देशकरः " "यह करो, यह न करो" इस प्रकार विधिरूप और निषेधरूप जो गुरु के वचन हैं वे 'आज्ञा' शब्द से ग्रहण किये गये हैं । “आप के वचन के अनुसार ही प्रवृत्ति करने का भाव है, अन्यथा नहीं,” इस प्रकार शिष्य का कथन निर्देश है। इस निर्देश का अच्छी तरह से पालन करने वाला आज्ञानिर्देशकर है। अथवा-आज्ञा-तीर्थकर प्रभु की वाणी के द्वारा जो उत्सर्ग एवं अपवाद मार्ग का निर्देश अर्थात् विधान किया गया है उसके अनुसार करने वाला आज्ञानिर्देशकर कहा जाता है। उपपात शब्द का अर्थ है-समीप बैठना । शिष्य का कर्तव्य है कि वह सदा अपने गुरु के समीप बैठे । उनकी आज्ञा के पालन करने के भय से उनसे दूर न बैठे। गुरु का अभिप्राय परखना यह साधारण बात नहीं है। यह बात तब ही सीखी जा सकती है कि जब शिष्य उन के पास में बैठे, अन्यथा नहीं । विनीत शिष्य गुरु की सेवा करने से आत्मकल्याण करता है,। र शिष्य डाय छ, (से विणीए-त्ति बुच्चइ-सः विनीत इति उच्यते) ते ती ४२ ગણધર આદિ દ્વારા વિનીત કહેવાયેલ છે (૨). भावार्थ:--" आज्ञानिर्देशकरः” “२॥ ४२॥ सन २न श.” । પ્રકારે વિધિરૂપ અને નિષેધરૂપ જે ગુરૂનાં વચન છે તે આજ્ઞા શબ્દથી ગ્રહણ કરવામાં આવેલ છે. “આપના વચન અનુસાર જ પ્રવૃત્તિ કરવાના ભાવ છે બીજા નથી” આ પ્રકારનું શિષ્યનું કથન નિર્દેશ છે. નિર્દેશનું સારી રીતે પાલન કરવાવાળા આજ્ઞાનિર્દેશકર છે. અથવા-આજ્ઞા-તીર્થકર પ્રભુની વાણી દ્વારા જે ઉત્સર્ગ અને અપવાદ માર્ગને નિર્દેશ અર્થાત વિધાન કરવામાં આવેલ છે તે અનુસાર કરવાવાળા આજ્ઞાનિર્દેશકર કહેવાય છે. ઉપપાત શબ્દનો અર્થ છે. સમીપ બેસવું. શિષ્યનું કર્તવ્ય છે કે તે સદા પોતાના ગુરૂની સમીપ બેસે. ગુરૂની આજ્ઞાનું પાલન કરવાના ભયથી તેનાથી દૂર ન બેસે. ગુરૂને અભિપ્રાય જાણ તે સાધારણ વાત નથી. એ વાત ત્યારે જ શીખી શકાય કે જ્યારે શિષ્ય તેની પાસે બેસે, એ શિવાય નહીં. વિનીત શિષ્ય ગુરૂની સેવા કરવાથી આત્મકલ્યાણ કરે છે. ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रियदर्शिनी टीका. अ० १ गा. २ विनयेगुणनिधिशिष्य दृष्टान्तः अत्र गुणनिधिमणस्य दृष्टान्तः तथाहि-धर्मसिंहाचार्यस्य गुणनिधिनामकः सुधीः शिष्यः प्रकृतिभद्रः प्रकृतिविनीतः प्रतिदिवस गुरुनिकटवासी गुरुवचनानुकूलकार्यकारी गुरुमनोवृत्त्यनुसारी गुरुविचारश्रेणिसरणिसंचरणशीलः प्रकृतिसरलः सुशील आसीत् । यदा गुरुरागच्छति तदाऽऽसनादुत्थाय तस्मै सविनयमासनं प्रयच्छति, यदा गच्छति तदाऽऽसनमुपादाय तदुपवेशनस्थाने विस्तारयति, गुरोराज्ञा कदा कीदृशी भविष्यतीत्येवं प्रतिक्षणं प्रतीक्षमाणस्तिष्ठति । यस्मिन् यस्मिन् ऋतौ यद् यद् गुरुपकृत्यनुकूलमशनादिकं, तत्तत् समानीय गुरवे समर्पयति । गुरुर्हि जननीजनकाभ्यामप्यधिकः, तत्र कारणं-जन्मदाता जन्मनि जन्मनि भवति, मुक्तिदाता गुरुस्तु दुर्लभः, इस पर गुणनिधिश्रमण का दृष्टान्त कहते हैं धर्मसिंह आचार्य का गुणनिधि नामका एक शिष्य था। यह सुबुद्धि एवं प्रकृतिभद्र था। विनीत था । गुरु महाराज के पास बैठना उनके वचन के अनुसार चलना, उनकी मनोवृत्ति के अनुकूल काम करना, इत्यादि समस्त सद्गुणों से युक्त था । बडा ही सुशील था। जब गुरु महाराज पधारते तब आसन से उठ कर वह उनके लिये विनयपूर्वक आसन देता, तथा जब गुरुमहाराज वहाँसे उठ कर जाते तब वह आसन लेकर उनके पीछे २ चलता और जहाँ गुरु महाराज बैठना चाहते वहाँ आसन बिछा देता । गुरु महाराज की आज्ञा कब कैसी होगी, इसकी प्रतिक्षण प्रतीक्षा करता था। जिस २ ऋतु में जो जो आहार पानी आदि गुरुमहाराज के प्रकृति के अनुकूल होता उस उस ऋतु में वही वही पदार्थ लाकर गुरु महाराज को अर्पण करता । गुरु ने जो कुछ कहा वही આ અંગે ગુણનિધિ શ્રમણનું દૃષ્ટાંત કહે છે– ધર્મસિંહ આચાર્યને ગુણનિધિ નામને એક શિષ્ય હતા. તે સુબુદ્ધિવાળો અને પ્રકૃતિભદ્ર હતું. વિનીત હતે. ગુરૂ મહારાજ પાસે બેસવું, તેમના વચન અનુસાર ચાલવું, તેમની મનોવૃત્તિ અનુકૂળ કામ કરવું ઈત્યાદિ સમસ્ત સદ્દગુણોથી યુક્ત હતા. ઘણે સુશીલ હતો. જ્યારે ગુરૂમહારાજ પધારે ત્યારે આસનથી ઉઠીને તે તેમને માટે વિનયપૂર્વક આસન આપતા, તથા જ્યારે ગુરૂ મહારાજ ત્યાંથી ઉઠીને જતા ત્યારે તે આસન લઈને તેમની પાછળ પાછળ જતે અને જ્યાં ગુરૂ મહારાજ બેસવા ઈ છે ત્યાં આસન બીછાવી (પાથરી) દેતે. ગુરુ મહારાજની આજ્ઞા કયારે કેવી હશે, તેની પ્રતિક્ષણ પ્રતીક્ષા કરતું હતું. જે જે રૂતુમાં જે જે આહાર પાછું આદિ ગુરૂ મહારાજની પ્રકૃતિને અનુકૂળ હોય તે તે રૂતુમાં તે તે પદાર્થ લાવીને ગુરૂ મહારાજને उ-४ ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्यायनसूत्र गुरुं विना कालत्रयेऽपि ज्ञानं दुर्लभम् , यथा सिद्धाञ्जनं विना भूतलान्तर्गतं निधानं नयनपथं नावतरति, तथैव गुरुमन्तरेणात्मस्वरूपं न पश्यति । यथा दुग्धान्नवनीतं तद्विलोडनं विना न प्राप्यते, एवं गुरुसेवनं विना रत्नत्रयं नोपलभ्यते । स गुणकरना, यह समझ कर कि गुरु महाराज कभी भी अन्यथा प्रवृत्ति नहीं करा सकते हैं, अहित में प्रवर्तन कराने का अभिप्राय इनके अन्तःकरण में कभी भी जाग्रत नहीं हो सकता है, क्यों कि ये मेरे हितकारी हैं, इस अभिप्राय से-इस दृढ आस्था से-वह सदा गुरु की आज्ञा का आराधन किया करता था। साथ में उसका यह पक्का विश्वास था कि गुरुमहाराज माता पिता से भी अधिक उपकारी होते हैं, क्यों कि जन्म दाता तो इस जीव को प्रत्येक भव में प्राप्त होते रहते हैं, परन्तु मुक्तिदाता गुरु तो बडे भाग्य से ही मिलते हैं, निर्धन को निधिके समान आत्मा को इनका समागम बहुत दुर्लभ है । आत्मज्ञानकी प्राप्ति इनसे ही हुआ करती है। गुरु के विना तो कालत्रय में भी सम्यग्ज्ञान का लाभ नहीं हो सकता है. ये तो सिद्ध-अंजन समान हैं-जिस प्रकार सिद्ध-अंजन आंखों में आंजने के प्रभाव से जीवों की भूमिगत निधान को लक्षित करनेवाली दृष्टि खुल जाती है उसी प्रकार गुरु की कृपा से आत्मज्ञान का अनुभव जीवको होने लगता है । दुग्ध के विलोडन किये विना जैसे मक्खन का અર્પણ કરતા. ગુરૂએ જે કંઈ કહ્યું એજ કરવું, એવું સમજીને કે ગુરૂ મહારાજ કદી પણ અન્યથા પ્રવૃત્તિ ન જ કરાવે. અહિતમાં પ્રવર્તન કરાવવાનો અભિપ્રાય તેમના અંતઃકરણમાં કઈ વખત પણ જાગ્રત થાય જ નહીં, કેમકે તેઓ મારા હિતકારી છે. આ અભિપ્રાયથી–આવી દ્રઢ આસ્તાથી–તે સદા ગુરૂની આજ્ઞાનું આરાધન કર્યા કરતો. સાથોસાથ તેને એ પાકે વિશ્વાસ હતું કે ગુરૂ મહારાજ માતા પિતાથી પણ અધિક ઉપકારી હોય છે. કેમકે જન્મદાતા તો આ જીવને પ્રત્યેક ભવમાં પ્રાપ્ત થતા જ રહે છે. પરંતુ મુક્તિદાતા ગુરૂ તો સારા સદ્ભાગ્યથી જ મળે છે. નિર્ધનને નિધિ સમાન તેવી રીતે આત્માને ગુરૂનો સમાગમ ઘણે જ દુર્લભ છે. આત્મજ્ઞાનની પ્રાપ્તિ તેમનાથી જ થાય છે. ગુરૂ વિના તે કાલત્રયમાં પણ સમ્યગજ્ઞાનને લાભ થઈ શકતો નથી. એઓ તે સિદ્ધ-અંજન સમાન છે. જે પ્રકારે સિદ્ધ-અંજન આંખમાં આંજવાના પ્રભાવથી જીવોની ભૂમિગત નિધાનને લક્ષિત કરવાવાળી દષ્ટિ ખુલી જાય છે એવી રીતે ગુરૂની કૃપાથી આત્મજ્ઞાનનો અનુભવ જીવને થવા લાગે છે. દુધને લેવ્યા સીવાય જેમ માખણનું મળવું અસંભવ છે તેમ ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रियदशिनी टीका. अ० १ गा. २ विनये गुणनिधिशिष्य दृष्टान्तः २७ निधिर्गुरुस्तुतिं करोति-हे गुरो ! भवान् वारिद इव करुणारसदृष्टयामामकीनं चित्तचातकं प्रमोदयति, शमदमादिगुणोद्यानं हरितीकरोति । हे करुणासागर ! भवकरुणां विना सम्यक्त्वमाप्तिन भवति, सम्यक्त्वं विना तत्त्वातत्त्वविवेकरूयाऽमृतभावना न जायते, अमृतभावनां विना विशुद्धध्यानं न भवति । विशुद्धध्यानं विना क्षपकश्रेणिर्न प्रादुर्भवति । क्षपकश्रेणि विना शुक्लध्यानस्य द्वितीयपादः प्राप्तो न भवति । शुक्लध्यानस्य द्वितीयपादं विना केवलज्ञानं न संभवति । केवलज्ञानमिलना असंभव है उसी प्रकार गुरु की सेवा किये विना भी रत्नत्रयकी प्राप्ति होना महादुर्लभ है, धन्य है, गुरुमहाराज!। गुणनिधि ने इस प्रकार मन में विचार कर गुरु महाराज की स्तुति की, जो इस प्रकार हैहेगुरुमहाराज ! आप मेघ की तरह मेरे चित्तरूपी चातक को करुणारस के वर्षण से प्रमुदित करनेवाले हैं । शम दम आदि गुणस्वरूप उद्यान को हरा भरा बनाने वाले हैं। हे करुणासागर ! जबतक आपकी करुणारसा दृष्टि जीवों पर नहीं पडती, तबतक उन्हें सम्यक्त्व का लाभ नहीं होता है । सम्यत्त्व प्राप्त किये विना जीव कभी भी तत्त्वातत्त्वविवेकरूप अमृत से भरी हुई भावना को अपने में नहीं भर सकता। अमृतभावना भरे विना विशुद्ध ध्यान कभी भी नहीं जग सकता। विशुद्ध ध्यान की जागृति विना जीव को क्षपकणिकी प्राप्ति नहीं हो सकती, क्षपकश्रेणि की प्राप्ति हुए विना शुक्लध्यान का द्वितीयपाद (दूसरा ગુરૂની સેવા કર્યા સિવાય રત્નત્રયની પ્રાપ્તિ થવી મહાદુર્લભ છે. ધન્ય છે ગુરૂ મહારાજ!. ગુણનિધિએ આ પ્રકારને મનમાં વિચાર કરી ગુરૂમહારાજની સ્તુતિ કરી, જે આ પ્રકારની છે.–હે ગુરૂમહારાજ આપ મેઘની માફક મારા ચિત્તરૂપી ચાતકને કરૂણારસના વર્ષથી પ્રમુદિત કરવાવાળા છે. આમ દમ આદિ ગુણસ્વરૂપ ઉદ્યાનને ફાલતે ફૂલતો બનાવવાવાળા છે, હે કરૂણાસાગર! જ્યાં સુધી આપની કરૂણા રસા (દયાથી ભીની) દૃષ્ટિ જીવો પર નથી પડતી ત્યાં સુધી તેને સમ્યક્ત્વને લાભ થતું નથી. સમ્યક્ત્વ પ્રાપ્ત કર્યા વગર જીવ કયારેય પણ તસ્વાતત્વવિવેકરૂપ અમૃતથી ભરેલી ભાવનાને પિતાનામાં ભરી શકતો નથી. અમૃત ભાવના ભર્યા વગર વિશુદ્ધ ધ્યાન કદી પણ જાગ્રત થતું નથી. વિશુદ્ધધ્યાનની જાગ્રતિ વિના જીવને ક્ષપકશ્રેણીની પ્રાપ્તિ થતી નથી. ક્ષપકશ્રેણીની પ્રાપ્તિ થયા વિના શુક્લધ્યાનને બીજે પા પ્રાપ્ત થત ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८ उत्तराध्ययन सूत्रे प्राप्तिं विना शैलेश्यवस्था न जायते । तां विना सकलकर्मक्षयो न भवति । सकलकर्मक्षयं विना मुक्तिर्न संभवति । मुक्तिप्राप्तिं विनाऽयमात्माऽमरपदं न लभते । अमरपदप्राप्तिं विनाऽऽत्मनः सिद्धावस्था न जायते, अतो भवानेव सकलकल्याणकारणमिति प्रतिक्षणं भवच्चरणसमाराधनमेव मम संयमाराधनम् । एवं गुरुमाराधयन् गुणनिधिः संयमयात्रां निर्वहन् स्वात्मकल्याणमचिरेण साधितवान् । एव मन्येनापि शिष्येण विनयपरेण भवितव्यम् ॥ २ ॥ अविनीतत्ववर्जनेन afarinaaर्जनेन विनीतो भवतीत्यतो विनीतविपरीतमविनीत स्वरूपमाह पाया) प्राप्त नहीं हो सकता । शुक्लध्यान के दूसरे पाये की प्राप्ति विना केवलज्ञान की प्राप्ति नहीं हो सकती । केवलज्ञान की प्राप्ति विना शैलेशी अवस्था प्राप्त नहीं हो सकती है। शैलेशी अवस्था की प्राप्ति विना सकल कर्मोंका क्षय नहीं हो सकता है और सकल कर्मोंके क्षय विना मुक्ति की प्राप्ति नहीं हो सकती, और मुक्तिकी प्राप्ति विना अमरपद नहीं मिल सकता । अमर पद पाये विना आत्मा सिद्धावस्थासम्पन्न नहीं बन सकता । इस लिये हे नाथ ! आप ही सकल कल्याण के कारण हैं, अतः प्रतिक्षण आपके चरणोंका आराधन ही मेरा संयमाराधन है । इस प्रकार अपने गुरुकी आराधना करते हुए गुणनिधि ने तप संयम की आराधना की, और थोड़े ही काल में आत्मकल्याण किया । इसी तरह अन्य शिष्यों को भी अपने गुरु के प्रति विनयशील रहना चाहिये ॥ २ ॥ નથી. શુક્લધ્યાનના બીજા પાયાની પ્રાપ્તિ વિના કેવળજ્ઞાનની પ્રાપ્તિ થતી નથી. કેવળજ્ઞાનની પ્રાપ્તિ વિના શૈલેશી અવસ્થા પ્રાપ્ત થતી નથી. શૈલેશી અવસ્થાની પ્રાપ્તિ વિના સકલ કર્મોના ક્ષય થતા નથી અને સકલ કર્મોના ક્ષય વિના મુક્તિની પ્રાપ્તિ થતી નથી. અને મુક્તિની પ્રાપ્તિ વિના અમરપદ મળી શકતું નથી. અમરપદ મેળવ્યા વગર આત્મા સિદ્ધઅવસ્થાસંપન્ન બની શકતા નથી માટે હે નાથ ! આપજ સકલ કલ્યાણના કારણ છે. એટલે પ્રતિક્ષણ આપના ચરણેાનું આરાધન જ મારૂ સંચમ આરાધન છે. આ પ્રકારથી પોતાના ગુરૂની આરાધના કરતાં કરતાં ગુણનિધિએ તપ સંયમની આરાધના કરી અને થાડાજ કાળમાં આત્મકલ્યાણ કર્યું. આવી રીતે અન્ય શિષ્યાએ પણ પેાતાના ગુરૂ પ્રત્યે વિનયશીલ રહેવું જોઇએ. "રા ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર ઃ ૧ Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रियदर्शिनी टीका. अ० १ गा. ३ अविनीतलक्षणम्. आणोऽणिद्देसकरे, गुरूणमंणुववयकारए । पडिणीए असंबुद्धे, अविणी- त्ति वुच्चइ ॥ ३ ॥ छाया " २९ आज्ञाऽनिर्देशक गुरूणामनुपपातकारकः । प्रत्यनीकोऽसंबुद्धः अविनीत इत्युच्यते || ३ || टीका ' आणाऽसिकरे' इत्यादि । आज्ञाऽनिर्देशकरः = आज्ञाया गुरुवचनस्यानिर्देशकरः - अनादरकारकः, तथा गुरूणाम् = आचार्यादीनाम्, अनुपपातकारकः= समीपानवस्थायी, गुरूणां संनिधौ तिष्ठामि वेद गुरवो मां स्वकार्यार्थमाज्ञापयिष्यन्तीति विज्ञाय दूरे तिष्ठतीत्यर्थः । तथा - प्रत्यनीकः = प्रतिकूलः, गुरुदोषान्वेषणपर इत्यर्थः । तथा - असम्बुद्धः जीवाजीवादितत्त्वानभिज्ञः, एवंभूतो यः शिष्यः स खल्वविनीत इत्युच्यते । शिष्य में विनीतता, अविनीतता के परित्याग से ही आती है इसलिये विनीत से विपरीत अविनीत का स्वरूप सूत्रकार कहते हैं'आणाऽणिद्देसकरे०' इत्यादि । अन्वयार्थ - (गुरूणं आणाऽणिद्देसकरे-गुरूणां आज्ञाऽनिर्देशकरः) गुरु की आज्ञा का अनादर करने वाला, ( अणुववायकारए) उनके समीप नहीं बैठने वाला (पडिणीए ) उनसे सदा प्रतिकूल वर्ताव करनेवाला ( असंबुद्धे) जीव एवं अजीव आदि के स्वरूप को नहीं जाननेवाला ऐसा शिष्य (अविणीए बुच्चइ - अविनीतः - उच्यते ) अविनीत कहा जाता है। भावार्थ - इस गाथा द्वारा सूत्रकार ने विनीत से विपरीत अविनीत का स्वरूप प्रदर्शित किया है । यद्यपि यह बात अर्थापत्ति से स्वयं सिद्ध શિષ્યમાં વિનીતતા અવિનીતતાના પરિત્યાગથી જ આવે છે. આ માટે विनीतथी विपरीत अविनीतनुं स्व३५ सूत्रर उडे छे– 'आणाऽणिद्देसकरे.' इत्यादि अन्वयार्थ – (गुरूणं आणाऽणिद्देसकरे-गुरूणां आज्ञाऽनिर्देशकरः) गुरुनी आज्ञानो मनोहर उरवावाणा (अणुववायकारए) खेभनी सामे न मेसवावाजा ( पडिणीए ) ोभनाथ सहा प्रतिडून वर्ताव खावाणा (असंबुद्धे) लव भने अव महिना स्व३पने नहीं लगवावाजा सेवा शिष्य ( अविणीए - बुच्चइ - अविनीतः उच्यते ) અવિનીત કહેવાય છે, ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર ઃ ૧ ભાવા—આ ગાથાદ્વારા સૂત્રકારે વિનીતથી વિપરીત અવિનીતનુ સ્વરૂપ પ્રદર્શિત કરેલ છે. જોકે આ વાત અર્થોપત્તિથી સ્વયંસિદ્ધ થઈ જતી હતી Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३० ___ उत्तराध्ययनसूत्रे हो जाती थी कि जो विनीत के कथित स्वरूपसे रहित है वह अविनीत है फिर भी जो यहां सूत्रकार ने उसे स्पष्ट शब्दों द्वारा अलग उल्लेख किया है उसका कारण विशेषरीति से विवेचन करना है, ताकि मंदबुद्धि जन भी इस बात को अच्छी तरह समझ सकें। गुरु के समीप वह अविनीत शिष्य इसलिये नहीं रहना चाहता है कि वह विचारता है कि यदि गुरु के पास बैलूंगा तो उनका प्रत्येक कार्य मुझे करना पड़ेगा इसलिये अच्छा है कि मैं उनसे दूर ही बैलूं। ऐसा करने वाला शिष्य स्वेच्छाचारी हो जाता है । गुरु के पास बैठने का मुख्य यही उद्देश्य होता है कि शिष्यजन विनय आदि गुणों को प्राप्त करते हुए तप संयम की आराधना सुख से कर सके । मुझ से गुरु कुछ भी कह न सकें, गुरु पर भी मेरा रौब रहे, इस ख्याल से वह अपने पूज्य गुरुजनों में भी दोषों को ढूंढने में लगा रहता है । यह काम उसी शिष्य से हो सकता है जो असंबुद्ध-अर्थात् हिताहित के विचारों से रहित है। अभिज्ञ शिष्य ऐसा नहीं होता। गाथा में ये सब विशेषण हेतुहेतुमद्भाव वाले हैं, जिनका अभिप्राय इस प्रकार है-वह गुरु की आज्ञा का पालक इसलिये नहीं है कि वह उनके पास नहीं बैठता है-उनके पास नहीं रहता है, કે જે વિનીતના કથિત સ્વરૂપથી રહિત છે, તે અવિનીત છે, તે પણ અહિં સૂત્રકારે એને સ્પષ્ટ શબ્દો દ્વારા અલગ ઉલ્લેખ કરેલ છે, તેનું કારણ વિશેષ રીતિથી વિવેચન કરવું એજ છે, કારણ કે મંદબુદ્ધિવાળે માણસ પણ આ વાતને સારી રીતે સમજી શકે. ગુરુની સમીપ તે અવિનીત શિષ્ય એટલા માટે રહેવા નથી ચાહતો કે તે વિચારે છે કે કદાચ ગુરૂની પાસે બેસું તે તેનું પ્રત્યેક કાર્ય મારે કરવું પડશે. આ માટે સારું એ છે કે હું તેમનાથી દર બેસે. આવું કરનાર શિષ્ય સ્વેચ્છાચારી બને છે. ગુરૂની પાસે બેસવાને ખાસ ઉદ્દેશ તે એ છે કે શિષ્યજન વિનય આદિ ગુણોને પ્રાપ્ત કરતાં કરતાં તપ સંયમની આરાધના સુખથી કરી શકે. ગુરૂ મને કાંઈ પણ કહી ન શકે, ગુરૂ ઉપર મારે દાબ રહે, આ ખ્યાલથી તે પિતાના પૂજ્ય ગુરૂજનમાં પણ દેને શોધવા લાગી રહે છે. આ કામ તેવા શિષ્ય કરે છે કે જે અસંબદ્ધ અર્થાતુ હિતાહિતના વિચારથી રહિત છે, અભિજ્ઞ શિષ્ય આવા નથી હોતા. ગાથામાં આ બધાં વિશેષણ હેતુહેતુમભાવવાળાં છે, જેને અભિપ્રાય આ પ્રકારે છે. તે ગુરૂની આજ્ઞાનું પાલક એ ખાતર નથી કે તે ગુરૂની પાસે બેસતા ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रियदर्शिनी टीका. अ० १ गा. ३ अविनये क्षुद्रबुद्धिशिष्य दृष्टान्तः ३१ अत्र क्षुद्रबुद्धिशिष्यस्य दृष्टान्तः यथा एकस्य भद्रबुद्धिनामकाचार्यस्याऽविनीतः क्षुद्रबुद्धिनामकः शिष्य आसीत् । यदा गुरुः शिक्षार्थ प्रेरयति, तदा शिक्षा वह्निज्वालेव तस्य प्रतिभाति, व्रतं विषवत् , तपस्या खड्गधारेव, स्वाध्यायः कर्णसूचीव, संयमो यम इव । अयमाहारे विहारे व्यवहारे च सर्वदाऽऽचार्य पीडयति । सरसं भद्रकं सुस्वादमाहारं स्वयमश्नाति विवर्ण विरसमभद्रकं रूक्षमाचार्याय प्रयच्छति । अथ कदाचिदसौ श्रावकश्राविकाणां पुरतो ब्रूते-अद्य मम गुरोरुपवासः, पास वह इसलिये नहीं रहना चाहता है कि वह प्रत्यनीक-अर्थात्-गुरुद्वेषी-गुरु के छिद्रान्वेषण में तत्पर है, गुरुद्वेषी वह इसलिये है कि वह असम्बुद्ध अर्थात् हिताहित के विचारों से रहित है। अविनीत शिष्य कैसा होता है इस बात को क्षुद्रधुद्धि शिष्य के दृष्टान्त से स्पष्ट किया जाता है____ भद्रबुद्धि नामके एक आचार्य थे । उनका क्षुद्रधुद्धि नामक शिष्य था जो बड़ा अविनीत था । यह यथानाम तथागुण था। गुरु महाराज जब इसे शिक्षा देने बैठते तब उसका मन उदास हो जाता था। शिक्षा उसे ऐसी मालूम होती थी कि जैसे अग्नि की ज्वाला है । विषतुल्य इसे व्रत ज्ञात होने लगते। तलवार की धार के समान यह तपस्या को मानता, कर्ण को भेदनेवाली शलाई के तुल्य यह स्वाध्याय को समझता ।अधिक क्या कहा जाय-संयम को तो यह यमके समान निहारता। आहार में विहार में एवं व्यवहार में यह सदा गुरु-महाराज को दुःखित ही किया નથી, તેમની પાસે રહેતો નથી, પાસે રહેવાનું છે એટલા માટે નથી ચાહતો કે તે પ્રત્યનીક–અર્થાત ગુરૂદ્વેષી–ગુરૂનાં છીદ્રો જોવામાં તત્પર છે. ગુરૂષી તે એ માટે છે કે તે હિતાહિતના વિચારોથી રહિત છે. અવિનીત શિષ્ય કેવું હોય છે આ વાતને ક્ષુદ્રબુદ્ધિ શિષ્યના દૃષ્ટાંતથી સ્પષ્ટ કરવામાં આવે છે– ભદ્રબુદ્ધિ નામના એક આચાર્ય હતા. તેમને ક્ષુદ્રબુદ્ધિ નામનો એક શિષ્ય હતો જે અવિનીત હતું, તેનામાં નામ પ્રમાણે ગુણ હતા. ગુરૂ મહારાજ જ્યારે તેને શિક્ષા આપવા બેસતા ત્યારે તેનું મન ઉદાસ થઈ જતું. શિક્ષા જેને અગ્નિની જવાળા જેવી લાગતી હતી. વ્રત તેને ઝહેર જેવાં કડવાં લાગતાં, તપસ્યાને તે તરવારની ધાર સમાન ગણતા, સ્વાધ્યાયને તે કાનને વિંધનારા સોયા માફક જાણતો હતો. વધુ શું કહેવામાં આવે. સંયમને તો તે યમની માફક જ જેતે, આહારમાં, વિહારમાં, ને વહેવારમાં એ ગુરૂમહારાજને ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययनसूत्रे इति, ततोऽसौ स्वयमश्नाति, गुरुश्च क्षुधातः सन् दिवसं यापयति। कदाचिद् वदतिअद्य मम गुरुणा षष्ठभक्तं कृतम् , कदाचिच्च वदति-अद्य मम गुरुणाऽष्टभक्तमनुष्ठितमिति, एवं क्रमेण गुरुः क्षुधया विवर्णः कृशः शक्तिरहितः संजातः । विहारकाले वृद्धत्वेन शीघ्रगमनसामर्थ्यवर्जितोऽपि गुरुः शिष्यप्रेरणया सक्लेशं विहरति । साधुसामाचार्या क्षुद्रबुद्धिविपरीतमाचरति, प्रतिलेखनादिकं सम्यग् न करता था। आहार के समय सरस सुस्वादु एवं रुचिकारक आहार यह स्वयं पहिले खाता और जो रूक्ष विरस एवं अंत प्रान्त आहार होता वह गुरु-महाराज को देता । अब इसे गुरु-महाराज को आहार देनेकी इच्छा नहीं होती तो श्रावक और श्राविकाओं के समक्ष कहने लगता कि आज तो मेरे गुरु-महाराज ने उपवास किया है, इस प्रकार यह गुरु महाराज को भूखा रखकर स्वयं खूब खाने पीनेकी मजामौज उड़ाता रहता। विचारे गुरुजी क्षुधा को शांतिभाव से सहन करते हुए शमभाव में समय को व्यतीत करते । कभी २ कहता है कि आज हमारे गुरु महाराज ने षष्ठभक्त किया है, आज अष्ट-भक्त किया है। इस प्रकार गुरु को अत्यन्त कष्ट पहुंचाता। गुरु जी भी समताभाव से क्षुधा की वेदना इसे अविनीत समझ कर सहन करने लगे, परन्तु आखिर औदारिक शरीर ही तो ठहरा वह विना आहार के कहां तक टिके । अन्त में वह शरीर विवर्ण-म्लान, कृश-कमजोर, और शक्ति સદા દુઃખીત જ કર્યા કરતે, આહારના સમયે સરસ સ્વાદવાળા એટલે રૂચી. કારક આહાર તે પિતે પહેલાં ખાઈ લેતો અને જે રૂક્ષ, વિરસ એ અન્તપ્રાન્ત આહાર હોય તે ગુરૂ મહારાજને આપતે. જ્યારે તેની ગુરૂમહારાજને આહાર દેવાની ઈચ્છા ન થતી ત્યારે શ્રાવક અને શ્રાવિકાઓની સમક્ષ કહેવા લાગતો કે આજ તો મારા ગુરૂમહારાજે ઉપવાસ કરેલ છે. આ પ્રકારે તે ગુરૂ મહારાજને ભૂખ્યા રાખીને પિતે ખૂબ ખાવાપીવાની મેજમજાહ ઉડાવતો રહેતે, બીચારા ગુરૂજી સુધાને શાન્ત ભાવથી સહન કરીને સમભાવમાં સમયને વ્યતીત કરતા. કઈ કઈ વખત કહેતો કે આજે અમારા ગુરૂ મહારાજે છઠ્ઠ કરેલ છે. આજે અઠ્ઠમ કરેલી છે. આવી રીતે ગુરૂને અત્યંત કષ્ટ પહોંચાડત. ગુરૂ પણ સમતાભાવથી સુધાની વેદના તેને અવિનીત સમજી સહન કરવા લાગ્યા. પરંતુ આખરે ઔદારિક શરીર તે છે જ તે આહાર વિના ક્યાં સુધી ટકી શકે? અંતમાં તે શરીર વિવર્ણ પ્લાન, કૃશ-કમર, અને શક્તિ વગરનું ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रियदर्शिनी टीका. अ० १ गा. ३ अविनये क्षुद्रबुद्धि दृष्टान्तः ३३ करोति, यदि कमपि दानादिकं विषयमवलम्ब्य गुरुभव्यानुपदिशति, तदा तत्सभायामेव गुरोरनभिज्ञतां वदन् तं विषयं स्वयमुपदिशन् गुरुमपमानयति । कदाचिद् वदति-'अद्य मम गुरुमौनव्रतमनुतिष्ठन्नास्ते' इत्युक्त्वा स्वयमेव व्याख्यानं करोति। एवं क्षुद्रबुद्धिचरितं विलोक्य वृद्धाचार्यः स्वचेतसि चिन्तयति-अयमभीक्ष्णं 'सनिमित्त-मनिमित्तंवा क्रोधकारकः, कलहप्रियः, अभिमानी, अज्ञानी, मर्ममृषावादी च, तदिदं ममैव कर्मणः फलमिति मन्वानो वृद्धाचार्यः सर्व सहमान आसीत् । कदासे विहीन हो गया। गुरुजी वृद्ध थे, इस लिये विहारकाल में चलते समय उन्हें बड़ा कष्ट होने लगा, परन्तु क्या किया जाय फिर भी शिष्य की प्रेरणा से उन्हें अनिच्छा होने पर भी विहार करना ही पड़ता था। शिष्य का यह हाल था कि वह साधुसामाचारी को भी विपरीत करते हुए नहीं लजाता था। गुरु-महाराज जब कभी किसी दानादिक विषय को लेकर प्रवचन परिषद के भीतर बैठकर करते तब यह उनके प्रवचन को अन्यथारूप में जाहिर करने के लिये, अथवा उस विषय में उनकी अनभिज्ञता प्रकट करने के लिये बीच ही में बोल उठता और कहता कि यह ऐसे नहीं ऐसे है, गुरुजी वृद्ध होने के कारण भूल गये हैं । जब कभी इसे बोलना होता तो लोगोंसे कहने लगता कि आज गुरुजी को मौनव्रत है, वे व्याख्यान नहीं देंगे, मैं ही व्याख्यान दूंगा, इस प्रकार कह कर व्याख्यान देने लग जाता। क्षुद्रबुद्धि का इस प्रकार स्वच्छंदाचरण देख कर गुरु-महाराज स्वयं इसमें अपने कर्मोंका फल બની ગયું. ગુરૂ વૃદ્ધ હતા એથી વિહારમાં ચાલતી વખતે તેમને ઘણું કષ્ટ થવા લાગ્યું પરંતુ શું થઈ શકે ? શિષ્યની પ્રેરણાથી તેમણે ઈચ્છા ન હોવા છતાં પણ વિહાર કરે પડતા. શિષ્ય સાધુ સામાચારીથી વિપરીત ચાલવામાં પણ લજાતે નહ. ગુરૂ મહારાજ જ્યારે કેઈ દાનાદિક વિષયને લઈને તેના ઉપર પ્રવચન પરિષદમાં કરતા ત્યારે તે શિષ્ય તેમના પ્રવચનને અન્યથારૂપમાં જાહેર કરવા માટે અથવા એ વિષયમાં તેમની અનભિજ્ઞતા બતાવવા માટે વચમાં જ બોલી ઉઠતે અને કહેતા કે આ આમ નથી પણ આમ છે, ગુરૂજી વૃદ્ધ હોવાથી ભૂલી ગયા છે. જ્યારે તેને બોલવાનું મન થતું ત્યારે તે લેકેને કહે કે આજે ગુરૂજીને માનવ્રત છે. તે વ્યાખ્યાન આપશે નહીં, હું જ ભાષણ કરીશ. આ રીતે કહીને ભાષણ કરવા લાગત. શુદ્રબુદ્ધિનું આવું સ્વછંદ આચરણ જેઈને ગુરૂ મહારાજ પોતાના કર્મોનું ફળ ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययनसूत्रे चिदतिक्षुधया पीडितो गुरुश्चिन्तयति आहारानयनाथ क्षुद्रबुद्धिं प्रेषयामीति, तावदसौ क्षुद्रबुद्धिः स्वगुरोः प्राणव्यपरोपणार्थ चतुर्विधसंघसमक्षमवादीत्-गुरुणा शरीरमतिकृशं शक्तिरहितं विलोक्य यावज्जीवमनशनं स्वीकृतम् , क्षुद्रबुद्धिवाक्यं श्रुत्वा चतुर्विधसंघस्तदैवाचार्यस्य समीपमागत्याब्रवीत्-धन्योऽसि कृतपुण्योऽसि महात्मन् ! भवान् जिनशासनभास्करः करुणासागरः, यत् खलु भवता विचारते थे और मनही मन कहते थे-देखो तो सही इसकी कितनी बड़ी भारी अज्ञानता है जो विना निमित्त के ही क्रोध किया करता है, चाहे जिससे झगड़ा करता है, समझाने पर भी नहीं मानता है, अभिमान का पुतला बना हुआ है, मर्मच्छेदी मृषावचन बोलने में इसे संकोच तक नहीं होता, अब इसका इलाज क्या किया जावे, कुछ भी उपाय नहीं, अनुपायवस्तु में सहनशीलता धारण करना ही उचित है । इस प्रकार के विचार से गुरुमहाराज शान्त होकर उस के द्वारा प्रदत्त कष्टोंको सहते रहते। एक समय की बात है जब कि गुरु-महाराज क्षुधा से पीड़ित होकर आहार लाने के लिये क्षुद्रबुद्धिको भेजनेका विचार कर रहे थे कि इतने में क्षुद्रवुद्धि ने गुरुमहाराज को मारने के अभिप्राय से चतुर्विध संघ के समक्ष ऐसा प्रकट कर दिया कि वृद्धावस्था के कारण गुरुमहाराजने शरीर की स्थिति कमजोर जानकर यावज्जीव अनशनव्रत-संथारा धारण कर लिया है । क्षुद्रबुद्धि के इस प्रकार वचनों હોવાનું પિતે વિચારતા અને મનમાં જ કહેતા કે જુઓ તે ખરા આની કેટલી બધી અજ્ઞાનતા છે કે જે વિના નિમિત્ત કોલ કર્યા કરે છે, ચાહે તેનાથી ઝગડે છે, સમજાવવા છતાં પણ માનતો નથી, અભિમાનનું પુતળું બની ગયો છે. મર્મવેધક મૃષા વચન બોલવામાં તેને સંકોચ થતું નથી, હવે એને ઈલાજ શું થઈ શકે, કેઈ ઉપાય નથી. અનુપાય વસ્તુમાં સહનશીલતા ધારણ કરવી તે જ ઉચિત છે. એવા પ્રકારના વિચારથી ગુરૂમહારાજ શાન્ત બનીને તેનાથી અપાતા કષ્ટોને સહ્યા કરતા. એક સમયની વાત છે જ્યારે ગુરૂ મહારાજ ભુખથી પીડિત બનીને આહાર લાવવાને સુદ્રબુદ્ધિને મેકલવાનો વિચાર કરતા હતા એટલામાં ક્ષુદ્રબુદ્ધિએ ગુરૂમહારાજને મારવાના અભિપ્રાયથી ચતુર્વિધ સંઘની સમક્ષ એવું પ્રગટ કર્યું કે વૃદ્ધાવસ્થાને કારણે ગુરૂ મહારાજના શરીરની સ્થિતિ સારી રહેતી ન હોવાથી તેમણે જ્યાં સુધી જીવે ત્યાં સુધી અનશન વ્રત ધારણ કરેલ છે. ક્ષુદ્રબુદ્ધિના આ પ્રકારનાં વચન ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર: ૧ Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रियदर्शिनी टीका. अ० १ गा. ३ अविनये क्षुद्रबुद्धिशिष्य दृष्टान्तः ३५ जराजर्जरिते कृशे निःसत्त्वे सत्यपि शरीरे कातरजनदुष्करं कठिनतरं तीनमनशनं स्वीकृतम् । एवं चतुर्विधसंघवचनं श्रुत्वा गुरुणा चिन्तितम्-यदि स्वगतां बुभुक्षां प्रकाशयामि शिष्यप्रपञ्चं चावेदयामि, तर्हि जिनशासनस्य हीलना निन्दना लघुता भवतीति । तदन्तरं वृद्धाचार्येण चिन्तितम्-मम साहजिकः सकलकर्मक्षयसमयः समायात इति । एवमसौ मनसि धारयन् समाधिभावमुपगत्य प्रवृद्धपरिणामेन क्षपकश्रेणिं प्राप्य सकलकर्म क्षपयिखा केवली भूत्वा सिद्धिगति प्राप्तवान्। को सुनकर समस्त चतुर्विध संघ उसी समय आचार्य के समीप आया और कहने लगा हे महात्मा! आपको अनेकशः धन्यवाद है, आप वास्तव में बड़े भाग्यशाली हैं, आप जैसे जिनशासन को प्रकाशित करनेवाले सूर्य से धर्मकी प्रभावना होती है । करुणासागर ! हम आपका गुणगान कहां तक गावें, हम सबको तो यह सुनकर अपार हर्ष हो रहा है कि आपने जरा से जर्जरित, कृश एवं निःसत्त्व शरीर के होने पर भी कायर जनों द्वारा दुष्कर एवं कठिनतर तीव्र अनशन को जो स्वीकृत किया है। इस प्रकार चतुर्विध संघ के वचन सुनकर गुरुमहाराज ने चित्त में विचार किया कि यदि मैं अपनी भूख प्रकट करता हूं और यह सब कुछ शिष्यका प्रपंच है' ऐसा जो कहता हूं तो जिनशासन की अवहेलना होती है, निन्दा होती है लघुता जाहिर होती है अतः अब श्रेय इसी में है कि अनशन व्रत अंगीकार कर लूं, यह सहज ही कर्मक्षयका समय उपस्थित हुआ है, इसे छोड़ना बुद्धिमानी की बात नहीं નોને સાંભળી સમસ્ત ચતુર્વિધ સંઘ તે સમયે આચાર્યની પાસે આવી અને વિનંતી કરી કહેવા લાગ્યા કે હે મહાત્મા ! આપને અનેકાનેક ધન્યવાદ છે, આપ વાસ્તવમાં મહાન ભાગ્યશાળી છે. આપ જેવા જીનશાસનને પ્રકાશિત કરવાવાળા સૂર્યથી ધર્મની પ્રભાવના થાય છે. કરૂણાસાગર અમે આપના ગુણોને ક્યાં સુધી વર્ણવી શકીયે. અમને બધાને તે એ જાણીને એ હર્ષ થર્યો છે કે આપે વૃદ્ધાવસ્થાથી જીર્ણ કૃશ અને નિઃસત્ત્વ શરીર હોવા છતાં પણ કાયરજનો દ્વારા દુષ્કર એવા આ કઠિનતર તીવ્ર અનશનનો અંગીકાર કરેલ છે. ચતુર્વિધ સંઘના આ પ્રકારનાં વચન સાંભળીને ગુરૂ મહારાજે ચિત્તમાં વિચાર કર્યો કે જે હું મારી ભુખ પ્રગટ કરું અને “આ સઘળે શિષ્યનો પ્રપંચ છે એમ જ કહું તે જીનશાસનની અવહેલના થાય છે, નિન્દા થાય છે, લઘતા જાહેર થાય છે, માટે હવે તે શ્રેય એમાં છે કે અનશન વ્રત અંગીકાર કરી લઉં. કર્મક્ષયનો આ સહેજે સમય પ્રાપ્ત થયો છે. એને છે. એ બુદ્ધિવાળી વાત નથી. આ પ્રકારે વિચાર કરી ગુરૂ મહારાજે ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययनसूत्रे तदा गगनमण्डले देवैर्दुन्दुभिं वादयद्भिर्जयजयध्वनिः कृतः । क्षुद्रबुद्धिकृतं सर्वमत्याचारं च ते देवा विदितवन्तः । ततस्ते तवृत्तमुद्रोषितवन्तः। तच्छ्रुत्वा चतुविधसंघस्तं संघान्निष्कासितवान् । तस्मिन्नेव समये आचार्याशातनाजनितपापेन क्षुद्रबुद्धेवपुषि षोडश रोगाः समुत्पन्नाः। गच्छान्निष्कासितः, तीव्र वेदनां सर्वजनतिरस्कारं च प्राप्नुवन् स क्षुद्रबुद्धिम॑तः । तदतन्तरं स नरके निपतितः। तत्र तीव्रहोगी । इस प्रकार विचार कर गुरु-महाराज ने समाधिभाव को धारण कर लिया, और परिणामों की अतिशय विशुद्धि एवं वृद्धि से क्षपक श्रेणि पर आरूढ़ होकर घातिया कर्मों के नाश से केवली-अवस्था प्राप्त करली, पश्चात् अघातिया कर्मोंके नाश से सिद्धिगति के अधिपति बन गये । देवों ने भद्रबुद्धि आचार्य के केवलज्ञानप्राप्तिका उत्सव मनाया। आकाश में जयरघोषपूर्वक दुंदुभियां बजायीं। उन देवों ने साथ २ यह भी जान लिया कि इन आचार्य के साथ इस क्षुद्रबुद्धि ने अच्छा व्यवहार नहीं किया, उन्हें इसने अधिक से अधिक दुःख दिये और खूब मनमाना उनके साथ अविनीतता का व्यवहार किया है । देवताओं ने इस बात को संघ में जाहिर की। संघ ने क्षुद्रबुद्धि को संघबाहर किया, क्षुद्रबुद्धि भी कुछ समय बाद गुरुद्वेषी होने के कारण अर्जित पापकर्म के उदय से बहुत दुःखी हुआ, उसके शरीर में १६ प्रकार के रोगों ने अपना प्रभाव जमाया। संघ से बहिष्कृत वह इस प्रकार तीव्र वेदना एवं तिरस्कारजन्य दुःखों का अनुभव करता हुआ मर गया, સમાધિભાવ ધારણ કર્યો અને પરિણામોની અતિશય વિશુદ્ધિ અને વૃદ્ધિથી ક્ષપકશ્રેણી પર આરૂઢ બની ઘાતીયા કર્મોના નાશથી સિદ્ધગતિના અધિપતિ બની ગયા. દેએ ભદ્રબુદ્ધિ આચાર્યને પ્રાપ્ત થયેલ કેવળજ્ઞાનનો ઉત્સવ મનાવ્યો. આકાશમાં જયજયકાર સાથે દુÉભિય વગાડવામાં આવી, અને દેએ સાથે સાથે એ પણ જાણી લીધું કે આ આચાર્યની સાથે ક્ષુદ્રબુદ્ધિએ સારે વહેવાર કરેલ નથી, તેણે એમને વધુમાં વધુ દુઃખ આપેલ છે, અને મનમા અવિનીતને વહેવાર એમની સાથે ચલાવ્યો છે. દેવતાઓએ આ વાતને સંઘમાં જાહેર કરી સંઘે શુદબુદ્ધિને સંઘ બહાર કર્યો. મુદ્રબુદ્ધિ ગુરૂષી હોવાના કારણે થડા સમય બાદ અજીત પાપકર્મના ઉદયથી ઘણો દુઃખીત થયે, તેના શરીરમાં સોળ ૧૬ પ્રકારના રોગોએ પિતાનો પ્રભાવ જમાવ્યો. સંઘથી બહિષ્કૃત એવા એ શિષ્ય આ પ્રકારની તીવ્ર વેદના અને તિરસ્કારજન્ય દુઃખને અનુભવ કર્યો, અને છેવટે તેને દેહાંત થયે. મરણબાદ તેને ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रियदर्शिनी टीका. अ० १ गा. ४ सद्दष्टान्तमविनीतलक्षणम् ३७ तरां दशविधक्षेत्रवेदनामनुभूय स गर्भाद् गर्भ, जन्मतो जन्म, मरणाद् मरणं, दुःखाद् दुःखं, पुनः पुनश्चतुर्गतिदुःखं प्राप्नुवन् दुर्लभबोधितां दीर्घ संसारितां च प्राप्तवान् || ३ || अविनीतस्य सदृष्टान्तमवस्थामाह मूलम् — जहां सुणी पूइकण्णी, निक्केंसिज्जइ सव्वसो । एवं दुस्सील पडिणीए, मुहंरी निक्कसि ॥ ४ ॥ छाया यथा शुनी पूतिकर्णी निष्कास्यते सर्वतः । एवं दुःशीलः प्रत्यनीकः मुखारिर्निष्कास्यते ॥ ४ ॥ 'जहा० ' इत्यादि - यथा- पूतिकर्णी - पूती - दुर्गन्तवन्तौ कर्णौ यस्याः सा तथोक्ता, कर्णगतानेकविषमत्रणपरिपाकजनितदुस्सहदुर्गन्धपूयविकृतरक्तस्रावस्थितकृमिमक्षिका निकर दंशनोद्भूततीव्रतर वेदनाव्याकुलतया प्रतिक्षणमितस्ततो भ्रम - न्तीत्यर्थः, शुनी=कुक्कुरी, सर्वशः = सर्वप्रकरेण प्रतिस्थानात् निष्कास्यते = निःसार्यते, और घोर नरक में जाकर नारकी की पर्याय से उत्पन्न हुआ। वहां उसने दश प्रकार की तीव्रतर क्षेत्रसंबंधी वेदना को पाया। वहां की स्थिति को समाप्त कर जब वह वहां से निकला तो भी इस के दुःखों का अन्त नहीं आया । एक गर्भ से दूसरे गर्भ में पहुंचना और वहां के कष्टों को भोगना, फिर वहां से मर कर पुनः जन्म धारण करना और कष्टों को भोगना, इस प्रकार अनंतसंसारी बने हुए इस क्षुद्रबुद्धि की आत्मा को बोधिका लाभ दुर्लभ हो गया ॥ ३ ॥ अविनीत की अवस्था को दृष्टान्त द्वारा सूत्रकार प्रदर्शित करते हैं'जहा सुणी०' इत्यादि । દસ પ્રકારની તીવ્રતર ક્ષેત્ર સંબંધી વેદનાએ સહેવી પડી. એ સ્થિતિ ભાગવી એ જયારે ત્યાંથી નિકળ્યા છતાં પણ તેના દુ:ખાનો અંત ન આવ્યા. એક ગર્ભમાંથી બીજા ગર્ભ માં જવું અને ત્યાંનાં કષ્ટ ભાગવવાં. એક સ્થળેથી મરી બીજે સ્થળે ફરી જન્મ ધારણ કરવા અને કષ્ટ ભાગવવાં. આ પ્રકારે અનન્ત સંસારી બનેલ તે ક્ષુદ્રબુદ્ધિના આત્માને બેધિનો લાભ દુર્લભ બની ગયા. अविनीतनी व्यवस्थाने दृष्टांत द्वारा सूत्रार प्रदर्शित उरे छे - 'जहा gunt'. Seeule. ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર ઃ ૧ Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८ % D उत्तराध्ययनसूत्र एवं अमुनैव प्रकारेण, दुःशील:-दुष्ट-विनयरहितं रागद्वेषदूषितं वा शीलं स्वभावः, आचारो वा यस्य स तथोक्तः, मूले- 'दुस्सील' इति लुप्तपथमान्तम् , तथाप्रत्यनीका प्रतिकूल:-गुर्वादिदोषान्वेषणपर इत्यर्थः, तथा-मुखारिः-विरुद्धभाषणशीलः, वाचा स्वपरानर्थकारीत्यर्थः, यत्तु 'मुहरी' मुखरः इति संस्कृतं मत्वा व्याख्यातम् , तन्न समीचीनं कोशाधनुक्तत्वात् , निष्कास्यते-दूरतः परिवय॑ते । अयं भावः—यथा पूतिकर्णी शुनी शान्त्याशां प्रकुर्वती यत्र यत्र गच्छति तत्र तत्रैव कचिद्दण्डताडिता कचिद् वाचा फट्कारिता कचिद् घृणितदृष्टया विलोकिता ___अन्वयार्थ (जहा-यथा ) जैसे (पूइकण्णी-पूतिकर्णी) सड़े हुए कानोंवाली (सुणी-शुनी) कुत्ती (सव्यसो-सर्वशः) सभी प्रकार से प्रत्येक स्थान से (निकसिजइ-निष्कास्यते) निकाल दी जाती है (एवं) इसी प्रकार (दुस्सील-दुःशीलः) विनयरहित अथवा साधु के आचारसे रहित (मुहरी-मुखारिः) वाचाल-निरर्थक बोलने वाला, (पडिणीएप्रत्यनीकः) ऐसा प्रत्यनीक-गुरु आज्ञा के प्रतिकूल चलने वाला शिष्यकुल-गण-संघ द्वारा गच्छसे हीलना, निन्दना, एवं खिंचना-पूर्वक (निक्कसिजइ) निकाल दिया जाता है ॥ ४॥ भावार्थ-जिस प्रकार कोई कुत्ती कि जिसके दोनों कान बहुत बुरी तरह सड़े हुए हों, और जिनमें से विषम व्रणों-घावों के पड़ जाने सेनहीं सहन करने योग्य ऐसा पीप गिर रहा हो, तथा कीड़े और मक्खियों के काटने से जो उत्पन्न तीव्रतर वेदना से सदा आकुल व्याकुल अन्वयार्थ -(जहा-यथा) हेम (पूइकण्णी-पूतिकर्णी) सदा नोवाणी (सुणी-शुनी) छतरी (सव्वसो-सर्वशः) संघसा प्राथी (निक्कसिज्जइ-निष्कास्यते) प्रत्ये स्थेणेथी ४ढी भुवामां आवे छे. (एवं) २५॥ रीते (दुस्सील-दुःशीलः) विनयशडीत अथवा साधुना पाया२ रडीत (मुहरी-मुखारिः) पायाव-निरथ ४ मोसा (पडिणीए-प्रत्यनीकः) सेवा प्रत्यनी--शु३ ॥ज्ञा प्रति ચાલવાવાળા શિષ્ય-કુલ ગણ સંઘ દ્વારા ગચ્છથી નિંદિત બની, તિરસ્કૃત सनी (निक्कसिज्जइ) ४ढी भुवामा आवे छे. ભાવાર્થ-જે પ્રકારે એક કુતરી કે જેના અને કાન ખુબ જ ખરાબ રીતે સડી ગયા છે. અને તેમાં ઉંડા ઘા પડી જવાથી સહન ન થઈ શકે તેવું પરૂ પડી રહેલ છે તથા કીડા અને માખીઓના કરડવાથી તીવ્ર એવી વેદના સહન ન થતાં તેનાથી આકુળ વ્યાકુળ બની આ બધાથી પિતાની રક્ષા કરવા માટે એકાત ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रियदर्शिनी टीका. अ० १ गा. ४ सदृष्टान्तमविनीतलक्षणम् ३९ सर्वत्र तिरस्कृता भवति, एवमविनीतः खलु कुलगणसंधैर्दीलना-निन्दना-खिंसनापूर्वकं निष्कासितः सर्वत्र तिरस्कार लभते । न चाविनीतस्यानिष्कासने का हानिरिति चेद् अत्रोच्यते-अविनीताऽनिष्कासने कुलगणसंघेषु महाननर्थः संभवति । बनकर जहां भी जाती है वहां से निकाली जाती है-उसे कहीं पर भी किसी का भी सहारा नहीं मिलता है, इसी प्रकार जो शिष्य दुःशील है अपने उपकारी गुरुओंतक के भी दोषोंको देखता रहता है, आचारभ्रष्ट होता है वह भी संघ से विना किसी विचार के गुरुओं द्वारा बाहर कर दिया जाता है । कुत्ती के जब कान सड़ जाते हैं तब वह अपनी रक्षा और शांति प्राप्त करने की अभिलाषा से एकान्तस्थान का सहारा लेने की अभिलाषा करती हुई इधर उधर फिरती है, इसका अभिप्राय यह है कि कुत्ती का स्वभाव विना प्रयोजन इधर उधर भटकने का होता है और जब उसका कोई अवयव सड़ जाता है और उसमें कीडे पड़ जाते हैं तब वह अधिक आकुल व्याकुल बन अधिक मात्रामें इधर उधर भ्रमण करने लगती है । इसी प्रकार जिस शिष्य को अविनीततारूपी रोग लग गया है वह भी गुरु की आज्ञा बाहर होकर विना किसी प्रयोजन के यों ही, अथवा यहां पर मुझे मन के माफिक वर्तन करने की जगह प्राप्त होगी, इस आशासे इतस्ततः घूमता फिरता है, अपने कर्तव्य से सदा विमुख रहता है, एतावता સ્થાન ગોતવા માટે એ જ્યાં ત્યાં ભટકે છે, જ્યાં જ્યાં જાય છે ત્યાંથી એ બીચારીને કાઢી મુકવામાં આવે છે. કેઈ પણ સ્થળે સુખ કે આશ્રય મળતો નથી. આ પ્રકારે જે શિષ્ય દુઃશીલ છે. પિતાના ઉપકારી ગુરૂમાં પણ તે દેષ ગેત્યા કરે છે, આચારભ્રષ્ટ બને છે તેને પણ સંઘથી કઈ પ્રકારના વિચાર વગર ગુરૂઓ દ્વારા કાઢી મુકવામાં આવે છે. કુતરીને જ્યારે કાન સડી જાય છે ત્યારે તે બીચારી પિતાની રક્ષા અને શાન્તી પ્રાપ્ત કરવાની અભિલાષાથી એકાન્ત સ્થાનનો આશ્રય ગોતવાની અભિલાષા સાથે જ્યાં ત્યાં ભટકે છે. કુતરાનો સ્વભાવજ જ્યાં ત્યાં ભટકવાનો હોય છે તેમાં એ જ્યારે તેનું કોઈ અવયવ સડી જાય છે અને તેમાં કીડા પડે છે ત્યારે ખુબજ વ્યાકુળ બની વધુ પ્રમાણમાં જ્યાંથી ત્યાં ભટકે છે. આ પ્રકારે જે શિષ્યને અવિનીતતા રૂપી રોગ લાગુ પડે છે તે પણ ગુરૂની આજ્ઞા બહાર જઈ કઈ પ્રજન વગર “મને અહિં મારા મન માફક વર્તવાની જગ્યા મળશે એવી આશામાં જ્યાં ત્યાં ઘુમ્યા કરે છે. પિતાના કર્તવ્યથી સદા વિમુખ બને છે અને એ ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययनसूत्रे अत्र दृष्टान्तस्तथाहि कस्मिंश्चिद् गच्छे एकः श्रमणगुणमुक्तः सर्वथा भावविनयवर्जितः साध्वाभासः शिष्य आसीत् । स च प्रतिदिनं पुरःकर्मादिदोषदृषितमनेषणीयं भक्तादिकं गृहीत्वा महता संवेगेन प्रतिक्रमणकाले आलोचयति । तस्य गच्छाचार्यः प्रायश्चितं प्रयच्छन् वदति-अहो पश्यत कथमसौ भावमगोपयन् शाठ्यहीनः सर्व इस अविनीततारूपी घाव के होने पर शिष्यजनों में स्वाभाविक चञ्चलता आजाती है, परन्तु जब उस घाव में गुरुओं से भी प्रत्यनीक होनेरूप सड़ा आने लगता है तब उसकी दुर्गध को गुरुजन भी सहन नहीं कर सकते हैं, अतः वह संघ से अथवा गच्छ से बाहर कर दिया जाता है। यदि इस प्रकार की परिस्थितिवाले शिष्य को संघ से बाहर न करे तो कुल गण एवं संघ में महान् अनर्थ होता है । इसी विषय को एक उदाहरण द्वारा स्पष्ट किया जाता है किसी गच्छ में साधुओं के भीतरी आचार विचार से रहित परन्तु उपर से साधु जैसा ज्ञात होने वाला एक साध्वाभास शिष्य रहता था। वह प्रतिदिन पुरःकर्मादिदोषों से दूषित अनेषणीय-आहारादिक ग्रहण करता और ऊपर से दिखावटी संवेगभाव से बड़े जोर-शोर से प्रतिक्रमण के समय आलोचना किया करता था । गच्छाचार्य प्रायश्चित देते समय कहा करते कि देखो यह कितना भद्रपरिणामी जीव है जो अपने हार्दिक भावों को नहीं छुपाकर लगे हुवे अतिचारों की शुद्ध आलोचना કારણે અવિનીતતારૂપ ઘા ને લઈ તેના મનમાં ભારે ચંચળતા આવી જાય છે પરંતુ ગુરૂ-આજ્ઞાના અનાદરરૂપી સડે એના દિલમાં લાગી જાય છે ત્યારે એની દુર્ગધીને ગુરૂજન પણ સહન કરી શકતા નથી એટલે એને સંઘથી અથવા ગચ્છથી બાહેર કરી દેવામાં આવે છે. જે આ પ્રકારની પરિસ્થિતિવાળા શિષ્યને સંઘથી બહાર કરવામાં ન આવે તે કુલ ગણ અને સંઘમાં મહાન અનર્થ બને છે. આ વિષયને એક ઉદાહરણ દ્વારા સ્પષ્ટ કરવામાં આવે છે – કેઈ ગચ્છમાં સાધુઓના અંદરના આચાર વિચારથી રહિત પરંતુ ઉપરથી સાધુ જેવો દેખાવ રાખતો એક સાધ્વાભાસ શિષ્ય રહેતું હતું. તે દિન દહાડે આધા કર્માદિ દોષોથી દૂષિત અનેષણીય આહારાદિક ગ્રહણ કરતો. અને ઉપરના દેખાવમાં સંવેગભાવથી ઘણા જોરશોરથી પ્રતિકમણના સમયે આલેચના કર્યા કરતો. ગુરૂ મહારાજ એને પ્રાયશ્ચિત્ત દેતી વખતે કહેતા કે જુઓ આ કેટલે ભદ્રપરિણામી જીવ છે જે પિતાના હાર્દિક ભાવેને નહીં છુપાવતાં ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रियदर्शिनी टीका. अ. १ गा. ४ अविनीतशिष्यदृष्टान्तः समालोचयति, सुखं हि आसेवना क्रियते, दुःखं चेत्थमालोचयितुम् , तस्मादयं शाठ्यहीनः शुद्ध इति । एवं तं गुरुणा प्रशस्यमानं दृष्ट्वाऽन्येऽपि अगीतार्थश्रमणाः प्रशंसन्ति चिन्तयन्ति च-दोपासेवनायामसकृदापतितायामपि न कश्चिदोषः, आलोचनयैव सकलदोषपरिहारसंभवात् । अथान्यदा तत्र संविग्नगीतार्थः कश्चिदाचार्यः शिष्यगणपरिवृतः समायातः । स च प्रतिदिनं तमेव व्यतिकरं विलोक्याचार्यमब्रवीत्-हे महाभाग ! शासनप्रभावक! भव्यभास्कर ! अयमविनीतः खलुशिष्यो करता है। जो मुनि इस प्रकार से अपने अतिचारों की आलोचना करता है उसी की आलोचना करना ठीक है। ऐसीआलोचना से ही दुःखों का विनाश होता है। इस प्रकार अन्य शिष्योंने जब गच्छाचार्य को उसकी प्रशंसा करने में रत देखा तो अगीतार्थ शिष्य भी उसकी प्रशंसा करने लगे । तथा साथ २ में यह भी धारणा उनके चित्त में जम गई कि बार २ दोषों की आसेवना करने पर भी हरकत नहीं है, क्योंकि दोष करने पर भी उन दोषोंकी शुद्धि आलोचना से हो जाती है, नहीं तो इस मुनिकी प्रशंसा हमारे आचार्य क्यों करते, और क्यों यह दोषों का आसेवन करता हुआ भी उनकी आलोचना करता है। एक दिन की बात है कि वहां संविग्न गीतार्थ-( क्रियापात्र ) कोई आचार्य महाराज अपनी शिष्यमंडलीसहित आये। उन्हों ने जब वहां इस अविनीत शिष्य के इस प्रकार के प्रतिदिन के व्यवहार को देखा तो वे आश्चर्य पाये और गच्छाचार्य से कहने लगे कि-हे महाभाग ! शासनप्रभावक । લાગેલા અતિચારોની શુદ્ધ આલોચના કરે છે. જે મુનિ આ રીતે પિતાના અતિચારેની આલોચના કરે છે. તેવી આલોચના કરવી ઠીક છે. આવી આલેચનાથીજ દુઃખોનો વિનાશ થાય છે. આ પ્રકારે અન્ય શિષ્યોએ જ્યારે ગુરૂ મહારાજને તેની પ્રશંસા કરવામાં રત જોયા ત્યારે બીજા શિષ્ય પણ તેની પ્રશંસા કરવા લાગ્યા. અને સાથે સાથે એવી ધારણા એમના ચિત્તમાં ઠસી ગઈ કે વારંવાર દેનું સેવન કરવામાં પણ હરકત નથી કેમકે દોષ કરવા છતાં પણ તેવા દેશેની શુદ્ધિ આચનાથી થઈ જાય છે. નહીં તે આ મુનિની પ્રશંસા અમારા આચાર્ય કયા કારણે કરત. તેમ આવા દોષોનું આસેવન કરવા છતાં પણ તે તેની આલોચના કરે છે. એક દિવસની વાત છે કે ત્યાં કેઈ અન્ય આચાર્ય મહારાજ પિતાની શિષ્યમંડળી સાથે આવ્યા. તેઓએ જ્યારે ત્યાં તે અવિનીત શિષ્યના આ પ્રકારના દરરોજના વહેવારને જે તે તેમને આશ્ચર્ય થયું અને આચાર્ય મહારાજને કહેવા લાગ્યા કે ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२ उत्तराध्ययन जन्मजरामरणगर्तपातनाय पञ्चविधास्रवरूपः क्षान्त्यादिगुणकमलनिकरनाशनाय भयंकरतुषारनिकरस्वरूपः, चारित्रविध्वंसने धूमकेतुः सकलास्रवहेतु:, मुनि मण्डलाखण्डशशिमण्डले राहुरिख, मायाजालेन भव्यमृगबन्धने भिल्ल इव, धर्मोद्यानदहने तरुकोटरवह्निरिव गच्छे वर्तते । भवानित्थमस्य प्रशंसां कुर्वन् क्षितीश इव लक्ष्यते । आचार्येणोक्तम् - कोऽसौ क्षितीश: ? कीदृशी तस्य वार्ता ? आप भव्य जीवोंके विकसित करने में यद्यपि सूर्य के तुल्य हैं तो भी आपकी छत्रच्छाया में रहकर भी जो कुमुद ही बना रहे, अर्थात् - आचार विचार से सदा शिथिल रहे उस मन्दभागी के लिये क्या कहा जाय । आप के इस गच्छ में एक अविनीत शिष्य है, जो इस गच्छ का कलंक स्वरूप है, क्यों कि अविनीत शिष्य जन्म जरा एवं मरणरूपी खड्डे में पाड़ने के लिये पंचविध आस्रवरूप माना गया है, जिस प्रकार तुषार-हिम का पुंज कमलों के वन को विध्वस्त करने में कसर नहीं रखता है उसी प्रकार अविनीत शिष्य भी क्षान्त्यादि गुणों को नष्ट भ्रष्ट करने में जरा भी आगे पीछे का विचार नहीं करता है । अविनीत शिष्य चारित्र के विनाश करने के लिये धूमकेतु के जैसा माना गया है। सम्पूर्ण आस्रवों का यह कारण बतलाया गया है । मुनिमंडलरूप अखंड चन्द्रमण्डल को ग्रसन करने के लिये विद्वानों ने इस को राहु के जैसा कहा है । यह अपनी माया - जालसे अन्य विचारे भोले भाले भव्यजीवरूपी मृगों હે શાસન પ્રભાવક ! આ ભવ્ય જીવેાને વિકસિત કરવામાં જે કે સૂના તુલ્ય છે! તે પણ આપની છત્રછાયામાં રહીને પણ જે કુમુદ જ બની રહે અર્થાત્ આચાર વિચારથી સદા શિથિલ રહે તેવા મંદભાગી માટે શું કહેવામાં આવે. આપના આ ગચ્છમાં એક અવિનીત શિષ્ય છે-જે આ ગચ્છમાં કલકસ્વરૂપ છે કેમકે અવિનીતજન જન્મ, જરા, અને મરણરૂપી ખાડામાં પાડવાવાળા પંચવિધ આશ્રવરૂપ માનવામાં આવેલ છે. જે પ્રકારે તુષાર અર્થાત (બરફ) હીમનો પુંજ કમળના વનનો નાશ કરવામાં કસર રાખતા નથી તેમ અવિનીત શિષ્ય પણ ક્ષાન્ત્યાદિ ગુણાને નષ્ટ ભ્રષ્ટ કરવામાં આગળ પાછળનો વિચાર કરતા નથી. વિનીત શિષ્ય ચારિત્રનો વિનાશ કરવા માટે ધૂમકેતુ જેવા માનવામાં આવેલ છે. સંપૂર્ણ આશ્રવનુ એ કારણ બતાવવામાં આવ્યું છે. મુનિમ’ડળરૂપ અખડચદ્રમંડળને ગ્રહણ કરનારા રાહુ જેવા વિદ્વાનોએ કહેલ છે તે પેાતાની આ અવનીતતા રૂપી જાળથી અન્ય બીચારા ભેાળા ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર ઃ ૧ Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रियदर्शिनी टीका. अ० १ गा. ४ अविनीतशिष्यबहिष्कारः आगतेनाचार्येण कथितम् गिरिनगरनिवासी कश्चिदग्निभक्तो वणिक् पद्मरागरत्नैर्भवनं पूरयित्वा प्रतिवर्ष वहिना प्रदीपयति । तत्रत्यमन्दबुद्धिनृपतिसभायां स वणिक् प्रशंसितः-अहो धन्योऽयं वणिक् यदनेन वह्निदेवः पद्मरागरत्नैः संतप्यते । तदनन्तरमेकदा प्रबलपवनपटलप्रेरितस्तत्मदीपितदहनः सराजप्रासादं समस्तमपि तन्नगरं दहतिस्म । ततोऽसौ वणिक् राज्ञा दण्डितो नगरान्निष्कासितः, तदेवं राज्ञा को बांधने में भिल्ल के जैसा सिद्धहस्त होता है। धर्मरूपी उद्यान को नष्ट करने के लिये यह तरुकोटरान्तर्गत वह्निकी ज्वाला के समान दारुण और विनाशकारी माना गया है। आप जैसे गच्छाधिपति को इस अविनीत की प्रशंसा करते हुए देख कर मुझे उस राजा की कथा याद आती है गिरिनगरनामक एक शहर में अग्निभक्त कोई एक बनिया रहता था, जो प्रतिवर्ष अपने भवन को पद्मराग मणियों से भर कर जला दिया करता था। उसके इस कार्यकी प्रशंसा वहां के मन्दबुद्धि नामक राजा तथा प्रजा सभी मुक्तकंठ से करते थे। वे कहते थे-धन्य है यह अग्निभक्त जो अग्नि की प्रतिवर्ष इस प्रकार से पूजा किया करता है। एक दिन की बात है कि उस वणिक् ने ज्यों ही अपना मकान जलाया कि इतने में बड़ी भारी आंधी का एक प्रबल वेग आया, और उससे प्रज्वलित हो उस अग्निज्वाला ने उस नगर को भस्म कर दिया। ભાળા ભવ્ય જીવરૂપી મૃગેને બાંધવામાં ભિલની માફક સિદ્ધહસ્ત હોય છે. ધર્મરૂપી બાગનો નાશ કરવા માટે આ તરૂકેટરાન્તર્ગત અગ્નિની જવાલા સમાન દારૂણ અને વિનાશકારી માનવામાં આવેલ છે. આપ જેવા ગચ્છાધિપતિને આવા અવિનીતની પ્રશંસા કરતા જોઈ મને એક રાજાની વાત યાદ આવે છે – ગિરિનગર નામના એક શહેરમાં અગ્નિભક્ત એ એક વણીક રહેતો હતે જે દર વરસે પિતાના મકાનને પદ્મરાગ મણીઓથી ભરી બાળી નાખતો. તેના આ કાર્યની પ્રશંસા રાજા અને પ્રજા બધા મુક્તકંઠે કરતા હતા અને કહેતા હતા કે-ધન્ય છે આ અગ્નિભક્તને કે જે દરવરસે અગ્નિની આ પ્રકારથી પૂજા કર્યા કરે છે. એક દિવસની વાત છે કે એ વણીકે પિતાનું મકાન સળગાવ્યું એ સમયે ભારે જોરશોરથી પવનની આંધી ચઢી આવી વેગવાળી પવનની આંધીને લઈ અગ્નિ જોશભેર પ્રજવલિત બન્યો અને તેના અંગારા શહેરભરમાં ફરી વળતાં આખું શહેર અને રાજાના મહેલમાં પણ અગ્નિશાખાઓ ફરી વળી અને સારૂંએ શહેર તથા રાજમહેલ પણ નાશ પામ્યું. રાજાએ આથી અસંતુષ્ટ બની એ વણકને ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४ उत्तराध्ययनसूत्रे तस्य प्रशंसां कुर्वता आत्मा नगरं लोकश्च नाशितः । तथा भवानपि अस्याविधि - प्रवृत्तस्य प्रशंसां कुर्वन् आत्मानं समस्तगच्छं चोच्छेदयति । ततस्तद्वचनं श्रुत्वा स आचार्यः साध्वाभासमविनीतं शिष्यं स्वगच्छतो निष्कासितवान् । तस्माद् दुःशीलस्य निष्कासनं श्रेयस्करम् ॥ ४ ॥ देखते २ वह समस्त नगर उस राजा के महलसहित एकदम जल कर नष्ट हो गया । राजाने इससे असंतुष्ट हो उस वणिक को दण्डित करके अपने नगर से बाहर निकाल दिया। राजा जो पहिले से उस वणिक के इस कार्य की प्रशंसा न करता तो उसका होसला आगे भी इस कार्य को करने के लिये नहीं बढता । समस्त नगर एवं राजमहल जो नामशेष हुए उसका प्रधान कारण उस राजा की ही नासमझी है। इसी तरह साधु के अकल्पनीय कार्य में प्रवृत्त इस अविनीत शिष्य की जो आप प्रशंसा करते हैं उससे इसका हौसला बढता है, आगे भी अकल्पनीय कार्य करने में सोत्साह बनता है । जिसका अन्तिम फल होगा गच्छका उच्छेद, और इस उच्छेदजन्य दोषों के भागी होना पड़ेगा आप को, अतः आपका अपनी और गच्छकी रक्षानिमित्त इस अविनीत को गच्छ से बाहर कर देने में ही श्रेय है । इस प्रकार आये हुवे आचार्य महाराज के कथन पर अच्छी तरह ध्यान देकर गच्छाचार्यजीने उस अविनीत शिष्य को अपने गच्छ से बाहर कर दिया । क्यों कि दुःशील शिष्य का गच्छ से संबंधविच्छेद करना श्रेयस्कर ही माना गया है ॥ ४॥ સારી રીતે દંડ કરવા ઉપરાંત તેને પેાતાના શહેરમાંથી કાઢી મૂકયો. રાજા જો વણીકના એ કાર્યની પ્રશંસા ન કરત તો એ વણીકની તાકાત નહાતી કે દર વરસે આ પ્રમાણે અગ્નિવાલા પ્રગટાવી શકે. સમસ્ત શહેર અને રાજમહેલ ખળી ગયાં તેનુ પ્રધાન કારણ એ રાજાની મીનસમજદારી જ છે. એ રીતે સાધુના અકલ્પનીય કાર્યમાં પ્રથમ આ અવિનીત શિષ્યની આપ પ્રશંસા કરા છે, એથી એ પેાતાના મનમાં ફુલાઈને આગળ ઉપર આથી પણ વિશેષ અકલ્પનીય કાર્યમાં આગળ વધશે. જેનુ અંતિમ ફળ ગચ્છના ઉચ્છેદમાં આવવાનું અને એ ઉચ્છેદજન્ય દાષાના ભાગી આપને બનવું પડશે. આથી આપની અને ગચ્છની રક્ષા માટે આ અવિનીતને ગચ્છમાંથી મહાર કરી દેવામાંજ શ્રેય છે. આ પ્રકારે આવેલા આચાય મહારાજના કહેવા ઉપર સારી રીતે ધ્યાન દઈ ગચ્છાચાર્યજીએ એ અવિનીત શિષ્યને પેાતાના ગચ્છથી બહાર કરી દીધા. કેમકે દુઃશીલ શિષ્યનો ગચ્છથી વિચ્છેદ કરવા એ શ્રેયસ્કર માનવામાં આવેલ છે (૪). ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર ઃ ૧ Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रियदर्शिनी टीका. अ० १ गा. ५ अविनीतप्रवृत्तौ सूकरदृष्टान्तः ४५ ननु दुःशीलं सकलानर्थमूलं चेत् अविनीतेन कथं तर्हि तत्रानुरज्यते ? इत्याकाङ्कायां दुःशीलरतिकारणं सदृष्टान्तं प्रतिबोधयितुमाहमूलम्-कणकुंडगं चइत्तो णं; विट्ठ भुंजई सूर्यरो । एवं सीलं चइत्तों णं, दुस्सीले रमई मिए ॥ ५॥ छाया कणकुण्डकं त्यक्त्वा खलु, विष्टां मुड़े मूकरः । एवं शीलं त्यक्त्वा खलु, दुःशीले रमते मृगः ॥ ५ ॥ टीका'कणकुंडगं' इत्यादि । सूकरः खलु कणकुण्ड कम्-तण्डुलपूर्णभाजनम्इदमुपलक्षणम्-रुचिरं मधुरं सुस्वादं सुगन्धयुक्तं त्वङ्मांसादिपुष्टिकरं हितकरं यत् तण्डुलादिकं, तेन पूर्ण यद्भाजनमुपस्थितं तदिति भावः, त्यक्त्वा विष्टां भुड़े, अत्र विष्टामित्यनेन अपवित्रां घृणोत्पादिकां रुजाकरां हेयां दुर्गन्धां कृमिमक्षिकादिपरिपूर्णामित्यर्थों ध्वनितः । एवम् अमुना प्रकारेण मृगः-मृग इव मृगः अज्ञःहिताहितविवेकवर्जित इत्यर्थः, शीलं मूलोत्तरगुणलक्षणं साध्वाचारं, यद्वा-विनयसमाधिलक्षणं त्यक्त्वा दुःशीले दुराचारे अविनयलक्षणे रमते आसज्यते । अयं भावः-यथा सूकरः प्रशस्तमाहारं विहाय नितान्तमशुचिं सादरं भुले, अज्ञत्वात् , ____ यदि दुःशील सकल अनर्थों की जड़ है तो फिर क्यों अविनीत उसमें अनुरक्त होता है? इस प्रकार की शंका के समाधान निमित्त दुःशील में रतिका कारण दृष्टान्त देकर सूत्रकार समझाते हैं-कणकुंडगं. इत्यादि । ___ अन्वयार्थ-जैसे-(सूयरो-शूकरः) सूकर ( कणकुंडगं-कणकुंडकं) तन्दुल-आदि उत्तम भोजनीय पदार्थों से भरे हुए भाजन को (चइत्ता) परित्याग कर (णं-खलु) निश्चय से आनंद के साथ (विट्ठ-विष्टां) विष्टा-अशुचिको (भुंजइ-भुक्ते ) खाता है ( एवं ) इसी तरह (मिए જે દુરશીલ સકલ અનર્થોની જડ છે તે પછી અવનીત એમાં કેમ અનુરક્ત થાય છે. આ પ્રકારની શંકાનું સમાધાન કરવા નિમિત્ત દુરશીલમાં तिनु दृष्टांत मापी सूत्र४२ समावे छे—'कणकुंडगं.' इत्यादि मन्वयार्थ-म (सूयरो-शूकरः) सु४२ (भू) (कणकुंडगं-कणकुंडकं ) योगावगेरे उत्तम मानिन। पहाथी सारेसान पात्रने। (चइत्ता) त्याग ४२१ (ण-खलु) निश्चयथी. मान साथे (विटुं-विष्टां) विष्टा--मशुथिने (भुंजइ ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययनसूत्रे यथा वा हिताहितविवेकरहितत्वान्मृगः स्वापायमपश्यन् गानतानश्रवणमोहितः सन् व्याधमभिसरति, एवंम्-अज्ञानतिमिरसंवृतात्मा खलु संसारवारिधिमहातरणिं शिवपदसरलसरणिं सिद्धिपददायकं सकलगुणनायकम् , अनादिभवसंचिताष्टविधकर्मबन्धनोच्छेदकं मिथ्यात्वग्रंथिभेदकं सम्यग्ज्ञानसुधावर्षणशीलं शीलं प्रविहाय मृगः ) विवेक रहित होने के कारण मृग जैसा यह अविनीत शिष्य भी (सीलं-शीलं) मूलोत्तरगुणरूप अथवा विनयसमाधिरूप साधुसंबंधी आचार को ( चइत्ता-त्यक्त्वा ) परित्याग कर (णं-खलु) निश्चय से (दुस्सीले-दुःशीले) अविनयरूप दुराचार का ( रमइ-रमते) सेवन करता है ॥५॥ भावार्थ-बोधविकल होने के कारण जैसे सूकर प्रशस्त आहार का परित्याग कर नितान्त अशुचि पदार्थका बड़े आनंदके साथ सेवन करता है, तथा हिताहित विवेक से रहित होनेकी वजह से जैसे मृग भविष्य में होने वाली आपत्ति को नहीं जानता हुआ गान के सुनने में एकतान होकर अपने आप व्याध की जाल में फस जाता है, उसी तरह अज्ञानरूपी अंधकार से आच्छादित हुआ अविनीत शिष्य भी संसाररूपी समुद्र से पार लगाने के लिये बड़े सुरक्षित जहाज जैसे, तथा शिवपद में लेजाने के लिये सुन्दर सीधे मार्ग जैसे, एवं सिद्धिपद को भुंक्ते) पाय छ (एव) २॥ प्रमाणु (मिए-मृगः) वि३४२जित थवाने ४।२णे भृ॥ देवा - अवनीत शिष्य ५५५ (सीलं-शील) भूटोत्तर शुष्णु३५-५थवा विनय समाधि३५ साधुसमाधी माया२ने। ( चइत्ता-त्यक्त्वा ) परित्याग ४ (णं-खलु) निश्चयथा (दुस्सीले-दुःशीले) विनय३५ हुराया२नु ( रमइ-रमते ) सेवन ४२ छे. ભાવાર્થ... બાધવિકલ હોવાને કારણે જેમ સૂકર (ભંડ) પ્રશસ્ત આહારને પરિત્યાગ કરી નિતાન્ત અશુચિ પદાર્થનું ભારે આનંદથી સેવન કરે છે. અને હિતાહિત વિવેકથી રહીત હોવાના કારણે જેમ મૃગ ભવિષ્યમાં આવનારી આપત્તિને જાણતા નથી, કારણકે સંગીતના સુરેમાં એકતાન બનીને પતે પિતાના હાથે શીકારીની જાળમાં ફસાઈ જાય છે. એવી રીતે અજ્ઞાનરૂપી અંધકારથી આચ્છાદિત બનેલા અવિનીતશિષ્ય પણ સંસારરૂપી સમુદ્રથી પાર કરવાવાળા મેટામાં મોટા સુરક્ષિત જહાજ જેવા તથા શિવપદમાં લઈ જવાવાળે સુંદર સીધા માર્ગ જેવા અને સિદ્ધિ પદને આપનાર એવા શીલ–અર્થાત્ મુનિના ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रियदर्शिनी टीका. अ० १ गा. ५ अज्ञानविषये सूकर दृष्टान्तः ज्ञानावरणीयादिकर्मरजः समुत्पादकं क्षान्त्यादिगुणघातकं मूलोत्तरगुणकल्पपाद - पोन्मूलकं शुभभावनाऽम्भोजनिकर नीहारपटलं सकलानर्थमूलं धर्ममर्यादाविध्वंसनशीलं दःशीलं सेवते । अज्ञानं हि सर्वानर्थकरं विवेकहरं कष्ट कण्टकानुविद्धं सकलदुर्गुणसमिद्धं तपःसंयमविनाशकं प्रमादजनकं स्वर्गापवर्गसुखहारकम् । ४७ देने वाले ऐसे शील- अर्थात् मुनि के आचार का परित्याग कर देता है। यह शील सकल गुणों में प्रधान माना गया है । जीव के साथ अनादिकाल से लगे हुए अष्टविध ज्ञानावरणीय आदि कर्मों के बंध का उच्छेद करने वाला बतलाया गया है । मिथ्यात्वरूपी प्रबलग्रन्थि - (गांठ) का यह भेद करने वाला है । सम्यग्ज्ञानरूपी अमृत की वृष्टि करना इसका स्वभाव है । ऐसे प्रशस्त उपकारक इस शील का वह अविनीत शिष्य परित्याग करके दुःशीलका सेवन किया करता है । यह दुःशील शिष्य ज्ञानावरणीयादिक कर्मरूपी धूलीको अपनी आत्मा में चिपकाने वाला है । क्षान्ति आदि सद्गुणों का ध्वंसक है। मूलगुण एवं उत्तरगुणरूप कल्पवृक्ष का उन्मूलक है । शुभभावनारूपी कमलों को नष्ट-भ्रष्ट करने के लिये तुषारपात - अर्थात् हिमवर्षा जैसा है। सकल अनर्थों का यह मूल है। ऐसे धार्मिक मर्यादा को उखाड़ने के स्वभाववाले इस दुःशील का वह अविनीतशिष्य सेवनकर हिताहित को नहीं समझता है । यह कितने आश्चर्य की बात है कि जिस विनयमूल धर्म से अपनी आत्मा का उद्धार होता है उसका वह अविनीत त्याग कर अपकारक दुःशील આચારનો પરિત્યાગ કરી દે છે. આ શીલ સકલ ગુણામાં પ્રધાન મનાયેલ છે. જીવની સાથે અનાદિકાળથી લાગેલા આઠ પ્રકારના જ્ઞાનાવરણીય આદિકના મધનોનો ઉચ્છેદ કરવા વાળા ખતાવેલ છે. મિથ્યાત્વરૂપી પ્રમળ ગ્રંથીનો આ ભેદ કરવાવાળા છે, સમ્યગજ્ઞાનરૂપી અમૃતની વૃષ્ટિ કરવી તેનો સ્વભાવ છે, એવા પ્રશસ્ત ઉપકારક આ શીલનો તે અવિનીત શિષ્ય પરિત્યાગ કરીને દુઃશીલનું સેવન કરે છે. આવેા દુઃશીલ શિષ્ય જ્ઞાનાવરણીયાદિક કર્માંરૂપ ધૂળને પેાતાના આત્મામાં ચાંટાડનાર છે. ક્ષાન્તિ આદિ સદ્ગુણાનો નાશ કરનાર છે. મૂળગુણુ ઉત્તરગુણુરૂપ કલ્પવૃક્ષનો ઉન્મૂલક–નાશ કરનાર છે. શુભ ભાવનારૂપી કમલાને નષ્ટ ભ્રષ્ટ કરવા માટે તુષારપાત–અર્થાત હિમવર્ષા જેવા છે. સકળ અનર્થાનુ એ મુળ છે. એવા ધાર્મિક મર્યાદાને ઉખાડવાની વૃતિવાળા આવા દુશીલનુ તે અવિનીતજન સેવન કરી હિતાહિતને સમજતા નથી. આ કેવા આશ્ચયની વાત છે કે જે વિનય મુળ ધર્મથી પોતાના આત્માનો ઉધ્ધાર થાય છે. તેનો ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર ઃ ૧ Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्य अस्मिन्नर्थे सूकरदृष्टान्तः प्रदर्श्यते बङ्गदेशेक्षितिप्रतिष्ठितनगरेऽरिमर्दननामा नृपो बभूव । तस्य सप्त कन्यका आसन् । स भूपतिस्तासां कन्यकानां यौवने वयसि प्राप्ते ता एकैकक्रमेण विवाहिताः। तत्रैका कन्यका कर्मयोगतो विवाहानन्तरमचिरेणैव कालेन पतिहीना जाता । एकदा सा गवाक्षे स्थिता कुतश्चित् समागतां समुतां मूकरीं दृष्ट्वा चिन्तयामास-अहो ! धन्यमस्या जन्म, यदियं बहुभिरपत्यैः साधं विचरन्ती सुखमनुभवति । इति विचिन्त्य सा स्वदासीमब्रवीत्-अत्रैकं सूकरशिशुं समानय । तदाज्ञया को सेवता है । अज्ञान की महिमा अपार है। समस्त अनर्थों की जड़ एक अज्ञान ही तो है। अज्ञान आते ही पहिले वह विवेक पर ही कुठारा घात करता है। जिस आत्मा से विवेक का लोप हो जाता है उस आत्मा में विविध कष्टरूपी कांटे खडे हो जाते है। यह अज्ञान अनेक प्रकार के दुर्गुणों को उत्पन्न करता है । तथा तप और संयम का विनाशक है, यह प्रमाद को उत्पन्न करनेवाला है, तथा स्वर्ग और मोक्ष के सुखोंका विघातक है । इस पर सूकर का दृष्टान्त इस प्रकार है___ बंगदेश में क्षितिप्रतिष्ठित नामका एक सुन्दर नगर था। अरिमर्दन नामका राजा उसका शासक था। इसके सात कन्याएँ थीं। राजा ने इनका क्रमशः जब वे तरुण अवस्थावाली हो चुकी विवाह कर दिया। कर्मकी विचित्रतावश एक लड़की विवाह के बाद ही विधवा हो गई। તે અવિનીત ત્યાગ કરી અપકારક દુરશીલને સેવે છે. અજ્ઞાનની મહિમા અપાર છે. સમસ્ત અનર્થોની જડ એક અજ્ઞાન જ છે. અજ્ઞાન આવતાની સાથે જ તે સહુ પ્રથમ વિવેક ઉપર જ ઘા કરે છે. જે આત્મામાંથી વિવેકનો લોપ થઈ જાય છે એ આત્મામાં નાના પ્રકારના કષ્ટરૂપી કાંટાઓ બીછાવાઈ જાય છે. એ અજ્ઞાન અનેક પ્રકારના દુર્ગુણને ઉત્પન્ન કરે છે. તથા તપ અને સંયમનો વિનાશ કરે છે. એ પ્રમાદને ઉત્પન્ન કરનાર છે તથા સ્વર્ગ અને મેક્ષના સુખનો નાશ કરનાર છે. આ ઉપર સૂકરનું દૃષ્ટાંત આ પ્રકારે છે. બંગદેશમાં ક્ષિતિ પ્રતિષ્ઠિત નામનું એક સુંદર નગર હતું. અરિમર્દન નામના રાજાનું શાસન હતું, તેને સાત કન્યાઓ હતી રાજાએ તેને ક્રમ પ્રમાણે જેમ જેમ ઉમર લાયક થતી ગઈ તેમ તેમ તેના વિવાહ કરી આપ્યા. કર્મની વિચિત્રતાવશ એક પુત્રી વિવાહ પછી વિધવા બની. એક દિવસની વાત છે કે ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रियदर्शिनी टीका. अ० १ गा. ५ अविनीतप्रवृतौ सूकरदृष्टान्तः ४९ दासी मूकरीसंनिधौ गत्वा तदीयशिशुं समानीय राजपुत्र्यै समर्पयामास । सा च राजपुत्री वात्सल्येन स्करशिशुं पालयन्ती कदाचित्तमङ्के स्थापयति, स्नापयति, तदङ्गं करेण पोञ्छयति, कदाचित् तदङ्गसंलग्नां धूलिमपसारयितु माजयति, विविध मिष्टान्नं भोजयति, मृदुलशय्यायां स्वसमीपे स्वापयति । सा राजपुत्री तस्य सूकरशिशोगले चरणेषु च सकिङ्किणीकं स्वर्णाभरणं रचयति, पृष्ठोपरि बहुमूल्यक विविधवर्णरञ्जितं 'झूल' इति प्रसिद्धं स्वर्णजटितवस्त्रं च वितरति । एवं सा राजपुत्री पुत्रवत् सूकरशिशुं लालयतिस्म । एक दिनकी बात है कि जब यह अपने महलके झरोखे में बैठी हुई बाहर की ओर निहार रही थी कि सहसा इसकी दृष्टि एक सूकरी पर पड़ी, जो अपने बच्चोंको संगमें लिये हुए वहीं पर इधर-उधर फिर रही थी। उसे देखकर उसने मन में विचार किया कि यह सूकरी मेरी अपेक्षा अधिक श्रेष्ठ है, जो कम से कम अपने बच्चों के साथ घूमा करती है। इस अवस्था में इसे जो आनंद मिलता है वह यही जान सकती है। एक मैं अभागिनी हूं जो राजमहल में रहती हुई भी इस प्रकार के सुख से वंचित बनी हुई हूं। इस प्रकार का विचार कर उसने अपनी एक दासी को बुलाया और कहा कि जाओ और इन सूकरी के बच्चों में से एक बच्चे को ले आओ। आज्ञा पाते ही दासी सूकरी के पास पहुँची और वहां से एक बच्चे को उसने उस राजपुत्री के लिये लाकर दे दिया। राजपुत्री ने भी बडे आनंद के साथ उसका पालन पोषण करना प्रारंभ कर दिया। इस सिलसिले में कभी वह उसे अपनी गोद में बैठा लेती, જ્યારે એ પિતાના મહેલના ઝરૂખામાં બેઠી બેઠી બહાર જોઈ રહી હતી, કે સહસા તેની દષ્ટી એક ભૂંડણ ઉપર પડી. જે પિતાના બચ્ચાઓને સાથમાં લઈને આમતેમ ઘુમી રહી હતી તેને જોઈને રાજકન્યાએ મનમાં વિચાર કર્યો કે આ સૂકરી મારા કરતાં ઘણી સુખી છે, જે પિતાના બચ્ચાઓ સાથે લઈને ફરે છે, આ અવસ્થામાં એને જે આનંદ મળતો હશે તે એજ જાણતી હશે. એક હું જ એવી અભાગણી છું કે રાજમહેલમાં રહેવા છતાં પણ આ પ્રકારના સુખથી વંચિત બનેલ છું. આ પ્રકારનો વિચાર કરી તેણે પિતાની એક દાસીને બોલાવી અને કહ્યું કે જાઓ અને એ સૂકરીના બચ્ચામાંથી એક બચ્ચું લઈ આવે. આજ્ઞા મળતાં જ દાસી સૂકરીની પાસે પહોંચી અને ત્યાંથી એક બચ્ચે લઈ રાજપુત્રી પાસે આવી તેને સુપ્રદ કર્યું. રાજપુત્રીએ તેનું સારી રીતે પાલન પિષણ કરવાનું શરૂ કર્યું. આ ઉત્સાહમાં તે કઈ વખત સૂકરીના બચ્ચાને પ્રેમથી પિતાના ખોળામાં બેસારી દેતી, કયારેક તેને નવડાવતી ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययनसूत्रे एकदारिमर्दनस्य भवने कंचिदुत्सव निमित्तीकृत्य सर्वाः कन्यकाः समायाताः। प्रेम्णा परस्परं ता ऊचुः—अद्यास्माभिः सर्वाभिः सहैव भोजनं कर्तव्यम् , तदाऽसौ दुर्भगा राजपुत्री जगाद-यद्यनेन मम प्रियशिशुना सह यूयं भोजनं कुरुत, तर्हि युष्माभिः साकं मया भोक्तव्यं नान्यथा, ततोऽन्याभिस्तस्याः सर्वभगिनीभिस्तद्वचनं नाङ्गीकृतम् । तदा पृथक् पृथगेव सर्वाः स्व-स्व-शिशुभिः कभी उसको स्नान कराती । और स्नान कराकर फिर उसका शरीर भी पोंछती । कभी कभी यह उसके शरीर पर लगी हुई धूलीका मार्जन करती । विविध मिष्टान्न खिलाती । नरम-मृदुल-शय्या पर उसे अपने ही पास सुलाती। इतने मात्र से ही वह राजपुत्री संतुष्ट नहीं रहती किन्तु वह उस बच्चे के गले में और पैरों में सुवर्ण रचित बहुमूल्य आभरणों को भी पहिराती । जिनमें छोटी-छोटी बजती हुई घंटियां लगी रहती थी। उसकी पीठ पर वह झूल भी ओढाती जो बहुत कीमती होती तथा अनेक प्रकार के रंगविरंगे रंगों से रंजित रहा करती। और जिस झुलमें सुनहरी काम बना रहता। इस प्रकार वह राजपुत्री उस सूकर के बच्चे का लालन पालन करने में तत्पर रहने लगी। एक समय की बात है कि राजा अरिमर्दनने अपनी समस्त कन्याओं को किसी उत्सव के समय आमंत्रित किया और कन्यायें आयीं, बहुत समय के बाद उन सबको परस्पर मिलने से बहुत ही आनंद हआ। सबने विचार किया कि आज हम सब मिलकर एक ही साथ भोजन करें। यह सुनकर उस અને નવડાવી તેના શરીરને સાફ કરતી, કયારેક કયારેક તેના શરીર ઉપર ઉડેલી ધુળને સાફ કરતી, વિવિધ મિષ્ટાન્ન ખવડાવતી અને સુંવાળી એવી શૈયા ઉપર પિતાની પાસે સુવાડતી. આટલાથી જ રાજપુત્રીને સંતોષ ન થત પરંતુ તે બચ્ચાના ગળામાં અને પગમાં સેનાના બહુ મુલ્ય અલંકારો પણ પહેરાવતી જેમાં નાની નાની ટેકરીઓ–ઘુઘરીઓ લગાડવામાં આવતી એની પીઠ ઉપર ઝુલ પણ ઓઢાડતી જે ઘણી કિંમતી હતી તેમજ અનેક પ્રકારના રંગબેરંગી રંગવાળી હતી. જેમાં સેનેરી તારની કસબ કળા પણ કરવામાં આવેલ હતી. આ પ્રકારે રાજપુત્રી એ સૂકરના બચ્ચાનું લાલન પાલન કરવામાં તત્પર રહેતી. એક સમયે રાજા અરિમર્દને પોતાની સમસ્ત કન્યાઓને કેઈ ઉત્સવના પ્રસંગે આમંત્રણ આપી બોલાવી, કન્યાઓ આવી. ઘણા સમય પછી એક બીજીઓને પરસ્પર મળતાં ઘણો જ આનંદ થયો. બધી બહેનોએ મળી વિચાર કર્યો કે આજે બધી બહેનો સાથે બેસીને ભોજન કરીએ. આ સાંભળી એ વિધવા રાજપુત્રીએ કહ્યું કે જે તમે બધી બહેનો ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रियदर्शिनी टीका. अ० १ गा. ५ अविनीतप्रवृत्तौ सूकरदृष्टान्तः ५१ सह भुक्तवत्यः । सा दुर्भगाऽपि मकरशिशुना सह भोक्तुं प्रवृत्ता स्वर्णस्थाले रत्नकटोरकेषु च स्थापितं प्रशस्तं पथ्यं रुचिकरं वातपित्तकफहरं विविधमशनं पानं खाचं स्वाधं च चतुर्विधमाहारमभ्यवहरन्ती प्रेम्णा प्रथमग्रास सूकरशिशुमुखे दत्त्वा तदनु सानन्दं स्वयमश्नाति, तदाऽकस्मादेकस्या भगिन्याः शिशुना आसन्नप्रदेशे पुरीपोत्सर्गः कृतः, तमालोक्य तेन मूकरशिशुना प्रशस्तमशनं परित्यज्य पुरीषभक्षणं कृतम् । पुरीषमश्नन्तं मुकरशिशुं विलोक्य सर्वा भगिन्यः सपरिहासमब्रुवन्विधवा राजपुत्रीने कहा कि यदि आप सब जनीं मेरे इस सूकर शिशु के साथ जो भोजन करने के लिये तैयार हों तो ही मैं आपके साथ भोजन करने में सम्मिलित हो सकती हूं अन्यथा नहीं। उसकी इस बात को सुनकर उसकी अन्य बहिनोंने मंजूर नहीं किया। अतः उन सबने अपने-अपने बच्चोंके साथ पृथक्-पृथक् रूप में ही भोजन करना प्रारंभ किया। और पति विना की राजपुत्री भी अपने सूकर शिशु के साथ भोजन करने में प्रवृत्त हुई। खाने के पहिले उसने जो भोजन सुवर्णके थालों में परोसा हुआ था और सुवर्णकी कटोरियों में अलग-अलग रूपमें रखा गया था और जो प्रशस्त, पथ्य, रुचिप्रद तथा वात पित्त एवं कफ हारक था ऐसे उस विविध भांति के अशन-हलुआ पुरी आदि, पान-दुध शरबत आदि, खाद्य-द्राक्षा आदि, खाद्य-चूरण आदि, एवं चार प्रकार के भोजन में से एक-एक ग्रास अपने प्रिय उस सूकर शिशु के मुखमें देती हुई आनंद के साथ भोजन करने लगी। जब यह भोजन करने में प्रवृत्त थी कि इतने में ही एक अपनी बहिन के बच्चे મારા સૂકરના બચ્ચાની સાથે ભોજન કરવા તૈયાર હો, તે જ હું આપની સાથે ભેજન કરવામાં સામીલ થઈ શકું એ સિવાય નહીં. તેની આ વાતને બીજી બહેનોએ મંજુર ન કરી એટલે તે બધીયાએ પોતપોતાના બાળકો સાથે જુદી જુદી રીતે ભજન કરવાનો આરંભ કર્યો. અને વિધવા રાજપુત્રી પણ પિતાના સૂકર બચ્ચાની સાથે ભેજન કરવા લાગી. ખાવા બેસતાં પહેલાં એણે જે ભેજન સેનાના થાળમાં પીરસેલ હતું, જે નાની વાટકીઓમાં અલગ અલગ રીતે ગઠવવામાં આવેલ હતું જે ભજન પ્રશસ્ત, પથ્ય, રૂચીપ્રદ તથા વાતપિત અને કફ હરનાર હતું એવા વિવિધ પ્રકારના ભેજનમાં હલવા પુરી આદિ, પાન-દુધ શરબત વિગેરે ખાદ્ય-દ્રાક્ષ વગેરે, સ્વાદ્ય-ચૂર્ણ વગેરે આવા ચાર પ્રકારના ભેજનમાંથી અકેક કેળીયે પિતાના પ્રિય સૂકરના બચ્ચાના મેઢામાં દેતી દેતી વિધવા રાજપુત્રી ખુશી સાથે ભેજન કરવા લાગી. જ્યારે એ ભજન કરવામાં પ્રવૃત્ત હતી ત્યારે તેની એક બહેનના બાળકે શેડે છેટે ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययनसूत्रे भगिनि ! पश्य तवाय शिशुः किं करोति ! विष्ठां भक्षयति । अनेनैव साकमस्मान भोजयितुं समीहसे, एवं सर्वभगिनीनां वचनं श्रुत्वा लज्जिता सा राजपुत्री सूकरशिशुं तत्याज । तदनन्तरमितस्ततो भ्रमन्तं हृष्टपुष्टाङ्गं तं मूकरशिशुं विलोक्य चाण्डालः स्वगृहं नीत्वा चरणेषु बद्ध्वा वह्नौ प्रक्षिप्य कुत्सित मृत्युना हतवान् । तस्मात् दुःशीलं परित्यज्य शीलमासेवनीयम् । ॥ ५॥ ने थोड़ी दूर पर जाकर अशुचि कर दी । यह देखकर उस सूकर शिशु ने उस प्रशस्त मधुर सुस्वादु सुगन्धि पथ्य भोजन का परित्याग करके कन्या के मना करते भी शीघ्र ही दौड़कर अशुचि के पास जाकर उसका भक्षण करने लगा। सूकर शिशु को अशुचि खाते देखकर वे सभी बहिनें मजाक करती हुई अपने बहिन से बोली कि हे बहिन ! देखो तो सही आपका यह प्यारा पुत्र क्या कर रहा है। कितने आनंदसे अशुचि खाने में मग्न हो रहा है। इसी के साथ आप हम सबको भोजन करने के लिये प्रेरित करती हैं ? इस प्रकार बहिन को उन सब बहिनों ने उलाहना दिया। उलाहनेके वचन सुनकर वह उनके समक्ष अधिक लजित हुई और उस सूकर शिशु को घर से बाहिर निकाल दिया । घरसे बाहिर होजाने पर यह इधर उधर फिरने लगा । इतने में चांडाल ने इसे पकड़ लिया और घर ले जाकर चारों पैर बांधकर जमीन पर डाल दिया और उस पर घांस डालकर फिर अग्नि जलाई और જઈને અશુચિ કરી, આ જોઈ તે સૂકર બચ્ચાએ પ્રશસ્ત, મધુ, સુસ્વાદિષ્ટ, સુગંધી ભેજનને પરિત્યાગ કરીને વિધવા રાજકન્યાના રોકવા છતાં ન ફેંકાતાં ઝડપથી દેડી જઈ અશુચિ પાસે પહોંચી તેનું ભક્ષણ કરવું શરૂ કર્યું. સૂકર બચ્ચાને અશુચિ ખાતું જોઈ બધી બહેને મશ્કરી કરતાં પિલી વિધવા બહેન નને કહેવા લાગી કે હે બહેન ! જુઓ તે ખરાં તમારે એ પ્યારે પુત્ર શું કરી રહેલ છે. કેટલા આનંદથી અશુચિ ખાવામાં મગ્ન બની ગયેલ છે. આની સાથે તમે અમને ભેજન કરવાનું કહેતાં હતાં. આ પ્રકારે પેલી બધી બહેનેએ તેને મહેણું દેતાં મહેણાનું વચન સાંભળીને તે એમની સમક્ષ ખુબ શરમાઈ ગઈ અને એ સૂકર બચ્ચાને ઘરમાંથી બહાર કાઢી મૂકયું. ઘરથી બહાર થઈ જતાં તે જ્યાં ત્યાં ભટકવા લાગ્યું એટલામાં ચંડાળને હાથ તે પડી ગયું જેને પકડી તે પોતાને ઘેર લઈ ગયો અને ત્યાં લઈ જઈ ચારે પગ બાંધી જમીન ઉપર પછાડ્યું, અને તેના ઉપર ઘાસ નાખીને પછી અગ્નિ ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रियदर्शिनी टीका. अ. १ गा. ६ श्वादिदृष्टान्तश्रवणतो विनीतस्य कर्त्तव्यम् ५३ उक्तार्थमुपसंहरन् कर्तव्यमुपदिशतिमूलम्-सुणियांऽभावं साणस्स सूयरस नरस य । विणए ठविज अप्पाणं इच्छेतो हियमप्पणो ॥६॥ छायाश्रुत्वाऽभावं शुन्याः मूकरस्य नरस्य च । विनये स्थापयति आत्मानम् इच्छन् हितमात्मनः॥ ६ ॥ टीका'सुणिया.' इत्यादि -शुन्याः पूतिकर्णशुन्याः मकरस्य च एतदुभयदृष्टान्तस्य, तथा च-पुनः नरस्य-पुरुषस्य-दार्टीन्तिकतया कथितस्य दुःशीलशिष्यअग्नि जलाकर उसको अग्नि में भून दिया । इस कुमौत से उसको मारा । इस लिये सूत्रकार कहते है कि-दुःशील का त्यागकर शील सदाचार का सेवन करना चाहिये ॥५॥ इसो कथित अर्थका उपसंहार करते हुए सूत्रकार कर्तव्य का उपदेश अगली गाथा द्वारा करते हैं-'सुणिया. इत्यादि। अन्वयार्थ-(सागस्स-शुन्याः) पूतकर्णी कुत्ती के ( सूयरस्स नरस्स य-सूकरस्य नरस्य च) सूकर के और दार्टान्तिक रूप में प्रदर्शित किये गये दुःशील शिष्य के (अभाव-अनादर ) अर्थात् दुर्दशारूप अवस्था को (सुणिया-श्रुत्वा) सुनकर (अप्पणो हियं इच्छंतो-आत्मनः हितम् इच्छन् ) आत्मा के हित के अभिलाषी शिष्य (अप्पाणंआत्मानं ) अपनी आत्माको (विणए ठविज-विनये स्थापयेत् ) विनय સળગાવ્યો અને તેમાં તેને ભૂંજી નાખ્યું. આ રીતે કમોતથી તેને માર્ય. આ માટે સૂત્રકાર કહે છે કે દુઃશીલને ત્યાગ કરી શીલ-સદાચારનું સેવન ४२j M . (५) આ કહેવાયેલા અર્થને ઉપસંહાર કરીને સૂત્રકાર કર્તવ્યને ઉપદેશ २॥था द्वारा ४२ छ.-' सुणिया भावं.' इत्यादि वयार्थ -(साणस्स-शुन्याः) पूतणी इतरीन (सूयरस्स नरस्स य - सूकरस्य नरस्य च) सू४२न। मने दृष्टांति: ३५मा प्रशित ४शयेद हु:शिष्यन (अभाव-अनादर ) अर्थात् हु॥३५ २३वस्थाने (सुणिया-श्रुत्वा) समजान (अप्पणो हियं इच्छंतो-आत्मनः हितम् इच्छन् ) सामान जितना अलिशाषी शिष्य (अप्पाणं-आत्मानं) पाताना मामाने (विणए ठविज्ज-विनये स्थापयेत् ) ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययन सूत्रे , स्येत्यर्थः, अभाव-कुत्सितो भावः अभावः दुर्दशालक्षणः, स चेह भवे सर्वतो निष्कासनादिरूपः परभवे गुरोराशातनया अबोधिः, अबोधेस्तपः संयमासंभवः, संयमभावेन मोक्षमार्गानाराधनम् तेनानन्तसंसारपरिभ्रमणम् तं तथाविधमभावं तपः श्रुत्वा = गुरुसंनिधौ निशम्य आत्मनः = स्वस्य, हितं = कल्याणम् इच्छन् आत्मानं धर्म में स्थापित करता है । अथवा-भाव यह है कि कुत्ती सूकर और अविनीत शिष्यका स्वरूप सुनकर आत्महितैषी विनय शील बनें । भावार्थ - इस गाथा द्वारा सूत्रकार यह उपदेश दे रहे हैं कि जो शिष्य आत्मकल्याण का अभिलाषी है उसका कर्तव्य है कि वह इस विनयधर्मके आचरण करने में थोड़ा भी प्रमाद न करे । कारण कि अविनीत शिष्य की वह दुर्दशा होती है जो पूतिकर्णी शुनी की तथा सूकर शिशु की हुई है। अविनीत के ऊपर किसी का भी विश्वास नहीं रहता वह इस भवमें गुरु की अकृपाका भाजन बनता हुआ जगहजगह अपमान आदि दुःस्थिति को सहन करता है - और गच्छ से बाहर भी कर दिया जाता है तथा परभव में गुरु की आशातना से बोधि के लाभ से भी वंचित रहता है बोधिलाभ के विना कभी भी श्रेयस्कर मुक्ति का मार्ग उसे प्राप्त नहीं हो सकता है । क्यों कि बोधि के अभाव में सम्यक् तप और संयम नहीं होता है । सम्यक् तप संयम के अभाव से मोक्षमार्ग की आराधना नहीं होती है और मोक्षવિનય ધર્માંમાં સ્થાપિત કરે છે. અથવા ભાવાર્થ એ છે કે—કુતરી, સૂકર અને અવિનીત શિષ્યનું સ્વરૂપ સાંભળી આત્મહિતૈષી વિનયશીલ બને. ५४ भावार्थ- —આ ગાથા દ્વારા સૂત્રકાર એવા ઉપદેશ આપે છે કે જે શિષ્ય આત્મ કલ્યાણના અભિલાષી છે, એનું કર્તવ્ય છે કે તે આ વિનય ધર્મોનું આચરણ કરવામાં થોડા પણ પ્રમાદ ન કરે. કારણ કે અવિનીત શિષ્યનીં આવી દુર્દશા થાય છે જે પૂતકણી શુનીની તથા સૂકર( ભૂંડણુના બચ્ચાની) બાળકની થઇ છે, અવનીતના કાઇ પણ વિશ્વાસ કરતું નથી. તે આ ભવમાં ગુરૂની અકૃપાના ભાજન અની દરેક સ્થળે અપમાન આદિ દુસ્થિતિને સહન કરે છે. અને ગચ્છથી બહાર કરી દેવામાં આવે છે અને પરભવમાં ગુરૂની આશાતનાથી ખેાધિના લાભથી પણ વંચિત રહ્યા કરે છે. એધિ લાભ વિના કદી પણ શ્રેયસ્કર મુક્તિના માગ એને પ્રાપ્ત થઇ શકતા નથી. કેમકે એધિના અભાવમાં સમ્યક્ તપ અને સંયમ હેાતુ નથી. સમ્યક્ તપ સયમના અભાવથી મેાક્ષ માર્ગની આરાધના બની શકતી નથી. અને માક્ષમાર્ગની ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર ઃ ૧ Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रियदशिनी टीका. अ० १ गा. ६-७ श्वादिदृष्टान्तश्रवणतो विनीतस्य कर्त्तव्यम् ५५ विनये अभ्युत्थानादिगुरुशुश्रूषालक्षणे स्थापयति । उक्तं च विणया होइ य णाणं, णाणाओ देसणं तओ चरणं । चरणाहिंतो मोक्खो मोक्खे, सोक्खं निराबाहं ॥१॥ छायाविनयाद् भवति च ज्ञानं, ज्ञानाद् दर्शनं ततश्चरणम् । चरणाद् मोक्षो, मोक्षे सौख्यं निराबाधम् ॥ १॥ इति ॥६॥ अथोपसंहरन्नाहमूलम्-तम्ही विणयमेसिज्जा सील पडिलभेज्जओ। बुद्धपुत्ते नियागट्टी ने निक्कसिज्जइ कण्हुई ॥७॥ छायातस्माद् विनयमेषयेत् शीलं प्रतिलभेत यतः। बुद्धपुत्रो नियागार्थी न निष्कास्यते कुतश्चित् ॥ ७ ॥ टीका'तम्हा. इत्यादि। तस्मात् दुःशीलस्य सर्वतो निष्कासनादिरूपा दुर्गति भवतीत्युक्तरूपात् कारणात् साधुर्विनयम् एषयेत् कुर्यात् धातूनामनेकार्थत्वात् । मार्ग के आराधना के अभाव में अनंत संसार परिभ्रमण करना पड़ता है, इसलिये शिष्य को अपने परमोपकारी गुरु महाराज का विनय सदा करना चाहिये । वे जब कहीं से अपने स्थान पर आवे तो शिष्य का कर्तव्य है कि वह उनके समक्ष जावे-उन्हें देखकर अपने आसनसे उठ खड़ा होवे । उनकी शुश्रूषा आदि करता रहे। इससे विनय धर्मकी आराधना होती है । कहा भी है-विनय से ज्ञान होता है। ज्ञान से दर्शन और दर्शन से चारित्रका लाभ होता है चारित्र से मोक्ष और मुक्ति होने से इस जीव को अव्याबाध सुख की प्राप्ति होती है ॥ ६॥ આરાધનાના અભાવથી અનંત સંસાર પરિભ્રમણ કરવું પડે છે. આ માટે શિષ્ય પિતાના પરોપકારી ગુરૂ મહારાજને સદા વિનય કરે જોઈએ. તેઓ જ્યારે કયાંયથી પોતાના સ્થાન ઉપર આવે ત્યારે શિષ્યનું એ કર્તવ્ય છે કે તે તેમની સામે જાય-એમને જોઈ પોતાના આસન ઉપરથી ઉઠી ઉભા રહે અને એમની સેવા કરવામાં લાગી જાય, આથી વિનય ધર્મની આરાધના થાય છે. વિનયથી જ્ઞાન થાય છે, જ્ઞાનથી દર્શન અને દર્શનથી ચારિત્રને લાભ થાય છે. ચારિત્રથી મેક્ષ અને મુક્તિ થવાથી આ જીવને અવ્યાબાધ સુખની પ્રાપ્તિ થાય છે. દા ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययनसूत्रे विनयस्य फलमाह–सीलमित्यादि । यतः विनयात् , शील-मूलोत्तरगुणलक्षणं प्रतिलभेत-माप्नुयात् । अनेन विनस्य फलं शीलप्राप्तिरित्युक्तम् । शीलस्यापि फलं प्रदर्शयन्नाह-'बुद्धपुत्त.' इत्यादि । बुद्धपुत्रः-बुद्धस्य आचार्यस्य पुत्र इव पुत्रः-शीलधारी शिष्यः, पुत्रशिष्ययोः शिक्षणीयतया साम्यात ; अतएव नियागार्थीनियागो मोक्षस्तमर्थयतीति नियागार्थी-मोक्षाभिलाषी कुतश्चित्-कुलगणगच्छतः न निष्कास्यते न बहिष्क्रियते । अयं भावः-विनीतः कुलगणगच्छानां सर्वेषा__ अब उपसंहार करते हैं-'तम्हा.' इत्यादि । अन्वयार्थ-अतः (तम्हा-तस्मात् ) अविनीत शिष्य की सर्व जगह दुर्दशा होती है साधु का कर्तव्य है कि वह (विणयं-विनयम् ) विनयरूप धर्मका (एसिजा-एषयेत् ) पालन करे। इस विनय धर्म के पालन करनेका क्या फल है-इस बातको (सीलं पडिलभेजओ-शीलं प्रति लभेत यतः ) इस पद द्वारा सूत्रकार प्रकट करते हुए कहते हैं कि यह विनयधर्म, आचरित होने से आचरण करने वाले साधु के लिये मूलगुण और उत्तरगुणोंकी प्राप्ति कराता है। शील की प्राप्ति होने से वह शीलधारी शिष्य (बुद्धपुत्ते नियागट्टी-बुद्धपुत्रः नियागार्थी) गुरुजनों की दृष्टि में अपना पुत्र जैसा हो जाता है। क्यों कि पुत्र शिक्षणीय होता है और वैसे शिष्य भी शिक्षणीय होता है । इसी विचार से शिष्य को यहां पुत्र जैसा बतलाया गया है जब वह गुरु कृपा का पात्र हर तरह से हो जाता है तब यह बात भी स्वतः उसके हृदय में स्थान वे अपडा२ ४२ छ-'तम्हा.' त्याहि. सन्क्याथ-सटसा भाट (तम्हा-तस्मात् ) अविनीत शिष्यनी सब स्थणे ॥ थाय छे. साधुनु तव्य छ ते(विणयं-विनयम् )विनय३५ धनु (एसिज्जाएषयेत् ) पासन ४२. २मा विनय धमनु पालन ४२वानु शु छ. या पातने (सीलं पडिलभेज्जओ-शीलं प्रति लभेत यतः) मा ५४ द्वारा सूत्रा२ પ્રગટ કરતાં કહે છે કે આ વિનય ધર્મ આચરિત હોવાથી આચરણ કરવાવાળા સાધુને માટે મુળગુણ અને ઉત્તર ગુણોની પ્રાપ્તિ કરાવે છે. શીલની પ્રાપ્તિ थवाथी से शासधारी शिष्य (बुद्धपत्ते नियागढी-बुद्ध-पुत्रः नियागार्थी) ગુરૂજનની દ્રષ્ટીમાં પિતાના પુત્ર જેવું બની જાય છે. કેમકે પુત્ર શિક્ષણીય હોય છે અને આવા શિષ્ય પણ શિક્ષણીય હોય છે. આ વિચારથી શિષ્યને અહિં પુત્ર જે બતાવવામાં આવેલ છે. જ્યારે તે ગુરૂકૃપાને પાત્ર દરેક રીતે બને છે ત્યારે આ વાત પણ સ્વતઃ એના દિલમાં સ્થાન કરી જાય છે કે ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रियदर्शिनी टीका. अ० १ गा. ७ विनयफलम् मालम्बनम् । यथा श्रीखण्डचन्दनतरुः समस्तमलयाचलकाननगतान् वृक्षान् सुरभयति, यथा वा अमृतमयशीतलचन्द्रकिरणसंसर्गतो विकसत् कुमुदवनं मनोज्ञसुगन्ध शीतलपवनमनोहरचन्द्रिकाभिर्जनमनःप्रसादकं भवति, यथा वा क्षीरसागरनिर्झरी स्वासन्नवर्तिनो वृक्षगुच्छगुल्मलतावल्लीप्रभृतीन नानाविधान् वनस्पतीन् रसप्रदानेन वर्धयन्ती मोदयति, एवं विनयविभूषितः खलु शीलेन कुलगणगच्छान् मोदयन् लोके चिन्तामणिरिव संमन्यते, कल्पतरुरिव सेव्यते, निधिरिव समाद्रियते, सुधेव परिपूज्यते ॥ ७॥ कर लेती है कि मुझे अपना कल्याण करना है-अतः वह नियागार्थीमोक्षाभिलाषी बन जाता है। और इस स्थिति में उसकी प्रत्येक क्रिया एँ मोक्षप्राप्ति की ओर ही उसे ले जाने वाली होती रहती हैं, अतः वह किसी भी कुल, गणएवं-गच्छ से नहीं निकाला जाता है। भावार्थ-जिस प्रकार श्रीखण्डचंदन का वृक्ष समस्त मलयाचल के जंगल में रहे हुए वृक्षों को अपनी अपार सुगंधि से सुरभित करता रहता है । अथवा जिस प्रकार अमृतमय शीतलचन्द्र की किरणों के संसर्ग से विकसित कुमुदवन, मनोज्ञ, शीतल एवं सुगंधित वायु एवं मनोहर चांदनी के द्वारा प्रत्येक जन के मन को आल्हादित करता है। अथवा-जिस प्रकार क्षीर सागर की निझरी अपने निकट रहे हुए वृक्षों को उनके गुच्छों को गुल्मों एवं लतावल्ली आदि को रसप्रदान से वृद्धिंगत अर्थात् बढ़ाती हुई उन्हें विकसित करती है इसी तरह विनय से મારે પિતાનું કલ્યાણ કરવું છે–આથી તે નિયાગાથ–મેક્ષ અભિલાષી બની જાય છે. અને એ સ્થિતિમાં એની પ્રત્યેક ક્રિયાઓ મોક્ષ પ્રાપ્તિની તરફ જ એને લઈ જવાવાળી થતી રહે છે. એટલે તે કોઈપણ કુળ, ગુણ અને ગ૭થી દૂર કરવામાં આવતા નથી. મતલબ આને એ છે કે જે પ્રકારે શ્રીખંડ ચંદનનું વૃક્ષ સમસ્ત મલયાચલના જંગલમાં રહેલાં બધાં વૃક્ષેને પિતાની અપાર સુગંધીથી સુરભિત કરતું રહે છે. અથવા જે પ્રકારે અમૃતમય શીતળ કિરણના સંસર્ગથી વિકસિત કુમુદવન, મનેઝ, શીતળ અને સુગંધિત વાયુ એવી મનહર ચાંદની દ્વારા પ્રત્યેક જનના મનને આલ્હાદિત કરે છે. અથવાજે પ્રકાર ક્ષીર સાગરની નિર્ગરી (ઝરણું) પિતાની નિકટ રહેલા વૃક્ષોને એની ડાળે વિગેરેને તથા કુલફળાદિ, પાંદડાં વગેરેને રસપ્રદાનથી વૃદ્ધિગત અર્થાત્ વધારે છે. અને વિકસીત કરે છે. આ રીતે વિનયથી વિભૂષિત બનેલ ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८ उत्तराध्ययन सूत्रे विनयः कथमेषणीय इत्याहमूलम् - निसंते सिंया मुंहरी बुद्धणं अतिऍ सर्या । अट्ठजुत्ताणि सिक्खिज्जा, निरट्ठाणि उं वज्जेए ॥८ ॥ छाया ---- निशान्तः स्यात् अमुखारः बुद्धानाम् अन्तिके सदा । अर्थयुक्तानि शिक्षेत निरर्थानि तु वर्जयेत् ॥ ८ ॥ टीका 'निसंते इत्यादि'- निशान्तः - नितरां शान्तः - उपशमयुक्तः - अन्तः क्रोधपरिवर्जनेन बहिश्च सौम्याकारेण प्रशान्तः स्याद् =भवेत्, अमुखारिः = अविरुद्धभाषी प्रियभाषी सन् बुद्धानाम्=आचार्याणाम्, अन्तिके समीपे सदा सर्वकालम् अर्थविभूषित बना शिष्य भी शील से कुल, गण एवं गच्छ को प्रमुदित करता हुआ लोक में चिन्तामणि रत्न के समान माना जाता है कल्पवृक्षके समान सेवित किया जाता है, निधिके समान आदरीणय होता रहता है और सुधा (अमृत) के समान पूजा जाता है ॥ ७ ॥ विनय पालन कैसे करना चाहिये इसे सूत्रकार इस निम्नलिखित गाथा से स्पष्ट करते हैं- 'निसंते. ' इत्यादि । अन्वयार्थ - (निसंते - निशान्तः) जो उपशम भाव से युक्त हैभीतर में जिसके क्रोध का उद्रेक नहीं होता है-तथा बाहिर से जिसका सदा सौम्य आकार बना रहता है ऐसा शिष्य ( अमुखारि ) अविरुद्ध - भाषी - प्रियभाषी होता हुआ (बुद्धाणं अंतिए - बुद्धानां अन्तिके) आचार्यां શિષ્ય પણ શીલથી કુળ, ગણુ એટલે ગચ્છને પ્રમુદિત કરીને લેાકમાં ચિન્તામણી રત્ન સમાન માનવામાં આવે છે. કલ્પવૃક્ષના સમાન સેવિત કરવામાં આવે છે. નિધિની માફ્ક આહત થતા રહે છે. અને સુધાની ( અમૃત ) भाइ/यूलय छे. ॥७॥ વિનય પાલન કેવી રીતે કરવું જોઇએ તેને સૂત્રકાર આ નિચે મતાવેલ गाथाथी स्पष्ट १रे छे. निसंते. छत्याहि. 24-q212°—( faéà-fama: ) o @yuh aqal ya d-d}} અંદર ક્રોધના ઉપદ્રવ થતા નથી. તથા માહરથી જેને સદા સૌમ્ય આકાર मन्यो रहे छे सेवा शिष्य ( अमुखारी ) भवि३द्धलाषी - प्रियलाषी मनीने ( बुद्धाणं अंतिए - बुद्धानां अन्तिके) मायार्थोनी सभि ( सया - सदा ) डुभेशां ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર ઃ ૧ Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रियदर्शिनी टीका. अ० १ गा. ८ विनयप्राप्तेरुपायः युक्तानि-अर्थ्यते प्रार्थ्यते मुमुक्षुभिर्यःसोऽर्थः अव्याबाधसुखरूपो मोक्षस्तेन युक्तानि तत्प्रतिबोधकानि । यद्वा-अर्थों-हेयोपादेयरूपस्तेन युक्तानि-तत्प्रतिपाद कानि वीतरागशास्त्राणि शिक्षेत अभ्यस्येत् । अयं भावः-मोक्षमार्गप्रदर्शकानि शास्त्राण्येव उपादेयानि पारमार्थिकस्वरूपप्रतिपादकत्वात् , यथा सिन्धुस्तरङ्गविलसति तथा स्याद्वादैविलसितानि रागद्वेषदोषपरिवर्जितानि अव्याबाधसुखजनकानि उत्पादव्ययध्रौव्यस्वरूपनिरूपकाणि भगवद्वचनानि, तस्मात् तान्येवाभ्यसेदिति । के समीप (सया-सदा) सदा-काल (अट्ठजुत्तानि-अर्थयुक्तानि) मोक्षप्रतिबोधक-अथवा हेयोपादेय तत्त्व प्रतिपादक-ऐसे वीतरागो-पदिष्ट शास्त्रोंका (सिक्खिजा-शिक्षेत) अभ्यास करे। तथा (निराणि उ. वजए-निरर्थानि तु वर्जयेत् ) इनसे विपरीत अन्य शास्त्रोंका वर्जन करें। भावार्थ-वस्तुका पारमार्थिक स्वरूप प्रतिपादन करने वाले होने से मोक्षमार्गके प्रदर्शक शास्त्र ही उपादेय हैं । जिस प्रकार समुद्र अपनी तरङ्गमालाओंसे शाभित होता है उसी तरह प्रभु के वचन स्वरूप आगमशास्त्र भी स्यावाद-शैली से सुशोभित होते हैं। इनमें राग एवं द्वेषको बढाने वाली-कथाएँ बिलकुल नहीं हैं । उनसे ये सदा वर्जित हैं। अव्याबाध सुख के ये जनक हैं । उत्पाद व्यय एवं ध्रौव्य के यथार्थ स्वरूप का ये निरूपक हैं। इसलिये मोक्षाभिलाषिओ को वीतराग प्रणीत शास्त्रका ही अभ्यास करना चाहिये। जिन में इस प्रकार की बातें नहीं हैं जो सर्वथा एकान्तवाद के पोषक असर्वज्ञोपदिष्ट शास्त्र हैं (अट्ठजुत्तानि-अर्थयुक्तानि ) भास प्रतिमा५४-4थवा योपाय तत्व प्रतिमा मेवा वितरागोपहिष्ट शास्त्रोन (सिक्खिज्जा-शिक्षेत् ) मल्यास ४२. तथा (निरठ्ठाणि उ वज्जए-निरर्थानि तु वर्जयेत् ) सनाथ. विपरित अन्य शास्त्रोने। त्या ४२. ભાવાર્થ-વસ્તુનું પારમાર્થિક સ્વરૂપ પ્રતિપાદન કરવાવાળા હોવાથી મોક્ષમાર્ગના પ્રદર્શક શાસ્ત્ર જ ઉપાદેય છે. જે પ્રકાર સમુદ્ર પિતાની તરંગમાળાઓથી શેભિત દેખાય છે એ જ રીતે પ્રભુના વચન સ્વરૂપ આગમશાસ્ત્ર પણ સ્યાદ્વાદશૈલીથી સુશોભિત હોય છે. તેમાં રાગ અને દ્વેશને વધારનારી કથાઓ બીલકુલ હોતી નથી. એનાથી એ સદા વત છે. અવ્યાબાધ સુખના એ જનક છે. ઉત્પાદ વ્યય, અને ધ્રવ્યના યથાર્થ સ્વરૂપના એ નિરૂપક છે. આ માટે મેક્ષાભિવાષિઓએ વિતરાગ પ્રણત શાસ્ત્રનો જ અભ્યાસ કર જોઈએ. જેમાં આ પ્રકારની વાત નથી, જે સર્વથા એકાન્તપાદને પોષનાર ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६० उत्तराध्ययनसूत्रे निरर्थकानि मोक्षार्थ वर्जितानि, यद्वा - हेयोपादेयरूपार्थानभिधायकानि वैशेषिकादीनि वात्स्यायनप्रणीतकामशास्त्राणि तु वर्जयेत् = परिहरेत् । अयं भावः - लौकिकशास्त्राणि तु महाव्रतपर्वतभेदने वज्रोपमान, तपः संयमकाननविनाशने दावानलसमानि, वे निरर्थक शास्त्र हैं । उनका अभ्यास नहीं करना चाहिये । क्यों कि वे अपने अभ्यासियोंके लिये मोक्षमार्ग के यथार्थ स्वरूप से वंचित एवं अपरिचित हैं । अथवा - निरर्थक वे शास्त्र हैं कि जिनके अध्ययन करने से जीवोंको हेय और उपादेय रूप अर्थका भान न हो सके, जो इस प्रकार के मोक्ष अर्थ के अभिधायक नहीं है ऐसे वैशेषिक आदि-आदि द्वारा प्रणीत शास्त्र तथा वात्स्यायन द्वारा प्रणीत काम शास्त्रों का अध्ययन कभी भी मोक्षामिलाषिओं को नहीं करना चाहिये। लौकिक-असर्वज्ञद्वारा उपदिष्ट लौकिक शास्त्र संसार बढ़ाने वाली ही शिक्षाओं से परिपूर्ण हैं। इनसे साधुओं को अपने महाव्रतों को पालन करनेकी शिक्षा यथार्थतया प्राप्त नहीं होती है । अतः उनका अध्येता अर्थात् - अध्ययन करने वाला भद्रपरिणामी साधुजन अपने व्रतों से भी च्युत हो जाता है । इसलिये ऐसे शास्त्रों का अध्ययन महाव्रतरूप पर्वत को नष्ट करने के लिये वज्रका काम करता है । सम्यग्दर्शन की पुष्टि जबतक जीव की नहीं होती हैं - तबतक उसे समस्त द्रव्यों से भिन्न आत्मद्रव्य में दृढ श्रद्धा जाग्रत नहीं होती है। इस प्रकार के અસ જ્ઞોપષ્ટિ શાસ્ત્ર છે તે નિરક શાસ્ત્ર છે, તેના અભ્યાસ નહી કરવા જોઈ એ. કેમકે તે આપણા અભ્યાસિયા માટે મોક્ષમાર્ગના યથાર્થ સ્વરૂપથી વંચિત અને અપરિચિત છે. અથવા-નિક તે શાસ્ત્ર છે કે જેનું અધ્યયન કરવાથી જીવાને હેય અને ઉપાદેયરૂપ અનુ ભાન થઈ શકતું નથી. જે આ પ્રકારના મેાક્ષ અર્થાંના અભિધાયક નથી એવા વૈશેષિક આદિ આદિ દ્વારા પ્રણીત શાસ્ત્ર તથા વાત્સ્યાયન દ્વારા પ્રણીત કામશાસ્ત્રોનું અધ્યયન કી પણ માક્ષના અભિલાષીયાએ કરવું ન જોઇએ. લૌકિક-અસČજ્ઞ-દ્વારા ઉપષ્ટિ લૌકિક શાસ્ત્ર સંસાર વધારનારી શિક્ષાએથી પરિપૂર્ણ હોય છે. તેનાથી સાધુઓને પેાતાનાં મહાવ્રતાનું પાલન કરવાની શિક્ષા યથાર્થ તયા પ્રાપ્ત થતી નથી, એટલે એનુ અધ્યયન કરવાવાળા ભદ્રપરિણામી સાધુજન પેાતાના તાથી પણ શ્રુત બની જાય છે. આ માટે એવા શાસ્ત્રાનુ અધ્યયન માવ્રતરૂપ પર્વતને નષ્ટ કરનાર વજ્રનુ કામ કરે છે. સમ્યગ્દર્શનની પુષ્ટિ જ્યાં સુધી જીવને થતી નથી, ત્યાં સુધી તેને સમસ્ત દ્રવ્યેાથી ભિન્ન આત્મદ્રષ્યમાં દ્રઢ શ્રદ્ધા જાગ્રત થતી નથી. આ પ્રકારની શ્રદ્ધા જાગ્રત થયા ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર ઃ ૧ Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रियदर्शिनी टीका. अ० १ गा. ८ विनयप्राप्तेरुपायः प्रशमसर शोषणे प्रचण्डमार्तण्डकिरणरूपाणि, भ्रमोत्पादने मृगतृष्णास्वरूपाणि, श्रद्धा जाग्रत हुए विना जीवको आत्म कल्याण का मार्ग दिखलाई नहीं देता है। अतः वह पतित होकर अनंत संसारी हो जाता है। इसीलिये लौकिक शास्त्रोंका अध्ययन वर्जनीय बतलाया गया है यदि इस भावना से उनका अध्ययन किया जाय कि दे कि वीतराग प्ररूपित शास्त्रों में और इनके उपदेश में कितना भेद है तो इस स्थिति में ज्ञानी को अनेकान्त शासन पर और अधिक दृढ श्रद्धा बढ़ जाती है। क्यों कि सच्चे मणिकी कीमत तो झूठे मणि के देखने से ही होती है। सच्चे मणिका परिचायक झूठामणि ही हुआ करता है। इसीलिये टीकाकार ने इन्हें महाव्रत रूप पर्वत के भेदन करने में वज्रकी उपमा दी है। दावानल जिस प्रकार वन को भस्म करने में ढील नहीं करता उसी प्रकार निरर्थक शास्त्रों का अध्ययन भी मोक्षाभिलाषिओं के तप और संयमरूप उद्यान को नाश करता है । जिस प्रकार ग्रीष्मकाल का प्रखर आतप-धूप सरोवर को शोषण करता है उसी प्रकार ये मोक्षमार्ग के उपदेश से विहीन शास्त्र भी मोक्षाभिलाषी के प्रशमभावको शुष्क करने में जरा सी भी कसर नहीं रखते हैं। मृगतृष्णा जिस प्रकार मृगों को વિના જીવને આત્મકલ્યાણને માર્ગ મળતો નથી. એટલે તે પતિત બની અનંત સંસારી થઈ જાય છે. આ માટે લૌકિક શાસ્ત્રોનું અધ્યયન વર્જનીય બતાવવામાં આવેલ છે. જે એ ભાવનાથી તેનું અધ્યયન કરવામાં આવે કે જેઉં વિતરાગ પ્રરૂપિત શાસ્ત્રોમાં અને એમના ઉપદેશમાં કેટલે ભેદ છે તે આ સ્થિતિમાં જ્ઞાનીને અનેકાન્ત શાસન પર વધુ દ્રઢ શ્રદ્ધા બેસી જાય છે કેમકે સાચા મણિની કિંમત તે જુઠા મણને જેવાથી જ થાય છે સાચા મણીને ઓળખાવનાર ખાટા મણી જ હોય છે. આ માટે ટીકાકારે તેને મહાવ્રતરૂપ પર્વતનું ભેદન કરનારા વજીની ઉપમા આપી છે. દાવાનળ જે રીતે વનને ભસ્મ કરવામાં ઢીલ કરતા નથી, તેવી જ રીતે નિરWક શાસ્ત્રોનું અધ્યયન પણ મેક્ષાભિલાષિઓના તપ અને સંયમરૂપ ઉદ્યાનને નાશ કરે છે. જે પ્રકારે ગ્રીષ્મકાળને પ્રખર આતાપ સરેવરનું સેશણ કરે છે. તેવા પ્રકારે મેક્ષમાર્ગનાં ઉપદેશથી વિહિન શાસ્ત્ર પણ મોક્ષ અભિલાષિના પ્રશમભાવને શુષ્ક કરવામાં કસર રાખતા નથી. મૃગજળ જેવા પ્રકારે મગને ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययनसूत्रे सकलापत्तिदायकविषयविलासमवर्तकानि दीर्घावचतुर्गतिकसंसारपरिभ्रमणकारणानि सन्ति, तस्माद् विषमविषधरभुजङ्गवत् तानि दूरतः परिवर्जनीयानि ॥८॥ अर्थयुक्तानि कथं शिक्षेत ? इत्याहमूलम्-अणुसासिओ ने कुप्पिज्जा, खंति सेविज पंडिएं। खुड्डेहिं सह संसग्गं, हाँसं क्रीड' चे वजएँ ॥९॥ छायाअनुशासितः न कुप्येत् , शान्ति सेवेत पण्डितः । क्षुद्रैः सह संसर्ग, हास क्रीडां च वर्जयेत् ॥ ९॥ टीका'अणुसासिओ.' इत्यादि-अनुशासितः-गुरुभिः कठोरवचनैस्तर्जितोऽपि न कुप्येत् कोपं न कुर्यात् । किं तर्हि ? इत्याह-'खंति.' इत्यादि । पण्डितः= सदसद्विवेकवान् सन् शान्ति परुषभाषणसहनरूपां सेवेत । अयं भावः—यद्यपि जलका भ्रम उत्पन्न करती है उसी तरह मिथ्या शास्त्र भी मोक्षाभिलाषिओंके लिये यथार्थस्वरूप का ज्ञान न कराकर केवल वस्तु के स्वरूप में भ्रमोत्पादक होते हैं। समस्त आपत्ति-एवं विपतियों को देने वाले विषय कषायोंकी ही इनसे केवल वृद्धि होती रहती है अतः इनसे संसार का अन्त न आकर जीवों के अनन्त संसार के मार्ग की ही पुष्टि होती है और इसी वजह से यह जीव इस चतुर्गति स्वरूप संसार में इतस्ततः परिभ्रमण किया करता है। इस लिये जिस प्रकार जहरीले सर्पका दूर से ही परिहार कर दिया जाता है उसी प्रकार मोक्षाभिलाषिओं को इन निरर्थक शास्त्रोंका परिहार कर देना चाहिये ॥ ८॥ જળને ભ્રમ ઉત્પન્ન કરે છે, તેવી રીતે મિથ્યાશાસ્ત્ર પણ મજ્ઞ અભિલાષીઓ માટે યથાર્થ સ્વરૂપનું જ્ઞાન ન કરાવતાં કેવળ વસ્તુના સ્વરૂપમાં ભ્રમત્પાદક બને છે. સમસ્ત આપત્તિ અને વિપત્તિને દેવાવાળા વિષય કષાયની જ તેનાથી ફક્ત વૃદ્ધિ થતી રહે છે. જેથી તે વડે સંસારને અંત ન આવતાં જેને અનંત સંસારના માર્ગમાં લઈ જાય છે, અને એ કારણે આ જીવ આ ચતુગતિરૂપ સંસારમાં અહિં તહિં ભટકતા રહે છે. આ માટે જે પ્રકારે જહેરીલા સાપને દુરથી જ ત્યાગ કરવામાં આવે છે, તેવી રીતે મોક્ષના અભિલાષિઓએ આવા નિરર્થક શાસ્ત્રનો ત્યાગ કરે જોઈએ, ૮ ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रियदर्शिनी टीका. अ० ९ विनयप्राप्तेरुपायः गुरु परुषवचनानि ग्रीष्मर्तुसहस्रकिरणकिरणावलीसमानि तथापि स्वल्पेनैव समयेन सजला जलदावलीसमुत्थितसमीरसहचारिनीरकणिका इव परिणमन्तीति गुरूणां परुषवचनानि अनन्तहितविधायकानि मोक्षपथप्रदर्शकानि सावधर्मनिवर्तकानि अमृतमयानि आसेवनाग्रहण शिक्षारूपाणि भवन्तीति मन्यमानः सन् सहेत । उक्तं च शास्त्र किस तरह से सीखे सो बतलाते हैं-'अणुसासिओ.' इत्यादि। अन्वयार्थ-शिष्यजन यदि कदाचित् गुरुओं द्वारा कठोर वचनों से भी (अणुसासिओ-अनुशासितः) अनुशासित-शिक्षापाते हों तो भी उन्हें चाहिये कि वे (न कुप्पिज्जा-न कुप्येत् ) अपने शिक्षाप्रदाता गुरुजन पर कभी भी कुपित न हों। प्रत्युत ऐसी अवस्था में सत् और असत् के विवेक करने में ( पंडिए-पण्डितः) कुशलमति वह शिष्य (खंति सेविज क्षान्ति सेवेत) परुषभाषण को सहन करने रूप शांतिभाव का ही सेवन करे । तथा (खुड्डेहिं सह संसग्गं हासं क्रीडं च वजए-क्षुद्रैः सह संसर्ग हासं क्रीडं च वर्जयेत् ) क्षुद्रजनों-बाल अथवा पार्श्वस्थ अवसन्नकुशील संसक्त-स्वेच्छाचारी साधुओं का संग वर्जन करें। तथा हास्य क्रीडा का भी वर्जन करें। भावार्थ-यद्यपि गुरु महाराजके वचन उस समय शिष्य को ग्रीष्मऋतुके प्रखर सूर्यकी किरणों के समान मालूम पड़ते हैं परन्तु शास्त्र ४४ शते शीuai ते मतावे छे.-अणुसासिओ. छत्याह. અન્વયાર્થી–શિષ્યજન જે કદાચ ગુરૂઓ દ્વારા કઠોર વચનોથી પણ ( अणुसासिओ-अनुशासितः ) अनुशासित-शिक्षा मेणवता जाय तो ५५ तेभो विया ले ते (न कुप्पिज्जा-न कुप्येत् ) पोताना शिक्षा प्रदाता ગુરૂજન ઉપર કદી પણ ક્રોધ ન કરે. પરંતુ એવી અવસ્થામાં સત્ અને અમને विवे४२वामा (पण्डिए-पंडितः) शमति ते शिष्य (खंति सेविज्ज-क्षान्ति सेवेत) ( २) परुष भाषणुने सडन ४२वा३५ शांतिलावतुं सेवन ४२. तथा (खुडेहिं सह संसग्ग हासं क्रिडं च वज्जए-क्षुद्रैः सह संसर्ग हासं क्रीडां च वर्जयेत् ) क्षुद्रना, १ मा अथवा २ पाश्वस्थ, 3 अवसन्न, ४ सुशीस, ५ संसरतસ્વેચ્છાચારિ સાધુઓને સંગ વર્જન કરે. તથા હાસ્ય ક્રિડાનું પણ વર્જન કરે. મતલબ તેને એ છે કે કદાચ ગુરૂ મહારાજનું વચન, તે સમયે શિષ્યને ઉનાળાના પ્રખર સૂર્યના કિરણે સમાન માલુમ પડે છે. પરંતુ પરિણામમાં ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४ उत्तराध्ययनसूत्रे गीमिगुरूणां परुषाक्षराभि, स्तिरस्कृता यान्ति नरा महत्त्वम् । अलब्धशाणोत्कषणा नृपाणां, न जातु मौलौ मणयो वसन्ति ॥१॥ च-पुनः क्षुद्रैः बालैः, अथवा पार्श्वस्थावसन्नकुशीलससक्तयथाच्छन्दै सह संसर्ग-सङ्ग वर्जयेत् । परिणाम में वे जल से भरे हुए मेघ के समय उत्पन्न वायु के साथ जल कणिका के समान हितविधायक होते हैं। जिस प्रकार वर्षांकाल में जब आकाश में घटाए घिर आती हैं तो उससमय वायु का भी संचार होने लगता है-आंधी उठने लगती है और उसके उठते ही वे घटाएँ वरसने लगती हैं। इससे आतपतप्त-गरमीसे पीडित आत्माओं को शीतलता का अनुभव होने लगता है। इसी प्रकार उस समय गुरुजनों के वचन कठोर प्रतीत होते हैं परन्तु भविष्य में वे शिष्यों के लिये आत्मकल्याण के साधक होने से अनंत शीतलता प्रदान करने वाले हो जाते हैं । शिष्यजन कोगुरु के वचन अनंतहित विधायक, मोक्षपथप्रदर्शक, सावद्यकर्मनिवर्तक अमृतस्वरूप जानकर सहते रहना चाहिये । क्यों कि इनसे शिष्योंको आसेवनशिक्षा एवं ग्रहण शिक्षा प्राप्त होती है व्रतों को ग्रहण करना एवं उनका सम्यग्रीति से पालन करना यह शिक्षा गुरु के वचनोंसे ही शिष्यों को मिलती है । कहा भी है-गीर्भिर्गुरूणां० इत्यादिતે જળથી ભરેલા મેઘના સમયે ઉત્પન્ન થતા વાયુની સાથે જળકણિકાના જેવાં હિત વિધાયક હોય છે. જે પ્રકારે વર્ષાકાળમાં જ્યારે આકાશમાં ઘટાઓ ઘેરાય છે. એ સમયે વાયુને પણ સંચાર થાય છે. અને આંધી ઉઠવા લાગે છે. અને આંધીના આગમનથી તે ઘટાઓ વરસવા લાગે છે. એનાથી (તડકાથી તપેલ) આતપતપ્ત આત્માઓને શીતળતાને અનુભવ થવા લાગે છે. આ પ્રકારે એ સમયે ગુરૂજન.નું વચન કઠેર જણાય છે. પરંતુ ભવિષ્યમાં તે શિષ્યોને માટે આત્મ કલ્યાણનું સાધક હોવાથી અનંત શિતળતા આપનાર બને છે. શિષ્યજને ગુરૂનાં વચન અનંત હિત વિધાયક, મોક્ષપથ પ્રદર્શક, સાવદ્ય કર્મ નિવર્તક અમૃત સ્વરૂપ જાણીને સહી લેવાં જોઈએ. કેમકે તેનાથી શિને આસેવન શિક્ષા અને ગ્રહણશિક્ષા પ્રાપ્ત થાય છે. વ્રતોનું ગ્રહણ કરવું અને તેને સમ્યગુરીતિથી પાલન કરવું આ શિક્ષા ગુરૂના વચનેથી જ शिष्याने भणे छ. ४थु ५४ छ--गीभिर्गुरुणां. छत्याह-- | ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रियदर्शिनी टीका. अ. १ गा. ९ बालपार्श्वस्थादिसंसर्गस्य हेयता. ६५ . ननु बालपार्श्वस्थादिसंसर्गे सत्यपि साधोः का हानिः ? दृश्यते हि वैडूर्यमणिः काचसहयोगेऽपि काचधर्म नामोति, एवमात्मार्थिनो मुनेर्वालपार्श्वस्थादिसंसर्गे सत्यपि स्वाचारपरिवर्तनं न स्यात् ? अत्रोच्यते-जीवो हि संसर्गदोषानुभावतो बालपार्श्वस्थाद्याचरितप्रमादादिभावनाभावितत्वात् द्रुतमेव तद्भावं पामोति, यथा-निम्बोदकवासितायां भूमौ कचिदाम्रवृक्षः समुत्पन्नः, पुनस्तत्राम्रस्य निम्बस्य च द्वयोरपि मूले मिलिते, ततश्च संसर्गदोषादाम्रो निम्बत्वं प्राप्य कठोर अक्षरों से युक्त गुरुजनों के वचनों से तिरस्कृत हुए शिष्यजन महत्त्व को प्राप्त करते हैं। जबतक मणी शाण पर नहीं चढाया जाता है तबतक वह अपने उत्कर्ष को प्राप्त नहीं कर सकता है और न राजाओं के मुकुटों में भी जड़ा जाता है। साधु यदि बाल एवं पार्श्वस्थ आदि की संगति करे तो उसकी इससे क्या हानि है। क्यों कि देखा जाता है कि वैडूर्यमणि काचमणि के साथ रहते हुए भी उसके धर्मको अर्थात् काच के गुण को ग्रहण नहीं करता है इसी प्रकार पार्श्वस्थ आदि की संगति में रहा हुआआत्मार्थी साधु भी अपने आचार विचार से परिचलित नहीं हो सकता ? प्रश्न ठीक है-परन्तु यह ध्यान रखना चाहिये कि भद्रपरिणामी आत्मा निमित्ताधीन होता है । निमित्त मिलने पर निमित्त के अनुसार शीघ्र ही उसका परिणमन हो जाता है। जिस प्रकार जिस भूमि में नीमके वृक्ष लगे हुए होते हैं और उसी भूमिमें यदि आम का भी वृक्ष लगा दिया जावे तो वह नीमके मूल के કઠેર અક્ષરોથી ભરેલા ગુરૂજનોના વચનોથી તિરસ્કૃત થયેલ શિષ્યજન મહત્વને પામે છે. જ્યાં સુધી મને સરાણ ઉપર ચડાવવામાં આવતું નથી ત્યાં સુધી તે પિતાના ઉત્કર્ષને પ્રાપ્ત કરી શકતું નથી. અને ન તો એ રાજાઓના મુગટમાં જડાય છે. સાધુ જે બાલ અને પાર્શ્વસ્થ આદિની સંગતિ કરે તે એથી એને કંઈ જ નુકશાન થતું નથી. કેમકે જોઈ શકાય છે કે વૈર્યમણી કાચ મણીની સાથે રહેવા છતાં પણ એ કાચના ગુણ ગ્રહણ કરતો નથી. આ રીતે પાર્શ્વસ્થ આદિની સંગતિમાં રહેલા આત્માર્થ સાધુ પણ પિતાના આચાર વિચારથી પરિચલિત થતા નથી? પ્રશ્ન ઠીક છે–પરંતુ એ ધ્યાનમાં રાખવું જોઈએ કે ભદ્રપરિણામી આત્મા નિમિત્ત આધિન બને છે. નિમિત્ત મળવાથી નિમિત્તના અનુસાર જલ્દીથી તેનું પરિણમન થઈ જાય છે. જે પ્રકારે જે ભૂમિમાં લીમડાનાં વૃક્ષો લાગેલાં હોય છે. અને એ જ ભૂમિમાં જે આંબાનું વૃક્ષ વાવવામાં આવે તે લીમડાના મૂળ સાથે તેના મૂળ મળવાથી ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययनसूत्रे कटुफलो भवति । अपरं च बालपार्श्वस्थादिसंसर्गों लोके गहीं जनयति, सर्व एवैते साधव एवंभूता इति, तथा पापेऽनुमतिमुत्पादयति । अयं भावः-यथारजःपुञ्जो मणिगणं मलिनयति, राहुश्चन्द्रमण्डलप्रभामपकर्षयति, लोभः सर्वगुणगणं विनाशयति, हेमन्तः कमलवनं प्रलीनयति, तथा-क्षुद्रसंसर्गः शान्त्यादिगुणगणं मलिनयति, लब्ध्यादिप्रभावमपकर्षयति, तपःसंयमजनितमहत्त्वं विनाशयति, दशविधधर्म प्रलीनयति, तस्मात् क्षुद्रसंसर्गः परिवर्जनीय इति । साथ अपने मूल से मिला रहने पर कटुकफल देने लगता है। यह बात प्रसिद्ध है। इसलिये संसर्ग के दोष से जैसे आम्र निम्बभाव को प्राप्त होकर कडुवे फल देने लगता है उसी प्रकार आत्मार्थी साधुजन भी बाल पार्श्वस्थादि के संगति से स्वाचार भ्रष्ट हो जाते हैं। आम्र पर नीमका ही प्रभाव पड़ता है-नीम पर आम का नहीं-कारण कि बुरी वस्तु का ही अधिक प्रभाव पड़ा करता है और वही वस्तु दूसरों को जल्दी अपने अनुरूप परिणमा लेती है-यह एक स्वाभाविक बात है। यह तो आंखोंदेखी वाते हैं कि धूलि का पुंज मणिगणको भी मलिन बना देता है । राहुचन्द्रमंडल की प्रभा का अपकर्षक होता है, लोभ समस्त सदगुणोंका लोपक होता है । हेमन्त ऋतु कमलवन को दग्ध कर देता है । इसी तरह यह भी मानने में कोई आपत्ति नहीं है कि क्षुद्रजनों का संसर्ग भी साधुजनों के शांति आदि गुणगणों को मलिन बना देता है। उनके प्राप्त-प्रभाव को कम कर देता है। तप एवं संयम કડવાં ફળ આપવા લાગે છે. આ વાત પ્રસિદ્ધ છે. આ માટે સંસર્ગના દેષથી જેમ આ લીમડાના ભાવને પામી કડવાં ફળ આપનાર બને છે એ જ રીતે આત્માથી સાધુજન પણ બાળ પાર્થસ્થાદિના સંગથી સ્વાચારભ્રષ્ટ બની જાય છે. આંબા ઉપર લીમડાને જ પ્રભાવ પડે છે, લીમડા ઉપર આંબાને નહીં કારણ કે ખરાબ વસ્તુને અધિક પ્રભાવ પડે છે. અને વસ્તુ બીજાઓને જલ્દી પિતાના જેવી બનાવે છે. આ એક સ્વાભાવિક વાત છે આ તે આંખે જોયેલી વાત છે કે ધુળને વંટેળ મણીઓને પણ મલીન બનાવી દે છે. રાહુ ચંદ્ર મંડળ તેજને ઢાંકી દે છે. લેભ સમસ્ત સગુણોને લેપનાર હોય છે. હેમન્ત કમળ વનને બાળી નાખે છે. આ રીતે એ માનવામાં કોઈ અયુક્તિ નથી કે ક્ષુદ્રજનેને સંસર્ગ પણ સાધુજનના શાંન્તી આદિ ગુણોને મલીન બનાવી દે છે. એના પ્રાપ્ત પ્રભાવને ઓછો કરે છે, તપ અને ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रियदर्शिनी टीका. अ० १ गा. ९ हास्यक्रीडयोहेयता. . तथा-हासं-हसनं, क्रीडां-कन्दुकादिकां च वर्जयेत् , ज्ञानावरणीयाधष्टविधकर्मवन्धजनकत्वादिति भावः। उक्तंच-"जीवे णं भंते ! हसमाणे वा उस्सुयमाणे वा कइ कम्मपगडीओ बंधइ ? । गोयमा ! सत्तविहबंधए वा अविहबंधए वा" छाया-जीवः खलु भदन्त ! हसन् वा उत्सुकन् वा कति कर्मप्रकृतीबध्नाति, गौतम ! सप्तविधवन्धको वा अष्टविधबन्धको वा इत्यादि । क्रीडाविषयेऽप्येवमेवागमोऽनुसन्धेयः॥९॥ के महत्व को भी विनष्ट कर देता है एवं दशविध धर्मको ध्वस्त कर देता है। इसलिये क्षुद्रों का तथा बालकों का संसर्ग सदा परिहार्य बतलाया गया है। तथा बालआदि जनोंकी संगति से निंदा होती है एवं पापकार्यों में अनुमति देने की भी आदत पड़ जाती है। इसी तरह ज्ञानावरणीय आदि अष्टविध कोंके बंध के जनक होने से साधुजन को बालोंके साथ हँसी करना, क्रीड़ा करना आदि अकर्तव्योंका भी परिहास कर देना चाहिये । प्रभुका स्वयं भी ऐसा ही उपदेश है-"जीवे णं भंते ! हसमाणे उस्सूयमाणे वा कह कम्मपगडीओ बंधइ ? गोयमा ! सत्तविहबंधए वा अविहबंधए वा " इत्यादि-प्रभु से गौतमने प्रश्न किया हे भदन्त ! यह जीव जब हँसी करता है अथवा उत्सुक होता है तब कितने कर्मकी प्रकृतियों का बंध करता है ? तब प्रभु ने उत्तर दिया कि हे गौतम ! इस अवस्था में यह जीव सात प्रकार के या आठ प्रकार के कर्मोंका बंध करता સંયમના મહત્વને પણ નાશ કરી નાખે છે. એમ જ દશવિધ ધર્મને પણ ધ્વસ્ત કરી નાખે છે. આ માટે શુદ્રોને તથા બાળકોને સંસર્ગ સદા પરિહાર્ય બતાવવામાં આવેલ છે. તથા બાળ આદિ જનની સંગતિથી નિંદા થાય છે. તેમજ પાપકાર્યોમાં અનુમતિ દેવાની પણ આદત પડી જાય છે. આ રીતે જ્ઞાનાવરણીય આદિ આઠ કર્મનાં બંધનેના જનક હોવાથી સાધુજનેએ હાંસી કરવી, કિડા કરવી આદિ અકર્તવ્યને પરિહાર કરી દેવું જોઈએ. प्रभुने। स्वयं मा ४ उपदेश छ. "जिवेणं भंते ! हसमाणे वा उस्सूयमाणे वा कइ कम्मपगडीओ बंधई ? गोयमा ! सत्तविह बंधए वा अढविह बंधए वा०" ઈત્યાદિ–પ્રભુથી ગૌતમે પ્રશ્ન કર્યો હે ભદન્ત ! આ જીવ જ્યારે હસે છે ત્યારે કેટલા કર્મની પ્રકૃતિઓનો બંધ કરે છે? પ્રભુએ ઉત્તર આપ્યો કે હે ગૌતમ! આ અવસ્થામાં આ જીવ સાત પ્રકારના અથવા આઠ પ્રકારના કર્મોને ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययनसूत्रे पुनरपि प्रकारान्तरेण विनयमुपदिशन्नाहमूलम्-माँ ये चंडालियं कौसी, बहुयं मा ये आलवे । कालेणं ये अहिजित्ता, तओ झाइज एगओ॥१०॥ __ छायामा च चण्डालीकं कार्षीद, बहुकं मा च आलपेत् । कालेन चाधीत्य, ततो ध्यायेत् एककः ॥ १० ॥ टीका'मा य' इत्यादि-च शब्दः समुच्चयार्थकः । चण्डालीक-चण्डः क्रोधस्तद्वशादलीक-मृषाभाषणं मा कार्षीत्-मा कुर्यात् , इदमुपलक्षणं मानमायालोभभयहास्यादीनाम् । उक्तंच मुसावाओ उ लोगम्मि, सबसाहूहि गरिहिओ । अविस्सासो य भूयाणं, तम्हा मोसं विवज्जए ॥ (दशवै. ६ अ. १३ गा.) छायामृषावादस्तु लोके, सर्वसाधुभिर्गहितः। अविश्वासश्च भूतानां, तस्माद्मृषा विवर्जयेत् ॥ च-पुनः बहुकं-बहेव बहुकम्-अतिशयम् आलजालरूपं मा आलपेत्मा वदेत् । बहुभाषणे बहवो दोषा भवन्ति । उक्तं चहै। इसी तरह क्रीडाके विषय में भी समझ लेना चाहिये ॥९॥ दूसरे प्रकार से भी इसी विनयधर्मका सूत्रकार उपदेश करते हैं-'माय. ' इत्यादि। अन्वयार्थ-शिष्यजनों को संबोधित करते हुए सूत्रकार कहते हैं कि हे शिष्यो ! तुम (चण्डालियं माम कासी-चंडालीकं मा चकार्षीत् બંધ કરે છે. આ રીતે કીડાઓના વિષયમાં પણ સમજી લેવું જોઈએ. ૯ બીજા પ્રકારથી પણ આ વિનય ધર્મને સૂત્રકાર ઉપદેશ કરે છે– माय० छत्यादि. અન્વયાર્થ–શિષ્યજનેને સંબોધન કરતાં સૂત્રકાર કહે છે કે હે शिष्य! ! तमे चंडालियं माम कासी-चंडालीकं मा चकार्षीत् ) औधना मावेशथी ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रियदर्शिनी टीका. अ० १ गा. १० क्रोधवशतो मृषावादादिनिषेधः, ६९ क्रोध के आवेश से मृषाभाषण मत करो । ( बहुयं माय आलवे-बहुकं माच आलपेत् ) व्यर्थ आलजालरूप वचनोंका उच्चारण मत करो-अनर्थ प्रलाप मत करो-अधिक मत बोलो। (कालेण य अहिजित्ता-कालेन चाधीत्य ) प्रथम पौरुषी में स्वाध्याय करके (तओ एगओ झाइज-ततः एकाकी ध्यायेत् ) द्वितीय पौरुषी में एकाकी होकर सूत्रार्थका चिन्तवन करो । उपलक्षण से तृतीय पौरुषी में भिक्षाचयी, एवं चतुर्थी पौरुषी में भण्डोपकारण की प्रतिलेखना के वाद पुनः स्वाध्याय करो। यह बात स्वयं सूत्रकार छाईस वें अध्ययन में कहेंगे। भावार्थ-इस सूत्र द्वारा प्रकारान्तर से विनय धर्मका शिष्यजनों को उपदेश देते हुए सूत्रकार कहते हैं कि हे शिष्यों यदि तुम इस विनय धर्मको पालन करने के अभिलाषी हो तो तुम्हारा यह कर्तव्य है कि तुम क्रोध के आवेशमें आकर कभी भी मृषाभाषण मत करो। क्यों कि इस प्रकार करनेसे विनयधर्मकी पालना नहीं होती है मृषाभाषण के निषेध से उसके साथ-साथ मान, माया,लोभ, एवं हास्यादि कों का भी विनयवान को त्याग कर देना चाहिये । मृषावादादि को त्याग करने का कारण यह है कि इस प्रकार की प्रवृत्ति करने वाला भृषालाषा न ४२। ( बहुयं माय आलवे-बहुकं माच आलपेत् ) या રૂપ વચનનું વ્યર્થ ઉચ્ચારણ ન કરે–અનર્થ પ્રલાપ ન કરે–વધારે ન બેલે ( कालेण य अहिज्जित्ता-कालेन चाधीत्य ) प्रथम पौ३५ीमा स्वाध्याय ४२॥ ( तओ एगओ झाइज्ज-ततः एकाकी ध्यायेत् ) भी पोषीमा ४ी ने सूत्राथन ચિંતવન કરે. ઉપલક્ષણથી ત્રીજા પૌરૂષીમાં ભિક્ષા ચર્યા અને ચોથા પૌરૂષીમાં ભંડેપકરણની પ્રતિલેખના પછી ફરી સ્વાધ્યાય કરે. આ વાત સૂત્રકાર પિતે ૨૬ મા અધ્યયનમાં કહેશે. ભાવાર્થ-આ સૂત્ર દ્વારા પ્રકારાન્તરથી વિનય ધર્મને શિષ્યજનોને ઉપદેશ આપતાં સૂત્રકાર કહે છે કે હે શિષ્ય ! જો તમે આ વિનયધર્મનું પાલન કરવાના અભિલાષી છે તે તમારું એ કર્તવ્ય છે કે તમે ક્રોધના આવેશમાં આવી કદી પણ મૃષાભાષણ કરે નહીં. કેમકે આ પ્રકારે કરવાથી વિનય ધર્મની પાલના થતી નથી. મૃષાભાષણના નિષેધથી એની સાથે માન, માયા, લેભ અને હાસ્યાદિકને પણ વિનયવાને ત્યાગ કરી દેવો જોઈએ. મૃષાવાદાદિકેને ત્યાગ કરવાનું કારણ એ છે કે આ પ્રકારની પ્રવૃત્તિ કરવા ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७० बहुभाषणमुन्मादं, स्वाध्यायध्यानभञ्जनं कुरुते । अहितमनर्थकरं तद् भवति च पीडाकरं नितराम् ॥ १ ॥ बहुभाषणाद् द्वितीयं, नश्यति तावन्महाव्रतं तस्मात् । स्यादेव कर्मबन्ध, स्तस्माद् दीर्घाध्वसंसारः ॥ २॥ तर्हि किं कुर्यात ? इत्याह - 'कालेग.' इत्यादि । 'काले ' - इत्यत्र सप्तम्यर्थे तृतीया काले प्रथमपौरुष्यां तु, चकारस्त्वर्थवाचकः, अधीत्य = स्वाध्यायं कृत्वा ततः तदनु द्वितीयपौरुष्याम् एककः- एकाकी सन् भावतो रागादिरहितः, द्रव्यतो विविक्त शयनासनादिसंस्थः ध्यायेत्- सूत्रार्थं चिन्तयेत् । उपलक्षणमेतत् तृतीयचतुर्थपौरुष्योरपि, तथा च- तृतीयपौरुष्यां भिक्षाचर्यं चतुर्थ्यां पुनः स्वाध्यायं कुर्या - दित्यर्थः । वक्ष्यति षड्विंशेऽध्ययने उत्तराध्ययनसूत्रे साधु साधु नहीं है वह साध्वाभास है । कहा भी है किमुसावाओ उलोगम्मि सव्वसाहूहिं गरिहिओ । अविस्सासो य भूयाणं तम्हा मोसं विवजए । (दशवे०६ अ.१३ गाथा) यह मृषावाद सर्व-साधुओं अर्थात् तीर्थंकर आदि महापुरुषों द्वारा गर्हित-निन्दित है, दूसरे मृषावादी पर जगत का कोई भी प्राणी विश्वास नहीं करता है, अर्थात् वह सब के लिये अविश्वास्य होता है। इसी प्रकार बहुत बोलने से भी विनय धर्म यथावत् पालित नहीं हो सकता है। क्योंकि इस अवस्था में ऐसे भी कई शब्द निकल जाते हैं जो व्यर्थ होते हैं एवं सुनने वाले के लिये भी कष्टप्रद होते हैं । जो मन में आया सो बोल देना - यह प्रवृत्ति साधु मार्ग की नहीं है। इसमें तो बड़ी सावधानी रखनी पड़ती है। इसी लिये भाषासमिति एवं वचनगुप्ति વાળા સાધુ સાધુ નથી તે સાધ્વાભાસ છે. કહ્યું પણ છે કે— मुसावओ उ लोगम्मि सव्वासाहु हिं गरिहिओ । अविस्सासो य भूयाणं तुम्हा मासं विवज्जए । दशवे० ६ अ. १३ गाथा. આ મૃષાવાદ સ સાધુએ અર્થાત્ તી કર આદિ મહાપુરૂષાદ્વારા ગ્રહિત છે. બીજા મૃષાવાદી ઉપર જગતના કોઈપણ પ્રાણી વિશ્વાસ કરતા નથી તે બધાને માટે અવિશ્વાસ હાય છે. આ પ્રકારે બહુ ખેલવાથી પણ વિનયધ યથાવત્ પાલિત નથી થઇ શકતા. કેમકે એ અવસ્થામાં એવા પણ કાઈ શબ્દ નિકળી જાય છે, જે બ્ય હેાય છે, અને સાંભળવાવાળાને માટે પણ દુઃખદાયક હાય છે. જે મનમાં આવ્યું તે ખેલી નાખ્યુ. આ કામ સાધુનું નથી. એણે તા ખૂબજ સાવધાની રાખવી પડે છે. આ માટે ભાષા ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર ઃ ૧ Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रियदर्शिनी टीका. अ० १ गा. १० क्रोधवशतो मृषाधादादिनिषेध', ७१ पालने का आदेश है । बहुभाषण में अथवा विना विचार किये भाषण में न तो साधु के मूलगुणरूप इस समिति का ही पालन होता है और न गुप्ति का ही । इसीलिये बहुभाषण में "बहुत दोष है” अन्यत्र भी ऐसा ही कहा है बहुभाषणमुन्मादं स्वाध्यायध्यानभंजनं कुरुते। अहितमनर्थकरं तत् , भवति च पीडाकरं नितराम् ॥१॥ बहुभाषणात् द्वितीयं नश्यति, तावन्महाव्रतं तस्मात् । स्यादेव कर्मबंधस्तस्माद् दीर्घाध्वसंसारः ॥ २॥ बहुत आलजालरूप बकवाद करने वालोंके उन्माद रोग हो जाता है। साधु के स्वाध्याय एवं ध्यान में विघ्न पड़ता है-स्वाध्याय ध्यान नष्ट हो जाते है। बहुभाषण से अनेक अनर्थ होते है। ज्यादा इस विषय में और क्या कहा जाय साधु का इस हालत में द्वितीय सत्यमहाव्रत भी खंडित हो जाता है अतः बहुभाषीके कर्म बहुत बन्धते हैं और वह दीर्घ संसारी होकर संसार में परिभ्रमण करता है। "कालेण” इस पद से सूत्रकार साधु का क्या कर्तव्य है यह बात दिखलाते हैं। वे कहते हैं कि साधु को प्रथम पौरुषी में स्वाध्याय સમિતિ અને વચનગુપ્તિ પાળવાને આદેશ છે. બહુ ભાષણમાં અથવા વિચાર કર્યા વગરના ભાષણમાં ન તે સાધુના મુળગુણ રૂપ એ સમિતિનું પાલન થાય છે અને ન ગુપ્તિનું પણ આ માટે બહુ ભાષણમાં “ઘણે દેષ છે” બીજામાં પણ તેમજ કહ્યું છે. बहुभाषणमुन्मादं स्वाध्यायध्यानभंजनं कुरुते । अहितमनर्थकरं तत् भवति च पीडाकरं नितराम् ॥१॥ बहुभाषणात् द्वितीयं नश्यति तावन्महाव्रतं तस्मात् । स्यादेव कर्मबंधस्तस्मात् दीर्घाध्वसंसारः ॥२॥ આલ જાલરૂપ વધુ બકવાદ કરવાવાળાને ઉમાદ રોગ થઈ આવે છે. સાધુના સ્વાધ્યાય અને ધ્યાનમાં વિદન પડે છે–સ્વાધ્યાય ધ્યાન નષ્ટ થઈ જાય છે. બહુ ભાષણથી અનેક અનર્થ થાય છે. આ વિષયમાં વધુ શું કહેવાય. સાધુનું આ હાલતમાં બીજું સત્ય મહાવ્રત પણ ખંડિત થઈ જાય છે. એટલે બહુભાષીનાં કર્મ વધુ બંધાય છે. અને તે દીર્ઘ સંસારી બની સંસારમાં પરિભ્રમણ કરે છે. “कालेण" 20 ५४थी सूत्र४।२ साधुनु शु ४तव्य छ २॥ पात पता છે, તેઓ કહે છે કે સાધુને પ્રથમ પૌરૂષીમાં સ્વાધ્યાય કરે જોઈએ. પછી ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - उत्तराध्ययनपत्रे " पढमं पोरिसि सज्झायं बीयं झाणं झियायई । तइयाए भिक्खायरियं पुणो चउत्थीइ सज्झाय " इति ॥ सू० १०॥ यदि कथञ्चिदसत्यभाषणं भवेत्तदा तन्न गोपयेदित्याह-'आहच्च.' इत्यादि । मूलम्—आहञ्च चंडोलियं कट्ट, न निन्हुविज कयाइवि । कडं केडेति भासेज्जी, अकडे नो डेति ये ॥११॥ छायाकदाचित् चण्डालीकं कृत्वा, न निनुत्रीत कदाचिदपि । कृतं कृतमिति भाषेत, अकृतं नोकृतमिति च ॥११॥ टीका'आहच्च' इत्यादि-कदाचित्-अकस्माद् चण्डालीकं-क्रोधादिवशादनृतभाषणं कृत्वा कदाचिदपि-यदा परेण ज्ञातं नोज्ञातं वा तदापि न निहनुवीतन्न गोपयेत्-अतृतभाषणं मया न कृतमित्यपलापं न कुर्यात् । किं तर्हि ? इत्याह-कृतं चण्डालीकादि, कृतमिति-क्रोधादिवशादनृतभाषणं मया कृतमित्येव भाषेत, तथा करना चाहिये । पश्चात् द्वितीय पौरुषी में रागादिक भावों से रहित होकर सूत्रार्थका चिन्तवन करना चाहिये। उपलक्षण से तृतीय एवं चतुर्थ पौरुषी का ग्रहण हुआ है जिसका भाव इस प्रकार है कि तृतीय पौरुषी में वह भिक्षाचर्या करे और चतुर्थ पौरुषी में पुनः स्वाध्याय करे इसी बात को इसी सूत्र के छाईस २६ वें अध्ययन में भगवानने कहा है पढमं पोरिसि सज्झायं बीयं झाणं झियायई । सइयाएभिक्खा यरिय पुणो चउत्थीइ सज्झायं ।। इति ॥ सू० १०॥ __ अगर किसी कारण वश असत्य बोलाजाय तो उसे छिपावे नहीं, इसी बातको कहते हैं-'आहच्च.' इत्यादि । બીજા પૌરૂષીમાં રાગાદિક ભાવથી રહિત બની સૂત્રાર્થનું ચિંતવન કરવું જોઈએ. ઉપલક્ષથી ત્રીજા અને ચોથા પૌરૂષીનું ગ્રહણ થયેલ છે. જેને ભાવ આ પ્રકારે છે કે ત્રીજા પૌરૂષીમાં તે ભિક્ષા ચર્ચા કરે અને ચોથા પૌરૂષીમાં ફરી સ્વાધ્યાય કરે. આ વાત આજ સૂત્રના ૨૬મા અધ્યયનમાં ભગવાને કહી છે– पढमं पोरिसि सज्झायं बीयं झाणं झियायई। तइयाए भिक्खायरिय पुणो चउत्थीय सज्झायं इति ॥सू० १०॥ આ વાતને આ સૂત્રના ૨૬ મા અધ્યયનમાં ભગવાને કહ્યું છે. જે કોઈ કારણવશ અસત્ય બોલાઈ જાય તે એને છૂપાવવું નહિં એજ वात ने छे. आहच्च. त्यादि. ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रियदर्शिनी टीका. अ० १ गा० ११ क्रोधवशतो मृषाभाषणे तदनपलापः ७३ च - पुनः, अकृतम् = अनाचरितं चण्डालीकादिकं, नो कृतमिति = मृषाभाषणं मया न कृतमित्येव भाषेत । अयं भावः - गुरुशुश्रूषाकारिणोऽपि शिष्यस्य कथंचिदतीचारसंभवे गुरुसंनिधौ तदालोचना करणीया । आलोचना हि - मोक्षमार्गविघातकानामनन्तसंसार वर्धकानां माया - निदान - मिथ्यादर्शनशल्यानां निष्कर्षणी, ज्ञानावरणीयाद्यष्टविधकर्ममलापकर्षणी, शुद्धात्मस्वरूपदर्शनी, तत्त्वात स्वविमर्शनी, अव्यावाधसुखवर्षिणीति ॥ ११ ॥ ( आहच - कदाचित् ) यदि अकस्मात् ( चंडालियं कटु- चंडालीकं कृत्वा । क्रोध के आवेश से अकस्मात् झूठ बोला गया हो तो भी उसे ( कयाविन निन्दुविज्ज - कदापि न निह्नवीत) कभी भी किसी भी परिस्थिति में छिपाना नहीं चाहिये । ( कडं कडेति भासेजा-कृतं कृतमिति भाषेत ) ऐसा नहीं कहना चाहिये कि मैंने क्रोधादिक के आवेश से असत्य भाषण नहीं किया है किन्तु ऐसा ही कहना चाहिये कि मेरे द्वारा क्रोधादिक के आवेश से असत्य भाषण अवश्य - अवश्य हुआ है, ( अकडं नो कडेत्ति य-अकृतं नो कृतमिति च ) और जो stardaसे असत्य नहीं बोला गया हो तो ऐसा भी नहीं कहना चाहिये कि मैंने असत्य भाषण किया है । भावार्थ - यदि क्रोधादिक कषायों के आवेश से सहसा असत्य भाषण हो भी जाय तो उसे यह नहीं कहना चाहिये कि मैंने असत्य भाषण नहीं किया है । जैसे रक्त से दूषित वस्त्र रक्तसे धोने आहच्च - कदाचित् - हाथ यदि - २३४२भात् चंडालियं कट्टु - चंडालीकंकृत्वा ङोधना आवेशथी अस्भात् लुहु मोसी वायु होय तो पशु तेने कयावि न निन्दुविज्ज - कदापि न निनुवीत उही पशु अ पशु परिस्थितिमां छुपावयुं नहीं लेखे. कडे कडेति भासेज्जा - कृतं कृतमिति भाषेत ओभन उहे लेाये है में अधाદિકના આવેશમાં અસત્ય-ભાષણ કરેલ નથી-પરંતુ એવું કહેવું જોઈએ કે भाराथी ओोधना आवेशमां असत्य भाषण ४३२२०४३२ थयुं छे. अकडं नो कडेत्ति य-अकृतं नो कृतमिति च मने ले अघावेशना सीधे असत्य न मोदायु होय તે એવું પણ ન કહેવું જોઇએ કે મેં અસત્ય ભાષણ કર્યું છે. સહેસા મતલઞ આના એ છે કે જો ક્રયાક્રિક કષાયેાના આવેશથી અસત્ય—ભાષણ થઈ જાય તેા એવું ન કહેવું જોઇએ કે મે અસત્ય-ભાષણ નથી કર્યું. જે રીતે લેાહીથી ખરડાયેલું દૂષિત વસ્ત્ર લેાહીથી ધાવાથી શુદ્ધ થતુ उ-१० ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર ઃ ૧ Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७४ उत्तराध्ययन सूत्रे गुरोरभिप्रायेणैव सर्व कर्त्तव्यमित्याह मूलम् - माँ गलियस्सेवं कैंसं, वैयणमिच्छे पुणो पुणो । दुमाइन्ने", पांवेगं परिवज्जए ॥१॥ केसं वे छाया मा गलिताश्व इव कशां वचनम् इच्छेत् पुनः पुनः । कशाम् इव दृष्ट्वा आकीर्णः, पापकं परिवर्जयेत् ॥ १२ ॥ टीका ' मा गलियस्सेव.' इत्यादि -- इव = यथा, गलिताश्वः =अविनीततुरङ्गः, पुनः पुनः कशां कशामहारं वाञ्छति, तथा पुनः पुनः वचनं प्रवृत्तिनिवृत्तिपरं गुरोरुपदेशं मा इच्छेत् । उपदिष्टार्थमेव पुनः पुनर्वक्तुं गुरवे परिश्रमो न देय इति भावः । पर शुद्ध नहीं होता, उसी प्रकार झूठ की शुद्धि पुनः झूठ बोलने से नहीं होती है यह विश्वास रखना चाहिये । फलितार्थ यह है कि वास्तविक स्थिति को साधु के लिये छुपाना नहीं चाहिये, और अवास्तविक स्थिति को कल्पना के तूलिका से सजाकर प्रकट नहीं करना चाहिये । शिष्य चाहे गुरुजन की शुश्रूषा करनेवाला भी क्यों न हो तो भी उसे कथंचित् अतीचार लगने पर गुरु के समीप आलोचना अवश्य करनी चाहिये । कारण कि आलोचना से आत्मा की शुद्धि होती है एवं मोक्षमार्ग के विघातक तथा अनंत संसार के वर्धक ऐसे माया, मिथ्या एवंनिदान इन तीन शल्यों का अभाव होता है । आत्मा को मलिन करने નથી એજ રીતે જીઝની શુદ્ધિ કરી જુડ બેાલવાથી થતી નથી, આ વિશ્વાસ રાખવા જોઈએ. આના અર્થ એ છે કે વાસ્તવિક સ્થિતિને સાધુએ કદી પણ છુપાવવી ન જોઇએ, અને અવાસ્તવિક સ્થિતિને કલ્પનાથી સજાવીને પ્રગટ ન કરવી જોઈએ. શિષ્ય ગુરુજનની શુશ્રુષા કરવાવાળા પણ કેમ ન હેાય તે પણ તેને કથંચિત્ અતીચાર લાગવાથી ગુરૂની પાસે તેણે આલેચના જરૂર કરવી જોઈ એ. કારણ કે આલેાચનાથી આત્માની શુદ્ધિ થાય છે અને મેાક્ષમાના વિધાતક તથા અનંત સાગરને વધારનાર એવાં માયા, મિથ્યા અને નિદાન આ ત્રણ શલ્યાના અભાવ હાય છે. આત્માને મિલન કરવાવાળા અષ્ટવિધ કર્મોના આ આલેાચનાના પ્રભાવથી વિનાશ થાય છે. આત્મિક શુદ્ધ ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર ઃ ૧ Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रियदर्शिनी टीका. अ० १ गा. १२, गुरोरिङ्गितज्ञेन शिष्येण भाव्यम् ७५ वाले अष्टविध कर्मोंका इस आलोचना के प्रभाव से विनाश होता है। आत्मिक शुद्ध स्वरूप के दर्शन करानेवाली यह आलोचना है और तत्त्व एवं अतत्त्व के विवेक को जाग्रत करती हुई अव्याबाध सुख को प्रदान करनेवाली यही आलोचना है ॥११॥ . शिष्यको सभी काम गुरुमहाराजके अभिप्रायसे ही करना चाहिये, सो दिखलाते हैं-'मा गलियस्सेव०' इत्यादि। अन्वयार्थ-(गलियस्सेव कसं-गलिताश्व इव कशां) जिस प्रकार अविनीत घोड़ा वारंवार कशा (चावुक) के प्रहार की इच्छा करता है, उसी प्रकार (पुणो पुणो मा वयणमिच्छे-पुनः पुनः मा वचनं इच्छेत् ) पुनः पुनः प्रवृत्तिनिवृत्तिरूप गुरुके आज्ञा की शिष्य को वांछा नहीं करनी चाहिये, अर्थात्-उपदिष्ट अर्थको ही बारबार कहलवाने के लिये गुरु महाराज को कष्ट नहीं देना चाहिये । किन्तु ( आइन्ने कसं व टुं-आकीर्णः कशाम् इव दृष्ट्वा) जिस प्रकार आकीर्ण अर्थात् जातिमान् सुशिक्षित विनीत घोड़ा चाबुक को देखकर अपनी अविनीतता का परिहार कर देता है, उसी तरह विनीत शिष्य भी ( पावगं परिवजएपापकं प्रतिवर्जयेत् ) गुरु के इंगित आकार को जानकर पापमय अनुष्ठान का परित्याग करे।। इस श्लोकका भावार्थ शत्रुमर्दन राजा के दृष्टान्त से कहते हैंवह इस प्रकार है સ્વરૂપનું દર્શન કરાવનાર આ આલેચના છે. અને તત્ત્વ તેમજ અતત્વના વિવેકને જાગ્રત કરીને અવ્યાબાધ સુખ આપનારી આ જ આલોચના છે. ૧૧ શિષ્ય બધાં કામ ગુરુમહારાજના અભિપ્રાયથી જ કરવાં જોઈએ, તે मतावामां आवे छे. ‘मा गलियस्सेव०' इत्यादि गलियम्सेव कसं-गलिताश्व इव कशां प्रा२ घोडे वारंवार यामुना प्रहा२नी हुन्छ। ४२ छे से प्रारे पुणो पुणो मा वयणमिच्छे-पुनः पुनः मा वचनंરૂછેન ફરી ફરી પ્રવૃત્તિનિવૃત્તિરૂપ ગુરુની આજ્ઞાની શિષ્ય ઈચ્છા ન કરવી જોઈએ-અર્થાત્ ઉપદિષ્ટ અર્થને વારંવાર કહેવડાવવા માટે ગુરુમહારાજને ४ष्ट न २५jनये. परंतु आइन्ने कसं व टुं-आकीर्णः कशाम् इव दृष्ट्वा रे આકીર્ણ અર્થાત્ જાતવાન કેળવાયેલ ઘોડે ચાબુકને જોઈ પિતાની અવિનીતताना त्या ४२ छे से शते विनीत शिष्य ५५ पावगं परिवज्जए-पापकं प्रतिवर्जयेत् गुरुना गित-मारने नए पापमय अनुष्ठानने। परित्याग ४२. આ લેકને ભાવાર્થ શત્રુમર્દનના દષ્ટાંતથી સમજાવવામાં આવે છે, જે આ પ્રકારે છે. ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययनसूत्रे अत्र शत्रुमर्दनदृष्टान्तः, तथाहि____ आसीदङ्गदेशे चम्पापुरी नाम नगरी, तत्र नरवीरः समरधीरः शूरः शत्रुमर्दनो नाम नृपतिर्बभूव । स चैकदा युद्धप्रसङ्गेन तुरङ्गमारुह्य हस्त्यश्वरथपदातिभिः परितः संग्रामभूमौ गतः । तत्पतिपक्षनृपसैनिका दुर्बला अपि ससैन्यं शत्रुमर्दनं शस्त्रास्त्रवर्षणैः पीडयन्ति । अथ शत्रुमर्दनः सोत्साहं शत्रुसैनिकान् मर्दयितुं स्ववाहनं वैरिसेनायां प्रवेशयन् प्रेरयति स्म । तेन तुरङ्गमेन विलोमतः पश्चात् गमनं समारब्धम् । ततः शत्रुमर्दनः कशया स्ववाहनं ताडयन् पुनः पुनरग्रे धावयितुमिच्छति, ___अंगदेश में चंपापुरी नामकी एक नगरी थी। उसका शासक शत्रुमर्दन नामका एक राजा था। वह मनुष्यों में श्रेष्ठ, युद्धकला में निपुण एवं शूरों में वीर था । एक दिन की बात है कि वह नरेश युद्ध के प्रसंग से घोडे पर सवार होकर हस्ति, अश्व, रथ एवं पदातियों से परिवृत होकर संग्राम भूमि में गया। उसके प्रतिपक्षभूत राजा की सेनाने जो कि एक प्रकार से दुर्बल थी तो भी ससैन्य उस शत्रुमर्दन नरेश को शस्त्र एवं अस्त्रों के प्रहारों से जर्जरित कर दिया। शत्रुमर्दन ने जब इस प्रकार की अपनी स्थिति देखी तो उसने उत्साहित होकर शत्रु के सैनिकों को मर्दन करने के लिये अपने घोडे को शत्रुकी सेनाके भीतर प्रविष्ट होने के लिये आगे प्रेरित किया। परन्तु वह घोड़ा उस सेना के भीतर न घुसकर उल्टा पीछे ही हटने लगा। तब शत्रुमर्दन ने कोडे से बारंबार अपने उस घोडे की ताड़ना करना प्रारंभ की जिससे कि उस घोडे द्वारा वह शत्रुसेना हट सके । परन्तु ज्यों-ज्यों नरेश उस અંગદેશમાં ચંપાપુરી નામની એક નગરી હતી. ત્યાં શત્રુમર્દન નામના રાજા રાજ્ય કરતા હતા. તે મનુષ્યમાં શ્રેષ્ઠ, યુદ્ધકળામાં નિપુણ અને શૂરવીર હતા. એક દિવસની વાત છે કે રાજા શત્રુમર્દન યુદ્ધના પ્રસંગે ઘોડા ઉપર સ્વાર થઇ હાથી, ઘોડા, રથ અને સૈનિકોના સમુદાય સાથે સંગ્રામ ભૂમિ ઉપર ગયા. એના પ્રતિપક્ષી રાજાની સેના એક પ્રકારથી ઘણી ઓછી હતી, છતાં પણ શત્રમર્દન રાજાના સૈન્યને તથા ખુદ શત્રુમર્દનને પણ શસ્ત્ર અસ્ત્રના પ્રહારોથી વિહળ બનાવી દીધા. શત્રુમર્દને પિતાની આ પ્રકારની સ્થિતિ જોઈ ત્યારે એક સાચા વીર પુરુષને શોભે એ રીતે શત્રુસન્યને શિકસ્ત આપવા અને પિતાના સિન્યને નિકળતા કચ્ચરઘાણ બચાવવા પોતાના ઘોડાને શત્રસૈન્યની વચ્ચોવચ લઈ જવા પ્રયત્નશીલ બન્યા, પરંતુ તે ઘડો શત્રસેનાની વચ્ચે ન જતાં પાછા હઠવા લાગ્યો. ત્યારે શત્રુમર્દને કેરડાથી વારં. ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रियदर्शिनी टीका. अ० १ गा० १२ : शत्रुमर्दन दृष्टान्तः स च तुरङ्गमः कशया पुनः पुनस्ताडितोऽपि नेच्छति शत्रुमभिगन्तुम् । अत्रान्तरे शत्रुसैनिका अस्य सबलानपि सैनिकान् अनाथानिव अशरणानिव मन्वाना अचिरेणैव विनित्य निजवाचं वादयामासुः, शत्रुमर्दनः स्ववाहनेन गलिताश्वेन पराजितः श्रीहतो यावत्पलायितुं वाञ्छति, तावत् "गृह्यतां गृह्यताम्"-इति वदन्तः शत्रुसैनिकास्तं निग्रहीतुं पश्चाद्धावमानाः शत्रुमर्दनं निगृह्य लौहपिञ्जरे स्थापितवन्तः। एवं गलिताश्वसदृशः शिष्यो महतेऽनर्थाय भवति । किं तर्हि कुर्यादित्याह-कशां-' चाबूक' इति भाषाप्रसिद्धां दृष्ट्वा, अकीर्णः-जात्याश्वः, विनीताश्व इव शिष्यो गुरोरिङ्गितमाकारं दृष्ट्वा पापकं पापानुष्ठानम्-अविनीततामित्यर्थः, परिवर्जयेत् सर्वथा परिहरेत् । अयं भावः-यथा जात्याश्वः कशां दृष्ट्वैवाश्वारूढस्याशयं विज्ञाय कशाताडनं घोडे को चाबुकसे ताड़ना करता था वह घोड़ा त्यों त्यों पीछे हटता जाता था और शत्रु के सन्मुख जाने में अचकचाताया। इसके बाद शत्रु सैनिकों ने इस राजा के सैनिकोंको अशरण एवं अनाथ जैसा मानकर बहुत जल्दी पराजित कर दिया। और अपनी विजयकी दुंदुभी बजा दी। शत्रुमर्दन नरेश ज्यों ही अपने को उस अड़ियल घोडे की वजह से पराजित समझकर एवं श्रीविहीन होकर युद्धभूमि से पलायन करने को तैयार हुआ कि इतने में ही “ इसको पकड़ लो पकड़ लो" इस प्रकार बोलते हुए शत्रुसैनिकों ने उसका पीछा किया और उसको पकड़कर उन्होंने लौहनिर्मित एक पोंजर के अन्दर बन्द कर दिया। __इस कथा से यह सारांश निकलता है कि गलिताश्व-अड़ियल घोडे की तरह अविनीत शिष्य भी महान् अनर्थकारी होता है। तथा जिस प्रकार विनीत घोड़ा अपने स्वामी के अभिप्रायानुसार चलता વાર તેને ફટકારવાનું શરૂ કર્યું. પરંતુ ગમે તેટલા ચાબુક પડવા છતાં પણ ઘોડે પાછળજ હઠત ગયો, શત્રુની સામે જવામાં તે અચકાતો હતો. આ પરિસ્થિતિને લાભ લઈ શત્રુ સેનાએ શત્રુમર્દન રાજાના સૈન્યમાં હાહાકાર વર્તાવી દીધો અને શત્રુઓએ જીત મેળવી પિતાના વિજયનાં વાજાં વગાડયાં. શત્રુમર્દન રાજાએ, આ પોતાના અડીયલ ઘોડાને કારણે પરાજિત થવું પડયું છે તે જાણી યુદ્ધભૂમિથી પલાયન કરવાની તૈયારી કરી એટલામાં “આને પકડી લ્ય, પકડી લ્યો” આ પ્રકારે બેલતા શત્રુસૈનિકે તેની પાસે આવી પહોંચ્યા. અને તેને પકડી લેઢાના મજબુત સળીયાવાળા પાંજરામાં પુરી દીધું. આ વાર્તાથી એ સારાંશ નિકળે છે કે ગલિતાશ્વ-અડિયલ ઘડાની માફક અવિનીત શિષ્ય પણ મહાન અનર્થકારી હોય છે. જે પ્રકારે વિનીત ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७८ उत्तराध्ययन सूत्रे विनैव तदभिप्रायानुसारं चेष्टते, तथा सुशिष्योऽपि गुरोरिङ्गिताकारं दृष्ट्वा तदाशयं विज्ञाय “ गुरोर्वचनायासो माभूदिति " - वचनेनाप्रेरित एव तदभिप्रायानुसारं कुर्यात् । अत्र मणिनाथदृष्टान्तः - तथाहि आसीदजितनाथजिनशासने बङ्गदेशे रङ्गपुरं नाम नगरम् । तत्र प्रजा - पालनतत्परः स्वजनपद हितकरः प्रशान्तमानसः सुजनहंसमानसः समाश्रितनीतिसरणिः सकलसद्गुणसरोजतरणिर्मणिनाथनामको नृपतिः । स चैकदा दुरात्मभिः बलरिपुभिः परितो वेष्टितां स्त्रनगरीमालोक्य मन्त्रिभिः सह विचारितवान् भो है उसी प्रकार सुशिष्य भी गुरु के इंगित आकार को समझ कर उनकी आज्ञा के अनुसार चलता रहता है । नरेश का नाम मणि इस विषय में मणिनाथ राजा का दृष्टान्त है और वह इस प्रकार हैद्वितीय तीर्थंकर श्री अजितनाथ स्वामी के समय में बंगाल देश के अन्दर रंगपुर नामका एक नगर था वहां के नाथ था । यह प्रजापालन करने में सदा तत्पर रहा करता था । इससे देश भर में आनन्द मंगल छा रहा था । राज्यकार्य से इसका मन कभी भी कायर नहीं बनता था। सुजनरूपी हंसों को रमने के लिये यह मानसरोवर जैसा माना जाता था। राजनीति के पालन करने में यह सर्वदा दत्तचित्त रहा करता था । सद्गुणरूपी कमलों को विकसित करने के लिये यह सूर्य जैसा था। एक दिन की बात है कि इसकी नगरी को इसके प्रबल शत्रु ने आकर घेर लिया । राजाने यह देखकर मंत्रियों के ઘેાડા પેાતાના માલીકના કહેવા મુજબ ચાલે છે, એ જ રીતે સુશિષ્ય પણ ગુરુના ઈંગિત આકારને સમજી એમની આજ્ઞા પ્રમાણે ચાલતા રહે છે. આ અંગે મિણનાથ રાજાનું દૃષ્ટાંત છે જે આ પ્રકારનું છે. ખીજા તીર્થંકર શ્રી અજીતનાથ સ્વામીના સમયમાં બંગાળ દેશમાં રંગપુર નામના એક નગરમાં મિણુનાથ નામના રાજા રાજ્ય કરતા હતા. જે પ્રજા પાલન કરવામાં સદા તત્પર રહેનાર હતા. આથી દેશભરમાં આનઢ મંગળ વરતાઈ રહેલ હતા. રાજ્યકાર્યથી એનું મન કદી પણ કાયર ખનતું નહીં. સુજનરૂપી હંસાને રમવા માટે તે માનસરાવર જેવા ગણાતા हता. श નીતિનું પાલન કરવામાં તે સદા દત્તચિત્ત રહેતા હતા, સદ્ગુણરૂપી કમળાને વિકસિત કરવા માટે તે સૂર્ય જેવા હતા. એક દિવસની વાત છે કે એના નગરને એના પ્રમળ શત્રુએ, સૈન્યસાથે આવી ઘેરી લીધું. રાજાએ ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર ઃ ૧ Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रियदर्शिनी टीका. अ० १ गा० १२ मणिनाथदृष्टान्त: भो ! मन्त्रिणः ! किमधुना करणीय, प्रबलवैरिणश्चतुङ्गिणी सेना चतुर्यु खलु भागेषु नगरी-मावेष्टय तिष्ठति। मन्त्रिण ऊचुः-प्रभो! अलमनया चिन्तया, वयमल्पसंख्यका अपि भवदीयतेजः समुपलभ्य शात्रवबलविजये प्रखरतरशक्तिशालिनी भवामः । भवत्प्रतापादेव सर्व रिपुबलं प्रणष्टं भविष्यति । देव ! जात्याश्वमारुह्य भवान् सन्नद्धः सन्नग्रतः शत्रुमभिसरतु, वयमपि सन्नद्धाः सन्तो भवन्तमनुगच्छामः । एवं विचार्य स्वकीयसेनापरिवृतः स मणिनाथो योद्धं निःसृतः। अल्पबलं मणिनाथमवलोक्य शत्रुसैनिकाः केचिदसिचर्महस्ताः केचिल्लहस्ताः केचिद्धनुर्बाणधराः साथ विचार किया, बोला-हे मंत्री महाशयो ! कहो अब क्या करना चाहिये । देखो, प्रबलशत्रुकी चतुरंगिणी सेना नगरी को चारों ओर से घेर कर पड़ी हुई है। सुनकर मंत्रियोंने कहा प्रभो ! चिन्ता मत करो। हम सब लोग आपके प्रवल तेज से उद्दीप्त होकर शत्रुसेना को पराजय करने में प्रखर शक्तिशाली होंगे। आपके प्रताप से ही समस्त रिपुदल प्रणष्ट होगा। स्वामिन् ! सजधज कर आप जात्याश्व पर सवार होकर पहिले से ही शत्रु के सन्मुख जाइये। हम लोग भीसन्नद्ध होकर आपके पीछे-पीछे आते हैं । इस प्रकार विचार कर मणिनाथ नरेश सेना से परिवृत होकर युद्ध करने के लिये निकल पडे। अल्पबलवाले नरेश को देखकर शत्रु के सैनिकोंने उसे घेर लिया। सैनिकों में किन्हीं-किन्हीं के हाथों में तलवारें थीं। किन्हों-किन्हीं के हाथों में भाले थे। किन्हींकिन्हीं के हाथों में धनुष एवं बाण थे। किन्हीं-किन्हीं के हाथों में આ જાણી મંત્રીઓ સાથે વિચાર કર્યો, મંત્રીઓને ઉદ્દેશીને તેણે કહ્યું- હે મંત્રિમહાશ ! કહે હવે શું કરવું જોઈએ. પ્રબળ શત્રુની ચતુરંગિણી સેના નગરને ચારે તરફથી ઘેરો ઘાલીને પડેલ છે. આ પ્રકારનું રાજાનું કહેવું સાંભળી મંત્રિોએ કહ્યું, પ્રભો ! ચિંતા ન કરે. અમે બધા આપના પ્રબળ તેજથી ઉદ્દીપ્ત થઈ શત્રુ સેનાને પરાજય કરવામાં પ્રખર શક્તિશાળી થઈશું. આપના પ્રતાપથી શત્રુનું સૈન્ય હારી જશે. સ્વામિન! આપ તૈયાર થઈ જાત્યાશ્વ પર સવાર થઈ પહેલાંજ શત્રુઓની સન્મુખ પહોંચે, અમે પણ તૈયાર થઈ આપની પાછળ પાછળ આવીએ છીયે. આ પ્રકારે વિચાર કરી મણિનાથ રાજા સેનાથી પરિવૃત થઈ યુદ્ધ કરવા માટે નિકળી પડ્યા. થોડા બળવાળા રાજાને જોઈ શત્રસેનાએ તેમને ઘેરી લીધા. સૈનિકમાં કઈ હાથમાં તરવાર હતી, કેઈના હાથમાં ભાલાં હતાં. કેઈની પાસે ધનુષ્ય બાણ હતાં. કોઈના ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययनसूत्रे केचिद् यष्टिधारिणः केचित्तोमरकरा अनेकानेकशस्त्रास्त्रधारिणः परितो मणिनाथं वेष्टितवन्तः । एवं विविधसंकटेषु समुपस्थितेषु स मणिनाथस्तेन जात्याश्ववाहनेन शत्रुसैनिकरचितविविधव्यूहेषु मृगेषु सिंह इव निःशङ्कः प्रविश्य सर्वानुचरैः सहायतो धावमानः शत्रुसैनिकेषु विजयं प्राप्तवान् । एवं सुशिष्यः स्वगुरुमाराधयन् स्वपरकल्याणाय भवति ॥ १२ ॥ पुनरविनीतविनीतयोराचरणमाहमूलम्-अणासंवा थूलवया कुसीला, मिपि चंडं पकरंति सीसा। चित्ताणुया लहु दक्खोववेया, पसायएं ते हु दुरासयंपि॥१३॥ छायाअनाश्रवाः स्थूलवचसः कुशीलाः, मृदुमपि चण्डं प्रकुर्वन्ति शिष्याः। चित्तानुगा लघु दाक्ष्योपपेताः, प्रसादयन्ति ते हु दुराशयमपि ।। १३ ।। लकडियां थीं। किन्हीं-किन्हीं के हाथों में तोमरजाति के शस्त्र थे । इस प्रकार अस्त्र एवं शस्त्रों से सुसज्जित उस शत्रुसेना ने चारों ओर से मुझे घेर लिया है, यह देखकर नरेश ने अपने उस घोडेको उस सेना के रचित विविध प्रकार के व्यूह में आगे बढाया। जिस प्रकार मृगों के टोले में निःशंक होकर सिंह घुस जाता है उसी प्रकार मणिनाथ नरेश भी उस घोडे पर बैठे हुए उस शत्रु की सेना में घुस पडे और अपनी एवं अपने अनुचरों की उनसे रक्षा करते हुए आगे बढ़ते गये। शत्रुसेना भी इनसे ज्यों-ज्यों ये आगे बढते जाते थे परास्त होती जाती थी। इस प्रकार शत्रुसेना को पराजित कर मणिनाथ ने अपनी विजयपताका वहां फहराई । इसी प्रकार सुशिष्य भी गुरु महाराज की आज्ञा હાથમાં લાકડીઓ હતી, કેઈના હાથમાં તોમર નામનાં શસ્ત્ર હતાં. આ પ્રકારના શસ્ત્ર-અસ્ત્રથી સુસજજ એવી શત્રુસેનાએ મને ઘેરી લીધેલ છે, એવું જોઈ મણનાથ રાજાએ પિતાના ઘોડાને એ સેનાએ રચેલા ભૂહની વચ્ચે આગળ વધાર્યો. જે રીતે મૃગના ટેળામાં નિઃશંક બની સિંહ ઘૂમતો હોય, આ રીતે શત્રુસેનાની વચ્ચે ઘુસી જઈ પિતાનું અને પિતાના સિનિકેનું રક્ષણ કરતાં કરતાં આગળ વધવા માંડયું. આથી શત્રુસેનામાં ભંગાણ પડયું. આ પ્રકારે શત્રુસેનાને પરાજિત કરી રાજા મણિનાથે પિતાની વિયપતાકા ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ E प्रियदर्शिनी टीका. अ० १ गा० १३ अविनीतविनीतशिष्याचरणम् ८१ टीका'अणासवा' इत्यादि-अनाश्रवाः अनाज्ञाकारिणः, उच्छृखलत्वात् , स्थूलवचसा अविचारितभाषिणः, अभिमानित्वात् , कुशीला कुत्सिताचारवन्तः दुष्टस्वभावा उभयलोकभयरहितखादित्यर्थः । शिष्याः मृदुमपि कोमलहृदयमपि गुरुं, चण्डं-सकोपं प्रकुर्वन्ति । पूर्वार्धनाविनीतशिष्याचरणं प्रदर्शितम् । का आराधन करता हुआ स्व और पर का कल्याण करनेवाला होता है ॥ १२॥ फिर भी सूत्रकार अविनीत एवं विनीत के स्वरूप को कहते हैं'अणासवा०' इत्यादि। अन्वयार्थ-(अणासवा-अनाश्रवाः) अविनीत होने से आज्ञानुसार नहीं चलने वाले (थूलवया-स्थूलवचसः) अभिमानी होने से विना विचारे बोलनेवाले, (कुसीला-कुशीलाः) इहलोक एवं परलोक के भय से रहित होने के कारण दुष्ट स्वभाववाले ऐसे (सीसा-शिष्याः) शिष्य (मिउंपि-मृदुमपि) कोमल हृदयवाले गुरु को भी (चंडं पकरंतिचंडं प्रकुर्वन्ति) कोपयुक्त करते हैं। एवं जो शिष्य (चित्ताणुया-चित्तानुगा) आचार्य महाराजकी आराधना तप एवं संयम की हेतु होती है ऐसा जानकर आचार्य महाराज की मनोवृत्तिका अनुसरण करनेवाले होते हैं अर्थात् उनके आज्ञा के आराधक होते हैं, तथा (दक्खोववेयादाक्ष्योपपेताः) गुरु महाराज की सुख शाता के अभिलाषी होने से ફરકાવી આ પ્રકારે સુશિષ્ય પણ ગુરૂ મહારાજની આજ્ઞાનું આરાધન કરતાં પિતાનું અને બીજાનું કલ્યાણ કરવાવાળા હોય છે. ૧ર सूत्र४२ धुमा अविनीत येन विनितना स्व३पन छ. अणासवा० इत्यादि मन्वयार्थ -अणासवा-अनाश्रवाः सविनीत मनवाथी माज्ञानुसार नयासपापा थूलवया-थूलवचसः मलिभानी डावाथी १२ विद्यायु मोसवावा कुसीला-कुशीलाः मासामने ५२न भयथी २डित डावाना रणे हुष्ट સ્વભાવવાળા એવા શિષ્ય કોમળ હૃદયવાળા ગુરુને પણ કેપ યુક્ત કરે છે. मथ। सीसा-शिष्याः शिष्य मिउंपि-मृदुमपि। भाइयवाणा शुरुन ५) चंडं पकरंति-चंड प्रकुर्वन्ति ५ युस्त ४२ छे. मायार्थ महारानी माराધના તપ અને સંયમના હેતુથી હેાય છે એવું જાણી આચાર્ય મહારાજની મનવૃત્તિનું અનુસરણ કરવાવાળા હોય છે, અર્થાત્ એમની આજ્ઞાના આરાધક डाय छे तथा दक्खोववेया-दाक्ष्योपपेताः शुरु महारानी सुमतानमनिताषी ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययनसूत्रे अत्र चण्डशिष्यदृष्टान्तः, तथाहि एकः सरलहृदयः सदयस्तपस्वी तेजस्वी रत्नत्रयसम्पन्नः कोमलान्तः करणः सुभद्रनामको वृद्धाचार्य आसीत् । तस्यातिविद्वेषी गुरुच्छिद्रान्वेषी प्रचण्डचतुराई से युक्त होते हैं वे शिष्य (दुरासयंपि-दुराशयं अपि) कुपित भी अपने गुरुमहाराज को (हु) निश्चय से (लहु-लघु) शीघ्र ही (पसायए-प्रसीदयन्ति ) प्रसन्न करते हैं। अविनीत शिष्य का आचरण चण्ड अर्थात् क्रोधी शिष्य के दृष्टान्त से वर्णन किया जाता है एक वृद्ध आचार्य थे। जिनका नाम सुभद्र था। हृदय इनका कषाय निर्मुक्त होने से बहुत ही सरल था । और दयालु थे। वे बहुत ही अधिक तपस्या किया करते थे, अतः “तपस्वी” इस नाम से प्रसिद्ध थे। जैसे ये तपस्वी थे वैसे ही ये तेजस्वी भी थे। इसी से रत्नत्रय से सुशोभित इनका अन्तःकरण बना हुआ था। आजव ( सरलता) धर्मकी प्राप्ति हो जाने से जो मनमें एक प्रकार की नरमाई आजाती है उसका नाम कोमलता है। यह कोमलता इनके अन्तःकरण में पूर्णतया भरी हुई थी। इनका एक शिष्य था । इसका नाम चण्डथा । यह यथा नाम तथा गुणवाला था। जितने गुरु महाराज कोमल परिणामी थे उतना ही अधिक यह कठोर था। अपने गुरु महाराज के जापाथी यतुराधथी युत डोय छे ते शिष्य दुरासयंपि-दुराशयंअपि धायमान थयेा पाताना गुरु मा२।०४ने हु निश्चयथा लहु-लघु ४८६ी पसायएप्रसीदयन्ति प्रसन्न ४२ छे. અવિનીત શિષ્યનું આચરણ ચંડ અર્થાત્ કોધી શિષ્યના દૃષ્ટાંતથી વર્ણન કરવામાં આવે છે. એક વૃદ્ધ આચાર્ય હતા, જેમનું નામ સુભદ્ર હતું. એમનું હૃદય કષાય નિર્મુક્ત હોવાથી બહુજ સરળ હતું અને દયાળુ હતા. તેઓ ખુબ અધિક તપસ્યા કર્યા કરતા હતા. જેથી તપસ્વી નામથી પ્રસિદ્ધ હતા. જેવા એ તપસ્વી હતા એવા એ તેજસ્વી પણ હતા. તેજસ્વીપણાને લીધે રત્નત્રયથી સુશોભિત એમનું અંતઃકરણ હતું. આર્જવ (સરલતા) ધર્મની પ્રાપ્તિ થઈ જવાથી જે મનમાં એક પ્રકારની નરમાઈ આવી જાય છે, એનું નામ કમળતા છે. આ કેમળતા એમના અંતઃકરણમાં પૂર્ણતયા ભરી હતી. એમને એક શિષ્ય હતો જેનું નામ ચન્ડ હતું. તે યથા નામ તથા ગુણવાળો હતો. જેટલા ગુરુ મહારાજ કેમળ પરિણામી હતા એટલે જ એ કઠેર હતા. પોતાના ગુરુ ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रियदर्शिनी टीका. अ० १ गा० १३ चण्डशिष्यदृष्टान्तः श्रण्डनामकः शिष्यो मिलितः । अथैकदा भिक्षाचर्या गच्छतस्तस्याचार्यस्य मार्गेऽकस्मादज्ञानतो मृतमण्डूकलेवरोपरि चरणतलं संलग्नम् । तदनुगतोऽसौ चण्डस्तदानींगुरुमब्रवीत्-अहह ! भवता चरणाघातेन मण्डूको मारितः, तदा गुरुः शिष्यवचनं श्रुत्वा दुःशीलोऽयमिति मत्वा समतामवलम्ब्य मौनमास्थाय स्वस्थानमागत्य स्वाध्यायध्यानसंलग्नो जातः । तदानी चण्डेन मनसि विचारितम्-मामयं प्रतिदिनं प्रतिक्षणं ग्रहणासेवनाशिक्षायां प्रेरयति-मा प्रमाद्यताम् , मा प्रमाद्यताम् । इति कार्यभार छिद्रोंका अन्वेषण करना ही एक उसका काम था। इसी से गुरुमहाराज जैसे परमोपकारी के साथ भी यह सदा अपनी द्वेष भरी दृष्टि रखा करता था। एक दिन की बात है कि जब गुरु महाराज स्वयं गोचरी के लिये जा रहे थे तब मार्ग में इनका पैर एक मृतक मण्डूक के कलेवर के ऊपर अनजान से पड़ गया। साथ में यह क्रोधी शिष्य भी था। जो गुरुमहाराज के पीछे-पीछे चल रहा था। उसने ज्यों ही यह देखा, सहसा बोल उठा कि गुरु महाराज आप के पैर के आघात से मंडूक की विराधना हुई है। इस प्रकार शिष्य का वचन सुनकर और यह दुःशील है ऐसा जानकर समता का अवलंबन करके चुपचाप गुरु महाराज अपने स्थान पर वापिस लौट आये और वहां आकर स्वाध्याय एवं ध्यान में लीन हो गये। ऐसा देखकर उस समय चंड-(क्रोधी शिष्य ) ने मनमें विचार किया-देखो गुरु महाराज तो मुझे प्रतिदिन एवं-प्रतिक्षण "प्रमाद मत करो, प्रमाद मत करो” इस प्रकार से ग्रहण शिक्षा और મહારાજના છિદ્રોનું અન્વેષણ કરવું એ જ એનું કામ હતું. એથી ગુરુ મહારાજ જેવા પરમેપકારીના સાથે પણ સદા પિતાની કેશભરી દષ્ટી રાખ્યા કરતો હતો. એક દિવસની વાત છે કે, જ્યારે ગુરુમહારાજ પોતે ગોચરી માટે જઈ રહ્યા હતા, ત્યારે માર્ગમાં તેમને પગ એક મરેલા દેડકાના કલેવર ઉપર અજાણુથી પડી ગયે. તે ક્રોધી શિષ્ય પણ સાથે હતો જે ગુરુ મહારાજની પાછળ પાછળ ચાલતો હતો જ્યારે તેણે આ જોયું તે તુર્તજ બોલી ઉઠ્યો કે ગુરુ મહારાજ આપના પગના આઘાતથી દેડકાનું મૃત્યુ થયું છે. આ પ્રકારનાં શિષ્યનાં વચન સાંભળીને અને તે દુરશીલ છે, તેવું જાણીને સમતાનું અવલંબન કરીને ગુરુ મહારાજ ચુપચાપ પિતાના સ્થાન ઉપર પાછા ફરી ગયા. અને ત્યાં આવીને સ્વાધ્યાય તેમજ ધ્યાનમાં લીન બની ગયા. આવું જોઈ ચડે (તે કેવી શિષ્ય) મનમાં વિચાર કર્યો. જુઓ ગુરુ મહારાજ તે મને પ્રતિદિન તેમજ પ્રતિક્ષણ “પ્રમાદ ન કરે, પ્રમાદ ન કરે” આ પ્રકા ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८४ उत्तराध्ययनसूत्रे दत्त्वाऽनेन विश्रामाय मह्यं समयो न प्रदीयते, अद्य तु स्वयमेव प्रमादवशं गतः । प्रतिक्रमणसमये सायंकाले सर्ववैरनिर्यातनं करिष्यामि । तदनु सायंकाले दैवसिकप्रतिक्रमणे कृते सति स चण्डो वन्दन समये श्रावकसंघसमक्षे ब्रवीति-गुरो ! मण्डूकविराधनायाः प्रायश्चित्तं कथं न गृह्यते, एवं पुनः पुनः शिष्येणोक्तः सन् गुरुः क्रोधवशेन तं शिष्यं ताडयितुं सवेगमुत्थितो यावत् तदभिमुखं गच्छति तावदुपाश्रये तमसि पाषणमयस्तम्भे संघट्टितं तस्य शिरः स्फुटितम् । तदाऽऽर्तध्यान आसेवन शिक्षा देते रहते हैं । तथा मेरे ऊपर इतना अधिक कार्यभार रख दिया है कि जिससे मुझे विश्राम करने का भी समय नहीं मिलता है । और आप स्वयं प्रमाद का सेवन करते हैं। आज सायंकाल के समय प्रतिक्रमण करने के अवसर पर मैं उनसे समस्त वैर भाव का बदला लूंगा । इस प्रकार विचार कर उसने सायंकाल के समय प्रतिक्रमण कर चुकने पर वन्दना के समय श्रावकसंघ के समक्ष गुरुमहाराज से कहा कि हे गुरो ! आज आपने मंडूक की विराधना का प्रायश्चित्त क्यों नहीं लिया। शिष्य की इस बात को गुरु महाराज ने लक्ष्य में नहीं दिया। अतः शिष्य को बुरा मालूम दिया और ईर्ष्यावश उसने फिर से वही बात बारंबार कही । गुरुमहाराज को सुनकर क्रोध का आवेश हो आया। इससे वे उस शिष्य को मारने के लिये खडे हुए और उसकी तरफ आगे बढ़े । बीच में उस उपाश्रय में एक पाषाण का स्तम्भ था રથી ગ્રહણ શિક્ષા અને આસેવન શિક્ષા આપે છે અને મારા ઉપર એટલે અધિક કાર્યભાર રાખ્યો છે કે જેથી મને વિશ્રામ કરવાનો સમય મળતો નથી, અને પિતે પ્રમાદનું સેવન કરે છે. આજ સાંજના વખતે પ્રતિક્રમણ કરવાનો અવસર ઉપર હું તેમનાથી સમસ્ત વેરભાવને બદલે લઈશ. આ પ્રકારે વિચાર કરી તેણે સાયંકાળનું પ્રતિકમણ કરી લીધા પછી વંદનાના સમયે શ્રાવક સંઘની સમક્ષ ગુરુ મહારાજને કહ્યું કે હે ગુરુ ! આજ આપે દેડકાની વિરાધનાનું પ્રાયશ્ચિત કેમ ન લીધું ? શિષ્યની આ વાતને ગુરુ મહારાજે લક્ષમાં લીધી નહીં આથી શિષ્યને ખરાબ લાગ્યું અને ઈર્ષાવશ ફરીથી તેને તે વાત વારંવાર કહી. ગુરુ મહારાજે સાંભળીને તેમના મનમાં bધને આવેશ આવી ગયે જેથી તે પિતાના શિષ્યને મારવા ઉભા થયા અને તેની તરફ આગળ વધ્યા, વચમાં તે ઉપાશ્રયમાં એક પત્થરને સ્તંભ હતો જે અંધકાર હેવાના કારણે દેખવામાં આવતો ન હતો તે સ્તંભ સાથે ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रियदर्शिनी टीका. अ० १ गा. १३ चण्डरुद्राचार्यशिष्यदृष्टान्तः वशंगतोऽसौ वृद्धाचार्यः शरीरं त्यक्त्वा सर्पदेहं प्राप्तवान् । स च विषमविषधरो नाम्ना चण्डकौशिकः सो जातः। एवं चण्डशिष्यवदविनीतशिष्या मृदुमपि गुरुं प्रकोपयन्ति, दुर्गतिमपि प्रापयन्ति । __ अथ विनीतशिष्याचरणं प्रदर्शयति–'चित्ताणुया' इत्यादि । चित्तानुगाः= आचार्यमनोवृत्त्यनुसरणशीलाः, आचार्याराधनस्य तपःसंयमहेतुत्वात् , दाक्ष्योपेताः -दाक्ष्यं चातुर्य तेनोपेताः युक्ताः, गुरुशाताभिलाषित्वात्, ते शिष्याः हु= निश्चयेन, दुराशयमपिन्सकोपमपि गुरुं लघु-शीघ्रं प्रसादयन्ति-प्रसन्नं कुर्वन्ति । अथ चण्डरुद्राचार्यशिष्योदाहरणम्-तथाहि कदाचिदुज्जयिनीनगर्या शिष्यपरिवारसहितः स्वभावतश्चण्ड चण्डरुद्रनामक आचार्यः समवसृतः । स च साधूनां ग्रहणासेवनाशिक्षायां न्यूनातिरिक्तादिदोषजो अन्धकार होने की वजह से दिखलाई नहीं पड़ रहा था। उससे उनका माथा टकराया और फूट गया विशिष्ट आघात होने से उनके चित्त में आर्तध्यान उत्पन्न हुआ। इससे वे वृद्ध आचार्य आर्तध्यान में मरकर विषम-विषधर चण्डकौशिक सर्पकी पर्याय में उत्पन्न हुए। इस प्रकार चंडशिष्यकी तरह अविनीत शिष्य कोमल हृदयवाले भी अपने गुरु महाराज को कुपित करते हैं और दुर्गति तक पहुँचाते हैं विनीत शिष्यका आचरण कैसा होता है, यह बात चण्डरुद्राचार्यके शिष्य के उदाहरण से स्पष्ट की जाती है किसी समय उज्जयिनी नगरी में शिष्य परिवार सहित चण्डरुद्र नामक एक आचार्य जो स्वभावतः क्रोधी थे आये । वे एकान्त स्थान में बैठकर स्वाध्याय एवं ध्यान इस अभिप्राय से किया करते थे कि कहीं તેમનું માથું ટકરાયું અને ફુટી ગયું. વિશિષ્ટ આઘાત હોવાથી તેમના ચિત્તમાં આધ્યાન ઉત્પન્ન થયું, જેનાથી તે વૃદ્ધ આચાર્ય આર્તધ્યાનમાં મરીને વિષમ વિષધર ચંડકૌશિક સર્પની પર્યાયમાં ઉત્પન્ન થયા. આ પ્રકારે ચંડ શિષ્યની માફક અવિનીત શિષ્ય કમળ હૃદયવાળા પિતાના ગુરુને પણ ક્રોધીત બનાવે છે, અને દુર્ગતિમાં પહોંચાડે છે. વિનિત શિષ્યનું આચરણ કેવું હોય છે તે વાત ચંડરૂદ્રાચાર્યના શિષ્યના ઉદાહરણથી સ્પષ્ટ કરવામાં આવે છે. કે એક સમય ઉયની નગરીમાં શિષ્ય પરિવાર સહિત ચંડરુદ્ર નામના એક આચાર્ય જે સ્વભાવે ક્રોધી હતા તે પધાર્યા તે એકાત સ્થાનમાં બેસીને સ્વાધ્યાય તેમજ ધ્યાન એવા અભિપ્રાયથી કરતા હતા કે કયારેક ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८६ उत्तराध्ययनसूत्रे दर्शनात् कोपोत्पत्तिर्माभूदिति मनसि कृत्वा रहसि स्वाध्यायध्यानं कुर्वन्नन्यसाधुभ्यः पृथगवतिष्ठते । अत्रान्तरे उज्जयिनीवास्तव्य इभ्यपुत्रः कोऽपि नवपरिणीतः सुहृत्परिवृतः कृतकुङ्कुमरागः प्रवरनेपथ्यः साधूनां वन्दनार्थं तत्रागतः, साधूनां सविधि वन्दनं कृत्वा तत्र स्थितः । अथ तन्मित्रैः कैश्चित् सोपहासमुक्तम्- भो साधवः ! धर्म ब्रूत । ते साधवस्तेषामुपहासवचनं विदित्वा किमपि नोक्तवन्तः, किंतु स्वाध्यायं कुर्वन्त आसन् । पुनस्तैः सपरिहासमुक्तम्- हे भगवन्तः ! दीयतामस्मै दीक्षा, साधुओं की ग्रहण शिक्षा एवं आसेवन शिक्षा में न्यूनातिरिक्त दोषों के देखने से उनके प्रति मेरे चित्त में क्रोध की उत्पत्ति न हो जाय, । अतः वे साधुओं से सदा अलहदा ही एकान्त में रहा करते थे । और वहां स्वाध्याय एवं ध्यान करते-करते अपना समय व्यतीत करते । एक समय की बात है कि उसी उज्जयिनी नगरी का रहने वाला कोई एक सेठ का पुत्र कि जिसका उसी समय विवाह हुआ था अपनी मित्रमंडली सहित सजधज के साधुओंको वन्दना करने के लिये आया ! उसके पैरों का माहुर अभी ढीला भी नहीं पड़ा था और हाथोंकी मेंहदी भी अभी पूरी तरह से सुखी नहीं थी । वह सविधिवन्दना कर एक ओर बैठ गया । इतने में उसके मित्रों ने मुनिराज से उपहास करके कहा कि हे महाराज ! आप लोग धर्मका उपदेश दीजिये । साधुओंने उनके हास्य मिश्रित वचन सुनकर उन्हें धर्मका उपदेश नहीं दिया और न कुछ कहा भी किन्तु अपने स्वाध्याय करने में ही तल्लीन रहे । पश्चात् फिर भी સાધુઓની ગ્રહણ શિક્ષા અને આસેવન શિક્ષામાં ન્યૂનાતિરિક્ત દોષોને જોવાથી તેમના પ્રતિ મારા ચિત્તમાં ક્રાધની ઉત્પત્તિ ન થઈ જાય, આથી તેએ સાધુઆથી સદા અલાયદા એકાન્તમાં જ રહ્યા કરતા હતા. અને ત્યાં સ્વાધ્યાય અને ધ્યાન કરતાં કરતાં પેાતાને સમય વ્યતિત કરતા. એક સમયની વાત છે કે, એ ઉજયની નગરીમાં રહેનાર એક શેઠના પુત્ર કે જેને તુરતમાંજ વિવાહ થયા હતા તે પેાતાના મિત્ર મંડળ સાથે ખની ઠનીને સાધુઓને વંદના કરવા આવ્યેા. એના પગનું માહુર (મહાવર) પગના તળીયાનેા લાલ રંગ) હજુ ઢીલું થયેલ ન હતુ તેમ હાથમાંની મેદી પણ સુકાઈ ન હતી. તે સિવિધ વંદના કરી એક બાજુ બેઠા. એ વખતે તેના મિત્રાએ મુનિરાજના ઉપહાસ કરી કહ્યું કે મહારાજ ! આપ ધર્મના ઉપદેશ આપે. સાધુઓએ તેમનુ' હાસ્ય મિશ્રીત વચન સાંભળીને ઉપદેશ ન આપ્યા. અને ન કાંઇ પણ કહ્યું, પોતાના સ્વાધ્યાય કરવામાંજ તલ્લીન રહ્યા. ફરીથી હસતાં હસતાં ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર ઃ ૧ Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रियदर्शिनी टीका. अ० १ गा. १३ चण्डरुद्राचार्यशिष्यदृष्टान्तः निर्विण्णोऽयं गृहवासेन, भार्ययाऽप्ययं परित्यक्तः अतः प्रसीदत, संसारदुत्तारयत, साधुभिरुक्तम् - अत्रास्माकं गुरुस्ति स प्रत्राजयिष्यति, वयमनधिकारिणोदीक्षादानस्य, तस्मात् तत्समीपं गच्छत, तदनु मित्रवर्गस्तमिभ्यपुत्रं चण्डरुद्राचार्यस्य समीपं नीत्वा तं प्रणम्य सपरिहासमुक्तवान्- भदन्त ! दीयतामस्मै दीक्षा । ततस्तत्परिहासवचनं श्रुत्वा संजातकोपेन चण्डरुद्राचार्येण कथितम् - भस्मानयेति, तदानीमेकेन मित्रेण हास्यादेव भस्मानीतं, ततञ्चण्डरुद्राचार्यो भस्म गृहीत्वा बलादेव तत्केशलुञ्चनं चकार, तदा तद्वयस्याः सर्वे प्रव्रज्याभयात्पलायिता । उन्होंने हँसी में कहा कि महाराज ! इस नव परिणीत श्रेष्ठि पुत्र को आप दीक्षा दीजिये । क्यों कि यह गृहस्थावास से उदासीन हो रहा है । इस की धर्मपत्नी ने भी इसका परित्याग कर दिया है। अतः प्रसन्न होकर इसे संसार से पार उतारिये । मुनिराजों ने सुनकर उनसे कहा कि यहां हमारे गुरुमहाराज विराजमान हैं - वे ही दीक्षा देंगे हम लोग उनके समक्ष दीक्षा देने के अधिकारी नहीं हैं । इसलिये आप लोग इन्हें उनके ही पास ले जाइये । साधुओंके इस प्रकार के कहे गये वचनों को सुनकर वे लोग अपने उस मित्र को चंडरुद्र आचार्य के समीप ले गये। आचार्य महाराज को वन्दना कर वे उनसे भी परिहास पूर्वक यही कहने लगे कि हे भदन्त ! इसको आप दीक्षा दीजिये । उनकी हँसी के वचन सुनकर कुपित होते हुए चंडरुद्र आचार्य बोले- ठीक है-भस्म लाओ मैं इसे दीक्षा देता हूं । इतना सुनते ही किसी एक मित्र ने हंसी हंसी में शीघ्र ही भस्म लाकर वहां उपस्थित कर दी। चंडरुद्राचार्य ने उस भस्म ૮ તેમણે કહ્યું કે મહારાજ! આ નવપિરણીત શ્રેષ્ઠિ પુત્રને આપ દીક્ષા આપે કેમકે એ ગૃહસ્થાવાસથી ઉદાસીન બની રહેલ છે. આની ધર્મપત્નિએ પણ તેના ત્યાગ કર્યો છે. આથી પ્રસન્ન થઇને આને સંસાર સાગરથી પાર ઉતારા. મુનિરાજોએ એ સાંભળીને તેમને કહ્યું કે અહિં અમારા ગુરુ મહારાજ બિરાજે છે તે દીક્ષા આપશે. અમે તેમની સામે દીક્ષા આપવાના અધિકારી નથી. માટે આપ લેગ તેને ગુરુ મહારાજ પાસે લઈ જાવ. સાધુઓના આ પ્રકારે હેવામાં આવેલ વચનાથી તેઓ તેમના મિત્રને ચ'ડદ્ર આચાર્ય પાસે લઈ ગયા. આચાર્ય મહારાજને વંદના કરી તે તેમને પણ પરિહાસપૂર્વક એવું જ કહેવા લાગ્યા કે હે ભદન્ત! આને આપ દીક્ષા આપે. તેમનાં હાંસીનાં વચન સાંભળીને ક્રષીત થતાં ચડરૂદ્ર આચાર્ય મેલ્યા ઠીક છેભસ્મ લાવા, હું તેને દીક્ષા આપું છુ આ સાંભળતાં કેાઇ એક મિત્રે હસતાં હસતાં તુરતજ ભસ્મ લાવીને હાજર કરી. ચંડરૂદ્રાચાર્ય' એ ભસ્મને હાથમાં ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર ઃ ૧ Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ___ उत्तराध्ययनसूत्रे ततः स इभ्यपुत्रो भाग्यवशेन लघुकर्मणा च भावश्रमणो जातः, तदानीं तस्येभ्यपुत्रस्य लोचे कृते सति “मम प्रव्रज्यैवास्तु" इति परिणामः सम्पन्नः, ततो रजोहरणसदोरकमुखवस्त्रिकादिभिः साधुवेषं धृत्वा द्रव्यभावतः संयतो जातः । ततोऽसौ गृहीतप्रव्रज्यः शिष्यो गुरुमब्रवीत्-भदन्त ! अन्यत्र व्रजामः, अत्र मम को हाथ में लेकर जबर्दस्ती उसके केशों का लुंचन कर दिया। मित्रों ने यह देखकर समझा कि कहीं हमारी भी यही हालत न हो जाय-हमें भी जबर्दस्ती से दीक्षित न बना दिया जाय-इस डरसे वे सब के सब वहां से शीघ्र भाग गये। उस समय वह श्रेष्ठिपुत्र भाग्य के उदय से एवं लघुकर्म के प्रभाव से भावभ्रमण बन गया था। क्यों कि जिस समय आचार्यमहाराजने उसके केशोंका लुंचन किया था उस समय उसके चित्त में यही परिणाम हो गया था कि मेरी दीक्षा ही हो जाय तो सर्व सुन्दर है।" इस परिणाम विशिष्ट-भाव श्रमण अवस्था संपन्न-उस इभ्यपुत्र के लिये आचार्य महाराज ने केशलुंचन करने के बाद ही रजोहरण एवं सदोरक मुखवस्त्रिका प्रदान करदी-इससे वह यथार्थ में द्रव्यरूप से भी साधु वेषसे सुशोभित होने लगा। इस प्रकार द्रव्य एवं भाव से संयत अवस्था को धारण किये हुए-उस नवीन शिष्य ने गुरुमहाराज से कहा कि हे भदन्त ! चलो अब यहां से दूसरी जगह चलें। नहीं तो मेरे લઈને જબરજસ્તીથી તેના વાળને લેચ કર્યો. મિત્રે આ જોઈને એવું સમજ્યા કે અમારી પણ આવી હાલત ન થઈ જાય અમને પણ જબરજસ્તીથી દીક્ષીત ન બનાવાય આવા ડરથી તેઓ સઘળા ત્યાંથી તુરતજ ભાગી ગયા. તે સમય શ્રેષ્ઠી પુત્ર ભાગ્યના ઉદયથી તેમજ લઘુ કર્મના પ્રભાવથી ભાવ8મણ બની ગયું હતું કેમકે જે સમય આચાર્ય મહારાજે તેને વાળને લેચ કર્યો ત્યારે તે સમયે તેના ચિત્તમાં એ જ પરિણામ થઈ ગયું હતું કે મને દીક્ષા અપાય તે તે સર્વ સુન્દર છે. આ પરિણામ વિશિષ્ટ-ભાવશ્રમણ અવસ્થા સંપન્ન–તે ઈલ્ય પુત્ર માટે આચાર્ય મહારાજે કેશને લોચ કર્યા પછી રજોહરણ અને દેરા સાથેની મુખવસ્ત્રિકા આપી. આથી યથાર્થમાં દ્રવ્ય રૂપથી પણ સાધુ વેશથી સુશોભિત બની રહ્યો. આ પ્રકારે દ્રવ્ય અને ભાવથી સંયત અવસ્થાને ધારણ કરીને એ નવીન શિષ્ય ગુરુમહારાજને કહ્યું કે હે ભદન્ત! ચાલ હવે અહિંથી બીજા સ્થળે જઈએ. નહીં તે મારા બંધુ ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रियदर्शिनी टीका. अ० १ गा. १३ चण्डरुद्राचार्यशिष्यदृष्टान्तः ८९ बान्धवा उपद्रवं करिष्यन्ति । गुरुणोक्तम्-अहो शिष्य ! संप्रति रात्रिर्जाता, अहं रात्रौ न पश्यामि । ततस्तेन शिष्येण स्वकीयस्कन्धे गुरुरारोपितः, मार्गे उच्चनीचप्रदेशे वहनेन गुरुचेतसि खेदः समुत्पन्नः, तेन चण्डरुद्राचार्येण शिष्यशिरसि रजोहरणदण्डप्रहारो दत्तः, असौ शिष्यो मनस्येवं विचारयति-अहो ! ममाराधनीयो गुरु मयेदृशीमवस्थां प्रापितः इति । एवं सम्यग्भावनया तस्य शिष्यस्य केवलबन्धुजन यहां आकर उपद्रव करेंगे। शिष्यकी यह बात सुनकर आचार्य महाराज ने कहा-ठीक है परन्तु इस समय तो अब रात्रि हो चुकी है तथा मुझे रात्रि में दिखता भी नहीं है-अतः जाना ठीक नहीं है। आचार्य महाराज की बात सुनकर शिष्य ने कहा कि आप इसकी चिन्ता नहीं करें। मैं आप को अपने कंधे पर बैठा लूंगा। ऐसा कह कर उस शिष्य ने गुरु महाराज को अपने कंधे पर बैठा लिये और उस स्थानसे दूसरे स्थान पर पहुँचने के लिये प्रयाण प्रारंभ कर दिया। मार्ग सम विषम था। अतः गुरु महाराज को अचानक हिलने डुलने की बजह से कष्ट हुआ और इससे उनके चित्तमें अशांति उत्पन्न हो गई । उन्होंने बैठे-बैठे ही अपना रजोहरण दंड उसके मस्तक पर देमारा। चोट लगते ही शिष्य ने चित्त में चिन्तवन किया कि हे मन जिनकी मुझे सेवा करनी चाहिये उन गुरु महाराज को इस समय मेरे द्वारा कितना कष्ट पहुँच रहा है। गुरुमहाराज की इस कष्ठावस्था का कारण मैं ही बन रहा हूं। इस प्रकार की भक्तिरूप हार्दिकभावना के प्रभाव से क्षपक श्रेणी જન અહિંયાં આવીને ઉપદ્રવ કરશે. શિષ્યની આ વાત સાંભળીને આચાર્ય મહારાજે કહ્યું, ઠીક છે. પરંતુ આ સમયે રાત્રીનું આગમન થઈ ચુકયું છે તેમ મને રાત્રીમાં સુજતું પણ નથી, આથી જવું ઠીક નથી. આચાર્ય મહારાજની વાત સાંભળી શિષ્ય કહ્યું, આપ એની ચિંતા ન કર હું આપને મારા ખભા ઉપર બેસાડી લઈશ એવું કહી તે શિષ્ય ગુરુ મહારાજને પિતાના ખભા ઉપર બેસાડી લીધા અને એ સ્થાનથી બીજા સ્થાન તરફ પ્રયાણ કરવાને પ્રારંભ કર્યો. માર્ગ સમ વિષમ હતા. આથી ગુરુ મહારાજને અચાનક હલવા ડાલવાને કારણે કષ્ટ થયું અને તેથી એમના ચિત્તમાં અશાન્તી ઉત્પન્ન થઈ તેઓએ બેઠા બેઠા જ પિતાને રહણ દંડ એના માથા ઉપર માર્યો, ચેટ લાગતાં જ શિષ્ય મનમાં વિચાર્યું કે હે મન ! જેની માટે સેવા કરવી જોઈએ એ ગુરુ મહારાજને આ સમય મારા તરફથી કેટલું કષ્ટ થઈ રહ્યું છે. ગુરુ મહારાજની કષ્ટ અવસ્થાનું કારણ હું જ બની રહેલ છું. આ પ્રકારની ભક્તિરૂપ હાર્દિક ભાવનાના પ્રભાવથી ક્ષેપક શ્રેણી પ્રાપ્ત કરી ઘાતક કર્મોને उ-१२ ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययनसूत्रे ज्ञानमुत्पन्नम् , ततः केवलज्ञानप्रभावादसौ समप्रदेश इव वहन् गुरुणा प्रोक्तःमार एव सारः, अधुना कीदृशः समप्रदेशे इव वहन्नासि ? शिष्येणोक्तं-युष्मत्मसादान्मम वहनं सम भवति । पुनगुरुणोक्तम्-कि रे! ज्ञानं समुत्पन्नं तव । शिष्येणोक्तम्-एवम् । पुनर्गुरुणा प्रोक्तम्-प्रतिपाति, अप्रतिपाति वा ज्ञानमुत्पन्नम् ? । तेनोक्तम्-अप्रतिपाति । ततो गुरुः पश्चात्तापं कुर्वन् वदति-हा ! मया केवली आशातितः-इत्युक्त्वा शिष्यशिरसि रजोहरणदण्डप्रहारजनितं रुधिर प्रवाहं पश्यन् पुनः प्राप्तकर घातक कर्मोंका नाशकर उस शिष्य ने केवलज्ञान को प्राप्त किया। केवल ज्ञान के प्रभाव से यह गुरुको इस प्रकार अब लेजाने लगा कि मानो सम प्रदेशमें ही वह चल रहा हो । गुरुजीने कहा कि मार ही सार है, इतना मार ने पर अब तू सीधा चलने लगा है । शिष्यने कहा महाराज आपके प्रभाव से ही यह सब कुछ हो रहा है-अर्थात् पहिले चलते समय उँच्ची नीची जगह में मेरा पैर पड़ता था सो आपको कष्ट होता था। पर अब नहीं पड़ता है अतः समभूमि में चलने की तरह मैं चल रहा हूं। गुरु महाराज ने कहा तो क्या तुझे ज्ञान उत्पन्न हो गया है ? शिष्यने कहा हां! पुनः गुरु महाराज ने कहा वह ज्ञान प्रतिपाति उत्पन्न हुआ है या अप्रतिपाति उत्पन्न हुआ है। शिष्यने उत्तर दिया महाराज ! अप्रतिपाति ज्ञान उत्पन्न हुआ है। बाद गुरु ने कहा ! हाय ! मैं ने केवली की इस समय आशातना की है। इस प्रकार कह कर गुरु जी शिष्य के शिर पर रजोहरण के दण्ड के प्रहार से वहते हुए रुधिर को देख-देख નાશ કરી તે શિષ્ય કેવલ જ્ઞાનને પ્રાપ્ત કર્યું. કેવલજ્ઞાનના પ્રભાવથી તે ગુરુને એવા પ્રકારે લઈ જવા લાગ્યો કે જાણે તે સમપ્રદેશમાં ચાલી રહ્યા હાય. ગુરુજીએ કહ્યું કે “માર જ સાર છે. ” આટલું મારવાથી હવે તું સીધે ચાલવા લાગે છે, શિષ્ય કહ્યું મહારાજ ! આપના પ્રભાવથી જ આ સઘળું બની રહ્યું છે. અર્થાત્ પહેલાં ચાલતી વખતે ઉંચી નીચી જગ્યામાં મારા પગ પડતા હતા જેનાથી આપને કષ્ટ થતું હતું પણ હવે પડતા નથી. એટલે સમભૂમિમાં ચાલવાની માફક હું ચાલું છું. ગુરુ મહારાજે કહ્યું કે શું તને જ્ઞાન ઉત્પન્ન થઈ ગયું છે? શિષ્ય કહ્યું હા ! ફરી ગુરુ મહારાજે કહ્યું, તે જ્ઞાન પ્રતિપાતિ ઉત્પન્ન થયું છે કે અપ્રતિપાતિ શિષ્ય કહ્યું. મહારાજ! અપ્રતિપાતિ જ્ઞાન ઉત્પન્ન થયું છે. આથી ગુરુએ કહ્યું, અહાહા ! મેં કેવલીની આ સમયે આસાતના કરી છે. આ પ્રકારે કહીને ગુરુજીએ શિષ્યના શીર ઉપર રજોહરણના દંડના પ્રહારથી વહેતા રૂધીરને જોઈ વારંવાર ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रियदर्शिनी टीका. अ० १ गा० १४ गुरुचित्तानुगामिशिष्यलक्षणम् ९१ पुनस्तत्क्षामणं कुर्वन् सोऽपि केवलज्ञानं प्राप्तवान् । एवं विनीतशिष्यभवितव्यम् ॥१३॥ कथं गुरुचित्तानुगामी भवेदित्याहमूलम्-नापुट्ठो' वागरे किंचि, पुट्ठो वो नालियं वएं । कोहं असच्चं कुंठिवजा, धारिजो पियमाप्पिय ॥१४॥ - छायानापृष्टो कुर्यात् किंचित् , पृष्टोवा नालीकंवदेत् । क्रोधम् असत्यं कुर्यात् , धारयेत् प्रियमप्रियम् ॥ १४ ॥ टीका-'नापुट्ठो'. इत्यादि अपृष्टः गुरुणाऽनुक्तः किंचित् न व्याकुर्यात्=न वदेत् पृष्टो वो-गुरुणा कास्मिश्चिद् विषये पृष्टः सन् अलीकम् अनृतं न वदेत् , क्रोधं केनापि कारणेन समुत्पन्न कोपम् असत्यं निष्फलं कुर्यात् । कर बार बार अतिशय पश्चात्ताप करने लगे। पश्चात् उनसे अपने दोष खमाने लगे। इस प्रकार पश्चात्ताप करते करते विशुद्ध भावना से गुरु ने भी केवलज्ञान प्राप्त किया । इस दृष्टान्त का सार यही है कि विनीत शिष्य अपनी विशुद्धि के साथ-साथ गुरु महाराज की भी विशुद्धि का कारण बनता है। अतः शिष्य को इसी तरह विनीत होना चाहिये॥१३॥ गुरु-चित्तानुगामी शिष्य के चिन्हों को इस गाथा द्वारा सूत्रकार बतलाते हैं-'न(पुट्ठो.' इत्यादि । अन्वयार्थ (अपुट्ठो किंचि न वागरे-अपृष्टः किश्चित् न व्याकुर्यात् ) गुरुमहाराज जब तक कोई बात नहीं पूछे तब तक शिष्य का कर्तव्य है कि वह किसी भी विषय में कुछ न कहे। (पुट्ठो वा અતિશય પશ્ચાત્તાપ કરવા લાગ્યા. પછી તેનાથી પિતાનો દોષ ખમાવવા લાગ્યા. આ પ્રકારે પશ્ચાત્તાપ કરતાં કરતાં વિશુદ્ધ ભાવનાથી ગુરુને પણ કેવલી જ્ઞાન प्राप्त थयु. આ દwતને સાર એ છે કે વિનિત શિષ્ય પોતાની વિશુદ્ધિની સાથે સાથે ગુરુ મહારાજની પણ વિશુદ્ધિનું કારણ બને છે. એટલે શિષ્યાએ આ રીતે વિનીત થવું જોઈએ. ૧૩ ગુરુચિત્તનુગામી શિષ્યના ચિન્હાને આ ગાથા દ્વારા સૂત્રકાર બતાવે छ. नावुद्धो. त्यादि मन्वयाथ--अपुढो किंचि न वागरे-अपृष्टः किश्चित् न व्याकुर्यात् गुरु મહારાજ જ્યાં સુધી કેઈ વાત ન પૂછે ત્યાં સુધી શિષ્યનું કર્તવ્ય છે કે તે 3 ५५ विषयमi is ४. पुद्रो वा नालियं वए-पृष्ठोवा अलीकनवदेत ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययनसूत्रे अयं भावः-गुरुणा निर्भर्सने कृते सति कदाचित् क्रोधोत्पत्ती सत्यां तस्य कटुकविपाकमनुचिन्त्य क्षमया तं परिहरेत् , क्रोधो हि सर्वानर्थकरः सकलशुभहरः तपः संयमोद्यानदावज्वलनः समभावजलदपटलोविकिरणप्रचण्डपवनः शान्तिसुधाकरतमः' सकलसद्गुणसरोजवनहिमः चित्तोद्वेजकः शत्रतावर्धकः सकलविपदामास्पदं जनपदं विप्लवयति । १-तमः राहुः। नालियंवए-पृष्टो वा अलीकं न वदेत् ) यदि प्रसंग वश किसी विषय में गुरु महाराज पूछे भी तो उस में झूठ नहीं बोलना चाहिये । (कोहं असच्चं कुग्विजा-कोपं असत्यं कुर्यात् ) किसी निमित्त से उत्पन्न हुए क्रोध को शीघ्र ही दबा देना चाहिये। भावार्थ-किसी कारण वश यदि कदाचित् गुरु महाराज शिष्य को कठिन वचन से शिक्षा दें तो उस समय क्रोध का कडुआ फल समझकर उत्पन्न हुवे क्रोध को क्षमा से दबा देवे। कारण कि क्रोध समस्त अनर्थों की एक मजबूत जड़ है। सकल कल्याणों का विनाशक है। संयमरूपी उद्यान को भस्म करने के लिये यह दावानल की ज्वाला जैसा भयंकर है । समतारूपी मेघघटाओं को विक्षिप्त करने के लिये यह क्रोध प्रचण्ड पवन के जैसा है। शान्तिरूपी चन्द्रमंडल के ग्रसने के लिये राहु जैसा, सकल सद्गुणरूपी कमलवन को दग्ध करने के लिये हिमपात जैसा कहा है । क्रोध से चित्त में उछेग उत्पन्न होता है और क्रोध से ही शत्रुता की वृद्धि होती है। जिस जनपद (देश) में इस क्रोध का आवास हो जाता है वह सकल विपत्तियों का स्थान बनकर देश आदि को नष्ट कर देता है। कहा भी हैજે પ્રસંગવશ કેઈ વિષયમાં ગુરુ મહારાજ પૂછે તો પણ એમાં જુઠું નહીં मास ये. कोहं असज्जंकुविज्जा-कोपं असत्यं कुर्यात् निमित्तथी ઉત્પન્ન થયેલા કેધને જલદીથી દબાવી દેવું જોઈએ. ભાવાર્થ –કઈ કારણવશ જે કદાચ ગુરુ મહારાજ શિષ્યને કઠીન વચનથી શિક્ષા આપે છે તે સમયે ક્રોધનું કડવું ફળ સમજી ઉત્પન્ન થયેલ ક્રોધને ક્ષમાથી દબાવી દે. કારણ કે કાધ સમસ્ત અનર્થોની એક મજબુત જડ છે. બધા કલ્યાણને વિનાશક છે. સંયમરૂપી ઉદ્યાનને ભસ્મ કરવા માટે દાવાનળની જ્વાળા જે ભયંકર છે. સમતારૂપી મેઘ ઘટાઓને વેરવિખેર કરવા માટે આ કોધ પ્રચંડ પવન જેવે છે. શાંતિરૂપી ચંદ્રમંડળને પ્રસવા માટે રાહ જેવા સકળ સગુણરૂપી કમળવનને દગ્ધ કરવા માટે હિમપાત જે કહેલ છે. ક્રોધથી ચિત્તમાં ઉદ્દેગ ઉત્પન્ન થાય છે અને કેવથીજ શત્રુતાની વૃદ્ધિ થાય છે. જે જનપદ (દેશમાં) આ કોને આવાસ થાય છે તે સકલ વિપત્તિઓનું સ્થાન બની દેશ આદિને નાશ કરે છે. કહ્યું પણ છે ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रियदर्शिनी टीका. अ० १ गा. १४ क्रोधा सत्यकरणे दृष्टान्तः उक्तंच — लोभी पश्येद्धनप्राप्ति, कामिनीं कामुकस्तथा । भ्रान्तं पश्येदथोन्मत्तो न किंचिच्च क्रुधाकुलः ||१|| अन्वच्च - अपकारिणि चेत् क्रोधः क्रोधे क्रोधः कथं न ते । धर्मार्थकाममोक्षाणां चतुर्णां परिपन्धिनि || २ || क्रोधस्यासत्यकरणे उदाहरणम् । यथा- कस्यचित् कुलपुत्रस्य भ्राता वैरिणा हतः । ९३ " लोभी आत्मा धनकी प्राप्ति की चिन्ता में ही मस्त बना रहता | कामुक कामिनी में मस्त है । उन्मत्त सर्वत्र भ्रान्ति युक्त बना रहता है । परन्तु क्रोध से आकुल हुआ आत्मा देखता हुआ भी अन्धा बना रहता है ॥१॥" इस क्रोध को निवारण करना हो तो इस प्रकार की भावना माननी चाहिये जैसे " हे आत्मन् ! तू अपने अपकार करनेवाले पर जिस प्रकार क्रोध करता है उसी प्रकार इस अपकार करने वाले क्रोध पर क्रोध क्यों नहीं करता । क्यों कि यह तेरा बड़ा भारी अपकारी है। कारण कि इसके सदभाव में धर्म, अर्थ, काम एवं मोक्ष का सर्वथा विनाश हो जाता है । अतः चतुर्वर्गका विनाश करने वाला होने से यह तेरा सब से अधिक अपकारी है । क्रोध पर क्रोध करना इसका मतलब है कि क्रोध कभी नहीं करना चाहिये ॥ २ ॥ " —— क्रोध को असत्य करने में दबा देने में - दृष्टान्त इस प्रकार हैकिसी कुलपुत्र के भाई को उसके वैरी ने मार डाला । वह कुलલેાભી આત્મા ધનની પ્રાપ્તિની ચિંતામાં જ મસ્ત ખની રહે છે, કામુક કામિનીમાં મસ્ત છે, ઉન્મત્ત સત્ર ભ્રાંતિયુંક્ત બની રહે છે. પરંતુ ક્રેાધથી વ્યાકુલ અનેલ આત્મા જોવા છતાં પણ આંધળા બની રહે છે. ૧૫ આ ક્રોધનું નિવારણ કરવું હાયતા આ પ્રકારની ભાવના કરવી જોઇએ કે હું આત્મા ! તું તારા ઉપર અપકાર કરવાવાળા ઉપર જે પ્રકારે ક્રાધ કરે છે એ પ્રકારે તે અપકાર કરવાવાળા ક્રાધ ઉપર ધ કેમ નથી કરતા. કેમકે એ તારા ખુબ મોટો અપકારી છે. કારણ કે તેના સદ્ભાવમાં ધર્મ, અર્થ, કામ અને મોક્ષનો સર્વથા વિનાશ થાય છે. એથી ચર્તુવના વિનાશ કરવાવાળા હાવાથી એ તારા બધાથી વધુ અપકારી છે. ક્રોધ પર ક્રાધ કરવો એના મતલબ છે કે ક્રષ કદી ન કરવા જોઇએ. ક્રાયને દબાવી દેવામાં દૃષ્ટાંત આ પ્રકારે છે— કાઈ કુળપુત્રના ભાઈને તેના વેરીએ મારી નાખ્યા, તે કુળપુત્ર મરણ ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર ઃ ૧ Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययनसूत्रे पुत्रमरणार्तध्यानयुक्तां जननीं विलोक्य स कुलपुत्रस्तं वैरिणं गृहीत्वा मातुः समिपमानीयाब्रवीत्-अरे ! बन्धुघातक ! अनेनासिना त्वां कुत्र हन्याम्, तेनातिभीतेन कथितम् यत्र शरणागता न हन्यन्ते तत्र। एतद्वचनं श्रुत्वा कुलपुत्रेण जननीमुखं विलोकितम् । जनन्या च मध्यस्थभावमवलम्ब्य संजात-करुणया निगदितम्-हे पुत्र ! शरणागता न हन्यन्ते । यतः सरणागया य वीस,-स्था पणया वसणपत्ता य । रोगी अजंगमा य, सप्पुरिसा णेव पहरंति ।। छाया-शरणागतांश्च विश्वस्तान् प्रणतान् व्यसनप्राप्तांश्च । रोगिणः अजङ्गमांश्च सत्पुरुषा नैव प्रहरन्ति । पुत्र पुत्रमरण जनित दुःख से आर्तध्यान करती हुई माता को देखकर शीघ्र ही अपने भाई के उस घातक को पकड़ कर माता के सन्मुख उपस्थित कर कहा अरे बन्धु घातक ! वोल तुझे इस तलवार के द्वारा कहाँ पर मारूँ। उसने डरते हुए कहा-जहां शरण में आये हुए प्राणी नहीं मारे जाते हैं वहीं पर आप मुझे मारें । बन्धु घातक के इस प्रकार वचन सुनकर कुलपुत्र ने माता के मुखकी ओर देखा। माता ने धैर्य धारण कर दयायुक्त होते हुए कहा कि हे बेटा! शरण में आये हुए को वीर पुरुष मारा नहीं करते हैं । क्यों कि इतने प्राणी अवध्य होते हैं सरणागया य वीस-स्था पगया वसण पत्ताय ॥ रोगी अजंगमा य, सप्पुरिसा व पहरंति ॥१॥ गाथार्थ-शरणागत, विश्वासपात्र, कष्ट में पड़ा हुआ, रोगी और अपंग, इनके ऊपर महा पुरुष प्रहार नहीं करते हैं अर्थात् इनकी रक्षा करते हैं। જનત દુઃખથી આર્તધ્યાન કરતી માતાને જોઈ તુરતજ પિતાના ભાઈના એ ઘાતકને પકડીને માતાની સન્મુખ ઉભે રાખી કહ્યું, અરે બંધુ ઘાતક ! બેલ તને આ તરવાર કયે સ્થળે મારૂં. તેણે ડરીને કહ્યું-જ્યાં શરણમાં આવેલાં પ્રાણીને મારવામાં નથી આવતાં એ સ્થળે આપ મને મારે. બંધને મારનારનાં આ પ્રકારનાં વચનને સાંભળી કુળપુત્રે માતાના મુખની સામે જોયું. માતાએ ધર્મ ધારણ કરી દયાયુક્ત બનીને કહ્યું કે હે બેટા ! શરણમાં આવેલાને વીરપુરૂષે કદી મારતા નથી કેમકે આટલા પ્રાણી અવધ્ય હોય છે. सरणागया य वीस,-स्था पणया वसणपत्ता य । रोगी अजंगमा य, सप्पुरिसा व पहरति ॥ १॥ ગાથાર્થ–શરણાગત, વિશ્વાસપાત્ર, કચ્છમાં પડેલા, રોગી અને અપંગ, ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रियदर्शिनी टीका. अ० १ गा० १४ क्रोधासत्यकरणेदृष्टान्तः ९५ ततस्तेन कुलपुत्रेण कथितम्-तर्हि कथं स्वरोषं सफलीकरोमि ? जनन्या प्रोक्तम् -वत्स ! सर्वत्र न रोषः सफली क्रियते । मातृवाक्यात् कुलमित्रेण स बन्धुघातको मुक्तः। ततोऽसौ तयोश्चरणेषु निपत्य स्वापराध क्षामयित्वा गतः । एवं कुलपुत्रवत् क्रोधमसत्य कुर्यात् । तथा-अप्रियं-शिक्षार्थ गुरोः कटुवचनं, प्रियं-प्रियमिव-हितमित्यर्थः, धारयेत्= माता के इस प्रकार वचन सुनकर कुलपुत्र ने कहा-ठीक है यह अवध्य है परन्तु हे जननि ! यह रोष जो मुझे उत्पन्न हुआ है उसे कैसे अब सफल करूँ ? माता बोली प्रिय पुत्र ! उत्पन्न रोष सर्वत्र सफल ही किया जाय ऐसा कोई नियम नहीं है। माता के इन वचनोंसे सन्तुष्ट होकर कुलपुत्र ने रोष को शांत करते हुए उस अपने बन्धु के घात करने वाले वैरी को बिना किसी तकलीफ दिये छोड़ दिया । उस वैरी ने भी उन दोनोंके चरणों में गिरकर अपने अपराध की क्षमा मांगी और खुश होते हुए अन्त में वह अपने घर चला गया। प्रत्येक मुनि का कर्तव्य है कि वह कुलपुत्र की तरह अपने उत्पन्न हुए क्रोध को विफल बनाने में सचेष्ट रहे। (अप्पियं पियं धारिजा-अप्रियं प्रियं धारयेत् ) शिष्य का यह कर्तव्य है कि वह गुरु महाराज के द्वारा कहे गये अप्रिय वचनों को भी प्रियवचन ही मानकर हृदय में धारण करे। गुरु महाराज के वचन એમના ઉપર મહાપુરૂષ પ્રહાર કરતા નથી, પરંતુ તેની રક્ષા કરે છે. માતાનાં આ પ્રકારનાં વચન સાંભળીને કુળપુત્રે કહ્યું ઠીક છે. આ અવધ્ય છે. પરંતુ તે માતા! આ શેષ જે મારામાં ઉત્પન્ન થયો છે તેને હું કઈ शते शन्त ४३ ? માતાએ કહ્યું પ્રિય પુત્ર! ઉત્પન્ન થયેલ રોષ બધી રીતે સફળ કરવામાં આવે એવો કોઈ નિયમ નથી, માતાનાં આવાં વચનથી સંતુષ્ટ બની કુળપુત્રે રોષને શાંત કરીને તેણે પોતાના બંધુ ઘાત કરનાર વૈરીને કઈ તકલીફ આપ્યા વગર છોડી દીધું. મારનાર વૈરીએ પણ બન્નેના ચરણોમાં પડીને પિતાના અપરાધની ક્ષમા માગી અને ખુશ થતો તે પિતાના ઘર તરફ ચાલી ગયે. પ્રત્યેક મુનિનું કર્તવ્ય છે કે કુળપુત્રની માફક પોતાનામાં ઉત્પન્ન થયેલ કાધને દબાવવામાં સચેષ્ટ રહે. . (अप्पियं पियं धारिज्जा-अप्रियं प्रियं धारयेत् ) शिष्यनु तव्य छ તે ગુરુ મહારાજ દ્વારા કહેવામાં આવેલ અપ્રિય વચનને પણ પ્રિય વચન માની હૃદયમાં ધારણ કરે. ગુરુ મહારાજના વચન પરિણામમાં સંતાપને ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययन सूत्रे मनसा भावयेत् । गुरोर्वचनं हि परिणामे तापोपशमकं रत्नत्रयपरिशोधकं शान्तिसुधासंभृतं परम हितम् आम्रफलमिवादौ कटुकं, मध्येऽम्लरसयुतम्, अन्ते चापूर्वास्वादजनकं भवतीति मत्वा प्रियमेव मन्येतेति भावः । , यद्वा-प्रियं-प्रीतिजनक स्तुत्यादि, अप्रियम् अप्रीतिकारकं निन्दादि, धारयेत्= समं जानीयात् । भिक्षाचर्यादौ प्रियमप्रियं वा वचनं श्रुत्वा समभावनया तत् तितिक्षेत, तत्र रागं द्वेषं वा न कुर्यादित्यर्थः । उक्तं च भगवता - लाभालाभे सुहे दुक्खे, जीविए मरणे तहा । समो निंदापसंसासु, तहा माणायमाणओ || ( उत्त० १९अ . ) परिणाम में संताप को मिटाने वाले रत्नत्रय को परि शुद्ध करने वाले, शान्तिरूपी अमृत के समुद्र परम हितकारी तथा आम्रफल के समान आदि में कटुक, मध्य में आम्लरसयुक्त एवं अन्त में अपूर्व रस का आस्वाद कराने वाले होते हैं । इसलिये गुरु महाराज के वचन को प्रिय मानकर ही उनका सेवन करते रहना चाहिये यही विनीत शिष्य का कर्तव्य है । अथवा - " धारिजा पियमप्पियं " इसका अभिप्राय यह भी है कि साधु जब भिक्षाचर्या आदि के लिये जावे तब उस समय यदि कोई खोटे मीठे वचन भी कहे - निंदा एवं स्तुति भी करे तो भी उसमें इसे पक्षपाती नहीं होना चाहिये- दोनों पर साधु का समान भाव ही होना चाहिये । उस पर राग एवं द्वेष करना साधुका कर्तव्य नहीं है। लाभालाभे हे दुक्खे | जीविए मरणे तहा ॥ समो निंदा पसंसासु । तहा माणा व माणओ ॥ (उ. १९अ . ) મટાડવાવાળા રત્નમયને પરિશુદ્ધ કરવાવાળા શાંતિરૂપી અમૃતના સમુદ્ર પરમ હિતકારી તથા આમ્રફળ જેવા. શરૂઆતમાં તુરા, મધ્યમાં આમ્લરસયુક્ત તથા અંતમાં અપૂર્વ રસનો આસ્વાદ કરવાવાળા હેાય છે. આ માટે ગુરુ મહારાજનાં વચનને પ્રિય માનીને તેનું સેવન કરતા રહેવુ જોઇએ. તે વિનીત शिष्यनुं उर्तव्य छे. अथवा - " धारिज्जा पियमप्पियं" मानो अभिप्राय येवो પણ છે કે સાધુ જ્યારે ભિક્ષા ચર્ચા વગેરે માટે જાય ત્યારે તે સમયે કાઈ કાંઇ સારૂં નર્સ વચન કહે–નિંદા અગર સ્તુતિ પણ કરે તે પણ એમાં તેમણે પક્ષપાતિ ન મનવુ જોઇએ. બન્ને પર સાધુનો સમાનભાવ હાવા જોઇએ. એના પર રાગ અગર ફ્રેશ કરવા એ સાધુનું ક બ્ય નથી. लाभालाभे सुहे दुक्खे, जीविए मरणे तहा । समो निंदापसंसासु, तहा माणावमाणओ || ( उत्त० १९ अ . ) ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર ઃ ૧ Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रियदर्शिनी टीका. अ० १ गा. १४ प्रशंसायांमुनेरुत्कर्षवर्जनम् ९७ ___इदमत्र बोध्यम्-यथा गुरोराज्ञया भिक्षाचर्या गतः शिष्यः श्रावकगृहं प्रविष्टः, तत्र भद्रभावसंपन्नो धार्मिको धर्मानुगो धर्मसेवी धर्मिष्ठो धर्मख्यातिधर्मानुरागी धर्मग्रलोकी धर्मजीवी धर्मप्ररञ्जनो धर्मशीलः श्रावको मुनि दृष्ट्वा सप्ताष्टपदानि तदभिमुखमागच्छन् हृष्टस्तुष्टः प्रसन्नचित्तः प्रीतमनाः परमसौमनस्ययुक्तो मुनिदर्शन जनितहर्षवशविसर्पन्मानसस्तं वन्दित्वा नमस्कृत्य पुनः पुनः स्तुवन् वदति लाभ में, अलाभ में, सुख में, दुःख में, जीने में मरणे में, मान में, अपमान में तथा निंदा और प्रशंसा में एक साधु ही ऐसा है जो समान रहता है। यहां इस प्रकार समझना चाहिये-गुरु की आज्ञा प्राप्त कर ही तो शिष्य भिक्षाचर्या के लिये गृहस्थों के घर जाता है। गृहस्थ भी अपने घर पर पधारे हुए साधु के दर्शन कर अपने आपको बहुत ही पुण्यशाली मानता है । क्यों कि ऐसे गृहस्थजन प्रकृति से भद्रपरिणामी एवं धर्मानुग-धर्मका अनुसरण करने वाले होते हैं। धर्म सेवी होते हैं और धर्मिष्ट होते हैं । धर्मख्याति-धर्मका उपदेश देनेवाले एवं धर्मानुरागी-धर्म में अनुराग रखने वाले होते हैं। धर्मप्रलोभी और धर्मजीवी होते हैं। धर्मप्ररञ्जन और धर्मशील होते है। ये मुनि को घर पर आते हुए देखकर सर्व प्रथम उनका विनय करने के निमित्त सात आठ पग उनके समक्ष जाते हैं । हर्ष से संतुष्ट चित्त होकर ऐसे फूल जाते हैं कि मानों कोई अपूर्व निधि का ही इन्हें लाभ हुआ है। ___सालमi, PARIHAi, सुममा, हुमभा, वामन, भ२ मां, भानमा, અપમાનમાં, તથા નિંદા અને પ્રશંસામાં એક સાધુજ એવા છે જે સમાન રહે છે. અહિં એ પ્રકારે સમજવું જોઈએ–ગુરુની આજ્ઞા મેળવીને પછી જ શિષ્ય ભિક્ષાચર્યા માટે પ્રહસ્થને ઘેર જાય છે. ગ્રહસ્થ પણ પિતાના ઘેર પધારેલા સાધુનાં દર્શન કરી પિતાને બહુજ પુણ્યશાળી માને છે. કેમકે એવા ગૃહસ્થજન પ્રકૃતિથી ભદ્ર પરિણામી તેમજ ધર્મનું અનુસરણ કરવાવાળા હોય છે, ધર્મ સેવી હોય છે અને ધમષ્ટ હોય છે. ધર્મ ખ્યાતિ-ધર્મનો ઉપદેશ દેવાવાલા એટલે ધર્માનુરાગી-ધર્મમાં અનુરાગ રાખવાવાળા હોય છે. ધર્મપ્રકી અને ધમજીવી હોય છે. ધર્મ પ્રરંજન અને ધર્મશીલ હોય છે. મુનિને ઘેર આવતા જોઈને સર્વ પ્રથમ તેને વિનય કરવા નિમિત્ત સાત આઠ પગલાં એમની સામે જાય છે. હર્ષથી સંતુષ્ઠ ચિત્ત બનીને એવા કુલાતા હોય છે કે જાણે કેઈ અપૂર્વ નિધિને એમને લાભ થયે હાય, ચહેરે પ્રસન્ન થઈ જાય છે, મનમાં उ.-१३ ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययनसूत्रे 'धन्योऽस्मि, कृतपुण्योऽस्मि, कृतलक्षणोऽस्मि भवदर्शनेन, भवदागमनं दरिद्रस्य गृहे स्वर्णवृष्टिरिव कामधेनुरिख मम सर्वसौभाग्यजनकम्" इत्युक्त्वा स्वगृहं सादरमानीय विपुलमशनं पानं खाद्यं स्वायं ददाति, दत्त्वा च पुनः पुनः स्तौति, तत्र मुनिः स्वात्मानं नोत्कर्षयेत् । चेहरा प्रसन्न हो जाता है । मन में एक प्रकार का विलक्षण संतोष आ जाता है, उस समय उसे बड़ा भारी आनन्द आता है । उस आनन्द में तल्लीन होता हुआ वह श्रावक उस समय एक प्रकार से अपने आपको भी भूल सा जाता है और वन्दना एवं नमस्कार कर भक्ति के आवेश से स्वयं अपने गुरु महाराज की स्तुति करता हुआ कहता है हे नाथ ! आज मैं धन्य हुआ हूं कृतपुण्य हुआ हूं और मेरी यह पर्याय सफल हुई है जो आपके दर्शन पाये । दरिद्र के घर में सुवर्ण की वर्षा के समान एवं कामधेनु के समान आप का मेरे घर पधारना मेरे परम सौभाग्य का उत्पन्न करने वाला एवं वृद्धि करनेवाला है । इसलिये पधारिये और घर को पावन कीजिये-इस प्रकार कह कर वह महात्मा को अपने घर लाता है और सादर उन्हें विपुल अशन, पान, खाद्य एवं स्वाद्य चार प्रकार का आहार देता है। फिर बारम्बार उनकी स्तुति करता है। ऐसी प्रशंसा सुनकर गृहस्थकी ऐसी विनय भक्ति देखकर साधु को फूल नहीं जाना चाहिये। એક પ્રકારને વિલક્ષણ સંતોષ આવી જાય છે. એ સમયે એને ઘણેજ આનંદ થાય છે. એ આનંદમાં તલ્લીન થતાં થતાં તે શ્રાવક એ સમયે એક પ્રકારથી પિતે પિતાને પણ ભુલી જાય છે. અને વંદના એવં નમસ્કાર કરી ભક્તિના આવેશથી સ્વયં પોતાના ગુરુ મહારાજની સ્તુતિ કરતાં કહે છે કે હે નાથ! આજ હું ધન્ય બન્યો છું, કૃત પુણ્ય બન્યો છું, અને મારી આ પર્યાય સફળ બની છે જે આપનાં દર્શન થયાં. દરિદ્રના ઘરમાં સેનાના વરસાદ સમાન તેમ કામ છેતુ સમાન આપનું મારે ઘેર પધારવું મારા પરમ સૌભાગ્યને ઉત્પન્ન કરવાવાળું અને વૃદ્ધિ કરનાર છે. આ માટે પધારે અને ઘરને પાવન કરો આ પ્રકારે કહી તે મહાત્માને પોતાને ઘેર લાવે છે અને આદર માનથી તેમને વિપુલ અશન, પાન, ખાદ્ય અને સ્વાદ્ય એમ ચાર પ્રકારને આહાર આપે છે. પછી વારંવાર તેની સ્તુતિ કરે છે. એવી પ્રશંસા સાંભળી, ગૃહસ્થની એવી વિનય ભક્તિ જોઈ, સાધુએ કુલાઈ જવું ન જોઈએ. ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 3 प्रियदर्शिनी टीका. अ० १ गा. १४ निन्दायां मुनेरयकर्षवर्जनम् ९९ तथा केचिदधार्मिका अनार्या म्लेच्छा अधर्मजीविनोऽधर्मानुरागिणोऽधर्मशोला विवेकविकलाः साधुं दृष्ट्वा निन्दन्ति हीलन्ति खिंसन्ति-'अयं वराको निःसत्त्वः कातरो दाम्भिको भिक्षामात्रोपजीवी कुक्षिभरिभूमिभारस्वरूपो गृहे गृहे गृहपाल इव भ्रमति' इत्यादि वचनं श्रुत्वा मुनिः स्वात्मानं नापकर्षयेत् । अत्रोदाहरणम्-कश्चिद् वृद्धो महात्मा भिक्षार्थमेकस्मिन् गृहे गत्वा तद्गृहस्वामिनी प्रति किं सचित्तजलादिस्पर्शरहिताऽसि न वेत्याशयेन पृष्टवान्-भगिनि ! तथा कितनेक ऐसे भी अधार्मिक, म्लेच्छ, अनार्यजन हैं कि जिनका जीवन सत्य धर्म की वासना से बिलकुल विहीन बना हुआ है, अधर्म में ही जिन्हें बड़ाभारी अनुराग है, प्रकृति भी जिनकी अधर्मशील हैं, विवेक से जो सर्वथा पराङ्मुख हैं वे साधुजन को देखते ही अपनी नाक भौहें सिकोड़ने लगते हैं और जो मन में आता है वही बकने लग जाते हैं-निन्दा करते हैं, हीलना करते हैं-खिसाते हैं-कहते हैं कि देखो तो सही यह बिचारा कितना अपने आपको भूलता है तथा कितना कायर बना हुआ फिर रहा है कैसे-कैसे दंभ रच रहा है जो यह वहां से भिक्षा मांगकर अपना निर्वाह करता है । अपना ही पेट भरना इसने सीखा हैं । ऐसे जनों से संसार की क्या भलाई हो सकती है । ये तो केवल इस पृथिवी के भारभूत हैं जो कुत्तेकी तरह घर घर में प्रतिदिन भ्रमण करते रहते हैं । इस प्रकार के वचन सुनकर साधु को चाहिये कि वह अपनी आत्मा को हल्की न समझे । इसी विषय को एक उदाहरण द्वारा स्पष्ट किया जाता है તથા કેટલાક એવા પણ અધાર્મિક, મ્લેચ્છ, અનાર્યજન છે કે જેમને જીવન સત્ય ધમની વાસનાથી બીલકુલ વિહીન બનેલ હોય છે. અધર્મોમાં જ જેને ભારે અનુરાગ છે, પ્રકૃતિ પણ જેની અધર્મશીલ છે, વિવેકથી જે સર્વથા પરાફમુખ છે. તે સાધુજનને જોઈને પિતાનાં નાક તથા મહેને બગાડે છે અને મનમાં આવે તેવું બકવા લાગી જાય છે. નિંદા કરે છે, હિલના કરે છેખિસાય છે, કહે છે કે જુએ તે ખરા આ બીચારે કેટલે પિતાની જાતને ભુલે છે તથા કે કાયર બનીને ફરી રહ્યા છે, કેવા કેવા દંભ રચી રહેલ છે, જે અહિં હિંથી ભિક્ષા માગીને પિતાને નિર્વાહ કરે છે. પિતાનું જ પેટ ભરવાનું એ શીખેલ છે. આવા સાધુથી સંસારની શું ભલાઈ થઈ શકવાની છે. આ તે કેવળ આ પૃથ્વી ઉપર ભાર જેવા છે. જે કુતરાની માફક ઘેર ઘેર દરરોજ ભમતા રહે છે. આ પ્રકારનાં વચન સાંભળી સાધુએ પોતાના આત્માને હલકે માનતા ન બનવું જોઈએ. આ વિષયને એક ઉદાહરણ દ્વારા સ્પષ્ટ કરવામાં અાવે છે ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०० उत्तराध्ययनसूत्रे स्वस्थाऽसि, तया कथितम्-त्वमेवासि रोगी, अहं तु स्वस्थैवारिम भिक्षादानार्थ महात्मना प्रोक्ता सा गृहस्वामिनी वदति-किमत्र तव पित्रोपार्जनं कृत्वा स्थापितं, तद् ग्रहीतुमत्रागतोऽसि, एतद् वचनं श्रुत्वा स महात्मा परावृत्तः। ततो गृहस्वामिनी वदति-अहो ! भिक्षार्थिनोऽपि तवैतावान् मदः, एहि, एहि, ददामि भिक्षाम् , एवं तयाऽभिहितः सन् स महात्मा पुनस्तद्गृहे भिक्षां ग्रहीतुमागतः । स्थूलाः स्थूलाश्चतस्रो रोटिकास्तया समानीताः, महात्मना प्रोक्तम्-स्तोकं देहि, गृहस्वामिनी कथ कोई एक वृद्ध महात्मा भिक्षा के लिये किसी एक घर पर पहुँचे। वहाँ जाकर गृहस्वामिनि से “सचित्त जलादिक के स्पर्श से रहित हो कि नहीं" इस अभिप्राय से पूछा कि बहि न ! स्वस्थ तो हो ? महात्मा जी की बात सुनकर गृहस्वामिनी कहने लगी कि मैं तो स्वस्थ ही हूंरोगी तो तुम ही हो। महात्माजी ने फिर उससे भिक्षा देने के लिये कहा तो वह बोली कि यहां क्या तुम्हारा बाप कमाकर रख गया हैं जो लेने के लिये दौड़े आये हो ? इन वचनोंको सुनकर महात्माजी वहां से पीछे लौटे। महात्माजी को पीछा लौटा हुआ देखकर गृहस्वामिनि बडबडाती हुई कहने लगी-ओहो !भिक्षार्थी होकर के भी इतना अभिमान। अच्छा आओ आओ और भिक्षा ले जाओ। मैं भिक्षा देती हूं। इस प्रकार जब उस गृहस्वामिनि ने कहा तो महात्मा उसके घर भिक्षा लेने के लिये पीछे आये । वह जब उन्हें मोटी-मोटी चार रोटी देने लगी तो महात्माजीने पुनः कहा बहिन थोड़ा आहार दो-यह तो अधिक है । तब गृह કેઈ એક વૃદ્ધ મહાત્મા ભિક્ષા માટે કઈ એક ઘેર પહોંચ્યા ત્યા જઈ ગૃહસ્થના સ્ત્રીને “સચિત્ત જળાદિકના સ્પર્શથી રહિત છે કે નહીં” આ અભિપ્રાયથી પૂછ્યું કે, બહેન ! સ્વસ્થ છે ને? મહાત્માજીની વાત સાંભળીને ગ્રહસ્થની સ્ત્રી કહેવા લાગી કે હું તે સ્વસ્થ જ છું –રોગી તે તમેજ છે. મહાત્માજીએ પછી તેને ભિક્ષા આપવા કહ્યું તે એ બોલી કે, અહીં કયાં તમારે બાપ કમાઈને રાખી ગયેલ છે, જે લેવા માટે દોડી આવ્યા છે? આ વચનેને સાંભળીને મહાત્માજી ત્યાંથી પાછા ફર્યા, મહાત્માજીને પાછા રહ્યા જોઈ ગ્રહસ્થની સ્ત્રી બડબડાટ કરતાં કહેવા લાગી, એહ! ભિક્ષાથી હેવા છતાં પણ આટલું અભિમાન ! આ ભિક્ષા લઈ જાવ. હું ભિક્ષા આપું છે. આ પ્રકારે એ ગૃહસ્થની સ્ત્રીએ કહ્યું તે મહાત્મા એને ઘેર ભિક્ષા લેવા પાછા ગયા તે જ્યારે તેને મોટી મોટી ચાર જેટલી દેવા લાગી તે મહાત્માજીએ કહ્યું બહેન છેડે આહાર આપ–આ તે ઘણું છે. ત્યારે ગૃહસ્થની સ્ત્રીએ કહ્યું ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रियदर्शिनी टीका. अ० १ गा. १५ आत्मदमनोपदेशः १०१ यति -स्थूलस्य हृष्टपुष्टाङ्गस्य तव कथमल्पेनोदरं भरिष्यति । इत्यादि परिभववचनं श्रुत्वाऽपि स महात्मा समभावं समालम्ब्य स्वात्मानं हीनं न मन्यते स्म तदा स उचित भिक्षां गृहीत्वा प्रतिनिवृत्तः । एवं सर्वैर्मुनिभिर्भाव्यम् ॥ १४ ॥ आमोदमने सत्येव क्रोधवैफल्यं कर्तुं शक्यते तस्मात् तदुपदेशं तत्फलं चाहमूलम् - अप्पी चेवं दमेयैव्वो अप्पा हुं खलु दुद्दमो । अप्पी दंतो सुही होई अस्सि लोऐ परस्थ ये ॥१५॥ छाया- -आत्मा एव दमितव्यः आत्मा हु खलु दुर्दमः । आत्मानं दाम्यन् सुखी भवति, अस्मिन् लोके परत्र च ॥ १५ ॥ स्वामिनि ने कहा- वाह खूब कहा इतने संडमुसंड तो हो रहे हो फिर भी थोड़ा आहार देने के लिये कह रहे हो थोड़े से दिये गये आहार से भला इस हृष्टपुष्ट शरीर की तृप्ति कैसे हो सकेगी । इत्यादि उसके अपमान जनक वचन सुनकर भी वे महात्मा समभावशाली ही बने रहे और उन्होंने उसके वचन से अपने आपको हीन नहीं समझा। वहां से उचित भिक्षा लेकर फिर वे अपने स्थान पर वापिस आगये । इसी प्रकार कहने का मतलब यह है कि समस्त मुनिजनोंको अपने आपको प्रतिकूल संयोग में हीन नहीं मानना चाहिये ॥ १४ ॥ जो आत्मा का दमन करता है वही क्रोध को निष्फलकर सकता है इस लिये सूत्रकार आत्मा- अर्थात् मन को दमन करने का उपदेश देते हैं एवं उसका फल भी कहते हैं-' अप्पाचेव०' इत्यादि । વાહ ખૂબ કહ્યું, આટલા અલમસ્ત જેવા તે બની રહેલ છે છતાં પણ થાડા આહાર દેવાનુ કહી રહ્યા છે. ઘેાડા આહારથી ભલા આ અલમસ્ત શરીરની તૃપ્તિ કઈ રીતે થઈ શકશે. ઈત્યાદિ એનાં અપમાન જનક વચન સાંભળીને પણ તે મહાત્મા સમભવશાળી જ બની રહ્યા અને તેનાં તેવાં વચનાથી પેાતાની જાતને હીન નહિં સમજ્યા. ત્યાંથી ઉચિત ભિક્ષા લઈ ને પછી તે પેાતાના સ્થાન ઉપર આવી ગયા. આ પ્રકાર કહેવાને મતલબ એ છે કે સમસ્ત મુનિ જનાએ પેાત પેાતાને પ્રતિકુલ સોગમાં પણ હિન માનવું ન જોઈ એ. ૫૧૪૫ જે આત્માનું દમન કરે છે તે ક્રોધને નિષ્ફળ કરી શકે છે આ માટે સૂત્રકાર આત્મા-અર્થાત્-મનને દમન કરવાના ઉપદેશ આપે છે. અને તેનુ ફળ पशु उडे छे -- अप्पाचेब ० इत्यादि ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર ઃ ૧ Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०२ टीका - ' अप्पा चेव० ' इत्यादि आत्मैव मन एव, दमितव्यः -वशी कर्त्तव्यो जेतव्य इत्यर्थः इहात्मशब्देन मनो गृह्यते तस्यैव दमनीयत्वात् । आत्मा तु दमको बोध्यः । शब्दादि विषयेषु प्रवर्तमानं मनस्ततः प्रत्याहत्य स्वात्मनि स्थापनीयमिति भावः । उत्तराध्ययन सूत्रे अन्वयार्थ - ( अप्पाचेव दमेयब्वो-आत्मा एव दमितव्यः) मन ही दमन करने योग्य है । ( अप्पा हु खलु दुद्दमो - आत्मा हु खलु दुर्दमः ) क्यों कि मन ही दुर्दम है । (अप्पा दंतो अस्सि लोए परत्थ य सुही होइआत्मानं दाम्यन् इहलोके परत्र च सुखी भवति ) मनको दमन करने वाला जीव नियम से इस लोक में तथा परलोक में सुखी होता है । भावार्थ- सूत्रकार इस गाथा द्वारा इन्द्रियों के विषयों में प्रवर्त्तमान मन के निग्रह करनेका उपदेश दे रहे हैं। वे कहते हैं कि इसलोक एवं परलोक में यदि सुखी होना चाहते हो तो मनका निग्रह करो उसे अपने वश में करो। जब तक इसको वश में नहीं किया जायगा तब तक इसका अधीन बना हुआ आत्मा कभी भी किसी भी भव में सुख शांति नहीं पायेगा । आत्मा ही मन का दमन कर सकता है । दमन करनेका मतलब यह है कि जो मन इन्द्रियोंके विषयों में गृद्ध बना हुआ है उसको उनमें गृद्ध नहीं बनने देता। यही मनका दमन करना है । मनको विषयोंसे हटाकर आत्मामें स्थापित करना चाहिये। तभी आत्मा में शांति अन्वयार्थः - अप्पा चैव दमेयव्वो-आत्मा एव दमितव्यः-, મનજ દમન કરવા ચેાગ્ય છે. अप्पा हु खलु दुधमो - आत्मा हु खलु दुर्दमः -, કેમકે મનજ દુખ છે. अप्पा दंतो अस्सि कोए परस्य य सुहो होइ । आत्मानं दाम्यन् इह लोके परत्र च सुखी भवति । મનનુ` દમન કરનાર જીવ આલાક અને પરલેાકમાં સુખી થાય છે. ભાવા—સૂત્રકાર આ ગાથા દ્વારા ઇન્દ્રિયાના વિષયામાં પ્રવર્તમાન મનના નિગ્રહ કરવાના ઉપદેશ આપી રહ્યા છે. તેઓ કહે છે કે, આ લેાક અને પરલેાકમાં જો સુખી થવાં ચાહતા હૈ। તા-મનના નિગ્રહ કરી, એને પેાતાના વશમાં રાખેા. જ્યાં સુધી મનને વશ કરવામાં ન આવે ત્યાં સુધી એના આધીન અનેલા આત્મા કયારેય પણ કાઈ પણ ભવમાં સુખ શાંતિથી રહી શકવાના નથી. આત્મા જ મનનું દમન કરી શકે છે. દમન કરવાના હેતુ એ છે કે મન ઈન્દ્રયાના વિષયમાં વ્યાપ્ત બન્યુ છે. એને એમાંથી દુર કરવુ એજ મનનું દમન કરવું છે. મનને વિષચેાથી ઉંઢાડી આત્મામાં સ્થાપિત કરવુ જોઈ એ. ત્યારે ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર ઃ ૧ Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रियदर्शिनी टीका. अ० १ गा. १५ आत्मदमनेदृष्टान्तः उक्तंच - जओ जओ संचरह, मणो चंचलमत्थिरं ॥ ओ तओ नियमिय, कुज्जा अप्पंमि तं थिरं ॥ १ ॥ छाया - यतो यतः संचरति मनः चंचलमस्थिरम् । ततस्ततो नियम्य कुर्यात् आत्मनि तत् स्थिरम् । सूर्योदये सति शीतवेदना निवृत्तवन्मनोविजये सति सकलदुःखानामास्यन्तिक निवृत्तिर्भवति । अविजितं मनस्तत्त्वज्ञानं विनाशयति तपः संयमशिखरादात्मानं जाग्रत हो सकती है। आत्मा शब्द का अर्थ यहाँ पर मन है । क्यों कि इसीका दमन किया जाता है। जीव आत्मा इसका दमन करने वाला है । दमन करने से आत्मा को सब से बड़ा भारी लाभ यह होता है कि जिस प्रकार सूर्यके उदय होने पर शीतवेदना की निवृति हो जाती है उसी प्रकार मनको जीत लेने पर आत्मा से सकल दुःखों की आत्यन्तिक निवृत्ति हो जाती है। इसीलिये शास्त्रकारों का यह उपदेश है कि "जओ जओ संचरइ मणो चंचलमत्थिरं । तओ-तओ नियमिय कुज्जा अप्पंमि तं थिरं ॥ यह अस्थिर चंचल मन जिन-जिन पदार्थोंकी ओर झुके- उनमें चले - उसे वहां से खेचकर मोक्षाभिलाषी का कर्तव्य है कि वह उसे अपनी आत्मा में संलग्न करे। जबतक मन स्थिर नहीं होगा उसका निग्रह नहीं होगा- -तब तक तत्त्वज्ञान आत्मा में उत्पन्न नहीं हो सकता है । तत्त्वज्ञान की जागृति हुए विना आत्मा को हेय एवं उपादेय पदार्थोंका वास्तविक भान नहीं हो सकता । मनकी ही तो यह चंचलता १०३ જ આત્મામાં શાંતી જાગી શકે છે. આત્મા શબ્દના અર્થ અહીં' મન છે. કેમ કે આત્માનું જ દુમન કરવામાં આવે છે. જીવ આત્મા એનું ક્રમન કરવાવાળા છે. દ્રુમન કરવાથી આત્માને મેટામાં માટી લાભ તા એ થાય છે કે જે પ્રકારે સૂર્યના ઉદય થવાથી ઠંડીની વેઢાનાની નિવૃતિ થાય છે. એજ રીતે મનને જીતી લેવાથી આત્માના સકળ દુઃખોની નિવૃત્તિ થઈ જાય છે. આ માટે શાસ્ત્રકારાના આ ઉપદેશ છે કેઃ "जओ जओ संचरई, मणो चंचलमत्थिरं । ओ ओ नियमिय, कुज्जा अप्पंमि तं थिरं ॥ 93 આ અસ્થિર ચંચલ મન જે જે પદાર્થોની તરફ ઢળે-એમાં ચાલે એને ત્યાંથી ખેંચીને મેાક્ષાભિલાષીએ પાતાના આત્મામાં સલગ્ન કરી દેવું જોઈ એ. જ્યાં સુધી મન સ્થિર નહી હાય-ત્યાં સુધી એના નિગ્રહ થનાર નથી—ત્યાં સુધી તત્વજ્ઞાન આત્મામાં ઉત્પન્ન થઈ શકતુ નથી. તત્વજ્ઞાનની જાગૃતિ થયા વગર આત્માને હેય અને ઉપાદેય પદાર્થીનું વાસ્તવિક ભાન થઈ શકતું નથી. ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર ઃ ૧ Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०४ उत्तराध्ययन सूत्रे पातयति उन्मार्ग प्रापयति चतुर्गतिकसंसारचक्रे भ्रामयति नरकनिगोदाद्यनन्तदुःखगर्ते निपातयति रत्नत्रयं लुण्टयति आत्मगुणान् घातयति ज्ञानावरणीयाद्यष्टविधं कर्मोपार्जयति । तस्मान्मनो निग्रहं कुर्यात् । अत्रोदाहरणम् तथाहि —- एको लब्धिसंपन्नो महात्मा बद्धसदोरक मुखवत्रिकः ध्याननिष्ठः सन् है जो अच्छे-अच्छे ज्ञानीजन भी संयमरूपी शिखर से इकदम पतित हो जाते हैं और नहीं सेवन करने योग्य मार्ग में भी प्रवृत्त हो जाते हैं । इससे उनकी चतुर्गतिरूप संसार में परिभ्रमणरूप दुर्दशा ही होती रहती है । नरक एवं निगोद के अनंत दुःखों को वे भोगते हैं । इन समस्त दुःखों से आत्मा का संरक्षण करनेवाला जो रत्नत्रय धर्म है - वह उनका लुटा जाता है । वे बिलकुल निर्धन बन जाते हैं । इन निर्धनता में और भी अनेक जो आत्मा के सद्गुण हैं उनका विकास नहीं होते पाता है इस स्थिति में इस आत्मा की इतनी दयनीय स्थिति हो जाती है, कि ज्ञानावरणादिक अष्ट प्रकार के कर्म इस पर रात दिन अपना प्रहार करते रहते हैं । इसको उस समय बचानेवाला कोई नहीं होता है । इस लिये मोक्षाभिलाषी का कर्तव्य है कि वह मन का निग्रह करे । इस विषय को एक उदाहरण द्वारा स्पष्ट किया जाता हैकोई एक महात्मा जो लब्धिसंपन्न थे, एक वृक्ष के नीचे ध्यान में સમસ્ત મન એવું ચંચળ છે કે ભલભલા જ્ઞાનીજનને પણ સયમરૂપી શિખર ઉપરથી એકદમ નીચે ગબડાવી મુકે છે, અને સેવન ન કરવા ચેાગ્ય માર્ગોમાં પ્રવૃત્ત અનાવી દે છે. આથી તેમની ચતુતિરૂપ સોંસારમાં પરિભ્રમણ રૂપ દુર્દશા જ થતી રહે છે. નરક અને નિગેાદના અન ંત દુઃખા તે ભાગવે છે. આ દુ:ખાથી આત્માનું રક્ષણ કરનાર જે રત્નમય ધમ છે—તે એની પાસેથી લુંટાઈ જાય છે, આથી બિલકુલ નિર્ધન ખની જાય છે. આ નિનતામાં આત્માના જે બીજા સદ્ગુણુ હોય છે એના પણુ વિકાસ થતા નથી. આ પરિસ્થિતિમાં આત્માની એટલી દયામય હાલત થઇ જાય છે, કે જ્ઞાનાવરણાદિક આઠ પ્રકારનાં કર્મ રાત અને દિવસ એના પર પ્રહાર કરતાં રહે છે. આ સમયે એને આમાંથી કોઇ ખચાવનાર હેાતું નથી. આ માટે મેાક્ષાભિલાષીનું કન્ય छे, ते भननो निश्रड १२. આ વિષયને એક ઉદાહરણ દ્વારા સ્પષ્ટ કરવામાં આવે છે કોઈ એક મહાત્મા જે લબ્ધિસપન્ન હતા, એક વૃક્ષની નીચે ધ્યાનમાં ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર ઃ ૧ Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रियदर्शिनी टीका अ० १ . १५ आत्मदमने दृष्टान्तः १०५ वृक्षतले उपविष्ट आसीत् तदा तेन महात्मना ध्यानावस्थायामेकं श्वापदसंकुलं न्यालाकुलं विशालं महारण्यं दृष्टम् । तत्रैको पुरुषस्तेन दृष्टः स च सहस्रभुजो विस्तृतकायः सहस्रहस्तधृतेः सहस्रमुशलैः स्वदेहं ताडयन् भीतभीत इव चीत्कार कुर्वन्नितस्ततः पलायमानः शतयोजनानि धावमानः श्रमेण शिथिलावयवः परवशः सन् पातालवद्गम्भीरे गाढान्धकारे महान्धकूपे निपतितः । पुनरसौ तस्मादन्धकूपाद् बहिर्निःसृतः पूर्ववत् सहस्रमुशलैः स्वदेहं ताडयति तदनु महत्यामाग्निज्वालायां शलभ वासौ प्रविष्टः । पुनरसौ ततोऽपि बहिर्निः सत्यकण्टकाकीर्णे महारण्ये इतस्ततो धावति, तदनु पुनः स्वदेहोपरि पूर्ववत्सहस्रमुशलप्रहारं कुर्वन् स दृष्टः । बैठे हुए थे | मुख पर सदोरक मुखवस्त्रिका बँधी हुई थीं, उन्हें उस ध्यान में एक विशाल जंगल दिखलाई पड़ा। जो श्वापदोंहिंसक प्राणीयों से संकीर्ण एवं व्याप्त था । उस में उन्होंने एक महाकाय व्यक्ति जिसके हजार हाथ थे देखा । उसके सब ही हाथों में मुसल थे। वह इधर उधर भागता हुआ मुसलको शरीर पर मारता हुआ भयंकर चीत्कार शब्द करता था। वह भगता भी इतना अधिक कि सौ योजन तक निकल जाता । जब वह थक जाता और उसका शरीर जब ढीला हो जाता तब वह पाताल के समान गंभीर एक महान्धकूप में कि जिसमें गाढ अंधकार ही अंधकार था उसमें गिर जाता था । पीछे वहांसे निकलना और इसी तरह अपने शरीर को हजारों मुसलोंसे पीटता, बाद में शलभ - (पतंग) की तरह एक महती अग्निज्वाला में प्रविष्ट हो जाता । पश्चात् वहां से भी निकल कर वह एक कण्टकाकीर्ण अरण्य में घुस जाता और वहां इधर उधर दौड़ता हुआ अपने शरीर को सहस्र मुसलों से पूर्व की तरह બેઠા હતા. માઢા ઉપર દેરાસાથે મુખવસ્ત્રિકા બાંધેલ હતી. એમને એ ધ્યાનમાં એક વિશાળ જંગલ દેખાયુ, જે અનેક પ્રકારના હિંસક પ્રાણીએથી ભરેલું હતુ, તેમાં એમણે એક મહાકાય વ્યક્તિ જેને હજાર હાથ છે તેવી જોઇ, એના બધા હાથેામાં મુશળ હતાં, તે અહિંથી તહીં દોડતા દોડતા મુસલાને પેાતાના શરીર પર મારતા હતા અને ભયંકર ચિત્કાર શબ્દ કરતા હતા, એ એટલા જોરથી દોડતા હતા કે સેા ચેાજન સુધી નિકળી જતા. થાક લાગતા અને શરીર જ્યારે ઢીલુ થઈ જતું ત્યારે તે ખુબજ ઉંડા અને ગાઢ અ ંધકારથી છવાયેલ કુવામાં કુદી પડતા, પાછે ત્યાંથી નિકળતા અને એજ રીતે હજારા મુસલે થી પેાતના શરીરને ટીપતા, ખાદમાં શલભ (પતંગ)ની માફ્ક એક મહુતી અગ્નિજવાળામાં પડતા અને ત્યાંથી પણ નીકળીને તે મહાન કાંટાંવાળા જંગલમાં ઘુસી જતા ત્યાં પણ આમ તેમ દોડતા અને પહેલાંની જેમ પેાતાના उ० १४ ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર ઃ ૧ Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०६ उत्तराध्ययन सूत्रे अथासौ दूरं गत्वाऽट्टाहासं कुर्वन् धावमानश्चन्द्रकिरणशीतलं कदलीवनं प्रविष्टः । क्षणादेव ततोऽपि बहिर्निःसृत्य पुनः स्वदेहोपरि सहस्रमुशलैः प्रहारं कुर्बन् धावमान इतस्ततो भ्राम्यति । पुनः श्रमेण शिथिलावयवः सन् महान्धकपे निपतितः । ततविरेण निःसृत्य पुनः कदलीवनं प्रविष्टः, ततोऽपि निर्गत्य लतावनं गतः, लतामाद् वहिर्भूत्वाऽन्धकूपे पतितः, तदनु कृपान्निःसृत्य कुसुमवनं गतस्तत्रेतस्ततो धावमानः स्वदेहोपरि मुशलैः महारं करोति ततोऽपि निःसृत्य फलवनं प्रविष्टः, तत्रापि धावमानः स्वदेहोपरि पूर्ववत् सहस्रमुशलैः महारं करोति । एवंविधं पुरुषं स महात्मा ज्ञान दृष्ट्या विलोक्य स्वलब्धि बलेन तस्य प्रतिरोधं कृत्वा पृष्टवान्कस्स्वम् ? किमर्थमेवं क्रियते ? तव किं प्रियमस्ति ? एवं पृष्टोऽसौ पुरुषोऽब्रवीत्ही प्रहारित करता । फिर दूर जाकर बड़े जोर से हँसता और चंद्रकिरण के समान शीतल कदलीवन में प्रवेश कर वहां विश्राम करने लगता । क्षण एक विश्रामित होकर वहांसे बाहर आते ही फिर वही अपनी चाल शुरू करता, जब वह इस चाल से थक जाता था तो गाढ़ अंधकार वाले कुएँ में गिर जाता था, वहां से निकल कर फिर कदली बनमें जाता, वहां से बाहर होते ही लतावन में वहां से फिर अंधकूप में वहां से कुसुमित वन में, वहां से फल वाले वन में इस प्रकार भ्रमण करता-करता वह अपने शरीर को मूसलों के प्रहारोंसे कूटता रहता । महात्मा ने जब इस प्रकार की इसकी स्थिति देखी तो उन्हें बड़ा ही अचरज हुआ। उसकी इस स्थिति को उन्होंने अपने लब्धिबल से स्थंभित कर दिया और उससे पूछा- तुं कौन है और क्यों इस प्रकार की चेष्टाएँ करता है ? तुझे क्या प्रिय है ? महात्माकी इस बात को सुनकर उसने कहा कि मैं और कोई શરીર ઉપર મુશલેાના ટકા લાગાવતા પછી થાડા આગળ વધી જોર જોરથી હસતા અને ચંદ્રકિરણ સમાન શીતળ કેળાના વનમાં પ્રવેશ કરી ત્યાં આરામ કરવા લાગતા. થોડા સમય વિશ્રાંતિ લઈ–શ્રમ રહિત બની ત્યાંથી મહાર નીકળી પૂર્વવત્ દોડા દોડ અને શરીર ઉપર મુશલના પ્રહારની પ્રવૃત્તિ, અધકારવાળા કુવામાં પડવું, ફરી પાછા કેળાના વનમાં પ્રવેશ, ત્યાંથી લતા વનમાં, ત્યાંથી ફરી કુવામાં, ત્યાંથી નીકળી ફરી કેળાના વનમાં, આ પ્રકારે ભ્રમણ કરતા અને પેાતાના શરીરને મુસલાથી મારતા. આ સ્થિતિ જ્યારે મહાત્માએ જોઇ ત્યારેતેમને ભારે અચરજ થઈ, એની એ સ્થિતિને પેાતાના લબ્ધિબળથી સ્થભિત બનાવી દઈ મહાત્માએ તેને પૂછ્યુ તુ કાણુ છે અને આ પ્રકારની ચેષ્ટાઓ શા માટે કરે છે? તને શું પ્રિય છે? મહાત્માની વાત સાંભળી તેણે કહ્યું કે ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર ઃ ૧ Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०७ प्रियदर्शिनी टीका गा. १५ आत्मदमने मनोहष्टान्तः अहमन्यो नास्मि किंतु मनोनाम्ना प्रसिद्धोऽस्मि इष्टानिष्टशब्दादिविषये प्रवर्तमानोऽहं तृष्णारज्ज्वा प्राणिनं बध्नामि, ततस्तमारम्भपरिग्रहाऽऽसक्तं संसारचक्रे भ्रामयन् कदाचिदेवजातौ कदाचिन्नरजातौ कदाचित्तिर्यग्रजातौ कदाचित् पृथिव्यादिस्थावरयोनिषु द्वीन्द्रियादि-त्रसयोनिषु अनन्तदुःखं प्रापयामि। यदा तु भवादृशेन महात्मना निगृहीतो भवामि तदा रत्नत्रयाराधनं कारयामि, मोक्षमार्गे स्थापयामि, क्षपकश्रेणिमारोहयामि । शनैः शनैर्निग्रहाभ्यासप्रकर्षे सति शास्त्रसंदर्शिनहीं हूं-मेरा नाम मन है । इष्ट अनिष्ट शब्दादिक विषयों में प्रवृत्ति करना और तृष्णारूपी रस्सी से प्राणियों को जकड़ना यही मुझे प्रिय है। मुझे आनंद भी इसी में आता है कि जब प्राणी आरंभ परिग्रह में आसक्त होकर संसार चक्रमें घूमता है। मैं ही तो उनकी इस स्थिति का मूल कारण बनता हूं। कभी मैं जीवों को देवजाति में, कभी मनुष्य योनि में कभी तिर्यश्चगति में, कभी पृथ्व्यादिक स्थावर योनि में, कभी दीन्द्रियादिक ब्रस पर्यायों में घुमाता रहता हूं और वहां के अनंत कष्टों का उन्हें पात्र बनाता हुआ बड़ा खुशी होता रहता हूं। आप जैसे महात्माओं पर दुःख है कि मेरा बश नहीं चलता। कारण कि आपके सामर्थ्य के आगे मेरी शक्ति सर्वथा संकुचित हो जाती है। वह इस दिशा में न वह कर दूसरी दिशा तरफ बहने लग जाती है। इसलिये मैं निगृहीत होकर आप जैसों से रत्नत्रय की आराधना करवाता हूं। मुक्ति के मार्ग में लगा देता हूं तथा क्षपकणि पर भी चढा देता हूं। जब साधुजनों का मुझे निग्रह करने હું બીજે કઈ નથી–મારું નામ મન છે. ઈષ્ટ અનિષ્ટ શબ્દાદિક વિષયમાં પ્રવૃત્તિ કરવી અને તૃષ્ણારૂપી રસીથી પ્રાણીઓને બાંધવા એ મને પસંદ છે. મને આનંદ પણ એ વાતમાં આવે છે કે જ્યારે પ્રાણું આરંભ પરિગ્રહમાં આશક્ત બની સંસાર ચક્રમાં ઘૂમે છે. હું પોતે જ તેની આ સ્થિતિનું મૂળ કારણ બનું છું, કેઈ વખત હું જીવને દેવ જાતીમાં, ક્યારેક મનુષ્ય નીમાં. ક્યારેક તિર્યંચ ગતિમાં, કયારેક પૃથ્વી આદિ સ્થાવર નીમાં, ક્યારેક બે ઈન્દ્રિયવાળા ત્રસ પયામાં ઘૂમતે રહું છું. અને ત્યાંના અનેક કષ્ટને પાત્ર બનાવી હું ખુશી થતો રહું છું. આપ જેવા મહાત્માઓ ઉપર મારો પ્રભાવ પડી શક્ત નથી એ વાતનું મને દુઃખ છે. કારણ કે આ આપના સામર્થ્ય આગળ મારી શક્તિ સર્વથા સંકુચિત બની જાય છે. તે આ દિશામાં ન વહેતાં બીજી દિશા તરફ વહેતી હોય છે. આ માટે હું નિગૃહીત બનીને આપ જેવાથી રત્નત્રયની આરાધના કરાવું છું મુક્તિના માર્ગમાં લગાડી દઉં છું, અને ક્ષાપક ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०८ ___ उत्तराध्ययसूत्रे तोपायाः वचनगोचरातीताः, निग्रहाभ्यासपकर्षरहितप्राणिगणसंवेदनयाऽगम्याः सिद्धिपदसंपज्जनकाः सूक्ष्म सूक्ष्मतरार्थविषया मनाक समुल्लसत्स्फुटप्रतिभासा ज्ञानविशेषा उत्पद्यन्ते । ततः किंचिदूनात्यन्तप्रकर्षे निरपेक्षमत्यादिज्ञानं प्रकर्षपर्यन्तोत्तरकालभाविकेवलज्ञानादक्तिनं सवितुरुदयात् प्राक् तदालोककल्पम् अशेषरूपादिवस्तुविशेष प्रातिभं ज्ञानमुदयते, पश्चात् सर्वोत्कृष्टप्रकर्षे सति सुस्पष्टप्रतिभासंसकललोकालोकविषयमनुपममबाध्यं कवलज्ञानमुत्पद्यते। एवमुक्त्वाऽसौ तिरोहितो जातः। तस्मादात्मैव दमनीयः । का अभ्यास धीरे-धीरे प्रकर्ष अवस्था को प्राप्त हो जाता है तब इस अभ्यास की प्रकर्षता की कृपा से उन्हें ज्ञानविशेषोंकी प्राप्ति हो जाती है। इनसे वे शास्त्र प्रतिपादित उपायों का निरीक्षण किया करते हैं। उन ज्ञानविशेषों का कथन ऐसा तो नहीं है जो आपके समक्ष वचनों द्वारा कथित हो सके । यह बात तो वे ही जान सकते हैं जो इस अवस्था पर पहुंच चुके होते हैं। जिनकी आत्मा इस निग्रह के अभ्यास के प्रकर्ष से विहीन हैं भला वे इनके स्वाद को क्या जानें। ये ज्ञान विशेष सिद्धिपदरूपी संपति के जनक होते हैं। सूक्ष्म, सूक्ष्मतर भी पदार्थोंके ये निर्णायक होते हैं। इनसे जीवोंका कुछ-कुछ पदार्थोंका स्पष्ट प्रतिभास होने लग जाता है । जब मनोनिग्रह करनेका अभ्यास किश्चित् न्यून अत्यंत प्रकर्ष अवस्था तक पहुँच जाता है तब उस समय आत्मा में प्रातिभ नामका एक ज्ञानविशेष उत्पन्न होता है। यह ज्ञान केवलज्ञानसे पहिले होता है । इसमें मत्यादिक परोक्ष ज्ञानकी अपेक्षा नहीं रहती है । શ્રેણી પર પણ ચડાવી દઉં છું. જ્યારે સાધુજનને નિગ્રહ કરવાને મને અભ્યાસ ધિરે ધિરે પ્રકર્શ અવસ્થા પ્રાપ્ત થાય છે, ત્યારે આ અભ્યાસની પ્રકર્ષતાની કૃપાથી તેને જ્ઞાન વિશેષાની પ્રાપ્તિ થઈ જાય છે, તેનાથી તે શાસ્ત્ર પ્રતિપાદિત ઉપાયોનું નિરિક્ષણ કર્યા કરે છે. એ જ્ઞાન વિશેનું કથન એવું તે નથી જે આપની સામે વચનથી કહી શકાય, તે વાત તે તેજ જાણી શકે છે જે આ અવસ્થાને પહોંચેલ છે. જેની આત્મા આ નિગ્રહના અભ્યાસના પ્રકથી વિહિન છે. આવા જીવ એ સવાદને કયાંથી જાણે. આ જ્ઞાન વિશેષ સિદ્ધિ પદરૂપી સંપત્તિના જનક હોય છે. સૂમથી સૂક્ષ્મ પદાર્થોના પણ એ જાણકાર હોય છે. એમનાથી જીવેને કઈ કઈ પદાર્થને સ્પષ્ટ પ્રતિભાસ થવા લાગે છે. મને નિગ્રહ કરવાને અભ્યાસ જ્યારે થોડા અંશે અત્યંત પ્રકાશ અવસ્થા સુધિ પહોંચી જાય છે ત્યારે એ સમયે આત્મામાં પ્રતિભ નામનું એક જ્ઞાનવિશેષ ઉત્પન્ન થાય છે. આ જ્ઞાન કેવલ જ્ઞાનથી પહેલાં થાય છે. તેમાં મત્યાદિક પક્ષ ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रियदर्शिनी टोका गा. १५ आत्मदमने दृष्टान्तः यद्वा-आत्मा बाह्येन्द्रियं दमितव्य एव बाह्येन्द्रिय पञ्चविधं श्रोत्रचक्षुर्घाण रसनस्पर्शनभेदात् । बाह्येन्द्रियाणां दमनाकरणे आत्मनो विनाशः स्यात् । उक्तंचजिस प्रकार सूर्य के उदय होने के पहिले उसका आलोक-प्रकाश प्रसृत हो जाता है उसी प्रकार समस्त रूपादिक पदार्थोंको विषय करने वाला यह प्रतिभज्ञान, केवलज्ञानरूप सूर्य के उदित होने के पहिले उसकी प्रभा सरीखा प्रकट हो जाता है । जिससे यह बात निश्चित हो जाती है कि अब इस आत्मा में केवलज्ञान का उदय होनेवाला है। जब मनोनिग्रह का अभ्यास सर्वोत्कृष्ट अवस्था संपन्न हो जाता है तब उस समय आत्मा में केवलज्ञान की उद्भूति हो जाती है । इसके समस्त पदार्थोंका स्पष्ट प्रतिभास होने लग जाता है । कोई भी रूपी अथवा अरूपी पदार्थ ऐसा नहीं बचता जो केवलज्ञान का विषय नहीं बनता हो। यह ज्ञान अनुपम है-ऐसा कोई और ज्ञान नहीं है-कि जिससे इसे उपमित किया जा सके। इसके द्वारा प्रकाशित पदार्थों में किसी भी प्रकार से बाधा नहीं आती है । इस प्रकार महात्मासे कहकर वह मन नामका पुरुष अन्तर्हित हो गया ॥ आत्मा शब्द का अर्थ बाह्य इन्द्रियां भी हैं । वे स्पर्शन, रसना, घ्राण, चक्षु और कर्ण के भेद से ५ प्रकार की हैं। मोक्षाभिलाषी आत्मा જ્ઞાનની અપેક્ષા રહેતી નથી. જેમ સૂર્યને ઉદય થયા પહેલાં તેને આવવાને પ્રકાશ પ્રસાર પામે છે, ભાસ પ્રસ્તુત બને છે તે પ્રકારે સમસ્ત રૂપાદિક પદાર્થોને વિષય કરવાવાળા આ પ્રાતિજ જ્ઞાન કેવળ જ્ઞાનરૂપ સૂર્યને ઉદય થતાં પહેલાં તેની પ્રભારૂપે પ્રગટ થાય છે. જેથી એ વાત નિશ્ચય બને છે કે હવે આ આત્મામાં કેવલજ્ઞાનને ઉદય થવાને છે. જ્યારે મને નિગ્રહને અભ્યાસ સર્વોત્કૃષ્ટ અવસ્થા સંપન્ન બની જાય છે, ત્યારે તે સમય આત્મામાં કેવલજ્ઞાનની ઉદૂભૂતિ થઈ જાય છે. આથી સમસ્ત પદાર્થોને સ્પષ્ટ પ્રતિભાસ થવા લાગી જાય છે. કેઈ પણ રૂપી અથવા અરૂપી પદાર્થ એવો નથી બચતે જે કેવલજ્ઞાનને વિષય ન બનતો હોય, આ જ્ઞાન અનુપમ છે એવું બીજું કઈ જ્ઞાન નથી કે જેનાથી આને ઉપમિત કરી શકે. તેના દ્વારા પ્રકાશિત પદાર્થોમાં કઈ પણ પ્રકારની બાધા આવતી નથી. આ પ્રકારે મહાત્માને કહીને તે મન નામને પુરૂષ અંતર્ધાન થઈ ગયા. આત્મા શબ્દનો અર્થ બાહા ઇન્દ્રિય પણ છે, જે સ્પર્શન, રસના, ઘાણ, ચક્ષુ, અને કાનના ભેદથી પાંચ પ્રકારની છે. મોક્ષાભિલાષી આત્મા એનું દમન ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११० उत्तराध्ययनसूत्रे कुरङ्गमातङ्गपतगङ्गा मीना हताः पञ्चभिरेव पश्च। एक: प्रमादीस न हन्यते किं, यः सेवते पञ्चभिरेव पञ्च ॥ १ ॥ अन्यच्च-इन्द्रियाणां हि चरतां, विषयेष्वपहारिषु । संयमे यत्नमातिष्ठेद्, विद्वान् यन्तेव वाजिनाम् ॥ १॥ अयमर्थः-विद्वान्तत्वज्ञः अपहारिषु-भाकर्षकेषु तत्तदिन्द्रियविषयेषु चरतां गच्छताम् इन्द्रियाणां संयमे संयमने यत्नम् आतिष्ठेत् कुर्यात् , क इव ? इत्याहवाजिनाम् अश्वानां यन्तेव-सारथिरिवेति । यदि इनका दमन नहीं करता है तो वह मुक्तिमार्ग में प्रवृत्त नहीं हो सकता है और न साधक ही बन सकता है । इन्द्रियों का यदि दमन न किया जाय तो शास्त्रकारों ने यहां तक कह दिया है कि आत्मा का भी विनाश हो जाता है। कहा भी है-देखो-जब क्रमशः एक एक इन्द्रिय के विषय में लोलुप होने से कुरंग-हिरण, मातंग-हस्ती, पतंग, भ्रमर एवं मीन-मछली, ये प्राणी अपने प्राणों से रहित होते हैं तब जो मनुष्य पांचों इन्द्रियों के विषय में लोलुप बनेगा क्या वह विनष्ट नहीं होगा ? परंतु अवश्य विनष्ट होगा-दुर्गति को प्रास करेगा। अतः जिस प्रकार यन्ता-अवरोही-घुड़सवार-इच्छित मार्ग पर चलाने के लिये घोड़े को लगाम द्वारा अपने आधीन बना लेता है उसी प्रकार आत्महितैषी का कर्तव्य है कि वह भी इन इन्द्रियरूपी घोड़ों को कि जो अपने-अपने ન કરે છે તે મુક્તિ માર્ગમાં પ્રવર્તી બની શકતું નથી. તેમજ સાધક પણ બની શકતો નથી. ઈનિદ્રાનું જે દમન ન કરવામાં આવે તો શાસ્ત્રકારોએ ત્યાં સુધી કહેલું છે કે, આત્માને પણ વિનાશ થઈ જાય કહ્યું પણ છે જુઓ-જ્યારે કમથી એક એક ઈન્દ્રિયના વિષયમાં લોલુપ હોવાથી કુરંગ-હરણ, માતંગહાથી, પતંગ, ભ્રમર, તેમજ માછલી, આ પ્રાણ પિતાના પ્રાણથી રહિત બને છે. તે પછી માણસ જ્યારે પાંચેય ઇન્દ્રિયોના વિષયમાં લોલુય બની રહે તે તેને નાશ ન થાય? ખરેખર નાશ થવાને-દુર્ગતિને પ્રાપ્ત કરશે. એથી જે રીતે જોડેસ્વાર ઇચ્છિત માર્ગ ઉપર ચલાવવા માટે ઘોડાને લગામ દ્વારા પિતાના આધિન બનાવી લે છે. એજ પ્રકારે આત્મહિતૈષીનું કર્તવ્ય છે કે, તે પણ આ ઈન્દ્રિયરૂપી ઘોડાઓને કે જે પિત પિતાના વિષયોની તરફ અર્થાત અસંયમ ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रियदर्शिनी टीका गा. १५ आत्मदमने उग्रनृपदृष्टान्तः अयं भावः-मनोनिग्रहेण बाह्येन्द्रियनिग्रहेण चात्मा उपशमभावे नेतन्य इति भावः। हु-निश्चयेन, खलु-यतः आत्मा दुर्दमः दुर्जयः। अत्रोदाहरणम् 'अप्पा हु खलु दुइमो' इति भगववचनं भद्राचार्यसन्निधौ श्रुत्वाऽऽत्मकल्याणसाधक उग्रवंशोत्पन्न उग्रनामा नृपः प्रव्रज्यां गृहीतवान् । स्वकल्याणार्थ मनो निग्रहीतुं प्रवृत्तः। किन्तु मनः पारदवत् परमचञ्चलम् , तेन तत्स्वायत्तं न जातम् , असो मुनिव्रतधारी नृपश्चिन्तयति-अहो! एकेनापि कोपकटाक्षमात्रेण सर्वे जना ममाज्ञां शिरसिधृत्वा ममायत्ताः सन्तो मम चरणं शरणीकृत्य तिष्ठन्ति स्म । परन्तु विषयों की ओर अर्थात् असंयम मार्ग में प्रवृत्ति करते हैं। संयमरूपी लगाम से संयमित करे जिससे उनकी असंयम में प्रवृत्ति रुक जाय । कहने का भाव यही है कि पांच इन्द्रिय एवं मन इन छह को निगृहीत करने से आत्मा अपने उपशम भावमें स्थित होता है। अतः इनके निग्रह करनेका प्रयत्न प्रत्येक मोक्षाभिलाषी आत्मा को करना चाहिये । “अप्पा हु खलु दुबमो” इस प्रभु कथित वचन कोभद्राचार्य के पास सुनकर उग्रवंशीय उग्र नामका राजा दीक्षित हुए। उन्होंने हर तरह से अपने मन को निग्रह करने का खूब प्रयत्न किया, परन्तु पारे एवं पवन के समान अति चंचल होने से उसका वह निग्रह नहीं कर सके। उसी मुनिव्रतधारी राजा ने विचार किया-बड़े आश्चर्यकी बात है कि एक कोपकुटिल भ्रकुटीमात्र से भी समस्त मेरे प्रजाजन मेरी आज्ञाको शिर पर धारण कर लिया करते थे और चरण की शरण में आ जाते थे-परन्तु-यह માર્ગમાં પ્રવૃતિ કરે છે. એને સંયમરૂપી લગામથી સંયમિત બનાવે જેનાથી તેની અસંયમની પ્રવૃતિ શેકાઈ જાય. મતલબ કહેવાનું એ છે કે, પાંચ ઈન્દ્રિય અને મન, આ છ ને નિગૃહીત કરવાથી આત્મા પિતાના ઉપશમ ભાવમાં સ્થિત થાય છે. આથી એને નિગ્રહ કરવા પ્રયત્ન દરેક મોક્ષાભિલાષી આત્માએ ४२३ न . “ अप्पाहु खलु दुइमो” २॥ प्रभुणे ४ा क्यनने सायायनी પાસેથી સાંભળીને ઉગ્રવંશીય ઉગ્ર નામના રાજા દીક્ષીત થયા. તેઓએ દરેક પ્રકારે પોતાના મનને નિગ્રહ કરવાને ખુબ પ્રયત્ન કર્યો, પરંતુ પવનના સમાન અતિ ચંચળ હોવાથી તેનાથી નિગ્રહ કરી શકાય નહીં. એ મુનિવૃતધારી રાજાએ વિચાર કર્યો–ઘણા આશ્ચર્યની વાત છે કે, એક કેપ કુટિલ ભ્રકુટી માત્રથી મારા સમસ્ત પ્રજાજને મારી આજ્ઞાને માથા ઉપર ધારણ કરતા હતા અને ચરણના શરણમાં આવી જતા હતા. પરંતુ આ મન કેટલું બળવાળું છે જે મારા વશમાં ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११२ उत्तराध्ययनसूत्रे इदमेकमेव मनः शतधा मां नर्तयति, अहं जातिसम्पन्नः कुलसम्पन्न उग्रवंशीयः क्षत्रियोऽस्मि, येन केनापि प्रकारेणातिचञ्चलमिदं मनः स्वायत्तीकरिष्यामि तपसा संयमेन वा स्वाध्यायध्यानादिना वा यथातथा मनः सुस्थिरं करिष्यामि, इति मनसि निश्चित्य समितिषु मनः संयोजयति, ततो निःसरति तदनु गुप्तिषु नियोजयति ततोऽपि निःसृतं स्वाध्याये, ततोऽपि निःसृतं सूत्रार्थचिन्तनलक्षणे ध्याने मन कितना बलिष्ठ है जो मेरे वशमें नहीं आता है-उल्टा मुझे ही अनेक तरह से नचाता है । मैं जाति संपन्न हूं, कुल संपन्न हूं और उग्रवंशीय क्षत्रिय हूं, अतः मेरा कर्तव्य है कि इसका विजय करने के लिये मैं अपनी शक्ति का परिचय हुँ । मैं कोई ऐसा वैसा व्यक्ति तो हूं नहीं जो इसके वश में पड जाउं । अतः जैसे भी हो सकेगा हर एक उपाय से चाहे यह कितना भी चंचल क्यों न हो इसे अपने अधीन बनाकर ही रहूंगा । यदि यह तप से वश में होना चाहेगा-तो तप करूँगा-संयम से वश में होना चाहेगा तो संयम मार्ग अराधुंगा, यदि स्वाध्याय एवं ध्यान से वश में होना चाहेगा-तो स्वाध्याय, ध्यान करुंगा, परंतु इसे अब छोडूंगा नहीं। इस प्रकार दृढ प्रतिज्ञ होकर सर्वप्रथम उसने पांच समितियों के पालन करने में मनको नियुक्त किया, परन्तु यह तो बड़ा ही चंचल था, इसलिये ज्यों ही वहां से निकला की गुप्तियों में नियुक्त किया, फिर भी यह वहां कुछ ही देर ठहर कर जब इसने इधर उधर जानेका प्रयत्न किया कि राजऋषि ने शीघ्र ही स्वाध्याय में निरत कर दिया। આવતું નથી. ઉલટું મનેજ અનેક રીતે નચાવે છે. હું જાતિ સંપન્ન છું, કુળ સંપન્ન છું, અને ઉગ્ર વંશિય ક્ષત્રિય છું. આથી મારું કર્તવ્ય છે કે, એના ઉપર વિજય કરવા માટે હું મારી શક્તિને પરિચય કરાવું. હું કઈ એ નબળા મનને માણસ નથી કે એના વશમાં પડી જાઉં. આથી જેમ બને તેમ દરેક ઉપાયથી ચાહે તે કેટલું પણ ચંચલ કેમ ન હોય તેને મારા આધિન બનાવીને જ જંપીશ. જે તે તપથી વશ બનશે તે હું તપ કરીશ-સંયમથી વશ થશે તે સંયમ માર્ગનું આરાધન કરીશ, જે સ્વાધ્યાય અને ધ્યાનથી વશમાં આવશે તે સ્વાધ્યાય, ધ્યાન કરીશ. પરંતુ આને હું છેડનાર નથી. આ પ્રકારની દ્રઢ પ્રતિજ્ઞા લઈ સર્વ પ્રથમ તેણે પાંચ સમિતિઓનું પાલન કરવામાં મન પરોવ્યું પરંતુ મન તે ભારે ચંચલ હતું આ કારણે જેમ ત્યાથી નિકળ્યું કે ગુણિએમાં નિયુક્ત થયું. છતાં પણ તે ત્યાં થોડીવાર રહી જ્યારે તેણે અહિં ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रियदर्शिनी टीका गा. १५ आत्मदमने पल्लीपतिदृष्टान्तः ११३ नियमयति, ततोऽपि निःसृतं पुनरुपशमभावे समारोहयति, ततोऽपि निःसृतं दृष्ट्वा सचिन्तयति - अहो ! मनो हि दुर्दमम् तदपि ज्ञानक्रियाभ्यां वशीकरिष्यामि, इति विचिन्त्य क्षपकश्रेण्यामारुह्य मनो निगृह्य शुक्रभ्यानद्वितीयपादं संप्राप्य केवलज्ञानं प्राप्तवान् । आत्मानं दाम्यन् अस्मिन् लोके परत्र च सुखी भवति । अत्रोदाहरणम् एको धर्मघोषनामाssवार्यः शिष्यसहितो ग्रामानुग्रामं विहरन् विस्मृतमार्गः पञ्चशतचौराधिष्ठितायां चौरपल्ल्यां गतः । मार्गविस्मरणादेव चातुर्मास्यकरणार्थ जब यह वहां भी नहीं ठहरा तो सूत्रार्थचिन्तनरूप ध्यान में लगा दिया । तब यह वहां सूत्रार्थ के चिन्तवन करने में लग गया । परंतु यह बहुत काल तक स्थित नहीं रह सका। तो फिर उसको उपशम भाव में लगाया । जिससे उसको शांति मिले, फिर भी यह स्थिर नहीं रहा और निकला तो मुनि विचारने लगे अहो ! मन बड़ा ही दुर्दम है उसको ज्ञान एवं क्रिया में लगा दिया । ज्ञान क्रिया से इसको वश में करूँगा ऐसा निश्चित विचारकर क्षपक श्रेणी का आश्रयण किया, फिर मन स्थिर हो और शुक्ल ध्यान के द्वितीय पाद के अवलम्बन से केवलज्ञान को प्राप्त कर लिया और सिद्धिपद पाये, तात्पर्य कहनेका यह है कि आत्मा को दमन करने वाला साधु इस लोक एवं परलोक में सुखी होता है । धर्मघोष नाम के कोई एक आचार्य थे। वे शिष्यों सहित विहार करते हुए किसी दूसरे ग्राम को पधार रहे थे। चलते-चलते वे मार्ग તહિં જવાના પ્રયત્ન કર્યો કે, રાજરૂષિએ તુરતજ સ્વાધ્યાયમાં નિરત કરી દીધું. જ્યારે તે ત્યાં પણ ન ટકયું ત્યારે સૂત્રા ચિંતનરૂપ ધ્યાનમાં લગાવી દીધુ અને તે સૂત્રાના ચિંતનમાં ત્યાં લાગી ગયા, પરંતુ ત્યાં પણ તે લાંબે સમય સ્થિર ન રહી શકયા. આ પછી ઉપશમ ભાવમાં લગાવવામાં આવતાં જેમાંથી શાંતિ મળે. છતાં પણ એ સ્થિર ન રહ્યું. ત્યારે મુનિ વીચારવા લાગ્યા કે, મન મહુજ ચંચળ છે. તેને જ્ઞાન વગેરેની ક્રિયામાં લગાડવામાં આવ્યુ, જ્ઞાનક્રિયાથી તેને વશ કરીશ એવા નિશ્ચીત વિચાર કરી ક્ષપક શ્રેણીને આશ્રય લીધા, પછી મન સ્થિર થયું અને શુકલ ધ્યાનના બીજા પટ્ટના અવલંબનથી કેવલજ્ઞાનને પ્રાપ્ત કર્યું, અને સિદ્ધી પદ પામ્યા. તાત્પર્યં કહેવાનુ` એ છે કે, આત્માને દમન કરવાવાળા સાધુ આ લેાક અને પરલેાકમાં સુખી થાય છે. આને ઉદાહરણ દ્વારા સમર્થન કરવામાં આવે છે गया, ધર્મઘાષ નામના કોઈ એક આચાર્ય હતા, તે શિષ્યા સહિત વિહાર કરીને કાઈ ગામે જઈ રહ્યા હતા, ચાલતાં ચાલતાં તે માર્ગ ભુલી ગયા અને उ० १५ ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર ઃ ૧ Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९५ उत्तराभ्ययनसूत्रे निश्चितस्थानं गन्तुमक्षमो भूत्वा चौरपल्ल्यामेव चातुर्मास्येऽवस्थातुं चौरपल्लीनायकमुपाश्रयं याचितवान् चौरपल्लीनायकेन प्रोक्तम्-अत्र भवता देशना न कर्तव्या, सर्वे वयं तस्करवृत्तिजीविनः । मुनिना तद्वचनं स्वीकृत्य स्वाध्यायध्यानादिना चातुर्मास्यं यापितम् । चातुर्मास्यावसाने विहारसमये सर्वे तस्कराः किंचिद्रं मुनिमनुगताः तदा मुनिना तेभ्यो रात्रिभोजनपतिषेधरूपा देशना दत्ता। तथा चोक्तम्भूल गये और चोरोंकी पल्ली में जा पहुंचे। वहां ५०० चौर रहते थे, चौमासे का समय बिलकुल नजदीक आ पहुंचा था। इतना समय था नहीं कि किसी और दूसरे स्थान पर वहां से चलकर चौमासे में रहने का निश्चय किया जा सके। अतः आचार्यने वहीं पर चतुर्मास व्यतीत करने के अभिप्राय से चौरों के नायकसे चतुर्मास में ठहरने के लिये उपाश्रयकी याचना की। आचार्यकी बात सुनकर पल्लीपति ने उनसे कहा कि आप यहां ठहरें-हमें इसमें कुछ हरकत नहींहै परंतु आप यहां धार्मिक उपदेश देने का कष्ट न करें । कारण कि हम सब यहां के निवासी चौरी करके अपना निर्वाह करते हैं कहीं ऐसा न हो कि आपकी देशना से हमारा व्यापार धंदाबंद हो जाय । आचार्य ने उसकी बात मान ली और स्वाध्याय एवं ध्यान से वहीं पर रहते हुए अपना चौमासे का समय व्यतीत किया । जब विहार करने का समय आया तो उस वख्त सब चौर मिलकर आचार्य को पहुँचाने के लिए इकट्ठे हुए और कुछ दूर तक सब के सब आचार्य महाराज को पहुँचाने के ચારોના નેસડામાં જઈ પહેચ્યા. ત્યાં ૫૦૦ ચાર રહેતા હતા, જેમાસાને સમય નજીક આવી રહ્યા હતા, એટલે સમય ન હતું કે ત્યાંથી બીજા સ્થાને પહોંચીને ત્યાં ચોમાસામાં રહેવાને નિશ્ચય કરી શકાય. આથી આચાર્ય એ સ્થાન ઉપર ચતુર્માસ વ્યતિત કરવાના અભિપ્રાયથી ચેરના નાયકથી ચતુર્માસ રોકાવા માટે આશ્રય સ્થાનની યાચના કરી. આચાર્યની વાત સાંભળી ચેરના નાયકે કહ્યું કે ભલે આપ અહિં રહે અમને એમાં કાંઈ વાંધો નથી. પરંતુ આપ અહિં ધામીક ઉપદેશ આપવાનો વિચાર ન રાખશે. કારણ કે અમે સઘળા અહિંના નિવાસી ચેરી કરીને પિતાને નિર્વાહ કરીએ છીયે. કદાચ એવું ન બને કે આપના ઉપદેશથી અમારે ધંધે બંધ થઈ જાય, આચાર્યો તેની વાત માની લીધી અને સ્વાધ્યાય અને બ્લાનથી ત્યાં રહીને પોતાને માસાને સમય વ્યતિત કર્યો. જ્યારે વિહાર કરવાને સમય આવ્યો તે વખતે બધા ચારેએ મળી આચાને પહોંચાડવા માટે એકઠા થયા અને થોડે દૂર સુધી આ બધા આચાર્ય ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रियदर्शिनी टीका गा. १५ आत्मदमने पल्लीपतिदृष्टान्तः मेधां पिपीलिका हंति, यूका कुर्याज्जलोदरम् ।। कुरुते मक्षिका वान्ति, कुष्ठरोगं च कोलिकः ॥१॥ कण्टको दारुखण्डं च, वितनोति गलव्यथाम् । व्यञ्जनान्तनिपतित,-स्तालु विध्यति वृश्चिकः ॥ २॥ विलग्नस्तु गले बालः, स्वरभंगाय जायते । इत्यादयो दृष्टदोषाः, सर्वेषां निशिभोजने ॥ ३ ॥ तथैव परलोकेऽपि, दुर्गतिर्जायते ध्रुवम् । तस्मात् रात्रौ न भुञ्जीत प्रोक्तं भगवता सदा ॥ ४ ॥ लिये उनके पीछे २ गये। वहां आचार्य ने उन्हें रात्रिभोजन न करने का उपदेश दिया। उस समय में उन्हों ने बतलाया कि रात्रिभोजन में अनेक दोष हैं, क्यों कि सूर्यास्त हो जाने से उस समय अनेक सूक्ष्म जीवों का प्रचार और उत्पत्ति होती है तथा यदि भोजन में पिपीलिकाकीड़ी खाने में आ जावे तो खाने वाले की बुद्धि नष्ट हो जाती है । जूं यदि भोजनमें खाने में आ जावे तो जलोदर नामका रोग हो जाता है। भोजनमें मक्षिका आ जानेसे वमन होता है, भोजनमें कौलिक करोळिया के खाने से कुष्ठरोग होता है, कांटा तथा लकड़ी की फांस से गले में घोर दुःख होता है, विछु खाने में आ जाय तो तालु का भेदन होता है, केश-खाने में आ जावे तो स्वर का भंग होता है इत्यादि अनेक दोष रात्रिभोजन में है । तथा परलोक में रात्रिभोजन करने वाले को दुर्गति की प्राप्ति होती है । इसलिये किसी को रात्रिभोजन नहीं करना चाहिये। મહારાજને પહોંચાડવા તેમની પાછળ પાછળ ગયા. ત્યાં આચાર્યે તેમને રાત્રી ભેજન ન કરવાને ઉપદેશ આપે, તે વખતે તેમણે જણાવ્યું કે રાત્રી ભેજનમાં અનેક દેષ છે કેમકે, સૂર્યાસ્ત થઈ જવાથી અનેક સૂક્ષ્મ જીને પ્રચાર અને ઉત્પત્તિ થાય છે. અને ભેજનમાં જે પીપલીકા–કીડી ખાવામાં આવી જાય તે બુદ્ધિનો નાશ થાય છે. શું વગેરે જે ખાવામાં આવી જાય તે જળદર નામનો રેગ થાય છે, માખી આવી જવાથી ઉલટી થાય છે, જે કોળી ખાવામાં આવી જાય તે કોઢ થાય છે, કાંટા તેમજ લાકડાની ફાંસ જેવું ખાવામાં આવી જાય તે ગળામાં અટકાઈ જાય છે અને ઘણું દુઃખ થાય છે, વિંછી જે ખાવામાં આવી જાય તે તાળવું તેડી નાખે છે, મેવાળે ખાવામાં આવી જાય તે સ્વરને ભંગ થાય છે. ઈત્યાદિ અનેક દેષ રાત્રી ભોજનમાં છે અને રાત્રી ભોજન કરનારને દુર્ગતિની પ્રાપ્તિ થાય છે. આ માટે કે એ રાત્રી ભેજન ન કરવું, ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११६ उत्तराध्ययनसूत्रे देशनां श्रुत्वा तेषु केवलमेकेन पल्लीपतिना रात्रिभोजनप्रत्याख्यानं कृतम् । एकदा पञ्चशतसंख्यकैश्चौरैः सह पल्लीपतिः स्तेयं कर्तुं गतः। एकस्यां नगी बहुतरं धनं चौर्येण प्राप्तं, तदुपादाय ते सर्वे महारण्ये समागत्य तत्र सर्वे संस्थिताः । तत्र तन्नायकेन कथितम्-अत्रभुज्यतां सर्वैः, तदा सार्धद्वयसंख्यकाः पाककरणार्थं प्रवृत्ताः, साधद्वयसंख्यकाश्च सुरादिकमानेतुं समीपस्थं ग्रामं गताः । मदिरादिकमानेतुं प्रवृतैस्तैश्चिन्तितम्-चौर्येणोपार्जितं सर्व धनमस्माकं भविष्यति, यद्यर्धमदिरा विपमिश्रिता नीयते । एवं विचिन्त्याधमदिरा विषमिश्रिता तैरानीता, अर्धा तु स्वार्थ आचार्य महाराज की इस प्रकार की धर्मदेशना सुनकर उनमें से केवल एक पल्लीपति ने रात्रिभोजन का त्याग कर दिया। एक समय की बात है कि यह पल्लीपति उन पांचसौ चोरों के साथ चोरी करने के लिये बाहर गया। किसी एक नगर में चोरी करने से उन्हें बहुत सा द्रव्य मिला । उसे लेकर वे सब के सब वहां से चल दिये और किसी एक जंगल में आकर ठहर गये। पल्लीपति ने सब से कहा कि अब सब लोग भोजन की तैयारी करो। पल्लोपति के इस आदेश को पाकर उनमें से आधे अर्थात् अढाईसौ चौर तो भोजन करने की तैयारी में लग गये और अढाइसौ चौर सुरा मदिरा आदि को लेने के लिये पास के गावों में गये। मदिरादिक लाने के लिये गये हुए इन व्यक्तियों ने मनमें विचार किया कि चोरी में जितना भी द्रव्य हाथ लगा है वह सब का सब हम सब लोगों को ही मिल जावे तो बहुत ही उत्तम बात है, इसलिये ऐसा प्रयत्न करना चाहिये कि जो लोग भोजन बना रहे हैं वे सब के सब मर जायें-अतः उन्हें मारने की तरकीब एक यही है कि इस मदिरा में આચાર્ય મહારાજની આ પ્રકારની ધર્મ દેશના સાંભળીને તેમાંથી ફક્ત એક ચેરના આગેવાને રાત્રી ભેજનને ત્યાગ કર્યો. એક વખતે તે ચારને આગેવાન એ પાંચસો ચોરેની સાથે ચોરી કરવા માટે બહાર ગયે, કેઈ એક નગરમાં ચોરી કરવાથી તેને ઘણું દ્રવ્ય મળ્યું એને લઈ તે બધા ત્યાંથી ચાલતા થયા અને કોઈ એક જંગલમાં પહોંચી ત્યાં રોકાયા. ચારના આગેવાને બધાને ભોજનની તૈયારી કરવાનું કહ્યું તેના આદેશને સાંભળી અરધ જેટલા ચોર તો ભજનની તૈયારીમાં લાગી ગયા અને અરધા દારૂ વિગેરે લેવા માટે પાસેના ગામમાં ગયા, દારૂ વિગેરે લેવા ગયેલા એ ચરોએ મનમાં વિચાર કર્યો કે, ચેરીમાં મળેલું સઘળું દ્રવ્ય બધુ અમને મળી જાય તે ઘણું સારું થાય આ માટે એ પ્રયત્ન કરે જોઈએ કે જે લેકે ભેજન બનાવે છે તે બધા મરી જાય. તેમને મારવાની તરકીબ કેવળ એક જ છે કે આ દારૂમાંના અરધા દારૂમાં વિષ ભેળવવવામાં ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रियदर्शिनी टीका गा. १५ आत्मदमने पल्लीपतिदृष्टान्तः निर्विषा । पाकप्रवृत्ता अपि एवमेव विचार्य स्वभोजनार्थम मांस पृथक् निधाय अर्ध मांसं विषमिश्रितं कृतवन्तः । सर्वे भोजनार्थमुपस्थिताः पल्लीनायकं प्रोक्तवन्तः। पल्लीपतिनोक्तम्-इदानीं रात्रिः संजाता, मया रात्रिभोजनस्य प्रत्याख्यानं कृतम् , सर्वैर्भुज्यताम् , ततः पल्लीनायकाज्ञया सर्वे चौरा भोक्तुमुपविष्टाः । तत्र सार्धद्वयसंख्यकाचोराः सविषमदिरापानेन मृताः, अन्ये सार्धद्वयसंख्यकाः सविषमांसभक्षणेन मृताः । एतत् सर्वं दृष्ट्वा पल्लीनायकेन मनसि चिन्तितम्से आधी मदिरा में विष मिला दिया जाय । ऐसा विचार कर उन्होंने आधी मदिरा में विष मिला दिया और आधी मदिरा अपने लिये विना विष की अलग रख ली। उधर जो मांस आदि पकाने में लगे हुए थे उन्होंने भी यही विचार किया और जैसा काम इन लोंगोंने किया वैसा ही उन्हों ने किया-अर्थात् उन लोगों ने भी आघे भोजन में विष मिला दिया और आधा भोजन अपने लिये विना विष का अलग रख लिया। जब सब भोजन के लिये बैठने लगे तब सब ने पल्लीपति को भोजन करने के लिये बुलाया। परंतु पल्लीपति ने उस समय भोजन करने से यह कह कर मना कर दिया कि देखो भाईयों इस समय रात्रि हो चुकी हैमैं ने रात्रिभोजन का त्याग किया है, अतः आप लोग ही इस समय भोजन करें ! पल्लीपति की इस प्रकार आज्ञा प्राप्त कर वे सब के सब भोजन करने के लिये बैठ गये । उनमें आधे तो विष मिश्रित मदिरा के पान करने से मर गये और आधे विषमिश्रित मांस के खाने से मर गये । इस प्रकार सर्व विनाश देखकर पल्लीपति ने मन में विचार આવે. એ વિચાર કરી તેઓએ અરધા દારૂમાં વિષ મેળવી દીધું અને અરધે દારૂ પિતાના માટે અલગ રાખ્યો. અહિં પણ જે માંસ વગેરે પકાવવામાં લાગેલ હતા તેમણે પણ એ વિચાર કર્યો જેવું કામ આ લોકોએ કર્યું. અર્થાત્ એ લોકોએ પણ અરધા ભેજનમાં વિષ મેળવી દીધું અને અરધું પિતાના માટે અલગ રાખી લીધું. જ્યારે બધા જમવા માટે બેસવા માંડ્યા ત્યારે બધાએ તેના આગેવાનને જમવા માટે લાવ્યા. પરંતુ આગેવાને એમ કહી ના કહી કે જુઓ ભાઈઓ આ સમયે રાત્રીને સમય થઈ ચુકી છે મેં રાત્રી ભેજનને ત્યાગ કરેલ છે આથી આપ લોકેજ જમી લ્યો. આગેવાનની આ પ્રકારે આજ્ઞા મળતાં તે બધા જમવા માટે બેસી ગયા, અને અરધા તે વિષ મેળવેલ દારૂનું પાન કરવાથી મરી ગયા અને અરધા વિષ મિશ્રીત માંસના ખાવાથી મરી ગયા. આ પ્રકારે સર્વ વિનાશ જોઇને આગેવાને મનમાં વિચાર કર્યો કે ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११८ उत्तराध्ययन सूत्रे रात्रिभोजन प्रत्याख्यानेन रसनेन्द्रियमात्रदमनस्य फलमेतद् यन्मया जीवनं लब्धम्, यदि पुनः सर्वथाऽऽत्मदमनं कुर्या तर्हि कथं न ध्रुवं नित्यमचलमव्याबाधं शिवसौख्यं लभेयम् । एवं विचिन्त्य चौरपल्लीनायकेन मुनिसमीपे गत्वा प्रव्रज्यां गृहीत्वा स्वात्मकल्याणं साधितम् ॥ १५ ॥ आत्मदमनार्थमेवं चिन्तयेदित्याह - मूलम् - वरं मे अप्पी दंतो. संजमेण तवेण ये । माऽहं परेहिं दम्मंतो, बंधणेहिं वहेहि ये ॥ १६॥ छाया - वरं मे आत्मा दान्तः संयमेन तपसा च । माऽहं परैर्दमितः बन्धनैर्वधैश्च ॥ १६ ॥ टीका- ' वरं मे० ' इत्यादि । मे= मया, आत्मा - मनोरूपः पञ्चेन्द्रियरूपश्च संयमेन = सावद्यानुष्ठानविरतिकिया कि रात्रिभोजन त्याग करने का, जिसमें एक मात्र रसनेन्द्रिय का दमन किया जाता है, यह फल है जो मैं अकेला जीवित बच सका हूं। यदि सर्व प्रकार से मैं आत्मा इन्द्रियों एवं मन का दमन करूँ तो क्यों नहीं ध्रुव, नित्य, अचल और अव्याबाध मुक्ति सुख का अधिकारी बनूं । इस प्रकार विचार कर उस पल्लीपति ने उसी समय मुनिकी पास जा कर दीक्षा धारण कर आत्मकल्याण के मार्ग का साधन करना प्रारंभ कर दिया || १५ ॥ आत्मा को दमन करने के लिये मोक्षाभिलाषी को इस प्रकार विचार करना चाहिये - ' वरंमे० ' इत्यादि । अन्वयार्थ - ( मे अप्पा संजमेण तवेण य दंतो वरं - संयमेन तपसा मया दान्तः वरं ) संयम एवं तप के द्वारा जो मैं आत्मा का इन्द्रियों રાત્રી ભેાજન ત્યાગ કરવાથી માત્ર એક રસનેંદ્રિયનું દમન કરવામાં આવે છે તેનું આ ફળ છે. જે હુ એકલેા જીવતા રહી શકયા. જો હું સર્વ પ્રકારથી આત્મા-ઇન્દ્રિયા અને મનનું દમન કરૂં તે ધ્રુવ, નિત્ય, અચલ અને અવ્યાબાધ મુક્તિ સુખના અધિકાર કેમ ન બનું ? આ પ્રકારના વિચાર કરી તે ચારના આગેવાને એજ વખતે મુનિ પાસે જઇને દીક્ષા ધારણ કરી આત્મ કલ્યાણના માનું સાધન કરવાના પ્રારંભ કરી દીધા ॥ ૧૫ ।। મેાક્ષના અભિલાષીએ આ પ્રકારે આત્માનું દમન કરવાના વિચાર वो लेहये - वरं मे० इत्यादि. मन्वयार्थ - मे अप्पा संजमेण तवेणय दंतोवरं-संयमेन तपसा मया दान्तः वरं ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર ઃ ૧ Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रियदर्शिनी टीका गा. १६ आत्मदमने प्रकारः लक्षणेन सप्तदशविधेन, तपसा अनशनादिद्वादशविधेन च दान्तः वशीकृतः स्यात् तर्हि वरं श्रेयः शोभनं भवेदित्यर्थः, संयमो हि आस्रवनिरोधं जनयति, क्षपकश्रेणि समारोहयति, कर्म निर्जरयति केवलज्ञानमुत्पादयति, शैलेश्यवस्था प्रापयति सिद्धावस्था प्रकटयति । तपश्च रागद्वेषादिदोषमलिनात्मसंशोधक, तेजोलेश्यादिविविधलब्धिजनकं पूर्वसंचितसकलकर्मदाहकं नवकर्मानुत्पादकम् । पुनर्मनस्येवं चिन्तयेत्-अहं परैः अन्यैः बन्धनैः शृङ्खलादिभिः, वधैः-लगुडचपेटादिभिः, दमितः= निगृहीतः-बद्ध्वा ताडयित्वा च स्वाधीनीकृत इत्यर्थः, मा भवेयम्।। अयं भावा-यदाऽन्ये मम बन्धन ताडनैर्दमनं करिष्यन्ति तदा मम श्रेयो नास्ति, परवशत्वात् , तथाहि-वधबन्धनैः परवशस्य मम चित्तसमाधि ने सम्भवति तदभावे कर्मनिर्जराभावः, तदभावे दीर्घाध्वसंसारपरिभ्रमणं भविष्यतीति । एवं मन का दमन करूँ यह सर्वोत्तम है। अगर ऐसा नहीं करूँ तो कदाचित् मुझे (बंधणेहिं बहेहिं परेहि दम्मं तो अहं मा वरं-बंधनैः वधैः परैः दमितः अहं मा वरं ) बधनों-शृंखला आदि के द्वारा बांधना. रूप क्रियाओं से तथा वध-चपेटा आदि प्रहारों से जो मैं दूसरों के द्वारा दमित होउँ । अथवा यदि मैं इन्द्रियो एवं मनका जो तप तथा संयम द्वारा दमन कर लूंगा तो यह इसलिये उत्तम है कि मैं भविष्य में अन्य व्यक्तियों द्वारा बंधन एवं वध से निगृहीत नहीं हो सकूँगा। कहने का तात्पर्य यह है कि जब मुझे अन्यजन बंधन एवं ताडन आदि द्वारा निगृहीत करेंगे तो इसमें मेरी कोई भी भलाई नहीं है कारण कि यह अवस्थाएँ अनिच्छापूर्वक वश होने की वजह से सहन करनी पड़ती हैं। इसमें चित्त की समाधि तो होती नहीं है। चित्त में समता भावरूप સંયમ અને તપ દ્વારા જે હું આત્માને-ઇન્દ્રિ અને મનનું દમન કરૂં એ सर्वोत्तम छ. ने तेम न ४३ ४ायित भने वंधणेहिं वहेहिं परेहिं दम्मतो अहं मा वरं-बंधनैः वधैः परैः दमितः अहं मा वरं मयन। श्रमसा माहा બાંધવારૂપ ક્રિયાઓથી તથા વધ-ચપેટા આદિ પ્રહારથી જો હું બીજાઓથી દમિત બનું અથવા–જે હું ઈન્દ્રિયો અને મનનું તપ તથા સંયમ દ્વારા દમન કરી લઉં તે તે એ માટે ઉત્તમ છે કે હું ભવિષ્યમાં અન્ય વ્યક્તિઓ દ્વારા બંધન અને વધથી નિગ્રહીત નહી થઈ શકે. કહેવાનો મતલબ એ છે કે જ્યારે મને બીજા માણસે બંધન અથવા તાડન આદિ દ્વારા નિગૃહીત કરે તે આમાં મારી કઈ પણ ભલાઈ નથી. કારણ કે, આ અવસ્થાઓ અનિચ્છાએ પરવશ થવાને કારણે સહન કરવી પડે છે. તેમાં ચિત્તની સમાધી થતી નથી. ચિત્તમાં ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययनसूत्रे अत्र दृष्टान्तः सेचनकहस्ती यथा एकस्यामटव्यां बहुतरहस्तिनीभिः सह महागजो निवसमासीत् । स च जातं जातं करिशावकं विनाशयति । एकदा तत्रैका हस्तिनी सगर्भा जाता, सा चैवं समाधि की प्राप्ति नहीं होगी-यह भी निश्चित है कि कर्म की निर्जरा नहीं होगी । कर्म की निर्जरा के अभाव में इस अनन्तसंसार का परिभ्रमण भी नहीं रुक सकता है । १७ प्रकार के संयम से एवं १२ प्रकार के अनशन आदि तप से जो मैं आत्मा का दमन कर लूंगा उससे मेरा एकान्त हित होगा। कारण कि संयम से ही आस्रव का निरोध होता है। इसकी सहायता से ही आत्मा क्षपकश्रेणी पर आरूढ़ होता है। अनन्तगुणी कर्मों की निर्जरा इसके ही सद्भाव से होती है। केवलज्ञान की प्राप्ति जीव को इसी के बल पर होती है । शैलेशी अवस्था का लाभ एवं सिद्धावस्था की प्रकटता इसी तप संयम से मिलती है। रागद्वेष आदि से मलिन आत्मा का शोधन तप से होता है। तेजोलेश्या आदि विविध लब्धियों का जनक तथा पूर्व में संचित समस्त कर्मों का नाशक एवं नवीन कर्मों का आगमन का निरोधक तप होता है । अतः इस अवस्था में एकान्ततः आत्मा का हित भरा हुआ है। अब सेचनकहस्ती के दृष्टान्त से इस विषय को स्पष्ट करते हैंकिसी एक अटवीमें अनेक हस्तिनीके साथ एक मदोन्मत्त महागज સમતાભાવરૂપ સમાધીની પ્રાપ્તિ થશે નહીં. આ પણ નિશ્ચીત છે કે, કર્મની નિજર પણ થશે નહીં. કર્મની નિર્જરાના અભાવમાં આ અનંત સંસારનું પરિભ્રમણ પણ રેકી શકાવાનું નથી. ૧૭ પ્રકારના સંયમથી અને ૧૨ પ્રકારના અનશન આદિ તપથી જે હું આત્માનું દમન કરી લઉં તે તેનાથી મારું એકાન્ત હિત થશે. કારણ કે, સંયમથી જ આશ્રવને નિરોધ થાય છે, તેની સહાયતાથી જ આત્માં લપક શ્રેણીએ પહોચે છે. અનંતગુણી કર્મોની નિર્જરા એનાજ સદ્દભાવથી થાય છે. કેવળજ્ઞાનની પ્રાપ્તિ જીવને એના જ બળથી મળે છે. શૈલેશી અવસ્થાને લાભ તેમજ સિદ્ધઅવસ્થાની પ્રગટતા એજ તપ સંયમથી મળે છે. રાગદેશ આદિથી મલીન આત્માનું શોધન તપથી થાય છે. તે વેશ્યા આદિ વિવિધ લબ્ધિઓના જનક તથા પૂર્વનાં સંચિત સમસ્ત કર્મોને નાશ કરનાર અને નવીન કર્મોને રોકનાર તપ હોય છે. આથી આ અવસ્થામાં એકાન્તતઃ આત્માનું હિત સમાયેલું છે. (સેચનક હાથીના દષ્ટાંતથી સૂત્રકાર આ વિષયને સ્પષ્ટ કરે છે.) કેઈ એક વનમાં અનેક હાથણીઓની સાથે એક મદોન્મત્ત ગજરાજ ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रियदर्शिनी टीका गा १५ आत्मदमने सेचनकहस्तिदृष्टान्तः १२१ चिन्तयति, यदा कथमपि मे बालको भविष्यति तदाऽनेन इनिष्यते । ततः साहस्तिनी युथादपसरति, क्रमेण प्रहरं प्रहरद्वयमन्तरितं कृत्वा यूथमध्ये मिलति, क्रमशः सा द्वितीये दिवसे यूथमध्ये गत्वा मिलति एवं कुर्वत्या तया प्रसवसमये समागते सति तापसाश्रमो दृष्टः, सा तत्राऽऽलीना गुप्तस्थाने प्रसूता, बालकः संजातः । स बालकस्तत्र यथा तापसकुमारा घटादिभिरुद्यानगतान् वृक्षान् सिञ्चन्ति, तथा जलाशयं गत्वा स्वशुण्डायां जलं भृत्वा वृक्षान् सिञ्चति । ततस्तापसैस्तस्य निवास करता था। वहां जितने भी नवीन बच्चे पैदा होते थे सब को मार डालता था । एक समय की बात है कि एक हस्तिनी गर्भवती हुई । गर्भावस्था में हस्तिनी ने विचार किया कि जब मेरी कुक्षि से बच्चा पैदा होगा तो यह निश्चय है कि यह दुरात्मा गज उसे विना मारे नहीं रहेगा, अतः अच्छी अब यही है कि मैं इस यूथ से अलग ही होकर रहूं । ऐसा विचार कर यूथ से अलग रहने लगी- परन्तु यह अलग रहने का भेद प्रकट न हो जाय इस ख्याल से पहिले तो वह यूथ में एक २ दो २ प्रहर के बाद आती जाती रही, फिर १-१-२-२ दिन के बाद मिलती रही। इस प्रकार करते २ जब उसके प्रसव का समय नजदीक आ गया तो वह किसी तापस के आश्रम में जा पहुँची। वहां पर गुप्तस्थान में प्रच्छन्न होकर उसने बच्चे को जन्म दिया । बच्चा क्रमशः बढने लगा | वहां पर जिस तरह तापस कुमार घड़ो में पानी भरकर उद्यान के वृक्षों को सींचा करते थे उसी प्रकार यह हाथी का बच्चा भी जलाशय से अपनी सूंड में पानी भर कर उद्यान के वृक्षों ( હ્રાથી ) નિવાસ કરતા હતા. ત્યાં જેટલાં નવાં બચ્ચાં જન્મતાં હતાં તે બધાને તે મારી નાખતે. એક સમયની વાત છે એક હાથણી ગર્ભવતી થઈ, ગર્ભાવસ્થામાં હાથણીએ વિચાર કર્યો કે જ્યારે મને ખર્ચે અવતરશે ત્યારે એ વાત નિશ્ચિત છે કે આ દુરાત્મા હાથી તેને મારી નાખ્યા વગર રહેશે નહીં. આથી સારૂ તા એ છે કે, આ જુથથી જુદા પડીને રહું. આવા વિચાર કરી તે જુથથી જુદી રહેવા લાગી. પરંતું અલગ રહેવાના ભેદ પ્રગટ ન થઈ જાય એ માટે તે જુથમાં અવાર નવાર આવતી જતી અને ધીરે ધીરે એકેક દિવસ અને એ દિવસના અંતરે આવતી જતી. આ પ્રકારે કરતાં કરતાં જ્યારે તેના પ્રસવ સમય નજીક આવ્યો ત્યારે તે કઈ તપસ્વીના આશ્રમમાં જઈ પહાંચી અને ત્યાં ગુપ્ત સ્થાનમાં પ્રચ્છન્ન-છૂપાઈ ને મચ્ચાને જન્મ આપ્યું. અચ્ચું માટુ'થવા માંડયું, ત્યાં જે રીતે તાપસ કુમાર ઘડામાં પાણી ભરીને ઉદ્યાનના વૃક્ષાને પાતા હતા તે રીતે આ હાથીનું બચ્ચુ પણુ જળાશયથી પાતાની સુંઢમાં પાણી ભરીને उ० १६ ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર ઃ ૧ Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२२ उत्तराध्ययनसूत्रे 'सेचनक' इति नाम कृतम् । स सेचनकस्तापसबालकानां वयस्यो जातः । कदाचिद् भ्रमन्तं यथाधिपतिं दृष्ट्वा सेचनकस्तं मारितवान् । स्वयं यूथाधिपतिर्जातः। स च तापसाश्रमे वृक्षाणां विध्वंसनं कृतवान् , काऽप्यन्या मन्मातेव प्रच्छन्ना मा तिष्ठतु इति विचारितवांश्च । ततस्ते तापसा रुष्टाः पुष्पफलपूर्णहस्ताः श्रेणिकनृपस्य समीपं गत्वा तमब्रुवन्-एकः सेचनकनामाहस्ती बने तिष्ठति, स चास्माकं वासस्थाने वनं विनाशयति । ततः श्रेणिकेन महत्या सेनया सह वनं गत्वा सेचनकं निगृह्य को सींचने का काम करने लगा। सिंचनरूप कार्य को करने से तापसों ने इसका नाम " सेचनक" रख दिया। तापस बालक इस पर षड़े प्रसन्न रहा करते, अतः उन सबके साथ यह खूब हिलमिल कर रहने लगा, यहां तक कि उनके साथ इसकी पूर्ण मित्रता हो गई । जब यह खूब बलिष्ट हो चुका-तो एक समय की बात है कि उसने अवसर पाकर यूथाधिपति हाथी को घूमते समय जान से मार दिया और स्वयं यूथ का अधिपति हो गया। इसने ऐसा विचार किया कि मेरी माता के समान कोई भी हथिनी छुप कर न बच्चा उत्पन्न करे और न छुप कर ही रहे, इस अभिप्राय से इसने आश्रम के समस्त वृक्ष उखाड़ डाले। इसके इस प्रकार के कार्य से तापस लोग रुष्ट हो गये। वे सब के सब पुष्प फलादिकरूप भेट लेकर राजा श्रेणिक के पास पहुँचे । वहां पहुँचकर उन्हों ने राजा को अपनी सारी कथा सुनाई। कहा महाराज ! एक सेचनक नामक हस्ती वनमें रहता है वह बहुत ही उपद्रव कर ઉદ્યાનના વૃક્ષેને પાણી પાવાનું કામ કરવા લાગ્યું, તાપસેએ આ પ્રકારનું કામ કરવાથી તે હાથી બાળકનું નામ “સેચનક રાખ્યું. તાપસ બાળક તેના પર ખૂબ પ્રસન્ન રહૃાા કરતા, એથી તે એમની સાથે ખૂબ હળી મળીને રહેવા લાગ્યું, તે ત્યાં સુધી કે એમની સાથે તેની પૂર્ણ મિત્રતા થઈ ગઈ જ્યારે તે હાથી બચું ખૂબ બળવાન બન્યું ત્યારે એક સમયે તે સશક્ત અને બળવાન બનેલા હાથી બાળે મહાબળવાન અને ઘાતક એવા હાથી ઝુંપતિને અવસર મેળવી જીવથી મારી નાખ્યો. અને પોતે ગુંડપતિ બન્યું. તેણે વિચાર કર્યો કે મારી માતાની માફક કઈ પણ હાથણી છુપાઈને બચ્ચાને જન્મ ન આપે અને ન તે છુપાઈને રહે. આ અભિપ્રાયથી તેણે આશ્રમનાં બધાં વૃક્ષોને જડમુળથી ઉખેડી નાખ્યાં. હાથીના આ પ્રકારના કાર્યથી તપસ્વીઓના દિલમાં ભારે દુઃખ થયું અને તેઓ પુષ્ક ફળ વગેરે ભેટ લઈ રાજા શ્રેણિકની પાસે પહોંચ્યા અને ત્યાં જઈ રાજાને બધી વાત કહી સંભળાવી અને કહ્યું, મહારાજ ! સેચનક નામને એક હાથી વનમાં રહે છે તે ખૂબ ઉપદ્રવ કરે છે, અમારા ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रियदर्शिनी टीका गा. १६ आत्मदमने सेचनकहस्तिदृष्टान्तः १२३ आलानस्तम्भे लौहशृङ्खलाभिः स निबद्धः । तापसास्तत्रागत्य सेचनकं भर्त्सयन्तिअरे गजराज! अधुना क्व ते पराक्रमः, अविनयस्य फलमिदानीं लब्धम् । एतद्वचनं श्रुत्वा सेचनकः क्रुद्धः स्तम्भं भक्त्वा पुनर्वनं प्रविष्टस्तेषामावासभूमौ वृक्षान् विध्वंसितवान् । पुनः श्रेणिकः सेचनकं गजं निगृहीतुं तद्वनं गतः । अत्रान्तरे पूर्वभव मित्रदेवेन सेचनकसमीपमागत्य प्रोक्तम्-हे वत्स ! परेभ्यो दमनात् स्वयं दमनं वरम् , ततस्तद्वचः श्रुत्वाऽसौ स्वयमागत्यालानस्तम्भनिकटे स्थितः ।। रहा है । हमारे आश्रम का समस्त वन उसने नष्ट भ्रष्ट कर दिया है। तापसों की इस प्रकार बात सुनकर श्रेणिक ने बड़ी सेना के साथ वन में जाकर उस सेचनक हाथी को पकड़ लिया। और उसे लाकर आलानस्तंभ में लोहे की सांकलों से बांध दिया। तापस आकर अब उसे भत्सित करने लगे । कहने लगे-अरे! सेचनक गजराज! कह अब वह तेरा पराक्रम कहां चला गया, देख तेरी कैसी दुर्दशा हुई है। समझा यह अविनय करने का फल है, जिसे तू भोग रहा है । तापसों के इस प्रकार भत्सना भरे वचनों को सुनकर सेचनक को बहुत ही क्रोध आया और उस आवेश में आलानस्तंभ को तोड़ मरोड़ कर वह सीधा वन में जा पहुँचा। वहां पहुंचकर उसने पहिले की तरह ही उनकी आवासभूमि के वृक्षों का विध्वंस करना प्रारंभ कर दिया। राजा श्रेणिक पुनः उसे पकड़ने के लिये वन में आये । इतने में पूर्वभव के मित्र देवने आकर सेचनक से कहा-जो तुम बार २ दूसरों के द्वारा दमित किये जाते हो-उसकी अपेक्षा तो यही अच्छा है कि तुम अपने आपको આશ્રમનાં સઘળાં વૃક્ષને એણે નાશ કરી નાખ્યો છે. તાપસીની વાત સાંભળી શ્રેણિક રાજાએ ભારે સેના સાથે વનમાં જઈ એ સેચનક હાથીને પકડી લીધે અને તેને રાજધાનીમાં લાવી એક ખૂબ મજબૂત સ્તંભ સાથે લેઢાની સાંકળેથી બાંધી દીધે. તાપસેએ આ સમયે તેની સામે જઈ તેની મશ્કરી શરૂ કરી અને કહેવા લાગ્યા-અહે! સેચનક ગજરાજ કહે હવે તમારૂં પરાક્રમ કયાં ચાલ્યું ગયું ? જે તારી કેવી દુર્દશા થઈ? અવિનયનું આ ફળ છે, જે તું ભેગવી રહેલ છે. તાપસનું આ કહેવાનું સાંભળી સેચનકને ખૂબ જ ક્રોધ આવ્યો અને તે જબરજસ્ત એવા સ્તંભને તેડી નાખી લેઢાની સાંકળોને ફગાવી દઈ વનમાં જઈ પહોંચે. ત્યાં પહોંચીને ચારે બાજુથી વનનાં વૃક્ષોને વિચ્છેદ કરવાનું શરૂ કરી દીધું. રાજા શ્રેણિક ફરી તેને પકડવા માટે વનમાં પહોંચ્યા. આ સમયે સેચનકના પૂર્વભવના મિત્ર દેવે આવી સેચનકને કહ્યું–તમે બીજા દ્વારા ઘડી ઘડી હેરાન થાવ છે-આથી સારૂં તે એ છે કે તમે તમારી જાતે પોતાનું દમન કરે. ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२४ उत्तराध्ययनसूत्रे स्वयमागतं स्तम्भसमीपे त्रिचरणेनावस्थितं सेचनकं दृष्ष्ट्वा श्रेणिकनृपस्तं मिष्टाहारैः स्वर्णभूषणैः करस्पर्शादिभिश्च नितरां लालयति स्म । एवं सेचनकहस्तिवत् स्वयमात्मनो दमनेन लोके सर्वत्रादरं लभमानः सुखी भवति । तथैव परलोकेऽपि सुखी भवति ' तत्रोदाहरणम्____ अष्टमतीर्थकरस्य श्रीचन्द्रप्रभस्य शासने चन्द्रपुरीनगर्या तद्वंशपरंपरायां सुदर्शनो नाम नरपतिरासीत् । स चैवं पूर्वोपार्जितपुण्यराशिरासीत्-येन तस्य दर्शनात् प्रजानामिष्टलाभो भवति, अतस्तदर्शनार्थमनुदिवसं तत्र चतसृभ्यो दिग्भ्यः दमन करो । देव के इस प्रकार वचन सुनकर सेचनक आलानस्तम्भ के पास स्वयं आ कर खड़ा हो गया। राजा सेचनकको आलानस्तंभके पास खड़ा देखकर बड़ा प्रसन्न हुआ। उसने मिष्ट आहार से तथा स्वर्ण के आभूषणों से उसका खूब सत्कार किया। बारंवार उसके ऊपर हाथ फेरा और पुचकारा । मतलब कहने का यही है कि जो व्यक्ति सेचनक हाथी की तरह अपना स्वयं दमन करता है वह सर्वत्र आदरणीय बन कर इस लोक में खूब सुखी हो जाता है। तथा परलोक में आनंदका भोक्ता बनता है, इस विषय में उदाहरण इस प्रकार है____ अष्टमतीर्थकर श्री चंद्रप्रभु स्वामी के शासन में चंद्रपुरी नाम की नगरी में सुदर्शन नामका एक राजा थे। यह चंद्रप्रभुस्वामी की वंशपरंपरामें ही उत्पन्न हुए थे। उसकी पूर्वोपार्जितपुण्यराशि इतनी प्रबल थी कि जो कोई प्रजाजन इसका दर्शन करते थे उसे अवश्य ही इष्ट का लाभ होता था। इसी से उसके दर्शन के लिये हरएक दिशा से दौड़ २आते थे। દેવનાં આ પ્રકારનાં વચન સાંભળી સેચનક પિતાની જાતે જ રાજધાનીમાં પહોંચે અને પ્રથમ જે સ્થળે તેને બાંધવામાં આવેલ હતું તે સ્થળે જઈ ઉભે. રહી ગયે. સેચનકને આ રીતે પાછો આવેલે જોઈ રાજા શ્રેણિક ખુશી થયા અને તેને સારું એવું મીષ્ટ ભેજન આપી સેનાના અલંકારે પહેરાવી તેના શરીર ઉપર પ્રેમથી હાથ ફેરવવા લાગ્યા. કહેવાનો મતલબ એ છે કે જે વ્યક્તિ સેચનક હાથીની માફક સ્વયં પિતાનું દમન કરે છે તે સર્વત્ર આદરને પાત્ર બની આ લાકમાં ખૂબ સુખી થઈ પરલોકમાં પણ આનંદના ગવનાર બને છે. આ વિષયમાં ઉદાહરણ આ પ્રકારનું છે– આઠમા તીર્થકર શ્રી ચંદ્રપ્રભુસ્વામીના શાસનમાં ચંદ્રપુરી નામના નગરમાં સુદર્શન નામના રાજા હતા. તે ચંદ્રપ્રભુ સ્વામીના વંશના જ હતા. એની પૂર્વોપાજીત પુણ્યરાશિ એટલી પ્રબળ હતો કે જે કઈ પ્રજાજન એમનાં દર્શન કરતો તેને ઈષ્ટને લાભ અવશ્ય મળી જતે, આથી એમના દર્શન માટે દરેક ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रियदर्शिनी टीका गा. १६ आत्मदमने सुदर्शननृपदृष्टान्तः १२५ 1 , समागताः प्रजा संमिलन्ति । तस्य प्राज्यं राज्यसुखं, प्रतिदिवसं नवं नवभित्र यौवनम्, नवनीतमिव शिरीषकुसुममिव सुकुमारं शरीरम्, नयनलोभकरं रूपलावण्यम्, सर्वत्राव्याहतगतिकं यानम् दिवमण्डलविजयिनी चतुरङ्गिणी सेना, शीतलसुगन्धमन्दमारुतमनोविनोदनं, नन्दनवनमित्र सर्वर्तुमुखदं रमणीयमुद्यानम्, चन्द्रमण्डलावधीरणगगनस्पर्शिधवलमासादाः सर्वे कामभोगा अनुकूला आसन् । असौ दौगुन्दुकदेव इव सर्व सुखमनुभवन्नास्ते । तत्रैकदा धर्मचन्द्रनामक आचार्यः शिष्यगणपरिराज्य का उसे अधिक से अधिक सुख था । यौवन भी इसका प्रतिदिन नवीन नवीन रूप में खिलता रहता था। शरीर इसका नवनीत एवं शिरीष पुष्प से भी अधिक सुकुमार था । रूप लावण्य नयनों को लुभावे ऐसे थे इसे कहीं पर भी चले जाने में कोई रुकावट नहीं होती थी । इसकी चतुरंगिणी सेना दिङ्मंडल को विजय करने वाली थी । इसके एक रमणीय उद्यान था जो नन्दनवन के समान समस्त ऋतुओं में सुखदायक था। जिसमें शीतल, मंद एवं सुगंधित पवन बहा करता था उससे मन का अच्छा विनोद होता था । जिस महल में राजा का निवास था वह चंद्रमंडल से भी रमणीय था तथा इतना ऊँचा था कि आकाश को जैसे स्पर्श करता हो । समस्त कामभोग इसके अनुकूल थे । दौगुन्दक देव की तरह यह समस्त प्रकार के सुखों को भोगता हुआ अपना समय निश्चितरूप से व्यतीत करते थे । इतने में एक दिन की बात है ग्रामानुग्राम विचरते हुए धर्मचन्द्र नामके आचार्य દિશાઓમાંથી લોકો દોડીને આવતા હતા. રાજ્યનું એમને સારૂ એવું સુખ હતું, યૌવન પણ એમનું પ્રતિદિન અવનવીન રીતે ખીલતું રહેતુ હતુ, શરીર એમનુ નવનીત (માખણ) અને શિરીષ પુષ્પથી પણુ અધિક સુકુમાર હતું, રૂપ લાવણ્ય નયનાને લેાભાવે તેવુ' હતુ, કાઇ પણ સ્થળે જવામાં એને કાઈ રૂકાવટ ન હતી, એમની ચતુરગિણી સેના દિગ્મંડળના વિજય કરનાર હતી, એમનુ એક સુંદર એવું ઉદ્યાન હતું જે નન્દનવન સમાન દરેક રૂતુમાં સુખ હતુ. જેમાં શીતળ, મ, અને સુગ ંધિત પવન વહ્યા કરતા હતા, જેથી મનને સારા આનંદ મળતા. જે મહેલમાં રાજાના નિવાસ હતા તે ચક્રમ`ડળથી પણ રમણિય હતા અને તે એટલે ઉંચા હતા કે જે આકાશને અડીને ઉભે હોય એમ લાગતું. બધા કામભોગ એને અનુકૂળ હતા. દૌગુન્હક દેવની માફ્ક એ સમસ્ત પ્રકારનાં સુખાને લેાગવતાં પોતાના સમય નિશ્ચીત રીતે વ્યતિત કરતા હતા. આમાં એક દિવસની વાત છે કે ગ્રામાનુગ્રામ વિચરતા ધર્મચંદ્ર આપનાર ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર ઃ ૧ Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२६ उत्तराध्ययनसूत्रे वृतो ग्रामानुग्रामं विहरन् चन्द्रपुरीनगर्या बहिरुद्याने सहस्राऽऽम्रवने समवसृतः । तद्वन्दनार्थ सुदर्शनो नृपः सपरिवारः समायातः । आचार्येण सुदर्शननृपस्य नामानुरूपं रूपलावण्यादिकं विलोक्य धर्मदेशना दत्ता-सुदर्शननृपो निशम्य मुनिदेशनां मनसि चिन्तयति-अहो ! यः स्वात्मानं स्वयं न दमयति, स परै वैधवन्धनादिभि दमितः सन् स्वात्मनः कर्म निर्जरयितुं न प्रभवति अपितु ज्ञानावरणीयाधष्टविधकमरजोमिः स्वात्मानं गुरुतरी कृत्य चतुर्गतिकसंसारगर्ने निपतति जन्मजरामरणाद्यनन्तदुःखं प्राप्नोति । इति चिन्तयन् सर्वेभ्यः कामभोगेभ्यो विरज्य प्रबजितः। महाराज अपने शिष्यगण सहित उस चंद्रपुरी नगरी के बाहिर बगीचे में सहस्राम्रवन में पधारे । उनको वन्दन करने के लिये वे सुदर्शननरेश परिवारसहिक वहां गये । आचार्य महाराज ने नाम के अनुरूप उनके रूपलावण्य को देखकर धर्म देशना प्रारंभ की। सुनकर नरेश बहूत ही आनंदित हुए और विचारने लगे-जो व्यक्ति अपनी आत्मा को स्वयं दमन नहीं करता है वह दूसरों द्वारा वध बंधनादिक से दमित होकर अपने कर्मों की निर्जरा करने में शक्ति शाली नहीं होता है किन्तु दुर्ध्यान होने से उस समय वह आत्मा चतुर्गतिक संसाररूप गर्त में निपातन हेतु जो ज्ञानावरणीयादिक अष्टविध कर्म का बंध है उसे दृढ़ करता है। उस कर्मरूपी रज से मलिन बना वह आत्मा इतना भारी हो जाता है कि उसका पतन संसाररूपी गर्त में अवश्यंभावी होता है। और वहां पड़ा हुवा वह जन्ममरण आदिके अनंत दुःखों को भोगता रहता है। इस प्रकार विचार कर वह नरेश समस्त कामभोगों से विरक्त નામના આચાર્ય પિતાના શિષ્યગણ સહિત એ ચંદ્રપુરી નગરના બહારના બગીચામાં પધાર્યા. રાજા સુદર્શન તેમને વંદન કરવા પરિવાર સાથે ત્યાં ગયા. આચાર્ય મહારાજે નામના જેવા જ તેના રૂ૫ લાવણ્યને જોઈ ધર્મ દેશના પ્રારંભ કરી. સાંભળી રાજા ખૂબજ ખુશી થયા અને મનમાં વિચારવા લાગ્યા કે જે વ્યક્તિ પિતાના આત્માનું સ્વયં દમન નથી કરતે તે બીજા દ્વારા વધ બંધનાદિકથી દમિત થઈ પિતાના કર્મોની નિર્જરા કરવામાં શક્તિશાળી બની શકતો નથી. પરંતુ દુર્ભાન હોવાથી એ સમય તે આત્મા ચતુર્ગતિક સંસારરૂપ ખાડામાં અવશ્ય પડે છે. અને એમાં જ પડી રહી તે જન્મ મરણ આદિના અનંત દુખે ભેગવતે રહે છે. આ પ્રકારને વિચાર કરી રાજા સુદર્શન સમસ્ત કામભેગથી વિરક્ત બની દીક્ષિત થઈ ગયા. તેમણે પોતાના રૂપલાવણ્ય યુક્ત સુંદર ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२७ प्रियदर्शिनी टीका गा. १६ आत्मदमने सुदर्शननृपदृष्टान्तः अन शनावमौदरिकाभ्यां तपोभ्यां रूपलावण्य संपन्नं सुकुमारं शरीरं कृशयति, तथाहि-चतुभक्तं कृत्वा तत्पारणायामन्तप्रान्तंरूक्षं, तदपिसाभिग्रह, तदपि स्वल्पं, तदप्य व मोदरिकानुकूल गृह्णाति । तदनन्तरं षष्ठभक्तमष्टमभक्तं दशमभक्तं द्वादशभक्तं यावन्मासक्षपण तपः कृत्वा सर्वपारणासु अवमोद रिकं तपः कुर्वन्नेव शरीरं कृशतरं कृ तवान् । एवं तीव्रतरतपश्चरणाद् धन्यनामानगारवत शुष्कमांसशोणितः सन् परिचिन्तयति-आचार्यदेशनानुसारेण मया सर्वथाऽऽस्मा दमितः, धर्मध्यानेनात्मवलं प्राप्य पुष्टोऽस्मि, अतः परं शुक्लध्यानाय सर्वथा यतिष्ये, एवं सोत्साहं विशुद्धभावनया क्षपकश्रेणिं समारुह्यान्तर्मुहूर्तमात्रेण केवलज्ञानं प्राप्तवान् , एवं वर्षेकमात्रेण तीव्रतपसा स्वात्मानं दमयन सिद्धो जातः । तस्मात् स्वयमेव स्वात्मा दमनीय इति ॥१६॥ होकर दीक्षित हो गये । उन्हों ने अपने रूपलावण्ययुक्त सुन्दर सुकुमार शरीर को अनशन एवं अवमौदरिक तप द्वारा कृश करना प्रारंभ कर दिया । कभी वह चतुर्भक्त उपवास करते और पारणा के समय अन्त, प्रान्त एवं रूक्ष आहार लेते, उसमें भी अभिग्रह, अभिग्रह में भी स्वल्प, उसमें भी अवमोदरिकानुकूल लेते । बाद में षष्ठ भक्त, अष्टमभक्त, द्वादशभक्त, से लेकर एक मासक्षपण तक भी तपश्चर्या करते । और इन सब तपस्याओं के पारणा के दिन यह अवमोदरिक तप करते। इससे इनका शरीर अतिशय दुर्बल हो गया। इस प्रकार तीव्र तपश्चर्या के करने से इनका शरीर धन्य नामक अनगार के शरीर की तरह शुष्क मांस शोणित वाला होकर केवल अस्थिपंजर मात्र अवशिष्ट रहा । उस समय उन्होंने विचार किया कि मैं ने आचार्य महाराज की देशना अनुसार सर्व प्रकार से अपनी आत्मा का दमन किया तथा इस अवस्था સુકુમાર શરીરને અનશન અને અવમોદરિક તપથી ક્રશ કરવાનો પ્રારંભ કરી દીધે. ક્યારેક તેઓ ચતુર્ભક્ત અપવાસ કરતા અને પારણાના સમયે અન્ત, પ્રાત અને રુક્ષ આહાર લેતા હતા. એમાં પણ અભિગ્રહ, અભિગ્રહમાં પણ સ્વલ્પ, એમાં પણ ઉનેદરિક તપ કરતા બાદમાં ષષ્ઠભક્ત, અષ્ટમભક્ત, દશમભક્ત, દ્વાદશભક્ત, થી લઈ એક માસક્ષપણ સુધીની પણ તપશ્ચર્યા કરતા અને એ બધી તપશ્ચર્યાના પારણાના દિવસે ઉણાદરિક તપ કરતા. આથી એમનું શરીર અતિશય દુર્બળ બની ગયું, આ પ્રકારની તીવ્ર તપશ્ચર્યા કરવાથી તેમનું શરીર ધન્ય નામના અનગારના શરીરની માફક લેહી માંસ વગરનું થઈ ગયું, અને ફક્ત હાડકાને માળખ જ બાકી રહ્યો. એ સમયે તેમણે વિચાર કર્યો કે-મેં આચાર્ય મહારાજની દેશના અનુસાર સર્વ પ્રકારથી મારા આત્માનું દમન કર્યું ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२९ उत्तराध्ययनसूत्रे ___ पुनर्विनयमाहमूलम् -पडिणीयं च बुद्धाणं, वाया अदुवै कम्मुर्गा । आँवी वा जई वा रंहस्से, नेवे कुज्जा कयाई वि ॥१७॥ छाया-प्रत्यनीकं च बुद्धानां, वाचा अथवा कर्मणा । ___आविर्वा यदि वा रहसि, नैव कुर्यात् कदाचिदपि ॥ १७ ॥ टीका-'पडिणीय ' इत्यादि । बुद्धानाम्-आचार्यादीनां प्रत्यनीकंपतिकूलं-शत्रुभावं वाचा-वचनेन 'भवानपि किंचिज्जानाति किम् ? इत्यादिरूपया, अथवा कर्मणा-कायिक्या क्रियया संस्तारकस्योल्लङ्घनेन चरणादिना संघटनेन, आचार्यापेक्षया उच्चासनोपवेशनादिना वा आविर्वा जन समक्षं वा यदि वा रहसि कदाचिदपि नैव कुर्यात् । में मुझे एक अलभ्य वस्तु प्राप्त हुए हैं जिसका नाम आत्मबल है। इसीसे मैं इस समय पुष्ट हो रहा हूं। अब मेरा कर्तव्य है कि मैं इससे भी आगे अपनी उन्नति करूँ, कि जिससे मुझे शुक्लध्यान की प्राप्ति हो जाय। इस प्रकार उत्साह सहित होकर उन्हों ने विशुद्धभावना के बल से क्षपकश्रेणि पर आरूढ होकर एक अन्तर्मुहूर्त में केवलज्ञान को प्राप्त कर लिया। केवल एक वर्ष की तीव्रतपस्या से अपनी आत्मा का दमन कर उन नरेश ने इस तरह सिद्ध अवस्था का लाभ किया। इसलिये स्व का ही दमन करना चाहिये ॥१६॥ फिर से विनय को समझाते हुए सूत्रकार कहते हैं-'पडिणीयं' इत्यादि । अन्वयार्थ (बुद्धाणं च पडिणीयं-धुद्धानां च प्रतिकूलं) आचार्य आदिकों के प्रतिकूल (वाया अदुव कम्मुणा-वाचा अथवा कर्मणा) वचन અને આ અવસ્થામાં મને એક અલભ્ય વસ્તુને લાભ થશે જેનું નામ આત્મબળ છે. એનાથી જ હું આ સમયે ટકી રહ્યો છું. હવે મારૂં કર્તવ્ય છે કે આનાથી પણ વધુ ઉન્નતિ કરૂં. કે જેથી મને શુકલધ્યાનની પ્રાપ્તિ થઈ જાય. આ પ્રકારના ઉત્સાહથી અને વિશુદ્ધ ભાવનાના બળથી તેમણે ક્ષપકશ્રેણી પર આરૂઢ બની એક અંત મુહૂર્તમાં કેવલજ્ઞાનને પ્રાપ્ત કરી લીધું. એક વર્ષની તીવ્ર તપશ્ચર્યાથી પિતાના આત્માનું દમન કરી એ રાજવિએ આ રીતે સિદ્ધ અવસ્થા પ્રાપ્ત કરી આ માટે સ્વ આત્માનું જ દમન કરવું જોઈએ. ૧૬ शथी पिनयन समलqdi सूत्रा२ छ.-पडिणीय छत्यादि. मन्वयार्थ -बुद्धाणं च पडिणीयं-बुद्धानां च प्रतिकूलं यायाय माहिना प्रति वाया अदुव कम्मुणा-वाचा अथवा कर्मणा वयनथी अथवा थी ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रियदर्शिनी टीका अ० १m. १७ विनयोपदेशः ____ अयं भावः-गुरोः प्रत्यनीक भाव करणादाशातना भवति, आशातनया-अबोधिर्जायते, अबोधिर्हि विवेकमावृणोति, रागद्वेषौ जनयति, यथा भास्करः प्रचण्डकिरणैरमृतरसपूर्ण द्राक्षादिफलं विशोष्य नाशयति, तथैव गुरुं प्रति प्रत्यनीकभावोऽपि शुभभावमूलां सम्यक्त्वालवालां तपःसंयमपल्लवां महाव्रतसमितिगुप्तिपुष्पाम् अलौकिकसुधारससंभृतां स्वर्गापवर्गफलां सुकोमलां विनयलतां विशोष्य विनाशयति । तस्माद् गुरोः प्रत्यनीकत्वं नाचरणीयम् ॥ १७॥ से अथवा काय से (आवी वा जइ वारहस्से-आवि वा यदि रहसिं वा) जन समक्ष में अथवा एकान्त में (कयावि नैव कुज्जा-कदाचिदपि नैव कुर्यात् ) कभी भी आचरण न करे । भावार्थ-गुरु के प्रतिकूल आचरण करने का निषेध इसलिये किया जाता है कि उससे शिष्य को अयोधि की प्राप्ति होती है। अबोधि की प्राप्ति का कारण गुरु की प्रतिकूलताजन्य आशातना है। इससे शिष्य आशातना का भागी होता है। अबोधि को प्राप्ति होने से विवेक की जागृति नहीं होती है। विवेक के अभाव से रागद्वेष होता है । जिस प्रकार अमृतरस से परिपूर्ण द्राक्षादिक फलविशेष को सूर्य अपनी तेज किरणों से शुष्क करके नष्ट कर देता है उसी प्रकार गुरु के प्रति किया गया प्रतिनीक भाव भी शुभभावरूपी मूलवाली, सम्यक्त्वरूपी कियारी वाली, तप एवं संयमरूपी पल्लववाली, महावत समिति एवं गुप्तिरूपी पुष्पवाली अलौकिक विनयरूपी लताओं जो अमृतरस से परिपूर्ण है एवं देवलोक और मोक्षसुख रूपी फल की देनेवाली है ऐसी विनयरूपी कोमल आवी वा जइ वा रहस्से-आविः वा यदि वा रहसि - समक्षमा २०१२ सान्तमा कयावि नैव कुजा-कदाचिदपि नैव कुर्यात् ४ी ५ माय२९ न ४रे. ભાવાર્થ –ગુરુથી પ્રતિકુળ આચરણ કરવાનો નિષેધ આ માટે કરવામાં આવે છે કે એનાથી શિષ્યને અબોધીની પ્રાપ્તિ થાય છે. અબાધિની પ્રાપ્તિનું કારણ ગુરુની પ્રતિકુળતાજન્ય આશાતના છે. એનાથી શિષ્ય આશાતનાને ભાગી બને છે. અધીની પ્રાપ્તિ થવાથી વિવેકની જાગ્રતી થતી નથી, વિવેકના અભાવથી રાગદ્વેશ થાય છે, જે પ્રકારે અમૃતરસથી પરિપૂર્ણ દ્રાક્ષાદિક ફળ વિશેષને સૂર્ય પિતાનાં તે જ કિરણોથી શુષ્ક કરીને નષ્ટ કરે છે. એવા પ્રકારે ગુરુના પ્રત્યે કરાયેલા પ્રત્યનિક ભાવ પણ સુભાવરૂપી મૂળવાળી, સમ્યકત્વરૂપી ક્યારીવાળી, તપ અને સંયમરૂપી પલવવાળી, મહાવત સમિતિ અને મુસિપી પુષ્પવાળી અલૌકિક વિનયરૂપી લતાઓ કે જે અમૃતરસથી પરિપૂર્ણ છે તેમજ દેવલોક અને મોક્ષરૂપી ફળને આપવાવાળી છે એવી વિનયરૂપી કે મળ સુંદર उ० १७ ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३० उत्तराध्ययसूत्रे आसनविनयमाह - मूलम् - ने पेक्खओ ने पुरओ, नेव किच्चीण पिट्टओ । 93 नं जुंजे" ऊरुणा ऊंरुं, सयेणे नो" पडिस्सुणे ॥ १८॥ छाया - न पक्षतो न पुरतो, नैव कृत्यानां पृष्ठतः । न युञ्ज्याद् ऊरुणा करुं, शयने नो प्रतिशणुयात् ॥ १८ ॥ टीका- 'न पक्खओ ' इत्यादि । 3 " कृत्यानाम् = कृतियोग्याः कृत्याः अत्र कृतिशब्देन कृतिकर्म गृह्यते, कृतिकर्मवन्दनविशेषः, तद्वर्णनमावश्यकसूत्रस्य मत्कृतमुनितोषिणीटीकायां द्रष्टव्यम्, कृतिसुन्दर लता को प्रत्यनीकभाव नष्ट कर देता है। इसलिये मोक्षाभिलाषी विनयवान शिष्य का कर्तव्य है कि वह स्वम में भी अपने गुरु महाराज का प्रत्यनीक न बनें । श्लोक में 66 वाचा कर्मणा " जो पद दिये गये हैं उसका मतलब यह है कि गुरु के प्रति शिष्य ऐसा न कहे कि आप भी क्या कुछ जानते हैं " । इस प्रकार का व्यवहार वाचनिक प्रतिकूल आचरण में गर्भित होता है । इसी तरह वे जिस संस्तारक पर बैठते हों उसका कभी भी शिष्य को उल्लंघन नहीं करना चाहिये । उससे पैर का संघर्षण या संघट्टन न हो इसकी सदा सावधानी रखनी चाहिये । तथा आचार्य महाराज के समक्ष कभी भी शिष्य को उच्च आसन पर नहीं बैठना चाहिये और उनके आने पर अपने आसन से उठकर गुरु महाराज को वंदन आदि करना उचित है ॥ १७ ॥ લતાના પ્રત્યનિકભાવ નાશ કરી નાખે છે. આ માટે મેાક્ષાભિલાષી વિનયવાન શિષ્યનું કર્તવ્ય છે કે તે સ્વપ્નામાં પણ પેાતાના ગુરુ મહારાજના પ્રત્યનિક ન અને. भां (वाचा कर्मणा ) ने यह आपवामां आवे छे तेन। भता એ છે કે ગુરુના પ્રતિ શિષ્ય એવું ન કહે કે “તમે પણ શું કાંઈ જાણેા છે. ” આ પ્રકારના વહેવાર વાચનિક પ્રતિકૂલ આચરણમાં ગર્ભિત થાય છે. આ રીતે તે જે આસન ઉપર બેસતા હેાય તેનુ શિષ્યે કદિ પણ ઉલ્લંધન કરવું ન જોઈએ, એ આસનને તેના પગ ન લાગે તેની તેણે સાવચેતી રાખવી જોઈ એ તથા આચાર્ય મહારાજની સામે કદી પણુ શિષ્યે ઉંચા આસન પર બેસવું ન જોઈએ અને તેમના આવવાથી પાતાના આસન ઉપરથી ઉભા થઈ ગુરુ महाराने वंदन वगेरे ४२ उथित छे ॥ १७ ॥ ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર ઃ ૧ Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रियदर्शिनी टीका गा. १८ आसनविनयः १३१ " कर्मयोग्यानाम् आचार्यादीनामित्यर्थः, पक्षतः = पार्श्वतः, न उपविशेदिति शेषः । पार्श्वभागोपवेशने गुर्वादिपंक्तौ समावेशात् तत्साम्यं स्यात्, किंच शिष्यं प्रति वक्रावलोकने गुरोः स्कन्धादिवाधासम्भवः तथा चाविनयः प्रसज्येत, तस्मादाचार्यादिबहुना सह बाहुं कृत्वा शिष्यो नोपविशेदिति भावः । पुरतो न - गुर्वादीनामग्रतोऽपि नोपविशेत् तथोपवेशने वन्दनार्थमागतानां जनानां गुर्वादिमुखावलोकनेअन्तरायः स्यात् पृष्ठतोऽपि नैवोपविशेत्, गुरुशिष्ययोरुभयोरपि मुखादर्शने वाचनादीनामानन्दो न स्यादिति भावः । ऊरुणा = जङ्घया ऊरुं= जङ्घां न युव्ञ्ज्यात् =न संघट्टयेत्, अत्यासन्नोपवेशनादिभिः शिष्यः स्वकीयेनोरुणा गुरोरुरुं न स्पृशेदित्यर्थः । तथाकरणे सति गुर्वादीनामविनयः स्यात् । तथा - शयने शय्यायां शयित आसीनो वा न प्रतिशृणुयात् । अयं भावः - शय्यागतः शिष्यो यदि गुरुणाऽऽहूतः 3 66 आसन विनय को सूत्रकार कहते हैं- 'न पक्खओ० ' इत्यादि ॥ अन्वयार्थ (किचाणं पक्खओ - कृत्यानां पक्षतः न उपविशेत् " कृतिकर्म - अर्थात् वंदनादि के योग्य - आचार्य तथा अपने से बड़ो के पास में संघट्टा करते हुए बराबर नहीं बैठे । (पुरओ न पिट्ठओ न- पुरतः न पृष्ठतः न ) गुरु महाराज के आगे नहीं बैठे । पीछे संघट्टा करता हुआ नहीं बैठे । (ऊरुणा ऊरुं न जुंजे- करुणा ऊरुं न युज्यात्) उनके ऊरु - घुटना से घुटना लगाकर नहीं बैठे । ( सयणे नो पडिस्सुणे ) तथा जिस समय आचार्य आदि किसी काम करने के लिये बुलायें अथवा कहें उस समय अपने आसन पर बैठे ही बैठे उत्तर नहीं दे । कृतिकर्म का अर्थ वन्दन विशेष है। इसका वर्णन मेरे द्वारा रचित आवश्यक सूत्र की टीका में किया गया है । अतः यह विषय वहां से जान लेना चाहिये। इस कृतिकर्म के योग्य आचार्य आदि होते हैं । આસન-વિનય વિષે સૂત્રકાર કહે છે. -न पक्खओ० इत्याहि. २मन्वयार्थ – किच्चाणं पक्खओ - कृत्यानां पक्षतः 66 न उपविशेत् " धृतिर्भु અર્થાત્ વન્દનાદિને ચાગ્ય આચાર્ય તથા પેાતાનાથી મેટાએની પાસે તેમની न-पुरतः न पृष्ठतः न गुरु थ भडसड यर्धने मेसवु नहीं, पुरओ न पिट्ठओ महारानी भागण मेसवुं नहि, पाछण सडोस न मेसे ऊरुणा ऊरुं न जुजे - ऊरुणा ऊरूं न युज्यात् तेभना घुंटयुथी घुंट लगाडीने न जैसे सयणे नो નિકળે તથા જે સમયે આચાય આદિ કોઈ કામ કરવા માટે ખેલાવે અથવા કહે તે સમયે પેાતાના આસન ઉપર બેઠાં બેઠાં જવાબ ન આપે. ભાવા—કૃતિ કના અથ વંદન વિશેષ છે! જેનું વર્ણન મારાથી રચિત માવશ્યક સૂત્રની ટીકામાં કરવામાં આવેલ છે, ચ્યાર્થી આ વિષય ત્યાંથી ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર ઃ ૧ Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययन सूत्रे किंचित्कार्यकरणाय प्रोक्तो वा स्यात् तदा शिष्येण शय्यायां स्थितेनैव न श्रोतव्यम्, किं तु गुरुवचन श्रवणसमनन्तरमेव संभ्रान्तचेताः सविनयः कृताञ्जलिः सन् गुरोः समीपमागत्य चरणारविन्दं वन्दमानः ' अनुगृहीवोऽहम् ' इति मनसि मन्यमानो वदेत् -'भदन्त ! आज्ञापयतु किं विधेयं मया ' इति ॥ १८ ॥ मोक्षाभिलाषी शिष्य का कर्तव्य है कि वह आचार्यादिक को दायें बायें बैठे । कारण कि इस प्रकार बैठने से गुर्वादिक की पंक्ति में उसका समावेश होता है । दर्शनार्थी लोग शिष्य को समझेंगे कि यही गुरु महाराज है । तथा शिष्य के प्रति जब गुरु को देखने की इच्छा होगी तो वे अपनी गर्दन को मोड़कर उसको देखेंगे, इससे उनकी गर्दन में तथा स्कंन्ध आदि फिराने में तकलीफ होगी, तथा गुरु महाराज का संघट्टा आदि होने से शिष्य को आशातना आदि दोष लगने का संभव है । इसलिये गुरु महाराज की बराबरी में नहीं बैठना चाहिये । गुरु महाराज के आगे भी इसी तरह से नहीं बैठना चाहिये । कारण कि इस प्रकार से बैठने में गुरु महाराज को वन्दना निमित्त आने वालों को उनके दर्शनों में अन्तराय होती है । इसी प्रकार गुरु के पीछे भी शिष्य को नहीं बैठना चाहिये क्यों कि इस प्रकार से बैठने पर गुरु को शिष्य का मुख नहीं दीख सकेगा और शिष्य को गुरु का मुख नहीं दीख सकेगा, इससे वाचना पृच्छना आदि में अन्तराय होने से उनका आनंद જાણી લેવા જોઈએ, આ કૃતિકર્મના યાગ્ય આચાય આદિ હાય છે.માક્ષાભિલાષી શિષ્યનું કર્તવ્ય છે કે તે આચાય આદિથી ડાબા-જમણા ન એસે કારણ કે, આ પ્રકારે બેસવાથી ગુરુ આદિની પંકિતમાં તેને સમાવેશ થાય છે. દનાથી લાક શિષ્યને જ ગુરુ મહારાજ માની લે. શિષ્ય તરફ જ્યારે ગુરુ મહારાજને જોવાની ઈચ્છા થાય ત્યારે તે પેાતાની ગરદન મરડીને તેના તરફ જોશે આથી એમની ગરદનમાં તથા ખભા વગેરે ફેરવવામાં તકલીફ્ થશે તથા ગુરુ મહારાજનું સંધરૢ આદિ થવાથી શિષ્યને અશાતના આદિ દ્વાષ લાગવાના સંભવ છે. આ માટે ગુરુ મહારાજની અાખરીમાં બેસવું ન જોઈ એ તેમ ગુરુ મહારાજની આગળ પશુ આ રીતે એસવું ન જોઈએ. કારણ કે આ પ્રકારના બેસવાથી ગુરુ મહારાજની વંદના માટે આવનારને તેમના દનમાં અંતરાય થાય છે. આ પ્રકારે ગુરુની પાછળ પણ શિષ્યે એસવું ન જોઈએ કેમ કે આ રીતે બેસવાથી શુરુ શિષ્યનું મુખ જોઈ શકતા નથી અને શિષ્ય, ગુરુનું મુખ જોઈ શકતા નથી અને ગુરુ શિષ્યનું મુખ જોઇ શકે નહીં આથી વાચના પુચ્છના આદિમાં અંતરાય થવાથી એના આનંદ १३२ ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર ઃ ૧ Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रियदर्शिनी टीका गा. १९-२० आसनविनयः मूलम् - नेवे पल्हेत्थियं कुज्जी, पक्खैपिंडं च संजएं । पाएँ पैसारिए ववि ने चिट्ठे "गुरुतिएं ॥ १९॥ छाया - नैव पर्यस्तिकां कुर्यात्, पक्षपिण्डं च संयतः । पादौ प्रसार्य वापि न तिष्ठेद् गुरूणामन्तिके ॥ १९ ॥ टीका -- ' नेव पल्हत्थियं ' इत्यादि । संयतः - मुनिः पर्यस्तिकाम् - द्वे जानुनी उत्थाप्य वस्त्रेण पृष्ठतः समारभ्य पार्श्वद्वयं जानुद्वयं च संवेष्टयोपवेशनं पर्यस्तिका, यद्वा-जङ्घाद्वयं वस्त्रेण संवेष्टयोउन्हें प्राप्त नहीं हो सकेगा। तथा गुरु महाराज की जंघा से जंघा अड़ाकर भी शिष्य को इसलिये नहीं बैठना चाहिये कि इस प्रकार की क्रिया से गुरु महाराज का अविनय होता है । गुरु महाराज जब किसी कार्य करने के लिये शिष्य को बुलावे तो उस समय उसका कर्तव्य है कि वह 'तहेतितहेति' कहकर आसन से उसी वख्त संभ्रान्तचित्त होकर आसन का परित्यागकर देवें और बड़ी भक्ति से विनयके साथ गुरुके समक्ष जाकर हाथ जोड़ वन्दना करके पूछे कि हेभदंत ! आज्ञा दीजिये-किस कार्य के लिये आपने मुझे याद किया है । इस प्रकार का व्यवहार भी विनयधर्म में परिगृहीत हुआ है ॥ १८ ॥ 'नेव पल्ह स्थियं ०' इत्यादि । १३३ अन्वयार्थ - (संजए संयतः ) मुनि शिष्य को (गुरुणंतिए-गुरुणामन्तिके) अपने गुरुजनों के समक्ष ( पल्हत्थियं नेव कुज्जा-पर्यास्तिकां नैव कुर्यात् ) पैरों पर पैर रखकर - पालरथी मारकर - पद्मासन माड़करकभी नहीं बैठना चाहिये । इस प्रकार बैठने से आशातना दोष लगता है। એને પ્રાપ્ત થઈ શકતા નથી. તેમ ગુરુ મહારાજના ગેાઢણુથી ગાણુ ભીડાવીને શિષ્યે એટલા માટે ન બેસવું જોઈ એ, કારણ કે આ પ્રકારની ક્રિયાથી ગુરુ મહારાજને અવિનય થાય છે, ગુરુ મહારાજ કાઈ કામ માટે શિષ્યને ખેલાવે તે તે સમયે એનુ કર્તવ્ય છે કે પેાતાના આસન ઉપરથી એજ વખતે સ્વસ્થ ચિત્ત ખની ગુરુ ખાલાવે ત્યારે તહેત કહી આસનના ત્યાગ કરી ભક્તિપૂર્વક વિનય સાથે ગુરુની સામે જઈ હાથ જોડી વંદના કરી પૂછે કે હે ભદન્ત ! આજ્ઞા આપે। કયા કામ માટે આપે મને યાદ કરેલ છે. આ પ્રકારના વહેવાર પણ વિનય ધમમાં श्रद्धश ४२वामां आवे छे ॥ १८ ॥ नेव पल्हत्थियं धत्याहि, अन्वयार्थ – संजए-संयतः भुनि शिष्ये गुरुणंतिए - गुरुणामन्तिके पोताना गुइभनानी साभे पल्हत्थियं नेवकुज्जा पर्यास्तिका नैव कुर्यात् पग पर प રાખી–પહેાંઠી લગાવી–પદ્માસન લગાડી, કષ્ઠિ પશુ બેસવું ન જોઈએ. મા ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર ઃ ૧ Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३४ उत्तराध्ययनसूत्रे पवेशनं , पर्यस्तिका, ताम् , पक्षपिण्डं-बाहुद्वयेन कायवेष्टनं च नैव कुर्यात् । अपि वा=अपि च गुरूणाम् अन्तिके संनिधौ पादौ-चरणौ प्रसारितौ कृत्वा न तिष्ठेत् । इदमुपलक्षणम्-एकजङ्घोपरि अपरचरणं निधायापि न तिष्ठेत् । तथासत्यविनयः स्यादिति भावः ॥ १९ ॥ मूलम् --आयरिएहिं वाहित्तो, तुसिणीओ ने कयाई वि। पसायपेही नियागट्टी, उवचिठे गुरु सया ॥२०॥ छाया-आचार्येाहृतः तूष्णीको, न कदाचिदपि। प्रसादप्रेक्षी नियागार्थी, उपतिष्ठेत् गुरुं सदा ॥ २० ॥ टीका-'आयरिएहिं० ' इत्यादि। आचार्य:-गुरुभिः, व्याहृतः-आहूतः, यद्वा-उक्तः सन् तूष्णीकः मौनावलम्बी, कदाचिदपि ग्लानाद्यवस्थायामपि न भवेदिति शेषः । किंतु प्रसादप्रेक्षीप्रसादं (पक्खपिंडं च नेव कुन्जा-पक्षपिण्डं च नैव कुर्यात् ) इसी प्रकार दोनों हाथों से घुटने बांधकर तथा पीठ भाग से लेकर दोनों घुटनों को वस्त्र बांधकर भी बैठना गुरु महाराज की आशातना है। (पाए पसारिए वावि न चिट्टे-पादौ प्रसार्य वापि न तिष्ठेत् ) अर्थात् गुरु महाराज के सामने पैरों को पसार कर भी शिष्य को बैठना उचित नहीं है । इसी तरह अर्ध पद्मासन के रूप में भी उनके समक्ष नहीं बैठना चाहिये। ऐसा करने से अविनय दोष लगता है ॥ १९ ॥ 'आयरिएहिं० ' इत्यादि। अन्वयार्थ-शिष्य को चाहिये कि वह (आयरिएहिं वाहित्तोआचार्यैः व्याहृतः सन् ) आचार्य तथा अपने से बड़ों द्वारा जब बुलाया प्रारे मेसपाथी मातनाना होष वा छे. पक्खपिंडं च नेव कुज्जा-पक्षपिण्डं च नैव कुर्यात् ॥ अरे भन्ने हाथाने गोड ५२ वी. तथा વાંસાના ભાગથી લઈ બને ઘુટણને વસ્ત્રથી બાંધી બેસવાથી પણ ગુરુ महारानी शातना थाय छे. पाए पसारिए वावि न चिठे-पादौ प्रसार्य वापि न ત્તિ અર્થાત્ ગુરુ મહારાજની સામે પગ લાંબા કરીને પણ શિબે બેસવું ઉચિત નથી. આ રીતે અધ પદ્માસનના રૂપથી પણ એમની સામે બેસવું ન જોઈએ એમ કરવાથી અવિનય દેષ લાગે છે ! ૧૯. __'आयरिएहिं०' त्यादि. मन्याथ-वि शिष्य भाटे मे १४३३है ते आयरिएहिं वाहित्तोआचार्यः व्याहत्तः सन् मायाय तथा पोतानाथी भोटाच्या त२५थी ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रियदर्शिनी टीका गा. २१ आसनविनयः १३५ प्रेक्षितुं शीलमस्येति तथा, असौ गुरूणां प्रसादः-यदन्येषां शिष्याणां सद्भावेऽपि गुरवो मामाज्ञापयन्तीति विचारशील इत्यर्थः । यद्वा-केन विधिना गुरुः प्रसन्नो भवेदिति भावनाभावितः, गुरुप्रसादलाभार्थी इति यावत् । उक्तश्च जो नत्थि भग्गसाली, नो सो गुरुदेसणं इहं लभए । धारामियस्स निवडइ, अंगेणो पुनहीणाणं ॥१॥ छाया-यो नास्ति भाग्यशाली, नासौ गुरुदेशनामिहालभते । धाराऽमृतस्य निपतति, अङ्गे नो पुण्यहीनानाम् ॥१॥ तथा नियागार्थी मोक्षार्थी शिष्यः गुरूं-धर्माचार्यादिकं, सदा उपतिष्ठेत्'मत्थएण वंदामि' इत्यादि वदन् सविनयं गुरुसमीपे तिष्ठेदित्यर्थः ॥२०॥ जावे, अथवा किसी कार्य करने के लिये कहा जावे-तब वह (कयाइविंकदाचिदपि) कभी भी (तूसणीओ न-तूष्णीकः न भवेत् ) उत्तर दिये विना नहीं रहे चाहे बीमार भी होवे तो भी चुपचाप न रहे । (पसायपेही-प्रसादप्रेक्षी) यह समझे कि मेरा बड़ा भारी सौभाग्य का उदय है, जो अन्य शिष्यों के होने पर भी गुरु महाराज मुझे ही आज्ञाप्रदानकर रहे हैं । अथवा-यह विचार करे कि गुरु महाराज जिस उपाय से मेरे पर प्रसन्न हों वही उपाय मुझे करते रहना चाहिये । इस प्रकार की भावना से भावित होकर गुरु के प्रसाद का लाभार्थी बने । क्यों कि कहा भी है-जिस प्रकार हीन पुण्यवालों के शरीर ऊपर अमृत रस की धारा नहीं पड़ती है-उसी प्रकार जो शिष्य भाग्यशाली नहीं होता है वह गुरु की देशना का पात्र नहीं होता है। इसी तरह (नियागट्ठी) मोक्षाभिलाषी शिष्य का कर्तव्य है कि वह (सया गुरुं उवचिट्टे-सदा गुरुं જ્યારે તેને બેલાવવામાં આવે અથવા કેઈ કામ માટે કહેવામાં भावे त्यारे कयाइविं-कदाचिदपि ते हि ५५ तुसणीओ न-तुष्णीकः न भवेत् उत्तर આપ્યા વગર ન રહે. ચાહે તે બીમાર હોય તે પણ ચુપચાપ ન રહે. पसायपेही-प्रसादप्रेक्षी ते सतुं समरे, भासौभाग्यन मोटो ध्य છે કે, બીજા શિષ્યો હોવા છતાં પણ ગુરુ મહારાજ મને જ આજ્ઞા આપે છે. અથવા એ વિચાર કરે કે ગુરુ મહારાજ જે ઉપાયથી મારા ઉપર પ્રસન્ન રહે તે જ ઉપાય મારે કરતા રહેવું જોઈએ. આ પ્રકારની ભાવનાથી ભાવિક બનીને ગુરુને પ્રસાદને લાભાર્થી બને. કેમકે, કહ્યું છે કે જે પ્રકારે દુર્ભાગીના શરીર ઉપર અમતરસની ધાર પડતી નથી, એ પ્રકારથી જે શિષ્ય ભાગ્યશાળી नथी हातात शुरुनी देशनाने पात्र मनत। नथी. माशते नियागट्री-भाक्षालिदाषी शिष्यनु तव्य छे ते सया गुरुं उवचिठे-सदा गुरुं उपतिष्ठेत् हमेशा ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३६ उत्तराध्ययनसूत्रे आसनस्थितस्य शिष्यस्य विनयमाहमलम् -आलेवंते लवंते वा, ने निसिज्ज कयाइवि । - चइऊंण आसँणं धीरों, जओ जैत्तं पडिस्सुणे ॥२१॥ छाया-आलपति लपति वा, न निषीदेत् कदाचिदपि । त्यक्त्वा आसनं धीरो, यतो यत्तत् प्रतिशृणुयात् ॥२१॥ टीका-'आलवंते ' इत्यादि। गुरौ आलपति सकृद् वदति सति, कार्यस्य लघुत्वात्सकृत्कथनमिति भावः, यथा-आसनमानीयताम् , पारणं क्रियताम् , इत्यादि, वा अथवा गुरौ लपति पुनः पुनः कथयति सति ग्रहणासेवनाशिक्षायां स्वपरवैयावृत्त्यकार्ये च, कार्यस्य बृहचादत्यावश्यकत्वाच्च पुनः पुनः कथनमिति भावः, शिष्यः कदाचिदपि न निषोदेवआसनाऽऽसीनो न भवेत् । अयं भावः-यदि गुरुः किंचित् कार्य सकृद्वा, पुनः पुनर्वा, उपतिष्ठेत् ) “ मत्थे णं वंदामि" इस प्रकार विनयद्योतक शब्द का व्यवहार करता हुआ सदा अपने गुरु के समक्ष उपस्थित होवे । भावार्थ-गुरुमहाराज जिस तरह अपने ऊपर प्रसन्न हो उत्तम शिष्य का कर्तव्य है कि वह उस प्रकार प्रयत्नशील रहे ॥२०॥ 'आलवंते० ' इत्यादि। अन्वयार्थ-(आलवंते लवंते वा कयाइ वि न निसिज्जा-आलपति लपति वा कदाचिदपि न निषीदेत् ) उत्तमशिष्य-विनयशीलशिष्य का कर्तव्य है कि जब गुरु महाराज किसी कार्य को करने के लिये एक ही बार में कहें या बार २ भी कहें तो उस समय उसे कभी उस कार्य को करने के लिये आना कानी नहीं करनी चाहिये । अर्थात्-उस समय वह शिष्य चाहे अपने आसन पर भी પિતાના ગુરુની સમક્ષ જતી વખતે મળે જ વંવનિ આ પ્રકારનો વિનય ઘાતક શબ્દને વહેવાર કરતે રહે. ભાવાર્થ–ગુરુદેવ જે રીતે પોતાના ઉપર પ્રસન્ન થાય એ પ્રયત્ન ४२वार्नु उत्तम शिष्य ४तव्य छ, मन प्रारे ते प्रयत्नात २७ ॥२०॥ आलवंते० इत्याहि. सन्क्या-आलवंते लवंते वा कयावि न निसिज्जा-आलपति लपति वा कदाचिदपि न निषीदेत् उत्तम शिष्य-विनयशीत शिष्यनु तव्य છે કે જ્યારે ગુરુ મહારાજ કઈ કામ કરવા માટે એક જ વખતે કહી દે અથવા વારંવાર કહે તે સમયે તેણે કદિ પણ એ કાર્યને કરવા માટે આનાકાની કરવી ન જોઈએ. અર્થા—એ વખતે એ શિષ્ય ભલે પિતાના ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रियदर्शिनी टीका गा. २२ पृच्छाप्रकार : १३७ आसनावस्थितं शिष्यं वदति, तदा शिष्यो व्याख्यानादिकालेपि पट्टाधासने नोपविष्टः स्याद् , किंतु आसनं त्यक्त्वा धीरः बुद्धिमान् , शिष्यः यतः यत्नवान् एकाग्रचित्तः सन् यत् यत् कार्य, गुरुणोक्तं सुकरं दुष्करं वा, तत्तत् प्रतिशृणुयात् , 'अवश्यकरणभावोऽस्ति' इत्युक्त्वा स्वीकुर्यात् । अत्र-धीर इति विशेषणं व्याख्यानादिकाले, तथा स्वशरीरादिकार्यवशाद् व्यग्रस्यापि शिष्यस्य गुरुविनयाराधनार्थ क्षमत्वं सावधानत्वं च सूचयति । 'यतः' इति विशेषणेन समितिगुप्तिसमाराधनपूर्वकं गुरोः सकलकार्यसंपादनाभिरुचिः सूचिता । प्रतिशृणुयादिति पदेन गुरुवचनश्रवणसमनन्तरमविलम्बन तत्कार्यसंपादनार्थ स्वीकृतिवचनमुक्त्वाऽन्यत् सर्व स्वकीयकार्य विहाय प्रथमं सर्वथा गुरुकार्यसाधने सादरा प्रवृत्तिः सूचिता ॥२१॥ बैठा हो तो भी उस समय शीघ्र उठकर उसे गुरु महाराज की आज्ञा का पालन करना चाहिये। ऐसा नहीं करना चाहिये कि गुरु महाराज की बात सुनकर भी पुनः आसन पर बैठ जावें । अर्थात् उस समय व्याख्यान आदि का समय हो तो भी गुरु महाराज की आज्ञा का आराधन करना चाहिये । इसी बात को उत्तरार्ध मे सूत्रकार ने स्पष्ट किया है-(चइऊण आसणं धीरो जओ जत्तं पडिस्सुणे-त्यक्त्वा आसनं धीरः यत्तत् प्रतिशृणुयात् ) चाहे वह कार्य सरल हो चाहे कठिन हो तो भी सर्वप्रकार के संकल्प विकल्प से रहित होकर गुरु महाराज कथित कार्य को " अवश्य करने का भाव है" ऐसा कहकर शिष्य को स्वीकार करना चाहिये । सूत्र में जो धीर विशेषण दिया गया है उससे सूत्रकार का यह अभिप्राय सूचित होता है कि जिस समय गुरु महाराज कार्य करने के लिये शिष्य से कहें उस समय वह शिष्य चाहे व्याख्यान देने આસન ઉપર બેસેલ હોય તો પણ ત્યાંથી તુરત જ ઉઠીને તેણે ગુરુ મહારાજની આજ્ઞાનું પાલન કરવું જોઈએ. એવું નહીં કરવું જોઈએ કે, ગુરુ મહારાજની વાત સાંભળીને પણ આસન ઉપર પાછે બેસી જાય અર્થાત્ એ વખતે વ્યાખ્યાન આદિને સમય હોય તે પણ ગુરુ મહારાજની આજ્ઞાનું આરાધન કરવું જોઈએ. આ વાતને ઉત્તરાર્ધથી સૂત્રકારે સ્પષ્ટ કરેલ છે. चइऊण आसणं धीगे जओ जत्तं पडिस्सुणे-त्यक्त्वा आसनं धीरः यतो यत्तत् प्रतिશ્રજીયાત ચાહે તે કામ સરળ હોય, ચાહે કઠીન હોય તે પણ સર્વ પ્રકારના સંક૯૫ વિકલ્પથી રહિત થઈને ગુરુ મહારાજે કહેલા કામને “ અવશ્ય કરવું જોઈએ તે ભાવ છે ” એવું કહીને શિષ્ય તેને સ્વીકાર કરે જોઈએ. સૂત્રમાં જે ધીર વિશેષણ અપાયેલ છે તેનાથી સૂત્રકારને એ અભિપ્રાય જણાય છે કે, જે સમયે ગુરુ મહારાજ કામ કરવા માટે શિષ્યને કહે તે સમયે શિષ્ય उ०१८ ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययनसूत्रे मलम-आसणगओ ने पुच्छिज्जा, नेवसेज्जागओ कयाइ वि। आगम्मुक्कुंडुओ संतो, पुच्छिज्जा पंजलीउडो ॥२२॥ छाया-आसनगतो न पृच्छेत् , नैव शय्यागतः कदाचिदपि । आगम्योत्कुटुकः सन् , पृच्छेत् प्राञ्जलिपुटः ॥ २२ ॥ टीका-'आसणगओ' इत्यादि। आसनगतः आसनोपविष्टः सन् न पृच्छेत् सूत्रार्थ कुशलादिकं वा किमपि न पृच्छेदित्यर्थः । तथा-कदाचिदपि कस्मिन्नपि काले शय्यागतः-संस्तारकस्थितः नैव पृच्छेत-रोगाद्यवस्था विना शयानः सन् किमपि नैव पृच्छेदित्यर्थः । किंतु आगम्य-गुरोः समीपे आगत्य, उत्कुटुका उत्कुटुकासनं के लिये भी तैयार रहा हो-वह काल उसके व्याख्यान करने का भी हो अथवा अपने शारीरिक कार्य के वश से वह शिष्य व्यग्रचित्त वाला भी हो तो भी विनय धर्म की आराधना निमित्त उसे गुरु महाराज कथित कार्य करने की क्षमता एवं उस कार्य करने में विशेष सावधानी रखनी चाहिये । “जओ-यतः" यह पद यह प्रकट करता है कि शिष्य को समिति गुप्ति के आराधनपूर्वक ही गुरु महाराज के समस्त कार्यों के सम्पादन में रुचि शील होना चाहिये । “ प्रतिशृणुयात्" यह क्रियापद इस विशेषता का सूचक है कि गुरु वचन के श्रवण के अनन्तर ही विना किसी विलंब के उनके कार्य को करने के लिये प्रतिज्ञा वचन कहकर और अपने निज कार्य को भी छोड़कर शिष्य का कर्तव्य है कि वह सर्व प्रकार से उनके कार्य के साधन करने में सादर प्रवृत्ति करे ॥२१॥ ભલે વ્યાખ્યાન આપવા માટેની તૈયારીમાં હેય-તે સમયે તેને વ્યાખ્યાન કરવાનો હોય, અથવા પિતાના શારીરિક કાર્યના વશથી તે શિષ્ય વ્યગ્ર ચિત્ત વાળા હોય તે પણ વિનય ધર્મની આરાધના નિમિત્ત તેનામાં ગુરુ મહારાજે કહેલા કામને કરવાની ક્ષમતા અને એ કામ કરાવવામાં વિશેષ સાવધાની रामवीन. जओ-यतः २२ ५४ मे प्रगट ४२ छ, शिध्ये समिति ગુપ્તિના આરાધન પૂર્વક જ ગુરુ મહારાજના દરેક કામેનું સંપાદન કરવામાં स्था की २४. प्रतिश्रृणुयात् से लिया५६ से विशेषता सूयर छ ગુરુવચનને સાંભળતાં જ કોઈ પ્રકારના વિલંબ વિના એમના કામને કરવા માટે પ્રતિજ્ઞા વચન કહીને અને પોતાનું કામ હોય તેને છોડીને શિષ્યનું કર્તવ્ય છે કે, તે સર્વ પ્રકારથી ગુરુ મહારાજના કામને પૂરું કરવામાં પિતાની સાદર प्रवृत्ति ४२. ॥ २१ ॥ ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रियदर्शिनी टीका गा. २३ विनीतशिष्याय वाचनादानम् कृत्वा स्थितः सन् प्राञ्जलिपुटः = छताञ्जलिः, सूत्रादिकं पृच्छेत् । यद्वा-कदाचिदपि = बहुश्रुतत्वेऽपि आसनगतः शय्यागतो वा न पृच्छेत् सूत्रादिकमित्यर्थः । 'आसणगओ' इत्यादि । १३९ अन्वयार्थ — उत्तम शिष्य को चाहिये कि वह ( आसणगओ - आसनगतः ) आसन पर बैठे २ अथवा (सेज्जागओ - शय्यागतः ) संस्तारक पर बैठे २ या सोये २ ( रोगादिक अवस्था को छोड़कर ) ( कयाइवि - कदाचिदपि ) कभी भी ( न पुच्छिज्जा - न पृच्छेत् ) गुरु महाराज से सूत्र का अर्थ अथवा उनकी कुशलता न पूछे । किन्तु ( आगमुक्कुडुओ संतो पंजली उडो पुच्छिञ्जा- आगम्य उत्कुटुकः सन् प्राञ्जलिपुटः पृच्छेत् ) उनके समीप आकर और उत्कुटुकासन - उकडु आसन से बैठकर दोनों हाथजोड़ फिर उनसे सूत्र आदि का अर्थ पूछे । शिष्य कितना ही बहुश्रुती क्यों न हो तो भी अपने गुरु से सूत्रार्थ की प्रच्छना अथवा सुख शाता की पृच्छना आसन पर बैठे २ या विस्तर पर लेटे २ नहीं करनी चाहिये । यद्यपि सूत्रार्थ की पृच्छना संशय होने पर ही की जाती है । बहुश्रुत होने पर भी संशय हो सकता है। अब ऐसी स्थिति में शिष्य का धर्म है कि उस संशय की आसणगओ प्रत्याहि. । अन्वयार्थ— उत्तम शिष्यनी यो ३२०४ छे ते आसनगओ-आसनतः मासन उ५२ मेठां हां अथवा सेज्जागओ - शय्यागतः शय्यामां मेहां मेठां } सुतां सुतां (शाहि व्यवस्थाने छोडीने ) कयाइवि - कदाचिदपि उही यागु शुरु भडारान्नथी सूत्रनेो अर्थ अथवा ओमनी कुशलता न पुच्छिज्जा - न पृच्छेत् न पुछे. परंतु आगम्मुक्कुडुओ संतो पंजलि उडो पुच्छिज्जा - आगम्य उत्कुटुकः सन् प्राञ्जलिपुटः पृच्छेत् तेभनि साभे भावी भने उत्हुटासनथी એસી બન્ને હાથ જોડી ત્યારપછી એમને સૂત્ર આદિના અથ પુછે અને સુખશાતાના સમાચાર પુછે શિષ્ય ગમે તેવા મહુશ્રુત કેમ ન હેાય તે પણ પેાતાના ગુરુથી સૂત્રાના અર્થ અથવા સુખશાતાના સમાચાર આસન પર બેઠાં બેઠાં અથવા તા પથારી પર સુતાં સુતાં ન પુછવા જોઇએ. જો કે સૂત્રાર્થ આદિના અથ સંશય થવાથી જ પુછાય છે. બહુશ્રુત હોવા છતાં પણ સંશય થાય છે. આથી આવી સ્થિતિમાં શિષ્યના ધમ છે કે, એ સંશયની નિવૃત્તિ માટે તે ગુરુની સમક્ષ જાય અને ખુબ વિનયની સાથે એ સ ંશયની નિવૃત્તિ ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર ઃ ૧ Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययनसूत्रे अयं भावः-बहुश्रुतोऽपि शिष्यः संशये सति गुरुं पृच्छति सूत्रार्थम् , तत्र विनयपूर्विकैव प्रच्छना करणीया यथा गुरोराशातना न भवेदिति । उत्कुटुक इति विशेषणेनइन्द्रियदमनशीलत्वं विनीतत्वं च मूचितम् , प्रा.लिपुट इत्यनेन सर्वविधविनयवत्त्वं जातिकुलसम्पन्नत्वं च मूचितम् ॥ २२ ॥ मूलम्-एवं विणयजुत्तस्त, सुत्तं अत्थं च तदुभयं । पुच्छमाणस्स सीसंस्स, वागरिज्ज जहासुयं ॥२३॥ छाया-एवं विनययुक्तस्य, सूत्रम् अर्थं च तदुभयम् । पृच्छतः शिष्यस्य, व्याकुर्याद् यथाश्रुतम् ॥ २३ ॥ टीका-' एवं विणयजुत्तस्स' इत्यादि । एवं-उक्तप्रकारेण विनययुक्तस्यविनयवतः, सूत्रम्-कालिकोत्कालिकादि, अर्थ-तबोध्यं, मूत्राभिप्रायमित्यर्थः। निवृत्तिके लिये गुरुके सन्मुख जावे और बड़े विनयके साथ उस संशय की निवृत्ति करे । गुरु महाराज का विनय भक्ति में यदि जरा सी भी त्रुटि हो जायगी तो शिष्य आशातना दोष का भागी होगा। "उत्कुटुक" इस विशेषण से सूत्रकार यह सूचित करते हैं कि जो इस आसन से बैठता है वह साधु इन्द्रिय दमन शोल तथा विनीत होता है । "प्राचलिपुट" इस विशेषण से शिष्य में सभी प्रकार के विनयगुण तथा जातिसम्पन्नता एवं कुल सम्पन्नता सूचित होती है ॥गा.२२।। एवं' इत्यादि। ___ अन्वयार्थ-(एवं-एवं) पूर्वोक्त प्रकार से (विणयजुत्तस्सविनययुक्तस्य) विनयधर्म से युक्त होकर (सुत्तं अत्थं च तदुभयं पुच्छमाणस्स-सूत्रं अर्थ तदुभयं पृच्छतः ) सूत्र-अर्थ और सूत्र अर्थ दोनों को पूछने वाले (सीसस्स-शिष्यस्य ) शिष्य को (जहासुयं કરી લે. ગુરુ મહારાજની વિનય ભક્તિમાં જરા પણ ભૂલ થાય તે શિષ્ય यासातना होषनी मागी मने छे. “ उत्कुटुक" २ विशेष थी सूत्रा२ से એ સૂચિત કરે છે કે, જે આ આસનથી બેસે છે તે સાધુ ઈન્દ્રિયનું દમન ४२।२ तथा विनित डाय छे. “प्राअलिपुट" ॥ विशेषण थी शिष्यमा सर्प પ્રકારના વિનયગુણ તથા જાતિસંપન્નતા અને કુળસંપન્નતા દેખાઈ આવે છે. મારા एवं प्रत्याहि. __ अन्वयार्थ -एवं-एवं पूर्वात प्रथी विणयजुत्तस्स - विनययुक्तस्य विनय धर्मथी युत मनी सुत्तं अत्थं च तदुभयं पुच्छमाणस्स-सूत्रं अर्थ तदुभयं पृच्छतः सूत्र-म अने सूत्र अर्थ मन्नेने ५७॥१णा सीसस्स-शिष्यस्य ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रियदर्शिनी टीका गा. २३ सूत्रशब्दार्थ : ____ उक्तञ्च जो सुत्ताभिप्पाओ, सो अत्थो अज्जए य जम्हा । (स्था. २ ठा. १ उ०) छाया-यः मूत्राभिप्रायः सोऽर्थः, अर्यते च यस्मात् । व्याख्या-यः सूत्रस्य अभिप्रायः स एव अर्थः । यस्मात् यतः करणादसावर्थः मूत्रात् अर्थते गम्यते । तदुभयं-सूत्रार्थद्वयं च पृच्छतः पृच्छां कुर्वतः शिष्यस्य गुरुः यथाश्रुतं-गुरुपरंपरातो यथा ज्ञातं तथा सूत्रम् , अर्थ तदुभयं च व्याकुर्यात् =कथयेत् , न तु स्वबुद्धया कल्पितं कृत्वा बोधयेदिति भावः । इह तावत् सूत्रज्ञानाय सूत्रस्य शब्दार्थ तल्लक्षणं तद्भेदं तद्वाचनादिकं च निर्दिशामः, तथाहिवागरिज्जा-यथाश्रुतं व्याकुर्यात् ) गुरु महाराज उन सब का शास्त्रविहित विधि के अनुसार प्रतिपादन करे । कालिक उत्कालिक आदि सूत्र है । सूत्र का जो अभिप्राय है वही अर्थ है । कहा भी है-जो सुत्ताभिप्पाओ सो अत्थो अज्जए य जम्हासूत्र के अभिप्राय को अर्थ कहा गया है । क्यों कि यह अर्थ सूत्र से ही निश्चित किया जाता है। इस तरह केवल सूत्र को अथवा उसके अर्थ को एवं इन दोनों को जब शिष्य अपने आचार्य महाराज से पूछे तो आचार्य महाराज को चाहिये कि वे उसको गुरु परंपरा से यथाज्ञात सूत्र-अर्थ एवं दोनों को अच्छी तरह समझावें । ऐसा न करें कि अपनी निजी कल्पना से मिश्रित कर उन्हें समझावें । सूत्रज्ञान के लिये उपयोगी समझकर सूत्र का शब्दार्थ, उसका लक्षण, उसके भेद, एवं उसकी वाचना आदि के विषय में कुछ स्पष्टीकरण किया जाता है।शिष्यने जहासुयं वागरिज्जा-यथाश्रुतं व्याकुर्यात् गुरु म।२।१४ मे प्रधान शास्त्र વિહિત વિધિ અનુસાર પ્રતિપાદન કરે. કાલિક ઉત્કાલિક આદિ સૂત્ર છે, સૂત્રને જે અભિપ્રાય છે તે જ અર્થ छ. ४ह्यु ५५ छ,-जो सुत्ताभि पाओ सो अत्थो अज्जए य जम्हा-सूत्रनामभिप्रायने અર્થ કહેવામાં આવેલ છે. કેમ કે, આ અર્થ સૂત્રથી નિશ્ચીત કરવામાં આવે છે. આ રીતે કેવળ સૂત્રને અથવા તેના અર્થને અથવા એ બનેને જ્યારે શિષ્ય પિતાના આચાર્ય મહારાજને પૂછે તે આચાર્ય મહારાજે તેને ગુરુ પરંપરાથી યથાજ્ઞાત સૂત્ર-અર્થ અને બનેને સારી રીતે સમજાવે એવું ન કરે કે પિતાની જ કલ્પનાથી મિશ્રિત કરી તેને સમજાવે. સૂત્ર જ્ઞાનને માટે ઉપયોગી સમજીને સૂત્રને શબ્દાર્થ, તેનું લક્ષણ, તેને ભેદ, અને તેની વાચના मानि विषयमi sivs २५ष्टि४२५३ ४२वामां आवे छे-सूचयतीति सूत्रम् ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४२ उत्तराध्ययनसूत्रे ननु कः सूत्रशब्दार्थः ?-उच्यते-सूचयतीति सूत्रम् , यथा सूची सूत्रेण सूच्यते, सूचीसंलग्नं यत् सूत्रं तदेव मूच्याः सूचकं प्रबोधकं भवति, तथाऽर्थसंबद्धं मूत्रं, वाच्यवाचकभावसम्बन्धेन यावानर्थः सूत्रे विद्यमानस्तस्य तस्यार्थस्य सूचकं सूत्रम्। एवमर्थस्य सूचनात् सूत्रम् ॥ १ ॥ अथवा-सीव्यतीति सूत्रम् । यथा-सूत्र-तन्तुः अङ्गरक्षिकादीनि सीव्यति, एवमर्थं च पदं सीव्यति-योजयति-एवं च सीवनात् सूत्रमिति ॥ २॥ अथवा-स्रवतीति सूत्रम् यथा-चन्द्रकान्तमणिः चन्द्रकिरणसंनिधानाज्जलं स्रवति-प्रादुर्भावयति । एवं सूत्रमप्याचार्यसंनिधानादर्थं प्रस्रवति तथा च स्रवणात् सूत्रमिति ॥ ३ ॥ अथवा-सरतीति सूत्रम् , अष्टविधं कर्म सरतिनिर्गच्छति येन तत् सूत्रम् ॥ ४ ॥ ॥ इति प्रथमं सूत्रशब्दार्थद्वारम् ॥ १॥ सूचयतीति सूत्रम् सूत्र शब्द का अर्थ-जिस प्रकार सूई संलग्न सूत्र सूई का प्रबोधक होता है उसी तरह अर्थ संबद्ध सूत्र वाच्य वाचकभाव संबंध से जितना २ अर्थ अपने में विद्यमान होता है उतने २ अर्थ का सूचक होता है, इस तरह " सूचयतीति सूत्रम् " अर्थ का सूचक होने से सूत्र कहा गया है । यह व्युत्पत्तिलभ्य अर्थ है । अथवा-"सीव्यतीति सूत्रम्"-जिस प्रकार डोरा अंगरक्षिका-कुर्ता-आदि वस्त्रों को सीता है परस्पर में जोड़ देता है-उसी तरह सूत्र भी अर्थ को योजित कर देता है । अथवा-"स्त्रवतीति सूत्रम्"-जिस प्रकार चंद्रकान्तमणि चंद्र किरणों के संपर्क से द्रवित हो जाता है-पानी छोड़ता है-उसी प्रकार सूत्र भी आचार्य के संनिधान से अर्थ को अपने में प्रकट कर देता है। अथवा-"सरतीति सूत्रम्' સૂત્ર શબ્દને અર્થ-જે રીતે સોય સંલગ્ન સૂત્ર સોયને પ્રબોધક બને છે તેવી રીતે અર્થ સંબદ્ધ સૂત્ર વાચ્ય વાચક ભાવ સંબંધથી જેટલા જેટલા અર્થ તેનામાં વિદ્યમાન હોય છે, એટલા એટલા અર્થને સૂચક હોય છે. " सूचयतीति सूत्रम् " अथनी सूय४ वाथी २४ सूत्र वामां मावत छ. मा व्युत्पत्तिसय २० छ. मथा-सीव्यतीति सूत्रम् २ शत हो। અંગનું રક્ષણ કરનાર કુર્તા આદિ વાને સીવે છે, પરસ્પરથી જેડી દે छ. मेवी रीत सूत्र ५५] मथने योनार डाय छे. मथवा स्रवतीतिसूत्रम् જે રીતે ચંદ્રકાન્ત મણ ચંદ્રકિરણેના સંપર્કથી દ્રવિત બને છે. પાણી છોડે છે–તે પ્રકારે સૂત્ર પણ આચાર્યના સંનિધાનથી અર્થને કે જે પિતાનામાં સમાયેલ છે તે પ્રગટ કરી દે છે અથવા સલરિ જેના સેવનથી-ઉપાસના ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रियदर्शिनी टोका गा. २३ सूत्रस्य निक्षेपः लक्षणं च । सूत्रपदनिक्षेपनामकं द्वितीयं द्वारम्अथ-सूत्रपदनिक्षेपः । द्रव्यसूत्रं-कार्पासादिकम् । भावसूत्रं तु-अस्मिन् ज्ञानाधिकारे सूचकं ज्ञानं श्रुतज्ञानम् , तस्यैव स्वपरार्थसूचकत्वात् , श्रूयते यत् तत् श्रुतं ज्ञायतेऽनेनेति ज्ञानं, श्रुतं च तद् ज्ञानं श्रुतज्ञानम् । तच्च-एकादशाङ्गानि, प्रकीर्णकानि, दृष्टिवादश्च । तदुक्तम्"एक्कारसमंगाई, पइन्नगं दिहिवाओ य" इति । ( उ. २८ अ. २३ गा.) ॥ इति द्वितीयं सूत्रपदनिक्षेपद्वारम् ॥ अथ तृतीयं सूत्रलक्षणद्वारमयत् सूत्रं सूत्रलक्षणोपेतं तदेवोच्चारणीयम् , लक्षणरहितं हि सूत्रं विवक्षितमर्थ न साधयति, तस्माल्लक्षणयुक्तमेव सूत्रमिष्यते, अतः सूत्रलक्षणं वाच्यम् । तद् यथा अप्पक्खरं महत्थं, बत्तीसदोसविरहियं जं च । लक्खणजुत्तं मुत्तं, अट्ठहि य गुणेहि उववेयं ॥ जिसके सेवन से-उपासना करने से-उसके द्वारा प्रतिपादित मार्ग का अनुसरण करने से-अष्टविध कर्मों का आत्मा से निर्गमन हो जाय उसका नाम सूत्र है।। सूत्र पद निक्षेप नामक दूसरा द्वार कहते है सूत्र के दो भेद हैं-१ द्रव्यसूत्र, २ भावसूत्र । कपास आदि से बना हुआ द्रव्यसूत्र है। भावश्रुत का नाम भावनूत्र है। इससे ही स्वरूप और परस्वरूप का सूचन-अर्थात् बोध होता है । जो सुना जाय वह श्रुत एवं जिसके द्वारा जाना जाय वह ज्ञान है । श्रुतरूप जो ज्ञान है उस का नाम श्रुतज्ञान है। ११ अंग प्रकीर्णक (पइन्ना) एवं दृष्टिवाद ये सब श्रुतज्ञान स्वरूप हैं । कहा भी है-"एक्कारसमंगाई पइन्नगं दिठिवाओय"।३। કરવાથી તેના દ્વારા પ્રતિપાદિત માર્ગનું અનુસરણ કરવાથી આઠ પ્રકારના કર્મોનું આત્માથી નિગમન થઈ જાય તેનું નામ સૂત્ર છે. જે ૧ . સૂત્રપદ નિક્ષેપ નામનું બીજું દ્વાર કહે છેસૂત્રના બે ભેદ છે–-૧ દ્રવ્યસૂત્ર, ૨ ભાવસૂત્ર કપાસ વગેરેથી બનેલ દ્રવ્યસૂત્ર છે, ભાવકૃતનું નામ ભાવસૂત્ર છે. આનાથી જ સ્વ સ્વરૂપ અને પર. સ્વરૂપનું સૂચન–અર્થાત્ બેધ થાય છે. જે સાંભળી શકાય તે મૃત અને જેનાથી જાણી શકાય તે જ્ઞાન છે. મૃતરૂપ જે જ્ઞાન છે. એનું નામ શ્રુતજ્ઞાન છે. ૧૧ અંગ પ્રકિર્ણક (પઈન્ના) અને દુષ્ટીવાદ એ બધા શ્રુતજ્ઞાન સ્વરૂપ છે. કહ્યું પણ छे डे-एक्कारसमंगाई पइन्नगं दिठिवाओ य ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४४ उत्तराध्ययनसूत्रे यद् अल्पाक्षरं, तथा-महार्थं च भवति, अत्र " अल्पाक्षरं महार्थम् " इति विशेषणद्वये चत्वारो भङ्गा भवन्ति, यथा-अल्पाक्षरमल्पार्थम् ' यथा कार्पासादिकम् ॥ १ ॥ 'अल्पाक्षरं-महार्थम् ' यथा-सामायिकं बृहत्कल्पादि च ॥ २ ॥ 'महाक्षरमल्पार्थम्"। यथा--ज्ञाताध्ययनानि, अन्यच्च यदस्यां कोटौ व्यवस्थितम्। अब सूत्रलक्षण नाम का तीसरा द्वार कहते है-जो सूत्र सूत्रलक्षण से युक्त है वही उच्चारण करने के योग्य होता है । और उसीसे अपने वास्तविक अर्थ का बोध होता है। इससे विपरीत सूत्र द्वारा विवक्षित अर्थ की प्रतिपत्ति-ज्ञान नहीं हो सकती है क्यों कि उससे यथार्थ अर्थ का प्रकाशन नहीं होता है । इस लिये "सूत्र का क्या लक्षण है" इस प्रकार के प्रश्न के समाधान निमित्त उसका लक्षण कहा जाता है। "अप्पक्खरं महत्थं, बत्तीसदोस, विरहियं जं च । लक्खणजुत्तं सुत्तं, अट्ठहिय गुणेहि उववेयं" ॥ १॥ जिसमें अल्प अक्षर होते हैं और महान जिसका अर्थ होता है एवं बत्तीस दोषों से जो रहित होता है तथा आठगुणों से जो युक्त होता है वह सूत्र है " अल्प अक्षर वाला हो एवं अर्थ जिसका महान् हो" इस प्रकार के सूत्र के विशेषण से ये ४ भंग होते हैं-अल्प अक्षर वाला हो एवं अल्प अर्थ वाला हो जसे कपास आदि का बना हुआ सूत १ । अल्प अक्षर वाला हो, पर जिसका महान् अर्थ हो जैसे सामायिक सूत्र, હવે લક્ષણ નામનું ત્રીજું દ્વાર કહે છે – જે સૂત્ર સૂત્રલક્ષણથી યુક્ત છે તે જ ઉચ્ચારણ કરવા માટે યોગ્ય છે, અને એનાથી પિતાના વાસ્તવિક અર્થને બંધ થાય છે. એનાથી વિપરીત સૂત્રથી વિવક્ષિત અર્થની પ્રતિપત્તિ-જ્ઞાન થઈ શકતું નથી, કારણ કે, એનાથી યથાર્થ અર્થનું પ્રકાશન થતું નથી. अपक्खरं महत्थं बत्तीस दोसविरहियं जं च । लक्खणजुत्तं सुत्तं अट्टहियथेणेहि उववेयं भी सक्ष२ मछ। य छे मने અર્થ મહાન હેય છે જે બત્રીસ દેથી રહિત હોય છે તથા આઠ ગુણોથી જે યુક્ત હોય છે તે સૂત્ર છે. “ડા અક્ષરવાળા હોય અને અર્થ જેનો મહાન હાય” આ પ્રકારના સૂત્રના વિશેષણથી આ ચાર ભંગ થાય છે. થોડા અક્ષર વાળા હોય અથવા અ૫ અર્થવાળા હેય. જેમ કે કપાસ આદિથી બનેલ સુતર ૧. થેડા અક્ષરવાળા હેય પણ જેને અર્થ મહાન હય, જેવાં સામયિક બૃહત્ક ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रियदर्शिनी टोका गा. २३ सूत्रदोषाः ३२ 'महाक्षरं महार्थ' यथा-दृष्टिवादः ॥४॥ यच्च द्वात्रिंशद्दोषविरहित अलीकादिभित्रिंशदो पैर्वर्जितं तथाऽष्टभिर्गुणैरुपेतं सूत्रं तल्लक्षणयुक्तं मूत्रं भवति तत् सूत्रं पठनीयमित्यर्थः। अथ-सूत्रदोषाःअथ सूत्राणां द्वात्रिंदोषा उच्यन्तेअलियमुवधायजणयं, णिरत्थगमवत्थयं छलं दुहिलं । निस्सारमहियमणं, पुणरुत्तं वाहयमजुत्तं ॥१॥ कमभिन्न-वयणभिन्ने, विभत्तिभिन्नं च लिंगभिन्नं च । अणमिहियमपयमेव य, सभावहीणं ववहियं च ॥ २ ॥ काल-जति-च्छवि-दोसो, समयविरुद्धं च वयणमित्तं च । अत्थावत्ती दोसो, हवइ य असमासदोसो य ॥३॥ उवमा रूवगदोसो, निद्देसपयत्थसंधिदोसो य । एए य सुत्तदोसा, बत्तीसं हुंति नायव्वा ॥४॥ छाया-अलीकम् १, उपघातजनकं २, निरर्थकं ३, अपार्थकं ४, छलं ५, द्रुहिलम् ६, निःसारम् ७, अधिकम् ८, ऊनम् ९, पुनरुक्तं १०, व्याहतं ११, अयुक्तम् १२, ॥ १ ॥ __ क्रमभिन्न १३, वचनभिन्ने १४, विभक्तिभिन्नं च १५, लिङ्गभिन्नं च १६, अनभिहितं १७, अपदमेव च १८, स्वभावहीनं १९, व्यवहितं च २० ॥२॥ तथा वृहत्कल्पादि सूत्र २। महा अक्षर वाला हो पर अर्थ अल्प हो जैसेज्ञाताध्ययन आदि ३ । महाक्षर वाला हो और अर्थ भी जिसका महान् हो जैसे दृष्टिवाद ४ । ३२ बत्तीस दोष सूत्र के ये हैं ३२ दोष सूत्र के-अलीक १, उपघातजनक २,निरर्थक ३, अपार्थक ४, छल ५, द्रुहिल ६, निःसार ७, अधिक ८, ऊन ९, पुनरुक्त १०, व्याहत ११, अयुक्त १२, क्रमभिन्न १३, वचनभिन्न १४, विभक्तिभिन्न १५, लिङ्गभिन्न १६, अनभिहित १७, अपद १८, स्वभावहीन १९, व्यवहित ત્પાદિ સૂત્ર ૨, વધુ અક્ષરવાળા હોય પણ અર્થ ના હેય જેવાં જ્ઞાતાધ્યયન આદિ ૩. વધુ અક્ષરવાળા હોય અને અર્થ પણ જેને મહાન હાય જેવાં दृष्टी१४ ४. सूत्रना मत्रीस होप २॥ छे..... मसी १, धातन४ २, निरथ 3, माथ४ ४, ७८ ५, दुडित, नि:सार ७, माघ ८, Gन ६, पुनरुत १०, व्याडत ११, मयुक्त ૧૨, કમભિન્ન ૧૩, વચનભિન્ન ૧૪, વિભક્તિભિન્ન ૧૫, લિભિન્ન ૧૬, અનભિહિત ૧૭, અપદ ૧૮, સ્વભાવહીન ૧૯, વ્યવહિત ૨૦, કાલદેષ ૨૧, યતિ ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર: ૧ Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययनसूत्रे काल-यति-च्छविदोषः (कालदोषः २१, यतिदोषः २२, छविदोषः २३) समयविरुद्धं च २४, वचनमात्रं च २५, । अर्थापत्तिर्दोषो २६, भवति च असमास दोषश्च २७ ॥३॥ ___ उपमा २८,-रूपकदोषो २९, निर्देश ३०,-पदार्थ ३१,-संधिदोषश्च ३२, एते तु सूत्रदोषा द्वात्रिंशद् भवन्ति ज्ञातव्याः॥४॥ . व्याख्या-अलीकम्-अनृतम् तच्च द्विधा-अभूतोद्भावनं भूतनिह्नवश्च । यथा'ईश्वरकतकं जगत् ' इत्यादि-अभूतोद्भावनम् । 'नास्ति आत्मा' इत्यादिकस्तु भूतनिह्नवः ॥ १॥ उपघातः-सत्त्वघातादिः, तज्जनकं यथा-'वेदविहिता हिंसाधर्माय' इत्यादि ॥ २ ॥ निरर्थक-यत्र वर्णानां क्रमनिर्देशमात्रमुपलभ्यते न त्वर्थों २०, कालदोष २१, यतिदोष २२, छविदोष २३, समयविरुद्ध २४, वचनमात्र २५, अर्थापत्ति २६, असमासदोष २७, उपमा २८, रूपक २९, निर्देश ३०, पदार्थ ३१, एवं संधिदोष ३२। कहा भी है 'अलिय मुवघायजणयं' इत्यादि इन ३२ दोषों का स्वरूप इस प्रकार है-अलीक नाम असत्य का है यह दो प्रकार का होता है-अभूतोद्भावन १। भूतनिहव है २ । जैसे-" ईश्वर कर्तृक जगत् इत्यादि " जगत् को ईश्वर ने बनाया है-इस प्रकार का प्रतिपादक सूत्र अभूतोद्भावक है नास्ति आत्मा-आत्मा नहीं इस प्रकार जमाली द्वारा कथित सूत्र भूतनिहव स्वरूप है ॥१॥ उपघात शब्द का अर्थ है प्राणियों की हिंसा आदिका प्ररूपण करना। इस बात के प्ररूपक सूत्र उपघात दोषवाले माने जाते हैं-जैसे कहना कि वेदविहिता हिंसा धर्माय" वेदविहित हिंसा धर्म के लिये है " ॥२॥ जिसमें सिर्फ वर्णों का क्रम ही निर्दिष्ट हो वह निरर्थक दोष है-इसमें अर्थ का पता દેષ ૨૨, છવિદેષ ૨૩, સમયવિરૂદ્ધ ૨૪, વચનમાત્ર ૨૫, અર્થપત્તિ ૨૬, અસમાસ દોષ ર૭, ઉપમા ૨૮, રૂપક ૨૯, નિર્દેશ ૩૦, પદાર્થ ૩૧. અને સંધીદેષ ૩ર, तदुक्तं--" आलियमुवघाय जणयं०" त्याह! આ બત્રીસ દેનું સ્વરૂપ આ પ્રકારે છે–અલીક નામ અસત્યનું છે. આ બે પ્રકારે છે, ૧ અભૂતદુભવન, ૨ ભૂતનિધ્રુવ, જેમ-“ઈશ્વર કર્તક જગત ઈત્યાદિ” જગતને ઈશ્વરે બનાવ્યું છે–આ પ્રકારે પ્રતિપાદિત સૂત્ર અભૂતદ્દ ભાવક છે, નાસ્તિ આત્મ-આતમા નથી, આ પ્રકારના જમાલી દ્વારા કહેવાયેલ સૂત્ર ભૂતનિહ્નવ સ્વરૂપ છે. ઉપઘાત શબ્દનો અર્થ છે. પ્રાણીની હિંસા આદિનું પ્રરુપણ કરવું, આ વાતને પ્રરૂપક સૂત્ર ઉપઘાત દોષવાળા માનવામાં આવે છેरेम , वेदविहिता हिंसा धर्माय (२)" वे विडित हिंसा धर्मनाभाट છે જેમાં ફક્ત વર્ગોના ક્રમનોજ નિર્દોષ હોય તે નિરર્થક દોષ છે, આમાં અર્થ ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रियदर्शिनी टीका गा. २३ सूत्रदोषाः ३२ यथा-'अ, आ, इ, ई,' इत्यादि । डित्यादिवद्वा ॥ ३॥ अपार्थकम्-असंबद्धार्थकम् , यथा-" दश दाडिमानि षडपूपाः, सप्त गर्दभपुच्छाः , इत्यादि ॥४॥ छलं-यत्रानिष्टस्यार्थान्तरस्य संभवाद् विवक्षितार्थोपघातः कर्तुं शक्यते तच्छलम् , यथा-' नवकम्बलो देवदत्तः' इत्यादि, अत्र-नूतनकम्बलस्य विवक्षितार्थस्य नवसंख्यककम्बलविषयकबोधसंभवादुपघातः कर्तुं शक्यते ॥५॥ द्रुहिलं-जन्तूनामहितोपदेशकत्वेन पापव्यापारपोषकम्, यथाअनुष्टुप्छन्दः--एतावानेव लोकोऽयं, यावानिन्द्रियगोचरः। भद्रे ! वृकपदं पश्य, यद् वदन्त्यबहुश्रुताः ॥१॥ वियोगिनी छन्दः-पिव खाद च चारुलोचने, यदतीतं वरगात्रि ! तन्न ते । नहि भीरु ! गतं निवर्तते, समुदयमात्रमिदं कलेवरम् ॥२॥ नहीं पड़ता; जैसे-अ आ इ ई इत्यादि ॥३॥ असंबद्ध अर्थ जिस सूत्र द्वारा कहा जाता है वह अपार्थक दोष वाला सूत्र माना जाता है-जैसे दशदाडिम, छह मालपुए, सात गधे की पूंछे इत्यादि ॥४॥ ये सब सूत्र असंबद्ध अर्थ के प्रतिपादक हैं । जहां अनिष्ट अर्थान्तर की संभावना से विवक्षित अर्थ का अपलाप किया जा सकता है वह छलदोष है जैसे किसी ने कहा कि " नव कम्बलोऽयं देवदत्तः" देवदत्त नवकम्बल वाला है-यहां नव शब्द का अर्थ नूतन है, और इसी अर्थ में नव शब्द विवक्षित हुआ है, परंतु इस अर्थ को उपघात करने वाला यह कह देता है कि ९ संख्या युक्त कम्बल इसके पास कहां है एक ही कम्बल तो है । इस प्रकार के अर्थ की संभावना नव शब्द से हुई है । अतः विवक्षित अर्थ का उपघात जिस शब्द से युक्त सूत्र का होना, उपघात दोषावशिष्ट माना जाता है. જ મળતું નથી, જેમ અ આ ઇ ઈ ઈત્યાદિ (૩) અસંબદ્ધ અર્થ જે સૂત્ર દ્વારા કહેવામાં આવે છે તે અપાર્થક દોષવાળા સૂત્ર માનવામાં આવે છે. જેમ દસ દાડમ, છ પુઆ, સાત ગધેડાની પૂછ ઈત્યાદિ. (૪) આ બધા સૂત્ર અસંબદ્ધ અર્થનાં પ્રતિપાદક છે. જ્યાં અનિષ્ટ અર્થાન્તરની સંભાવનાથી વિવક્ષિત અર્થને म५५ ४२वामां मावे छ ते सोप छ. म ध्ये घु , “नव कम्बलोऽयं देवदत्तः” । वहत्त न ४ छ-महिं न शन। मथ નૂતન છે. અને આજ અર્થમાં નવ શબ્દ વિવક્ષિત થયેલ છે. પરંતુ આ અર્થને ઉપઘાત કરવાવાળા એવું કહી દે છે કે, નવ સંખ્યા યુક્ત કમ્બલ એમની પાસે કયાં છે. એક જ કમ્બલ છે. આ પ્રકારે અર્થની સંભાવના નવ શબ્દથી થઈ છે. વિવક્ષિત અને ઉપઘાત જે સૂત્રમાં થાય છે એ શબ્દથી યુક્ત સૂત્રનું દેવું ઉપધાત દેષાવિશિષ્ટ માનવામાં આવે છે. (૫) ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४८ उत्तराध्ययनसूत्रे इत्यादि ॥६॥ निःसारं=तथाविधयुक्तिरहितं परिफल्गु, यथा-सौगतादिशास्त्रम् ॥७॥ अधिकम्-अक्षरपदादिभिरतिमात्रम् । अथवा हेतोदृष्टान्तस्य वाऽऽधिक्ये सति अधिकं, यथा-अनित्यः शब्दः, कृतकत्व प्रयत्नानन्तरीयकत्वाभ्यां घटपटवदित्यादि। एकस्मिन् साध्ये एक एव हेतुदृष्टान्तश्च वक्तव्यः । अत्र च प्रत्येकं द्वयाभिधानादाधिक्यमिति भावः ॥८॥ ॥५॥ जन्तुओं को अहित का उपदेशक होने से जो पापव्यापार का पोषक सूत्र होता है वह द्रुहिल दोषवाला सूत्र माना जाता है । जैसेचार्वाक का यह कहना कि-यह लोक जितना प्रत्यक्ष से दिखता है उतना ही है इससे आगे नहीं । पुण्य पाप एवं स्वर्ग नरक यह भी नहीं है । इस लिये खाओ पीओमस्त रहो और आनंद से अपने समय को निकालो ॥६॥ युक्ति रहित जो सूत्र होता है वह निस्सार दोष वाला माना जाता है, जैसे सौगत आदि का शास्त्र ॥७॥ जिसमें अक्षर पद आदि आवश्यकता से अधिक होते हैं वह सूत्र अधिक दोष संयुक्त जानना चाहिये, अथवा-जिसमें एक हेतु और दृष्टान्त के अतिरिक्त हेतु और दृष्टान्त हों वह भी अधिक दोषवाला सूत्र मानना चाहिये-जैसे-" अनित्यः शब्दः कृतकत्वप्रयत्नानन्तरीयकत्वात् घटपटवदिति" शब्द अनित्य है क्यों कि वह कृतक है एवं प्रयत्नपूर्वक होता है जैसे घट और पट ॥ ७॥ इस अनुमान में एक हेतु और १ दृष्टान्त अधिक है। एक साध्य में १ही हेतु और १ ही दृष्टान्त होता है । दो हेतु और दो दृष्टान्त नहीं ॥ ८॥ जो જતુઓના અહિતના ઉપદેશક હોવાથી જે પાપ વ્યપારને પિષક સૂત્ર હોય છે, તે કુહિલ દેષવાળા સૂત્ર માનવામાં આવે છે. જેમ ચાર્વાક કહે છે કે – આ લોક જે રીતે પ્રત્યક્ષથી દેખાય છે એટલું જ છે એનાથી આગળ નથી, પુણ્ય, પાપ અને સ્વર્ગ નરક એ પણ નથી, આ માટે ખાઓ પીઓ અને મસ્ત રહે તથા આનંદથી સમયને પસાર કરે, (૬) યુક્તિ રહિત જે સૂત્ર હોય છે તે નિસાર દેષવાળા મનાય છે. જેમ સૌગત આદિ શાસ્ત્ર, (૭) જેમાં અક્ષર પદ આદિ આવ. શ્યતાથી અધિક હોય છે તે સૂત્ર અધિક દોષ સંયુક્ત જાણવું જોઈએ. અથવા જેમાં એક હેતુ અને દષ્ટાંતના અતિરિક્ત હેતુ અને દષ્ટાંત હોય તેને પણ અધિક होषवाणा सूत्र मानवान.भ-“अनित्यः शब्दः कृतकत्वप्रयत्नान्तरीयकत्वात घटपटवदिति" श६ मनित्य छ, भ, कृत: छ. मने प्रयत्नपूर्व થાય છે, જેમ ઘટ અને પટ. આ અનુમાનમાં એક હેતુ અને એક દષ્ટાંત અધિક છે. એક સાધ્યમાં એક જ હેતુ અને એક જ દષ્ટાંત હોય છે. બે હેતુ ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रियदर्शिनी टीका गा. २३ सूत्रदोषाः ३२ १४१ ऊनम्--अक्षरपदादिभित्नम् । अथवा-हेतुदृष्टान्ताभ्यामेव हीनम् ऊनम् । यथा-अनित्यः शब्दो घटवदिति । अत्र हेतु स्ति, यथा वा 'अनित्यः शब्दः कृतकखाद्' इत्यादि, अत्र-घटादिरूपो दृष्टान्तो नास्ति ॥९॥ पुनरुक्तं त्रिधा-शब्दतोऽर्थतश्च । तथा-अर्थादापन्नस्य पुनर्वचनं-पुनरुवतं । तत्र शब्दतः पुनरुक्तं यथा-घटः, घटः, इत्यादि । अर्थतः पुनरुक्तं यथा-घटः, कुटः, कुम्भ इत्यादि । अर्थादापन्नस्य पुनर्वचचनं यथा-पीनोऽयं देवदत्तो, दिवा न भुङ्क्ते इत्युक्ते अर्थादापन्नं- रात्रौ भुङ्क्ते ' इति, तत्रार्थादापन्नमपि ' रात्रौ भुङ्क्ते । इति यो ब्रूयात् तस्य पुनरुक्तता ॥ १० ॥ व्याहतं--यत्र पूर्वेण परं विहन्यते । यथा "कर्म चास्ति फलं चास्ति कर्ता न त्वस्ति कर्मणाम् ” इत्यादि। अक्षर एवं पद आदि से हीन होता है वहां ऊन नामक दोष माना जाता है । अथवा हेतु एवं दृष्टान्त से जो हीन होता है वहां भी यह दोष माना जाता है। जैसे “अनित्यः शब्दः घटवत्" यह वाक्य हेतु से हीन है ॥९॥ पुनरुक्त दोष शब्द, अर्थ एवं प्रसंगादि से प्राप्त अर्थ के पुनः कथन से होता है । घट घट यहां शब्द की अपेक्षा, घट कुंभ कुट यहां अर्थ की अपेक्षा तथा “पीनोऽयं देवदत्तः दिवा न भुक्ते" यहां अर्थात् प्रसक्त अर्थ रात्रि में भोजन करना है फिर भी “रात्रौ भुङ्क्ते" रात्रि में खाता है यह कहना पुनरुक्ति दोष से दूषित माना जाता है ॥ १०॥ पूर्व से पर जहां विरोध होता है, वहां व्याहत दोष माना जाता है-जैसे-किसी ने कहा कि कर्म हैं फल हैं परन्तु कर्मों का कर्ता कोई नहीं है। यह वाक्य पूर्वापर में અને બે દષ્ટાંત નહીં. (૮) જે અક્ષર અને પદ આદિથી હીન હોય છે. ત્યાં ઉન નામને દેષ માનવામાં આવે છે. અથવા હેતુ અને દૃષ્ટાંતથી જ હીન હોય छ, त्यो ५ से होष भानपामा मावे छे. वी रीते अनित्यः शब्दः घटवतु माय तुथी हीन छ. अनित्यः शब्दः कृतकत्वातू अडिटतथा विनिता છે. (૯) પુનરુકત દેષ શબ્દ, અર્થ અને પ્રસંગ આદિથી પ્રાપ્ત અર્થના પુનઃ કથનથી થાય છે. ઘટ ઘટ અહિં શબ્દની અપેક્ષા ઘટ કુંભ કુટ અહિં અર્થની अपेक्षा तथा “पीनोऽयं देवदत्तः दिवा न भुंक्ते" मा मर्यात प्रस31 मथ રાત્રીમાં ભોજન કરવું એ છે. છતાં પણ એ કહેવું છે કે રાત્રે સૂવારે એ રાત્રીમાં ખાય છે, આમ કહેવું પુનરુકિત દેષથી દુષિત માનવામાં આવે છે. (૧૦) પૂર્વથી પર જ્યાં વિરોધ છે, ત્યાં વ્યાહત દેષ માનવામાં આવે છે, જેમ કે, કેઈએ કહ્યું કે, કર્મ છે, ફળ છે, પરંતુ કર્મોને કર્તા કેઈ નથી. આ વાક્ય ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तगध्ययनसूत्रे पूर्व-कर्म चास्ति' इत्युक्तम् , तेन-कर्मणां कर्ता नास्तीत्यस्य विधातो भवति। यथा वा-अयं बालको बन्ध्यामसूतः, इत्यादि ॥ ११ ॥ अयुक्तम्-बुद्धया चिन्त्यमानम्-अनुपपत्तिक्षमम् । यथा " तेषां कटतटभ्रष्टै,-गजानां मदबिन्दुभिः। प्रावर्तत नदी घोरा, हस्त्यश्वरथवाहिनी ॥१॥ यथा वा-श्रावकस्य मुनिदर्शनहर्षाश्रुभिरुपाश्रयः संभृतः ॥ १२ ॥ क्रमभिन्नं-यत्र क्रमो नाराध्यते। यथा-'श्रोत्रचक्षुर्घाणरसनस्पर्शनानां विषयाः विरोधी है कारण कि जब कर्म है तो कोई न कोई इनका कर्ता भी हैं-फिर यह कहना कि इनका कोई कर्ता नहीं है यह व्याहत दोष है । इसी तरह " अयंवालकोवन्ध्याप्रसूतः” अर्थात् यह बालक बन्ध्यापुत्र है यह भी समझना चाहिये ॥ ११ ॥ जो युक्ति सह नहीं होता है वहां अयुक्त दोष आता है जैसे-हाथियों का वर्णन करते समय ऐसा कहा जाय कि उनके हाथियो के गण्डस्थल से च्युत मदजल का इतना अधिक प्रवाह वहा कि वहां एक घोर नदी हो गई जिसमें हाथी, अश्व एवं रथ सब के सब वह गये । यह बुद्धिकल्पित चीज युक्ति सह नहीं है। इस लिये ये अयुक्त नामका दोष है। इसी तरह यह कथन भी “कि मुनियों के दर्शन से श्रावकों की आंखों से इतने आनंदाश्रु निकले कि उपाश्रय भर गया" ॥ १२॥ जहां क्रम वर्णन पर ध्यान नहीं रखा जाता है वहां क्रमभिन्न नामका दोष है-जैसे-श्रोत्रचक्षुर्घाणरसनस्पर्शनानां विषयाः रूपगंधशब्दस्पर्शरसाः, ऐसा कोई सूत्र बनावें तो उसमें क्रमभिन्न नाम પૂર્વાપરમાં વિરોધી છે કારણ કે, જ્યારે કર્મ છે તે કોઈને કોઈ તેને કર્તા પણ હેવો જોઈએ. પછી એ કહેવું કે એને કઈ કર્તા નથી એ “વ્યાહત” દેષ છે. આ शत" अयं बालको वन्ध्याप्रसूतः " अर्थात् “म मा q-ध्या पुत्र छ” सम કહેવું તે પણ સમજવું જોઈએ. (૧૧) જે યુક્તિ પુર:સર નથી ત્યાં અયુક્ત દેષ આવે છે. જેમ હાથીનું વર્ણન કરતી વખતે એમ કહેવામાં આવે કે તે હાથીના ગંડસ્થલથી ચુત મદજળને એટલે વધુ પ્રવાહ નિકળ્યો કે, ત્યાં એક ઘોર નદી થઈ ગઈ જેમાં હાથી, અશ્વ અને રથ આ બધાં તણાઈ ગયાં, આ બુદ્ધિ કલિપત ચિજ યુક્તિ સહ નથી. આ માટે અયુક્ત નામનો દેષ છે. એવી રીતે મુનિયાના દર્શનથી શ્રાવકની આંખમાંથી એટલાં આંસુ વહ્યા કે તેનાથી ઉપાશ્રય ભરાઈ ગયે. આ કથન પણ અયુકત દોષવાળું છે (૧૨) જ્યાં કમવર્ણન ઉપર ધ્યાન नथी २मात त्या भलिन्न नामना होष छ-रभ श्रोत्रचक्षुर्घाणरसनस्पर्शनानां विषयाः-रूप-गंध-शब्द-स्पर्श-रसाः मेg सूत्र मना तो मेमा भ ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रियदर्शिनी टीका गा. २३ सूत्रदोषाः ३२ शब्दरूपगन्धरसस्पर्शा इति वक्तव्ये रूपगन्धशब्दस्पर्शरसा इति ब्रूयाद्' इत्यादि ॥१३॥ वचनभिन्न-यत्र वचनव्यत्ययः, यथा-वृक्षा ऋतौ पुष्पितः' इत्यादि ॥१४॥ विभक्तिभिन्नं-यत्र विभक्तिव्यत्ययः, यथा-'वृक्षं पश्य' इति वक्तव्ये 'वृक्षः पश्य ' इति ब्रूयात् ' इत्यादि ॥ १५ ॥ लिङ्गभिन्न-यत्र लिङ्गव्यत्ययः, यथा-' इयं स्त्री' इति वक्तव्ये 'अयं स्त्री' इति ब्रूयात् , इत्यादि ॥ १६ ॥ ___ अनभिहितं-स्वसिद्धान्तोपदिष्टाधिककथनम् । यथा-राशिद्वयमिति वक्तव्ये राशित्रयकथनम्, इत्यादि ॥ १७ ॥ का दोष आता है। क्यों कि सूत्र में जिस क्रम से इन्द्रियों का वर्णन किया गया है उसी क्रम से उनके विषय का भी वर्णन करना चाहिये ॥ १३ ॥ जहां वचन का व्यत्यय होता है वहां वचनभिन्न नामका दोष होता है जैसे " वृक्षाः ऋतौ पुष्पितः” यहां वचन व्यत्यय है। क्यों कि " पुष्पितः" की जगह " पुष्पिताः" ऐसा बहुवचन होना चाहिये ॥१४॥ जहां विभक्ति का व्यत्यय होता है वहा विभक्तिभिन्न दोष माना जाता है जैसे " वृक्षः पश्य" यहां पर विभक्ति भिन्न दोष है यहा, 'वृक्षः' की जगह 'वृक्षं' ऐसा होना चाहिये॥१५॥ जहां स्त्रीलिङ्ग आदि का व्यत्यय होता है वह लिङ्गभिन्न दोष है जैसे; " अयं स्त्री" यहां हुआ है । 'अयं' की जगह 'इयं ' होनी चाहिये सो ' इयं' की जगह 'अयं' कर दिया यह लिङ्गव्यत्यय है ॥ १६॥ जो बात सिद्धान्त में प्रतिपादित नहीं है उसे भी मानना अर्थात् सिद्धान्तकथित वात से भी ભિન્ન નામને દોષ આવે છે. કેમ કે, સૂત્રમાં જે કમથી ઈન્દ્રિયનું વર્ણન કરવામાં આવ્યું છે એ જ કમથી એના વિષયનું પણ વર્ણન કરવું જોઈએ. (૧૩) જ્યાં વચનને ઉલટસુલટ વ્યત્યય થાય છે. ત્યાં વચનભિન્ન નામને દોષ લાગે છે. म वृक्षाः ऋतौ पुष्पितः-मडी क्यनव्यत्यय छ, म पुष्पितः नी क्यामे " पुष्पिताः" सभ अवयन डा न. (१४) न्यो विमतिना व्यत्यय डाय छे. ते विमत लिन्न होष मानवामां आवे छे. भ "वृक्षः पश्य" मडि ५६ छ "वृक्ष पश्य" से ही छ. वृक्ष नीच्या वृक्षः मा विमतिना व्यत्यय છે. (૧૫) જ્યાં સ્ત્રીલિંગ આદિને વ્યત્યય બને છે તે લિંગ ભિન્ન દેષ છે, सेभ अयं स्त्री मी अयं नी याये इयं । नेय. ते इयं नी क्या-ये. अयं કરી દીધું એ લિંગવ્યત્યય છે, (૧૬) જે વાત સિદ્ધાંતમાં પ્રતિપાદિત નથી તેને માનવી, અર્થાત્ સિદ્ધાંત કથિત વાતથી પણ અધિક જે યુક્તિ ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५२ उत्तराध्ययनस्त्रे अपदं - निर्विभक्तिकशब्दोच्चारणरूपम् । यथा - मुनिर्विहरतीति वक्तव्ये मुनि विहरतीति कथनम् ॥ १८ ॥ स्वभावहीनं यत्र वस्तुस्वभावोऽन्यथा स्थितोऽन्यथाऽभिधीयते तत् । यथा ' शीतो वह्निः ' ' रूपवदाकाशम् ' इत्यादि ॥ १९ ॥ व्यवहितं - यत्र प्रकृतमुक्त्वाऽप्रकृतं विस्तरतोऽभिधाय पुनः प्रकृतमुच्यते तद् । यथा - हेतुकथामधिकृत्य सुप्तिङ्न्तपदलक्षणप्रपञ्चमर्थशास्त्रं वा अभिधाय पुनर्हेतुवचनम् । यथा वा-दयां प्रस्तुत्य शीलस्य विस्तरवर्णनं विधाय पुनर्दयावर्णनम् ॥ २० ॥ अधिक जो युक्तियुक्त नहीं है-उस को मानना जैसे- जीवराशि अजीवराशि ये दो ही राशियां हैं। पर ऐसा कहना कि "नो जीव नो अजीव " इस प्रकार तीसरा राशि का वर्णन करना अनभिहित दोष है ॥ १७ ॥ विभक्ति रहित शब्द वाला सूत्र अपद दोष वाला माना जाता है जैसे " मुनिविहरति " यहां हुआ है । क्यों कि सुबन्त एवं तिङन्त की पद मंज्ञा होती है । निर्विभक्तिक शब्द पद संज्ञक नहीं होता । अतः इस प्रकार का शब्द वाला सूत्र इस दोष से विशिष्ठ माना जाता है । मुनिर्विहरति " यह शुद्ध है ॥ १८ ॥ जिस सूत्र द्वारा वस्तु का यथावस्ति स्वरूप निरूपित न होकर अन्यथारूप में निरूपित किया जाता है वहां स्वभावहीन दोष होता है। जैसे-अग्नि को शीत एवं आकाश को रूपी कहना ॥ १९ ॥ जहाँ प्रकृत अर्थ को छोड़कर अप्रकृत का विस्तार से वर्णन करके पुनः प्रकृत अर्थ का वर्णन किया जाता है वहां व्यवहित नाम का दोष होता है- जैसे- हेतु के लक्षण के कथन अवसर 66 યુક્ત નથી તેને માનવી જેમ-જીવરાશી અજીવરાશી એ એ રાશી છે, પણ सेभ हे } नो जीव-नो अजीव या अहारे भील राशीनुं वर्जुन ४२ અનભિહિત દોષ છે. (૧૭) વિભક્તિરહિત શબ્દવાળા સૂત્ર અપ દોષવાળા भनाय छे म " मुनिविहरति " अहिं थयेल हो प्रेम, सुमन्त भने तिङन्तनी પદ્મ સંજ્ઞા થાય છે. નિવિભક્તિક શબ્દ પદ્મ સજ્ઞક થતા નથી એટલે આ अहारना शहवाजा सूत्र या होषथी विशिष्ट मानवामां आवे छे. “मुनिर्विहरति ” આ શુદ્ધ છે. (૧૮) જે સૂત્રથી વસ્તુનું યથાવસ્થિત સ્વરૂપ નિરૂપિત ન થતાં ખીજા રૂપમાં નિરૂપિત કરવામા આવે છે ત્યાં સ્વભાવહિન દોષ હાય છે. જેમ અગ્નિને શીત અને આકાશને રૂપી કહેવું. (૧૯) જ્યાં પ્રકૃત અને છોડીને અપ્રકૃતનું વિસ્તારથી વર્ણન કરીને પુનઃ પ્રકૃત અનુ વર્ણન કરવામાં આવે છે ત્યાં વ્યવહિત નામના દોષ લાગે છે–જેમ હેતુ લક્ષણુના કથન અવસરમાં ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર ઃ ૧ Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रियदर्शिनी टीका गा. २३ सूत्रदोषाः ३२ १५३ कालदोषो यत्रातीतादिकालव्यत्ययः, यथा 'रामो वनं प्रविवेश ' इति वक्तव्ये 'रामो वनं प्रविशति ' इत्यादि ॥ २१ ॥ यतिदोषोऽस्थानविरतिः, सर्वथाऽविरतिर्वा । यथा - ' धम्मो मंगलमुकिटं " इत्यादौ ' धम्म ' इत्यत्र विरामः । यद्वा-गाथाया अन्ते विरामकरणम् ॥ २२ ॥ छविः - अलंकार:, तेन शून्यं छविदोषः । यथा- 'बालो धावति' इत्यादि ||२३|| समयविरुद्धं - स्वसिद्धान्तविरुद्धं यथा - स्याद्वाद सिद्धान्ते तद्विरुद्धकथनम् ||२४|| में सुबन्त तिङन्तात्मक पद का स्वरूप विस्तार से विवेचित करके अथवा अर्थशास्त्र का कथन करके पुनः हेतु का कथन करने लग जाना। इसी तरह दया के वर्णव करते समय शील का विस्तृत वर्णन करना और पुनः दया का वर्णन करना । इस प्रकार का वर्णन इस दोष वाला जानना चाहिये ॥ २० ॥ जहां अतितादिकाल का व्यत्यय होता है वहां कालदोष माना जाता है - जैसे- राम वन में प्रविष्ट हुए की जगह ऐसा कहना कि राम वन में प्रवेश करते हैं ॥ २१ ॥ अस्थान में विरति - ' अर्थात्विराम - रुकना ' होना अथवा सर्वथा अविरति - ' नही रुकना ' होना उसका नाम यति दोष है। जैसे- धम्मोमंगल मुक्कडं " इत्यादि में धम्मो यहां विराम करना अथवा गाथा का अन्तमें विराम करना ॥ २२ ॥ अलंकार शून्यता में छविदोष होता है-जैसे-" बालो धावति " इत्यादि || २३ || जहां स्वसिद्धान्त से विरुद्ध कहा जाता है वहाँ समय विरुद्ध दोष लगता है - जैसे- स्याद्वादसिद्धान्त में उसके विरुद्ध प्रतिपादन करना સુમન્ત તિન્તાત્મક પદ્યનુ સ્વરૂપ વિસ્તારથી વિવેચિત કરીને અથવા અશાસ્ત્રનું કથન કરીને પુનઃ હેતુનું કથન કરવા લાગી જવું. આ રીતે દયાનું વર્ણન કરતી વખતે શિલનું વિસ્તૃત વર્ણન કરવું અને ફરીથી યાનું વર્ણન કરવુ. આ પ્રકારનું વર્ણન વ્યવહિત દોષવાળું જાણવુ જોઇએ. (૨૦) જ્યાં અતીતાદિ કાળના વ્યત્યય થાય છે ત્યાં કાળ દોષ મનાય છે—જેમ રામ વનમાં પ્રવિષ્ટ થયાની જગ્યાએ એવું કહેવું કે, રામ વનમાં પ્રવેશ કરે છે. (२१) अस्थानभां विरति - अर्थात्-विराम-शेडावु, यर्बु अथवा सर्वथा अविरति -"नशा" थवु, तेनुं नाम यतिद्वेष छे भ- " धम्मो मंगलमुक्तिट्ठ ઈત્યાદિમાં ધમ્મે એ જગ્યાએ વિરામ કરવા અથવા ગાથાના અંતમાં વિરામ १२वे. (२२) असर शून्यताभां छवि द्वेष थाय छे. नेम " बालो धावति " છોકરો દોડે છે. (૨૩) ઇત્યાદિ. જ્યાં સ્વસિદ્ધાંતથી વિરૂદ્ધ કહેવામાં આવે છે ત્યાં સમયવિરૂદ્ધ દોષ લાગે છે. જેમ સ્યાદવાદ સિદ્ધાંતમાં તેની વિરૂદ્ધ પ્રતિપાદન કરવું. (ર૪) યુક્તિશૂન્ય કથન કરવામાં વચન માત્ર નામનું દુષણ આવે છે. "" उ० २० ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર ઃ ૧ Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययन सूत्र वचनमात्रं - निर्हेतुकं केवलवचनम्, यथा कश्चिद् यथेच्छया कंचित् प्रदेश लोकमध्यतया जनेभ्यः प्ररूपयति ।। २५ ।। १५४ अर्थापत्तिदोषः - यत्रार्थापत्याऽनिष्टमापतति तत्र यथा - ग्रामकुक्कुटो न हन्तव्यः इत्युक्तेऽर्थापत्त्या शेषघातोऽदुष्ट इत्यापतति ॥ २६ ॥ असमासदोष : - यत्र समासविधिप्राप्तौ समासं न करोति, व्यत्ययेन वा करोति तत्र । यथा - भगवतो नामनिर्देशे 'महावीरः ' इति वक्तव्ये 'महान् वीरः ' इति कथनम् । यद्वा- समानाधिकरण्येन समासे कर्तव्ये व्यधिकरणेन तत्करणम् । यथा - महतो वीरो महद्वीर इति ॥ २७ ॥ उपमादोषो यत्र हीनोपमा क्रियते । यथा - मेरुः सर्षपोपमः । अधिकोपमा वा क्रियते, यथा - सर्षपो मेरुसनिभः । अनुपमा वा यथा मेरुः समुद्रोपमः इत्यादि ॥ २८ ॥ ॥ २४ ॥ युक्ति शून्य कथन करने में वचनमात्र नामका दूषण आता है । जैसे - अपनी इच्छा से कल्पना करके कहना कि अमुक प्रदेश लोक के मध्य में है || २५ || जहां पर अर्थापत्ति से अनिष्ट की प्रसक्ति होती, वहां अर्थापत्तिदोष माना जाता है। जैसे- किसी ने कहा कि ग्राम का कुक्कुट (मुर्गा ) नहीं मारना चाहिये, तो इससे इस अनिष्ट का आपादन होता है कि शेष जीवों का घात करना दोषावह नहीं है || २६ ॥ जहां समासविधि प्राप्त हो भी तो भी वहां समास नहीं करना, इसमें असमासदोष माना जाता है अथवा व्यत्यय से समास करना इसमें भी समासदोष माना जाता है। जैसे किसी ने पूछा कि अन्तिम तीर्थंकर का नाम क्या है ? वहां महावीर न कह कर महान् वीर ऐसा कह देना । अथवा - समानाधिकरण्य से समास कर्तव्य होने पर व्यधिकरण से समास करना - जैसे - महतो वीरः महद्वीरः ||२७|| जहां हीन उपमा अथवा अधिक જેમ પેાતાની ઈચ્છાથી કલ્પના કરીને કહેવુ કે, અમુક પ્રદેશ લેાકના મધ્યમાં છે. (૨૫) જ્યાં અર્થાપત્તિથી અનિષ્ટની પ્રસક્તિ થાય છે ત્યાં અર્થપત્તિ દોષ માનવામાં આવે છે. જેમ કેાઇએ કહ્યું કે, ગામના કુકડા મારવા ન જોઈ એ, તા આથી એ અનિષ્ટનુ કથન આપાદાન થાય છે કે, શેષ જીવાના ઘાત કરવા તે દોષાવહ નથી. (૨૬) જ્યાં સમાસવિધિ પ્રાપ્ત થાય તે પણ ત્યાં સમાસ ન કરવા એમાં અસમાસ દોષ માનવામાં આવે છે, અથવા વ્યત્યયથી સમાસ કરવા એમાં પણ સમાસ દોષ માનવામાં આવે છે, જેમ કેાઇ એ પૂછ્યુ કે અંતિમ તિર્થં કરનું નામ શું છે? ત્યાં મહાવીર ન કહેતા મહાન્ વીર એમ કહી દેવુ' અથવા સામાનાધિકરણ્યથી સમાસ કવ્ય હોવા છતાં કૃધિકરણથી સમાસ ‘महतोवीरः महावीरः’ (२७) ल्यां डिन उपमा अथवा संधि उपमा કરવા, જેમ वामां आवे छे ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર ઃ ૧ Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रियदर्शिनी टीका गा. २३ सूत्रदोषाः ३२ रूपकदोषः अवयविन्यारोपयितव्येऽवयवारोपणम् । यथा-पर्वतादौ रूपयितव्ये शिखरादींस्तदवयवान् रूपयति । गज प्रति उच्चत्वादि धर्म निरीक्ष्य पर्वताभेदमारोप्य पर्वतोऽयमिति वक्तव्ये शिखरोऽयमिति कथनम् ।। २९ ॥ निर्देशदोषस्तत्र, यत्र निर्दिष्टपदानामेकवाक्यता न क्रियते, यथा-इह श्रावक उपाश्रये प्रतिक्रामतीत्यभिधातव्ये प्रतिक्रामति शब्दं नाभिधत्ते ॥ ३० ॥ पदार्थदोषः-यत्र वस्तुनि पर्यायोऽपि सन् पदार्थान्तरत्वेन कल्प्यते, यथा'सतो भावः सत्ता' इति कृत्वा वस्तुपर्याय एव सत्ता, सा च वैशेषिकैः षट्सु पदार्थेषु मध्ये पदार्थानन्तरत्वेन स्वीकृता, तच्चायुक्तम्-वस्तूनामनन्तपर्यायत्वेन पदार्थानन्त्य-प्रसंगादिति ॥३१॥ उपमा करने में आती है वहां उपमा दोष माना जाता है जैसे कहना कि मेरु सर्षप के समान है अथवा सर्षप मेरुके समान है ॥२८॥ अवयवी का जहां आरोपण करना चाहिये वहां अवयव का आरोपण करना, जैसे-पर्वतके निरूपयितव्य होने पर उस के अवयवभूत शिखरादिकों का निरूपण करना । गज में उच्चत्व आदि धर्म का निरीक्षण कर के उस में पर्वत का रूपक बांधकर फिर ऐसा कहना कि यह शिखर है ।। २९॥ जहां निर्दिष्ट पदो में एक वाक्यता नहीं की जाती है वहां निर्दिष्ट दोष माना जाता है । जैसे-इस उपाश्रय में श्रावक प्रतिक्रमण करता है ऐसे कहने की जगह सिर्फ इतना ही कहना । " इह उपाश्रये श्रावकः " अर्थात् एक वाक्यता प्रदर्शक क्रियापद का प्रयोग नहीं करना ॥ ३० ॥ जिस वस्तुमें पर्याय भी दूसरे पदार्थरूप में कल्पित की जावे वहां पदार्थदोष माना जाता है । जैसे-सत् का भाव ही सत्ता है और यह सत्ता वस्तु की ही ત્યાં ઉપમાદોષ માનવામાં આવે છે. જેમ કહેવું કે, મેરૂ સર્ષવના જેવો છે. અથવા સર્ષવ મેરૂના સમાન છે. (૨૮) અવયવીનું જ્યાં આરોપણ કરવું જોઈએ ત્યાં અવયવનું આરોપણ કરવું, જેમ પર્વતના નિરૂપયિતવ્ય કથન કરવું જોઈએ ત્યાં એમના શિખરાદિકોનું નિરૂપણ કરવું, ગજમાં ઉચ્ચત્તવ આદિ ધર્મનું નિરિક્ષણ કરી એમાં પર્વતનું રૂપક બાંધીને પછી એવું કહેવું કે એ શિખર છે. (૨૯) જ્યાં નિર્દિષ્ટ પદેમાં એકવાયતા કરવામાં નથી આવતી ત્યાં નિર્દિષ્ટ દોષ માનવામાં આવે છે. જેમ આ ઉપાશ્રયમાં શ્રાવક પ્રતિક્રમણ ४२ छ मेम वान महले त मेट{ ४ ४ , " इह उपाश्रये श्रावकः" અર્થાત્ એક વાક્યતા પ્રદર્શક ક્રિયાપદને પ્રયોગ કરશે નહીં. (૩૦) જે વસ્તુમાં પર્યાય પણ બીજા પદાર્થરૂપમાં કલ્પિત કરવામાં આવે ત્યાં પદાર્થ દેષ મનાય છે, જેમ અને ભાવ જ સત્તા છે અને એ સત્તા વસ્તુની જ એક પર્યાય છે ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययनसूत्र ___ सन्धिदोषः-यत्र सन्धिप्राप्तौ तं न करोति, दुष्टं वा करोति तत्र, यथा -" संयमाराधनम्" इति वक्तव्ये 'संयम, आराधनम् ' इति कथनम् । यथा वा 'मुनि एतौ' इति वक्तव्ये 'मुन्येतौ' इति कथनम् ॥३२॥ एते द्वात्रिंशत् सूत्रदोषाः। अथ सूत्रगुणाःसूत्राणामष्टौ गुणास्त्वेवम् निदोसं सारवंतं च, हेउजुत्त मलंकियं । उवणीयं सोवयारं च, मियं महुरमेव य ।। १॥ एक पर्याय है-फिर भी वैशेषिक सिद्धान्तकार इसे द्रव्यगुण आदि पदार्थ से भिन्न पदार्थरूप से स्वीकार करते हैं । अतः उनके सूत्रों में यह दोष आता है । कारण कि इस प्रकार से पर्याय को यदि भिन्न पदार्थ तरीके माना जायगा तो प्रत्येक पदार्थ की अनंत पर्याये हैं उन सबमें अनंत पदार्थता की प्रसक्ति माननी पड़ेगी, इस प्रकार छह ही भावात्मक पदार्थ है, यह कथनविरुद्ध मानना पडेगा ॥३१॥ जहां संधि की प्राप्ति होने पर भी संधि नहीं की जाय वहां सन्धिदोष होता है जैसे-" यह संयम का आराधन करता है" इस स्थानमें संयमाराधनं न कह कर “संयम आराधनं " ऐसा कहना। इसी प्रकार “ मुनी एतौ" इस जगह "मुन्येतो" कहना । “ मुनो एतौ" यहां व्याकरण सिद्धान्त के अनुसार द्विवचनान्त ईदन्त शब्दकी प्रगृह्य संज्ञा होती है और उससे सन्धिकार्य का अभाव हो जाता है॥३२॥ इस प्रकार सूत्रके ये बत्तीस (३२) दोष हैं। વૈશેષિક સિતકાર તેને દ્રવ્યગુણ આદિ પદાર્થથી ભિન્ન પદાર્થ રૂપથી સ્વીકાર કરે છે. આથી તેમના સૂત્રેામાં એ દોષ આવે છે. કારણ કે, આ પ્રકારથી પર્યાયને કદિ ભિન્ન પદાર્થ તરીકે માનવામાં આવે તે પ્રત્યેક પદાર્થની અનંત પર્યાયે છે એ બધામાં અનંત પદાર્થતાની પ્રસિદ્ધિ માનવી જોઈશે. આ પ્રકારે છ ભાવાત્મક પદાર્થ છે, એ કહેવું વિરૂદ્ધ માનવું પડશે. (૩૧) જ્યાં સંધિની પ્રાપ્તિ હોવા છતાં પણ સંધી ન કરવામાં આવે તે સંધી દેાષ બને છે. જેમ “ આ સંયમનું આરાધના કરે છે” આ સ્થાનમાં સંયમારાધન ન કહીને “સંયમ આરાધનં ? सेम डे'. ॥ प्रारे "मुनि एतौ" मा स्थणे मुन्येतौ ४. व्या४२६१ સિદ્ધાંત અનુસાર દ્વિવચનાઃ ઈદન્ત શબ્દની પ્રગૃહ્ય સંજ્ઞા થાય છે. અને એથી સંધી કાર્યને અભાવ થઈ જાય છે. (૩૨) આ પ્રકારે સૂત્રના ૩૨ દેષ છે. ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रियदर्शिनी टीका गा. २३ सूत्रगुणा अष्ट षट् च ___ व्याख्या-निर्दोषम्-अलीकादिदोषवनितम् ॥ १ ॥ सारवत्-भूमिशब्दवद् बहुपर्याययुक्तम् ॥ २॥ हेतुयुक्तं-हेतवः-अन्वयव्यतिरेकलक्षणास्तैर्युक्तम् ॥३॥ अलंकृतम्-उपमोत्प्रेक्षाधलंकारयुक्तम् ॥ ४ ॥ उपनीतम्-उपनयोपसंहृतम् ॥५॥ सोपचारं-ग्राम्यभणितिरहितम् ॥६॥ मितं वर्णादिनियतपरिमाणम् ॥७॥ मधुरं-श्रवणमनोहरम् ॥ ८॥ ___ अब सूत्रके ८ गुण कौन २ से हैं सो कहते हैं-निर्दोष १, सारवत् २, हेतुयुक्त ३, अलंकृत ४, उपनीत ५, सोपचार ६, मित७, एवं मधुर ८, कहा भी है "निदोसं सारवंतं च, हेउजुत्त मलंकियं । उवणीयं सोवायारंच, मियं महुरमेव च ॥१॥ जो सूत्र अलीकादि दोषों से वर्जित होता है वहां निर्दोष यह गुण माना जाता है ॥ १॥ जिस प्रकार भूमि शब्द के अनेक पर्यायवाची शब्द है, उसी प्रकार अनेक पर्यायों से युक्त जो सूत्र होता है वह " सारवत्" इस गुण से विशिष्ट माना जाता है ॥२॥ अन्वय व्यतिरेक लक्षण हेतु से युक्त हो वह हेतुयुक्त नामक तीसरा गुण है ॥३॥ उपमा उत्प्रेक्षा आदि अलंकारों से संपन्न सूत्र को अलंकृत गुण वाला कहा गया है ॥ ४॥ उपनय पूर्वक से उपसंहृत-समाप्ति जो सूत्र होता है वह उपवीतगुणवाला कहा गया है ॥५॥ ग्राम्यभणिति से रहित जो सूत्र होता है अर्थात् जिस सूत्र की भाषा साधारणजनों की भाषा जैसी नहीं होती है वह सूत्र सोपचारगुण से विशिष्ट माना गया है. હવે સૂત્રના આઠ ગુણ કયા કયા છે તે કહે છે-નિર્દોષ, સારવત્ , હેતુયુક્ત, मत, नात, सोपयार, मित, मन मधु२ यु ५४ छ निदोसं सारवंतं च, हेउजुत्त मलंकियं । उवणीयं सोवयारं च, मियं महुरमेवय ॥१॥ જે સૂત્ર અસત્ય અલકાદિ દેથી વજીત હોય છે ત્યાં નિર્દોષ આ ગુણ માનવામાં આવે છે. (૧) જે પ્રકારે ભૂમિ શબ્દ જે અનેક પર્યાયવાચી શબ્દ છે मेरीत मन पर्यायाथी युती सूत्राय छे ते "सारवत्" मा गुथी વિશિષ્ટ માનવામાં આવે છે. (૨) અન્વય વ્યતિરેક લક્ષણ હેતુથી યુકત હોય તે હેતુયુકત નામને ત્રીજો ગુણ છે. (૩) ઉપમા ઉલ્ટેક્ષા આદિ અલંકારોથી સંપન્ન સૂત્રને અલંકૃત ગુણવાળા કહેવામાં આવેલ છે. (૪) ઉપનય પૂર્વકથી ઉપસંહૃત સમાપ્તિ જે સૂત્ર હોય છે તે ઉપવિત ગુણવાળા કહેવાયેલ છે. (૫) ગ્રામ્યભણિ તિથી રહિત જે સૂત્ર હોય છે અર્થાત્ જે સૂત્રની ભાષા સાધારણ જનેની ભાષા જેવી હોતી નથી તે સૂત્ર સેપચાર ગુણથી વિશિષ્ઠ માનવામાં આવેલ છે. (૬) ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ %3 १५८ उत्तराध्ययनसूत्रे केचित्तु सूत्रस्य षड् गुणान् वदन्ति । तद् यथा अप्पक्खरमसंदिद्धं, सारवं विस्सोमुहं । अत्थोभमणवज्जं च, सुत्तं सव्वण्णुभासियं ॥१॥ छाया-अल्पाक्षरमसंदिग्धं, सारवद् विश्वतोमुखम् । अस्तोभमनवा च, मूत्रं सर्वज्ञभाषितम् ॥ १॥ व्याख्या-'अल्पाक्षरम् ' मिताक्षरं, यथा सामायिकसूत्रम् ॥१॥ असंदिग्धम्-सैन्धवशब्दवद् यल्लवण-वसन-तुरगायनेकार्थसंशयकारि न भवति, यथा-अहिंसा ॥२॥ सारवत्वं च पूर्ववत् ॥३॥ 'विश्वतोमुखं' प्रतिमूत्रं चरणानुयोगाधनुयोगचतुष्टयव्याख्याक्षमम् , यथा-' धम्मोमंगल मुकिट्ठ' इत्यादि श्लोके ॥ ६॥ वर्णादिक का जिसमें नियत परिमाण होता है वह मित गुण है ॥७॥ एवं कर्णमनोहर जो होता है वह मधुर गुण संयुक्त सूत्र माना जाता है ॥ ८॥ किन्हीं २ के मतानुसार सूत्र के ६ गुण भी माने गये हैं-वे ये हैं अल्पाक्षर १, असंदिग्ध २, सारयुक्त ३, विश्वतोमुख ४, अस्तोभ ५, अनवद्य ६ । इनमें मित अक्षर जिसमें हो वह अल्पाक्षर गुण है, यह "अल्पाक्षर" प्रथम गुण है । जैसे सामायिक सूत्र ॥१॥ सैन्धव शब्द की तरह जो लवण, वसन, तुरग आदि अनेक अर्थों के बोध का संशयजनक नहीं हो वह "असंदिग्ध" गुण है । जैसे अहिंसा शब्द ॥२॥ भूमि शब्द के समान अनेक पर्यायों से युक्त जो सूत्र वह " सारवत् " तीसरा गुण वाला है ॥३॥ प्रत्येक सूत्र चरणानुयोगादिक अनुयोगचतुष्टय से युक्त है वह “विश्वतोमुख" गुणवाला सूत्र माना जाता है । વર્ણાદિકનું જેમાં નિયત પરિમાણ હોય છે તે મિતગુણ છે. (૭) જે કર્ણ મનહર હોય છે તે મધુરગુણ સંયુક્ત સૂત્ર માનવામાં આવે છે. (૮) કેઈ કેઈન મત અનુસાર સૂત્રના છ ગુણું પણ માનવામાં આવ્યા છે તે પ્રમાણે છે– અલપાક્ષર ૧ અસંદિગ્ધ ૨ સાયુકત ૩ વિશ્વતોમુખ૪ અસ્તાભ ૫ અનવદ્ય ૬ - આમાં મિત અક્ષર જેમાં હોય તે અલ્પાક્ષર ગુણ છે, આ “અલ્પાક્ષર પ્રથમ ગુણ છે, જેમ સામાયિક સૂત્ર (૧) સૈધવ શબ્દની માફક લવણ, વસન, તુરગ આદિ અનેક અર્થોના બધ જેમાં સંશયજનક ન હોય તે “અસંદિગ્ધ” ગુણ છે. જેમ અહિંસા શબ્દ (૨) ભૂમિ શબ્દની માફક અનેક પર્યાયથી યુકત જે સૂત્ર હેય त “सारवत्" alon गुमा छ. (3) प्रत्ये सूत्र यानुयोगा िमनुयोग यतुष्टयथी युक्त छ त “ विश्वतोमुख " गुणवाा सूत्र भानामा मा छे. ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५९ प्रियदर्शिनी टीका गा. २३ सूत्रपर्यायाः १० चत्वारोऽप्यनुयोगा व्याख्यायन्ते॥४॥'अस्तोभकम्,-स्तोभका-निरर्थकतया प्रयुक्ताः, चकार-वा-शब्दादयो निपाताः, वैर्वियुक्तम् ।।५।। 'अनवद्यु'-कामादिपापव्यापाराप्ररूपकम् ॥६॥ एवंभूतं सूत्रं सर्वज्ञभाषितम् । इमे षड़ गुणाः पूर्वोक्तेष्वष्टसु गुणेध्वन्तर्भूताः सन्ति, तथाहि-अल्पाक्षरस्य विश्वतोमुखस्य च मिते समावेशः, असन्दिग्धानवद्यास्तोमानां च निर्दोषेऽन्तर्भावः । एवं सूत्रानुगमे समस्तदोषवर्जिते लक्षणयुक्ते सूत्रे उच्चारिते सति स्वसमयगतजीवाद्यर्थप्रतिपादकस्य स्वसमयपदस्य ज्ञानं भवति तथा परसमयगत-प्रकृतीश्वराद्यर्थप्रतिपादकस्य परसमयपदस्य ज्ञानं भवति । अनयोरेव मध्ये परसमयपदं जैसे " धम्मोमंगलमुकिट्ठ" यह सूत्र है । इस मूत्र में चारों ही अनुयोग का व्याख्यान है ॥४॥ जिस सूत्र में चकार, वकार आदि निरर्थक शब्दों का प्रयोग नहीं किया जाता है वह सूत्र “अस्तोभ" गुण वाला माना गया है ॥ ५॥ जिस स्त्र द्वारा कामादिक व्यापारों की प्ररूपणा नहीं की जाती है वह सूत्र "अनवद्य" गुण संपन्न है ।।६॥ सूत्र इसी प्रकार का होना चाहिये, इससे विपरीत नहीं, ऐसा प्रभु का आदेश है। ये छह गुण पूर्वोक्त अष्टगुणों में अन्तर्भूत समझना चाहिये । अल्पाक्षर एवं विश्वतोमुख, इन दो गुणों का अन्तर्भाव “मित" इस गुण में तथा असंदिग्ध, अनवद्य एवं अस्तोभइन गुणों का अन्तर्भाव “निर्दोष" इस गुण में हुआ है। इस प्रकार समस्तदोषवर्जित, एवं लक्षणयुक्त सूत्र के उच्चारित होने पर जीवादिक अर्थ के प्रतिपादक स्वसमय-पद का ज्ञान तथा पर समयानुसार प्रकृति ईश्वर आदिक अर्थ के प्रतिपादक परसमय-पद का रेम-"धश्मो मंगलमक्किट्ठं" ॥ सूत्र के मामा यारे अनुयोगन વ્યાખ્યાન છે. ચકાર, વકાર આદિ વ્યાખ્યાન છે આદિ નિરર્થક શબ્દનો પ્રયોગ નથી કરવામાં આવ્યું તે સૂત્ર અસ્તભ ગુણવાળા મનાયેલ છે. (૫) જે સૂત્રદ્વાર કામાદિક વ્યાપારની પ્રરૂપણા કરવામાં નથી આવતી તે સૂત્ર અનવદ્ય ગુણસંપન્ન છે. (૯)સૂત્ર આવા પ્રકારનું હોવું જોઈએ એનાથી વિપરીત નહીં એ પ્રભુને આદેશ છે. આ છ ગુણ પૂર્વોક્ત આઠ ગુણમાં અન્તભ્રંત સમજવા જોઈએ. અપાર તેમજ વિશ્વમુખ આ બે ગુણેને અન્તર્ભાવ “મિત ” આ ગુણમાં તથા અસંદિધ, અનવદ્ય અને અસ્તભ ગુણેને અન્તર્ભાવ “નિર્દોષ” આ ગુણમાં થયેલ છે. આ પ્રકાર સમસ્ત દેષ વજીત, અને લક્ષણયુક્ત સૂત્રના ઉચ્ચારિત હોવાથી જીવાદિક અર્થના પ્રતિપાદક સ્વસમય પદનું જ્ઞાન તથા પર સમયાનુસાર પ્રકૃતિ, ઈશ્વર આદિક અર્થના પ્રતિપાદક પરસમયપદનું જ્ઞાન થાય છે. ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययनसूत्रे कुवासनाजनकत्वाद् बन्धपदम् , स्वसमयपदं तु-सद्बोधकारणत्वान्मोक्षपदमिति बोध्यम् । इति तृतीयं द्वारम् । अथ सूत्रपर्यायनामकं चतुर्थं द्वारम् :सुयसुत्तगंथसिद्धं-त, सासणे आण वयण उवएसो । पण्णवणा मा गमइय, एगट्ठा पज्जवा मुत्ते ॥ १॥ श्रुतम् , सूत्रम् , ग्रन्थः, सिद्धान्तः, शासनम् , आज्ञा, वचनम् , उपदेशः, प्रज्ञापना, आगमः, इति दश पर्यायाः एकार्थाः। ॥ इति चतुर्थ द्वारम् ॥ अथ सूत्र भेद नामकं पञ्चमं द्वारम्सूत्रं नाम श्रुतज्ञानमित्युक्तम्, तत् खलु मूलभेदापेक्षया द्विभेदम् , अङ्गप्रविष्टम् , अङ्गबाह्यं च । तथा चोक्तम्ज्ञान होता है। कुवासना का जनक होने से परसमयपद् बन्धपद है एवं सद्बोध का कारण होने से स्वसमय-पद मोक्षपद है। ॥इस प्रकार तीसरा द्वार सम्पूर्ण हुआ ॥ ३ ॥ अब चौथा द्वार कहते हैंश्रुत, सूत्र, ग्रन्थ, सिद्धान्त, शासन, आज्ञा, वचन, उपदेश, प्रज्ञापना आगम, ये सब सूत्र के पर्यायवाची शब्द-नामान्तर हैंकहा भी है-“सुयसुत्तगंथसिद्धंत सासणे आण वयण उवएसो। पण्णवणा-मागम इय, एगट्ठा पज्जवा सुत्ते ॥१॥ ॥ चौथा द्वार संपूर्ण ॥४॥ કુવાસનાના જનક હોવાથી પરસમયપદ બન્ધ પદ અને સાધના કારણરૂપ હેવાથી સ્વસમયપદ મોક્ષપદ છે. આ પ્રકારથી ત્રીજું દ્વાર સંપૂર્ણ થયું. હવે સૂત્રભેદ નામનું ચોથું દ્વાર કહે છે – श्रुत, सूत्र, ग्रन्थ, सिद्धांत, साशन, माज्ञा, क्यन, पहेश, प्रज्ञापन, આગમ, આ બધા સૂત્રના પર્યાયવાચી શબ્દ–નામાન્તર છે, કહ્યું પણ છે– सुयसुत्तगंथसिद्धंत, सासणे आण वयण उवएसो। पण्णवणा-मागम इय एगठा पज्जवा सुत्ते ॥ १ ॥ છે ચોથું દ્વાર સંપૂર્ણ છે ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रियदर्शिनी टीका अ० १ गा. २३ सूत्रमेदाः सूत्रोच्चारणविधिश्च १६१ " सुयनाणे दुविहे पण्णत्ते, तं जहा - अंगपविट्ठे चेव, अंगबाहिरे चे " । स्था० २ ठा० १ अङ्गप्रविष्टं द्वादशभेदम् - आचारादिभेदात्, तत्र दृष्टिवादवजे सर्व कालिकम्, दृष्टिवादसूत्रं तूत्कालिकम् । तत्र यद् दिवसस्य प्रथमपश्चिमपौरुषीद्वये रात्रेश्व प्रथमपश्चिमपौरुषीद्वय एव पठ्यते, तत् कालिकम् । यत्तु कालवेलावर्ज पठ्यते तदुत्कालिकम् । अङ्गबा द्विविधम् आवश्यकं तद् व्यतिरिक्तं च । तत्रावश्यक मुत्कालिकं तच्च - षड़विधम् - सामायिकं १ चतुर्विंशतिस्तवः २, वन्दनकं ३, प्रतिक्रमणं ४, कायोत्सर्गः ५, प्रत्याख्यानं ६ च । , अब सूत्र भेदनाम के पांचवा द्वार कहते हैं यह कहा ही जा चुका है कि सूत्र का दूसरा नाम श्रुतज्ञान भी है, अतः यह मूलभेद की अपेक्षा से दो भेदवाला है - १ अङ्गप्रविष्ट २ अंगबाह्य । कहा भी है- " सुयणाणे दुबिहे पगन्ते तं जहा अंगपविठे चैव अंगबाहिरे चेव " इनमें अंगप्रविष्ट श्रुतज्ञान के १२ भेद हैं- आचारांग से लेकर दृष्टिवाद तक | उनमें दृष्टिवाद को छोड़कर बाकी सब कालिक हैं। efear उत्कालिक है । जो सूत्र दिवस के पथम पश्चिम पौरुषीद्वय में तथा रात्रि के प्रथम पश्चिम पौरुषीद्वय में ही पढा जाता है वह सूत्र कालिक जानना चाहिये । जो सूत्र अकाल के समय को छोड़ कर पढ़ा जाता है वह उत्कालिक है । अंगबाह्य श्रुतज्ञान भी आवश्यक एवं तद्व्यतिरिक्त के भेद से दो प्रकार का है । इनमें आवश्यक सूत्र उत्कालिक है, और वह ६ प्रकार का है जैसे- सामायिक १, चतुर्विंशतिस्तव २, वन्दनक ३, प्रतिक्रमण ४, कायोत्सर्ग ५, एवं प्रत्याख्यान ६ । कालिक, उत्कालिक के भेद હવે સૂત્રભેદ નામનુ પાંચમુ દ્વાર કહે છેઃ— એ કહેવાઈ ગયું છે કે, સૂત્રનું ખીજું નામ શ્રુતજ્ઞાન પણ છે. આથી તે મૂળ ભેદની અપેક્ષાએ એ ભેદવાળુ છે અંગ પ્રષ્ટિ ને ૧ અગબાહ્ય ૨. કહ્યું પણ सुया दुवि पण्णत्ते तं जहा - अंगपविट्ठे चेव अंगबाहिरे चेव तेमां ग પ્રવિષ્ટ શ્રુતજ્ઞાનના ૧૨ ભેદ છે. આચારાંગથી લઇને દૃષ્ટીવાદ સુધી. એમાં દષ્ટીવાદને છેડીને ખાકી બધા કાલીક છે. દૃષ્ટીવાદ ઉત્કાલિક છે, જે સૂત્ર દિવસના પ્રથમ અને પશ્ચિમ એ પૌરૂષીમાં તથા રાત્રીના પ્રથમ અને પશ્ચિમ એ પૌરૂષીમાંજ વાંચી શકાય છે, તે સૂત્રને કાલીક જાણવાં જોઈએ. જે સૂત્રને અકાલના સમયને છેડી વાંચી શકાય છે તે ઉત્કાલિક છે. અંગમાહ્ય શ્રુતજ્ઞાન પણ આવશ્યક અને તદૃશ્યતિરિક્તના ભેદથી એ પ્રકારે છે. એમાં આવશ્યક સૂત્ર ઉત્કાલિક છે, અને તે છ अहारनु छे, नेम सामयिक १, यतुर्विंशतिस्तव २, वहन 3, प्रतिभा ४, उ० २१ ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર ઃ ૧ Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययन सूत्रे आवश्यकव्यतिरिक्तं द्विविधम् - कालिकम्, उत्कालिकं च । तत्र -जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिचन्द्र प्रज्ञप्तिर्निरयावलिकादीनि च पञ्च सूत्राणीति सप्तोपाङ्गानि, व्यवहारादीनि चत्वारि छेदसूत्राणि, मूलसूत्रेषु - उत्तराध्ययनं समुत्थानसूत्रं च । एतत् सर्वे कालिकम् । उत्कालिकं तु दशवैकालिकसूत्रं नन्दीसूत्रम्, अनुयोगद्वारसूत्रं च एतत्त्रयं मूलमूत्रम्, औपपातिकं राजप्रश्नीयं जीवाभिगमः प्रज्ञापना सूर्यप्रज्ञप्तिरिति पञ्चोपाङ्गानि च । ॥ इति पञ्चमद्वारम् ॥ अथ सूत्रोच्चारणविधिनामकं षष्ठं द्वारम् - सुविनीतेन शिष्येण सूत्रं गुरुसंनिधौ ग्रहीतव्यम् । यथा - द्वासप्ततिकलापण्डितो मनुष्यः प्रसृप्तः सन् तासां कलानां न किंचित् जानाति, एवमर्थेनाबोधिते सूत्रे न से तद्व्यतिरिक्त दो प्रकार का है। जम्बुद्वीपप्रज्ञप्ति, चन्द्रप्रज्ञप्ति और निरयावलिका आदि पाँच सूत्र ये सातों उपांग, व्यवहार आदिक चार छेद सूत्र, मूलसूत्रों में उत्तराध्ययन, और समुत्थानसूत्र, ये सब कालिक है । दशवैकालिक, नन्दीसूत्र और अनुयोगद्वार ये तीनों मूलसूत्र, तथाऔपपातिक, राजप्रश्नीय, जीवाभिगम, प्रज्ञापना और सूर्यप्रज्ञप्ति ये पाँचों उपांग उत्कालिक हैं । || पांचवा द्वार संपूर्ण ॥ १६२ अब छट्ठे द्वार में सूत्र के उच्चारण की विधि कहते हैं सुविनीत शिष्य को सूत्र का अध्ययन गुरु महाराज के समीप करना चाहिये । जिस प्रकार ७२ कलाओं का ज्ञाता मनुष्य प्रसुप्त अवस्था में उन कलाओं के अर्थविशेष को नही जानता है, उसी प्रकार કાયાત્સગ ૫, અને પ્રત્યાખ્યાન ૬. કાલિક, ઉત્કાલિકના ભેદથી તદ્ભવ્યતિરિક્ત એ પ્રકારે છે. જમ્મૂદ્વિપપ્રજ્ઞપ્તિ, ચંદ્રપ્રજ્ઞપ્તિ અને નિરયાવલિકા આદિ પાંચ તથા વ્યવહારદિક ચાર સૂત્ર-એ સાતે ઉપાંગ, વ્યવહાર આદિક ચ!ર છેઃ સૂત્ર, મૂળસૂત્રામાં ઉત્તરાધ્યયન અને સમ્રુત્થાન સૂત્ર એ બધાં કાલિક છે. દશવૈકાલિક નંદિસૂત્ર અને અનુયાગદ્વાર આ ત્રણે મૂળસૂત્ર તથા-ઔપાતિક, રાજપ્રશ્નીય, જીવાભિગમ, પ્રજ્ઞાપના અને સૂર્ય પ્રકૃતિ આ પાંચે ઉપાંગ ઉત્કાલિક છે. ૫ પાંચમું દ્વાર સંપૂર્ણતા હવે છઠ્ઠા દ્વારમાં સૂત્રના ઉચ્ચારણની વિધિ કહે છે— સુવિનીત શિષ્યે સૂત્રનુ' અધ્યયન ગુરુ મહારાજની સમીપ કરવું જોઇએ, જે પ્રકાર ૭૨ કળાઓના જ્ઞાતા મનુષ્ય પ્રસુપ્ત અવસ્થામાં એ કળાઓના અર્થ વિશેષને નથી જાણતા એ જ રીતે સૂત્રને અથ જો જાણેલ ન હોય તેા વાંચનાર ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર ઃ ૧ Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रियदर्शिनी टीका अ० १ गा. २३ सूत्रोच्चारणविधिः किंचिदर्थविशेषं जानाति, यदा तु गुरुणाऽर्थेन सह सूत्रं प्रबोधितं भवति, तदा शिष्यस्तदन्तर्गतानां सर्वेषां भावानां ज्ञाता भवति, यथा स एव कलाऽभिज्ञः पुरुषः प्रबोधितः सन् सर्वासां कलानां ज्ञाता भवति, अतः सूत्रं गुरुसंनिधानं विना प्रसुप्तसमं भवति, तस्मात् सूत्रं गुरुसंनिधौ श्रुत्वा पठनीयम् । किंच-गुरुसंनिधानाभावे सूत्रोच्चारणं स्खलितादिदोषदुष्टं स्यात्। तथा सति प्रायश्चित्तम् , अज्ञानं, मिथ्यात्वं, आत्मविराधना, संयमविराधनादयो दोषा भवन्ति तस्माद् गुरुसंनिधौ सूत्रमुच्चारणीयम् । सूत्र का अर्थ यदि ज्ञात न हो तो पढने वाला व्यक्ति उसके महत्त्व को नहीं जान सकता है । जिस समय शिष्य गुरु महाराज के पास अर्थसहित सूत्र का अध्ययन करता है, अथवा गुरु महाराज शिष्य को अर्थसहित सूत्र पढा देते हैं उस समय शिष्य उसके अन्तर्गत समस्त भावों का ज्ञाता हो जाता है। जिस प्रकार ७२ कला के जानने वाला पुरुष जगने पर समस्त कलाओं का ज्ञाता होता है । इसलिये सूत्र गुरु महाराज के समीप सुनकर ही पढ़ना चाहिये, क्यों कि विना गुरु महाराज के पठित सूत्र कलानिपुण सोया हुआ पुरुष जैसा माना जाता है, पढ़ने वाले को उससे अर्थविशेष की प्राप्ति नहीं हो सकती है। किञ्च-गुरुमुखसे यदि सूत्र का अध्ययन न किया जाय तो सूत्र के यथावत् उच्चारण करने में स्खलना आदि दोषों का सद्भाव हो सकता है। इससे अध्ययन करने वालों को लाभ के स्थान में प्रायश्चित्त का भागी होना पड़ता है । अज्ञान, मिथ्यात्व, आत्मविराधना एवं संयम की विराधना आदि दोषों का भाजन भी बनना पड़ता है। इसलिये गुरु महाराज के વ્યક્તિ તેના મહત્વને જાણી શકતા નથી. જે સમયે શિષ્ય ગુરુમહારાજની પાસે અર્થ સહિત સૂત્રનું અધ્યયન કરે છે અથવા ગુરુ મહારાજ શિષ્યને અર્થ સહિત સૂત્ર ભણાવી દે છે, તે સમયે શિષ્ય તેના અંતર્ગત સમસ્ત ભાવેને જ્ઞાતા બની જાય છે. જે પ્રકારે ૭૨ કળાને જાણવાવાળા પુરુષ જાગવાથી સમસ્ત કળાઓના જ્ઞાતા બને છે. આ માટે સૂત્ર ગુરુ મહારાજની સમીપ સાંભળીને ભણવું જોઈએ. કેમ કે ગુરુ મહારાજ વગર ભણવામાં આવેલ સૂત્ર કળા નિપૂણે સુતેલા પુરૂષ જેવું માનવામાં આવે છે. ભણવાવાળાને એનાથી અર્થ વિશેષની પ્રાપ્તિ થતી નથી. કિચ ફરી–ગુરુ મુખથી સૂત્રનું અધ્યયન કદાચ ન કરવામાં આવે તે, સૂત્રનું યથાવત્ ઉચ્ચારણ કરવામાં ખલના આદિ દોષને સદ્દભાવ બને છે. એથી અધ્યયન કરવાવાળાએ લાભના સ્થાનમાં પ્રાયશ્ચિત્તના ભાગી બનવું પડે છે. અજ્ઞાન, મિથ્યાત્વ, આત્મવિરાધના અને સંયમની વિરાધના આદિ દોષોના ભાજન ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययन सूत्रे अथोच्चारणदोषाः स्खलितादयो दश प्रोच्यन्ते - स्खलितम् १, मिलितम् २, व्याविद्धाक्षरम् ३, हीनाक्षरम् ४, अधिकाक्षरम् ५, व्यत्याग्रेडितम् ६, अपरिपूर्णम् ७, अपरिपूर्णघोषम् ८, अकण्ठोष्ठविप्रमुक्तं ९, अगुरुवाचनोपगतम् १०, इति । तत्र१ स्खलितम् - यद् अन्तराऽन्तरा आलापकान् मुञ्चति, यथा- " अहिंसा " देवा वितं नमसंति "। K २ मिलितम् - यद् अन्यस्यान्यस्योद्देशकस्याध्ययनस्य वा आलापकान एकत्र मीलयति ' सर्व जिनवचनम् ' इति कृत्वा, यथा-" सव्वे पाणा पियाउया " ( सर्वे प्राणाः प्रियायुष्काः ) ( आचा. १ श्रु. २ अ. ३ उ. ) " सव्वे जीवा वि इच्छंति जीविउँ न मरिज्जिउं" (सर्वे जीवा अपि इच्छन्ति जीवितुं न मर्त्तुम् ) दश. वै. ६ अ. । समीप ही सूत्र का अध्ययन या उसका उच्चारण करना सीखना चाहिये । उच्चारण के कितने दोष हैं यह अब प्रकट किया जाता है - स्खलित १, मिलित २, व्याविद्धाक्षर ३, होनाक्षर ४, अधिकाक्षर ५, व्यत्याम्रेडित ६, अपरिपूर्ण ७, अपरिपूर्णघोष ८, अकण्ठोष्ठविप्रमुक्त ९, एवं अगुरुवाचनोपगत १०, ये १० दोष उच्चारण संबंधी हैं। स्खलित-बीच २ में रुक २ कर सूत्र का बोलना यह स्खलित दोष है, जैसे-अहिंसा, देवा वितं नमं संति इत्यादि ॥१॥ मिलित-जहां अन्य २ उद्देशक अथवा अध्ययन के आलापकों को एकत्र मिला दिया जाता है वहां मिलित दोष होता है, जैसे- " सर्व जिनवचनं " ऐसा ख्यालकर सव्वे पाणा पियाउया " " सव्वे जीवा वि इच्छति जीवितं न मरिजिडं " इन सब को एक साथ ही बोल देना । इन सब के एक साथ बोलने में मिलित दोष इसलिये आता है कि 46 પણ બનવું પડે છે. માટે ગુરુ મહારાજ સમીપજ સૂત્રનું અધ્યયન અગર તેનું ઉચ્ચારણ કરવું—સીખવુ જોઇએ ઉચ્ચારના કેટલા દોષ છે તે હવે પ્રગટ કરવામાં यावे छे. (१) स्मलित, (२) भिसित, (3) व्याविद्धाक्षर, (४) हीनाक्षर, (५) अधिडाक्षर, (६) व्यत्याग्रेडित, (७) अपरिपूर्ण, (८) परिपूर्ण घोष, (८) अ ठोष्ठविप्रभुक्त, અને (૧૦) અગુરુવાચને પગત આ દસ દેષા ઉચ્ચારણ સંબંધી છે. સ્ખલિત–વચમાં વચમાં રોકાઈને સૂત્રનું મેલવું તે સ્ખલિત દોષ છે. - अहिंसा देवा वि तं नमं संति छत्याहि ! (१) भिक्षित-नयां अन्य अन्य ઉદ્દેશક અથવા અધ્યયનના આલાપાને એકત્ર મેળવી અપાય છે ત્યાં મિલિત દોષ थाय छे नभ " सर्व जिन वचनं " थेवेो म्याद री "सव्वे पाणा पिआउगा सव्वे जीवा वि इच्छंति जीविउ न मरिज्जिउ मा अधाने भेठ साथै ४ ખાલવું. આ મધાને એક સાથે ખેલવામાં મિલિત દોષ એ માટે આવે છે કે, ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર ઃ ૧ Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रियदर्शिनी टीका अ० १ गा. २३ सूत्रोच्चारणदोषाः १६५ अत्र न ज्ञायते सकलसाधारणश्रोतृभिः, यदिदं कालिकमुत्कालिकं वा । यथा बा - सामायिकपदे दशवैका लिकोत्तराध्यनप्रभृतीनामनेकानि पदानि मीलयति । ३ व्याविद्धाक्षरम् - व्या विद्धाक्षरं विपर्यस्तरत्नमालागतरत्नानीव विद्धानि विपर्यस्तान्यक्षराणि यत्र तत् । यथा-'धम्मो मंगल' इत्यत्र 'लगमंम्मोध' इत्युच्चारणम् । ४ हीनाक्षरम् - अक्षरैर्हीनम् । यथा - 'नमो अरिहंताणं' इत्यत्र 'नमो अरिहंता' इत्युच्चारणम् । ५ अधिकाक्षरं - स्वबुद्धधाऽधिकाक्षरयोजनं यत्र तत् । यथा - 'धम्मो मंगल मुकि ' अत्र - ' धम्मो मंगलमुकिटुं नरगं ' इत्युच्चारणम् । हीनाक्षरे अधिकाक्षरे वा सर्वसाधारण श्रोताजन यह नहीं समझ सकते कि यह कालिक है अथवा उत्कालिक है । अथवा जो उच्चारण सामायिक पद में दशवैकालिक उत्तराध्ययन आदिके अनेक पदों को मिला देता है वहां पर भी यह दोष होता है || २ || व्याविद्धाक्षरम् - जिस उच्चारण में उल्टे उलटे कर अक्षर बोले जावें वहां व्याविद्धाक्षर नामका दोष होता है-जैसेधम्मो मंगलं ऐसा न बोलकर "लंगमं म्मोध" ऐसा उच्चारण करना ॥ ३ ॥ हीनाक्षरम् - जैसा सूत्र हो वैसा उच्चारण न करना - हीनाक्षर दोष है । जैसे - " णमो अरिहंताणं" की जगह " णमो अरिहंता" ऐसा बोलना ॥४॥ अधिकाक्षर - जिस उच्चारण में अधिक अक्षर उच्चरित हों वहां अधिकाक्षर नामका दोष जानना चाहिये, जैसे- धम्मो मंगलमुक्कि " बोलते समय धम्मो मंगलमुक्कडं नरगं " ऐसा अधिक " नरगं " अक्षर का उच्चारण करना । हीनाक्षर एवं अधिकाक्षर, ये दोनों दोष उच्चारण के સર્વ સાધારણ શ્રોતાજન એ નથી સમજી શકતા કે, આ કાલિક છે કે ઉત્કાલીક છે. જે ઉચ્ચારણ સામાયિક પત્તમાં દસ વૈકાલિક ઉત્તરાધ્યયન આદિના અનેક પદોને મેળવી દે છે ત્યાં પણ આ દોષ થાય છે. (૨) (૨) વ્યાવિદ્ધાક્ષરમૂ—જે ઉચ્ચારણમાં ઉલ્ટાવી ઉલ્ટાવીને અક્ષર ખેલવામાં આવે ત્યાં ‘વ્યાવિદ્ધાક્ષર' નામના દોષ મને છે. જેમ ધમ્મોમ હું એવુ ન મેલીને लंगमम्मोध मे उभ्या ४२. (૩) હીનાક્ષરમૂ—જેવાં સૂત્ર હોય તે પ્રમાણે ઉચ્ચારણ ન કરવું અર્થાત્ भोछा अक्षरोथी उभ्यारण ४२५ - ' डीनाक्षर' होष छे, प्रेम-" ण्मो अरिहंताणं " नी ज्या " णमो अरिहंता" मेवु मोसवु. (૪) અધિકાક્ષરો ઉચ્ચારણમાં વધુ અક્ષર ઉચ્ચારવામાં આવે ત્યાં अधिठाक्षर नामनो होष भगवो लेह मे. प्रेम " धम्मो मंगल मुक्तिट्ठ " मोती वमते " धम्मो मंगल मुकिडं नरगं " शुभ " नरगं ” मा वधाराना અક્ષરનું ઉચ્ચારણ કરવું. હીનાક્ષર અને અધિકાક્ષર આ બન્ને દોષ ઉચ્ચારણમાં ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર ઃ ૧ Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६६ उत्तराध्ययसूत्रे उच्चारिते सति - अर्थस्य विसंवादः, अर्थस्य विसंवादे चरणस्य विसंवादः, चरणविसंवादान मोक्षः, मोक्षाभावे सर्वा दीक्षा निरर्थिका । ६ व्यत्याम्रेडितं -- नाम अन्यान्यशास्त्रपल्लवविमिश्रणं, यथा- ' सव्वभूयप्पभूयस्स सम्मं भूयाई पासओ । पिहियासवस्स दंतस्स, पावकम्मं न बंधई ॥ अत्रेदमपि - घटते इति कृत्वा क्षिपति - अन्यशास्त्रवचनम् - " श्रूयतां धर्मसर्वस्वं श्रुत्वा चैवावधार्यताम् । आत्मनः प्रतिकूलानि परेषां न समाचरेत् ॥ इसलिये माने जाते हैं कि सूत्र में होनाक्षर अथवा अधिकाक्षर उच्चरित होने पर उसके अर्थ में विसंवाद (विपरीतता ) होता है। अर्थ में विसंवाद जहां हुआ कि चरण - आचार - चारित्र में भी विसंवाद होने लगता है । इससे मोक्ष का लाभ नहीं हो सकता । मोक्ष के अभाव में समस्त दीक्षा निरर्थक हो जाती है ॥ ५ ॥ व्यत्याम्रेडित- भिन्न २ शास्त्रों के पल्लव (अंश) का जिस उच्चारण में मिश्रण होता है वहां व्यत्याम्रेडित दोष माना जाता है । जैसे - " सव्वभूयप्पभूयस्स सम्मं भूयाई पासओ । पिहिया सवस्स दंतस्स पावकम्मं न बंधइ " यहां यह भी घटित होता है ऐसा समझकर अन्य शास्त्र का वचन मिलाना, जैसेश्रूयतां धर्मसर्वस्वं श्रुत्वा चैवावधार्यताम् || आत्मनः प्रतिकूलानि परेषां न समाचरेत् ॥ १ ॥ " महाभारत के इस वाक्य को मिश्रित करना। यह व्यत्ययाम्रेडित दोष इस लिये माना गया है कि उच्चारण करने वाला द्रव्य एवं भाव से जब सूत्र એ માટે માનવામાં આવેલ છે કે સૂત્રમાં હીનાક્ષર અથવા અધિકાક્ષર ઉચ્ચારવાથી એના અર્થમાં વિસંવાદ થાય છે. વિપરીત અર્થમાં વિસંવાદ જ્યાં થયા કે, ચરણુ-આચાર ચારિત્રમાં પણ વિસંવાદ થવા લાગે છે એથી માક્ષના લાભ થઇ શકતા નથી. મેાક્ષના અભાવથી સમસ્ત દીક્ષા નિરર્થક થઈ જાય છે. 66 (૫) વ્યત્યાÀડિત જુદા જુદા શાઓના પલ્લવનું જે ઉચ્ચારણમાં મિશ્રણ थाय छे त्यां “व्यत्याग्रेडित " होष मानवामां आवे छे. भ सव्वभूयप्पभूयस्स सम्मं भूयाई पासओ " " पिहिया सवस्स दंतस्स पावकम्मं न बंधई " अहिं थे પણ ઘટિત થાય છે એમ સમજી બીજા શાસ્ત્રનું વચન મેળવવું જેમ—— " श्रूयतां धर्म सर्वस्वं श्रुत्वा चैवावधार्यतां ॥ आत्मनः प्रतिकूलानि परेषां न समाचरेत् ॥ १ ॥ - મહાભારતના આ વાક્યને મેળવવું, આ " व्यत्ययाम्रेडित " होष એ માટે માનવામાં આવેલ છે કે, ઉચ્ચારણ કરવાવાળા દ્રવ્ય અને ભાવથી જ્યારે સૂત્રમાં વ્યત્યાયામ્રડિત થવાથી એના અર્થમાં સ્વભાવતઃ ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર ઃ ૧ Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नयपदेशप्रयदर्शिनी टीका अ० १ गा. २३ सूत्रोच्चारणदोषाः १६७ द्रव्यभावतो व्यत्यानेडितं सूत्रे कुर्वतोऽर्थस्य विसंवादः इत्यादि विवक्षा मागिव, यया दीक्षा निरर्थिका । ७ अपरिपूर्ण-मात्राभिः, पदै श्चरणै बिन्दुभि वर्णैश्च । मात्राभिरपरिपूर्ण 'धम्म मंगलमुकिलु' । पदैरपरिपूर्ण-यथा-" धम्म उकिष्टुं "। चरणैरपरिपूर्ण-यथा'धम्मो मंगलमुक्किट्ठ' इत्यादि गाथायां कमपि चरणं परित्यज्य पठनम् । बिन्दुभिरपरिपूर्ण-यथा 'धम्मो मगलमुकिलु" इति । वर्णैरपरिपूर्ण यथा-'धम्मो ल उकिटं' इत्यादि । मात्राभिः पदैश्चरणैविन्दुभिर्वर्णैरपरिपूर्णे उच्चारिते तदेव प्रायश्चित्तं त एव दोषाश्च भवन्ति । में व्यत्यानेडित कर देता है तब उसके अर्थ में स्वभावतः विसंवाद होने लगता है और इससे जो हानि होती है यह अधिकाक्षर तथा हीनाक्षर के दोष के स्वरूपनिरूपण में बता चुके हैं॥६॥अपरिपूर्ण-जहां मात्राओं से, पदों से, चरणों से, बिन्दुओं से, वर्णो से अपरिपूर्णता होती है वहां अपरिपूर्ण दोष माना जाता है, जैसे " धम्मो मंगलमुक्किटं" की जगह "धम्ममंगलमुक्किट्ठ" इस प्रकार " ओकार" की मात्रा हीन कर पढना। "धम्म उकिट" ऐसा मंगलपद हीन कर पढना। किसी चरण कोपाद को-हीन कर पढना, किसी बिन्दु को हीन कर पढना, किसी वर्ण को हीन कर पढना सो क्रमशः मात्रा आदिकों से अपरिपूर्ण दोष माना गया है । इस प्रकार के उच्चारण करने पर एक तो आगम की आशातना होने से प्रायश्चित का भागी होना पड़ता है दूसरे विसंवादादि अनेक अनर्थ उत्पन्न हो जाते हैं। इससे जीव को मुक्ति का लाभ नहीं हो सकता है। तथा दीक्षा में निरर्थकता की प्रसक्ति का प्रसंग प्राप्त होता है ॥ ७॥ વિસંવાદ થવા લાગે છે અને એથી જે હાની થાય છે તે અધિકાક્ષર તથા હિનાક્ષરના દેશના નિરૂપણમાં બતાવવામાં આવેલ છે. (6) अपरिपूण न्यो मात्रामाथी पहोथी, यशोथी, मिन्दुमाथी, વર્ણથી, અપરિપૂર્ણતા હોય છે ત્યાં “અપરિપૂર્ણ ” દોષ માનવામાં આવે છે. “धम्मो मंगल मुक्किठें" नया धम्ममंगलमुक्किळं २॥ शत, ओकारनी मात्रा डीन ४३ वांयj, “ घम्म उक्किळं "म मत ५४ हीन ४२ वाय, કઈ વર્ણને હીન કરી વાંચવું તે ત્રઃ માત્રા આદિથી અપરિપૂર્ણ દોષ માનવામાં આવેલ છે. આ પ્રકારનું ઉચ્ચારણ કરવાથી એક તે આગમની આશાતના થવાથી પ્રાયશ્ચિત્તના ભાગી થવું પડે છે બીજું વિસંવાદાદિ ઘણુ અનર્થ ઉત્પન્ન થાય છે, આથી જીવને મુક્તિને લાભ મળી શકતું નથી. આથી દીક્ષામાં નિરર્થકતાની પ્રશક્તિનો પ્રસંગ પ્રાપ્ત થાય છે. ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६८ उत्तराध्ययनसूत्रे ८ अपरिपूर्णघोषम्-घोषेरेवापरिपूर्ण नाक्षरादिभिः, घोषा-उदानादयः । तत्र-उच्चैरुदात्तः, नीचैरनुदात्तः, समाहारः स्वरितः। उच्चैःशब्देन यथा-" उप्प. न्नेइ वा विगमेइ वा, धुवेइ वा " इत्यादि । नीचैःशब्देन यथा-"जे भिक्खू वा भिक्खुणी वा" इत्यादि । अत्र घोरयुक्तमुच्चारणं कुर्वतस्तदेव प्रायश्चित्तं त एव च दोषाः। ९ अकण्ठोष्टविमुक्तम्-कण्ठोष्ठेन विषमुक्त-व्यक्तं-सुस्पष्टं यन्न भवति, बालमुकभाषितवदव्यक्तमित्यर्थः । १० अगुरुवाचनोपगतम् , गुरुपदत्तया वाचनया यन्न प्राप्तं तत् ॥ ॥ इति षष्ठं द्वारम् ॥ अपरिपूर्णघोष-घोषों से अर्थात्-उदात्तादिक स्वरों से-जो अपरिपूर्ण होता है वहां अपरिपूर्णघोष नाम का दोष आता है । जो ऊँचे स्वर से बोला जाय उसका नाम उदात्त, नीचे स्वर से जो बोला जाय उसका नाम अनुदात्त, तथा जोन अधिक ऊँचे स्वर और न अधिक नीचे स्वर से किन्तु मध्यम स्वर से बोला जाय उसका नाम स्वरित है। जैसे-" उप्पन्नेह वा, विगमेइ वा, धुवेइ वा," इत्यादि ऊँचे स्वर से बोले जाते हैं। नीचे स्वर से जैसे-“जे भिक्खू वा भिक्खुणी वा" इत्यादि सूत्र नीचे स्वर से बोला जाता है । इस को दोष इसलिये माना है कि घोषों से अयुक्त उच्चारण करने वाले को आगम की आशातनाजन्य दोष का भागी होने से प्रायश्चित्त का भागी होना पड़ता है ॥ ८॥ अकण्ठोष्ठविप्रमुक्तबालमूकादिक के बोलने की तरह जो उच्चारण व्यक्त-स्पष्ट नहीं होता है वह अकण्ठोष्ठविप्रमुक्त दोष है ॥९॥ अगुरुवाचनोपगतदोष-गुरुप्रदत्त (७) अ५२५धिोप-धाषाथी-मर्थात् हात्त स्वराथी-२ अपरि. પૂર્ણ હોય છે, ત્યાં “અપરિપૂર્ણ ઘોષ' નામને દોષ લાગે છે, જે ઉંચા સ્વરથી લાય તેનું નામ ઉદાત્ત, નીચા સ્વરથી બેલાય એનું નામ અનુદાત્ત તથા જે ન તે ઘણુ ઉંચા સ્વરથી કે ન તે ઘણું નીચા સ્વરથી પરંતુ મધ્યમ स्वरथी मोवाय मेनु नाम स्वरित छ.भ-" उत्पन्नेइ वा, विगमेइ वा, धुवइ वा," त्याय २१२थी मोसाय छे. नीया शन्थीभ-"जेभिक्खू वा भिक्खुणी वा" ઇત્યાદિ સૂત્ર નીચા સ્વરથી બોલાય છે. આને દોષ એ માટે માનવામાં આવેલ છે કે, ષોથી અયુક્ત ઉચ્ચારણ કરવાવાળાએ આગમની આશાતના જન્ય દોષના ભાગી બનવાથી પ્રાયશ્ચિતના ભાગી બનવું પડે છે. (૮) અકઠોઠ વિપ્રમુક્ત–બાલ મૂકાદિકના બેલવાની રીતે જે ઉચ્ચારણ સ્પષ્ટ વ્યક્ત થતું નથી તે અકઠોઠ વિપ્રમુક્ત દેષ છે. (૯) અગુરૂ વાચનપગત દેષ-ગુરૂ પ્રદત્ત વાચ ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रियदर्शिनी टीका. अ० १ गा. २३ वाचनाद्वारम् ७ अथ वाचनानामकं सप्तमं द्वारम् - अथ वाचनाविधिरुच्यते - तत्रैवं वाचनाशब्दार्थः- वाचयतीति वाचना - पाठना, शिष्याय सूत्रादिदानं । नतु वाचनायाः किं फलम् ? वाचनया जीवो निर्जरां जनयति श्रुतस्य चानाशातनायां प्रवर्तते, तत्र च प्रवर्तमानो जीवः श्रुतमदानरूपं तीर्थधर्ममवलम्बते, एवं तीर्थधर्ममाश्रयन् कृत्स्नकर्मक्षपणेन महानिर्जरावान् भवति । ततो मुक्तिप्राप्त्या तस्य सर्वथा भवपर्यवसानं भवति । वाचनादानग्रहणविधिस्त्वेवम्उवविसह उवज्झाओ, सीसा विअरंति बंदणं तस्स । सो तेर्सि सव्त्रसमयं वायइ सामइयप्पमुहं ॥ १ ॥ १६९ , वाचना से जो विहीन होता है, अर्थात्-गुरुप्रदत्त वाचना से जो प्राप्त नहीं होता है वह अगुरुवाचनोपगत दोष है ॥ १० ॥ ॥ यह छट्ठा द्वार हुआ ॥ ६ ॥ सातवां वाचनाद्वार कहते हैं अब वाचना की विधि बतलाते हैं-शिष्य को सूत्रादिक का देनापढाना यह वाचना है। सूत्र की वाचना से कर्मों की निर्जरा होती है तथा उसकी अनाशातना में प्रवृत्ति होती है । उस वाचना में लगा हुआ जीव श्रुतप्रदानरूप तीर्थधर्म का आधार होता है। तीर्थधर्म का आधार होने से वह जीव समस्त कर्मों के क्षपण से महानिर्जरावाला होता है । महानिर्जरावाला होने से मुक्ति की प्राप्ति द्वारा उसके सर्वथा भव का क्षय हो जाता है । वाचना के देने की एवं उसके ग्रहण करने की विधि इस प्रकार है નાથી જે વિહિન હેાય છે, અર્થાત્-ગુરૂપ્રદત્ત વાચનાથી જે પ્રાપ્ત થયેલ નથી હતુ. અગુરૂ वायनोपगत दोष छे. (१०) તે આ છઠ્ઠું દ્વાર થયું સાતમું વાચનાદ્વાર કહેવામાં આવે છે.—— હવે વાચનાની વિધિ બતાવવામાં આવે છે શિષ્યને સૂત્રાદિક ભણાવવાસમજાવવાં એ વાચના છે. સૂત્રની વાચનાથી કર્મોની નિર્જરા થાય છે, તથા તેના અનાશાતનાની પ્રવૃત્તિ થાય છે. એ વાચનામાં લાગેલ જીવ શ્રુતપ્રદાનરૂપ તીથ ધર્મના આધાર બને છે, તીથ ધર્મના આધાર થવાથી તે જીવ સમસ્ત કર્માના ક્ષપણુથી મહાનિર્જરાવાળા થાય છે. મહાનિર્જરાવાળા થવાથી મૂક્તિની પ્રાપ્તિ દ્વારા એને જીવન મરણના ફેરાતા ભય મટી જાય છે. उ० २२ ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર ઃ ૧ Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७० - - उत्तराध्ययनसूत्रे छाया--उपविशति उपाध्यायः, शिष्या वितरन्ति वन्दनं तस्मै । ___स तेभ्यः सर्वसमयं, वाचयति सामायिकप्रमुखम् ॥ १॥ वाचना-त्रिविधा भवति-उपदेशः, स्मारणा, प्रतिस्मारणा च । ये खलु गृहीतसामाचारीकाः शिष्यास्तेभ्य सूत्रार्थवाचना दातव्या । तेषां सामाचारीकरणे प्रमाद कुर्वतां क्रमेण उपदेशः, स्मारणा, प्रतिस्मारणा च करणीया । तत्र गुरुस्तान् प्रति वदति-" मुनीनामेषा सामाचारी यन्निद्राविकथादयः प्रमादाः परिहर्तव्याः" एष उपदेशः। " उवविसइ उवज्झाओ, सीसा वियरंति वदणं तस्स । सो तेसिं सव्वसमयं, वायइ सामाइयप्पमुह ॥ वाचना देने वाला उपाध्याय अपने आसन पर विराजमान जब हो जाय तब वाचना लेने वाला शिष्य सर्वप्रथम उन्हें वंदना करे। फिर बाद में उनसे सामायिक आदि सर्व सूत्रों की वाचना लेवे । उपदेश १, स्मरणा २ एवं प्रतिस्मारणा ३ के भेद से वाचना ३ प्रकार की है। जिन शिष्यों ने सामाचारी को ग्रहण कर लिया है उन शिष्यों को सूत्रार्थ की याचना देना चाहिये । वे यदि सामाचारी के आचरण करने में प्रमाद करें तो गुरु का कर्तव्य है कि वे उन्हें क्रम से उपदेश, स्मारणा एवं प्रतिस्मारणा रूप वाचना दें। उसमें वे उसे यह समझा कि देखो यही मुनियों की सामाचारी-आचार है कि वे सर्वप्रथम निद्रा विकथा आदि प्रमादों को दूर करें। यह उपदेश हैं । निद्रारूप प्रमाद में पड़ा हुआ शिष्य यदि વાચના દેવાની અને તેને ગ્રહણ કરવાની વિધિ આ પ્રકારે છે– उवविसइ उवज्जाओ, सीसा विअरंति वंदणं तस्स । सो तेसिं सव्वसमयं वायइ सामाइयप्पमुहं ॥ વાચના આપવાવાળ ઉપાધ્યાય જ્યારે પિતાના આસન ઉપર બિરાજમાન થઈ જાય ત્યારે વાચના લેવાવાળા શિષ્ય સર્વ પ્રથમ એમને વંદના કરે અને પછી તેમની પાસેથી સામાયિક આદિ સર્વ સૂત્રની વાચના લે. ઉપદેશ, મારણા અને પ્રતિ સ્મારણ ના ત્રણે ભેદથી વાચના ત્રણ પ્રકારની છે. જે શિષ્યોએ સમાચારીને ગ્રહણ કરી લીધેલ હોય તે શિષ્યને સૂત્રાર્થની વાચના દેવી જોઈએ. તે કદી સામાચારીનું આચરણ કરવામાં પ્રમાદ કરે તે ગુરૂનું કર્તવ્ય છે કે તે એને કમથી ઉપદેશ, સ્મારણ, અને પ્રતિ સ્મારણા રૂપ વાચના આપે. એમાં તેઓ શિષ્યને એ સમજાવે કે, જુઓ આજ મુનિની સમા ચારી આચાર છે કે જે સર્વ પ્રથમ નિદ્રા, વિકથા આદિ પ્રમાદને ફર કરે આ ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रियदर्शिनी टीका. अ० १ गा. २३ वाचनाद्वारम् ७ निद्रारूपे प्रमादे, अप्रतिलेखने दुष्पतिलेखनादौ च सकृत् स्खलितस्य स्मारणा कर्तव्या भवति । यथा-" भो आयुष्मन् ! प्रमादो वर्जनीयः" इति पूर्वमेवास्माभिः कथितम् , अतः प्रमादं मा कुरु तपासंयमं च समाराधय, इत्येषा स्मारणा । अथ प्रतिस्मारणा पुनः पुनः सामाचार्या प्रमादं कुर्वन् शिष्यः पुनर्गुरुणा बोधनीयः- "वत्स ! मा प्रमाद्यताम् , तपःसंयमाराधनं क्रियताम् "। इत्येषा प्रतिस्मारणा।। इत्थमुक्तोऽपि यदि प्रमाद्यति, तदा दण्डना-लघुप्रायश्चित्तरूपा कर्तव्या। प्रतिलेखना नहीं करे अथवा दुष्प्रतिलेखना आदि करता है उस समय उसे स्मारणा वाचना देनी चाहिये, इसमें उसे यह समझाना चाहिये कि है आयुष्मन् ! तुम्हें यह पहिले बतला दिया गया है कि प्रमाद वर्जनीय है। इसलिये इस बात का ख्याल करो, और प्रमाद का आसेंवन मत करो. तथा तप एवं संयम की अच्छी तरह आराधना करो, इसका नाम स्मारणा है । प्रतिस्मरणा वाचना शिष्य को उस समय दी जाती है जब शिष्य अपनी समाचारी में बार २ प्रमाद करता है। उस समय उसे यही समझाया जाता है कि हे वत्स! देखो यह प्रमाद ठीक नहीं है, इससे तप एवं संयम की आराधना ठीक २ नहीं होती है । तुम्हें बार बार यह समझा दिया गया है अतः इसका परित्याग कर तप एवं संयम की आराधना करो। इसी में आत्मा की भलाई है, इसका नामप्रतिस्मारणा है। अब दण्डना कहते है-इस प्रकार उपदेश, स्मारणा, ઉપદેશ છે. નિદ્રારૂપ પ્રમાદમાં પડેલ શિષ્ય જે પ્રતિલેખના ન કરે અથવા દુષ્પતિલેખના આદિ કરતા હોય તો એ સમયે એને સ્મારણું વાચના આપવી જોઈએ એમાં એને એ સમજાવવું જોઈએ કે આયુષ્યમન! તમને એ પહેલું બતાવવામાં આવેલ છે કે, પ્રમાદ છેડવા ગ્ય છે, જેથી એ વાતને ખ્યાલ કરે ને પ્રમાદને ખ્યાલ ન કરે, તથા તપ અને સંયમની સારી રીતે આરાધના કરો. આનું નામ સ્મારણા છે. પ્રતિસ્મારણ વાચના શિષ્યને તે સમયે આપવામાં આવે છે જ્યારે શિષ્ય પિતાની સામાચારીમાં વારંવાર પ્રમાદ કરે છે. તે સમયે તેને એવું સમજાવાય છે કે હે વત્સ જુઓ આ પ્રમાદ કર ઠીક નથી તેનાથી તપ અને સંયમની આરાધના સારી રીતે થતી નથી તમને વખતે વખત એ સમજાવવામાં આવેલ છે, માટે તેનો પરિત્યાગ કરી સંયમ અને તપની આરાધના કરે. તેમાં આત્માની ભલાઈ છે, તેનું નામ પ્રતિ સ્મારણા છે. હવે દંડના કહે છે-આ પ્રકારને ઉપદેશ સ્મારણ, પ્રતિમારણા રૂપ ત્રણ પ્રકા ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययनसूत्रे १७२ ___ ततोऽपि यदि प्रमाद्यति तर्हि मासलघुमायश्चित्तरूपा दण्डना कर्त्तव्या । इत्थं दण्डितोऽपि यदि प्रमादान विरमते तदा कुङ्कुमदृष्टान्तो वक्तव्यः। यथा-अतीव पिष्टं कुङ्कुम 'केसर' इति भाषाप्रसिद्धं पाषाणमिव कठोरं न भवति, भवान् महता प्रयासेन प्रतिनोद्यमानः कथं प्रमत्तः संवृत्तः। अत्र मासलघु दीयते। ___ वारत्रयादूर्ध्वं यदि प्रमादतो न निवर्तते तदा निष्कासना कर्तव्या । अथासौ स्वयं परेण वा प्रज्ञापितः सन् पुनरागत्य प्रमादात् प्रतिनिवृत्तो वदति-भगवन् ! क्षमस्व मदीयमपराधनिकुरम्बम्, न पुनरेवं करिष्यामीति । तदा गुरुरेवं वदेत्-यथा प्रतिस्मारणारूप तीन प्रकार की वाचना के देने पर भी यदि शिष्य प्रमादपतित होता है, तो उसे एक मास का लघुप्रायश्चित्त देना चाहिये। उस समय उससे यह कहना चाहिये कि देखो केशर जब बार २ रगड़ कर पीसी जाती है तो वह भी पाषाण जैसी कठोर नहीं रहती है किन्तु इकदम नरम पड़ जाती है परन्तु बड़े आश्चर्य की बात है कि तुम्हें बार २ समझाया जाता है फिर भी तुम प्रमाद् को नहीं छोडते हो । क्या बात है पता नहीं पड़ता कि तुम प्रमादी क्यों बन रहे हो ॥ आचार्य तथा अन्य मुनि द्वारा तीन वार समझाने पर भी यदि शिष्य प्रमाद से पीछे नहीं हटता है, उस समय उसे संघ से बाहर करने रूप दण्ड देना चाहिये । उस समय यदि दूसरों के द्वारा समझाये जाने पर अथवा अपनी गल्ती अपने आप स्वीकार करने पर यह ऐसा गुरु महाराज के समक्ष कहे कि हे गुरु महाराज! मेरे अभीतक के समस्त अपराध आप क्षमा करें, अब आगे ऐसा नहीं करने का भाव રની વાચના દેવા છતાં પણ જે શિષ્ય પ્રમાદ વશ બને, તે તેને એક માસનું લઘુ પ્રાયશ્ચિત દેવું જોઈએ. તે સમયે તેને એવું કહેવું જોઈએ કે, કેશર ને વારંવાર ઘુંટાઈ ઘુટાઈને પીસવામાં આવે છે, તે પણ પત્થરની માફક કઠોર નહિં બનતાં વધુ ને વધુ નરમ બને છે. ઘણા જ આશ્ચર્યની વાત છે કે, તમને વારંવાર સમજાવવા છતાં પણ તમે પ્રમાદને છોડતા નથી. કયું કારણ છે તે સમજાતું નથી કે તમે તમારે પ્રમાદ છેડતા નથી. આચાર્ય તથા અન્ય મુનિદ્વારા ત્રણવાર સમજાવ્યા છતાં પણ જે શિષ્ય પ્રમાદથી પાછા ન હટે તે તેને તે સમયે સંઘની બહાર કરવારૂપ દંડ દેવે જોઈએ. તે સમય કદાચ બીજાઓ દ્વારા સમજાવવાથી અથવા પિતાની ભૂલ પતે જ સ્વીકારીને તે ગુરૂ મહારાજ સમક્ષ એવું કહે કે, હે ગુરુ મહારાજ! મારા આજ સુધીના બધા અપરાધ આપ માફ કરે, હવે આગળ હું આવું નહિં કરું. તે સમયે ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रियदर्शिनी टीका. अ० १ गा. २३ वाचनायां राजदृष्टान्त: १७३ ताम्बूलपत्रं कुथितं न परित्यज्यते चेत् , तर्हि शेषाण्यपि पत्राणि तत् कोथयति । एवं त्वमपि स्वयं विनष्टो मम अन्यानपि साधून् विनाशयिष्यसीति कृत्वा निष्कासितोऽस्माभिः। संपति पुनरममत्तेन भवितव्यम् , मासगुरु च ते प्रायश्चित्तम् । अत्र राजदृष्टान्तो वर्णनीयः। कस्यचिद् राज्ञोऽक्षिरोगः संजातः । तत्रत्यवद्यास्तचिकित्सां कर्तुमशक्ता अभूवन् । अन्यश्च कश्चिदागन्तुको वैद्यस्तत्रागत्याह-ममाक्षिगुटिकास्तु अक्षिरोगप्रशमन्यः । ताभिरञ्जितेषु अक्षिषु तीव्रतरा दुःसहा वेदना भवति । सा तु मुहूर्तमात्रम् । है, उस समय गुरु महाराज उससे ऐसा कहें कि देखो, पान सड़ जाने पर यदि बाहर निकाल कर न फेंक दिया जाय तो वह जैसे अन्य पानों को सड़ा कर बिगाड़ देता है, उसी प्रकार तुम भी स्वयं विनष्ट होकर मेरे संघ के अन्य साधुओं को विनष्ट कर दोगे इस ख्याल से हम तुम्हें संघ से बाहर कर रहे हैं। यदि आगे ऐसा नहीं करोगे तो संघ में रख लिये जाते है । इसलिये जाओ १ मास का यह तुम्हें गुरु प्रायश्चित्त दिया जाता है। इस विषय में एक राजा का दृष्टान्त इस प्रकार है. किसी एक राजा को आंखों में रोग हो गया। नगर भर में जितने वैद्य थे उन सब ने खूब यत्नपूर्वक इलाज किया, परंतु उनके इलाज से राजा की आंखों का रोग शमित नहीं हुआ। एक समय वहां बाहर गांव का एक वैद्य आया। उसने नरेश के पास जाकर कहा कि महाराज ! हमारे पास ऐसी गोलियां हैं जो आंखों में आंजने पर बिलकुल रोग को नष्ट कर देती हैं । परन्तु उनके आंजने पर १ मुहूर्त तक बड़ी दुःसह ગુરુમહારાજ તેને એવું કહે કે જુઓ પાન સડી જવાથી બહાર કાઢી ફેંકી દેવામાં ન આવે તે તે જેમ બીજા પાનને સડાવી બગાડી દે છે. તે જ રીતે તમે પણ સ્વયં વિનિષ્ટ બની મારા સંઘના બીજા સાધુઓને પણ વિનિષ્ટ બનાવી દેશે. આ ખ્યાલથી તમને સંઘથી બહાર કરવામાં આવે છે. કદાચ આગળ એવું નહીં કરો તો સંઘમાં રાખવામાં આવશે. આ માટે તમને એક મહિનાનું ગુરૂ પ્રાયશ્ચિત્ત આપવામાં આવે છે. આ વિષયમાં એક રાજાને દાખલ આ પ્રકારે છે – કેઈ એક રાજાની આંખમાં રેગ થયો, શહેરમાં જેટલા વિદ્યા હતા તે સઘળાથી ખૂબ પ્રયત્ન પુર્વક ઈલાજ કરવામાં આવ્યું પરંતુ તેઓના ઈલાજથી રાજાની આંખેને રોગ મટયે નહીં. એક સમયે ત્યાં બહાર ગામને એક વૈદ્ય આવ્યો તેણે રાજાની પાસે પહોંચી કહ્યું કે, મહારાજ! મારી પાસે એવી ગોળીઓ છે, જે આંખમાં આંજવાથી રોગને બીલકુલ મટાડે છે પરંતુ તેને આંજવાથી ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७४ उत्तराध्ययनसूत्रे यदि वेदनायां सत्यां मां प्राणदण्डं कर्तुं कर्मचारिभ्य आज्ञा न ददासि, तर्हि तवाक्षिणी अञ्जयामि । राज्ञा कथितम्-नाहं तव प्राणदण्डं कर्तुमाज्ञापयिष्यामि । तदा राज्ञोऽक्ष्णोरञ्जनं वैद्यः कृतवान् । अजितयोरक्ष्णोस्तीव्रतरा वेदना जाता। तदा राज्ञा निगदितम्-'अनेनाक्षिणी मम पीडिते, अत एनं मारय' इत्याज्ञां स्वकर्मचारिणः प्रति दत्तवान् । तैः कर्मचारिभिस्तस्य राज्ञो हितकरं विज्ञाय वैद्यः प्रच्छन्नः स्थापितः । मुहूर्तान्तरेण राज्ञो वेदना उपशान्ताः, अक्षिणी रोगरहिते दिव्ये दिव्यज्योतिष्मती संजाते । तदा राज्ञा वैद्यः स्मृतः। राजकर्मचारिभिरानीय समर्पितो वैद्यः सत्कारितः संमानितश्च । यथा तस्य राज्ञस्तत्कालदुःसहमपि गुटिकाअनं क्रमेण चक्षुषो नैरुज्यकरणात् परिणामसुन्दरं समजनि, एवं भवतामपि स्मारणादिकं खरपीडा होती है। यदि आप वेदना होने पर अपने कर्मचारियों को मुझे प्राणदण्ड देने की आज्ञा न करे तो मैं आपकी आंखों में उन गोलियों को आज सकता हूं। राजाने वैद्य की बात सुन कर उसे अभय करने का वचन दे दिया । वैद्य ने भी गोलियों को घिस कर राजा की आंखों में आंज दिया । आंजते ही राजा की आंखों में तीव्रतर दुःसह वेदना होने लगी। उस वेदना से पीडित होकर राजा ने उसे मारने की आज्ञा दे दी। कर्म चारियों ने उसे राजा का हितकारी मान कर एक जगह छिपा दिया और मारा नहीं। कुछ समय के बाद वेदना शांत हो गई और आंखे रोग रहित हो गई । राजा ने प्रसन्न होकर उस वैद्य को याद किया तब कर्मचारियों ने उस वैद्य को लाकर हाजर किया। राजा ने उसको खूब आदर सत्कार करके विसर्जित किया। मतलब इस दृष्टान्त का यह है कि जिस प्रकार उस राजा के लिये दुःसह भी એક ઘડી સુધી ઘણું જ અસહ્ય વેદના થાય છે. વેદના થવાથી આપ આપના કર્મચારીઓ દ્વારા મને પ્રાણદંડ દેવાની આજ્ઞા ન કરે તો હું આપની આંખોમાં એ ગોળીએ આજવા ઈચ્છું છું. રાજાએ વૈદની વાત સાંભળીને તેને અભય કરવાનું વચન આપ્યું. વૈધે પણ ગોળીઓને ઘસીને રાજાની આંખમાં આંજી દીધી જતાં જ રાજાની આંખમાં તીવ્રતર દુઃસહ વેદના થવા લાગી, આ વેદનાથી વ્યાકુળ બની રાજાએ તેને મારવાની આજ્ઞા આપી. કર્માચારીઓએ તેને રાજાને હિતકારી માની એક જગ્યાએ છુપાવી દીધું અને માર્યો નહીં. થોડા સમય પછી વેદના શાંન્ત થઈ અને આંખો રોગ રહિત બની. રાજાએ પ્રસન્ન થઈને તે વૈદ્યને યાદ કર્યો ત્યારે કર્મચારીઓએ તે વૈદ્યને લાવીને હાજર કર્યો. રાજાએ તેને ખૂબ આદરસત્કાર કરીને વિદાય આપી. આ દષ્ટાંતને સાર એ છેકે, રાજા માટે દુસહ એવી આંખની પીડાનું ગુટિકાના અંજનથી શમન થયું. ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रियदर्शिनी टीका. अ० १ गा० २३ सूत्रार्थयोः पौर्वापर्यनिरूपणम्। १७५ । परुषत्वात् यद्यप्यापातमात्रदुःखजनकं तथापि परिणामसुन्दरमेव द्रष्टव्यम् , इह परत्र च सकलकल्याणपरंपराकारणत्वादिति । ॥ इति सप्तमं वाचनाद्वारम् ॥ सूत्रार्थयोः पौर्वापर्यनिरूपणनामकमष्टमंद्वारम्_ अथ पूर्व सूत्रम् अर्थों वा ? इति निरूप्यते-उत्पादव्ययध्रौव्यलक्षणोऽर्थस्तीर्थकरैः पूर्वमुक्तः, पश्चात् तमेवार्थ हृदये निधाय गणधराः सूत्रं रचयन्ति, तस्मादर्थतः पश्चाद्भावि सूत्रम् , इति सिद्धान्तः । अत एव सूत्रम् अणु-लघु भवति, अर्थस्तु महान् , गुटिकांजन आंखो की पीड़ा का शमक हुआ-पीडाजनक होने पर भी परिणाम में हितविधायक हुआ, उसी प्रकार शिष्यों को भी गुरु महाराज द्वारा प्रदत्त स्मारणादिक तीव्र कठोर होने पर भी आयति(उत्तरकाल) सुख कारक होने से एकान्त हितविधायक ही होते हैं। क्यों कि इनसे इस लोक में तथा परलोक में आत्मा का हित ही होता है अहित नहीं। ॥सातवा द्वार समाप्त हुआ ॥ ७॥ ___अब आठवा द्वार कहते हैंसूत्र एवं अर्थ के पौर्वापर्य द्वार का निरूपण करते हैं अब यहां यह बतलाया जाता है कि पहिले सूत्र होता है कि अर्थ होता है । उत्पाद, व्यय, एवं ध्रौव्य इस लक्षण से युक्त अर्थ-पदार्थ होता है। अर्थ का यह लक्षण तीर्थंकर प्रभुने कहा है। इसी अर्थ को हृदय में अवधृत कर गणधर देवों ने सूत्रों की रचना की है । इसપીડા આપનાર હોવા છતાં પણ પરિણામમાં હિતકારક પરિણામ આવ્યું. આ પ્રકાર શિષ્યોએ પણ ગુરુમહારાજ દ્વારા પ્રદત્ત સમારણાદિક તીવ્ર-કઠેર હાવા છતાં પણ અંતે ગુણ કરનાર સુખકારક હોવાથી એકાન્ત હિતવિધાયક જ હોય છે કેમકે એનાથી આલેક તથા પરલોકમાં આત્માનું હિત થાય છે, અહિત નહીં ॥सात द्वार समाप्त थयु॥७॥ હવે આઠમું દ્વાર કહેવામાં આવે છે – સૂત્ર તથા અર્થના પોર્વાપર્યદ્વારનું નિરૂપણ કરવામાં આવે છે.– હવે અહિં એ બતાવવામાં આવે છે કે, પહેલાં સૂત્ર હોય છે કે અર્થ હોય છે. ઉત્પાદ,વ્યય, અને દ્રૌવ્ય આ લક્ષણથી યુક્ત અર્થે પદાર્થ બને છે. અર્થનું એ લક્ષણ તીર્થંકર પ્રભુએ કહેલ છે તે અને હદયમાં ધારણ કરીને ગણધર દેએ સૂત્રની રચના કરી છે. માટે અર્થની પાછળ સૂત્ર છે. એ સિદ્ધાંત ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययनसूत्रे एकैकस्य सूत्रस्यार्थोऽनन्तः । स्तोकत्वात् पश्चादभिहितत्वाच्च सूत्रम् ' अणु' इत्युच्यते, तेन चाणुना सूत्रेण सहार्थस्य यः सम्बन्धो योगः स चानुयोग इत्युच्यते । ननु पूर्वमर्थः पश्चात् सूत्रमिति कथनमयुक्तम् , पूर्व हि सूत्रं पश्चादर्थः, सूत्राभावे तु अर्थः कस्य स्यात् । लौकिका अप्येवमेव वदन्ति-आधारे सत्येवाधेय तिष्ठतीति । ____ यच्च सूत्रमणु, अर्थस्तु विस्तृत इति, तदप्ययुक्तम् ? एकस्यां हि पेटिकायां बहूनि वस्त्राणि सन्ति, तत्र पेटिकाया एव बादरत्वं युज्यते, तद्वशाद् बहूनि वस्त्राणि लिये अर्थ के पश्चाद् सूत्र है यह सिद्धान्त निर्धारित हो जाता है । सूत्र अणु-लघु होता है । तथा-अर्थ सूत्र की अपेक्षा महान होता है। एक २ सूत्र के अनंत अर्थ होते हैं। सूत्र को अणु इसी अभिप्राय से कहा गया है कि एक तो वह अर्थ के पश्चाद् भावी है और दूसरे वह स्तोक अर्थात् छोटा होता है । उस अणु सूत्र के साथ अर्थ का जो योग हैसंबंध है उसी का नाम अनुयोग है। प्रश्न-पहिले अर्थ होता है बाद में उसके सूत्र होता है यह कथन अयुक्त है। कारण कि सूत्र के विना अर्थ नहीं हो सकता है। इसलिये ऐसा मानना चाहिये कि पहिले सूत्र होता है और बाद में अर्थ होता है। लौकिक जन भी यही कहते हुए पाये जाते हैं। सूत्र आधार है और अर्थ आधेय है। सूत्र में अर्थ रहता है अर्थ में सूत्र नहीं। आधार के होने पर ही आधेय रह सकता है अन्यथा नहीं। दूसरे-अर्थ की अपेक्षा जो मूत्र को अणु कहा गया है वह भी ठीक नहीं मालूम पड़ता। कारण कि देखा जाता है कि एक ही सन्दुक નિર્ધારિત બની જાય છે. સૂત્ર અણું–લઘુ હોય છે. તથા અર્થ સૂત્રની અપેક્ષાથી મહાન હોય છે, એક એક સૂત્રના અન ત અર્થ થાય છે. સૂત્રને અણુ એ અભિપ્રાયથી કહેવામાં આવેલ છે કે, એક તે તે અર્થના પશ્ચાદ્ભાવિ છે, (પાછળ થનારૂ) અને બીજું તે લઘુ હોય છે, એ આણુ સૂત્રની સાથે અર્થને જે ગ છે-સંબંધ છે તેનું નામ અનુગ છે. પ્રશ્ન-પહેલે અર્થ થાય છે અને એ પછી સૂત્ર થાય છે, તે કહેવું અયુકત છે. કારણ કે સૂત્ર વગર અર્થ થઈ શકે નહીં. આ માટે સમજવું જોઈએ કે પહેલાં સૂત્ર હોય છે અને પછી અર્થ થાય છે. સૂત્ર આધાર છે અને અર્થ આધેય છે. સૂત્રમાં અર્થ રહે છે અર્થમાં સૂત્ર નહીં. આધારના હોવાથી જ આધેય રહી શકે છે તેના વગર નહીં. બીજું અર્થની અપેક્ષા જે સૂત્રને આણું કહેવામાં આવેલ છે તે પણ ઠીક નથી. કારણ કે, જવામાં આવે છે કે, એક જ પેટીમાં ઘણું વસ્ત્ર રાખવામાં આવે છે આથી તે પેટીમાં બાદરતા ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रियदर्शिनी टीका. अ० १ गा० २३ सूत्रार्थयारर्थमहत्त्वम् १७७ तत्र मान्ति स्म । एवं पेटिकास्थानीये सूत्रे बहून्यर्थपदानि वर्तन्ते, तत्र सूत्रमेव बादरं भवितुमर्हति नार्थ इति। किंचार्थस्य महत्त्वमेकान्ततो नास्ति, प्रथमे उत्क्षिप्तज्ञाते हि 'अनुकम्पा कर्तव्या' इत्यर्थों बहुभिः सूत्रैवर्णितः । तथा-अष्टादशे सुसुमादारिकाज्ञाते वर्णरूपवलादिवृद्धयर्थ नाहारयितव्यम् , इत्यर्थों बहुभिः सूत्रैवर्णितः, तस्मादर्थो न महान् किन्तु सूत्रमेव महदिति चेत् ? ____ अत्रोच्यते-पूर्व सूत्रं पश्चादर्थः, इति न संभवति । अर्थस्य हि सूत्रतः पश्चाद्भावित्वं न युज्यते, अर्थ विना सूत्रं निश्रारहितं सत् कीदृशं स्यात् ? असंबद्धं में अनेक वस्त्र रख दिये जाते हैं एतावता पेटी में ही बादरता आती है वस्त्रों में नहीं । क्यों कि उसके आधार से ही बहुत वस्त्र उसमें समा जाते हैं । इसी तरह पेटी के स्थानीय मूत्र में भी बहुत से अर्थपद रहा करते हैं इसलिये सूत्र को ही बादर होने का प्रसंग प्राप्त होता है अर्थ को नहीं । तथा-अर्थ में महत्ता भी एकान्त से स्थापित नहीं होती है । "प्रथमे उत्क्षिप्तज्ञाते" ज्ञातासूत्र के प्रथम उत्क्षिप्तज्ञात नामक अध्ययन में भगवान ने फरमाया है कि अनुकंपा करनी चाहिये इस प्रकार का अर्थ बहुत सूत्र से वर्णित किया है । तथा “ अष्टादशे सुंसमादारिकाज्ञाते" अर्थात् इसी ज्ञाता सूत्र के अठारवें सुंसुमादारिकानामक अध्ययन में वर्ण, रूप, बल आदि की वृद्धि निमित्त मुनियों को आहार नहीं करना चाहिये यह अर्थ बहुत मृत्रों से वर्णित किया है। इसलिये अर्थ महान् नहीं है किन्तु सूत्र ही महान् है यही बात ज्ञात होती है। उत्तर-पहिले सूत्र होता है पश्चात् अर्थ यह कथन युक्तियुक्त नहीं है, આવે છે, વસ્ત્રોમાં નહીં, કેમ કે પેટીના આધારથી જ ઘણાં વ તેમાં સમાઈ શકે, એવી રીતે સ્થાનીય સૂત્રમાં પણ ઘણા અર્થ પદ રહ્યા કરે છે માટે જ સૂત્રને આદર હોવાને પ્રસંગ પ્રાપ્ત થાય છે, અર્થને નહી. તેમ અર્થમાં મહત્તા પણ એકાન્તથી સ્થાપિત થતી નથી, જ્ઞાતા સૂત્રના પ્રથમ ઉક્ષિતજ્ઞાત નામના અધ્યયનમાં ભગવાને ફરમાવ્યું છે કે, અનુકમ્મા કરવી જોઈએ. આ પ્રકારને અર્થ धए॥ सूत्राथी वामां मावस छ तथा "अष्टादशे सुसमादारिका ज्ञाते" अर्थात् આ જ્ઞાતા સૂત્રના અઢારમા “સુંસમાદારિકા” નામના અધ્યયનમાં વર્ણ, રૂપ, બળ વગેરેની વૃદ્ધિ નિમિત્તે મુનિએ આહાર ન કર જોઈએ આ અર્થ ઘણા સૂત્રમાં વર્ણવવામાં આવેલ છે. આ માટે અર્થ મહાન નથી પણ સૂત્ર જ મહાન છે આ વાત જ્ઞાત થાય છે. ઉત્તર-પહેલાં સૂત્ર હોય છે પછી અર્થ આ કહેવું યુક્તિ યુકત નથી, કારણ उ०२३ ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७८ _ उत्तराध्ययनसूत्रे निरर्थकं स्यात् , यथा नव पूपा दशदाडिमानीत्यादिवाक्यं सम्बन्धरहितं निरर्यक भवति। अपि च-लौकिका अपि शास्तारः प्रथमतोऽथं दृष्ट्वा भूत्रं कुर्वन्ति, अर्थमन्तरेण सूत्रस्यानिष्पत्तेः । तथा चोक्तम्-- " अत्थं भासइ अरिहा, तमेव सुत्तीकरेंति गणधारी। अत्थं विणा च सुत्तं, अणिस्सियं केरिसं होइ" ॥१॥ छाया--अर्थ भाषतेऽहन् , तमेव सूत्रीकुर्वन्ति गणधारिणः । अर्थ विना च सूत्रम् , अनिश्रितं कीदृशं स्यात् ॥ १ ॥ किश्च-" अत्थं भासइ अरिहा, सुत्तं गुंफति गणहरा निउणा।" अपरश्च-~सासणस्स हियहाए, ततो सुत्तं पवत्तई ॥ यदप्युक्तं-पेटिकावद् बादरं सूत्रम् , अर्थस्तु अणुरिति तदप्यसत् , यतस्तस्या पेटिकाया एकं वस्त्रमादाय तेनानेकाः पेटिका बध्यन्ते, तथैकेनार्थेन बहूनि सूत्राणि कारण कि अर्थ के बिना निश्रारहित सूत्र हो ही नहीं सकता है । यदि वह होता है तो " नवपूपा दशदाडिमा" आदि वाक्य की तरह निरर्थक और असंबद्ध ही होगा। लौकिक शास्त्र के जानने वाले भी तो प्रथम अर्थ को देखकर ही सूत्र की रचना किया करते हैं। क्यों कि अर्थ के विना सूत्र की निष्पत्ति नहीं होती है । कहा भी है अत्थं भासइ अरिहा, तमेव सुत्ती करेंति गणधारी । अत्थं विणा च सुत्तं. अणिस्सियं केरिसं होइ॥१॥ अत्थं भासइ अरिहा, सुत्तं गुंफंति गणहरा निउणा। सासणस्स हियटाए, ततो सुत्तं पवत्तई ॥२॥ तीर्थकर भगवान पहिले अर्थ की प्ररूपणा करते हैं और उसी अर्थ को गणधर भगवान सूत्ररूप में गुंथते है।१।। કે અર્થના વિના નિશ્રા રહિત સૂત્ર થઈ જ શકતું નથી. કદાચ તે હોય છે, તે “ नवपूपा दशदाडिमा” माहि पायनी मा६४ निरथ मने समय पार्नु હાય લૌકિક શાસ્ત્રના જાણવાવાળા પણ પ્રથમ અર્થને જોઈને સૂત્રની રચના કર્યા કરે છે. કેમ કે અર્થના વગર સૂત્રની ઉત્પત્તિ થતી નથી. કહ્યું પણ છે કે – अस्थं भासइ अरिहा, तमेव सुत्तीकरेंति गणधारी। अत्थं विणा च सुत्तं, अणिस्सियं केरिसं होई ॥१॥ अत्थं भासइ अरिहा, सुत्तं गुफंति गणहरा निउणा। समणस्स हियहाए, ततो मुत्तं पवत्तई ॥२॥ તીર્થકર ભગવાન પહેલા અર્થની પ્રરૂપણા કરે છે, અને એજ અને ગણધર ભગવાન સૂત્રના રૂપમાં ગૂંથે છે. અથેના વગર સૂત્ર નિશ્રારહિત બનીને ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रियदर्शिनी टीका. अ० १ गा० २३ स र्थितदुभयेषु यथोत्तरं प्राबल्यम्। १७९ रच्यन्ते । एवं वस्त्रस्थानीयस्यार्थस्य महत्त्वम् , पेटिकास्थानीयस्य तु सूत्रस्याणुत्वमेव । यदप्युक्तम्-अर्थों महानित्यस्यैकान्तता नास्तीति तदप्यविचारितभाषितम् -उत्क्षिप्तज्ञातादिषु सत्त्वानुकम्पादिकोऽधस्तत्तदध्ययनमात्रस्य, अशेषस्य तु सूत्रस्य तदतिरिक्ता अपि बहवोऽर्थाः सन्ति । ॥ इति अष्टमं द्वारम् ॥ अर्थ के विना सूत्र निधारहित होता हुआ दशदाडिम आदि वाक्य की तरह केवल असंबद्ध और निरर्थक ही माना जाता है ।२। जो यह कहा है कि पेटी की तरह सूत्र बादर होता है तथा वस्त्रादिक की तरह अर्थ अणु होता है सो यह कहना भी ठीक नहीं है । क्यों कि जिस प्रकार उसी पेटी के किसी एक वस्त्र द्वारा उसी पेटी जैसी अनेक पेटिया लपेटी जा सकती हैं उसी प्रकार एक अर्थ से अनेक सूत्र रचे जा सकते हैं। इस तरह वस्त्रस्थानीय अर्थ में महत्व आता है और पेटी स्थानीय सूत्र में अणुत्व हो । एकान्तसे अर्थ में महत्व नहीं है क्यों कि उत्क्षिप्त आदि अध्ययनों में जो कहा गया है वह सत्वानुकंपादिक रूप अर्थ उस अध्ययनमात्र का ही है, अर्थात् उनमें अनुकंपादि अर्थों की ही प्रधानता है। और अनुकंपादि अर्थों को ही सिद्ध किया है । न कि अवशिष्ट समस्त सूत्र का। उसके तो उससे अतिरिक्त और भी अनेक अर्थ हैं। ॥यह आठवा द्वार संपूर्ण हुआ ॥ ८ ॥ દશદાડમ આદિ વાક્યની માફક કેવળ અસંબદ્ધિત અને નિરર્થક જ માનવામાં આવે છે. એમ કહેવામાં આવે કે પેટીની માફક સૂત્ર બાદર હોય છે, તથા વસ્ત્રાદિકની માફક અર્થ અણું હોય છે તે તે કહેવું પણ ઠીક નથી. કેમ કે, એ પિટીના કેઈ એક વસ્ત્રમાં આવી અનેક પેટીઓ બાંધી શકાય છે. એ જ રીતે એક અર્થથી અનેક સૂત્ર રચી શકાય છે. આ રીતે વસ્ત્રનું સ્થાનીય અર્થમાં મહત્વ આવે છે. અને પિટી સ્થાનીય સૂત્રમાં આણુત્વ જ એકાતથી અર્થમાં મહત્વ નથી એવું જે કહેવામાં આવેલ છે તે પણ ઠીક નથી. કેમકે, ઉક્ષિસ વગેરે અધ્યયનમાં જે કહેવાયેલ છે તે સત્યાનું કંપાદિક રૂપ અર્થ તે તે અધ્યયન માત્રાના જ છે. અર્થાત્ તેમાં અનુકમ્પાદિ અર્થોની જ પ્રધાનતા છે. અને અનુ કમ્પાદિ અર્થોને જ સિદ્ધ કરેલ છે. ન કે અવશિષ્ટ બધા સૂત્રને. એના તે એનાથી બીજા ઘણા અર્થો છે. ॥ मा मा भुवार सपूर्ण थयु.॥ ८॥ ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८० उत्तराध्ययनसूत्रे अथ नवमं द्वारम्-सूत्रार्थतदुभयेषु यथोत्तरं प्राबल्यम्-- द्वादशाङ्गमधीयानानां वैयावृत्त्ये क्रियमाणे तेषां वैयावृत्त्यकराणां महती निर्जरा भवति तदावरणीयस्य कर्मणः क्षयझरणात् , तेषां महापर्यवसानं च भवति-पुनरन्य नवकर्मबन्धाभावात् । ननु कस्य कीदृशी निर्जरा भवति ? ___ अत्रोच्यते---सूत्रेऽर्थे च यथोत्तरं बलवती निर्जरा । आवश्यकादियावच्चतुर्दश पूर्वाणि सूत्रं, तद्वारा यथोत्तरं महती महत्तरा निर्जरा भवति । इयमत्र भावना-एक आवश्यकसूत्रधरस्य वैयावृत्त्यं करोति, अपरो दशवकालिकसूत्रधरस्य वैयावृत्त्यक सूत्र, अर्थ एवं सूत्रार्थ में यथोत्तर प्रबलता का कथन नववे द्वार में करते हैं द्वारशांग को पढ़ते हैं और वे वैयावृत्त्य करते हैं (अर्थात् आचार्य उपाध्याय की सेवा करते हैं ) उनको श्रुतज्ञानावरणीय कर्मों की महानिर्जरा होती है तथा अन्य नवीन कर्म का बन्ध भी नहीं होता है। किसके कैसी निर्जरा होती है ? इस बात को स्पष्ट किया जाता है-सूत्र एवं अर्थ को पढने वालों की यथोत्तर महानिर्जरा होती है । आवश्यक सूत्र से लेकर १४ पूर्वतक के आगम सूत्र हैं। इनके द्वारा उत्तरोत्तर महानिर्जरा होती है मो तात्पर्य इसका इस प्रकार है कि कोई मुनि आवश्यक सूत्र को जानने वाले की वैयावृत्ति (सेवा) करता है और कोई दूसरा दशवैकालिक सूत्र को जानने वाले की वैयावृत्ति (सेवा) करता है। तो इनमें आवश्यक सूत्र को जानने वाले की वैयावृत्ति करने वाले की निर्जरा की अपेक्षा जो दशवकालिक को पढाने वाले की वैया સૂત્ર, અર્થ એવં સૂત્રાર્થમાં યત્તર પ્રબળતાનું કથન નવમાં દ્વારમાં કરે છે – દ્વાદશાંગ ભણે છે અને જે વૈયાવૃત્ય કરે છે. ( આચાર્ય–ઉપાધ્યાયની સેવા કરે છે) એને કૃતજ્ઞાનાવરણીય કર્મોની મહાનિર્જરા થાય છે. તથા નવા બીજા કર્મોને બંધ પણ થતું નથી. કોને કેવી નિર્જરા થાય છે ? આ વાતને સ્પષ્ટ કરવામાં આવે છે. – સૂત્ર અને અર્થને ભણવાવાળાને યોત્તર મહાનિર્જરા થાય છે. આવશ્યક સૂત્રથી લઈ ૧૪ પૂર્વ સુધીનાં આગમ સૂત્ર છે, એના દ્વારા ઉત્તરોત્તર મહાનિર્જરા થાય છે. મતલબ કેઈ મુનિ આવશ્યક સૂત્રને જાણવાવાળાની વૈયાવૃત્તિ (સેવા) કરે છે અને કોઈ બીજા દશવૈકાલિક સૂત્રને જાણવાવાળાની વૈયાવૃત્તિ (સેવા) કરે છે. તે એમાં આવશ્યક સૂત્રને જાણવાવાળાની વૈયાવૃત્તિ કરવાવાળાની નિર્જરાને બદલે જે દશવૈકાલિકના ભણાવનારની વિયાવૃત્તિ કરવાવાળા છે, ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रियदर्शिनी टीका अ० १ गा. २३ सूत्रार्थतदुभयेषु यथोत्तरं प्राबल्यम् १८१ रस्तस्यावश्यकसूत्रधरवैयावृत्त्यकरापेक्षया महती निर्जरा, आवश्यकसूत्रधरस्यैव दशवैकालिकाध्ययनेऽधिकारात् । एवम् अधस्तनाधस्तनतरश्रुतधरवैयावृत्त्यकरापेक्षया उपर्युपरितनश्रुतधरवैयावृत्यकरो यथोत्तरं महानिर्जरावान् भवति । एवं त्रयोदशपूर्वधरवैयावृत्त्यकरापेक्षया चतुर्दशपूर्वधरचयात्यकरो महानिर्जराकारी भवति । एवमर्थेऽपि भावनीयम् । आवश्यकार्थधरस्य यो वैयावृत्त्यं करोति, तदपेक्षया दशवैकालिकाथधरस्य यो वैयावत्यकरस्तस्य महती निर्जरा भवति, एवं पूर्ववद्वोध्यम् यथा सूत्रे यथोत्तरं बलिष्ठता एवमर्थेऽपि भावनीया । तत्र विशेषस्तु-अर्थधरवैयावृत्ति करने वाला है उसके महानिर्जरा होती है। क्यों कि आवश्यक सूत्र को पढ चुकने वाले का ही अधिकार दशवकालिक सूत्र के अध्ययन में होता है । इस प्रकार नीचे २ श्रुत को धारण करने वालों की वैयावृत्ति करने वालों की निर्जरा को अपेक्षा जो ऊपर २ के श्रुत को धारण करने वाले हैं उनकी वैयावृत्ति करने वालों की निर्जरा यथोत्तर अधिक अधिकतर होती है। इसी तरह जो तेरहपूर्व के धारी हैं उनकी जो वैयावृत्त करने वाला है उसके जितनी निर्जरा होगी उसकी अपेक्षा जो १४ पूर्व के पाठियों की वैयावृत्ति करने वाला होगा उसकी महानिर्जरा होगी। इसी तरह इनके अर्थ विषय में भी समझ लेना चाहिये । जैसे-जो आवश्यक सूत्र के अर्थ का पाठो है उसका जो वैयावृत्य करने वाला है उसके जितनी निर्जरा होगी उसकी अपेक्षा जो दशवकालिक सूत्र के अर्थ का पाठी है उनको वैयावृत्ति करने वाले की निर्जरा अधिकतर होगी। इस तरह पहिले की तरह अर्थ के विषय में लगा लेना चाहिये । जिस तरह એને મહાનિર્જરા થાય છે. કેમકે, આવશ્યક સૂત્ર પુરી રીતે શીખી લેનારને જ અધિકાર દશવૈકાલિકસૂત્રના અધ્યયનને હોય છે. આ રીતે નીચે નીચેનાં શ્રતને ધારણ કરવાવાળાની વૈયાવૃત્તિ કરનારને નિર્જરાની અપેક્ષા જે ઉપર ઉપરનાં શ્રતને ધારણ કરવાવાળા છે એની વૈયાવૃતિ કરનારની નિર્જરા યાત્તર અધિક અધિકતર થાય છે. આ રીતે જે તેરપૂર્વના ધારક છે એમની જે વૈયાવૃત્તિ કરે છે, એને જેટલી નિરા થાય એની અપેક્ષા જે ચૌદપૂર્વના ધારક છે એની વૈયાવૃત્તિ કરવાવાળાને મહાનિર્જરા થાય છે. આવી જ રીતે અર્થમાં પણ સમજવું જોઈએ. જે આવશ્યક સૂત્રના અર્થના પાડી છે, એની વૈયાવૃતિ કરનારની જેટલી નિજ રા થાય એની અપેક્ષા જે દશવૈકાલિક સૂત્રના અર્થના પાડી છે એમની વૈયાવૃત્તિ કરવાવાળાની નિર્જરા અધિકતર થાય છે. એજ રીતે પહેલાની માફક અર્થના વિષ યમાં સમજી લેવું જોઈએ. જે રીતે સૂત્રમાં ઉત્તરોત્તર મહાનિર્જરા કહી છે એજ ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८२ मामलान् उत्तराध्ययनसूत्रे वृत्यकरेषु निशीथ-बृहत्कल्प-व्यवहारार्थधराणां वैयावृत्यकरो महानिर्जरावान् भवति । तथा द्वादशाङ्गीधरस्य वैयावृत्त्यकरः । शेषार्थेभ्यश्छेद मूत्रार्थस्य बलवत्त्वे किं कारणमिति चेत्-उच्यते-स्खलितचारित्रस्य छेदसूत्रार्थन शोधिर्भवति, तस्मात् शेषात् सर्वस्मादप्यर्थात् छेद मूत्रार्थों बलवान् । सूत्रेऽर्थे तथा युगपत् तदुभयस्मिंश्चिन्त्यमाने यथोत्तरं निर्जरा बलवती भवति । सूत्रापेक्षयाऽर्थों महद्धिकः, अर्थापेक्षया तदुभयो महर्द्धिकः, तत्र किं कारणमिति चेत् ? अत्रोच्यते - गृहनिष्पत्तौ यत् साधनं-काष्ठ पाषाणादि, तत्संग्रहे कृते सत्येव सूत्र में उत्तरोत्तर महानिर्जरा कही हैं उसी तरह अर्थ में उत्तरोत्तर महानिर्जरा समझनी चाहिये । अर्थधरों की वैयावृत्ति करने वालों में निशीथ, सूत्र, बृहत्कल्पमूत्र, एवं व्यवहार सूत्र के अर्थधरों की वैयावृत्ति करने वालों के महानिर्जरा होतो है तथा-द्वादशांगी के पाठी की वैयावृत्ति करनेवाला महानिर्जरा करता है। शेष अर्थ की अपेक्षा छेद सूत्रों के अर्थों में अधिकता क्यो कही गई हैं, उसका समाधान इस प्रकार है। यदि कोई साधु अपने गृहोत चारित्र से स्खलित हो जाता है तो उसकी शुद्धि छेदश्रुत के अर्थ से होती है । इसलिये अवशिष्ट-समस्त अर्थों की अपेक्षा छेदश्रुतों का अर्थ अधिक कहा गया है। सूत्र का, अर्थ का तथा युगपत् सूत्रार्थ का अध्ययन करने पर यथोत्तर अधिक २ निर्जरा होती है। सूत्र को अपेक्षा अर्थ महान् होता है और अर्थ की अपेक्षा तदुभय-सूत्र एवं अर्थ-ये दोनों महान् होते हैं। इसमें कारण यह है कि जिस प्रकार घर बनाने में जो काष्ठपाषाण आदि साधन हैं जब उनका संग्रह हो जाता है तब घर बनता है। उसी રીતે અર્થમાં ઉત્તરોત્તર મહાનિર્જરા સમજવી જોઈએ. અર્થધટેની વૈયાવૃત્તિ કરવાવાળામાં નિશીથસૂત્ર, બૃહત્કલ્પસૂત્ર અને વ્યવહારસૂત્રના અર્થધટેની વયાવૃત્તિ કરવાવાળાને મહાનિર્જરા થાય છે. તથા દ્વાદશાંગીના પાઠીની વૈયાવૃત્તિ કરનાર મહાનિર્ભર કરે છે. શેષ અર્થની અપેક્ષા છેદ સૂત્રોના અર્થોમાં અધિકતા કેમ કહેવામાં આવી છે, એનું સમાધાન આ પ્રકારનું છે.–જે કોઈ સાધુ પિતે ગ્રહણ કરેલા ચારિત્રથી અલિત થઈ જાય છે. તે એની શુદ્ધિ કેદશ્રતના અર્થથી થાય છે. આ માટે અવશિષ્ટ-સમસ્ત અર્થોની અપેક્ષા છેદતને અર્થ અધિક કહેવાયેલ છે. સૂત્રનું, અર્થનું તથા યુગ૫ત્ સૂત્રાર્થનું અધ્યયન કરવાથી યત્તર અધિક અધિક નિર્જરા થાય છે. સૂત્રની અપેક્ષા અર્થ મહાન હોય છે. આમાં એ કારણ છે કે, જે રીતે ઘર બનાવવામાં પાણી લાકડાં વગેરે સાધન છે, અને તેને સંગ્રહ ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रियदर्शिनी टोका अ० १ गा. २३ सूत्रार्थतदुभयेषु यथोत्तरं प्राबल्यम् १८३ गृहं निष्पद्यते, तथाऽर्थानुसन्धाने सत्येव सूत्रं निष्पद्यते, अतः सूत्रापेक्षयाऽर्थस्य प्राधान्यं भवति । किं च-मूत्रंगणधर प्रोक्तम् , अर्थस्तु भगवद्बोधितस्तस्मात् सूत्रापेक्षयाऽर्थस्य प्राधान्यं भवति । तथाचोक्तम् --- तित्थगरद्वाणो खलु, अत्थो मुत्तं तु गणहरद्वाणं । अत्थेण य जिज्जइ सुत्तं, तम्हा उ सो बलवं ॥ १॥ छाया-तीर्थकरस्थानः खलु अर्थः, सूत्रं तु गणधरस्थानम् । अर्थेन च व्यज्यते सूत्रं, तस्मात्तु स बलवान् ॥१॥ व्याख्या-अर्थः खलु तीर्थकरस्थानः, तस्य तेनाभिहितत्वात् । सूत्रं तु गणधरस्थानं तस्य तैथितत्वात् । अर्थेन च यस्मात् मूत्रं व्यज्यते-प्रकटोक्रियते, तस्मात् सोऽर्थः सूत्राद् बलवान् ॥१॥ मूत्रापेक्षयार्थांपेक्षया च मूत्रार्थोभयस्य प्रावल्ये दृष्टान्तः प्रदर्श्यते । यथा जातमात्रं दधि मधुरं, तदपेक्षया शर्करा मधुरतरा, एकत्र संमिलिते दधिशर्करे श्रीखतरह अर्थ का अनुसंधान जब होता है तभी गणधर भगवान सूत्रों की रचना करते है। अतः सूत्र की अपेक्षा अर्थ में प्रधानता आती है। तथा-सूत्र गणधरों ने कहे हैं और अर्थ प्रभु द्वारा प्ररूपित हुआ है इसलिये भी सूत्रकी अपेक्षा अर्थ में प्रधानता आजाती है। कहा भी है-अर्थ तीर्थकर के स्थानापन्न है क्यों कि तीर्थकर ही अर्थ की प्ररूपणा करते हैं। मत्र गणधर के स्थानापन्न है क्यों कि वह उनके द्वारा ग्रथित होता है । अर्थ से ही मूत्र उत्पन्न होता है अतः अर्थ हो प्रधान है। सूत्र की अपेक्षा एवं अर्थ की अपेक्षा सूत्रार्थ किस प्रकार प्रधान होता है यह बात दृष्टान्त छारा स्पष्ट की जाती हैं-जैसे-ताजा दही मीठा होता है । दही की अपेक्षा शकर मीठी होती है। जब इन दोनों का परस्पर કરવામાં આવે છે ત્યારે જ ઘર બને છે એ જ રીતે અર્થનું અનુસંધાન થાય છે, ત્યારે ગણધર ભગવાન સૂત્રની રચના કરે છે. આથી સૂત્રની અપેક્ષાએ અર્થમાં પ્રધાનતા આવે છે. તથા–સૂત્ર ગણધરએ કહેલ છે, અને અર્થ પ્રભુ દ્વારા પ્રરૂપિત થયેલ છે. આ કારણે પણ અર્થમાં પ્રધાનતા આવે છે. કહ્યું પણ છે.અર્થ તીર્થંકર પ્રભુના સ્થાનાપન્ન છે કેમકે, તીર્થકર જ અર્થની પ્રરૂપણા કરે છે. સૂત્ર ગણધરનાં સ્થાનાપન્ન છે કેમકે, તે એમના દ્વારા પ્રથિત થાય છે. અર્થથી જ સૂત્ર ઉત્પન્ન થાય છેઆથી અર્થ જ પ્રધાન છે. સૂત્રની અપેક્ષા અને અર્થની અપેક્ષા સૂત્રાર્થ કઈ રીતે પ્રધાન હોય છે, તે વાત દ્રષ્ટાંત દ્વારા સ્પષ્ટ કરવામાં આવે છે.—–જેમ-તાજું દહીં મીઠું હોય છે, અને દહીંથી સાકર મીઠી હોય છે, જ્યારે એ બને ને એક બીજા સાથે મેળવવામાં આવે છે ત્યારે ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८४ उत्तराध्ययनसूत्रे ण्डनामकं द्रव्यं भवति, तत् खलु उभाभ्यां पृथगवस्थिताभ्यां दधिशर्कराभ्यामधिकं विशिष्टास्वादजनकं यथा भाति, तथा सूत्रार्थोभयस्य सर्वभावाधिगमकारणत्वेन विशिष्टभावशुद्धिजनकत्वात् सर्वतः प्राधान्यम् । अतस्तदुभयधरस्य महती निर्जरा भवति ॥ २३ ॥ ॥ इति नवमं द्वारम् ।। पुनः शिष्यस्य वाग्विनयमाहमलम-मुसं परिहरे भिक्खू , न ये ओहारणिं वए । भासदोसं परिहरे, मौयं च वजए सया ॥ २४ ॥ में संमिश्रण हो जाता है तो उससे श्रीखंडनाम का एक अपूर्व मधुर पदार्थ बनता हैं। उसका स्वाद न दही जैसा होता है और न शक्कर जैसा होता है। किन्तु इन दोनों से विलक्षण स्वाद होता है। इसी तरह सूत्र अर्थ ये दोनों जब सम्मिलित होते हैं तब इनसे समस्त भावों का-पदार्थों के स्वरूप का ज्ञान होने लगता है जो न केवल सूत्र से साध्य है और न केवल अर्थ से। इससे विशिष्ट भावों की अर्थात्-अध्यवसायों की विशिष्ट शुद्धि होती है। इसलिये मूत्र और अर्थ इन दोनों की अपेक्षा तदुभय प्रधान कहा गया है और इसीलिये केवल सूत्रधारी अथवा केवल अर्थधारी को अपेक्षा तदुभयधारी की सेवा करने वाले के महानिर्जरा होती है । इस तरह तेवीसवीं गाथा का अर्थ संक्षेप से संपूर्ण हुआ विस्तार से अर्थ अन्य शास्त्रों से समझना चाहिये ॥२३॥ नवमा छार सम्पूर्ण એનાથી શ્રીખંડ નામને એક અપૂર્વ મધુર પદાર્થ બને છે, જેને સ્વાદ ન દહીં જે હોય છે અને ન તો સાકર જે. પરંતુ આ બન્નેથી જુદી જ જાતને સ્વાદ હોય છે. આવી જ રીતે સૂત્ર અને અર્થ એ બન્ને જ્યારે સમ્મિલિત હોય છે, ત્યારે એનાથી સમસ્ત ભાવેનું-પદાર્થોના સ્વરૂપનું જ્ઞાન થવા લાગે છે. જે ન કેવળ સૂત્રથી સાધ્ય છે અને ન કેવળ અર્થથી. એનાથી વિશિષ્ટ ભાવોની અર્થાતુ-અધ્યવસાયની વિશિષ્ટ શુદ્ધિ થાય છે. આ માટે સૂત્ર અને અર્થે આ બનેની અપેક્ષા તદુભય પ્રધાન કહેવામાં આવેલ છે. અને એજ માટે કેવળ સૂત્ર ધારી અથવા કેવળ અર્થ ધારીની અપેક્ષા તદુભયધારીની સેવા કરવાવાળાની મહાનિર્જરા થાય છે. આ રીતે તેવીસમી ગાથાને અર્થ સંક્ષેપથી સંપૂર્ણ થયે. વિસ્તારથી અર્થ અન્ય શાસ્ત્રોથી સમજવું જોઈએ. જે ૨૩ નવમું દ્વાર સંપૂર્ણ ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रियदर्शिनी टीका. अ० १ गा. २४ निरवद्यभाषणविधिः छाया - मृषा परिहरेद् भिक्षुः, न चावधारणीं वदेत् । भाषादोष परिहरेत्, मायां च वर्जयेत् सदा || २४ ॥ १८५ टीका – 'मुसं परिहरे ' इत्यादि । भिक्षुः = साधुः, मृषा = मृषावादम् असत्यवचनं परिहरेत् = वर्जयेत् । मृषावादः संक्षेपेण द्विविधः - लौकिको लोकोत्तरश्च । तत्र प्रत्येकं द्रव्य-क्षेत्र - काल-भाव-भेदाचतुर्धा | द्रव्यतो लौकिकमृषावादः - विपरीतद्रव्यकथनम्, यथा- गाम् अश्वं कथयति । क्षेत्रतः - यथा - अन्यदीयक्षेत्रं प्रति मदीयमिदं क्षेत्रम् इति कथनम् । एवमेव कालेsपि भूत भविष्यद् वर्तमानविषये विपरीतकथनम्, यथा – पूर्वाद्धं प्रति - मध्याह्नकालोऽयमिति कथनम् इत्यादि । , भावतो लौकिकमृषावादः - क्रोधादिकषायनिमित्तकः, तत्र क्रोधतो यथारुष्टः पुत्रो वदति नैंप मम पिता, रुष्टः पिता वा वदति - नैष मम पुत्र इति । मानतो शिष्य के वचनविनय के विषय में सूत्रकार समझाते हुए कहते हैं कि - ' मुसं० ' इत्यादि । अन्वयार्थ - ( भिक्खू मुसं परिहरे- भिक्षुः मृषा परिहरेत्) भिक्षु - साधु का कर्तव्य है कि वह मृषावाद का परित्याग कर देवे । मृषावाद संक्षेप से दो प्रकार का है-एक लौकिक और दूसरा लोकोत्तर । ये दोनों द्रव्य, क्षेत्र, काल, एवं भाव से चार २ प्रकार के हैं । विपरीत द्रव्य का कहना यह द्रव्य से लौकिक मृषावाद है जैसे गाय को घोड़ा कहना ॥ १॥ दूसरे के क्षेत्रको अपना क्षेत्र बनाना यह क्षेत्र की अपेक्षा मृषावाद है || २ | पूर्वाह्न को मध्याह्नकाल बतलाना यह काल की अपेक्षा मृषावाद है ॥ ३ ॥ जो क्रोधादि कषाय निमित्तक होता है वह भाव की अपेक्षा मृषावाद कहलाता है ४ ॥ वह भी चार प्रकार का है - जैसे क्रोध के आवेश में शिष्यना वयनविनयना विषयभां सूत्रार समन्नवतां हे छे - मुसं० त्यिाहि अन्वयार्थ - भिक्खुमुखं परिहरे भिक्षुः मृषापरिहरेत् लिक्षु साधुनुं तव्य છે કે તે મૃષાવાદને પરિત્યાગ કરી દે. મૃષાવાદ સંક્ષેપથી એ પ્રકારે છે. એક લૌકિક અને બીજો લેાકેાત્તર આ બન્ને દ્રવ્ય, ક્ષેત્ર, કાળ અને ભાવથી ચાર પ્રકારના છે. વિપરીત દ્રવ્યનું કહેવું એ દ્રવ્યથી લૌકિક મૃષાવાદ છે, જેમ ગાયને ઘેાડા કહેવા, ॥૧॥ બીજાના ક્ષેત્રને પેાતાનું ક્ષેત્ર બનાવવુ તે ક્ષેત્રની અપેક્ષા મૃષાવાદ છે "રા સવારને મધ્યાન કાળ કહેવા એ કાળની અપેક્ષા મૃષાવાદ છે. ઘણા જે ક્રોધાદિક કષાય નિમિત્ત બને છે, તે ભાવની અપેક્ષા મૃષાવાદ કહેવાય છે. ાજા તે પશુ ચાર પ્રકારથી છે. જેમ ક્રોધનાં આવેશમાં આવીને પુત્ર કહે છે કે આ મારા પિતા નથી અથવા જે સમય उ० २४ ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર ઃ ૧ Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययनसूत्रे यथा-अस्य कुटुम्बस्य भरणपोषणादिकार्य कर्तुं को मां विहाय समर्थः ? । मायातो यथा-राजकरग्राहकः कंचिद् व्यापारिणं विक्रयवस्तु समादाय स्वस्थानमागतं प्रति पृच्छति-' कस्येदं वस्तुजातम् ' इति, एवं पृष्टोऽसौ व्यापारी मायया कथयति'नास्ति ममेदं वस्तुजातम् , अन्यदीयमेतत् सर्वम् ' इति । ____लोभतो यथा-व्यापारी लोभवशाद् वदति ग्राहकं प्रति ' यावता मूल्येन मया क्रीतं, तावतैव तव हस्ते विक्रीणामि किंचिदप्यधिक मूल्यं न गृहामी-'ति । लोकोत्तरमृषावादः प्रदर्श्यते--तत्र द्रव्यतो यथा-जीवम् अजीवं वदति, अजीवं आकर पुत्र कहता कि यह मेरा पिता नहीं है। अथवा जिस समय पिता रुष्ट होता है, उस समय वह कहता है कि यह मेरा पुत्र नहीं है, यह सब कथन क्रोध रूप भाव की अपेक्षा मृषावाद है (१) मन कषाय के वशवर्ती होकर ऐसा कहना कि यदि मैं न होऊँ तो इस कुटुम्ब का भरण पोषण कौन करे (२) माया के वश में होकर जो ऐसा कहता है कि यह वस्तु मेरी नही है यह तो दूसरों की है, तात्पर्य इसका यह है जब कोई व्यापारी किसी राजा का कर लेने वाले के पूछने पर कि यह विक्रेय वस्तु किसकी है तब वह माया वश कहता है कि यह तो दुसरो की है मेरी नहीं है (३) लोभ के वश होकर जो झूठ वचन बोला जाता है वह लोभ कषाय की अपेक्षा मृषावाद है-जैसे व्यापारी लोग ग्राहकों को ऐसा कहते हैं कि भाई हमने जितने मूल्य में यह चीज खरीदी है उतने ही मूल्य में हम तुम्हें यह दे रहे हैं। कुछ भी अधिक नहीं ले रहे हैं ॥ ४ ॥ यह सब लौकिक मृषावाद है। चार प्रकार का लोकोत्तर मृषावाद इस प्रकार है-जीव को अजीव कहना, अजीव પિતા ક્રોધિત બને છે તે વખતે તે કહે છે કે, આ મારે પુત્ર નથી, આ સઘળાં કથન ભાવની અપેક્ષા મૃષાવાદ છે (૧) મન કષાયના વશવતિ બનીને એવું કહેવું કે જે હું ન હોઉં તો આ કુટુંબનું ભરણ પોષણ કૅણ કરે. (૨) માયાના વશમાં આવીને જે એમ કહે છે કે આ વસ્તુ મારી નથી પણ બીજાની છે. મતલબ આની એ છે કે, જ્યારે કેઈ રાજાને કર્માચારી, કર વસુલ માટે આવે અને તેના પુછવાથી કઈવેપારી પોતાની વસ્તુ હોવા છતાં માયા વશ બની પોતાની ન હોવાનું કહી બીજાની હોવાનું બતાવે (૩) લાભના વશ બનીને જે જુઠું વચન બોલવામાં આવે છે તે લોભ કષાયની અપેક્ષા મૃષાવાદ છે. જેમ-વેપારી લોક ગ્રાહકોને એમ કહે છે કે, ભાઈ જેટલી કિંમતે આ વસ્તુ મારા ઘરમાં પડેલ છે તેજ કિંમતે હું તમને આપું છું, કાંઈ પણ ન લેતા નથી. (૪) આ બધા લોકિક મૃષાવાદ છે. ચાર પ્રકારના લોકોત્તર મૃષાવાદ આ પ્રકારે છે, જીવને ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रियदर्शिनी टीका. अ० १ गा. २४ निरवद्यभाषणविधिः वा जीवम् , इत्यादि । क्षेत्रतो यथा-भरतक्षेत्रम् ऐरवतक्षेत्रम् वदति, ऐरवतं वा भरतमिति । कालतो यथा-उत्सर्पिणीम् अवसर्पिणीं वदति, तथा-अवसर्पिणीम् उत्सर्पिणीं वदति । भावतो लोकोत्तरमृषाबादः क्रोधादिकपायजनितः, तत्र क्रोधतो यथा-सत्यपि गुरुशिष्यसम्बन्धे रुष्टो गुरुवंदति-न त्वमसि मम शिष्यः, क्रोधाविष्टः शिष्योऽपि वदति- नायं मम गुरुः' इत्यादि । मानतो यथा-अहमेव गच्छधुराधारणे समर्थोऽस्मि, यद्वा-अहमेव साधुनिर्वाहकोऽस्मि । मायातो यथा-कृतातिचारं शिष्यं प्रति गुरुः पृच्छति-त्वयाऽतिचारः कृतः किम् ? तदा शिष्यो मायया वदति न मयातिचारः कृतः' इत्यादि ।। को जीव कहना । यह द्रच्य की अपेक्षा मृषावाद है १। भरतक्षेत्र को ऐरावत क्षेत्र कहना अथवा ऐरावत क्षेत्र को भरत क्षेत्र कहना यह क्षेत्र की अपेक्षा लोकोत्तर मृषावाद है २ । उत्सर्पिणी काल को अवसर्पिणी काल कहना अथवा अवसर्पिणी काल को उत्सर्पिणी काल कहना यह काल की अपेक्षा लोकोत्तर मृषावाद है ३ । भाव से लोकोत्तर मृषावाद क्रोधादिक कषाय को लेकर चार प्रकार का है। गुरु शिष्य संबंध होने पर भी जिस समय गुरु किसी निमित्त को लेकर जब शिष्य के प्रति रुष्ट हो जाते हैं तब वे कहने लगते हैं कि तुम मेरे शिष्य नहीं हो। शिष्य भी जब क्रोध के आवेश में आ जाता है तो वह भी इस तरह से गुरु के प्रति कहने लगता है कि आप हमारे गुरु नहीं हैं। यह क्रोध की अपेक्षा लोकोत्तर भाव मृषावाद है (१)। मैं ही गच्छ की धुरा धारण करने में समर्थ हैं अथवा मैं ही साधुओं का निर्वाहकहूँ इस प्रकार कहना यह मान कषाय की अपेक्षा लोकोत्तर भाव मृषावाद है (२) । અજીવ કહેવું, અજીવને જીવ કહે, એ દ્રવ્યની અપેક્ષા મૃષાવાદ છે. (૧) ભરત ક્ષેત્રને ઐરાવતક્ષેત્ર કહેવું અને ઐરાવત ક્ષેત્રને ભરતક્ષેત્ર કહેવું તે ક્ષેત્રની અપેક્ષા લકત્તર મૃષાવાદ છે. (૨) ઉત્સર્પિણી કાળને અવસર્પિણી કાળ કહેવે અથવા અવસર્પિણી કાળને ઉત્સર્પિણી કાળ કહે એ કાળની અપેક્ષા કેત્તર મૃષા વાદ છે. (૩) ભાવથી લોકોત્તર મૃષાવાદ ક્રોધાદિક કષાયને લઈ ચાર પ્રકારના છે. ગુરુ કેઈ નિમિત્તે જ્યારે શિષ્ય પ્રત્યે કોધિત બને છે ત્યારે તે કહેવા લાગે છે કે તું મારે શિષ્ય નથી, શિષ્ય પણ ક્રોધના આવેશમાં આવી જાય છે, ત્યારે તે પણ પોતાના ગુરુને કહેવા લાગે છે કે આપ મારા ગુરુ નથી. આ ક્રોધની અપેક્ષા કેત્તર ભાવ મૃષાવાદ છે. (૧) હું જ ગચ્છની ધુરા ધારણ કરવામાં સમર્થ છું અથવા હું જ સાધુઓને નિર્વાહક છું. આ પ્રકારે કહેવું એ માન કષાયની અપેક્ષા કેત્તર ભાવ મૃષાવાદ છે. (૨) જે સમય શિષ્ય જ્યારે ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८८ उत्तराध्ययनसूत्रे लोभतो यथा---अकल्प्येऽपि वस्त्रपात्रादौ, 'ममेदं वस्त्रं कल्पते' इत्यादि कथनम् । यद्वा-मृपावादश्चतुर्विधः-सद्भावप्रतिषेधः १, असद्भावोद्भावनम् २, अर्थानन्तरम् ३, गौं च ४, । तत्र सद्भावप्रतिषेधो यथा—नास्त्यात्मा, नास्ति पुण्यं, नास्ति पापम् , इत्यादि । असद्भावोद्भावनं यथा-अस्त्यात्मा सर्वगतः, आत्मा स्यामाकतण्डुलमात्रः, इत्यादि । अर्थान्तरं यथा-गोविषये-'अश्वोऽयम् ' इति । गर्दा तु विधा-एका सावधव्यापारप्रवतेनी, यथा 'क्षेत्रं कृष' इत्यादि । द्वितीया-अप्रिया, जिस समय शिष्य जब कोई अतिचार लगा लेता है तो गुरु महाराज उससे पूछते हैं कि क्या तुमने अतिचार लगाया है तब शिष्य माया कषाय का अवलम्बन कर कहता है कि मैंने कोई अतिचार नहीं लगाया, इस प्रकार शिष्य का यह कथन माया कषाय की अपेक्षा लोकोत्तर भावमृषावाद है (३)। जो वस्त्र पात्रादिक अकल्पनीय हैं उनमें ये मेरे लिये कल्पनीय हैं इस प्रकार कहना यह लोभकषाय की अपेक्षा लोकोत्तर मृषावाद है। अथवा-मृषावाद इन अन्य प्रकारों से भी चार भेद वाला है-१ सद्भाव का प्रतिषेध, २ असद्भाव का उद्भावन, ३ अर्थान्तर, ४ गाँ। आत्मा नहीं है पुण्य और पाप नहीं हैं इस प्रकार सत् अर्थ का अपलापक वचन सद्भाव प्रतिषेध मृषावाद है १ । आत्मा सर्वव्यापक है अथवा श्यामाक तन्दुल के समान आत्मा है इस प्रकार असत् अर्थ का उद्धावक वचन असद्भाव का उद्भावनरूप द्वितीय मृषावाद है २ । गो के विषय में ऐसा कहना कि यह अश्व है इस प्रकार अर्थान्तर का कथक वचन तृतीय अर्थान्तर नामक मृषावाद है ३ । गर्दा तीन प्रकार की है सावध કઈ અતિચાર લગાડી લે છે તો ગુરુ મહારાજ એને પૂછે છે કે, શું તને અતિચાર લાગેલ છે, ત્યારે શિષ્ય માયા કષાયનું અવલંબન કરી કહે છે કે મેં કઈ અતિચાર લગાડેલ નથી. આ પ્રકારનું એ શિષ્યનું કથન માયા કષાયની અપેક્ષા લેાકાર ભાવ મૃષાવાદ. (૩) જે વસ્ત્ર પાત્રાદિક અકલ્પનીય છે એમાં એ મારા માટે ક૯૫નીય છે એમ કહેવું તે લેક કષાયની અપેક્ષા લકત્તર મળ્યાવાદ છે. અથવા-મૃષાવાદ એ અન્ય પ્રકારેથી પણ ચાર ભેદ વાળા છે. ૧ સદ્ભાવને પ્રતિષેધ, ૨ અસદુભાવનું ઉદ્દભાવન, ૩ અર્થાતર, ૪ ગહ. આત્મા નથી, પુણ્ય અને પાપ નથી, આ પ્રકારનું સાચા અર્થનું અપલાયક વચન સદ્દભાવ પ્રતિષેધ મૃષાવાદ છે. ૧. આત્મા સર્વ વ્યાપક છે, અથવા સ્યામાક ચખાના જે આત્મા છે, આ પ્રકારનું અસત્ અર્થનું ઉદ્દભાવક વચન અસદુભાવનું ઉદ્દભાવ ન ૩૫ બીજું મૃષાવાદ છે. ૨. ગાયના વિષયમાં એવું કહેવું કે તે ઘડો છે. આ પ્રકારે અર્થાન્તરનું કથન વચન ત્રીજે અર્થાન્તર નામને મૃષાવાદ છે. ૩. ગહ ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रियदर्शिनी टीका. अ० १ गा. २४ निरवद्यभाषणविधिः यथा-काणं प्रति-'अयं काण' इत्यादि । तृतीया-आक्रोशरूपा यथा-'अरे बान्धकिनेय दासीपुत्रः ?' इत्यादि । पुनरयं क्रोधादिभावोपलक्षितचतुर्विधः । अत्रेदं बोध्यम्मृषावादः क्रोधमानमायालोभहास्यभयव्रीडाक्रीडारत्यरतिदाक्षिण्यमात्सर्यविषादादिभिः संभवति । पीडाजनकः सत्यवादोऽपि मृषावाद इति । मृपाभाषणे दोषा उक्ताः-- धर्महानिरविश्वासो, देहार्थव्यसनं तथा। ____ असत्यभाषिणां निन्दा, दुर्गतिश्चोपजायते ॥ १ ॥ इति । व्यापार प्रवर्तिनी, अप्रिया, और आक्रोशरूपा। क्षेत्र को जोतो इत्यादिक सावद्यव्यापार में प्रवर्तन कराने वाला वचन गर्दा का प्रथम भेद है । काने को काना कहना यह गर्दा का द्वितीय प्रकार है। 'अरे कुलटा के पुत्र' इत्यादि वचन गर्दा का तृतीय प्रकार है। क्रोध, मान, माया, लोभ, हास्य, भय, ब्रोडा-(लज्जा) क्रीडा, रति, अरति, दाक्षिण्य, मात्सर्य एवं विषाद आदि निमित्तो को लेकर मृषावाद में मनुष्यों की प्रवृत्ति होती है । जिस सत्यवचन से दूसरों की पीडा उपजे ऐसा सत्यवचन भी मृषावाद में अन्तर्हित जानना चाहिये । मृषावाद में अनेक दोष हैं-जैसे कहा है "धर्महानिरविश्वासो, देहार्थव्यसनं तथा ॥ असत्यभाषिणां निन्दा, दुर्गतिश्चोपजायते ॥१॥" मृषावाद से धर्म की क्षति होती है लोगों में विश्वास उठ जाता है देह और धन का नाश होता है । जो असत्यभाषी होते हैं उनकी अनेक ત્રણ પ્રકારની છે. સાવદ્ય વ્યાપાર પ્રવર્તિની, અપ્રિયા અને આક્રોશ રૂપા ક્ષેત્રને જોઈને ઈત્યાદિક સાવધ વ્યાપારમાં પ્રવર્તન કરાવનાર વચન ગહને પ્રથમ ભેદ છે. કાણાને કાણે કહે એ ગહને બીજો પ્રકાર છે “અરે કુલ્હાના પુત્ર त्याहि क्यन अनि श्री ५४२ छ. ध, मान, भाया; aiस, हास्य, मय, લજજા કીડા, રતિ, અરતિ, દાક્ષિણ્ય, માત્સર્ય અને વિષાદ આદિ નિમિત્તોને મૃષાવાદમાં મનુષ્યની પ્રવૃતિ થાય છે. જે સત્ય વચનથી બીજાઓને પીડા ઉપજે એવું સત્ય વચન પણ મૃષાવાદમાં અંતહિંત જાણવું જોઈએ મૃષાવાદમાં એનેક દેષ છે. જેવી રીતે કહ્યું છે કે – "धर्महानिरविश्वासो देहार्थव्यसनं तथा। असत्यभाषिणां निन्दा दुर्गतिश्चोपजायते ॥१॥" મૃષાવાદથી ધર્મની ક્ષતી થાય છે, તેને વિશ્વાસ ઉઠી જાય છે, દેહ અને ધનને નાશ થાય છે, જે અસત્ય ભાષી હોય છે તેની અનેક પ્રકારથી ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययनसूत्र च-पुनः, अवधारणीम्-निश्चयात्मिकां भाषां न वदेत्-'गमिष्याम्येव' 'करिष्याम्येव' इत्यादिकां भाषां न ब्रूयादित्यर्थः । यतः "अन्नह परिचिंतिज्जइ, कज्जं परिणमइ अन्नहा वेव । विहिवसयाण जियाणं, मुहुत्तमेत्तं पि बहुविग्धं ॥ १ ॥ छाया-अन्यथा परिचिन्त्यते, कार्य परिणमत्यन्यथा चैत्र । विधिवशगानां जीवानां मुहूर्तमात्रमपि बहुविघ्नम् ॥ १॥ यद्वा-अवधार्यते ज्ञायतेऽर्थोऽनयेत्यवधारणी अवबोधननिका भाषा, सा चतुर्विधा-सत्या, मृषा, सत्यामृषा, असत्यामृषा च । प्रकार से इस लोक में निन्दा होती है और परलोक में उन्हें दुर्गति की प्राप्ति होती है । अवधारणात्मक (निश्चयकारी) भाषा को बोलना यह भी एक असत्य का प्रकार है-जैसे-' जाऊँगा ही,' 'करूँगा ही। अथवा-'जाऊँगा'' करूँगा' इस प्रकार को भाषा मृषावाद में इसलिये सम्मिलित हो जाती है कि" अन्नह परिचिंतिज्जइ, कज्जं परिणमइ अन्नहा चेव । विहिवसाण जियाणं मुहुत्तमेत्तं पि बहुविग्धं " ॥१॥ बोलने वाला विचारता कुछ है और होता कुछ है । मन में अवधारित बात की पूर्ति नहीं होती है । क्यों कि कर्म वशवर्ती जीवों के एक मुहूर्त में भी अनेक विघ्न उत्पन्न हो जाते हैं । अथवा-"अवधारण" शब्द का अर्थ अवरोध जनक भी है। यह अवबोधजनक भाषा सत्या १, मृषा २, सत्यामृषा ३, एवं असत्यामृषा ४, के भेद से આ લેકમાં નિંદા થાય છે, અને પરલોકમાં તેને દુર્ગતિની પ્રાપ્તિ થાય છે. અવધારણાત્મક નિશ્ચયકારી ભાષા બેલવી એ પણ એક અસત્યનો પ્રકાર છે. रेम-'०४७AN, रीश ' अथवा-०४६श-४२३३'। प्रा२नी लाषा भूषावाहमा એ માટે સમાય જાય કે – अन्नह परिचिंतिजई कज्जं परिणामइ अन्नहा चेव। विहिवसयाण जीयाणं मुहुत्त मेत्तं बहुविग्धं ॥ १ ॥ બોલવાવાળે વિચારે છે કાંઈ અને બને છે કાંઈ, મનમાં અવધારીત વાતની પૂર્તિ થતી નથી કેમકે, કર્મવશ વર્તી જીવને એક ઘડીમાં પણ અનેક વિદન ઉત્પન્ન થાય છે. અથવા–“અવધારણ” શબ્દને અર્થ અવ બેધજનક પણ છે. અવ બેધજનક ભાષા ૧ સત્યા, ૨ મૃષા, ૩ સત્યામૃષા અને ૪ અસત્યામૃષાના ભેદથી ચાર પ્રકારની છે. દેશકાળાદિકની અપેક્ષા જેમાં કોઈ પ્રકારને ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रियदर्शिनी टीका. अ० १ गा. २४ निरषद्यभाषणविधिः तत्राराधनी सत्या। आराध्यते मोक्षमार्गोऽनयेत्याराधनी यथावस्थितवस्त्वभिधायिनी-या सर्वज्ञमतानुसारेण भाष्यते, यथा-अस्त्यात्मा सदसन्नित्यानित्यायनेकधर्मयुक्त इत्यादि। ____ या तु विराधनी विपरीतवस्त्वभिधायिनी सा मृषा। विराध्यते मोक्षमार्गोऽनयेति विराधनी, सर्वज्ञमतप्रातिकूल्येन भाष्यते, यथा-' नास्त्यात्मा' यथा वा'एकान्तनित्य आत्मा' यथा वा-अचौरे 'अयं चौरः' इत्यादि । तथा-सत्याऽपि परपीडोत्पादिका, सा परपीडाजनकत्वाद् मुक्तिविराधनाद् वा विराधनी, विराधनोत्वाच्च मृषा। यथा चौरं पति-'अयं चौरः' इति । चार प्रकार की है। देशकालादिक की अपेक्षा जिसमें किसी भी प्रकार का विसंवाद न आसके एवं वस्तुका जो स्वरूप है उसे उसी प्रकार से कहने वाली भाषा सत्य भाषा है। इस भाषा से मोक्षाभिलाषी मोक्षमार्ग की आराधना करते हैं। जैसे-आत्मा है और वह न सर्वथा नित्य है और न सर्वथा अनित्य है किन्तु कथंचित् नित्यानित्यात्मक है (१) इस प्रकार अनेक धर्मविशिष्ट वस्तु का कथन करने वाली भाषा इस कोटि में परिगणित होती है १। जो भाषा विराधिनी है-वस्तु के विपरीत स्वरूप को प्रतिपादन करने वाली है-वह मृषा भाषा है। इसको बोलने वाला प्राणी कभी भी मुक्तिमार्ग का आराधक नहीं हो सकता है । इस प्रकार की भाषा में सदा सर्वज्ञ मत से प्रतिकूलता रहा करती है। जैसे-आत्मा नहीं है। अथवा है भी तो वह सर्वथा नित्य है या सर्वथा अनित्य है । अथवा जो चोर नहीं है उसको 'यह चोर है' ऐसा कहना । जो भाषा सत्य भी हो-परन्तु यदि उससे दूसरों को पीड़ा होती हो तो वह भी इसी मृषावाद में सम्मिलित जाननी चाहिये २। વિસંવાદ ન આવી શકે અને વસ્તુનું જ સ્વરૂપ છે તેને તેવા પ્રકારથી કહેવાવાળી ભાષા સત્ય ભાષા છે આ ભાષાથી મોક્ષાભિલાષી મોક્ષ માર્ગની આરા. ધના કરે છે. જેમ આત્મા છે અને તે સર્વથા નિત્ય નથી તેમ સર્વથા અનિત્ય પણ નથી. પરંતુ કથંચિત નિત્યાનિત્યાત્મક છે. આ રીતે અનેક ધર્મ વિશિષ્ટ વસ્તુનું કથન કરવાવાળી ભાષા આ કટિમાં પરિગણીત થાય છે (૧) જે ભાષા વિરાધિની વસ્તુના વિપરીત સ્વરૂપને પ્રતિપાદન કરવાવાળી છે. તે મૃષા ભાષા છે. એને બેલનાર પ્રાણી કદી પણ મુક્તિ માર્ગને આરાધક બની શકતું નથી. આ પ્રકારની ભાષામાં સદા સર્વજ્ઞ મતથી પ્રતિકૂળતા રહ્યા કરે છે. જેમ–આત્મા નથી, અથવા છે તે પણ તે સર્વથા નિત્ય છે યા સર્વથા અનિત્ય છે, અથવા જે ચોર નથી એને “આ ચોર છે” એમ કહેવું, જે ભાષા સત્ય પણ હોય–પરંતુ જે એનાથી બીજાને પીડા થતી હોય તે તે પણ આ મૃષાવાદમાં સંમ્મિલિત ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - उत्तराध्ययनसूत्रे या तु आराधनविराधनी सा सत्यमृषा-आराधनी चासौ विराधनी च आराधनविराधनी, कर्मधारयत्वात् पुंवद्भावः। यथावस्थितवस्तुतत्त्वाभिधायिनी विपरीतवस्त्वभिधायिनी चेत्युभयस्वभावा सत्यामृषा । यथा-कस्मिंश्चिन्नगरे पञ्चसु दारकेषु जातेषु एवमभिधीयते । अस्मिन्नगरेऽद्य दश दारका जाताः' इति सा आराधनविराधनी । इयं हि पश्चानां दारकाणां यज्जन्म, तावतांशेन संवादनसंभवादाराधनी, दश न पूर्यन्ते इत्येतावतांऽशेन विसंवादसंभवाद् विराधनी भवति । यद्वा-श्वस्ते शतं दास्यामीत्यभिधाय पञ्चाशत्स्वपि दत्तेषु लोके मृषात्वादर्शनात् , अदत्तेष्वेव च मृपात्वसिद्धेः, सर्वथा प्रदानक्रियाऽभावेन सर्वथाव्यत्ययात् । जो भाषा आराधनी भी हो और विराधिनी हो वह सत्यमृषा भाषा है। सत्यभाषा का नाम आराधिनी है और मृषाभाषा का नाम विराधिनी है। इन दोनों स्वरूपवाली जो भाषा है वह सत्यामृषा भाषा है जैसे यह कहना कि आज इस गांव में दश बालक उत्पन्न हुए हैं। उस गांव में पांच ही बालक उत्पन्न हुए थे। तब ऐसा कहना सत्यामृषा स्वरूप इसलिये है, कि दश के कहने में पांच का अन्तर्भाव तो हो ही जाता है अतः इतने अंशकी अपेक्षा यह वचन सत्य है परन्तु दश बालक हुए नहीं हैं इतने अंश में वह मृषा है । अथवा ऐसा कहना कि “श्वस्ते शतं दास्यामि" मैं कल तुम्हें सो (१००) रुपये दंगा। इसमें सो रुपये न देकर वह यदि पचास रुपये हो दे देता है तो इसप्रकार के व्यवहार को लोक में असत्य में परिगणित नहीं किया जाता है। जितना भाग नहीं दिया गया है उसी में असत्यता आती है। हां यदि वह बिलकुल न देता तो यह भाषा જાણવી જોઈએ. (૨) જે ભાષા આરાધની પણ હોય અને વિરાધની પણ હોય તે સત્યામૃષા ભાષા છે. સત્યભાષાનું નામ આરાધિની છે અને મૃષા ભાષાનું નામ વિરાધિની છે. આ બંને સ્વરૂપવાળી જે ભાષા છે તે સત્યામૃષા ભાષા છે. જેમ એવું કહેવું કે, આજ આ ગામમાં ૧૦ બાળક જન્મ્યાં છે. કેઈ ગામમાં પાંચ જ બાળક જન્મ્યાં હતાં. ત્યારે એવું કહેવું સત્યામૃષા સ્વરૂપ આ માટે છે કે, દેશના કહેવામાં પાંચને અંતર્ભાવ તે થઈ જ જાય છે. આથી આટલા અંશની અપેક્ષા આ વચન સત્ય છે પરંતુ દસ બાળક જન્મ્યાં નથી એટલા અંશે એ મૃષા છે. અથવા એમ કહેવું કે હું “કાલે તમને સો રૂપીયા આપીશ,” આમાં સે ન આપતાં જે ૫૦ રૂપીયા પણ આવે તો આ પ્રકારના વ્યવહારમાં લોકમાં અસત્ય બોલનાર તરીકેની ગણના નથી થતી, જેટલો ભાગ આપવામાં ન આવ્યા એટલા પુરતી એમાં અસત્યતા આવે છે, પણ જો એ બીલકુલ ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रियदर्शिनी टीका. अ० १ गा. २४ निरवद्यभाषाभेदाः १९३ तु नैवाऽसत्या नापि या सा असत्यामृषा नाम चतुर्थी भाषाव्यवहाररूपा । तत्र प्रथमा चतुर्थीच भाषा भाषणीया । चतुर्थी असत्यामृषा भाषा - आमन्त्रयादिभेदयुक्ता । तत्र कोsसावामन्त्रण्यादिभेदः ? उच्यते-अयमर्थो भगवत्यामुक्तः । यथा - " अहं भंते! आसहस्सामा सहस्सामो चिट्ठिस्सामो निसीइस्सामो तुयद्विस्सामो । आमंतणि आणवणी, जायणि तह पुच्छणी य पण्णत्रणी । पच्चक्खाणी भासा, भासा इच्छाणुलीमा य ॥ १ ॥ अभिग्गहिया भासा, भासा य अभिग्गहम्मि बोद्धव्या । संसकरणी भासा, वोयडमन्त्रोयडा चेव ॥ २॥ पनत्रणी णं एसा, न एसा भासा मोसा ? | मृषा में ही अन्तर्भूत हो जाती (३) । जो न सत्य है, और न असत्य है ऐसी भाषा का नाम असत्यामृषा - अर्थात् व्यवहार भाषा है ४ । इनमें प्रथम एवं चतुर्थ भाषा बोलने योग्य है । चौथी जो असत्यामृषा भाषा है वह आमन्त्रणी आदि भेदों से अनेक प्रकार की कही गई है । इसी विषय को भगवान ने भगवती सूत्र में कहा है अह भंते! आसहस्सामो सहस्सामो चिट्ठिस्सामो निसीइस्लामी तुयद्विस्साभो । आमंतणि आणवणी, जायणि तह पुच्छणी य पण्णवणी । पच्चक्खाणी भासा, भासा इच्छानुलोमाय ॥ १ ॥ अणभिग्गहिया भासा, भासा य अभिग्गहंमि बोद्धव्वा । संसकरणी भासा, वोयडमव्वोयडा चेव ॥ २ ॥ पनवणी णं एसा, न एसा भासा मोसा ? | ન દેત તા એ ભાષા મૃષામાં જ અંતર્ભૂત ખની જાત. (૩) જે ન સત્ય છે અને ન અસત્ય છે એવી ભાષાનું નામ અસત્યામૃષા-અર્થાત વ્યવહાર ભાષા છે. (૪) આમાં પ્રથમ અને ચેાથી ભાષા ખેલવા યાગ્ય છે. ચેાથી જે અસત્યામૃષા ભાષા છે, તેને આમંત્રણી આદિ ભેદોથી અનેક પ્રકારની કહેવામાં આવે છે. આ વિષયને ભગવાને ભગવતી સૂત્રમાં કહેલ છે अहं भते आस्साम सइस्लामो चिट्ठिस्यामो निसीइस्लामो तुयट्ठिस्सामो । आमंतणि आणवणी, जायणि तह पुच्छणी य पष्णवणी । पच्चक्खाणी भासा भासा इच्छाणु लोमाय ॥ १ ॥ अभिग्गहिया भासा, भासा य अभिग्गहंमि बोद्धव्या । संसकरणी भासा, वोयडमव्वोयडा चेव ॥ २ ॥ पन्नवणी णं एसा, न एसा भासा मोसा ? । उ० २५ ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર ઃ ૧ Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९४ उत्तराध्ययनसूत्रे हंता ! गोयमा ! आसइस्सामो तं चेव० जाव न एसा भासा मोसा। __ (भ० १० श० ३ उ० ४०३ सू०) छाया--अथ भदन्त ! आशयिष्यामहे शयिष्यामहे स्थास्यामः निषत्स्यामः त्ययवतयिष्यामः। आमन्त्रणी आज्ञापनी याचनी तथा प्रच्छनी च प्रज्ञापनी । प्रत्याख्यानी भाषा, भाषा इच्छानुलोमा च ॥ १॥ अनभिगृहीता भाषा, भाषा चाभिग्रहे बोद्धव्या । संशयकरणी भाषा, व्याकृता अव्याकृता चैव ॥२॥ प्रज्ञापनो खलु एषा, नैषा भाषा मृषा ?। हंत ! गौतम ! आशयिष्यामहे तदेव यावत् नैपा भाषा मृषा । व्याख्या-'अथ' इति प्रश्नार्थकः । भदन्त ! हे भगवन इत्येवं श्री महावीरं गौतमः पृच्छति-आश्रयिष्यामहे=आश्रयणीयं वस्तु स्वीकरिष्यामः, शयिष्यामहे विशेषतः शयनं करिष्यामहे, स्थास्यामः-ऊर्ध्वस्थानेन स्थास्यामः, निषत्स्यामः उपवेक्ष्यामः। स्वपरिवर्तयिष्यामः-संस्तारके पार्श्वपरिवर्तनं करिष्यामः, यद्वा-आश्रयिष्यामःआश्रयणीय स्थानादिकं स्वीकरिष्यामः । इत्यादिका भाषा किं प्रज्ञापनी ? इत्यन्वयः इदमुपलक्षणम् । एवंजातीया भाषाविशेषाः किं प्रज्ञापनीरूपाः ? इति भावः । हंता ! गोयमा ! आसइस्सामो तं चेव० जाव न एसा भासा मोसा (भ. १० श० ३ उ. ४०३ सूत्र) भगवान महावीर से गौतम पूछते हैं कि-हे भगवन् ! हम आश्रयः योग्य वस्तु का आश्रय लेंगे, शयन करेंगे, खडे रहेंगे, बैठेंगे, करवट बदलेंगे इत्यादिक भाषा, तथा आमंत्रणी आदि भाषा क्या प्रज्ञापनी भाषा है ? यह भाषा मृषा नहीं है ?। आमन्त्रणी आदि भाषाओं के नाम ये हैं-१ आमंत्रणी, २ आज्ञापनी, ३ याचनी, ४ प्रच्छनी,५ प्रज्ञापनी, ६ प्रत्याख्यानी, ७ इच्छानुलोमा,८अनभिगृहीता, ९ अभिगृहाता, १० संशयकरणी, ११ व्याकृता, १२ अव्याकृता । इस प्रकार गौतम स्वामी के पूछने पर भगवान् उत्तर हंता गोयमा! आसइस्सामो तंव० जाव न एसा भासा मोसा(भ.१०श.३उ.४०३ सूत्र) ભગવાન મહાવીરને ગૌતમ પૂછે છે કે હે ભગવાન ! અમે સુઈશું, વધું સુઈશું, ઉભા રહિશું, બેસણું, કરવટ બદલશુ, ઇત્યાદિક ભાષા તથા આમંત્રણ આદિ ભાષા શું પ્રજ્ઞાપની ભાષા છે? આ ભાષા મૃષા નથી ? આમંત્રણ આદિ ભાષાઓનાં નામ આ છે-૧ આમત્રણ ૨ આજ્ઞાપની ૩ યાચની ૪ પ્રચ્છની ૫ પ્રજ્ઞાપની ૬ પ્રત્યાખ્યાની ૭ ઈચ્છાનુલોમા ૮ અનભિગ્રહીતા ૯ અભિગૃહીતા, ૧૦ સંશયકરણી, ૧૧ વ્યાકૃતા, ૧૨ અવ્યાકૃતા. આ પ્રકારે ગૌતમ ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रियदर्शिनी टीका. अ० १ गा. २४ निरवद्यभाषाभेदाः तत्र - आमन्त्रणी - यथा 'हे साधी !' इत्यादि । एषा च किल वस्तुनोऽविधायकत्वादनिषेधकत्वाच्च सत्यादिभाषात्रयलक्षणवियोगतश्चाऽसत्यामृषा व्यवहाररूपा | १ | 44 17 आज्ञापन-कार्ये परस्य प्रवर्तनी यथा इदं कुरु " इदं मा कुरु " इत्यादि । एषा च निर्दिष्ट कार्यप्रवर्तकत्वाददुष्टविवक्षासद्भावाच्चाऽसत्यामृषा । एवमन्यत्रापि भावनीयम् ॥ २ ॥ याचनी - अनिर्दिष्टवस्तुविशेषस्य देहीत्येवं याचनरूपा । यथाभिक्षां देहि " ॥ ३ ॥ " प्रच्छनी -- अविज्ञातस्य संदिग्धस्य वाऽर्थस्य ज्ञानार्थ प्रच्छनम् । यथा“ कथमेतत् ” ? ॥ ४ ॥ देते हैं कि हे गौतम! पूर्वोक्त प्रकार की भाषा प्रज्ञापनी भाषा है, किन्तु यह भाषा मृषा नहीं है । आमन्त्रणी आदि भाषाओं का अर्थ कहते हैं आमन्त्रणी' हे साधो !' इत्यादि । यह किसी वस्तु की अविधायक एवं अनिषेधक होने से, तथा सत्यादि तीन भाषा के लक्षण से रहित होने से असत्यामृषास्वरूप व्यवहार भाषा है १ । आज्ञापनी - दूसरे को कार्य में प्रवृत्त कराने वाली भाषा आज्ञापनी भाषा है। जैसे- 'यह करो, यह मत करो ' इत्यादि । यह भाषा निर्दिष्टकार्य में प्रवर्तक होने से तथा निर्दोष विवक्षा के सद्भाव से असत्यामृषा-स्वरूप है २ । याचनी- “भिक्षा दो " इस प्रकार की याचनस्वरूप भाषा याचनी भाषा है ३ । प्रच्छनीअविज्ञात-अर्थात् बिना जाने हुए विषय को, अथवा संदिग्ध अर्थात्संदेहयुक्त विषय को जानने के लिये जो पूछना वह प्रच्छनी भाषा है ४ । સ્વામીના પુછવાથી ભગવાન ઉત્તર દે છે કે હે ગૌતમ પૂર્ણાંકત પ્રકારની ભાષા પ્રજ્ઞા૫નીભાષા છે પરંતુ આ ભાષા મૃષા નથી. આમ ત્રણી વગેરે ભાષાઓના અર્થ કહે છે. અમન્ત્રણી—હે સાધા ! ઈત્યાદિ ! આ કઈ વસ્તુની અવિધાયક અને અનિષેધક હોવાથી,તથા સત્યાદિ ભાષાત્રયના લક્ષણથી રહિત હાવાથી અસત્યામૃષા સ્વરૂપ વ્યવહાર ભાષા છે. ૧ આજ્ઞાપની-બીજાને કા માં પ્રવૃત્ત કરાવવાવાળી ભાષા આજ્ઞાપની लाषा छे. नेभ-या १, मा न पुरो, इत्याहि ! या भाषा निर्दिष्टार्थमां प्रवर्त હાવાથી તથા નિર્દોષ વિવક્ષાના સદ્ભાવથી અસત્યાસૃષા સ્વરૂપ છે. ર યાચની “ लिक्षाहो ” मा अारनी यायना स्व३५ भाषा यायनीलाषा छे 3 अरछनीઅવિજ્ઞાત, અર્થાત્ જાણ્યા વગરના વિષયની અથવા -સ ંદિગ્ધ અર્થાત્-સ ંદેહયુકત વિષયને જાણવા માટે જે પૂછવું તે પુનિ ભાષા છે. ૪ પ્રજ્ઞાપની-શિષ્યને ઉપ ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર ઃ ૧ १९५ Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययनसूत्रे प्रज्ञापनी-विनयस्योपदेशदानरूपा, अर्थबोधिका भाषा, यथा-हिंसाप्रवृत्तोऽनन्तदुःखभागी भवति" इत्यादि । यथा वा-प्राणिवधानिवृत्ताः प्राणिनो भवे भवे दीर्घायुषो नीरोगाश्च भवन्ति । उक्तश्च-- पाणिवहाउ नियत्ता, हवंति दीहाउ या अरोगा य । एस मई पन्नत्ता, पनवणी वीयरागेहिं ॥१॥५॥ छाया-प्राणिवधाद् निवृत्ता, भवन्ति दीर्घायुषः अरोगाश्च । एषा मतिः प्रज्ञप्ता, प्रज्ञापनी वीतरागैः ॥१॥ प्रत्याख्यानीभाषा-याचमानस्य प्रतिषेध वचनम् । यथा-मर्यादातिरिक्तं वस्त्रं पात्रं वा याचमानं शिष्यं प्रति गुरुर्वदति-"अधिकं वस्त्रं पात्रं वा न दीयते” इति ॥६॥ प्रज्ञापनो-शिष्य को उपदेश देने स्वरूप जो भाषा होती है कि जिससे उसे अर्थ का अवबोध होता है उसका नाम प्रज्ञापनी भाषा है। जैसे-"जो हिंसा में प्रवृत्त होता है वह अनंत दुःख का भागी होता है ' अथवा जो प्राणिवध से दूर रहते हैं वे भव भव में दीर्घ आयु पाते हैं तथा निरोग शरीर होते हैं ५ । उक्तंच " पाणिवहाउ नियत्ता, हवंति दीहाउया अरोगा य । एस मई पन्नत्ता, पन्नवणी वीयरागेहिं॥" । प्रत्याख्यानी-गुरु महाराज के पास याचना करते हुए शिष्य के लिये जो निषेधात्मक भाषा का प्रयोग होता है वह प्रत्याख्यानी भाषा है, जैसे-मर्यादा से अतिरिक्त वस्त्र एवं पात्र को याचने वाले शिष्य को गुरु महाराज कहते हैं कि-मर्यादा से अधिक वस्त्र व पात्र नहीं दिया जाता है" इत्यादि ६ । इच्छानुलोमा-प्रतिपादन करने वाले की अर्थात् દેશ આપવા સ્વરૂપ જે ભાષા હોય છે તે જેનાથી તેને અર્થનો અવબોધ થાય છે. એનું નામ પ્રજ્ઞાપની ભાષા છે જેમ-“જે હિંસામાં પ્રવૃત્ત બને છે તે અનંત દુઃખનો ભાગી થાય છે અથવા જે પ્રાણી વધથી દૂર રહે છે તે ભવભવમાં દીર્ધાયુ ભેગવે છે તથા શરીર નિરોગી રહે છે. એ કહ્યું છે કે___"पाणिवहाउ नियत्ता, हवंति दीहाउ या अरोगा य । एस मई पन्नत्ता, पनवणी वीयरागेहिं ॥" પ્રત્યાખ્યાની–ગુરુ મહારાજની પાસે યાચના કરનાર શિષ્યને માટે જે નિષેધાત્મક ભાષાને પ્રયોગ હોય છે તે પ્રત્યાખ્યાની ભાષા છે. જેમ-મર્યાદાથી અતિરિકત વસ્ત્ર અને પાત્રની યાચના કરનાર શિષ્યને ગુરુ મહારાજ કહે છે કે મર્યાદાથી વધુ વસ્ત્ર અને પાત્ર દેવામાં આવતું નથી. (૬) ઈત્યાદિ ! ઈચ્છાનુલોમા ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रियदर्शिनी टीका. अ० १ गा० २४ निरवद्य भाषाभेदाः १९७ इच्छानुलोमा - प्रतिपादयितुर्या इच्छा तदनुलोमा=तदनुकूला । यथा शुभकार्ये प्रेरितस्य " एवमस्तु ममाप्यभिप्रेतमेतत् " एवं रूपा, यथा वा कश्चित् किंचित् शुभकार्यमारभमाणः कंचन पृच्छति, स प्राह-' भवान् करोतु ममाप्येतदभिप्रेतम् ' इति । यथा वा केनचित् कश्चिदुक्त:- "साधुसकाशं गच्छामः" स वदति - एवमस्तु इति||७|| अनभिगृहीता - अर्थमन भिगृह्य योच्यते ' डित्थादिवत्' । अथवा - अनभिग्रहा यत्र न प्रतिनियतार्थावधारणम् । यथा - बहुपुकार्येष्ववस्थितेषु कश्चित् कचन पृच्छति - किमिदानीं करोमि १, स प्राह - ' यत् रोचते तत् कुरु ' इति ॥ ८ ॥ अभिगृहीता - अर्थमभिगृह्य योच्यते-इदं वस्त्रपात्रादिक धर्मोपकरणम्, अथवा प्रेरक की इच्छा के अनुकूल जो भाषा बोली जाती है वह 'इच्छानुलोमा' भाषा है - जैसे कोई किसी को किसी शुभ कार्य में प्रेरणा करे तब वह कहे कि 'ठीक है यह मुझे भी अभिलषित है ' । अथवा कोई किसी शुभ कार्य का प्रारंभ करते हुए किसी को पूछे तो वह कहे कि करो यह मुझे भी पसंद है । अथवा कोई ऐसा कहे- ' मैं साधु के पास जा रहा हूं तो सुनने वाला कहता है कि अच्छा जाओ । अनभिगृहीताअर्थशून्य - डित्थडवित्थादि शब्दो का बोलना । अथवा जिसमें किसी एक अर्थ का निश्चय न हो जैसे- बहुत से कार्यों के उपस्थित होने पर कोई किसी से जब यह पूछता है कि - ' कहो मैं इस समय कौनसा काम करूँ ?' तो वह कहता है कि जो तुम्हें रुचे सो करो'। इस प्रकार की भाषाका नाम अनभिगृहीता भाषा है ८ । अभिगृहीता - अर्थ को लक्ष्य करके जिस भाषाका प्रयोग किया जाता है वह अभिगृहीता भाषा है - जैसे ये वस्त्र पात्रादिक धर्म के उपकरण हैं ' । अथवा 'इस પ્રતિપાદન કરવાવાળાની અર્થાત્-પ્રેરકની ઈચ્છાને અનુકૂળ જે ભાષા બેલાય છે તે ‘ઈચ્છાનુàામા’ ભાષા છે, જેમ-કાઈ કઈ ને કઈ શુભ કાર્ય માં પ્રેરણા કરે ત્યારે કહું કે ઠીક છે. એ મારી પણ અભિલાષા છે અથવા-કઈ શુભ કાર્યના પ્રારંભ કરતાં કોઈને પૂછે તે કહે કે-કરા એ મને પણ પસંદ છે. અથવા કાઈ એમ કહે કે હું સાધુની પાસે જઇ રહ્યો છું તે સાંભળનાર કહે કે, સારૂ જાવ. ૭ અનભિગૃહિતા-અશુન્ય- ડિલ્થ ડવિત્થાર્દિ શબ્દ ખેલવા અથવા જેમાં કાઈ એક અને નિશ્ચય ન હેાય, જેમ-ઘણાં કામા ઉપસ્થિત થતાં કેઈ બીજાને જ્યારે એ પૂછે છે કે, કડા હું આ વખતે કયુ' કામ કરૂ, તે તે કહે છે કે, જે તમને રૂચે તે કરો. આ પ્રકારની ભાષાનું નામ અભિગૃહિતા ભાષા છે. ૮ અભિગ્રહીતાઅનુ લક્ષ કરીને જે ભાષાનેા પ્રયાગ કરવામાં આવે છે તે અભિગૃહિતા’ ભાષા છે. જેમ આ વજ્ર પાત્રાદ્રિક ધર્મનાં ઉપકરણ છે” અથવા · આ સમયે " ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર ઃ ૧ Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययनसूत्रे -प्रतिनियतार्थावधारणम् । यथा-इदमिदानी कर्तव्यम् , इदं न कर्तव्यमिति ॥९॥ संशयकरणी-याऽनेकार्थप्रतिपत्तिकरी सा । या भाषा अनेकार्थाभिधायि तया परस्य संशयमुत्पादयति, यथा - सैन्धवमानयेत्यत्र सैन्धव शब्दो नरळवणवाजिवाचकत्वेन संशयोत्पादकः ॥१०॥ व्याकृता-या प्रकटार्था । यथा-अहिंसा-सर्वकल्याणकारिणी ॥ ११ ॥ अव्याकृता-अतिगम्भीरशब्दार्था, अव्यक्ताक्षरप्रयुक्ता वा, यथा"संयत-स्य महत्पापं प्रतिक्रमणकर्मणा"। इत्यादि, यथा वा मम्मणादि बालभाषा ॥ १२ ॥ एषा=आमन्त्रण्यादिका भाषा प्रज्ञापनी खलु-प्रज्ञाप्यते प्रकटी क्रियतेऽर्थोऽनयेति प्रज्ञापनी अर्थकथनी, सा भाषणीया इत्यर्थः । नैषा भाषा मृषा समय यह करना चाहिये, यह नहीं करना चाहिये' ९ । संशयकरणीजिस भाषा से सुनने वालेको अनेक अर्थों की प्रतिपत्ति होने लगे उस भाषा का नाम संशयकरणी भाषा है, जैसे-किसी ने कहा कि-'सैन्धव लाओ' यह सैन्धव शब्द पुरुष, लवण और घोडे रूप अर्थों का प्रतिपादक है, अतः सुनने वाले को संशय जनक हो जाता है १० । व्याकृताजिसका अर्थ स्पष्ट होता है वह व्याकृता भाषा है जैसे-" अहिंसा सर्व प्रकार से कल्याण करने वाली है" ११। अव्याकृता-अतिगंभोर शब्दार्थवाली भाषा अव्याकृता भाषा है । अथवा-जो अव्यक्त अक्षर से युक्त होती है वह भाषा अव्याकृता भाषा है जैसे-"संयत-स्य महत्पापं प्रतिक्रमणकर्मणा" प्रतिक्रमण कर्म से संयत को बडा भारी पाप लगता है। यहां पर जब “स्य" को क्रियापद मान लिया जाता है तब इसका मा ४२वु नये, मान ४२वू नये." सश५४२७४ी-2 भाषाथी सभाનારને અનેક અર્થોને આભાસ થવા લાગે તે ભાષાનું નામ સંશયકરણી ભાષા છે. જેમ કેઈએ કહ્યું કે –“સિંધવ લાઓ” આ સિન્ધવ શબ્દ પુરુષ મીઠું અને ઘડારૂપ અર્થને પ્રતિપાદક છે. આથી સાંભળવાવાળાને પ્રકરણદિના અભાવમાં સંશયજનક બને છે. એ માટે પ્રકરણ સમજીને આ ભાષા બેલવામાં દેષ નથી કેમકે, તે વ્યવહારૂ ભાષા છે. ૧૦ વ્યાકૃતા–જેને અર્થ સ્પષ્ટ થાય છે તે વ્યાકૃત ભાષા છે. જેમ-“અહિંસા” સર્વ પ્રકારથી કલ્યાણ કરવાવાળી છે.” ૧૧ અવ્યાકૃતા અતિ ગંભીર શબ્દાર્થવાળી ભાષા અવ્યાકૃત ભાષા છે. અથવા–જે અવ્યકત અક્ષરથી યુકત હોય છે તે ભાષા અવ્યાકૃત ભાષા છે. જેમ संयत-स्य महत्पापं प्रतिक्रमणा कर्मणा પ્રતિક્રમણ કર્મથી સંયતને મોટું ભારે પાપ લાગે છે, અહિં જ્યારે “” ને ક્રિયાપદ માનવામાં આવે ત્યારે એને અર્થ એવો થાય છે કે, હે ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रियदर्शिनी टीका. अ० १ गा० २४ निरवद्यभाषाभेदाः १९९ -एषा भाषा मृषा अवक्तव्या नेत्यर्थः । प्रश्नकर्तुरयमभिप्रायः- आशयिष्यामहे' इत्यादिका भाषा भविष्यत्कालविषया, साचान्तरायसंभवेन कदाचिदर्थाभिधायिनी न स्यात् । तथा एकार्थविषयाऽपि बहुवचनान्ततयाऽभिहिता तस्मादयथार्था । तथा-आमन्त्रणीप्रभृतिका, सत्यभाषावदर्थे नियता नास्ति विधिप्रतिषेधबोधकत्वा भावात् , अतः किमियं वक्तव्या स्यात् , उत न ? इति । अर्थ ऐसा होता है कि हे संयत ? प्रतिक्रमण कर्म से तुम अपने पापोंका क्षय करो। यह बोध शीघ्र नहीं हो सकता है, अतः इसे अव्याकृत भाषा कहा है । अथवा-बालककी भाषाको अव्याकृत भाषा कहते हैं १२ । ये सब भाषायें प्रज्ञापनी हैं, यह प्रज्ञापनी भाषा मृषास्वरूप नहीं है। प्रश्न करने वालेका कहने का हेतु यह है-जब यह कहा जाता है कि हम शयनकरेंगे' इत्यादि, तब यह भाषा भविष्यत् काल को विषय करने वाली होने से अर्थकी पूर्ति में असमर्थ जान पडती है, कारण कि अन्तराय कर्म के उदय की संभावना होने से उस विवक्षित अर्थकी कदाचित् पूर्ति न भी हो सके तो फिर जिस प्रकार मृषाभाषा अर्थको कहनेवाली नहीं मानी जाती है उसी प्रकार यह भाषा भी अनर्थाभिधायिनी मान लेना चाहिये तथा “ हम शयनकरेंगे" इस कथनमें "मैं शयनकरूँगा" इस एक वचन के ही प्रयोग में बहुवचन का प्रयोग किया गया है। जैसे एक को अनेक कहनेवाली भाषा अयथार्थ मानी जाती है। उसी प्रकार यह भी अयथार्थ मानी जानी चाहिये । इसी तरह आमन्त्रणी भाषाएँ भी सत्य भाषाकी तरह अर्थ में नियत नहीं है, क्यों कि इनमें विधि एवं प्रतिषेध की बोधकता का अभाव है, इसलिये यह संदेह होता है कि यह बोलने के योग्य है अथवा नहीं है । इस प्रकारकी आशंका का यह उत्तर है कि સંયત ! પ્રતિક્રમણ કમથી તમે તમારા પાપનો ક્ષય કરે. આ બોધ જલદી થઈ શકતું નથી. આથી આને અવ્યાકૃત ભાષા કહેવામાં આવે છે. અથવાબાળકની ભાષાને અવ્યાકૃત ભાષા કહેવામાં આવે છે. ૧૨ આ બધી ભાષા પ્રજ્ઞાપની છે. આ પ્રજ્ઞાપની ભાષા મૃષા સ્વરૂપની નથી. પ્રશ્ન કરનારના કહેવાનો મતલબ એ છે કે, જ્યારે એમ કહેવામાં આવે છે કે, “ અમે સુઈએ છીએ“ આ કથનમાં “હું સુઉં છું ” આ એક વચનના પ્રયોગમાં બહુ વચનનો પ્રયોગ કરવામાં આવેલ છે. જેમ એકને અનેક કહેવાવાળી ભાષા અયથાર્થ માનવામાં આવે છે એ રીતે પણ અયથાર્થ માનવી જોઈએ. આ રીતે આમન્ત્રણ ભાષાઓ પણ સત્ય ભાષાની જેમ અર્થમાં નિયત નથી કેમકે, એનામાં વિધિ અને પ્રતિષેધની બેધતાને અભાવ છે. આ માટે એ સંદેહ થાય છે, એ બોલવાને યોગ્ય છે, ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०० उत्तराध्ययनसूत्रे अत्रोत्तरमाह-हंता ! इत्यादि । 'हन्त' इति स्वीकारार्थकः, अयं भाव:'आशयिष्यामहे' 'शयिष्यामहे' इत्यादिका भाषा निश्चयात्मकशब्दपयोगा. भावान्नास्ति निश्चयात्मिका, या तु-'आशयिष्यामहे एव ' 'शयिष्यामहे एव' इत्यादिका निश्चयात्मिका सैवान्तरायसंभवाद् भविष्यकालविषया भाषा मृषाभवितुमर्हति । 'आशयिष्यामहे ' इत्यादौ तु-शयनादिक्रियायां वक्तुरभिप्रायः "शयनादिक्रियाकरणस्य भावो मम वर्तते' इत्यादि रूपः सत्य एवास्तीति भवति प्रज्ञापनी । एकार्थविषये बहुवचनाभिधानमपि आत्मनि गुरौ च शास्त्रानुमतं, तस्माद् बहुवचनान्ततया प्रयुक्ताऽपि प्रज्ञापन्येव भवति । एवमामन्त्रण्यादिकाऽपि। "आश्रयिष्यामहे " इत्यादिक भाषाएँ निश्चयात्मक शब्द के प्रयोग के अभाव से निश्चयात्मक नहीं हैं। ये निश्चयात्मक जब ही मानी जाती हैं कि जब इनके साथ निश्चयात्मक शब्दका प्रयोग किया हुआ होता है। जैसे-आश्रयिष्यामहे एव, शयिष्यामहे एव" इस प्रकारकी निश्चयास्मक भाषा में जो कि भविष्यत् कालको विषय करनेवाली हो अन्तराय कर्म के उदय से अपने अर्थकी पूर्ति की निश्चितता संदिग्ध रहती है अतः घही भाषा मृषावाद रूप मानी जाती है। "आश्रयिष्यामहे" इत्यादि भाषा में तो शयनरूप क्रिया करने का भाव ही केवल वक्ता का रहा हुआ है अतः उस अपेक्षा वह सत्य ही है। इसी अर्थ को मन में रख कर मुनिराज भविष्यत्काल के अर्थ में भाव शब्द का प्रयोग करते हैं, जैसे-'कल स्वाध्याय करने का भाव है ' अथवा-'तपस्या करने का भाव है' इत्यादि। एकवचन में भी व्याकरणसिद्धान्त के अनुसार 2424 नथी से प्र४२नी मानी मा उत्तर छ, “आशयिष्यामहे" त्या ભાષાઓ નિશ્ચયાત્મક નથી. અને નિશ્ચયાત્મક ત્યારે જ માનવામાં આવે કે જ્યારે એની સાથે નિશ્ચયાત્મક શબ્દનો પ્રયોગ કરવામાં આવેલ હોય सभ आशयिष्यामहे एव शयिष्यामहे एव-मा प्रा२नी निश्चयात्म भाषामां કે જે ભવિષ્યનું કાળનો વિષય કરવાવાળી હોય અંતરાય કર્મના ઉદયથી તેના અર્થની પૂર્તિની નિશ્ચિતતા સંદિગ્ધ રહે છે. આથી તે ભાષા મૃષા१1३५ भानामा यावे छे. “ आशयिष्यामहे" त्यादि माम तो नारने। સુવાની ક્રિયા કરવાને ભાવ જ ફકત રહેલ છે. આથી એ અપેક્ષાથી તે સત્ય જ છે. આ જ અર્થને મનમાં રાખી મુનિરાજ ભવિષ્યકાળના અર્થમાં ભાવ શબ્દને પ્રયોગ કરે છે. જેમ કાલે સ્વાધ્યાય કરવાને ભાવ છે” અથવા “તપસ્યા કરવાને ભાવ છે ? ઈત્યાદિ! એક વચનામાં પણ વ્યાકરણ સિદ્ધાંતની અનુસાર ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रियदर्शिनी टीका. अ० १ गा. २४ सावद्यभाषणनिषेधः २०१ या निरवधपुरुषार्थसाधनी सा प्रज्ञापन्येव । यथा " हे साधो !" " इदं कुरु " " इदं मा कुरु " इत्यादिका । सा तु भाषणीयैवेति ।। ___ भाषादोषं सावधानुमोदनादिकं, मृषा-कर्कशाऽसभ्यशब्दोच्चारणादिकं च, परिहरेत् । च-पुनः, मायां सदा-सर्वकालं परिवर्जयेत् । अत्र मायामित्युपलक्षणम् , क्रोधमानलोभानां कषायाणाम् । सर्वान् कषायान् परिवर्जयेदित्यर्थः । कषायाणां मृषाभाषणहेतुत्वात् , कषायवर्जने सति मृषाभाषणपरिहारः सुतरां स्यादिति भावः ॥ २४ ॥ बहुवचन का प्रयोग हो जाता है। वहां कहागया ह कि अपने में एवं गुरू में बहुवचन का प्रयोग करना निर्दोष है, इसलिये एक में भी बहु. वचनान्तरूप से प्रयुक्त भाषा प्रज्ञापनी ही भाषा है। इसी तरह आमन्त्रणी आदि भाषाएँ भी जो निरवद्य पुरुषार्थ की साधक होती हैं वे प्रज्ञापनी ही हैं । जैसे-" हे साधो।" "यह करो यह मत करो" इत्यादि । सावध कर्म की अनुमोदना आदि करना यह भाषा दोष है। इसी प्रकार कर्कश एवं कठोर शब्द का उच्चारण करना आदि भी मृषा भाषा में ही अन्तर्हित है। माया शब्द उपलक्षण है। इसलिये क्रोधादिक कषाय के विषय में भी समझ लेना चाहिये, क्यों कि कषाय के आवेश से ही मषाभाषण होता है । इनके परिवर्जन से मृषाभाषाका परिवर्जन हो जाता है। अतः भाषादोष एवं माया का सदा काल परित्याग कर देना चाहिये ॥२४॥ બહુ વચનને પ્રયોગ થઈ જાય છે, આથી એ બતાવાયું છે કે, પોતાનામાં અને ગુરુ મહારાજમાં બહુ વચનને પ્રયોગ કરવા નિર્દોષ છે. આ માટે એકમાં પણ બહુવચનાન્તરૂપથી પ્રયુકત ભાષા પ્રજ્ઞાપની ભાષા જ છે આ રીતે આમત્રણ આદિ ભાષાઓ પણ જે નિરવદ્ય પુરૂષાર્થની સાધક હોય છે તે પ્રજ્ઞાપની १ छे. भ-" साधी !" " 24॥ ४२, मान ४२," त्याहि ! સાવદ્ય–કર્મની અનુમોદના આદિ કરવી એ ભાષા દેષ છે. આ પ્રકારે કર્કશ અને કઠોર શબ્દનું ઉચ્ચારણ કરવું આદિ પણ મૃષાભાષામાં જ અન્તહિંત છે. માયા શબ્દ ઉપલક્ષણ છે આ માટે ક્રોધાદિક કષાયના વિષયમાં પણ સમજવું જોઈએ. કેમકે, કષાયના આવેશથી જ મૃષાભાષણ થાય છે. તેના ત્યાગથી મૃષા ભાષાનો ત્યાગ થાય છે. આથી ભાષાદોષ અને માયાને સદાકાળ પરિત્યાગ કરી દેવું જોઈએ. (૨૪) उ० २६ ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०२ उत्तराध्ययनसूत्रे मूलम्-न लवेज पुट्ठो सावज्जं, न निरटं न मम्मयं । __ अप्पणट्ठा परंहा वी, उभयस्संतरेण वा ॥ २५॥ छाया-न लपेत् पृष्टः सावधं, न निरर्थ न मर्मगम् । आत्मार्थ परार्थ वा, उभयस्य अन्तरेण वा ॥ २५ ॥ टीका-'न लवेज्ज' इत्यादि । पृष्टः केनचित् , सावधं-अवद्येन-पापेन सह वर्तते इति सावधे-सदोषं वचनं न लपेत्-न वदेत् , सावद्यवचनं हि रागद्वेपादिदुर्गुणनिधानं सकलास्रवनिदानम् , आत्मसमाधिविधुविधुतुदस्वरूप, गुणवृक्षसमूलोन्मूलने प्रचण्डझंझावातरूपं, कषायविषवल्लीवर्धकं, षड्जीवनिकायोपमर्दकम् । न लवेज्ज इत्यादि___अन्वयार्थ-(पुट्ठो सावजं न लवेज्ज-पृष्टः सावधं न लपेत्) किसी के द्वारा पूछे जाने पर सावद्य-पापयुक्त वचन नहीं बोलना चाहिये । (न निरटुं न मम्मयं-न निरर्थकं न मर्मगं) निरर्थक वचन नहीं बोलना चाहिये । मर्म उद्धाटक वचन नहीं बोलना चाहिये। (अप्पणठ्ठा परठा वा उभयस्संतरेण वा सावज्जं न लवेज्ज-आत्मार्थ परार्थ वा उभयस्यान्तरेण वा सावधं न लपेत्) अपने निमित्त अथवा पर के निमित्त तथा उभय-स्व पर के निमित्त और विना प्रयोजन के (व्यर्थ) भी सावध वचन नहीं बोलना चाहिये। क्यों कि-सावद्य वचन राग द्वेष आदि दुर्गुणों का निधान है, समस्त आस्रवों का निदान-कारण है, आत्मसमाधिरूप चन्द्रमा को ग्रसन करने में राहुसमान है, गुणरूप वृक्षों को जड़ से उखाड ने में प्रचण्ड झंझावात समान है, तथा कषाय न लवेज्ज त्याह स-क्याथ-पुट्ठो सावज्जं न लवेज्ज-पृष्ठः सावधन लपेत्- ना पुछपाथी ५॥५युत सावध यन मोसन से नहीं. न निरटुं न मम्मयं-न निरर्थकं नमर्मगं નિરર્થક વચન બેલવું ન જોઈ અને મમઉદ્ધારક વચન બોલવું ન જોઈએ. अप्पणट्ठा परट्ठावा उभयस्संतरेण वासावज्जं न लवेजआत्मार्थ परार्थ वा उभयस्यान्तरेण वा सावधं न लपेत् પિતાના નિમિત્ત અથવા બીજાના નિમિત્ત તથા અરસપરસના નિમિત્ત અને વગર પ્રજન (વ્યર્થ) સાવદ્ય વચન ન બેલવાં જોઈએ. કેમકે, સાવદ્ય વચન રાગ દ્વેશ આદિ દુર્ગુણોનું નિધાન છે, સમસ્ત આશ્રવનું કારણ છે, આત્મસમાધિરૂપ ચંદ્રમાનું ગ્રહણ ગ્રસિત કરવામાં રાહુ સમાન છે, ગુણરૂપ વૃક્ષને જડથી ઉખેડવામાં પ્રચંડ ઝંઝાવાત સમાન છે, તથા ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रियदर्शिनी टीका. अ०१ गा. २५ सावध भाषणेऽश्वपतिदृष्टान्तः २०३ सावद्यवचनभाषणदृष्टान्तः निरवद्यभाषानभिज्ञः कश्चिदश्वपतिर्लक्षमूल्यकमश्वं विक्रेतुं कस्मिंश्चिन्नगरेजगाम । तत्राकस्मादश्वपतिहस्तादश्वो निमुक्तः सन् धावति । धावन्तमश्वं परिग्रहीतुं तत्पृष्ठतोऽश्वपतिरपिधावति । तं परिग्रहीतुमशक्तोऽसौ धावनात् परिश्रान्तः कोपावेशेन तदानों स्वाभिमुखमागच्छन्तं कंचिद् भाषादोषानभिज्ञं दण्डहस्तं पुरुषमब्रवीत्-भो ! अश्वोऽयं धावति, एनं मारय मारय, एवमुक्तोऽसौ दण्डेन तमश्वं मर्मस्थाने ताडितवान् । तदाऽसौ दण्डाघातेन मृतः । अथाश्वपतिस्तं तुरगघातकं रूप विषलताओं को बढाने में मेघसमान है, एवं षडजीवनिकायों का उपमर्दन करने वाला है। ___सावध वचन के बोलने में जीव को क्या हानी उठानी पडती है, इसे दृष्टान्त द्वारा स्पष्ट किया जाता है. एक अश्वपति था जो निरवद्य भाषा बोलने का अनभिज्ञ था। वह एक लाख रुप्या की कीमत वाले अपने घोडे को बेचने के लिये किसी नगर में आया। वहां आते हा उसके हाथ से वह घोडा छूटकर भाग निकला। भागते हुए उस घोडे का पीछा करने पर भी वह पकड नहीं सका। जब यह दौडते २ थक गया तो क्रोधके आवेश में आकर इसने एक पुरुष से जो हाथ में दंडा लिये हुए इसकी ही ओर आ रहा था। तथा भाषा के दोष से अनभिज्ञ था कहा कि हे भाई देखो यह घोडा जो भाग रहा है इसे मारो मारो। इस प्रकार अश्वपति के कहने पर उस व्यक्ति ने एक दंडा ऐसा मारा जो उस घोडे के मर्मस्थान में लगा। કષાયરૂપ વિષ લત્તાઓને વધારનાર છે, ટુ જીવનીકાનું ઉપમન કરનાર છે. સાવદ્ય વચન બોલવાથી શું અનર્થ થાય છે, તે આ દ્રષ્ટાંત દ્વારા સ્પષ્ટ ४२वामां आवे छे એક અશ્વપતિ હતું, જે નિરવદ્ય ભાષા બોલવામાં અનભિજ્ઞ હતું. તે એક લાખ રૂપીયાની કિંમતના પિતાના ઘડાને વેચવા માટે કે એક નગરમાં ગમે ત્યાં પહોંચતાં જ તેના હાથમાંથી તે ઘડે છુટીને ભાગી ગયે, ભાગી રહેલા તે ઘોડા પાછળ તેને હાથ કરવા તે ખૂબ દે છતાં પકડી શકાય નહીં. જ્યારે તે દેડતાં દોડતાં થાકી ગયે ત્યારે ક્રોધના આવેશમાં આવી એણે એક પુરૂષ, કે જે હાથમાં દંડો લઈને તેની સામે આવી રહ્યો હતો અને તે ભાષાના દેષથી અજાણ હતું, તેને કહ્યું કે હે ભાઈ! આ ઘોડો જે ભાગી રહ્યો છે તેને મારે. આ પ્રકારે એ અશ્વપતિના કહેવાથી પેલા માણસે એક દંડે ઘોડાને એવો માર્યો કે જે મર્મસ્થાનમાં લાગવાથી તેના પ્રહારના કારણે ઘડો એજ વખતે મરી ગયો. ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०४ उत्तराध्ययनसूत्रे गृहीत्वा न्यायालयं गतः । तत्र स न्यायाध्यक्षसंनिधौ वदति-अनेन मम लक्षमूल्यकस्तुरगो दण्डाघातेन मारितः। तदा न्यायाध्यक्षेण कथितम्-'कथय कस्ते साक्षी' इति । अश्वपतिब्रूते-अस्यैव पुत्रो मम साक्षी । न्यायाध्यक्षेण पृष्टस्तत्पुत्रोऽवदत्अनेनाश्वपतिना मम पिता निगदितः-" भो! तुरगोऽयं धावति, एनं मारय मारय" इति । तदा मम पित्रा दण्डेनास्य तुरगो मारितः । एवं साक्षिभाषणं श्रुत्वा न्यायाधीशो मनसि विचारयति-अहो ! सावधभाषादोषानभिज्ञतयाऽनेनाश्वपतिना 'मारय मारय' इत्युक्तम् दण्डताडनभयं प्रदर्य तुरगं निवर्तयेत्याशयेनानेन प्रोक्तमेतत् । घोडा दंडा के प्रहार से शीघ्र मर गया। जब अश्वपति ने अपने घोडेको मरा हुआ देखा तो वह उस मारने वाले को पकडकर न्यायालय ले गया। न्यायधीश के समक्ष उसके ऊपर अभियोग (आरोप) लगा ने के अभिप्राय से इसने कहा कि इसने मेरा एक लाख रुपये की कीमत का घोडा दंडे के प्रहार से मार दिया है । यह सुनकर न्यायधीश ने कहा ठीक है। परंतु इसका साक्षी कौन है कहो ! अश्वपतिने कहा कि साहेब! इसका पुत्र ही मेरे इस विषय में साक्षी है। न्यायधीश ने उसके पुत्र से पूछा-तब पुत्र ने कहा कि स्वयं इस अश्वपति ने ही मेरे पिता से घोडे को मारने के लिये कहा था । अतः मेरे पिता ने दंडे के प्रहार से इस के घोडे को मारा है। इस प्रकार साक्षी के भाषण को सुनकर न्यायधीश ने मन में विचार किया मालूम पडता है कि घोडे का यह स्वामी भाषा दोष से अनभिज्ञ है। इसलिये इसने "मारो मारो" ऐसा कहा है। इसके कहने का अभिप्राय केवल उस समय इतना ही था की यह दण्डे का भय दिखलाकर उस घोडे को लौटा देवे । इस જ્યારે અશ્વપતિએ પિતાના ઘડાને મરણ પામેલે જોયો ત્યારે તે મારા નારને પકડી ન્યાયાલમાં લઈ ગયે, ન્યાયાધીશની સામે તેના ઉપર આરોપ લગાવવાના ભાવથી તેણે કહ્યું કે, આ માણસે મારા એક લાખ રૂપિયાની કિંમતના ઘડાને દંડાના પ્રહારથી મારી નાખેલ છે. આ સાંભળીને ન્યાયાધીશે કહ્યું ઠીક છે, પરંતુ આને સાક્ષી કેણુ છે તે કહે. અશ્વપતિએ કહ્યું કે, સાહેબ! તેને પુત્ર જ મારા આ વિષયમાં સાક્ષી છે. ન્યાયાધીશે તેના પુત્રને પૂછયું ત્યારે પુત્રે કહ્યું કે, આ અશ્વપતિએ પિતે જ મારા પિતાને ઘડાને મારવાનું કહ્યું હતું. આથી મારા પિતાએ દંડાના પ્રહારથી તેના ઘોડાને મારેલ છે. આ પ્રકારે સાક્ષીનું ભાષણ સાંભળી ન્યાયાધીશે મનમાં વિચાર કર્યો કે ઘડાને આ સ્વામી ભાષા દેશથી અનભિજ્ઞ છે તેવું જણાય છે, આ માટે તેણે મારો, મારો ! એમ કહેલ છે. આમ કહેવાનો અભિપ્રાય કેવળ તે સમય એટલો જ હતું કે, દંડાને ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०५ प्रियदर्शिनी टीका अ० १ गा. २५ निरर्थकभाषणेदृष्टन्तः इत्थं मनसि विमृश्य न्यायाधीशः सावद्यभाषाभाषिणमश्वपति प्राह—त्वया सावधभाषा प्रोक्ता, तत्फलमेतत् प्राप्तम् । पुनरेवं कदापि कथमपि सावधभाषा न वाच्या ॥ इति । तथा निरर्थम् अर्थरहितं न लपेत् , यथा-- एष बन्ध्यासुतो याति, खपुष्पकृतशेखरः । मृगतृष्णाम्भसि स्नातः, शशशङ्गधनुर्धरः ॥ १ ॥ प्रकार विचार कर सावध भाषा भाषी उस अश्वस्वामी से न्यायधीशने कहा कि इसका क्या अपराध है ! अपराध तो तेरा ही है । जो तूने मारो २ इस प्रकारकी सावद्य भाषा द्वारा इसे मार ने के लिये उत्साहित किया, उसीका यह फल है। अब आगे इस बात का ध्यान रखो कि इस प्रकारको सावध भाषा न बोली जाय । इसी प्रकार निरर्थक भाषा भी नहीं बोलनी चाहिये । जिस भाषा का कोई अर्थ नहीं होता हो ऐसो भाषा का प्रयोग करना भी वर्जित बतलाया गया है-जैसे एष बन्ध्या सुतो याति । खपुष्पकृतशेखरः। । मृगतृष्णाम्भसि स्नातः । शशश्रृंग धनुर्धरः ॥९॥ यह बन्ध्या पुत्र जा रहा है । इस के शिर पर आकाश के पुष्पों को माला है, तथा यह मग तृष्णा के जल में स्नान किया हवा है, इसके हाथ में शशले के सींग का धनुष है। इस प्रकार के वचन निरर्थक होते हैं । क्यों कि न तो वंध्या का कोई पुत्र होता है, न आकाश का ભય દેખાડી તે ઘડાને પાછો ફેરવી દે. આ પ્રકારને વિચાર કરી સાવદ્ય ભાષાભાષી તે અશ્વસ્વામીને ન્યાયાધીશે કહ્યું અને શું અપરાધ છે, અપરાધ તે તારોજ છે, જે તેં મારે, મારે! આ પ્રકારની સાવધ ભાષા દ્વારા તેને મારવા માટે ઉત્સાહિત બનાવ્યું તેનું આ ફળ છે, હવે પછી એ વાત ધ્યાનમાં રાખો કે આ પ્રકારની સાવદ્ય ભાષા બોલવામાં ન આવે. આજ પ્રકારે–નિરર્થક ભાષા પણ ન બોલવી જોઈએ. જે ભાષાને કઈ અથ ન થતો હોય એવી ભાષાને પ્રયોગ કરે એ નિરર્થક બતાવવામાં मावेस छ. २भ " एष बंध्या सुतो याति ख पुष्प कृत शेखरः। ____ मृगतृष्णाम्भसि स्नातः शशश्रृंग धनुर्धरः ॥" આ વધ્યાપુત્ર જઈ રહ્યો છે, તેના માથા ઉપર આકાશના પુષ્પની માળા છે, તથા એણે મૃગતૃષ્ણના જળમાં સ્નાન કરેલ છે, એના હાથમાં સસલાના શીંગનું ધનુષ્ય છે, આ પ્રકારનાં વચન નિરર્થક હોય છે, કેમકે, ન તે વધ્યા ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०६ उत्तराध्ययनसूत्रे निरर्थकं वचनं हि वह्निवत् सकलगुणभस्मकारकं, सद्भूतार्थापलापकं, मिथ्यार्थपतिबोधकं, भवाटवीभ्रामकं, विकल्पनालजनकं, वैराग्यलताविनाशकं, विवेकचन्द्रपच्छादकम् । अत्र दृष्टान्तः प्रदर्यते यथा____आसीत् कश्चिदेको वसतिनिर्मापको नृपतिः, स आसीदासीन्न चासोत् । असद्भाव प्राप्तेन तेन भूपतिना त्रयो ग्रामा निर्मापिताः । तत्र वसतिनिवासिनां जनानां निर्वासनाद् द्वौ ग्रामौ निर्वासितौ, एकश्च जननिवासाभावादेव वसतिनीभूत् । अथ यत्र जनानां वासो नोभूत् तत्र त्रयः कुम्भकारा आसन् । तेषु द्वौ कोई पुष्प होता है, न मृगतृष्णा रूप जल कोई भावात्मक पदार्थ है, और न शशश्रृंग कोई वस्तु है । निरर्थक वचन अग्नि की तरह सकलगुणों को भस्म करने वाले सद्भूत अर्थ के अपलापक एवं मिथ्या अर्थ के प्रतिबोधक होते हैं । इनके प्रयोग से प्रयोक्ता भवाटवो में ही भ्रमण करता रहता है। अनेक प्रकार के विकल्पों का तांता इन निरर्थक वचनों से आत्मा में उद्भुत होता रहता है। वैराग्यरुपी लता के ये विनाशक तथा विवेक रूपी चंद्रमा के आच्छादक ये माने गये हैं। इस विषय में दृष्टांत इस प्रकार है__ कोई एक राजा था जो वस्ति का निर्माण किया करता था। वह होकर भी नहीं था । उसने अपनी गैर मौजूदगी अवस्था में तीन ग्रामों की रचना की। दो गावों को उसने वहां के निवासियों को निकाल कर बिलकुल उजड कर दिये। एक इसलिये ऊजड था कि उसमें जनों के ગ્નિને પુત્ર હોય છે, ન આકાશનું કઈ પુછ્યું હોય છે, મૃગતૃષ્ણારૂપ જળ નતે કઈ ભાવાત્મક પદાર્થ છે, અને ન તો સસલાના શિગ કોઈ વસ્તુ છે. નિરર્થક વચન અગ્નિ માફક સઘળા ગુણોને ભસ્મ કરવાવાળા સભૂત અર્થને અપક્ષાપક અને મિથ્યા અર્થ કરવાવાળા હોય છે. આવા પ્રગથી પ્રયતા ભવાટવીમાં જ ભ્રમણ કરતા રહે છે. અનેક પ્રકારના વિકલ્પના તાંતા આવા નિરર્થક વચનેથી આત્મામાં ઉભવતા રહે છે, વૈરાગ્યરૂપી લતાના એ વિનાશક તથા વિવેકરૂપી ચંદ્રમાનું આચ્છાદન કરનાર માન્યા ગયા છે. આ વિષયમાં આ પ્રકારે દ્રષ્ટાંત છે.– કેઈ એક રાજા હતું, જે વસ્તીનું નિર્માણ કર્યા કરતું હતું, તે હેવા છતાં ન હતું, તેણે પોતાની ગેરમોજુદગી અવસ્થામાં ત્રણ ગામની રચના કરી ગામને ત્યાંના રહેવાસીઓને ત્યાંથી કાઢી મુકી ઉજજડ બનાવી દીધાં. એક એ માટે ઉજજડ હતું કે ત્યાં કોઈ વસ્તી જ ન હતી. જે ગામ લેકેના નિવાસથી ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रियदर्शिनी टीका अ० १ गा. २५ मार्मिकभाषणे धनगुप्तश्रेण्डिष्टान्तः २०७ मूखौं, एकस्तु भाण्डनिर्माणकलाभिज्ञोऽपि नैव निर्माति । यस्तु नास्ति भाण्डनिमाता, तेन त्रीणि भाण्डानि निर्मितानि। तत्र द्वे स्फुटिते, एकं न युज्यते । अयोजिते भाण्डे त्रयस्तण्डुला रन्धिताः, तत्रोभौ तण्डुलावामरूपौ, एको न सिध्यति । तेन त्रयो ब्राह्मणा भोजिताः तत्रोभौ बुभुक्षितो, एकोन भुङ्क्ते, एवमेकः कश्चिदासीन भूपतिर्य आसीदासीन्नचासीत् ।। ____ तथा-मर्मगं=मर्मवाचकं वचनं न लपेत् । रहस्योद्घाटकं वचनं न बयादित्यर्थः । मर्मगं वचनं हि हृदये शराघातवेदनामिव वेदनां जनयति, वज्राघात इव मूर्छयति, निवास का ही अभाव था। जो गांव जनों के निवास से विहीन था उसमें तीन कुंभार थे। इन में दो मुर्ख थे और एक बर्तन बनाने की कला में निपुण था। परंतु यह बर्तन नहीं बनाता था। जो बर्तन बनाने वाला नहीं था-उसने तीन बर्तन बनाये। दो फूटे और एक ऐसा जो जुडता नहीं था। अर्थात् कपाल माला जिसकी जुदी २ थी। इस में तीन चावल पकाये गये। इन में दो चावल कच्चे रहे और एक चावल सीझा नहीं। उससे तीन ब्राह्मणो को भोजन कराया गया। दो ब्राह्मण तो भूखे रहे और एक ने खाया नहीं। इस प्रकार इस कथा में केवल निरर्शक शब्दों का ही प्रयोग हुआ है। इस प्रकार के निरर्थक वचन नहीं बोलना चाहिये। जिनसे दूसरों के मर्म का उद्घाटन होता तो ऐसे वचन भी नहीं बोलना चाहिये । जो मर्मोद्धाटक वचन होते हैं वे जिस प्रकार बाण हृदय में आघात पहुँचाता हैं, उसी तरह आघात पहुंचाते हैं । वज्र के વિહીન હતું તેમાં ત્રણ કુંભાર રહેતા હતા, જેમાં બે મૂર્ખ હતા અને એક વાસણ બનાવવાની કળામાં નિપુણ હતું, પરંતુ તે વાસણ બનાવતે ન હતો. જે વાસણ બનાવનાર ન હતું, તેણે ત્રણ વાસણ બનાવ્યાં. બે કુટેલાં અને એક એવું કે જે જેડાતું ન હતું. અર્થાત્ કપાલમાળા જેની જુદી જુદી હતી, એમાં ત્રણ ચેખા પકવવામાં આવ્યા, જેમાં બે ચેખા કાચા રહ્યા અને એક ચેખે ચડયે નહીં—એનાથી ત્રણ બ્રામ્હણેને ભેજન કરાવવામાં આવ્યું. બે બ્રાહ્મણ તે ભુખ્યા રહ્યા અને એકે ખાધું નહીં. આ રીતે આ કથામાં કેવળ નિરર્થક શબ્દને જ પ્રયોગ થયો છે. આ પ્રકારનાં નિરર્થક વચન ન બેલવાં જોઈએ. જેનાથી બીજાના મર્મનું ઉદ્દઘાટન થાય એવાં વચન પણ ન બેલવાં જોઈએ જે મર્મોદ્ધાટક વચન હોય છે, તે જેમ બાણ હૃદયમાં આઘાત પહોંચાડે છે એજ રીતે આઘાત પહોંચાડે છે. વજાના આઘાતથી જે રીતે મૂછ ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨૦૮ उत्तराध्ययसूत्रे द्वेषाग्नि प्रज्वलयति, शोकमुत्पादयति, चारित्रं ध्वंसयति, गुणगणं संहारयति, नरकनिगोदादिदुःखगर्ने निपातयति, निशितकृपाणधारावन्मर्माणि कर्तयति । मर्मगवचनभाषणस्य दृष्टान्तस्त्वेवम्____ आसीद् धनगुप्तनामा कश्चिदेकः श्रेष्ठी । स चैकदा भार्यामब्रवीत्-प्रिये ! धनार्जनाय विदेशं व्रजामि । तया प्रोक्तम् -नाथ ! भवान् मामपि तत्र नयतु । स श्रेष्ठी सहगमनार्थमनुमति पत्न्यै प्रदत्तवान् । ततोऽसौ पत्न्या सह गच्छन् मार्गे आघात से जिस प्रकार मूर्छा आजाती है उसी प्रकार इन वचनों से भी प्राणी मच्छित हो जाता है। ये वचन सदा द्वेष रूपी अग्नि को प्रज्वलित करते रहते हैं और शोक परम्परा के संवर्द्धक होते हैं । इन के सद्भाव में चरित्र का सर्वथा विनाश होता रहता है । गुणगण का संहार करके वे वचन प्राणी को नरक एवं निगोदादिक के दुःख रुपी खड्डे में गिराते हैं । जैसे तीक्ष्ण धार वाली तलवार हर एक वस्तु को छेदनभेदन करती है उसी प्रकार मर्मग वचन भी प्राणी के मर्मस्थानों कों छेदन भेदन करते हैं। इस विषय में दृष्टांत इस प्रकार है__ कोई एक धनगुप्त नाम का सेठ था। उसने एक दिन अपनी पत्नी से कहा कि हे प्रिये ! मैं धन कमाने के लिये परदेश जाना चाहता हूं। सुनकर उसने कहा कि हे नाथ ! आर मुझे भी साथ ले ते चलिये। पत्नी की बात सुनकर धनगुप्त ने उसे अपने साथ चलने की अनुमति दे दी। धनगुप्त पत्नी को साथ लेकर परदेश निकला। चलते२ मार्ग में આવી જાય છે, એ જ રીતે આવા વચનથી પણ પ્રાણી મૂછિત થઈ જાય છે. આવાં વચને હંમેશાં કેશરૂપી અગ્નિને પ્રગટ કરતાં રહે છે અને શેક પરંપરાને ઉત્તેજન કરનાર નિવડે છે. આના સદૂભાવમાં ચારિત્રને સર્વથા વિનાશ થત રહે છે. ગુણ સમૂહને સંહાર કરીને એ વચને પ્રાણીને નરક અને નિદાદિકના દુઃખરૂપી ખાડામાં પાડે છે. જેમ તીક્ષણ ધારવાળી તરવાર હરએક વસ્તુનું છેદન ભેદન કરે છે એજ રીતે માર્મિક વચન પણ પ્રાણીના મર્મસ્થાનનું છેદન ભેદન કરે છે. આ વિષયમાં આ પ્રકારનું દૃષ્ટાંત છે. કોઈ એક ધનગુપ્ત નામે શેઠ હતા, એણે એક દિવસ પોતાની સ્ત્રીને કહ્યું કે, હે પ્રિયે ! ધન કમાવા માટે પરદેશ જવા ઈચ્છું છું. સાંભળીને તેણે કહ્યું, કે હે નાથ! આપ મને પણ સાથે લેતા જાવ, સ્ત્રીની વાત સાંભળી ધનગુપ્ત શેઠે તેને પોતાની સાથે ચાલવાની અનુમતિ આપી. ધનગુપ્ત સ્ત્રીને સાથે લઈ પરદેશ ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रियदर्शिनी टीका गा. २५ मार्मिकभाषणे धनगुप्तश्रेष्ठिदृष्टान्तः २०९ श्वशुरग्रामसमीपस्य कूपस्य तटे विश्रामार्थमुपविष्टः । तत्र तद्भार्यया चिन्तितम्-विदेशे नानाविधं कष्टं मया कथं सोढव्यम् ? इति विमृश्य सा पतिमब्रवीत्-प्राणनाथ ! मां पिपासा बाधते । ततोऽसौ श्रेष्ठी भार्यावचनं निशम्य तत्र कूपादुदकमुद्धत्तुं कूपाभिमुखं शिरोऽवनतीकरोति यावत् , तावदेव भार्यया पृष्ठे हस्ताघातेन कूपे निपातितः। तदनन्तरं सा पितुर्गेहं गत्वा पितरमब्रवीत्-तव जामाता गृहात क्वचिन्नि. गतस्तस्य नास्ति वार्ता, अतस्तव समीपे समागताऽस्मि । उसे अपने श्वशुर का ग्राम मिला। वह वहां गाम के बाहर कुए के पास विश्राम करने के लिये एक तरफ ठहर गया। इतने में उसकी पत्नी ने विचार किया कि-'ये विदेश जा रहे हैं और मैं भी इनके साथ जा रही हूं। विदेश में अनेक प्रकार के कष्ट प्राणियों को सहन करने पडते है मैं उन कष्टों को कैसे सहन करूँगी' ऐसा विचार कर उसने अपने पति धनगुप्त से कहा कि हे प्राणनाथ ! मुझे इस समय बडे जोरकी प्यास लग रही है, पति पानी लेने को ज्यों ही कुए पर पहुँचा और पानी भरने लगा कि इतने में पीछे से उस पत्नी ने आकर उसे धक्का मारकर कुए में पटक दिया। बाद में फिर वह अपने पिता के घर जाकर कहने लगी कि हे पिता! तुम्हारे जमाई न मालूम घर से कहां निकल कर चले गये हैं। मैं ने बहुत तपास कराई परन्तु अभीतक उनकी कोई खबर नहीं मिली है, सो मैं तुम्हारे पास आई हूं। જવા નીકળ્યા ચાલતાં ચાલતાં માગ માં તેના સસરાનું ગામ આવ્યું. તે ત્યાં ગામ બહાર એક કુવા પાસે આરામ કરવા રોકાયા. એ સમયે તેની સ્ત્રીએ વિચાર કર્યો કે, “શેઠ પરદેશ જાય છે અને હું પણ તેમની સાથે જાઉં છું પરદેશમાં અનેક પ્રકારના છે પ્રાણીયોએ સહન કરવો પડે છે, હું એ દુખોને કેમ કરીને સહન કરી શકીશ” એ વિચાર કરી તેણે પોતાના પતિ ધનગુપ્તને કહ્યું કે, હે પ્રાણનાથ ! મને અત્યારે ખૂબ જ તરસ લાગી છે, પતિ પાણી લેવા માટે જ્યાં કુવા પર પહોંચ્યા, અને પાણી ભરવા લાગ્યા કે એટલામાં તેની સ્ત્રીએ પાછળથી આવીને તેને ધક્કો મારી કુવામાં હડસેલી દીધું. આ પછી તે પિતાના પિયર પહોંચી અને ત્યાં જઈ કહેવા લાગી કે, હે પિતા ! તમારા જમાઈ કહ્યા વગર કોણ જાણે કેમ ઘેરથી ચાલ્યા ગયા છે, મેં ઘણી તપાસ કરાવી છતાં હજુ સુધી તેની કઈ ભાળ મળી નથી. માટે હું તમારી પાસે આવી છું. उ० २७ ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययनसूत्रे इतश्चासौ श्रेष्ठी कूपे पतन भाग्यवशात् कूपभिनियतं पाषाणं प्राप्य तमवलम्ब्य स्थितः। तदनु तत्रागतेजलार्थिजनैरनुकम्पयाऽसौ कूपान्निःसारितः । ततोऽसौ विदेशं गत्वा पुण्यप्रभावात् प्रचुरं धनं समुपाज्य श्वशुरगृहे समायातः। तदा तस्य पत्नी प्रसन्ना जाता, तया सह श्रेष्ठी स्वगृहं गतः। अथैकदा श्रेष्ठिनः पुत्रो जातः तस्य यौवने वयसि प्राप्ते श्रेष्ठिना विवाहः कारितः । पुत्रवधूरागता । किंचिद्दि. वसेषु व्यतीतेषु सत्सु श्वश्रूवध्वोर्मध्ये कलहः प्रात्तः । वधूनित्यं श्वश्रूच्छिद्रान्वेषणपरा जाता। एकदाऽसौ श्रेष्ठी रङ्गभवने भोजनं कुर्वन्नासीत्, तत्पत्नी तदानीं बाल धनगुप्त ज्यों ही कुए में गिरा कि भाग्यवश से उसे कुए की भित्ति में पास ही एक पत्थर का टुकड़ा लगा हुआ दिखलाई पडा। यह भित्ति से कुछ अधिक बाहर की ओर निकला था। पडते ही धनगुप्त ने उसको पकड लिया। जब पानी भरने वाले वहां पानी भर ने के लिये आये तब उन्होंने धनगुप्त को कुए से बाहर निकाला। स्वस्थ होकर यह विना कुछ कहे परदेश की ओर चल दिया। वहां पहुँच कर उसने पुण्यकर्म के उदय से खूब धन कमाया। कमाकर यह वहां से अपने घर वापिस हुआ। रस्ते में इस के श्वसुर का गाम आया और यह श्वशुर के घर पहुँचा। पत्नी ने पति को देखकर बहुत आनंद मनाया। वहांसे अपनी पत्नी को साथ लेकर घर आ गया। कालान्तर में धनगुस के एक पुत्र हुआ। समय पर उसका विवाह कर दिया गया, बहु घरमें आई। रहते २ सास और बह में अगडा होने लगा। बह ने सास को दबाने के लिये उस के छिद्रों का अन्वेषण करना प्रारंभ कर दिया। एक दिन की बात है, ધનગુપ્ત કુવામાં પડયો કે, ભાગ્યવશ કુવાની ભીંતમાં તેની પાસે જ એક પત્થર ચટાડેલો નજરે પડયે જે ભીતથી થડે બહાર વિકળેલા હતા. કુવામાં પડતાંની સાથે જ ધનગુપ્ત તે પત્થર પકડી લીધે જ્યારે પાણી ભરવાવાળા કુવા ઉપર પાણી ભરવા આવ્યાં ત્યારે તેમણે ધનગુપ્તને કુવામાંથી બહાર કાઢ. સ્વસ્થ બની કાંઈ પણ બોલ્યા સિવાય તે પરદેશ જવા ચાલી નિકળે ત્યાં પહોંચી તે પૂણ્ય કમના ઉદયથી ખૂબ ધન કમાયે. ખૂબ ધન કમાઈ તે પિતાને ઘેર આવવા નિકળે, રસ્તામાં સાસરાનું ગામ આવ્યું ત્યારે તે સાસરાને ઘેર પહોંચે. પત્નિએ પતિને જોઈ આનંદ મનાવ્યો. ત્યાંથી એ પિતાની સ્ત્રીને લઈને પિતાને ગામ પિતાને ઘેર પહોંચ્યા. સમય જતાં એ ધનગુપ્તને ત્યાં એક પુત્ર થયે, સમય ઉપર તેનાં લગ્ન કર્યો વહુ ઘેર આવી, રહેતાં રહેતાં સાસુ અને વહુ વચ્ચે વિખવાદ થવા લાગે, વહુએ સાસુને દબાવવા માટે તેનાં ગુપ્ત છિદ્રોનાં અન્વેષણ કરવાનો પ્રારંભ કરી દીધે. એક દિવસ ધનગુપ્ત પિતાના રંગભવનમાં બેસી ભજન કરી રહેલ હતા ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रियदर्शिनी टोका गा २५ मार्मिकभाषणे धनगुप्तश्रेष्ठिदृष्टान्तः २११ व्यजनबोजनं कुर्वती पुरोऽवतिष्ठते । अकस्माद् भास्करकिरणास्तद्भवनजालान्तगताः श्रेष्ठिमुखोपरि निपतन्तस्तया दृष्टाः । पत्युमुखे भास्कर कर स्पर्शजनितस्तापो मा भूदिति भावनया सा सत्वरं निनकरद्वयं भास्कर किरणसंमुखे कृत्वा श्रेष्ठिमुखो. परि सूर्यकिरणान् निवारयति। ___अकस्मात्तदैव पत्नीकृतं पूर्ववृत्तं श्रेष्ठिना स्मृतम् । श्रेष्ठी मनसि चिन्तयति"अहो ययाहं कूपे निपातितः सैवेयमधुना मम सूर्यकरस्पर्शजनितं तापं निवारयति" इत्येवं विचारयतस्तस्य श्रेष्ठिनो मुख हास्यं समननि। तदा तत्पुत्रवधूईसन्तं श्रेष्ठिनमकस्मादपश्यत् । सा पत्युः समीपमागत्य वदति-नाथ ! भवतः पिता श्वश्रूसमक्षं कि धनगुप्त अपने रंगभवन में बैठा हुआ भोजन कर रहा था। और पत्नी उस के ऊपर पंखा कर रही थी। धनगुप्त के चहरे पर अकस्मात् सूर्य की किरणें मकान की छत के छिद्रो में से आकर पड़ने लगी, पत्नी ने ज्यों ही यह देखा कि शीघ्र ही उसने पति को ताप न लगे' इस ख्याल से अपनी दो नों हथेलियों को सूर्य के साम्हने कर दिया। इससे धनगुप्त के मुख पर पडती हुई वे किरणें थम गई-मुख पर हथेलियों की छाया हो गई। पत्नी द्वारा इस प्रकार की गई सेवा का अवलोकन कर धनगुप्त को पहले का वह कुए में डाल ने का वृत्तान्त याद आ गया। धनगुप्त ने विचार किया, देखो-जिसने मुझे पहिले कुए में पटका वही अब मुझे सूर्यजनित संताप न हो' इस ख्याल से उस संताप का निवारण कर रही है। ऐसा ख्याल कर धनगुप्त को कुछ हँसी आगई। धनगुप्त को अकस्मात् हँसता हआ उस समय उसकी पुत्रवधू ने देखलिया था, इसलिये वह अपने पति के पास आकर कहने लगी कि नाथ, અને તેની સ્ત્રી પંખાથી તેને હવા નાખી રહી હતી. એ વખતે ધનગુપ્તના ચહેરા ઉપર મકાનની છતના કાણામાંથી સૂર્યનાં કિરણે અકસ્માત પડવા લાગ્યાં તેની સ્ત્રીએ જેવું આ જોયું કે તુરત જ એણે “પતિને તાપ ન લાગે” એવા ખ્યાલથી પિતાના અને હાથની હથેળીઓને સૂર્યના એ કિરણોની આડે ધરી દીધી. આથી ધનગુપ્તના ચહેરા ઉપર પડતા કિરણને તાપ અટકી ગયે, મુખ ઉપર હથેળીઓની છાયા થઈ ગઈ સ્ત્રી તરફથી આ રીતે કરવામાં આવેલી સેવા જોઈને ધનગુપ્તને પહેલાંને કુવાવાળો પ્રસંગ યાદ આવી ગયે, ધનગુપ્ત વિચાર કર્યો, જુઓ ! જેણે મને પહેલાં કુવામાં નાખી દીધું હતું તે હવે મને સૂર્યના કિરણેને તાપ ન લાગે એવા ખ્યાલથી એ સંતાપનું નિવારણ કરી રહી છે. આ વિચારથી ધનગુપ્તને જરા હસવું આવ્યું. ધનગુપ્તને અકસ્માત્ હસતાં તેની પુત્ર વધુએ જોઈ લીધેલ, આથી એ પિતાને પતિ પાસે જઈ કહેવા લાગી કે ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययनसूत्रे हसन् मया दृष्टः, किं तत्र हासस्य कारणमभूदित्यावेद्यताम् । श्रेष्ठिपुत्रः प्राहपतिपत्न्योवृत्तमवेद्यं भवति । पत्नी वदति-भवता यावदेतद्वृत्तं नानेष्यते, न वा वृत्तानयनवचनं दास्यते, तावन्मयाऽनपानं परित्याज्यम् । प्रेमपरवशेन विस्मृतविवेकेन श्रेष्ठिपुत्रेण 'हास्यकारणं कथयिष्यामी ' ति वचन प्रदानेन पत्नी परितोषिता । ___ एकदा श्रेष्ठिपुत्रः पितुश्चरणसंवाहनं कुर्वन् पृच्छतिस्म आर्य ! तस्मिन् दिवसे केनकारणेन भवता हसितम् , इत्येवं पृष्टोऽसौ सरलहृदयः श्रेष्ठो सर्व पूर्ववृत्तं पुत्राय कथितवान् । श्रेष्ठिपुत्रः सर्वं पूर्ववृत्तं विज्ञाय पल्यै कथयामास । आज मैं ने आप के पिता को सासुजी के समक्ष हंसते हुए देखा है अतः हे नाथ ! आप मुझे बतलाई ये कि इस अकारण हँसी का क्या कारण है । सेठ के पुत्र ने अपनी पत्नी को समझाया कि पति और पत्नी का वृत्त अवेद्य हुआ करता है। अतः इस विषय को जानने की चेष्टा करना व्यर्थ है। पत्नी ने पति के मुख से यह बात सुनकर कहा हे नाथ! जब तक आप मुझे इसका कारण नहीं वतलावेंगे, तबतक मैं अन्नजल ग्रहण नहीं करूँगी । पत्नी का इस प्रकार वृत्त को जानने का अधिक आग्रह देखकर पति ने उसके प्रेम से पागल जैसे बनकर उसे इस बात का आश्वासन दिया कि वह कुछ समय बाद इसका वास्तविक कारण उसे बतला देगा। इस प्रकार रुष्ट हुई पत्नी संतुष्ट हो गई। एक समय की बात है कि श्रेष्टि पुत्र ने पिता के चरणों को दावते हुए उनसे पूछा कि हे तात ! आप एक दिन भोजन करते समय किस कारण से हँसे थे ? पुत्र की इस बात को सुनकर सरल हृदय वाले सेठ ने समस्त હે નાથ ! આજ મેં તમારા પિતાને સાસુજી સામે હસતા જોયા. તે આપ એ બતાવે તે તેમના અકારણ હસવાનું શું કારણ છે? શેઠ પુત્રે પિતાની સ્ત્રીને સમજાવ્યું કે, પતિ પત્નીને સંબંધ અવેધ હોય છે. આ વિષયને જાણવાની ચેષ્ટા કરવી વ્યર્થ છે. પત્નીએ પતિના મુખથી આવી વાત સાંભળીને કહ્યું કે, હે નાથ! જ્યાં સુધી તમે મને તેનું કારણ નહીં બતાવો ત્યાં સુધી હું અન્ન જળ ગ્રહણ કરીશ નહીં. પત્નીને આ પ્રકારે વૃત્તાન્ત જાણવાને અધિક આગ્રહ જાણુને પતિએ તેના પ્રેમમાં પાગલ જેમ બનીને તેને આ વાતનું આશ્વાસન આપ્યું કે, થોડા સમયમાં પોતે તેનું વાસ્તવિક કારણું બતાવશે. આથી રૂષ્ટ બનેલ પત્નીને સંતોષ થયે. એક સમયની વાત છે કે, શેઠ પુત્રે પોતાના પિતાના પગ દાબતા દાબતાં એમને પૂછયું કે, હે તાત ! આપ એક દિવસ ભજન કરતાં કરતાં શા માટે હસ્યા હતા? પુત્રની આ વાતને સાંભળીને સરળ હૃદય ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रियदर्शिनी टीका गा. २५ मार्मिकभारणे धनगुप्तश्रेष्ठदृष्टान्तः २१३ पुनरेकदा श्रेष्ठिपन्याः पुत्रवध्वा सह कलहो जातः, तस्मिन्नवसरे पुत्रवधूरवदत् - जानामि तव चरित्रम्, पर्ति कूपे निपात्य, संप्रति पतिव्रता भवितुमुद्यताऽसि । एतन्मार्मिकं वचनं निशम्य श्वश्रूः परमदुःखिता जाता, बहुशो रुरोद, रुदित्वा च मन सि चिन्तयति स्म - अधुना मम जीवनं धूलिखि निरर्थकम् अद्य ममेयं वार्ता लोके प्रसरिष्यति, मां लोकः किं वदिष्यति । इत्येवं विचिन्त्य सा भवनस्य द्वितीयभूमिकामारुरोह । तत्र गत्वा गले पाशं संयोज्य रज्ज्यां लम्बिता प्राणान् परित्यक्तवती । हँसी का जो कुछ कारण था वह अपने पुत्र को कह दिया । मौका पाकर श्रेष्ठि पुत्र ने भी जो कुछ जैसी बात थी वह अपनी पत्नी से कह दी । एक समय सास बहु में परस्पर जब कलह हुवा तो पुत्रवधू ने सासु से कहा कि " आप ज्यादा मत बोलो मैं जानती हूं कि आप वही हैं जिन्हों ने अपने पति को कुए में डाल दिया था, अब पतिव्रता बनती हैं। इस प्रकार बहू के मार्मिक वचनों को सुनकर सास के हृदय में अपार दुःख हुआ, वह बारं बार रोने लगी, विचार किया कि अब मेरा जीना बिलकुल निरर्थक है । बहु ने मेरी सब शान धूलि में मिला दी है । यदि मेरी यह बात लोक में फैल गई तो लोग क्या कहेंगे? इस प्रकार सोचकर वह अपने मकान के दूसरे मंजिल पर गई, और वहां उसने गले में फांसी डालकर आत्मघात कर लिया । વાળા શેઠે હાંસીનું જે કાંઈ કારણ હતું તે સઘળું પેાતાના પુત્રને કહી દીધુ. અવસર મેળવીને શેઠ પુત્રે પણ જે કાંઈ વાત હતી તે પોતાની પત્નીને उडी हीधी. સાસુ વહુમાં પરસ્પર જ્યારે કંકાસ થયા ત્યારે પુત્રવધુએ સાસુને કહ્યું કે, “ તમે વધુ ન મેલેા, હુ' જાણુ છું કે, તમે એ જ છે કે જેણે પેાતાના પતિને કુવામાં ધકેલી દીધેલ, હવે પ્રતિવ્રતા અનેા છે. ’ આ પ્રકારનાં વહુનાં માર્મીક વચનેને સાંભળી સાસુના હૃદયમાં અપાર દુઃખ ઉપજ્યું. અને તે ચેાધાર આંસુએ રડવા લાગી, તેણે મનમાંને મનમાં એવા નિશ્ચય કર્યો કે, હવે મારૂ જીવવું ખીલકુલ નીરથ ક છે, વહુએ મારી બધી શાન ધુળમાં મેળવી દીધી છે. જો મારી આ વાત લેાકેામાં ફેલાઈ જાય તે લેાકેા શું કહેશે ? આ રીતે વિચાર કરીતે પેાતાના મકાનના ત્રીજા માળા ઉપર પહેાંચી અને ત્યાં જઈ ગળામાં ક્ાસા નાખી આત્મઘાત કર્યો, ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર ઃ ૧ Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ D २१४ उत्तराध्ययनसूत्रे ___ अथ श्रेष्ठी गृहमागतः, पत्नीमनवलोक्य पुत्रवधूं पृष्टवान्-आयुष्मति ! तव श्वश्रूः क्यास्ति ?, पुत्रवधूः करचेष्टयाऽऽवेदयति-भानापरिभागे गता इति । श्रेष्ठी गृहोपरिभागभूमिकां गत्वा श्रेष्ठिनी गले पाशबद्धां मतां पश्यति । तदाऽसौ श्रेष्ठी विषादमुपगतः सन् विचिन्तयति-अनया विना मम कीदृशी दशा भविष्यति, इत्यादि । तदनु स श्रेष्ठो पत्नीगलगतं पाशं विमुच्य स्वगले संयोज्य प्राणांस्त्यक्तवान् । पुत्रोऽपि गृहमागतः, स पितरमदृष्ट्वा पत्नी पृष्टवान् 'क्वास्ति मम तातः'। पत्नी पाह-उभौ ममानिष्टं कर्तुमुपरि वर्तते । पुत्रः पत्नीवचनमाकर्ण्य तत्र गत्वा पश्यति-माता मृता निपतिताऽस्ति, पिताऽपि पाशबद्धो मृतः प्रलम्बितो वर्तते, इति । धनगुप्त जब घर आया तो उसने सेठानी को न देखकर बहू से पूछा आयुष्यमती ! तुम्हारी सास कहां है ? उसने हाथ के इशारे से कहा कि वे मकान के दूसरे मंजिल पर हैं। धनगुप्त वहां पहुँचा और देखा कि वह गले में फांसी लगा कर मर गई है । धनगुप्त ने यह दशा देखकर बहुत ही शोच विचार किया और अन्त में यह निर्णय कर कि सेठानी के बिना मेरी क्या दशा होगी, पत्नी को फांसी से उतार कर वह स्वयं फांसी लटक गया। पुत्र ने पिता को घर पर आकर जब नहीं देखा तो पत्नी से पूछा कि पिताजी कहाँ पर हैं। उसने बात को बनाकर कहा कि माता-पिता दों नों ही दूसरे मंजिल पर मेरा अनिष्ट कर ने की विचारणा करने के लिये गये हुए हैं। पत्नी की बात सुनकर वह मकान के ऊपर गया। देखा कि माता मरी पडी है और पिताजी ધનગુપ્ત જ્યારે ઘેર આવ્યું તે તેણે પિતાની સ્ત્રીને ન જોતાં વહુને પૂછયું, આયુષ્યતીતમારી સાસુ ક્યાં છે? તેણે હાથના ઈશારાથી કહ્યું કે, બીજા માળ ઉપર (મેડી ઉપર) છે. ધનગુપ્ત ત્યાં પહોંચે અને જુએ છે તે ગળામાં ફાસે નાખી તે મરી ગયેલ છે. આ રીતે પિતાની પત્નિની દશા જોઈ પનગુપ્ત ખૂબજ મમંથન સાથે વિચાર કર્યો. અને અંતે એ નિર્ણય કર્યો કે, પત્નિને જવા પછી હવે મારી શું દશા થશે? ફસાથી લટકતી પત્નિને નીચે ઉતારી એ દેરડાનો ફાંસો પિતાના ગળામાં નાખી લઈ પિતે પણ અત્મઘાત કર્યો. એક તરફ પતિપત્નિ એક જ દેરડાના ફાંસાથી આત્મહત્યા કરી જીવમુક્ત બન્યાં એ સમયે પુત્રે ઘેર આવતાં પોતાના પિતાને ન જોવાથી પત્નિને પૂછ્યું, પિતાજી ક્યાં ગયા? સ્ત્રીએ વાતને બનાવીને કહ્યું કે, માતા-પિતા બને જણું મારું અનિષ્ટ કરવાની વિચારણા કરવા મેડી ઉપર ગયેલ છે. પત્નિની વાત સાંભળી તે મેડી ઉપર ગયા. જોયું તે માં નીચે મરેલી પડી છે, અને પિતાજી ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रियदर्शिनी टीका गा. ६५ मार्मिकभाषणे धनगुप्तश्रेष्ठिधान्तः २१५ तदाऽसौ पुत्रोऽपि मातापित्रोवियोगेन शोकातः सन् भविष्यदनिष्टं चिन्तयन् मृत पितरं पाशवन्धनाद् विमुच्य स्वगले तं पाशं बद्ध्वा मृतः। ___ तदनन्तरं पुत्रवधूः 'इमे त्रयः खलु मिलित्वा ममैव दुर्दशां भावयन्ति' इति विचिन्त्य क्रोधावेशेन धमधमायमाना उपरि गता। तत्र सा पश्यति-श्वश्रः श्वशुरश्वोभी मृतौ निपतितौ, पतिरपि गले बद्धपाशो मृतः पाशरज्ज्वां लम्बित इति । तदा विनिवृत्तकोपा नितान्तदुःखार्ता सा चिन्तयति स्म-अतः परं कीदृशी दशा मम भविष्यति, लोकाः किं वदिष्यन्ति, कः स्यान्मम शरणम् , इत्यादि। तदनन्तरमसौ सगर्भा पुत्रवधूः पत्युर्गले संलग्नं पाशवन्धनं विमुच्य स्वगले संयोज्य लम्बिता प्राणान् त्यक्तवती। गले में फांसी लगाकर मरे हुए लटक रहे हैं। इस परिस्थिति से उसे बहुत ही दुःख हुआ। माता पिता के वियोग ने उसे पागल बना दिया, अन्त में उस विचारे ने भी अपने पिता के गले से फांसी उतार कर अपने गले में लगाली । जब पूत्रवधू ने यह विचारा कि "देखो ये तिनों के तिनों मिलकर मेरी दुर्दशा कर ने की भावना कर रहे हैं। अतः ऊपर जाकर देखू , कि इन सबकी क्या राय हो रही है ' इस प्रकार क्रोध के आवेश से धम धम करती हुई वह ऊपर गई । जाते ही उसने देखा कि सास श्वशुर मरे पडे हुए हैं पति भी गले में फांसी लगाकर मरे हुए लटक रहे हैं। उस दुर्घटना को देखकर उसके शरीर में सन्नाटा छा गया, कोप जाता रहा । अत्यंत शोक से वह विह्वल हो गई। विचारा कि अब संसार में मेरा कौन है, कि जिस के लिये इन प्राणों की रक्षा करूँ। लोग सुनेंगे तो क्या कहें गे। इस प्रकार विचार कर वह भी अन्त में ગળામાં ફાંસે લગાડી મરેલી હાલતમાં લટકી રહ્યા છે. આ પરિસ્થિતિ જોઈ તેને ખૂબ દુઃખ થયું, માતા પિતાના વિયેગે તેને પાગલ બનાવી દીધો. અંતે એ બિચારાએ પણ પિતાના પિતાના ગળામાંથી ફસે કાઢી પિતાના ગળામાં લગાવી આત્મઘાત કર્યો જ્યારે પુત્રવધુએ એ વિચાર્યું કે, “આ ત્રણે જણ મળી મારી દુર્દશા કરવાની ચેજના ઘડી રહ્યાં હશે. આથી ઉપર જઈ જોઉં તે ખરી કે બધા કે વિચાર કરી રહ્યા છે ” આ રીતે કોધના આવેશથી ધમ ધમ કરતી વહુ ઉપર પહોંચી ને જુએ છે તે સાસુ સસરા રેલ પડયા છે. અને પતિ પણ ગળામાં ફાંસો લગાવી મારેલ લટકી રહેલ છે. આ દુર્ઘટનાને જોઈ એના શરીરમાં કંપારી વછુટી, ક્રોધ જતો રહ્યો અને શોકથી વિહળ બની ગઈ. વિચાર્યું કે હવે સંસારમાં મારું કોણ છે કે જેના માટે આ પ્રાણની રક્ષા કરૂં લાકે જાણશે તે શું કહેશે ? આ વિચાર કરી તેણે પિતાના ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - उत्तराध्ययनसूत्रे अस्मिन् दृष्टान्ते-सकृदुक्तादपि मर्मवचनात् षण्णां जीवानां प्राणव्यपरोपणं जातम्, यतः पुत्रवधूगर्भे द्वयमपत्यमासीत् । तस्मान्मार्मिकं वचनं न भाषणीयम् । सावद्य-निरर्थक-मर्मग-वचनभाषणस्य सर्वथा प्रतिषेधं बोधयितुमुत्तरार्धमाह'अप्पणट्ठा' इत्यादि। आत्मार्थ स्वार्थ, परार्थ वा, तथा उभयस्य आत्मनः परस्य च अर्थे, वा-अथवा, अन्तरेण अनुभयार्थे स्वपरप्रयोजनाभावेऽपि सावधं न लपेत्= न निरर्थकं लपेत्, न ममग लपेत् , इति सम्बन्धः ॥ २५ ॥ अथान्यसंसर्गकृतदोषपरिहारमाहमलम-समरेसु अंगारेसु, संधीसु य महापंहे । एगो एगिथिए सद्धिं, नेव चिट्टे ने संलवे ॥२६॥ छाया-समरेषु अगारेषु, संधिषु च महापथे । एकः एकस्त्रिया साध, नैव तिष्ठेत् न संलपेत् ॥२६॥ टोका-'समरेसु' इत्यादि समरेषु-लौहकारशालासु तथा-अगारेषु-गृहेषु, तथा संधिषु-गृहद्वयान्तरा. लेषु तथा-महापथे-राजमार्ग, एका-एकाकी, एकस्त्रिया-एकाकिन्या स्त्रिया, सार्धसह, नैव तिष्ठेत् ऊर्ध्वस्थानावस्थितो नैव भवेत् । न संलपेत्-तया सह समरादिषु स्थानेषु क्यापि संभाषणं न कुर्यादित्यर्थः । अत्र समरादिचतुष्टयस्थानग्रुप पति के गले से फांसी निकाल कर अपने गले में फासो डालकर मर गई वह उस समय गर्भवती थी। उस के गर्भ में दो बालक थे। इस दृष्टांत से यह बात स्पष्ट होती है कि देखो एक बार भी कहे गये मार्मिक वचन से छह प्राणियों का दारूण आपघात हुआ । इसलिये मार्मिक वचन नहीं कहना चाहिये। अपने अथवा पर के निमित्त तथा दोनों के निमित्त एवं जहां स्व और पर का कुछ भी प्रयोजन न हो वहां पर भी व्यर्थ ही मनुष्य को सावद्य, निरर्थक एवं मर्मग वचन नहीं बोलना चाहिये ॥ २५॥ પતિના ગળામાંથી ફાસ કાઢી પિતાના ગળામાં નાખી મરી ગઈ તે એ સમયે ગર્ભવતી હતી, એના ગર્ભમાં બે બાળક હતાં. આ દૃષ્ટતથી એ વાત સ્પષ્ટ થાય છે કે, એક વખત પણ કહેવામાં આવેલા માર્મિક વચનથી છે પ્રાણીઓને કરૂણ આપઘાત થયે, આ માટે માર્મિક વચન ન બેલવાં જોઈએ. પોતાના અથવા બીજાને નિમિત્ત તથા બનેના નિમિત્ત અને જ્યાં પિતાનું કે બીજાનું કોઈ પણ પ્રયોજન ન હોય ત્યાં પર પણ મનુષ્યને સાવદ્ય, નિરર્થક અને માર્મિક વચન બોલવાં ન જોઈએ. (૨૫) ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१७ प्रियदर्शिनी टीका गा. २६ ब्रह्मचारिकर्तव्यम् लक्षणं सर्वेषां स्थानानाम्, कुत्रापि स्त्रिया सहावस्थानं संभाषणं च न कुर्यादित्यर्थः, एकग्रहणमप्युपलक्षणम् तेनानेकस्त्रीभिरपि सहावस्थान संभाषणं च वर्जनोयम् , यत्र पुरुषः साक्षी नास्ति तत्र स्त्रिया सहावस्थानं संभाषणं च परिहरेदिति सूत्राशयः । उक्तं च श्रीदशवकालिक सूत्रे जहा कुक्कुडपोयस्स, निच्चं कुललओ भयं । एवं खु बंभयारिस्स, इत्थी विग्गहओ भयं ॥ (अ. ८ गा. ५४) छाया-यथा कुक्कुटपोतस्य, नित्यं कुललाद् भयम् ॥ एवमेव ब्रह्मचारिणः, स्त्रीविग्रहाद् भयम् ॥ स्वगत दोष का निरूपण कर के अब अन्य के संसर्ग से होने वाले दोषोंका वर्णन करते हैं-'समरेसु-इस्यादि. ___अन्वयार्थ-(समरेसु-समरेषु) लुहारकी शाला में (अगारेसु-अगारेषु) घरों में, (संधीसु-संधिषु) दो घरों के अंतराल में तथा (महापहेसुमहापथेषु), राजमार्ग में (एगिथिएसद्धिं-एकस्त्रियासार्ध) अकेली स्त्री के साथ ( नेवचिठे न संलवे-नैवतिष्ठेत् नैव संलपेत् ) न ख़डा होवे और न उससे बातचीत करे। __ इस श्लोक में समरादिक चार पद उपलक्षण हैं, इससे समझना चाहिये कि किसी भी जगह में जब तक पुरुष साक्षीभूत न हो तब तक अकेली स्त्री से अथवा अनेक स्त्रियों से ब्रह्मचारी का कर्तव्य है कि वह न बोले और न वहाँ खडा रहे। दशवकालिक सूत्र में भगवानने कहा है આ પ્રકારે પિતાનામાં રહેલ દેનું વર્ણન કરી હવે બીજાના સંસર્ગથી ये होषानु पर्छन रे छे. समरेसु छत्याह. ___मन्वयार्थ-समरेसु-समरेषु सुडानी उभां, अगारेसु-अगारेषु धराभां, संघेसु-संधेषु मे घरोना मतभा तथा महापहेसु-महापथेषु २० भामा, एगिथिए सद्धि-एकस्त्रिया साध ली सीनी साथे, नेव चिठे न संलवे-नैव तिष्ठेत नैव संलपेत् मा न २२ मन सनाथी पातयात ४२वी नही. આ શ્લોકમાં સમરાદિક ચાર ઉપલક્ષણ છે, એથી એ સમજવું જોઈએ કે, કોઈ પણ સ્થળે જ્યાં સુધી બીજે પુરૂષ સાક્ષીભૂત ન હોય ત્યાં એકલી સ્ત્રીથી અથવા અનેક સ્ત્રીઓ સાથે બ્રહ્મચારીએ બોલવું ન જોઈએ, અને ત્યાં ઉભવું પણ ન જોઈએ. દશવૈકાલિક સૂત્રમાં ભગવાને કહ્યું છે કે, જે રીતે કુકડાના બચ્ચાને બિલાડીને ભય રહે છે, એ રીતે સ્ત્રીને શરીરને બ્રહ્મચારીને પણ ભય રહ્યા કરે છે. उ० २८ ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययनसूत्रे उक्तं चान्यत्र-ससा सुया नुसा माया, एयाहिं वि न संलवे । एगंते नेव चिठेज्जा, अप्पठी संजए सया ॥१॥ छाया-स्वसा सुता स्नुषा माता, एताभिरपि न संलपेत् । एकान्ते नैव तिष्ठेत्, आत्मार्थी संयतः सदा ॥१॥ इति ॥२६॥ अथ विनीतशिष्यकर्तव्यमाहमलम् -जं में बुद्धाऽणुसासंति, सीएण फरुसेण वा । मम लाभो ति पेहाएं, पैयओ तं पडिस्सुणे ॥२७॥ छाया-यन्मां बुद्धा अनुशासंति, शीतेन परुषेण वा। । मम लाभ इति प्रेक्षया, प्रयतस्तत् प्रतिशृणुयात् ॥२७॥ टीका-'जं मे' इत्यादि। बुद्धाः आचार्याः, यन्माम् शीतेन शीतलवचनेन मृदुवचनेनेत्यर्थः, वा=अथवा परुषेण-कठोरवचनेन अनुशासति शिक्षयन्ति, इदमनुशासनं मम लाभ लाभका-कि-जिस प्रकार मुर्गे के बच्चेको कुलल-बिलाडी से भय बना रहता है उसी तरह ब्रह्मचारी को भी स्त्री के शरीर से सदा भय रहा करता है। इसलिये चाहे अपनी सांसारिक बहिन भी हो, चाहे पुत्री हो, वहू हो, माता भी हो, तो भी एकान्तमें ब्रह्मचारी को इनके साथ उठना बैठना नहीं चाहिये और न बातचीत ही करनी चाहिये ॥ २६ ॥ अब विनीत शिष्य का कर्तव्य कहते हैं-जंमे' इत्यादि । अन्वयार्थ-विनीत शिष्य को इस प्रकार विचार करना चाहिये कि ( जमे बुद्धा-यन्मां बुद्धा) जो मुझे आचार्य महाराज (सीएण-शीतेन) मीठे वचनों से, वा अथवा (फरसेण-परुषेण) कठोर वचनों से (अणुसासंति-अनुशासति) अनुशासित करते हैं अर्थात् शिक्षा देते हैं सो (मम लाभो-मम लाभः) यह मेरे लिये एक बडा भारी लाभ है, क्यों कि આ માટે ભલે પિતાની સંસારીક બહેન હોય, ચાહે પુત્રી હેય, વહુ હોય, અથવા માતા હોય તે પણ એકાંતમાં એમની સાથે બેસવું ઉઠવું કે વાતચિત પણ બ્રહ્મચારીએ કરવી ન જોઈએ. ૨૬ हवे विनीत शिष्यतुं तव्य ४ छे-जमे त्याहि. વિનીત શિષ્ય આ પ્રકારનો વિચાર કરે જોઈએ કે, स-या-जंमेबुद्धा-यन्मांबुद्धा भने साया भा२।४, सीएण-शीतेन भी। क्यनाथी, वा २०११। फरुसेण-परुषेण ४४२ क्यनाथी, अनुसासंति-अनुशासति अनुशासित ४२ छ, अर्थात् शिक्षा मापे छे. ममलामो-ममलाभ से ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रियदर्शिनी टोका गा. २७ विनीतशिष्यकर्त्तव्यम् २१९ " रणम्, लाभः - अप्राप्तस्य सम्यकदर्शन- सम्यग्ज्ञान- सम्यक् चारित्रलक्षण रत्नत्रयस्य प्राप्तिस्तस्य कारणमस्ति इतिप्रेक्षया = इति पर्यालोचनात्मिकया बुद्ध्या प्रयतः =प्रकर्षेण यतनावान् सहनशीलः सन् शिष्यः तत् = अनुशासनं गुरोः शिक्षावचनं प्रतिशृणुयात् = कर्तव्यतयाऽङ्गीकुर्यात् । अयं भावः । यथा – वर्षाकाले सूर्यकिरणाः प्रचण्डतरा भवन्ति, परंतु परिणामे द्वित्रदिवसाभ्यन्तर एव ते जलदावली समागमनशीत लपवनजलधारासंपातजनितशीतस्पर्शसुखंप्रादुर्भावयन्ति । " यथा वा - नालिकेरं बहिः कर्कशं भवति तथापि तदीयं शीतलमधुरनी र गर्भितमाभ्यन्तरिक भागमुपलभ्य लोकस्तदास्वादनेन तुष्टिं पुष्टिं इससे अप्राप्त सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान एवं सम्यक् चारित्र की मुझे प्राप्ति होती है। (ति पेहाए- इति प्रेक्ष्य) इस प्रकार पर्यालोचनात्मक बुद्धि से विचार कर (पयओ तं पंडिस्सुणे - प्रयतः तं प्रतिश्रृणुयात्) सहनशील बना हुआ शिष्य गुरु के शिक्षात्मक वचनों को कर्तव्य समझकर अंगीकार करे । तात्पर्य - जिस प्रकार वर्षाकाल में सूर्य की किरणें प्रचण्डतर हो जाती हैं और इस से वे प्राणियों को असहनीय बनती हैं परन्तु परिणाम में दो तीन दिन के भीतर ही वे बरसात के समागमन से पवन को शीतल बना देती हैं उस से जलवृष्टि खूब होकर शीतस्पर्श के सुख का उन्हें अनुभव कराती हैं । अथवा जैसे - नारियल ऊपर से कठोर होता है परन्तु उसका भीतर का भाग शीतल, मीठे जल से भरा रहता है, उसको બધું મારે માટે લાભકારક છે. કેમ કે, એનાથી અપ્રાપ્ત સમ્યગ્ દર્શન સમ્યગ્જ્ઞાન, भने साम्य यारित्रनी भने प्राप्ति थाय छे. त्तिपेहाए - इतिप्रेक्ष मा अठारे पर्याबोयनात्म शुद्धिश्री विचार उरी, पयओ तं पडिस्सुणे - प्रयतः तत् प्रतिश्रुणुयात् સહનશીલ અનેલ શિષ્ય ગુરુના શિક્ષાત્મક વચનાને કન્ય સમજી અંગિકાર કરે. આનું તાત્પર્ય એ છે કે, જેવી રીતે વર્ષાકાળમાં સૂર્યનાં કિરણા પ્રચ'ડતર થઈ જાય છે, અને તેથી તે પ્રાણીએ માટે અસહનીય બની જાય છે. પરંતુ પરિણામે એ ત્રણ દિવસની અંદર તે વરસાદના સમાગમથી પવનને શીતળ બનાવી દે છે, જેથી જળવૃષ્ટિ ખૂબ થાય છે અને ઠંડીના સ્પ સુખને અનુભવ કરાવે છે. અથવા જેમ નાળિયેર ઉપરથી કઠાર હોય છે પરંતુ એની અંદરના ભાગ શીતળ મીઠા જળથી ભરેલે હેાય છે. જેને મેળવી લેકા તુષ્ટિ-સતાષ ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર ઃ ૧ Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२० उत्तराध्ययन सूत्रे च लभते । एवमाचार्याणां शीतं परुषं चेत्युभयविधं शिक्षावचनं परिणामे सुखजनकमेव । आचार्यवचनं हि - परिणामतस्तपः संयमाराधनप्रवर्तकं, मिथ्यात्वादिपञ्चवि धास्रवनिवर्तक, ज्ञानावरणीयादिकर्मरजःपटलापसारणपरमभीषणसमीरणात्मक, नानाविधलब्धिसाधकं निखिलभावस्वभावावभासककेवलालो कमदर्शकं, शाश्वतिकसुखसमर्पकं च भवति" इत्येव पर्यालोच्य गुरोः शिक्षावचनमङ्गीकुर्यादिति ॥ २७॥ सकलकल्याणकारिण्यपि गुरुशिक्षा कस्मै कीदृशी परिणमतीत्याहमूलम् - अणुसासणमोवायं, दुक्कडेस्स ये चोयणं । हियं तं मन्नएं पन्नो, वेस्सं होई असांहुणो ॥२८॥ " प्राप्त कर लोक तुष्टि एवं पुष्टि को प्राप्त करते हैं । इसी तरह आचार्य महाराज के कोमल एवं कठोर, दोनों प्रकार के शिक्षाप्रद वचन शिष्य को परिणाम में सुख जनक होते हैं। शिष्य को आचार्य महाराज के वचन ही अन्त में तप एवं संयम की आराधना करने में प्रवृत्त कराने वाले होते हैं । मिथ्यात्वादि पांच प्रकार के आस्रव के वे निरोधक होते हैं । ज्ञानावरणीय आदि कर्मरज के पटल को हटाने में वे प्रचण्ड पवन के वेगतुल्य होते हैं। शिष्यजनोमें अनेक प्रकार की लब्धियों की जागृति कराने वाले होते है । समस्त पदार्थों के स्वभाव का जिस में अवभासन होता है ऐसे केवलज्ञानरूप प्रकाश के प्रदर्शक एवं शाश्वतिक सुख के देनेवाले होते है । इस प्रकार गुरु महाराज के शिक्षा वचनों को हितकारक जानकर शिष्यका कर्तव्य है कि वह उन्हें अंगीकार करे ||२७|| અને પુષ્ટિ પ્રાપ્ત કરે છે. આ રીતે આચાર્ય મહારાજનાં કમળ અથવા કઠોર અન્ને પ્રકારનાં શિક્ષાપ્રદ વચન શિષ્યને પરિણામમાં સુખજનક બને છે. આચાય મહારાજનાં વચનજ અંતમાં શિષ્યને તપ તથા સંયમની આરાધના કરવામાં પ્રવૃત્ત કરાવનાર હોય છે. મિથ્યાત્વાદિ પાંચ પ્રકારના આસ્રવના એ નિરાધક હાય છે. જ્ઞાનાવરણીય આદિ કર્મ રજના આવરણને દૂર કરવામાં તે પ્રચંડ પવનના વેગ જેવાં હાય છે. શિષ્યજનામાં અનેક પ્રકારની લબ્ધિયાની જાગૃતિ કરાવનાર હાય છે, સમસ્ત પદાર્થોના સ્વભાવનું જેનામાં અવભાસન હેાય છે એવા કેવળ જ્ઞાન રૂપ પ્રકાશના પ્રદર્શક અને શાશ્વતિક સુખને દેવાવાળા હોય છે. આ પ્રકારે ગુરુ મહારાજના શિક્ષા વચનાને હિતકારક જાણીને શિષ્યનુ' એ કવ્ય છે કે તે એના અંગિકાર કરે. ॥ ૨૭।। ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર ઃ ૧ Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२१ प्रियदर्शिनी टीका गा. २८ शिष्यायशिक्षा छाया-अनुशासनमौपायं, दुष्कृतस्य च नोदनम् । हितं तत् मन्यते प्राज्ञः, द्वेष्यं भवति असाधोः ॥ २८ ।। टीका- 'अणुसासण' इत्यादि प्राज्ञः प्रज्ञावान् मेधावी शिष्यः, औपायम्-उपाये शीतपरुषभाषणरूपे भवम्, मृदुकठोरभाषणसमन्वितम् अनुशासन-गुरोः शिक्षावाक्यं, च-पुनः दुष्कृतस्य अति. चारस्य निवारणार्थ नोदनं प्रेरणं, 'हा किमिदमकल्प्यं त्वया कृतम्' इत्यादिरूपम् तद् वचनं हित-लोकद्वयकल्याणकारकं, मन्यते । असाधोःअविनीतशिष्यस्य तदेव वचनं द्वेष्यं द्वेषजनकं भवति। यथा-इक्षुक्षेत्रे दत्तं जलं मधुररसरूपेण परिणतं भवति, निम्बतरुमूले तु तदेव सकल कल्याण करनेवाली भी गुरुशिक्षा किस को किस रूप में परिणत होती है सो कहते हैं-'अणुसासणं'-इत्यादि। अन्वयार्थ-(पन्नो-प्रज्ञः) बुद्धिमान मेधावी शिष्य (ओवायं-औपायं) मृदु एवं कठोर भाषण से मुक्त (अनुसासणं-अनुशासनं) गुरु के शिक्षा स्वरूप वचनों को कि जो (दुक्कडस्प्स य चोयणं-दुष्कृतस्य च नोदनम् ) अतिचार के निवारण के लिये प्रयुक्त किये गये हैं-'यह तुमने नहीं करने योग्य काम क्यों कर दिया है' इत्यादिरूप से जो कहे गये हैं (तं हियं मन्नए-तत् हितं मन्यतेउसको अपना हितकारक मानता है। (असाहुणो-असाघोः) परन्तु जो अविनीत शिष्य होता है वह उन्हीं शिक्षावचनों को (वेसंहवइ-द्वेष्यं भवति) अहितकारी मानता है। मेधावी शिष्य गुरु के मृदुकठोररूप वचनों को अपना हितकारक, एवं असाधु अर्थात् अविनीत शिज्य उन्हीं वचनों को दुःखदायक मानता है। સકલ કલ્યાણ કરવવાળી ગુરુ શિક્ષા કેને કયા રૂપમાં પરિણત થાય છે ते ४डेवामा आवे छे. अणुसासणं त्यादि. ___ मक्याथ----पन्नो-प्रज्ञः गुद्धिमान मेधावी शिष्य ओवायं-औपायं । मथवा २ माथी युत अणुसासणं-अनुशासन गुरुनां शिक्षा २१३५ क्यनाने से दुक्कडस्स य चोयण-दुष्कृतस्य च नोदनम् मतियारना निवा२३ भाटे પ્રયુક્ત કરવામાં આવેલ છે. આ ન કરવા યોગ્ય કામ તમે શા માટે કર્યું?” इत्याहि ३५थी उपाय छ तेहियं मन्नए-तत् हितं मन्यते अन पोताना ति:२ भान छ. असाहुणो-असाधोः ५२ रे अविनात शिष्य डाय छ त में शिक्षा वयनाने द्वेष्यं भवति महितरी भाने छे. ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨૨૨ उत्तराध्ययनसूत्रे कटुकरसरूपेण, यथा वा सितोपलं-'मिसरी' इति भावाप्रसिद्धं सर्वेषां मधुरास्वादजनकं भवति तदेव पित्तदूषितरसनस्य निम्बादिवत् कटुकं, गर्दभाणां तु विषमेव भवति, यथा वा शुद्धं घृतं सर्वेषां पुष्टिकरं भवति, तदेव ज्वराक्रान्तानां जनानां रोगवर्धकम् । एवं गुरुवचनं सविनयस्य हिताय जायते, विनयरहितस्य शिष्यस्य तु द्वेषाय इति भावः ॥२८॥ उक्तमर्थ विशदयन्नाहमलम-हियं विगयभया बुद्धा, फरुसं पि अणुसासणं । वेस्सं तं होई मूढाणं, खंतिसोहिकर पैयं ॥२९॥ छाया-हितं विगतभया बुद्धाः, परुषमपि अनुशासनम् । द्वेष्यं तत् भवति मूढानां, शान्तिशोधिकरं पदम् ॥ २९ ॥ ___तात्पर्य इसका इस प्रकार का है कि जिस प्रकार इक्षु के खेत में दिया गया पानी मधुर रसरूपसे परिणत होता है और वही पानी जब निम्बवृक्ष के मूलमें दिया जाता है तो कडुवे रूपमें परिणत हो जाता है, अथवा जैसे मिश्री सब के लिये मधुर आस्वाद देती है परन्तु जिस की जीभ पित्त से दूषित हो रही है उसके लिये वह मिश्री कडवी नीम जैसी मालूम होती है, तथा गधों को तो वह विष जैसी ही मालूम होती है । अथवा जैसे शुद्ध घृत समस्तजनों को पुष्टि करने वाला होता है परन्तु वही घृत ज्वरवाले के लिए रोगवर्द्धक होता है, इसी प्रकार जो विनयी शिष्य हैं उनके लिये गुरु महाराज के वचन हितकारक होते हैं और वे ही वचन अविनीन शिष्य के लिये द्वेषकारक होते हैं ॥ २८ ॥ તેનું તાત્પર્ય આ પ્રકારનું છે, કે જે પ્રકારે દ્રાક્ષના ખેતરમાં આપવામાં આવેલ પાણી મધુરસ પમાં પરિણીત બને છે અને તેજ પાણી જ્યારે લિંબડાના વૃક્ષના મૂળમાં આપવામાં આવે છે તે કટુરસ રૂપમાં પરિણમે છે. જેમ-સાકર બધા માટે મધુર આસ્વાદ આપે છે પરંતુ જેની જીભ પિત્તથી દુષિત થયેલ હોય છે, તેને માટે સાકર કડવા લિમડા જેવી માલુમ પડે છે. અને ગધેડાને તે તે ઝહેર જેવી બને છે. અથવા જેમ ચોખ્ખું ઘી સઘળા માટે પુછી કરવાવાળું હોય છે પરંતુ તે દી તાવવાળા માટે રોગને વધારનાર બને છે. એ જ રીતે જે વિનયી શિષ્ય છે તેને માટે ગુરુ મહારાજનું વચન હિતકારક હોય છે. અને તે જ વચન અવિનીત શિષ્ય માટે શ્રેષકારક હોય છે. જે ૨૮ છે ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२३ प्रियदर्शिनी टीका गा २९ शिष्यायशिक्षा ___टीका-'हियं' इत्यादि विगतभया=भयरहिताः, भयं सप्तविधम्-इहलोकभयम् १, परलोकभयम् २, आदानभयम् ३, अकस्माद्भयम् ४, आजीविकाभयम् ५, मरणभयम् ६, अश्लोकभयं च ७, एतैर्विवर्जिताः, बुद्धाः ज्ञाततत्वा मेधाविन इत्यर्थः, एवंभूताः शिष्याः परुषमपि कठोरमपि, अनुशासनम्-शुरूणां शिक्षावचनम् हित-पथ्यं मन्यन्ते इति शेषः । किंतु क्षान्तिशोधिकरं-शान्तिः क्षमा, शोधिः शुद्धिः आत्मशुद्धिः, तयोः करम् उत्पत्तिजनकं, यथा-वर्षाऋतुनिमित्तं प्राप्य जलधरा गर्जन्ति, वसन्तं प्राप्य वृक्षा नूतनपल्लवकुसुमश्रियोपेता भवन्ति, चन्द्रं प्राप्य चन्द्रकान्तमणयः प्रस्रवन्ति, सूर्य पाप्य कमलानि विकसन्ति, तथा क्षमां प्राप्य निर्लोभतादिगुणाः प्रादुर्भवन्ति । शोधिश्व दुःखमेघनाशने पवनरूपा, सुखोत्पादने कल्पतरुरूपा भवसिन्धुपारकरणे नौकारूपा, अज्ञानान्धकारनाशने प्रभारूपा । एवंभूतयोः शान्तिशोध्योर्जनकम्, इदमुपलक्षणम् तेन आजबादिकरमपि, पदं ज्ञानादि गुणानां स्थानम् । तत् अनुशासनं, मूढानां कुशिष्याणां द्वेष्यं-द्वेषजनकं भवति । उक्तं च पुनरप्याह-'हियं' इत्यादि । अन्वयार्थ--(विगयभया-विगतभयाः) इहलोकभय, परलोकभय, आदानभय, अकस्मात्भय, आजीविकाभय, मरणभय, एवं अश्लोकभय, ये सात भय हैं। इनसे जो रहित हैं तथा (घुद्धा-बुद्रा): तत्वों के जो जानकार हैं-मेधावी हैं वे शिष्य (फरुसंपि-परुषमपि ) कठार भी (अणुसासणं-अनुशासन) गुरु महाराज के शिक्षात्मक वचनों को (हियं-हितं) पथ्य-हितविधायक मानते हैं। किन्तु (खंति सोहिकरं -क्षान्तिशोधिकरं ) क्षमा और शुद्धि के विधायक तथा ( पयं-पदम् ) ज्ञानादिक गुणों के स्थानभूत (तत् ) गुरु के वे ही अणुशासनरूप पुनरप्याह हिय:-त्यादि. म-क्या-विगयभया-विगतभयाः सानो मय, ५२४ना लय, આદાન ભય, અકસ્માત ભય, આજીવિકા ભય, મરણ ભય અને અશ્લેક ભય मा सात सय छ योनाथीरे २डित छे तथा (बुध्धा-बुध्धा ) तत्वाना ना२ छे, मेधावी छ, ते शिष्य फरुसंपि-परुषंअपि ४४२ ५५५ अणुसासण-अनुशासन गुरु महान शिक्षात्म४ वयनाने हिय-हित पथ्य हित विधाय: भान छ, खंतिसोहिकरं-शांतिशोधिकरं क्षमा भने शुद्धिना विधाय४, पय-पदम् ज्ञाना ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२४ उत्तराध्ययनसूत्रे - सद्बोधं विदधाति हन्ति कुमति मिथ्यादृशं बाधते, धत्ते धर्ममति तनोति परमे संवेगनिवेदने। रागादोन विनिहन्ति नीतिममलां पुष्णाति हन्त्युत्पथं, यद्वा किं न करोति सद्गुरुमुखादभ्युद्गता भारती ॥१॥ इति ॥२९॥ वचन (मूढाणं वेस्सं होइ-मूढानां द्वेष्यं भवति) मूर्ख-अविनीत शिष्यों के लिये द्वेषजनक होते हैं। कहा भी है "सबोधं विदधाति हन्ति कुमति मिथ्यादृशं बाधते, धत्ते धर्ममतिं तनोति परमे संवेगनिवेदने । रागादीन् विनिहन्ति नीतिममलां पुष्णाति हन्त्युत्पथं, यहा किं न करोति सद्गुरुमुखादभ्युद्गता भारती" ॥१॥ सद्गुरु के मुग्वसे निकली हुई वाणी प्रशस्त बोधकी-सम्यग्ज्ञान की जनक होती है, कुमति की विदारक होती है, मिथ्यात्वरूपी दृष्टि की विध्वंसक होती है, धर्म में मति उत्पन्न करने वाली होती है, संवेग, एवं निर्वेद गुण की उत्कर्षक होती है, रागादिकों की विनाशक होती है, निर्मल नीति की पोषक होती है, कुमार्ग की विद्रावक होती है। ऐसे और कौन से मद्गुण बचते हैं जो गुरुदेव की वाणी से जीवों को प्राप्त न होते हों ॥ २९ ॥ गुणेना २थानभूत, तत् ते गुरु नानां मनुशासन। ३५ वयन मूढाण वेस्स होइ-मूढानां द्वज्यं भवति विनीत शिष्य भाट द्वेष १४ मन छे. ४घु ५५ छ है सब्दोधं विदधाति हन्तिकुमति, मिथ्याद्रशं बाधते । धत्ते धर्ममति तनोति परमे संवेगनिर्वेदने ॥ रागादिन विनिहन्ति नीतिममलां पुष्णाति हन्त्युत्पथं । यद्वा किं न करोति सद्गुरुमुखादभ्युद्गता भारती ॥१॥ સદ્દગુરુના મુખથી નીકળેલી વાણી પ્રશસ્ત બોધની સામ્યગ જ્ઞાનની જનક હોય છે, કુમતિની વિદારક હોય છે, મિથ્યાત્વરૂપી દષ્ટિની વિધ્વંસક હોય છે, ધર્મમાં મતિ ઉત્પન કરવાવાળી હોય છે, સંવેગ અને નિર્વેગ ગુણને ઉત્કર્ષક કરવાવાળી હોય છે, રાગાદિકનો વિનાશ કરનારી હોય છે, નિમેળ નિતીની પિષક હોય છે. કુમાર્ગની વિદ્રાવક હોય છે, એવા અને બીજા કયા સદ્ગુણ બાકી રહે છે કે જે ગુરુદેવની વાણીથી છને પ્રાપ્ત ન થતા હોય છે ૨૯ ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रियदर्शिनी टीका. अ० १ गा० ३० शिष्याय शिक्षा २२५ मूलम्-आसणे उर्वचिद्विज्जा, अणुच्चे अकुए थिरें। अप्पुढाई निरुहाई, निसीएजप्पकुक्कुए ॥३०॥ छाया-आसने उपतिष्ठेत्, अनुच्चे अकुचे स्थिरे । ____ अल्पोत्थायी निरुत्थायी, निषीदेत् अल्पकौकुच्यः ॥ ३० ॥ टीका-'आसणे' इत्यादि__ अनुच्चे-द्रव्यतो गुर्वासनानीचे, भावतः स्वल्पमूल्यके, अकुचे अकम्पमाने, यद्वा चटत्कारादिशब्दरहिते, स्थिरे समपादवत्त्वेन निश्चले, आसने उपतिष्ठेत् पीठादौ वर्षासु उपतिष्ठेत् उपविशेत् । ईदृशेऽप्यासने साधुः किमवस्थः संस्तिष्ठेदित्याह-'अप्पुट्ठाई' इति अल्पोत्थायी कार्ये सत्यपि ईषदुत्तिष्ठतीत्येवंशीलः, एककार्येणोत्थितः सन् बहुकार्यसंपादक इत्यर्थः । अत-एव-कीदृशः सन्नित्याह अब शिष्य के लिये आसन की विधि कहते हैं-'आसणे'-इत्यादि। अन्वयार्थ-शिष्य (अणुच्चे-अनुच्चे) द्रव्यकी अपेक्षा गुरुमहाराज के आसनसे नीचा भावकी अपेक्षा अल्पमूल्यवाला (अकुए-अकुचे) तथा चटचट इत्यादि शब्द से रहित, अथवा हिलनेवाला नहीं ऐसा जो (थिरे-स्थिरे ) स्थिर-चारों पाये जिसके समान हों ऐसे (आसणे-आसने ) आसन - पीठ फलक पाट पाटले आदि, उन पर वर्षाकाल में ( उवचिद्विज्जा-उपतिष्ठेत् ) बैठे। शिष्य जिस आसन पर बैठे वह गुरु के आसन की अपेक्षा नीचा होना चाहिये । तथा अल्प मूल्यवाला एवं हिलने डुलने वाला नहीं होना चाहिये। शिष्य अपने आसन पर जम कर बैठे, कारण विना न उठे, यही बात (अप्पुट्ठाईअल्पोत्थायी ) इस पद द्वारा प्रदर्शित की गई है। उठने का काम यदि वे शिष्य भाटे सासननी विधि ४ छ, आसणे-त्याह. स-पयार्थ-शिष्य अणुच्चे-अनुच्चे द्रव्यनी अपेक्षा शुरुमडान मासनथी नीया, सापनी अपेक्षा ६५भुस्यवाणा, अकुए-अकुचे तथा यस्यट त्यादि ४थी २हित अथवा सावनड़ी सेवा थिरे-स्थिरे स्थिर-थारे पायाना से सरमा डाय तवा, आसणे-आसने मासन-पी8 ५४ पाट पारमा मालिसना ५२ वर्षामा उवचिट्रिज्जा-उपतिष्ठेत असे. शिष्य २ આસન ઉપર બેસે તે ગુરુના આસનથી નીચું હોવું જોઈએ, તથા હલે ચલે નહીં તેવું હોવું જોઈએ. શિષ્ય પિતાના આસન ઉપર સ્થિર થઇને બેસે, કારણ १२ न 68, अप्पुट्ठाई-अल्पोत्थाई ॥ पात मा ५४ ॥२॥ प्रहशित ४२पामा उ० २९ ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२६ उत्तराध्ययनसूत्रे ' निरुहाई' इति निरुत्थायो - प्रयोजनेऽपि न पुनः पुनरुत्थानशीलः पुनः कीदृशः सन्नित्याह - ' अप्पकुक्कुए ' इति अल्पकौकुच्यः - अल्पं कौकुच्यं यस्य स तथाअत्रापशब्दो नञर्थे वर्तते तथाच - करचरणभ्रूभ्रमणाद्यशिष्टचेष्टारहित इत्यर्थः निषीदेत् = उपविशेत् । ' अनुच्चे' इति विशेषणेन विनयः प्रदर्शितः । 'अक्कुचे ' इत्यनेन द्वीन्द्रियादित्रसजीवयतना सूचिता । स्थिरे' इत्यनेन वायुकाययतना सूचिता । 'अल्पस्थायी' इत्यनेन निषद्यापरिषद विजयः सूचितः । 'निरुत्थायी' इत्यनेन आभ्यन्तरिकव्युत्सर्गतपसः समाराधनाऽऽवेदिता । " , पडे भी तौ भी जब उठे तब जिस काम के लिये उठा हो उस समय और भी जो काम करना हो वे भी कर लेवे । तथा (अप्पकुक्कुए- अल्प कौकुच्यः) हाथ तथा पैर एवं भ्रू आदि का अशिष्ट संचालन न करे, तात्पर्य यह कि यदि यह पाठ आदि आसनपर जमकर बैठे तो भी ऐसी हालत में जिस प्रकार संसारी जन बैठे २ ही हाथ पैर आदि हिलाया डुलाया करते हैं वैसी अशुभ चेष्टाएँ नहीं करनी चाहिये । सूत्रकार ने ' अनुच्चे' इस पद द्वारा विनयगुण प्रदर्शन किया है। 'अकुचे' इस विशेषण द्वारा द्वीन्द्रियादि जीवों की यातना का सूचन किया है। 'स्थिरे' इस शब्द द्वारा वायुकाय की यातना का 'अल्पोत्थायी' इस पद द्वारा निषद्यापरीषह के विजय का 'निरुत्थायी' इस द्वारा आभ्यन्तर આવેલ છે. ઉઠવાનું કામ જો પડે તે પણ જ્યારે ઉઠે ત્યારે જે કામ માટે ઉઠેલ હાય તેની સાથે ખીજું પણ જે કામ કરવાનું હોય તે કરી લે. તથા अक्ष्पकुक्कुए–अल्पकौकुच्यः तथा हाथ अने पग तथा क्रू वगेरेनु अशिष्ट संचालन ન કરે. તાત્ય એ છે કે, જો તે પાટ આદુિ આસન ઉપર સ્થિર બેસે તે પણ એવી હાલતમાં જે પ્રકારથી સંસારી જન બેઠાં બેઠાં જ હાથ પગ વગેરે હુલાવ્યાडोलाव्या कुरै छे ते रीते अशुल येष्टाओ। रवीन लेई थे. सूत्रारे “अनुच्चे " आ પદ દ્વારા વિનયગુણુ પ્રદર્શન કરેલ છે. અત્તે આ વિશેષણ દ્વારા દ્વિ ઇન્દ્રિયાદિ જીવાની યતનાનું સૂચન કરેલ છે. સ્થિરે આ પદ દ્વારા વાયુકાયની યત્નાનું सूयन उरेल छे. “ अल्पोत्थायी " से यह द्वारा निषेधा परिषहुना विभ्यनुं सून्यन उरेल छे. निरुत्थायी थे यह द्वारा आभ्यंतर व्युत्सर्ग तपना तथा ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર ઃ ૧ Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रियदर्शिनी टीका अ० १ गा. ३१ एषणासमितिविधिः २२७ 'अल्पकौकुच्यः' इति विशेषणेन संयमलज्जा सूचिता ॥ ३० ॥ संप्रति एषणासमितिविषयं विनयमाहमूलम्-कालेण निखमे भिक्खू , कॉलेण ये पडिक्कमे । अकौलं च विवंज्जित्ता, काले कॉलं समायरे ॥३१॥ छाया—कालेन निष्क्रामेद् भिक्षुः, कालेन च प्रतिक्रामेत् । _ अकालं च विवर्य, काले कालं समाचरेत् ॥ ३१ ॥ टीका-'कालेण' इत्यादि कालेन-काले-देशकालानुसारेण भिक्षायोग्यसमये एव भिक्षुः साधुनिष्क्रामेत्-भिक्षार्थं निर्गच्छेत्-अकाले भिक्षार्थ निर्गमने संनिवेशनिन्दास्त्रात्मक्लेशादि दोषसंभवात् । च-पुनः कालेन-काले उचित समय एव प्रतिक्रामेत्-भिक्षाटनात् प्रतिनिवर्तत, अल्पलाभे अलाभे वा लाभाशया कालमतिक्रम्य न चिरकालमटेदिति भावः । व्युत्सर्ग तपका तथा 'अल्पकौकुच्यः' इस पद द्वारा संयम की लज्जा के निर्वाह का सूचन किया है ॥ ३० ॥ अब एषणासमितिविषयक विनयधर्मका सूत्रकार कथन करते हैं—'कालेण' इत्यादि. अन्वयार्थ--(कालेण-कालेन) देश काल के अनुसार भिक्षायोग्य समय में ही (भिक्खू-भिक्षु) साधु को (निक्खमे-निष्क्रामेत्) भिक्षा के लिये अपने स्थान से जाना चाहिये। अकाल में भिक्षा के लिये निकल ने में संनिवेश-गाँव की तथा साधु की निन्दा होती है, इस से आत्मा को क्लेशादिक दोषों को संभावना रहती है। तथा (कालेण य पडिकमे -कालेन च प्रतिक्रामेत् ) उचित समय में ही वह वापिस भिक्षाटन से लौट आवे, ऐसा नहीं करना चाहिये कि भिक्षा का अल्पलाभ हो अथवा अल्पकौकुच्यः थे ५४ द्वारा सयभनी darnat निडिनु सूयन ४२८ छे. ॥३०॥ डवे अषयासमितिविषय विनयधभर्नु सूत्र४२ ४थन ४२ छे. कालेण. त्याहि. अन्वयार्थ-कालेण-कालेन देश अनुसार निशाना योग्य सभये, भिक्खु-भिक्षु साधुसे निक्खमे-निष्क्रामेत् भिक्षा माटताना स्थानीय અકાળમાં ભિક્ષા માટે નિકળવામાં ગામની તથા સાધુની નિંદા થાય છે. એથી આત્માને साहि होषानी समवना २ छ, तथा कालेण य पडिकमे-कालेन च प्रतिकामेत् अथित समयमांत भिक्षाटनथी ५॥छ। ३२. सन १२ જોઈએ કે ભિક્ષાને અલ્પ લાભ હોય અથવા અલાભ હોય તે તે લાભની ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨૨૮ उत्तराध्ययनसूत्रे उक्तं च-अलाभो त्ति न सोइज्जा, तवोत्ति अहियासए । छाया-अलाभ इति न शोचेत्, तप इत्यध्यासीत ॥ च-पुनः अकालं-प्रतिक्रमण-प्रतिलेखनाऽपृच्छना-स्वाध्याय-भिक्षाचरीप्रभृतिकार्याणामयोग्य समयं च विवर्य-परित्यज्य, काले-यस्य कार्यस्य यः कालस्तस्मिन्नेव, कालं-तत्तकालोचितं प्रतिक्रमण-पतिलेखनादिकं कार्य समाचरेत-कुर्यात् । अयं भावः-यो यस्य अङ्गप्रविष्टादेः श्रुतस्य काल उक्तस्तस्य श्रुतस्य तस्मिन्नेव काले स्वाध्यायः कार्यः, नान्यदा, विघ्नसंभवात्, तीर्थंकराज्ञाविरोधाच्च । अलाभ हो तो वहीं लाभ की आशा से समय को उल्लंघन कर बहुत समय तक घूमता ही रहे। भगवान ने कहा भी है "अलाभो त्ति न सोइजा, तवोत्ति अहिया सए" साधु को जब अपने समयानुसार भिक्षा का लाभ न हो तो उस समय उसे शोच नहीं करना चाहिये किन्तु ऐसा समझना चाहिये कि यह एक बड़े भारी तप का लाभ हुआ है। प्रतिक्रमण, प्रतिलेखना, अपृच्छना, स्वाध्याय तथा भिक्षाचर्या का जो समय नियत है उस समय के अतिरिक्त (अकालं च विवज्जित्ता-अकालं च विवर्य ) शेष उनका अकाल का समय है अतः उसे छोडकर (कालं) जोर, कार्य जिस समय में किये जाने चाहिये उन्हें (काले) उसी समय में (समायरे -समाचरेत् ) करे। ___ भावार्थ--जिस अंगप्रविष्ठ आचारांग आदि सूत्रों के स्वाध्याय करने का जो समय नियत है उस समय में उसी श्रुत की स्वाध्याय આશાથી સમયનું ઉલંઘન કરીને ઘણા સમય સુધી ફરતા રહે. ભગવાને કહ્યું છે કે अलाभोत्ति न सोइज्जा तवो त्ति अहियासए साधुनन्यारे पोताना समय मनुसार ભિક્ષાને લાભ ન થાય તે તે સમયે તેણે સોચ ન કરવો જોઈએ પરંતુ मेम सम नये, २ मे मारे तपन दाम भन्यो, प्रतिक्रमण, प्रतिलेखना. आस्पृच्छना. स्वाध्याय. तथा निक्षाययान २ समय नियत छे से समय सिपाय, अकालं च विवज्जिता-अकाल च विवर्य शेष तन मन। समय छ, माथी मेन छ।, कालं रे २ ४ २२ समयमा ४N aai नमे मे से 4 काले समयमा समायरे-समाचरेत् ४२. ભાવાર્થ—અંગ પ્રવિષ્ટ આચારાંગ આદિ સૂત્રોને સ્વાધ્યાય કરવાને જે સમય નિયત છે એ સમયમાં એજ શ્રતને સ્વાધ્યાય કરવા જોઈએ, બીલ ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रियदर्शिनी टीका. अ० १ गा० ३१-३२ एषणासमितिविधिः २२९ दृश्यते च लोकेऽपि काल एव कृष्यादिकरणे धान्यादिनिष्पत्तिरूपं फलं भवति, विपर्यये तु विपर्ययः । यथा काल एव वनस्पतीनामकुराः प्रादुर्भवन्ति, काल एवं वृक्षाः कुसुमिता भवन्ति, फलवन्तश्च, काल एव षड् ऋतवः समायान्ति, काल एव तीर्थकराश्चक्रिणो बलदेवा वासुदेवा जायन्ते, काल एव शुक्तिकायां मुक्ता उत्पधन्ते, काले आवश्यककारिणस्तीर्थंकरगोत्रं कर्मोपार्जयन्ति । यतः कालम्मि कीरमाणं, किसिकम्मं बहुफलं जहा होइ। __इय सव्वच्चिय किरिया, निय-निय-कालम्मि विन्नेया ॥१॥ छाया—काले क्रियमाणं, कृषिकर्म बहुफलं यथा भवति। इति सर्वैव क्रिया, निज-निज-काले विज्ञेया ॥१॥ करनी चाहिये, भिन्न समय में नहीं, कारण कि अकाल में विघ्नों के आने की संभवना रहती है। तथा तीर्थकर प्रभुकी ऐसी आज्ञा नहीं है, अतः उनकी आज्ञा के विरुद्ध प्रवृत्ति करने से स्वच्छंदता का दोष लगता है। लोकमें भी यही बात देखी जाती है-खेती आदि करने का जो काल नियत है उसी में उस के करने से धान्यादिक फल की निष्पत्ति होती है, अन्य समय में नहीं । समयानुसार ही वृक्षों में पत्र पुष्प फलादिक आया करते है। तथा वनस्पतिया अंकुरों को उत्पन्न करती हैं। अपने अपने समय में छह ऋतुएँ आती हैं। तीर्थकर, चक्रवर्ती, बलदेव, वासुदेव, ये सब अपने २ समय पर ही होते हैं। सीप में मोती, समयानुसार ही होते हैं। आवश्यक क्रियाओं को करने वाले जीव समय पर ही तीर्थंकर गोत्र का उपार्जन किया करते हैं। कहा भी हैસમયમાં નહીં. કારણ કે અકાલમાં વિદને આવવાની સંભાવના રહે છે. તથા તીર્થંકર પ્રભુની એવી આજ્ઞા નથી. માટે એમની આજ્ઞાની વિરુદ્ધ પ્રવૃત્તિ કરવાથી સ્વચ્છંદતાને દોષ લાગે છે. લોકોમાં પણ આવી વાત દેખાય છે— ખેતી વગેરે કરવાને જે કાળ નિયત છે એ સમયે જ કરવાથી ધાન્યાદિક ફળની ઉત્પત્તિ થાય છે. અન્ય સમયમાં નહીં. સમયાનુસારજ વૃક્ષોમાં પત્ર પુષ્પ ફળાદિક આવ્યા કરે છે. તથા વનસ્પતિઓ અંકુરને ઉત્પન્ન કરે છે. પિતાના સમયમાં છ ઋતુઓ આવે છે તીર્થકર, ચકવતિ, બલદેવ વાસુદેવ. એ બધા પિત પિતાના સમય ઉપર થાય છે. સિપમાં મોતી સમયાનુસાર જ થાય છે. આવશ્યક ક્રિયાઓને કરવાવાળા જીવ સમય પર જ તીર્થંકર પ્રકૃતિને બંધ કર્યા કરે છે. કાં પણ છે કે ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययन सूत्रे तस्मात् साधुभिः कालएव सर्वा प्रतिक्रिमणप्रतिलेखनादिक्रिया कर्तव्येति । सूत्रे 'काले ' इत्यत्र तृतीया सप्तम्यर्थे ॥ ३१ ॥ मूलम् - परिवाडीए ने चिट्ठेजा, भिक्खू दत्तेसणं चैरे । पँडिरूवेण सित्ता, मियं कॉलेण भक्खए ॥३२॥ २३० छाया - परिपाटयां न तिष्ठेत्, भिक्षुः दत्तैषणां चरेत । प्रतिरूपेण एषित्वा मितं कालेन भक्षयेत् ॥ ३२ ॥ टोका - परिवाडीए ' इत्यादि - " भिक्षुः = साधुः, परिपाटयां- गृहस्थगृहे भुञ्जानानां जनानां पङ्क्तौ न तिष्ठेत् । किं च- दत्तैषणां दत्तं दानं तस्मिन् गृहस्थेन दीयमाने, एषणा - तद्गतशङ्कित" कालस्मि कीरमाणं, किसिकम्मं बहुफलं जहा होइ । sa Roofer किरिया, निय-निय - कालमि विन्नेया ॥ १ ॥ छाया -- काले क्रियमाणं, कृषिकर्म बहुफलं यथा भवति । इति सर्वा चैव क्रिया निज-निज-काले विज्ञेया ॥ १ ॥ इस लिये साधुओं को चाहिये कि वे समस्त अपनी प्रतिक्रमण प्रतिलेखनादिक क्रियाओं को नियत समय पर ही करते रहें ॥ ३१ ॥ 'परिवाडी इत्यादि. अन्वयार्थ – (भिक्खू - भिक्षुः ) साधु ( परिवाडीए न चिट्ठेज्जापरिपाठ्यां न तिष्ठेत्) गृहस्थ के घर में भोजन करती हुई जीमणवार की जनपंक्ति में न खडा रहे । ( दत्तेसणं चरे - दत्तेषणां चरेत् ) " कालम्मि कीरमाणं, किसिकम्मं बहुफलं जहा होई । सम्बच्चिय किरिया, निय-निय कालम्मि विन्नेया ॥ १ ॥ छाया - काले क्रियमाणं, कृषिकर्म बहुफलं यथा भवति । इतिसर्वैवक्रिया, निज - निज - काले विज्ञेया ॥१॥ આ માટે સાધુનું કર્તવ્ય છે કે તેણે પોતાનો સમસ્ત ક્રિયાએ પ્રતિક્રમણ પ્રતિલેખનાદિક નિયત સમય ઉપર કરવી જોઈએ. ॥ ૩૧ ૫ aftenfer-Seule. अन्वयार्थ - भिक्खु - भिक्षुः साधु, परिवाडीए न चिठ्ठेज्जा - परिपाट्यां न तिष्ठेत् गृहस्थनाधरभां लोन्न पुरती भगुवारनी नयतिंभांला न रहे. दत्तेसणंचरेતુરીવળાં ચરેત્ ગ્રહસ્થ દ્વારા પ્રદત્ત દાનમાં શક્તિ, મક્ષિક આદિદોષાની ગવેષણા રૂપ * ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર ઃ ૧ Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रियदर्शिनी टीका अ० १ गा. ३२-३३ एषणासमिति विधिः २३१ श्रक्षितादिदोषान्वेषणात्मिका दत्तैषणा तां, चरेत्=आसेवेत । अनेन ग्रहणैषणा सूचिता । किं कृत्वा दत्तैषणां चरेदित्याह - ' पडिरूवेण ' इत्यादि । प्रतिरूपेण = मुनिवेषेण, बद्धसदोरक मुखवत्रिकस्वं, रजोहरणपात्रधारकत्वं श्वेतवस्त्रपरिधायकत्वं च मुनिवेषस्तेन, एपित्वा = गवेषयित्वा अनेन उद्गमोत्पादनाविषया गवेषणैषणा प्रोक्ता । मितं = परिमितं कालेन - काले - आगमोक्तसमये देशकालानुसारेण भक्षयेत् भुञ्जीत । अनेनाभ्यवहरणविषया ग्रासैषणाऽऽवेदिता । अत्र 'परिवाडीए न चिट्ठेज्जा' इत्यनेन अप्रीतिः, रसलोलुपतावर्जनं च सूचितम् । 'दत्तैसणं' इत्यनेनादत्तादाननिवृत्तिः सूचिता । 'पडिरूवेण ' इत्यनेन निष्कपटता प्रदर्शिता । ' मियं ' इत्यनेनाधिकभोजन निवृत्तिरावेदिता ॥ ३२ ॥ गहस्थद्वारा प्रदत्त दान में शङ्कित, म्रक्षित आदि दोषों की गवेषणा रूप दत्तैषणा अर्थात् ग्रहणैषणा का ध्यान रखे । (पडिरूवेण-प्रतिरूपेण ) प्रतिरूपसे - मुनि के वेष से मुख पर दोरासहित मुंहपत्ति बांधना रजोहरण एवं पात्रों का धारण करना, यह मुनिवेष है इस वेष से (एसित्ता - एषित्वा ) गवेषणा कर (कालेणं - कालेन ) आगमन में कथित समयमें देश काल के अनुसार समय पर मिले हुए अन्न आदिका (मियंमितं ) परिमितं (भक्खए-भक्षेत्) आहार करे । 'एसित्ता- एषित्वा' इस पद सेउ उत्पादन आदि दोषों से वर्जित गवेषणैषणा, तथा 'भुञ्जीत' इस क्रियापद द्वारा ग्रामैषणा प्रकट की गई है। 'परिवाडीए न चिट्टेआ' इस पद द्वारा अप्रीति एवं रस में लोलुपताका परिहार सूचित हुआ है 'दत्तेसणं' से अदत्तादान से निवृत्ति, 'पडिरूवेण' से निष्कपटता, 'मियं' इस से अधिक भोजनकी निवृत्ति सूचित की गई है ॥ ३२ ॥ दृतेषा अर्थात् श्रशेषानु ध्यान राजे. पडिरूवेण - प्रतिरूपेण प्रति३५थी - मुनिना વેશથી મેઢા ઉપર દારાસહિત મુહપત્તિ માંધવી, રજોહરણ તથા પાત્રોનું ધારણ ४२ तथा शुभ्स वखोने धारण ४२वां मे भुनिवेश छे. आ वेशने, एसित्ता -- एषित्वा धार उरी, कालेण कालेन यागभना उडेला सभयभां देशाण समय अनुसार समय उपर भणेसा भन्न माहिन। मियं मितं परिमित भक्खर-भक्षयेत् भाडार ४२. एसित्ता - एषित्वा मे पहथी उगम, उत्पादन सहि होषोथी व गवेषशेषया તથા “ ભુંજીત ” આ ક્રિયા પદ દ્વારા ગ્રાતૈષણા પ્રગટ કરવામાં આવેલ છે. परिवाडी ए न चिट्ठेज्जा था यह द्वारा अप्रीति मेव रसभां बोलुपताना परिहार सूचित थयेस छे दत्तेसणं या पहथी महत्ताहाननी निवृत्ति, सूचित वामां भावी छे. पडिरूवेण मा पहथी निष्ठुयटता सूचित रे छे. मियं એ પદથી અધિક ભાજનની નિવૃત્તિ સુચવવામાં આવેલ છે. (૩૨) ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર ઃ ૧ Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३२ - उत्तराध्ययनसूने भिक्षाचर्या कुर्वता साधुना गृहस्थगृहे पूर्वसमागतभिक्षुसद्भावे यत् कर्तव्यं तदाहमूलम्-नाइंदूरमणासन्ने, नन्नसिं चखुफासओ। एंगो चिटुंज भत्तट्ट, लंपित्ता तं नाइकमे ॥३३॥ छाया-नातिदूरं अनासन्ने, नान्येषां चक्षुःस्पर्शतः। __ एफस्तिष्ठेद् भक्तार्थम्, लवयित्वा तं नातिकामेत् ॥ ३३ ॥ टीका-'नाइदूर० ' इत्यादि अतिदूरम् अतिदूरे न तिष्ठेत्, भिक्षाचयों कुर्वन् साधु गृहस्थगृहे पूर्वसमागत भिक्षुकं दृष्ट्वा ततोऽति दूरे न तिष्ठेत् , अतिदूरावस्थाने भिक्षुनिर्गमनं ज्ञातुमशक्यं स्यात्, एषणा शुद्धयसंभवश्चेति भावः। तथा आसन्ने अतिनिकटेऽपि न तिष्ठेव, जिस समय साधु भिक्षाचर्या कर रहा हो उस समय यदि गृहस्थ के घर में कोई दूसरा भिक्षु भिक्षाचर्या के लिये आया हुआ हो तो साधु का क्या कर्तव्य है ? इस विषय को इस गाथाद्वारा स्पष्ट किया जाता है-'नाइदूर०' इत्यादि. ____ अन्धयार्थ-भिक्षा करता हुआ साधु (नाइदूरमणासन्ने-नातिरं अनासन्ने) जब यह देखे कि गृहस्थ के घर पर पहिले से कोई दूसरा भिक्षु आदि भिक्षानिमित्त आया हुआ है, या भिक्षा ग्रहण कर रहा है तो वह उस समय बहुत दूर जाकर खडा न होवे और न अति समीप खडा होवे । क्यों कि अतिदूर खडे होने पर भिक्षु का निर्गमन उसे ज्ञात नहीं हो सकता है, तथा अति समीप खडे रहने पर उससे पूर्वगत જે સમય સાધુ ભિક્ષા ચર્ચા કરતા હોય એ સમયે ગૃહસ્થને ઘેર કઈ બીજા ભિક્ષુ ભિક્ષાચર્યા માટે આવેલ હોય તે સાધુનું શું કર્તવ્ય છે. આ विषयने मा सूत्रद्वारा स्पष्ट ४२वामां आवे छे-नाइदूर-त्याहि. मन्या:-मिक्षा माटे निणे साधु, नाइदरमणासन्ने-नातिदूरं अनासन्ने એ જુએ કે જે ગૃહસ્થને ત્યાં પોતે જઈ રહેલ છે, ત્યાં તેની પહેલાં કેઈ બીજા ભિક્ષુ ભિક્ષા નિમિત્ત ગયેલ છે, અથવા ભિક્ષા ગ્રહણ કરી રહેલ છે, તે તે એ સમયે ઘણે આઘે જઈ ઊભા ન રહે તેમ અતિ સમીપમાં પણ ઊભા ન રહે કેમ કે, અતિ દૂર ઊભા રહેવાથી ભિક્ષાથે ગયેલા ભિક્ષુનું નિર્ગમન જાણી શકાતું નથી તથા અતિ સમીપ રહેવાથી પહેલાં ભિક્ષા માટે ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३३ प्रियदर्शिनी टीका. अ० १ गा० ३४ एषणासमितिविधिः तत्र स्थिते सति पूर्वागतभिक्षुकस्य द्वेषः स्यादिति भावः । अन्येषां भिक्षुकापेक्षया येऽन्ये सन्ति गृहस्थास्तेषां, चक्षुःस्पर्शतः चक्षुःस्पर्शे दृष्टिगोचरे न तिष्ठेत, 'अयं भिक्षुः पूर्वागतभिक्षुनिष्क्रमणं प्रतिक्षते इति यथा गृहस्था न जानन्ति तथा तिष्ठेदिति भावः। एकः रागद्वेष रहितः सन्, भक्तार्थम्-आहारार्थ तिष्ठेत् । तम्=पूर्वागतभिक्षुकं, लङ्घयित्वा=अनादृत्य, नातिकामेत्= न गृहमध्ये गच्छेत्, पूर्वागतभिक्षुकस्य सद्भावे गृहस्थस्यगृहेःगमने तदप्रीतिशासनलघुतादिदोषाणां संभव इति भावः ॥३३॥ सम्पति ग्रहणैषणाविधिं सूत्रकारः प्रदर्शयतिमूलम्-नाइंउच्चे न नीए वा, नासपणे नोइरओ। फासुयं परैकडं पिंडं, पडिगाहिज्ज संजए ॥३४॥ छाया--नात्युच्चे न नीचे वा नासन्ने नातिदूरतः । प्रासुकं परकृतं पिण्डं, प्रतिगृह्णीयात् संयतः ॥ ३४ ॥ भिक्षु को द्वेष हो सकता है। इसी प्रकार (नन्नेसिं चक्खुफासओ चिद्वेज्ज-नान्येषां चक्षुःस्पर्शतः तिष्ठेत् ) गृहस्थ के नजर में आवे ऐसा भी खडा न होवे (एगो-एकः) एक तथा राग-द्वेष रहित होकर (भत्तटुंभक्तार्थम्) आहार के लिये (चिटेज) खडा रहे और (लंघित्ता तं नाइक्कमेलङ्घयित्वा तं नातिक्रमेत् ) पहले वाला भिक्षु जब तक बाहर न निकले तब तक मुनि को उस गृहस्थ के घर में आहार निमित्त प्रविष्ट नहीं होना चाहिये । पहले आये हुए भिक्षु के सद्भाव में गृहस्थ के घर जाने पर गृहस्थ को उस के प्रति अप्रीति हो सकती है एवं शासन की लघुता आदि दोषों की संभावना हो सकती है ॥३३॥ गये। मिना भनभा द्वेष an रे मने छ. तम नन्नेसिं चक्खु. फासओ चिटेज्ज--नान्येषां चक्षुः स्पर्शतः तिष्ठेत् गृहस्थनी दृष्टि पडे से शत ५५ समान २९. एगो-एकः से तथा रा देश हित मनीन भत्त;-भतार्थम भिक्षा माटे चिटेज ला २९ मन लंधित्ता तं नाइक्कमे-लंघयित्वा तं नातिक्रमेत પહેલા ભિક્ષા માટે ગયેલ ભિક્ષુ જ્યાં સુધી બહાર ન નીકળે ત્યાં સુધી મુનિએ તે ગૃહસ્થના ઘરમાં આહાર નિમિત્ત પ્રવેશ ન કરવો જોઈએ. પહેલાં ગયેલાં સાધુના સદ્ભાવમાં ગૃહસ્થને ત્યાં જવાથી ગૃહસ્થને તેના તરફ અપ્રીતિ થાય અને શાસનની લઘુતા આદિ દોષાની સંભાવના થાય છે. ૩૩ છે उ० ३० ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३४ उत्तराध्ययनसूत्रे टीका-'नाइ उच्चे' इत्यादि___ संयतः साधुः, प्रासुकं-पनकादिजंतुरहितं, निर्दोष-नवकोटिविशुद्धं, परकृतं-परेण गृहस्थेन स्वार्थ कृतं न तु साध्वर्थम्, पिण्डम् चतुर्विधमाहारम्, अत्युच्चेगृहोपरिभूमिकादौ वंशकाष्ठनिर्मितचर निश्रेणिकारोहणं कृत्वा, न प्रतिगृह्णीयात् प्रतिगृह्णीयादित्यस्य नीचादावपि सम्बन्धः। नीचे अतिनीचे-भूमिगृहादौ वा न प्रतिगृह्णीयात् तथा-आसन्ने अत्यासन्ने, अतिसमीपे स्थितः सन् न प्रतिगृह्णीयात्, अतिदूरतः-अतिदूरे स्थितः सन् न प्रतिगृह्णीयात् । ___ अत्र-'अत्युच्चे' इति-आरोहणेऽवरोहणे च स्वपरविराधनासंभवं सूचयति। अब ग्रहणैषणा की विधि कहते हैं-'नाइउच्चे' इत्यादि. अन्वयार्थ-(संजए-संयतः) साधु (फासुयं-प्रासुकं) पनक-नीलन -फूलन-आदि जीवों से रहित-निर्दोष-नवकोटि से विशुद्ध तथा (परकडं-परकृतं) गृहस्थ द्वारा अपने निमित्त बनाये गये-न कि साधु के निमित्त बनाये गये, ऐसे (पिंडं-पिण्ड) चतुर्विध आहार को (अइउच्चे न पडिगाहिज्ज-अत्युच्चे न प्रतिगहीयात्) घर के ऊपर की भूमि कादि पर वास अथवा काष्ठ की निसरणी से चढकर न लेवे. इसी तरह जो आहार (नीए-नीचे) अत्यंत नीचे तलघर आदि में हो उसको (न) नहीं लेवे । तथा (नासण्णे नाइदूरओ-नासन्ने नातिदूरतः) न अति नजदीक से लेवे और न अतिदूर से ही लेवे। 'अत्युच्चे' इस पद द्वारा सूत्रकार यही सूचित करते हैं कि ऊँचे स्थान पर चढने एवं उतर ने में स्व और पर को विराधना होने की डवे डोषणानी विधि अपामा मावे छे. नाइउच्चे-त्याहि. मन्वयार्थ-संजए--संयतः साधु, फासुयं-प्रासुकं पन४, नीवन, दुखन, माहि वाथी २हित निर्दोष-न टीथी विशुद्ध तथा पडकडं--परकृतं गृहस्थने त्यो पोताना निमित्त मनापामा मावत नसाधुनानिमित्त मनावत सवा पिंड-पिण्ड यतुविध माडारने आइउच्चे न पडिगाहिज्ज--अत्युच्चे न प्रतिगृह्णीयात् घरनी ઉપરની ભૂમિ ઉપર વાંસ કે લાકડાની નિસરણ ઉપર ચડીને ન લે આ રીતે २ माडर नीए-नीचे अत्यंत नाय त५२ माहिमा होय तेन. पण नवे तथा नासण्णे नाइदूरओ-नासन्ने नातिदूरतः मती नथी नवे तभ०४ અતિ દૂરથી પણ ન લે. अत्युच्चे ॥ ५६ बा२। सूत्रा२ मे सूयित ४२ छ है, या स्थान ચડવા અગર ઉતારવામાં સ્વ અને પરની વિરાધના થવાની સંભાવના રહે છે. ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रियदर्शिनी टीका. अ० १ गा० ३४-३५ ग्रासैषणाविधिः वाग्यतना च। २३५ 'नीचे' इति तत्रोत्क्षेपनिक्षेपनिरीक्षणासंभवः स्वपरविराधनासमवश्चेति योतयति। 'आसन्ने' इति पश्चात्कर्मादिसंभवं ज्ञापयति । _ 'अतिदूरे' इति एषणाशुद्धयसंभवं बोधयति ॥ ३४ ॥ अथ ग्रासैषणाविधिमाह-- मूलम्-अप्पंपाणेऽप्पबीयम्मि, पडिच्छन्नम्मि संqडे । समयं संजए भुंजे, जयं अपरिसाडियं ॥३५॥ छाया-अल्पमाणेऽल्पबीजे, प्रतिच्छन्ने संवृते। समकं संयतो भुञ्जीत, यतमानोऽपरिशाटितम् ॥३५॥ टीका-'अप्पपाणे' इत्यादि___ अल्पप्राणे अवस्थितागन्तुकद्वीन्द्रियादिजीवरहिते, अल्पबीजे शाल्यादिबीजरहिते, इदमुपलक्षणम्-पृथ्व्यायेकेन्द्रियजीवरहिते इत्यर्थः, प्रतिच्छन्ने संपा. तिमजीवा यथा न पतन्ति तथोपरिकृतप्रावरणयुक्त, संकृते-पार्वतः कटकुडयासंभावना रहती है। 'नीचे इस पद से भी यही बात उनकी लक्षित होती है । 'आसन्ने' पद से पश्चात्कर्मादिक की संभावना रहती है, तथा 'अतिरे' पद से एषणाशुद्धि की ठीक तरह पालना नहीं होती है वह बात प्रदर्शित की गई है ॥३४॥ अब ग्रासैषणा का विधि कहते हैं-'अप्पपाण' इत्यादि. अन्वयार्थ-(अप्पपाणे अप्पबीयम्मि पडिच्छन्नम्मि संवुडे-अल्पप्राणे अल्पबीजे प्रतिच्छन्ने संवृते) अवस्थित एवं आगन्तुक द्वीन्द्रियादिक जीवों से रहित तथा शाली आदि बीजों से रहित, इसी तरह पृथ्वी आदि एकेन्द्रिय जीवों से वर्जित और संपातिम जीव न पड़ सके इस ख्याल से ऊपर से तथा चारों तरफ से छाये हुए ऐसे उपाश्रय "नीचे" २॥ ५४थी ५७५ मे पात भने लक्षित छ. "आसन्ने” २॥ ५४थी पश्चात महिनी सलवना २ छ. तथा "अतिदुरे" २॥ यथा अषण शुद्धिनी ઠીક ઠીક પાલના થતી નથી એ વાત પ્રદર્શિત કરવામાં આવી છે. તે ૩૪ वे पासैषायानी विधी ४ामा मावे छे. अप्पपाणे०-त्याहि. स-क्याथ:-अप्पपाणे अप्पबीयम्मि पडिच्छन्नम्मि संवुडे-अल्पप्राणे अल्पबीजे प्रतिच्छन्ने संवृते २पस्थित मने मांगतु द्वीन्द्रियाwिalथी २डित तथा el આદિ બીજેથી રહિત, એજ રીતે પૃથ્વી આદિ એકેન્દ્રિય જીથી વજીત અને સંપત્તિમય જીવ ન પડી શકે આ ખ્યાલથી ઉપરથી તથા ચારે બાજુથી ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३६ उत्तराध्ययनसूत्रे दिना समावृते उपाश्रयादावित्यर्थः, संयतः साधुः, यतमानः-चप्पड चप्पडादि शब्दमकुर्वन् सन् अपरिशाटितपरिशाटरहितं । सिक्थपातनेन रहितं यथा स्यात् , यथा एकोऽप्यन्नकणः करान्मुखतो वाऽधः पतितो न भवेत्तथेत्यर्थः, समकम्संभोगि साधुभिः सह न त्वेकाक्येव आहारं भुञ्जीत ॥ ३५ ॥ संप्रति वाग्यतनामाहमूलम्-सुर्केडेत्ति सुपंकेत्ति, सुच्छिन्ने सुहँडे मंडे । सुनिट्ठिए सुलटेत्ति सावज्जं वज्जए मुंणी ॥३६॥ छाया-सुकृतमिति सुपक्वमिति, सुच्छिन्नं सुहृतं मृतम् । सुनिष्ठितं मुलष्टमिति, सावा वर्जयेन्मुनिः ॥३६॥ टीका--'सुकडेत्ति' इत्यादि-- __ मुनिः साधुः, सावधं-सपापं वचनं वर्जयेत् न वदेत् । कीदृशं तत्सावधमित्याह आदि में (संजए-संयतः) साधु (जयं-यतमानः) चप्पड चप्पड आदि शब्द के तथा विना (अपरिसाडियं-अपरिशादितम् ) हाथ से या मुंह से एक भी सीथ-अन्न का कण-नीचे न गीरे, इस रूप से (समय-समकं) संभोगी साधुओं के साथ (भुजे-भुजीत) आहार करे ।'३५॥ अब वचन की यातना कहते हैं-'सुकडेत्ति' इत्यादि. अन्वयार्थ (मुणी सावज्जं वज्जए-मुनिः सावा (वचनं) वर्जयेत् मुनि का कर्तव्य है कि वह इस प्रकार के सावद्य-सपाप वचन के बोलने का परित्याग करे। वे वचन ये हैं-(सुकडे त्ति सुपक्के त्ति, सुच्छिन्ने, सुहडे मडे सुनिट्ठिए, सुलटेत्ति,-सुकृतमिति, सुपक्वमिति सुच्छिन्नं सुहृतं मृतम् (सुमृतम् ) सुनिष्ठितं सुलष्ठमिति, 'सुकडे' छपाये उपाश्रय माहिमा संजये--संयतः साधु जयं--यतमानः २०५७ २८५४ माहिश६ १२ अपडिसाडिय--अपरिशाटितम् तथा डायथी तथा मोढाथी ये ५ सीथ अन्नन। ४५ नीयन ५3 रीते समय-समकं समागी साधुशानी साथे भुंजे-भुञ्जीत माहा२ ४३. ॥ ३५॥ हुवे वयननी यतन। वामां मावे छे. सुकडेत्ति०-त्यादि म-पयार्थ-मुणीसावज वज्जए-मुनि सावधं वचनं वर्जयेत् मुनिनु કર્તવ્ય છે કે તે આ પ્રકારના સાવધ–સપાપ વચનને બલવાને પરિત્યાગ ४२ ते क्यन मा छे. सुकडेत्ति सुपक्केत्ति सुच्छिन्ने सुहडे मडे सुनिट्ठिए सुलछेत्तिसुकृतमिति, सुपक्वमिति, सुच्छिन्नं सुहत मृतम् (सुमृतम् ) सुनिष्ठितम् सुलष्ठमिति ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रियदर्शिनी टीका. अ०१ गा. ३६ वाग्यतना २३७ -'सुकडेत्ति' इत्यादि । सुकृतमिति-इदं सूपमिष्टान्नादिकं हिगुजीरकादिव्याघारैः सुष्टु संस्कृतमिति, तथा-सुपक्वमिति-इदं घृतपूरादिकं घृतादिना सुपकमस्तीत्यादिकं, तथा-सुच्छिन्नमिति-इदं शाकपत्रादिदात्रासिपुत्रादिशस्त्रैः सुष्टु छेदितमस्तीत्यादिकं, तथा-सुहृतं ' कारवेल्लादिशाकस्थं कटुकत्वं सुष्टु हृतं निवारितं तदुत्कालनेन' इत्यादिकम् , तथा-'मडे' इत्यनेन पूर्वापर-साहचर्यात् 'सुमडे' इति बोध्यते, मृत-सुमृतम्-पारदादिधातुजातम् , इत्यादिकं, तथा-' सुनिढिए' सुनिष्ठितम्-'इदमन्नादिकं सम्यग् निष्ठां रसप्रकर्षात्मिकां प्राप्तं, सुष्टु रसवत्कृतमस्ति' इत्यादिकं, तथा-'सुलटेत्ति' सुलष्टं-सुष्टु कमनीयम् इदमन्नादिकं मनोहरमस्ति' इत्यादिकं सावधं वर्जयेदिति संबन्धः । यह दाल वगैरह हींग जीरे आदि के वघार से बहुत अच्छी बनी हुई है, तथा 'सुपके' यह कचौरी खाजा मालपुआ घेवर आदि घी में बहुत अच्छी तरह से पकाये गये हैं, तथा-'सुच्छिन्ने' यह शाक आदि चाकू छूरि आदि से बहुत ही उत्तम रीत से काटा गया है, तथा 'सुहडे' यह करेला का शाक देखो तो सही कितना स्वादिष्ट बना है कि इन का कडुआपन सर्वथा हरलिया है अर्थात् इन में जरा भी कडुआपन नहीं रहा है,। तथा-'मडे' यह पारदादिक धातुएँ कितनी अच्छी तरह से मार कर दवा के उपयोग लायक बना दी गई हैं। तथा-'सुनिहिए' यह आहार बहुत ही स्वादिष्ट बनाया गयाहै । 'सुलट्टे' यह भोजन जब देखने में ही मनोहर लग रहा है तो फिर इस के खाने में कितना आनंद आवेगा? इत्यादि, ये समस्त सावद्य वचन हैं, इस लिये साधु को इस प्रकार के सावद्य वचन नहीं बोलना चाहिये । આ દાળ વગેરે હિંગ જીરા વગેરેના વઘારથી ઘણું સારી બની છે, તથા સુખ આ કચેરી, ખાજ, માલપુવા, ઘેવર વગેરે ઘીમાં ઘણી સારી રીતે પકવવામાં આવેલ છે, તથા રિન્ન આ શાક વગેરે ચાકા છરીથી ઘણી ઉત્તમ રીતે સુધારવામાં આવેલ છે, તથા અ આ કારેલાંનું શાક જુઓ તે ખરા કેવું સ્વાદિષ્ટ બન્યું છે કે એનું કડવાપણું પણ દુર થયેલ છે. અર્થાત એમાં જરા પણ ४ापा २हेस नथी. मडे । यहि धातुमेवी सारी रीत भारीन દવાના ઉપગ લાયક બનાવવામાં આવી છે. તથા સુનિgિ આ આહાર घो। स्वादिष्ट मनावामां मावत छे. सुलठू मा सामन्यारे वाथी । મને હર લાગે છે તે પછી એને ખાવામાં કેટલે આનંદ આવશે? ઈત્યાદિ. આ સઘળાં સાવદ્ય વચન છે. સાધુએ આ પ્રકારનાં વચન ન બેલવા જોઈએ. ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨૨૮ उत्तराध्ययनसूत्रे यद्वा-सुकृतं-'सुष्ठुकृतं यदनेन शत्रु प्रति प्रतिक्रिया कृता' इति, सुपक्वम् , इदमपूपादिकं घृताधतिशयेन पाचितमिति, सुच्छिन्नोऽयं वृक्षो वटपिपलादिरिति, सुहृतं-कृपणस्य धनं तस्करैरिति, मृतः-मुष्ठु मृतोऽयं दुष्ट इति । सुनिष्ठितः'मुष्ठु नष्टोऽयं प्रासादः, कूपो वा' इति, यद्वा-'सुष्टु निर्मितोऽयं प्रासादः, कूपो वा' इति, यद्वा-'सुष्ठु नष्टमस्यदुष्टस्य द्रविणादिक' मिति । सुलष्टः-'सुपुष्टोऽयं गजस्तुरगमो वा' इति, यद्वा-'सुलष्टा रुचिरावयवेयं राजकन्ये'-ति सावध वर्जयेत् । अथवा-इस प्रकार साधु को कभी नहीं करना चाहिये, कि जो -'सुकडे'-इसने शत्रु को मार भगा दिया है, यह बहुत अच्छा काम किया । 'सुपक्के' ये अपूपादिक अधिक घृत में खूब अच्छे पकाये गये हैं इस लिये सुपक हैं खाने में बहुत अच्छे लगते हैं। 'सुच्छिन्ने' इस वृक्ष को आसानी से खूब अच्छा काटा है । 'सुहडे' अच्छा हुआ जो इस कंजूस का द्रव्य चोरों ने चुरा लिया। 'मडे' यह बडा दुष्ट था मरा सो अच्छा ही हुवा । 'सुनिट्ठिए' यह मकान अथवा कुंआ गिर गया वह अच्छा हुआ, अथवा-यह मकान या कुंआ बहुत ही सुन्दर बनाया गया है, या ऐसा कहना कि भला हुवा इस दुष्ट की संपत्ति जो लूट गई। 'सुल?' यह हाथी अथवा घोडा बहुत अच्छा पुष्ट हुआ है । यह राजकन्या बडी सुन्दर है। ये सब वचन सावध हैं, अतः साधु के कहने योग्य नहीं हैं। અથવા–આ પ્રકારનાં વચને પણ સાધુએ કદી ઉચ્ચારવાં ન જોઈએ. કે જે સુડે આણે શત્રુને મારી ભગાડી દીધો છે, એ કામ ઘણું સારું કર્યું. સુપે આ મિઠાઈ એ, અપૂ૫-માલપુડા વગેરે સારા ઘીમાં ઘણું જ સારી રીતે પકાવવામાં આવેલ છે તેથી એ સુપક્વ છે, ખાવામાં બહુ લીજ્જત આપે છે. सुच्छिन्ने २॥ वृक्षने माछी मानते सारीशत ४.५वामी माव्युं छे. सुहडे साई थयुं કે, આ કંજુસનું ધન ચેર ઉપાડી ગયા છે એ ઘણે દુષ્ટ હવે મર્યો તે સારું थयु, सुनिठ्ठिए PAमान मगर वो पाडी अथवा मुरी नपामi qai સારું થયું અથવા આ મકાન અગર કુ ખૂબ સુંદર બનાવવામાં આવેલ છે. તથા આ દુષ્ટની સંપત્તિ લુંટાઈ ગઈ તે સારું થયું સુ આ હાથી અથવા ઘોડે ખૂબ સારી રીતે પુષ્ટ બનેલ છે, આ રાજકન્યા ખૂબ સુંદર છે, આ બધાં વચને સાવધ વચન છે આથી તે સાધુએ બાલવા ચોગ્ય નથી. ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रियदर्शिनी टीका. अ०१ गा. ३६ वागयतना २३९ ___'सुकृतम्' इत्यनेन सूपनिष्ठानादिसंपादने लवणलक्षणपृथिवीकायादिजलतेजोवायुवनस्पतिद्वीन्द्रियादित्रसजीवपर्यन्त हिंसानुमोदनं सूचितम् । एवं सुप कमित्यत्रापि हिंसानुमोदनं बोध्यम् । सुच्छिन्नमित्यनेन-वनस्पतिद्वीन्द्रियादिहिंसानुमोदनं सूचितम् । सुहृतमित्यनेन कारवेल्लादिपक्षे वनस्पत्यादिहिंसानुमोदनम्, धनहरणपक्षेऽदत्तादानपरपीडोत्पादनाद्यनुमोदन सूचितम् । मृतमित्यनेन पारदादिधातुपक्षे पृथिवीकायादि हिंसानु 'सुकृतम्' इस पद से सूत्रकार यह प्रकट करते हैं कि जब साधु ऐसा कहता है कि यह दाल आदि बहुत ही अच्छी बनी हैं तब उसे लवणरूप पृथिवीकाय तथा जलकाय, तेजस्काय, वायुकाय, वनस्पतिकाय एवं द्विन्द्रियादिक त्रस काय, इन सबकी हिंसा की अनुमोदना करने का दोष लगता है। इसी प्रकार सुपक्क कहने में भी यही दोष लगते हैं। ___'सुच्छिन्नम्' इस पद से सूत्रकार यह बात सूचित करते हैं कि यदि मुनि 'ये शाकपत्रादि चाकू आदि से अच्छी तरह काटे गये हैं' ऐसा कहता है तो उसे वनस्पति काय की एवं द्वीन्द्रियादिक त्रसकाय की हिंसा की अनुमोदना करने का दोष लगता है । 'सुहृतम्' यदि यही बात धन हरण आदि के पक्ष में जब बोलने में आती है तो उस समय उसे अदत्तादान की अनुमोदना करने का तथा पर को पीड़ा उत्पन्न कर ने आदि की अनुमोदना का दोष लगता है। 'मृतम् ' इस ___ “सुकृतम्' मा ५४थी सूत्र४।२ से १४८ ४२ छ है, साधु न्यारे सेम કહે છે કે, આ દાળ વગેરે ખૂબ સ્વાદિષ્ટ બનેલ છે. ત્યારે તેને લવણ રૂપી પૃથવીકાય, જળકાય, તેજસ્કાય, વાયુકાય, વનસ્પતિકાય અને દ્વિન્દ્રિયાદિક ત્રસકાય આ બધાની હિંસામાં અનુમોદના કરવાને દોષ લાગે છે. આ રીતે सुपकम् ४ाथी ५ ॥ ष सागे छे. सुनिच्छन्नम् ॥ ५४थी सूत्र४।२२। पात सूचित ४२ छ , भुनिने ॥ પત્રાદિક ચાકુ વગેરેથી સરસ રીતે કાપવામાં આવેલ છે. એવું કહે છે તેને વનસ્પતિ કાય અને દ્વીન્દ્રિયાદિક ત્રસકાયની હિંસા કરવામાં અનુमोहन ४२वाना होष दाणे . सुहृतम् मावी ४ शत धन २९१ पोरेनी બાબતમાં બેલવામાં આવે ત્યારે તેને અદત્તા દાનની અનુમોદન કરવાને તથા બીજાને પીડા ઉત્પન્ન કરવી વગેરેની અનમેદનને દેષ લાગે છે નૃતમ એ પદથી ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४० उत्तराध्ययनसूत्रे मोदनं सूचितम, दुष्टपक्षे तु प्राणघातानुमोदनं बोध्यम् । सुनिष्ठितमित्यनेन षट्काय हिंसानुमोदनं सूचितम् । सुलष्टमित्यत्रापि तथैव बोध्यम् । 'सावद्यं वर्जयेत्' इत्यनेन उक्तमेव भाषणं निरवद्यं चेत् तत्र न प्रतिषेध इति ध्वन्यते, तथा च पक्षद्वयमनया गाथया गम्यते । तत्र सावद्यपक्षो व्याख्यातः, पद से सूत्रकार का यह अभिप्राय है कि जब साधु 'सुमृतं' इस पद का खुश होकर प्रयोग करता है और वह प्रयोग यदि उसका पारदादिक धातुओं के मारण करने के पक्ष में होता है तो उस समय उसे पृथिवी कायादिक एकेन्द्रिय जीव की हिंसा करने की अनुमोदना का समर्थक माना जाता है । जब यही प्रयोग साधु की ओर से किसी दुष्ट के पक्ष में किया गया होता है तो वह प्राणघात का अनुमोदक माना जाता है। 'सुनिष्ठितम्' इस पद से सूत्रकार यह सूचित करते हैं कि जब साधु 'यह अन्नादिक सामग्री सरस तैयार हुई है' इस प्रकार का प्रयोग करता है तो उसे अन्नादिक सामग्री की तैयारी में जो पटुकाय के जीवों की विराधना हुई है उसकी अनुमोदना करने का दोष लगता है । इसी तरह 'सुलष्टम् ' इस पद के उच्चारण करने में भी इसी दोष का भागी होना पडता है । ' सावधं वर्जयेत्' इस प्रकार के कथन का यह अभिप्राय है कि यदि यह सुकृत आदि भाषण निरवद्य होता है तो उस समय साधु को सूत्रहारनो मे अभिप्राय छे है, न्यारे साधु " सुमृतं " या पहने। खुश थ પ્રયાગ કરે છે અને તે પ્રયાગ પારદાદિક ધાતુઓનું મારણ કરવાના પક્ષમાં હાય છે તે એ સમયે એને પૃથવીકાયાદિક એકેન્દ્રિય જીવની હિંસા કરવાની અનુમેદનાના સમČક માનવામાં આવે છે. જ્યારે એજ પ્રયાગ સાધુ તરફથી કોઈ દુષ્ટના પક્ષમાં કરવામાં આવ્યો હાય તે તે પ્રાણઘાતના અનુમાદક માનવામાં આવે છે. " " से યુનિષ્ઠિતમ્ આ પદથી સૂત્રકાર એ સૂચિત કરે છે કે, જ્યારે સાધુ અનાદિ સામગ્રી સરસ તૈયાર કરવામાં આવી છે’” આ પ્રકારના પ્રયાગ કરે છે તે તેને અન્નાદિક સામગ્રીની તૈયારીમાં જે ષટ્કાય જીવેાની વિરાધના થઈ છે એની અનુમાદના કરવાના દોષ લાગે છે. આ રીતે 'सुलष्टम् " અંગેના પદનુ ઉચ્ચારણ કરવામાં પણ એ દોષના ભાગી બનવું પડે છે. " सावद्यं वर्जयेत् " या अहारना उथन अंगे मे अभिप्राय छे हैं, ले એ સુકૃત આદિ ભાષણ નિરવદ્ય હાય છે તે એ સમયે સાધુને કાઈ દોષ ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર ઃ ૧ Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रियदर्शिनी टीका. अ० १ गा० ३६ वाग्यतना निरवद्यपक्षो व्याख्यायते-यथा-'सुकृतमिति' सुष्टु कृतमनेन वैयावृत्यमभयदानं सुपात्रदानादिकं वेति, 'सुपक्वमिति' सुष्टु पक्वमस्य ब्रह्मचर्यादिकमिति, 'सुच्छिन्नं' सुष्टु छिन्नमनेन स्नेहबन्धनमिति, 'सुहृतं' सुष्ठु हृतं स्वायत्तीकृतं ज्ञानादिरत्नत्रयमिति, 'सुनिष्ठितम् ' सुष्टु नष्टमस्याप्रमत्तसाधोः कर्मजालम्, सुमृतः सुष्टु मृतोयं पण्डितमरणेन इति । मुलष्टा-मुष्ठु मनोज्ञा क्रियाऽस्य साधोः, यद्वा-सुलष्टा-दीक्षायोग्या कन्येति वदेत् ॥ ३६ ॥ कोई दोष नहीं लगता, इस प्रकार यह सावद्य पक्ष का वर्णन हुवा है। अब निरवद्य पक्षका अर्थ कहते हैं-निरवद्य पक्ष में जब साधु 'सुकृतं' 'इस ने वैयावृत्य; अभयदान एवं सुपात्र दान आदि सत्कर्म जो किये हैं वे बहुत अच्छे किये हैं' इस प्रकार बोल ने में कोई दोष नहीं है । इसी प्रकार आगे सब जगह समझलेना चाहिये,-जैसे 'सुष्टु पकमस्य ब्रह्मचर्यादिकं' इस के ब्रह्मचर्य आदि सद्गुण अच्छी तरह से परिपक्व हो चुके हैं, इति ' सुष्टु छिन्नं अनेन स्नेहबन्धनम् ' इति, इस ने स्नेह का बंधन अच्छी तरह से काट दिया है, 'सुष्टु हृतं स्वायत्तीकृतं अनेन ज्ञानादिरत्नत्रयं' इति, इस ने ज्ञानादिक रत्नत्रय को अच्छी तरह से स्वाधीन कर लिया है, 'सष्ठु नष्टमस्याऽप्रमत्तसाधोः कर्मजालम् । इति, इस अप्रमत्त साधु का कर्मजाल अच्छी तरह से नष्ट हो चुका है। 'मुष्ठु मृतोऽयं पण्डितमरणेन' इति, पंडित मरण से इसकी मृत्यु हुई यह बहुत ही सुंदर बात हुई, 'सुष्टु मनोज्ञा अस्य साधोः क्रिया' इति, લાગતું નથી. આ પ્રકારે આ સાવદ્ય પક્ષનું વર્ણન થયું હવે નિરવઘ પક્ષનું વર્ણન કરવામાં આવે છે – निरवध पक्षमा न्यारे साधु "सुकृतं" मारे वैयावृत्य, महान, मने સુપાત્રદાન આદિ જે સત્કર્મ કર્યા છે તે ઘણાં સારાં કર્યા છે ” આ પ્રકારે બોલવામાં કઈ દેષ નથી. આ પ્રકારે આગળ દરેક જગ્યાએ સમજી લેવું नसे. रेम-"सुष्टु पक्वमस्य ब्रह्मचर्यादिकं " सेना प्रायः माह सहशुष्प सारी री परि५४५ थयेस छ, छति, “ सुष्टु छिन्नं अनेन स्नेहबन्धनम् "ति, मेणे ने म धन सारी रात थी नामे छे “स्वायत्तीकृतं अनेन ज्ञानादिरत्नत्रयं" धति, मेरी जाना त्नत्रयने सारी रीत स्वाधीन ४री सीधे छे. 'सुष्ठुनष्टमस्याप्रमत्त साधोः कर्मजालम् " 20 मप्रमत्त साधुनी मन सारी शत नष्ट थाई युडेद छ, “ सुष्ठु मृतोऽयं पण्डितमरणेन"ति, पंडित भरथी मेनु मृत्यु थयु ये घणु ४ सा थ', “ सुष्ठु मनोज्ञा अस्य साधोः क्रिया" इति याउ० ३१ ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૧૪૨ विनीताविनीतयोरुपदेशदाने यत् फलं गुरोर्भवति तदाहपंडिए सांसं, हेयं भई व वाहए । मूलम् -- रम उत्तराध्ययन सूत्रे बालं सम्मेइ सोसतो, गलियेस्सं वै वाए ॥३७॥ छाया -- रमते पण्डितान् शासत, हयं भद्रमिव वाहकः । बालं श्राम्यति शासत् गलिताश्वमिव वाहकः ॥ ३७ ॥ टीका--' रमए ' इत्यादि - " अत्र गुरुरिति कर्तृपदं प्रकरणवशाद्विज्ञेयम् । पण्डितान् विनीतशिष्यान् शासत् = शिक्षयन् गुरुः, रमते = सफलप्रयत्नतया प्रसन्नो भवतीत्यर्थः । क इव ? भद्रं = जात्यं विनीतं, हयम् = अश्वं वाहयन्, वाहक := अश्ववाह इव, यथा जात्याश्वं वाहयन्नश्ववाहः यद्वा- 'सुलष्टा दीक्षायोग्या कन्येति' इसी साधु की क्रिया मनोज्ञ है अथवा यह कन्या दिक्षा योग्य है । भावार्थ- सुकृत आदि शब्दों का प्रयोग यदि साधु सांसारिक कार्यों को लक्ष्य में रख कर करता है तो वह दोष का भागी होता है और इन्हीं शब्दों का प्रयोग यदि वह धार्मिक कार्यों को लक्ष्य में रखकर करता है तो उसको कोई दोष नहीं लगता है || ३६ || विनीत और अविनीत शिष्य को उपदेश देने में गुरु महाराज को जो फल प्राप्त होता है उसे इस गाथाद्वारा सूत्रकार कहते हैं - 'रमए' इत्यादि. अन्वयार्थ - गुरु महाराज (पंडिए - पंडितान् ) विनीत शिष्यों को (सासं - शासत् ) शिक्षा देते हुए ( रमए - रमते ) सफल प्रयत्न वाला होने से प्रसन्न होते हैं । जैसे- (भदं हयं व वाहए -भद्रं हयं इव वाहकः ) सुलष्ठा दीक्षायोग्या कन्येति ” मा साधुनी डिया भनोज्ञ छे. अथवा या કન્યા દિક્ષા ચેાગ્ય છે. " ભાવા—સુકૃત આદિ શબ્દોના પ્રયાગ જે સાધુ સ’સારીક કાર્યને લક્ષમાં રાખીને કરે છે તેા તે દોષના ભાગી બને છે અને એ જ શબ્દોના પ્રયાગ જો તે ધાર્મિક કાનેિ લક્ષમાં રાખીને કરે છે તે તેને કોઇ દોષ લાગતા નથી.॥૩૬॥ વિનીત અને અવિનીત શિષ્યને ઉપદેશ દેવામાં ગુરુ મહારાજને જે ફળ प्राप्त थाय छे खेने या गाथा द्वारा सूत्रार डे छे. - रमए० इत्याहि. अन्वयार्थ—गुरु भडारा पडिए - पंडितान् विनीत शिष्याने सारां-- शासत् शिक्षा व्यायतां रमए- रमते सहज प्रयत्न वाजा होवाथी तेना उपर प्रसन्न थाय छे, ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર ઃ ૧ Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रियदर्शिनी टीका. अ० १ गा. ३७-३८ विनीतोपदेशे फलम् , कुशिष्यदुर्भावना च २४३ प्रसीदति तद्वदित्यर्थः। बालं-विनयरहितं शिष्यं, शासत्-शिक्षयन् गुरुः श्राम्यति= खिद्यते, क इव ? गलिताश्व-दुविनीतमश्वं बहुशः कशया ताडनेऽपि विपरीतगत्या पश्चाद्भागगमनादिकारिणमश्वं वाहयन्, वाहक इव । यथा दुविनीतमश्वं वाहयन् वाहकः खलु निष्फलप्रयत्नतया खेदं प्रामोति तद्वदित्यर्थः ॥ ३७॥ विनीत घोडे को इच्छित मार्ग पर चलाने रूप शिक्षा से घुड़सवार प्रसन्न होता है । (बाल-बालं) विनयरहितशिष्यको (सासंतो-शासत्) शिक्षा देते हुए गुरु महाराज (सम्मइ-श्राम्यति) खेदखिन्न होते हैं। जैसे(गलियस्सं व वाहए-गलिताश्वं इव वाहकः) दुविनीत अश्वको वार २ कशा से ताडित करने पर सवार दुःखित होता है, क्यों कि दुविनीत अश्व को ज्यों २ चाबुक लगाते हैं त्यों २ वह पीछे उलटा हटता है। इससे सवार का प्रयत्न निष्फल होता है। भावार्थ-विनीत शिष्य को दी गई शिक्षा सफलता का साधक होने से गुरु की प्रसन्नता का कारण होती है । अविनीत शिष्य को दी गई वही शिक्षा असफल होती है। अतः उस से उल्टा गुरु महाराज को खेदखिन्न ही होना पडता है। जैसे--विनीत अश्व इच्छित मार्ग पर चल कर अपने मालिक को प्रसन्न करता है और अविनीत अश्व कशाद्वारा ताडित होने पर भी विपरीत ही मार्ग पर चलता है, इस से सवार को उल्टा कष्ट उठाना पड़ता है ॥३७॥ सभ भई हयं ववाहए-भद्रंहयं इव वाहकः-विनीत घासन रिछत भाग ५२ यसापा ३५ शिक्षाथी घोडेस्वा२ प्रसन्न थाय छे. बालं-बालं विनय २हित शिष्यने सासंतो-- शासत् शिक्षा मातi गुरु महा२।०४ सम्मइ--श्राम्यति मे भिन्न मन छ, सेभ गलियरसेव वाहए-गलिताश्वं इव वाहकः सविनात घोडाने घडी घडी ચાબખાથી મારવાની બાબતમાં સ્વારનું મન દુઃખીત બને છે. કેમ કે, અવિનીત ઘેડાને જેમ જેમ ચાબુક મારવામાં આવે છે તેમ તેમ તે પાછું પડે છે આથી સવારને પ્રયત્ન નિષ્ફળ બને છે. ભાવાર્થ-વિનીત શિષ્ય ને આપવામાં આવેલ શિક્ષા સફળતાની સાધક બનવાથી ગુરુ મહારાજની પ્રસન્નતાનું કારણ બને છે, અવિનીત શિષ્યને આપવામાં આવતી એ જ શિક્ષા અસફળ બને છે, આથી ગુરુ મહારાજે ખેદ ખિન્ન બનવું પડે છે. જેમ-વિનીત ઘોડે ઈચ્છિત માર્ગે ચાલી પિતાના માલીકને પ્રસન્ન કરે છે, અને અવિનીત ઘડો ચાબુકથી પીટવામાં આવવા છતાં પણ વિપરીત માગ પર જ ચાલે છે જેનાથી સવારને ઉલટાનું કષ્ટ જ ભેગવવું પડે છે. ૩છા ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययनसूत्रे गुरोः शिक्षावचने कुशिष्यस्य दुर्भावनामाहमूलम्-खड्डुया में चवेडा में, अकोसा यं वहीं ये में। कल्लाणमणुसासंतो, पाँवदिद्वितिं मन्नई ॥३८॥ छाया-खड्डुका मे चपेटा मे, आक्रोशाश्च वधाश्च मे। कल्याणमनुशासत्, पापदृष्टिरिति मन्यते ॥ ३८ ॥ टीका-'खड्डया' इत्यादि--- कल्याण-लोकद्वयहितम्, अनुशासत् = शिक्षयन् गुरुः कुशिष्येण पापदृष्टिः= पापा-पापमयी दृष्टिर्यस्य स तथा, इति मन्यते-अयं गुरुर्मम हिंसकोऽस्तीति मन्यते । यतोऽनेन-मे-मम, खड्डुकाः टक्करा आघाता दीयन्तेऽनेनेति शेषः। तथा मेमम, चपेटा:-करतलाघाता दीयन्ते । च-पुनः, आक्रोशाः परुषभाषणानि, च-पुनः, मे मम, वधाः दण्डादिघाताः क्रियन्ते । ___ जो कुशिष्य होता है उसे जब गुरु महाराज शिक्षा देते हैं तब उसकी क्या भावना होती है यह बात इस गाथा द्वारा प्रकट की जाती है__'खड्ड्डया' इत्यादि. अन्वयार्थ अविनीत शिष्य (कल्लाणमणुसासंतो-कल्याणं अनुशासत्) उभयलोकसंबंधी हित शिक्षा देने वाले गुरु महाराज को (पावदिट्ठी-पापदृष्टिः ) यह पापदृष्टि वाले मेरे घातक हैं (त्ति-इति) इस प्रकार समझता है । क्यों कि वह गुरु महाराज की शिक्षा सम्बन्धी बातों को इस प्रकार मानता है कि (खड्डया मे चवेडा मे अक्कोसा य वहा य मेखड्डुका मे चपेटा मे आक्रोशाश्च वधाश्च मे ) ये मेरे लिये आघातस्वरूप हैं थप्पड़स्वरूप हैं, परुषभाषण-गाली-स्वरूप हैं, प्रहारस्वरूप हैं। જે કુશિષ્ય હોય છે એને ગુરુ મહારાજ શિક્ષા આપે છે, ત્યારે તેની કેવી माना डाय छ! पातमा २प्रगट ४२पामा मावे छे. खड्डुया०त्याहि. म-qयार्थ-मविनीत शिष्य कल्लाणमणुसासंतो-कल्याणं अनुशासत् अभय als समधी शिक्षा पण गुरु महाराने पावदिट्ठी-पापदृष्टिः व्ये पा५ दृष्टी वाणा भाराघात।छे त्ति-इति से प्रारना समर छे. भ, गुरु महारानी शिक्षा समधी वातान से मारे भान छ है, खड्डुया मे चवेडा मे अक्कोसा य पहा य मे-खड्डुका मे चपेटा में आक्रोशाश्च वधाश्च मे मा भा२। माटे माधात સ્વરૂપ છે, થપ્પડ સ્વરૂપ છે, પ્રહાર સ્વરૂપ છે. ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ __ २४५ प्रियदर्शिनी टीका अ० १ गा. ३९ विनीतशिष्यभावना ___ अयं भावः-दुर्विनीतशिष्यः खल्वेवं चिन्तयति-अयं गुरुर्मा केवलं खड्डुकादिभिः पोडयति न तु किमपि ममहितं चिन्तयतीति ॥ ३८ ॥ सविनयशिष्यस्य भावनामाह-- मूलम्-पुत्तो में भाय गाइँत्ति, साह कल्लाण मन्नई। पार्वदिट्ठी 3 अप्पोणं, सीसं दौसेत्ति मन्नई ॥३९॥ छाया-पुत्रो मे भ्राता ज्ञातिरिति, साधुः कल्याणं मन्यते । पापदृष्टिस्तु आत्मानं, शास्यमानं दास इति मन्यते ॥३९॥ टीका-'पुत्तो मे' इत्यादि___ अयं शिष्यः, मेन्मम, पुत्रतुल्य इति, भ्राता-भ्रातृतुल्य इति, ज्ञातिः=ज्ञाति भावार्थ-उभयलोकसंबंधी हितकारक उपदेश देने पर भी अविनीत शिष्यकी दृष्टिमें वह गुरु महाराज के शिक्षावचन हितकारक प्रतीत न होकर केवल कष्टप्रद चपेटा आदिरूप ही प्रतीत होते हैं। वह ऐसा मानता है कि ये मुझे इस बहाने केवल पीडित ही करना चाहते हैं। क्यों कि इन्हों ने कभी भी मेरे हित का विचार ही नहीं किया है तो फिर ये मेरे हित की बुद्धि से अच्छी बात कहेंगे भी कैसे ॥ ३८॥ विनीत शिष्य की भावना कैसी होती है ! इसको इस गाथाद्वारा सूत्रकार प्रकट करते हैं-'पुत्तो मे ' इत्यादि । अन्वयार्थ-जब गुरुमहाराज शिष्यों को शिक्षा देते हैं तब उनमें जो (साहू-साधुः) विनीत शिष्य होता है वह इस प्रकार विचार करता ભાવાર્થ–ઉભયલક સંબંધી હિતકારક ઉપદેશ દેવા છતાં પણ અવિનીત શિષ્યની દષ્ટીમાં ગુરુ મહારાજનું તે શિક્ષા વચન હિતકારક ન ગણતાં કેવળ દુઃખદાયક તેમજ મુંજવનાર આદિરૂપ જ લાગે છે તે એવું માને છે કે, આ બહાના તળે તેઓ કેવળ પિડવાજ માગે છે. કેમકે, તેમણે કદી પણ મારા હિતને વિચાર કર્યો નથી. તે તેઓ મારા હિતની ભાવનાથી સારી વાત કેવી રીતે કહે છે ૩૮ છે વિનીત શિષ્યની ભાવના કેવી હોય છે-એને આ ગાથા દ્વારા સૂત્રકાર प्रगट ४रे छे. पुत्तो मे त्यादि. અન્વયાર્થ–જ્યારે ગુરુ મહારાજ શિષ્યને શિક્ષા આપે છે, ત્યારે એનામાં જે साहू-साधुः विनीत शिष्य हाय छत से रन वियर रेछे, मा १२ ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४६ उत्तराध्ययनसूत्रे तुल्य इति गुरुर्जानाति, इत्येवं साधुः-विनयवान् शिष्यः कल्याणं - शुभं मन्यते'अयं गुरुः पुत्रादिभावेन मामनुशास्ति' इति शुभभावनां करोतीत्यर्थः। कुशिष्यः पुनः किं मन्यते ? इत्याह-'पावदिठी उ' इत्यादि । पापदृष्टिः विनयरहितः शिष्यस्तु शास्यमानम् आत्मानं मां दास इति गुरु नाति, इत्येवं मन्यते । 'अयं गुरुनींचदृष्ट्याऽवमानयन्मां दासमिव तर्जयति' इत्यशुभभावनां करोतीत्यर्थः। अन्ये तु सुविभक्तिव्यत्ययात् 'पुत्तो' इत्यस्य ‘पुत्रमित्र' 'भाय' इत्यस्य-'भ्रातरमिव' 'णाइ' इत्यस्य ' ज्ञातिमिव' इति द्वीतीयान्तार्थ कल्पयन्ति 'मे' इति द्वितीयान्तार्थकं च कल्पयन्ति तत्सर्वमनुचितम्-आगमोक्तपाठेऽर्थसंगती सत्यां तद्विपरीतार्थकल्पनायां भगवद्वचनविराधनाऽऽपत्तेः ॥ ३९ ॥ है कि ये गुरु महाराज मुझे (पुत्तो मे-पुत्रः मे ) यह शिष्य मेरे पुत्रतुल्य है (भाय-भ्राता) भाई के समान है (णाय-ज्ञातिः) ज्ञातिजनतुल्य है, ऐसा समझकर शिक्षा देते हैं, (त्ति-इति) इस प्रकार विनीत शिष्य (कल्लाण-कल्याणं) शुभ (मन्नइ-मन्यते) मानता है, अर्थात् विनीत शिष्य गुरु महाराज के प्रति कल्याण भावना करता है। और (पावदिट्ठी य-पापदृष्टिस्तु) जो अविनीत शिष्य होता है वह इस प्रकार विचारता है कि ये गुरुमहाराज (सासं अप्पाणं-शास्यमानमात्मानम्) शिक्षापाते हुए मुझको (दासे-दासः) यह दास है, इस प्रकार समझकर शिक्षा देते हैं (त्ति-इति) इस प्रकार (मन्नइ-मन्यते ) अशुभ मानता है, अर्थात् अविनीत शिष्य गुरु महाराज के प्रति अशुभ भावना करता है। इस गाथा में विनीत और अविनीत शिष्य की भावना प्रदर्शित की है॥३९॥ भडारा०४ भने पुत्तो मे-पुत्रः मे ॥ शिष्य भा२। पुत्र तुक्ष्य छे भाय-भ्राता मानी तुल्य छ णाय-ज्ञाति शातितुल्य छ. से समझने शिक्षा माचे छ. त्ति-इति ॥ रेविनीत शिष्य कल्लाण मन्नइ-कल्याण-मन्यते त्या२४ मन शुमा२४ માને છે. અર્થાત્ વિનીત શિષ્ય ગુરુ મહારાજ તરફ ખૂબ ઉંચી ભાવના રાખે છે અને पावदितीय-पापहष्टिस्तु २ मविनीत शिष्य डाय छत सेवा प्रारवियारेछ, शुरु भडा२।४ सास अप्पाणं--शास्यंमानमात्मानं शिक्षा मापती मते भने दासे--दासः साहास छ, मेवी रीत सम ने शिक्षा मापे छ. त्ति इति २॥ ४ारे मन्नइ--मन्यते અશુભ માને છે. અર્થાત્ કુશિષ્ય, ગુરુ મહારાજ તરફ અશુભ ભાવના ભાવે છે. આ ગાથામાં શિષ્યની વિનીત અને અવિનીત ભાવના પ્રદર્શિત કરેલ છે. સલ્લા ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रियदर्शिनी टीका. अ० १ गा. ४० विनीतशिष्याय शिक्षा २४७ अथ विनयसर्वस्वमुपदिशतिमूलम्-न कोवैए आयरिय, अप्पाणं पिन कोवए । बुद्धोवघाई न सिया, ने सिया तोतंगवेसए ॥४॥ छाया-न कोपयेत् आचार्यम्, आत्मानमपि न कोपयेत् । बुद्धोपघाती न स्यात्, न स्यात् तोत्रगवेषकः ॥ ४०॥ टीका-'न कोवए' इत्यादि आचार्य न कोपयेत् क्रोधाविष्टं न कुर्यात्, आचार्यमित्युपलक्षणं तेन विनयाहमुपाध्यायादिकमपि न कोपयेदित्यर्थः। आत्मानमपि न कोपयेत्-आचार्येण परुष भाषणादिभिः शिक्ष्यमाणमात्मानमपि कोपयुक्तं न कुर्यात् । अपिनाऽन्यस्यापि संग्रहः अन्यं कमपि न कोपयेदित्यर्थः॥ यतः-मासोपवासनिरतोऽस्तु तनोतु सत्य, ध्यानं करोतु विदधातु बहिर्निवासम् । ब्रह्मव्रतं धरतु भैक्षरतोऽस्तु नित्यं, ____ रोषं करोति यदि सर्वमनर्थकं तत् ॥ १॥ कथंचित् कोपावेशेऽपि बुद्धोपघाती न स्यात्-आचार्योपघातको न भवेत् । अब विनय का सारांश कहते हैं-'न कोवए' इत्यादि. अन्वयार्थ—(आयरियं न कोवए-आचार्य न कोपयेत्) विनीत शिष्य का कर्तव्य है कि वह आचार्य को कभी भी कुपित न करे। (अप्पाणं पिन कोवए-आत्मानमपि न कोपयेत् ) आचार्य महाराज जब कोई शिक्षा देवें उस समय अपनी आत्मा को भी कुपित न करे। यदि कदाचित् कोप का आवेश आ भी जावे तो उस समय (बुद्धोवघाई न सिया-बुद्धोपघाती न स्यात् ) अपने आचार्य महाराज का उपघातक नहीं वे विनयने। साथ ४ छ.-न कोवए ईत्याहि. अन्वयार्थ --आयरियं न कोवए-आचार्यान् न कोपयेत् विनीत शिष्यनु से ४तव्य छ , ते मायाय ने ही ५५ पित न रे. अप्पाणं पि न कोवयेआत्मानमपि न कोपयेत् माया महा। न्यारे । शिक्षा मापे त्यारे पोताना આત્માને પણ કેપિત ન કરે. કદાચિત જે કેપને આવેશ આવી પણ જાય છે તે समय बुद्धोवघाई न सिया-बुद्धोपघाती न स्यात् पाताना मायाय महा२।४नु ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨૪૮ उत्तराध्ययनसूत्रे तथा तोत्रगवेषको न स्यात्-तोत्रं-तोदनं तत्सदृशस्य पीडोत्पादकस्य परुषभाषणाऽऽदेगवेषकः अन्वेषको न भवेदित्यर्थः। अयं भावः-यथा-दुष्टस्तुरङ्गमो विपरीतगत्या प्रचलन् तोदनमन्वेषयति तद्वत् शिष्यः आचार्यस्य प्रेरणालक्षणवचनस्य गवेषको न भवेदिति। होना चाहिये। तथा-(तोत्तगवेसए न सिया-तोत्रगवेषकः न स्यात्) तोत्रगवेषक भी नहीं होना चाहिये-अर्थात् गुरु महाराज को वार २ प्रेरणा करने की आवश्यकता नहीं होने दे। तात्पर्य इसका यह है कि शिष्य को यह चाहिये कि जिस समय आचार्य महाराज अपने लिये परुष भाषण आदि रूप में भी यदि शिक्षात्मक वचन कहें तो उस समय वह उनके प्रति ऐसा व्यवहार न करे कि जिससे वे कुपित हो जावें, तथा स्वयं भी अपनी आत्मा को उनके व्यवहार से अप्रसन्न न रखे । तथा ऐसी चेष्टा भी उसको नहीं करना चाहिये कि जिसमें आचार्य महाराज का उपघात हो। जिस प्रकार दुष्ट धोडा विपरीत चाल से चलता हुआ अपने मालिक को पद २ पर दुःखित किया करता है उसी प्रकार उनकी इच्छा के विरुद्ध चलकर शिष्यको उन्हें कभी भी दुःखित नहीं करना चाहिये । सूत्र में जो अपि-शब्द आया है वह इस बात का सूचक है कि शिष्य को अपने आचार्य महाराज से अतिरिक्त और भी किसी को व्यथित नहीं करना चाहिये। तथा उपाध्याय आदि अपमान ४२ना२ न थाले . तथा तोत्तगवेसए न सिया-तोत्रगवेषकः न स्यात् તેત્રગષક પણ ન બનવું જોઈએ. અથવા–ગુરુ મહારાજે વારંવાર પ્રેરણા કરવી પડે તેવું ન થવા દે. જે સમયે આચાર્ય મહારાજ પિતાના માટે પરૂષ ભાષણ આદિ રૂપથી પણ કદાચ શિક્ષાત્મક વચન કહે છે તે વખતે તે તેમના પ્રત્યે એ વહેવાર ન કરે છે, જેથી ગુરુ મહારાજે ક્રોધિત બનવું પડે. તથા તેમના વહેવારથી પોતાની જાતને પણ અપ્રસન્ન ન રાખે. તથા એવી ચેષ્ટા પણ તેણે ન કરવી જોઈએ કે જેમાં આચાર્ય મહારાજનું અપમાન હોય, જે પ્રકાર દુષ્ટ ઘેડ વિપરીત ચાલથી ચાલીને પિતાના માલીકને પગલે પગલે દુખિત કર્યા કરે છે તેવી રીતે, તેમની ઈચ્છાની વિરૂદ્ધ ચાલીને શિષ્ય તેમને કદી પણ દુઃખી ન કરવા જોઈએ. સૂત્રમાં જે “અપિ” શબ્દ આવેલ છે તે આ વાત સૂચન કરે છે કે શિષ્ય પોતાના ગુરુ મહારાજ કે બીજા કેઈને પણ દુઃખ ન પહોંચાડવું જોઈએ. તથા ઉપાધ્યાય આદિ જે વિનયને યોગ્ય છે તેમને પણ કુપિત ન ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रियदर्शिनी टीका गा. ४० वीर्योल्लासाचार्य दृष्टान्तः बुद्धोपघाती न स्यादिति यदुक्तं तत्र दृष्टान्तो वर्ण्यते अङ्गदेशे चम्पापुरीनगर्यां गणिगुणसमन्वितः प्रक्षीणप्रायकर्मा क्षीणजङ्घाबलः कृतैकशिष्यप्रतिज्ञः कश्चिद् वीर्योल्लासनामक आचार्यः क्षुद्रमतिनाम्नैकेनैव शिष्येण जो विनय के योग्य हैं उन्हें भी कुपित नहीं करना चाहिये, क्यों कि कोप अनेक अनर्थों की जड एवं समस्त उत्तम क्रियाओं का विनाशक माना गया है, कहा भी है " मासोपवासनिरतोsस्तु तनोतु सत्यं, ध्यानं करोतु विधातु बहिर्निवासम् । ब्रह्मव्रतं धरतु भैक्षरतोऽस्तु नित्यं, रोषं करोति यदि सर्वमनर्थकं तत् " ॥ १ ॥ कोई भी व्यक्ति यदि मास मास खमण भी पारणा करता हो, सदा सत्य बोलता हो, ध्यान करता हो, वन में भी निवास करता हो, ब्रह्मचर्यव्रत का पालन करता हो, भिक्षावृत्ति करता हो परन्तु यदि रोष - कोप करता है तो उसकी ये समस्त क्रियाएँ व्यर्थ हैं ॥ १ ॥ 4 'बुद्धोपघाती नहीं होना चाहिये' ऐसा जो कहा है उसको दृष्टान्त से स्पष्ट करते हैं अंगदेश में चंपा नामकी नगरी थी । उसमें गणिगुणों से युक्त કરવા જોઈ એ, કેમકે, કેપ અનેક અનર્થોની જડ તેમજ સમસ્ત ઉત્તમ ક્રિયાઓને નાશ કરનાર મનાયેલ છે. કહ્યું પણ शुछे. - मासोपवास निरतोsस्तु तनोतु सत्यं, ध्यानं करोतु विदधातु बहिर्निवासम् । ब्रह्मवतं धरतु भैक्षरतोsस्तु नित्य, २४९ शेषं करोति यदि सर्वमनर्थकं तत् ॥ १ ॥ કઈ પણ વ્યક્તિ કદાચ તે મહિના મહિનાના અપવાસ કરે, સદા સાચુ ખેલતા હાય, ધ્યાન કરતા હોય, વનમાં પણ રહેતા હેય, બ્રહ્મચર્ય વ્રતનું પાલન કરતા હાય, ભિક્ષાવૃત્તિ કરતે હોય, પરંતુ તે જો ક્રોધ કરતા હોય તે તેની એ સઘળી ક્રિયાઓ વ્યથ છે. ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર ઃ ૧ યુદ્ધોપઘાતિ ન થવુ' જોઈએ, એવુ' જે કહેવામાં આવે છે. એને દૃષ્ટાં તથી સ્પષ્ટ કરવામાં આવે છે.— અંગ દેશમાં ચંપાપુરી નામની નગરી હતી, તેમાં ગણીશુષ્ણેાથી યુક્ત उ० ३२ Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५० उत्तराध्ययनसूत्रे सह कृतस्थिरवास आसीत् । तत्रासौ शिष्यः प्रतिदिवसं संसारसागरोत्तारकं जन्ममरणोच्छेदकं सकलकर्मविध्वंसकं तीर्थंकरगोत्रोपार्जकं गुरुवयावृत्त्यं कुर्वाणो गुरुकर्मकत्वाद् दुर्लभबोधित्वाच्चैकदा मनसि चिन्तयति-'प्रक्षीणवलः स्थविरोऽयमस्माभिः कियत्कालमनुपालनीयः' इत्येवं विमृश्यासौ तद्वयोऽनुरूपं स्निग्धं मधुरं मनोज्ञ सुरसं वीर्योल्लास नाम के आचार्य अपने प्रिय क्षुद्रमति नामक शिष्य के साथ स्थिरवास रहते थे। विशेष वृद्ध होने के कारण हलन-चलन आदि क्रियाएँ इनकी क्षीणप्राय हो चुकी थी। जंघा बल भी कम हो गया था। "मैं एक ही शिष्य करूँगा" ऐसी उनकी प्रतिज्ञा थी। उस के अनुसार उन्होंने क्षुद्रमति नामक एक ही शिष्य किया था, और उसी के साथ वे वहां रहा करते थे। शिष्य भी अपने गुरु महाराज की ठीक २ रीत से वैयावृत्य किया करता था। वैयावृत्य करना यह एक तप है इसके प्रभाव से प्राणी संसार समुद्र से पार हो जाता है। जन्म, मरण और जरा से विमुक्त हो जाता है । अष्ट कर्मों का विनाश भी इस वैयावृत्य के बल पर प्राणी कर देता है। इससे तीर्थकरनामगोत्र का उपार्जन भी करता है। शिष्य गुरु कर्मा था। इस लिये वैयावृत्त्य करने पर भी इसे बोध का लाभ दुर्लभ हो रहा था। एक दिन शिष्य ने विचार किया कि हम इनकी अब कबतक वैयावृत्त्य करते रहेंगे। यह तो बिलकुल स्थविर हो चुके हैं । इन में तो अब इतनी भी शक्ति नहीं रही है जो ये यहाँ से એક વિલ્લાસ નામના આચાર્ય પોતાના સુદ્રમતિ નામના શિષ્ય સાથે સ્થિર વાસ રહેતા હતા. ખૂબ વૃદ્ધ થઈ જવાના કારણે હલન ચલન આદિ ક્રિયાઓ તેઓ કરી શકતા નહીં. શરીરનું તેમજ જાંગોનું બળ પણ ક્ષિણ થઈ ગયું હતું. “હું એકજ શિષ્ય કરીશ” એવી તેમની પ્રતિજ્ઞા હતી એ અનુસાર તેમણે એક જ શિષ્ય કરેલ હતું. જેનું નામ શુદ્રમતિ હતું તે શિષ્યની સાથે તે ચંપાપુરીમાં રહેતા હતા. શિષ્ય પણ પિતાના ગુરુમહારાજની એગ્ય રીતે ચાકરી બરદાસ કરતો હતો. વૈયાવૃત્ય કરવું એ એક તપ છે. તેના પ્રભાવથી પ્રાણી સંસાર સમુદ્રથી યાર થાય છે. જન્મ મરણ અને જરાથી વિમુક્ત થઈ જાય છે. આઠ કર્મોને વિનાશ પણ આ વૈયાવૃત્યના બળ ઉપર પ્રાણી પુરી દે છે. તેનાથી તીર્થકર નામ ગેત્રનું ઉપાર્જન પણ કરે છે. શિષ્ય ગુરુ કમી હતું. આ માટે વૈયાવૃત્ય કરવા છતાં પણ એને બોધને લાભ દુર્લભ થતું હતું. એક દિવસ શિષ્ય વિચાર કર્યો કે, હું કયાં સુધી આમની સેવા ચાકરી કરતે રહીશ. આ તો બીસ્કુલ સ્થવિર બની ગયા છે. એમનામાં એટલી પણ શકિત હવે ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रियदर्शिनी टीका गा. ४० वीर्योल्लासाचार्य दृष्टान्तः ____ _२५१ पथ्यं चतुर्विधमशनादिकं श्रावकजनैरुदारभावैरनुदिनं दीयमानमुपादाय तस्मै नापयति स्वयमेव तदश्नाति । ___ अन्तं प्रान्तं रूक्षं शुष्कं कुपथ्यमशनादिकमानीय गुरवे प्रयच्छति । वदति चकिमिह कुर्मों वयम् । ईदृशी दशामुपगतानां भवतां योग्यमशनादिकं विद्यमानमपि नामी विवेकविकलाः श्रावका दातुमिच्छन्ति । श्रावकान् कथयति च-ममाचार्याः खलु परमनिःस्पृहतया स्वशरीरयात्रामप्यचिन्तयन्तः प्रणीतं भक्तपानं ग्रहीतुं नेच्छन्ति और दूसरी जगह भी चल फिर सकें। इस प्रकार विचार कर उसने ऐसा काम करना प्रारंभ किया कि-श्रावकों से जो आचार्य की अवस्था अनुरूप स्निग्ध, मधुर, मनोज्ञ, सरस चतुर्विध आहार इसे भिक्षा में मिलता वह स्वयं खा जाता और गुरु महाराज को अन्तप्रान्त, रूक्ष शुष्क एवं कुपथ्यरूप आहार लाकर देता। जब गुरु महाराज पूछते तो कहने लगता कि महाराज हम इस में क्या करें। यहां के श्रावक आपकी ऐसी अवस्था को देखकर असंतुष्ट हो गये हैं, इसी लिये वे अपने घर में होते हुए भी योग्य अशनादिक को देना नहीं चाहते । जब श्रावक उससे पूछते तो कहता कि हमारे ये आचार्य महाराज अब बिलकुल शिथिलशरीर हो रहे हैं इसलिये उन्हें अपने शरीरमें अब कोई ममत्वपरिणति नहीं रही है । उन्हें तो जैसा भी आहार मिलजाता है वे उसे ले लेते हैं । वे नहीं चाहते कि हमारा यह शरीर अब और રહી નથી કે એક સ્થળ ઉપરથી બીજા સ્થળે જરા પણ હાલી ચાલી શકે. આ પ્રકારને વિચાર કરી તેણે એવા કામને પ્રારંભ કર્યો કે, શ્રાવકેથી આચાર્યની અવસ્થા અનુરૂપ જે સ્નિગ્ધ, મધુર, મનેણ, સુરસ ચાર પ્રકારને આહાર તેને ભિક્ષામાં મળતો તે સ્વયં ખાઈ જતા અને ગુરુ મહારાજને અન્ત, પ્રાન્ત, રૂક્ષ, શુષ્ક અને કુપથ્થરૂપ આહાર લાવી આપતે. ગુરુ મહારાજના પૂછવાથી તે કહેતો કે, મહારાજ હું એમાં શું કરું અહીંના શ્રાવકે આપની આવી અવસ્થા જોઈને અસંતુષ્ટ બની ગયા છે. આ માટે તેઓ પોતાના ઘરમાં હોવા છતાં પણ યોગ્ય આહાર આપવા ઈચ્છતા નથી. જ્યારે શ્રાવક તેને પૂછતા તે કહે કે, મારા આચાર્ય મહારાજ હવે બીલકુલ શિથીલ શરીરના બની ગયા છે. આ માટે તેમને હવે પોતાના શરીરમાં કઈ મમત્વ પરિણતી રહી નથી. તેમને જે આહાર મળી જાય છે તે તે યે છે. તે નથી ચાહતા કે મારું આ શરીર હવે વધુ વખત ટકયું રહે. આ માટે પ્રણીત ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५२ उत्तराध्ययनसूत्रे किंतु संलेखनामेव कर्तुं व्यवस्यन्ति । ततः शिष्यवचनं निशम्य शोकार्तचेतसः श्रावकास्तमुपमृत्य सगद्दं वदन्ति-भगवन् ! कथमत्र भवद्भिरकाल एव संलेखनाविधिरारब्धः ? न च वयं निर्वेदहेतवः, इति मन्तव्यम् यतः शिरःस्थिता अपि भवन्तो न भारमस्माकं कुर्वन्ति । इत्थं श्रावकाणां वचनं श्रुत्वाऽऽचार्येण विचारितम्-सर्वमेतच्छिष्यदुश्चरितम्-अलमस्य शिष्यस्याप्रीतिकरेण मम प्राणधारणेन, इति मनसि विचिन्त्य तेन श्रावकाणां शिष्यस्य च पुरस्तादुक्तम्-कियचिरमजङ्गमै अधिक समय तक टिका रहे । इस लिये प्रणीत रस वाले भक्त पान को लेने की वे अब चाहना ही नहीं करते है, किन्तु सलेखना धारण करने के लिये उद्यत हो रहे है, श्रावक जनों ने जब शिष्य के इन वचनों को सुना तो वे बहुत शोकार्त चित्त हो चिन्तित हुए और गुरु महाराज के समीप पहुँच कर गद्गद वाणी से कहने लगे कि-महाराज ! अकाल में आप संलेखना क्यों धारण कर रहे हैं ? हम लोग तो आपके लिये निर्वेद के कारण हैं नहीं-हमारे तो आप माथे पर भी बैठे तो भी आपका हमें कोई भार नहीं लग सकता है। आचार्य ने जब श्रावकों के इन वचनों को सुना तो वे बडे विचार में पड गये और मन में कहने लगे कि यह सब करतूत हमारे शिष्य की है, मालूम पड़ता है इस को मैं बहुत भारी हो रहा हूं। इस प्रकार सोच समझकर आचार्य ने शिष्य एवं श्रावकों के समक्ष कहा कि महानुभाव ! अब हम से चलना फिरना बनता नहीं है, अतः ऐसी स्थिति में आप सब को एवं शिष्य को રસવાળા ભકત પાનને લેવાની ચાહના હવે તેઓ કરતા નથી. પરંતુ સંલેખના ધારણ કરવામાં પ્રયત્નશીલ બની રહ્યા છે. શિષ્યનું આ કહેવું સાંભળી શ્રાવકજને ખૂબ શેકાતુર બન્યા અને ગુરુ મહારાજ પાસે જઈને ગદ્દગદ વાણીથી કહેવા લાગ્યા કે, મહારાજ ! અકાલમાં આપ સંલેખના કેમ ધારણ કરી રહ્યા છે? અમે લેકે તે આપના માટે નિર્વેદના કેઈ કારણ નથી? આપ અમારા માથા ઉપર બેસે તે પણ અમને આપને કેઈ ભાર લાગતું નથી. આચાર્ય શ્રાવકેનું જ્યારે આ પ્રકારનું કહેવું સાંભળ્યું છે તે વિચારમાં પડી ગયા અને મનમાં કહેવા લાગ્યા કે, આ બધું કરતૂત મારા શિષ્યનું છે, એને હું ખૂબ ભાર રૂપ બની રહ્યો છું. આ પ્રકારનું સમજી વિચારીને આચાર્યો શિષ્ય તેમજ શ્રાવકેની સમક્ષ કહ્યું કે, મારાથી હાલી ચાલી શકાતું નથી, આથી આવી સ્થિતીમાં આપ બધાને તથા શિષ્યને કયાં સુધી કષ્ટ આપ્યા કરૂં. આથી એજ ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रियदर्शिनी टीका गा. ४१-४२ शिष्य कर्तव्योपदेशः रस्माभिर्भवन्तः शिष्यश्च पीडनीयाः ? इति निवेद्य भक्तं प्रत्याख्याय स प्राणरहितो जातः । एवं क्षुद्रमतिशिष्यवतू साधुर्बुद्धोपघाती न भवेत् ॥ ४० ॥ आचार्ये कुपिते शिष्यकर्तव्यमाह-- मलमू-आयरियं कुवियं नच्चा, पत्तिएंण पसायए । विज्झविज पंजलीउडो, वएंज्ज न पुंणुत्ति यं ॥४१॥ छाया-आचार्य कुपितं ज्ञात्वा, प्रीतिकेन प्रसादयेत् । विध्यापयेत् प्राञ्जलिपुटः, वदेत न पुनरिति च ॥ ४१ ॥ टीका- आयरियं इत्यादि। शिष्यः केनचित् स्वापराधेन आचार्य कुपितम्-अपरितुष्टं ज्ञात्वा प्रीतिकेन= प्रीतिरेव प्रीतिकं तेन-प्रीतिजनकेन विनयभावेन यद्वा-'प्रतीतिकेन' इतिच्छाया; प्रतीतिकेन-विश्वासजनकेन वाक्येन तं प्रसादयेत् प्रसन्नं कुर्यात् । 'प्रीतिकेन' कहां तक कष्ट दिया जाय, अतः यही सर्वसुंदर मार्ग है कि संलेखना धारण करली जाय। ऐसा कह कर उन्होंने भक्तप्रत्याख्यान कर दिया और कुछ समय के बाद वे समाधिमरण को प्राप्त कर अपना कल्याण किया। इस कथा से शिष्य को यह शिक्षा लेनी चाहिये कि क्षुद्रमति शिष्य की तरह वह गुरु महाराज का प्राणप्रहारी न बने ॥४०॥ ____ आचार्य महाराज के कुपित होने पर शिष्य का क्या कर्तव्य है सो कहते हैं-'आयरियं ' इत्यादि.. ___ अन्वयार्थ-शिष्य (कुवियं आयरियं नचा-कुपितं आचार्य ज्ञात्वा। जब यह समझे कि आचार्य महाराज कुपित हैं उस समय वह (पत्तिएण पसायए-प्रीतिकेन प्रसादयेत्) प्रीतिजनक-विनयभाव से अथवा સર્વ સુંદર માર્ગ છે કે, સંલેખણું ધારણ કરી દઉં એવું કહીને તેઓએ ભક્તપ્રત્યાખ્યાન કરી લીધું અને થોડા સમય બાદ સમાધી મરણને પ્રાપ્ત કરી. પિતાનું કલ્યાણ કર્યું. આ કથાથી શિષ્ય એ શિક્ષા લેવી જોઈએ કે, ક્ષુદ્રમતિ શિષ્યની मा ते पोताना गुरु महान प्रा डरना२ नमन. ॥४०॥ આચાર્ય મહારાજના કોધિત થવાથી શિષ્યનું શું કર્તવ્ય છે. તે કહેવામાં मा छ.-आयरियं-त्याह. सन्वयार्थ-शिष्य कुवियं आयरियं नच्चा-कुपितं आचार्य ज्ञात्वा न्यारे से सभर । मायाय मा२।४ एपित छ त समय त पत्तिएण पसायए-प्रीतिकेन કરાર પ્રિતિજનક-વિનય ભાવથી અથવા વિશ્વાસ જનક વાક્યથી તેને પ્રસન્ન ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५४ उत्तराध्ययनसूत्रे इत्यत्र रूढया नपुंसकत्वम् । प्राञ्जलिपुटः = कृताञ्जलिः सन् विध्यापयेत् = कथंचिदुत्थितकोपवह्निं प्रशमयेत् । च = पुन: ' न पुनरेवं करिष्यामि ' ' क्षन्तव्योऽयमपराधः ' इति वदेत् । मानसिक - कायिक वाचिकोपायै गुरुः प्रसादनीय इति भावः ॥ ४१ ॥ अथ येन गुरोः कोप एव नोत्पद्येत तमुपायमाह मूलम् - धम्मंज्जियं चे ववहार, बुद्धेहायरियं सया । तमायरंतो वर्वहारं, गरहं नाभिगच्छ ॥४२॥ छाथा - धर्मार्जितश्च व्यवहारः बुद्धैः आचरितः सदा । तमाचरन् व्यवहारं, गह नाभिगच्छति ॥४२॥ टीका' धम्मज्जियं ' इत्यादि यत्तदोर्नित्यसम्बन्धाद्यः धर्मार्जितः = धर्मेण क्षान्त्यादिना अर्जितः = उपा र्जितः, च- पुनः सदा सर्वकालं बुद्धैः = तत्त्वविद्भिः आचरितः = सेवितः, व्यवहारः= - विश्वासजनक वाक्य से उन्हें प्रसन्न करे । और (पंजलीउड़ो विज्झविज्ज - प्राञ्जलिपुटः विध्यापयेत् ) दोनों हाथ जोड़कर उनकी कथंचित् उत्थित कोपाग्नि को बुझावे । उस समय वह ऐसा (वएज्ज - वदेत्) कहे कि ( न पुणुत्ति य-न पुनरिति च) हे गुरु महाराज अब ऐसा व्यवहार नहीं करने का भाव है अतः अब यह मेरा अपराध आप क्षमा करें। मन से वचन से एवं काया से जैसे भी बने उस प्रकार के उपायों से गुरु महाराज को प्रसन्न कर लेना चाहिये ॥ ४१ ॥ अब सूत्रकार ' गुरु महाराज को कोप ही न उत्पन्न हो सके ऐसा उपाय बतलाते हैं - 'धम्मज्जियं इत्यादि. अन्वयार्थ - जो (धम्मज्जियं - धर्मार्जितः) उत्तम क्षमा आदि धर्मों १२. पंजलिउडो बिज्झ विज्ज -प्राञ्जलिपुटः विध्यापयेत् भने भन्ने हाथ लेडीने तेभनी स्थंचित् उत्थित पाग्निने मुआवे मे समय ते येवु वएज्ज - वदेत् डे, न पुणुतिय-न पुनरिति च हे गुरु महारान हुवे हुं मे उही नहीं उ३ साथी હવે આપ આ મારો અપરાધ ક્ષમા કર. મન વચન અને કાયાથી જેવું પણ અને એ પ્રકારના ઉપાયાથી ગુરુ મહારાજને પ્રસન્ન કરી લેવા જોઈએ. ૫ ૪૧ ।। હવે સૂત્રકાર ‘ગુરુ મહારાજને કાપજ ન ઉત્પન્ન થાય ' એવા ઉપાય बतावे छे. - धम्मज्जियं इत्यादि. ग्यन्वयार्थ-ने धम्मज्जियं - धर्मार्जितम् उत्तम क्षमा आहि धर्भाथी मत ४२० ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર ઃ ૧ Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रियदर्शिनी टोका गा. ४३ शिष्यकर्त्तव्योपदेशः २५५ मोक्षार्थी कर्तव्यः प्रतिलेखनादिरूपः, अस्ति, तं व्यवहारम्-आचरन् साधुः, गर्दीनिन्दाम्-'अविनीतोऽयम् ' इत्यादिरूपां नाभिगच्छति-न प्राप्नोति। एवं कृते गुरोः कोपोत्पत्तिर्न भवतीति भावः। ___ 'धम्मज्जियं' इत्यादौ प्रथमार्थे द्वितीया आपत्वात् । 'धम्मज्जियं' इति विशेषणं प्रतिलेखनादिव्यवहारस्य शास्त्रानुकूलता दंभसंमानाद्यर्थ कृतव्यवहारस्य परिहार्यतां च बोधयति । 'बुद्धेहायरियं' इति विशेषणं व्यवहारस्य शासनसंप्रदायानुगतत्वं सूचयति ॥ ४२ ॥ मूलम्-मणोगयं वकगयं, जाणित्तायरियस्स उ। तं परिगिज्झ वायाए, कम्मुंणा उववायए ॥४३॥ के द्वारा अर्जित किया है, तथा (सया-सदा) सर्व काल (बुध्धेहायरियंबुद्धैः आचरितः) तीर्थंकर गणधारों के द्वारा आचरित-सेवित हुआ है ऐसा यह (ववहारं-व्यवहारः) प्रतिलेखनादिरूप कर्तव्य है । (तं ववहारं आयरंतो-तं व्यवहारम् आचरन् ) उस व्यवहार को अपने आचरण में लाने वाला साधु (गरहं-गहीं) 'यह अविनीत है' इत्यादिरूप निन्दा को (नाभिगच्छइ-नाभिगच्छति)प्राप्त नहीं करता है। "धम्मजियं" यह पद यह सूचित करता है कि प्रतिलेखनादिकरूप जो व्यवहार है वह शास्त्रानु कूल है, तथा दंभ एवं सम्मान आदि के निमित्त जो व्यवहार किया जाता है वह परिहार्य है । “बुद्धेहायरियं" यह पद 'यह व्यवहार तीर्थकर एवं गणधरों की परंपरा से चला आ रहा है अतः प्रामाणिक हैं' यह सूचित करता है ॥ ४२ ॥ पामा आवे छे तथा सया-सदा सर्व १७ बुद्धहायरिय-बुद्धः आचरितः तीथ ४२ धराथी सेवीत थये छ वा ॥ ववहारं-व्यवहारः प्रतिवेशना३५ ४०य छ. २॥ व्यवहारने पाताना मायमा साना साधु गरहं-गहीं 'मागविनीत छे' त्या ३५ निहाने नाभिगच्छइ-नाभिगच्छति प्रात ४२ता नथी. धम्मज्जियं આ પદથી એ સૂચિત થાય છે કે પ્રતિલેખનાદિક રૂપ જે વ્યવહાર છે તે શાસ્ત્રાનુકૂળ છે. તથા દંભ અને સન્માન આદિ નિમિત્ત જે વ્યવહાર કરવામાં આવે छ त परिहार्य छ " बुद्धेहायरियं " २ ५४थी २॥ व्य१९२ ताथ ४२ तभ०४ ગણધરોની પરંપરાથી ચાલ્યો આવે છે આથી તે પ્રમાણીક છે એવું સૂચિત १२वामां भाव छ. ॥ ४२ ॥ ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५६ उत्तराध्ययनसूत्रे छाया-मनोगतं वाक्यगतं, ज्ञात्वा आर्चायस्य तु। तत् परिगृह्य वाचा, कर्मणा उपपादयेत् ॥४३॥ टीका-'मणोगयं ' इत्यादि___ आचार्यस्य मनोगतं-मनसि वर्तमानं, तथा वाक्यगतं वचसि स्थितं तु शब्दात् कायगतमपि कार्य पूर्व ज्ञात्वा, पश्चात् तत्-कार्य वाचा परिगृह्य अङ्गीकृत्य, 'अहमेतत् कार्य करोमि' इत्युक्त्वा शिष्यः कर्मणा कायिक्या क्रियया, उपपादयेत्= संपन्नं कुर्यात् । यत् कार्य गुरोमनसि विद्यमानं, 'कार्यमिदं क्रियताम्' इत्यादिना वचसा वाऽभिहितं, गुरुणा क्रियमाणं वा यत् कार्य तद् गुरुहस्तादुपादाय त्वरितमेव सुशिष्येण संपादनीयमिति भावः ॥४३॥ 'मणोगयं' इत्यादि. अन्वयार्थ-(आयरियस्स मणोगयं वक्तगयं-आचार्यस्य मनोगतं वाक्यगत) आचार्य महाराज के मनोगत एवं वाक्यगत “ तु" शब्द से कायगत कार्य को (जाणित्ता-ज्ञात्वा) पहिले जानकर पश्चात् (तं-तत्) उस कार्य को (वायाए-वाचा) वाणी से (परिगिज्झ-परिगृह्य) अगीकार कर के शिष्य (कम्मुणा-कर्मणा) कायसंबंधी क्रिया द्वारा (उववायएउपपादयेत् ) उस कार्य को कर देवे। जो कार्य गुरु के मन में स्थित हो-गुरु ने जिस कार्य को करने का विचार किया हो 'इदं कार्यम् क्रियताम् ' यह काम करो' इस प्रकार जिस कार्य को करने के लिये उन्होंने कहा हो, अथवा गुरु महाराज जिस कार्य को स्वयं अपने हाथ से कर रहे हों तो विनयी शिष्य का कर्तव्य है कि वह उस कार्य को शीघ्र ही स्वयं संपादित करे । और गुरु महाराज करते हों तो उनके हाथ से लेकर स्वयं करने लग जाय ॥४३॥ मणोगय-त्यादि मन्क्याथ-आयरियस्स मनोगय वकगय-आचार्यस्य मनोगतं वाक्यगतं આચાર્ય મહારાજના મને ગત્ અને વાકયગત “તુ” શબ્દથી કાયગત કાયને जाणित्ता-ज्ञात्वा पसां सीन पछीथी तं-तत् ते यन वायाए-वाचा पीथी परिसिज्ज-परिगृहय म४ि.२ ४शने शिष्य कमुणा-कर्मणा य संधी जिया द्वारा उबवाय-उपपादयेत् से यश.२ आय शुरुना मनमा સ્થિત હોય, ગુરુએ જે કાર્ય કરવાનો વિચાર કર્યો હોય. “ આ કામ કરો.? આ પ્રકાર જે કાર્ય કરવા માટે પોતે પિતાના હાથથી કરી રહ્યા હોય તો વિનયી શિયનું કર્તવ્ય છે કે એ તે કાર્યને તુરત જ પિતે ઉપાડી લે અને ગુરુ भडारा ४२ता डायत तमना डाथमाथी सनपात २१। सभी नय.॥ ४३ ।। ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रियदर्शिनी टीका अ० १ गा. ४४-४५ शिष्यकर्त्तव्यतत्फलं च २५७ मूलम् - वित्ते' अचोइए निच्चं, खिप्पं हवंइ सुचाईए । जहोइड सुकयं, किच्चाई कुवेई सयाँ ॥४४॥ छाया-वित्तः अनोदितः नित्यं, क्षिप्रं भवति सुनोदितः। यथोपदिष्टं सुकृतं, कृत्यानि करोति सदा ॥ ४४ ॥ टीका-'वित्ते' इत्यादि वित्तः विनयादिगुणेन प्रसिद्धः शिष्यः, अनोदितः अप्रेरित एव गुरुकार्येषु नित्यं सर्वदा, प्रवर्तते । कदाचित् स्वयमेव कार्य कुर्वाणः सुनोदितः गुरुणा सुष्टु प्रेरितश्चेत् स विनयवान् शिष्यः क्षिप्रंक्षिपकृद् शीघ्रमेव-कार्यकारी भवति । अयं भावः-कार्य कुर्वन् आचार्येण प्रेरितश्चेद् एवं न ब्रूते-'अहं तु कार्यकरोम्येव, किं 'वित्ते' इत्यादि। __ अन्वयार्थ-(वित्ते-वित्तः) विनय आदि गुणों से प्रसिद्ध शिष्य (अचोइए-अनोदितः) विना कहे ही-प्रेरणाकिये विना ही-अपने गुरु महराज के कार्यों में (निच्च-नित्यं) सर्वदा प्रवृत्ति शील रहा करता है । (सुचोइए-सुनोदितः) गुरु महाराज अपने कार्य को करने की प्रेरणा करें तो विनयवान् शिष्य का कर्तव्य है कि वह (खिप्पं हवइक्षिप्रं भवति ) गुरु महाराज का कार्य यतनापूर्वक शीघ्र करे। ऐसा शिष्य गुरु महाराज जब कार्य करने के लिये कहते हैं तब ऐसा नहीं कहता है कि 'मैं तो कार्य कर ही रहा हूं आप क्यों कहते हैं ' । वह तो (सया-सदा सर्वदा जो कुछ भी करने को कहा जाता है उसे ही कहने के अनुसार (सुकयं-सुकृतं) जैसे वह अच्छी रीति से हो सकता है उसी वित्ते इत्यादि अन्वयार्थ-वित्त-वित्तः विनय शाह गुलथी प्रसिद्ध शिष्य अचोइएअनोदितः । १२ प्रेरण। ४ा वा-यातना शुरु भडा२।४ मां निच्चंनित्य सह सह प्रवृतिशील २॥ ४२ छ. सुचोइए-सुनोदितः शुरु भडारा પિતાનું કાર્ય કરવા માટે પ્રેરણા કરે તો વિનયવાન શિષ્યનું કર્તવ્ય છે કે તે खिप्पं हवइ-क्षिप्रं भवति शुरु भडाना ते ४ायने यत्नापू तुरत १ ४२१॥ માંડે. વિનયી શિષ્ય ગુરુ મહારાજના તરફથી કામ માટેનું સૂચન થતાં એવું કદી પણ કહેતા નથી કે, હું કામ તે કરી રહ્યો છું, આપ શા માટે કહો छ. ते तो सया-सदा सहा मेने वामां आवे ते मत वा मनुसार सुकयं-सुकृतं भ त सारी रीत यश सेशते किच्चाई कव्वइ-कृत्यानि उ०३३ ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५८ ___ उत्तराध्ययनसूत्रे भवद्भिः प्रलप्यते?' इति । यथोपदिष्टम् उपदिष्टमनतिक्रम्य सर्वमुपदिष्टं कार्य, सुकृतं =सुष्टु कृतं, यथा स्यात्, तथा कार्याणि-सर्वाणि गुरुकार्याणि, सदा-सर्वकालं, करोति-संपादयति। गुरुकार्येष्वालस्यं न विधेयं प्रसन्नभावेन तदेव कार्य सत्वरं करणीयमिति भावः॥४४॥ अध्ययनार्थमुपसंहरन्नाहमूलम्-नच्चा नमइ मेहावी, लोएँ कित्ती से जायए। हवई किच्चाण सरणं, भूयाणं जगई जहाँ ॥४५॥ छाया-ज्ञात्वा नमति मेधावी, लोके कीतिस्तस्य जायते । भवति कृत्यानां शरणं, भूतानां जगती यथा ॥ ४५ ॥ टीका-'नच्चा' इत्यादि-- __ मेधावी-मर्यादावर्ती शिष्यः, ज्ञात्वा अनन्तरोक्तं सर्वमध्ययनार्थमवगम्य, नमतिन्नम्रीभवति विनयवान् भवतीत्यर्थः, स्वकर्तव्यकरणं प्रति सादरमुद्यतो भवतीति यावत् । विनयस्य फलमाह-'लोए' इत्यादि । लोके तस्य कीर्तिःरीति के माफिक (किच्चाई कुब्वइ-कृत्यानि करोति) उन सब कार्यों को सुसंपादित करता है। गुरु महाराज के कार्यों में कभी भी आलस्य नहीं करना चाहिये प्रत्युत प्रसन्नचित्त से जो कुछ भी करने को कहा जाय वह शीघ्र ही कर देना चाहिये ॥४४॥ ___ अब अध्ययन के अर्थ का उपसंहार करते हुए सूत्रकार कहते हैं'नच्चा' इत्यादि। अन्वयार्थ--(मेहावी-मेधावी) मर्यादावर्ती शिष्य (नच्चा-ज्ञात्वा) अनन्तरोक्त इस समस्त अध्ययन के अर्थ को जानकर (नमइ-नमति) अवश्य विनयी होता है। अर्थात् अपने कर्तव्य को निभाने के लिये सादर उद्यत हो जाता है । (से लोए कित्ती जायए-तस्य लोके कीर्तिः ત્તિ તે બધા કામ સારી રીતે કરતે રહે છે. ગુરુ મહારાજના કામમાં કદી પણ આળસ શિષ્ય ન કરવી જોઈએ. જે કાંઈ કરવાનું કહેવામાં આવે તે प्रसन्न चित्ते शीघ्र ४३ हे ने स. ॥४४॥ डवे मध्ययनन। अथ न ५ डा२ ४२॥ सूत्र४२ ४ छ-नच्चा इत्यादि अन्वयार्थ-मेहावी-मेधावीमाहाती शिष्य नच्चा-ज्ञात्वा अनन्तरोत २ સમસ્ત અધ્યયનના અર્થને જાણીને રમ-નમતિ અવશ્ય વિનયી બને છે. અર્થાત पोताना तव्य निभावा भाटे साह२ Gधत २९ छ. से लोए कित्ति जायए-तस्य ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર: ૧ Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रियदर्शिनी टीका अ०१ गा. ४६ आचार्यादीनां प्रसन्नत्वे फलम् २५९ 'अनेन सफलीकृतं जन्म, छिन्नं च दुश्छेद्यं कर्मबन्धनं निस्तीर्णश्च दुस्तरः संसारसागरः' इत्यादिरूपा, जायते प्रादुर्भवति, अपि च-स कृत्यानां आचार्याणां शरणम् आश्रयो भवति, यथा जगती-पृथिवी, भूतानां-माणिनां शरणम् आधारोऽस्ति तद्वत् ॥ ४५ ॥ मूलम्-पुज्जा जस्स पसीयंति, संबुद्धा पुर्वसंथुया। पसन्ना लाभइस्संति, विउँलं अंडियं सुर्यम् ॥४६॥ छाया-पूज्या यस्य प्रसीदन्ति, संबुद्धाः पूर्वसंस्तुताः। __ प्रसन्ना लाभयिष्यन्ति, विपुलम् आर्थिकं श्रुतम् ॥ ४६॥ टीका-'पुज्जा' इत्यादि संबुद्धाः सम्यग्ज्ञानवन्तः, पूर्वसंस्तुताः पूर्व सम्यक् प्रकारेण स्तुताः, श्रुतदाजायते ) जो साधु अपने कर्तव्य को निभाता है उसका उसे यह फल मिलता है कि उसकी कीर्ति इस लोक में फैल जाती है। लोग कहने लग जाते हैं कि इसने अपने जन्म को सफल बना लिया है। दुश्छेद्य कर्मबन्धन इसने छेद डाला है । दुस्तर संसार सागर इसने पार कर लिया है। (जहा-यथा) जैसे-(जगई-जगती) पृथिवी (भूयाणं सरणं हवइ-भूतानां शरणं भवति)प्राणियों के लिये आधारभूत होती है, इसी तरह वह शिष्य भी (किच्चाण सरणं हवइ-कृत्यानां शरणं भवति) अपने आचार्य महाराज का आधार बन जाता है ॥४५॥ 'पुज्जा' इत्यादि। अन्वयार्थ (संबुद्धा-संबुद्धाः) पहिले-श्रुतदान के पहिले ही विनयलोके कोर्तिः जायते २ साधु पाताना तव्यने निसावे छ मेन तनु मे ३१ મળે છે કે, તેમની કિતી આ લોકમાં ફેલાઈ જાય છે, લોકે કહેવા લાગે છે કે, આણે પિતાના જન્મને સફળ બનાવી લીધો છે. કર્મના બંધનને એણે તેડી नाभ्यां छे, हुस्त२ संसार सा१२ पा२ ४२॥ सीधा छ. जहा-यथा हेभजगई-जगती पृथ्वी भूयाणं सरणं हवइ-भूतामां शरणं भवति प्राणीमान भाट આધારભૂત હોય છે, એજ રીતે તે શિષ્ય પણ પિતાના આચાર્ય મહારાજને माश्रय मानी जय छे. ॥४५॥ पुज्जा-इत्यादिमन्वयार्थ:-संबुद्धा-संबुद्धाः ५ श्रुतहानना ५७i-विनयशुथी ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६० उत्तराध्ययन सूत्रे नात् पूर्वमेव विनयेनानुरञ्जिता इत्यर्थः पूज्याः = आचार्यादयः, यस्य शिष्यस्य प्रसीदन्ति = प्रसन्ना भवन्ति ते प्रसन्नाः सन्तः विपुलं = विस्तीर्णम् आर्थिकम् =अर्थों मोक्षः स एव प्रयोजनमस्येत्यार्थिकं - मोक्षजनकं श्रुतं = श्रुतज्ञानम् - अङ्गोपाङ्गादिभेदयुक्तं लाभयिष्यन्ति प्रापविष्यन्ति ।। पूज्यप्रसादनस्यानन्तरंफलं श्रुतलाभः परंपराफलं तु मुक्तिरिति बोध्यम् । ' संबुद्धा' इति विशेषणेन - श्रुतज्ञानदानयोग्यता सूचिता । " पूर्वसंस्तुताः' इत्यनेन वाचनाकालात् प्राग्, वाचना काले, तदनन्तरं चेति कालत्रये वर्तमानः स्वाभाविकविनय एव प्रसन्नतायाः कारणमस्तीति सूचितम् ॥४६॥ गुण से अनुरंजित हुए ऐसे ( पुज्जा - पूज्याः ) पूज्य आचार्य महाराज आदि (जस्स पसीयंति - यस्य प्रसीदंति) जिस शिष्य के ऊपर प्रसन्न हो जाते हैं । (पसन्ना विउलं अट्ठियं सुयं प्रसन्नाः विपुलं आर्थिकं श्रुतम् ) उसके लिये प्रसन्न हुए वे विस्तीर्ण, एवं मोक्षजनक श्रुत की ( लाभइस्संति - लाभयिष्यन्ति ) प्राप्ति कराने वाले होते हैं । तात्पर्य इसका यह है कि जब पूज्य आचार्य महाराज, शिष्य के ऊपर उसके विनयगुण से प्रसन्न हो जाते हैं तो उस शिष्य को उनकी प्रसन्नता का लाभ यह मिलता है कि वह अंग उपांग आदि भेदविशिष्ट श्रुतज्ञान को प्राप्त कर लेता है । यह उनकी प्रसन्नता का साक्षात् फल है । परंपरा फल यह है कि उसको मुक्तिका लाभ होता है । इस गाथा के " संबुद्धा" इस विशेषण से श्रुतज्ञान के देने की योग्यता सूचित होती है । " पूर्वसंस्तुताः " इस विशेषण से सूत्रकार यह सूचित अनुरंत मनेस सेवा पुज्जा-पूज्याः पून्य मायार्य महाराज यहि जस्सपसीयंति - यस्यप्रसीदति ने शिष्य उपर प्रसन्न थर्ध लय छे प्रसन्ना विउलं अट्ठियं सुर्य - प्रसन्नाः विपुल आर्थिकं श्रुतं मेने भाटे असन्न थया ते विस्तीर्षु अने भोक्ष ४ श्रुतनी लाभइस्संति - लाभइष्यन्ति प्रसि उराववावाजा होय छे. भतस આના એ છે કે, જ્યારે આચાર્ય મહારાજ શિષ્યના વિનયગુણુથી તેના ઉપર પ્રસન્ન થઈ જાય છે ત્યારે એ શિષ્યને એમની પ્રસન્નતાના લાભ એ મળે છે કે, તે અંગ ઉપાંગ આદિ ભેદ વિશિષ્ટ શ્રુતજ્ઞાનના પ્રાપ્ત કરનાર બને છે. એ તેમની પ્રસન્નતાનુ' સાક્ષાત ફળ છે, અને પરંપરા ફળ એ છે કે તેને મુક્તિના લાભ મળે છે. 66 આ ગાથાના सुबुद्धा આ વિશેષણથી શ્રુતજ્ઞાન આપવાની ચેાગ્યતા सुमित थाय छे. पूर्वसंस्तुता या विशेषणुथी सूत्रार मेवु सूचित रेछे हैं, ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર ઃ ૧ " Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रियदर्शिनी टीका गा. अ० १४७ श्रुतज्ञानलाभफलमू संप्रति श्रुतज्ञानलाभस्य फलमाहमूलम्-स पुजलत्थे सुविणीयसंसए, मणोरुई चिट्ठइ कम्मसंपया। तवोसमायारिसमाहिसंवुडे, महज्जुई पंचवयाइं पालिया ॥४७॥ छाया--स पूज्यशास्त्रः सुविनीतसंशयः, मनोरुचिस्तिष्ठति कर्मसंपदा।। ___ तपःसमाचारीसमाधिसंवृतः, महाद्युतिः पञ्च व्रतानि पालयित्वा॥४७॥ टीका--'स पुज्जसत्थे' इत्यादि-- स-शिष्यः, गुरुप्रसादात्माप्तश्रुतज्ञानः अतएवं-पूज्यशास्त्र:-पूज्यं-सर्वजनश्लाध्यं, शास्त्रं यस्य स तथा गुरुमुखादधीतं विनयपूर्वकमधीतं च शास्त्रं संमाननीयं भवतीति भावः । तथा-सुविनीतसंशयः-सुष्ठु विनीतः प्रसादितेन गुरुणा शास्त्रसिद्धान्तार्थपदानेन दूरीकृतः, संशयो यस्य स तथा, कर्मसंपदा-कर्म-क्रिया दशविधसमाचारीकरणरूपा, तस्याः संपन्नता, तया, मनोरुचि:-मनस:-गुरोमनसः, रुचिः-प्रीतिर्यस्मिन् स तथा, गुरुपिय इत्यर्थः, यद्वा-मनसि-गुरोमनसि मनोगते करते हैं कि शिष्य वाचनाकाल से पहिले, तथा वाचना के समय में और वाचना के अनन्तर में विनयगुण से विशिष्ट ही रहे। यह स्वाभाविक विनयगुण ही आचार्य आदि की प्रसन्नता में हेतु माना जाता है॥४६॥ श्रुतज्ञान के लाभ का क्या फल है इसे सूत्रकार कहते हैं-- 'स पुज्जसत्थे' इत्यादि। अन्वयार्थ-(पुज्जसत्थे-पूज्यशास्त्रः) सर्वजनों द्वारा श्लाघ्य है श्रुतज्ञान जिसका ऐसा (स-सः) वह शिष्य कि जिसका (सुविणीयसंसए-सुविनीतसंशयः) प्रसन्न हुए गुरु महाराज द्वारा प्रदत्त शास्त्रसंमत अर्थ के अध्ययन से संशय दूर हो चुका है, तथा (कम्मसंपया-कर्मसंपदा) दशविध समाचारी की आराधना रूप संपत्ति से (मणोरुई-मनोरुचिः) जो गुरु महाराज के मनकी प्रीति का स्थान बन गया है अथवा गुरु महाराज के मनोनुकूल શિષ્ય વાંચનકાળથી પહેલાં તથા વાંચનકાળના સમયમાં તેમજ વાંચનકાળ બાદ વિનયગુણથી વિભૂષિત બની રહે. આ સ્વાભાવિક વિનયગુણ આચાર્ય આદિની प्रसन्नता तु मनाय छे. ॥ ४६॥ श्रुतज्ञानना सानु शु छ ? तेना।२ मताव छ. स पुज्जसत्थे इत्यादि स-क्याथ-पूज्जसत्थे-पूज्यशास्त्रः सन द्वारा नुश्रुतज्ञान साध्य छे सेवा स-सः ते शिष्य नुं सुविणीयसंसए-सुविनीतसंशयः शुरु महारा દ્વારા પ્રદત્ત શાસ્ત્ર સંમત અર્થના અધ્યયનથી જેને સંશય દૂર થયેલ છે, તથા कम्मसंपया-कर्मसंपदा ६शविध सभायारीनी माराधना ३५ सपत्तिथी मनोरईमनोरुचिः रे गुरुमहान भनथी प्रीतिनु स्थान मानी गयेर छ. अथ। ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨૨ उत्तराध्ययन सूत्रे कार्ये रुचिरिच्छा यस्य स मनोरुचिः - गुरुमनोऽनुवर्ती न तु स्वेच्छाचारी तिष्ठति= आस्ते तथा तपःसमाचारीसमाधिसंवृतः - तपसोऽनशनादेर्द्वादशविधस्य समाचारी च समाधिश्व तपःसमाचारीसमाधी, ताभ्यां संवृतः - निरुद्धास्रवः, पञ्च व्रतानि-प्राणातिपातविरमणादीनि पञ्चमहाव्रतानि पालयित्वा = निरतिचारं समाराध्य महाद्युतिः = महती द्युतिर्यस्य स महाद्युतिः- तपस्तेजः समन्वितः, तेजोलेश्यापुलाकलब्ध्यादि सहितो भवतीत्यर्थः ॥ ४७ ॥ कार्य को संपादन करने की जिसकी इच्छा बनी रहती है-गुरु महाराज की इच्छानुसार चलने वाला, स्वेच्छाचारी नहीं । एवं (तवोसमायारिसमाहिसंबुडे - तपः समाचारीसमाधिसंवृतः) अनशन आदि बारह प्रकार के तप के अनुष्ठान से, तथा चित्तकी शुद्धिरूप समाधि से जिसने आस्रव के द्वारको निरुद्ध कर दिया है (पंचवयाई पालिया - पंचव्रतानि पालयित्वा ) पांच प्राणातिपातविरमण आदि महाव्रतों का निरतिचार पालन करके (महज्जुई चिठइ-महाद्युतिः तिष्ठति) तपस्तेज से समन्वित होता हुआ तेजोलेश्या एवं पुलाकलब्धि आदि से सहित होता है। भावार्थ - गुरु महाराज के प्रसाद से जिसने श्रुतज्ञान प्राप्त कर लिया है ऐसा शिष्य शास्त्रसंमत अर्थ में विगतसंशय होकर जनता द्वारा प्रसंशनीय ज्ञानवाला माना जाता है। उसके वचन को जनता निस्संदेह अंगीकार कर लेनेमें निस्संकोचित हो जाती है । उसकी विनयादि પેાતાના ગુરુ મહારાજના મનેાનુકૂળ કાર્ય સંપાદન કરવાની ઇચ્છા જેની મની રહે છે. એવા ગુરુ મહારાજની ઈચ્છાનુસાર ચાલવાવાળા સ્વેચ્છાચારી નહિ' એવા शिष्य } भेषु तवोसमायारिसमाहिस वुडे - तपः समाचारी समाधिसंवृतः अनशन આદિ ખાર પ્રકારનાતપના અનુષ્ઠાનથી તથા ચિત્તની શુદ્ધિરૂપ સમાધીથી જેણે आश्रवना द्वारने नि३द्ध उरी हीघां छे, पंचवयाई पालिया - पंचत्रतानि पालयित्वा पं प्रशातियात विरभणु आदि भडावृतीने निरतियार पासन उरी महज्जुई चिठ्ठइमहाद्युतिः तिष्ठति तपस्तेन्थी समन्वित थर्ध तेले तेश्या मेवं युसाउसधि આદિથી સહિત અને છે. ભાવાર્થ-ગુરુ મહારાજના પ્રસાદથી શ્રુતજ્ઞાન જેણે પ્રાપ્ત કરી લીધુ છે એવા શિષ્ય શાસ્ત્રીય સમત અર્થમાં વિગતસંશય બનીને જનતા દ્વારા પ્રશ સનીય જ્ઞાનવાળા માનવામાં આવે છે. એવા વચનને જનતા નિઃસ‰હ અંગીકાર કરવામાં સ’કેચરહિત ખની જાય છે. એની ક્રિયા-સૌંપત્તિથી ગુરુ મહારાજ ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર ઃ ૧ Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२ प्रियदर्शिनी टीका अ० १ गा. ४८ श्रुतज्ञानलामे मोक्षप्राप्तिर्देवत्वप्राप्तिर्वा २६३ मूलम् - से देवगंधव्वमणुस्सइए, चन्तु देह मलैपंकपूइयं । सिद्धे वा हवइ सार्सए, देवे वां अप्परंए महिडिढेए-त्ति बेमिं ॥४८॥ [ स सिद्धए वा हवए य सासए, सुरेय वा अप्परए महिटि ए - तिबेमि ] || उत्तरज्झयणस्स पढमज्झयणं समत्तं ॥ छाया - स देव गन्धर्वमनुष्यपूजितः त्यक्त्वा देहं मलपङ्कपूतिकम् । " सिद्धो वा भवति शाश्वतः, देवो वा अल्परजा महर्द्धिक इति ब्रवीमि ||४८ || [ स सिद्धो वा भवति च शाश्वतः, सुरश्र वा अल्परजा महर्द्धिकः - इति ब्रवीमि ] टीका--' स देवगंधव्व० ' इत्यादि -- सः = पूर्वोक्तलक्षणविशिष्टो विनयवान् शिष्यः इह लोके देवगन्धर्वमनुष्यपूजितः = देवैः = वैमानिक ज्योतिष्कैः, गन्धर्वैः - गन्धर्वनिकायो - पलक्षितैर्व्यन्तरभवनपतिभिः, मनुष्यैः = चक्रवर्त्यादिभिः पूजितः संमानितो भवति । यथा मलपङ्कपूतिकं - मलं विण्मूत्रादिकं तदेव पङ्कः कर्दमस्तेन पूतिकं = दुर्गन्धियुक्तंदेहम्-औदारिकं क्रियासंपत्ति से गुरु महाराज उस पर सदा प्रसन्न रहा करते हैं । द्वादश प्रकार की तपस्या से वह कर्मों के आस्रव को रोकने वाला हो जाता है। पांच महाव्रतों की आराधना से उसका आत्मिक बल विशिष्ट होकर उसको तपस्तेज की लब्धि से संपन्न बना देता है ॥ ४७ ॥ 'सदेव' इत्यादि । अन्वयार्थ - (स-सः) पूर्वोक्त लक्षणों से विशिष्ट विनयशाली शिष्य (देवगंधव्वमणुस्स पूइए - देवगंधर्वमनुष्य पूजितः) देव वैमानिक ज्योतिष्क देवों से गंधर्व-गंधर्वनिकाय से उपलक्षित व्यन्तर देवों से, एवं भवनपतिदेवों से, तथा मनुष्यों - चक्रवर्ती आदि से पूजित होता है। तथा (मलपंએના પર સદા પ્રસન્ન રહ્યા કરે છે માર પ્રકારની તપસ્યાથી તે કમના આશ્રવને રાકનાર બની જાય છે. અને પાંચ મહાવ્રતાની આરાધનાથી એનુ આત્મિક અલ વિશિષ્ટ અને છે. અને આથી તેને તપસ્તેજની લબ્ધિ સંપન્ન मनावे छे. ॥ ४७ ॥ स देव त्याहि अन्वयार्थ —ससः पूर्वोक्त लक्षाशुनी विशिष्ट विनयशाणी शिष्य देव गंधव्वमस्सइए - देव गंधर्व मनुष्य पूजितः देव- वैभानि ज्योतिष्ठ हेवेो, गांधर्व-गंधर्व નિકાયથી ઉપલક્ષિત વ્યન્તર દેવ અતે ભવનપતિ દેવા તથા મનુષ્યા ચક્રવતી माहिथी चूलत मने छे तथा मलपंक पूइयं देहं चइन्तु - मलपंकपूतिकं देहं त्यक्त्वा 66 ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર ઃ ૧ Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६४ उत्तराध्ययन सूत्रे मनुष्यशरीरं, त्यक्त्वा, शाश्वतः - सर्व कालावस्थायी जन्ममरणरहितः सिद्धो भवति । वा = अथवा, सावशेषकर्मा तु अल्परजाः = अल्पकर्मा महर्द्धिकः = महती - दिव्या ऋद्धि:= विमानादिसम्पत् उपलक्षणेन दिव्यानि द्युतियशोवर्णबलवीर्यादीनि च यस्य स महर्द्धिकः, तत्र द्युतिः- शरीराभरणकान्तिः, यशः कीर्तिः वर्णः शुक्कादिः, वलंशारीरिकपराक्रमः, वीर्यम्=आत्मबलम्, आदिपदेन - इतोऽन्यदपि संग्राह्यम्, एभिः संपन्नः, देवो भवति । कपूइयं देहं चहत्तु-मलपंकपूतिकं देहं त्यक्त्वा ) शुक्रशोणित से जन्य इस औदारिक शरीर का परित्याग कर (सासए सिद्धे हवइ - शाश्वतः सिद्धो वा भवति) अनंत काल तक सदा सिद्धि स्थान में रहने वाला सिद्ध परमात्मा हो जाता है। (वा) अथवा यदि वह सिद्ध नहीं बने तो ( अप्पर एमहिड्दिए देवे वा हवइ-अल्परजाः महर्द्धिकः देवो वा भवति) अल्पकर्मा महर्द्धिक देव हो जाता है। भावार्थ - पूर्वोक्तलक्षणविशिष्ट विनीत शिष्य देवादिक द्वारा पूज्य होता है, एवं इस अपवित्र औदारिक शरीर का परित्याग कर सिद्ध हो जाता है । यदि कर्म शेष रह जाय तो वह महाऋद्धिशाली देव होता है। यहां ऋद्धिसे घुनि, यश, वर्ण, बल, वीर्य इन सबका ग्रहण हुवा है । विमान आदि संपत्ति का नाम ऋद्धि है । शरीर एवं आभरण की कान्ति का नाम द्युति है । कीर्त्ति का नाम यश है । शरीर का जो शुक्ल आदि वर्ण है - उसका नाम वर्ण है । शारीरिक पराक्रम का नाम बल एवं आत्मजन्य शक्ति का नाम वीर्य है । शु शोषित भन्य मा मोहारि शरीरनो परित्याग उरी सासए सिद्धे हवइशाश्वतः सिद्धो भवति मनन्तक्षण सुधी सट्टा सिद्धि स्थानमा रहेवावाजा सिद्ध પરમાત્મા બની જાય છે. ચા અથવા જો તે સિદ્ધ ન અને તા, અપકર્મો મહ. હિઁક દેવ મની જાય છે. ભાવાથ પૂર્વોક્ત લક્ષણવિશિષ્ટ વિનીત શિષ્ય દેવાર્દિક દ્વારા પૂજ્ય અને છે. અને આ અપવિત્ર ઔદ્યારિક શરીરને પરિત્યાગ કરી કાંન્તા સિદ્ધ ખની જાય છે. જો કમ શેષ રહી જાય તે તે મહાઋદ્ધિ શાળી દેવ મને છે. ઋદ્ધિથી धुति, यश, वर्षा, जज, वीर्य, या अधातु गाथामां श्रणु उरेल छे, विमान આદિ સંપત્તિનું નામ ઋદ્ધિ છે. શરીર અને આભરણની કાન્તિનું નામ ઘુતિ છે, કીર્તિનુ નામ યશ છે. શરીરને જે શુકલ આદિ વણુ છે-દ્રવ્ય લેશ્યા છે-એનુ નામ વર્ણ છે. શારીરિક પ્રરાક્રમનુ નામ બળ છે. અને આત્મજન્ય ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર ઃ ૧ Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रियदर्शिनी टीका. अ० १ गा. ४८ प्रथमाध्ययनसमाप्तिः समान २६५ इति शब्दः समाप्तिबोधकः, अथवा 'इति' एवम्-अमुना प्रकारेण एतद् विनयश्रुताख्यमध्ययनं ब्रवीमि यथा भगवता कथितं तथा कथयामि न तु स्वबुद्धया परिकल्प्य किंचिद् ब्रवीमीत्यर्थः ॥४८॥ इति श्रीविश्वविख्यात-जगद्वल्लभ-प्रसिद्धवाचक-पञ्चदशभाषाकलितललितकलापालापक-प्रवि-शुद्धगद्यपद्यनैकग्रन्थनिर्मायकवादिमानमर्दक-श्रीशाहूछत्रपति-कोल्हापुरराजमदत्त" जैनशास्त्राचार्य "-पदभूषित-कोल्हापुर-राजगुरुबालब्रह्मचारि-जैनाचार्य-जैनधर्मदिवाकर-पूज्यश्रीघासीलालतिविरचितायां श्रीमदुत्तराध्ययनसूत्रस्य प्रियदर्शिन्याख्यायां व्याख्यायां विनयसमाधिनामकं प्रथममध्ययनं संपूर्णम् ॥१॥ --000('त्तिवेमि' इति ब्रवीमि) यह पद अध्ययनकी समाप्ति का सूचक है, इसका यह अर्थ है कि-श्री सुधर्मास्वामी जम्बूस्वामी से कहते हैं कि हे जम्बू ! यह विनयश्रुत नाम का अध्ययन जैसा भगवान से सुना है उसी तरह का मैने कहा है। इस में अपनी बुद्धि से कल्पित कुछ नहीं कहा गया है ॥४८॥ विनयश्रुतनामक प्रथम अध्ययन सम्पूर्ण ॥१॥ शतिनु नाम पीय छे. “त्तिबेमि" 'इति ब्रवीमि' मा ५४ मध्ययननी સમાપ્તિનું સૂચક છે તેને અર્થ એ છે કે-શ્રી સુધમાં સ્વામી જબૂસ્વામીને કહે છે કે હે જંબૂ! આ વિનયકૃત નામનું અધ્યયન જેવું ભગવાનથી સાંભળ્યું છે તેજ પ્રકારે મેં કહ્યું છે. આમાં પોતાની બુદ્ધિથી કલ્પિત કાંઈ નથી કહ્યું. ૪૮ છે આ વિનયકૃત નામનું પ્રથમ અધ્યયન સંપૂર્ણ છે ૧છે उ०३४ ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीयाध्ययनम् । विनयश्रुताख्यं प्रथममध्ययनं वर्णितम्, इदानीं द्वितीयमध्ययनं प्रारभ्यते । अस्य चायमभिसम्बन्धः - इहानन्तराध्ययने विनयः सविस्तरं वर्णितः, स चानुकूलमतिकूलपरी पहजयनशीलैरेव कर्त्तुं शक्यते इति द्वितीयं परीपद्दाख्यमध्ययनं प्रारभ्यतेयद्वा - विनयाराधकाः प्रायः परीषहभाजो भवन्त्येवेति द्वितीयं परीषहाख्यमध्ययनं प्रारभ्यते, तस्येदमाद्यं सूत्रम् - मूलम् सुयं मे आउ ! तेणं भगवया एवमक्खायं - इह खलु बावीसं परीसहा समणेणं भगवया महावीरणं कासवेणं पवेइया, जे भिक्खू सोच्चा नच्चा जिच्चा अभिभूय भिक्खायरियाए परिव्वयंतो पुट्ठो नो विनिहन्नेज्जा ॥१॥ छाया - श्रुतं मे आयुष्मन् ! तेन भगवता एवमाख्यातम् - इह खलु द्वाविंशतिः परीषाहाः श्रमणेन भगवता महावीरेण काश्यपेन प्रवेदिताः, यान् भिक्षुः श्रुत्वा ज्ञात्वा जित्वा अभिभूय भिक्षाचर्यायां परिव्रजन स्पृष्टो नो विनिहन्येत ॥ १ ॥ द्वितीय अध्ययन | विनयश्रुत नाम के प्रथम अध्ययन का वर्णन हुवा, अब सूत्रकार द्वितीय अध्ययन का वर्णन करते हैं । प्रथम अध्ययन के साथ इसका संबंध इस प्रकार है-प्रथम अध्ययन में विस्तारपूर्वक विनयधर्म का वर्णन करने में आया है । उस विनयधर्म की आराधना परीषहों को जीतने वाला ही कर सकता है, और विनयशील को प्रायः परीषह उत्पन्न होते ही हैं इसलिए अब परीषहाध्ययन कहते हैं जिसका यह प्रथमसूत्र है - " सुर्यमे " इत्यादि । બીજું અધ્યયન વિનય શ્રુત નામના પ્રથમ અધ્યયનનું વર્ણન પુરૂ' થયું. હવે સૂત્રકાર ખીજા અધ્યયનનું વર્ણન કરે છે. પ્રથમ અધ્યયનની સાથે એને સંબંધ આ પ્રકારના છે. પ્રથમ અધ્યયનમાં વિસ્તાર પૂર્વક વિનય ધર્મનું વર્ણન કરવામાં આવેલ છે. તે વિનય ધર્મની આરાધના પરિષહને જીતવાવાળા જ કરી શકે છે અને વિનયશીલને પરિષહ ઘણે ભાગે ઉત્પન્ન થાય જ છે, આ માટે હવે રિષહુાધ્યયન ’” કહેવામાં આવે છે જેનું આ પ્રથમ સૂત્ર છે સુર્યમ્ ઈત્યાદિ. ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર ઃ ૧ Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६७ प्रियदर्शिनी टीका अ० २ सू० १ द्वाविंशतिपरीषहप्रस्तावः टीका-श्रीसुधर्मा स्वामी श्रीजम्बूस्वामिनं प्रति कथयति-'सुयं मे आउसं!' इत्यादि । हे आयुष्मन् ! भगवता-ज्ञानादियुक्तेन, तेन-तीर्थकरेण, एवम् वक्ष्यमाणप्रकारेण, यत् आख्यातं सकलजीवभाषापरिणामिन्या भाषया कथितम् , उक्तञ्च देवा दैवीं नरा नारी, शबराश्चापि शाबरीम् । तिर्यञ्चोऽपि हि तैरश्ची, मेनिरे भगवद्गिरम् ॥ १॥ तत् , मे मया, श्रुतम् । भगवत्कथितमेवार्थं तवाग्रे वर्णयामीति भावः । अस्य सविस्तरं व्याख्यानं जिज्ञासुभिराचाराङ्गसूत्रस्य मत्कृताचारचिन्तामणिटीकायां द्रष्टव्यम् । यद्वा-'आउसंतेणं' इत्येकं पदं, 'मया' इत्यस्य विशेषणम् । श्री सुधर्मा स्वामी श्री जंबूस्वामी से कहते हैं-(आउसं-आयुष्मन्) कि हे आयुष्मन् ! जम्बू ! (तेणं भगवया एवमक्खायं-तेन भगवता एवं आख्यातम् ) ज्ञानादि गुणों से युक्त उन तीर्थकर भगवान् श्री महावीर स्वामी ने वक्ष्यमाण प्रकार से कहा है वह ( मे सुयं-मया श्रुतम् ) मैंने सुना है वही मैं कहता हूं। प्रभु की भाषा सर्वभाषामय होती है, ___ कहा भी है-" देवा दैवीं" इत्यादि। प्रमु की वाणी को देव, मनुष्य, आर्य, अनार्य, तिर्यञ्च, सभी अपनी अपनी भाषा में समझते हैं। इस सूत्र का विस्तृत विवेचन आचारांग सूत्र की आचारचिन्तामणि टीका में किया गया है, इसलिए जिज्ञासु को वहां से देख लेना चाहिये। "आउसं तेणं" इस पद की संस्कृत छाया“ आयुष्मन् तेन" ऐसी न श्री सुधास्वामी, श्री स्वामीन डे छे , आउसं-आयुष्मन् । मायुष्मन् म्यू! तेणं भगवया एवमक्खायं तेन भगवता एवं आख्यातम् शानाहि ગુણોથી યુક્ત એવા તીર્થકર ભગવાન શ્રી મહાવીર સ્વામીએ વક્ષ્યમાણ પ્રકા थी छे मे सुयं-मया श्रुतम्-ते में सासन्युछे से छु. प्रसुनी भाषा समापामय डाय छे. उधु ५५ छ–देवा देवी त्यादि. પ્રભુની વાણુને દેવ, મનુષ્ય, આર્ય, અનાર્ય, તિર્યંચ, સઘળા પિત પિતાની ભાષામાં સમજે છે. આ સૂત્રનું વિસ્તૃત વિવેચન આચારાંગસૂત્રની આચારચિંતામણી ટીકામાં ४२४ छ. माटे सासुम्मे त्यांथी न वे नये. “ आउसं तेणं" से पहनी सङ्कत छाया " आयुष्मन् तेन" की नथतi आउसंतेणं" "आवसता" ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६८ उत्तराध्ययनसूत्रे आवसता-शास्त्रमर्यादानुसारेण वसता गुरुकुलवासे, इत्यर्थः । भगवदुक्तमर्थ बोधयितुं सुधर्मा स्वामी पुनः प्राह-' इह खलु' इत्यादि । इह खलु-जिनशासने एव, न तु शाक्यादिशासने, द्वाविंशतिः द्वाविंशतिसंख्यकाः, परीषहामार्गाच्यवननिर्जरार्थ तीर्थकरगणधरादिभिर्य परिसह्यन्ते ते परीषहाः। श्रमणेन-श्राम्यतीति श्रमणः-तपस्वी, तेन । उक्तञ्च यः समः सर्वभूतेषु, उसेषु स्थावरेषु च।। तपश्चरति श्रद्धात्मा, श्रमणोऽसौ प्रकीर्तितः ॥१॥ होकर “आउसंतेणं" 'आवसता' यह तृतीयान्तविभक्तिवाली भी हो सकती है। इसका अर्थ-"शास्त्रमर्यादा के अनुसार गुरुकुल में रहने वाले" ऐसा होता है। ___भगवान् ने क्या कहा है सो कहते हैं-(इह खलु ) इस जिनशासन में निश्चय से (बावीसं परीसहा) बाईस परीषह (समणेणं भगवया महावीरेणं कासवेणं पवेड्या) श्रमण-काश्यपगोत्री श्रा भगवान् वर्धमान स्वामी ने केवल ज्ञानद्वारा साक्षात् करके कहे हैं । मार्ग से पतन न हो सके तथा कमों की निर्जरा हो इस हेतु से तीर्थकर एवं गणधर आदि के द्वारा जो सहन किये जाते हैं उनका नाम परीषह है, और वे बाईस हैं। इनके सहन करने का उपदेश केवल जिनशासन में ही है अन्यत्र नहीं है । श्रमण के लक्षण इस प्रकार हैं "यः समः सर्वभूतेषु, त्रसेषु स्थावरेषु च । ___ तपश्चरति शुद्धात्मा श्रमणोऽसौ प्रकीर्तितः ॥ એ પ્રમાણે તૃતીયાન્ત વિભક્તિ પણ થઈ શકે છે. એને અર્થ શાસ્ત્રમર્યાદા અનુસાર ગુરુકુલમાં રહેવાવાળા એ મુજબ થાય છે. सापाने ४ छ ते ४ामां आवे छे-" इह खलु" त्याहि. २॥ शासनमा निश्चयथा बावीसं परीसहा मापीस २२ परिष समणेणं भगवया महावीरेणं कासवेणं पवेइया श्रम-श्यप गोत्री श्री सपान व भान स्वामी કેવલજ્ઞાન દ્વારા સાક્ષાત કરીને કહેલ છે. માર્ગથી પતન ન થાય તથા કર્મોની નિર્જરા બને તેવા હેતુથી તીર્થકર તેમજ ગણધર આદિ દ્વારા જે સહન કરવામાં આવે છે તેનું નામ પરીષહ છે. અને તે રર છે. તેને સહન કરવાને ઉપદેશકેવળ જીન શાસનમાં જ છે. અન્યત્ર નથી. શ્રમણુનું લક્ષણ આ પ્રકારનું છે– यः समः सर्वभूतेषु, त्रसेषु स्थावरेषु च तपश्चरति शुद्धात्मा श्रमणोऽसौ प्रकीर्तितः ॥ ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रियदर्शिनी टीका अ० २ सू० १ द्वाविंशतिपरीषहप्रस्तावः २६९ काश्यपेन-काश्यपगोत्रेण, भगवता महावीरेण श्रीवर्धमानस्वामिना प्रवेदिताः= केवलालोकेन स्वयं साक्षात्कृत्य प्रतिबोधिता इत्यर्थः।। यान्=परीषहान् , भिक्षुः साधुः श्रुत्वा सविनय सादरं कर्णगोचरीकृत्य, ज्ञात्वा परीषहैः पराभूतस्य चतुर्विधसंसारपरिभ्रमणं, परीषहविजयिनस्तु मोक्षमार्गादपच्युतिः कर्मनिर्जरा च भवति' इत्यवबुध्य, जित्वा-वीर्योल्लासेन विजयं कृत्वा, अभिभूय धैर्येण तत्सामर्थ्यमुपहत्य भिक्षाचर्यायां-भिक्षाटने, परिव्रजन् विचरन् , जो समस्त जीवों में-त्रस एवं स्थावरों में समानदृष्टि रखनेवाले होते हैं, एवं जो घोर तपस्या करते हैं उनका नाम श्रमण है। इन परीषहों को (जे भिक्खू सोच्चा नच्चा जिच्चा अभिभूय भिक्खायरियाए परिव्वयंतो पुट्ठो नोविनिहन्नेज्जा) जो भिक्षु 'सोचा' गुरु के समीप सुनकर, तथा 'नच्चा' "जो भिक्षु इन परीषहों से पराभूत हो जाता है वह चतुर्विध संसार के चक्कर से बच नहीं सकता है तथा जो इन्हें जीत लेता है उसको मोक्षमार्ग की प्राप्ति होती है और उसके कर्मों की निर्जरा भी होती है" ऐसा जानकर, तथा 'जिचा' अपने वीर्योल्लास से उनको परिचित करके, तथा 'अभिभूय' धैर्यता से उनके सामर्थ्य को नष्ट करके भिक्षाचर्या निमित्त भ्रमण करता हुआ कदाचित् परीषहों से आक्रान्त होता है तो वह ज्ञान दर्शन चारीत्ररूप मोक्षमार्ग से प्रच्युत જે સમસ્ત જીવનમાં ત્રસ અને સ્થાવરમાં-સમાન દષ્ટિ રાખવાવાળા હોય छ. अनेरे घोर तपस्या ४२ छ मेनु नाम श्रम छ. जे भिक्खू सोच्चा नच्चा जिच्चा अभिभूय भिक्खायरियाए परिव्वयंतो पुट्ठो नो विनिहन्नेज्जा सेवा परिषडान लि सोच्चा शुरुनी पासे सामनाने तथा नच्चा “२ मि એ પરિષહેથી પરાભૂત બને છે તે ચતુર્વિધ સંસારના ચક્રથી બચી શકતા નથી. તથા જે એને જીતી લે છે તેને મોક્ષ માર્ગની પ્રાપ્તિ થાય છે. અને તેના કર્મોની નિર્જરા પણ થાય છે. એવું જાણીને તથા ના પિતાના વિલાસથી તેને પરિચય કરીને, તથા ગરિમૂવ હૈયતાથી એના સામર્થ્યને નષ્ટ કરીને, ભિક્ષાચાર્યા નિમિત્ત ભ્રમણ કરતાં કરતાં કદાચ પરિષહેથી આક્રાંત થાય છે તે ते शान ४शन यात्रि२१५ मोक्ष माथी पाछन २२ “भिक्खायरियाए" मा ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७० उत्तराध्ययनसूत्रे " कदाचित् स्पृष्टः = परीषहैराक्रान्तः सन् न विनिहन्येत - मोक्षमार्गात् प्रच्युतो न भवेदित्यर्थः । 'भिक्खायरियाए ' इत्यनेन भिक्षाटने प्रायः परीषाहाः प्रादुर्भवन्ति इति सूचितम् ॥ नहीं होवे । “भिक्खायरियाए "इससे यह प्रकट होता है कि भिक्षु को भिक्षाटन करते समय प्रायः परीषह उत्पन्न होते हैं । भावार्थ - इस सूत्र द्वारा सुधर्मा स्वामी जम्बूस्वामी को समझाते हुए यह कह रहे हैं कि हे जम्बू ! मैं इस अध्ययय में २२परीषहों के संबंध में जो कुछ भी विवेचन करूँगा वह सब जैसा मैंने प्रभु वर्धमानस्वामी के मुख से सुना है वैसा ही करूँगा । भगवान् ने बाईस परीषह फरमाये हैं जो भिक्षु इन परीषहों से स्वयं पराजित न होकर इनको जीतता रहता है वह मोक्षमार्ग से कभी भी विचलित नहीं होता है। भिक्षाचर्या करते समय परीषहों के आने की अर्थात् उत्पन्न होने की प्रायः अधिक संभावना रहती है, अतः साधु को उनसे विचलित नहीं होना चाहिये । परीषह साधु की कसौटी है । इनके द्वारा कसा जाने पर जो साधु मोक्षमार्ग से चलायमान नहीं होता है, एवं वीर्योल्लास प्रकट कर इनका साम्हना करता है वह कर्मों की निर्जरा करता हुआ अपना कल्याण करता है ॥ પદ્મથી પ્રગટ થાય છે કે, ભિક્ષુને ભિક્ષાટન કરતી વખતે પ્રાયઃ પરિષહે ઉત્પન્ન થાય છે. ભાવા—આ સૂત્ર દ્વારા સુધર્મા સ્વામી જમ્મૂસ્વામીને એ સમજાવીને કહે છે કે, હે જમ્મૂ! હું આ અધ્યયનમાં ૨૨ પરિષદ્ધનાં સંબંધમાં જે કાંઈ પણ વિવેચન કરીશ. તે મેં પ્રભુ વર્ધમાનસ્વામીથી જે રીતે સાંભળ્યું છે તે કરીશ. ભગવાને ખાવીસ ૨૨ પરિષહ ફરમાવ્યા છે. જે ભિક્ષુ આ પરિષહાથી સ્વયં પરાજીત ન મની તેને જીતે છે તે મેક્ષ માર્ગથી કદી પણ વિચિલત થતા નથી. ભિક્ષાચર્યાં કરતી વખતે પરિષહેાના આવવાની અર્થાત્ ઉત્પન્ન થવાની आय: અધિક સંભાવના રહે છે. આથી સાધુએ તેનાથી વિચલિત ન બનવું જોઈ એ. પરિષદ્ધ સાધુની કસેાટી છે તેના દ્વારા કસાયા પછી સાધુ મેાક્ષમાથી ચલાયમાન નથી થતા તેમજ વિયે^લ્લાસ પ્રગટ કરી એના સામના કરે છે તે કર્મીની નિર્જરા કરીને પેાતાનું કલ્યાણ કરે છે. ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર ઃ ૧ Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रियदर्शिनी टीका. अ० २ सू० २-३ द्वाविंशतिः परीषहाः २७१ एवं श्रीसुधर्मस्वामिना प्रोक्ते सति श्री जम्बूस्वामी पृच्छति मलम्-कयरे ते खलु बावीसं परीसहा समणेणं भगवया महावीरेणं कासवेणं पवेइया जे भिक्खू सोच्चा नच्चा जिच्चा अभिभूय भिक्खायरियाए परिव्वयंतो पुट्ठो नोविनिहन्नेज्जा? ॥२॥ छाया--कतरे ते खलु द्वाविंशतिः परीषहाः श्रमणेन भगवता महावीरेण काश्यपेन प्रवेदिताः । यान् भिक्षुः श्रुत्वा ज्ञात्वा जित्वा अभिभूय भिक्षाचर्यायां परिव्रजन् स्पृष्टो न विनिहन्येत ? ॥२॥ टीका-'कयरे ते' इत्यादि । कतरे-किनामकास्ते अनन्तरसूत्रोक्ताः खलु द्वाविंशतिः परीषहाः, अत्र खलु शब्दो वाक्यालंकारे, शेषपदानां व्याख्या पूर्ववत् ॥ तदा श्रीसुधर्मा स्वामी श्रीजम्बूस्वामिनं प्रति प्राह मलम-इमे ते खलु बावीसं परीसहा समणेणं भगवया इस तरह श्री सुधर्मास्वामि का कहने पर श्री जम्बू स्वामी पूछने लगे-'कयरे' इत्यादि। (कासवेणं) काश्यपगोत्री (समणेणं भगवया महावीरेणं) श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने जिन २२ परिषहों का (पवेइया-प्रवेदिता) वर्णन किया है और जिनके सुनने आदि से भिक्षाचर्या में घूमता हुवा मुनि उन परिषहों से स्पृष्ट होने पर भी संयममार्ग से चलित नहीं होता है उन परिषहों के नाम क्या २ हैं ?। सुधर्मास्वामी जंबूस्वामी के २२ परिषहों के नामों को जानने विषयक प्रश्न का उत्तर देने के लिये कह रहे हैं कि हे जंबू ! सुनो આ પ્રમાણે શ્રી સુધર્માસ્વામીએ કહ્યું ત્યારે જમ્બુવામી ફરી પૂછવા લાગ્યા कयरे त्याहि. कासवेणं ४॥श्यपगोत्री "समणेणं भगवया महावीरेणं"श्रम भगवान महावीर स्वाभीमे २२ परिषडानु पवेइया-प्रवेदिता १ ४२८ छे. मने ना Ainળવા આદિથી ભિક્ષાચર્યામાં ફરી રહેલ મુનિ એ પરિષહેથી પૃષ્ટ થયા પછી પણ સંયમ માર્ગથી ચલિત બનતા નથી. એ પરિષહોનાં નામ કયાં કયાં છે? સુધર્માસ્વામી જબૂસ્વામીને રર પરિષહેના નામને જાણવા અંગેના प्रश्नको उत्तर मातi & छ है, मू! सालणे “ इमे" त्या ! ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨૭૨ उत्तराध्ययनसूत्रे महावीरेणं कासवेणं पवेइया, जे भिक्खू सोच्चा नच्चा जिच्चा अभिभूय भिक्खायरियाए परिव्ययंतो पुट्ठो नो विनिहन्नेजा ॥३॥ छाया--इमे ते खलु द्वाविंशतिः परीषहाः श्रमणेन भगवता महावीरेण काश्यपेन प्रवेदिताः, यान् भिक्षुः श्रुत्वा ज्ञात्वा जित्वा अभिभूय भिक्षाचर्यायां परिव्रजन स्पृष्टो नो विनिहन्येत ॥३॥ 'इमे ते ' इत्यादि। ये द्वाविंशतिः परीषहाः श्रमणेन भगवता महावीरेण काश्यपेन प्रवेदितास्ते खलु इमे अग्रे वक्ष्यमाणाः सन्ति, अनन्तरमेव वक्ष्यमाणत्वात् हृदि वर्तमानाः परीपहाः 'इदं' शब्देन निर्दिष्टाः। यान् भिक्षुः श्रुत्वा ज्ञात्वेत्यादि पदानां व्याख्या पूर्ववत्।। अथ तानेव नामनिर्देशपूर्वकं दर्शयति मूलम्-तं जहा-दिगिंछापरीसहे १, पिवासापरिसहे २, सीयपरीसहे ३, उसिणपरीसहे ४, दसमसयपरीसहे ५; अचेलपरीसहे ६, असइपरीसहे ७, इत्थीपरीसहे ८, चरियापरीसहे ९, निसीहियापरीसहे १०, सेज्जापरीसहे ११, अक्कोसपरीसहे १२, वहपरीसहे १३, जायणापरीसहे १४, अलाभपरीसहे १५, रोगपरीसहे १६, तणफासपरीसहे १७, जल्लपरीसिहे १८, सक्कारपुरकारपरीसहे १९, पन्नापरीसहे २०, अन्नाणपरीसहे २१, दसणपरीसहे २२ ॥४॥ ___ छाया-तद् यथा-क्षुधापरीषहः १, पिपासापरीषहः २, शीतपरीषहः ३, उष्णपरीषहः ४, दंशमशकपरीषहः ५, अचलपरीषहः ६, अरतिपरीषहः ७, स्त्रीपरीषहः ८, चर्यापरीषहः ९, नैषेधिकीपरीषहः १०, शय्यापरीषहः ११, आक्रोशपरीषदः १२, वधपरीषहः १३, याचनापरीषहः १४, अलाभपरीषहः १५, रोगपरीषहः१६, तृणस्पर्शपरीषदः१७, जल्लपरीषहः१८, सत्कारपुरस्कारपरीषहः१९, प्रज्ञापरीषहः २०, अज्ञानपरीषहः २१, दर्शनपरीषहः २२ ॥४॥ ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रियदर्शिनी टीका. अ० २ सू० ४ द्वाविंशतिपरीषहनामानि २७३ टीका--तद् यथा- क्षुधापरीषहः दिगिछाशब्दो देशीयः क्षुधायें वर्तते । सैव परीषहः परिषद्यते इति परीषदः ॥ १ ॥ पिपासापरीषहः - पिपासा = तृषा, सैव परीषहः, एवं सर्वत्र परीषदार्थेन समानाधिकरण्यं बोध्यम् || २ || शीतपरीषहः - शीतं = हेमन्त शिशिरयोर्जातः शीतस्पर्शः, तदेव परीषदः शीतपरीषहः ॥ ३॥ उष्णपरीषहः- उष्णं - ग्रीष्मवर्षासु जातस्तापरूप उष्णस्पर्शः, तदेव परीषहः॥४॥ दंशमशकपरीयह: - दंशमशकाः प्रसिद्धाः, त एव परीषदः दंशमशकपरीपहः, दंशमशकाः परीपहत्ववन्त इत्यर्थः तत्र परीषहत्वगतैकत्वविवक्षया परीपह इत्येकवचनम् ॥ ५ ॥ अचेल = चैलाभावः जिनकल्पिकविशेषणाम् । स्थविरकल्पिकानां तु जीर्ण खण्डितमल्पमूल्यं प्रमाणोपेतं च चैलं सदप्यचैलमेव । तदेव “इमे” – इत्यादि । श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने जिन २२ परीषहों को सहन करने के लिए भिक्षुको आदेश दिया है वे २२ परीषह ये हैं 1 दिगंछाशब्द देशीय शब्द है, इसका अर्थ क्षुधा है। दिगिंछारूप परीषह का नाम दिगिंच्छापरीषह है | १ | पिपासा - शब्द का अर्थ तृषा है। इसरूप जो परीषह है वह पिपासापरीवह है | २ | हेमन्त एवं शिशिर ऋतु में उत्पन्न शीतस्पर्श का नाम शीत है। इसरूप जो परीषह है उसका नाम शीतपरीषह है । ३ । ग्रीष्म ऋतु एवं वर्षा ऋतु में उत्पन्न हुए ताप का नाम उष्णस्पर्श है। इसरूप परीषह का नाम उष्णपरीषह है | ४ | डांस, मच्छर, बिच्छू, चिउंटी आदि का नाम दंशमशक है। इनके काटने की वेदनारूप जो परीषह है वह दंशमशक परीषह है |५| वस्त्रका सर्वथा अभाव अचेल है, यह जिनकल्पियों को होता है। स्थविरकल्पियों के जीर्ण, खंडित, अल्पमूल्यवाले एवं प्रमाणोपेत वस्त्र होते हैं तो भी उनको શ્રમણ ભગવાન મહાવીર સ્વામીએ જે ૨૨ પરીષહાને સહન કરવાના ભિક્ષુને આદેશ આપેલ છે તે ૨૨ પરિષહ આ છે. દિર્નિચ્છારૂપ પરિષહનું નામ દિગિચ્છાપરીષહ છે (૧) “ દિગિ ́ચ્છા, એટલે ભૂખ. પિપાસા શબ્દના અર્થ તૃષા છે, આ રૂપ જે પરીષહું છે તે પિપાસાપરીષહ છે (૨) હેમ'ત અને શિશિર ઋતુમાં ઉત્પન્ન થતાં ઠંડા સ્પર્શનું નામ શીતપરીષહ છે (૩) ગ્રીષ્મ તથા વર્ષા ઋતુમાં ઉત્પન્ન થતા તાપ રૂપ ઉષ્ણુ સ્પર્શ નુ નામ उष्णुपरीषड् छे (४) डांस, भच्छर, वींछी, भाउड, माहिनु नाम : शमश छे, तेना કરડવાની વેદના રૂપ પરીષહ તે દશમશકપરીષહ છે. (૫) વસ્ત્રના સદા અભાવ તેઅચેલ છે એ જીનકલ્પિએને થાય છે. સ્થવિરકલ્પિએના જીણ, ખ ંડિત અલ્પ મૂલ્યવાળાં એવાં પ્રમાણાપેત વસ્ત્ર હાય છે તે પણ તેને અચેલજ માનવા જોઈએ. એવા उ० ३५ ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર ઃ ૧ Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७४ उत्तराध्ययनसूत्रे परीषहः अचलपरीषहः ॥६॥ अरतिपरीषहः-रतिः संयमविषयिका प्रीतिः। तद्विपरीता त्वरतिः, सैव परीषहः, अरतिपरीषहः ॥७॥ स्त्री-नारी सैव कथंचिद् दृष्टा सती तद्गतरागपूर्वकगतिविलासहासचेष्टाचक्षुर्विकारायवलोकनेऽपि तदभिलापनिवर्तनेन परिषद्यमाणत्वात् परीषहः स्वीपरीषहः ॥ ८ ॥ चर्या-ग्रामानुप्राम विहाररूपा, सैव परीषहः चर्यापरीषहः ॥ ९॥ नैषेधिकी-स्वाध्यायभूमिः, सैव परीषहः-नषेधिकीपरीषहः ॥ १० ॥ शय्या वसतिः, सैव परीषहः शय्यापरीषहः॥११॥ आक्रोशः असभ्यभाषणरूपः, स एव परीषहः आक्रोशपरीषहः॥१२॥ वधः-ताडनं, स एव परीषहः वधपरीषहः ॥१३॥ याचनैव परीषहः याचनापरीषहः ॥१४॥ अलामः-अभिलषितवस्तुनोऽमाप्तिः, स एव परीषहः, अलाभपरीषहः अचेल ही जानना चाहिये । इस रूप परीषह ही अचेल परीषह है।६। संयमविषयक अप्रीति का नाम अरति है इस अप्रीतिरूप ही अरति परीषह है ।७। स्त्री के रागपूर्वक गमन, विलास, हास्य, चेष्टा, तथा चक्षु के विकार कटाक्ष-आदि के अवलोकित होने पर भी उस विषय की कोई भी अभिलाषा नहीं करना-वह स्त्री परीषह है ।८। एक ग्राम से दूसरे ग्राम में विहार करना इसका नाम चर्या है इसरूप परीषह चर्यापरीषह है ।। स्वाध्याय करने के स्थान का नाम नैषेधिकी है। इसरूप जो परीषह है वह नैषेधिकी परीषह है ।१०। वसति रूप परीषह शय्यापरीषह है ।११। असभ्यभाषणरूप परीषह आक्रोशपरीषह है ।१२। ताडनरूप परीषह वधपरीषह है ।१३। याचनारूप परीषह याचनापरीषह है ।१४। अभिलषित वस्तु की अप्राप्तिरूप परीषह अलाभपरीषह है ।१५। वात पित्त પરીષહ અલપરીષહ છે. (૬) સંયમવિષયક અપ્રીતિનું નામ અરતિ છે, એ અપ્રીતિરૂપ પરીષહ અરતિપરીષહ છે (૭) સ્ત્રી તરફના રાગપૂર્વક ગમન, વિલાસ, હાસ્ય, ચેષ્ટા તથા ચક્ષુને વિકાર-કટાક્ષ આદિના અવલોકન જોઈને પણ એ વિષયની કેઈ અભિલાષા ન કરવી તે પરીષહ તે સ્ત્રી પરીષહ છે. (૮) એક ગામથી બીજા ગામે વિહાર કરે એનું નામ ચર્યા છે, આ રૂપ જે પરીષહ તે ચર્ચાપરીષહ છે. (૯) સ્વાધ્યાય કરવાના સ્થાનનું નામ નધિકી છે તેવા રૂપને જે પરીષહ તે નિષેધિકીપરીષહ છે. (૧૦) વસ્તીરૂપ પરીષહ શય્યાપરીષહ છે. (૧૧) અસભ્યભાષણ સહન કરવું તે આક્રોશપરીષહ છે. (૧૨) તાડનારૂપ પરીષહ વધપરીષહ છે. (૧૩) યાચનારૂપ પરીષહ તે યાચનાપરીષહ છે. (૧૪) અભિલષિત વસ્તુની અપ્રાપ્તિરૂપ પરીષહ તે અલાભપરીષહ છે.(૧૫) વાત, પિત્ત, કફની વિષમતાથી ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रियदर्शिनी टीका. अ० २ गा. १ परीषहस्वरूपकथनप्रतिज्ञा । २७५ ॥ १५ ॥ रोगः = वातपित्तश्लेष्मणां वैषम्येण समुत्पन्नः कुष्ठादिः, स एव परीषहो रोगपरीषहः ॥ १६ ॥ तृणस्पर्शः - दर्भादिस्पर्शः, स एव परीषहः तृणस्पर्शपरीषहः || १७ || जल्ल= मलः, स एव परीषहः जल्लपरीषहः ॥ १८ ॥ सत्कारो वस्त्रपात्रादिदानेन संमाननम्, पुरस्कारोऽभ्युत्थानासनप्रदानवन्दनादिसंपादनम्, तावेव परीषहः सत्कारपुरस्कार परीषहः ।। १९ ।। प्रज्ञा स्वयंविमर्शपूर्वको वस्तुपरिच्छेदः, सैंव परीषहः प्रज्ञापरीषहः || २० || अज्ञानपरीषहः – ज्ञानं= मत्यादि, तदभावस्तु अज्ञानम् तदेव परीपहः ॥ २१ ॥ दर्शनपरीषह:दर्शनं सम्यग्दर्शनं तदेव क्रियादिवादिनां नानाविधमतश्रवणेऽपि निश्चलतया धियमाणत्वात् सम्यक् परिषह्यमाणं सत् परिषहो भवति ॥ २२ ॥ ४ ॥ एवं श्रीसुधर्मा स्वामी परीषहाणां नामान्यभिधाय तेषां स्वरूपं वक्तुकामः माहमूलम् - परीसहाणं पवित्ती, कासवेणं पवईया । उदाहरिस्सामि, आंणुपुवि सुहं में ॥१॥ ७ तैं कफ की विषमता से समुत्पन्न कुष्ठादिरूप परीषह रोगपरीषह है |१६| दर्भ आदि का स्पर्शरूप परीषह तृणस्पर्शपरीषह है | १७ | मेल आदिरूप परीषह जलपरीषह है | १८ | अन्यद्वारा वस्त्र, पात्र आदि के देने रूप सत्कार, एवं अभ्युत्थान, आसनप्रदान तथा वंदना आदि करने रूप पुरस्कार, इन दोनोंरूप परीषह सत्कारपुरस्कार परीषह है | १९| स्वयं विमर्शपूर्वक वस्तु के परिच्छेद करनेरूप परीषह प्रज्ञापरीषह है | २०| मत्यादिज्ञान के अभावरूप अज्ञानपरीषह है | २१ | क्रियावादी आदि के अनेकविध सिद्धान्तों के श्रवण करने पर भी सम्यग्दर्शन को निश्चलरूप से धार रखने के परिषह का नाम दर्शनपरीषह है ॥ २२ ॥ ઉત્પન્ન થયેલ કુષ્ઠાદ્વિરૂપ પરીષહ રાગપરીષહ છે. (૧૬) દ` આદિના સ્પરૂપ પરીષહ તૃણસ્પશ પરીષહ છે. (૧૭) મેલ આદરૂપ પરીષહ જલ્લપરીષહ છે. (૧૮) અન્યદ્વારા વસ્ત્ર, પાત્ર આદિના દેવારૂપ સત્કાર, અને અભ્યુત્થાન, આસનપ્રદાન તથા વંદના આદિ કરવારૂપ પુરસ્કાર આ બન્ને રૂપ પરીષહ સત્કાર–પુરસ્કારપરીષહ છે. (૧૯) સ્વય' વિમ પૂર્ણાંક વસ્તુના નિર્ણય-પરિચ્છેદ કરવારૂપ પરીષહ પ્રજ્ઞાપરીષહુ छे. (२०) भत्याहि ज्ञाननी सभावय परीषडु अज्ञानयरीषड छे. (२१) ड्डियावाही આદિના અનેકવિધ સિદ્ધાંતાને શ્રવણ કરવાથી પણ સમ્યગ્ દર્શનને નિશ્ચય રૂપથી ધારી રાખવાના પરીષહનું નામ દનપરીષહુ છે. ।।૨૨।। ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર ઃ ૧ Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययनसूत्रे छाया-परीषहाणां प्रविभक्तिः, काश्यपेन प्रवेदिता । तां युष्माकम् उदाहरिष्यामि, आनुपूर्व्या शृणुत मे ॥ १ ॥ टीका-' परीसहाणं' इत्यादि। हे शिष्याः ! परीषहाणां प्रविभक्तिः पृथक पृथक् विभागः, काश्यपेन-कश्य= गोत्रोत्पन्नेन, श्रीमहावीरवर्धमानस्वामिना प्रवेदिता, प्रकर्षण बोधिता द्वादशपरिषदि, तां-परीपहाणां प्रविभक्तिम् , आनुपूर्व्या अनुक्रमेण, यथानिर्दिष्टक्रमेण युष्माकम् उदाहरिष्यामि कथयिष्यामि, मे मत्, मम सकाशात् , शणुत सावधानतया श्रवणगोचरी कुरुत । 'सुणेह'-अत्र बहुवचनमादरार्थम् ॥ गा. १ ।। इह सर्वेषु परीषहेषु क्षुधापरीषह एव दुस्सहः । उक्तञ्च पंथसमा नत्थि जरा, दारिदसमो य परिभवो नत्थि । मरणसमं नत्थि भयं, खुहासमा वेयणा नस्थि ॥१॥ छाया-पथिसमा नास्ति जरा, दारिद्रयसमश्च परिभवो नास्ति । ___ मरणसमं नास्ति भयं, क्षुधासमा वेदना नास्ति ॥ १ ॥ इति इस प्रकार सुधर्मा स्वामी परीषहों के नामोंका कथन करके अब उनका प्रत्येक का स्वरूप प्रकट करते हैं-परीसहाणं-इत्यादि. हे शिष्य ! (परीसहाणं पविभत्ती-परीषहाणां प्रविभक्तिः) परीषहों का यह पृथकू २ विभाग (कासवेणं-काश्यपेन) काश्यगोत्रोत्पन्न श्री वर्धमान स्वामीने (पवेइया-प्रवेदिता) समवसरण में प्रकट किया है। मैं (तं भे उदाहरिस्सामि-तां युष्माकं उदाहरिष्यामि ) उस परीषहों के पृथक् २ विभाग को तुम को कहूंगा (मे आणुपुव्वि सुणेह-मे आनु पूर्व्या शणुत) अतः मेरे से उस को यथा क्रम तुम सुनो। इन समस्त परीषहो में क्षुधापरीषह ही दुस्सह है। कहा भी है- આ પ્રકારે સુધર્મા સ્વામી પરીષહેના નામનું કથન કરીને હવે તે ४२४२१३५ प्रट रे छे-परीसहाण त्याह. शिष्य ! 'परिसहाणं पविभत्ती'-परीषहाणां प्रविभक्तिः परिषडान प्रथ५ प्रथ५ qिein कासवेण पवेइया-काश्यपेन प्रवेदिता ४॥श्ययात्रोत्पन्न श्री महावीर १५ भान स्वाभाय समक्सरमा प्राट ४२८ छ. तं भे उदाहारिस्सामितां युष्माकं उदाहरिष्यामि डु को परीषडाना प्रथ५ प्रथ५ विमा तमान हाश. मे आणुपुवि सुणेह- मे आनुपूर्व्या श्रृणुत माथी यथामतेने सली. भाथी આ સમસ્ત પરિષહમાં સુધા પરિષહ દુષ્કર છે. કહ્યું છે કે ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रियदर्शिनी टीका. अ० २ गा० २ क्षुधापरीषदजयः तस्मादादौ द्वाभ्यां गाथाभ्यां क्षुधापरीषहजयं ग्राहमूलम् - दिगिंछेापरिगए दे है, तवस्सी भिक्खू थामेवं । न छिंदे ने छिंदवए, नं परे ने पर्यावए ॥ २ ॥ छाया - क्षुधापरिगते देहे, तपस्वी भिक्षुः स्थामवान् । न छिन्यात् न छेदयेत्, न पचेत् न पाचयेत् ॥ २ ॥ टीका- 'दिगिछापरिगए० ' इत्यादि । , तपस्वी = षष्ठाष्टमभक्तादितपोऽनुष्ठानवान् स्थामवान् = मनोबल समन्वितः, मिक्षुः = साधुः, देहे शरीरे, क्षुधापरिगते बुभुक्षया व्याप्ते सति न छिन्द्यात् = फलादिकं स्वयं न त्रोटयेत् न छेदयेत् = नाप्यन्यैः फलादीनां छेदनं कारयेदित्यर्थः, न पचेत् = स्वयं पाकं न कुर्यात्, न च पाचयेत् = अन्यैः पाकं न कारयेत् । इदमुपलक्षणम् - " पंथसमा नत्थि जरा, दारिद्द समो य परिभवो नत्थि । मरणसमं नत्थि भयं, खुहासमा वेयणा नत्थि ॥ १ ॥ २७७ मार्ग के समान जरा कोई नहीं है अर्थात् निरन्तर चलनेवाला मार्ग गामी जराजनित दुःखों का अनुभव करता है । तथा दारिद्र्य के समान अन्य कोई भी परिभव - अर्थात् अनादर नहीं है, तात्पर्य यह है-अन्य गुण के रहने पर भी दारिद्र्य के अस्तित्व में मनुष्य अनादर पाता है । तथा - मरण के समान भय नहीं है और न क्षुधा से बढकर कोई वेदना है, अर्थात् मनुष्य मरण के भयसे जितना डरता है उतना अन्य से नहीं। तथा क्षुधाजनित वेदना जितनी दुःखदायी होती है उतनी अन्य वेदना नहीं ॥ १ ॥ पंथसमा नत्थि जरा, दारिद्रयसमो य परिभवो नत्थि । मरणसमं नत्थि भयं, खुहासमा वेयणा नत्थि ॥ १ ॥ માર્ગોના સમાન જરા કાઈ નથી, અર્થાત્ નિર તર ચાલવાવાળા માગગામી જરાજનિત દુઃખાને અનુભવ કરે છે. તથા દારિદ્રયના જેવું અન્ય કાઇ પણ પરિભવ-અર્થાત્ અનાદર નથી. તાત્પર્ય એ કે, અન્ય ગુણુના ઢાવા છતાં દારિદ્રયના અસ્તિત્વમાં માણસ અનાદર પામે છે. તથા મરણના સમાન ભય નથી. અને ક્ષુધાથી વધુ કેાઈ વેદના નથી. અર્થાત્ મનુષ્ય મરણના ભયથી જેટલેા ડરે છે, એટલે ખીજાથી નથી ડરતા, તથા ક્ષુધાજનક વેદના જેટલી અસહ્ય होय छे, तेवी मील हो वेहना नथी. ॥१॥ ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર ઃ ૧ Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨૭૮ उत्तराध्ययनसूत्रे अन्यं छिन्दन्तं पचन्तं वा नानुमोदयेत् । उपलक्षणत्वादेव-न स्वयं क्रीणीयात् , नाप्यन्यैः क्रापयेत् , न चान्यं क्रीणन्तमनुमोदयेत् । न स्वयं हन्यात् , न चान्यैCतयेत् , न चान्यं घ्नन्तमनुमोदयेत् । बुभुक्षया पीडितोऽपि नवकोटिशुद्धमेवाहार गृह्णीयादिति भावः ॥ गा. २॥ क्षुधा से अधिक कोई वेदना नहीं है इस लिये सब से पहिले सूत्रकार प्रथम क्षुधापरिषह का जय कहते हैं-'दिगिंछापरिगए'-इत्यादि. (तवस्सी-तपस्वी ) षष्ठाष्टमभक्तादि तपोंका अनुष्ठान करने वाला एवं (थामवं-स्थामवान् ) मनोबल से समन्वित (भिक्खू-भिक्षुः) -साधु (देहे) शरीर (दिगिंछापरिगए-क्षुधापरिगते) क्षुधा से व्याप्त होने पर भी (न छिदे-न छिन्द्यात् ) फलादिक को स्वयं छेदे नहीं-तोडे नहीं (न छिदावए-न छेदयेत् ) न दूसरों से तुडवावे (न पए न पयावए-नपचेत् न पाचयेत् ) न स्वयं पकावे और न दूसरों से पकवावे । उपलक्षण से ( अन्यं छिन्दन्तं पचन्तं वा नानुमोदयेत्, न स्वयं क्रीणीयात् नाप्यन्यैः कापयेत् न चान्यं क्रीणन्तमनुमोदयेत्, न स्वयं हन्यात् त चान्यैर्धातयेत् न चान्यं घ्नन्तं अनुमोदयेत् ) इन पदों का भी यहां संग्रह करलेना चाहिये, अर्थात् छेदन करने वाले तथा पकाने वाले व्यक्ति की अनुमोदना न करे, न स्वयं खरीदे न दूसरों से खरीदवावे और न खरीदने वाले की अनुमोदना करे, न स्वयं हणे न दूसरों से हणावे और न हणते हुए की अनुमोदना करे। સુધાથી અધિક કઈ વેદના નથી, એટલા માટે સૂત્રકાર સૌથી પહેલાં क्षुधा परीषडन सय ४२१॥ ४ छ. दिगिच्छापरिगए-इत्यादि. तवस्सी-तपस्वी ७५८ मम मताहि तपार्नु मनु०४ान ४२वा तथा थामपं-स्थामवान् मन मनाथी समन्वीत भिक्खू-भिक्षुः भिक्षु-साधु दिगिच्छा परिगए-क्षुधापरिंगते शरीरे भूपथी व्या हावा छतां ५५ न छिदे-न छिन्द्यात् ५॥ ३ा६ने स्वयं छेj नाड, तोउ नडिं, न छिंदावए-न छेदयेत् माथी तो ना. नपए न पयावए-नपचेत् न पाचयेत् न स्वयं ५४ावे, मने न मीनतथी ५४ावे. सक्षथी अन्यं छिन्दन्तं पचन्तं वा नानुमोदयेत् छेड्न ४२. पावाणी तथा ५४ापाणी व्यतिनी मनुमान न ४२ न स्वयं क्रिणीयात् नान्यः फ्रापयेत् न चान्यं क्रीणन्तमनुमोदयेत् न स्वय गरी न माथी परीक्षा में न तेनी अनुमहिना . न स्वयं हन्यात् न चान्यैर्घातयेतू न चान्यं नन्तमनुमोदयेत् ન સ્વયં હણે, ન કેઈથી હણાવે કે ન તેની અનુમોદના કરે. ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર: ૧ Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७९ प्रियदर्शिनी टीका. अ० २ गा० ३ क्षुधापरीषहजयः १ किश्च -- मूलम् कालीपव्वंगसंकासे, किसे धमणिसंतए । मायन्ने असणपाणस्स, अंदीणमणसो चरे ॥३॥ छाया - कालीपर्वसंकाशाङ्गः, कृशः धमनिसंततः। __ मात्रज्ञ : अशनपानस्य, अदीनमनाश्चरेत् ॥ ३॥ टीका- कालीपव्वंग० ' इत्यादि । कालीपर्वसंकाशाङ्ग:-काली-काकजङ्घा वनस्पति, तस्याः पर्वाणि मध्ये तनूनि, अन्त्ये स्थूलानि भवन्ति तत्संकाशानि-तत्सदृशानि बाहुजङ्घादीन्यङ्गानि यस्य स तथा, यस्य साधोस्तपश्चर्यया जानुकूर्परादयोऽवयवाः काकजङ्घावत् प्रतलाः सन्ति स इत्यर्थः। अत एव कृशः कृशशरीरः, धमनिसंततः धमनिभिः नाडीभिः संततः= व्याप्तः शोणितमांसादीनां शुष्कतया दृश्यमाननाडीयुक्त इत्यर्थः। तथा-अशनपानस्य अशनम् ओदनरोटिकादि, पान-दुग्धादि, तयोः समाहारः अशनपानं, तस्य, मात्र ज्ञः परिमाणज्ञानसम्पन्नः । यावताऽऽहारेण स्वकीयोदरपूरणं भवेत् तावत्प्रमाणमेवाहारं गृह्णाति, न तु रसास्वादादिलोभादधिकं गृह्णातीति भावः। तथा-अदीनमनाः तात्यय यह है कि साधु को भूखसे पीडित होने पर भी नवकोटि से विशुद्ध आहार ग्रहण करना चाहिये ॥२॥ फिर भी- कालीपव्वंग०' इत्यादि। (कालीपव्वंगसंकासे-कालीपर्वांगसंकाशः) काली-काकजंघा (वनस्पति विशेष)के पर्व जैसे अंगवाला अत एव (किसे-कृशः) शशरीरयुक्त, (धमणिसंतए-धमनिसन्ततः) नसाजाल से व्याप्त, एवं ( असणपाणस्स मायन्ने-अशनपानस्य मात्रज्ञः) अशन पान की मात्रा का ज्ञाता साधु તાત્પર્ય એ છે કે, સાધુએ ભૂખથી પિડિત હોવા છતાં પણ નવપ્રકારના વિશુદ્ધ આહારને જ ગ્રહણ કરે જોઈએ. ગા. ૨ | श्री ५ ४९ छे. कालिपव्वंग छत्याहि. कालिपव्वंगसंकासे-कालीपर्वाङ्ग संकाशः क्षी-४०धान ! 41पाय मतमे किसे-कृशः दृश शरीरयुत, धमणिसंतए-धमनिसंततः नशायी व्यात मन असणपाणस्स मायने-अशनपानस्य मात्रज्ञः २५शन पाननी मात्राना ज्ञाता साधु अदीणमणसो-अदीनमनाः महीन भन मनी संयमान भागमा ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययन सूत्रे =अव्याकुलचित्तः, अशनादेरप्राप्तौ दैन्यं विषादं च न कुर्वन्नित्यर्थः, चरेत् = संयममार्गे विचरेत् । प्राकृतत्वात् - ' संकास ' इति विशेषणस्य परनिपातः । ૨૦૦ ( अदीणमणसो - अदीनमनाः ) आदीनमन होकर संयम के मार्ग में ( चरे-चरेत्) विचरण करे । भावार्थ - विशिष्ट तपस्याओं के अनुष्ठान करते २ जिसके शारीरिक अवयव काक की जंघा के पर्व समान बीच में पतले तथा अन्त में स्थूल हो गये हैं, और इससे जिसका शरीर अत्यंत कृश हो गया है, तथा शरीर में कृशता होने की वजह से ही जिसके शरीर के नसाजाल स्पष्ट दिखलाई दे रहा है ऐसा साधु इतना ही आहार ग्रहण करे की जिन से संयमयात्राका निर्वाह हो सके ! रसास्वाद के लोभ से अधिक आहार न लेवे । तथा जिस समय तपस्या का पारणा करने का अवसर आवे उस समय यदि आहार प्राप्त न हो तो भी चित्त में किसी भी प्रकार का विषाद न करे और संयममार्ग में सदा सावधान बने रहने की चेष्टा करता रहे। काक की जंधा के पर्व बीच में पतले एवं अन्त में स्थूल होते हैं, तपस्या करते २ साधु के भी जंघा आदि अंग इसी तरह हो जाते हैं। चरे - चरेत् वियर १२. ભાવા —વિશિષ્ટ તપસ્યાઓનું અનુષ્ઠાન કરતાં કરતાં જેનાં શારીરિક અવયવ કાકની જંઘાના પર્વ સમાન વચમાં પાતળા તથા અંતમાં સ્થૂળ થઈ ગયેલ હોય અને તેનાથી જેનું શરીર અત્યંત કૃશ થઇ ગયેલ હાય તથા શરીરમાં કૃષતા આવી જવાના કારણે જેના શરીરની નાડીએ સ્પષ્ટ દેખાઈ આવે છે, એવા સાધુ એટલે જ આહાર ગ્રહણ કરે કે, જેનાથી સંયમ માના નિર્વાહ થઈ શકે. રસ સ્વાદના લેાભથી અધિક આહાર ન લે. તથા જે સમય તપસ્યાનું પારણું કરવાના સમય આવે તે વખતે કદાચ આહાર ન મળી શકે તા પણ ચિત્તમાં કોઈ પણ પ્રકારના વિષાદ ન કરે અને સંયમ માર્ગમાં સદા સાવધાન બની રહેવાની ચેષ્ટા કરતા રહે. કાકની જંઘાનું પર્વ વચમાં પાતળુ અને છેડે સ્થૂળ હોય છે, તપસ્યા કરતાં કરતાં સાધુની જંઘા આદિ અંગ આ પ્રકારનાં થઈ જાય છે, ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર ઃ ૧ Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रियदर्शिनी टीका. अ० २ गा० ३ क्षुधापरीषहजये दृढवीर्यदृष्टान्तः २८१ अत्र क्षुधापरीषहविजये दृष्टान्तः प्रदर्श्यते आसीदुज्जयिन्यां गजभित्रनामा श्रेष्ठी । तस्य दृढवीर्यनामकः पुत्रोऽभवत् । एकदा गजमित्रश्रेष्ठिनो भार्या मृता । ततः संसारासारतां विज्ञाय संजातवैराग्योsaौ दृढवीर्यपुत्रेण सह प्रब्रजितः । स च गजमित्रमुनिः स्व शिष्येण दृढवीर्येण सह ग्रामानुग्रामं विचरंस्तत्र तत्र धर्मदेशनां कुर्वन् संयमेन तपसाऽऽत्मानं भावयन् विहरति । स चैकदा विहारं कुर्वन् विस्मृतमार्गः सन् महारण्यं प्रविष्टः । तत्र कवचिन्मृगाणां यूथा इतस्ततो धावन्ति । काचिज्जम्बुकाः स्वपरिवारैः सह शब्दायन्ते । क्वचिद् व्याघ्रा उत्प्लवन्ति । क्वचित् सिंहा गर्जन्ति, येषां नादानुपश्रुत्य क्षुधापरीषद के विजय करने में दृष्टांत इस प्रकार है- उज्जैनी नगरी में गजमित्र नामका एक सेठ रहता था। उसका एक पुत्र था जिसका नाम दृढवीर्य था । एक समय की बात है कि सेठ की पत्नी का देहान्त हो गया। इससे सेठ को संसार, शरीर एवं भोगों से विरक्ति आगई और अपने पुत्र के साथ उन्होंने दीक्षा धारण करली | साधुचर्या की विधि के अनुसार सशिष्य वे विहार करने लगे । वे जनता को धर्म के उपदेश से वासित करते और संयम एवं तप से अपनी आत्मा को भावित करते हुए ग्रामानुग्राम विचरते थे । एक समय की बात है कि ये विहार में मार्ग भूल गये और भयंकर किसी अटवी में जा पहुँचे। वहां पहुँच कर ये देखते क्या हैं कि कहीं पर इधर उधर मृगों का झुण्ड दौड रहा है, कहीं पर श्रृंगाल फिक्कार कर रहे हैं ક્ષુધા પરિષદ્ધને જીતવાની ઉપર દૃષ્ટાંત આ પ્રકારે છે— ઉજ્જૈની નગરીમાં ગજમિત્ર નામના એક શેઠ રહેતા હતા. તેને એક પુત્ર હતા તેનુ નામ દૃઢવી હતુ. એક સમયની વાત છે કે, શેઠની પત્નીને દેહાંત થઈ ગયા તેથી શેઠને સ ંસાર શરીર અને ભેગાથી વિરકત આવી ગઈ અને પેાતાના પુત્રની સાથે તેણે દીક્ષા ગ્રહણ કરી લીધી. સાધુ ચર્ચાની વિધી અનુસાર સશિષ્ય તેઓ વિહાર કરવા લાગ્યા. તે જનતાને ધર્મના ઉપદેશ આપતાં આપતાં સંયમ અને તપથી પોતાના આત્માને ભાવિત કરતા ગ્રામનુ ગ્રામ વિચરવા લાગ્યા. એક સમયની વાત છે કે વિહારમાં એ મુનિરાજ મા ભૂલી ગયા અને ભયંકર જગલમાં જઈ પહેોંચ્યા. ત્યાં પહોંચતાં તેમણે એવું જોયુ કે, જ્યાં ત્યાં મૃગોનાં ટાળાં દોડી રહ્યાં છે, કચાંક શિયાળયાં લાળી કરી રહ્યાં છે, વાઘ ઘુમી રહ્યા છે, સિંહ ગર્જી રહ્યા છે, કયાંક સિંહુગનના ભયથી उ० ३६ ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર ઃ ૧ Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८२ उत्तराध्ययनसूत्रे क्वचिद्भयभीता कता हस्तिनः पलायन्ते । क्वचिच्च विषमविषधरा भयंकराः फणिनः स्वकीयविस्तृतफणाटोपमुत्थाप्य समुत्तिष्ठन्ति । तथा बृहद्विषाणधारिणः स्थूलकायाः श्यामवर्णा महिषाः क्वचित् सजलपङ्किले गर्ते शरीरपरिवर्तनेन पङ्कलितदेहाः सन्ति । क्वचित् तथैव सूकराणां यूथाः परिभ्रमन्ति । क्वचिद्वानराः क्वचिद् ऋक्षा अत्युत्प्लवन्ति । लतावल्लीसमावृता निविडच्छाया विटपिनः परितः समुल्लसन्ति । क्वचिन्नानाविधानि निकुञ्जानि भवनानीव विलसन्ति । क्वचित् कण्टकिनो वृक्षाः परितः परस्परं लतावितानैरुद्ग्रथिताः सन्ति येषां कण्टका इतस्ततो विकीर्णाः सन्ति । एवं बहुहिंस्रसंकुला कुशकाशादितृणपरिपूर्णा निम्नोन्नता कण्टकिता जनानां दुर्गमा वनस्थली वर्तते । कहीं पर व्याघ्र घूम रहे हैं, कहीं पर सिंह गर्ज रहे हैं, कहीं पर सिंह की गर्जना को सुनकर भय से त्रस्त गजराज चिंधार करते हुए इधर उधर भागे फिर रहे हैं, कहीं पर विषम विषधर सर्प अपने फणों को ऊपर उठाकर बैठे हुए हैं, कहीं पर जंगली भैंसे कि जिनका शरीर बिलकुल काला है, तथा सींग भी जिनके बडे २ हैं और जो शरीर में विशेष स्थूल हैं, सजलगर्त में कि जिसमें कादव हो रहा है अपने शरीर को इधर से उधर करते हुए कीचड़ से लिप्त बने हुए हैं। इसी तरह कहीं २ शूकरों का यूथ भी इधर उधर भाग रहा है । कहीं २ पर बानर और कहीं पर ऋक्ष- रींछ- उछलकूद कर रहे हैं । इस बन में चारों ओर लताओं से वेष्टित बहुत गहरी छाया वाले वृक्षों के झुंड हैं। कहीं २ पर वृक्षों का झुंड ऐसे मालूम पड़ते हैं जैसे मानो मकान ही खडे हुए हैं । कहीं २ पर कांटेदार वृक्ष कि जिनके काँटे इधर ત્રાસીને હાથી ચિત્કાર કરતાં અહિં તહિં નાસભાગ કરી રહ્યા છે, કયાંક વિષમ વિષધરા પેાતાની ફણેાને ઉંચી કરીને બેઠા છે, કયાંક જંગલી ભેંસે કે જેનાં શરીર એકદમ કાળાં છે અને જેનાં શીગ લાંખાં છે અને શરીર જેનાં અલમસ્ત છે તે જળથી ભરેલા ખાડાઓમાં જેમાં કાદવ ભરેલ છે તેમાં આળેટી પેાતાના શરીરને કીચડથી ખરડાવી રહેલ છે, આવી રીતે ડુકરાનાં થા પણ અહિં ત િભાગતાં નજરે પડે છે, કયાંક કયાંક વાનર અને રીંછ કુદાકુદ કરતાં દેખાય છે. એ જંગલ ચારે તરફથી મેટાં વૃક્ષે અને તેની ડાળીચે તથા અન્ય વેલા પાનથી છવાઈ રહેલ છે, કેાઈ વૃક્ષનાં ઝુંડ એવાં અરસપરસ મળી ગયાં દેખાય છે કે જાણે તેની નીચે મકાન જેવું અની ગયેલ છે, કાઇ સ્થળે કાંટાવાળાં વૃક્ષેાથી તેના કાટા જમીન ઉપર જ્યાં ત્યાં પડયા છે, વેલા ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર ઃ ૧ Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रियदर्शिनी टीका. अ० २ गा० ३ क्षुधापरीषहजये दृढवीर्यदृष्टान्तः २८३ , तत्र वने गच्छतस्तस्य गजमित्रमुनेश्चरणतलं विषमविषभरेण कण्टकाग्रेण विद्धमभवत् । ततो गन्तुमसमर्थोऽसौ निजायुरल्पमवगम्य चतुर्विधाहारस्य प्रत्याख्यानं कर्तुमुद्यतः सन् शिष्यमवदत् - इतोऽन्यत्र गम्यताम् अत्र दुःसहः खलु क्षुधापरीषहस्तव सोढव्यः ः स्यात् । शिष्योऽवदत्-भदन्त ! यथा छाया शरीरं विहाय नापस - रति, तथाऽहमपि भवदीयचरणयुगलं परित्यज्य नैव गमिष्यामि । इत्युक्त्वाऽसौ उधर फैले हुए हैं, लताप्रतानों द्वारा ग्रथित होकर एक जैसे बन गये हैं। इस प्रकार यह अटवी अनेक हिंसक जीवों से परिपूर्ण होती हुई जनों के लिये सर्वथा दुर्गम थी । कुश काश आदि घास से भरे हुए रहने के कारण यहां के मार्ग बडे हो विकट बने हुए थे। यहां की भूमि ऊंची नीची और कांटों से व्याप्त थी । इस अटवीमें चलते हुए गजमित्र मुनिराज के पैरों में विषम वेदना कारक विषैले कांटे चुमने लगे तथा उनके पैरों के तलिये कांटों से विंध गये, इससे ये आगे बिहार नहीं कर सके। इन्हों ने उस समय अपनी अवशिष्ट आयु बहुत अल्प जानकर चतुर्विध आहार के परित्याग करने के अभिप्राय से अपने शिष्य से कहा- तुम यहां से किसी दूसरी जगह चलेजाओ नहीं तो यहां पर मेरे साथ रहने से तीव्र क्षुधापरीषह तुम्हें सहन करना पडेगा। गुरु की इस बात को सुनकर शिष्य ने कहा, भदन्त ! जिस प्रकार छाया वृक्ष को नहीं छोड़ती है उसी तरह मैं भी आप के चरणकमलों को छोड़कर अन्यत्र नहीं जा सकता । આથી આ બધાં વ્રુક્ષા એકરૂપ બની ગયાં દેખાય છે, આ પ્રકારે તે જંગલ અનેક હિંસક જીવાથી પરિપૂર્ણ હતુ, માણસે માટે દરેક રીતે ભયકારક હતું, જમીન ઉપર ઉગેલાં ઘાસ વગેરેને કારણે કોઈ સરળ માર્ગ દેખાતા નથી, ભૂમિ ઉંચીનીચી અને કાંટાથી ભરેલી હતી. આ જંગલમાં ચાલતાં ચાલતાં ગજમિત્ર મુનિરાજના પગેામાં ઘણી વેદના ઉપજાવે તેવા કાંટા લાગવા લાગ્યા આથી તેના પગાનાં તળીયાં કાંટાથી વિ'ધાઈ ગયાં જેથી તે આગળ વિહાર કરી શકયાં નહી' તેમણે તે સમય પેાતાની ખાકી રહેલ આયુ ઘણી ટુકી જાણીને ચાર પ્રકારના આહારના ત્યાગ કરવાના ભાવથી પેાતાના શિષ્યને કહ્યું, તમે અહિંથી કેાઈ અન્ય સ્થળે વિહાર કરો, આ સ્થળે મારી સાથે રહેવાથી તમારે ભૂખના તીવ્ર પરિષહ સહન કરવા પડશે, ગુરુની આ વાતને સાંભળીને શિષ્યે કહ્યું-ભઇન્ત! જે પ્રકારે છાયા વૃક્ષને છેડતી નથી તેવી રીતે હું પણુ આપના ચરણ કમળને છેડીને અન્યત્ર જઈ શકતા નથી. ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર ઃ ૧ Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨૮૪ उत्तराध्ययनसूत्रे तत्रैव निवसति स्म । गुरुश्च चतुर्विधाहारस्य प्रत्याख्यानं कृतवान् । स च शिष्यः स्वगुरुं परितस्तदङ्गरक्षणार्थ परिभ्रमंस्तिष्ठति, तत्र विविधेषु मनोज्ञेषु रुचिरेषु फलेषु सत्स्वपि न तानि त्रोटयितुमिच्छति, वृक्षाधस्तले पतितान्यपि फलानि सचित्ततया केनाप्यदत्ततया च नैव गृह्णाति । आहारार्थ किंचिद्रं गत्वा गत्वा प्रतिनिवर्तते । वसतेरभावात् क्वचिदाहारो न लभ्यते । मार्गस्य दुर्गमतया कश्चित् पथिकोऽपि नायाति, यस्मादशनं गृह्णीयात् । पुनरुज्ज्वलभावेन गुरोर्वैयावृत्त्यं करोति। यद्यपि तदा क्षुधाया बलं वर्धमानमात्मनः प्रतिपदेशं व्याप्तुं प्रवर्तते । यतःशिष्य की इस प्रकार बात को सुनकर गुरु महराज ने चारों प्रकार के आहार का परित्याग कर दिया। शिष्य ने इस परिस्थिति में अपने गुरु महाराज की सेवा करना प्रारंभ कर दिया। उस अटवी में यद्यपि अनेक प्रकार के मनोज्ञ सरस फल थे तो भी उन्हें तोड़ने का शिष्यने स्वप्न में भी विचार नहीं किया । वृक्षों के नीचे टूटे हुए फल पडे रहते थे उनको भी सचित्त होने की वजह से ग्रहण नहीं किया। तथा किसी २ फल के अचित्त होने पर भी दाता के अभाव से वे अदत्त होने से नहीं लिये। शिष्य आहार के लिये जाता है और कुछ दूर जा जाकर पीछे वापिस लौट आता है, क्यों कि एक तो वहां वसति नहीं थी, इस लिये वहां आहार का कोई जोग नहीं मिलता था। दूसरे-मागे अत्यंत दुर्गम होने से उस रास्ते कोई भी पथिक प्रायः नहीं आता जाता था। परन्तु शिष्य अनन्य भाव से गुरु की सेवा करता था। क्षुधा एक ऐसी वस्तु है कि શિષ્યની આ પ્રકારની વાત સાંભળીને ગુરુ મહારાજે ચાર પ્રકારના આહા. અને ત્યાગ કરી દીધે. શિષ્ય આ પરિસ્થિતિમાં પિતાના ગુરુ મહારાજની સેવા કરવાને પ્રારંભ કર્યો. તે જંગલમાં જે કે, અનેક પ્રકારનાં સુંદર અને સ્વાદિષ્ટ એવાં ફળ હતાં તે પણ તેને તોડવાને શિષ્ય સ્વપ્નામાં પણ વિચાર ન કર્યો. વૃક્ષની નીચે તૂટીને પડેલાં જે ફળ દેખાતાં તેને પણ સચિત્ત માનીને ગ્રહણ કર્યા નહીં તથા કઈ કઈ ફળ અચિત્ત હોવા છતાં આપનારના અભા વથી તે અદત્ત હોવાથી લીધાં નહીં. શિષ્ય આહાર માટે જતે અને છેડે દૂર જઈ ત્યાંથી પાછા ફરી આવતે કેમકે, એક તે ત્યાં વસ્તી હતી નહીં. માટે ત્યાં આહારને કેઈ જેગ મળતું ન હતું, બીજું માર્ગ અત્યંત દુગમ હોવાથી તે રસ્તે કઈ પણ વટેમાર્ગ આવતે જતું ન હતું. પરંતુ શિષ્ય અનન્ય ભાવથી ગુરુની સેવા કરતું હતું. ભૂખ એક એવી વસ્તુ છે કે જે આત્માની ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रियदर्शिनी टीका. अ० २ गा० ३ क्षुधापरीषहजये दृढवीर्यदृष्टान्तः २८५ या सा रूपविनाशिनी स्मृतिहरी पञ्चेन्द्रियाकर्षिणी, चक्षुःश्रोत्रललाटदीनकरणी संक्लेशसंपादिनी । बन्धूनां त्यजनी विदेशगमनी धैर्यस्य विध्वंसिनी, सेयं तिष्ठति सर्वभूतदमनी प्राणापहारिक्षुधा ॥१॥ अपरं च विवेको हीर्दया धर्मों, विद्या स्नेहश्च सौम्यता । सत्त्वं च जायते नैव, क्षुधार्तस्य शरीरिणः ॥२॥ इति ॥ तथापि स दृढवीर्यशिष्यः कस्मिन्नपि निजात्मप्रदेशे कातरतां नाश्रयति किं जो आत्माके प्रतिप्रदेशमें व्याप्त होकर अपना प्रबल प्रताप दिखलाती है, जैसे कहा भी है यह क्षुधा रूप को विनष्ट कर देती है, स्मृति को ध्वस्त कर देती है, पांचों इन्द्रियों की शक्ति का ह्रास कर देती है, चक्षु में श्रोत्र में एवं ललाट में दिनता के निशानेबना देती हैं संक्लेश परिणामों को जागृत करती रहती है, बन्धुओं का वियोग करा देती है, विदेश में वास करा देती है, धैर्य को जडमूल से उखाड देती है, अधिक क्या कहा जाय यह क्षुधा प्राणियों के प्राण का भी हरण करने वाली हैं ॥१॥ ____ और भी कहा है-क्षुधात प्राणी के विवेक, लज्जा, दया, धर्म, विद्या स्नेह, सौम्यता, बल आदि सभी सद्गुण नष्ट हो जाते हैं ॥२॥ मुनि दृढवीर्य शिष्य की आत्मा के प्रतिप्रदेश में यद्यपि क्षुधा की तीव्र वेदना जागृत हो रही थी तो भी वह कभी भी कायर नहीं बना। અંદરના ભાગમાં પ્રવેશ કરીને પિતાને પ્રબળ પ્રભાવ બતાવે છે. કહ્યું પણ છે– આ ભૂખ રૂપને નાશ કરે છે, સ્મૃતિને ધ્વંસ કરે છે, પાંચ ઈન્દ્રિયની શક્તિઓને ક્ષિણ બનાવી દે છે, આંખ, કાન અને કપાળમાં દિનતાની નિશાની જગાડે છે. કલેશના પરિણામેને જાગ્રત કરે છે, બંધુઓનો વિયેગ કરાવે છે, વિદેશમાં વાસ કરાવે છે, ધર્યને જડમુળથી ઉખેડી નાખે છે, છેલ્લે છેલ્લે આ ભૂખ પ્રાણીઓના પ્રાણનું પણ હરણ કરે છે. ૧ ફરી પણ કહ્યું છે ભૂખથી પીડાતા પ્રાણીમાં વિવેક, લજજા, દયા, ધર્મ વિદ્યા, સ્નેહ, સૌમ્યતા, બળ, આદિ સઘળા સદ્દગુણ નાશ પામે છે. જે ૨ મુનિ દઢવીર્ય શિષ્યના આત્માના ઊંડાણમાં છે કે, ભૂખની તીવ્ર વેદના થઈ હતી તે પણ કઈ વખત કાયર ન બન્યા. પિતાના ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨૮ उत्तराध्ययनसूत्रे तु कर्मनिर्जरार्थ क्षुधापरीषहं विजित्य गुरुसेवापरायण एवासीत् । ततो गजमित्रमुनिः कण्टकजनितामसह्य वेदनां सहमानः समाधिभावेन निनायुः समाप्य प्रथमकल्पे वैमानिकदेवत्वं प्राप्तः। अथासौ देवः स्वकीयपूर्वभवमवधिना विज्ञाय, स्वदिव्यशक्त्या शिष्यरक्षार्थ तत्समीपप्रदेशे वसति निर्माय स्वयं मनुष्यरूपः सन् दृढवीर्यशिष्यं प्राह-मुने ! इतः समीपे वसतिदृश्यते, अशनपानमानीयताम् । शिष्यो वदति-अयमस्ति कश्चिद्देवप्रपञ्चः, इह हि नासोत् पुरा कापि वसतिः, भूमि. अपने वीर्योल्लास से उसने इस परीषह को खूब सहन किया। और गुरु महाराज की सेवा भक्ति की, क्यों कि शिष्य को यह पूर्णश्रद्धा थी कि कर्मनिर्जरा के लिये क्षुधापरीषह को सहन करना ही चाहिये। पैर में लगे हुए कांटे की असह्य वेदना प्रतिक्षण बढने लगी, अपनी आयु के अन्त समय में समाधिभाव से कालधर्म को प्राप्त होकर प्रथमकल्प में वैमानिक देव हुए। इन्हों ने देव की पर्याय में अपने पूर्वभव को अवधिज्ञान से जानकर अपने शिष्य की प्राणरक्षा निमित्त दिव्यशक्ति से उसके समीप प्रदेश में एक वसति का निर्माण किया और स्वयं मनुष्य के रूप में प्रकट होकर शिष्य से कहने लगे कि यहां से नजदीक ही एक वसति दिखाई देती है अतः वहां से आप आहार पानी ले आइये। देव की इस प्रकार बात को सुनकर शिष्य ने चित्त में विचार किया-यह कोई देव छलना करता है । मैं पहिले यहां कई बार आया हूं परन्तु मुझे तो कोई वसति नजर नहीं आई, इसलिये यहां से आहार पानी વિલાસથી તેણે આ પરીષહને ખૂબ સહન કર્યો અને ગુરુ મહારાજની સેવા ભક્તિ કરી. કેમકે, શિષ્યને એ પૂર્ણ શ્રદ્ધા હતી કે, કર્મનિર્જર માટે સુધા પરિષહ સહન કરવું જોઈએ. પગમાં લાગેલા કાંટાઓની વેદના રાજ બોજ વધવા લાગી, પોતાના આયુના અંતસમયમાં સમાધીભાવથી ગુરુજી કાળ ધર્મને પામી પ્રથમ કલ્પમાં વૈમાનિક દેવ બન્યા. તેઓએ દેવની પર્યાયમાં પિતાના પુર્વભવને અવધિજ્ઞાનથી જાણીને પિતાના શિષ્યની પ્રાણરક્ષા નિમિત્ત દિવ્ય શક્તિથી તેના સમીપપ્રદેશમાં એક વતિનું નિર્માણ કર્યું અને પતે મનષ્યના રૂપમાં પ્રગટ બનીને શિષ્યને કહેવા લાગ્યા કે, અહિંથી નજીક જ એક વસ્તિ દેખાય છે માટે ત્યાંથી તમે આહાર પાણી લઈ આવે, દેવની આ પ્રકારની વાતને સાંભળીને શિષ્ય ચિત્તમાં વિચાર કર્યો કે, આ કેઈ દેવ મારી છલના કરે છે. હું પહેલાં કેટલી વખત ગયો છું પરંતુ મને કઈ વસ્તી દેખાઈ નથી, માટે ત્યાંથી આહાર પાણી લાવ ઉચિત નથી. શિષ્યની આ ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रिपदर्शिनी टीका. अ० २ ० ४ पिपासापरीषहजयः २ २८७ त्या प्रागेव दृष्टाऽस्माभिः, अतोऽत्राशनपानं न ग्रहीष्यामि । ततोऽसौ प्रसन्नमनसा साक्षादेवरूपं धृत्वा वीर्यमुनिं प्रशंसति - धन्योऽसि दृढव्रतोऽसि ' इत्यादि । पुनरसौ दृढवीर्यमुनिर्दुःसहं क्षुधापरीपदं सहमानः क्षपकश्रेणीमा प्रशस्तध्यान शुभाध्यवसायेन केवलज्ञानं प्राप्य मोक्षं प्राप्तवान् । स च देवस्तस्य केवलोत्सवं franteed च कृत्वा स्वस्थानं गतः । एवं सर्वैर्मुनिभिरपि दृढवीर्यमुनिवत् क्षुधापरीषहः सोढव्यः ॥ ३॥ क्षुधां सहमानस्यैपणीयाहारार्थं भिक्षाचर्यां पर्यटतो मुनेर्यदि श्रमादिजनिता पिपासा स्यात्तर्हि साऽपि सोढव्येत्याशयेन पिपासापरीषहजयं प्राह मूलम् - ओ पुट्टो पिवासांए, दोंगुच्छी लज्जसंजए । सीओदगं न सेविजा, वियेडस्सेसणं चरे ॥ ४ ॥ ग्रहण करना उचित नहीं है । शिष्य की इस प्रकार दृढ विचारधारा को देखकर वह देव बहुत ही प्रसन्न हुआ और साक्षात् रूप में प्रकट होकर शिष्य की बहुत प्रशंसा करने लगा, बोला-आप धन्य हैं व्रत के पालन करने में अतीव दृढप्रतिज्ञ हैं। शिष्य ने दुःसह क्षुधा परीषद को सहन करने से क्षपकश्रेणी पर आरूढ होकर प्रशस्त-ध्यान एवं शुभाध्यवसाय के बल पर केवलज्ञान का लाभ कर मोक्ष को प्राप्त किया । इनके गुरु महाराज का जीव जो देव था उसने अपने पूर्वपर्याय के शिष्य को प्राप्त हुए केवलज्ञान के एवं निर्वाण के उत्सव को मनाकर अपने स्थान गया । इसी तरह प्रत्येक मुनिका कर्तव्य है कि वह दृढवीर्यमुनि की तरह क्षुधापरीषह को सहन करे ॥ ३ ॥ પ્રકારની દૃઢ ધારણા જોઇને તે દેવના જીવ ખૂબજ પ્રસન્ન થયા. અને પ્રગટ થઈને શિષ્યની ખૂબ પ્રસંશા કરવા લાગ્યા. તેમણે કહ્યું આપને ધન્યવાદ છે, વ્રતનું પાલન કરવામાં દઢ પ્રતિજ્ઞ છે. શિષ્યે દુઃસહુ ભૂખના પરિષહુ સહન કરવાથી ક્ષપકશ્રેણી ઉપર આરૂઢ મની પ્રશસ્ત ધ્યાન અને શુભ અધ્યવસાયના ખળ ઉપર કેવળજ્ઞાનના લાભ કરી મેાક્ષને પ્રાપ્ત કર્યો. દેવ કે જે તેના ગુરુ મહારાજને જીવ હતા તેણે પોતાના પૂર્વ પર્યાયના શિષ્યને પ્રાપ્ત થયેલ કેવળજ્ઞાનના અને નિર્વાણુના ઉત્સવને મનાવીને પોતાને સ્થાને ગયા. આવી રીતે પ્રત્યેક મુનિનું કર્તવ્ય છે કે, તે દૃઢવીય મુનિની માફક ક્ષુધા પરિષહને सहन ४२ ॥ ३ ॥ ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર ઃ ૧ Page #343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८८ उत्तराध्ययसूत्रे छाया-ततः स्पृष्टः पिपासया, जुगुप्सी लज्जासंयतः । शीतोदकं न सेवेत विकृतस्य एषणां चरेत् ॥ ४ ॥ टीका-तओ पुट्ठो' इत्यादि। ततः क्षुधापरीषहानन्तरं, पिपासया तृषया, स्पृष्टः व्याप्तः सन् , जुगुप्सी -जुगुप्सका अनाचारविरत इत्यर्थ तथा लज्जासंयतः-लज्जायां संयमे सम्यम् यत्नवानित्यर्थः । साधुः शीतोदकं सचित्तं जलं 'न सेवेत ' न व्यापृणुयात् किं तु विकृतस्य यवतण्डुलद्राक्षादिधावनोत्कालनादिना वर्णगन्धरसस्पर्शेरन्यथाभावं प्राप्तस्य पासुकस्य जलस्य, प्रासुकजलं त्वेकविंशतिविधं भवतीत्याचाराङ्गसूत्रे द्वितीयश्रुतस्कन्धे नवमाध्ययने निगदितम् - क्षुधापरीषह को सहन करने वाला मुनि को आहार की गवेषणा करते हुए पिपासा लगे, तथा अहार करने के बाद पिपासा लगे तो उसको सहन करना चाहिये, इस आशय से अब सूत्रकार पिपासापरीषह को कहते हैं-" तओ पुट्ठो” इत्यादि । ___ (तओ-ततः) क्षुधापरीषह के अनन्तर (पिवासाए पुट्ठो-पिपासयास्पृष्टः) पिपासा से व्याप्त होने पर भी (दोगुच्छी-जुगुप्सी) अनाचारविरत तथा (लज्जसंजए-लज्जासंयतः) संयम की रक्षा करने में प्रयत्न. शील साधु (सीओदगं न सेविज्जा-शीतोदकंन सेवेत) सचित्त जल का सेवन नहीं करे । किन्तु (वियडस्सेसणं चरे-विकृतस्य एषणां चरेत्) विकृत-यव, तण्डुल, एवं द्राक्षा आदि के धोने से अथवा उनके उकालने से जिनके वर्ण, गंध, रस तथा स्पर्श का परिवर्तन हो चुका है ऐसे प्रासुक जल की गवेषणा करे। तात्पर्य यह है कि पिपासा से पीडित होने સુધા પરિષહ સહન કરનાર મુનિને આહાર કર્યા પછી તરસ લાગે તેને સહન ४२वी ने मे २4 DAIA4थी सूत्र४२ पिपासा परिष७ ४ छ. तओ पुट्ठो-त्या. तओ-ततः क्षुधा परिषडना मनन्तर पिवासाए पुट्ठो-पिपासयास्पृष्टः तरसथी व्यात 4 छतi मनाया विरत तथा दोगुंच्छि-जुगुप्सी अनाया२ विरत तथा लज्जासंजए-लज्जासंयतः सयभनी २१॥ ४२पामा प्रयत्नाद साधु सीओदगं न सेविज्ज-शीतोदकं न सेवेत सयित्त ४सनु सेवन न ४२. (तु वियडस्सेसणं चरे-विकृतस्य एषणां चरेत् विकृत (मथित्त)-४१, यामा, द्राक्ष વગેરેના ધોવાથી અથવા એને ઉકાળવાથી તેના વર્ણ, ગંધ, રસ તથા સ્પર્શનું પરિવર્તન થઈ ચુકયું છે એવા પ્રાસુક જળની ગવેષણ કરે. તાત્પર્ય એ છે કે તરસથી પીડાતા હોવા છતાં પણ સાધુએ સચિત્ત અનેષણીય ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रियदर्शिनी टीका. अ० २ गा० ४ पिपासापरीषहजये पानभेदाः २८९ (१) उस्सेइम-उत्स्वेदिम-पिष्टोत्स्वेदनार्थमुदकम् । रोटिकायां कृतायां येनो दकेन पिष्टस्थाल्यादिधावनं क्रियते तदित्यर्थः । (२) संसेइम-संसेकिमं-उत्कालितानां पत्रशाकादीनामनपगततिक्तादिरसाप सारणार्थ शैत्यार्थ वा येनोदकेन धावनं क्रियते, तदित्यर्थः । (३) चाउलोद्गं-तण्डुलोदकं-तण्डुलधावनोदकम् । (४) तिलोदगं-तिलोदकं-तिलधावनोदकम् । (५) तुसोदगं-तुषोदकं-तुषधावनोदकम् । (६) जवोदगं-यवोदकं-यवधावनोदकम् , अत्र 'यव' इत्युपलक्षणं तेन ब्रीह्या दिधावनोदकस्यापि ग्रहणम् । पर भी साधु को चाहिये कि वह कभी भी सचित्त अनेषणीय जल का उपयोग न करे। प्रासुक जल इक्कीस २१ प्रकार का होता है यह बात आचारांगसूत्र में द्वितीय श्रुतस्कन्ध के नवम अध्ययन में कही गई है१ उस्सेइम-भोजन बन चुकने के बाद आटे की थाली आदिका धोवन। २ संसेइम-शाकपत्रादिकों के उबालने पर उनका कडुआपन आदि निकालने के लिये अथवा उन्हें ठंडे करने के लिये जो जल ऊपर से डाला जाता है वह । ३ चाउलोदकं-चावलों का धोवन । ४ तिलोदगं-तिलों का धोवन । ५ तुसोदगं-तुषों कोधोने से निकला हुआ जल। ६ जवोदगं-जौ आदि का धोया हुआ जल। જળને ઉપયોગ કદી પણ ન કરવું જોઈએ. પ્રાસુક જળ એકવીસ પ્રકારનું હોય છે આ વાત આચારાંગસૂત્રમાં બીજા શ્રુતસ્કંધના નવમાં અધ્યયનમાં કહેવામાં આવેલ છે. उस्सेइम- १लान मनी युध्या पछी माटानी थाणी विगेरे घा१. संसेइम- २ ॥ ५३ाहिने वाथी तेन। ४३१॥ ५॥ वगेरेने दवा માટે અથવા તેને ઠંડા કરાવવા માટે જે પાણી ઉપરથી નાખ વામાં આવે છે તે. चाउलोदगं- 3 यासानु घोपर. तिलोदगं- ૪ તલનું ધાવણ. तुसोदग- ૫ તુને ધોવાથી નિકળેલ પાણી. जवोदगं- ૬ જવ આદિને ધતાં નિકળેલ પાણી. उ०३७ ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९० उत्तराध्ययन सूत्रे (७) आयामं - आचामं - शाकतण्डुलादीनामवस्रावणम् । (८) सोवीरं - सौवीरं - काञ्जिकम् । दध्यम्लिकादिनिःसृतं जलम् । तत्रोपरि निस्तरितं जलम् -' आँछ ' इति भाषाप्रसिद्धं च । (९) अंबपाणगं- आम्रपानकं आम्रधावनोदकम् । (१०) अंबाडगपाणगं- आम्रातकपानकं, आम्रातकम् - अम्लरसयुक्तः फलविशेषः, तद्धावनोदकम् । (११) कविट्ठपाणगं - कपित्थपानकं - कपित्थं = ' कोठ' इति भाषाप्रसिद्धं, तद्धावनोदकम् । (१२) मातुलिंगपाणगं - मातुलिङ्गपानकं, मातुलिङ्ग - ' बिजोरा ' इति भाषाप्रसिद्धं तद्धावनोदकम् । (१३) मुद्दियापाणगं - मृद्वीकापानक- द्राक्षाधावनोदकम् । (१४) दाडिमपाणगं - दाडिमपानकं - दाडिमधावनोदकम् । ७ आयाम - शाक एवं तण्डुल आदि का ओसामण । ८ सोवीरं - दही मठा का जल- कांजी । दही के नीचे का जल, तथा छांछ के ऊपर का जल । ९ अंबपाणगं- आमका धोंवन । १० अंबाडगपाणगं - एक फलविशेष कि जिसका रस आम्ल कषायला होता है उसका धोवन । ११ कविट्टपाणगं - कपित्थ-कैंथ का धोवन । १२ मातुलिंगपाणगं - बिजोरा का धोवन । १३ मुद्दियापाणगं - दाखों का धोवन । १४ दाडिमपाणगं - अनार का धोवन । आयाम सोवीरं ૭ શાક અને ચાખાનું એસામણુ. ૮ દહીં અને છાશનું પાણી જેમાં દહીંની નીચેનું પાણી અને છાશની ઉપરની આછે. ૯ કેરીનું ધાવણુ, अबपाणi अंबाडगपाणगं- ૧૦ જે ફળના રસ ખાટા હાય તેનુ' ધાવણું. कविट्ठपाणगं- ११ उपित्थ- हा घोवाशु. मातुलिंगपाणगं- १२ मीलेश घोव. मुद्दियापाणगं- ૧૩ દાખાનુ ધાવણુ. दाडिमपाण- ૧૪ દાડમનું ધાવણુ, ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર ઃ ૧ Page #346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रियदर्शिनी टीका अ० २ गा. ४-५ पिपासापरीषहजये पानमेदाः २१ २९१ (१५) खज्जूरपाणगं-खर्जूरपानकं, खजूरधावनोदकम् । (१६) गाइएरपाणगं-नारिकेरपानक-नारिकेलफलधावनोदकम् । (१७) करीरपाणगं-करीरपानकं-करोरं 'केर' इति भाषाप्रसिद्धं, तद्धावनोदकम् । (१८) कोलपाणगं-कोलपानकं-बदरीफलधावनोदकम् । (१९) आमलगपाणगं-आमलकपानकम् , आमलकम्-' आंवला' इति प्रसिद्धं, तद्धावनोदकम् । (२०) चिंचापाणगं-चिश्चापानक-अम्लिकाधावनोदकम् । (२१) सुद्धवियडं-शुद्धविकटम्-उष्णोदकम् । ___ एवंविधस्य निर्दोषस्य, एषणाम् गवेषणाम्-आधाकर्मादिदोषान्वेषणरूपां चरेत् कुर्यात् । अयं भावः-पिपासया पीडितोऽपि सचित्तमनेषणीयं जलं न पिबेदिति ॥ गा. ४॥ १५ खज्जूरपाणगं-खजूरों का धोवन । १६ णाइएरपाणगं-नारियल का धोवन । करीरपाणगं-केर का धोवन । १८ कोलपाणग-बदरीफल-बैरों का धोवन । १९ आमलगपाणगं-आमला का धोवन। २० चिंचापाणगं-अम्लिका का धोवन । २१ सुद्धवियर्ड-उष्ण जल। इस प्रकार यह इक्कीस प्रकार का पानी साधु के लिये कल्पनीय बतलाया गया है। आधाकर्म आदि दोषों से रहित ऐसे इस पानी की गवेषणा साधु को करनी चाहिये। गा० ४॥ खज्जूरपाणगं- १५ मनुरीनु धौवा, णाइएरपाणग- १६ नारायणनु घाव. करीरपाणगं- १७२ धावा. कोलपाणगं- १८ महरी नु घाव. आमलगपाणगं- १८ मामणानुधावा. चिंचापाणगं- २० मामीन घोप. सुद्धबियडं- २१ ॥२म पाणी. ઉપર બતાવવામાં આવેલા આ પ્રકારનાં પાણી સાધુઓ માટે કલ્પનીય બતાવેલ છે. આધાકર્મ આદિ દેષથી રહિત એવા પાણીની ગવેષણ સાધુએ કરવી જોઈએ. એ ગા. ૪ ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९२ उत्तराध्ययनसूत्रे अथ ग्रामनगरादिभ्यो बहिः क्वचिदटव्यादिमार्गे विहरन् मुनिर्यदि पिपासया पीडितः स्यात् तदाऽपि तत्परीपहः सोढव्य इत्याहमूलम् छिन्नावाएसु पंथेसु, आँउरे सुपिवासिए । परिसुकमुहादीणे, तं तितिक्खे परीसहं ॥५॥ छाया-छिन्नापातेषु पथिषु आतुरः सुपिपासितः । परिशुष्कमुखादीनः तं तितिक्षेत परीषहम् ॥५॥ टीका-छिन्नावाएसु' इत्यादि । छिन्नापातेषु-छिन्नः अपगतः, आपातः-जनानां गमनागमनरूपः संचारो यत्र तेषु, पथिषु-मार्गेषु गच्छनिति शेषः, आतुरः तृपया व्याप्तकायः, अत एवं सुपिपासितः अतिशयेन तृषितः, अत एव परिशुष्कमुखादीनः परीशुष्कमुखः गतनिष्ठीवनतया शुष्कतालुरसनोष्ठः, स चासावदीनश्च परिशुष्कमुखादीनः, परिशुष्क ग्राम नगर आदि से बाहर किसी अटवी आदि के मार्ग में विचरते हुए साधु को यदि पिपासा से आकुलता उत्पन्न हो जावे तो भी उसे उस द्वितीय क्षुधापरीषह को सहन करना चाहिये यह बात इस नीचे की गाथा द्वारा सूत्रकार प्रकट करते हैं-'छिन्नावाएसु' इत्यादि। __ अन्वयार्थ-(छिन्नावाएसु-छिन्नापातेषु) जिन मार्गों में जनों का आवागमनरूप संचार छिन्न हो गया है अर्थात्-नहीं होता है ऐसे (पंथेसु-पथिषु) मार्गों में संचरण अर्थात्-विचरण करता हुआ साधु (सुपिवासिए आउरे-सुपिपासितः आतुरः) यदि पिपासा से व्याप्त होकर आतुरअत्यंत पीडित हो जाता है और इसीसे (परिसुक्कमुहादीणे-परिशुष्कमुखादीनः) जिसके मुख का थूक तक भी सूखचुका है और ऐसी ગ્રામ, નગર વગેરેથી બહારના રસ્તા ઉપર વિચરતા સાધુને માર્ગમાં તરસની આકુળતા ઉત્પન્ન થાય તે પણ તેણે એ બીજા ક્ષુધાપરીષહને સહન કરે नये. २मा पात नीयनी ॥ ॥ सूत्र४।२ ५४८ ४२ छ. छिन्नावाएसु-त्या. मन्वयार्थ --छिन्नावाएसु-छिन्नापातेषु २ भाभा माणुसेन। अवागमन३५ सयार मय थ६ गयो छाय. अर्थात् नथी यता सा पंथेसु-पथिषु भाभि संया२५ मर्थात् विया ४२ना२ साधु सुपिवासिए आउरे-सुपिपासितः आतुरः पानी तरसथी व्याण मनी मयत पीडित 45 नय छ भने मेथी परिसुक्कमुहादीणे -परिशुष्कमुखादीनः न भोदामांनु थु ५५ सुईय छ मेवी सतमा, ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९३ प्रियदर्शिनी टीका. अ० २ गा. ५ पिपासापरीषहजयः मुखोऽपि सन्नदीन इत्यर्थः । तं-तृषापरीषहं, तितिक्षेत-सहेत । अयं भावः-निर्जनस्थानस्थितोऽपि तृषाव्याकुलितोऽपि सन् सचित्तमनेषणीयं जलं न पिबेदिति । “छिन्नावाएमु पंथेसु' इत्यनेन मुनीनां चरणविहारः सूचितः। 'आउरे' इत्यनेन-परीषहावस्थायामपि समाधिभावेन वर्तितव्यमिति बोधितम् । 'सुपिवासिए' इत्यनेन पिपासाधिक्येऽपि सचित्तमनेषणीयमुदकं न ग्रहीतव्यमिति सूचितम् । 'परिसुक्कमुहादीणे' इत्यनेन कष्टावस्थायामपि परीषहो जेतव्य एवेतिसूचितम्। 'तितिक्खे' इत्यनेन परीपहोपस्थितौ सहिष्णुता समाश्रयणीया, इति बोधितम्। हालत में तालु, रसना एवं ओष्ठ भी बिलकुल शुष्क हो चुका है फिर भी अदोन बना हुवा मुनि (तं परीसहं तितिक्खे-तं परीषहं तितिक्षेत) इस तृषापरीषह को जीते। तात्पर्य इसका यह है कि निर्जनस्थान में रहने पर भी यदि साधु तृषा से पीडित होता है तो भी उसे सचित्त अनेषणीय जल का पान नहीं करना चाहिये। गाथा में रहे हुए “छिन्नावाएसु पंथेसु" इस विशेषणगर्भित पद द्वारा मुनियों का चरण विहार सूचित किया है । “आउरे" इस पद द्वारा परीषह अवस्था में मुनियों को समाधिभावपूर्वक रहना बतलाया गया है। “सुपिवासिए" पद द्वारा पिपासा की तीव्र अवस्था में भी सचित्त अनेषणीय उदक नहीं लेना चाहिये, यह प्रकट તાલ રસના અને હોઠ પણ તદ્દન સુકા બની જાય છે, એવી પરિસ્થિતિમાં भु। छतi ५५महीन. अनेस मुनि तं परिसहं तितिक्खे-तं परिषहं तितिक्षेत એ તૃષા પરીષહને જીતે. એનું તાત્પર્ય એ છે કે, નિર્જન સ્થાનમાં રહેવા છતાં પણ સાધુ તરસથી પીડિત હોય તે તેણે સચિત્ત અનેષણીય જળનું પાન ન કરવું જોઈએ. ___ाथामा २९॥ " छिन्नावाएसु पंथेसु" विशेष गर्मित ५४ द्वारा मुनिक योन। य२६ विहार सुयामा मावस छे. आउरे-मा५४थी परीषड अवस्थामा भुनियाये समाधि मा पूर्व २९वान मतावेस छ. सुपिवासिए मा ५४थी તરસની તીવ્ર અવસ્થામાં પણ સચિત્ત અનેષણય પાછું ન લેવું જોઈએ. ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९४ अत्र दृष्टान्तः आसीदुज्जयिन्यां धनमित्रनामकः श्रेष्ठी, स धनप्रियनाम्नाऽष्टवर्षवयस्केन स्वपुत्रेण सह मित्रगुप्ताचार्यसमीपे प्रब्रजितः । स धनप्रियशिष्यः सपरिवारेणाचार्येण सह कदाचिन्मार्गे विहरन् पिपासार्तोऽभवत् । अन्यैः साधुभिः सहाचार्यमग्रे गतं दृष्टा धनमित्रमुनिना नदीमालोक्य पुत्रानुरागेण कथितम्, वत्स! जलं पिब, पश्चादालोचनया शुद्धिर्भविष्यति । इत्युक्तोऽपि शिष्यो जलपानं कर्तुं न वाञ्छति । ततो किया गया है। 46 परिसुक्क मुहादीणे " इस पद से सूत्रकार यह प्रदर्शित कर रहे हैं कि कष्ट की अवस्था में भी परोषहों को जीतना ही चाहिये । " तितिक्खे " पद से यह ज्ञात होता है कि परीषह की उपस्थिति में घवड़ाना नहीं चाहिये किन्तु सहिष्णुता धारण करनी चाहिये । इस विषय को अब दृष्टान्तद्वारा स्पष्ट किया जाता है ―― उत्तराध्ययन सूत्रे उज्जैनी नगरी में धनमित्र नाम का एक सेठ रहता था । वैराग्य पाकर उसने अपने आठवर्ष के धनप्रिय नामक पुत्र के साथ मित्रगुप्तआचार्य के पास मुनिदीक्षा धारण करली । एक समयकी बात है कि वे धनप्रिय मुनि सपरिवार आचार्य के साथ जब विहार कर रहे थे तब मार्ग में उनको प्यास की वेदना जागृत हुई । अन्य साधुओं के साथ आचार्य को आगे गये हुए जान कर धनमित्र मुनि ने नदी को देखते ही पुत्रानुराग के वशवर्ती बन धनप्रिय से कहा कि वत्स ! जल पीलो, पीछे आलोचना से इसकी शुद्धि कर लेना । इस प्रकार धनमित्र मुनि के वचन मे अगर रेल छे. परिसुक्क मुहादीणे आपथी उष्टनी अवस्थामां पशु परि षहोने तवा लेहये. मेवं सूत्रार प्रदर्शित रे छे. " तितिक्खे” यापदृथी પરિષહનાં આવવાથી ગભરાવુ ન જોઇએ પરંતુ સહિષ્ણુતા ધારણ કરવી જોઈએ. આ વિષય ઉપર એક દૃષ્ટાંત કહેવામાં આવે છે.— ઉજ્જૈની નગરીમાં ધનમિત્ર નામે એક શેઠ રહેતા હતા. વૈરાગ્ય પામીને તેણે પાતાના આઠ વર્ષના ધનપ્રિય નામના પુત્ર સાથે મિત્રગુપ્ત નામના આચાય પાસે મુનિ દીક્ષા ધારણ કરી. એક સમયની વાત છે કે, ધનપ્રિય મુનિ સપરિવાર આચાર્ય ની સાથે જ્યારે વિહાર કરી રહેલ હતા, ત્યારે માર્ગોમાં તેને તરસ લાગી. બીજા સાધુઓ સાથે આચાર્યને આગળ ગયેલા જાણીને ધનમિત્ર મુનિએ નદીને જોઇને પુત્રપ્રેમને વશ મની ધનપ્રિયને કહ્યું, વસ પાણી પીઈ લે. પછી આલેચનાથી એની શુદ્ધિ કરી લેજો. આ પ્રકારનાં ધનમિત્ર ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર ઃ ૧ Page #350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रयदर्शिनी टीका. अ० २ गा. ५ पिपासापरीषहजये धनप्रियदृष्टान्तः २९५ धनमित्रमुनिश्चिन्तयति - मम समक्षे नायं जलं पिवतीति, एवं विचिन्त्य शुष्कमार्गेण सत्वरं नदीमुत्तीर्यां गतः, तदनन्तरं धनप्रियमुनिर्जलपानार्थ नद्यां प्रविश्याञ्जलौ जलं भृत्वा सद्यः संजातकारुण्यश्चिन्तयति - कथमहं जलं पिबामि । यतःएगंमि उदगबिंदुम्मि, जे जीवा जिणवरेहि पन्नत्ता | ते सरिसवपरिमित्ता, जम्बुद्दीवे न मायंति ॥ १ ॥ छाया - एकस्मिन्नुदकविन्दौ, ये जीवा जिनवरैः प्रज्ञप्ताः । ते सर्वपपरिमात्राः जम्बूद्वीपे न मायेयुः ॥ १ ॥ व्याख्या — एकस्मिन् जलविन्दौ ये जीवाः सन्ति, ते यदि सर्वपप्रमाणं शरीरं धृत्वा वर्तेयुस्तर्हि जम्बूद्वीपे न मायेयुरित्यर्थः ॥ १ ॥ सुनकर धनप्रिय ने पानी पीने की जरा भी इच्छा नहीं की । इस परिस्थिति को देखकर धनमित्र मुनि ने विचार किया कि यह मेरे साम्हने जल नहीं पीवेगा अतः यहां से चल देना चाहिये, सो वे शुष्कमार्ग से नदी को पार कर आगे चले गये। इसके बाद धनप्रियमुनि जलपान करने के लिये नदी में प्रविष्ट हुए और अंजलि में पानी भर कर दया भाव से विचारने लगे कि इस अकल्पनीय सचित्त जल को मैं कैसे पीऊँ ? क्यों कि " एगंमि उद्गबिंदुम्मि, जे जीवा जिणवरेहि पन्नत्ता । ते सरिसवपरिमित्ता, जंबुद्दीवे न मायंति ॥ १ ॥ " एक जल के बिन्दु में जितने जीव जिनेन्द्र भगवान ने बतलाये हैं वे यदि सरसों के आकार को धारण करलें तो इस जंबूद्वीप में नहीं समा सकते हैं ॥१॥ મુનિનાં વચન સાંભળીને ધનપ્રિયમુનિચે પાણી પીવાની જરા પણ ઈચ્છા ન કરી આ પરિસ્થિતિને જોઈ ધનમિત્રમુનિએ વિચાર કર્યું કે, આ મારી સામે પાણી પીશે નહી માટે અહીંથી ચાલવુ જોઈ એ જેથી તેઓ સુકા માર્ગેથી નદીને પાર કરીને આગળ ચાલ્યા. આ પછી ધનપ્રિયમુનિએ જળપાન કરવા માટે નદીમાં પ્રવેશ કર્યાં અને હાથમાં પાણી લઈ દયા ભાવથી વિચારવા લાગ્યા કે, આ અકલ્પનીય સચિત્ત પાણી હું કેવી રીતે પીઉં કેમકે કહ્યું છે કે— गंमि उदगबिंदुम्मि, जे जीवा जिणवरेहि पन्नत्ता | ते सरिसव परिमित्ता, जम्बुद्दिवे न मायन्ति ॥ १ ॥ જળના એક ટીપામાં જેટલા જીવ જીનેન્દ્ર ભગવાને મતાન્યા છે તે કદાચ સરસવના આકારને ધારણ કરીયે તેા. આ જમ્મૂદ્વિપમાં સમાઈ ન શકે. ॥૧॥ ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર ઃ ૧ Page #351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययनसूत्रे जत्थ जलं तत्थ वर्ण, जत्थ वणं तत्थ णिच्छियो तेऊ । तेऊ वाउसहगओ, तसा य पचखया चेव ॥२॥ छाया-यत्र जलं तत्र वन, यत्र वनं तत्र निश्चितं तेजः। तेजो वायुसहगतं त्रसाश्च प्रत्यक्षका एव ॥२॥ व्याख्या-यत्र जलं तत्र वन-वनस्पतिः, यत्र वनस्पतिस्तत्र निश्चयेन तेजोवहिः, यत्र तेजस्तत्र वायुः सहयोगिखात् , सास्तु प्रत्यक्षा एव सन्ति ॥२॥ हंतूण परप्पाणे, अप्पाणं जो करेइ सप्पाणं । अप्पाणं दिवसाणं, कए य नासेइ सप्पाणं ॥३॥ छाया-हत्वा परमाणान्, आत्मानं यः करोति सप्राणम् । अल्पानां दिवसाना, कृते नाशयति स्वात्मानम् ॥ ३॥ व्याख्या-तस्मात् परमाणान् हत्वा यः आत्मानं सप्राणं सबलं करोति, स अल्पानां दिवसानां कृते स्वात्मानं नाशयति ॥३॥ " जत्थ जलं तत्थ वणं, जत्थ वणं तत्थ णिच्छिओ तेज। तेऊवाउ सहगओ, तसा य पच्चक्खया चेव ॥ २॥" जहां जल है वहां निश्चित वनस्पति है। जहां वनस्पति है वहां निश्चित तेज-अग्नि है। जहां तेज है वहां निश्चित वायु है। उसकाय तो प्रत्यक्ष ही है ॥२॥ "हंतूण परप्पाणे, अप्पाणं जो करेइ सप्पाणं। अप्पाणं दिवसाणं, कए य नासेइ सप्पाणं ॥३॥" जो दूसरे जीवों के प्राणों का हनन कर कुछ ही दिनों के लिये अपने आपको सबल बनाने की चेष्टा करता है वह अपने आपका विनाश करता है ॥३॥ जत्थजलं तत्थ वणं, जत्थ वणं तत्थ णिच्छिओ तेउ। तेउ वाउसहगओ, तसाय पच्चक्खया चेव ॥२॥ જ્યાં જળ છે ત્યાં વનસ્પતિનું દેવું નિશ્ચિત છે, જ્યાં વનસ્પતિ છે ત્યાં તેજ અગ્નિ નિશ્ચિત છે. જ્યાં તેજ છે. ત્યાં વાયુ નિશ્ચિત છે. ત્રસકાય તે પ્રત્યક્ષ છે જ રા हंतूण परप्पाणे, अप्पाणं जो करेइ सप्पाणं । अप्पाणं दिवसाणं, कए य नासेइ सप्पाणं ॥३॥ જે બીજા જીના પ્રાણની વિરાધના કરીને થોડા દિવસો માટે પોતે પિતાની જાતને સબળ બનાવવાની ચેષ્ટા કરે છે તે પિતે પિતાની જાતને વિનાશ કરે છે ? ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रियदर्शिनी टीका. अ० २ गा० ५ पिपासापरीषहजये धनप्रियदृष्टान्तः २९७ अहो! दुर्लभा संयमप्राप्तिः, ततोऽपि संयमरक्षणं दुर्लभतरं, तच्चापूकाय विराधनया षट्काविराधनायां सत्यां न भवितुं शक्यते, संयमरक्षणाभावे सर्वेषां महाव्रतानां भङ्गः स्यात्, ततश्च चतुर्गतिकसंसारपरिभ्रमणं भविष्यति । यस्मान्नेदं जलं पास्यामीति निश्चित्यास मुनि रञ्जलितो जलं नद्यामेव यतनया मुमोच । स लघुवयस्कोऽपि महनीयधैर्यः शुष्कमार्गेण तां नदीमुत्तीर्य तत्तीर एव पिपासया गन्तुमक्षमः सन् भूमौ निपतितः । इस प्रकार विचार कर धनप्रियनामक लघुमुनिने यह भी विचार किया कि इस संसार में जीवों को एक तो संयम की प्राप्ति होना दुर्लभ है, और उसकी अपेक्षा संयम की रक्षा महान् दुर्लभ है । मैं कच्चा पानी पीऊँ तो अपूकाय की विराधना होती है अकाय की विराधना में षट्काय की विराधना अवश्य होती है, षट्काय की विराधना से संयम की रक्षा नहीं हो सकती । जहाँ संयम की रक्षा नहीं है वहां समस्त महाव्रतों का भंग है । इनके भंग से संसारपरिभ्रमण अवश्य होता है, अतः मैं तो इस जलको नहीं पीऊँगा । इस प्रकार निश्चय कर लघुमुनि ने बड़ी ही यतना से अंजलि में लिये हुए जल को उसी नदी में छोड़ दिया । उस समय उनकी आयु कोई अधिक नहीं थी परंतु धैर्य की मात्रा हृदय में बढी हुई थी इस लिये यथा कथंचित् वे शुष्कमार्ग से होकर नदी को पार करके दूसरे तीर पर आगये । परन्तु प्यास ने इतनी प्रबलता धारण की कि वे आगे मार्ग पर नहीं चलसके और આ પ્રકારના વિચાર કરી ધનપ્રિય નામના નાના મુનિચે એવા વિચાર કર્યાં કે, આ સંસારમાં જીવાને એક તે સંયમની પ્રાપ્તિ થવી દુČભ છે અને તેની અપેક્ષા સંયમની રક્ષા મહાન દુર્લભ છે. હું કાચું પાણી પીઉં તા અપૂકાચની વિરાધના થાય છે, અકાયની વિરાધનામાં ષટ્રકાયની વિરાધના અવશ્ય અને છે. ષટ્કાયની વિરાધનાથી સંયમની રક્ષા થતી નથી. જ્યાં સંયમની રક્ષા નથી ત્યાં સમસ્ત મહાવ્રતાના ભંગ છે. તેના ભંગથી સસાર પરિભ્રમણ અવશ્ય થાય છે. માટે હું તે આ જળને પીઈશ નહીં. આ પ્રકારના નિશ્ચય કરી લઘુ મુનિયે ખૂબજ યતનાથી ખેાખામાં લીધેલ પાણીને તે નદીમાં છોડી દીધું. આ સમયે તેની ઉ ંમર કાંઈ માટી ન હતી પરંતુ ધૈર્યની માત્રા હૃદયમાં વધેલી હતી. આ કારણે આગળ કહેવામાં આવ્યા પ્રમાણે સુકા માથી નદીને પાર કરી સામા કાંઠે પહોંચી ગયા. પરંતુ તરસ એટલા જોરથી લાગી હતી કે આને उ० ३८ ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર ઃ ૧ Page #353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९८ उत्तराध्ययनसूत्रे __ अथ पिपासाविवशोऽपि धर्मे निश्चलमतिरसौ पश्चनमस्कारस्मरणपूर्वकं समाधिभावेन देहं विहाय प्रथमकल्पे वैमानिकदेवत्वेन समुत्पन्नः। ततोऽवधिज्ञानेन स्वपूर्वभवं विज्ञाय तेन धनप्रियेण देवेन सर्वेषां मुनीनामनुग्रहार्थ वैक्रियशक्त्या पथि गोकुलं निर्मितम् । अथ सपरिवारो मित्रगुप्ताचार्यः पुरतो गोकुलं दृष्ट्वा तत्र शुद्ध तक्रादि गृहीत्वा पिपासां निवार्य चलितः । अथ तेन देवेन स्वपरिचयार्थमेकस्य साधोरासनं विस्मारितम् । येन मुनिनाऽऽसनं विस्मृतम् , स च स्वासनान्वेषणार्थ पुनर्गोकुलस्थानमागत्य गोकुलमपश्यन् प्रत्यायत्तः सर्वान् मुनीनब्रवीत्-नास्ति तत्र वहीं पर गिर पडे । पिपासा से विवश होने पर भी इनकी मति धर्म में निश्चल बनी रही, पंचनमस्कार मंत्र का स्मरण करते हुए इन्होंने समाधिभाव से काल को प्राप्त किया। पिपासापरीषह को सहन करने के प्रभाव से ये प्रथमकल्प में वैमानिक देव हुए। अवधिज्ञान से अपने पूर्व भव को जानकर उस लघुमुनि के जीव देव ने समस्त मुनियों की रक्षा के लिये अपनी वैक्रियिक शक्ति से मार्ग में गोकुल की रचना कर दी। सपरिवार मित्रगुप्ताचार्य ने आगे गोकुल देखा।। वहां से शुद्ध तक्र आदि को लेकर अपनी पिपासा को शांत किया, एवं आगे विहार करना प्रारंभ कर दिया। किसी ने भी यह नहीं जाना कि यह सब देवकृत माया है, अतः देव ने अपने परिचय के निमित्त एक साधु को अपना आसन विस्मृति करा दिया । जो मुनि वहां पर आसन भूल गया था वह उस आसन को लेने के लिये पीछे उस स्थान पर आया तो क्या देखता है कि यहां पर तो कोई લઈ તે આગળ માર્ગે ચાલી શક્યા નહીં અને ત્યાં જ પડી ગયા. તરસથી વિવશ બનવા છતાં પણ તેની મતિ ધર્મમાં નિશ્ચલ બની રહી. પંચનમસ્કાર મંત્રનું સ્મરણ કરીને તેમણે સમાધી ભાવથી કાળધર્મ પ્રાપ્ત કર્યો. તરસના પરીષહને સહન કરવાના પ્રભાવથી તે પ્રથમ ક૫માં વિમાનિક દેવ થયા. અવધિજ્ઞાનથી પિતાના પૂર્વભવને જાણીને તે લઘુમુનિના જીવ દેવે સમસ્ત મુનિના અનુગ્રહ માટે પોતાની વૈકિયિક શક્તિથી માગમાં ગોકુળની રચના કરી. સપરિવાર મિત્રગુણાચાર્યે આગળ ગોકુળ જોયું અને ત્યાંથી શુદ્ધ છાશ આદિ લઈને પિતાની તરસને છિપાવી. અને આગળ વિહાર કરવા લાગ્યા. કેઈએ એ ન જાણ્યું કે આ બધી દેવકૃત માયા હતી. આથી દેવે પિતાના પરિચય નિમિત્ત એક સાધુને તેનું આસન ભુલાવી દીધું. જે મુનિ આસન ભુલી ગયા હતા તે મુનિ ત્યાં આસન લેવા માટે પાછા આવ્યા તે શું દેખે છે કે ત્યાં કેાઈ ગોકુળ ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रियदर्शिनी टीका. अ० २ गा० ५-६ शीतपरीषहजयः २९९ पूर्वदृष्टं गोकुलम् । तदा तद्वचनेन सर्वैरपि साधुभितिगोकुलाभावैस्तत्र काचिद्देव शक्तिर्विदिता । सर्वैस्तत्पिण्डभोजनस्य प्रायश्चित्तं कृतम् । ततस्तत्रागत्य तेन देवेन संसारावस्थायां तातं स्वगुरुं मुक्त्वा सर्वे साधवो वन्दिताः। किं कारणं त्वया नायं वन्दितः ? एवमाचार्येण पृष्टोऽसौ सर्व स्ववृत्तान्तं सचित्तजलपानार्थ पितुः प्रेरणं च सर्वेषां साधूनां पुरस्ताद् कथयित्वा देवलोकं गतः। एवमन्यैरपि मुनिभिस्तृषापरीषहः सोढव्यः ॥५॥ क्षुधापिपासापरीषहसहनेन कृशशरीरस्य साधोः शीतकाले शीतमपि बहु बाधते, इति शीतपरीषहजय पाहगोकुल नहीं है । वह शीघ्र ही पीछे वहां से वापिस लौटा और अपने आचार्य के पास आकर इस बात को कहा कि अब तो वहां पर कोई गोकुल नहीं है । साधुओं ने जब यह बात सुनी तो उन्हों ने यह निश्चित किया कि अवश्य इस में कोई देव की माया थी। सब ने मिलकर इसका प्रायश्चित्त लिया, क्यों, कि इन सब ने वहां से पहिले तक्रादि को ग्रहण किया था। बाद में देव ने आकर अपने संसार अवस्था के पिता-धनमित्र मुनि को छोड़कर बाकी के समस्त साधुओं को वंदना की। आचार्य ने पूछा धनमित्र मुनि को वंदन क्यों नहीं किया? तब उस देव ने समस्त पहिले का वृत्तान्त जो धनमित्र मुनि ने सचित्त जल को पीने के लिये अपने शिष्य धनप्रिय को मुनि की अवस्था में कहा था आचार्य के समक्ष कह दिया। कह कर फिर यह स्वर्ग को वापिस चला गया। इसी प्रकार अन्य मुनियों को भी तृषापरीषह का विजय करना चाहिये ॥५॥ નથી. તે એજ વખતે પાછા ફર્યા અને પિતાના આચાર્યની પાસે આવીને કહ્યું કે, ત્યાં તે કઈ ગોકુળ નથી. સાધુઓએ જ્યારે આ વાત સાંભળી તે તેઓએ એવું નકકી કર્યું કે, અવશ્ય આમાં કેઈ દેવની માયા હતી, સહુએ મળીને તેનું પ્રાયશ્ચિત્ત લીધું. કારણ કે, તે સહુએ ત્યાંથી છાસ આદિ વસ્તુ ગ્રહણ કરેલ હતી. બાદમાં દેવે આવીને પોતાના સંસાર અવસ્થાના પિતા ધનમિત્ર મુનીને છેડીને બાકીના સમસ્ત સાધુઓને વંદના કરી, આચાર્યો પૂછ્યું કે, ધનમિત્ર મનિને વંદના કેમ ન કરી? ત્યારે તે દેવે પહેલાને સમસ્ત વૃત્તાંત જે ધનમિત્ર:મુનિયે સચિત્ત પાણી પીવા માટે પોતાના શિષ્યને મુનિ અવસ્થામાં કહ્યું હતું તે આચાર્ય સમક્ષ કહી દીધું. આ કહીને તે પોતાના મુળધામ સ્વર્ગમાં ચાલ્યા ગયા. આ પ્રકારે અ યમુનિયેએ પણ તૃષાપરીષહને વિજય કરે જોઈએ. આપ ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #355 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययन सूत्रे मूलम् चरंतं विरयं हं, सीयं फुंसइ एगया । नोइ वेलं " मुणी गँच्छे, सोच्चा णं जिणंसासणं ॥ ६ ॥ छाया - चरन्तं विरतं रूक्षं, शीतं स्पृशति एकदा । नातिवेलं मुनिर्गच्छेत् श्रुत्वा खल जिनशासनम् ॥ ६ ॥ टीका- 'चरंतं ' इत्यादि । ३०० " चरन्तं = मोक्षमार्गे, ग्रामानुग्रामं वा विहरन्तं विरतं = सावद्ययोगतो निवृत्तम्अग्निज्वालनादिभ्यो निवृत्तमित्यर्थः, रूक्षं = स्निग्धाहारतैलाभ्यङ्ग परिहारेण धूसराङ्ग मुनिम्, एकदा = शीतकाले, शीतं स्पृशति पीडयति । atani ft वनस्पतयो हिमनिपातेन परितः परिशुष्का भवन्ति, पथिकाः संकोचितपाणयः पदैकमपि गन्तुमसमर्थाः पङ्गुवत् तत्र तत्रैव तिष्ठन्ति केचित् क्वणन्तवणिकाः कम्पमानगात्राः कृशानुसेवनाय तदभिमुखं शलभा इवापतन्ति । 9 क्षुधा एवं पिपासा परीषह के सहन करने से मुनि का शरीर कृश हो जाता है इससे शीतकाल में शीत की पीडा बहुत होती है इसलिये तीसरे शीतपरीषह को जीतना चाहिये; यही बात इस नीचे की गाथा से सूत्रकार प्रकट करते हैं 'चरंतं विरयं ' इत्यादि. अन्वयार्थ - (चरंतं विरयं चरन्तं विरतं ) मोक्ष मार्ग में अथवा एक ग्राम से दूसरे ग्राम में विहार करने वाले तथा सावद्ययोग से विरक्त एवं (लूह - रुक्षम् ) स्निग्धाहार तैलमर्दन आदि के त्याग से धूसर शरीर वाले ऐसे मुनि को ( एगया - एकदा) शीतकाल में ( सीयं फुसइ- शीतं स्पृशति ) शीत पीडित करता है । उस समय वह मुनि (णं - खलु ) निश्चભૂખ અને તરસ સહન કરનારા મુનિનું શરીર દુČળ ખની જાય છે, અને દુળ શરીરવાળાને ડિથી બહુ પીડા થાય છે. આથી ત્રીજો ડિના પરિષહેને મુનિએ જીતવા જોઈ એ. એવી વાત સૂત્રકાર નીચેની ગાથાથી પ્રગટ કરે છે. चरंत विरयं धत्याहि. अन्वयार्थ–चरंत विरयं चरंत विरतं मोक्षमां अथवा मे गाभथी जील गाभे विहार उरवावाजा तथा सावद्य योगथी विरम्त भने लूहं रुक्षम् स्निग्धाद्वार तेाभईन माहिना त्यागथी धूसर शरीरवाजा सेवा भुनिने एगया-एकदा शीतअजभां सीयं फुसइ - शीतं स्पृशति शीताण पीडित रे छे. ते समये ते भुनि णं- खलु ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર ઃ ૧ Page #356 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रियदर्शिनी टीका. अ०२ गा. ६-७ शीतपरीषहजयः ३०१ वायवश्व तुषारासारसंगादतिशय शिशिराः माणिनां शरीराणि परितः सातिशयं पीडयन्ति । अनवरतशीतपातजनितव्यथावारणाय बालकाः काष्ठखण्डादीनि समाहत्यैकत्र वह्नि प्रज्वाल्य प्रसारितपाणयस्तापमासेवन्ते । यत्र प्रतिक्षणं प्राणिनां प्राणाः प्रखर शीतवेदनाभिरुद्विग्ना भवन्ति । तदा स मुनिः खलु-निश्चयेन, जिनशासनं जिनवचनरहस्यं श्रुत्वा ‘अनेन ममात्मना नरकनिगोदादौ तीव्रतरा अनन्तवेदना अनन्तवारमनुभूता' इति विभाव्य, अतिवेलं वेलाऽतिक्रमणं न गच्छेत्न प्राप्नुयात्-प्रतिलेखनादे यः कालस्तं शीतभयादुल्लघ्याऽन्यस्मिन् काले प्रतिलेखनादिकं न कुर्यादित्यर्थः । यद्वा-शीतभयात् पूर्वोपविष्टस्थानं विहाय स्थानान्तरं न बजेदिति । 'चरंतं ' इत्यनेन कारणं विना एकत्रावस्थानं न करणीयमिति मूचितम् । 'विरयं' इत्यनेन यतनावत्त्वं मूचितम् । यसे (जिणसासणं सोच्चा-जिनशासनं श्रुत्वा ) जिन शासम को-' इस मेरी आत्मा ने नरक निगोद आदि स्थानों में तीव्रतर अनंत वेदनाएँ अनन्तवार भोगी हैं उस वेदना के सामने यह शीतवेदना क्या अधिक है ?' इस बात को सुनकर-समझकर (अइवेलं-अतिवेलम्) समय को उल्लंघन करके-प्रतिलेखना आदि के समय को टालन करके (न गच्छे-न गच्छेत् ) प्रतिलेखना आदि का जो समय है उसके सिवाय अन्य समय में प्रतिलेखनादिक क्रियाओं को न करे। तथा शीत के भय से पूर्वाधिष्ठित स्थान का परित्याग कर दूसरे स्थान में भी न जावे । गाथा में रहे हुए "चरंतं" इस पद्वारा सूत्रकार यह प्रदर्शित करते हैं कि मुनि को कारणविशेष विना एक जगह स्थिररूप से नहीं निश्चयथी जिणसासाण सोच्चा-जिनशासनं श्रुत्वा न शासनन ॥ मायात्माये નરક નિગદ આદિ સ્થાનમાં તીવ્રતાવાળી અનંત વેદનાએ ઘણી વખત ભેગવી છે તે વેદનાઓ સામે આ શીત વેદના કયા હિસાબમાં છે?” આ વાતને સાંભળી सम अइवेल-अतिवेल' समयनु Geerन ४२री प्रतिमना माहिना समयन टाणान न गच्छे-न गच्छेत् प्रतिमना महिना समय छ तेना सीवाय मीन સમયમાં પ્રતિલેખનાદિક ક્રિયાઓને ન કરે. તથા ઠંડીના ભયથી પૂર્વાધિષ્ઠિત સ્થાનને ત્યાગ કરીને બીજા સ્થાનમાં ન જાય. ___थामा २९॥ "चरत" मे पहासूत्र प्रशित ४२छे है, મુનિયે કારણ વિશેષ વીના એક જગ્યાએ સ્થિર રૂપથી રોકાવું ન જોઈએ. ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #357 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०२ उत्तराध्ययन सूत्रे 6 'लूहं ' इत्यनेन तपश्चरणशीलत्वं प्रवेदितम् || ६ | 'मुणी ' इत्यनेन सावद्यकार्ये मौनस्वमिति बोधितम् । मूलम् न मे निवारणं अस्थि, छवित्ताणं न विजए । अहं तु अंगिंग सेवामि, ईइ भिक्यूँ नै चिंते ॥७॥ छाया - न मे निवारणम् अस्ति, छवित्राणं न विद्यते । अहं तु अग्नि सेवे, इति भिक्षुर्न चिन्तयेत् ॥ ७ ॥ टीका- ' न मे ' इत्यादि । मे= मम, निवारण = शीतनिवारकं स्थानं नास्ति, तथा - छवित्राणं = शरीराच्छादनकं वस्त्रकम्बलादिकं न विद्यते । तु पुनः, अग्नि सेवे = अग्नि प्रज्वाल्य तत्तापमा - श्रयेय, इति एवं भिक्षुर्न चिन्तयेत् = मनसापि न प्रार्थयेत् । चिन्ताप्रतिषेधेन तत्सेवनं तु दुरत एव निराकृतम् । , ठहरना चाहिये । "विरयं" इससे मुनिको यतनावान् होना चाहिये यह सूचित किया गया है । " लुहं " पद से तपश्चरण शीलता एवं " मुणी" इस पद से सावधकार्य में मौन रखना यह सूचित किया गया है ॥ ६ ॥ ' न मे निवारणं' इत्यादि. अन्वयार्थ - (मे-मम) मेरे पास (निवारणं निवारणम् ) शीत को दूर करने वाला स्थान (न अस्थि - नास्ति) नहीं हैं ( छवित्ताणं न विज्जए-छवित्राणं न विद्यते ) शरीर को आच्छादान करने वाला वस्त्र एवं कम्बल आदि भी नहीं है अतः (अहं तु अरिंग सेवामि-अहंतु अग्नि सेवे ) मैं अग्नि का सेवन करूँ (इइ - इति) इस प्रकार ( भिक्खू - भिक्षुः ) साधु ( न चिंतए-न चिन्तयेत् ) मन से भी विचार न करे, उसके सेवन की बात तो दूर रही। " विरयं " मेनाथी भुनिये यत्नावान मनवु लेई मे. मेवु सूचित ४२वामां मान्युं छे " लूहं ” यहथी तपश्चरणु शीलता भने “ मुणी " मा पहथी सावध કાર્યમાં મૌન રાખવુ એ સૂચિત કરવામાં આવેલ છે. नमे निवारण इत्याहि. अन्वयार्थ — मे - मम भारी पासे निवारण - निवारणम् डंडीथी मन्यावी शडे तेनुं स्थान न अस्थि-नास्ति नथी, छवित्ताणं नविज्जए-छवित्राणं न विद्यते शरीर पर मोढवा भाटे वस्त्र ताथा उभ्भस वगेरे पशु नथी, साथी अहंतु अगिंग सेवामि- अग्नि सेवे अग्नि सेवन ४३ इइ - इति सा प्रहारनो भनथी पशु भिक्खू - भिक्षु भुनि न चितए - न चिन्तयेत् विचार न रे तेना सेवननी वात तो दूर रही. ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર ઃ ૧ Page #358 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रभुञ्जीत कात्राणाय । जाणवसनः पर प्रियदर्शिनी टीका. अ० २ गा. ७ शीतपरीषहजयः ३०३ ___अयं भावः-शीते महत्यपि पतति सति जीर्णवसनः परित्राणवर्जितो नाकल्प्यानि वसनानि गृह्णीयात् शीतत्राणाय । आगमविहितेन विधिना एषणीयमेव यथाकल्पं गवेषयेत् परिभुञ्जीत वा । नापि शीतार्तोऽग्नि ज्वालयेत् , अन्यज्वालितं वा नासेवेत । एवमनुतिष्ठता शीतपरीषहजयः कृतो भवतीति । अत्र 'भिक्खू ' इत्यनेन निरवद्यभिक्षाग्रहणशीलत्वं सूचितम् । अत्र दृष्टान्तः चतुर्थारके-राजगृहे नगरे चत्वारः कुबेरदत्तश्रेष्ठिपुत्राः कुबेरसेन-कुबेरमित्रकुबेरवल्लभ-कुबेरमियनामानो भद्रगुप्ताचार्यसमीपे जिनोक्तं धर्म श्रुत्वा प्रवजिताः। इस का भाव यह है कि जब शीतकाल में शीत पड़ता है उस समय जीर्णवस्त्र वाला एवंशीत की रक्षा के साधनों से रहित साधु अकल्पनीय वस्त्रों को शीत की रक्षा निमित्त ग्रहण नहीं करे। आगम में विहित विधिके अनुसार जो एषणीय हों तथा साधु के लिये कल्पनीय हों उन्हें ही ग्रहण करें। ठंड से पीडित होने पर भी अग्नि को न जलावे तथा दूसरों द्वारा जलाई गई अग्नि का भी सेवन नहीं करें। ऐसा करने से ही साधु शीतपरिषहविजयी माना जाता है। गाथा में रहे हुए-भिक्खूपद से सूत्रकार 'भिक्षु को निरवद्य भिक्षा ही ग्रहण करना चाहिये' यह सूचित करते हैं। __इस विषय पर यहां दृष्टान्त दिया जाता है-राजगृह नगरमें कुबेरदत्त नामक एक सेठके कुबेरसेन, कुबेरमित्र, कुबेरवल्लभ, कुबेरप्रिय આને ભાવ એ છે કે, જ્યારે શીતકાળમાં ઠંડી પડે છે એ સમયે જીર્ણ વસ્ત્ર વાળા અને ઠંડીની રક્ષાના સાધનોથી રહિત સાધુ અકલ્પનીય વસ્ત્રોને ઠંડીની રક્ષા નિમિત્તે ગ્રહણ ન કરે. આગમમાં કહેવાયેલ વિધિ અનુસાર જે એષણીય હોય તથા સાધુ માટે કલ્પનિય હોય તેને જ ગ્રહણ કરે. ઠંડીથી પિડીત હોવા છતાં પણ અગ્નિને પ્રગટાવે નહીં તથા બીજાઓ દ્વારા પ્રગટાવવામાં આવેલ અગ્નિનું પણું સેવન ન કરે. આ રીતનું વર્તન રાખનાર સાધુ શીતપરીષહવિજયી भानामा भाव छ. याम २९सा “ भिक्खू" ५४थी सूत्रा२ सेम सूचित કરે છે કે, “ભિક્ષુએ નિરવઘ ભિક્ષા જ ગ્રહણ કરવી જોઈએ.” આ વિષય ઉપર અહીં દષ્ટાંત કહેવામાં આવે છે. ચોથા આરામાં–રાજગ્રહ નગરમાં કુબેરદત્ત નામને એક શેઠ હતું. જેને કુબેરસેન, કુબેરમિત્ર, કુબેરવલ્લભ અને કુબેરપ્રિય નામે ચાર પુત્ર હતા. આ ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #359 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०४ उत्तराध्ययमसूत्रे ते श्रुतमधीत्यान्यदा कदाचिदेकाकित्वविहाराख्यप्रतिमा स्वीकृतवन्तः । तदनन्तरमेकाकित्वप्रतिमया विहरन्तस्ते पुनरपि राजगृहनगरसमीपवर्तिनि वैभारगिरिप्रदेशे वसतेर्यथाकल्पमवग्रहमवगृह्य संयमेन तपसाऽत्मानं भावयन्तो विहरन्ति स्म । तदा हेमन्ततस्तुषारासारैर्जनान् पीडयन् , वनस्पतीन् परिम्लानयन् , पशुपक्ष्यादीन् काष्ठवज्जडतां प्रापयन , सर्वप्राणिप्राणानुद्वेजयन्नासीत् । तस्मिन् समये ते चत्वारो मुनयस्तृतीययामे भिक्षाचर्यार्थ राजगृहनगरं प्रविष्टाः, तत्र भिक्षां गृहीत्वा कृतानामके चार पुत्र थे। उन चारों पुत्रों ने भद्रगुप्त आचार्य के समीप धर्म का श्रवण कर मुनिदीक्षा धारण की। शास्त्रों का अच्छी तरह से अध्ययन किया। एक समय की बात है उन्हों ने एकाकित्वविहार नाम की भिक्षु प्रतिमा स्वीकार की इससे वे एकाकी होकर विहार करने लगे। विहार करते२ वे किसी समय पुनः राजगृह नगर के समीपवर्ती वैभारगिरि की तलहटी में वसी हुई एक वस्ती में आये और वहां यथाकल्प अवग्रह-आज्ञा लेकर उतरे और संयम एवं तप से आत्मा को भाते हुए विचरने लगे। यह समय हेमन्तऋतु का था। तुषार-हिम के छोटे २ कणों से इस समय मनुष्यों को अधिक कष्ट होता है। वनस्पतिया हिमकणों के निपात से दग्ध हो जाती हैं। पशु पक्षी काष्ठ जैसे जड़ हो जाते हैं । तात्पर्य यह कि इस ऋतु में ठंड की अधिकता से हरएक प्राणी को अधिक कष्ट का अनुभव होता है। ऐसे समय में ये चारों ही ચારે પુત્રોએ ભદ્રગુપ્ત આચાર્ય પાસેથી ધર્મ નું શ્રવણ કરી મુનિદીક્ષા ધારણ કરી. શાસ્ત્રોનું સારી રીતે અધ્યયન કર્યું. એક સમયની વાત છે, તેઓએ એકાકિત્વ વિહાર નામની ભિક્ષુ પ્રતિમા સ્વીકારી. આથી તેઓ ચારે એકાકી બનીને વિહાર કરવા લાગ્યા. વિહાર કરતાં કરતાં કેઈ સમયે રાજગ્રહ નગર સમીપ રહેલી ભારગિરીની તળેટીમાં વસેલી એક વસ્તીમાં આવ્યા અને ત્યાં યથાકલ્પ અવગ્રહ આજ્ઞા લઈને ઉતર્યા સંયમ અને તપથી આત્માને ભાવતા વિચારવા લાગ્યા. આ સમયે હેમન્ત તુ હતી. તુષાર હિમનાં નાનાં નાનાં કણથી આ સમયે મનુષ્ય અધિક કષ્ટ પામે છે. વનસ્પતિઓ હિમ કણેના પડવાથી બળી જાય છે, પશુ પક્ષીઓ લાકડાં જેવા જડ થઈ જાય છે. મતલબ એ કે, આ ઋતુમાં ઠંડીની અધિકતાથી દરેક પ્રાણીને વધુ કષ્ટને અનુભવ થાય છે. એવા સમયમાં એ ચારેય મુનિ દિવસના ત્રીજા ભાગમાં ભિક્ષાચર્યા ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #360 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रियदर्शिनी टीका अ० २ गा. ७ शीतपरीषहजये मुनिचतुष्टयदृष्टान्तः ३०५ हारास्ते सर्वे स्ववसतिं गन्तुं पृथक पृथगेव प्रतिनिवृत्ताः तेषामेकस्य कुबेरसेनमुनेवैभारगिरिकन्दरान्तिकमुपगतस्य रात्रिः संजाता, अतस्तत्रैव सोऽतिष्ठत् । द्वितीयस्य कुबेरमित्रमुनेरुयाने रात्रिः समजनि, अतस्तत्रैव सोऽतिष्ठत् । तृतीयस्य कुबेरवल्लभमुनेरुद्यानसमीपे, चतुर्थस्य कुबेरप्रियमुनेस्तु नगरसमीपे । तत्र वैभारगिरिकन्दराद्वारसमीपावस्थितस्य मुनेर्निपतत्तुषारसंपर्कशीतलैः शैलमारुतैः प्रकम्पितशरीरस्यापि मनो मेरुरिवनिष्पकम्प मासीत् । यथा यथा शीतं प्रवर्धते, तथा तथा ऽऽत्मिकबलं प्रकाशयन् मनः सुस्थिरं कुर्वन् रणे वीर इव शत्रु शीतं विजेतु प्रोत्साहसंपन्नः सुधीरः शीतवेदनां सहमानोऽसौ मुनिः समाधिभावेन रात्रेः प्रथमयाम एव कालं गतः।। मुनि दिवस के तृतीय प्रहर में भिक्षाचर्या के लिये राजगृहनगर में आये। वहां पर मिले हुए एषणीय आहार करके वे सब फिर वहां से एक पोछे एक वैभारगिरि के समीप जहां उतरे हुए थे वहां पहुँचने के लिए चले। इनमें कुवेरसेन मुनि को मार्ग में ही जब वे वैभारगिरि का कन्दरा के पास पहुँचे तो रात्रि हो गई, इसलिये वह वहीं पर ठहर गये। दूसरे कुबेरमित्रमुनि रात्रि हो जाने से बगीचे में ठहरे। वैसे ही तीसरे कुबेरवल्लभमुनि बगीचे के पास ठहरे। चौथे कुबेरप्रियमुनि रात्रि होने से राजगृह नगर के पास ही ठहर गये। वैभारगिरि की कन्दरा-गुफा के द्वार पर ठहरे हुए मुनिराज ने पड़ते हुए शीत के संपर्क से अत्यंत शीतल पर्वतीय वायु के वेग से कम्पितशरीर होने पर भी अपने मनको मेरु के समान निष्कंप बनाते हुए उस शीत को प्रबलता का सामना किया। जैसे २ शीतकी अधिकता होती जाती थी, उस उस रूप से માટે રાજગહ નગરમાં આવ્યાં. ત્યાંથી મળેલ એષણય આહાર કરીને તે સઘળા ફરી પાછા એક પછી એક વૈભારગિરીની સમીપ જ્યાં તેઓ ઉતર્યા હતા ત્યાં પહોંચવા માટે ચાલી નીકળ્યા. તેમાંથી કુબેરસેન મુનિને માર્ગમાંજ રાત્રિ પડી જવાથી વૈભારગિરીની કંદરાની પાસે રેકાઈ ગયા. બીજા કુબેર મિત્ર મુનિ રાત્રિ થવાથી બગીચામાં રેકાઈ ગયા, એવી જ રીતે ત્રીજા કુબેરવલ્લભ મુનિ બગીચાની પાસે રોકાઈ ગયા, ચોથા કુબેરપ્રિયમુનિ રાત્રિ થઈ જવાથી રાજગ્રહ નગરની પાસે જ રોકાઈ ગયા વૈભારગિરિકંદરાના મુખ્ય દ્વાર પાસે રોકાઈ ગયેલા. મુનિરાજે ઠંડીના સંપર્કથી અત્યંત શીતળ પર્વતીય વાયુના વેગથી કંપીત શરીર હોવા છતાં પણ પિતાના મનને મેરૂ સમાન અડગ રાખી ઠંડીની પ્રબળતાને સામનો કર્યો. જેમ જેમ ઠંડીની અધિકતા વધતી ગઈ તે તે રૂપથી તેમનું આત્મउ० ३९ ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર: ૧ Page #361 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०६ उत्तराध्ययनसूत्रे ___ उद्यानस्थं तु नीचप्रदेशवर्तित्वाद् द्वितीययामे प्रबलतरं शीतं बाधते स्म, तदा सोऽपि पूर्वोक्तमुनिवन्निश्चलेन मनसा शीतवेदनां सहमानः समाधिभावेन द्वितीययामे कालगतोऽभवत् । एवमुद्यानसमीपसंस्थितस्तु तृतीययामे, एवं नगरासन्नस्तुउनका आत्मिकबल भी अधिकर विकसित होता जाता था। जिस प्रकार कोई उत्तम वीर रणाङ्गण में वैरी का सामना करता है, उसी प्रकार ये भी उस शीत का डटकर सामना कर रहे थे। सद्भावना में जरा सी भी शिथिलता इन्हों ने नहीं आने दी। साम्हना करते २ ही वे मुनि समाधिभाव से कालधर्म को पाये १ ।। ____ जो मुनिराज उद्यान में ठहरे हुए थे उन्हें शीत की वेदना ने द्वितीयप्रहर में सताया। जिस प्रकार प्रथम मुनिराज ने शीत की वेदना सहन करने में निश्चलता धारण की, उसी प्रकार इन्हों ने भी उसके सहन करने में निश्चलता धारण की। अन्त में समाधिभाव से ये भी कालधर्म पा गये २। ___ जो मुनिराज उद्यान के समीप ठहरे हुए थे, उन्हें शीत की वेदना रात्रि के तृतीय प्रहर में सताने लगी, और नगर के पास ठहरे हुए मुनिराज को शीत वेदना ने रात्रि के चतुर्थ प्रहर में सताना शुरू किया। इस प्रकार ये दोनों मुनिराज भी शीतपरीषह को जीतते २ ही समाधिभाव से अन्त में कालधर्म को प्राप्त हुए ४। ये चारों के चारों ही अनुत्तर બળ પણ અધિક રૂપથી વિકસતું જતું હતું. જે રીતે કેઈ ઉત્તમ વીર રણાંગણમાં રીનો સામનો કરે છે તેવા પ્રકારે મુનિ પણ ઠંડીને એવી જ રીતે સામનો કરી રહ્યા હતા. સદૂભાવનામાં જરા પણ શિથીલતા તેમણે આવવા ન દીધી. સામને કરતાં કરતાં તે મુનિ સમાધિ ભાવથી કાળધર્મ પામ્યા. જે મુનિ બગીચામાં રહ્યા હતા. તેમને ઠંડીની વેદના બીજા પ્રહરમાં થઈ. જે પ્રકારે પ્રથમ મુનિરાજે ઠંડીની વેદના સહન કરવામાં અડગતા ધારણ કરી તેવી જ રીતે આમણે પણ અડગતા દાખવી અને છેવટે સમાધીભાવથી કાળધર્મ પામ્યા. જે મુનિરાજ બગીચાની બહાર રોકાયા હતા તેમને ઠંડીની વેદના રાત્રીના ત્રીજા પહોરમાં થવા લાગી અને નગરની પાસે રોકાયેલા મુનિરાજને ઠંડીની વેદના ચોથા પહોરે સતાવવા લાગી. આ પ્રકારે આ બને મુનિરાજ પણ ઠંડીના પરીષહને જીતતાં જીતતાં સમાધી ભાવથી અંતે કાળધમને પામ્યા. આ રીતે ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #362 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रियदर्शिनी टोका अ०२ गा. ८ उष्णपरीषहजयः ३०७ चतुर्थयामे । सर्वेऽप्येते विजितशीतपरीषहाः कालं कृत्वाऽनुत्तरविमानेषु एकभवावतारित्वेन समुत्पन्नाः । एवमन्यैरपि मुनिभिः शीतपरीपहः सोढव्यः ॥७॥ शीतकालानन्तरं ग्रीष्मागमो भवतीत्यतः शीतपरीपहानन्तरमुष्णपरीषह जयं प्राहमलम-उसिणपरियावेणं, परिदाहण तजिए । प्रिंसु वो परियावेणं, सायं नो परिदेवए॥८॥ छाया-उष्णपरितापेन, परिदाहेन तर्जितः। ग्रीष्मे वा परितापेन, सातं नो परिदेवयेत् ॥ ८॥ टीका-'उसिण. ' इत्यादि । ग्रीष्मे-उष्णकाले, यत्र हि-भास्करः किरणनिकरैर्दैहनं किरनिव धरातलेऽङ्गारप्रकरमास्तृणन्निव जीवजातं परितापयति, तरुगणं परिशोषयति, शुष्कयति च । विमानों में एकभवावतारी रूप से उत्पन्न हुए। इसी प्रकार अन्य मुनियो को भी शीतवेदना के सहन करने में अपना पराक्रम फोडना चाहिये ॥७॥ __शीतकाल के बाद ही ग्रीष्मऋतु का आगमन होता है अतः शीतपरीषह को सहन करने के बाद चौथा उष्णपरीषह भी मुनिराज को सहन करना चाहिये, यह बात इस नीचे की गाथा द्वारा सूत्रकार प्रदर्शित करते हैं-'उसिण' इत्यादि। ___ अन्वयार्थ-(प्रिंसु-ग्रीष्मे) ग्रीष्मकाल में कि जिसमें सूर्य अपनी प्रखर किरणों के निकर से इस समस्त भूमण्डल पर प्रबल ताप की वर्षा किया करता है, समस्त जीव जिसमें मानों अग्नि तापसे जलते हों, वृक्षसमूह जिस में शुष्क जैसा हो जाता है। विचारे प्यासे भोले मृगों के झुण्ड के એ ચારે મુનિરાજ અનુત્તર વિમાનમાં એકભવ અવતારી રૂપથી ઉત્પન્ન થયા. આ પ્રકારે અન્ય મુનિએ પણ શીતવેદના સહન કરવામાં પોતાનું પરાક્રમ બતાવવું જોઈએ. આછા ઠંડીના વખત પછી ઉનાળાને વખત આવે છે અહીં શીતપરીષહને સહન કર્યા પછી એ ગરમીના પરીષહને પણ મુનિરાજે સહન કરવું જોઈએ. ये पात नायनी ॥थाथी सूत्र॥२ प्रगट ४२ छे..-." उसिण" त्याहि. ___ अन्वयार्थ -घिसु-ग्रीष्मे श्रीभ मां न्यारे सूर्य पोतानां प्रपरिणाथी સમસ્ત ભૂમંડળ ઉપર પ્રબળ તાપની વર્ષા વરસાવે છે. સમસ્ત જીવ જેમાં અગ્નિના તાપની માફક બળતા હોય છે, વૃક્ષ સમૂહ શુષ્ક બની જાય છે, ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #363 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०८ उत्तराध्ययनसूत्रे मृगतृष्णाभिरारचितजलतरङ्गमालाभिरिव प्रचलज्जलधारा विभ्रममुपगता मुग्धमृगयूथाः पिपासया परितः प्रधावन्ति। मनुष्याः खलु प्रायशः प्रचण्डमार्तण्डकरनिकरसंपर्कप्रखररजःकणोपेतवात्यापरिघट्टिताः प्रतप्तभूतलनिपतिताः पिपासयाऽऽसनमृत्यव इव भवन्ति । यत्र खलु वनस्थली पिपासावविभ्रमद्भिर्विविधपशुपक्ष्यादिभिः परिशुष्कतालरसनकण्ठैः समाकुला, नभस्तलं च नानाविध पत्रकाष्ठतृणकचवरोधृलनकरप्रतिकूलमारुतध्वनिसमाकुलं भवति । तस्मिन्नुष्णकाले, वा शब्देनशरदि वर्षासु वा, उष्णपरितापेन-उष्णम्-सूर्यकिरणसंयोगात्तप्तं-भूमिधूलिपाषाणाझुण्ड जिसमें “ यह जलधारा बह रही है" इस प्रकार भ्रमोत्पादक मृगतृष्णा से पागल जैसे बने हुए इधर उधर दौडने लगते हैं। जिस ऋतु में सूर्य की प्रचण्ड किरणों से धूप खूब पड़ती है जिससे रेती तप जाती है और लू चलने लगती है। संतप्त रजकण से मिश्रित उस लूके वेग से व्याकुल होकर मनुष्य भी उस तपी हुई भूमि पर गिर गिर कर प्यास के मारे मूर्छित हो आसन्नमृत्यु जैसे दिखाई देने लगते हैं। जिस ग्रीष्म काल में पिपासा के वश जिनके तालू ओष्ठ एवं कंठ सूख रहे हैं गर्मी के मारे मुंह जिन के फटे हुए हैं और जीभ लटक रही है ऐसे पशु पक्षियों से अटवी व्याप्त हो जाती है। तथा जिसमें आकाश नानाविधपत्र, काष्ठ, तृण, कूडा-कचरा आदि को उडाने वाली प्रतिकूल घायु की सनसनाहट ध्वनि से व्याप्त हो जाता है ऐसे उष्णकाल में। (उसिणपरियावेणं-उष्णपरितापेन ) उष्णपरिताप से-सूर्य किरणों के તરસથી બીચારા ભેળાં હરણનાં ટેળાં “આ જળધાર વહી રહી છે આ પ્રકારના ભ્રમથી પાગલની માફક મૃગજળ રૂપી જળના આભાસ તરફ દેડતાં રહે છે. જે ઋતુમાં સૂર્યના પ્રચંડ કિરણોથી ખૂબ તાપ પડે છે જેનાથી રેતી તપે છે, અને ચાલવા લાગે છે, સંતપ્ત રજકણથી મિશ્રીત તે જૂના વેગથી વ્યાકુળ બની મનુષ્ય પણ તે તપેલી ભૂમી ઉપર તરસના માર્યા પછી જઈ મૂર્શિત થઈ આસન્ન મૃત્યુ જેવા દેખાય છે. જે ગ્રીષ્મકાળમાં અટવીમાં પીપાસાને વશ જેનું તાળવું, હોઠ અને કંઠ સુકાઈ જાય છે, ગરમીના માર્યા મેટું જેનું ફાટી રહે છે અને જીભ લટકી જાય છે એવા પશુ પક્ષિઓથી વ્યાપ્ત થઈ જાય છે. તથા જેમાં આકાશ જુદી જુદી જાતનાં પાંદડાં, લાકડું, ઘાસ, કચરા, પુંજા વગેરેને ઉડાવવાવાળા પ્રતિકૂળ વાયુના સુસવાટા કરતા વનિથી વ્યાપ્ત થઈ જાય છે. એવા Guestmi " उसिण परियावेणं-उष्णपरितापेन" SY परितापथी सूर्य विना ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #364 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रियदर्शिनी टीका अ० २ गा. ९ उष्णपरोषहजयोपदेशः ३०९ , दिकं तेन परिताप:- उष्णपरितापस्तेन तर्जितः, अत्यंत पीडितःसन्, तथापरिदाहेन = सूर्यकिरण संतप्तवायुना 'लू' इति भाषामसिद्धेन दाहज्वरादिकृतान्तरिकता पेन वा, तर्जितः, तथा परितापेन = सूर्यकिरणादिजनिततापेन- तर्जितः, सातं = सुखं प्रति न परिदेवयेत् = हा ! कदा मम चन्द्रचन्दनशीतलानिलादिभिः सह संयोगो भविष्यति येन मम शान्तिः स्यादिति ॥ ८ ॥ उपदेशान्तरमाह मूलम् - उपहाहितत्तो मेहांवी, सिगाणं नो विं पत्थंए । गायं नो परिसिंचेज्जा, ने वीऍज्जा यं अध्पेयं ॥ ९ ॥ छाया - उष्णाभितप्तः मेधावी, स्नानं नो अपि प्रार्थयेत् । गात्रं नो परिषिञ्चेत्, न वीजयेच आत्मानम् ॥ ९ ॥ संयोग से तप्त ऐसे जो भूमि, धूलि, एवं पाषाण आदि हैं उनके द्वारा जो परिताप-कष्ट होता है उससे, तथा (परिदाहेण ) सूर्य की किरणों द्वारा गर्म हुई वायु से लूसे, अथवा दाहज्वर आदि से होने वाले आन्तरिक ताप से (परिया वेणं - परितापेन) एवं सूर्य की किरणों से उत्पन्न हुई अत्यंत गर्मी से ( तज्जिए - तर्जितः ) अतिशय पीडित साधु ( सायं नो परिदेवए- शातं नो परिदेवयेत् ) सुख की वाच्छा न करे - हा ! किस समय मुझे चन्द्र अथवा चंदन के समान शीतल पवनादि का संयोग मिलेगा कि जिस से मुझे शांति मिले। अर्थात् साधु का कर्तव्य है कि वह हरएक अवस्था में उष्णपरीषह को जीते किन्तु इस से घबरावे नहीं ॥ ८ ॥ સંચાગથી તપેલ એવી જે ભૂમિ ધૂળ અને પાષાણવાળી છે. તેના દ્વારા જે કષ્ટ થાય छे, मेनाथी तथा “परिदाहेण” सूर्यनार द्वारा गरम थयेला वायुथी सूथी, अथवा हाडेनवर आद्दिथी थनार यांतरिङ तापथी परियावेणं- परितावेन भने सूर्यना रिबोथी उद्दूलवेस अत्यंत गरभीथी तज्जिए-तज्जितः अतिशय पीडित साधु "सायंनो परिदेव - शातं नो परिदेवयेत् सुमनी वांछना न उरे भने उया समये चंद्र અથવા ચંદનની જેવી શીતળ પવન આદિના સાગ મળે કે જેથી મને શાંન્તી થાય. અર્થાત્ સાધુનું કર્તવ્ય છે કે તે દરેક भुते, परंतु तेनाथी गलराय नहीं. (८) અવસ્થામાં ઉષ્ણુ પરીષહને ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર ઃ ૧ Page #365 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययन सूत्रे टीका- ' उण्हाहितत्तो ' इत्यादि । मेधावी = आगमोक्तमर्यादानुवर्ती मुनिः, उष्णाभितप्तः = उष्णेन - उष्णस्पर्शेन, अभितप्तः - तापाकुलः सन् स्नानं नो प्रार्थयेत् नैवाभिलषेत् । अपि च गात्रं - शरीरं, नो परिषिञ्चेत्-न जलैराद्रकुर्यात् । च पुनः आत्मानं स्वदेहं न वीजयेत्= व्यजनादिना शरीरे वायुं नोदीरयेत् । अयं भावः - उष्णततोऽपि मुनिर्जलावगाहनस्नानव्यजनवातादि वर्जयेत् न च जलैर्गात्रं सिञ्चेत् । आतपवारणाय स्वदेहोपरि रजोहरणादिना छायां न कुर्यात् । न चापि छत्रादिकं धारयेत् । मनसाऽपि न प्रार्थयेत् किं तु उष्णपरीषहं सम्यक् सहेतेति । ' उण्हाहि ० ' इत्यादि । अन्वयार्थ - (मेहावी - मेघावी) आगमोक्त मर्यादा का अनुसरण करने वाला मुनि (उण्हाहितत्तो- उष्णाभितप्तः) उष्णस्पर्श से संतप्त होता हुआ भी (सिसाणं नो विपत्थए - स्नानं नोऽपि प्रार्थयेत् ) स्नान की अभिलाषा न करे । तथा ( गायं नो परिसिंचेज्जा - गात्रं नो परिषिचेत्) अपने शरीर ऊपर पानी न छींटे तथा उसको गोला भी न करे और न गीले कपडे से ही पोंछे । तथा ( अप्पयं न वीएज्जा - आत्मानं न वीजयेत् ) शरीर पर बीजना आदि से हवा भी न करे । ३१० - इसका भाव यह है - उष्ण से संतप्त भी मुनि अचित्त जल का भी अवगाहन करना - उससे स्नान करना, बीजनादि से पंखा आदि से हवा करना इन समस्त शीतलोपचारकारक क्रियाओं का परित्याग कर देवे । अपने शरीर पर गर्मी की वेदना को शमन करने के लिए शीतल जल के " उण्हाहि " त्याहि. मन्वयार्थ - मेहावी- मेधावी यागभभां उडेल भर्याहार्नु अनुसरण पुरवावाणा भुनि उहाहितत्तो- उष्णाभितप्तः अष्णु स्पर्शथी संतप्त थवा छतां पशु सिसाणं नो विपत्थए - स्नानंनोऽपि प्रार्थयेत् स्नाननी अभिलाषा न उरे गायं नो परिसिंचेज्जा - गात्रंનો વિદ્યુત પાતાના શરીર ઉપર પાણી ન છાંટે તેમ એને ભીનુ પણ ન કરે है न तो लीना उडाथी बुछे, तथा " अप्पयं न वीएज्जा " - आत्मानं न वीजयेत् શરીર ઉપર વીજણા વગેરેથી હવા પણ ન નાખે. આના ભાવ એ છે——ઉષ્ણતાથી સંતપ્ત અનેલ મુનિએ પાણીને આશરો લેવા, એનાથી સ્નાન કરવુ, પંખા આદિથી હવા ખાવી આ સમસ્ત શીતળ ઉપચાર કારક ક્રિયાઓના પરિત્યાગ કરવા. પેાતાના શરીર ઉપર ગરમીની વેદનાનું શમન કરવા માટે શીતળ જળના છાંટા પણ ન લેવા, આતપનું વારણ ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર ઃ ૧ Page #366 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रियदर्शिनी टीका अ० २ गा. ९ उष्णपरीषहजये-अरहन्नकदृष्टान्तः ३११ अत्र दृष्टान्तः आसीत् तगरानगयों दत्तनामकः श्रेष्ठी। तस्य भद्राभार्यायामरहन्नक नामकः पुत्रो जातः । एकदाऽसौ दत्तश्रेष्ठी भार्यापुत्राभ्यां सहार्हन्मित्राचार्यसंनिधौ धर्मदेशनां निशम्य विरक्तः सन् प्रव्रज्यां गृहीतवान् । स दत्तमुनिः स्नेहवशादरहन्नकं कदाचिदपि भिक्षार्थ न प्रेषयति, स्वयमेव भिक्षामानीय तं पोषयति, न च तेन किमपि कार्य कारयति, अतोऽसौ सुकुमारो जातः । अन्यदा कदाचित् तस्य पिता छींटे भी न दे, तथा आतप को वारण करने के लिये रजोहरणादिक से शरीर पर छाया भी न करे। छन्त्र-छाता-आदि को भी धारण न करे और न इस प्रकार की क्रियाओं को करने की भावना ही रखे। जैसे भी बने उष्णपरीषह को सहन करे । ___ दृष्टान्त–तगरा नाम की नगरी में दत्त नाम का एक सेठ रहता था। उसकी धर्मपत्नी का नाम भद्रा था । भद्रा से एक पुत्र हुआ, जिस का नाम अरहन्नक था। एक समय सेठ ने अपने स्त्री पुत्र के साथ जाकर अर्हन्मित्र नामके किसी आचार्य के पास धर्म का उपदेश सुना। सुनकर वे संसार से विरक्त हो गये और स्त्रीपुत्रसहित उसने दीक्षा अंगीकार करली, पुत्र से प्रेम होने के कारण वे कभी भी अपने पुत्र को भिक्षा लाने के लिये नहीं भेजते थे, किन्तु स्वयं जाकर भिक्षा लाते और पुत्र को भी आहार कराते। पुत्र से कुछ भी कार्य नहीं कराते । इस तरह दत्तमुनि का वह पुत्ररूप शिष्य बहुत ही सुकुमार प्रकृति के કરવા માટે રજોહરણાદિકથી શરીર ઉપર છાયા પણ ન કરવી, છત્ર-છત્રી વગેરે પણ ધારણ ન કરવાં. અને આ પ્રકારનિ ક્રિયાઓ કરવાની ભાવના પણ ન રાખવી. જેમ બને તેમ ઉણપરીષહને સહન કરવાં. દૃષ્ટાંત-તગારા નામની નગરીમાં દત્ત નામના એક શેઠ રહેતા હતા, તેની ધર્મપત્નિનું નામ ભદ્રા હતું. ભદ્રાથી એક પુત્ર થયો જેનું નામ અરહજ્ઞક હતું એક સમય શેઠે પિતાના સ્ત્રી પુત્રની સાથે અઈન્મિત્ર નામના એક આચાર્ય પાસે ધર્મને ઉપદેશ સાંભળ્યો એ ઉપદેશથી સંસારથી વિરક્તભાવ જાગ્યો અને સ્ત્રી પુત્ર સાથે તેણે દીક્ષા અંગિકાર કરી લીધી. પુત્રથી પ્રેમ હોવાને કારણે કદી પણ પોતાના પુત્રને ભિક્ષા લાવવા માટે મોકલતા ન હતા પરંતુ પોતે જ જઈને ભિક્ષા લાવતા અને પુત્રને પણ આહાર કરાવતા. પુત્રથી કાંઈ પણ કાર્ય કરાવતા નહીં. આ રીતે દત્ત મુનિના એ પુત્રરૂપ શિષ્ય ઘણી જ સુકુમાર પ્રકૃતિવાળા ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #367 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१२ उत्तराध्ययनसूत्रे दत्तमुनिमतः तदनन्तरं साधुभिः प्रेरितः सन्नरहन्नको ग्रीष्मकाले भिक्षार्थ गतः । स पूर्वमकृतश्रमोऽतीवसुकुमाराङ्गः मूर्यकिरणोत्तप्तरेणुनिकरण चरणतले, तपनांशुभिमस्तके च तापाभिभूतस्तृपाशुष्कण्ठोऽरहन्नकः कस्यचित् श्रेष्ठिनः प्रोत्तुङ्गभवनस्य. च्छायामाश्रित्य तिष्ठति । __ तदा तं सुकुमारं रूपसौन्दर्य लावण्यगुणैर्मन्मथावतारं मुनिमरहन्नककुमारं दृष्ट्वा काचित् पोषितभरीका वणिग्भार्या दास्या तं समाहूय गृहमानयति । ततः सा तं पृच्छति-भवान् किं याचते ? अरहन्नकः प्राह-भिक्षां याचे । ततः सा कामवशंगता बन गये । कालान्तर में दत्तमुनि का स्वर्गवास हो गया। अब क्या थासाधुओं से प्रेरित होकर वह एक समय भिक्षा लाने के लिये ग्रीष्म काल में गये। सुकुमार प्रकृति के तो थे ही, पिता के समय पहिले इन्हों ने कुछ परिश्रम भी नहीं किया था, अतः उस ग्रीष्मकाल में सूर्य की प्रचण्ड किरणों से संतप्त भूमि पर चलने से उनके पैरों में छाले पड़ गये। माथा गरम हो गया । कंठ गर्मी के मारे सूख गया गर्मी की इनको अधिक वेदना हुई। पास में किसी एक सेठकी बहुत ऊँची हवेली थी सो वे गर्मी के मारे उसकी छाया में आकर ठहर गये। ठहरे हुए इन मुनि को एक प्रोषितभर्तृका-विरहिगी-स्त्री ने देखा। यह शारीरिक रूप, लावण्य एवं सौन्दर्य से ऐसे मालूम पड़ते थे कि जैसे मानो साक्षात् देव ही हो। देखते ही सुकुमार इस अरहन्नक मुनि को उस विरहिणी वणिग्भार्या ने अपनी दासी द्वारा मकान ऊपर बुलवाया। मकान ऊपर पहुँचते બની ગયા. કાલાન્તરે દત્ત મુનિને સ્વર્ગવાસ થયે. આ પછી સાધુઓની પ્રેરણાથી પ્રેરિત બની તે સુકુમારમુનિ ગ્રીષમકાળમાં ભિક્ષા લેવા માટે ગયા. સુકુમાર પ્રકૃતિ તે હતી જ, પિતાની હાજરીમાં તેણે જરા જેટલો પણ પરિશ્રમ કરેલ ન હતું. આથી ગ્રીષ્મકાળમાં સૂર્યનાં પ્રચંડ કિરણોથી સંતપ્ત બનેલ ભૂમિ ઉપર ચાલવાથી એના પગમાં છાલા પડી ગયાં, માથું ગરમ થઈ ગયું, ગળું ગરમીના કારણે સુકાઈ ગયું, ગરમીની એને અધિક વેદના થઈ પાસે જ કોઈ એક શેઠની ઘણી જ ઉંચી હવેલી હતી–આથી તે એ હવેલીની છાયામાં જઈને ઉભા રહ્યા. ઉભેલા મુનિને જોઈ એક વિરહણી સ્ત્રીનું એ તરફ લક્ષ ખેંચાયું જે શારીરિક રૂપ, લાવણ્ય અને સૌંદર્યથી તેની દ્રષ્ટિએ દેવ તુલ્ય દેખાયા. આ અરહન્નક સુકુમાર મુનિને જોઈને તે વિરહિણી વણિક સ્ત્રીએ પિતાની દાસી મારફત મકાન ઉપર બોલાવ્યા. મકાન ઉપર પહોંચતાં જ મુનિ અરહજ્ઞકને તેણે ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #368 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रियदर्शिनी टीका अ० २ गा. ९ उष्णपरीषहजये - अरहन्नकदृष्टान्तः ३१३ तं प्रलोभ्य स्वभवने स्थापितवती । अथ तन्माता भद्रासाध्वी मुनीनां निवासस्थाने वन्दनार्थमागता । सा तत्र तमपश्यन्ती अर्हन्मित्राचार्यमपृच्छत् भदन्त ! अरहनमुनिः वर्तते ? अर्हन्मित्राचार्यः प्राह - अरहनको भिक्षार्थं गतः, किं तु न पुनः परावृत्तः, अतस्तमन्वेषयन्ति मुनयः इति तदनुपलब्धिवचनं वज्राघातमिवकठोरं श्रुत्वा व्याकुला सती भद्रा साध्वी पुत्रमोहेन अरे अरहनक ! अरे अरहनक ! इस्युच्चैर्विलपन्ती नयननिःस्रवदश्रुधारां पातयन्ती मोहेन पदे पदे प्रस्खलन्ती प्रतिही मुनि अरहन्नक से उसने पूछा आप क्या चाहते हैं ? अरहन्नक ने कहा भिक्षा चाहता हूं । काम के वशंगत हुई उस स्त्री ने भिक्षा का लोभ देकर अरहन्नक मुनि को अपने घर पर ठहरा लिया। उधर अरहन्नक मुनि की माता भद्रा साध्वी मुनियों को वन्दना करने के लिये आई। अरहन्नक मुनि को ज्यों ही वहां साध्वी ने नहीं देखा त्यों ही वह अर्हन्मित्राचार्य को पूछने लगी कि भदन्त ! अरहन्नक मुनि कहाँ हैं । आचार्य महाराज ने कहा कि वे भिक्षा लेने के लिये बाहर गये थे, परन्तु अभीतक वापिस नहीं आये हैं अतः अन्यमुनिजन उनकी तलाश कर रहे हैं। माता भद्रा साध्वी ने ज्यों ही यह बात सुनी त्यों ही उसके हृदय में वज्र के आघात जैसा एक कठोर आघात हुआ और उसी समय उसका चित्त विक्षिप्त - हो गया। वह पुत्र के मोह से बहुत ही आकुलव्याकुल होने लगी, और अपने आप बड़-बडाने लगी- अरे अरहन्नक ! तूं इस समय कहां है, कह तो सही । इस प्रकार ऊँचे स्वर से विलाप करती और आंखों से आंसुओं की धारा बहाती हुई वह स्थान स्थान पर પૂછ્યું. આપ શું ઈચ્છે છે ? અરહન્નકે કહ્યું કે, હું ભિક્ષા ચાહું છું. કામને વશ બનેલ તે સ્ત્રીએ ભિક્ષાના લેાભ આપીને અરહન્નક મુનિને પેતાને ઘેર રાકી લીધા. અહિં અર્જુન્નક મુનિની માતા ભદ્રા સાધ્વી મુનિયાને વંદણા કરવા આવી. અરહુન્નક મુનિને જ્યારે તે સાધ્વીએ ત્યાં ન જોયા ત્યારે આચાય ને પૂછ્યું કે, ' હું ભદ્દન્ત ! અરહેન્નક મુનિ કયાં છે ? આચાય મહરાજે કહ્યુ` કે, ભિક્ષા લેવા માટે તેઓ બહાર ગયા છે, પરંતુ હજુ સુધી પાછા ફરેલ નથી. જેથી અન્ય મુનિજન તેની તપાસ કરી રહેલ છે. માતા ભદ્રા સાધ્વીએ જ્યારે આ વાત સાંભળી ત્યારે તેના હૃદ યમાં વાના ઘા જેવા એક આઘાત થયા અને એ વખતે એનું ચિત્ત વ્યાકુળ બની ગયુ'. તે પુત્રના માહથી ઘણાં આકુળ વ્યાકુળ થવા લાગ્યાં, અને પેાતાના મનમાંજ ખડખડવા લાગ્યાં કે, અરે અરન્નક! તુ આ સમયે ક્યાં છે, કહે તા ખશ આ પ્રકારે ઉંચા સ્વરથી વિલાપ કરતાં અને આંખાથી અશ્રુધારા વહાવતાં, તે उ० ४० ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર ઃ ૧ Page #369 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ____उत्तराध्ययनसूत्रे स्थलं भ्राम्यति, सा यत्र यत्र गच्छति तत्र तत्र पुनः पुनर्लोकान् पृच्छति-मम प्राणवल्लभः पुत्रोऽरहन्नकः क्वापि दृष्टो भवद्भिः? । इत्येवं पृच्छन्ती रुदती यं कमपि दृष्टवती, तं प्रति-अयमरहन्नक इति मत्वा हर्षमुद्वहन्ती, पुनस्तमनालोक्य रुदती विलपन्ती एकदा यत्रारहन्नक आसीत् तद्भवनसमीपे समागता । तदा गवाक्षवर्तिनाऽरहन्नकेन तादृशावस्थापन्ना माता दृष्टा, संजातात्यन्तसंवेगः स गवाक्षादुत्तीर्य चरणयोः पतित्वा मातरमेवमाह-हे मातः ! सोऽहमरहन्नकः । इति तद्वचनं श्रुत्वा माता स्वस्थमानसा जाता, तदनु सा पुत्रं पाह-वत्स ! भव्यकुलोत्पन्नस्य तव कथमीदृशीगिरती पडती इधर उधर घूमने लगी। जहां जहां वह जाती वहां २ पूछती कि हे महानुभावो ! कहो तो सही तुम लोगों ने मेरे पुत्र अरहन्नक को कहीं देखा भी है। इस प्रकार पूछती, विलाप करती, रोती हुई वह भद्रा साध्वी जिस किसी को भी देखती हर्ष के भावावेश में आकर कहने लगती 'यह रहा मेरा अरहन्नक'। परन्तु जब उसमें उसे अरहन्नक दिखाई नहीं पड़ता तो पुनः रोने लगती। इस प्रकार अत्यंत विह्वल बनी हुई एक दिन वह वहां पहुँची जिस मकान में स्वयं अरहन्नक थे। जब यह वहां पहुंची थी उस समय अरहन्नक उस मकान की खीड़की में बैठे हुए थे। उसने रोती हुई अपनी माता को ज्यों ही देखा त्यों ही उसे संवेग के भाव अतिशय रीति से जागृत हो उठे। वह इकदम झरोखे से नीचे उतर कर माता के दोनों चरणों में पड़ गये और बोला कि हे मातः मैं अरहन्नक हूं। इस प्रकार उनके वचन को सुनकर माता का चित्त शान्त हो गया और बोली-वत्स ! तुम तो कुलवान हो जातिमान हो फिर तुम्हारी સ્થળે સ્થળે અથડાતાં અહિં તહિં ફરવા લાગ્યાં. જે તે સ્થળે તે જઈ પૂછતાં કે હે મહાનુભાવ! કહે તે ખરા તમોએ મારા પુત્ર અરહત્રકને કાંઈ દેખે છે? આ પ્રકારે પૂછતાં અને વિલાપ કરતાં અને રેતાં તે ભદ્રા સાધ્વી જ્યારે કેઈને જુએ તે હર્ષના ભાવાવેષમાં આવીને કહેવા લાગતાં કે આ રહ્યો મારે અરહન્નક! પરંતુ જ્યારે તેને અરહન્નક ન દેખાતે ત્યારે તે ફરીથી રેવા લાગતાં આ પ્રકારે અત્યંત વિહળ બની એક દિવસે તે એ મકાન ઉપર પહોંચ્યાં કે જ્યાં અરહન્નક હતા. જ્યારે તે ત્યાં પહોંચ્યાં તે વખતે અરહ#ક તે મકાનની એક બારીમાં બેઠેલ હતું. તેણે પિતાની માતાને રેતી જોઈ ત્યારે તેનામાં સંવેગને ભાવ અતિશય જાગૃત થયે. તે એકદમ ઝરૂખેથી નીચે ઉતરીને માતાના ચરણોમાં પડી ગયો અને બોલ્યો કે હે માતા! હું અહિન્નક છું. આ પ્રકારનાં તેનાં વચન સાંભળીને માતાનું ચિત્ત શાન્ત બની ગયું અને બેલી, વત્સ! ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #370 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रियदर्शिनी टीका अ० २ गा. ९ उष्णपरीषहजये-अरहन्नकदृष्टान्तः ३१५ दशा ? सोऽवदत्-हे मातश्चारित्रं पालयितुमसमर्थोऽस्मि । सा प्राह-तर्हि अनशनं कुरु । यतः वरं पवेसो जलिए हुयासणे, न यावि भग्गं चिरसंचियं वयं । वरं हि मच्चू सुविसुद्धकम्मओ, न यावि सीलक्खलियस्स जीवणं ॥१॥ छाया-वरं प्रवेशो ज्वलिते हुताशने, न चापि भग्नं चिरसंचितं व्रतम् । वरं हि मृत्युः सुविशुद्धकर्मतो, न चापि शीलस्खलितस्य जीवनम् ॥१॥ सुविशुद्धकर्मतः-निरवधक्रियाऽऽचरणतः, मृत्युः मरणं, वरं श्रेयः, न तु शीलस्खलितस्य-चरित्रपतितस्य जीवनम् । अन्यत् सुगमम् । ऐसी दशा क्यों हुई ?। अरहन्नक बोले-मातः ! इस दशा के होने का कारण चारित्र को पालन करने की असमर्थता है। माता बोली-यदि तुम चरित्र पार करने के लिये असमर्थ हो तो अनशन करो। जैसे कहा है " वरं पवेसो जलिए हुयासणे, न यावि भग्गं चिरसंचियं वयं । वरं हि मच्चू सुविसुद्धकम्मओ, न यावि सीलक्खलियस्स जीवणं ॥१॥" धधकती हुई अग्नि में प्रवेश करना तो ठीक है परन्तु चिरसंचित व्रत का भंग करना ठीक नहीं है । सुविशुद्ध कर्म-शील आराधन करते તમે તે કુળવાન છે, જાતિવાન છે, છતાં તમારી આવી દશા કેમ થઈ? અરન્નકે કહ્યું, માતા ! આ દશા થવાનું કારણ ચારિત્ર પાલન કરવાની અસમર્થતા છે. માતાએ કહ્યું, જે તમે ચારિત્ર પાલન કરવા માટે અસમર્થ છે તે અનશન કરે. જેમ કહ્યું છે– "वरं पवेसो जलिए हुयासणे, न यावि भग्गं चिरसंचियं वयं । बरं हि मच्यू सुविसुद्धकम्मओ, नयावि सीलक्खलियस्स जीवणं ॥१॥" ભભકતી એવી અગ્નિમાં પ્રવેશ કરે ઠીક છે, પરંતુ ચિરસંચિત વ્રતને ભંગ કર ઠીક નથી. સુવિશુદ્ધ કર્મશીલ આરાધના કરતાં કરતાં મૃત્યુ થયું ઠીક છે, ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #371 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१६ उत्तराध्ययनसूत्रे एवं मातृवचः श्रुत्वा स संजातवैराग्यः सर्वसावधयोग प्रत्याख्याय पुनः संयम गृहीतवान् । तत उत्कृष्टाचारेण ग्रामानुग्रामं विहरन् उष्णपरीषहं सहमानः क्वचित् पाषाणमयप्रदेशं प्राप्य चिन्तयति-'प्रदेशोऽयं प्रचण्डमार्तण्डकिरणसंयोगाद् वह्निवत्सतप्तः, उष्णतरश्च वायुः प्रवहति, अत्र पदमपि गन्तुमसमर्थोऽस्मि,' एवं विचिन्त्य परितः प्रतप्तभूमीतलं विलोक्य परीषहीऽयं मया सोढव्य इत्यवधार्य तप्तशिलोपरि करते मृत्यु होना ठीक है, परन्तु शील से स्खलित व्यक्ति का जीवन ठीक नहीं है। निरवद्य क्रिया का नाम सुविशुद्धकर्म एवं चारित्र से पतित होने का नाम शील से स्खलित होना है। इस प्रकार जननी के वचन सुनकर उसका सुप्त वैराग्य जग उठा, पश्चात् उसने सर्वसावध योग का प्रत्याख्यान कर पुनः संयम लिया। माता के वचन से उद्बोधित होकर उसने फिर उत्कृष्ट चरित्र का आराधन किया और चारित्र की आराधनापूर्वक ही ग्रामानुग्राम विहार करते हुए उष्णपरीषह को सहन किया। एक समय की बात है कि ये विहार करते २ ऐसे प्रदेश में पहुँचे कि जहाँ पत्थरों की बहुलता थी। वहां पहुँच कर उन्होंने विचार किया कि यह प्रदेश सूर्य की किरणों से अधिक संतप्त बना हुआ है। यह तो ऐसा तप रहा है कि जैसे मानों अग्नि ही जल रही हो । वायु भी इतनी गर्म चल रही है कि जिससे एक पैर भी सुखपूर्वक चला नहीं जा सकता है । इस प्रकार विचार करते हुए अरहन्नक मुनि ने अपने आसपास की समस्त भूमि को પરંતુ શીલથી ખલિત થયેલ વ્યક્તિનું જીવન ઠીક નથી. નિરવ કિયાનું નામ સુવિશુદ્ધ કર્મ, ચારિત્રથી પતિત થવાનું નામ શીલથી અલિત બનવું તે. આ પ્રકારનાં માતાનાં વચન સાંભળીને તેને સુતેલે વૈરાગ્ય જાગી ઉઠો અને તેણે સર્વ સાવદ્ય ભેગનું પ્રત્યાખ્યાન કરી પુનઃ સંયમને ધારણ કર્યો. માતાના વચનથી ઉદધિત બની તેણે પછી ઉત્કૃષ્ટ ચારિત્રનું આરાધન કર્યું અને ચારિત્રની આરાધના પૂર્વક જ ગામનુગ્રામ વિહાર કરીને ઉષ્ણુ પરીષહને સહન કર્યો. એક સમયે એ વિહાર કરતાં કરતાં એવા પ્રદેશમાં પહોંચી ગયા છે, જ્યાં પત્થરાઓ મોટા પ્રમાણમાં હતા. ત્યાં પહોંચીને તેઓએ વિચાર કર્યો કે, આ પ્રદેશ સૂર્યના કિરણથી અધિક સંતપ્ત બનેલો છે. આ તો એવા તપી રહ્યા છે કે જાણે અગ્નિ જ સળગી રહી છે. વાયુ પણ એટલી જ રીતે ગરમ કુંકાઈ રહેલ છે આથી એક ડગલું પણ સુખપૂર્વક ચાલી શકાતું નથી. આ પ્રકારને વિચાર કરતાં કરતાં અન્નક મુનિયે પિતાની આસપાસની ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #372 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रियदर्शिनी टीका अ० २ गा० १० दंशमशकपरीषहजयः समुपविशति । तत्र - प्रत्याख्याताष्टादशपापः कृतदुष्कृतगर्हः क्षामितसकलसच्त्रः स्वीकृतचतुर्विधशरणः, परित्यक्तसर्वसंग ः पुनः पुनः कृतपंचनमस्कारोऽनशनं कृत्वा समाधिभावसम्पन्नः पादपोपगमनेन मुहूर्तमात्रेण सुकुमारशरीरो नवनीतपिण्डवोष्णेन विलीनः सौधर्म सुरलोकं गतः, एवं मुनिभिरुष्णपरीषहः सोढव्यः ॥ ९ ॥ ३१७ ग्रीष्मकालान्तरं वर्षाकाले दंशमशकादिकृतपीडां प्राप्तेन साधुना तत्परीषहः सोढव्यः : इत्याह मूलम् पुट्ठो ये दंसैमसएहिं सम रखें महामुनी । नागो संगमसीसे वीं, सूरो अभिहणे 'पैरं ॥१०॥ छाया - स्पृष्टश्च दंशमशकैः सम एव महामुनिः । नागः संग्रामशीर्षे वा, शुरोऽभिहन्यात् परम् ॥ १० ॥ अत्यंत उष्ण देखा और पुनः विचार करने लगे कि यह उष्णपरीषह मुझे साधु के नाते अवश्य सहन करना चाहिये, ऐसा निश्चित कर वह एक तप्त शिला के ऊपर बैठ गये। वहां उन्होंने १८ पापस्थानों का प्रत्याख्यान किया, अपने दुष्कृतों की गर्दा की, समस्त जीवों से खमत खामणा किया। चार प्रकार के शरणों को स्वीकार किया, समस्त ममता का त्याग किया, एवं पंचपरमेष्ठी को बार बार नमस्कार किया । पश्चात् अनशन धारण कर समाधि भाव से युक्त अरहन्नक मुनि ने पादपोपगमन संथारा किया। एक मुहूर्तमात्र में ही उनका सुकुमार शरीर मक्खन के पिंड की तरह गर्मी से विलीन हो गया और वे मर कर सुधर्मदेवलोक में देव हुए। इसी तरह अन्य मुनि जनों को भी उष्णपरीषह सहन करना चाहिये ॥ ९ ॥ સમસ્ત ભૂમીને અત્યંત ઉષ્ણુ જોઈ અને પાછા વિચાર કરવા લાગ્યા કે ઉષ્ણુ પરીષહુ મારે સાધુના ધર્માંથી અવશ્ય સહન કરવા જોઈ એ. એવા નિશ્ચય કરી એક તપેલી શીલા ઉપર બેસી ગયા જ્યાં તેઓએ ૧૮ પાપસ્થાનાનુ' પ્રત્યાખ્યાન કર્યું, પાતાના દુષ્કૃત્યાની માફી માગી, સમસ્ત જીવેાથી ખમત ખામણા લીધાં, ચાર પ્રકારના શરણના સ્વીકાર કર્યાં અને સમસ્ત મમતાને ત્યાગ કર્યો તેમજ પાંચપરમેષ્ટીને વારંવાર નમસ્કાર કરવા લાગ્યા. પછી અનશન ધારણ કરી સમાધિભાવથી યુક્ત અરહન્નક મુનિએ પાપાપગમન સ’થારા કર્યાં. એક મુહૂત માત્રમાં જ તેમનું સુકુમાર શરીર માખણના પીંડની માફક ગરમીથી એગળી ગયું. અને તે મરીને સુધમ દેવલેાકમાં દેવ થયા. આ રીતે અન્ય મુનિજનાએ પણ ઉષ્ણુપરીષહ સહન કરવા જોઈ એ. ॥ ॥ ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર ઃ ૧ Page #373 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययनसत्रे ३१८ टीका--' पुट्ठो य' इत्यादि। च-अपरं च सम एव उपकार्यपकारिषु तुल्यभावधारकः, महामुनिः उग्रतपश्चरणशीलः दंशमशकैः, इदमुपलक्षणम् , तेन मत्कुणयूकादिभिरपि स्पृष्टः-पीडितः सन् , संग्रामशिरसि रणमस्तके, शूरः पराक्रमी, नागो वा हस्तीव परं-शत्रुरागद्वेषलक्षणं भावशत्रुम् , अभिहन्यात्-पराजयेत् । 'समरेव' इत्यत्रार्षत्वाद्रेफः । अयं भावः-यथा-शूरः करी शराघातव्यथितोऽपि रणे शत्रु जयति, तद्वत् साधुरपि दंशमशकादिभिः पीड्यमानोऽपि कषाय शत्रु जयेदिति ॥ १० ॥ ग्रीष्म काल के बाद वर्षा काल आता है, उसमें दंशमशक आदि का परीषह उत्पन्न होता है। साधु का कर्तव्य है कि वह इस दंशमशकरूप पांचवे परीषह को सहन करे, इस बात को सूत्रकार आगे की गाथा द्वारा बतलाते हैं-'पुट्ठो य' इत्यादि । अन्वयार्थ-(समरे व-समएव) उपकारी और अपकारी में तुल्य भाव धारण करने वाला (महामुणी-महामुनिः) उग्रतपश्चरणशील महामुनि (दंसमसएहि-दंशमशकैः) दंशमशकों के द्वारा, उपलक्षण से मत्कुणखटमल, यूका-जू आदि द्वारा भी (पुट्ठो-स्पृष्टः)पीडित होने पर (संगामसीसे-संग्राम शीर्षे) युद्ध के बीच में (सूरो-शूरः) पराक्रमी (नागो वानाग इव) हस्ती की तरह (परं अभिहणे-परं अभिहन्यात् ) शत्रु कोरागद्वेषरूप भावशत्रु को परास्त करे । ગરમઋતુ પછી ચોમાસાને સમય આવે છે આમાં દંશમશક વગેરે પરી. બ્રહની ઉત્પત્તિ થાય છે, સાધુનું એ કર્તવ્ય છે કે દંશમશકરૂપી પાંચમે પરીષહ સહન કરે. આ વાતને સૂત્રકાર આગળની ગાથાથી બતાવે છે. "पुट्ठो य" त्यादि. मन्वयार्थ-(समरेव-समएव ) 3५४१३ मने १५४ारीमा सममा धारण ४२११॥ महामुणी-महामुनिः तपस्या ४२।२ शासवान भडामुनि दंसमसएहिदेशमशकैः डांस, भ२७२ द्वारा SAक्षणथी भा४, ५, महा ५५ पुट्ठो-स्पृष्टः पिडीत छतi “संगामसीसे-संग्रामशीर्षे " युद्धनी क्यमा (सूरो-शूरः) ५२भी (नागोवा-नागइव) हाथीनी भा५४ (परं अभिहणे-परं अभिहन्यात् ) शत्रुन- देष રૂપ ભાવશત્રુને પરાસ્ત કરે. એને ભાવ આ છે. જેમાં પરાક્રમી હાથી બાણેના આઘાતથી વ્યથિત હેવા છતાં પણ રણમાં શત્રુઓને હરાવે છે તેવી રીતે સાધુ પણ હાંસ, મચ્છર આદિ દ્વારા પીડિત હોવા છતાં પણ કષાયરૂપી શત્રુને પરાસ્ત કરે. ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #374 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रियदर्शिनी टीका. अ० २ गा० ११ देशमशकपरीषहजयः केन प्रकारेण भावशत्रु जयेदित्याहमूलम् ने संतसे न वारेजों, मणंपि न पओसए। उवेहे ने हेणे पाणे, भुंजन्ते मंसंसोणियं ॥११॥ छाया-न संत्रसेत् न वारयेत् , मनोऽपि न प्रदूषयेत् । उपेक्षेत न हन्यात् प्राणान् , भुञ्जानान् मांस शोणितम् ॥११॥ टोका--' न संतसे' इत्यादि। महामुनिर्देशमशकैरुपद्रुतः सन् न संत्रसेत् नोद्विजेत्-दंशमशकादिभिर्दश्यमानोऽपि न ततः स्थानादपगच्छेदित्यर्थः । न वारयेत् , हस्तवस्त्रादिना नापसारयेत्मनोऽपि न प्रदूषयेत्-न कलुषितं कुर्यात् अपि-शब्दाद्वचनादिकमपि न प्रदुष्टं ___ इसका भाव यह है-जैसे पराक्रमी हस्ती बाणों के आघात से व्यथित होने पर भी रण में शत्रु को परास्त कर देता है, उसी तरह साधु भी दंशमशक आदि द्वारा पीडित होने पर भी कषायरूपी शत्रु को परास्त करे ॥ १० ॥ भावशत्रु को किस तरह परास्त करना चाहिये इसको इस गाथा द्वारा स्पष्ट किया जाता है-न संतसे इत्यादि ____ अन्वयार्थ-महामुनि दंशमशक आदि से पीडित होने पर भी (न संतसे-न संत्रसेत् ) कभी भी चित्त में उद्विग्न न होवे-देशमशक आदि से पीडित होने पर भी मुनि एक स्थान से दूसरे स्थान पर नहीं जावे (न वारेज्जा-न वारयेत् ) दंसमशक को अपने शरीर पर बैठ जाने पर हस्तअथवा वस्त्र आदि से नहीं हटावे । (मणं पि न पओसए આને ભાવ એ છે કે-જેમ પરાક્રમી હાથી બાણેના આઘાતથી પીડિત હોવા છતાં પણ રણમાં શત્રુને પરાજીત કરે છે, તેવી જ રીતે સાધુ પણ દંશમશક આદિ દ્વારા પીડિત હોવા છતાં પણ કષાયરૂપી શત્રુનો પરાજય કરે ૧૦ ભાવશત્રુને કેવી રીતે જીતવા જઈ એ, એ હકીક્ત આ ગાથા દ્વારા प्रगट ३२वामां आवे छे. नसंतसे-त्या. भन्वयार्थ-iस भने भ२७२थी पीडित मन छti न संतसे-न संत्रसेत् મહામુનિ ચિત્તમાં ઉદ્વેગ ન લાવે,-ડાંસ મચ્છરના કરડવાથી મુનિએ એક સ્થાનથી भी स्थान न ४, न वारेज्जा-न वारयेत् स भ२०२ने पोताना शरी२ ५२ मे नन साथ मने पर माहिथी तेन टावे नही, मणंपि न पओसए ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #375 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२० उत्तराध्ययनसूत्रे कुर्यादित्यर्थः। किं तु उपेक्षेत-मध्यस्थभावमाश्रयेत् । अत एव-मांसशोणितं भुञ्जानान् प्राणान्पाणिनः, न हन्यात्-न मारयेत् । अत्र सुदर्शनमुनेदृष्टान्तः चम्पानगया रिपुमर्दननामको भूपतिरासीत् । तस्य पुत्रः सुदर्शननामकः सजातः । स धर्मघोषाचार्यसमीपे धर्मदेशनां निशम्य कामभोगेभ्यो विरक्तः प्रवजितः । स सुदर्शनो मुनिर्गुरुप्रसादात् श्रुतज्ञानसम्पन्नो दृढसत्त्वतया एकाकित्वविहाराख्यप्रतिमया विहरन् कदाचित् महाटव्यां निशि पञ्चप्रहरात्मकं कायोत्सर्ग मनोऽपि न प्रदूषयेत् । अपने मन में उनके काटने परअपने मन में कलुषित विचार नहीं करे। अथवा उनके काटने पर मन को कलुषित नहीं करना चाहिये। अपि शब्द से वचन आदिक को भी प्रदुष्ट नहीं करे। किन्तु उस समय(उवेहे-उपेक्षेत) मध्यस्थभाव का ही आश्रय करे। अतः साधु का कर्तव्य है कि वह (मंस सोणियं मुंजते पाणे न हणे-मांस शोणितं भुंजानान् प्राणिनः न हन्योत्) मांस खाते एवं शोणित को पीते हुए प्राणियों को कभी भी न मारे। दृष्टांत-चंपानगरी में रिपुमर्दन नामक एक राजा था। उसका एक पुत्र था, जिसका नाम सुदर्शन था। उसने धर्मघोष आचार्य के पास धर्मदेशना सुनकर काम भोगों से विरक्त बन मुनिदीक्षा धारण की। इन सुदर्शन मुनि ने अपने गुरु महाराज के प्रसाद से श्रुतज्ञान की प्राप्ति कर दृढ प्रराक्रमशाली होने की वजह से एका की विहार करने रूप प्रतिमा को धारण किया। अब ये उस प्रतिमा से विचरने लगे। मनोऽपि न प्रदूषयेत् तन। ४२७पाथी पोताना मनमा ४दुषित विया२ ५५ न ४२, અથવા તેના કરડવાથી મનને કલુષિત ન કરે. અરે શબ્દથી વચનાદિકને પણ પ્રદુષ્ટ न ४२, परंतु ते सभये उवेहे-उपेक्षेत मध्यस्थ भावनामाश्रय ४२ माथी साधुनु तय छेते मंससोणियं भुंजतेपाणे न हणे-मांसशोणितं भुजानान् प्राणिनः न हन्यात् માંસ ખાતા અને લેહી પીતા પ્રાણીઓને કદી પણ ન મારે. દૃષ્ટાન્ત –ચંપા નગરીમાં રિપુમદન નામના એક રાજા હતા. તેમને એક પુત્ર હતે; જેનું નામ સુદર્શન હતું. તેણે ધર્મશેષ આચાર્યની પાસે ધર્મદેશના સાંભળી કામગથી વિરક્ત બની મુનિદીક્ષા ધારણ કરી. આ સુદર્શન મુનિએ પિતાના ગુરુમહારાજના પ્રસાદથી શ્રુતજ્ઞાનની પ્રાપ્તિ કરી, દઢ પરાક્રમશાળી થવાના કારણથી એકાકી વિહાર કરવા રૂપ પ્રતિમાને ધારણ કરી. અને તેઓ એ પ્રતિમાથી વિચરવા લાગ્યા. એક સમયની વાત છે કે, ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #376 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रियदर्शिनी टीका अ० २ गा० ११ सुदर्शनमुनिदृष्टान्तः ३२१ कृत्वा समुत्तस्थौ । तत्र प्रथमयामे लघुकाया सूच्यप्रतीक्ष्णमुखाः दंशमशकाः सहस्रशः परितः समागत्य मुनेः शरीरं दंशन्ति । तदनु- द्वितीययामे तदपेक्षया स्थूलाकारा दंशमशकाः घनघनध्वनिं कुर्वन्तः परितस्तद्वपुस्तीक्ष्णतरं दशन्ति, तदनु तृतीयचतुर्थयामयोस्तदपेक्षयापि स्थूलतराः स्थूलतीक्ष्णमुखा विविधजातीया दंशमशकास्तं सातिशयं दंशन्ति । ततः सूर्योदये सति पञ्चममहरे अकस्मात् तत्रैवोडीयमाना मधुमक्षिकाः सहस्रशस्तद्वपुः संलग्नास्तं मुनिं दशन्ति । मधुमक्षिकाभिराच्छादितं सकलं तद्वपुः श्यामवर्ण संजातम् । तस्य मुखोपरि सदोरक मुखवत्रिकाऽपि एक समय की बात है कि इन्हों ने एक अटवी में रात्रि के समय पांच प्रहरका कायोत्सर्ग धारण किया। उस अटवी में कायोत्सर्ग में रहे हुए इन सुदर्शन मुनि के शरीर को प्रथम प्रहर में लघुकायवाले हजारों दंशमशकों ने सूची के अग्रभाग के समान अपने २ तीक्ष्ण मुखों से चारों ओर से आ आकर खूब डसा । फिर द्वितीय प्रहर में इनकी अपेक्षा स्थूलाकार वाले दंशमशकों ने घन घन शब्द करते हुए सब तरफ से आकर बहुत बुरी तरह उनके शरीर को डसना प्रारंभ किया। बाद में तृतीय चतुर्थ प्रहर में द्वितीय याम में आये हुए दंशमशकों की अपेक्षा बलिष्ट एवं स्थूलतर विविध जाति के दंशमशकों ने काटना शुरू किया। इस प्रकार जब रात्रि के चार प्रहर समाप्त हो चुके और सूर्योदय हुआ तब पंचमप्रहर में - अर्थात् दिवस के प्रथमप्रहर में अकस्मात् उड़ी हुई हजारों मधुमक्षिकाओं ने उन मुनि के शरीर में चिपट कर उन्हें काटना प्रारंभ તેઓએ એક જંગલમાં રાત્રિના સમયે પાંચ પ્રહરના કાર્યાત્સગ કર્યાં. તે જંગલમાં કાયાત્સ માં રહેલા આ સુદર્શન મુનિના શરીરને પ્રથમ પ્રહરમાં નાના શરીરવાળા હજારા ડાંસ, મચ્છરીએ સાયની અણી જેવા પાત પેાતાના તીક્ષ્ણ મુખાથી ચારે બાજુથી આવીને ખૂબ ડંખ માર્યાં. પાછા બીજા પ્રહરમાં તેની અપેક્ષા સ્થૂલ આકારવાળા ડાંસ, મચ્છરોએ ગણુ ગણુ શબ્દ કરીને ચારે તરફથી આવીને ઘણી ખરાબ રીતે તેમના શરીરને ડંખ મારવા લાગ્યા. ત્યાર પછી ત્રીજા અને ચાથા પ્રહરમાં આવેલા ડાંસ મચ્છરની અપેક્ષા નાના મેટા વિવિધ જાતના ડાંસ મચ્છરોએ ડંખ મારવા શરૂ કર્યો. આ પ્રકારે જ્યારે રાત્રીના ચાર પ્રહર પુરા થયા. અને સૂય થયે। ત્યારે પાંચમા પ્રહરમાં અર્થાત્ દિવસના પ્રથમ પ્રહરમાં અકસ્માત ઉડેલી હજારો મધમાખીઓએ તે મુનિના શરીર ઉપર ચાંટી પડીને કરડવું શરૂ કર્યું. મધમાખીએથી આચ્છા उ० ४१ ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર ઃ ૧ Page #377 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययन सूत्रे मक्षिकाभिराच्छादितत्वान्नलक्ष्यते । एवं दंशमशकमक्षिकाकृत वेदनां प्राप्यापि स सुदर्शनमु निर्देशादीन् न निवारयति चिन्तयति च - दुःखमेतत् कियत्, इतोऽनन्तगुणवेदनाऽनन्तवारं नरकेषु मया प्राप्ता, असिपत्रेण क्षुरपत्रेण कदम्बचीरिकापत्रेण छिद्यमाने शक्त्यग्रेण कुन्ताग्रेण शराग्रेण शूलाग्रेण छुरिकाग्रेण, सूचीकलापाग्रेण, कपिकच्छुना, वृश्चिककण्टकेन भिद्यमाने, अङ्गारेण, प्रज्वलज्ज्वालया दह्यमाने च यादृशी कर दिया। मधुमक्षिकाओं से आच्छादित सुदर्शन मुनि का गौर शरीर उस समय श्यामवर्णवाला मालूम देने लगा। उनके मुख के ऊपर डोरे से जो मुखवस्त्रिका बंधी हुई थी वह भी मक्षिकाओं से आच्छादित होने की वजह से दिखलाई नहीं पड़ती थी । इस प्रकार दंशमशकों द्वारा तीव्र वेदना को पाकर भी सुदर्शन मुनि ने उन दंशमशकों का अपने हाथ आदि से निवारण नहीं किया। प्रत्त्युत उस समय यही विचार किया कि हे आत्मन् ! यह जो वर्तमान में दुःख मिल रहा है वह तेरे द्वारा पहिले भोगे हुए नरक एवं निगोद के दुःखों के समक्ष कितना सा है । अरे! तूने पहिले भवों में इस वेदना से भी अनन्तगुणी वेदनाएँ अनंसवार नरक में भोगी हैं। असिपत्र, क्षुरपत्र एवं कदम्बचीरिका पत्र से छेदे जाने पर, शक्ति के अग्रभाग से कुन्त-भाला के अग्रभाग से, बाणके अग्रभाग से, छुरिका के अग्रभाग से, सूचिकलाप के अग्रभाग से, कपिकच्छु कोंचकीफली से और विच्छु के डंक से भेदे जाने पर, तथा जलती हुई अग्नि से जलाये जाने पर जैसी वेदना जीवों को होती है। ३२२ દિત ખનેલ સુદર્શન મુનિનુ ગૌર શરીર તે સમયે શ્યામ વર્ણવાળું દેખાવા લાગ્યું, તેમના મુખ ઉપર દોરાથી જે મુખત્તિ બંધાયેલ હતી તે પણ માખીઓથી આચ્છાદિત હોવાના કારણે જોવામાં આવતી ન હતી. આ પ્રકારે ડાંસ, મચ્છરેાથી તીવ્ર વેદના પામીને પણ સુદર્શન મુનિએ એ ડાંસ, મચ્છર, વગરેને પેાતાના હાથ આદિથી દૂર ન કર્યો. પરંતુ એ વખતે એવાજ વિચાર કર્યો કે હું આત્મન્ ! વર્તમાનમાં જે પ્રકારનું આ દુઃખ મળી રહ્યું છે તે તારાથી પહેલાં ભાગવવામાં આવેલ નરક અને નિગેાદના દુ:ખેા પાસે શું હિસાબમાં છે, અરે! તે પહેલાના ભવામાં આ વેદનાથી પણ અન તગણી વેદનાએ અન ંતવાર નરકમાં ભાગવી છે. અસિપત્ર, ક્ષુરપત્ર, અને કદ ખચીરિના પત્રથી છેદાઈ જવાથી, શક્તિના અગ્રભાગથી કુંત ભાલાના અગ્રભાગથી, માણુના અગ્રભાગથી, છુરીના અગ્રભાગથી, સુચિ કલાપના અગ્રભાગથી, કપિ કચ્છુ-કાંચની ફ્ળીથી, અને વીંછીના ડ ંખથી, ભેદાઈ જવાથી તથા ખળતી ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર ઃ ૧ Page #378 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रियदर्शिनी टीका. अ० २ गा. ११ सुदर्शनमुनिदृष्टान्तः_ _ ३२३ वेदना जायते ततोऽप्यनन्तगुणा वेदना नरकेऽनन्तवारं मया सोढा, एवं निगोदेऽपि, यत्र सूच्यग्रपरिमितकन्दादौ असंख्याताः श्रेणयः सन्ति, एकैकश्रेण्या मसंख्यातानि प्रतराणि, एकैकमतरे असंख्याता गोलाः, एकैकगोले असंख्यातानि निगोदशरीराणि, एकैकशरीरे अनन्ता जीवाः, एकैकनिगोदजीवः प्रत्येकश्वासोच्छ्वासे सार्धसप्तदश जन्ममरणानि करोति, एवंविधनिगोदेऽपि अनन्तजन्ममरणानां दारुणदुःखानि अनन्तवारं परवशेन मया सोढानि । किं पुनरेतत् , यतस्तत्तदुःखसागरैकबिन्दुमात्रमपि नैतत् , एवं दंशमशकपरीपहं प्रकृष्टपरिणामेन सहमानः इससे भी अनंतगुणी वेदना नरक में अनंतवार तूने भोगी है। इसी तरह निगोद में भी सही हैं । सूची-सुई-के अग्रभाग प्रमाण कन्द आदि में असंख्यात श्रेणियां होती हैं एक एक श्रेणी में असंख्यात प्रतर होते हैं । एक एक प्रतर में असंख्यात गोले होते हैं। एक एक गोले में असंख्यात निगोद शरीर हुआ करते हैं । एक एक निगोद शरीर में अनन्त जीव रहा करते हैं। एक एक निगोदराशि का जीव एक २ श्वासोच्छ्वास में १७॥ साढासत्रह बार जन्मता है और १७॥ साढा सत्रह बार ही मरता है। इस प्रकार के स्वरूप वाले निगोद में भी हे आत्मन्! तूने अनन्तवार अनंत जन्म और मरण के दुःखों को परवश होकर सहन किया है। उन दुःखों के सामने यह देशमशक आदि से होने वाला दुःख कितना सा है। उन दुखों के सामने तो यह एक लेश मात्र भी नहीं है । इस प्रकार देशमशक परीषह को प्रकृष्ट शुभाध्यवसाय से सहन करते हुए सुदर्शन मुनिराज અગ્નિથી બાળવાથી જેવી વેદના જીવોને થાય છે, તેથી અનંતગણી વેદના નરકમાં અનંતવાર તેં ભેળવી છે. આ રીતે નિગોદમાં પણ સહન કરેલ છે. સેયના અગ્રભાગ પ્રમાણમાં કન્દ આદિમાં અસંખ્યાત શ્રેણિયે હોય છે. એકેક શ્રેણીમાં અસંખ્ય પ્રતર હોય છે. અને એક પ્રતરમાં અસંખ્ય ગેળા હોય છે. અને એકેક ગળામાં અસંખ્યાત નિગોદ શરીર હોય છે. એકેકનિગદ શરીરમાં અનંત જીવ રહ્યા કરે છે. એકેક નિગદ રાશીને જીવ એક શ્વાસે છવાસમાં સાડાસત્તરવાર જન્મે છે. અને સાડાસત્તરવાર કરે છે. આ પ્રકારના સ્વરૂપવાળા નિગોદમાં પણ હે આત્મન ! તેં અનંતવાર અનંત જન્મ અને મરણના દુઃખને પરવશ બની સહન કર્યા છે એ દુઃખની સામે આ ડાંસ મચ્છરોથી થતું દુઃખ કેવડું છે? તે દુઃખેની સામે તે આ દુઃખ લેશ માત્ર પણ નથી. આ પ્રકારે ડાંસ મછરેના પરીપહને પ્રકૃષ્ટ શુભાધ્યવસાયથી સહન કરતાં સુદર્શન મુનિરાજે પ્રશસ્ત, ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #379 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२४ उत्तराध्ययनसूत्रे प्रशस्तध्यानेन शुभाध्यवसायेन प्राप्तकेवलज्ञान-केवलदर्शनः सुदर्शनः साधनन्तमव्यावाधं शाश्वतं शिवपदं लब्धवान् । एवमन्यैरपि मुनिभिमध्यस्थभावेन दंशमशकपरीषहः सोढव्यः ॥ ११॥ अयाचेलपरीषहजयं प्राह-- मूलम्-परिजुन्नेहिं वैत्थेहि, होक्खामि त्ति अचेलए । अदुवा सचेलए, होक्खं, इंति भिक्खू ने चिंतेए ॥१२॥ छाया-परिजीर्णैर्वस्त्रै,-भविष्यामि इति अचेलकः । __अथवा सचेलको भविष्यामि, इति भिक्षुर्न चिन्तयेत् ॥१२॥ टीका-'परिजुन्नेहिं ' इत्यादि। परिजीर्णैः पुरातनैः, वस्त्रैः, अचेलका वस्त्ररहितः, भविष्यामि, तेषां स्वल्पकालस्थायित्वात् , इति-एतद्रूपं दैन्यं, भिक्षुनै चिन्तयेत्= न कुर्यात् । अथवा ने प्रशस्तध्यान से और शुभ परिणामों को धारा से केवलज्ञान और केवलदर्शन प्राप्त कर लिया। पश्चात् आयु के अंत में सादि अनंत, अव्याबाध एवं शाश्वत पद जो मुक्तिपद है उस को प्राप्त कर लिया। सुदर्शन मुनि की तरह अन्यमुनिजनों को भी मध्यस्थभाव से दंशमशक परीषह सहन करना चाहिये ॥ ११॥ अव सूत्रकार छठे अचेल परीषह को जीतने का उपदेश करते हैंपरिजुन्नेहिं-इत्यादि. अन्वयार्थ-(परिजुन्नेहीं-परिजीर्णैः) पुराने ( वत्थेहि-वस्त्रैः) वस्त्रोंसे (अचेलए होक्खामि-अचेलकः भविष्यामि) मैं उनकी अल्पकाल स्थिति होने से अचेल वस्त्र रहित हो जाउँगा। (त्ति-इति) इस प्रकार का ધ્યાનથી અને શુભ પરિણામની ધારાથી કેવળજ્ઞાન અને કેવળદર્શન પ્રાપ્ત કર્યું. પછી આયુના અંતમાં આદિ અનંત, અવ્યાબાધ અને શાશ્વત પર જે મુક્તિપદ છે તેને પ્રાપ્ત કર્યું. સુદર્શન મુનિની માફક અન્ય મુનિજનેએ પણ મધ્યસ્થ ભાવથી ડાંસ અને મચ્છરેના પરીષહને સહન કરવો જોઈએ ૧૧ वे सूत्र।२ ७४ मयेर ५२५ ने तवान ५१४रे छे. परिजुन्नेहिं त्यादि. म-क्याथ-परिजुन्नेहि-परिजीर्णैः जुना “वत्थेहि-वस्त्रैः" खोथी अचेलए होक्खामि-अचेलकः भविष्यामि हुँतनी ५८५४ स्थिति पाथी मन्येस पक्ष २हितयत्ति -इति ॥ प्रारन हैन्यमा न ४२ अदुवा-अथवा अथवा ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #380 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रियदर्शिनी टीका. अ०२ गा. १३ अचेलपरीषहजयः सचैलक: नूतनवस्त्रवान् भविष्यामि, इति भिक्षुर्न चिन्तयेत् , अयं भावः-जीर्णवस्त्रधारी साधुर्वस्त्राभावसंभावनया स्वात्मनि विषादं न कुर्याद्, नापि च नूतनवस्त्रप्राप्तिसंभावनया हर्ष कुर्यादिति ॥१२॥ उक्तार्थमेव दृढीकर्तुमाहमूलम्-एगया अचेलए होई, सचेले यावि एगयाँ । एयं धम्महियं नच्चा, नाणी 'नो परिदेवए ॥१३॥ छाया-एकदा अवेलको भवति, सचेलश्चापि एकदा । एतद् धर्महितं ज्ञात्वा, ज्ञानी नो परिदेवयेत् ॥१३॥ टीका-'एगया' इत्यादि। एकदा-कदाचित् , कल्पनीयजीर्णखण्डितमलिनाल्पवस्त्रस्य सद्भावे मुनिः, दैन्यभाव न करे। (अदुवा-अथवा) अथवा ( सचेलए होक्खं-सचेलको भविष्यामि) नवीन वस्त्रों से " उनकी अधिक स्थिति होने से" सचेलकवस्त्र सहित हो जाऊँगा (इति) इस प्रकार (भिक्खू) साधु (न चिंतए -न चिन्तयेत्) विचार न करे । इस का भाव केवल यही है कि साधु जिस समय जीर्ण वस्त्रों का परिधान करे उस समय मुनि “ये फटे पुराने वस्त्र कितने दिन तक चलेंगे इनके फट जाने पर मैं निर्वस्त्र हो जाउँगा" इस प्रकार कभी भी अपनी आत्मा में विषाद न करे । “ये नवीन वस्त्र हैं अधिक दिन तक चलते रहेंगे अतः मै सवस्त्र ही रहूँगा" इस प्रकार कभी हर्ष भाव को प्राप्त न हो । अथवा 'अब नूतन वस्त्रों की मुझे प्राप्ति होगी, इस बात की संभावना से भी साधु कभी भी हर्षित न होवे ॥ १२ ॥ सचेलए होखं-सचेलको भविष्यामि नवीन वस्त्रोथी " ते १५ प्रभाशुभ पाथी" सयेत पत्र सहित ४७A PAL Rो ५ “ भिक्खू” साधु नचिंतए-न चिंतयेत् पियार न ४२. આને ભાવ કેવળ એ જ છે કે, સાધુ જે સમયે જીર્ણ વસ્ત્રો પરિધાન કરે એ સમયે આ ફાટયાં તૂટયાં વસ્ત્રો કેટલા દિવસ ચાલશે, આના ફાટી જવા પછી હું વસ્ત્ર વગરને બની જઈશ. આ પ્રકારને વિષાદ કદી પણ પિતાના આત્મામાં ન કરે. આ નવાં વસ્ત્ર છે, ઘણા સમય સુધી ચાલતાં રહેશે, અને આથી હું સવસજ રહીશ. આ પ્રકારને હર્ષભાવ પણ કદી ન લાવે. અથવા હવે મને નવાં વસ્ત્રની પ્રાપ્તિ થશે આ વાતની સંભાવનાથી પણ સાધુ કદી हर्षित न थाय (१२) ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #381 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२६ उत्तराध्ययनसूत्रे अचेलका स्त्ररहित इव, भवति-तथाविधवस्त्रस्य तनुत्रायकत्वाभावात् । एकदा कदाचित-नूतनवस्त्रसद्भावे, सचेलकोऽपि नवीनवस्त्रवानपि भवति । एतद्-अचेल. कत्वं सचेलकत्वं चेति द्वयं, धर्महित-धर्माय हितं-श्रुतचारित्रधर्मोपकारक, ज्ञात्वा ज्ञानी मेधावी, नो परिदेवयेत् जीर्णवस्त्रसद्भावे विषादं न कुर्यात् , 'एगया अचेलए' इत्यादि. __ अन्वयार्थ—(एगया-एकदा) कभी किसी समय कल्पनीय जीर्ण खंडित मलिन एवं अल्प वस्त्रों के सद्भाव में मुनि (अचेलए होई-अचेलको भवति) वस्त्र रहित जैसा ही होता है । क्यों कि जो जीर्णादिवस्त्र उसके होते हैं उनसे यथावत् शरीर की रक्षा नहीं होती है। (एगया) कभी किसी समय-नूतन वस्त्रों के सद्भाव में (सचेले यावि होइ-सचेलकोऽपि भवति) सचेल भी-नवीन वस्त्र वाला भी होता है ।(एवं-एतत्) ये दोनों ही अवस्थाएँ साधु की उसके (धम्महियं-धर्महितम् ) श्रुतचारित्र रूप धर्म की उपकारक हैं । ऐसा (नच्चा-ज्ञात्वा ) जानकर (नाणी नो परिदेवए ज्ञानी नो परि देवयेत् ) ज्ञानी मुनि किसी भी अपनी अवस्था में चाहे वस्त्र सहित अवस्था हो चाहे वस्त्र रहित अवस्था हो उसमें हर्णविषाद न करे। ___ भावार्थ-साधु को “ ये वस्त्र जो मेरे पास हैं वे बहुत ही जीर्ण शीर्ण हैं, तथा हलके पोतके हैं, ये बहुत थोड़े हैं, सुन्दर भी नहीं हैं इनसे शीत आदिक की रक्षा कैसे होगी' इस प्रकार कभी विषाद 'एगया अचेलए' त्यादि म-क्या-एगया-एकदा quत ४६५नीय गति भलिन मन महपसीना समामा भुनि अचेलए होइ-अचेलको भवति १ २डित હોય છે, કેમ કે, જે જીર્ણ એવાં વસ્ત્ર તેની પાસે હોય છે તેનાથી યથાવત शरीरनी २क्षा थती नथी एगया मत ना सोना सहलामा सचेले यावि होइ-सचेलकोऽपि भवति सय ५५-नवीन वसा ५५ डाय छे. एवं-एतत् मावी भन्ने अवस्थामा साधुनी धम्महियं-धर्महितं श्रुतयारित्र ३५ धर्ममा ७५४१२४ छ सेनच्चा-ज्ञात्वा तशीन नाणी नो परिदेवए-ज्ञानि नो परिदेवयेत् ज्ञानी ५५५ અવસ્થામાં ચાહે વસ્ત્રસહિત અવસ્થા હોય, ચાહે વસ્રરહિત અવસ્થા હોય तभा उप-विषाहन ४२. ભાવાર્થ–સાધુએ “આ વસ્ત્ર જે મારી પાસે છે તે ઘણાં જીર્ણશીર્ણ છે, તથા હલકા પિતનાં છે અને ખૂબ થોડાં છે, સુંદર પણ નથી, એનાથી ઠંડી વગેરેથી રક્ષા કેમ થશે આ પ્રકારને વિષાદુભાવ કદી ન કરવો જોઈએ. આ ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #382 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रियदर्शिनी टीका. अ० २ गा० १३ अवेलपरीषहजयः नवीनवद्भावे तन्निमित्तकं हर्ष न कुर्यात्, तथा एषणीयप्रमाणोपेतवस्त्राणाममहामूल्य कत्वादल्पत्वादशोभनत्वाच्च विषादं न कुर्यात् शीतस्पर्शादिना बाधितोऽपि प्रमाणाधिकवाकाङ्क्षां च न कुर्यादित्यर्थः । तथाचोक्तमाचाराङ्गसूत्रे ३२७ 66 जे भिक्खू तिहि वत्थेहिं परिवुसिए पायच उत्थेहिं, तस्स णं णो एवं भवइ, उत्थं वत्थं जाइस्सामि । ( आचा. १ श्रु. ८ अ. ४ उ. ) छाया -यो भिक्षुभिर्वस्त्रे पर्युषितः पात्रचतुर्थैः, तस्य खलु नो एवं भवति चतुर्थं वस्त्रं याचिये । पर्युषितः = व्यवस्थितः । अनेन स्थविरकल्पिकस्य चतुर्थवस्त्र प्रतिषेधोऽवगम्यते । अपरं च तत्रैवोक्तम् 1 "जस्स णं भिक्खुस्स एवं भवइ - पुट्ठो खलु अहमंसि नाम मंसि सीयफासं भाव नहीं करना चाहिये और ये नवीन वस्त्र हैं इनसे शीत आदिक की रक्षा बहुत अच्छी तरह हो जायगी " इस प्रकार कभी हर्षित भी नहीं होना चाहिये । शीतस्पर्शादिक से पीडित होने पर प्रमाण से अधिक वस्त्रों की आकांक्षा करना साधुमार्ग में निषिद्ध है। आचारांग सूत्र ( १ श्रु. ८ अ, ४ उ . ) में यही बात बतलाई गई है " जे भिक्खु तिर्हित्थेहिं परिवसिए पायच उत्थे हिं तस्स णं णो एवं भवइ चउत्थं वत्थं जाइस्सामि " जो भिक्षु तीन वस्त्रों से एवं चौथे पात्र से व्यवस्थित रहता है उसे चतुर्थ वस्त्र के याचन की आवश्यकता नहीं होती है उस के चित्त में यह बात नहीं आती है कि मै चतुर्थ वस्त्र की याचना करूँ । इस कथन से स्थविरकल्पी साधु को चतुर्थवस्त्र का प्रतिषेध सिद्ध होता है। और भी आचारांग सूत्र ( १ श्रु. ८ अ. ४ उ. ) में कहा है “ जस्स णं भिक्खुस्स एवं भवइ - पुट्ठो खलु अहमंसि नालमहमंसि सीयफासं નવીન વસ છે, તેનાથી ઠંડી વગેરેની રક્ષા સારી રીતે થશે, આ પ્રકારે કદી ષિત પણ ન થવુ જોઈએ. ઠંડીના સ્પથી પીડિત થવાથી અધિક વચ્ચેની माांक्षा ४२वी ते साधु भार्गभां निषेध छे, मायासंगसूत्र ( १ श्रु. ८. २५.४३ ) भां भेवी वात अताववामां आवे छे हैं, जे भिक्खू तिहिं वत्थेहिं परिवुसिए पाय त्थेहि तस्स णं णो एवं भवइ चउत्थं वत्थं जाइस्सामि ? भिक्षु त्रायु वस्त्र भने ચેાથા પાત્રથી વ્યવસ્થિત રહે છે. તેને ચેાથા વસ્ત્રની યાચના કરવાની આવશ્યકતા થતી નથી. એના ચિત્તમાં એ વાત આવતી નથી કે હું ચાથા વસ્ત્રની યાચના કરૂં. આ કથનથી સ્થવિરકલ્પી સાધુને ચેાથા વસ્ત્રના પ્રતિષેધ સિદ્ધ થાય છે. जीन् पशु आयरांग सूत्र (१. श्रु. ८. अ. ४. 3 ) भांउछु छेजस्सणं भिक्खुस्स एवं भवइ - पुट्ठो खलु अहमंसि नालमहमंसि सीयफासं ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર ઃ ૧ Page #383 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२८ उत्तराध्ययनसूत्रे अहियासित्तए, से वसुमं सव्वसमन्नागयपनाणेणं अप्पाणेणं केइ अकरणयाए आउद्दे, तवस्सिणो हतं सेयं जं एगे विहमाइए । तत्थवि तस्स कालपरियाए। से वि तत्थ विअंतिकारए । इच्चेयं विमोहायतणं हियं सुहं खमं णिस्सेयसं आणुगामियं । ( आचा. १ श्रु. ८ अ. ४ उ.) ___ छाया---यस्य खलु भिक्षोः एवं भवति-स्पृष्टः खलु अहमस्मि, नालमहमस्मि शीतस्पर्शम् अध्यासितुम्, स वसुमान् सर्वसमन्वागतप्रज्ञानेन आत्मना कोऽपि अकरणतया आकृतः तपस्विनः खलु तच्छ्रेयः यदेकं वैहायसादिकम् । तत्रापि तस्य कालपर्यायः । सोऽपि तत्र व्यन्तकारकः । इत्येतत् विमोहायतनं हितं मुखं क्षम निःश्रेयसम् आनुगामिकम् । व्याख्या--यस्य भिक्षोः खलु एवम् ईदृशी विचारणा भवति-अहं खलु परीषहैः स्पृष्टः बाधितोऽस्मि, अहं शीतस्पर्शम् अध्यासितुं सोढुम् , अलं-पर्याप्तः, नास्मि । सः-ईदृशभावनाभावितः, कोऽपि वसुमान् संयमी, सर्वसमन्वागतप्रज्ञानेन=पूर्णोपयोगयुक्तेन, आत्मना=अन्तःकरणेन अकरणतया उपसर्गप्रतीकारस्याअहियासित्तए, से वसुमं सव्वसमन्नागयपन्नाणेणं अप्पाणेणं केइ अकरणयाए आउद्दे, तवस्सिणो हु ते सेयं जं एगे विहमाइ ए । तत्थ वि तस्स कालपरियाए । से वि तत्थ विअंतिकारए। इच्चेतं विमोहायतणं हियं सुहं खमं णिस्सेयसं अणुगामियं ॥" जिस भिक्षु के हृदय में ऐसी विचारणा होती है कि मैं परीषहों से पीडित हूं अतः शीतपरीषह को सहन करने के लिये समर्थ नहीं हूं" । इस प्रकार के विचार से युक्त होकर वह संयमी मुनि प्रमाणाधिक वस्रों को ग्रहण करने रूप, तथा अग्नि को जलाने रूप सावध व्यापारों को कभी भी न करे। किन्तु वैहायस (फांसी) अहियासित्तए से वसुमं सब्बसमन्नागयपन्नाणेणं अप्पाणेणं केइ अकरणयाए आउट्टे तवस्सिणो हु ते सेयं जं एगे विहमाइए । तत्थ वि तस्स कालपरियाए । से वि तत्थ विअंतिकारए । इच्चेतं विमोहायतणं हियं सुहं खमं णिस्सेयसं अणुगामियं ॥ જે ભિક્ષુના હૃદયમાં એવી વિચારણા થાય છે કે, “હું પરીષહથી પીડિત છું આથી ઠંડીના દુઃખને સહન કરવામાં સમર્થ નથી” આ પ્રકારના વિચારથી યુક્ત બની તે સંયમી મુનિ પ્રમાણાધિક વસ્ત્રોને ગ્રહણ કરવા રૂપ, તથા અનિને જલાવવા રૂપ સાવઘવ્યાપારને કદી પણ ન કરે. પણ તે યહાયસ ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #384 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रियदर्शिनी टीका अ० २ गा. १३ अचेलपरीषहजयः ३२९ करणभावनया आवृतः व्यवस्थितस्तिष्ठेत् । तपस्विनः खलु तच्छेयः तदेव श्रेयस्कर भवति, यत्-एकं वैहायसादिकं-वैहायसविषभक्षणझंपापातादिमरणेषु किमप्येक मरणम् । तत्रापि वैहायसादिषु तस्य कालपर्यायः भक्तपरिज्ञादिवत् कालमृत्युरेव नत्वकालमृत्युः, अत एव सोऽपि तत्र-चतुर्थवस्त्रानाकासाविषये, व्यन्तकारका पर्यवसान मृत्युकारकः, संसारान्तकारक इत्यर्थः । इत्येतत्-इति-अतः-अस्मात् कारणात् , एतन्मरणं विमोहायतनम्-विमोहानां-परीषहसहिष्णूनाम् , आयतनं स्थानं-मोक्षपददायकमितिभावः, हितम्-उपकारकम् , सुख-सुखकरं, क्षमं योग्यं, निःश्रेयसं=निश्चितं-निश्चल, श्रेयः-शुभम् , आनुगामिकम् गच्छन्तं पुरुषम् आ-समन्तात् , अनुगच्छतीत्येवं शीलं आनुगामि, तदेव-आनुगामिकम् , मोक्षपदपर्यन्तानुगमनशीलमित्यर्थः। अयं भावः-एषणीयवस्त्रत्रयधारणे शीतस्पर्शवेदनामसहिष्णुश्चतुर्थ वस्त्राकासाया अकरणेन त्रिवस्त्रकत्वरूपमचेलं परीषहं सहमानो मुनिहायसादिष्वेकं किमपि मरणमुपगतश्चेत्तर्हि तादृशमरणजन्यः प्रकृष्टधर्मस्तस्य मुनेस्तस्मिन्नेव भवे संसारान्तं करोति, मोक्षपदं च प्रापयति ।। इहाचेलकत्वं प्रवचनोक्तरीत्या ग्राह्यम् । तीर्थंकरोपदिष्टाचारसेविनो मुनयः प्रवचनानुसारेण कल्पनीयाल्पजीर्णखण्डितमलिनवस्त्रपरिधानाः प्रमाणोपेतवस्त्रधारिणथाप्यचेलका एव । यथा-परिहितकौपीना अपि तापसा लोके नग्ना उच्यन्ते, आदि मरणों में से किसी एक मरण को धारण कर अपने प्राणों का व्युत्सर्ग कर देवे । इस प्रकार के मरण से होने वाला जो प्रकृष्ट धर्म है वह उस मुनि को उसी भव में संसार का अन्त करता हुआ मोक्ष का प्रदायक होता है। प्रवचन में कथित रीति के अनुसार यहां अचेलकता का ग्रहण किया गया है। तीर्थकरों द्वारा उपदिष्ट आचार का सेवन करने वाले मुनि प्रवचन के अनुसार कल्पनीय, अल्प, जीर्ण, एवं ફાંસી વગેરે મરણમાંથી કઈ એક મરણને ધારણ કરી પિતાના પ્રાણને ત્યાગ કરી દે. આ પ્રકારના મરણથી થનાર જે પ્રકૃષ્ટ ધર્મ છે તે એ મુનિને એ ભવમાં સંસારને અંત કરાવનાર મોક્ષદાયી બને છે. પ્રવચનમાં કહેલ રીત અનુસાર અહિં અચેલકતાનું ગ્રહણ કરવામાં આવેલ છે. તીર્થકરે દ્વારા ઉપદિષ્ટ આચારનું સેવન કરવાવાળા મુનિ પ્રવચન અનુસાર કલ્પનીય, અહ૫, જીર્ણ અને ખંડિત મલિન વસ્ત્રને, પ્રમાણપત વસ્ત્રોને, ધારણ કરેલ હોવા છતાં उ०४२ ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #385 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३० उतराध्ययनसूत्रे यथा वा यस्याङ्गरक्षिका जीर्णा संजाता, स परिधृताङ्गरक्षकोऽपि सौचिकान्तिकं गत्वा वदति - अनावृतोऽस्मि, अङ्गरक्षिकां देहीति, यथा वा काचिन्नारी परिहितपरिजीर्णशाटिकाsपि वस्त्रकारं तन्तुवायं वदति - 'नग्नाहमस्मि, देहि मे शाटिकाम्' इत्यादि, एवं साधवोऽप्यमहाल्पमूल्यानि खण्डितानि जीर्णानि प्रमाणोपेतानि प्रमाणतो न्यूनानि वा वस्त्राणि श्रुतोपदेशाद् धर्मबुद्धया धारयन्तोऽचेलका एव । अचेलकसदृशा अप्यचेलका उच्यन्ते । खंडित मलिन वस्त्र को प्रमाणोपेत वस्त्रों को धारण करते हुए भी अचेलक ही माने जाते हैं। जिस प्रकार लोक में लंगोटीमात्र को धारण करने पर भी तापस लोग " ये नग्न हैं" इस प्रकार कहे जाते हैं । अथवा जैसे किसी पुरुष का अंगरखा जीर्ण हो जाय और वह उसे पहिर कर भी जब दर्जी के पास दूसरे अंगरखे को सिलाने के लिये जाता है तो कहता है कि भाई देखो जल्दी इसे सीकर दे देना मै उघाडा फिरता हूं, मेरे पहिरने को अंगरखा नहीं है। अथवा - जैसे कोई स्त्री कि जिसकी शाटिका - साडी परिजीर्ण हो चुकी है जब तन्तुवाय- कपडे बुननेवाले के पास जाती हैं तो कहती हैं कि मुझे साडी दे में बिना साडी फिर रही हूं। इसी तरह साधु भी प्रमाणोपेत खंडित जीर्ण एवं अत्यंत अल्पमूल्यवाले वस्त्रों को श्रुतोपदेश के अनुसार धर्मबुद्धि से धारण करते हुए भी अचेलक ही हैं, ऐसा समझना चाहिये । जो अचेलक के तुल्य होते हैं वे भी अचेलक ही माने जाते हैं । પણ અચેલક જ માનવામાં આવે છે. જે પ્રકારે લેાકમાં તાપસ લેાકેા લગેટી ધારણ કરે છે. પણ “આ નગ્ન છે” આ પ્રકારથી કહેવામાં આવે છે. અથવા જેમકોઇ પુરૂષનું અંગરખું જીણું થઈ જાય અને તે તેને પહેરીને પણ જ્યારે દરજીની પાસે ખીજું અંગરખુ શીવડાવવા માટે જાય છે તા કહે છે ભાઈ જીએ આને જલ્દીથી શીવી આપો હું ઉઘાડા કરૂ છું. મારે પહેરવાને અંગરખુ નથી અથવા જેમ-કાઈ સ્ત્રી કે જેની સાડી પરિણુ થતાં તે કપડાં બનાવનાર પાસે જાય છે અને કહે છે કે મને સાડી આપ હું' સાડી વગરની ફરી રહી છું. આ રીતે સાધુ પણ પ્રમાણેાપેત ખંડિત જીણુ અને અત્યંત અલ્પમુલ્યવાળાં વસ્રોને શ્રુત ઉપદેશ અનુસાર ધર્મ બુદ્ધિથી ધારણ કરતા હોવા છતાં અચેલક જ છે એવું સમજવું જોઈએ. જે અચેલક તુલ્ય હાય છે તે પણ અચેલક જ માન્યા જાય છે, ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર ઃ ૧ Page #386 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रियदर्शिनी टीका. अ० २ गा० १३ स्थविरकल्पवर्णनम् ३३१ ___ आगमे हि द्विविधः कल्पः-स्थविरकल्पः जिनकल्पश्च । तत्र गच्छप्रतिबद्धानां मुनीनामाचारः स्थविरकल्पः। ननु कस्तावत् स्थविरकल्पक्रमः ? उच्यते-प्रथमं श्रुतचारित्रलक्षणधर्मश्रवणम् , ततः सम्यक्त्वलाभः, तदनुआलोचनापूर्विका प्रव्रज्याप्रतिपत्तिः, ततः शिक्षाधिकारो भवति शिक्षा च द्विविधा-ग्रहणशिक्षा, आसेवनाशिक्षा च । तत्र ग्रहणशिक्षा -सूत्राध्ययनरूपा, आसेवनाशिक्षा-प्रतिलेखनादिरूपा। ततः सूत्राणामर्थग्रहणम् । तत्पश्चादनियतवासः। स च तादृशयोग्यतासंपन्नस्य मुनेः साधुसहायस्य ग्रामनगरसंनिवेशादिषु देशान्तरे वा गुरोराज्ञया पर्यटनम् । ___ आगम में स्थविरकल्प और जिनकल्प के भेद से दो कल्प भगवान ने कहे हैं। उनमें गच्छप्रतिबद्ध मुनियों का जो आचार है वह स्थविरकल्प है । स्थविरकल्प का क्रम इस प्रकार है-प्रथम श्रुतचारित्ररूप धर्म का श्रवण, उससे सम्यक्त्व का लाभ, बाद में आलोचनापूर्वक प्रव्रज्या की प्रतिपत्ति, उससे ग्रहणशिक्षा एवं आसेवनशिक्षा के अधिकार का लाभ । सूत्र के अध्ययन करने रूप ग्रहणशिक्षा एवं प्रतिलेखनादिकरूप आसेवनशिक्षा है। इसके बाद सूत्रों का अर्थ ग्रहण करना, पश्चात् अनियत वास । अनियतवास का तात्पर्य है गुरु की आज्ञा से ग्राम, नगर एवं सन्निवेश आदिकों में अथवा देशान्तर में विचरण करना। यह विचरण, विचरण करने की योग्यता संपन्न जो साधु होता है उसी का होता है। फिर भी यह एकाकी विहार नहीं कर सकता किन्तु अन्य साधुओं के साथ ही विहार करता है। આગમમાં સ્થવિરકલ્પ અને જનકલ્પના ભેદથી બે કલ્પ ભગવાને કહ્યાં છે. એમાં ગચ્છપ્રતિબદ્ધ મુનિયોને આચાર છે, તે સ્થવિરક૯ય છે. સ્થવિર કલ્પને કેમ આ પ્રકારને છે.–પ્રથમ શ્રુતચરિત્રરૂપ ધર્મનું શ્રવણ, એનાથી સમ્યકત્વને લાભ, પછી આલેચના પૂર્વક પ્રત્રજ્યાની પ્રાપ્તિ એથી ગ્રહણશિક્ષા અથવા આસેવનશિક્ષાને લાભ, સૂત્રનું અધ્યયન કરવા રૂપ ગ્રહણ શિક્ષા અને પ્રતિલેખનાદિક રૂપ આસેવનશિક્ષા છે. એ પછી સૂત્રેના અર્થ સમજ્યા પછી અનિયતવાસ, અનિયતવાસનું તાત્પર્ય એ છે કે, ગુરુની આજ્ઞાથી ગ્રામ-નગર અને સિન્નિવેશ વગેરેમાં અથવા દેશાત્રમાં વિચરણ કરવું. આ વિચરણ કરવાની ગ્યતા સંપન્ન જે સાધુ હોય છે, તેને જ ગુરુ મહારાજ એવી આજ્ઞા આપે છે. આમાં તે એકાકી વિહાર કરી શકતા નથી પરંતુ અન્ય સાધુઓની સાથે જ વિહાર કરે છે. ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #387 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३२ उत्तराध्ययनसूत्रे ननु किं प्रयोजनं देशान्तरपर्यटनस्य ? उच्यते-नानास्थानेषु बहुश्रुतानाचार्यादीन् पश्यतस्तस्य सूत्रार्थेषु समाचार्या च विशेषप्रतिपत्तिर्भवति, नानादेशभाषाज्ञानं च । तेनासौ तत्तद्देशीयभाषया तत्र तत्र धर्मदेशनां ददाति प्रवज्यां ग्राहयति च । गच्छान्तरीया अन्यदेशीयाः साधवः 'अयमस्मद्भाषाज्ञानवान्' इति मत्वा तदन्तिकमागत्य शास्त्राभ्यसनरूपां तदुपसंपदं प्रतिपद्यन्ते, तेषां प्रीतिश्च तदुपरिजायते। एवमनियतवासेन पर्यटतस्तस्य निष्पत्तिर्भवति। निष्पत्तिर्नाम सद्गुणवत्त्वेन प्रभूतशिष्याणां तदन्ति के संसिद्धिः। देशान्तर में भ्रमण करने का प्रयोजन यह है कि जब साधु देशान्तर में भ्रमण करते हैं, तब उनका अन्यदेश के अनेक बहुश्रुत आचार्य आदिकों के साथ संपर्क वढता है। उससे उनको सूत्रमें अर्थ में एवं साधु समाचारी में विशेष प्रतिपत्ति-जानकारी होती है। तथा नाना देशकी भाषाओं का ज्ञान भी हो जाता है। इससे साधु को धर्मप्रचार करने में बड़ी भारी सहायता मिलती है। क्यों कि वह उस २ देशमें उस २ देश की भाषा से उपदेश देकर वहां की जनता को धार्मिक वासना से वासित करते हैं। एवं लोगों को दीक्षा ग्रहण करने की भावना जागृत करते हैं । लोग उनसे प्रतिबोध पाकर दीक्षा धारण करते हैं। दूसरे गच्छ के अथवा अन्य देश के साधु " ये हमारी भाषा भाषी हैं" यह समझकर उनके पास आते जाते हैं और उनसे शास्त्रों का अभ्यास करते हैं । इससे दूसरे गच्छ के मुनिराजों की उन पर अधिक प्रीति भी हो जाती है। शिष्यपरंपरा की भी वृद्धि होती है। क्यों कि लोग जब - દેશાન્તરમાં ભ્રમણ કરવાનું પ્રયોજન એ છે કે, જ્યારે સાધુ દેશાન્તરમાં ભ્રમણ કરે છે ત્યારે તેને બીજા દેશોના બહુશ્રુત આચાર્ય વગેરે સાથે સંપર્ક થાય છે આથી તેને સૂત્રમાં અર્થમાં અને સાધુ સમાચારીમાં વધુ જાણવાનું મળે છે. અને જુદા જુદા દેશની ભાષાઓનું પણ જ્ઞાન થાય છે. આથી સાધુને ધર્મ પ્રચાર કરવામાં સારી એવી સહાયતા મળી રહે છે. કેમ કે, તે જે તે દેશમાં જે તે દેશની ભાષાથી ત્યાંની જનતાને ધાર્મિક ભાવનાથી ભાવનાયુક્ત બનાવી શકે છે, અને લોકોમાં દીક્ષા ગ્રહણ કરવાની ભાવના જાગૃત કરે છે. બીજા ગચ્છના અથવા બીજા દેશના સાધુ “આ અમારા ભાષાભાષી છે.” એમ સમજી એની પાસે આવે છે. સંપક વધારે છે. અને એની પાસેથી શાસ્ત્રોને અભ્યાસ કરે છે. આથી બીજા ગચ્છના મુનિરાજોની પણ તેના પર પ્રીતિ થવા લાગે છે આથી શિષ્ય પરંપરાની વૃદ્ધિ થાય છે, કેમ કે ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #388 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रिपदर्शिनी टीका. अ० २ गा० १३ स्थविरकल्पे संलेखनाविधिः ३३३ ___ एवं शिष्यप्राप्त्यनन्तरं स्व परोपकारकरणेन गच्छकार्ये संपादिते दीर्घ पर्याये च प्रतिपालिते सवि अभ्युद्यतमरणं स्वीकरणीयम् । अभ्युद्यतमरणं त्रिविधम्पादपोपगमनं, इङ्गितम् , भक्तप्रत्याख्यानं च । अभ्युद्यतमरणे संलेखनादिरूपा समाचारी प्रदर्श्यते-संलेखना आगमोक्तेन विधिना शरीरादेः कृशीकरणम् , सा त्रिविधा-उत्कृष्टा, मध्यमा, जघन्या च। तत्रोउनको गुणगणशाली समझने लगते हैं तो उनके अधिक परिचय में आने से लोगों पर उनके ज्ञानादिक गुणों का प्रभाव पड़ता है। इससे प्रभावित होकर वे उनको अपना हितकारक जान उनके समीप दीक्षित भी हो जाते हैं। इससे शिष्यपरंपरा बढती है। इस प्रकार अनियत वास से पर्यटन करने वाले साधु को ये अनेक लाभ होते हैं। शिष्यप्राप्ति के अनंतर स्व एवं पर का उपकार करने से गच्छ का कार्य सम्पादित होने पर तथा साधु अवस्था की पर्याय दीर्घकालतक पालीजाने पर उन साधुओंको अभ्युद्यतमरण स्वीकार करना चाहिये। यह अभ्युद्यतमरण ३ तीन प्रकार का है १ पादपोपगमन, २ इङ्गित, ३ भक्तप्रत्याख्यान । इस अभ्युद्यतमरण में अब संलेखनादि रूप समाचारी दिखलाई जाती है - आगमोक्तविधि के अनुसार शरीर आदि का कृश करना इस का नाम संलेखना है। यह उत्कृष्ट, मध्यम एवं जघन्य के લોકે જ્યારે તેને ગુણશાળી સમજતા થાય છે ત્યારે તેના અધિક પરિચયમાં આવે છે. આથી લોક ઉપર એના જ્ઞાનાદિક ગુણોને પ્રભાવ પડે છે. એથી પ્રભાવિત થઈ તેને પિતાના હિતકારી જાણું તેની સમીપ દીક્ષિત પણ થઈ જાય છે. આથી શિષ્ય પરંપરા વધે છે. આથી આ પ્રકારને અનિયતવાસ અને પર્યટન કરવાવાળા સાધુને અનેક લાભ થાય છે. શિષ્ય પ્રાપ્તિ ઉપરાંત સ્વ અને પરના ઉપકારક બનવાથી ગચ્છનું કાર્ય સંપાદિત થવાથી. તથા સાધુ અવસ્થાની પર્યાય લાંબા સમય સુધી પાળવામાં આવવાથી એ સાધુઓએ અભ્યતમરણ સ્વીકારવું જોઈએ. આ અભ્યદ્યતમરણ त्र अानां छे. (१) ५॥४॥५॥मन (२) गित (3) मतप्रत्याध्यान.. આ અદ્ભુતમરણમાં હવે સંલેખનાદિ રૂપ સમાચારી બતાવવામાં આવે છે. આગમમાં બતાવેલ વિધિ અનુસાર શરીર વગેરેને કુશ કરવું, એનું નામ સંલેખના છે. એ ઉત્કૃષ્ટ, મધ્યમ અને જઘન્યના ભેદથી ત્રણ પ્રકારની ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #389 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३४ ___ उत्तराध्ययनसूत्रे त्कृष्टा द्वादशवर्षप्रमाणा, मध्यमा-संवत्सरप्रमाणा, जघन्या-पाण्मासिकी । तत्रोत्कृष्टा तावदेवम्-प्रथमं चत्वारि वर्षाणि विचित्रं तपः कृत्वा पारणके विकृतिपरित्यागं करोति । ततः परं चत्वारि वर्षाणि विचित्रतपांसि करोति । ननु किं नाम विचित्रं तपः ? उच्यते-कदाचिच्चतुर्थम् कदाचित् षष्ठम् , कदाचिदष्टमम् , एवं दशम द्वादशादीन्यपि करोति, पारणं च सर्वकामगुणितेन उद्गमादि शुद्धेनाहारेण विधत्ते । ततः परं द्वे च वर्षे एकान्तरितमाचाम्लं करोति । एकान्तरं चतुर्थं कृत्वा आचाम्लेन पारणं करोतीत्यर्थः । एवं दशवर्षाणि व्यतीत्यैकादशेवर्षे आधान् षण्मासान् चतुर्थ भेद से तीन प्रकार की होती है । उत्कृष्टसंलेखना बारह १२ वर्ष की, मध्यम संलेखना एक १ वर्ष की एवं जघन्य संलेखना छह ६ मास की होती है। उत्कृष्टसंलेखना की विधि इस प्रकार है-सब से पहिले जो उस्कृष्टसंलेखना धारण करता है वह प्रथम के चार वर्ष लगातार विचित्र तप करके पारणा में विकृति-विगय का त्याग करे। दूसरे चार वर्षों में विचित्र तप अर्थात् कभी वह चतुर्थ करता है कभी छट्ट करता है कभी अट्ठम करता है कभी दशम करता है और कभी द्वादश आदि करता है। पारणा सर्वकामगुणित सब इन्द्रियों के अनुकूल तथा उद्गम आदि दोषों से विशुद्ध ऐसे आहार से करता है । इसके बाद फिर वह दो वर्षों में अर्थात् नवमें दशमें वर्ष में एकान्तरित आचाम्ल (आयंबिल) व्रत की आराधना करता है । यह आराधना उसकी दो २ वर्ष तक चलती रहती है। अर्थात्-दो वर्ष एकान्तर चतुर्थ करके आचाम्ल (आयंबिल) से पारणा करता है । इस प्रकार करते २ उसके दस १० હોય છે. ઉત્કૃષ્ટસખના બાર વર્ષની, મધ્યમ સંલેખના એક વર્ષની, અને જઘન્યસંલેખના છ મહિનાની હોય છે. ઉત્કૃષ્ટ સંલેખનાની વિધિ આ પ્રકારની છે, સહુથી પહેલાં જે ઉત્કૃષ્ટ સંલેખના ધારણ કરે છે, તેણે પ્રથમના ચાર વર્ષ સુધી વિચિત્ર તપ કરી પારણામાં વિકૃતિ વિષયનો ત્યાગ કરે, બીજા ચાર વર્ષોમાં તે વિચિત્ર તપ અર્થાત્ કદી ચેાથ કરે છે. કદીક છઠ્ઠ કરે છે. કદીક અઠ્ઠમ કરે છે. અને કયારેક દ્વાદશ વગેરે કરે છે. પારણું સર્વ કામ ગુણીત બધી ઈન્દ્રિયને અનુકૂળ તથા ઉદ્ગમ આદિ દેથી રહિત આહારથી કરે છે. આ પછી તે બે વર્ષમાં અર્થાત્ નવમા દશમા વર્ષમાં એકાન્તરિત આયંબીલ વ્રતની આરાધના કરે છે. આ આરાધના બે વર્ષ સુધી ચાલે છે. અર્થાત્ બે વર્ષ એકાન્તર થ કરી આયંબીલથી પારણું કરે છે, આ રીતે કરતાં કરતાં એના દશ વર્ષ વ્યતિત થઈ જાય છે. જ્યારે અગીયારમાં વર્ષની ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #390 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रियदर्शिनी टीका. अ० २ गा० १३ स्थविरकल्पे पादपोपगमनादिविधिः ३३५ षष्ठं वा तपः करणीयं नाष्टमादिकम् । ततः परमन्यान् षण्मासान् अष्टमदशमद्वादशादिकमुत्कृष्टं तपः करोति । अस्मिन्नेकादशेवर्षे पारणके तु परिमितं- स्वल्पसंख्यकमाचाम्लं करोति । कदाचित् करोति कदाचिन्नकरोतीति भावः । द्वादशे तुवर्षे कोटिसहितं निरन्तरमाचाम्लं करोति । अत्र कोटिसहितमित्यस्यायमर्थःकोटिभ्यां सहितम् - विवक्षितदिने आचाम्लं कृत्वा पुनर्द्वितीयेऽझि आचाम्लमेव प्रत्याख्याति, ततः प्रथमस्य पर्यन्तकोटिः, द्वितीयस्य प्रारम्भकोटिः, इमे द्वे मिलिते भवतस्तत्कोटिसहितं भवति, इदमाचाम्लं निरन्तरं भवतीत्यर्थः । तत्रापि मासार्द्धन मासिकेन वाऽऽहारत्यागेन तपश्चरणीयम् । अनशनं करणीयमित्यर्थः । अनेन क्रमेण द्वादशवार्षिकीमुत्कृष्टां संलेखनां कृत्वा गिरिगहरं वा षट्कायोपमर्दरहितं निर्जन वर्ष व्यतीत हो जाते हैं और जब ग्यारह ११वां वर्ष प्रारंभ होता है तो उसमें आदि के छह ६ मास तक वह चतुर्थ, षष्ठ, तपस्या की आराधना करता है, अष्टम आदि की नहीं । बाकी ऊपर के छह ६ महिनों में अष्टम, दशम एवं द्वादश आदि उत्कृष्ट तप करता है । इस वर्ष में पारणा के दिन परिमित आयंबिल करता है । अर्थात् कभी आयंबिल करता है कभी नहीं करता । बारह ९२वे वर्ष में कोटिसहित - निरन्तर आयंबिल करता है। जहां पहिले आयंबिल का अन्त हो और दूसरे आयंबिल का प्रारंभ, इसका नाम कोटि है । इन दोनों कोटियों से सहित जो आयंबिल होता है उसका नाम कोटिसहित आयंबिल है। ये आयंबिल निरन्तर होता हैं, अन्त में मासार्ध-एक पक्ष और मासिक - एक मास का अनशन करता है । इस क्रम से बारह १२ द्वादश वर्ष की उत्कृष्ट संलेखना होती है । इस उत्कृष्ट संलेखना को શરૂઆત હાય છે. છ માસ સુધી તે ચેાથ, છઠ્ઠુ તપસ્યાની આરાધના કરે છે. અષ્ટમ વગેરેની નહીં... એ પછીના છ મહિનામાં અષ્ટમ, દશમ, અને દ્વાદશ આદિ ઉત્કૃષ્ટ તપ કરે છે. આ વર્ષમાં પારણાના દિવસે પરિમિત આય ખિલ કરે છે. અર્થાત્ કાઈ વખત આયખિલ કરે છે. કાઈ વખત કરતા નથી. બારમા વર્ષીમાં કેટિ સહિત નિરંતર આયંબિલ કરે છે. જ્યાં પહેલાં આય ખિલના અત આવે અને ખીજા આયખીલના પ્રારંભ થાય એનુ નામ કેટ છે. આ અને કેટિએ સહિત જે આયખિલ હાય છે એનુ નામ કાટિ સાહિત આયખિલ છે. આ આયખિલ રાજ થાય છે. અંતમાં માસાહૂઁ એક પક્ષ અને માસિક-એક માસનું અનશન કરે છે. આ ક્રમથી ખાર (દ્વાદશ) વની ઉત્કૃષ્ટ સલેખના થાય છે. આ ઉત્કૃષ્ટ સલેખના કરીને સાધુ કાં ન તા ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર ઃ ૧ Page #391 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३६ उत्तराध्ययनसूत्रे स्थानं वा गत्वा पादपोपगमनम् , इङ्गितं भक्तप्रत्याख्यानं वा मरणं यथाशक्ति प्रपद्यते । मध्यमा तु संलेखना पूर्वोक्तप्रकारेण द्वादशभिर्मासैभवति । तत्र वर्षस्थाने मासा स्थापनीयाः। जघन्या तु द्वादशभिः पक्षैः पूक्तिमकारेण भवति । पक्षानेव वर्षस्थानीयान् कृत्वा तपश्चरणं कर्तव्यं भवति । गिरिकन्दरादिगमनं मध्यमजघन्ययोरपि । करके साधु या तो किसी पर्वत की गुफा में चला जाता है, या षट्काय के उपमर्दन से रहित निर्जीव किसी निर्जनस्थान में चला जाता है। वहां पहुँच कर पादपोपगमन, इंगित, भक्तप्रत्याख्यान इन तीनों में से किसी एक को जैसी शक्ति होती है उसके अनुसार स्वीकार कर लेता है। मध्यमा संलेखना एक १ वर्ष की होती है। जो विधि बारह १२ वर्ष की संलेखना में प्रदर्शित करने में आई है वह विधि इसकी भी है वहां जहां वर्ष का प्रमाण ग्रहण किया गया है इसमें उस जगह मास रूप प्रमाण समझाना चाहिये । जैसे वहां ४ वर्ष आदि कहा है इसमें ४ मास समझना चाहिये। जघन्य संलेखना १२ पक्षों-६ मास-के प्रमाण वाली होती है। इसकी भी विधि वही है जो उत्कृष्ट संलेखना की है। वर्ष के स्थान में यहां पक्षों को ग्रहण किया जाता है। मध्यम संलेखना एवं जघन्य संलेखना इन दोनों में भी गिरिकन्दरा आदि में जाना आवश्यकीय है। કેઈ પર્વતની ગુફામાં ચાલ્યા જાય છે. અથવા ષકાયના, ઉપમર્દનથી રહિત નિજીવ એવા નિર્જન સ્થાનમાં ચાલ્યા જાય છે. ત્યાં પહોંચી પાદપપગમન ઈંગિત, ભક્ત પ્રત્યાખ્યાન આ ત્રણમાંથી પોતાની શક્તિ પ્રમાણે કઈ એક મરણને સ્વીકાર કરી લે છે, મધ્યમા સંલેખના એક ૧ વર્ષની હોય છે. જે વિધિ બાર ૧૨ વર્ષની સંલેખ. નામાં પ્રદર્શિત કરવામાં આવી છે તે વિધિ આની પણ છે. જ્યાં વર્ષનું પ્રમાણ ગ્રહણ કરવામાં આવ્યું છે ત્યાં મહિનાનું પ્રમાણ મધ્યમાં સંલેખના માટે સમજવું જોઈએ. જેમ ત્યાં ચાર વર્ષ આદિ કહેલ છે. ત્યાં આમાં ચાર મહિના સમજવા જોઈએ. જઘન્ય સંલેખના ૧૨ પક્ષ-છ માસ ના પ્રમાણુવાળી હોય છે. આની વિધિ પણું એ જ છે. જે ઉત્કૃષ્ટ સંલેખનાની છે. મધ્યમ સંલેખના અને જઘન્ય સલેખના આ બંનેમાં પણ ગિરિકન્દરા આદિમાં જવું આવશ્યક છે. ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #392 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रियदर्शिनी टीका अ० २ गा. १३ स्थविरकल्पे संस्तारकविधिः ३३७ संलेखनायामसमर्थेन मुनिना संलेखनां विनाऽपि यथाशक्ति संस्तारकं कृत्वाऽभ्युद्यतमरणं स्वीकरणीयम् । अभ्युद्यतमरणाङ्गीकरणात् प्रागिदं चिन्तनीयम्-मया विशुद्धचारित्रानुष्ठानेन स्वपरहितं संपादितम् , शिष्याधुपकारतः परहितं च, निष्पन्नाश्च सम्प्रति मम गच्छपरिपालनक्षमाः शिष्याः, अथ विशेषेण ममात्महितमनुष्ठेयमिति विचिन्त्य स्वपरिज्ञाने सति स्वकीयमायुः शेषं स्वयमेव पर्यालोचयति, तदभावेऽन्यं विशिष्ट माचार्यादिकं पृच्छति । स्वायुषिस्तोकतया ज्ञाते भक्तप्रत्याख्यानादि मरणं यथाशक्ति प्रतिपद्यते । यदि स्वायुर्दीर्घतया ज्ञातं जवाबलमात्रं परिक्षीणं तदा स्थिरवास ___ जो साधु संलेखना करने में असमर्थ है उसे संलेखना के विना भी यथाशक्ति संथाराकर अभ्युद्यतमरण स्वीकार करना चाहिये। इस अभ्युचतमरण को अंगीकार करने के पहिले साधु को इस प्रकार विचार करना चाहिये कि मैंने विशुद्ध चारित्र के अनुष्ठान से स्व हित संपादित कर लिया है। शिष्यादिकों के उपकार से पर का उपकार भी कर दिया है। इस समय गच्छ का परिपालन करने में समर्थ मेरी शिष्यादि संपत्ति भी सर्व प्रकार से शक्तिशाली हो चुकी है। अब मुझे निश्चिन्त होकर विशेष रीति से अपनी आत्मा का कल्याण करना चाहिये "मेरी अवशिष्ट आयु कितनी है " इस प्रकार स्वयं जान कर अथवा यदि स्वयं नहीं जान सके तो अन्य विशिष्ट आचार्य आदि से पूछकर निश्चित करले । यदि आयु अल्प ज्ञात होवे तो यथाशक्ति उसे भक्तप्रत्याख्यानादि मरण स्वीकार कर लेना चाहिये। यदि आयु दीर्घ ज्ञात होवे और જે સાધુ સંલેખના કરવામાં અસમર્થ છે, એણે સંલેખના વગર પણ યથાશક્તિ સંથારે કરી અળ્યુંઘત મરણને સ્વીકાર કરવો જોઈએ. આ અભ્યઘત મરણને અંગિકાર કરતાં પહેલાં સાધુએ એ પ્રકારને વિચાર કરવો જોઈએ કે, મેં વિશુદ્ધ ચારિત્રના અનુષ્ઠાનથી સ્વહિત સંપાદિત કરી લીધું છે, શિષ્યાદિકેના ઉપકારની સાથેસાથ બીજા ઉપર પણ ઉપકાર કર્યો છે. આ સમય ગચ્છનું પરિપાલન કરવામાં સમર્થ એવી મારી શિષ્યાદિસંપત્તિ પણ સર્વ પ્રકારથી શક્તિશાળી બની ચુકી છે. હવે મારે નિશ્ચિત બનીને વિશેષ રીતથી મારા આત્માનું કલ્યાણ કરવું જોઈએ. “મારી અવશિષ્ટ આયુ કેટલી છે ... આ વાત પિતે જાણીને અથવા જે પિતે ન જાણી શકે તે બીજા ગુણસંપન્ન આચાર્ય આદિથી પૂછીને નક્કી કરી લે. જે આયુષ્ય અપ હોય તે યથાશક્તિ તેણે ભક્તપ્રત્યાખ્યાન આદિ મરણને સ્વીકાર કરે જોઈએ. જે આયુ લાંબી उ०४३ ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #393 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३८ उत्तराध्ययनसूत्रे स्वीकरोति तत्रैव क्षेत्रे वसन्नपि वसतिदो पैरुपविदो षैश्च रहितो भवति । शक्तौ पुष्टायां तु अस्मिन् पञ्चमारके जिनकल्पप्रतिपत्तिविधानाभावात् स्थविरकल्पेनैव स्वपरोपकारकरणेन दीर्घपर्यायः प्रसिपालनीयः। ॥ इति स्थविरकल्पिकसामाचारी ॥ चतुर्थारकापेक्षया जिनकल्पादिपतिपत्तिरूपे अभ्युद्यतविहारे मर्यादा प्रदर्यते -तत्र जिमकल्पादि प्रतिपित्सुना प्रथममेव 'मया विशुद्धचारिवानुष्ठानेन स्वपरहितं ' इत्यादि विचिन्त्य, तथा सत्यादि भावनाभिरात्मा माननीयः। साथ'म जघाबल क्षीण हुआ मालूम पडे तो उसे स्थिरवास अंगीकार करलेना चाहिये। और इसी स्थिरवास से उसी क्षेत्र में रहते हुए भी घह वसति के दोषों से एवं उपाधि के दोषों से रहित हो जाता है। यदि शक्ति पुष्ट होवे तो भी इस पञ्चम आरे में जिनकल्प की प्रतिपत्ति के विधान का अभाव होने से स्थविरकल्प की हालत में ही रहते हुए स्व पर का उपकार करते २ दीर्घपर्याय को पालते रहना चाहिये । ॥ यह स्थविर कल्प की समाचारी है ॥ __अब-चौथे आरे की अपेक्षा से जिनकल्प आदि की प्रतिपत्ति स्वीकृति रूप अभ्युधत विहार में कैसी क्या मर्यादा होती है यह बात प्रकट की जाती है-जो साधु जिनकल्प आदि को प्राप्त करने का अभिलाषी है उसे चाहिये की वह सर्व प्रथम ऐसा विचार करे कि मैने विशुद्ध चरित्र के अनुष्ठान से अपना और पर का हित तो साधित किया।अब हम को तवं एवं सत्वादि पांच भावनाओं से आत्मा को भावित करना चाहिये। હોય અને સાથે જંઘાબળ ક્ષીણ જણાય તે તેણે સ્થિરવાસ અંગિકાર કરી લેવો જોઈએ. આ સ્થિરવાસથી તે ક્ષેત્રમાં રહેવા છતાં તે વસ્તીના દેથી અને ઉપાધીના દેથી રહિત બને છે. કદાચ શક્તિ સારી હોય તે પણ આ પાંચમા આરામાં જનકલ્પની પ્રતિપત્તિના વિધાનને અભાવ હોવાથી સ્થવિરકલ્યની હાલતમાં રહીને સ્વ અને પરને ઉપકાર કરતાં કરતાં દીર્ધ પર્યાયનું પાલન કરતા રહેવું જોઈએ. ॥२॥ स्थवि२४६५नी सभायारी छ । હવે ચેથા આરાની અપેક્ષાથી જનકલ્પ આદિની પ્રતિપત્તિ સ્વીકૃતિરૂપ અભ્યઘત વિહારમાં કેવી અને કેટલી મર્યાદા હોય છે આ વાત પ્રગટ કરવામા આવે છે–જે સાધુ જીનકલ્પ અદિને પ્રાપ્ત કરવાને અભિલાષી છે તેણે જાણવું જોઈએ કે, મે વિશુદ્ધ ચારિત્રના અનુષ્ઠાનથી પિતાનું અને પરનું હિત સાધ્યું. હવે મારે તપ અને સત્વાદિપાચ ભાવનાઓથી આત્માને ભાવિત કરવા જોઈએ ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #394 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रियदर्शिनी टीका. अ० २ गा० १३ जिनकल्पविधिः __ ३३९ तथाचोक्तम् तवो सत्तं च सुत्तं च, एगत्तं बलमप्पणो । पदमं पंच भाविता जिणकप्पं पज्जइ ॥ १.॥ छाया-तपः सत्त्वं च सूत्रं च, एकत्वं बलमात्मनः । प्रथमं पञ्च भावयित्वा, जिनकल्पं प्रपद्यते ॥१॥ अयं भावः-जिनकल्पमतिपित्सुस्तपोभावनयात्मानं भावयन् देवादिकतोपसदिनाऽनेषणादिकारणतो वा यदि षणमासपर्यन्तमाहारं न लभते तथापि न बाध्यते ॥१॥ सत्त्वभावनया भयं पराजयते ॥ २॥ सूत्रभावनया सूत्रं स्वनामवत् पहिचितं करोति ॥३॥ एकत्व भावनया चात्मानं भावयन् साधर्मिक साध्वादिना सह मिथः कथादिव्यतिकरान् सर्वानपि परिवर्जयति । ततो बाह्यकहा भी है। तवो सत्तं च सुत्तं च, एगत्तं बलसप्पणो। पढमं पंच भाबित्ता जिणकप्पं पवज्जइ ॥ १॥ इसका भाव यह है कि-जिनकाप को धारण करने का इच्छुक साधु तप भावना से आत्मा को भावित करता कुआ यदि देव मनुष्य आदि द्वारा होने वाले उपसर्ग से अथवा अनेषणादि रूप कारण से छह नदख तक आहार प्राप्त न कर सके तो भी बाधिन नहीं होता है । सत्य भावना से वह भय पर विजय प्राप्त करता है । एकत्वभावना से असनी आत्मा को भावित करता हुआ सार्मिक साधु आदिकों के साथ परसार में कथा वार्ता आदि समस्त बातों का परित्याग कर देता है। जब ह्यु, ५५ छ तवो सत्तं च सुत्तं च, एगतं बलमप्पणो । पढमं पंच मावित्ता, जिणकप्पं पवज्जइ ।।१।। આને ભાવ એ છે કે–જનકલ્પને ધારણ કરવાની ઈચ્છાવાળા સાધુ તપ ભાવનાથી 'આત્માને ભાવિત કરીને દેવ મનુષ્ય આદિ દ્વારા થનાર ઉપસર્ગથી અથવા અનેષણદિરૂપ કારણથી છ મહિના સુધી આહાર મેળવી ન શકે તે પણ પીડ પામતો નથી. સત્વભાવનાથી તે ભય ઉપર વિજય પ્રાપ્ત કરે છે. સૂત્રભાવનાથી પોતાના નામની માફક સૂત્રને પરિચય પ્રાપ્ત કરે છે, એકત્વ ભાવનાથી પોતાના આત્માને ભાવિત કરીને સાધમિક સાધુ આદિની સાથે પરસ્પરમાં કથાવાર્તા આદિ સમસ્ત વાતને પરિત્યાગ કરી દે છે. જ્યારે બાહ્યમાં તેનું મમત્વ ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #395 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४० उत्तराध्ययसूत्रे ममत्वे मूलत एवोच्छेदिते पश्चाद् देहादिभ्योऽपि भिन्नमात्मानं पश्यन् सर्वथा तेष्वनासक्तो भवति ॥ ४ ॥ बलभावनायां बलं द्विविधं - शरीरं, मानसं च । तत्र शारीरमपि बलं जिनकल्पप्रतिपत्तियोग्यस्य शेषजनातिशायिकं स्यात्, तपः प्रभृतिभिः शुष्यमाणस्य यद्यपि शारीरं बलं तादृशं न भवति तथापि स्वात्मा धृतिबलेन तथा भावयितव्यो यथा महद्भिरपि परीषहोपसर्गैर्नबाध्यते । आभिः पञ्चभिर्भावनाभिर्भावितात्मा जिनकल्पादि प्रतिपित्सुर्गच्छे प्रतिसाहारादिपरिकर्म प्रथममेव करोति । आहारादावन्यसाध्व पेक्षयाऽन्तप्रान्तादिबाह्य में ममत्व मूलतः उसका उच्छेदित हो जाता है तब अन्य देहादि पदार्थो से भिन्न स्व आत्मा को जानता हुआ वह उन में सर्वथा अनासक्त ही रहता है । उनमें आसक्त नहीं होता । बलभावना में बल दो प्रकार है एक शरीर संबंधी और दुसरा मनसंबंधी । जो साधु जिनकल्प की प्रतिपत्ति के योग्य होता है उसका शारीरिक बल भी यद्यपि साधारणजन की अपेक्षा अतिशय विशिष्ट होता है परन्तु तपश्चर्या आदि के कारण उनका शरीर जब कृश हो जाता है तब वह वैसा नहीं रहता है तौ भी उनकी आत्मा धृतिबल द्वारा इतनी अधिक भावित रहती है कि जिसकी वजह से वे अधिक से अधिक परीषह और उपसर्गों से आक्रान्त होने पर भी अपने कर्तव्यमार्ग से जरा भी विचलित नहीं होते । इन पांच भावनाओं से भावितात्मा जिनकल्पादिक को ग्रहण करने की इच्छा से गच्छ में रहता हुआ आहारादि परिकर्म को सब મુલતઃ નાશ પામે છે ત્યારે બીજા દેહાદિ પદાર્થીથી ભિન્ન પેાતાના આત્માને જાણીને તેમાં સર્વથા અનાસક્ત જ રહે છે. એમાં આસક્ત મનતા નથી. મળભાવનામાં મળ એ પ્રકારનાં છે. એક શરીર સખંધી અને ખીજું મન સંબંધી. જે સાધુ જીનકલ્પની પ્રતિપત્તિને ચાગ્ય હાય છે તેનુ શારીરિક મળ જો કે, સાધારણ જનની અપેક્ષા અતિશય ખલવાન હેાય છે. પરંતુ તપશ્ચર્યાં આદિના કારણથી તેનુ શરીર જ્યારે કૃષ બને છે ત્યારે તે તેવા રહેતા નથી. તા પણ તેની આત્મા ધૃતિમળ દ્વારા એટલી અધિક ભાવિત રહે છે કે, જેનાથી તે અધિકથી અધિક પરીષહ અને ઉપસોથી આક્રાંત થતા હોવા છતાં પણ પાતાના બ્યમાગથી જરા પણ ચલિત થતા નથી. પણ આ પાંચ ભાવનાઓથી ભાવિતાત્મા જીનકલ્પાદિકને ગ્રહેણુ કરવાની ઈચ્છાથી ગચ્છમાં રહીને આહારાદિ પરિકમને બધાથી પહેલાં કરી લે છે, આહારાદિમાં ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર ઃ ૧ Page #396 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रियदर्शिनी टीका. अ० २ गा० १३ जिनकल्पे पिण्डैषणाविधिः ३४१ ग्रहणादुत्कृष्टतासम्पादनम्-परिकर्म । यथा-तृतीयपौरुष्यामवगाढायां वल्ल-चणकादिकमन्तं प्रान्तं रूक्षं च गृह्णाति । " संसहमसंसट्ठा, उद्धड तह होइ अप्पलेवा य । उग्गहिया पग्गहिया, उज्झियधम्मा य सत्तमिया॥१॥" आसां सप्तविधानां पिण्डैषणानां मध्ये आद्यद्वयं विहाय पश्चानां मध्यादन्यतरैषणाद्वयाभिग्रहेणाऽऽहारं गृह्णाति एकयैपणया भक्तं, द्वितीयया तु पानकम् । एवमागमोक्तविधिनाऽऽत्मानं भावयित्वा गच्छपतिबद एव जिनकल्पं प्रतिपित्सुश्चतुर्विधसंघ संमेलयति, तदभावे स्वगणं ततस्तीर्थकरस्य समीपे, तदभावे गणसे पहिले ही कर लेता है आहार आदि में अन्य साधु की अपेक्षा अंतप्रांत आदि ग्रहण से उत्कृष्टता का संपादन करना परिकर्म है। जैसे तृतीय पौरुषी में वल्ल; चना आदि का आहार करना एवं अन्तप्रान्त रूक्ष आहार करना। संसहमसंसट्टा, उद्धड तह होइ अप्पलेवा य । उग्गहिया पग्गहिया, उज्झियधम्मा य सत्तमिया ॥१॥ इन सात प्रकार की पिण्डैषणाओं के मध्य में आदि की दो एषणाओं को छोड़कर बाकी बची पांच एषणाओं में से अन्यतर एषणा दो के अभिग्रह से वह आहार को ग्रहण करता है। एक एषणा से भक्त को और द्वितीय एषणा से पान को। इस प्रकार आगमोक्त विधि के अनुसार आत्मा को भावित करके गच्छ में रहता हुआ ही जिनकल्प को अंगीकार करने का अभिलाषी साधु चतुर्विध संघ को एकत्रित અન્ય સાધુની અપેક્ષા અંતપ્રાન્ત આદિ ગ્રહણથી ઉત્કૃષ્ટતાનું સંપાદન કરવું પરિકમે છે. જેમ-ત્રીજા પૌરૂષીમાં વાલ, ચણા આદિને આહાર કરે અને અન્નપ્રાન્ત રૂક્ષ આહાર કરે. संसट्ठमसंसट्ठा, उद्धड तह होइ अप्पलेवा य । उग्गहिया पग्गहिया, उज्झियधम्मा य सत्तमिया ॥१॥ એ સાત પ્રકારની પિન્વેષણાઓના મધ્યમાં પહેલાની બે એષણાઓને છોડીને બાકી બચેલ પાંચ એષણાઓમાંથી અન્યતર એષણ બેના અભિગ્રહથી તે આહાર ગ્રહણ કરે છે, એક એષણાથી ભક્તને અને બીજી એષણથી પાનને આ પ્રકારે આગમમાં કહેલ વિધિ અનુસાર આત્માને ભાવિત કરીને ગચ્છમાં રહીને જ જનકલ્પને અગિકાર કરવાના અભિલાષી સાધુ ચતુર્વિધ સંઘને એક ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #397 -------------------------------------------------------------------------- ________________ રેકર उत्तराध्ययनसूत्रे धरस्य, तदभावे चतुर्दशपूर्वधरस्य, तदभावे दशपूर्वधरस्य, तदभावे वटाश्वत्थाशोकवृक्षाणां संनिधौ सिद्धसाक्षिकं जिनकल्पं स्वीकरोति । तदा सबालवृद्धं गच्छं क्षामयति । ततो निःशल्यो निष्कषायोऽसौ स्वगणसाध्वादीननुशास्ति । एवमेव युष्माभिरप्याचरणीयम् नात्र प्रमादः कार्यः। गणमर्यादा नोल्लकनीया । इत्यादि शिक्षां दत्वा गच्छाद् विनिर्गतो भवति । तस्मिन् चक्षुर्विषयातिक्रान्ते सति साधवः प्रतिनिवर्तन्ते। करता है। इसके अभाव में अपने गण को. एकत्रित करता है बाद में तीर्थकर के समीप में, इनके अभाव में गणधार के समीप में, इनके अभाव में चौदहपूर्वधारी के समीप में, इनके अभाव में दशपूर्वधारी के समीप में, इनके भी अभाव में वटवृक्ष अश्वत्थ-पीपल वृक्ष, अथवा अशोक वृक्ष के समीप सिाद परमात्मा को साक्षी करके जिनकल्प को स्वीकार करता है। उस समय यह अपने गच्छ में रहने बाले बालवृद्ध साधुओं से खमत खामणा करते हैं। पश्चात् निःशल्य एवं निष्कषाय होकर अपने गच्छ के साधु आदिकों को यह शिक्षा देता है कि आपलोग भी इसी तरह से करें इसमें प्रमाद करना ठीक नहीं हैं । गण की जो मर्यादा है उसका उल्लंघन नहीं करना | इत्यादि शिक्षा देकर फिर वह गच्छ निर्गत हो जाता है। साधु वर्ग जब तक वह दिखता रहता है तबतक उसके पीछे २ चलता रहता है और जब वह दिखलाई नहीं पड़ता तब सब पीछे वापिस लौट आते हैं। ત્રીત કરે છે. એના અભાવમાં પિતાના ગણને એકત્રીત કરે છે. બાદમાં તીર્થ કરની સમીપમાં, એના અભાવમાં ગણધરની સમીપમાં, તેના અભાવમાં ચૌદ પૂર્વધારીની સમીપમાં, તેના અભાવમાં દશપૂર્વધારીની સમીપમાં, તેને પણ અભાવમાં વડવૃક્ષ, આશપાલવ, પીપળો અથવા અશેકવૃક્ષના સમીપ સિદ્ધ પરમાત્માને સાક્ષી રાખીને જીનક૯પને સ્વીકાર કરે છે. આ સમયે તે પિતાના ગચ્છમાં રહેલા બાળ-વૃદ્ધ સાધુઓથી ખમત ખામણા કરે છે પછી નિઃશલ્ય અને નિષ્કષાય થઈને પિતાના ગચ્છના સાધુ આદિને એવી શિખામણ આપે છે કે, આપ લોકોએ પણ આજ રીતે કરવું. તેમાં પ્રમાદ કરે ઠીક નથી. ગણની જે મર્યાદા છે તેનું ઉલંઘન કરવું નહીં. ઈત્યાદિ શિખામણ આપીને પછી તે ગચ્છ નિર્ગત થઈ જાય છે. જ્યાં સુધી તે દેખાય છે ત્યાં સાધુવર્ગ તેની પાછળ પાછળ ચાલતા રહે છે અને જ્યારે તે દેખાતા બંધ થાય છે ત્યારે સઘળા પાછા ફરે છે. ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #398 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रियदशिनी टीका. अ० २ गा० १३ जिनकल्पिकमर्यादा अथ जिनकल्पिकमर्यादा अनया मर्यादया जिनकल्पं स्वीकृत्यासौ यत्र ग्रामे मासकल्पः करिष्यमाणस्तत्र षड भागान् कल्पयति, ततश्च यस्मिन् भागे एकस्मिन् दिने भिक्षाचर्याकृता, तत्र पुनरपि सप्तम एवं दिने पर्यटति । भिक्षाचर्या ग्रामान्तरगमनं च तृतीयपौरुष्यामेव करोति । यत्र चतुर्थपौरुषी प्राप्ता भवेत् , तत्रैवावतिष्ठत, नान्यत्र गच्छति । मक्तं पानकं च पूर्वोक्तैषणाद्वयाभिग्रहेणालेपकृदव गृह्णाति । एषणादिविषयमन्तरेण न केनापि साध भाषते । एकस्यां च वसतौ यद्यपि उत्कृष्टतः सप्त जिनकल्पिकाः प्रतिवसन्ति तथापि ते परस्परं संभाषणं न कुर्वन्ति । समापन्नान् उपसर्गपरीषहान् सर्वान् सहत एवं । रोगेषु चिकित्सां न कारयत्येव तद्वेदनां तु अब जिनकल्पी की मर्यादा कहते हैंइस मर्यादा से जिनकल्प को स्वीकार कर यह जिस ग्राम में मासकल्प करता है वहां छह भागों की कल्पना करता है। जिस भाग में एक दिन में भिक्षाचर्या करली गई हो वहां फिर यह सातवे दिन ही भिक्षाचर्या करता है । भिक्षाचर्या करना अथवा एक ग्राम से दूसरे ग्राम में जाना यह तृतीय पौरुषी में ही करता है। जहां चतुर्थ पौरुषी आ जाती है वह वहीं पर ठहर जाता है। अन्यत्र नहीं जाता है। पूर्वोक्त दो एषणाओं के अभिग्रह से अलेपकृत-लेपरहित जिसका लेप न लगे ऐसे भक्त पान को ग्रहण करता है । एषणादि विषय-के विना किसी के भी साथ बातचीत नहीं करता है। एक वस्ती में यद्यपि अधिक से अधिक सात जिनकल्पी साधु रह सकते हैं तो भी वे परस्पर संभाषण नहीं करते हैं। जो भी उपसर्ग या परीषह आपडे तो उसे सहते ही हैं। रोग હવે જનકલ્પીની મર્યાદા કહેવામાં આવે છે– આ મર્યાદાથી જનકલ્પને સ્વીકાર કરી તે સાધુ જે ગામમાં માસ કલ્પ કરે છે ત્યાં છ ભાગોની કલ્પના કરે છે. જે ભાગમાં એક દિવસમાં ભિક્ષાચર્યા કરી લેવામાં આવી હોય ત્યાં તે ફરી સાતમા દિવસે જ ભિક્ષાચર્યા કરે છે. ભિક્ષાચર્યા કરવી અથવા એક ગામથી બીજા ગામે જવું એ ત્રીજા પૌરૂષીમાં જ કરે છે જ્યા એથી પરૂષી આવે ત્યાં તે રેકાઈ જાય છે આગળ વધતા નથી. પૂર્વોક્ત બે એષણાના અભિગ્રહથી (અપકૃત) જેને લેપ ન લાગે એવા ભક્ત પાનને ગ્રહણ કરે છે. એષણાદિ વિષય વગર કેઈની સાથે વાતચિત કરતા નથી, એક વસ્તીમાં જે કે, વધુમાં વધુ સાત જનકલ્પી સાધુ રહી શકે છે તે પણ તેઓ પરસ્પર સંભાષણ કરતા નથી. જે પણ ઉપસર્ગ અને પરીષહ આવી પડે ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #399 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४४ उत्तराध्ययनसूत्रे सम्यगेव सहते । आपातसंलोकादिदोषरहिते स्थण्डिले उच्चारादीन करोति, नत्वस्थण्डिले । परिकर्मरहितायां वसतौ तिष्ठति। यधुपविशति तदा नियमादुत्कुटुक एव, न तु निषद्यायाम् , औपग्राहिकोपकरणस्यैवाभावात् । मत्तमातङ्गसिंहव्याप्रादिके संमुखे समापतति सति उन्मार्गगमनादिना ईर्यासमिति न भिनत्ति । जिनकल्पिकोऽपवादं नासेवते, जवाबळपरिक्षीणस्तु अविहरमाणोऽप्याराधकः लोचं च करोत्येव, दशविधसामाचायां पञ्च समाचार्यों जिनकल्पिकानां, आमच्छना, में ये किसी भी प्रकार चिकित्सा नहीं कराते हैं किन्तु जैसे भी बनता है उस रोग को सहन ही करते हैं। जहां मनुष्यों का आवागमन नहीं होता है ऐसे स्थण्डिल में ही ये उच्चार आदि के लिये जाते हैं। अस्थण्डिल में नहीं । परिकर्म रहित-घठारी मठारी विना की वस्ती में ये रहते हैं जब बैठते हैं तो नियम से उत्कुटुक आसन से ही बैठते हैं। निषधा से नहीं क्यों कि औपग्रहिक उपकरण आसन आदि का ही इनके पास अभाव है। मत्तमातंग, सिंह, एवं व्याघ्र आदि इन्हें मार्ग में चलते हुए साम्हने मिल जाय तो भी ये उसीमार्ग से चलकर अपनी ईर्या समिति को खंडित नहीं करते हैं। ___ ये जिनकल्पी साधु अपवाद मार्ग का सेवन नहीं करते हैं। इनका जंघाबल यदि परिक्षीण भी हो जावे और उसकी वजह से ये विहार न भी करे तो भी आराधक ही माने गये हैं। ये केशों का लोंच करते हैं। दश प्रकार की समाचारी में से पांच प्रकार की समाचारी इन जिनकल्पियों તેને તેઓ સહન કરે છે. રોગમાં કઈ પણ પ્રકારની ચિકિત્સા તેઓ કરાવતા નથી પણ જેમ બને તેમ તે રોગને સહન કરે છે. જ્યાં મનુષ્યનું આવાગમન હોત નથી એવા ઉજજડ સ્થાનમાં જ તેઓ શૌચાદિક કર્મ માટે જાય છે. અવરજવરના સ્થાને નહીં. પરિકર્મ રહિત-ઘકારી મઠારી વગરની–વસ્તીમાં રહે છે. જ્યારે બેસે છે તે નિયમથી ઉત્કટુક (ઉભળક પગે બેસવું) આસનથી બેસે છે, નિષદ્યાથી નહીં. કેમકે, ઔપગ્રહિક ઉપકરણ આસન આદિને તેની પાસે અભાવ છે. મત્ત માતંગ, સિંહ, અને વાઘ આદિ તેને માર્ગમાં ચાલતાં સામા મળે તે પણ તે તે માર્ગથી ચાલીને પિતાની ઈર્યાસમિતિને ખંડિત કરતા નથી. એ જનકલ્પી સાધુ અપવાદ માગે જતા નથી, તેમનું જઘાબળ જે ક્ષિણ પણ થઈ જાય અને એ કારણે તે પોતાની જગ્યાએથી વિહાર ન પણ કરે તે પણ આરાધક જ માનવામાં આવે છે. તે કેશન લોંચ કરે છે દશ પ્રકારની સમાચારીમાંથી પાંચ પ્રકારની સમાચારી જનકલ્પીયોની છે. તે આ પ્રકારે છે. ૧ આમ ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #400 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रियदर्शिनी टीका. अ० २ गा० १३ जिनकल्पिकमर्यादा मिथ्याकारः, आवश्यकी, नैषेधिकी, गृहस्थोपसंपद् , इति। आवश्यकीप्रभृतयस्तिस्रो वा सामाचार्यस्तेषाम् । तेषां श्रुतज्ञानं जघन्यतो नवमस्य पूर्वस्य तृतीयमाचारवस्तु, उत्कर्षतस्तु दशपूर्वाणि भिन्नानि, न तु सम्पूर्णानि । संहननं च शारीरं-वज्रर्षभनाराचाख्य, मानसं वज्रकुड्यसमाना धृतिः च । स्थितिरपि तेषां क्षेत्रादिका अनेकविधा । क्षेत्रतस्तावज्जन्मना सद्भावेन च पश्चदशस्वपि कर्मभूमिषु, संहरणतः कदाचित् कर्मभूमौ, अकर्मभूमौ वा सद्भावापेकी है। वह इस प्रकार है-१ आप्रच्छना, २ मिथ्याकार, ३ आवश्यकी, ४ नैषेधिकी, ५ गृहस्थोपसंपदा गृहस्थ की आज्ञा लेकर उतरना, बैठना । अथवा आवश्यकी, नैषेधिकी, गृहस्थोपसंपत्, यह तीन प्रकार की सामाचारी इन जिनकल्पियों के होती है। इनका श्रुतज्ञान जघन्य की अपेक्षा नवमपूर्व की तृतीय आचार वस्तुतक, उत्कृष्ट की अपेक्षा भिन्न दशपूर्वतक ही सीमित रहा करता हैं संपूर्ण नहीं। इनका शारीरिक संहनन वज्र ऋषभ नाराच नामक है और मानसिक संहनन वज्रकुडय-वज्रकी भीत के तुल्य धैर्य है अर्थात् इनका धैर्य वज्रभित्ति के समान अभेद्य होता है और वही इनका मानसिक बल है। क्षेत्र आदि की अपेक्षा इनकी स्थिति अनेक प्रकार की है। इनका १५ कर्मभूमियों में ही जन्म होता है इस अपेक्षा १५ कर्मभूमियों में इनकी स्थिति जन्म और सद्भाव की अपेक्षा मानी जाती है। संहरण की अपेक्षा कदाचित् कर्मभूमिमें कदाचित् अकर्मभूमिमें भी इनकी स्थिति हो सकती है। અછના, ૨ મિથ્થાકાર, ૩ આવશ્યકી, ૪ નૈધિક ૫ ગૃહસ્થ પસંપદ ગૃહસ્થની આજ્ઞા લઈને ઉતરવું, બેસવું અથવા આવશ્યકી, નૈધિકી, ગૃહસ્થપસંપત, આ ત્રણ પ્રકારની સમાચારી તે જીનકપીઓને હોય છે. તેમનું શ્રુતજ્ઞાન જઘન્યની અપેક્ષા નવમા પૂર્વના ત્રીજા આચાર વસ્તુતક, ઉત્કૃષ્ટની અપેક્ષા ભિન્ન દશપૂર્વ સુધી જ સીમિત રહ્યા કરે છે, સંપૂર્ણ નહીં. તેનું શારીરિક સંહનન વા વૃષભ નારીચ નામનું છે. અને માનસિક સંહનન વજા કુમ્ભવાની ભીંત જેવું બૈર્ય છે. અર્થાત્ તેનું ધર્ય વજભીંત સમાન અભેદ્ય હોય છે. તે તેનું માનસિક બળ છે. ક્ષેત્ર આદિની અપેક્ષા એમની સ્થિતિ અનેક પ્રકારની છે, એમને ૧૫ કર્મભૂમીમાંજ જન્મ થાય છે. આ અપેક્ષા ૧૫ કર્મભૂમીમાં તેની સ્થિતિ જન્મ અને સદ્ભાવની અપેક્ષા માનવામાં આવે છે. સંહરણની અપેક્ષા કદાચિત કર્મ ભૂમિમાં, કદાચિત્ અકર્મભૂમિમાં પણ એની સ્થિતિ હોઈ શકે છે. આ उ० ४४ ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #401 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययनसूत्रे क्षया स्थितिः। कालतः उत्सर्पिण्यां, व्रतापेक्षया तृतीयचतुर्थारकयोरेव, जन्ममात्रेण तु द्वितीयारकेऽपि । अवसर्पिण्यां तु जन्मना तृतीयचतुर्थारकयोरेव । पूर्वप्रतिपन्न व्रतापे. क्षया तु पञ्चमारकेऽपि । संहरणतस्तु महाविदेहक्षेत्रापेक्षया सर्वस्मिन्नपि काले प्राप्यते। चारित्रतः- प्रतिपद्यमानानां सामायिके, छेदोपस्थापनीये च चारित्रे स्थितिः । मध्यमतीर्थकर-विदेहतीर्थकरतीर्थव|पेक्षयाऽत्र सामायिक, प्रथमचरमतीर्थकरतीर्थवर्त्यपेक्षया तु छेदोपस्थापनीयचारित्रम् । प्रतिपन्नानां तु सूक्ष्मसंपराये, यह सद्भाव की अपेक्षा कथन है । काल की अपेक्षा-उत्सर्पिणी काल के तृतीय और चतुर्थ आरे में उनकी स्थिति मानी गई है । सो यह व्रत की अपेक्षा जानना चाहिये। वैसे तो जन्ममात्र की अपेक्षा से द्वितीय आरे में भी इनकी स्थिति हैं। अवसर्पिणीकाल में जन्म की अपेक्षा तृतीय और चौथे आरे में ही, तथा पूर्वप्रतिपन्न व्रत की अपेक्षा अर्थात् -चौथे आरे के व्रत को लेकर पंचम आरे में भी इनकी स्थिति जानना चाहिये । यदि कोई देव इन्हें हरण कर महाविदेह क्षेत्र से अन्यत्र पहुंचा देवे तो उस अपेक्षा इनकी स्थिति सब काल जाननी चाहिये । चारित्र की अपेक्षा जो प्रतिपद्यमानचारित्री हैं उनको सामायिक एवं छेदोपस्थापनीय चारित्र में स्थित मानना चाहिये, क्यों कि जो मध्यमतीर्थकर एवं विदेह क्षेत्र में रहे हुए तीर्थकर के तीर्थ में रहने वाले हैं वे सामायिकचारित्र में, एवं जो प्रथम एवं चरमतीर्थकर के तीर्थवर्ती हैं वे छेदोपस्थापनीय चारित्र में स्थित रहते हैं । जो સદુભાવથી અપેક્ષનું કથન છે. કાળની અપેક્ષા–ઉત્સર્પિણી કાળના ત્રીજા થા આરામાં સ્થિતિ માનવામાં આવેલ છે. આને વ્રતની અપેક્ષાથી જાણવું જોઈએ. એમ તે જન્મ માત્રની અપેક્ષાથી બીજા આરામાં પણ તેની સ્થિતિ છે. અવસર્પિણી કાળમાં જન્મની અપેક્ષા ત્રીજા અને ચોથા આરામાં, તથા પૂર્વ પ્રતિપન્ન વતની અપેક્ષા અર્થાત્ ચોથા આરાના વતને લઈ પાંચમા આરામાં પણ એની સ્થિતિ જાણવી જોઈએ. કદાચ કેઈદેવ આદિ એનું હરણ કરી મહાવિદેહ ક્ષેત્રથી બીજે પહોંચાડી દે તે એ અપેક્ષા એની સ્થિતિ બધા કાળમાં જાણવી જોઈએ. ચારિત્રની અપેક્ષા જે પ્રતિપદ્યમાન ચારિત્રી છે તે સામાયિક અને છે. પસ્થાપનીય ચારિત્રમાં સ્થિત માનવા જોઈએ કેમકે, જે મધ્યમ તીર્થકર અને વિદેહ ક્ષેત્રમાં રહેતા તીર્થકરના તીર્થમાં રહેવાવાળા છે તે સામાયિક ચારિત્રમાં, અને જે પ્રથમ વુિં ચરમતીર્થકરના તીથવર્તી છે તે છેદેપસ્થાપનીય ચારિત્રમાં સ્થિત રહે છે. જે પ્રતિપન્ન ચારિત્રી છે તેની ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #402 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रियदर्शिनी टीका अ० २ गा. १३ स्थविरकल्पजिनकल्पयोर्दशविधत्वम् ३४७ यथाख्याते च चारित्रे उपशमश्रेण्याम् । तीर्थतस्तु जिनकल्पिकानां स्थितिनियमतस्तीर्थ एव भवति न तु तीर्थे व्यवच्छिन्ने । पर्यायागमवेदाख्याः स्थितिभेदा अप्यवगन्तव्याः । ___स्थविरकल्पिकानां जिनकल्पिकानां च कल्पो दशविधः-आचैलक्यम् १, औद्देशिकं २, शय्यातरपिण्डत्यागः ३, राजपिण्डत्यागः ४, कृतिकर्म ५, महाव्रतम् ६, पुरुषज्येष्ठत्वम् ७, प्रतिक्रमणम् ८, मासकल्पः ९, पर्युषणकल्प १० (वर्षाकल्प) श्चेति । तेषु मध्यमतीर्थकरतीर्थवर्तिनां साधूनां चत्वारः कल्पाः अवस्थिताः नियमेन पालनीयाः-शय्यातरपिण्डत्यागः१, कृतिकर्म२, महाव्रतम् ३, पुरुषज्येष्ठत्वं४ चेति। इतरे षट् कल्पास्तु तेषामनवस्थिताः । प्रतिपन्नचारित्री हैं उनकी स्थिति उपशमश्रेणी में सूक्ष्मसांपराय, एवं यथाख्यातचारित्र में होती है । तीर्थ की अपेक्षा जिनकल्पियों की स्थिति नियम से तीर्थ में ही होती है, तीर्थ के व्यवच्छिन्न होने पर नहीं। पर्याय आगम एवं वेद, ये भी स्थिति के भेद हैं। स्थविरकल्पियों का एवं जिन कल्पियों का कल्प दश प्रकार का है १ आचैलक्य, २ औदेशिक, ३ शय्यातरपिण्डत्याग ४ राजपिंडत्याग, ५ कृतिकर्म, ६ महाव्रत, ७ पुरुषज्येष्ठता ८ प्रतिक्रमण ९ मासकल्प १० पर्युषणकल्प (वर्षाकल्प) इन कल्पो में मध्यमतीर्थकर के तीर्थवर्ती साधुओ के चार कल्प अवस्थित होते हैं-नियम से पालनीय होते हैं । वे चार ये हैं -शय्यातरपिंडत्याग, कृतिकर्म, महाव्रत, पुरुषज्येष्ठता। बाकी के ६ कल्प उनके लिये अनवस्थित हैं। સ્થિતિ ઉપશમ શ્રેણીમાં સૂક્ષ્મસાપરાય, એવા યથાખ્યાત ચારિત્રમાં થાય છે. તીર્થની અપેક્ષા જીનકલ્પિોની સ્થિતિ નિયમથી તીર્થમાં જ થાય છે, તીર્થના વ્યવચ્છિન્ન થવાથી નહીં. પર્યાય, આગમ અને વેદ આ પણ સ્થિતિના ભેદ છે. વિરકપિઓના અને જીનકલ્પિના કલ્પ દશ પ્રકારના છે૧ આલય, ૨ દેશિક, ૩ શય્યાતરપિન્ડત્યાગ, ૪ રાજપિન્ડત્યાગ, ૫ કૃતિકર્મ, ૬ મહાવ્રત, ૭ પુરૂષયેષ્ઠતા, ૮ પ્રતિક્રમણ ૯ માસક૫, ૧૦ પર્યુષણકલ્પ (વર્ષાક૫) આ કપમાં મધ્યમતીર્થકરના તીર્થવતી સાધુઓના ચાર કલ્પ અવસ્થિત હોય છે–નિયમથી પાળવાના હોય છે. તે ચાર આ છેશય્યાતરપિન્ડત્યાગ, કૃતિકર્મ, મહાવ્રત, પુરૂષ ચેષ્ઠતા. બાકીના છ કપ એમને માટે અનવસ્થિત છે. ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #403 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययन सूत्रे आद्यचरमतीर्थकर तीर्थवर्तिनां साधूनामेष दशविधः कल्पोऽवस्थित एव । तत्राचैलक्यं द्विविधम्- मुख्यम्, औपचारिकं च । अविद्यमानचैलकत्वरूपं मुख्यमाचैलक्यं प्रायशो जिनकल्पिकविशेषाणाम् । औपचारिकमाचैलक्यं स्थविरकल्पिकास्थविरकल्पिका हि-कल्पनीयमेषणीयं जीणं खण्डितं मलिनं तथैव नूतनमपि स्वल्पमूल्यकं वस्त्रं गृह्णन्ति, लोकरूढमकारादन्यप्रकारेण च तदासेवन्ते । अतस्ते चेलसद्भावेऽप्युपचारतोऽचेलका व्यपदिश्यन्ते । 9 ३४८ प्रथमतीर्थंकर एवं अन्तिमतीर्थकर के तीर्थ में रहनेवाले जो साधु हैं उनके लिये तो यह १० प्रकार का कल्प अवस्थित ही हैं - अवश्य पालने योग्य ही है । आचैलक्य जो प्रथम कल्प है वह दो प्रकार का है। १ मुख्य २ औपचारिक, कटिबन्धन - रजोहरण - और सदोरकमुखवस्त्रिका के सिवाय अन्य वस्त्र का परित्याग करना यह मुख्य आचैलक्य है । यह जिनकल्पिक विशेषों के होता है । औपचारिक जो आचलक्य है वह स्थविरकल्पिकों के होता है। क्यों कि जो स्थविरकल्पी साधु होते हैं वे कल्पनीय, एषणीय, जीर्ण खंडित एवं मलिन वस्त्र रखते हैं। जो नवीन वस्त्र भी लें तो वह भी अल्पमूल्य वाला ही लेते हैं । लौकिकजन जिस पद्धति से वस्त्रों का परिधान करते हैं वे उस पद्धति से वस्त्रों का परिधान नहीं करते हैं, किन्तु अन्य प्रकार से ही उन्हें पहिनते हैं । इस लिये चेल के सद्भाव में भी वे अचेलक ही कहे जाते है। પ્રથમ તિર્થં કર અને અંતિમ તીર્થંકરના તીથમાં રહેવાવાળા જે સાધુ છે, તેમને માટે તે આ દશ પ્રકારના કલ્પ અવસ્થિત જ છે.અવશ્ય પાળવા ચેાગ્ય જ છે. આચૈલકચ જે પ્રથમ કલ્પ છે તે એ પ્રકારના છે. ૧ મુખ્ય, ૨ ઔપચારિક, કટીબંધન રોહરણુ અને સદેરકમુખવસ્ત્ર કાના સિવાય અન્ય વસ્ત્રના પરિત્યાગ કરવા આ મુખ્ય આયૈલકય છે, આ જિનકલ્પિક વિશેષોમાં હાય છે. ઔપચારિક જે આચલકય છે તે સ્થવિરકલ્પિઆને હાય છે. કેમકે, સ્થવિરકલ્પી સાધુ હાય છે તે કલ્પનીય, એષણીય, જીણ, ખ'ડિત અને મલીન, વસ્ત્ર શખે છે. જે નવીન વસ્ર મળે તે પણ આછા મૂલ્યનું હોય તે જ લે છે. લૌકિકજન જે પદ્ધતિથી વસ્ત્રોનુ` પરિધાન કરે છે એ પદ્ધતિથી તેઓ વસ્ત્ર પરિધાન કરતા નથી. પરંતુ અન્ય પ્રકારથીજ એને પહેરે છે આ માટે ચેલના સદભાવમાં પણ તે અચેલક જ કહેવાય છે, ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર ઃ ૧ Page #404 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रियदर्शिनी टीका अ० २ गा. १३ आचेलक्यम् १ ननु-जीर्णखण्डितादिवस्त्रसद्भावे मुनीनामचेलकत्वे दरिद्रा अपि-अचेलकाः कथं न कथ्यन्ते ? उच्यते-नवव्यूतसदशकमहामूल्यकादीनां वस्त्राणामलाभे दरिद्राः परिजीर्णादीनि वासांसि धारयन्ति न तु धर्मबुद्धया । अतो भावतस्तद्विषयकमूर्छापरिणामस्यानिवृत्तत्वात् परिजीर्णवस्त्रसद्भावे दरिद्राणामचेलकत्वव्यपदेशो न भवति । मुनयस्तु-केनचिद्दीयमानान्यपिमहामूल्यकानि प्रमाणबहिर्भूतानि वस्त्राणि ___शंका-जीर्ण, खण्डित आदि वस्त्रों के सद्भाव में यदि मुनियोंको अचेलक माना जाय तो जो दरिद्री जन हैं, जिनके पास जीर्ण खण्डित आदि वस्त्र हैं वे भी अचेलक कहे जाने चाहिए ? परन्तु वे तो अचेलक नहीं कहे जाते हैं ? उत्तर-दरिद्री जो जीर्ण शीर्ण आदि वस्त्र धारण करते हैं वे धर्मबुद्धि से नहीं करते हैं किन्तु उन्हें नवीन महामूल्यवाले वस्त्र मिलते नहीं हैं-उनका उनके पास अभाव है-अतः उनके अभाव में उन्हें वे पहिनने पड़ते हैं परन्तु पहिनना नहीं चाहते, इसलिये वे अचेलक नहीं कहे जाते हैं। क्यों कि उनके भाव से तद्विषयक मूपिरिणाम की अनिवृत्ति है, इसलिये परिजीर्ण वस्त्र के सद्भाव में दरिद्रियों में अचेलकत्व का व्यवहार नहीं होता है। मुनियो को तद्विषयक मूर्छा नहीं है, क्यों कि यदि कोई दाता उन्हें बहुमूल्यवस्त्र प्रदान करता है और वस्त्र यदि प्रमाणोपेत नहीं है-प्रमाण से बहिर्भूत है तो वे उस को ग्रहण नहीं करते हैं, किन्तु जीर्ण खंडित ही वस्त्र ग्रहण करते हैं। यदि कोई नवीन શંકા જીર્ણ ખંડિત, આદિ વસ્ત્રોના સદ્દભાવમાં મુનિને અલક માનવામાં આવે તે જે દરિદ્રી જન છે, જેની પાસે જીર્ણ ખંડિત આદિ વસ્ત્ર છે. તેને પણ અલક કહેવા જોઈએ ? પરંતુ તેને તે અચેલક નથી કહેવામાં આવતા ? ઉત્તર–દરિદ્રી જે જીણું શીર્ણ વસ્ત્ર ધારણ કરે છે, તે ધર્મ બુદ્ધિથી નહીં, પરંતુ તેને નવીન સારા મૂલ્યવાળા વસ્ત્રો મળતાં નથી,-એને એની પાસે અભાવ છે તેથી એના અભાવમાં તેણે તે પહેરવાં પડે છે, પરંતુ પહેરવાં ચાહતા નથી. આ માટે તે અચેલક કહેવાતાં નથી. કેમ કે તેને ભાવથી તદ્વિષયક મૂછ પરિણામની અનિવૃત્તિ છે. માટે પરિજીર્ણ વસ્ત્રોના સદૂભાવથી દરિદ્રીમાં અલકત્વને વ્યવહાર થતો નથી. મુનિને તદ્વિષયક મમતામૂછ નથી. કેમ કે, કોઈ દાતા તેમને બહુમૂલ્ય વસ્ત્રપ્રદાન કરે છે. અને તે વસ્ત્ર જે પ્રમાણપત નથી હોતું–પ્રમાણથી બહિબૂત હોય છે તો તે તેને ગ્રહણ કરતા નથી. પરંતુ જીર્ણ ખંડિત વસ્ત્ર જ ગ્રહણ કરે છે. જે કંઈ ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #405 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५० - उत्तराध्ययनसूत्रे परिवर्जयन्ति, जीर्णखण्डितानि नूतनान्यप्यमहामूल्यकानि वसनानि प्रमाणोपेतान्येव धारयन्ति । तान्यपि श्रुतचारित्रधर्मोपकरणबुद्धथैव, न तु तत्र मुनीनां मूर्छा परिणामो भवति । अतस्तेषामचैलकत्वेन व्यपदेशः सम्यगेव । - मध्यमतीर्थकरतीर्थवर्तिनां मुनीनामाचेलक्यमनवस्थितम् अतस्तेषां रक्तपीतादि रागरभितमहामूल्यकादिवस्त्रवर्जननियमो नास्ति, ममत्वरहिततत्वात् तेषाम् । प्रथमचरमतीर्थकरतीर्थवर्तिनां मुनीनां तु धर्मबुद्धया स्वल्पमूल्यकप्रमाणोपेतश्वेतवस्त्राणामेव धारकत्वादाचेलक्यं भवति । वस्त्र देता भी हो तो वह यदि अल्पमूल्य वाला एवं प्रमाणोपेत है तो ही लेते हैं । उसका लेना भी वे इसीलिये आवश्यक समझते हैं कि वह उनके श्रुतचारित्ररूप धर्म का उपकरण है। मू परिणाम से उसका वे ग्रहण नहीं करते हैं, क्यों कि उनके तद्विषयक मूर्छा का अभाव है। इसलिये मुनियो में अचेलकत्व का व्यवहार वास्तविक ही है। ___ जो मध्यम तीर्थंकरों के तीर्थवर्ती साधु हैं उनमें अचेलकत्व अनवस्थित है। इसलिये उन्हें लालपीले आदि रंग से रंगे हुए, तथा महामूल्यवाले वस्त्रों के परिवर्जन का कोई नियम नहीं है, क्यों कि ये ममता से रहित होते हैं। प्रथम चरम तीर्थकर के तीर्थवर्ती मुनियों के तोप्रमाणोपेत तथा स्वल्पमूल्यवाले श्वेतवस्त्रों के परिधान करने का ही नियम है, सो भी उन का ग्रहण केवल धर्मबुद्धि से हो है। मू परिणाम से नहीं, अतः वस्त्रों के सद्भाव में भी इनमें अचेलकता ही है। નવીન વસ્ત્ર આપે છે તે તે અલ્પમૂલ્યવાળું અને પ્રમાણપત હોય તે જ તે છે. એ લેવાનું પણ તેઓ એ ખાતર આવશ્યક માને છે કે, એના શ્રત ચરિત્ર રૂપ ધર્મનું ઉપકરણ છે. મૂરછ પરિણામથી તેને એ ગ્રહણ કરતા નથી. કેમ કે એનામાં એના માટેની ભાવનાને અભાવ છે. આ માટે મુનિયામાં અલકત્વને વ્યવહાર વાસ્તવિક જ છે. જે મધ્યમ તીર્થકરના તીર્થવતી સાધુ છે. એમનામાં અલકત્વ અનવસ્થિત છે. આ માટે તેને લાલ, પીળા આદિ રંગથી રંગેલાં તથા બહુમૂલ્ય વોના પરિવર્જનને કેઈ નિયમ નથી. કેમ કે એ મમતાથી રહિત હોય છે. પ્રથમ ચરમ તીર્થકરના તીથવતી મુનિ છે. એને તે પ્રણે પેત તથા સ્વલ્પ મૂલ્યવાળાં વેત વસ્ત્રો પરિધાન કરવાને જ નિયમ છે અને તે ગ્રહણ કરવાને નિયમ કેવળ ધર્મ બુદ્ધિથી જ છે. મૂછ પરિણામથી નહીં. આથી વસ્ત્રોના સદભાવમાં પણ એમનામાં અલકતા છે જ, ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #406 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रियदर्शिनी टीका अ० २ गा० १३ आचेक्यप्रशंसास्थानानि ३५१ स्थविरकल्पिकानां वस्त्रधारणमाचाराङ्गबृहत्कल्पाद्यागमेषु व्यवस्थितम् (आचारागसूत्रे द्वितीयश्रुतस्कन्धे चतुर्दशाध्ययने ) ( बृहत्कल्पसूत्रे तृतीयोद्देशके)। स्थानाङ्गसूत्रे भगवताऽचेलकस्य पञ्चभिः स्थानः प्रशस्तत्वं प्रतिबोधितम् , तथाहि___ पंचहिं ठाणेहिं अचेलए पसत्थे भवइ । तं जहा-"अप्पा पडिलेहा, लाघविए पसत्थे, रूवे वेसासिए, तवे अणुण्णाए, विउले इंदियनिग्गहे ।" पञ्चामिः स्थान: कारणैः, अचेलका प्रशस्तः-तीर्थंकरादिभिः प्रशंसित इत्यर्थः । स च जिनकल्पिकविशेषः, स्थविरकल्पिकश्च । तत्र वस्त्राभावादेव जिनकल्पिकवि____ स्थविरकल्पियों के लिये वस्त्रों को धारण करने की व्यवस्था का उल्लेख आचारांगसूत्र एवं बृहत्कल्पसूत्र आदि आगमों में पाया जाता है। इसके लिये आचारांगसूत्र द्वितीय श्रुतस्कन्ध का १४ वां अध्ययन देखना चाहिये। तथा बृहत्कल्पसूत्र का तृतीय उद्देश देखना चाहिये। स्थानाङ्गसूत्र में भगवान् ने पांच कारणों को लेकर अचेलकता को प्रशस्त प्रतियोधित की है, जैसे___ “पंचहिं ठाणेहिं अचेलए पसत्थे भवइ । तं जहा-अप्पा पडिलेहा १, लाघविए पसत्थे २, रुवे वेसासिए ३, तवे अणुण्णाए ४, विउले इंदियनिग्गहे ५ ॥" पांच कारणों से भगवान् ने अचेलकता की प्रशंसा की है। जिनकल्पिविशेषों में जो अचेलकता कही गई है वह वस्त्र के अभाव से વિકલ્પીને માટે વસ્ત્રોને ધારણ કરવાની વ્યવસ્થાને ઉલ્લેખ આચારાંગસૂત્ર એને બૃહત્કલ્પસૂત્ર આદિ આગમાં જાણી શકાય છે. આને માટે આચારાંગસૂત્ર બીજા શ્રુતસ્કંધના ૧૪ મા અધ્યયનને જોઈ લેવું જોઈએ. તથા બૃહત્કલ્પસૂત્રના ત્રીજા ઉદ્દેશને જોઈ લેવું જોઈએ. સ્થાનાંગસૂત્રમાં ભગવાને પાંચ કારણેને લઈ અલકતાને પ્રશસ્ત પ્રતિબંધિત કરેલ છે. पंचहिं ठाणेहिं अचेलए पसत्थे भवइ । तं जहा अप्पा पडिलेहा, १ लाघविए पसत्थे २ रूवे वेसासिए ३ तवे अणुण्णाए ४ विउले इंदियनिग्गहे ५ ॥ પાંચ કારણેથી ભગવાને અલકતાની પ્રશંસા કરેલ છે. જનકપી વિશેષમાં જે અલકતા કહેવામાં આવી છે. તે વસ્ત્રના અભાવથી જ ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #407 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५२ उत्तराध्ययनसूत्रे शेषोऽचेलका, स्थविरकल्पिकस्तु अल्पमूल्यसप्रमाणजीर्णमलिनवसनत्वादिति विशेषः। तानि स्थानानि प्रदर्शयति___ 'तं जहा' इत्यादि। 'अप्पा पडिलेहा' अल्पा प्रत्युपेक्षा प्रतिलेखनीयस्य वस्त्रस्याल्पत्वात् , अल्पपतिलेखनया स्वाध्यायादेरन्तरायो न भवतीति भावः । तथा 'लापविए पसत्थे' लाघविकं प्रशस्तम्-लघो वो लाघवं तदेव लाघविकम् , यद् वस्त्रस्य परिमाणतो मूल्यतः संख्यया चाल्पतरत्वाल्लघुत्वं, तदेव द्रव्यतो लाघवम् , भवतोऽपि तत्र रागाद्यभावादित्यचेलकस्य लाघविकं प्रशस्तम्-अनवधम् । 'रूवे वेसासिए' रूपं वैश्वासिकम्-तत्र रूप-वेषः, तच्च साधूनां मुखबद्धश्वेत ही कही गई है। तथा स्थविरकल्पियों में जो अचेलकता कही गई है वह केवल अल्पमूल्यवाले प्रमाणोपेत जीर्ण, मलिन वस्त्रों के ग्रहण करने की अपेक्षा से कही गई है। यह बात तीर्थंकरों की परम्परा से प्रशंसित होती हुई चली आ रही है। कल्पित नहीं है। वे पाँच स्थानकारण ये हैं-अल्पप्रतिलेखना-प्रतिलेखनीय वस्त्रों की अल्पता से प्रतिलेखना भी अल्प ही होगी-अल्पसमयसाध्य होगी, इस से स्वाध्याय आदि में अन्तराय नहीं आ सकती है। इस अपेक्षा अचेलकता प्रशस्त कही गई है। १। इसी तरह लाघव की अपेक्षा भी अचेलकता प्रशस्त कही गई है, क्यों कि वस्त्रों में जो लघुता है वह परिमाण, मूल्य एवं संख्या की अपेक्षा से है। यह द्रव्य की अपेक्षा लघुता है। भाव की अपेक्षा लघुता उनमें साधु के रागादिक का अभाव है ।२। वैश्वासिक रूपकी अपेक्षा अचेलकता इसलिये प्रशंसित हुई है कि जब कोई ऐसा કહેવામાં આવી છે. તથા સ્થવિરકલ્પિમાં જે અલકતા કહેવામાં આવી છેતે કેવળ અલ્પમુલ્યવાળા પ્રમાણે પેત જીર્ણ, મલીન વસ્ત્રોને ગ્રહણ કરવાની અપેક્ષાથી કહેવામાં આવેલ છે. આ વાત તીર્થકરાની પરંપરાથી પ્રશંસિત થતી ચાલી આવેલ છે કલ્પિત નથી. આ પાંચ સ્થાન–કારણ આ છે. અપપ્રતિલેખના પ્રતિલેખનીય વાની અલેપતાથી પ્રતિલેખના પણ અ૫ જ થશે. અલ્પ સમય સાધ્ય થશે. આથી સ્વાધ્યાય આદિમાં અંતરાય આવી શકતો નથી. આ અપેક્ષાથી અચેલકતા પ્રશસ્ત કહેવામાં આવેલ છે. (૧) આ રીતે લાઘવની અપેક્ષા પણ અચેલકતા પ્રશસ્ત રહી છે. કેમ કે, વમાં જે લઘુતા છે તે પરિણામ મૂલ્ય અને સંખ્યાની અપેક્ષાથી છે. આ દ્રવ્યની અપેક્ષા લઘુતા છે. ભાવની અપેક્ષા આ લઘુતામાં સાધુના રાગાદિકને અભાવ છે.(૨) વૈશ્વાસિક રૂપની અપેક્ષા આ આચેલકતા એ માટે પ્રશંસનીય થઈ ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #408 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५३ प्रियदर्शिनी टीका. अ० २ गा. १३ आचेलक्यप्रशंसास्थानानि ५ सदोरक मुखवत्रिकं परिहित श्वेतचोलपट्टकं परिघृतश्वेतवस्त्रप्रावरणं परिगृहीतप्रमार्जिकारजोहरणं, भिक्षाधानी समावृतपात्रहस्तम् अनावृतमस्तकम्, पादत्राणरहितचरणम्, ईर्यादिपञ्चसमितिसमितं गुप्तित्रयगुप्तम्, जिनकल्पिकानां तु मुखबद्धश्वेतसदोरक मुखवत्रिकं परिगृहीतरजोहरणं, बद्धकटिबन्धनवस्त्रं च । एतादृशं साधूनां रूपं वैश्वासिकं = जनानां विश्वासजनकं भवति निःस्पृहतासूचकत्वात् । तथा 'तवे अणुष्णाए ' तपः अनुज्ञातं = तपः सकलेन्द्रियसंगोपन रूपम् अनुज्ञातं - जिना - वेष देखता है कि " मुख पर सफेददोरासहित मुखवस्त्रिका बंधी हुई है, सफेद चोलपट्टा पहिरा हुआ है, सफेद चादर ओढी हुई है, रजोहरण धारण किया हुआ है, भिक्षाधानी झोली-से ढंके हुए पात्र हाथ में हैं, मस्तक खुला हुआ है, पैरों में पगरखी मोजा आदि नहीं है, इर्यासमिति आदि पांच समितियों से युक्त हैं, तीन गुप्तियों से गुप्त हैं यह साधु का वेष है और इस वेष वाला " यह साधु है " ऐसा शीघ्र ही समझा जाता है, तथा जिनकल्पियों का यह वेष है कि वे अपने मुख पर दोरे से सफेद मुखवस्त्रिका बांधे रहते हैं, रजोहरण लिये रहते हैं और कटिबन्धन व रखते हैं । जब कोई इस वेष को देखता है देखकर वह यह समझ जाता है कि यह जिनकल्पि साधु है । इस प्रकार का यह साधु का वेष लोगों में विश्वासजनक होता है और वह इसलिये होता है कि यह वेष निःस्पृहता का सूचक होता है । ३ । तप की अपेक्षा यह अचेलकता इसलिये प्रशंसित हुई है कि इसमें सकल इन्द्रियों का " 66 છે કે, જ્યારે કાઈ એવા વેશ જુએ છે મુખ ઉપર દેારા સાથેની મુખવસ્તિકા ખાંધેલ છે. સફેદ ચાલપટ્ટો પહેરેલ છે. સફેદ ચાદર ઓઢેલ છે, રો હરણુ ધારણ કરેલ છે, ભિક્ષા માટેના પાત્ર ઝાળીમાં ઢંકાયેલ હાથમાં છે. મસ્તક ખુલ્લું છે. પગમાં પગરખાં, મેાજા આદિ નથી, ઈર્ષ્યા સમિતિ આદિ પાંચ સમિતિએથી યુક્ત છે. ત્રણ ગુપ્તિઓથી ગુપ્ત છે.” સાધુના આજ વેશ છે. અને આવા વેશવાળા આ સાધુ છે, એવું તુરત જ સમજાઇ જાય છે. તથા જીનકલ્પિના એ વેષ છે કે તે પેાતાના માઢા ઉપર દોરાથી સફેદ મુખવસ્ત્રિકા આંધે છે. રોહરણ રાખે છે, અને કટિબંધન વસ્ત્ર રાખે છે. એને જોતાંની સાથે જ જોનાર સમજી જાય છે કે એ જીનકલ્પિ સાધુ છે, આ પ્રકારના સાધુને વેષ લેાકેામાં વિશ્વાસ જનક હાય છે. અને તે એ માટે કે, આ વેષ નિસ્પૃહતાના સૂચક હોય છે. (૩) તપની અપેક્ષા આ આચેલકતા એ માટે પ્રશંસનીય અની છે કે જેમાં સફલ ઇંદ્રિયાના સગાપન ४५ उ० " ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર ઃ ૧ Page #409 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५४ उत्तराध्ययनसूत्रे नुमतं भवति । तथा - ' विउले इंदियनिग्गहे ' विपुल:- महान्, इन्द्रियनिग्रहो भवति, उपकरणं विना स्पर्शनप्रतिकूलशीतवातातपादिसहनात् । अत्र दृष्टान्तः प्रदश्यते आसीद्दशपुरनाम्निनगरे सोमदेवनामा ब्राह्मणः । तस्य जिनाज़ाराधिका रुद्रसोमनाम्नी भार्याऽभवत् । तस्यां भार्यायां सोमदेवस्य द्वौ पुत्रौ जातौ । तत्र ज्येष्ठ आर्यरक्षितनामकः, द्वितीयः फल्गुरक्षितनामकः । आर्यरक्षितः पितुः संनिधौ शास्त्रमधीत्याधिकविद्या लाभार्थं पाटलिपुत्रनगरं गतः । तत्र तेन साङ्गोपाङ्गाश्चत्वारो वेदा अधीताः, चतुर्दशविद्यास्थानानि गृहीतानि । ततोऽसौ दशपुरं नगरं समायातः । संगोपनरूप तप जिनेन्द्र भगवान् का अनुज्ञात है | ४| तथा इसमें महान् इन्द्रिय निग्रह होता है, क्यों कि उपकरण के बिना स्पर्शन इन्द्रिय के प्रतिकूल शीत वात आतप आदि का सहन होता है। इससे इन्द्रियां काबू में रहती हैं । दृष्टान्त - दशपुर नामके नगर में एक सोमदेव नाम का ब्राह्मण था । उसकी पत्नी का नाम रुद्रसोमा था। यह जिनेन्द्र भगवान् की आज्ञा की आराधिका थी । सोमदेव के दो पुत्र थे। जेठे पुत्र का नाम आर्यरक्षित था और छोटे पुत्र का नाम फल्गुरक्षित । आर्यरक्षित पिता के पास शास्त्रों का अध्ययन करके अधिक विद्या की प्राप्ति की अभिलाषा से दशपुर से पाटलिपुत्र नगर को रवाना हुआ। वहां पहुँचकर इस ने सांगोपांग चारों वेदों का एवं १४ चौदह विद्याओं का खूब अध्ययन किया। जब यह पटु बन चुका तब वहां से वापिस दशपुर नगर की રૂપ તપ જીનેન્દ્ર ભગવાનથી અનુજ્ઞાત છે. (૪) તથા તેમાં મહાન ઇંદ્રિય નિગ્રહ થાય છે. કેમ કે ઉપકરણ વગર સ્પન ઇંદ્રિયને પ્રતિકૂલ શીતવાત, આતપ, આદિ સહેવાં પડે છે, આનાથી ઇંદ્રિયા કાબુમાં રહે છે. દૃષ્ટાંત—દૃશપુર નામના નગરમાં એક સેામદેવ નામના બ્રાહ્મણ હતા, તેની સ્રીનુ નામ રૂદ્રસામા હતુ. તે જીનેન્દ્ર ભગવાનની આજ્ઞાની અરાધિકા હતી. સામદેવને બે પુત્ર હતા. મેાટા પુત્રનું નામ આરક્ષિત અતે નાના પુત્રનું નામ ફલ્ગુરક્ષિત હતું. આ રક્ષિત પિતાની પાસે શાસ્ત્રાનું અધ્યયન કરીને અધિક વિદ્યાપ્રાપ્તિની અભિલાષાથી દશપુરથી પાટલીપુત્ર રવાના થયા, ત્યાં પહોંચીને તેણે સાંગોપાંગ ચારે વેદેનુ અને ચૌદ વિદ્યાનું ખૂબ અધ્યયન કર્યું. જ્યારે તે પારંગત બની ચૂકયેા ત્યારે તે પાટલીપુત્રથી પેાતાને ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર ઃ ૧ Page #410 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रियदर्शिनी टीका. अ० २ गा० १३ आचेलक्ये सोमदेवदृष्टान्तः ३५५ तनगरनरेशस्तं नगरसमीपे समागतं विज्ञाय तदभिमुखं गत्वा गजोपरि तमुपवेश्य बहुसंमानपुरस्सरं नगरे प्रावेश्य तस्य रूप्यस्वर्णमणि प्रभृतिभिः प्राभृतैः संमानं कृतवान् । एवं तन्नगरनिवासिभिः प्रवेशोत्सवं कृत्वा संमानितः स्वगृहमा गतः पितरौ प्रणतवान् । प्राप्तविद्यं लोकसंमानितमार्यरक्षितं विलोक्य पिताऽतीव हृष्टो जातः, किंतु माता हर्ष न दर्शितवती । आर्यरक्षितस्तदा मातरमजातहषां दृष्ट्वा पाह-हे मातः ! किमिदानीं मदवलोकनेन हृष्टा न भवसि ? सा पाह-किमनेन ओर प्रस्थान किया। दशपुर के राजा को जब इसके आने का समाचार मिला तो उसने इसके स्वागत की खूब तैयारी की। जब आर्यरक्षित आते २ नगर के समीप पहुँचा तो राजा इन्हें नगर में प्रवेश कराने के लिये इसके संमुख गया। हाथी पर बैठा कर बहुत सन्मानपूर्वक राजा ने इसको नगर में प्रवेश कराया। रूप्य, सुवर्ण और मणि आदि के नजराने से राजा ने इसका खूब सत्कार किया। इसी तरह नगरनिवासियों ने भी राजा का साथ दिया। सबसे अच्छी तरह समानित होकर आर्यरक्षित अपने घर पर आया। मातापिता को नमस्कार किया। विद्या की प्राप्ति से राजा तथा अन्य नगर निवासियों द्वारा संमानित अपने पुत्र को देखकर पिता तो चित्त में बहुत ही हर्षित हुआ, परन्तु माता ने इस विषय में अपना हर्ष नहीं प्रकट किया। जब आर्यरक्षितने अपनी माता की इस प्रकार परिस्थिति देखी तो वह बोला हे माता ! क्या बात है तुम्हें क्यों नहीं इस समय मेरी इस परिस्थिति के अवलोकन से हर्ष ગામ પાછો આવ્યો. દશપુરના રાજાને જ્યારે તેના આવવાના સમાચાર મળ્યા એટલે તેણે તેના સ્વાગતની ખૂબ તૈયારી કરી. આર્ય રક્ષિત જ્યારે નગરની સમીપ પહોંચ્યો, તે સમયે રાજા તેને નગરમાં પ્રવેશ કરાવવા તેની સામે ગયા. હાથી ઉપર બેસાડીને ઘણાજ સન્માન પૂર્વક રાજાએ તેને નગરમાં પ્રવેશ કરાવ્યું. રૂપું, એનું વિગેરેના નજરાણથી રાજાએ તેને ખૂબ સત્કાર કર્યો. આ રીતે નગર નિવાસીઓએ પણ રાજાને સાથ આપે. સારી રીતે આદર સત્કાર મેળવીને આરક્ષિત પિતાને ઘેર પહોંચે. માતા પિતાને નમસ્કાર કર્યા. વિદ્યાની પ્રાપ્તિથી રાજા તથા અન્ય નગરવાસીઓથી સન્માનિત પિતાના પુત્રને જોઈ પિતા તેના દિલમાં ખૂબ જ હર્ષિત બન્યા, માતાએ આ વિષયમાં પોતાને હર્ષ પ્રગટ કર્યો નહીં જ્યારે આરક્ષિત માતાની આ પ્રકારની સ્થિતિ જોઈ તે તે બે કે, હે માતા ! શું કારણ છે કે તમે આ ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #411 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययनसूत्रे जीवघातादिहेतुकेन बहुशास्त्राध्ययनेन ? किं त्वया दृष्टिवादः पठितः ? येन मम हर्षः स्यात् । मातुरेतद् वचनं श्रुत्वाऽऽर्यरक्षितः पृच्छति-क्वास्ति दृष्टिवादः ? जनन्या निगदितम्-इक्षुवाटकनामके ग्रामे विद्यमानस्य तोसलिपुत्राचार्यस्य समीपेऽस्ति. तदासेवनया तदाज्ञापरिपालनया तत्संनिधौ दृष्टिवादोऽभ्यसनीयः । आर्यरक्षितेनोक्तम्-हे मातः ! श्वस्तत्राहं गमिष्यामि दृष्टिवादपठनार्थम् । रात्रौ सुप्तोहो रहा है। पुत्र के वचन सुनकर माताने कहा कि बेटा ! मुझे जो हर्ष नहीं उमड़ रहा है उसका कारण यह है कि तुम्हें जीवघात की हेतुभूत अनेक वेदादि शास्रों की इस पढ़ाई से क्या लाभ ? बेटा ! तुम हमें यह बतलाओं कि क्या तुमने दृष्टिवाद का भी अध्ययन किया है ? मुझे तो तभी हर्ष हो सकता है कि जब तुम दृष्टिवाद का ज्ञाता हो जावो । जननी के इस प्रकार के वचन सुनकर आर्यरक्षित ने माता से पूछा मातः ! जिसके लिये तुम मुझे पढने के लिये कह रही हों वह दृष्टिवाद शास्त्र कहां है। माता ने कहा-सुनो ! इक्षुवाटक नाम का एक ग्राम है। उस में तोसलिपुत्र नामके एक आचार्य ठहरे हुए हैं, उनके पास यह शास्त्र है सो तुम वहां जाओ और उनकी खूब सेवा करो तथा उनकी आज्ञानुसार रहो तो वे तुम्हें इस शास्त्र का अध्ययन करा देंगे। आर्यरक्षित ने माता के ये सीखभरे वचन सुनकर कहा-मातः! मैं कल उनके समीप इस शास्त्र का अध्ययन करने के लिये जाऊँगा। रात्रि में સમયે મારી આ પ્રકારની સ્થિતિથી હષિત થતાં નથી? પુત્રનું વચન સાંભળીને માતાએ કહ્યું, કે હે પુત્ર ! મને હર્ષ થતું નથી તેનું કારણ એ છે કે, જીવનઘાતના હેતુભૂત અનેક વેદાદિ શારે ભણવાથી તને શું લાભ થશે? બેટા! તું મને એ તે બતાવ કે તેં દષ્ટિવાદનું પણ અધ્યયન કર્યું છે ? મને ત્યારે જ હર્ષ થાય કે જ્યારે તું દષ્ટિવાદને જ્ઞાતા બને માતાનું આ પ્રમાણેનું વચન સાંભળીને અર્યરક્ષિત માતાને પૂછયું, માતા ! તું મને જે ભણવાનું કહે છે તે દષ્ટિવાદ શાસ્ત્ર ક્યાં છે? માતાએ કહ્યું, સાંભળી એક ઈશ્કવાટક નામનું ગામ છે, તેમાં તસલી પુત્ર નામના એક આચાર્ય વિચરે છે તેમની પાસે આ શાસ્ત્ર છે, જેથી તું ત્યાં જા અને તેની ખૂબ સેવા કર તથા એની આજ્ઞાનુસાર રહે તે તેઓ તને આ શાસ્ત્રનું અધ્યયન કરાવી દેશે. આર્યરક્ષિતે માતાનું આવું હિતવાળું વચન સાંભળીને કહ્યું, મા ! હું આવતી કાલે આ શાસ્ત્રનું અધ્યયન કરવા માટે તેમની પાસે જઈશ, રાત્રે જ્યારે અર્યરક્ષિત સુવા ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #412 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रियदर्शिनी टीका. अ० २ गा. १३ आचेलक्ये सोमदेवदृष्टान्तः " त्थितेन तेन मनस्येवं चिन्तितम् - दृष्टिवादनाम्नैव तस्य शास्त्रस्य तत्रज्ञानबोधकत्वं ज्ञायते । ततोऽसौ प्रभाते प्रस्थितः । मार्गे दशपुरनगर निकटवर्तिग्रामनिवासी पितृसुहृद् ब्राह्मणः सार्धनवेक्षुदण्डान् गृहीत्वा समागच्छन् मिलितः । स आर्यरक्षितं दृष्ट्वा परस्परं कुशलमश्नं कृत्वाऽवदत्-एते मया सार्धनवसंख्यका इक्षवो भवदर्थमानीताः, गृह्णातु भवान् । आर्यरक्षितो वदति - इदमिक्षुरूपं प्राभृतं मम मातुर्हस्ते भवताऽर्पयित्वा कथनीयम् - एते इक्षवो मयाऽर्यरक्षिताय समानीताः तेन तुभ्यं प्रेषिताः, इति । कथितं च- अहमेव मार्गे प्रथमं मिलितः, इत्यपि तदग्रे कथनीयआर्यरक्षित सोने के लिये अपने स्थान पर गया और शांति से सो गया। जब वह उठा तो उसने विचार किया - माता ने जो कुछ कहा है वह बिलकुल ठीक है, कारण कि वह शास्त्र तत्वज्ञान का बोधक है यह बात तो उसके नाम से ही ज्ञात होती है । प्रातःकाल होते ही वह घर से इक्षुवाटक ग्रामकी ओर चल दिया । मार्ग में इस को दशपुर नगर के पास के ग्राम में रहने वाला एक ब्राह्मण जो इनके पिता का मित्र था मिला। वह ९ ॥ साढे नौ इक्षु दण्डों को लेकर आ रहा था। कुशल प्रश्न के बाद उसने आर्यरक्षित से कहा कि भाई ! ये ९ || साढे नौ इक्षुदंड मैं आप के लिये ही लाया हूं-अतः आप इन्हें लीजिये । आर्यरक्षित ने कहा ठीक है आप इस भेंट को मेरी माता के हाथ में देकर कहना कि ये ९ || साढे नौ इक्षुदंड मैं आर्यरक्षित के लिये लाया था । वे मुझे मार्ग में मिल गये हैं। उन्हों ने ही ये तुम्हारे पास भेजे हैं। और ३५७ માટે પેાતાના સ્થાન ઉપર ગયા અને શાંતિથી સુઈ ગયા. જ્યારે તે ઉચા ત્યારે તેણે વિચાર કર્યું કે, માતાએ જે કાંઇ કહ્યુ છે તે અક્ષરશઃ સત્ય છે. કારણ કે તે શાસ્ત્ર તત્વજ્ઞાનના મેધ આપનાર છે, એ હકિકત તેના નામ ઉપરથી જણાઈ આવે છે. સવાર થતાં તે ઘરથી બહાર નીકળી ઈક્ષુવાટક ગામની તરફ ચાલતા થયા માર્ગમાં તેને દશપુરનગરની પાસેના ગામમાં રહેવા વાળેા અને પોતાના પિતાના મિત્ર એક બ્રાહ્મણુ મળી ગયા. તે બ્રાહ્મણુ હાથમાં બા ઈક્ષુદડ લઈને આવતા હતા કુશળ સમાચાર પૂછ્યા બાદ તેણે આય રક્ષિતને કહ્યું કે, ભાઈ! આ ા ક્ષુદ′ડ તારા માટે જ લાન્ચે છું. માટે તું તેને સ્વીકાર કર. આર્યરક્ષિતે કહ્યું, ઠીક છે. આપ આ દંડ મારી માતાના હાથમાં આપીને કહેજો કે, હું આ ા ઈલ્લુંડ આરક્ષિત માટે લાન્યા હતા, તે મને માÖમાં મળ્યા હતા અને તેણે આ દંડ તમને આપ ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર ઃ ૧ Page #413 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययनसूत्रे मिति । अथासौ तद्वचनात्तथैव कृतवान् । ततो माताऽतीव हृष्टा तुष्टा संजाता, चिन्तयति च । मार्गे साधनवसंख्यका इक्षवो मिलिता अतोऽसौ सार्धनवपूर्वाणि अध्येष्यते । आर्यरक्षितोऽपि शुभं शकुनं मत्वेक्षुवाटकं गतः । उपाश्रये प्रविश्य तोसलिपुत्राचार्यस्य वन्दनं कृत्वा तत्रोपविष्टः । तोसलिपुत्राचार्येण पृष्टम्-तव किं नाम?, किं च प्रयोजनम् ? । आर्यरक्षितेन स्वनाम कथयित्वा प्रयोजनं कथितम्दृष्टिवादमध्येतुमहमत्रागतोऽस्मि, मामध्यापयन्तु दृष्टिवादं भवन्तः । आचार्यः यह भी कहना कि मार्ग में उनको पहले पहल में ही मिला था । आर्यरक्षित के वचनानुसार उस ब्राह्मण ने वैसा ही किया। माता ने ९॥ साढे नौ इक्षुदंड प्राप्तकर इस शकुनसे ऐसा अनुमान लगाया कि इसे जो ये ९॥ साढे नौ इक्षुदंड मार्ग में चलते समय मिले हैं उससे ऐसा ही ज्ञात होता है कि यह ९॥ साढे नौ पूर्वो का अध्ययन कर सकेगा। आर्थरक्षित ने भी "इनकी प्राप्ति शुभ शकुन स्वरूप है " ऐसा जानकर बडे आनंद के साथ इक्षुवाटक की ओर अधिक तेजी से चलने लगा। वहाँ पहुँचते ही वह उपाश्रय में गया। तोसलिपुत्र आचार्य को वंदन कर फिर वहीं बैठ गया । आचार्यश्री ने पूछा तुम्हारा क्या नाम है ? यहां किस प्रयोजन से आये हो । ? आर्यरक्षित ने अपना नाम कह कर प्रयोजन भी स्पष्ट कर दिया । आचार्यश्री ने जब यह जाना कि “ यह दृष्टिवाद के अध्ययन के लिये यहां आया है" तब आचार्यश्री ने उससे कहा कि વાનું કહ્યું છે. અને એ પણ કહેજે કે માર્ગમાં એને પહેલવહેલે હું જ મળ્યો હતો. આર્ય રક્ષિતના વચનાનુસાર તે બ્રાહ્મણે તેવું જ કર્યું. માતાએ હા ઈક્ષુદંડ પ્રાપ્ત કરી એ શુકનથી એવું અનુમાન લગાવ્યું કે, તેને જે આ મા ઈક્ષદંડ રસ્તામાં ચાલવા સમયે મળેલ છે એથી એવું જ્ઞાત થાય છે કે, સાડાનવ પૂર્વનું અધ્યયન કરી શકશે. આરક્ષિતે પણ આની પ્રાપ્તિ શુભ શુકન સ્વરૂપ છે તેવું જાણીને ઘણા આનંદની સાથે ઈશુવાટકની તરફ ઝડપથી ચાલવા માંડયું. ત્યાં પહોંચતાં જ તે ઉપાશ્રયમાં ગમે તેટલીપુત્ર આચાર્યને વંદન કરી ત્યાં બેસી ગયો. આચાર્યશ્રીએ તેને પૂછયું, તમારું નામ શું છે? શું કારણથી અહિં આવ્યા છે? આર્યરક્ષિતે પિતાનું નામ આપીને આવવાનું પ્રજન જણાવી દીધું. આચાર્યશ્રીએ જ્યારે એવું જાણ્યું કે, “આ દષ્ટીવાદના અધ્યયન માટે અહિં આવેલ છે. ત્યારે આચાર્યશ્રીએ તેને કહ્યું કે, દષ્ટિવાદનું અધ્યયન જ્યારે ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #414 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रियदर्शिनी टीका. अ० २ गा० १३ आचेलक्ये सोमदेवदृष्टान्तः ३५९ पाह-यदि ममान्तिके प्रव्रज्यां गृह्णासि, तर्हि त्वां दृष्टिवादमध्यापयामः। आर्यरक्षितेन प्रव्रज्याग्रहणं स्वीकृतम् , तदनन्तरमसौ श्रावकेण दत्तं साधुवेषयोग्यं सदोरकमुखवत्रिका-रजोहरणवस्त्रपात्रादिकं लब्ध्वा साधुवेषेण मातुरनुमत्या च प्रवजितः सन्नाचार्यस्य समीपे एकादशाङ्गानि सोपाङ्गानि पठित्वा दृष्टिवादस्य प्रथमं परिकमाख्यं द्वितीयं सूत्राख्यमध्ययनमधीतवान् । अथातः परं दृष्टिवादं पठितुं तोसलिपुत्राचार्याज्ञया स वज्रस्वामिसमीपं गन्तुकामः पथि गच्छन्नवन्त्यां भद्रगुप्ताचार्यस्यान्त्यक्रियारूपां निर्यापनां कृतवान् । तेन चान्त्यसमये प्रोक्तम्-त्वया रात्री दृष्टिवाद का अध्ययन हम तुम को तब ही करायेंगे कि जब तुम मेरे पास दीक्षा धारण करोगे। आर्यरक्षित ने दीक्षाग्रहण करना मंजूर कर लिया। माताने उन्हें दीक्षा लेने की अनुमति पहले दे दी थी। आर्यरक्षितने मुनिदीक्षा धारण कर ली। श्रावकों ने मिलकर उनके लिये मुनिवेष के योग्य सदो. रक मुखवस्त्रिका एवं रजोहरण तथा वस्त्रपात्रादिक प्रदान किये । आचार्य के पास रह कर आर्यरक्षित ने उपाङ्गसहित ग्यारह अंगों का अध्ययन कर दृष्टिवाद का प्रथम परिकर्म नाम का अध्ययन तथा द्वितीय सूत्र नाम का अध्ययन पढ़ लिया। अवशिष्ट दृष्टिवाद को पढ़ने के लिये फिर वे वहां से तोसलिपुत्राचार्य की अनुमति से वज्रस्वामी के समीप जाने को इच्छुक हुए। जब ये उनके पास जा रहे थे तो मार्ग में इन्हें उज्जैनो नगरी आई। वहां उस समय भद्रगुप्ताचार्य की उन्होंने अन्त्यक्रिया रूप निर्यापना की। आचार्यने अंत समय में इनसे यह कहा कि તમે મારી પાસે દીક્ષા ધારણ કરશે ત્યારે જ કરાવવામાં આવશે. આર્યરક્ષિતે દીક્ષા ગ્રહણ કરવાનું સ્વીકાર્યું, માતાએ પણ તેને દીક્ષા લેવાની અનુમતિ પહેલાંથી આપી, હતી. આર્યરક્ષિત મુનિદીક્ષા ધારણ કરી શ્રાવકોએ મળીને તેને માટે મુનિવેષને ગ્ય સદે રકમુખવસ્ત્રિકા, રજોહરણ તથા વસ્ત્રપાત્રાદિક પ્રદાન કર્યા. આચાર્યની પાસે રહીને આર્યરક્ષિત ઉપાંગ સહિત અગ્યાર અંગેનું અધ્યયન કરી દષ્ટિવાદનું પ્રથમ પરિક નામનું અધ્યયન તથા દ્વિતીય સૂત્ર નામનું અધ્યયન શીખી લીધું. બાકીના દષ્ટિવાદને શીખવા માટે પછી તે ત્યાંથી તે લીપુત્રાચાર્યની અનુમતિથી વજાસ્વામી સમીપ જવા માટે ઈચ્છા કરી. જ્યારે તે તેની પાસે જઈ રહ્યો હતો ત્યારે વચમાં માર્ગમાં ઉજજૈનિ નગરી આવી. ત્યાં એ સમયે ભદ્રગુણાચાર્યની અંત્યક્રિયા રૂપ નિર્યાપના કરી. આચાર્ય અંત સમયે તેને એ કહ્યું કે, તમે રાત્રીમાં વજ ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #415 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६० उत्तराध्ययनसूत्रे वज्रस्वामिना सह न स्थातव्यम् यतस्तेन सह रात्रौ संवसन् म्रियते । एतद्वचनं हृदि निधाय स ततो निर्गत्यावन्तीनगर्या अदूर एव ग्रामाद् बहिरुद्याने रात्रौ स्थितः। वज्रस्वामिना रात्रिशेषे स्वप्नो-दृष्टः केनचिदागन्तुकेन शिष्येण मत्पात्रस्थं साव शेषं पयः पीतमिति । अथार्यरक्षितः प्रभाते क्वचिदन्यस्मिन्नुपाश्रये वसतिं कृत्वा वन्दनार्थ वज्रस्वामिनोऽन्तिकं गतः । तदानों स वज्रस्वामी रात्रिशेषदृष्टं स्वप्नं चिन्तयन्नासीत् । वज्रस्वामिना कुशलप्रश्नानन्तरं रात्रावन्यत्रावस्थानस्य कारणं पृष्टम् आर्यरक्षितः प्राह-भद्रगुप्ताचार्यस्यानुशासनादहमन्यस्मिन्नुपाश्रये निवसामि, वज्रस्वामी तु तदा पूर्वे निजोपयोगं दत्त्वा आर्यरक्षितकृतस्य रजन्यामन्यत्रोपाश्रयेऽ तुम रात्रि में वज्रस्वामी के साथ नहीं रहना, क्यों कि रात्रि में उनके साथ रहने वाले की मृत्यु हो जाती है। आचार्य के इन वचनों को हृदय में रखकर वे वहां से निकले और जाकर पास के किसी ग्राम के बाहिर उद्यान में रात्रि में ठहर गये। उधर वज्रस्वामीने रात्रिके शेषभाग में एक ऐसा स्वप्न देखा, कि किसी आनेवाले शिष्य ने मेरे पात्र का सावशिष्ट (कुछ बाकी रखकर) क्षीरको पी लिया है। इधर आर्यरक्षित प्रभात काल में किसी अन्य उपाश्रयमें अपने उपकरण रखकर एवं स्थान निश्चित कर वंदना निमित्त वज्रस्वामी के पास पहुंचे। उस समय वनस्वामी रात्रि के शेषभाग में दृष्ट स्वप्न का विचार करने में मग्न हो रहे थे। वज्रस्वामी ने कुशलप्रश्न के बाद रात्रि में अन्यत्र ठहरने का कारण आर्यरक्षित से पूछा, आर्यरक्षित ने कहा कि मैं भद्रगुप्ताचार्य के अनुशासन से अन्य उपाश्रय में ठहर गया हूं। उस समय वज्रस्वामी ने अपने उपयोग के बलसे સ્વામીની સાથે રહેશે નહીં. કારણ કે, રાત્રે તેની સાથે રહેવાવાળાનું મૃત્યુ થાય છે. આચાર્યના આ વચનને હૃદયમાં રાખીને ત્યાંથી નીકળી પાસેના કેઈ ગામે બહાર બગીચામાં રાત્રી રોકાયા. આ તરફ વાસ્વામીએ રાત્રીના છેલ્લા પ્રહરે એક એવું સ્વપ્ન દેખ્યું કે, કેઈ આવી રહેલા શિષ્ય મારા પાત્રમાંથી સાવશિષ્ટ(કઈક બકી રાખીને) ખીર પીઈ લીધેલ છે. આ તરફ આર્ય રક્ષિત પ્રભાતકાળમાં કેઈબીજા ઉપાશ્રયમાં પિતાનું ઉપકરણ રાખીને અને સ્થાન નિશ્ચિત કરીને વંદના.નિમિત્તે વાસ્વામી પાસે પહોંચે. એ સમયે વાસ્વામી રાત્રીના છેલ્લા પ્રહરે જોયેલા સ્વપ્નને વિચાર કરવામાં મગ્ન હતા. વાસ્વામીએ કુશળ પ્રશ્ન બાદ રાત્રીમાં બીજા સ્થળે રોકાવાનું કારણ આર્ય રક્ષિતને પૂછ્યું. આરક્ષિતે કહ્યું કે હું ભદ્રગુણાચાર્યના અનુશાસનથી બીજા ઉપાશ્રયમાં રોકાયે છું. તે સમયે વજે. સ્વામીએ પિતાના ઉપયોગના બળથી “આર્ય રક્ષિતનું બીજા ઉપાશ્રયમાં રાત્રે ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #416 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रियदर्शिनी टीका. अ० २ गा. १३ आचेलक्ये सोमदेवदृष्टान्तः ३६१ वस्थानस्य कारणं ज्ञात्वाऽब्रवीत्-युक्तमेतदुक्तं भद्रगुप्ताचार्येणेति । अथार्यरक्षितेन बनस्वामिसंनिधौ नव पूर्वाणि पठितानि, दशमपूर्वस्य कतिचिदधिकारास्तेन यावत् पठितास्तावद् दशपुरात् फल्गुरक्षितो भ्राता चिरविरहातमात्रादिभिः प्रेरितस्तस्याकारणाय तत्रागतः । आर्यरक्षितस्तं प्रतिबोध्य तत्रैव प्रव्रज्यां ग्राहयति स्म । ___ एकदाऽऽर्यरक्षितो वज्रस्वामिनं पृच्छति-भगवन् ! मम पठनार्थ दृष्टिवादे दशमं पूर्व कियदवशिष्टमस्ति ? वज्रस्वामी पाह-वत्स ! त्वया दशमपूर्वस्य बिन्दुमात्रं पठितं समुद्रोपमं दशमं पूर्वमस्ति । ततोऽसौ श्रान्तमनाः प्राह-नाहमतः परं पूर्वपाठं कर्तुं 'आर्यरक्षित का अन्य उपाश्रय में रात्रि में ठहरने का क्या कारण है ' यह बात अच्छी तरह जानकर आर्यरक्षित से कहा भद्रगुप्ताचार्य ने जो कहा वह युक्त ही कहा है। बाद में आयरक्षित ने वज्रस्वामी से नव पूर्व का अध्ययन आनन्द से कर लिया। परन्तु दशम पूर्व के कितनेक अधिकार जब ये पढ़ रहे थे कि इतने में इनका छोटा भाई फल्गुरक्षित दशपुर से चिरविरहात माता आदि द्वारा प्रेरित होकर इन्हें बुलाने के लिये वहां आपहुँचा । आर्यरक्षित ने उसे समझाकर-प्रतिबोधितकरवहीं दीक्षा दिलवा दी। एक दिन की बात है कि आर्यरक्षित ने वज्रस्वामी से पूछा कि भगवन् ! दृष्टिवाद में दशमपूर्व, पढ़ने के लिये अब मेरा कितना बाकी रहा है । यह सुनकर वज्रस्वामी ने कहा कि वत्स ! दशम पूर्व तो समुद्र के समान है तुमने तो अभीतक उसको बिन्दुमात्र ही पढ़ा है । वज्रस्वामी की यह बात सुनकर इनका मन कुछ श्रान्त सा રોકવાનું શું કારણ છે” આ વાત સારી રીતે જાણીને આર્ય રક્ષિતને કહ્યું, ભદ્રગુણાચાર્યે જે કહ્યું છે, તે ચુંક્ત જ કહ્યું છે. બાદમાં આર્યરક્ષિતે વજસ્વામીથી નવ પૂર્વનું અધ્યયન આનંદથી શીખી લીધું. પરંતુ દશમા પૂર્વના કેટલાક અધિકાર જ્યારે તે શીખી રહ્યો હતો ત્યારે તે અરસામાં તેને નાનભાઈ ફત્રુરક્ષિત દશપુરથી પુત્રને વિરહ અનુભવતી માતા દ્વારા પ્રેરિત બની તેને બેલાવવા માટે ત્યાં આવી પહોંચે. આર્ય રક્ષિતે તેને સમજાવીને પ્રતિબંધિત કરી ત્યાંજ દીક્ષિત બનાવ્યું. એક દિવસની વાત છે કે, આર્ય રક્ષિતે વાસ્વામીને પૂછયું કે ભદંત દષ્ટીવાદમાં દસમું પૂર્વ પુરૂં થવા માટે હવે કેટલો સમય બાકી છે? આ સાંભળીને વાસ્વામીએ કહ્યું કે, વત્સ ! દશમું પૂર્વ તો સમુદ્ર સમાન છે, આમાંથી તે તે માત્ર હજુ બીંદુ જેટલું જ શીખેલ છે વજસ્વામીની આ વાત સાંભળીને તેનું મન કાંઈક ખિન્ન થઈ ગયું અને કહેવા उ०४६ ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #417 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६२ उत्तराध्ययन सूत्रे शक्नोमि । वज्रस्वामी तु दशमपूर्वस्य स्वस्मिन्नेवावस्थानं ज्ञात्वा मौनमवलम्ब्य स्थितः । आर्य रक्षितो वज्रस्वामिगुरोरनुज्ञया फल्गुरक्षितेन सह दशपुरनगरं समागतः । वज्रस्वामिना स्वायुरल्पं ज्ञात्वा तस्मै सुशिष्यायार्यरक्षिताय विहारसमये आचार्य - पदं प्रदत्तम् । अथार्यरक्षिताचार्यः स्वमातृभगिनीप्रमुखसांसारिकवर्ग प्रतिबोध्य प्रव्रज्यां ग्राहयामास । सोमदेवस्तु प्रतिबोधितोऽपि साधुवेषं नैव गृह्णाति, आर्यरक्षिताचार्यस्तं दीक्षाग्रहणार्थं बहुशः कथयति । ततस्तस्य पिता सोमदेवः प्राहवस्त्रयुग्मं, यज्ञोपवीतं, कमण्डलुं, छत्रं, पादुकां चापरित्यज्यैव मया दीक्षा ग्राह्या । हो गया और कहने लगे-भदन्त ! अब मैं इससे आगे पढ़ने के लिये समर्थ नहीं हूं । वज्रस्वामी दशमपूर्व "मेरे हृदय में ही अवस्थित रहेगा" ऐसा जानकर पश्चात् चुप हो गये । आर्यरक्षित वज्रस्वामी गुरु की आज्ञा से फल्गुरक्षित के साथ विहार करके दशपुर नगर को आये । वज्रस्वामी ने अपनी आयु अल्प जानकर उन सुशिष्य आर्यरक्षित के लिये विहार के समय में आचार्य पद दे दिया था । आचार्य आर्यरक्षित ने अपनी माता बहिन आदि सांसारिक जनों को प्रतिबोधित कर उन्हें दीक्षा से दीक्षित कर दिये । अपने संसारी पिता सोमदेव को भी समझाया पर उन्हों ने प्रतिबोधित होने पर भी दीक्षा धारण नहीं की । आचार्य आर्यरक्षित ने उनको अनेक बार बहुत २ भी कहा कि ' आप दीक्षा स्वीकार करलो ' परन्तु उन्हों ने साधुवेष अंगीकार नहीं किया। कहने लगे कि वस्त्रयुग्म, यज्ञोपवीत, कमण्डलु, छत्र एवं पादुका नहीं छोड़कर ही मैं दीक्षा ग्रहण લાગ્યા, ભદન્ત! હવે હું આનાથી આંગળ શીખી શકું તેમ નથી. વાસ્વામી દશમું પૂર્વ પેાતાના હૃદયમાં જ અવસ્થિત રહેશે તેવું જાણીને ચુપ રહ્યા. આર્ય - રક્ષિત વાસ્વામી ગુરુની આજ્ઞાથી ફલ્ગુરક્ષિતની સાથે વિહાર કરી દશપુર નગરમાં આવ્યા. વાસ્વામીએ પેાતાની આયુ અલ્પ જાણીને વિહાર કરવાના સમયે સુશિષ્ય આરક્ષિતને આચાય પદ્મ અપી દીધુ. આચાય આ રક્ષિતે પેાતાની માતા, બહેન, વગેરે સંસારી સંબધીઓને પ્રતિબેાધિત કરીને તેઓને દીક્ષા આપી દીક્ષિત કર્યા, પેાતાના સંસારિક પિતા સેામદેવને પણ સમજાવ્યા પશુ તેઓને પ્રતિધ કરવા છતાં પણ તેમણે દીક્ષા ગ્રહણ ન કરી. આચાય આ રક્ષિતે તેમને અનેકવાર ઘણું ઘણું કહ્યું કે, તમે દીક્ષા લઈ લે. પરંતુ તેઓએ સાધુવેશ न आये. इडेवा साज्या है, वस्त्रनी लेडी, यज्ञोपवित, उभंडण, गिर ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર ઃ ૧ Page #418 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रियदर्शिनी टीका अ० २ गा० १३ आचेलक्ये सोमदेवदृष्टान्तः ३६३ आर्यरक्षिताचार्येण स्वपितुवृद्धावस्थायां तारणबुद्धया पूर्वज्ञाने उपयोगं दत्त्वा तथैवासौ प्रवाजितः। ___ अन्यदा कदाचिद् गृहस्थवालकाः साधूनां वन्दनाथ तत्र मंडल्यां समागताः, आचार्यः क्वचिदन्यत्र तदानीं गतश्वासीत् , तत्र साधुभिरिङ्गितेन प्रतिबोधितास्ते बालका वदन्ति-इमं छत्रधरं मुक्त्वाऽन्यान् सर्वान् साधून वन्दामहे । इत्युक्त्वा ते बालका एकं छत्रधरं तं विहाय सर्वान् साधून वन्दन्ते । ततः सोमदेवमुनिः प्राह-एते मम पुत्रनपत्रादयः सर्वे युष्माभिवन्दिताः, अहं कस्मान वन्दितः? किं मया दीक्षान करूँगा। अपने पिता सोमदेव की यह बात सुनकर आर्यरक्षित आचार्य ने उन्हें वृद्धावस्था में तारण की भावना से पूर्वज्ञान में उपयोग देकर अपने आगमविहारी होनेसे उसीरूप से दीक्षित कर लिया। किसी एक समय की बात है कि गृहस्थों के बालक साधुओं को वंदना निमित्त वहां मंडली में आये । आचार्य आर्यरक्षित कहीं दूसरी जगह उस समय गये हुए थे। साधुओंके इशारे से प्रतिबोधित किये गये वे सब बालक कहने लगे कि-हम लोग इस छत्रधारी साधुको छोड़कर बाकी समस्त साधुओं को वंदना करते हैं। इस प्रकार कह कर वे सबके सब एक छत्रधारी मुनिको छोड़कर सबको वंदना करनेलगे। सोमदेव मुनिने जब यह बालकों का व्यवहार देखा तो बोले-क्यों बालको!-तुमने हमारे इन पुत्रों एवं नातियों को तो वंदना की पर मुझे वंदना क्यों नहीं की? क्या मैंने છત્ર, અને પાદુકા છોડયા શિવાયજ હું દીક્ષા ગ્રહણ કરીશ. પિતાના પિતા સેમવની આ વાત સાંભળીને આર્યરક્ષિત આચાર્યે તેમની વૃદ્ધાવસ્થામાં તારવાની ભાવનાથી પૂર્વજ્ઞાનનો ઉપયોગ આપી પોતાના આગમ વિહારી હોવાથી તેવા રૂપથી દીક્ષિત બનાવ્યા. કે એક સમયની વાત છે કે ગ્રહનાં બાળકે સાધુઓની વંદના નિમિત્તે સાથે મળીને આવ્યા. આચાર્ય એ સમયે કેઈ બીજી જગ્યાએ ગયા હતા. સાધુઓએ ઈશારાથી દરેકને વંદના કરવા માટે તે બાળકને કહ્યું. તે તે સઘળા બાળકે કહેવા લાગ્યા કે, અમે બધા આ છત્રધારી મુનિને છોડીને બાકી સમસ્ત સાધુઓને વંદના કરીએ છીએ એમ કહીને તે સઘળા બાળકે છત્રધારી મહારાજને છોડીને બીજા બધાને વંદના કરવા લાગ્યા. સોમદેવ મુનિએ બાળકને જ્યારે આ પ્રકારને વહેવાર જે તે બેલ્યા કે હે બાળકે ! તમે મારા આ પુત્ર તેમજ સંબંધીઓને વંદના કરી તે મને કેમ વંદના કરી ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #419 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६४ उत्तराध्ययनसूत्रे गृहीता ?, बालका ऊचुः-किं दीक्षिताच्छत्रधारिणः स्युः । एवमुक्त्वा गतेषु बालकेषु आर्यरक्षिताचार्यस्तत्र समायातः । तदाऽसौ सोमदेवमुनिस्तत्समीपमागत्य वदतिपुत्र ! बालका अपि मां हसन्ति, अलमनेन छत्रेण, इत्युक्त्वा तेन छत्रं परित्यक्तम् । एवमेकैकं क्रमेण परित्यजता तेन धौतिकवस्त्रमन्तरेण सर्व यज्ञोपवीतादिकं परित्य. क्तम् , बहुशस्तथा वन्दनाकरणैरुपहासादि प्रयोगैश्वापि स धौतिकं न मुञ्चति । मुनिदीक्षा धारण नहीं की है ? । बालकों ने उनकी इस बात को सुनकर शीघ्र ही निस्संकोच से उत्तर दिया कि जो मुनिदीक्षासे दीक्षित हुआ करते हैं क्या वे छत्रधारी होते हैं ?। बालक ऐसा कह कर चले गये इतने में ही वहां बाहर से आर्यरक्षित आचार्य आ पहुँचे । आचार्य को आये देखकर सोमदेव मुनि ने उनके पास जाकर कहा पुत्र! देखो तो सहीबालक भी मेरी हँसी मजाक करते हैं-कहते हैं कि मुनि कहीं छत्रधारी भी होते हैं । अतः इस छत्र की मुझे अब जरूरत नहीं है। ऐसा कहकर सोमदेव ने छत्रका परित्याग कर दिया। इसी तरह क्रमशः और भी गृहीत वस्तुओंसे अपनी मुनि अवस्था में हँसी होती हुई जानकर उन्होंने धोतीजोडे के सिवाय अन्य समस्त जनेऊ आदि वस्तुओं का परित्याग कर दिया। यद्यपि धोती के रखने से लोग उनका उपहास भी करते थे तो भी वे उसे नहीं छोड़ सके। નહીં? શું મેં મુનિદીક્ષા ધારણ નથી કરી ? બાળકેએ તેની આ વાત સાંભળીને તરત જ નિસંકેચથી જવાબ દીધો કે, જે મુનિદીક્ષા લે છે તેઓ છત્રધારી હોય છે ખરા? બાળકે આ પ્રમાણે કહીને ચાલ્યાં ગયાં એવા સમયે બહાર ગયેલા આર્યરક્ષિત આચાર્ય આવી પહોંચ્યા. આચાર્યને આવેલા જોઈને મદેવ મુનિએ તેમની પાસે જઈને કહ્યું. પુત્ર જુઓ તે ખરા ! બાળક પણ મારી હાંસી મજાક કરે છે. કહે છે કે, મુનિ કયાંય છત્રધારી હોય છે ખરા! આથી આ છત્રની હવે મને જરૂરત નથી એમ કહીને સમદેવે તે છત્રને પરિત્યાગ કરી દીધું. આ પ્રમાણે કેમે ક્રમે તેમણે ગ્રહણ કરેલી વસ્તુઓથી પિતાની મુનિ અવસ્થામાં હાંસી થતી જાણીને તેમણે જોતી જેટ સિવાય બીજી સમસ્ત જઈ આદિ વસ્તુઓને પરિત્યાગ કરી દીધું. એમ છતાં પણ છેતીના રાખવાથી કે તેમને ઉપહાસ કરતા હતા. છતાં પણ તેઓ તેને छोरी या नहीं ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #420 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रियदर्शिनी टोका अ०२ गा. १३ आचेलक्ये सोमदेवदृष्टान्तः अन्यदा कदाचिदेकः साधुरनशनतपश्चरणेन स्वर्गं गतः । तत आर्यरक्षिताचार्येण तस्य सोमदेवमुनेधतिकपरित्याजनार्थं साधवोऽभिहिताः - य एनं साधुमृतकं स्कन्धेन वहति तस्य महती निर्जरा भवति । तदनन्तरं स सोमदेवमुनिर्वदति - पुत्र ! अत्र निर्जरा भवति किम् । आर्यरक्षिताचार्य आह - सत्यम्, ततः स वदति - अहं हामि । आचार्यः प्राह - अत्रोपसर्गा बहवो जायन्ते, कतिचिद् बालकास्तस्य संलग्ना भवन्ति, तत्र तूष्णीभाव आश्रयणीयः, कोपो न करणीयः, स्वीकृतकार्य सर्वथा संपादनीयम्, यदि सकला उपसर्गाः शक्यन्ते सोढुम्, तदा श्रेयः, अन्यथाऽस्माकम ३६५ कोई एक दिन की बात है कि एक साधु अनशन से कालधर्म पाये । आर्यरक्षित आचार्य ने सोमदेव मुनि की धोती छुड़ाने के अभिप्राय से साधुओं से कहा कि जो इस मृतक साधु को अपने कंधे पर आरोपिन कर ले जायगा उसके लिये महान् निर्जरा होगी। यह बात सुनकर सामदेव मुनि ने कहा कि पुत्र ! क्या इस कार्य के करने में निर्जरा होती है ? । आचार्य ने कहा- हां होती है। सोमदेव ने कहा तो इसे कंधे पर रखकर मैं ले जाऊँगा । आचार्य ने कहा कि देखो - ऐसा करने में बहुत विघ्न आते हैं- कितनेक बालक देखते ही उसके पीछे लग जाते हैं, हँसी उड़ाते हैं सो उसमें शांतिभाव रखना पडता है। क्रोध नहीं करना पड़ता है । तथा जिस कार्य को करने का आरंभ किया जाता है उसे अन्ततक निभाना पड़ता है । यदि इन सब विघ्नों को सहन करने के लिये अपने को शक्तिशाली समझते हो तो ही इसमें श्रेय है अन्यथा हमसब लोंगों का એક વખતે એક સાધુ અનશનથી કાળધર્મ પામ્યા, આરક્ષિત આચાયે સામદેવ મુનિને ચૈતી છેાડાવવાના ભાવથી સાધુઓને કહ્યુ કે, જે કઈ આ મૃત્યુ પામેલા સાધુને પેાતાની કાંધ ઉપર લઈને જશે તેમના માટે મહાન નિરા થશે. આ વાત સાંભળીને સામદેવ મુનિએ કહ્યુ કે હે પુત્ર! શું આ કાર્ય કરવામાં નિર્જરા થાય છે? આચાયે કહ્યું કે, હા! થાય છે. સામદેવે કહ્યું हैं, तो हु' येने अंध उपर उपाडीने व शि. सायायें उछु है, लुग्यो ! આમ કરવામાં બહુ વિઘ્ન આવે છે. કેટલાક બાળકો દેખતાં જ તેમની પાછળ પડે છે, હસી ઉડાવે છે, તે આમાં શાન્તી ભાવ રાખવા પડે છે. ક્રોધ આવવા ન જોઈ એ તથા જે કાર્ય કરવાના આરંભ કર્યાં છે તેને અન્ત સુધી નભાવવું પડે છે. જો આ બધા વિઘ્નાને સહન કરવા માટે આપ આપને શક્તિશાળી માનતા હૈ। તા જ તેમાં શ્રેય છે. નહિંતર અમારા સઘળા લેાકેાનું તેમાં અનિષ્ટ ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર ઃ ૧ Page #421 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययनसूत्रे शुभं भविष्यति। एवं प्रवर्तितोऽसौ मृतकं साधुं स्कन्धे समारोप्य साधुभिः सह वहति ।मार्गे मृतकं वहतस्तस्य धौतिकं बालकैराचार्यसंकेति तैराकर्षितम् । स लज्जावशात्तं मृतकं स्कन्धादवतारयति तावदन्यैः साधुभिरुक्तम्-मा मुश्च, मा मुञ्च, तदा तस्य कट्यां केनचित्साधुना स्वसार्धमानीतश्चोलपट्टको बद्धः, स तु लज्जया तं शवं वहन् निर्जने वने प्रासुकस्थण्डिले तं व्युत्सृज्याचार्यसमीपमागतो ब्रूते-हे इसमें अनिष्ट हो जायगा। इस प्रकार समझाने पर जब सोमदेव संभल गये तो उन्हों ने उस शव को उठाकर अपने कंधे पर रख लिया और साधुओं के साथ चले। मार्ग में मृतकसाधु को वहन किये हुए सोमदेव को देखकर बालकों ने उनकी आचार्यआर्यरक्षित के संकेत करने पर धोती खींच लो। अपनी धोती उतारी हुई देखकर उन्हें नग्न होने की वजह से बडी लज्जा का अनुभव होने लगा। उन्हों ने चाहा कि इस मृतकसाधु के शव को कंधे से नीचे उतार कर बालकों से अपनी धोती छुडा ली जाय। ज्यों ही वे ऐसा करने को उद्यत हुए कि इतने में ही साधुओं ने कहना प्रारंभ कर दिया कि इसे नीचे मत उतारो मत उतारो। और इसी के भीतर ही किसी साधु ने जो चोलपट्टा उनके पहिराने के लिये पहिले से साथ ले आया था उन्हें पहिरा दिया। लज्जा से उस साधु के शव को वहन करते हुए सोमदेव ने निर्जन वन में उस शव को प्रासुक भूमि पर उतार दिया, और आचार्य महाराज के થઈ જશે. આ પ્રમાણે સમજાવવાથી જ્યારે સેમદેવ સમજી ગયા ત્યારે તેમણે તે શબને ઉઠાવી પિતાની કાંધ ઉપર રાખી લીધું અને સાધુઓની સાથે ચાલ્યા. માર્ગમાં મરેલા સાધુને ઉપાડી જતા સમદેવને જોઈને બાળકોએ આચાર્ય આર્ય રક્ષિતના ઈસારાથી તેમની છેતી ખેંચી લીધી. પિતાની ધોતી નીકળી ગયેલી જાણીને તેમને નગ્ન થવાના કારણે ઘણુ લજજાને અનુભવ થવા લાગ્યો. તેઓએ ઈચ્છયું કે, આ મરેલા સાધુના શબને કાંધથી નીચે ઉતારી બાળક પાસેથી મારી ધોતી છોડાવી લઉં જ્યાં તેઓ એવું કરવાને ઉદ્યત બન્યા એટલામાં જ સાધુઓએ કહેવાને પ્રારંભ કર્યો કે, તેને નીચે ન ઉતારે એક તરફથી આમ કહેવાયું એ જ વખતે એ સાધુઓમાંથી એક સાધુએ ચલપટ્ટો તેને પહેરાવવા માટે અગાઉથી જ સાથે રાખેલ તે પહેરાવી દીધા. લજજાથી એ સાધુના શબને વહન કરતાં સમદેવે નિર્જન વનમાં એ શબને માસુક ભૂમિ ઉપર ઉતારી દીધું અને આચાર્ય મહારાજની સમીપ આવીને ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #422 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रियदर्शिनी टीका. अ० २ गा. १३ आचेलक्ये सोमदेवदृष्टान्तः पुत्र ! अध महानुपसर्गों जातः, तथापि सर्व कार्य भवत्कथनानुसारेण मया सम्पादितम् । आचार्योऽन्यं मुनि प्रति प्राह-धौतिकमानीयास्मै दीयताम् तदा स वृद्धोऽवदत्-इदानीमलं धौतिकवस्त्रेण, यद् द्रष्टव्यं तद् दृष्टमेव, अतः परमयं चौलपट्टक एव मम देहे तिष्ठतु । अधप्रभृति नवीनवसनं नैव परिधास्यामि, अन्यसाधुव्यापृ. तमेव वस्त्रं ग्रहीष्याम, एकेनैव प्रावरणेन, एके नैव चोलपट्टकेन संयमयात्रा निर्वाहं करिष्यामि । एवमेवासौ विहरनवीनवस्त्रानाकाङ्क्षया द्वितीयमावरणचोलपट्टानाकाझ्या च जीर्णशीर्णवस्त्रहेतुकदैन्यायकरणेन चाचैलपरीषहं सहते स्म । एकदासमीप आकर कहने लगे-हे पुत्र ! आज बड़ा भारी उपसर्ग उपस्थित तो हुआ था, परन्तु आपके कथनानुसार मैंने सब कार्य यथावस्थित संपादित कर दिया है। आचार्य ने उसी समय एक मुनि से कहा किधोती लाकर इन्हें दे दो। आचार्य महाराज की बात सुनकर सोमदेव ने कहा कि अब धोती से बस करो। इसकी अब आवश्यकता नहीं रही है। जो कुछ देखना था वह देख लिया है, इस लिये यह चौलपट्टा ही अब मेरे शरीर पर रहे यही भावना है, तथा मैं आज से नवीन वस्त्र नहीं पहिरूँगा, तथा अन्य साधुओं द्वारा उपभुक्त वस्त्र ही ग्रहण करूँगा, एक ही प्रावरण से एक ही चोलपट्टक से संयम यात्रा का निर्वाह करूँगा। इस प्रकार सोमदेव मुनि विहार करते हुए नवीन वस्त्र की अनाकांक्षासे तथा द्वितीय प्रावरण (चादर) एवं द्वितीय चोलपट्टक की अनिच्छा से जीर्णशीर्णवस्त्र हेतुक दीनता के नहीं करने से अचेलपरीषह को सहते કહેવા લાગ્યા હે પુત્ર! આજ ઘણે ભારે ઉપસર્ગ ઉપસ્થિત થયે હતું, પરંતુ તમારા કથન અનુસાર મેં સઘળું કાર્ય યથાવસ્થિત સંપૂર્ણ કરેલ છે. આચાર્ય એજ વખતે એક મુનિને કહ્યું કે, છેતી લાવીને આમને આપી દે. આચાર્ય મહારાજની વાત સાંભળીને સોમદેવે કહ્યું કે, હવે છેતીથી બસ કરે. મારે હવે તેની આવશક્યતા નથી. જે કાંઈ જેવું હતું તે જોઈ લીધું છે. જેથી આ ચેલપટ્ટોજ મારા શરીર ઉપર રહે એજ ભાવના છે. તથા હું આજથી નવીન વસ્ત્ર પહેરવાનું નથી. અને બીજા સાધુઓ દ્વારા વપરાયેલા વસ્ત્રોને હું અંગિકાર કરીશ. એક જ પ્રાવરણથી, એક જ ચલપટ્ટાથી સંયમ યાત્રાને નિર્વાહ કરીશ. આ પ્રકારે સેમદેવ મુનિ વિહાર કરતા કરતા નવા વસ્ત્રોની આકાંક્ષા વગર તથા બીજા પ્રાવરણ ચાદર અને બીજા ચોલપટ્ટાની અનિચ્છાથી જીર્ણ શીર્ણ વસ્ત્રથી દિનતા ન બતાવતા અચેલપરીષહ સહન કરતા રહ્યા. એક ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #423 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६८ उत्तराध्ययन सूत्रे ऽतिशयितं हिमं समापतितम् तथाप्येकमात्रं प्रावरणमसौ दधाति न तु द्वितीयवस्त्रं गृह्णाति तस्मिन्नेव जीर्णशीर्णे प्रावरणे प्रोत्साहसम्पन्नेन मनसाऽचेलपरीषदं सहमानः समाधिभावेन कालधर्म प्राप्य देवलोकं गतः । एवं तेन यथा-अवेलपरीषहः सोढस्तथैवान्यैरपि साधुभिः सर्वदाऽवेलपरीषहः सोढव्य एव ॥ १३ ॥ अचेलकस्य शीतादिभिः स्पृष्टस्यारतिः स्यात्, अतस्तत्परीषहजयं प्राहमूलम् — गामाशुगामं रीयंत, अणगारं अकिंचणं । -- अई अणुष्पवेसेज्जा, "तं तितिक्खे परीसहं ॥१४॥ छाया - ग्रामानुग्रामं रीयमाणम्, अनगारम् अकिञ्चनम् । अरति: अनुप्रविशेत्, तं तितिक्षेत परीषहम् ॥ १४ ॥ टीका- 'गामाणुगामं ' इत्यादि । , ग्रामानुग्रामम्-ग्रामम् अनु, ग्रामात् पश्चात्, ग्रामानन्तरवर्ती यो ग्रामः स रहे । एक दिन की बात है कि शीतकाल में अत्यन्त हिम गिरा तौ भी इन्हों ने द्वितीय प्रावरण धारण करने की स्वप्न में भी इच्छा नहीं की किन्तु एक ही प्रावरण से उस हिम का सामना किया। जीर्ण शीर्ण उस प्रावरण में ही प्रोत्साह संपन्न चित्त से अचेलपरीषह को सहन करते हुए उन सोमदेव महात्माने समाधिभाव से कालधर्म पाकर देवलोक को प्राप्त किया । इस कथा के कहने का केवल एक यही प्रयोजन है कि देखो सोमदेव मुनिराज ने पहिले अचेलपरीषह नहीं सहा, पश्चात् प्रतिबोधित होने पर उस परीषहको अधिक प्रोत्साह के साथ सहन किया । इस तरह अन्य साधुओं को भी अचेलपरीषह सहन करना चाहिये ॥ १३ ॥ દિવસની વાત છે કે, ઠંડીના સમયે અત્યંત હિમ પડયું. તે પણ તેએએ ખીજું પ્રાવરણ કરવાની સ્વપ્નમાં પણ ઇચ્છા ન કરી. પરંતુ એક જ પ્રાવરણમાંજ ઉત્સાહ સંપન્ન ચિત્તથી અચેલ પરીષહુને સહન કરીને તે સેામદેવ મહાત્માએ સમાધી ભાવથી કાળધમ પામી દેવલેાક ને પ્રાપ્ત કર્યાં. આ કથા કહેવાનું કેવળ એક જ પ્રયેાજન છે કે, જુએ, સામદેવ મુનિએ પહેલાં અચેલપરીષહુ ન સહ્યો પાછળથી પ્રતિખાધ પામતાં તેમણે એ પરીષહને અધિક ઉત્સાહથી સહન કર્યો. અન્ય સાધુઓએ પણ એમની માક અચેલપરીષહ સહન કરવા જોઈએ (૧૩) ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર ઃ ૧ Page #424 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रियदर्शिनी टीका. अ० २ गा० १४ अरतिपरीषहजयः ग्रामानुग्रामस्तम् । नगराद्युपलक्षणमेतत्, नगरादिकं चेत्यर्थः । रीयमाणं-विहरमाणम्, अकिञ्चनं= निष्परिग्रहम्, अनगारं मुनिम् अरतिः - संयमविषयिकाऽधृतिः मोहनीयकर्मोदयजनिता संयमारुचिरूपाऽऽत्मपरिणतिः अनुप्रविशेत्-प्रविष्टा भवेत् - मुनेर्मनसि प्राप्ता भवेत् तम् = अरतिरूपं परीषदं तितिक्षेत अरतिरूपस्य मनः परिणामस्य कटुकफलं चिक्कणकर्मबन्धनं चतुर्गतिकसंसारपरिभ्रमणं च विज्ञाय मनसस्तन्निराकरणेन सहेत ॥ 9 अचेलक के शीत आदि द्वारा सताये जाने पर अरति भी हो सकती है इसलिये सातवें अरतिपरीषह को सहने के लिये सूत्रकार कहते हैं । 'गामाशुगामं ' इत्यादि अन्वयार्थ - (गामाणुगामं रीयतं ग्रामानुग्रामं रीयमाणम्) एक गाँव से दूसरे गाँव तथा उपलक्षण से एक नगर से दूसरे नगर विहार करते हुए तथा (अकिंचणं - अकिञ्चनम् ) अकिञ्चन - परिग्रहरहित ऐसे ( अणगारंअनगारम् ) मुनि को (अरई अणुप्पवेसेज्जा- अरति: अनुप्रविशेत् ) यदि अरति - संयम में अरुचि अर्थात् मोहनीय कर्म के उदय से होनेवाली जो संयमअरुचिरूप आत्मपरिणति, तथा संयम में अधृति जाग्रत हो जावे तो मुनि का कर्तव्य है कि वह (तं परीषदं तितिक्खे-तं परीषदं तितिक्षेत्र) उस परीषह को शांति के साथ सहन करे । " अरतिरूप इस मानसिक परिणति का फल चिक्कणकर्मबन्धरूप है और उससे जीव का ३६९ અચેલકમુનીને શીતઆદિ સતાવે ત્યારે અરતિ પણ થવાને સંભવ છે તેથી છમા અતિપરીષહુને સહન કરવા માટે સૂત્રકાર કહે છે. 'गामाणुगाम' ' , इत्यादि. 6 मन्वयार्थ - गामाणुगामं रोयतं - प्रामानुग्रामं रीयमाणम् भेड गाभथी मील गाभ तथा उपलक्षणुथी थे! नगरथी मीलनगर विहार ४२ता अकिंचणं - अकिचनम् तथा अडियन-परियड रडित मेवा अणगार - अनगारम् भुनिने उहाथ अरई अणुष्पवेसेज्जा- अरति अनुप्रविशेत् रति-संयममां अ३थि अर्थात् मोडनीय हुना ઉદ્દયથી થનારી જે સંયમ અરૂચિ રૂપ આત્મપરિણતિ-તથા સંયમમાં અધૃતિ, જાગૃતિ लय तो भुनिनु उर्तव्य छे हैं, ते भुनी तं परिसह तितिक्खे - तं परीषहं तितिक्षेत એ પરિષદ્ધને શાન્તીની સાથે સહન કરે “ અરતિ રૂપ આ માનસિક પરિણતિનુ કુળ ચિકણા કર્માંબધ રૂપ છે. અને તેનાથી જીવનું' ચતુતિરૂપે સ ંસારમાં उ० ४७ ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર ઃ ૧ Page #425 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययनसूत्रे 'गामानुगामं रीयंतं ' इत्यनेन रागादिनिवृत्तिः सूचिता। 'अकिंचणं ' इत्यनेन ममत्वरहितत्वं प्रवेदितम् । 'अरईअणुप्पवेसेज्जा' इत्यनेन शब्दादिविषयाणां प्रबलता प्रदर्शिता । 'तितिक्खे' इत्यनेनानगारस्य परीषहसहिष्णुता मुचिता ॥ १४ ॥ उक्तमर्थं द्रढयन्नाहमूलम्-अरंइं पिट्ठओ किंचा, विरओ आयरैक्खिए । धम्मारामे निरारंभे, उर्वसंते, मुंणी चरे ॥१५॥ छाया-अरति पृष्ठतः कृत्वा, विरतः आत्मरक्षितः। धर्मारामे निरारम्भः, उपशान्तः मुनिश्चरेत् ।। १५॥ टीका-'अरई' इत्यादि। विरतः हिंसादिभ्यो निवृत्तः, आत्मरक्षितः-आत्मा रक्षितः नरकनिगोदादिचतुर्गतिक संसार में परिभ्रमण होता है" यह समझकर इस संयम विषयक अरति को साधु मनसे भी हटाते रहे। सूत्रकार ने “ग्रामानुग्रामं” इस पद से रागादिक की निवृत्ति सूचित की है। " अकिंचणं" इस पद से मुनि को ममत्वरहित प्रदर्शित किया है ॥ " अरई अणुप्पवेसेज्जा" इस पद से शब्दादिक विषयों की प्रबलता प्रकट की है। “तितिक्खे" इससे 'अणगार को परीषह सहिष्णु होना चाहिये' यह कहा है ॥ १४ ॥ इसी अर्थ को दृढ करते हुए सूत्रकार कहते हैं-' अरइं पिट्ठओ' इत्यादि। अन्वयार्थ-(विरओ-विरतः) हिंसादिक पापोंसे विरक्त तथा (आयरखिए-आत्मरक्षितः) नरकनिगोदादिकके दुःखोंके जनक अशुभ ध्यानसे પરિભ્રમણ થાય છે. એવું સમજીને આ સંયમ વિષયક અરતિને સાધુએ મનથી પણ હટાવવી જોઈએ. સૂત્રકારે પ્રામાનુબ આ પદથી રાગાદિકની નિવૃત્તિ સૂચિત કરેલ છે. अकिंचणं-मा ५४थी मुनिन ममत्व २डित प्रहशित ४२८ छ. अरईअणुप्पवेसेज्जा २॥ ५४थी श६ विषयानी प्रणता प्रगट ४२० छ. "तितिक्खे" આથી અણગારે પરીષહ સહિષ્ણુ બનવું જોઈએ તેમ કહ્યું છે. ૧૪ ॥ मथन द्र० ४२ता सूत्रा२ ४९ छे. अरईपिओ त्याहि. म-qयार्थ-विरओ-विरतः डिसा पापाथी वि२४ तथा आयरक्खिए-आत्मरक्षितः न२४निगोहानि:सन सेवा मशुम ध्यानथी याताना मात्मानी रक्षा ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #426 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७१ प्रियदर्शिनी टीका अ० २ गा. १५ अरतिपरीषहजयः दुःखजनकादशुभध्यानाद् येन स तथा, यद्वा-आयरक्षित इतिच्छाया, आयःरत्नत्रयस्य लाभः, रक्षितो येन स तथेत्यर्थः । निरारम्भः सावधक्रियावर्जितः, तथा उपशान्तः क्रोधादिकषायोपशमाद् मनोवाकायविकारवर्जितः मुनिः, अरतिं पृष्ठतः कृत्वा-इयं धर्मविराधिकेति मत्वा परित्यज्य धर्माराम चरेत् , इत्यग्रेण सम्बन्धः । ___ अरतिर्हि धूलिरिवात्मानं मलिनयति, जलदपटलावलीसंकुला गाढतिमिरपरिव्याप्ता रजनीव विवेकं संहरति, अविवेकं वर्धयति, वज्रमिव ज्ञानादिगुणानुपघातयति, अविवेकिजनमनःकानननिवासिनी कृष्णसर्पिणीव छिद्रान्वेषणपरा मुनीनां अपनी आत्मा की रक्षा करने वाला अथवा "आयरक्षितः" रत्नत्रयलाभरूप आय-आवक की रक्षा करने वाला-संभाल रखनेवाला, तथा (निरारंभे-निरारंभः) सावध क्रिया के सेवन से वर्जित, तथा (उवसंते -उपशांतः) क्रोधादिक कषाय के उपशम से मन वचन एवं काय संबंधी विकारों से रहित (मुणी-मुनिः) साधु (अरई पिट्ठओ किच्चाअरतिं पृष्ठतः कृत्वा) अरति का परित्याग कर (धम्मारामे-धर्मारामे ) धर्मरूपी उद्यान में (चरे-चरेत्) सदा लवलीन रहे-उस में सर्वदा विचरता रहे। यह अरतिभाव धूली की तरह आत्मा को मलिन करता है। बादलों के समूह से संकुल एवं गाढ अन्धकार से व्याप्त रात्री के समान यह विवेकरूपी सूर्य को आच्छादित करदेता है, एवं अविवेकरूपी अन्धकार की वृद्धि करता है । वज्र की तरह ज्ञानादिक गुणरूप पर्वत का भेदन करता है । यह अरतिभाव अविवेकी जन के मनरूप ४२वावा अथवा "आयरक्षितः” रत्नत्रय साम३५ माय-मानी २१॥ ४२१।. १-समा रामवाण निरारंभे-निरारंभः तथा सावधयाना सेवनयी १ळत उवसंते-उपशांतः लोपाहि ४ायना अ५शमथी मन पयन मने 4 संधी विरोथी २हित मुणी-मुनिः साधु अरइपिओ किच्चा-अरति प्रष्ठतः कृत्वा अतिन! त्या ४२री धम्मारामे-धर्मारामेधर्मपी धानमा चरे-चरेत् એમાં સદા વિચરતા રહે. આ અરતિભાવ ધુળની માફક આત્માને મલીન કરે છે. વાદળના સમૂહથી છવાયેલ અને ગાઢ અંધકારથી વ્યાપ્ત રાત્રિના સમાન એ વિવેકરૂપી સૂર્યને આચ્છાદિત કરે છે, અને અવિવેકરૂપી અંધકારની વૃદ્ધિ કરે છે. વજની માફક જ્ઞાનાદિક ગુણરૂપ પર્વતનું ભેદન કરે છે. આ અરતિભાવ અવિવેકી માણસના ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #427 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७२ ___ उत्तराध्ययनसूत्रे संयमप्राणानपहरति, कुठार इव श्रुतचारित्रधर्मतरून समुच्छेदयति, कुपथ्याहार इव कर्मव्याधिं वर्धयति । एवं विचिन्त्य धर्मारामे-धर्भ एव निरन्तरानन्दहेतुतया प्रतिपाल्यतया चारामः धर्मारामः, यद्वा-धर्म आराम इव कर्मसंतापोपतप्तानां जन्तूनां निर्वृतिहेतुतया स्वाभिलषितफलपदानतश्चेति धर्मारामः, यत्र सम्यक्त्वं भूमिः, वन में विहार करने वाला है, कृष्णसर्प की तरह छिद्रान्वेषण में तत्पर रहता है, एवं मुनियों के संयमरूपी प्राणों का हरण करने वाला है। कुठार की तरह श्रुतचारित्ररूपी वृक्ष को यह मूलसे उच्छेदन करता है। कुपथ्य आहार की तरह कर्मबन्धरूपी व्याधिको बढाने वाला है । इस प्रकार विचार करके साधु को इस धर्मरूपी उद्यान में विचरण करते रहना चाहिये । उद्यान जिस प्रकार अपने में विचरण करने वालों को आनंद का हेतु होता है, उसी प्रकार यह धर्म भी अपने आराधकों को आनन्द का कारण होता है, तथा उद्यान जिस प्रकार प्रतिपाल्य-रक्षण करने के योग्य होता है उसी प्रकार जीवन को सुन्दर बनाने वाला होने से धर्म भी प्रतिपाल्य-करने योग्य होता है । अथवा धूप से संतप्त प्राणियों के लिये उद्यान जिस प्रकार शीतलता प्रदान करता है उसी प्रकार कर्मरूपी आताप के संताप से संतप्त प्राणियों को शांति का हेतु होने से एवं अभिलषित फल का देनेवाला होने से धर्म भी एक उत्तम उद्यान के समान यहां प्रकट किया गया है । इस उद्यान મનરૂપી વનમાં વિહાર કરનાર છે. કાળા સાપની માફક ડંશ દેવામાં તત્પર રહે છે, અને મુનિના સંયમરૂપી પ્રાણેનું હરણ કરનાર છે. કુહાડારૂપે શ્રત ચાસ્ત્રિરૂપી વૃક્ષનું એ મૂળસાથે ઉછેદન કરે છે, કુપથ્ય આહારની માફક કર્મ બંધરૂપી વ્યાધિને વધારનાર છે. આ પ્રમાણે વિચાર કરીને સાધુએ ધર્મરૂપી ઉદ્યાનમાં વિચરણ કરતા રહેવું જોઈએ. ઉદ્યાન જેમ તેની અંદર ફરનારાઓને આનંદ આપવાવાળું છે તે જ પ્રમાણે ધર્મ પણ પિતાના આધારરૂપ સાધુ માટે આનંદનું કારણ હોય છે. તથા ઉદ્યાન જેમ પ્રતિપાલ્ય-રક્ષણ કરવાને ગ્ય છે તે જ પ્રમાણે જીવનને સુંદર બનાવવાળા ધર્મને પણ પ્રતિપાલ્ય-પાલન કરવાને યોગ્ય છે. અથવા ધૂપથી સંતપ્ત બનેલા પ્રાણીને ઉદ્યાન જેમ શીતળતા આપે છે તે જ પ્રમાણે કર્મરૂપી આ તાપથી સંતપ્ત થયેલા પ્રાણીઓને માટે શાંતિને હેતુ હોવાથી અભિલષિત ફળને દેનાર ધર્મને એક ઉદ્યાન રૂપથી અહિં બતાવવામાં આવેલ છે. આ ઉદ્યાનમાં સમ્યકત્વ ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #428 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रियदर्शिनी टीका अ० २ गा. १५ अरतिपरीषहजयः ३७३ गुप्तिरालवालः, समितिः पाली, क्षान्त्यादयो धर्मा एव वृक्षाः, विनयस्तेषां मूळम् भावना सलिलम्, श्रुतमेव स्कन्धः धर्मशुक्लध्यानरूपाः शाखाः, ध्यानभेदाः प्रशाखाः, योगसंग्रहाः पत्राणि, ज्ञानादिगुणाः पुष्पाणि, स्वर्गापवर्गप्राप्तिः फळम्, तद्गतं सुखं रसः, तस्मिन् धर्मारामे चरेत् = विचरेत्, अरतिं निराकृत्य स्वाध्यायध्यानेषु परायणो भवेदित्यर्थः ॥ 6 'अरई पिट्ठओ किच्चा' इत्यनेन मुनेरात्मबलसंपन्नत्वं सूचितम् । 'विरए' इत्यनेन मुनेर्वैराग्यदशा प्रदर्शिता । में सम्यक्त्व तो भूमि है, गुतियां क्यारियां हैं, समितियां ही पालियां हैं, क्षान्त्यादिक धर्म वृक्ष है, एवं उन वृक्षों का मूल विनय है । भावनारूपी जल से वे सदा हरे-भरे रहते हैं । श्रुतज्ञान उनका विस्तृत स्कंध है । धर्मध्यान एवं शुक्लध्यान उनकी शाखाएँ हैं, ध्यान के भेद उनकी प्रशाखाएँ हैं । बत्तीस योगसंग्रह उनके पत्र, ज्ञानादिकगुण उनके पुष्प, स्वर्ग एवं मोक्ष की प्राप्ति उनके फल, स्वर्गमोक्षसंबंधी सुख ही उनका रस है । इतने मनोहर इस धर्मरूपी उद्यान में साधु का कर्तव्य है कि वह अरति को दूर कर विचरण करता रहे। स्वाध्याय एवं शुभध्यान में सदा आत्मपरिणति को लगाता रहे । 'अरहं पिओ किया' इस पद से यह सूचित किया गया है कि मुनि को आत्मबल से युक्त होना चाहिये । “विरए " इस पद से यह ज्ञात होता है, कि मुनि में इस प्रकार के बल की जागृति विना वैराग्य दशा के नहीं हो सकती है, अतः वैराग्यदशा दृढ बनानी चाहिये । તે ભૂમિ છે. ગુપ્તિયેા કચારા છે, સમિતિ પાળા છે, ક્ષાન્ત્યાદિક ધર્મવૃક્ષ છે, અને એ વૃક્ષોનું મૂળ વિનય છે, ભાવનારૂપ જળથી તે સદાય હર્યોભર્યો રહે છે. શ્રુતજ્ઞાન એના વિશાળ સ્કંધ છે, ધર્મ ધ્યાન તેમજ શુક્લધ્યાન એની શાખાએ છે, ધ્યાનના ભેદ એની પ્રશાખાઓ છે, ૩ર યોગ સંગ્રહ તેના પાન, જ્ઞાનાર્દિક ગુણુ તેનાં પુષ્પ, સ્વર્ગ અને મેાક્ષની પ્રાપ્તિ એનાં ફળ સ્વગ માક્ષ સંબંધિ સુખ તે એના રસ છે, આવા મનહર ધર્મરૂપી માગમાં સાધુનું એ કવ્યુ છે કે તેએ અતિને દુર કરી વિચરણ કરતા રહે. સ્વાધ્યાય અને શુભ ધ્યાનમાં પેાતાના આત્માપરિણતી ને લગાવતા રહે. अरई पिट्ठओ किच्चा - मा पहथी मे सूचित वामां आवे छे है, भुनिये आत्भमणथी युक्त रहेवु लेध्यो “ विरए" मा युद्धथी भुनियां अजनी लगृती વિના વૈરાગ્યદશા આવી શકતી નથી. આથી વૈરાગ્યદશા દૃઢ બનાવવી જોઈ એ. ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર ઃ ૧ Page #429 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७४ उत्तराध्ययनसूत्रे 'आयरक्खिए' इत्यनेन मुनेरास्रवनिरोधः प्रदर्शितः । 'निरारंभे' इत्यनेन मुनेररतिपरीषहविजययोग्यता मूचिता। 'उवसंते' इत्यनेन कषायनिग्रहित्वं सूचितम् ।। 'मुणी' इत्यनेन प्रवचनरहस्यमननशीलत्वं प्रतिबोधितम् । 'धम्मारामे ' इत्यनेन संयमस्य रमणस्थानत्वं सूचितम् । 'चरे' इत्यनेन मुनेः संयमविषये प्रमादवर्जितत्वं प्रवेदितम् । " आयरक्खिए" इससे यह सूचित किया है कि मुनि को आस्रव का निरोध करते रहना चाहिये। “निरारंभे" पद से यह ज्ञात होता है कि अरतिपरीषह को जीतने की योग्यता विना मुनिअवस्था आती नहीं है, क्यों कि उसी अवस्था में निरारंभता रहती है। " उवसंते" पद से यह सूचित होता है कि विना कषाय के निग्रह हुए आत्मा में मुनिव्रत पालने की योग्यता नहीं आती है, अतः कषाय का निग्रह अवश्य करना चाहिये । 'मुणी' पद से कषाय का निग्रह करने वाला तभी हो सकता है कि जब वह प्रवचन के रहस्य का मनन करने वाला होता है। विना ऐसा किये आत्मा कषायों का निग्रह नहीं कर सकता है । "धम्मारामे" इससे यह सूचित किया गया है कि कषायों का निग्रह करने का वही आत्मा परिणामशाली होगा-जो संयम में रमण करने की भावना रखता होगा, इसके विना नहीं। इसी लिये संयम को रमण का स्थान बतलाया गया है। "चरे" इस क्रियापद से मुनि को संयम के विषय में प्रमादरहित होना चाहिये यह बतलाया गया है। કચરિંતુ આ પદથી એમ સૂચિત કરવામાં આવ્યું છે કે, આમ્રવને નિરોધ કરીને રહેવું જોઈએ નિરામે આ પદથી અરતિ પરીષહને જીતવાની યોગ્યતા પ્રાપ્ત કર્યા સિવાય મુનિ અવસ્થા આવતી નથી. કારણ કે, આ અવસ્થામાં નિરા मता २२ छ. उवस ते मा ५४थी सूयित थाय छ, पायना निड या સિવાય આત્મામાં મુનિવ્રત પાળવાની યોગ્યતા આવતી નથી જેથી કષાયને निड अवश्य ४२व। नेस. “ मुणी" ५४थी ४ायनी निड ४२वावा ત્યારે જ બની શકે છે કે, જ્યારે પ્રવચનનું રહસ્ય મનન કરનાર બની રહે. એમ ४ा सीवाय मात्मा पायोनी निड ४२१ शत। नथी. धम्मारामे ॥ ५४थी સૂચિત કરવામાં આવેલ છે કે-કષાને નિગ્રહ તેજ આમ કરવાને પરિણામ શાળી બને છે જે સંયમમાં રમણ કરવાની ભાવના રાખતા હોય, તેના વગર नही. माथी सयभने २भनु स्थान मतावेद छ. चरे ॥ ५४थी भुनिये સંયમના વિષયમાં પ્રમાદ રહિત બનવું જોઈએ એમ બતાવેલ છે. ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #430 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रियदर्शिनी टीका अ० २ गा. १५ अरतिपरीषहजयेदृष्टान्तः अत्र दृष्टान्तः प्रदर्श्यते अचलपुरे जितशत्रुनाम्नो राज्ञः पुत्रोऽपराजितनामा रोहाचार्यस्य समीपे दीक्षितोऽभवत् । एकदा रोहाचार्यः स्वशिष्यपरिवारैः सह ग्रामानुग्राम विहरन् तगरानगरी समवसृतः । तदानीं रोहाचार्यस्य स्वाध्यायशिष्य आर्यरोहनामाऽऽचार्य उज्जयिन्यामासीत् , तस्य ज्येष्ठः शिष्यः श्रुतकीर्तिनामको मुनिः शिष्यपरिवारैः सह ग्रामानुग्रामं विहरमाणस्तगरानगया समागतः । रोहाचार्यः शिष्टाचारानन्तरं श्रुतकीर्तिमुनिं पृच्छति-उज्जयिन्यां साधवो निरुपसर्ग तिष्ठन्ति किम् , ? श्रुतकीर्तिमुनिः माह-भदन्त ! सर्व तत्र कुशलम्, किन्तु राजपुत्रः पुरोहितपुत्रश्च दृष्टान्त-अचलपुर में जितशत्रु राजा का अपराजित नामका पुत्र था। वह धर्मश्रवण कर रोहाचार्य के समीप दीक्षित हो गया। एक समय की बात है कि रोहाचार्य अपनी शिष्यमंडली सहित ग्रामानुग्राम विहार करते हुए तगरानगरी पधारे। उस समय इन रोहाचार्य के स्वाध्याय शिष्य आर्यरोह नामके आचार्य उज्जयिनी नगरी में विराजमान थे। उन आर्यरोह आचार्य के मुख्य शिष्य श्रुतकीर्ति भी अपने शिष्यपरिवार के साथ ग्रामानुग्राम विचरते हुए इसी तगरा नगरी में रोहाचार्य के पास पधारे । रोहाचार्य ने शिष्टाचार के अनन्तर श्रुतकीर्ति मुनि से पूछा-कहो उज्जयिनी नगरी में साधु मंडल तो सुखशाता में विराजमान है न ? सुनकर श्रुतकीर्ति मुनि ने उत्तर में कहा-भदन्त ! सब सुखशाता में विराजमान तो हैं, परन्तु वहां के राजा का एवं पुरोहित का पुत्र દષ્ટાંત–અચળપુરમાં જીતશત્રુ રાજાને અપરાજીત નામને પુત્ર હતો. તેણે ધર્મનું શ્રવણ કરીને રેહાચાર્ય પાસે દીક્ષા લીધી. એક સમયની વાત છે, કે રેહાચાર્ય પિતાની શિષ્ય મંડળી સાથે વિહાર કરતા કરતા તગરાનગરીમાં પધાર્યા. આ સમયે રેહાચાર્યને સ્વાધ્યાય શિષ્ય આર્ય રેહ નામના આચાર્ય ઉજજયિની નગરીમાં બિરાજમાન હતા. આ આર્થરેહ આચાર્યના મુખ્ય શિષ્ય શ્રુતકીતિ પણ પિતાના શિષ્ય પરિવાર સહિત એક ગામથી બીજે ગામ વિચરતા આ તગરા નગરીમાં રેહાચાર્યની પાસે પધાર્યા. રેહાચાર્યે શિષ્ટાચાર પછી શ્રુતકીતિ મુનિને પૂછયું, કહો ! ઉજજેની નગરીમાં સાધુ મંડળ તો સુખ શાતામાં બીરાજમાન છે ને? આ સાંભળી શ્રુતકિર્તી મુનિએ જવાબમાં કહ્યું, ભદન્ત! દરેક સુખ શાતામાં બિરાજમાન છે, પરંતુ ત્યાંના રાજાને અને પુરોહિતને પુત્ર ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #431 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७६ उत्तराध्ययनसूत्रे मुनीनुद्वेजयतः। श्रुतकीर्तेरेतद्वचनं श्रुत्वा रोहाचार्योऽपराजितमुनि कथयति-तव सांसारिकभातपुत्रोऽसौ राजकुमारः साधुजनमुद्वेजयति, तं प्रतिबोधयितुमुज्जयिन्यां त्वया गन्तव्यम् । आचार्यनिदेशेन शिष्यपरिवारेण सहापराजितमुनिरुज्जयिन्यां गतः। तत्रायरोहाचार्य प्रणम्यापराजितमुनिभिक्षावेलायां राजकुलं प्रविष्टः । तत्रापराजितमुनि राजपुत्र-पुरोहितपुत्रौ सोपहासं वन्दनं कुरुतः । मुनिवरे गते सति तस्मिन्नेव समये मुनेरुपहासाज्जठरे वेदना समुत्पन्ना, उच्चैः स्वरेण तो रोदनं मुनियों को दुःखित किया करते हैं । श्रुतीकर्ति के वचनों को सुनकर रोहाचार्य ने अपने शिष्य अपराजित मुनि से कहा कि उज्जयिनी नगरी का जो कुमार है वह तुम्हारे सांसारिक भाई का पुत्र है । इस समय वह साधुओं को उज्जयिनीनगरी में कष्ट पहुँचा रहा है अतः तुम उसको समझाने के लिये वहां जाओ। आचार्य के आदेश से अपराजित मुनि तगरानगरी से शिष्यमंडली सहित विहार कर उज्जयिनी नगरी में आर्यरोह आचार्य के पास पहुँचे, और उनको वंदन नमस्कार किये । बाद भिक्षा के समय आचार्य के निदेश से वे अपराजित मुनि राजमहल में प्रविष्ट हुए। वहां उन अपराजित मुनि के सांसारिक भाई का पुत्र राजकुमार एवं पुरोहित पुत्र ने उन मुनि को उपहासपूर्वक वंदना कि । अपराजित मुनि के वहां से चले जाने पर मुनि के उपहास से उन दोनों के पेट में बडे जोर से पीड़ा होने लगी। મુનિને દુખિત કર્યા કરે છે. શ્રુતકીતિનું વચન સાંભળીને હાચાર્યે પોતાના શિષ્ય અપરાજીત મુનિને કહ્યું કે, ઉજજૈની નગરીના જે રાજકુમાર છે તે તમારા સંસારીક ભાઈના પુત્ર છે. આ સમયે તેઓ ઉજ્જૈની નગરીમાં સાધુઓને કષ્ટ પહોંચાડી રહ્યા છે જેથી તમે તેને સમજાવવા માટે ત્યાં જાવ. આચાર્યના આદેશથી અપરાજીત મુનિ તગરાનગરીમાંથી શિષ્ય મંડળી સાથે વિહાર કરી ઉજૈની નગરીમાં આર્ય રેહાચાર્યની પાસે આવી પહોંચ્યા અને તેમને વંદન નમસ્કાર કર્યા બાદ ભિક્ષાના સમયે આચાર્યના આદેશથી અપરાજિત મુનિયે રાજમહેલમાં પ્રવેશ કર્યો. ત્યાં તે અપરાજીત મુનિના સંસારીક ભાઈના પુત્ર રાજકુમાર તેમજ પુરોહિતપુત્રે તે મુનિને ઉપહાસપૂર્વક વંદના કરી. અપરાજીત મુનિના ત્યાંથી જવા બાદ મુનિને ઉપહાસ કરવાથી આ બનેના પેટમાં એકદમ પીડા ઉત્પન્ન થઈ. બન્ને જણ ખૂબ જોર જોરથી રાડ પાડવા લાગ્યા, ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #432 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रियदर्शिनी टीका अ० २ गा. १५ अरतिपरीषहजये अर्हहत्तदृष्टान्तः ३७७ कृतवन्तौ । राजा पुरोहितश्च पुत्रयोर्दुरवस्था परिवारवचनाद् विज्ञाय आर्यरोहाचार्यस्य समीपं गतवन्तौ । तत्रार्यरोहाचार्य प्रणम्य तौ सरोदनं प्रार्थितवन्तौ, भदन्त ! प्रसीदतु भवान् , अस्मद्वालको रक्षणीयौ, इत्यादि । आर्यरोहाचार्य आहराजन् ! अस्मिन् विषये न किंचिज्जानामि, इमं प्राघुणकं महामुनि प्रसादय । ततस्तद्वचनाद्राजा पुरोहितेन सहापराजितमुनेः पार्श्व गत्वा तं प्रणम्य ब्रवीतिहे भदन्त ! स्वभ्रातुष्पुत्रं जीवितं कुरु, मुनिः प्राह-साधुपीडकस्य पुत्रस्यापि शिक्षां दातुं न शक्नोषि?, नीतिमार्गानुसारिणा राज्ञाऽन्यस्यापि कस्यचिदपराधे कृते तु पुत्रो निग्रहणीयः किं पुनर्यः साधुबाधकः ? नृपेणोक्तम्-भदन्त ! ममापराधंदोनों जने खूब जोर २ से चिल्लाने लगे। राजा एवं पुरोहित दोनों ही परिवार जनों के कहने से अपने २ पुत्रों की दुरवस्था जानकर साथ २ आर्यरोहाचार्य के पास आये । आचार्य महाराज को वंदन कर वे दोनों के दोनों उनके समक्ष रोते २ प्रार्थना करने लगे, कि भदन्त ! आप हमारे ऊपर प्रसन्न होइये-कृपा कीजिये-हमारे बालकों की रक्षा कीजिये इत्यादि। आर्यरोहाचार्य ने कहा कि राजन् ! मैं इस विषय में कुछ नहीं जानता हूं। यह जो महेमानरूप में महामुनि आये हुए हैं उनके पास जाओ और उनसे कहो। राजा आर्यरोह के वचन से पुरोहित को साथ लेकर अपराजित मुनि के पास गया और उनको वंदन कर कहने लगा कि-हे भदन्त ! अपने भाई के पुत्र को जीवित करो। मुनि ने कहा कि-हे राजन् राजनीति इस प्रकार की है कि जब अपना पुत्र साधारण जनता का भी अपराध करे तो उसके लिये शिक्षा है तो फिर जो मुनिजनों को पीड़ा पहुंचावे રાજા અને પુરોહિત અને પિતાના પરિવાર જનોના કહેવાથી પિતાના પુત્રોની દુઃખદ અવસ્થા જાણીને આયરેહાચાર્યની પાસે આવ્યા. આચાર્ય મહારાજને વંદના કરીને અને તેમની સમક્ષ રોતાં રોતાં પ્રાર્થના કરવા લાગ્યા કે, હે ભદન્ત! અમારા ઉપર પ્રસન્ન થાઓ, કૃપા કરે, અમારાં બાળકોની રક્ષા કરે, વિગેરે. આર્થરેહાચાર્યે કહ્યું, હે રાજન! આ વિષયમાં હું કાંઈ જાણતા નથી. મહેમાનરૂપમાં મહામુનિ પધાર્યા છે તેમની પાસે જાઓ અને તેમને કહે. આર્થરેહનાં વચન સાંભળી રાજા પુરોહિતને સાથે લઈને અપરાજીત મુનિની પાસે ગયા. અને તેમને વંદના કરીને કહેવા લાગ્યા કે, હે ભદન્ત! તમારા ભાઈને પુત્રને જીવતદાન આપે. મુનિએ કહ્યું કે, હે રાજન! રાજનીતિ એવા પ્રકારની છે કે, જ્યારે આપને પુત્ર સાધારણ જનતાને પણ અપરાધ કરે તે તેને માટે શિક્ષા છે તે મુનિરાજને उ०५८ ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #433 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७८ उत्तराध्ययनसूत्रे क्षमस्व, बालकौ महाकष्टं प्राप्तौ, अनुकम्पस्व भगवन् । स्वस्थावस्थासम्पन्नौ तौ सुनिदेशनया प्रव्रज्यां स्वीकृतवन्तौ । तत्र राजपुत्रः शुद्धभावेन चारित्रपालनं कृतवान्, पुरोहितपुत्रस्तु जातिमदं कृत्वा पूर्वपीडास्मरणेन गुरुं प्रति सामर्षो जातः। द्वावपि चारित्रं पालयन्तौ मृत्वाऽन्ते देवलोकं गतौ । इतश्च कौशाम्बी गयी तापसनामकः कोऽपि धनिक आसीत् । स स्वगृहे मृत्वा लोभावेशेन सूकरो जातः, स स्वभवनादिकं दृष्ट्वा जातिस्मरणं प्राप्तवान् । उसके लिए राजा को चाहिये कि जरूर ध्यान रखे । अपराजित मुनि की बात सुनकर राजाने समझकर कहा कि महाराज ! आजपीछे ऐसा नहीं होगा, आप मेरे इस अपराध को क्षमा करे । तथा राजकुमार और पुरोहित पुत्र ने भी अपराजित मुनि से क्षमा मांगी। फिर उपदेश सुमकर वे दोनों प्रव्रजित हो गये । प्रव्रज्या ले ने पर राजपुत्र ने तो शुद्ध भाव से चारित्र का पालन किया परन्तु जो पुरोहित का पुत्र था, वह जाति मद से संयम का आराधन पूरा नहीं करता था और अपने पेट की पीड़ा को याद करता हुवा अपने गुरु अपराजित मुनि पर रूष्ट भाव रखता था । अन्त में ये दोनों ही चारित्र की पालना करते हुए काल धर्म को पाकर देव लोक में देव हुए। इधर - कौशाम्बी नामकी एक नगरी थी । उसमें तापस नामका एक हिंसक धनिक व्यक्ति रहता था । वह लोभ के वश होकर मरा तो अपने ही घर पर सूअर की योनि में उत्पन्न हुआ । अपने पूर्व के भवना પિડા પહાંચાડનારાઓ માટે રાજાએ જરૂર ધ્યાન રાખવુ જોઈએ. અપરાજીત સુનિની વાત સાંભળીને રાજાએ સમજી જઈ ને કહ્યું કે, મહારાજ ! હવેથી એવું નહી અને. આપ મારા આ અપરાધને ક્ષમા કરશ. રાજકુમાર અને પુરાહિ તના પુત્રે પણુ અપરાજીત મુનિની ક્ષમા માગી, ત્યાર બાદ ઉપદેશ સાંભળીને તે અન્ને પ્રત્રજીત બન્યા. પ્રવ્રજ્યા લીધા પછી રાજપુત્રે શુદ્ધ ભાવથી ચારિત્રનુ પાલન કર્યું. પરંતુ જે પુરાહિતના પુત્ર હતા તે જાતીના મનના કારણે સંયમનુ આરા ધન પૂર્ણ રીતે કરતા ન હતા અને પોતાના પેટની પીડાને યાદ કરતાં કરતાં અપરાજીત મુનિ ઉપર ક્રોધભાવ રાખતા હતા. અંતમાં એ અને ચારિત્રનુ પાલન કરતાં કરતાં કાળધમને પામીને દેવલાકમાં દેવ થયા. આ તરફ્ કૌશાંબી નામની એક નગરી હતી. એમાં તાપસ નામના એક હિંસક ધનવાન માણસ રહેતા હતા. તે લેાલવશે કરીને પેાતાના જ ઘમાં સૂવર (ભૂંડ ) રૂપે જન્મ્યા. પેાતાના પૂર્વના મકાન આદિ જોઈ ને ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર ઃ ૧ Page #434 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रियदर्शिनी टीका. अ० २ गा० १५ अरतिपरीषहजये अर्हहत्तदृष्टान्ताः ३७९ एकदा तत्पूर्वभवपुत्रास्तं तस्यैव श्राद्धदिने हतवन्तः, ततः स्वगृह एवासौ सों जातः, तस्मिन्नपि भवे तस्य जातिस्मरणं संजातम् । पुनस्त एव पूर्वभवपुत्रास्तं सर्प गृहान्तभ्रमन्तं दृष्ट्वा जघ्नुः । तदनन्तरमसौ स्वपुत्रस्य पुत्रोऽभवत् , पित्रा तस्य 'अशोकदत्त' इति नाम कृतम् । स तत्रापि जन्मनि जातिस्मरणं प्राप्य मूकत्वमशीचकार । पूर्वभवीया पुत्रवधूरिदानी माता जाता, कथमेनां मातेति ब्रवीमि । पुत्रोऽपि पिताभवत् कथमेनं 'तातः' इति संबोधयामि, इत्येवं मनसि विचार्य समूकोऽभवत् । मातापितृभ्यां तन्मूकत्वापनयनार्थ बहवः प्रयत्नाः कृतास्तथापि तस्य मूकत्वं नापगतम् , अतो लोकास्तं मूकनाम्नाऽऽह्वयन्ति । दिकको देखकर उस सूअर के बच्चे को जातिस्मरण ज्ञान हो गया। एक दिन की बात है कि पुत्रोने अपने बाप के श्राद्ध के निमित्त उस सूअर को मार डाला। यह मर कर अपने ही घर में सर्प हुआ। इस भव में भी इसे जातिस्मरण ज्ञान हो गया। पुत्रों ने अपने घर में इधर उधर घूमते हुए सर्प को जब देखा तो उसको मार डाला । मर कर यह तृतीय भव में अपने पुत्र का पुत्र हुआ। पिताने इसका नाम अशोकदत्त रक्खा । इस अवस्था में भी इसे जातिस्मरण ज्ञान हो गया, अतः इसने मूकपना अंगीकार कर लिया। जो पूर्वभव में मेरी पुत्रवधू थी वह इस भव में माता हो गई है अतः कैसे तो इसे माता कह कर पुकारूँ तथा जो पुत्र था वह भी अब मेरा बाप बन गया है इसलिये अब इसे पिता कैसे कहूँ, ऐसा मन में विचार कर उसने अपना આ સૂવરના બચ્ચામાં જાતિ સ્મરણ જ્ઞાન થયું. એક દિવસની વાત છે. પુત્રએ પિતાના બાપના શ્રાદ્ધ નિમિત્તે આ સૂવરને મારી નાખ્યું. ત્યાંથી મરીને ફરીથી પોતાના જ ઘરમાં સર્ષ થયા. આ ભવમાં પણ તેને જાતિ મરણ જ્ઞાન થયું. પુત્રોએ પોતાના ઘરમાં આમ તેમ ઘુમતા સર્પને જ્યારે જે ત્યારે તેને મારી નાખે. મરીને ત્રીજા ભવમાં પિતાના પુત્રના પુત્ર પૌત્ર) તરીકે જ. પિતાએ તેનું નામ અશોકદત્ત રાખ્યું. આ અવસ્થામાં પણ તેને જાતિસ્મરણ જ્ઞાન થયું. આથી તેણે મૌનવ્રત ધારણ કરી લીધું. પહેલા ભવમાં જે મારી પુત્રવધૂ હતી તે આ ભવમાં મારી માતા થઈ છે તે કેવી રીતે હું માતા કહીને બોલાવું. જે મારે પુત્ર હતું તે અત્યારે મારા બાપ થઈ ગયેલ છે તેથી હવે તેને પિતા તરીકે કેમ સંબોધન કરું? એમ મનમાં વિચાર ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #435 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययन सूत्रे एकदा चतुर्ज्ञानधराः स्थविरा: स्वज्ञानोपयोगेन मूकं विज्ञाय तं प्रतिबोधयितुं तत्र शिष्यपरिवारैः सह समवसृताः, तैश्च मूकगृहे द्वौ श्रमणो प्रेषितौ तत्रैकेन मूकस्य पुरतः स्थविरशिक्षिता गाथा पठिता । 6" ३८० तावस ! किमिणा ? मूअन्वयेण पडिवज्ज जाणिउं धम्मं । मरिऊण सूअरोरग, जाओ पुत्तस्स पुत्तोत्ति ॥ १ ॥ " मूकभाव (गुंगापन ) रखना ही अच्छा समझा । माता पिता ने अपने बच्चे की जब ऐसी स्थिति देखी तो उसकी मूकता दूर करने के लिये उन्होंने अनेक प्रयत्न किये, परन्तु उसकी मूकता दूर नहीं हुई, इसलिये लोगों ने उसका नाम मूक" रख दिया, और इसी नाम से उसे बुलाने लगे । 46 एक समय कि बात है कि चार ज्ञान के धारी स्थविर मुनि अपने ज्ञानोपयोगसे उस मूक की परिस्थितिको जानकर उसे प्रतिबोधित करनेके लिये वहां शिष्यमंडलीसहित आये । उन्होंने उस मूकके घर पर दो मुनियों को भेजा। उनमेंसे एक मुनिने उस मूक के आगे स्थविरशिक्षा से युक्त एक गाथा पढ़ी | वह गाथा इस प्रकार है तावस ! किमिणा ? मूअव्वयेण पडिवज्ज जाणिरं धम्मं । मरिऊण सूअरोरग, जाओ पुत्तस्स पुन्तोति ॥ १ ॥ કરીને તે બાળકે મૂંગાપણું રાખવાનું ચૈાગ્ય માન્યું. માતા પિતાએ જ્યારે ખાળકની આ સ્થિતિ જોઈ ત્યારે તેનું મૂંગાપણું દૂર કરવા માટે અનેક પ્રયત્ન કર્યાં પર ંતુ તેનું મૂંગાપણું દૂર ન થયું. આથી લેાકાએ તેનું નામ “મૂંગા” રાખ્યું. અને એજ નામથી તેને ખેલાવવા લાગ્યા. એક વખત ચાર જ્ઞાનના ધારી સ્થવિરે પોતાના જ્ઞાનના ઉપયોગથી આ મૂંગાની પરિસ્થિતિ જાણીને તેને પ્રતિઐધિત કરવા માટે શિષ્ય મંડળી સાથે ત્યાં પધાર્યાં. તેઓએ આ મૂંગાના ઘેર બે મુનિઓને મેાકલ્યા. આમાંથી એક મુનિએ આ મૂંગાની આગળ સ્થવિરની શીખવેલી એક ગાથા ગાઈ. તે ગાથા આ પ્રકારની છે. तावस १ किमिणा ? मूअवयेण, पडिवज्ज जाणिउं धम्मं । मरिऊण सूअरोरग, जाओ पुत्तस्स पुत्तोति ॥ १ ॥ ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર ઃ ૧ Page #436 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रियदर्शिनी टीका अ० २ गा. १५ अरतिपरीषहजये अर्हद्दत्तदृष्टान्तः ३८१ छाया-तापस ! किमनेन मूकव्रतेन प्रतिपद्यस्व ज्ञात्वा धर्मम् । __मृत्वा सूकर उरगो जातः पुत्रस्य पुत्र इति ॥ १॥" मूकस्तां गाथां श्रुत्वाऽऽश्चर्य गतस्तौ प्रणम्य पृच्छति - भवद्भिरेतत् कथं ज्ञातम् ? तौ ब्रूतः-इहोद्यानेऽस्मद्गुरवः समवसृतास्ते खलु जानन्ति । ततोऽसौ मूकस्ताभ्यां श्रमणाभ्यां सह गत्वा नगरोद्याने स्थविराणां वन्दनं कृत्वा तद्देशनां श्रुत्वा श्रावको भूत्वा मूकत्वं परित्यक्तवान् ।। इतश्च कृतजातिमदः पुरोहितपुत्रजीवदेवः कृताञ्जलिः सन् महाविदेहे तीर्थकरसमीपे पृच्छति-भगवन् ! किमहं सुलभबोधिस्तदितरो वा ? भगवता प्रोक्तम्-त्वं दुर्लभबोधिकोऽसि । देवः पुनरपृच्छत्-इतश्च्युतः सन् कुत्राहमुत्पन्नो भविष्यामि ? इस गाथा को सुनकर मूक को वड़ा भारी आश्चर्य हुआ। उसने उन दोनों को नमस्कार कर पूछा-आपने हमारी सूअर की पर्याय से लेकर यहां तक की समस्त परिस्थिति कैसे जानली ? उन्होंने कहा-कि इस नगर के उद्यान में हमारे गुरु महाराज पधारे हुए हैं वे तुम्हारी इस समस्त स्थितिको जानते हैं। मूकने जब यह सुना तो वह उन दोनों मुनियों के साथ उद्यान में आया। उसने सब मुनियों को नमस्कार एवं वंदन किया। पश्चात् उनसे धर्मका उपदेश सुनकर श्रावक हो गया और मूकता का परित्याग कर दिया। जातिमद करने वाला जो पुरोहितपुत्र का जीव था कि जो मरकर देव की पर्याय से उत्पन्न हुआ था उसने हाथ जोड़ कर महाविदेह क्षेत्र में तीर्थंकर श्री सीमंधर स्वामी के पास ऐसा प्रश्न किया આ ગાથા સાંભળીને તે મૂંગાને ભારે આશ્ચર્ય થયું. તેણે આ બન્ને સ્થવિરોને નમસ્કાર કરીને પૂછ્યું, “તમેએ મારી સૂવરની સ્થિતિથી માંડીને આજ સુધીની સમસ્ત પરિસ્થિતિ કેમ જાણી?” તેઓએ કહ્યું કે, “આ નગરના બગીચામાં અમારા ગુરુ મહારાજ પધાર્યા છે અને તેઓ તમારી સઘળી બીના જાણે છે. મૂગાએ જ્યારે આ જાણ્યું ત્યારે તે બને મુનિઓની સાથે બગીચામાં આવ્યું, અને તેણે બધા મુનિઓને નમસ્કાર અને વંદના કરી. ત્યાર પછી તેમની પાસેથી ધર્મને ઉપદેશ સાંભળીને તે શ્રાવક બની ગયો અને મૂંગાપણાને છેડી દીધું. જાતિમદ કરવાવાળા પુરોહિત પુત્રને જીવ જે મરીને દેવની પર્યાયમાં ઉત્પન્ન થયો હતો તેણે હાથ જોડીને મહાવિદેહ ક્ષેત્રમાં તીર્થકર શ્રીમંધર સ્વામી ની સમક્ષ એવો પ્રશ્ન કર્યો કે, “હે ભગવંત! હું સુલભાધી છું કે દુર્લભબધી છું ?” ભગવાને જવાબમાં કહ્યું કે, તમે દુર્લભાધી છે. દેવે ફરી પ્રશ્ન ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #437 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८२ उत्तराध्ययन सूत्रे 1 भगवता कथितम् - कौशाम्बीनगर्यां मूक भ्राता भविष्यसि । धर्मप्राप्तिश्च मूकादेव तव भविष्यति । इत्येवं भगवदवचनं श्रुत्वाऽसौ देवस्तं प्रणम्य कौशाम्बीनगर्यो कोपान्तिकमागत्य तस्मै बहुद्रव्यं दत्वा प्रोक्तवान् स्वर्गात् प्रच्युतस्य मम जन्म स्वन्मातुर्गर्भे भविष्यति, तदा तस्या अकालेऽप्याम्रदोहदो भविष्यति । तदर्थं सर्वर्तु फलवानाम्रवृक्षः कौशाम्ब्याः समीप एव पर्वतस्य निर्जनप्रदेशे मया रोपितः । यदा सा तद्दोहदाकुलाssस्रं याचते तदा तस्याः पुरस्त्वया वाच्यम् । यदि जनि - यमाणं बालकं मां ददासि, तदाऽऽम्रफलमानीय तुभ्यं ददामि । कि हे भगवान् ! मैं सुलभबोधि हूं कि दुर्लभबोधि हूं ? भगवान ने इसके उत्तर में कहा कि तुम दुर्लभबोधि हो । देव ने पुनः प्रश्न किया कि मैं यहां से च्यवकर कहां उत्पन्न होऊँगा ? भगवान ने कहा कि कौशाम्बी नगर में मूक के भाई होगे। वहां तुम्हें धर्म की प्राप्ति मूक से ही होगी । इस प्रकार भगवान् की वाणी सुनकर वह देव उन्हें नमन कर के कौशाम्बी नगरी में मूक के पास आया और उसे बहुत सा द्रव्य देकर कहने लगा कि मैं स्वर्ग से च्यवकर तुम्हारी माता की कुक्षि में जन्म धारण करूंगा । उस समय उसे अकाल में आम खाने का दोहला उत्पन्न होगा । उस दोहले की पूर्ति के लिये सर्वऋतुओं में फल देनेवाला आम का वृक्ष मैंने पहिले से ही कौशाम्बी नगरी के समीप के पर्वत के निर्जन प्रदेश में आरोपित कर दिया है । जिस समय वह दोहद से आकुलित होकर आम की याचना करे तो तुम उससे ऐसा कहना कि जो बालक उत्पन्न होगा उसे यदि तुम मुझे देना अंगीकार करो तो मैं तुम्हें लाकर आम देता हूं । કર્યાં, હું અહિંથી ચ્યવીને કયાં ઉત્પન્ન થઈશ ? ભગવાને કહ્યું કે, કૌશાંખી નગરીમાં મૂંગાના ભાઈ થઈશ. ત્યાં તમને ધમની પ્રાપ્તિ મૂંગાથી થશે. આ પ્રકારની ભગવાનની વાણી સાંભળીને તે દેવ નમસ્કાર કરીને કૌશાંબી નગરીમાં તે મૂંગાની પાસે આવ્યા અને તેને ખૂમ દ્રવ્ય દઈને કહેવા લાગ્યા કે હુ સ્વથી ચ્યવીને તમારી માતાની કુખે જન્મ ધારણ કરીશ. એ વખતે તેને અકાળે કેરી ખાવાના ભાવ (દાહઢ) ઉત્પન્ન થશે. આ દાદની સફળતા માટે સર્વ રૂતુઓમાં મૂળ દેનાર આંબાના વૃક્ષને પહેલેથી જ કૌશાંખી નગરીની પાસે આવેલા પર્વતના નિજન પ્રદેશમાં મેં વાવી દીધેલ છે. જ્યારે તે દોહદથી વ્યાકુળ થઈ ને કેરીની માગણી કરે ત્યારે તારે તેને એ પ્રમાણે કહેતુ' કે, જે બાળક જન્મે તેને મને સાંપવાનુ` સ્વીકારો તા હુ તમને કેરી લાવી આપું. ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર ઃ ૧ Page #438 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रियदर्शिनी टीका अ० २ गा. १५ अरतिपरीषहजये अर्हदत्तदृष्टान्तः ३८३ एवमुक्ता तव माता यदि गर्भस्थपुत्रदानं स्वीकुर्यात् तर्हि तस्यै त्वया मद्दर्शिताऽऽम्रफलं दातव्यम् । जातस्य मम यथा जैनधर्मप्राप्तिर्भवेत् तथा प्रयत्नस्स्वया कर्तव्यः । एवमुक्त्वा स पुरोहितपुत्रजीवदेवो गतः । अन्यदा कदाचिदसौ देवो देवलोकाच्च्युतस्तस्या गर्भे समुत्पन्नः, तदा तस्या आम्र दोहदः समुत्पन्नः । मूकेन पूर्वोक्तव्यवस्थां कारयित्वाऽऽम्रदोहदः पूरितः । पुत्रो जातः । तस्यार्हद्दच इति नाम मातापितृभ्यां कृतम् । तदनन्तरमसौ मूक स्तं बालसोदरं ळालयन् साधूनां समीपं तद्वन्दनार्थं नयति, परन्त्वसौ दुर्लभ बोधि तुम्हारी माता जब तुम्हारे इस कथन को मंजूर कर ले अर्थात्गर्भस्थ पुत्र का तुम्हें देना स्वीकार कर ले तो तुम उसके लिये मेरे द्वारा बताये हुए आम के वृक्ष से आम लाकर दे देना । तथा तुम इस प्रकार का प्रयत्न भी करते रहना कि जिस से मुझे जैनधर्म की प्राप्ति हो । इस प्रकार कह कर वह पुरोहित के पुत्र का जीव देव तिरोहित हो गया । किसी समय अपनी आयु के समाप्त होने पर यह स्वर्गलोक से च्यवकर मूक की माता के गर्भ में अवतरित हो गया । उस की माता को आम खाने का दोहला उत्पन्न हुआ । मूक ने पूर्वोक्त व्यवस्था करवा कर उस के आम के दोहले की पूर्ति की । पुत्र का जन्म हुआ । उसका नाम अर्हन्त रक्खा गया । अर्हदत्त को जो कि अपना बालसोदर था मूक ने बड़े चाव से लाड़ प्यार से रखा । कभी २ यह उसे साधुओं के समीप भी वंदना कराने के लिये ले जाता था, परन्तु यह ता दुर्लभ તમારી માતા જ્યારે તમારી આ માગણીને મંજુર કરે અર્થાત્ ગર્ભમાં રહેલા પુત્રને તમને સોંપી દેવાના સ્વીકાર કરે ત્યારે તમારે મે તમને બતાવેલા આંબાના વૃક્ષ ઉપરથી કેરી લાવીને તેને આપવી. તથા તમારે એવા પ્રકારના પ્રયત્ન કરતા રહેવું કે જેનાથી મને જૈનષમની પ્રાપ્તિ થાય. આ પ્રમાણે કહીને તે પુરાહિત પુત્રને જીવ-દેવ અલાપ થઈ ગયા. કેટલાક સમય બાદ પેાતાના આયુષ્યની સમાપ્તિ થવાથી તે દેવ સ્વલેાકથી મ્યુવીને મૂંગાની માતાના ગર્ભમાં ઉત્પન્ન થયા. તેની માતાને કેરી ખાવાનું મન થયું. મૂ ગાએ પહેલેથી જ વ્યવસ્થા કરીને તેની કેરી ખાવાની ઈચ્છાને પૂર્ણ કરી. સમય જતાં પુત્રના જન્મ થયા. તેનુ' અહુદત્ત નામ રાખવામાં આવ્યું. અર્હત્ત કે જે પેાતાના નાના ભાઈ થતા હતા તેને મૂગાએ ખૂબ લાડ પ્યારથી રાખ્યા. કાઈ કાઈ વાર તે તેને સાધુઓની પાસે વંદના કરવા માટે લઈ જતા હતા. પરંતુ આ તા ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર ઃ ૧ Page #439 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८५ उत्तराध्ययनसूत्रे त्वेन साधून दृष्ट्वा रोदिति । एवमाबालं प्रतिबोधितोऽप्यसौ न बोधि लभते । ततस्तद्भाता मूकः प्रव्रजितो भूत्वा संयम परिपाल्य देवलोकं गतः । अथ तेन मूकजीवदेवेनासौ दुर्लभबोधिर्बालकः प्रतिबोधार्थ जलोदरव्याधियुक्तः कृतः, स्वयं च वैद्यरूपं कृत्वा तत्समीपमागत्याह-अहं सर्वरोगोपशमनं करोमि । जलोदरी वदति-मम जलोदरव्याधि प्रशमय । वैद्येनोक्तम्-असाध्योऽयं तव रोगः, तथापि तत्प्रतीकारं करोमि, यदि ममौषधकोत्थलकं स्कन्धे समारोप्य मामनुगच्छसि। जलोदरिणोक्तम्-एवमस्तु । ततो वैद्येन स जलोदरी निर्व्याधिः कृतः । बोधि था, इसलिये साधुओं को देखते ही रोने लग जाता। इस प्रकार बाल्य अवस्था से प्रतिबोधित करने पर भी यह बोधि को प्राप्त नहीं कर सका। इसके बाद उसके बडे भाई मूकने दीक्षा धारण कर ली और संयम का पालन कर अन्तमें यह देवलोक में जा कर उत्पन्न हो गया। अपने सहोदर को प्रतिबोधित करने के लिये मूक के जीव देव ने उसके शरीर में जलोदर की व्याधि उत्पन्न कर दी । यह उसने इस लिये की कि देखें यह दुर्लभयोधि कैसे है । तथा स्वयं वैद्य का रूप ले कर उसके पास आ कर कहने लगा कि मैं समस्त रोगों को दूर करने का इलाज करता हूं। उस जलोदरी बालक ने कहा कि ठीक है आप मेरे इस रोग का इलाज करें । वैद्य ने प्रत्युत्तर में कहा कि यद्यपि तुम्हारा यह रोग असाध्य है तो भी इस शर्त पर प्रयत्न करता हूं कि यदि तुम मेरे इस कोथले को कि जिस में औषधियां भरी हैं अपने कंधे पर દુર્લભ બેધી હતે એટલે સાધુઓને જોઈને રેવા લાગી જતે આ પ્રમાણે બાલ્યાવસ્થાથી જ તેને પ્રતિબંધિત કરવા છતાં પણ તે બોધને પ્રાપ્ત કરી શક્યા નહીં. આ બાદ તેના મોટાભાઈ મૂંગાએ દીક્ષા ધારણ કરીને, સંયમનું પાલન કરીને, અંતમાં દેવ લેકમાં ઉત્પન્ન થયે. પિતાના સહેદરને પ્રતિબંધિત કરવા માટે મૂંગાના જીવ દેવે તેના શરીરમાં જળદરની વ્યાધિ ઉત્પન્ન કરી. તે વ્યાધિ એટલા માટે ઉત્પન્ન કરી કે, જેઉં તે ખરે કે તે દુર્લભ બેધી કે છે? પછી પિતે વૈદ્યનું રૂપ લઈને તેની પાસે આવીને કહેવા લાગ્યા કે, સમસ્ત રેગોને નિવારવાને ઈલાજ મારી પાસે છે. તે જળદરવાળા બાળકે કહ્યું કે, આપ મારા આ રોગને ઈલાજ કરે. વદે પ્રત્યુત્તરમાં કહ્યું કે જો કે તમારે આ રેગ અસાધ્ય છે. તે પણ એવી શરત ઉપર પ્રયત્ન કરું કે, તમે મારા આ કેથળાને જેમાં ઔષધીઓ ભરી છે તેને તમારા કાંધ ઉપર રાખીને મારી પાછળ ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #440 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रियदर्शिनी टीका अ० २ गा० १५ अरतिपरीषहजये अर्हद्दत्तदृष्टान्तः ३८५ अथ तेन वैधेनौषधकोत्थलकस्तस्मै वाहनार्थं समर्पितः। स चाहद्दत्तः कोत्थलकमुत्थाप्य स्कन्धोपरि वहन् वैद्यपृष्ठतश्चलति । तथा स कोत्थलको देवमाययाऽतीवभारकारकः संजातः, तेनातिभारेण स श्रान्तोऽपि तमुत्सृज्य गन्तुं न शक्नोति, चिन्तयति च-अहं वचनबद्धोऽस्मि, कथमिमं भारं परित्यजामि, कोत्थलकं वहतो ममैतत्पृष्ठतो गमनेन पुनर्जलोदरव्याधिन स्यादतो वज्रसार तुल्यमिव भारं वहन् यदहं खनो भवामि तन्मे योग्यं भवतीत्येवं विचिन्त्य स कोत्थलकं वहन् वैधमनुगच्छति । रख कर मेरे पीछे२ चलो तो। जलोदरी ने कहा इस में कौन सी बड़ी बात है। यह मेरा कोथला उठायेगा' ऐसा जानकर वैद्य ने इलाज के द्वारा उसको व्याधिमुक्त कर दिया । वैद्यने अपना औषधि का कोथल उठा कर चलने के लिये दे दिया। अर्हद्दत्त उस कोथले को कन्धे पर रख कर वैद्य के पीछे२ चलने लगा। कोथला देव की माया से ले जाते ले जाते मार्ग में बहुत वजनदार बन गया। उससे वह बहुत थक गया। परन्तु फिर भी उसकी हिम्मत उसे छोड़कर आगे जाने की नहीं हुई। विचारने लगा कि मैं वचन बद्ध हो चुका हूं अतः अब इस भार को कैसे छोड़सकता हूं। तथा यदि कोथले को लाद कर इस वैद्य के पीछे२ जो न चलूं तो फिर जलोदर हो जाने की आशंका है, अतः जैसे भी बनें वज्रसमान भारी इस कोथले को लेकर ही चलने में श्रेय है, चाहे मेरे शिर के बाल भी क्यों न घिस जायँ । इस प्रकार विचार कर वह कोथले को सिर पर लिए हुए वैद्य के पीछे २ चलता रहा । પાછળ ચાલે. જળદર વાળાએ કહ્યું કે, તેમાં કઈ મોટી વાત છે. “આ મારે કથળે ઉઠાવશે” એવું જાણી ને વૈદે ઈલાજ દ્વારા તેને વ્યાધિમુક્ત કરી દીધા વૈદે પિતાની ઓષધીને કોથળો ઉઠાવીને ચાલવા માટે તેને આપે. અહદત્ત તે કોથળાને કાંધ ઉપર રાખીને વૈદની પાછળ પાછળ ચાલવા લાગ્યો. કેથળે દેવની માયાથી ચાલતાં ચાલતાં માર્ગમાં ઘણે વજનદાર બની ગયે, આથી તે ઘણે જ થાકી ગયે અને આગળ ચાલવાની તેનામાં હિંમત ન રહી છતાં પણ તે વિચારવા લાગ્યું કે હું વચનથી બંધાયેલ છું માટે હવે આ ભારને હું કેવી રીતે છેડી શકું? અને જો કોથળાને ઉપાડીને હું આ વૈદ્યની પાછળ પાછળ ન ચાલું તે ફરી પાછો જળદરને ઉપદ્રવ થઈ જવા સંભવ છે. જેમ બને તેમ વજી સમાન ભારે આ કેથળાને ઉપાડીને ચાલવામાં જ શ્રેય છે. મારા માથાના વાળ ઘસાઈ જાય તે પણ મારે કેથળાને ઉપાડીને ચાલવું જોઈએ. આ પ્રકારને વિચાર કરી માથા ઉપર કેથળો લઈને વૈદ્યની પાછળ પાછળ ચાલતે રહ્યો. ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #441 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८६ ------- - उत्तराध्ययनसत्रे ____ एकदा स मायिको वैद्यस्तं मुनिसंनिधौ नीत्वा वदति यदि त्वं दीक्षां गृह्णासि, तर्हि त्वां मुञ्चामि । स भाराक्रान्तो वदति ग्रहीष्याम्येव दीक्षाम् । ततोऽसौ मायिकवैधस्तस्मै दीक्षां प्रदाप्य स्वयं देवलोकं गतः । देवे स्वस्थानं गते स दुर्लभबोधित्वादरतिपरीषहेणाभिभूतः सन् संयमं त्यक्तुं समुद्यतः । ततो देवेनावधिना ज्ञात्वा पुनरपि तथैव जलोदरं कृत्वा वैद्यरूपेणागत्य पुनरसौ प्रतिबोधितः । पुनर्गते च देवे परीषहाभिभूतेन तेन दीक्षात्यागो मनसि धृतः। तदाऽसौ वैद्यरूपो देवस्तृतीयवारं प्रतियोध्य व्रते स्थिरीकरणार्थमईहत्तसमीप एव तिष्ठति । ___ अब वह मायिक वैद्य उस जलोदरी को मुनि के पास ले गया और कहने लगा कि यदि तुम दीक्षा धारण करलो तो मैं तुम्हें छोड़ दं। भार से हेरान होकर उसने विचार किया कि-'अच्छा है दीक्षा लेने से इस वजन को उठाने के दुःख से तो बच जाऊँगा' और बोला दीक्षा ही ले लूंगा। वैद्य उसको संयम दिला कर अपने स्थान देवलोक को चला गया। देव को अपने स्थान पर गया हुआ जानकर वह दीक्षा का परित्याग करने को उधत हुवा। देवने पुनः उसे जलोदर रोग से पीडित किया और वैद्य के रूप से आकर प्रतिबोधित किया। फीर भी वह अरतिपरीषह से उद्विग्न होकर संयम छोड़ने की इच्छा करने लगा। फिर भी देव आकर उसको प्रतिबोधित किया और “यह संयम में स्थिर बना रहे " इस ख्याल से वह देव स्वयं इसके पास रहने लगा। એ માયાધારી વૈદ્ય એ જળદરવાળાને મુનિની પાસે લઈ ગયા અને કહેવા લાગ્યા કે જે તમે દીક્ષા ધારણ કરી લે તે હું તમને છોડી દઉં. ભારથી હેરાન બનેલા તેણે વિચાર કર્યો કે–ઠીક છે દીક્ષા લેવાથી આ વજનને ઉઠાવવાના દુઃખથી તે બચી જઈશ” આમ વિચારી તેણે કહ્યું કે ભલે ! હું દીક્ષા લઈશ તે પછી તેને દીક્ષા અપાવી વૈદ્ય પોતાના સ્થાને દેવલોકમાં ચાલ્યા ગયા. દેવને પિતાના સ્થાન ઉપર ગયેલા જાણીને તે દીક્ષાને પરિત્યાગ કરવા તૈયાર થયો. દેવે ફરીથી તેને જળદરના રોગથી પીડિત બનાવ્યો અને વૈદ્યના સ્વરૂપથી આવીને પ્રતિ બધિત કર્યો. ફરીથી તે અરતિપરીષહથી ઉદ્વેગ પામીને સંયમ છોડવાની ઈચ્છા કરવા લાગ્યું. ફરી પાછા દેવે આવીને તેને પ્રતિબોધીત કર્યો અને આ સંયમમાં સ્થિર બની રહે એવા ખ્યાલથી તે દેવ પોતે તેની પાસે રહેવા લાગ્યા. ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #442 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रियदर्शिनी टीका. अ० २ गा. १५ अरतिपरीषहजये अर्हद्दत्तदृष्टान्तः ३८७ एकदा स देवो मनुष्यवेषेण तृणभारं गृहीत्वा कस्मिंश्चित् प्रज्वलति ग्रामे प्रविशति, तदा संयमारतिं कुर्वनर्हद्दत्तमुनिः प्राह-ज्वलति ग्रामे तृणभारं नयन् कथं प्रविशसि ? किं मूढोऽसि ? देवेनोक्तम्-त्वं तु महामूढोऽसि, यतः सकलकल्याणकारणं संयमं विहाय क्रोधमानमायालोभवहिप्रज्वलिते सकलानर्थकरे गृहवासे पुनः पुनर्वार्यमाणोऽपि प्रवेष्टुमिच्छसि ?। स एतद्वचनं श्रुत्वाऽप्यरति सर्वथा न मुञ्चति । __एक दिन की बात है कि वह देव मनुष्य का वेष धारण कर घास का गट्ठा लेकर एक गांव में कि जिसमें आग लगी हुई थी जाने लगा। उस समय अरतिभाव को धारण करने वाले उस अर्हद्दत्त मुनि ने उस से कहा कि तुम कितने मूर्ख हो जो आग से जल रहे इस ग्राम में घास का भारा लेकर जा रहे हो । इस स्थिति में तो कोई मूर्ख भी इस गाव में घास का भारा लेकर जाने को तैयार नहीं हो सकता है, अतः तुम्हारे जैसे समझदार व्यक्ति को ऐसा काम करना इस समय सर्वथा अनुचित है । अर्हद्दत्त मुनि की इस बात को सुनकर देव ने कहा कि -परोपदेश में पांडित्य प्रदर्शन करने वाले दुनिया में अनेक मनुष्य हैं तुम भी उन्हीं में से एक हो। मैं तो समझता हूं कि मेरी अपेक्षा अधिक मूर्ख तुम हो जो कल्याण के कारणभूत इस ग्रहण किये हुए संयम में अरतिभाव धारण करते हुए क्रोध, मान, माया एवं लोभ-रूपी अग्नि से प्रज्वलित एवं सकल अनर्थों के उत्पादक ऐसे गृहस्थाश्रम में जाने के लिये बार२ मना करने पर भी संयम छोड़ने की इच्छा करते हो। એક સમય તે દેવે મનુષ્યને વેશ ધારણ કરીને ઘાસની ગાંસડી લઈ એક ગામમાં કે જ્યાં આગ લાગી હતી ત્યાં જવા લાગ્યા તે સમયે અરતી ભાવના ધારણ કરવાવાળા તે અહંદત્ત મુનિએ તેમને કહ્યું, કે, તમે કેવા મૂર્ણ છે કે, આગથી બળી રહેલા ગામમાં ઘાસને ભારે લઈને જાવ છે ? આ સ્થિતિમાં તે કઈ મૂખ પણ તે ગામમાં ઘાસને ભારો લઈને જવાની તૈયારી ન કરે. માટે તમારા જેવી સમજદાર વ્યક્તિએ એવું કામ કરવું આ સમયે સર્વથા અનુચિત છે. અહંદત્ત મુનિની આ વાતને સાંભળીને દેવે કહ્યું કે, પારકાને ઉપદેશ આપવામાં પંડિતાઈનું પ્રદર્શન કરવાવાળા દુનિયામાં અનેક મનુષ્ય છે. તેમાંના તમે એક છે. હું તે સમજું છું કે મારી અપેક્ષાએ તમે અધિક મૂખે છે. જે કલ્યાણના કારણભૂત એવા લીધેલા સંયમમાં અરતો ભાવ ધારણ કરીને, ક્રોધ, માન, માયા, લોભ રૂપી અગ્નિથી પ્રજવલિત એવા સકળ અનર્થોના ઉત્પાદક એવા ગૃહસ્થાશ્રમમાં જવા માટે વારંવાર મના કરવા છતાં પણ સંયમ છેડવાની ઈચ્છા કરે છે. આ પ્રમાણે તે દેવના ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #443 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨૮૮ उत्तराध्ययनसूत्रे ___ अन्यदा कदाचित् तेन सह पुरः पुरश्चलन्नसौ देवः पन्थानं विहाय कण्टकाकीर्णेनोत्पथेनाटवीं गच्छति । ततोऽसौ दुर्लभबोधिरहद्दत्तः साग्रहं वदति अध्वानं हित्वा कथमुत्पथेन गच्छसि । देवेनोक्तम्-त्वमपि विशुद्धं मोक्षमार्ग परित्यज्याऽऽधिव्याधिरूपे कण्टकाकीर्णे संसारमार्गे कस्माद् व्रजसि ? एवमुक्तोऽप्यर्हद्दत्तो बोधिमलब्ध्वा वदति-कस्त्वम् । ततो देवः स्वपूर्वभवसम्बन्धिनं मूकरूपं दर्शयित्वा माहहे भ्रातः! शृणु, भवता पूर्वजन्मनि देवभवं प्राप्य मह्यं निगदितम्-यदा स्वर्गाइस प्रकार उस देव के वचन सुनकर अर्हद्दत्त मुनि अरतिपरीषह का सर्वथा नहीं त्याग सका । देवने और भी उपाय उसे समझाने के लिये किये जैसे कोई एक दिन जब अहंदत्त बाहर जा रहे थे तब देव भी इनके आगे २ चलने लगा और रास्ता छोड़कर कुरास्ते जाने लगा। वह मार्ग कण्टकाकीर्ण था एवं अटवी की ओर जानेवाला था। उसकी इस प्रकार चाल देखकर अर्हद्दत्त मुनि ने कहा कि तुम कैसे आदमी हो जो मार्ग का परित्याग कर कुमार्ग से जा रहे हो । तब देव ने भी अहंद्दत्त से कहा कि तुम भी कैसे आदमी हो जो विशुद्ध मोक्षमार्ग का परित्याग कर आधिव्याधिरूप कंटकों से आकीर्ण संसारमार्ग में जाने को तैयार हो रहे हो। इस प्रकार जब देव ने कहा तो वह अर्हद्दत्त कहने लगा कि-सच तो कहो तुम कौन हो । देवने अर्हद्दत्त की इस प्रकार बात सुनकर अपना पूर्वभवसंबंधी मूक रूप दिखा कर कहा-हे मित्र ! सुनो आपने पूर्वभव में देवभव प्राप्त कर मुझ से कहा था कि यदि मैं વચન સાંભળીને પણ અહંદર મુનિએ અરતિપરીષહનો ત્યાગ સર્વથા ન કર્યો. દેવે બીજા પણ ઉપાય તેને સમજાવવા માટે કર્યા. જેમ કેઈ એક દિવસ અહંદર બહાર જઈ રહ્યા હતા ત્યારે દેવ પણ તેની આગળ આગળ ચાલવા લાગ્યા અને રસ્તે છેડીને કુરસ્તે જવા લાગ્યા. તે માર્ગ કાંટાથી ભરેલ હતો. અને ઘોર જંગલ તરફ જતા હતા. તેની આ પ્રકારની ચાલ જોઈને અહંદ મુનિએ કહ્યું તમે કેવા માણસ છે કે માગનો ત્યાગ કરી માગે જઈ રહ્યા છે. ત્યારે દેવે પણ અહંદત્તને કહ્યું કે, તમે પણ કેવા આદમી છે કે, વિશુદ્ધ મોક્ષ માગને પરિત્યાગ કરી આધિ વ્યાધિ રૂપ કાંટાઓથી ભરેલા સંસારમાગમાં જવાને તૈયાર થઈ રહ્યા છે. આ પ્રકારે દેવે કહ્યું એટલે અહંદત્ત કહેવા લાગ્યા કે, સાચું કહો તમે કેણ છે? દેવે અદત્તની આ વાત સાંભળીને પોતાના પૂર્વભવ સંબંધી મૂંગાનું સ્વરૂપ દેખાડીને કહ્યું કે, હે મિત્ર! સાંભળે. આપે પૂર્વભવમાં દેવ ભવ પ્રાપ્ત કરી મને કહ્યું હતું કે, ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #444 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रियदर्शिनी टीका. अ०२ गा. १५ अरतिपरीषहजये अर्हहत्तदृष्टान्तः ३८९ पच्युतः स्याम् , तदा तव सहोदरभ्राता भविष्यामि, ततस्त्वया सुरालयगतेनाऽप्यहं जैनधर्म प्रतिबोधनीयः, इति त्वद्वचनं मया स्वीकृतम् , अतस्त्वां प्रतिबोधयितुमहमत्रागतोऽस्मि, तस्माद् धर्म स्वीकृत्य मुहुर्मुहुररति मा सेवस्व, इत्येवं मूकदेववचनं निशम्याहद्दत्तोऽब्रवीतू-पूर्वभवेऽहं देव आसमित्यत्र किं प्रमाणम् ? ततो मूकदेवस्तद्विश्वासार्थ देवभवे तेन रोपितमाम्रवृक्षं प्रदर्श्व सर्वं पूर्ववृत्तमवदत् । ततस्तस्य जातिस्मरणमभूत् । तेनाऽस्य चारित्रदृढता जाता। अस्य पूर्वमरतिः, पश्चात्संयमे रतिः समुत्पन्ना। एवमन्यैर्रापमुनिभिररतिपरीषहस्तन्निराकरणेन सोढव्यः॥१५॥ देवभव से च्युत हुआ तो तुम्हारा सहोदर होऊंगा, इसलिये तुम देवलोग में देव होते हुए भी मुझे जैनधर्म का प्रतिबोध देना। तुम्हारे इस कथन को उस समय मैंने स्वीकार कर लिया था। इसलिये मेरी प्रतिज्ञा के अनुसार मैं तुम्हें प्रतिबोधित करने के लिये यहां आया हुआ हूं; अतः संयमको अंगीकार कर फिर उस में बार बार अरति का सेवन नहीं करना चाहिये । इस प्रकार मूक देव के वचन सुनकर अर्हद्दत्त ने कहा कि इस में क्या प्रमाण है कि मैं पूर्वभव में देव था । मूकदेव ने अर्हद्दत्तकी बात सुनकर उसके विश्वास के लिये देवभव में आरोपित आम्रवृक्ष को दिखलाकर समस्त पूर्व का वृत्तान्त कह दिया । इस सब को सुनकर उसे जातिस्मरण हो गया। इससे इसके चारित्र में दृढता आगई। इस का सारांश यही है कि देखो अर्हद्दत्त को पहिले चारित्र में अरति थी पश्चात् प्रतिबोधित होने पर उसे चारित्र में रति आ गई इस बात को જો હું દેવ ભવથી ૨ચુત થઈશ તે તમારે સદર બનીશ. આ માટે દેવ લોકમાં રહેવા છતાં પણ તમે મને જૈનધર્મને પ્રતિબોધ આપતા તમારા એ કથનને મેં એ સમયે સ્વીકાર કરી લીધું હતું જેથી મારી પ્રતિજ્ઞા અનુસાર હું તમને પ્રતિબંધિત કરવા માટે અહિં આવ્યું છે. આથી સંયમને અંગિકાર કરી તેમા વારંવાર અરતિનું સેવન ન કરવું જોઈએ. આ પ્રકારે તે મૂંગા દેવનાં વચન સાંભળીને અહંદને કહ્યું કે, આમાં કયું પ્રમાણ છે કે, હું પૂર્વભવમાં દેવ હ. મૂંગા દેવે અહંદત્તની વાત સાંભળીને તેના વિશ્વાસ માટે દેવ ભવમાં ઉગાડેલું આમ્રવૃક્ષ દેખાડીને અગાઉનું સઘળું વૃત્તાંત કહી સંભળાવ્યું. આ બધું જોઈ જાણીને તેને જાતિસ્મરણ થયું. આને સારાંશ એ છે કે, અહદત્તને પહેલાં ચરિત્રમાં અરતિ હતી પછી પ્રતિધિત થવાથી તેના ચરિત્રમાં રતિ આવી. આ વાતને જાણીને ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #445 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययनसूत्रे अरतिसद्भावे स्त्रीष्वभिलाषः स्यादतः स्त्रीपरीषहजयं प्राहमूलभू-संगो एस मणुस्साणं, जाओ लोगंमि इथिओ । जैस्स एया परिणाया, सुकैडं तस्स सामण्णं ॥१६॥ छाया-संग एष मनुष्याणां, याः लोके स्त्रियः ।। यस्य एताः परिज्ञाताः, सुकृतं तस्य श्रामण्यम् ॥१६॥ टीका-'संगो' इत्यादि। लोके अस्मिन् संसारे याः स्त्रियः सन्ति, एष मनुष्याणां-पुरुषाणां संग संगच्छतेशीभवति जीवो यस्मात् स संगो बन्धनम्-यथा मृगाणां बन्धनं वागुरादि, यथा वा मक्षिकाणांश्लेष्मसंगो बन्धनं तथा पुरुषाणां स्त्रियो बन्धनमित्यर्थः। स्त्रियो हि हावभावादिभिः पुरुषाणां विषयासक्तिलक्षणं रागमुत्पादयन्ति, रागोजानकर सब मुनियों को चाहिये कि वे आते हुए अरतिपरीषह को निवारण कर संयम में रति रखें ॥१५॥ अरति के सद्भाव में मुनि को स्त्रीपरीषह उत्पन्न होने का संभव है इस लिये अब सूत्रकार आठवें स्त्रीपरीषहजय को कहते हैं___ 'संगो एस'-इत्यादि अन्वयार्थ (लोगंमि-लोके:) इस संसार में (जाओ इथिओ-याः स्त्रियः) जो स्त्रियां हैं (एस मणुस्साणं संगो-एषः मनुष्याणां संगः) यह मनुष्यों का बन्धन है । जिस प्रकार मृगों का बंधन वागुरा-जाल-आदि, मक्षिका का बंधन श्लेष्म आदि हैं उसी प्रकार स्त्रियां भी पुरुषों का बंधनरूप हैं, क्यों कि ये स्त्रियां हाव भाव आदि से पुरुषों में विषयासक्तिरूप राग उत्पन्न करती हैं। तद्विषयक राग की उत्पत्ति होने पर સઘળા મુનિઓએ જાણવું જોઈએ કે, આવેલ અરતિપરીષહને નિવારી સંયમમાં રતિ રાખે. જે ૧૫ અરતિના અભાવમાં મુનિને સ્ત્રી પરીષહ ઉત્પન્ન થવાને સંભવ છે. તેથી सा२ मामा स्खी परीष तानु छ. संगोएस-त्याहि. Aqयार्थ-लोगंमि-लोके ॥ संसारमा जाओ-इथिओ-याः स्त्रियः । खिया छ, एस मणुस्साणं संगो-एषः मनुष्याणां संगः ते मनुष्यानु म धन छ. २म મૃગોનું બંધન જાળ આદિ માખીઓનું બંધન ગળફા આદિ છે, તે પ્રકાર સ્ત્રિઓ પણ પુરૂષને બંધનરૂપ છે કેમ કે, સ્ત્રિઓ હાવભાવ આદિથી પુરૂષામાં વિષયાસક્તિ રૂપ રાગ ઉત્પન્ન કરે છે, તે વિષયરોગ ઉત્પત્તિ થવાથી પુરૂષ તેને વશીભૂત બની જાય છે. ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #446 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रियदर्शिनी टोका अ० २ गा. १६ स्त्रीपरीषहजयः ३९१ त्पत्तौ च तद्वशीभूतानां पुरुषाणां नरकनिगोदादिदुर्गतिकसंसारपातः, तस्मात् स्त्रियः पुरुषाणां बन्धनमिति व्यपदेशः । अतः किं कर्तव्यमित्याकाङ्क्षायामाह -' जस्स ' इत्यादि । यस्य - अत्र सम्बन्धसामान्ये षष्ठी, येन मुनिनेत्यर्थः, एताः स्त्रियः परिज्ञाताः परि सर्वथा ज्ञाताः ज्ञ - परिज्ञयाऽस्मिन् भवे परभवे चानन्तदुःखकारणतया विज्ञाताः प्रत्याख्यान परिज्ञया च परिवर्जिताः, तस्य मुनेः श्रामण्यं = चारित्रम् अत्र श्रामयेन सह परिपाल्य परिपालकभावसम्बन्धे षष्ठी । सुकृतं = सुष्ठु आचरितं भवति, सफलं भवतीत्यर्थः ॥ १६॥ " पुरुष उनके वशीभूत हो जाता है । उनके वश में हो जाने से उसका नरक निगोद आदि दुर्गतिरूप संसार में पतन अवश्यंभावी है। इस लिये ये स्त्रियां पुरुषों का बंधन है । इसलिये ( जस्स - यस्य ) जिस मुनि द्वारा (एया परिणाया - एताः परिज्ञाताः ) ये सर्वथा ज्ञ-परिज्ञा से इस भव में तथा परभव में अनंत दुःखों के कारणरूप जानकर प्रत्याख्यानपरिज्ञा से परिवर्जित कर दी जाती हैं ( तस्स सामण्णं सुकर्ड - तस्य श्रामण्यं सुकृतम्) उस मुनि का साधुपना सफल है । भावार्थ - जिस प्रकार मृगादि पशुओं को पकड़ कर रखने के लिये वागुरा (जाल) आदि बन्धन प्रसिद्ध हैं क्यों कि इन द्वारा परतन्त्र किये वे स्वतन्त्र विहार से रहित हो जाते हैं, और अनेक प्रकार की यातनाएँ सहन करते हैं इसी प्रकार पुरुषों का बंधन ये स्त्रियां हैं। इनके वश में पड़ा हुआ प्राणी परतन्त्र होकर अपनी स्वन्तत्रता चारित्र તેના વશ થવાથી તેનું નરક નિગેદ આદિ દુતિ રૂપ સંસારમાં પતન अवश्यंभावि छे भाटे स्त्रि पुरषोनुं बंधन छे, या भाटे जस्स - यस्स ने भुनिद्वारा एयापरिणाया - एताः परिज्ञाताः मे सर्वथा ज्ञ परिज्ञाथी मालव તથા પરભવમાં અનંત દુઃખાના કારણુ રૂપ જાણીને પ્રત્યાખ્યાન પરિજ્ઞાથી परिवत ४री हेवामां आवे छे तस्स सामण्णं सुकडं तस्य श्रामण्यं सुकृतम् એવા મુનિનુ સાધુ પણુ' સફળ છે. ભાવા—જે પ્રકાર મૃગ આદિ પશુએને પકડી રાખવા માટે જાળ આદિ અંધન પ્રસિદ્ધ છે કેમ કે, તેના દ્વારા પરતંત્ર કર્યાંથી તે સ્વતંત્ર વિહારથી રહિત ખની જાય છે અને અનેક પ્રકારની યાતનાઓ સહન કરે છે. આ રીતે પુરૂષનું અંધન સ્ત્રીઓ છે તેના વશમાં પડેલા પ્રાણી પરતંત્ર મનીને ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર ઃ ૧ Page #447 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३९२ उत्तराध्ययनसूत्रे अतः किं कर्तव्यमित्याहमूलम्-एवमादाय मेहावी, पंकभूयाउ इथिओ। नो ताहि विणिहन्नेजा, चरेज्जत्तगवेसए ॥ १७॥ छाया-~एवमादाय मेधावी, पङ्कभूताः स्त्रियः। नो ताभिर्विनिहन्यात् , चरेदात्मगवेषकः ॥ १७ ॥ में रमणता-भूल जाता है और इससे अनन्त नरक निगोदादि की वेदनाएँ सहन करता रहता है । यही कारण है कि जो स्वतन्त्र होने के अभिलाषी हैं वे इस बंधन से सदा दूर रहते हैं। यदि कदाचित् इस बंधन में पड़ने का अवसर आ भी जाय, अथवा जो इस बंधन से जकडे जायें तो उनका कर्तव्य है कि वे अपनी ज्ञानशक्ति को जागृत कर इस बंधन से मुक्त होने का प्रयत्न करते रहें । बंधन तो कोई भी आत्मा के लिये श्रेयस्कर नहीं है। ऐसा ख्याल कर प्रत्येक मोक्षाभिलाषी को पुरुषार्थ जगाकर बंधन से परे होते रहना चाहिये । जिन साधुओं ने ऐसा विचार कर इस अनंत दुःखदायी बंधन का ज्ञ-परिज्ञा से जानकर प्रत्याख्यान-परिज्ञा से परित्याग कर दिया है उनका यह प्रशंसनीय परित्यागपूर्वक संयमपालन वंदनीय है ॥ १६ ॥ ___ और भी साधु का इस विषय में क्या कर्तव्य होना चाहिये यह इस गाथा द्वारा सूत्रकार प्रकट करते हैं-'एवमादाय-'इत्यादि પિતાની સ્વતંત્રતા, ચારિત્રમાં રમણતા ભુલી જાય છે અને તેનાથી અનંત નરક નિગોદાદિકની વેદનાઓ સહન કરતો રહે છે, એટલા માટે જે સ્વતંત્ર થવાને અભિલાષી છે તે આ બંધનથી સદા દૂર રહે. જે કદાચિત આ બંધનમાં જકડાઈ પણ જાય છે તેનું કર્તવ્ય છે કે, તે પોતાની જ્ઞાનશક્તિને જાગૃત કરી આ બંધનથી મુક્ત થવાના પ્રયત્ન કરતે રહે. બંધન તે કઈ પણ આત્મા માટે શ્રેયસ્કર નથી. એ ખ્યાલ કરી પ્રત્યેક મોક્ષ અભિલાષીએ પુરૂષાર્થ જગાડી બંધનથી મુક્ત થતા રહેવું જોઈએ. જીન સાધુઓએ આ વિચાર કરી આ અનંત દુઃખદાયી બંધનને જ્ઞ–પરિજ્ઞાથી જાણુને પ્રત્યાખ્યાન પરિજ્ઞાથી તેને પરિત્યાગ કર્યો છે. તેમનું આ પ્રસંશનીય પરિત્યાગ પૂર્વકનું સંયમ પાલન પ્રસંશનીય છે, વંદનીય છે ૧૬ - સાધુનું આ વિષયમાં બીજું શું કર્તવ્ય છે, તે આ ગાથા દ્વારા સૂત્રકાર प्रदर्शित ४२ छ. 'एवमादाय त्याह. ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #448 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रियदर्शिनी टीका. अ० २ गा० १७ स्त्रीपरीषहजये लावण्यपूरमुनिदृष्टान्तः ३९३ टीका-'एवमादाय ' इत्यादि । स्त्रियः पङ्कभूताः कर्दमतुल्या एव सन्ति, मोक्षमार्गे विचरतां विघ्नकारकस्वाद् , मालिन्यजनकत्वाच्च, अत्र तु-शब्दोऽवधारणार्थकः, एवम्-ईदृशं प्रवचनरहस्यमर्थम् , आदाय गृहीत्वा बुद्धया निश्चित्येत्यर्थः । मेधावी-चारित्रमर्यादावर्ती, ताभिः स्त्रीभिः, नो नैव विनिहन्यात् , आत्मानं संयमरूपजीवितोपघातेन न नरकादिषु पातयेदित्यर्थः, किं तु आत्मगवेषकः-आत्मानमेव गवेषयतीत्यात्मगवेषकः, 'आत्मा केनोपायेन संसारसागरतस्तारणीयः, इत्येवमात्मकल्याणचिन्तनपरः सन् , चरेत् ब्रह्मचर्यधर्मारामे विहरेदित्यर्थः।। ___ अन्वयार्थ-(इथिओ पंकभूयाउ-स्त्रियः पंकभूताः) ये स्त्रियां कर्दम तुल्य ही हैं, क्यों कि मोक्षमार्ग में विचरण करने वाली आत्माओं को ये सदा से विघ्नकारक होती हैं, तथा इनसे पुरुषों में रागरूप मलिनता उत्पन्न होती है (एवमादाय मेहावी-एवमादाय मेधावी) इस प्रकार प्रवचन के रहस्यभूत अर्थ का अपनी हिताहितविवेचक धुद्धि से निश्चय कर चारित्र की मर्यादा में रहने वाला मुनि (ताहिं नो विणिहन्नेज्जा-ताभिः नो विनिहन्यात् ) स्त्रियों द्वारा अपने संयमरूप जीवन के विनाश से अपने आपको नरकादिक योनियों में नहीं गिरावे किन्तु (अत्तगवेसए चरेज्ज-आत्मगवेषकः चरेत् ) " आत्मा किस उपाय से इस संसार सागर से पार हो" इस प्रकार आत्मकल्याण की चिन्तना में तत्पर होता हुआ वह ब्रह्मचर्यरूप आराम-उद्यान में ही विचरण करता रहे। मन्वयार्थ–इथिओ पंकभूया उ-स्त्रियः पंकभूताः ॥ स्निया ४४१ तुक्ष्य छ, કારણ કે મોક્ષ માર્ગમાં વિચરનારા આત્માઓને એ સદા વિનકારક થાય છે. भने तनाथी पुरुषोमा २।१३५ मसिनता उत्पन्न थाय छे. एवमदाय मेहावी-एवमादाय મેધાવી આ પ્રકારે પ્રવચનના રહસ્યભૂત અર્થને પિતાના હિતાહિત વિવેચક भुद्धिथी निश्चय ४३ यास्त्रिनी भामा २२वा मुनि ताहिं नो विणिहन्नेज्जा -ताभिः नो विनिहन्यात् श्रियो द्वारा थती पाताना सयभ३५ अपना विनाशथी पोते पाताने नहि योनिमामा न as onय. परंतु अत्तगवेसए चरेज-आत्मगवेषकः चरेत् “मात्मा ज्या पायथी मा संसार सागरने तरी जय" या પ્રકારની આત્મકલ્યાણની ચિંતનામાં તત્પર રહીને તે બ્રહ્મચર્યરૂપ આરામ ઉદ્યાનમાં જ વિચરણ કરતા રહે. उ० ५० ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #449 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययनसूत्रे अयं भावः-धर्ममर्यादानुवर्ती मुनिः-स्त्रीणामङ्गप्रत्यङ्गसंस्थानहसितविभ्रमायाश्चित्तविक्षेपकारिणीश्चेष्टाः कदाचिदपि न चिन्तयेत् , नापि कामबुद्धया मोक्षमार्गकर्दमकल्पासु तासु चक्षुरपि निक्षिपेत् कित्वात्मानमेव पर्यालोचयेत्। एवं स्त्री परीषहजयः स्यादिति । अत्र दृष्टान्तः प्रदर्श्यते द्वादशतीर्थकरवासुपूज्यशासने चम्पानगयां तद्वंशीयो रूपलावण्यसम्पन्नः, सुजातसर्वाङ्गसुन्दरः, शशिसौम्याकारः, इष्टः, इष्टरूपः, कान्तः, कान्तरूपः, प्रियः, ___ इस का भाव यह है-धर्म मर्यादा अनुवर्तन करने वाला मुनि चित्त को विक्षिप्त करने वाली स्त्रियों के अंग, प्रत्यंग की आकृति का, तथा उनकी हांसी आदि क्रियाओं का एवं हाव विभाव आदि विलासों का कभी भी विचार तक न करे, और न मोक्षमार्ग में कर्दमस्वरुप इनको विकारदृष्टि से देखे । जहां तक हो मुनिका यही कर्तव्य है कि वह अपनी आत्मा का जिस तरह से कल्याण होता रहे, तथा जिन विचारधाराओं से वह अहर्निश अपने गृहीत पथ पर अग्रगामी बना रहे, इस प्रकार का ही प्रयत्न साधु को करते रहना चाहिये । यही अपनी पर्यालोचना है॥ दृष्टान्त-बाहर वें तीर्थकर श्री वासुपूज्य स्वामी के शासन काल में चम्पानगरी में इन्हीं का वंशज लावण्यपूर नामका एक राजा रहता था। _वह सुजातसर्वाङ्गसुन्दर-अर्थात् आकार से सर्वाङ्ग सुन्दर था, આને ભાવાર્થ એ છે કે-ધમ મર્યાદાનું અનુવર્તન કરવાવાળા મુનિ ચિત્તને વિક્ષિત કરવાવાળી સ્ત્રિઓના અંગ પ્રત્યંગની આકૃતિનું તથા તેની હાંસી આદિ કિયાઓનું, અને હાવભાવ આદિ વિલાસેને કદી વિચાર સુદ્ધાં પણ ન કરે. મોક્ષમાર્ગમાં કદમ સ્વરૂપ એવી આ ભાવનાને વિકાર દૃષ્ટિથી ન જુએ. એનું કર્તવ્ય છે કે, જ્યાં સુધી બની શકે ત્યાં સુધી પિતાના આત્માનું કલ્યાણ થતું રહે અને જે વિચારધારાઓથી તે હરહંમેશ પિતે ગ્રહણ કરેલ માર્ગ ઉપર અગ્રગામી બની રહે. આ પ્રકારને જ વિચાર પ્રયત્ન સાધુએ કર જોઈએ એ જ તેમની પર્યાલચના છે. દષ્ટાંત–બારમા તીર્થંકર શ્રી વાસુપૂજ્ય સ્વામીના શાસનકાળમાં ચંપાનગરીમાં તેમના જ વંશના લાવણ્યપૂર નામના એક રાજા રાજ્ય કરતા હતા. તે ફુલાવરકું અર્થાત આકારથી સર્વાગ સુંદર હતા, તે સકલસમાજના મને રથ પૂર્ણ કરવાવાળા હોવાથી બધાને ફૂર હતા, તેમની આકૃતિ મનહર ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #450 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रियदर्शिनी टीका. अ० २ गा० १७ स्त्रीपरीषहजये लावण्यपूरमुनिदृष्टान्तः ३९५ प्रियरूपः, मनोज्ञः, मनोज्ञरूपः, सौम्यः, सुभगः, प्रियदर्शनः, सुरूपोः लावण्यपूरनामको नृप आसीत् । असौ नृपः सुभूमनामकस्य वासुपूज्यतीर्थकृत्पथमगणधरस्य समीपे धर्मदेशनां श्रुत्वा दीक्षितो जातः। ___ स चैकदा भिक्षाचर्या पर्यटन श्रावकगृहं मत्वा वेश्यागृहं प्रविष्टः, तत्र सा कामवह सकल समाज का मनोरथ पूर्ण करनेवाला होने से सब को इष्ट था, इसकी आकृति मनोहर होने से इष्टरूप था, तथा वह सबका सहायक होने से कान्त अभिलषणीय था । वह कान्तरूप रूप से भी कान्त कमकमनीय था। वह सब जनों के उपकार करने में परायण होने से सबके लिये प्रिय था । बह रूप से भी प्रिय होने से प्रियरूप था। सब के हितकारी होने से बह मनोज्ञ था। इसके देखने वाले के लिये यह चित्ताकर्षक होने से मनोज्ञ रूप था । दुःखियों का दुःख दूर करने वाला होने से मनोऽम सबके मन में बसने वाला था। सकल जनमन के अनुकूल आकृति वाला होने से मनोऽमरूप था, इसलिये वह सौम्य-भद्र स्वभाव होने से समस्त जन का आह्लादक था। तथा कल्याण मार्ग पर चलने वाला होने से सुभग था । वह प्रियदर्शन था अर्थात् जो व्यक्ति इसे एकबार भी देख लेता तो पुनः उसे देखनेकी लालसा उस के बनी रहती थी । वह सुरूप-लावण्य की राशि से भरपूर था। राजा ने मुभूम नाम के गणधर के पास जो वासुपूज्यतीर्थ कर के प्रथम गणधर थे धर्मदेशना सुनकर दीक्षा धारण करली । હોવાથી શુષ્ટ હતા. તથા તેઓ બધાને સહાય કરવાવાળા હોવાથી જાન્ત અભિसषीय उता. ते कान्तरूप ३५थी ५५ ४iत-भनीय हुता. तया ४२४ मनुष्य પર ઉપકાર કરવામાં પરાયણ હોવાથી દરેકને પ્રિય હતા. તે રૂપથી પણ પ્રિય હોવાથી પ્રિય હતા. દરેકના હિતચિંતક હોવાથી તે મનોજ્ઞ હતા. તેમને જેનારને તેઓ ચિત્તાકર્ષક હોવાથી મનોજ્ઞ હતા, દુઃખીઓના દુઃખ દૂર કરવાવાળા હેવાથી મનોમ અર્થાત્ દરેકના મનમાં વાસ કરવાવાળા હતા. સકલ જનમનની અનુકૂળ આકૃતિવાળા હોવાથી મનોગમા હતા, એ માટે તેઓ સભ્ય ભદ્રસ્વભાવ હોવાથી સમસ્તજનના આહ્લાદક હતા. તથા કલ્યાણ માર્ગ પર ચાલવાવાળા હોવાથી ગુમ હતા તેઓ પ્રિયદર્શનીય હતા, અર્થાત્ જે કંઈ तेने सवार थे तो इरीथी तेननवानी सा उत्पन्न च्या ४२ती. ते सुरूपરૂપલાવણ્યથી ભરપૂર હતા. રાજાએ સુભમ નામના ગણધરની પાસે કે જે વાસુપૂજ્ય તીર્થકરના પ્રથમ ગણધર હતા તેમની ધર્મદેશના સાંભળીને દીક્ષા ધારણ કરી લીધી. ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #451 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययनसूत्रे मञ्जरीनाम्नी वेश्या लावण्यपूरमुनेमनोहरं वयोरूपलावण्यसंस्थानादिकं विलोक्य मोहिता जाता । अथ सा लावण्यपूरमुनिं प्रणम्य झटिति द्वारदेशमागत्य सर्वाणि निर्गमद्वाराणि पिधाय पुनस्तस्य समीपमागत्य सानुरागं पश्यन्ती सस्मितं वदतिमहात्मन् ! स्वल्पमेव कालं भवानत्र तिष्ठतु, यावद्भिक्षामानयामि । तद्विनयवचनं निशम्य लावण्यपूरमुनिस्तत्रैवतिष्ठति । सा च गृहाभ्यन्तरगता मुनिसंगमाभिलाषिणी भिक्षोपयोगिवस्तुग्रहणव्याजेन नृत्यन्तीव भवने चलन्ती, बाहुविक्षेपैः ___ एक समय की बात है कि जब ये भिक्षाचरी के लिये निकले तो वे श्रावक का घर जानकर वेश्या के घर में आहार पानी के लिये पहुंच गये। वहां वेश्या ने जब इन्हें आया हुआ देखा तो वह इन पर इनके सुन्दरातिसुन्दररूप को देखकर मोहित हो गई। वेश्या का नाम काममंजरी था। अब क्या था रूप का निधान जब घर के भीतर स्वयं आ गया है तो उसने विचार किया कि यह वापिस न हो जाय इस ख्याल से उठ कर उसने शीघ्र ही बाहिर निकल ने के जितने भी द्वार थे वे सब द्वार बंद कर दिये । पश्चात् वह उन मुनिराज के पास आई और सानुराग उनकी ओर निहार कर मुस्कराती मुस्कराती कहने लगी कि-हे महात्मन् ! आप कुछ देर तक यहां ठहरिये-जब तक मैं भिक्षा लेकर आती हूं। मुनिराज उसके विनीत वचन सुनकर वे वहीं पर ठहरे रहे और वह मुनि के साथ संगम की अभिलाषा से घर के भीतर रही हुई आहार पानी लाने के बहाने से मकान में ऐसी चलने लगी कि जैसे मानो नाचती हो। कामराग के प्रकट એક સમયની વાત છે કે, જ્યારે તે ભિક્ષાચર્યા માટે બહાર નીકળ્યા ત્યારે શ્રાવકનું ઘર જાણીને એક વેશ્યાના ઘરમાં આહાર પાણી માટે જઈ ચડયા. જ્યારે વેશ્યાએ મુનિને આવેલા જોયા ત્યારે તે તેના રૂપલાવણ્યને જોઈ તેના ઉપર મેહિત બની ગઈ. વેશ્યાનું નામ કામમંજરી હતું. રૂપનું નિધાન જ્યારે ઘરની અંદર આવેલ હતું પછી બાકી રહે શું? એણે વિચાર કર્યો કે, મુનિ પાછા ન ફરી જાય એ વાતના ખ્યાલથી ઉઠીને તેણે તરત જ બહાર નીકળવાના જેટલા રસ્તા હતા તે બધા બંધ કરી દીધા. પછી તે મુનિરાજની પાસે આવી અને વિવેકપૂર્વક હસતી હસતી સામે આવી અને મુનિરાજની સામે જોઈ કહેવા લાગી કે, હે મહાત્મન્ ! આપ ડીવાર શેકાઈ જાવ ત્યાં હું ભિક્ષા લઈને આવું છું. મુનીરાજ તેનાં વિનીત વચન સાંભળીને દરવાજા પાસે ઉભા રહ્યા અને તે વેશ્યા મુનિરાજની સાથે સંગમની અભિલાષાથી ઘરની અંદર ચાલી ગઈ. આહાર પાણી લાવવાના બહાને તે મકાનમાં એ રીતે ચાલવા ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #452 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रियदर्शिनी टीका. अ० २ गा. १७ स्त्रीपरीषहजये लावण्यपूरमुनिदृष्टान्तः ३९७ प्रावरणवसनापगमव्यक्तीकृताङ्गमत्यङ्गाच्छादनपरा कामरागं प्रदर्शयति । भोगाभिलापप्रकाशक मदनधनुःकल्पभ्रुकुटिविलाससहकृतशिथिलारुणनयननिपातैावण्यपूरमुनेमनो हरन्तीव, रूपयौवनसौन्दर्यसम्पन्नसुकुमाराङ्गलीलाप्रदर्शनपरा कोकिलारावमधुरस्वरेण गायति । तदनु तनुनूतनविविधवर्णचित्रितरुचिरवसनाचलस्फालनं प्रकुर्वती भूषणध्वनिमनोहरैश्चरणप्रचारणैर्मुनेः समीपमागत्य सा भृङ्गावलिसमाश्लिष्टकमलायमानलावण्यभरविद्योतितसुपुष्टरागोपगतकपोलपालो समालम्बितालकावलिविभूषितसमुज्जम्भमाणवदना भुजादिनिजगात्राणि मोटयन्ती स्मरमदोन्मादेनापहृतकृत्याकृत्यविवेकविज्ञाना गद्गदस्वरेण मुनिमभ्यर्थयति कामकरने के अभिप्राय से अपने अंग एवं प्रत्यङ्ग को साडी के गिर जाने के छल से प्रकट कर फिर उन्हें बार२ ढकने लगी। मानों मुनि के मन को हरती हो इस प्रकार वह उनके ऊपर, भोगाभिलाष सूचक एवं काम के धनुष जैसी भ्रकुटी के विलास के साथ२ कुछ२ झुके हुए अरुण नयनों के विक्षेपों से प्रहार करने लगी। रूप, यौवन, एवं सौन्दर्य से संपन्न अपने सुकुमार अंगोंकी लीला के प्रदर्शन में तत्पर बनी हुई उसने फिर कोकिल के शब्दसमान मीठे स्वर से गाना गाना भी प्रारंभ कर दिया । पश्चात् शरीर पर पहिरे हुए नवीन बहुमूल्य रंग विरंगे वस्त्र के अंचल को हिलाती एवं भूषणों की ध्वनि से मनोहर पैरों को ठुमक ठुमक कर रखती हुई वह मुनि के समीप आकर गद्गद् स्वर से कहने लगी। कहते हुए उसे जरा भी संकोच जो नहीं हुआ उसका कारण इसके ऊपर चढा हुआ काम का उन्माद था, इससे कृत्य और अकृत्य का विवेक विलुप्त हो चुका था । भौरों से युक्त कमल जिस લાગી કે, જાણે તે નાચતી હોય. કામરાગ પ્રગટ કરવાની ઈચ્છાથી પિતાના દરેક અંગ પ્રત્યંગને સાડીના પડી જવાના બહાનાથી પ્રગટ કરી ફરીથી તે શરીરને વારંવાર ઢાંકવા લાગી જાણે મુનિના મનને હરતી હોય! આ પ્રકારે તે મુનિ ઉપર, ભેગવિલાસનાં સૂચક એવાં કામના ધનુષ જેવી ભૂકુટિના વિલાસની સાથે સાથે નયનનાં બાણ ફેંકવા લાગી. રૂપ, યૌવન અને સૌંદર્યથી સંપન્ન પિતાના સુકુમાર અંગોની લીલાના પ્રદર્શનમાં તત્પર બનેલી તે વેશ્યાએ કેકિલકંઠ જેવા મીઠા સ્વરથી ગાયન ગાવાની શરૂઆત કરી. પછી શરીર ઉપર પહેરેલા નવીન રંગબેરંગી વસ્ત્રોના છેડાને હલાવતી તેમજ ઘરેણાઓની વનીથી મને હર પગોથી કુમક ઠુમક નાચતી તે મુનિની સામે આવીને તે ગદ્ગદ્ સ્વરે કહેવા લાગી, કહેતી વખતે તેને જરા પણ સંકેચ ન થ તેનું કારણ તેના ઉપર કામના ઉન્માદની છાયા ફેલાઈ ગઈ હતી. આથી કૃતાકૃત્યના ભાનને વિવેક તે ચુકી ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #453 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३९८ उत्तराध्ययनसूत्रे भोगाय-" महात्मन् ! कामज्वरभरेण संतप्तमिदं मदङ्गमधुना, दयस्व मम ताप शान्त्यै " इत्यादिविविधप्रार्थनावचनैर्विविधकामचेष्टाभिश्च सा मुनि चारित्राच्चालयितुं प्रवृत्ता । तदा मुनिश्चिन्तयति__गणिकास्त्रियो हि खलु नाम्नाऽबलाः१, कार्येण सबलाः२, प्रकृतिविषमाः ३, कपटप्रेमगिरिनद्यः ४, अपराधसहस्रगृहाः ५, प्रभवः ( उत्पत्तिस्थानं ) शोकस्य ६, प्रकार सुन्दर मालूम पड़ता है उसका मुखकमल भी केशपंक्ति से विराजित होने से ठीक ऐसा ही सुन्दर मालूम पड़ता था। मुख की कपोलपाली लावण्य के प्रकर्ष से चमक रही थी। ललाई को लिये हुए थी। काम के आवेश से यह क्षण२ में जंभाई लेती और क्षण२ में आलस्य मोड़ती हुई बोली-महात्मन् ! मेरा यह शरीर इस समय कामज्वर से संतप्त हो रहा है । अतः दया करो और इस कमज्वर को शान्त करो । इत्यादि विविध प्रार्थना के वचनों एवं अनेकविध काम की चेष्टाओं से उसने मुनि को उनके पवित्र चारित्र से चलायमान करने के लिये कोशिश की, परन्तु मुनिराज ने उस समय भी यही विचार किया कि__ ये वेश्या स्त्रियां केवल नाम से ही अबला हैं कार्यसे नहीं१ । कार्य में तो ये बड़ी भारी सबल हैं२ । प्रकृति से ये विषम होती हैं। कपट प्रेम की ये पहाड़ी नदियां है जो शीघ्र ही शुष्क हो जाती हैं ४ । हजारों अपराधों की ये स्थान हैं ५ । शोक की उत्पत्ति का ये स्थानभूत हैं ६। ગઈ હતી. ભમરાથી ગુંજતું કમળ જે રીતે સુંદર દેખાય છે તેવી રીતે એનું મુખ કમળ પણ કેશ પંકિતથી વિરાજીત હેવાથી એવું જ સુંદર દેખાતું હતું. તેના મોઢા ઉપરની લાલીમા લાવણ્યથી ચમકી રહેલ હતી. કામના આવેશથી એ ક્ષણ ક્ષણમાં અટકતી અને આળસ મરડતી બોલી. મહાત્મન ! હું આ સમયે કામવરથી પીડાઈ રહી છું આથી દયા કરી આ કામવરને શાંત કરો. ઈત્યાદિ વિવિધ પ્રાર્થના વચનથી તેમજ અનેકવિધ કામચેષ્ટાથી તેણે મુનિને તેના પવિત્ર ચારિત્રથી ચલાયમાન કરવાની કેશિષ કરી. આ સમયે મુનિરાજે એ વિચાર કર્યો કે – આ વેશ્યા સ્ત્રીઓ કેવળ નામથી જ અબળા છે, કાર્યથી નહીં ૧. કાર્યમાં તે એ ઘણું ભારે સબળ છે ૨. પ્રકૃતિથી એ વિષમ હોય છે ૩. કપટ પ્રેમની એ પહાડની નદીઓ જેવી છે, જે વહેલી સુકાઈ જાય છે . હજારો અપરાધેનું એ સ્થાન છે ૫. શોકની ઉત્પત્તિને જગાવનાર છે ૬. બળને વિનાશ કરનાર ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #454 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रियदर्शिनी टीका. अ० २ गा. १७ स्त्रीपरीषरुजये गणिकास्त्रीदोषाः ५६ ३९९ विनाश बलस्य, (बलहारकत्वात् ) ७, सूना ( वधस्थानं ) पुरुषाणाम् ८, नाशो लज्जायाः- ( लज्जारहितत्वात्, अस्याः संगे पुरुषस्य लज्जानाशाच्च ) ९, मूलमविनयस्य १०, गृहं मायानाम् ११, खनिर्वैरस्य १२, भेदो मर्यादानाम्, (संयममदायाविनाशहेतुत्वात्) १३, आश्रयो रागस्य, ( आश्रयः स्थानं ) १४, गृहं दुश्वरित्राणाम् १५, स्खलनाः ज्ञानस्य १६, विध्वंसनं ब्रह्मचर्यस्य १७, विघ्नोधर्मस्य १८, अरिः साधूनाम् ( मोक्षमार्गसाधकानां चारित्रमाणविनाशकत्वात् ) १९ दूषणं ब्रह्मचारिणाम् २०, कारणं कर्मरजसः २१, अर्गला मोक्षमार्गस्य २२, भवनं दुर्गुणस्य २३, मत्तगजवन्मदनपरवशाः २४, व्याघ्रीवद् दुष्टहृदयाः २५ तृणच्छन्नकूपवद् अप्रकाशान्तःकरणाः २६, कारीषाग्निवदन्तर्दहनशीलाः २७, अन्तर्दुष्टवबल को विनाश करने वाली हैं ७ । पुरुषों के मन की हत्या करने के लिये ये वधस्थान हैं ८ । लज्जा की विनाशक हैं ९ । अविनय की ये मूल कारण हैं १०| माया का तो यहां खजाना ही भरा रहता है ११ । वैर विरोध आदि जितने भी अनर्थ दुनियां में होते हैं उन सब में ये प्रधान रहा करती हैं अतः ये उनकी खान हैं १२ । संयममर्यादा का भंग करने वाली हैं १३ । राग का ये स्थान हैं १४ । दुश्चरित्रों की तो ये पेटी हैं १५ । ज्ञान की स्खलना करनेवाली हैं १६ । ब्रह्मचर्य को आंखें कैसे फोडी जाती हैं इस बात में ये बड़ी होशियार होती हैं १७ । धर्म की विघ्नभूत है १८ । साधुओं के लिये शत्रुसमान हैं १९ । ब्रह्मचारियों के लिये दूषणरूप है २० । कर्मरज की कारण २१, एवं मुक्तिमार्ग की ये आर्गला हैं २२ । ये दुर्गुणों के भवन हैं २३ । मत्तगजराज के समान हैं २४ । व्याघ्री के समान दुर्हृदयवाली हैं २५ तृण से ढके हुए कूप के समान हैं २६ । करीषाग्नि के समान अन्तर्दहन છે છ. પુરૂષાના મનની હત્યા કરનાર એ વધસ્થાન છે ૮. લજ્જાને નાશ કરનાર છે ૯, અવિનયનુ એ મૂળ છે ૧૦. માયાના તે એ ખજાના છે ૧૧. વૈર વિરાધ આદિ જેટલા અનથ દુનિયામાં છે તે સઘળા અનર્થીનું ઉદ્ગમ સ્થાન છે ૧૨. આથી તે એ અનર્થાની ખાણ છે, સંયમમર્યાદાના ભંગ કરનાર છે ૧૩. રાગનુ એ સ્થાન છે ૧૪. દુરિત્રોની તા એ પેટી છે ૧૫. જ્ઞાનના નાશ કરનાર છે. ૧૬. બ્રહ્મચર્યની આંખ ફાડનારી છે ૧૭. એ મહા ચપળ હાય છે, ધર્મમાં વિઘ્ન કરાવનારી છે. ૧૮. સાધુઓ માટે શત્રુ સમાન છે ૧૯. બ્રહ્મચારિઓ માટે કલક છે ૨૦. કરજનુ કારણ છે ૨૧. મુકિત માર્ગોમાં અર્ગલા છે ૨૨. દુર્ગુણાની ખાણ છે ૨૩. મત્ત ગજરાજ સમાન છે ૨૪. વાઘણ જેવી યા વગરની છે ૨૫. ઘાસથી ઢંકાયેલા કુવા જેવી છે ૨૬. છુપા ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર ઃ ૧ Page #455 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०० उत्तराध्ययनसूत्रे णवत्कुथितहृदयाः२८, सन्ध्याभ्ररागवन्मुहूर्तरागाः२९, समुद्रवीचिवञ्चलस्वभावाः३०, कृष्णसर्पवनिरनुकम्पाः ३१, सलिलवन्निम्नगामिन्यः ३२, कृपणवदुत्तानहस्ताः ३३, नरकवत् त्रासोत्पादिकाः ३४, दुष्टाश्ववद् दुर्दमाः ३५, बालवत् क्षण रुष्टतुष्टाः ३६, अन्धकारवद् दुष्प्रवेशाः ३७, विषवल्लीवद् अनाश्रयणीयाः ३८, किंपाकफलतुल्यमुखमधुराः ३९, राक्षसीवद् अकालचारिण्यः ४०, दुरुपचाराः४१, अगम्भीराः ४२, अविश्वसनीयाः ४३, अरतिकराः ४४, रूपसौभाग्यमदमत्ताः-(रूपं-सुन्दराकृतिः, सौभाग्य-स्वकीर्तिश्रवणादिरूपं, मदो-मन्मथजगर्वः, तैमत्ताः ) ४५, भुजगगतिवत् कुटिलहृदयाः ४६, कुलस्वजनमित्रभेदनकारिकाः शील हैं २७ । भीतर के घाव की तरह कुथित हृदयवाली हैं २८ । संध्यारागसमान है २९ । समुद्र की तरङ्ग के समान चंचल स्वभाव वाली हैं ३०। कृष्णसर्प के समान भयंकर हैं ३१ । जल के समान नीचे की ओर जाने वाली हैं ३२ । कृपण की तरह उत्तान हाथोंवाली अर्थात् हर समय 'लाव-लाव' करने वाली है ३३। नरक के तुल्य कष्ट देनेवाली हैं ३४ । दुष्ट घोडे की तरह दुर्दम हैं ३५। बालक के समान क्षण२ में रुष्ट एवं तुष्ट होनेवाली हैं ३६ । अन्धकार की तरह दुष्प्रविश्य हैं ३७ । विषवल्ली की तरह आश्रय लेने योग्य नहीं हैं ३८ । किंपाक फल की तरह आदि में मधुर हैं ३९ । राक्षसी की तरह अकाल में चलने वाली हैं ४० । दुरुपचार ४१, अगंभीर ४२, अविश्वसनीय ४३, और अरतिकर हैं ४४। रूप, सौभाग्य तथा मद से सदा उन्मत्त हैं ४५ । सर्प की गति के समान कुटिल मनवाली हैं ४६। कुल में, स्वजन में, एवं मित्रों में छेद-भेद करने वाली हैं ४७। दूसरों યેલા છાણના અગ્નિ માફક બાળવાવાળી છે ૨૭. અંદરના ઘાના જેવી દુધીમાં કુથિત જેવા હૃદયવાળી છે ૨૮. સંધ્યાના રંગ જેવી છે ૨૯. સમુ. દ્રના તરંગોની માફક ચંચલ સ્વભાવવાળી છે ૩૦. કાળા સર્પ જેવી ભયંકર છે ૩૧. જળની માફક નીચે જનારી છે ૩૨. કૃપણની માફક ઉત્તાન હાથવાળી અર્થાત્ હર સમય લાવ લાવ કરવાવાળી છે ૩૩. નરકના જેવાં દુઃખે દેનારી છે ૩૪. દુષ્ટ ઘેડાના જેવી દુર્દમ છે ૩૫. બાળકની માફક ઘડીમાં રીસાનાર અને ઘડીમાં હસનાર છે ૩૬. અંધકારના જેવી બીહામણી છે ૩૭. વિષવેલના જેવી આશ્રય લેવાય તેવી નથી ૩૮ કિપાક ફળની માફક શરૂમાં મધુર છે ૩૯. રાક્ષસીની માફક અકાળમાં ચાલવાવાળી છે ૪૦, દુરૂપચાર છે ૪૧, અગંભીર છે ૪૨, અવિશ્વસનીય છે ૪૩, અરતિકર છે ૪૪, રૂપ, સૌભાગ્ય તથા મદથી સદા ઉન્મત્ત છે ૪૫, સપની ગતી સમાન કુટિલ મનવાળી છે ૪૬, કુળમાં, ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #456 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रियदर्शिनी टीका अ० २ गा. १७ स्त्रीपरीषहजये स्त्रीसङ्गनिषेधः ४०१ ४७, परदोषप्रकाशिकाः ४८, अरज्जुकाः पाशाः ( रज्जुकं विना बन्धनरूपाः) ४९, कृतपापपश्चात्तापवर्जिताः ५०, अकार्यप्रवृत्तिशीलाः ५१, अनामका व्याधयः ५२, अरूपा उपसर्गाः (अनुकूलोपसर्गभूताः) ५३, चित्तविक्षेपकारिकाः ५४, अनभ्रका विद्युतः ५४, समुद्रवेगाः, (केनापि निरोद्धमशक्यत्वात् ५६ । उक्तश्च न तथाऽस्य भवेन्मोहो बन्धश्चान्यप्रसङ्गतः। योषित्संगाद् यथा पुंसो यथा स्त्रीसंगिसंगतः ॥१॥ पदापि युवतीं भिक्षुन स्पृशेदारवीमपि । स्पृशन् करीव बध्येत करिण्या अङ्गसंगतः ॥ २॥ के दोषों को प्रकाशित करने वाली हैं ४८ । ये विना दोरी के पाशतुल्य हैं ५९ । किये हुए पापों के पश्चात्ताप से वर्जित ५०, एवं अकार्य में प्रवृत्ति करने वाली होती हैं ५१ । विना नाम की ये व्याधियां हैं ५२ । विना आकृति के उपसर्ग समान हैं ५३ । चित्तको विक्षेप करने वाली हैं ५४ाविना बादलों की ये विद्युत् हैं ५५। किसी से भी इनका वेग रोका नहीं जा सकता, इसलिये ये समुद्र के वेग जैसी हैं ५६ । कहा भी है न तथाऽस्य भवेन्मोहो बन्धश्चान्यप्रसंगतः । योषित्संगाद् तथा पुंसो, यथा स्त्रीसंगिसंगतः ॥१॥ पदाऽपि युवती भिक्षुर्न स्टशेदारवीमपि । स्पृशन् करीव बध्येत, करिण्या अंगसंगतः ॥२॥ अर्थात्-पुरुष को स्त्री के संग से तथा विषयविलासी के संग से जिस प्रकार का मोह और बन्ध होता है उस प्रकार का मोह और સ્વજનમાં તેમજ મિત્રામાં છે ભેદ કરાવનારી છે ૪૭, બીજાના દેને પ્રકા શીત કરવાવાળી છે ૪૮, દેરી વગરના ફાંસલા જેવી છે ૪૯, કરેલા પાપના પશ્ચાત્તાપથી દૂર રહેનારી છે ૫૦, અકાર્યમાં પ્રવૃત્તિ કરનાર હોય છે ૫૧, નામ વગરને એ રેગ છે પર, આકૃતિ વગરને ઉપસર્ગ છે પ૩, ચિત્તને વ્યગ્ર બનાવનાર છે ૫૪, વાદળ વગરની વિજળી જેવી છે, કેઈથી તેને વેગ રોકી શકાતું નથી આ કારણે તે સમુદ્રના વેગ જેવી છે. કહ્યું છે કે न तथाऽस्य भवेन्मोहो बन्धश्चान्य प्रसंगतः। योषित्संगाद् तथा पुसो, यथा स्त्री संगिसंगतः ॥१॥ पदाऽपि युवति भिक्षुन स्पृशेद्दारवी मपि । स्पृशन् करीव बध्येत, करिण्या अंग संगतः ॥२॥ પુરૂષને સ્કિના સંગથી તેમજ વિષય વિલાસીના સંગથી જે પ્રકારનો મોહ અને બંધ થાય છે, તે પ્રકારને મેહ અને બંધ બીજાથી થતો નથી. આ उ० ५१ ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #457 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०२ उत्तराध्ययनसूत्रे तथैव पुरुषसंगः साध्वीनामपि । उक्तश्च घृतकुम्भसमा नारी तप्ताङ्गारसमः पुमान् । तस्माद् घृतं च वह्नि च, नैकत्र स्थापयेद्बुधः ॥ १॥ इत्येवं विचिन्त्यासौ सुधाधारासारया प्रवचनसारया गिरा तां प्रतिबोधयति । बन्ध दूसरे से नहीं होता है ॥ १ ॥ इसलिये मुनि को चाहिये की वह काष्ट की पुतली को भी पैर से भी स्पर्श न करे, अगर स्पर्श करे तो जिस प्रकार हथनी के अंगस्पर्श से हाथी बन्ध जाता है उसी प्रकार मुनि भी कामराग में बंध जाता है ॥२॥ इसी प्रकार साध्वियों के लिये भी पुरुषों का संग वर्जनीय है। क्यों कि-पुरुष का संग साध्वी के ब्रह्मचर्य के नाश में असाधारण हेतु है। कहा भी है-- “घृतकुम्भसमा नारी, तप्ताङ्गारसमः पुमान् ॥ तस्माद् घृतं च वहिं च, नैकत्र स्थापयेद् बुधः ॥१॥ अर्थात्--स्त्री घी के भरे हुए घडे के समान है और पुरुष प्रज्वलित अङ्गार के समान है । इसलिये विद्वान् को चाहिये कि घृत और अग्नि को एक जगह नहीं रक्खे। ___ इस प्रकार उन लावण्यपूर मुनिराज ने विचार किया। विचार करने के पश्चात् काम से अति विह्वल बनी हुई उस वेश्या को उन्हों ने માટે મુનિઓએ લાકડાની પુતળીને પગથી પણ સ્પર્શ ન કરવો જોઈએ. કારણ કે, સ્પર્શ કરવાથી જેમ હાથી હાથણીના અંગસ્પર્શથી બંધાઈ જાય છે, એજ રીતે મુનિ પણ કામ રાગમાં બંધાઈ જાય છે. કહ્યું છે કે–આ પ્રકારે સાદ્ધિઓને માટે પણ પુરૂષને સંગ તજવા ગ્ય છે, કારણ કે પુરૂષનેસંગ સાવિને બ્રહ્મચર્યના નાશમાં અસાધારણ હેતું છે કહ્યું પણ છે– धृतकुम्भसमा नारी, तप्ताङ्गारसमः पुमान् । तस्माद् धृतंच वहींच नैकत्र स्थापयेद् बुधः ॥१॥ સ્ત્રિ ઘીના ભરેલા ઘડા સમાન છે અને પુરૂષ પ્રજવલિત અગ્નિ સમાન છે, માટે વિદ્વાને જાણવું જોઈએ કે ઘી અને અગ્નિને એક સ્થળે ન રાખે. આ પ્રકારે તે લાવણ્યપૂર મુનિરાજે વિચાર કર્યો. વિચાર કરીને પછીથી કામવિહળ બનેલી તે વેશ્યાને પિતાની અમૃતતુલ્ય વાણીથી સમજાવવાને ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #458 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रियदर्शिनी टीका. अ० २ गा० १७ स्त्रीपरीषहजये लावण्यपूरमुनेः परीषहाः ४०३ भगिनि ! इदमब्रह्मचर्य महापुरुषैरनाचरितं, जन्मजरामरणदायकं कातरपुरुषसेवितं प्रमादबहुलं तपःसंयमविघ्नभूतमधर्मद्वारम् , पङ्कपनकपाशजालतुल्यम् । अस्य खल अब्रह्मचर्यस्य फलविपाकोनरकनिगोदाधनन्तदुखरूपो महादारुणः, पल्योपमसागरोपमकालेनाप्यमुच्यमानाऽशातवेदनारूपः, तस्माद् विरम्यतामस्मात्पापाचरणात्, फिर अपनी अमृततुल्य वाणी से समझाना प्रारंभ किया । कहा-हे देवानुप्रिये ! तुम क्या करने के लिये उद्यत हो रही हो । तुम्हें क्या मालूम नहीं है कि कुशीलसेवन का मार्ग महापुरुषों से अनाचरित है। इस में ऐसा कोई भी लाभ नहीं है जो आत्मा को हितकारक हो। इस से जन्म जरा एवं मरण व कष्टों को भोगने के सिवाय कुछ नहीं मिलता है । ब्रह्मचर्य में जो कायर हैं वे ही इसमें आनंद मानते हैं। ये विषयभोग प्रमादबहुल एवं तप तथा संयम के पालन में प्रबल अन्तरायस्वरूप हैं। अधर्म के प्रधान मार्ग हैं। यह कुशीलसेवन पंक - कीचड, पनक-काई तथा जाल के समान है। अर्थात् इसमें मनुष्य गड़ जाता है, फिसल जाता है, और बंध जाता है। इस अब्रह्मचर्य सेवन का फल जीवों को नरक निगोद के अनंत दारुण दुःखों के भोगने के रूप में प्राप्त होता है। इसके सेवन के फलस्वरूप अशातवेदनाएँ पल्योपम सागरोपम तक भोगनी पडती हैं, इस लिये इस पापाचरण से विरक्त होने में ही આરંભ કર્યો, અને કહ્યું ! હે દેવાનુપ્રિયે! તું શું કરવા માટે પ્રવૃત્ત બની છે? તને શું ખબર નથી કે, કુશીલ સેવનને માર્ગ મહાપુરૂષે આચરવા ગ્ય નથી. તેમાં કેઈ એ લાભ નથી જે આત્માને હિતકારક હોય, એનાથી જન્મ, જરા અને મરણનાં દુઃખે ભેગવવા સીવાય બીજું કાંઈ મળતું નથી. બ્રહ્મચયમાં જે કાયર હોય છે તેજ આમાં આનંદ માને છે. આ વિષયોગ પ્રમાદ તય તથા સંયમના પાલનમાં પ્રબળ અંતરાય સ્વરૂપ છે. અધર્મને પ્રધાન માર્ગ છે, આ કુશીલ સેવન કિચડ, ખાઈ, તથા જાળ સમાન છે. અર્થાત્ મનુષ્ય તેમાં ગબડી જાય છે, ફસાઈ જાય છે, બંધાઈ જાય છે. આ અબ્રહ્મચર્ય સેવનનું ફળ છને નરક નિગેદના અનંત દારૂણ દુઃખોને ભેગવવાના રૂપમાં પ્રાપ્ત થાય છે. આના સેવનના ફળ સ્વરૂપ આશાતવેદનાઓ પલ્યોપમ સાગરોપમ સુધી ભેગવવી પડે છે. માટે આ પાપાચરણથી વિરકત થવામાં જ ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #459 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०४ उत्तराध्ययनसूत्रे एवं मुनिवचनं श्रुत्वा सा वेश्या हतमनोरथा जाता, तदनन्तरमसौ कोपावेशेन यष्टिमुष्टयादिभिर्ममणि गाढमहारं कृतवती। तदाऽसौ मुनिनिर्गमनोपायमनवलोक्य ब्रह्मचर्य परिरक्षयन् तामुज्ज्वलवेदनां शुभाध्यवसायेन सहमानः क्षपकश्रेणिमारूढोऽन्तर्मुहूर्ते नैव प्राप्तकेवलज्ञानः कालं कृत्वा मोक्षं प्राप्तवान् । एवमन्यैरपि मुनिभिः स्त्रीपरीषहः सोढव्यः ॥ १७॥ एकत्र स्थितस्य मुनेररत्यादिप्रसङ्गः स्यात् , अतो ग्रामानुग्रामविहाररूपा चर्या कार्येति चर्याकरणेनैव चर्यापरीषहः सोढव्य इत्याहमलम एंग एव चरे लाढे, अभिभूय परीसेहे । गोमे वा नंगरे वावि, निगमे वा रायहाँणिए ॥१८॥ छाया-एक एव चरेत् लाहः, अभिभूय परीषहान्। ग्रामे वा नगरे वाऽपि, निगमे वा राजधान्याम् ॥ १८ ॥ तेरा कल्याण है । इस प्रकार मुनि के वचनों को सुनकर वेश्या बड़ी लज्जित हुई । कोप के आवेश में आकर वह मुनिराज पर घोर उपसर्ग करने लगी। उन मुनि को यष्टि एवं मुष्टि आदि के प्रहारों से मर्म स्थलों में आघात पहुँचाया । मुनि महाराज ने वहां से निकलना चाहा परन्तु निकलने के जितने भी दरवाजे थे वे सब पहिले से ही बंद किये जा चुके थे, अतः वहां से निकलने का जब उन्हें कोई उपाय नहीं सूझा तो अपने ब्रह्मचर्य की रक्षा में शुभाध्यवसाय से जीवन को समर्पित करते हुए उन्हों ने क्षपकश्रेणिपर आरोहण किया और अन्तर्मुहूर्त में केवल ज्ञान की प्राणि कर मुक्ति का लाभ कर लिया। इसी प्रकार अन्यमुनिजनों को भी इस स्त्रीपरीषह को जीतना चाहिये ॥१७॥ તારું કલ્યાણ છે. આ પ્રકારનાં મુનિનાં વચનને સાંભળી વેશ્યા ખૂબ લજવાઈ ગઈ અને કેપના આવેશમાં આવીને તે મુનિરાજને ઘેર ઉપસર્ગ આપવા લાગી. મુનિના મર્મસ્થાનોમાં મુઠીઓથી અને પગની લાતેથી આઘાત પહોંચાડશે. મુનિરાજે ત્યાંથી નીકળવા ચાહ્યું પરંતુ નીકળવાના જેટલા રસ્તા હતા તે પહેલેથી જ બંધ કરી દેવામાં આવ્યા હતા. આથી એ સ્થળેથી નીકળવાને કઈ પણ માગ ન સુજયે ત્યારે પિતાના બ્રહ્મચર્યની રક્ષા માટે તેમણે શુભ અધ્ય વસાયથી જીવનનું સમર્પણ કરીને ક્ષપકશ્રણ પર આરેહણ કર્યું અને અંત મુહૂર્તમાં કેવળજ્ઞાનની પ્રાપ્તિ કરી મુક્તિને લાભ લીધો. આ રીતે અન્ય મુનિજાએ પણ સ્ત્રી પરીષહને જીત જોઈએ. ૧૭ છે ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #460 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रियदर्शिनी टीका अ० २ गा. १८ चर्यापरीषहजयः टीका - 'एग ' इत्यादि । । लाढः=अयं देशीयः शब्दः, लाढ : = मासुकैपणीयाहारेणात्मनिर्वाहको मुनिः परीषहान् पिपासादीन् अभिभूय - विजित्य, ग्रामे = अल्पजननिवासस्थाने, वा= अथवा नगरे = प्राकारवेष्टितेऽपि वा = अथवा निगमे वणिग्जनस्थाने, वा=अथवा राजधान्याम् = राजस्थाने, उपलक्षणमेतत् तेन मडम्बादिषु वा एषु ग्रामादिषु यत्र कुत्रापि स्थाने, एकः = रागद्वेषरहितः, यद्वा-योग्यसहायस्यालाभे एकः = एकाकी, चरेदेव = अप्रतिबद्धविहारेण चर्या कुर्यादेव । ४०५ मुनि का एक जगह रहते२ अरति आदि प्रसंग प्राप्त हो सकता है इसलिये उसे ग्रामानुग्रामविहाररूप चर्या करनी चाहिये । इस प्रकार चर्या करने से ही नौवें चर्यापरीषह पर विजय पाई जाती है, इसी बात को इस गाथा द्वारा सूत्रकार प्रदर्शित करते हैं- 'एग एव चरे' - इत्यादि । अन्वयार्थ - (लाढे - लाढ :) 'लाढ' यह देशीय शब्द है । 'प्रासुक एषणीय आहार से अपना निर्वाह करने वाला मुनि ' ऐसा इसका अर्थ है, अतः ऐसा मुनि ( परीसहे - परीपहान्) क्षुत्पिपासा आदि परीषहों को ( अभिभूय - अभिभूय ) जीतकर (गामे वा नगरे वावि निगमे वा रायहाणिए - ग्रामे वा नगरे वाऽपि निगमे वा राजधान्याम् ) थोड़े जनों का जिसमें निवास है ऐसे ग्राम में, अथवा प्राकार से जो वेष्टित है ऐसे नगर में, अथवा व्यापारी जनोंके स्थानभूत ऐसे निगम में, अथवा राजा का जहां रहना हो रहा है ऐसी राजधानी में, उपलक्षण से मडंब आदि ८८ મુનિને એક જગ્યાએ રહેવાથી અતિ વગેરેના પ્રસંગ પ્રાપ્ત થઈ શકે છે તેથી તેણે એક ગામથી બીજા ગામ વિહાર રૂપી ચર્યાં કરવી જોઈએ. આ પ્રકારની ચર્યાને કરવાથી જ નવમા ચર્ચોપરીષહ ઉપર વિજય પ્રાપ્ત થાય છે या वातने सूत्रार या गाथा द्वारा प्रदर्शित उरे छे - एग एव चरे-धत्याहि. अन्वयार्थ - लाढे - लाटः લાઠ •” એ દેશીય શબ્દ છે. ‘પ્રાસુક એષણીય આહારથી પેાતાના નિર્વાહ કરવાવાળા મુનિ' એવા આને અથ છે, એટલે આવા સુનિ परीस हे - परीषहान् क्षुत्पिपासा माहि परीषहोने अभिभूय - अभिभूय तीने गामे वा नगरे वावि निगमेवा रायहाणिए - ग्रामे वा नगरे वाऽपि निगमे वा राजधान्याम् ઘેાડા માણસા જેમાં રહેતા હોય તેવા ગામમાં, અથવા કાટથી ઘેરાયેલ હોય તેવા નગરમાં, અથવા વેપારી જનેાના જેમાં વાસ હાય તેવા નિગમમાં, અથવા રાજા જ્યાં રહેતા હાય તેવી રાજધાનીમાં, ઉપલક્ષણથી મબ આદિ સ્થાનામાં આવા ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર ઃ ૧ Page #461 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०६ उत्तराध्ययनसूत्रे तथा चाग्रे वक्ष्यति - न वा भिज्जा निउणं सहायं, गुणाहियं वा गुणओ समं वा । एको वि पावाइँ विवज्जयंतो, विहरेज्ज कामेसु असज्जमाणो ॥ १ ॥ ( उत्त. ३२ अ. ५ गा. ) छाया - न वा लभेत् निपुणं सहायं, गुणाधिकं वा गुणतः समं वा । एकोऽपि पापानि विवर्जयन् विहरेत् कामेषु असजन् ॥ उक्तमन्यत्राषि– , ग्रामाद्यनियतस्थायी, स्थानबन्धविवर्जितः । चर्यामेोऽपि कुर्वीत विविधाभिग्रहैर्युतः ॥ १ ॥ इति । स्थानों में जहां कहां भी वह ( एग एव चरे- एकाकी एव चरेत् ) राग द्वेष से रहित होकर समुदाय के साथ अथवा योग्य सहाय के अभाव में अप्रतिबंध विहार से अकेला ही विचरें । कहा भी है न वा लभिज्जा निउणं सहायं, गुणाहियं वा गुणओ समं वा । एगो वि पावाइँ विवज्जयंतो, विहरेज्ज कामेसु असज्जमाणो ॥ (उत्त० ३२ अ. ५ गा. ) तात्पर्य इसका यह है कि साधु को जब योग्य सहायक ( शिष्य आदि) की प्राप्ति न हो तो वह निष्पाप होकर, तथा इच्छाओं को जीतता हुवा अकेला भी विहार करे । अन्यत्र भी यही बात कही हैग्रामाद्यनियतस्थायी, स्थानबन्धविवर्जितः । चर्यामेकोsपि कुर्वीत विविधाभिग्रहैर्युतः ॥ १ ॥ पशु स्थणे ते एग एव चरे- एकाकी एव चरेत् राग द्वेषथी रहित मनी सभु દાયની સાથે અથવા ચેાગ્ય સહાયના અભાવમાં અપ્રતિબંધ વિહારથી એકલા જ વિચરે કહ્યું છે— नवा भिज्जा निउणं सहाय, गुणाहियं वा गुणओ समं वा । एगो वि पावाइँ विवज्जयंतो, विहरेज्ज कामेसु असज्जमाणो ॥ उ. ३२. अ. ५० આતુ' તાત્પર્ય એ છે કે, સાધુને જ્યારે ચેાગ્ય સહાયક શિષ્ય આદિની પ્રાપ્તિ ન હાય તા તે નિષ્પાપ બનીને ઈચ્છાઓને જીતીને એકલા પણ વિહાર કરે. અન્યત્ર પણ આજ વાત કહેલ છે— ग्रामाद्यनियतस्थायी, स्थानबन्धविवर्जितः । चर्यामेोऽपि कुर्वीत विविधाभिग्रहैर्युतः ॥ ॥ ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર ઃ ૧ Page #462 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रियदर्शिनी टीका अ० २ गा० १८ चर्यापरीषहजयः ४०७ ___ अयं भावः-यथाकल्पं ग्रामनगरादावनियतवासं कुर्वता मुनिनाऽऽलस्यपरिवजैनेन तत्र तत्रानासक्त्या च ग्रामानुग्रामविहरणात्मकचर्याकरणादेव चर्यापरीषहः सोढो भवति । यस्तु परिक्षीणजङ्घाबलस्तेन स्थिरवासे कृते भिक्षाचर्यायां कथंचित् स्वयं प्रवृत्त्याऽपि स परीषहः सोढो भवतीति । ननु-चर्यापरीषहो न भवत्यागन्तुकः, कथं तर्हि स्वयमुदीरितायाश्चर्यायाः परीपहत्वमिति चेत् , उच्यते-कल्पस्यापि कस्यचित् कष्टकारित्वेन सह्यमानत्वात् यथाकल्प ग्राम नगर आदि में अनियतवास करने वाला अप्रतिबन्ध विहारी मुनि नाना प्रकार के अभिग्रहों से युक्त होकर अकेला अर्थात्-सम्प्रदाय में रहते हुए भी रागद्वेष रहित विचरे ॥१॥ प्रमाद का परिहार करते हुए ग्रामनगरादि में आसक्ति रहित होकर ग्रामानुग्राम विचरणरूप चर्या के करने से ही यह चर्यापरीपह जीता जाता है । जिसका जंघावल क्षीण हो चुका है उस साधु को भी स्थिरवास करने पर भिक्षाचर्या में कथंचित् स्वयं प्रवृत्ति से यह परीषह सहन किया जाता है। आये हुए कष्ट का नाम परीषह है । चर्या तो आनेवाली नहीं है यह तो स्वयं उदीरित की जाती है अतः चर्या को परीषहरूप कैसे माना जा सकता है ? इसका समाधान इस प्रकार हैयद्यपि चर्या साधु का कल्प है तो भी किसी२ कल्प को कष्टकारी होने से वह सहन करना ही पड़ता है। चर्या भी इसी प्रकार है। अतः भगवानने इसको परीषहरूप फरमाया है। अपने कल्प का प्रमाद से યથાકલ્પ ગ્રામ નગર આદિમાં અનિયતવાસ કરવાવાળા અપ્રતિબંધવિહારી મુનિ વિવિધ પ્રકારના અભિગ્રહોથી યુકત બની એકલા, અર્થાત–સંપ્રદાયમાં રહેવા છતાં પણ રાગદ્વેષ રહિત વિચરે. પ્રમાદનો ત્યાગ કરીને ગ્રામ નગર આદિમાં આસક્તિ રહિત બનીને રામાનુગામ વિચરવારૂપ ચર્યા કરવાથી જ આ ચર્થી પરીષહ જીતાય છે. જેનું જંઘાબળ ક્ષીણ બની ગયેલ છે એવા સાધુએ પણ સ્થિરવાસ કરવાથી ભિક્ષાચર્યામાં કહેવામાં આવેલ સ્વયં પ્રવૃત્તિથી આ પરીષહ સહન કરવામાં આવે છે. આવેલા દુઃખને સહન કરવાં તેનું નામ પરીષહ છે. ચર્યા આવતી નથી પરંતુ સ્વયં ઉભી કરવામાં આવે છે. આથી ચર્યોને પરીષહરૂપ કેમ માનવામાં આવે છે? તેનું સમાધાન આ પ્રકારથી છે– કદાચ ચર્યા સાધુનો કલ્પ છે તે પણ કઈ કઈ ક૯૫ કણકારી હોવાથી તે સહન કરવા પડે છે. ચર્યાને પણ આજ પ્રકાર છે. માટે ભગવાને તેને પરીબ્રહરૂપ ફરમાવેલ છે. પિતાના કપનું પ્રમાદથી આચરણ ન કરવું તે પરીષહ ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #463 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०८ उत्तराध्ययनसूत्रे परीपहरूपत्वं भवति, तत्र प्रमादेन स्वकल्पानाचरणमेव परीपहकृतः पराजयः, तस्मात् प्रमादवर्जितेन यथाकल्पचर्याराधने नैव चौपरीपहः सोढो भवतीति॥१८॥ उक्तमयं दृढीकुर्वन्नाहमलम्-असमाणे रे भिक्खू, नेव कुज्जा परिगहं । असंसत्तो गिहत्थेहि, अणिएओ परिव्वए ॥ १९ ॥ आचरण नहीं करना ही परीषहजनित पराजय है। इसलिये प्रमाद वर्जित होकर यथाकल्प चर्या के आराधन से ही चर्यापरीषह सहन किया जाता है । तभी चर्यापरीषहजयी साधु कहलाता है । ___ भावार्थ-चतुर्मास कल्प को छोडकर मुनि के लिये एकत्र स्थिर रहना जैनशासन की आज्ञा से बाहिर है । कोई खास कारण हो तो मुनि एकत्र वास कर सकता है, अन्यथा नहीं। अतः आत्मकल्याण की भावना से अथवा 'जनता में धर्म का प्रचार होता रहे' इस शुभ अध्यवसाय से मुनि को नगर ग्राम आदि स्थानों में विचरते रहना चाहिये। एक स्थान पर रहने वाले साधु को स्थानजन्य मोह सता देता है, अतः वह चाहे एकाकी रूप में विहार करे चाहे योग्य सहायकों के साथ विहार करे, परन्तु विहार अवश्य करे। विहार में सदा अपने संयम की पूरी दृढता रक्खे । क्षुत्पिपासा आदि परीषद सतावें तो भी उनकी परवाह न करे । इसका नाम चर्यापरीषहजय है ॥१८॥ જનિત પરાજ્ય છે માટે પ્રમાદથી દૂર રહીને યથાકલ્પ ચર્યાના આરાધનાથી જ ચર્યાપરીષહ સહન કરી શકાય છે. એજ ચર્ચાપરીષહ જીતેલ સાધુ કહેવાય છે. ભાવાર્થ-ચતુર્માસ ક૫ને છોડીને મુનિ માટે એક સ્થળે સ્થિર રહેવું જિનશાસનની આજ્ઞાથી બહાર છે. કેઈ ખાસ કારણ હોય તે મુનિ એક સ્થળે વાસ કરી શકે છે, તે સીવાય નહીં. આથી આત્મકલ્યાણની ભાવનાથી અથવા “જનતામાં ધર્મને પ્રચાર થતું રહે એવા શુભ આશયથી મુનિએ નગર ગ્રામ આદિ સ્થાનમાં વિચરતા રહેવું જોઈએ. એક સ્થાન ઉપર રહેવાવાળા સાધુને સ્થાન જન્ય મોહ સતાવે છે. આથી ભલે તે એકાકી રૂપમાં વિહાર કરે અગર ગ્ય સહાયકની સાથે વિહાર કરે, પરંતુ વિહાર અવશ્ય કરે. વિહારમાં પિતાના સંયમની સદા પૂરી દ્રઢતા રાખે, ક્ષુત્પિપાસા આદિ પરીષહ સતાવે તે પણ તેની પરવા ન કરે. આનું નામ ચર્ચાપરીષહને વિજય છે. ૧૮ ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #464 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रियदर्शिनी टीका. अ० २ गा० १९ चर्यापरीषहजयः , छाया - असमानश्चरेद् भिक्षुः नैव कुर्यात् परिग्रहम् । असंसक्तो गृहस्थैः, अनिकेतः परिव्रजेत् ॥ १९ ॥ टीका- 'असमाणो' इत्यादि । भिक्षुः = मुनिः, असमानः = गृहस्थैरन्यतीर्थिकै श्वासदृशः, तत्राश्रयमूर्छारहितत्वेन गृहस्थैरसदृशः, अनियतविहारादिनाऽन्यतीर्थिकैरसदृश इति भावः । यद्वा-मानस - हितः समानः, न तथेत्यसमानः, अभिमानवर्जित इत्यर्थः, यद्वा-' असमाणे ' इत्यस्य ' असन्निति' छाया, असन्निव - असन्, यत्र विद्यते तत्राप्यविद्यमान इव, अल्पतरकालस्थायित्वेन तत्र तत्र तत्सत्ताया अनियतत्वात्, तत्र तत्र विद्यमानत्वेऽपि तत्तद्ग्रामोपाश्रयादिषु ममत्वाभिमानाभावाच्च । इममेवार्थ प्रकटयन्नाह - 'नेव कुज्जा' इत्यादि । परिग्रहम् = तत्तद्ग्रामोपाश्रयादिषु स्थानेषु द्रव्यभावपरिग्रहं नैव कुर्यात् = न धारयेत् । उक्तञ्च - "गामे कुले वा नयरे य देसे, ममंति भावं न कर्हिचि कुज्जा " ॥ इति ॥ 'असमाणे ' - इत्यादि । अन्वयार्थ - (असमाणे- असमानः ) गृहस्थरूप आधार की मूर्च्छा से रहित होने के कारण गृहस्थों के समान नहीं, तथा अनियत विहार आदि द्वारा अन्यतीर्थिकों के समान नहीं, अथवा-असमान - मान से वर्जित, या "असमाणे - असन्"- अल्पतर काल तक ग्राम नगरादिमें रहने वाला होने की वजह से वहां नहीं जैसा ऐसा (भिक्खू - भिक्षुः ) मुनि (परिग्गहं - नेव कुज्जा - परिग्रहं नैव कुर्यात् ) उन२ ग्राम एवं उपाश्रयादिकों में द्रव्य एवं भावरूप परिग्रह से नहीं बंधे- उनमें ममत्व भाव न करे। कहा भी है“गामे कुले वा नयरे य देसे, ममंतिभावं न कहिंचि कुज्जा ।। " ૪૦૨ असमाणे इत्यादि. अन्वयार्थ - असमाणे- असमानः गृहस्थ३य साधारनी मुर्च्छाथी रहित होवाने કારણે ગૃહસ્થાના સમાન નહી, તથા અનિયતવિહાર આદિ દ્વારા અન્ય તીથીमोना सभान नहीं, अथवा - असमान-भानथी व या असमाणे - असन् महपतर કાળ સુધી ગ્રામ નગર આદિમાં રહેવાવાળા હોવાના કારણે ત્યાં નહીં જેવા એવા भिक्खू - भिक्षुः भुनि परिग्गह नेवकुज्जा - परिग्रह नैव कुर्यात् ने ? गाम याने ઉપાશ્રય આદિમાં દ્રવ્ય અને ભાવરૂપ પરિગ્રહૅથી ન બંધાય—તેમાં મમત્વભાવન राजे. छे 46 गामे कुले वा नरेय देसे, ममंति भावं न कर्हिचि कुज्जा ॥ " उ० ५२ ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર ઃ ૧ Page #465 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१० उत्तराध्ययनसूत्रे वाभावः कथं स्यादित्याह - गृहस्थैः = श्रावकैः, असंसक्तः = रागसंसर्गवर्जित इत्यर्थः, अनिकेतः - गृहवर्जितः नैकत्र प्रतिबद्धस्थितिक इत्यर्थः परिव्रजेत् सर्वतो विहरेत् न तु नियतदेशादावेव । अयं भावः - गृहस्थैः सह रागसंसर्गकरणे, एकत्र प्रतिबद्धास्पदत्वे, नियत देशग्रामनगरादिविहारितायां वा ममत्वबुद्धिः स्यात् । तस्मादालस्यं निरस्य ग्रामनगरकुलादिष्वनियतवसतिर्निर्ममत्वः सन् यथाकल्पमासक्तिरहितश्चर्यामाचरेदिति । अर्थात् - ग्रामादि में कहीं भी ममत्व नहीं करे । तथा (गिहत्थेहिं असंसत्तो- गृहस्थैः असंसक्तः ) गृहस्थों के साथ राग के संसर्ग से वर्जित उनमें मोहरूप परिणाम से रहित होकर वह ( अणिएओ - अनिकेतः ) स्थानादि की ममतारहित होता हुआ (परिव्वए - परिव्रजेत् ) ग्राम नगरादि में विहार करता रहे। इसका भाव यह है कि गृहस्थों से रागात्मक परिणति करने पर साधु को एक ही जगह प्रतिबद्ध होकर रहने का प्रसंग प्राप्त हो सकता है, इस परिस्थिति में नियत देश, ग्राम आदि में ही उसका विहार होगा, अतः उसमें ममत्वबुद्धि का सद्भाव हो जायगा । इसलिये प्रमाद का परित्याग कर ग्राम नगर आदि में अनियतरूप से विचरने वले मुनि में निर्ममत्वभाव रहता है । इसलिये साधु को चाहिये की वह गृहस्थों से असंसक्त होकर यथाकल्प अनियतविहाररूप चर्या करता रहे। भावार्थ - इस गाथा द्वारा सूत्रकार १८वीं गाथा में कहे हुए ही अर्थात् — श्राभाद्दिभां उयाय पशु भभत्व न पुरे तथा गिहत्थेहिं अससत्तोगृहस्थैः-असंसकः गृहस्थनी साथै रागना संसर्गथी रहित-तेमां भोड३५ परिशाभथी रहित मनीने ते अणिएओ - अनिकेतः स्थानाहिनी भभता रहित थर्ध ने, परिव्वए-परिव्रजेत् आम नगर आहिभां विहार उरता रहे. तेनेो ભાવાર્થ એ છે કે, ગૃહસ્થા સાથે રાગાત્મક પરિણતી કરવાથી સાધુને માટે એક જગ્યાએ પ્રતિબદ્ધ થઈને રહેવાના પ્રસંગ પ્રાપ્ત થાય છે. આ પરિસ્થિતિમાં નિયત ગ્રામનગર આદિમાંજ તે વિચરશે, આથી એનામાં મમત્વની ભાવના ઉત્પન્ન થશે. માટે પ્રમાદના પરિત્યાગ કરી ગ્રામનગર આદિમાં અનિયત રૂપથી વિચરનાર મુનિમાં નિમાઁમત્વભાવ રહે છે. આટલા માટે જ સાધુ માટે તે ગૃહસ્થાથી અસંસક્ત ખની યથાકલ્પ અનિયત વિહારસ્વરૂપી ચર્ચા કરતા રહે તે જરૂરી છે. लावार्थ- —— ગાથા દ્વારા સૂત્રકાર ૧૮ મી ગાથામાં કહેલ અની પુષ્ટિ ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર ઃ ૧ Page #466 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रियदर्शिनी टीका. अ० २ गा० १९ चर्यापरीषहजये निःसङ्गमुनिदृष्टान्तः ४११ अत्र दृष्टान्त: कोल्लाकसंनिवेशे बहुश्रुतः शान्तो दान्तः परीषहोपसर्गसहने सुधीरः क्षमादिगुणगम्भीरः कर्मधूलिनिवारणे समीरः, श्रुतचारित्रधर्माराधनपरः क्षीणजङ्घाबलो निःसङ्गनामक आचार्य आसीत् । एकदा तत्र दुर्भिक्षे जातेऽसौ स्वशिष्य अर्थ की पुष्टि कर रहे हैं । जब गृहस्थ जनों का सामान्य भी परिचय मनुष्य को उनमें ममत्वबुद्धि से जकड़ देता है तो फिर साधु की आत्मा को वह भाव वहां जकड़ न देगा यह कैसे हो सकता है । इसीलिये साधु को अनियत विहार कहा गया है । इसमें गृहस्थों के संसर्ग से साधु बचा रहता है । संसक्तिभाव उसका उनमें नहीं हो पाता है। सामान्य परिचय में संसक्ति नहीं आती है। अधिक परिचय से यह दोष पैदा होता है । मूर्छा परिणति का नाम ही परिग्रह है। यह परिग्रह द्रव्य एवं भाव के भेद से दो प्रकार का होता है। साधु इन दोनों प्रकार के परिग्रहों से रहित होता है । रागादिकभाव भावपरिग्रह, एवं क्षेत्र वस्तु आदि द्रव्य-परिग्रह है । अनियत विहार करने वाले साधुमें यह दोष नहीं हो सकता है । इसीलिये उसको सदा यथाकल्प अनियत विहार करना भगवान ने कहा है। दृष्टान्त-कोल्लाक नाम के सन्निवेश में बहुश्रुत, शांत, दान्त परीषह एवं उपसर्ग के सहन करने में धीर वीर क्षमादि गुणों से गंभीर, कर्म धूलि के निवारण करने में पवनतुल्य निःसंग नाम के एक आचार्थ थे। કરે છે. જ્યારે ગૃહસ્થ જનો સાથે સામાન્ય પરિચય પણ મનુષ્યને તેની સાથે મમત્વબુદ્ધિથી જકડી દે છે તે પછી સાધુના આત્માને તે ભાવ ત્યાં ન જકડે તે કેમ બની શકે. આટલા માટેજ સાધુને અનિયત વિહાર સુચવાયેલ છે. આમાં ગૃહસ્થના વધુ પડતા સંસર્ગથી સાધુ બચી જાય છે, સંસકિતભાવ તેને તેમાં આવતું નથી, સામાન્ય પરિચયથી સંસકિતભાવ ઉત્પન્ન થતાં નથી. અધિક પરિચયથી આ દોષો પેદા થાય છે. મૂછપરિણતીનું નામ જ પરિગ્રહ છે. આ પરિગ્રહના દ્રવ્ય અને ભાવ એમ બે પ્રકારના ભેદ છે. સાધુ આ બન્ને પ્રકારના પરિગ્રહથી પર હોય છે. રાગાદિકભાવ ભાવપરિગ્રહ અને ક્ષેત્ર વસ્તુ આદિ દ્રવ્ય પરિગ્રહ છે. અનિયત વિહાર કરનાર સાધુમાં આ દોષ આવતું નથી આટલા માટે સાધુને સદાય યથાક૯૫ અનિયત વિહાર કરવાનું ભગવાને કહ્યું છે. દષ્ટાંત-કેલ્લાક નામના સન્નિવેશમાં બહુશ્રુત, શાંન્ત, દાન્ત, પરીષહ અને ઉપસર્ગ સહન કરવામાં ધીરવીર, ક્ષમાદિ ગુણેથી ગંભીર, કમરજનું ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #467 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१२ उत्तराध्ययनसूत्रे विक्रमाचार्य गच्छसहितं दूरदेशे प्रेषितवात् । स्वयं तु एकेन शिष्येण सह वसन् तत्रैव नगरे नव भागान् कल्पयित्वा यथाकल्पमज्ञातकुले रूक्षशुष्कमन्तपान्तमन्नादिकं गृहीत्वा विहरति स्म। जराक्रान्तोऽपि चर्यापरीषहं सोढुकामः कृताभिग्रहत्वात् स्वयंभिक्षार्थमटति स्म। एवं चर्यापरीषहं सहमानस्तमभिग्रहं यावज्जीवं निर्वाह्यालोचितप्रतिक्रान्तः कालमासे कालं कृत्वा स्वकल्याणं साधितवान् । श्रुतचारित्ररूप धर्म की आराधना करने में ही इनका जीवन का अधिक से अधिक समय निकलता था । अवस्थाप्राप्त होने से इनका जंघाबल क्षीण हो गया था। एक समय की बात है कि वहां पर भयंकर दुर्भिक्ष पड़ गया । आचार्य ने परिस्थिति का अवलोकन कर अपने विक्रमाचार्य शिष्य को गच्छसहित दूर देश में विहार करा दिया और स्वयं एक शिष्य के साथ उसी नगरी में रहे। वहां नौ भागों की कल्पना कर वे यथाकल्प अज्ञातकुल में रूक्ष, शुष्क, अन्त प्रान्त आहारादिक ग्रहण कर वहां विचरण करते रहे । यद्यपि इनकी वृद्धावस्था थी चलने में पूरी शक्ति नहीं थी तो भी चर्यापरीपह को सहन करने की अभिलाषा से वे विविध अभिग्रह ग्रहण करते और स्वयं भिक्षा के लिये जाते । इस प्रकार चर्यापरीषह को सहन करते२ उन्हों ने अपने अभिग्रहों का अच्छी तरह से निर्वाह किया । अन्त में अपने कर्तव्यों की आलोचना कर उनके प्रति निवृत्त होकर आत्मकल्याण कर लिया। નિવારણ કરવામાં પવનતુલ્ય એવા, એક નિઃસંગ નામના આચાર્ય હતા. શ્રતચારિત્ર રૂપ ધર્મની આરાધના કરવામાં જ તેમના જીવનને મોટે ભાગે તેઓ ગાળતા હતા. અવસ્થા થવાથી તેમનું જંઘાબળ ક્ષીણ બની ગયું હતું. એક સમયની વાત છે કે, ત્યાં ભયંકર એ દુકાળ પડ, આચાર્ય પરિસ્થિતિનું અવેલેકન કરી પોતાના વિક્રમાચાર્ય નામના શિષ્યને ગચ્છ સાથે દૂર દેશમાં વિહાર કરાવરાવ્યો અને પોતે એક શિષ્યની સાથે તે નગરમાં રહ્યા. ત્યાં નવ ભાગની કલ્પના કરી તેઓ યથાકલ્પ અજ્ઞાત કુળમાંથી રૂક્ષ, શુષ્ક અન્નપ્રાન્ત આહાર આદિ ગ્રહણ કરી ત્યાં વિચરતા રહ્યા. જો કે તેમની વૃદ્ધાવસ્થાને કારણે તેમનામાં ચાલવાની પૂરી શકિત ન હતી તે પણ ચર્યાપરીષહને સહન કરવાની અભિલાષાથી તેઓ વિવિધ અભિગ્રહ કરતા અને સ્વયં ભિક્ષા માટે જતા. આ પ્રકારે ચર્યાપારીબહેને સહન કરતાં કરતાં પોતાના અભિગ્રહોને સારી રીતે નિર્વાહ કર્યો. અંત સમય ઉપર પોતાનાં કર્તવ્યોની આલેચના કરી તેનાથી નિવૃત્ત થઈ આત્મકલ્યાણ પ્રાપ્ત કર્યું. ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #468 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रियदर्शिनी टीका. अ० २ गा० १९ चर्यापरीषद्दजये वैश्रवणमुनिदृष्टान्तः ४१३ अत्रान्योऽपि दृष्टान्तः उज्जयिन्यां वैश्रवणनामक आचार्यः समवसृतः । स स्वशिष्यपरिवारैः सह चर्यापरीषहं सहमानो ग्रामानुग्रामं विहरन् कदाचिदटव्यां प्रविष्टः । आचार्य इव शिष्या अपि चर्यापरीषहसहिष्णव आसन् । तत्र सर्वैर्मुनिभिरकस्माद् मार्गों विस्मृतः । तत्रैव शर्करामभपृथिवीवद् विकीर्णतीक्ष्णकण्टकिते निम्नोन्नतशिलाखण्डदुर्गमे भयङ्करे विपिने गच्छता तेन दिवसो यापितः, रात्रौ च वृक्षाधस्तले निवासः कृतः, एवं शिष्यपरिवारैः सहासौ भ्रमन्नटव्या अन्तं न प्राप, नापि कश्चिद् ग्रामो दृष्टि द्वितीय दृष्टान्त उज्जैनी नगरी में वैश्रवण नाम के आचार्य पधारे। वे अपने शिष्यपरिवार के साथ चर्यापरीषह को सहन करते हुए ग्रामानुग्राम विहार करते? कदाचित् मार्ग भूल जाने से एक अटवी में जा पहुँचे । इनके समान ही चर्यापरीषह सहन करने में समर्थ इनके शिष्य भी थे। अकस्मात् वे सब के सब ही मार्ग भूल गये । समस्त दिवस उन सबका शर्करा पृथ्वी के समान, इधर उधर फैले हुए तीक्ष्ण कांटों वाले तथा नीचे ऊँचे शिलाखंडों से दुर्गम उस भयंकर अटवी में ही समाप्त हो गया । रात्रि का समय आ गया । दूसरा कोई उपाय नहीं होने से सभी ने वहीं एक वृक्ष के नीचे ठहर कर रात्रि व्यतीत की । प्रातः काल हुआ। सूर्य की किरणें निकली । मार्ग की तलाश करने लगे परन्तु मार्ग का पता नहीं चला। अटवी कितनी बड़ी थी इसका कुछ अन्त ही नहीं ज्ञात हो सका, और न " यहां से ग्राम कितनी दूर है " દૃષ્ટાંત ખીજું –ઉજ્જૈની નગરીમાં વૈશ્રવણ નામના આચાય પધાર્યા. તે પેાતાના શિષ્ય પરિવારની સાથે ચર્યાપરીષહ સહન કરતા કરતા ગ્રામાનુગ્રામ વિહાર કરતા કરતા માર્ગ ભૂલવાથી અચાનક એક જંગલમાં જઇ ચડયા. ચર્ચાપરીષહ સહન કરવામાં તેમના સમાન જ સમથ તેમના શિષ્યા પણ હતા. જોગાનુજોગ તે અધા માર્ગ ભૂલી ગયા. શકરાપ્રભુ પૃથ્વીની સમાન, આંહી તાંડી ચામેર તીક્ષ્ણ કાંટાઓથી પથરાએલી તથા ઉંચી નીચી શિલાએથી દુ†મ એવી ભયાનક અટવી–જંગલમાં આખાએ દિવસ વીતી ગયા રાત્રીના સમય આવી પહેાંચતાં ખીને કાઈ પણ ઉપાય ન હેાવાથી સઘળાએ એક ઝાડ નીચે રહીને રાત વિતાવી. સવાર પડયું, સૂર્યનાં કિરણેા દેખાયાં, માગની તપાસ કરી પરંતુ બહાર નીકળવાના માન જાયા. જંગલ માઢુ હતુ તેના અંતની પણ ખખર પડતી ન હતી અને ગામ આ સ્થળેથી કેટલું દૂર છે તે પણ જાણી શકાતું ન ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર ઃ ૧ Page #469 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययसूत्रे पथे समायातः। स च तस्मिन्नेव विषमकण्टकितपर्वतीयमार्गे चलनपि चर्यापरीषहैः पराजितो नाभूत् । आचार्यों वदति-अस्मिन् वने चलतामस्माकं त्रयो दिवसा अतीताः, क्वचिदाहारो न लब्धो नापि पानीयम्। ___ एतदभ्यन्तरे केनचिद्देवेन वैक्रियशक्त्या तत्र शोभनो राजमार्गों निर्मितः । तत्र कस्यचिन्नृपस्य चतुरङ्गिणी सेना गच्छति, बह्वयः शिविका नरैर्वाह्यमाना इस बात का पता ही चल सका । आचार्य महाराज शिष्यमंडली सहित उसी जंगल में घूमते रहे। कभी २ चलते २ विषम एवं कंटकित पर्वत के मार्ग पर पहुँच जाते तो भी इनके चित्त में खेदखिन्नता नहीं आती। 'चर्यापरीषह सहन करना यह साधु की कर्तव्य कोटि में है। इस ख्याल से ये उसको शांति के साथ सहन करते रहे । चलते २ जब ठीक तीन दिन व्यतीत हो चुके तब आचार्य महाराज ने शिष्यों से कहा कि देखो-इस वन में लगातार अपने लोग तीन दिन से चल रहे हैं फिर भी मार्ग नहीं मिल रहा है। आहार पानी का भी ठिकाना नहीं पड़ा, अतः समस्या विकट बन रही है। ___आचार्य महाराज जब इस प्रकार अपने शिष्यों से कह रहे थे कि इतने में ही किसी देवने अपनी वैक्रियिक शक्ति के द्वारा उस अटवी में एक सुन्दर राजमार्ग बना दिया, और इस प्रकार का दृश्य दिखलाया कि उस पर होकर किसी राजा की चतुरंगिणी सेना जा रही है। હતું. આચાર્ય મહારાજ શિષ્ય મંડળી સાથે એ જંગલમાં ખૂબ ભટક્યા. ચાલતાં ચાલતાં કઈ વેળા સ્થળે વિષમ એવા કાંટાળા ટેકરાવાળા રસ્તે ચઢી જતા તે પણ તેમના ચિત્તમાં ખેદ-ખિન્નતા આવતી નહીં. “ પરીષહ સહન કરવો એ સાધુની કતવ્ય કેટીમાં છે આ ખ્યાલથી તેઓ આવતા પરીષહોને શાન્તી સાથે સહન કરતા રહ્યા. ચાલતાં ચાલતાં જ્યારે ત્રણ ત્રણ દિવસો વીતી ગયા ત્યારે આચાર્ય મહારાજે શિષ્યને કહ્યું કે, જુઓ આ વનમાં આપણે ત્રણ ત્રણ દિવસોથી ભટકીએ છીએ છતાં પણ બહાર નીકળવાનો કેઈ માર્ગ દેખાતો નથી. આહાર પાણીનું પણ ઠેકાણું પડતું નથી એટલે આપણી સમક્ષ વિકટ સમસ્યા ઉભી થઈ છે. આચાર્ય મહારાજ આવું જ્યારે પોતાના શિષ્યોને કહી રહ્યા હતા એ વખતે કઈ દેવે પોતાની વૈક્રિયીક શક્તિ દ્વારા તે જંગલમાં એક સુંદર રાજમાર્ગ બનાવી દીધું અને એ પ્રકારનું દુષ્ય ઉભું કરી દીધું કે તે માર્ગ ઉપરથી જાણે કેઈ રાજાની ચતુરંગિણી સેના જઈ રહી છે તેમાં અનેક પાલખીઓને ભાર ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #470 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रियदर्शिनी टीका अ० २ गा. २० नैषेधिकीपरीषहजयः आसन् । तत्र सेनापतिः कानने भ्राम्यमाणमाचार्य ब्रवीति-भगवन् ! सन्त्यत्र बहूनि शिबिकादीनि यानानि, यदत्र रोचते भवद्भथस्तत्रारुह्य गम्यताम् । आचार्येणो. क्तम्-यानेन गमनं नास्माकं कल्पते, इत्युक्त्वा तेन 'सर्वोऽयं देवमपञ्च' इति विज्ञा. तम् । राजसैनिके गते सति स आचार्यः शिष्यान् पृच्छति-किमिदानी कर्तव्यम् । शिष्या आहुः-आर्येण यदनुष्ठेयं, तदेवास्माभिरपि कर्तव्यम्, आचार्यः पादपोपगमनार्थ प्रतिज्ञातवान् , तदनु तदीयशिष्या अपि पादपोपगमनार्थ संस्तारकं कृतवन्तः। सर्वैः समाधिभावेन कालं कृत्वाऽऽत्मनः कल्याणं साधितम् । एवमन्यैरपि मुनिभिश्चर्यापरीषहः सोढव्यः ॥ १९ ॥ उस में अनेक पालकियां को वहन करते हुए मनुष्य चले जा रहे हैं। यह सब दृश्य आचार्य महाराज के देखने में आ रहा था। इसी समय एक सेनापति ने अटवी में भ्रमण करते हुए आचार्य महाराज से कहा हे भदन्त! यहां बहुत से पालकियां आदि वाहन हैं आप जिन्हें पसंद करें उनपर चढकर चलें। आचार्यश्रीने सेनापति की बात सुनकर कहा कियान पर चढकर चलना यह हमारे कल्प से बाहर है । तथा साथ २ में आचार्यमहाराज ने यह भी जान लिया कि यह सब दैवी माया है। सेनापति के चले जाने पर फिर आचार्य महाराज ने शिष्यों से पूछा कि कहो इस समय क्या करना चाहिये । शिष्यों ने कहा जो आपको करना रुचे वही हमें मंजूर है । शिष्यों की बात सुनकर आचार्य महाराजने पादपोपगमन धारण करने की विचारणा करली। शिष्यों ने भी ऐसा ही किया। सबने वहाँ समाधिभाव से संपन्न होकर पण्डितमरण किया, ઉપાડીને મનુષ્ય ચાલી રહ્યા છે આ સઘળું દષ્ય આચાર્ય મહારાજના જોવામાં આવી રહ્યું હતું. એવામાં એક સેનાપતિએ જંગલમાં વિચરી રહેલા આચાર્ય મહારાજને કહ્યું, ભદંત! અહિં ઘણી પાલખીઓ વિગેરે વાહન છે, આપ જેને પસંદ કરો તેમાં બેસીને ચાલે. આચાર્ય સેનાપતિની વાત સાંભળીને કહ્યું કે, પાલખીમાં બેસીને વિચરવું તે અમારા કલ્પની બહાર છે. સાથે સાથે આચાર્ય મહારાજે એ પણ જાણી લીધું કે આ સઘળી દેવી માયા છે. સેનાપતિના ચાલી ગયા પછી આચાર્ય મહારાજે શિષ્યોને પૂછયું કે, કહે ! આવે વખતે હવે શું કરવું જોઈએ? શિષ્યોએ કહ્યું કે, આપને જે કરવું છે તે અમને મંજુર છે. શિષ્યની વાત સાંભળીને આચાર્ય મહારાજે પાદપપગમન કરવાની પ્રતિજ્ઞા ધારણ કરી લીધી. શિષ્યો એ પણ એમજ કર્યું. પરિણામે સઘળા ત્યાં સમાધી ભાવથી સંપન્ન બની પંડિત મરણ પામ્યા અને ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #471 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१६ उत्तराध्ययनसूत्रे अथ नैषेधिकीपरीषहजयं प्राहमूलम्-सुसाणे सुन्नगारे वो, रुर्खमूले वे एगओ। अर्कुक्कुओ निसीएजा, नं यं वित्तीसए परं ॥२०॥ छाया-श्मशाने शून्यागारे वा, वृक्षमूले वा एककः । अकौकुच्यः निषीदेत् न च वित्रासयेत् परम् ॥ २० ॥ टीका-'सुसाणे' इत्यादि। श्मशाने-शवस्थाने, वा अथवा, शून्यागारे-निर्जनगृहे, वा-अथवा, वृक्षमूले=वृक्षाधस्तले, मुनिः एकका द्रव्यतः एकाकी प्रतिमाऽपेक्षया, भावतो-मुनि गणस्थितोऽपि रागद्वेषरहितः, अकौकुच्या अशिष्टचेष्टारहितः-विषयचेष्टावर्जितः सनित्यर्थः, निषीदेव भयरहितं यतनापूर्वकमुपविशेदित्यर्थः। च-पुनः मुनिस्तत्रोपविधः सन् , परम्-अन्यं जीवं द्वीन्द्रियादिकं, न वित्रासयेत्-तत्रस्थं जीवं स्थानभ्रष्टादिकं और आत्मकल्याण की सिद्धि की । इसी तरह समस्त साधुओं को चर्यापरीषह पर विजय पाने में प्रयत्नशील रहना चाहिये ॥१९॥ ___अब दसवें नैषेधिकीपरीषह को जीतने के लिये सूत्रकार कहते हैं-'सुसाणे'-इत्यादि । ___अन्वयार्थ-मुनि को (सुसाणे-श्मशाने) श्मशानमें (वा) अथवा (सुनगारे-शून्यागारे) शून्य घर में (वा)या (रुक्खमूले-वृक्षमूले) वृक्ष के नीचे (एगओ-एककः) एकाकी द्रव्य-से प्रतिमा की अपेक्षा अकेले ,तथा भाव की अपेक्षा मुनि समुदाय में रहते हुए भी रागद्वेषरहित एवं (अकुकुओ-अकौकुच्यः) अशिष्ट चेष्टा से रहित होते हुए (निसीएज्जानिषीदेत्) भयशून्य होकर यतनापूर्वक रहे । (य-च) तथा वहां पर આત્મકલ્યાણની સિદ્ધિ મેળવી. આ પ્રમાણે સર્વ સાધુઓએ ચર્યાપરીષહ ઉપર વિજય મેળવવા પયત્નશીલ રહેવું જોઈએ. ૧લા वे सूत्र४२ ४शमा नैवेधिहीयशेषडने । भाटे ४३ छ-'सुसाणे' (त्याहि. मन्याथ-मुनिये सुसाणे-स्मशाने स्मशानभा “वा'' अथवा सुन्नगारे-शून्यागारे सूना सवा घरमां " वा " मथ। रुक्खमूले-वृक्षाले वृक्षनी नीय एगओ-एककः એકાકી દ્રવ્યથી પ્રતિમાની અપેક્ષાએ એકલા તથા ભાવની અપેક્ષાએ મુનિ સમુદાયમાં २खेतi छतi ५५५ रागद्वेष २डित मने अकुक्कुओ-अकौकुच्यः मशिष्ट व्येष्टाथी २हित मनीन निसिएज्जा-निषीदेत् सय २हित थ६ यतनापूर्व २२ य-च ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #472 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रियदर्शिनी टीका अ०२ गा. २०-२१ नैषेधिकीपरीषहजयः न कुर्यादित्यर्थः । इदमत्र-बोध्यम्-आदावस्मिन्नध्ययने 'निसीहियापरीसहे' इति यदुक्तं तस्य च्छाया 'नैषेधिकीपरीषहः' इति । निषेधः प्राणातिपातादि निवृत्तिः, स प्रयोजनमस्या इति नैषेधिकी। यद्वा निषेधः पापकर्मणां गमनादिक्रियायाश्च निवृत्तिः, स प्रयोजनमस्या इति नैषेधिकी, निषधा-उपवेशनस्थानम् कायोत्सर्गभूमिः । स्वाध्यायभूमिश्चेत्यर्थः । सैव च परिषहो नैषेधिकीपरीषहः उपवेशनस्थान परीषहः, तत्र श्मशानादिषु स्थानेषु स्थितेन मुनिना भयंकरोपसर्गसमापतने सति न भेतव्यम्, नापि स्वरविकारादिभिरन्येषां भयमुत्पादनीयमिति ॥ २० ॥ रहे हुए उस मुनि को चाहिये की वह (परं न वित्तासए-परं न वित्रासयेत्) वहां पर पहिले से रहने वाले द्वीन्द्रियादीक जीवों को स्थानभ्रष्ट न करे, यहां यह समझना चाहिये कि पहिले इस अध्ययन में "निसीहिया परीसहे" ऐसा कहा गया है उसकी संस्कृत छाया नैषेधिकीपरीषहः" ऐसी की गई है। उसका अर्थ इस प्रकार है"प्राणातिपातादिक क्रियाओं से निवृत्ति करने का जिसका प्रयोजन हो वह नैषेधिकी है, अथवा पापकर्मो की एवं गमनादिक्रिया की निवृत्तिरूप निषेध जिसका प्रयोजन हो वह नैषेधिकी है, अथवा निषद्या उपवेशन स्थान का नाम है, वह या तो कायोत्सर्ग की भूमिखरूप होगा या खाध्याय की भूमिस्वरूप। उस निषद्यारूप जो परीषह उसका नाम नैषेधिकीपरीषह है। इसका फलितार्थ उपवेशनस्थान सम्बन्धी परीषह नैषेधिकीपरीषह है । श्मशान आदिक स्थानों में रहे हुए मुनि को भयंकर उपसर्ग के तय त्या २२ता से भुनिनु तव्य छे ते परं न वित्तासए-परं न वित्रासयेत् त्यां પહેલાથી રહેવાવાળા દ્વિઈન્દ્રિયાદિક અને સ્થાનભ્રષ્ટ ન કરે, અહીં એ સમજવું જોઈએ કે, પહેલાં આ અધ્યયનમાં નિરહિયા પૂરી એવું કહેવાયું છે કે જેની સંસ્કૃત छाया “ नैषेधिकी परीषहः " म ४२वामां यावर छ. अनी म । प्रारना छ“પ્રાણાતિપાતાદિક ક્રિયાઓથી નિવૃત્તિ કરાવવાનું જેનું પ્રયોજન હોય તે ને. પિકી છે, અથવા પાપકર્મોની અને ગમનાદિ ક્રિયાઓની નિવૃત્તિરૂપ નિષેધ જેવું પ્રોજન હોય તે નૈધિકી છે, અથવા નિષદ્યા ઉપવેશન સ્થાનનું નામ છે. તે યાતે કાર્યોત્સર્ગની ભૂમિ સ્વરૂપ હોય યા સ્વાધ્યાયની ભૂમિસ્વરૂપ. એ નિષ. ઘારૂપ જે પરીષહ તેનું નામ નૈવિકીપરીષહ આનો તે ફલીતાર્થ ઉપવેશન સ્થાન સંબંધી પરીષહ નૈવિકીપરીષહ છે, સ્મશાન આદિ સ્થાનમાં રહેનારા મુનિએ ભયંકર ઉપસર્ગોના આવવા છતાં પણ ભયભીત ન બનવું જોઈએ. ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #473 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययनसूत्रे उक्तमर्थ विशदीकुर्वनाह-- मूलम् तत्थे से चिट्ठमाणस्स, उवसंग्गा भिधारए । संकांभीओ न गच्छेजी, उद्वित्ता अन्नमासणं ॥ २१॥ छाया-तत्र तस्य तिष्ठतः, उपसर्गा अभिधारयेत् । शङ्कामीतः न गच्छेत् , उत्थायान्यदासनम् ॥ २१ ॥ टीका-'तत्थ' इत्यादि। तत्र श्मशानादौ, तिष्ठतः उपविष्टस्य तस्य मुनेः उपसर्गाः-देवमनुष्यतिर्यक्कृता उपद्रवाः, यदि भवेयुस्तर्हि स मुनिस्तानुपसर्गान् अभिधारयेत्-' ममाचल चेतसः किमेते करिष्यन्तीति चिन्तयन् सहेत । परन्तु शङ्काभीत: उपसर्गकृतोपद्रवसंशयादुद्वेगवान् सन् , उत्थाय-ततः स्थानादपमृत्य, अन्यत्=परम्, आसनम् आस्यते-उपविश्यतेऽस्मिन्नित्यासनं स्थानम्, न गच्छेत् ।। आने पर भी भयभीत नहीं होना चाहिये और न अपने अंगों को विकृत करके दूसरों को भयभीत करना चाहिये ॥ २० ॥ __ इसी अर्थ को विशद करते हुए सूत्रकार समझाते हैं'तत्थ से'-इत्यादि। ___ अन्वयार्थ--(तत्थ-तत्र) श्मशान आदि स्थान में (चिट्ठमाणस्स सेतिष्ठतस्तस्य) स्थित उस साधुके ऊपर (उवसग्गा-उपसर्गाः) देव, मनुष्य, तिर्यश्च सम्बन्धी उपसर्ग यदि आवे तो उस मुनि का कर्तव्य है कि वह उन उपसर्गों को (अभिधारए-अभिधारयेत् ) " ये उपसर्ग मेरा क्या कर सकते हैं" निश्चलचित्त से ऐसा विचार कर सहन करे। परन्तु (शंकाभीओ-शंकाभीतः) उपसर्गकृत उपद्रव के सन्देह से उद्वेगवान् અથવા તે પિતાના અંગેને વિકૃત બનાવી બીજાને ભયભીત કરવા ન જોઈએ.ારો मा म विशे सूत्रा२ विषहरू ५थी समनवे छे. 'तत्थ से' त्यादि। अन्वयार्थ-(तत्थ-तत्र)स्मशान माहि स्थानमा चिट्रमाणस्स से-तिष्ठतः तस्य २हेत। से साधुनी ५२ उपसग्गा-उपसर्गाः हेव, मनुष्य, तिय य समाधी उपस मावे त्यारे में मुनिनु तव्य छ है तो उसगान अभिधारए-अभिधारयेत् ॥ ઉપસર્ગ મારું શું કરી શકવાના છે “નિશ્ચલ” ચિત્ત એ વિચાર કરી સહન કરે. परंतु शंकाभीओ-शंकाभीतः सात उपद्रवन। सडथी द्वेगवान था ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #474 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रियदर्शिनी टीका. अ० २ गा. २१ नैषेधिकोपरीषहजये कुरुदत्तमुनिदृष्टान्तः ४१९ स्वाध्याय करणार्थं कायोत्सर्गकरणार्थं वा स्त्रीपशुपण्डकविवर्जिते स्थाने निषण्णेन मुनिना अनुकूलमतिकूलोपसर्गसंपातेऽनुद्वेगकरणेन निषद्याऽपरनामको नैषेधिकपरीपः सोढव्य इति भावः । अत्र दृष्टान्तः प्रदर्श्यते हस्तिनापुरे कुरुदत्तनामा श्रेष्ठिपुत्रः प्रव्रजितो भूत्वैका किविहारप्रतिमया ग्रामानुग्रामं विहरन्नयोध्यानगर्या ईषदूरप्रदेशे कायोत्सर्गम् कृत्वा स्थितः । तत्र होकर (उत्ता - उत्थाय ) उठकर ( अन्नमासणं - अन्यद् आसनं ) दूसरे किसी स्थान पर ( न गच्छेज्जा- न गच्छेत् ) नहीं जावे । तात्पर्य इसका यह है कि स्वाध्याय करने के लिये अथवा कायोत्सर्ग करने के लिये स्त्री पशु पंडक से वर्जित स्थान में बैठे हुए मुनि को चाहिये कि वह अनुकूल प्रतिकूल उपसर्ग के आने पर अनुद्विग्न चित्त होकर निषद्यापरीषह कि जिसका दूसरा नाम नैषेधिकीपरीवह है उसको सहन करे । अर्थात् श्मशान आदि स्थान में बैठने पर उपसर्ग आदि का आना स्वाभाविक है । अतः ऐसी स्थिति में मुनि का कर्तव्य है कि वह तिर्यञ्चादिकृत उन उपसर्गों को अविचलितचित्त होकर सहन करे । भयभीत न होवे, और न एक स्थान से दूसरे स्थान पर अपनी रक्षा के अभिप्राय से जावे । दृष्टान्त - हस्तिनापुर में कुरूदत्त नाम का एक सेठ का पुत्र रहता था । उसने धर्म का उपदेश सुनकर दीक्षा धारण करली। जब वे श्रुतचाउट्ठित्ता- - उत्थाय त्यांथी हीने अन्नमासणं- अन्यत् आसनं खील अध स्थान पर न गच्छेज्जा- न गच्छेत् न लय. આના ભાવ એ છે કે, સ્વાધ્યાય કરવા માટે અથવા તો કાâત્સગ કરવા માટે સ્ત્રી, પશુ, પ’ડકથી વર્જીત એવા સ્થાનમાં બેઠેલા મુનિએ ગમે તેવા અનુકૂળ પ્રતિકૂળ ઉપસ આવવાથી ઉદ્વિગ્ન ચિત્ત ન બનતાં વિષદ્યાપરીષદ્ધ કે જેનું બીજી' નામ નષેધિકીપરીષહ છે એને સહન કરે. અર્થાત્ સ્મશાન આદિ સ્થાનમાં બેસવાથી ઉપસ વગેરેનું આવવું સ્વાભાવિક છે. આથી એવી સ્થિતિમાં મુનિનું કજ્ય છે કે, તિયચ્ચ આદિ દ્વારા થતા એ ઉપસગેને અવિ ચલીત ચિત્ત ખની સહન કરે અને ભયભીત ન થાય. પેાતાના રક્ષણના અભિપ્રાયથી એક સ્થાનથી બીજા સ્થાન ઉપર ન જાય. દૃષ્ટાંત—હસ્તિનાપુરમાં કુરૂદત્ત નામે એક શેઠના પુત્ર રહેતા હતા એણે ધર્માંના ઉપદેશ સાંભળી દીક્ષા ધારણ કરી લીધી. જ્યારે તે શ્રુતચારિત્ર રૂપ ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર ઃ ૧ Page #475 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२० उत्तराध्ययनसूत्रे रात्रेश्चतुर्थपौरुष्यां कुतश्चिद् ग्रामाद् गोधनापहारं कृत्वा चौराः कुरुदत्तमुनेः पार्श्वस्थेन मार्गेण सवेगं गताः। पश्चाद् गोस्वामिनस्तदन्वेषकास्तत्रायाताः द्वौ मागौं तत्र दृष्ट्वा ते कुरुदत्तमुनि पृच्छति-भदन्त ! ब्रूहि चौराः केन पथा गताः । तद्वचनं श्रुत्वाऽपि स मुनिनं किंचिदुक्तवान् ततस्ते गोस्वामिनः कोपावेशेन मुनेः शिरसि आर्द्रमृत्तिकालेपेन पालीं कृत्वाऽङ्गाराः क्षिप्ताः मुनिस्तु तदुपसर्गकृतवेदनां सहमानो रित्ररूप धर्म के पालन करने में पूर्ण निष्णात हो गये तो उन्हों ने एकाकीविहारप्रतिमा लेकर ग्रामानुग्राम विचरण करने लगे विहार करते २ वे अयोध्यानगरी के समीप कुछ दूर प्रदेश में कायोत्सर्ग धारण कर रहे । रात्रि के चतुर्थ प्रहर में किसी ग्राम से गायों को चुराकर चौर कुरुदत्त मुनि के पास के मार्ग से जल्दी २ बड़े वेग के साथ निकले । इनके निकल जाने के बाद ही गायों के स्वामी उनकी तपास करते हुए वहीं पर आ पहुँचे । वहां से दो रास्ते जाते थे। उन्हें देखकर उन लोगों ने कुरुदत्त मुनि से पूछा कि भदन्त ! यहां से चौर किस रास्ते होकर गये हैं । मुनि ने उनकी बात सुनकर कुछ भी उत्तर नहीं दिया। वे सबके सब मुनि के ऊपर रुष्ट हुए। क्रोध के आवेशमें आकर उन लोगों ने मुनिराज के माथे ऊपर मिट्टी की क्यारी बनाकर उसमें जलते हुए अंगार रख दिये । मुनि ने उनके द्वारा किये गये इस ધર્મનું પાલન કરવામાં પૂર્ણ પણે નિષ્ણાત બની ગયા ત્યારે એમણે એકાકી વિહાર પ્રતિમા લઈ ગ્રામનુગ્રામ વિચરણ કરવા માંડયું. વિહાર કરતાં કરતાં તે અધ્યા નગરીની પાસે છેડા દૂરના પ્રદેશમાં કાર્યોત્સર્ગ ધારણ કરી રહ્યા. શત્રીના ચેથા પ્રહરના સમયે કઈ ગામથી ગાય ચેરીને ચાર કુરૂદત્ત મુનિની પાસેના માર્ગ ઉપરથી ઉતાવળથી નિકળી ગયા. ગાયે ચારીને ભાગેલા એ ચોરની પાછળ એને નીકળી જવા પછી થોડીવારે ગાયે જેની ચોરાયેલી તે એની તપાસમાં નીકળ્યા. અને કુરૂદત્ત મુનિ જે સ્થાને બેઠેલ હતા ત્યાં પહોંચ્યા. આ સ્થાનેથી જુદી જુદી બાજુ જતા બે રસ્તા ફુટતા હોવાથી ગાયના માલીકોએ મુનિને બેઠેલા જોઈ તેની પાસે આવી પૂછયું કે, ભદંત! અહિંથી ચારે કઈ બાજુએ ગયા ? મુનિએ આને કઈ પ્રત્યુત્તર ન આપતાં તે લેકે મુનિ ઉપર ખીજાયા અને ક્રોધના આવેશમાં આવી જઈ તે લેકેએ મુનિરાજના માથા ઉપર માટીની ક્યારી બનાવી તેમાં બળ બળતા અંગારા મૂકી દીધા. એ લોકે દ્વારા કરાયેલા ઉપસર્ગથી મુનિને ખૂબ વેદના થઈ પરંતુ તેને ખૂબજ શાંત ચિત્તે ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #476 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रियदर्शिनी टीका अ० २ गा० २२ शय्यापरीषहजयः ४२१ निरुद्वेगः सन् तत्र स्थित एव समाधिभावेन कालं कृत्वा सिद्धि प्राप्तवान् । एवं मन्यैरपि मुनिभिनॆषेधिकीपरीषहः सोढव्यः ॥ २१ ॥ अथ शय्यापरीषहजयं पाहमलम-उच्चावयाहिं सेजाहिं तवस्ती भिक्खु थामवं । नाइवेल विहन्नेजा, पावैदिट्ठी विहन्नई ॥ २२ ॥ छाया-उच्चावचाभिः शय्याभिः, तपस्वी भिक्षुः स्थामवान् । नातिवेलं विहन्यात्, पापदृष्टिविहन्यते ॥ २३ ॥ टीका-'उच्चावयाहिं' इत्यादि । स्थामवान् स्थाम-बलं तद्वान्, शीतोष्णादिसहनशक्तिमानित्यर्थः, तपस्वी अनशनादिविविधतपश्चरणशीलः, भिक्षुः-मुनिः, उच्चावचाभिः उत्कृष्टापकृष्टाभिः उपसर्ग की वेदना को बडे ही शान्त परिणामों से सहन किया। चित्त में जरा भी उद्वेग नहीं आने दिया । ध्यान में ही वे समाधिभाव से स्थिर रहे। अन्त में कालधर्म को प्राप्तकर कुरुदत्तमुनिने सिद्धि प्राप्त की। इसी प्रकार अन्य मुनियों को भी इस कथासे यही शिक्षा लेनी चाहिये कि निषधापरीषह में यदि इस प्रकार के विघ्न आवे तो उन्हें सहन करना चाहिये ॥ २१॥ अब ग्याहरवें शय्यापरीषहजय के विषय में सूत्रकार कहते हैं' उच्चावयाहिं ' इत्यादि। अन्वयार्थ-(थामवं-स्थाभवान् ) शीत उष्ण आदि परीषहों को सहन करनेकी शक्तिवाला, तथा (तवस्सी-तपस्वी) अनशन आदि विविध तपों का अनुष्ठान करने वाला ( भिक्खू-भिक्षुः) साधु (उच्चावयाहिं सेज्जाहि-उच्चावचाभिः शय्याभिः) अनुकूल जैसे हेमन्त शिशिर સહન કરી. ચિત્તમાં જરા પણ ઉદવેગ આવવા ન દીધું અને ધ્યાનમાં જ સમાધી ભાવમાં સ્થિર રહ્યા. અને કાળ ધર્મને પામી એમણે સિદ્ધિ પ્રાપ્ત કરી. આ પ્રકારે અન્ય મુનિએ પણ આ કથાથી એવી શિક્ષા લેવી જોઈએ કે, નિષદ્યાપરીષહમાં કદાચ આ પ્રકારનાં વિશ્ન આવે તો એને સહન કરવાં જોઈએ. ૨૧ वे सूत्रा२ शय्या५५९ ताने ४३ छे. 'उच्चावयाहिं' त्याल. मन्वयार्थ-थामवं-स्थामवान् सन। मने गरभीना परीषडान सहन पानी शति तथा तवस्सी-तपस्वी मनशन माह विविध तपार्नु मनुष्ठान ४२पापा भिक्खू-भिन्नुः साधु उच्चावयाहि सेज्जाहि-उच्चावचाभिः शय्याभिः मनु-२वी, ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #477 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२२ उत्तराध्ययनसूत्रे उच्चाः उत्कृष्टाः, अनुकूलाः-हेमन्तशिशिरयोः शैत्यरहिताः उष्णस्पर्शवत्यो वा, ग्रीष्मवर्षासु उष्णस्पर्शवजिताः, शीतस्पर्शवत्यो वा, द्रव्यतः उच्चप्रदेशस्थिता वा उच्चाः, सुधाभिः-'चूना, सिमेन्ट' इत्यादिभाषापसिद्धाभिः, उपलिप्ततलादीनामुपलक्षणं चैतत् । अवचा अपकृष्टाः प्रतिकूला:-हेमन्तशिशिरयोः शीतस्पर्शयुक्ताः, ग्रीष्मवर्षासु उष्णस्पर्शवत्यः, द्रव्यतः अधोभागस्थिता वा अवचाः, उच्चाश्च अवचाचेति, उच्चावचास्ताभिः, शय्याभिः शेरते यासु साधवस्ताः शय्याः बसतयः उपाश्रयाः, पट्टकादिरूपाः संस्तारकाश्च उच्यन्ते, ताभिर्हेतुभिः, अतिवेलम्-वेलामतिक्रम्य, स्वाध्यायादिकं न विहन्यात्-न परित्यजेत् । यद्वा-अतिवेलाम्-इति छाया। वेलाशब्दो मर्यादावाचकः, अतिशयिता वेला अतिवेला, अन्यमर्यादाऽपेक्षयाऽतिशायिनी मर्यादा समतारूपां न विहन्यात्-रागद्वेषजनिताभ्यां हर्षविषादाभ्यां ऋतु में शैत्यरहित, अथवा-उष्णस्पर्शसहित, ग्रीष्म वर्षाऋतु में उष्णस्पर्शरहित, अथवा शीतस्पर्शसहित, अथवा द्रव्य की अपेक्षा उच्चप्रदेश में स्थित, उपलक्षण से चूना सिमेंट आदि की बनाई गई ऐसी उच्चशय्या-उपाश्रय अथवा पाटला संस्तारकको लेकर, अथवा अवचउच्च से प्रतिकूल-हेमन्त शिशिर में शीतस्पर्शयुक्त, ग्रीष्मवर्षा में उष्णस्पर्शयुक्त तथा द्रव्य की अपेक्षा अधोभाग में स्थित ऐसी शय्या को-उपाश्रय, पाटला, संस्तारक को-लेकर (अइवेलं न विहन्नेज्जा-अतिवेलं न विहन्यात् ) वेला का उल्लंघन करके स्वाध्याय आदि को न छोड़े, अर्थात् कालोकाल प्रतिलेखनादि करे । अथवा रागद्वेषजनित हर्षविषादरूप परिणामों के द्वारा अन्यमर्यादा की अपेक्षा अतिशयविशिष्ट समतारूप मर्यादा का उल्लंघन न करे । उच्चशय्याહેમન્ત શિશિર રૂતુમાં શેત્ય રહિત, અથવા ઉષ્ણસ્પર્શવાળી ગ્રીષ્મ, વર્ષા તમાં ઉણસ્પર્શ રહિત અથવા શીતસ્પર્શ સહિત અથવા દ્રવ્યની અપેક્ષાથી ઉચ્ચ પ્રદેશમાં રહેલ. ઉપલક્ષણથી ચુના, સીમેન્ટ આદિથી બનાવવામાં આવેલા ઉચ્ચ શૈયા, ઉપાશ્રય, અથવા પાટલા સંસ્મારકને લઈ અથવા અવચ ઉચ્ચથી પ્રતિકૂળ હેમન્ત શિશિરમાં ઠંડીવાળી, ગ્રીષ્મ વર્ષોમાં ઉષ્ણુ સ્પર્શવાળી તથા દ્રવ્યની અપેક્ષા અધેભાગમાં સ્થિત એવી અવચશય્યાને–ઉપાશ્રય, પાટલા, સંસ્તારકને AS अइवेलं न विनिहन्नेज्जा-अतिवेलं न विहन्यात् वेदानुन ४२री स्वाध्याय આદિને ન છોડે, અર્થાત્ કાળોકાળ પ્રતિલેખનાદિ કરે. અથવા રાગદ્રેશ જનિત હર્ષ વિષાદ રૂપ પરિણામે દ્વારા અન્ય મર્યાદાની અપેક્ષા અતિશય વિશિષ્ટ સમતારૂપ મર્યાદાનું ઉલંઘન ન કરે. ઉચ્ચ શમ્યા-અનુકૂળ વસ્તિને લાભ મળતાં એ વિચાર ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #478 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रियदर्शिनी टीका. अ०२ गा. २२-२३ शय्यापरीषहजयः ४२३ न लङ्घयेत् । उच्चशय्यां प्राप्य 'अहो ! भाग्यवानऽहं यन्मम सर्वकालसुखदा वसतिमिलिते 'ति हर्षः, अवचशय्यां प्राप्य तु ' अहो ! कीदृशी मम मन्दभाग्यता, यतः शय्याऽपि शीतादिनिवारिका न लभ्यते ' इति विषादः। एवंभूताभ्यां हर्षविषादाभ्यां मध्यस्थभावरूपां मर्यादां नोल्लङ्घनीयेत्यर्थः । यस्तु मुनिः पापदृष्टिः पूर्वोक्त मर्यार्दोलचकः स विनिहन्यते, परीषहैः पराजितोऽत एव साधुमर्यादास्खलितो मुनिः संयमात्पतितो भवतीत्यर्थः। तस्मादुपाश्रयादौ रागद्वेषपरिवर्जनेन शय्यापरीषहः सोढव्य इति भावः ॥ २२ ॥ अनुकूल वस्ति को पाकर ऐसा विचार न करे कि "अहो ! मैं बड़ा ही भाग्यशाली हूं जो मुझे सर्वकाल में सुख देनेवाली वसति मिली है" तथा अवचशय्या प्रतिकूल वस्ति को पाकर ऐसा विचार न करे कि-अहो ! मैं कैसा मन्दभागी हूं जो मुझे शीतादि निवारण करने वाली वस्ति भी नहीं मिली । इस प्रकार अनुकूल प्रतिकूल वसति की प्राप्ति को लेकर मुनि को हर्षविषादात्मक परिणामों द्वारा मध्यस्थभावरूप मर्यादा का उल्लंघन नहीं करना चाहिये । जो मुनि (पावदिट्ठी विहन्नई-पापदृष्टिः विहन्यते) अनुकूल प्रतिकूल वसति में रागद्वेष करता है वह पापदृष्टि मुनि इस समताभावरूप मर्यादा का नाश करता हुवा संयम से पतित हो जाता है। इसलिये मुनिका कर्तव्य है कि वह उपाश्रय आदि में रागद्वेष के परिवर्जन से शय्यापरीषह सहन करे ॥ २२ ॥ ન કરે કે, “અહો! હું ખૂબ જ ભાગ્યશાળી છું. જે મને સર્વકાળ સુખ દેવાવાળી पस्ति भजी छ" तथा "२५qय" शय्या प्रति पस्तिथी मेवा वियार न ४२, કે મદભાગી છું જે મને ઠંડી આદિનું નિવારણ કરવાવાળી વસ્તિ ન મળી, આ પ્રકારે અનુકૂળ પ્રતિકૂળ વસ્તિની પ્રાપ્તિને લઈ મુનિએ હર્ષ વિષાદાત્મક પરિણામે દ્વારા મધ્યસ્થ ભાવરૂપ મર્યાદાનું ઉલ્લંઘન કરવું ન જોઈએ. જે મુનિ જાવિ विहन्नई--पापद्रष्टिः विहन्यते अनुभ्रूण प्रति पस्तिमा देश ४रे छे. ते પા૫દષ્ટિ મુનિ આ સમતા ભાવ રૂપ મર્યાદાને નાશ કરી સંયમથી પતિત થઈ જાય છે. આ માટે મુનિનું કર્તવ્ય છે કે તે, ઉપાશ્રય આદિમાં રાગદ્વેશના પરિવજનથી શય્યા પરીષહ સહન કરે છે ૨૨ છે ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #479 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२४ उत्तराध्ययनसूत्रे शय्यापरीषहः कया रीत्या सोढव्यः ? इति प्रदर्शयतिमूलम् -पईरिकमुवस्सयं लद्धं, कल्लाणं अदुव पावैगं । किमेगरायं करिस्सइ, एवं तत्थऽहियासऐ ॥ २३ ॥ छाया-प्रतिरिक्तमुपाश्रयं लब्ध्वा, कल्याणम् अथवा पापकम् । किमेकरात्रं करिष्यति एवं तत्राध्यासीत ॥ २३ ॥ 'पइरिक' इत्यादि। साधुः, कल्याणम्शातरूपं सुखदायकम् , अथवा पापकं-पापरूपं दुःखजनकम् , प्रतिरिक्तं स्त्रीपशुपण्डकादिवर्जितम् - उपाश्रयं वसति, लब्ध्वा पाप्य, एकरात्रम्-एकस्यां रात्रौ अयमुपाश्रयः किं सुखं दुःखं वा करिष्यति न किंचित् करिष्यति' एवम् ईदृशेन विचारेण तत्र-उपाश्रये अध्यासीत-अधिवसेत्-राग द्वेष वा न कुर्यादित्यर्थः । अयं भावः-चित्-समभूमिकं सुशोभनं सर्वत्सुखदं, शय्यापरीषह किस तरह सहना चाहिये। इस बातको सूत्रकार प्रदर्शित करते हैं-'पइरिक०'-इत्यादि. ___अन्वयार्थ-साधु (कल्लाणं-कल्याणम्) शातरूप-सुखदायक (अदुवअथवा) या (पावगं-पापकम् ) अशातरूप-दुःखजनक ऐसे (उवस्सयं-उपाश्रयं) उपाश्रय-वसति को जो (पइरिक-प्रतिरिक्तम् ) स्त्री पशु एवं पण्डक आदि से रहित है (लद्धं-लब्ध्वा ) प्राप्त कर ऐसा विचार करे कि (एगरायं-एकरात्रं) यह उपाश्रय एकरातभर ठहरने वाले मेरे लिये क्या तो सुख दे सकता है और क्या दुःख दे सकता है ( एवं तत्थऽहियासए-एवं तत्राध्यासीत) इस प्रकार विचार कर के वहां रहे - उपाश्रय के विषय में वह रागद्वेष न करे । तात्पर्य यह कि साधु के लिये कहीं पर समभूमि શય્યાયરીષહ કઈ રીતથી સહન કરે ? આ વાતને સૂત્રકાર પ્રદર્શિત ४२ छ 'पइरिक' छत्यादि अन्वयार्थ-साधु कल्लाणं-कल्याणम् शात३५ -सुमहाय अदुव-अथवा या पावगंपापकम्मात३५-६:०४४ सपा उवस्सयं--उपाश्रयं उपाश्रय-वस्ति ने पइरिक.. प्रतिरिक्तम् श्री ५४ अने. ५७४ माहिथी २डित छ, मेवी पति लब्ध्धु-लब्ध्वा पातरी वियार ४२, एगरायं-एकरात्रंमाश्रय मे २त पावणा भा२। भाट शुसुम मापनार छ शुहुः५ मापना२ छ. एवं तत्थऽहियासए--एवंतत्राથારીત આ પ્રકારને વિચાર કરી ત્યાં રહે. ઉપાશ્રયના વિષયમાં તે રાગદ્વેશ ન કરે. તાત્પર્ય એ છે કે, સાધુને માટે કઈ સ્થળે સમભૂમિવાળ ઉપાશ્રય ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #480 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रियदर्शिनी टीका. अ० २ गा० २३ शय्यापरीषहजये शुभचन्द्राचार्यदृष्टान्तः ४२५ क्वचिद्विषमभूमिकं पांसुप्रचुरं शर्कराशकलसंकुलं शीतकालेऽतिशीतं ग्रीष्मे बहुधर्मकं दुःखदं सुखदं वा स्त्र्यादिरहितमुपाश्रयं, मृदुकठिनादिभेदेनोच्चावचं पट्टकादिरूपं संस्तारकं च प्राप्य तत्र तत्र रागद्वेषाकरणेनानुद्विग्नो भवेत् । एवं शय्यापरीषहः साधुना विजितो भवतीति । वाला उपाश्रय मिले या विषम भूमिवाला, चाहे तो वह ऋतु के अनुकूल हो चाहे प्रतिकूल हो, चाहे वह कंकर पत्थर से युक्त भूमिवाला हो चाहे सिमेंट आदि से बनी हुई भूमिवाला हो - कैसा भी क्यों न हो परन्तु स्त्री पशु आदि से यदि वह रहित है तो साधु को उस में किसी भी प्रकार का हर्षविषाद नहीं करना चाहिये । इसी तरह संस्तारक भी चाहे मृदुगुणयुक्त हो चाहे कठिन हो कैसा भी हो उसको प्राप्तकर साधु को उस विषय में भी रागद्वेषपरिणति नहीं करनी चाहिये । इस तरह करने से साधु के द्वारा शय्यापरीषह जीता जाता है । भावार्थ - शय्यापरीषह पर यदि साधु को विजय पाना है तो उसकी विचारधारा ऐसी कभी नहीं होनी चाहिये कि यह शय्या, उपाश्रय अथवा पाट-पाटला आदि सुन्दर हैं या असुन्दर है ? ऋतु के अनुकूल हैं या प्रतिकूल हैं । साधु के लिये क्या तो अनुकूल और क्या प्रतिकूल ? सबके ऊपर उसकी समान दृष्टि होनी चाहिये । यह तो दृष्टि की विषमता है जो साधुके लिये उसकी समाचारी से उचित नहीं मानी जाती है। संयम का निर्विघ्न रूप से निर्वाह जैसे भी हो सके उस रूप से મળે અથવા વિષમભૂમિવાળા, તે ઋતુને અનુકૂળ હાય અથવા પ્રતિકૂળ હોય, ચાહે તે કાંકરા પત્થરની ભૂમિવાળા હોય કે, ચાહે સીમેન્ટ આદિનીભૂમિવાળા ગમે તેવા હોય. પરંતુ શ્રી પશુ આદિથી જો તે રહિત હોય તા સાધુએ તેમાં કાઈ પ્રકારના હર્ષ વિષાદ નહીં કરવા જોઇએ. એ જ રીતે સસ્તારક પણ ચાહે તેવું સુંવાળું હાય અથવા તેા કઠણ હોય ગમે તેવુ' હેય તેને પ્રાપ્ત કરી સાધુએ તે વિષયમાં પણ રાગદ્વેશ પરિક્રુતિ રાખવી ન જોઈ એ આવી રીતે કરવાથી સાધુ શય્યાપરીષહ જીતી જાય છે. ભાવાથ —શય્યાપરીષહને કદાચ સાધુએ જીતવા હાય તેા તેની વિચાર ધારા એવી કદી ન હોય કે, આ શય્યા ઉપાશ્રય-પાટલા આદિ સુદર છે કે અસુંદર, ઋતુને અનુકૂળ છે કે પ્રતિકૂલ સાધુ માટે કયું અનુકૂળ અને કયું પ્રતિકૂળ બધા ઉપર તેની સમાન દૃષ્ટિ હાવી જોઇએ. એ તે દૃષ્ટિની વિષમતા છે જે સાધુ માટે તેની સમાચારીથીચિત માનવામાં આવતી નથી. સ ંયમને નિર્વિઘ્ન उ० ५४ ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર ઃ ૧ Page #481 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययनसूने अत्र दृष्टान्तः प्रदश्यते एकदा भावितात्मा शुभचन्द्रनामाचार्यः सुविनीतशिष्यपरिवारैः सह ग्रामानुग्रामं विहरन् श्रावस्तीनगर्या बहिरशोकनामके नन्दनवनतुल्ये उद्याने समवसृतः। तस्य बहुमध्यदेशभागे केलिप्रियभूपस्य प्रासाद आसीत् । स च प्रासादः प्रासादीयः प्रदर्शनीयोऽभिरूपः प्रतिरूपो मणिकुटिमतलः समरमणीयभूमिभाग आदर्शतलोपमः कोमलस्पर्शः सर्वेर्तुसुखदः सर्वथाऽनुकूलो रुचिरपीठफलकसंस्तारकयुक्त आसीत् । तत्रासौ तपःसंयमाराधको मुनिर्निवसन् विशुद्धभावेन तमनुकूलशय्यापरीषहं मध्यस्थभावेन सहमानश्चिन्तयति-अत्रैकरात्रमा ममावस्थानं, किमनेन शय्यासुखेन । करते रहना चाहिये इसी में साधु की शोभा है। दृष्टान्त-एक समय की बात है-शुभचंद्र नाम के आचार्य सुविनीत अपने शिष्यपरिवार के साथ ग्रामानुग्राम विहार करते हुए श्रावस्ती नगरी के बाहिर रहे हुए नंदनवनतुल्य अशोकनामक उद्यान में पधारे । उस उद्यान के ठीक मध्यभाग में केलिप्रियभूप का प्रासाद था। यह प्रासाद बहुत ही सुन्दर था। इसका कुटिमतल मणिमय था। इसका भूमिभाग सम एवं रमणीय था। वह ऐसा चलकता था कि मानो दर्पण का तल हो । स्पर्श उसका सुकुमाल था। यह महल सब ऋतुओं के अनुकूल था। रुचिर पीठ फलक संस्तारकों से युक्त था। तथा प्रासादिय दर्शनीय अभिरूप और प्रतिरूप था। तप और संयम के आराधक ये आचार्य महाराज उस प्रासाद में एक तरफ ठहर गये। उस में इन्हें सब बात की सुविधा थी। परन्तु फिर भी आचार्य ने उस विषय में अनुकूलता के विचार से हर्षभाव धारण नहीं किया। રૂપથી નિર્વાહ જેમ થઈ શકે તેવા રૂપે કરતું રહેવું જોઈએ તેમાં સાધુની શોભા છે. - દૃષ્ટાંત–એક સમયે શુભચંદ્ર નામના આચાર્ય સુવિનીત પિતાના શિષ્ય પરિવાર સાથે ગ્રામાનુગ્રામ વિહાર કરતા કરતા શ્રાવસ્તી નગરીની બહાર રહેલા નંદનવન તુલ્ય અશોક નામના ઉદ્યાનમાં પધાર્યા. તે ઉદ્યાનના મધ્ય ભાગમાં કેલિપ્રિય રાજાનું નિવાસ સ્થાન હતું, તે મહાલય ખૂબ જ સુંદર હતું, એનું આંગણું મણિજડિત હતું. ભૂમિભાગ સમ અને રમણીય હતું. તે એ ચળકાટ મારતું હતું કે જાણે અરિસે હોય! એને સ્પર્શ ખૂબ સુંવાળ લાગત. આ મહેલ સઘળી ઋતુઓમાં અનુકૂલ હતે. રૂચી ઉપજાવે તેવા પીઠ, ફલક, શયા, સંસ્તારક આદિ યુક્ત હતા. તપ અને સંયમના આરાધક શુભચંદ્ર આચાર્ય તે મહેલની એક બાજુ ઉતર્યા એમાં તેમને દરેક પ્રકારની સગવડતા હતી છતાં પણ આચાર્યે તે અનુકૂલતાના વિચારથી હર્ષભાવ ધારણ ન કર્યો. ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #482 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रियदर्शिनी टीका. अ० २ गा० २३ शय्यापरीषहजये शुभचन्द्राचार्यदृष्टान्तः ४२७ ईदृशसुखावहशय्यानुरागः किमात्मकल्याणाय मम भविष्यति ? कदापि नैव । एवं विचिन्त्य शुभ परिणामेन प्रशस्ताध्यवसायेन शिष्यसहितः शुभचन्द्राचार्यस्तदावधिज्ञानं प्राप्तवान् । स च द्वितीयदिवसे शिष्यपरिवारैः सह विहारं कृत्वा क्वचिद् लघुग्रामे वसतौ निवसति स्म । सा च वसतिरुन्दरुकृतानेकविलयुक्तभित्तिका, भूतभुजंगमादिभयोत्पादिका प्रचुरपांसुशर्करासंकुला विषमभूमिका जीर्णशीर्णा पीठफलकादिरहिता चासीत् । तत्र प्रमार्जनं कृत्वा संयमेन तपसाऽऽत्मानं भावयन्नसौ विहरति स्म । तत्र रात्रौ किन्तु विशुद्ध भाव से युक्त होकर उस अनुकूल शय्यापरीषह को मध्यस्थ भाव से सहन किया । विचार किया कि यहां एक रात्रि भर के लिये तो मेरी स्थिरता है । इस शय्या के सुख से मुझे क्या लाभ | इस शय्या का सुख मेरे आत्मकल्याण का कोई साधक नहीं है कि जिससे इस में मेरी उपादेय बुद्धि हो । पर द्रव्य के शुभाशुभ परिणमन से मैं अपने में शुभाशुभरूप परिणमन क्यों होने दूं। इसका परिणमन इसके साथ है और मेरा परिणमन मेरे साथ । इस प्रकार विचार कर शुभ परिणाम एवं प्रशस्त अध्यवसाय के प्रभाव से शिष्य सहित उनको अवधिज्ञान उत्पन्न हो गया । दूसरे दिन उन्हों ने वहां से विहार कर दिया। विहार कर वे एक छोटे से ग्राम में आये। जहां ये ठहरे वहां का स्थान बड़ा ही भयानक था। उस में अनेक चूहों के बिल थे । भूत, भुजंगम आदि का वहां उपद्रव भी था । धूलि एवं कंकर से वहां की भूमि सम विषम थी । પણ વિશુદ્ધ ભાવથી યુક્ત બની તેમણે અનુકૂલ શય્યાપરીષહને સહન કર્યાં. વિચાયુ" કે અહિ' એક રાત્રિ માટે મારી સ્થિરતા છે. આ શય્યાના સુખથી મને શું લાભ ? શષ્યાનું આ સુખ મારા આત્મકલ્યાણનું કાઈ સાધક નથી કે જેનાથી તેમાં મારી ઉપાદેય બુદ્ધિ થાય. પરદ્રવ્યના શુભાશુભ પરિણમનથી હું પોતાનામાં શુભાશુભ રૂપ પરિણમન શા માટે થવા દઉં. તેનું પરિણમન તેની સાથે અને માર્ પરિણમન મારી સાથે. આ પ્રકારના વિચાર કરી શુભ પરિણામ અને પ્રશસ્ત અધ્યવસાયના પ્રભાવથી શિષ્ય સહિત તેમને અવધિજ્ઞાન ઉત્પન્ન થયું. लया બીજે દિવસે તેઓએ ત્યાંથી વિહાર કર્યો. વિહાર કરીને તેઓ એક નાના ગામડામાં આવ્યા. જ્યાં તે રાકાયા હતા તે સ્થાન ઘણું જ નક હતું. તેમાં અનેક ઉદરનાં ભેાણુ હતાં, ભૂત, ભુજ ગમ વગેરેના ઉપદ્રવ ત્યાં હતા. ધૂળ અને કાંકરાથી ત્યાંની ભૂમિ ઉંચી નિચી હતી, જીણુ શી ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર ઃ ૧ Page #483 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૧૮ उत्तराध्ययनसूत्रे स्वाध्यायं ध्यानं च कृत्वा शुभचन्द्राचार्यस्तदाज्ञया सर्वे मुनयश्च स्वस्वसंस्तारकोपरि शयनार्थमुद्यताः । तदा तत्रैको भुजङ्गमः स्वाहारमन्वेषयन् समागतः। तमवलोक्य सर्वे मुनयोऽनुद्विग्ना एव तस्थुः । स च भुजङ्गमः कंचिन्मूषकमनुधावमानस्तस्मिन् दृष्टिपथातिक्रान्ते मुनीन पश्यति । तस्य दृष्टौं विषमासीत् अतस्तेन दृष्टमात्रा एव सन्तस्ते मुनयो विषाक्रान्ता जाताः अथ शुभचन्द्राचार्यस्तदीयशिष्याश्च सर्वे मुनयः समाधिभावमवलम्ब्य क्षपकश्रेणि समारुह्य शुक्रुध्यानानलेन सकलं कर्म भस्मसात् कृत्वा केवली भूत्वाऽन्तर्मुहूर्तमात्रेण शिवपदं प्राप्तवन्तः । एवं सर्वैर्मुनिभिः शय्यापरीषहः सोढव्यः ॥ २३ ॥ जीर्ण शीर्ण संस्तारक तक भी इसमें कोई नहीं था । उस भूमि का प्रमार्जन कर आचार्य महाराज ने वहां पर अपनी साधुमंडली सहित निवास किया । तप एवं संयम से आत्मा को भावित करते हुए उन आचार्य महाराज ने रात्रि में स्वाध्याय और ध्यान करने के पश्चात् समस्त अपने शिष्यों को अपने २ संस्तारकों पर शयन करने की आज्ञा दी । आज्ञा पाते ही सब के सब अपने२ संस्तारक पर सोने लगे । इतने में वहां एक सर्प अपने आहार की खोज में आया। देखकर समस्त मुनिमंडली अनुद्विग्न ही रही। वह सर्प एक चूहे के पीछे पड़ा हुआ था। जब वह चूहा उसे दिखा नहीं तो उसने मुनिमंडली की तर्फ अपनी दृष्टि लगाई। उसकी दृष्टि में ही विष था, इसलिये उसके द्वारा देखे गये वे आचार्यसहित मुनिराज विष से आक्रान्त हो गये । सब ने मिलकर समाधिभाव का आलम्बन किया, और उसके प्रभाव से वे सब के सब क्षपकश्रेणी पर आरूढ होकर शुक्लध्यान की प्राप्ति से सम સસ્તારક પણ ન હતું. આ ભૂમિને સાફ કરીને આચાય મહારાજે તે સ્થળે પેાતાના શિષ્ય સાથે નિવાસ કર્યાં. તપ અને સંયમથી આત્માને ભાવિત કરીને તે આચાર્ય મહારાજે રાત્રિમાં સ્વાધ્યાય અને ધ્યાન કર્યા પછી પેાતાના અધા શિષ્યાને પાતપેાતાના સંસ્તારક ઉપર શયન કરવાની આજ્ઞા આપી. આજ્ઞા મળતાં જ સઘળા પાતપેાતાના સંસ્તારક ઉપર સુવા લાગ્યા. એટલામાં એક સર્પ પાતાના આહારની શોધમાં નીકળ્યેા, એને જોઈ સમસ્ત સાધુ ગણ અનુદ્વિગ્નજ રહ્યું. તે સર્પ એક ઉંદરની પાછળ પડેલ હતા. જ્યારે તે ઉંદર તેના જોવામાં ન આવ્યે તે તેણે આ મુનિ ગણ તરફ્ એની દૃષ્ટિ ફેરવી. એની દૃષ્ટિમાં જ ઝેર હતું, એટલે એની ષ્ટિએ પડેલા આચાર્ય સહિત મુનિરાજો વિષથી આકુળવ્યાકુળ બની ગયા. સઘળાએ મળીને સમાધિ ભાવનું આલંબન કર્યું અને તેના પ્રભાવથી તે સઘળાં ક્ષપકશ્રેણી પર આરૂઢ ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર ઃ ૧ Page #484 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रियदर्शिनी टीका. अ० २ गा० २४ आक्रोशपरीष हजयः अथाऽऽक्रोशपरीषद्दजयं प्राह मूलम् अक्कोसिज पेरो भिक्खु, ने तास पंडिसंजले । सरिसो हाई बालाणं, तम्ही भिक्खू ने संजले ||२४|| छाया - आक्रोशेत् परो भिक्षु, न तस्मिन् प्रतिसंज्वलेत् । सदृशो भवति बालानां तस्माद् भिक्षुर्न संज्वलेत् ॥ २४ ॥ टीका' अक्फोसिज्ज' इत्यादि । ४२९ परः = अन्यः, यदि भिक्षु = मुनिम् आक्रोशेत् = दुर्वचनेन वर्जयेत् तर्हि मुनिस्तस्मिन् न प्रतिसंज्वलेत् =न प्रतिकुप्येत् । अवाच्यभाषयाऽऽकुष्टः सन् कोपावे - त कर्मों को नाशकर केवली हो गये, तथा अन्तर्मुहूर्त में शिवपद को प्राप्तकर सिद्ध हो गये । इस कथा से यही शिक्षा मिलती है कि शय्यापरीषह पर विजय पानेवाला मुनि आत्मकल्याण कर मुक्त हो जाता है, अतः शय्यापरीषह पर विजय प्राप्त करना चाहिये ॥ २३ ॥ अब सूत्रकार बारहवें आक्रोशपरीषह का जय कहते हैं'अक्कोसिज्ज' - इत्यादि. अन्वयार्थ - यदि (परो - पर: ) कोइ अज्ञानी मनुष्य (भिक्खु - भिक्षुम् ) साधुको (अकोसिज्ज - आक्रोशेत्) दुर्वचन से तर्जित करे तब वह साधु ( तंसि - तस्मिन् ) उसके उपर ( न पडिसंजले - न प्रतिसंज्वलेत् ) क्रोधित न हो - अर्थात् जब कोई अशिष्ट भाषा से साधु के साथ असभ्य व्यवहार करे - गाली आदि दुर्वचन कहे तो साधु को उसके प्रत्युत्तररूप में क्रोध के आवेश से उसके प्रति गाली वगैरह अशिष्ट અની શુકલધ્યાનની પ્રાપ્તિથી સમસ્ત કમ મળને નાશ કરી કેવળીપદને પ્રાપ્ત કર્યું": તથા અંતર મુહૂર્તમાં શિવપદને પ્રાપ્ત કરી સિદ્ધ બની ગયા. આ કથાથી એ શિક્ષા પ્રાપ્ત થાય છે કે, શય્યાપરીષહ પર વિજય મેળવનાર મુનિ આત્મકલ્યાણ કરી મુક્તિને પામે છે, માટે શય્યાપરીષહના વિજય પ્રાપ્ત કરવા જોઇએ. ૫ ૨૩૫ हुवे सूत्रार मारमा आडोश परीषडुना भय ने उडे छे. 'अक्कोसिज्ज' - धत्याहि, भ्यन्वयार्थ-यदि परो-परः ले अर्थ अज्ञानी मनुष्य भिक्खु - भिक्षु साधुने अक्कोसिज्ज - आक्रोशेत् राम वन्यनथी अपमानीत अरे तो पशु ते साधु तंसि तस्मिन् तेना उपर न पडिसंजले - न प्रतिसंज्वलेतू डोधित न थाय अर्थात् ले ભાષાથી સાધુની સાથે અસભ્ય વહેવાર કરે, ગાળ આદિ દુચન કહે તે સાધુએ તેના પ્રત્યુત્તર રૂપે ક્રોધ આવેશથી તેના પ્રતિ ગાળ વિગેરે અશિષ્ટ ભાષાના પ્રયાગ अशिष्ट ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર ઃ ૧ Page #485 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३० उत्तराध्ययसूत्रे शेन प्रत्याक्रोशरूपं गालीदुर्वचनादिकं न वदेदित्यर्थः । ननु प्रतिसंज्वलने का हानिरित्याशङ्क्याह-'सरिसो होइ बालाणं' इति । प्रतिसंज्वलन् बालानाम्अज्ञानिनां सदृशो भवति, तस्माद् भिक्षुः मुनिः न संज्वलेत् आक्रुष्टोऽपि क्रोधं न कुर्यादित्यर्थः । इदमत्र बोध्यम्-मिथ्यादर्शनोदृप्तमुखनिर्गतानि कोपानलोदीपनानि दुर्वचनानि श्रुत्वा तत्मतीकारं कर्तुं समर्थोऽपि मुनिः-“दुरन्तः क्रोधकषायोदयनिमित्तपापकर्मविपाकः” इति चिन्तयन् स्वहृदये क्रोधायानवकाशदानेनाक्रोशपरीपहं सहेत । उक्तञ्चभाषा का प्रयोग नहीं करना चाहिये, क्यों कि गाली देने वाले को गाली देनेवाला माधु-जैसे के साथ वैसा बनने वाला मुनि-(बालाणं सरिसो होइ-बालानां सहशो भवति ) अज्ञानियों के सदृश ही माना जाता है। (तम्हा-तस्मात्) इसलिये (भिक्खू न संजले-भिक्षुः न संज्वलेत् ) भिक्षु क्रोध न करे। तात्पर्य इसका यह है कि-अज्ञान से मन्दोन्मत्त हुए व्यक्तियों के मुख से निकले हुए दुर्वचनों को जो कि कोपरूप अग्नि के उद्दीपक होते हैं, सुनकर उनके प्रतिकार करने में समर्थ भी मुनि "क्रोध कषाय के उदय के निमित्त से पापकर्म का विपाक दुरन्त होता है" ऐसा विचार कर अपने हृदय में क्रोध को स्थान न दे । इससे मुनि आकाशपरीषह पर विजय पाता है। कहा भी हैન કરવું જોઈએ. કેમ કે, ગાળ દેનારને સામી ગાળ દેનાર સાધુ-જેવાની साथै तवा थनार-मुनि बालाणं सरिसो होइ-बालानां सदृशो भवति मज्ञानीमानी भा३४० मानवामां आवे छे. तुम्हा-तस्मात् मा माटे भिक्खू न संजलेभिक्षुः न संज्वलेत् भिक्षु औधन ४२. તાત્પર્ય આનું એ છે કે, અજ્ઞાનથી મર્દોન્મત્ત બનેલ વ્યક્તિઓના મોઢામાંથી નિકળેલા દુર્વચને કે જે ક્રોધ રૂપી અગ્નિ ઉત્પન્ન કરનાર હોય છે, તે સાંભળી તેને પ્રતિકાર કરવામાં સમર્થ હોય પણ મુનિ “ ક્રોધ કષાયના ઉદય નિમિત્તથી પાપકર્મને વિપાક દુરન્ત હોય છે.” એ વિચાર કરી પિતાના હૃદયમાં ક્રોધને સ્થાન ન આપે. આથી તેવા મુનિ આક્રોશ પરીષહ પર વિજય પ્રાપ્ત કરે છે. કહ્યું પણ છે— ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #486 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रियदर्शिनी टीका अ० २ गा. २४ आक्रोशपरीषहजयः नाक्रुष्टो मुनिराक्रोशेत्, सम्यग्ज्ञानाद्यवर्जकः । अपेक्षेतोपकारित्वं, न तु द्वेषं कदाचन ॥ १ ॥ अन्यच- चाण्डालः किमयं द्विजातिरथवा शूद्राऽथवा तापसः, किं वा तत्त्वनिवेश पेशलमतिर्योगीश्वरः कोऽपि वा । इत्यस्वल्पविकल्पजालमुखरैः संभाष्यमाणो जनैff रुष्टो नहि चैव हृष्टहृदयो योगीश्वरो गच्छति || २ || इति विचार्य समत्वेन तिष्ठेत् ॥ २४ ॥ नाक्रुष्टो मुनिराक्रोशेत्, सम्यग्ज्ञानाद्यवर्जकः । अपेक्षेतोपकारित्वं न तु द्वेषं कदाचन ॥ १ ॥ सम्यग्ज्ञानादिक का परिहार नहीं करनेवाला, अर्थात् सम्यग्ज्ञानादिक गुणों के उपार्जन करने में कुशलमति भिक्षु अपमानित होने पर भी कभी भी अपमान करने वाले के प्रति अशिष्ट भाषा का प्रयोग न करे । प्रत्युत अपने प्रति इस प्रकार का व्यवहार करने वाले व्यक्ति को अपना उपकारी ही माने, किन्तु इसके प्रति द्वेषभाव कभी न रक्खे। और भीचाण्डालः किमयं द्विजातिरथवा शूद्रोऽथवा तापसः, किं वा तत्त्वनिवेशपेशलमतिर्योगीश्वरः कोऽपि वा । इत्यस्वल्पविकल्पजालमुखरैः संभाष्यमाणो जनै, र्नो रुष्टो नहि चैव हृष्टहृदयो योगीश्वरो गच्छति ॥ २ ॥ કર नाकृष्टो मुनिराक्रोशेत् सम्यग्ज्ञानाद्यवर्जकः । " अपेक्षेतोपकारित्वं, न तु द्वेषं कदाचन ॥ १ ॥ સમ્યગૂનાનાદિકના પરિહાર ન કરવાવાળા–અર્થાત્ સભ્યજ્ઞાનાદિક ગુણાનું ઉપાર્જન કરવામાં કુશળમતિ ભિક્ષુ અપમાનિત થવા છતાં પણ કદી પણુ અપમાન કરવાવાળા તરફ અશિષ્ટ ભાષાના પ્રયાગ ન કરે. પાતાના તરફ આ પ્રકારના વહેવાર કરવાવાળી વ્યક્તિને પેાતાના ઉપકારી જ માને. તેમ તેના તરફ દ્વેશ ભાવ કદી પણ ન રાખે. ખીજું પશુ— चाण्डालः किमयं द्विजातिरथवा शूद्रोऽथवा तापसः, किंवा तत्वनिवेश पेशल मतिर्योगीश्वरः कोऽपि वा । इत्यस्वल्प विकल्पजालमुखरैः संभाष्यमाणो जनै, न रुष्टो नहि चैव हृष्टहृदयो योगीश्वरो गच्छति ॥ २ ॥ ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર ઃ ૧ Page #487 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययनसूत्रे मुनिको देख कर कोई उनको चाण्डाल कहे, कोई ब्राह्मण कहे, कोई शुद्र कहे, कोई तपस्वी कहे, कोई विशिष्ट ज्ञानी तो कोई योगीश्वर कहे, इस प्रकार कहने वाले व्यक्तियों के मुख से निकलते हुए लघुता व श्रेष्ठतासूचक वचनों को सुनकर मुनि न तो रुष्ट होता है न तुष्ट होता है किन्तु समभाव से चला जाता है। भावार्थ-अशिष्ट भाषा का प्रयोग साधु जैसे सन्त पुरुषों के प्रति वे ही व्यक्ति करते हैं जो मिथ्यात्व के कीचड़ से लिप्त होते हैं। अतः उनके द्वारा अपमानित होने पर भी साधु को उनके प्रति रुष्ट न होकर प्रत्युत दयावान ही होते रहना चाहिये । यह उस समय विचार करना चाहिये कि देखो ये कितने अज्ञानी हैं जो खोटी खरी वस्तु के यथार्थ बोध से विकल हो रहे हैं । ये जो कुछ कहते हैं उनमें इनका अपराध नहीं है, यह तो मिथ्यादर्शन का ही प्रभाव है, अतः इनकी आत्मा सम्यग्ज्ञान से वासित बनें और ये उत्तम मार्ग पर आरूढ हो जायें, ऐसी भावना साधुको रखनी चाहिये। तथा इस समय यदि मैं इनके साथ असभ्य व्यवहार इन्हीं जैसा करने लगें तो इनमें और मुझ में क्या अन्तर हो सकता है । ज्ञानी और अज्ञानी की चेष्टा में आसमान पाताल जैसा अन्तर जो बतलाया गया है वह यहां लुप्त हो મુનિને જોઈ કેઈ એને ચંડાલ કહે, કેઈ બ્રાહ્મણ કહે, કેઈ શુદ્ર કહે, કઈ તપસ્વી કહે, કોઈ વિશિષ્ટ જ્ઞાની તે કઈ યોગીશ્વર કહે, આ રીતે કહેવાવાળી વ્યક્તિઓના મુખથી નિકળતા લઘુતા અને શ્રેષ્ઠતા સૂચક વચનેને સાંભળી મુનિ ન તે ક્રોધિત બને છે કે ન તે તુષ્ટમાન થાય છે. પરંતુ સમભાવથી વિચરે છે. - ભાવાર્થ—અશિષ્ટ ભાષાનો પ્રયોગ સાધુ જેવા સંત પુરૂષ તરફ એજ વ્યકિત કરે છે કે જે મિથ્યાત્વના કિચડમાં લપટાયેલા હોય છે, આથી એમના દ્વારા અપમાનીત થવા છતાં પણ સાધુએ તેના તરફ ન રૂઠતાં પ્રત્યુત્તરમાં દયાવાન જ રહેવું જોઈએ. એ સમયે એ વિચાર કર જોઈએ કે, જુઓ! આ કેટલા અજ્ઞાની છે. જે ખોટી ખરી વસ્તુના યથાર્થ બેધથી વિકળ બની રહેલ છે. એ જે કાંઈ કહે છે એમાં એને અપરાધ નથી, મિથ્યાદર્શનને જ આ પ્રભાવ છે. આથી એનો આત્મા સમ્યગૃજ્ઞાનથી વિકસિત બની ઉત્તમ માર્ગ ઉપર આરૂઢ થઈ જાય એવી ભાવના સાધુએ રાખવી જોઈએ. આ સમય જે હુ એને જે જ અસભ્ય વ્યવહાર કરવા લાગું તે એનામાં અને મારામાં શું અંતર રહ્યું ? જ્ઞાની અને અજ્ઞાનીની ચેષ્ટામાં આકાશ પાતાળ જેટલું અંતર બતાવવામાં આવ્યું છે તે આથી લુપ્ત થઈ જાય છે. આના આ વ્યવહારને મારે ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #488 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रियदर्शिनी टीका ०२ गा. २५ माक्रोशपरीषहजये क्षमाघरमुनिधान्तः । उक्तार्थमेव विशदीकुर्वन् पाहमूलम्-सोचाणं फरुसा भासा, दारुणा गामकंटगा। तुसिणीओ उंवेहेज्जा, न ताओ मणसी करे ॥२५॥ छाया-श्रुत्वा खलु परुषा भाषाः, दारुणा ग्रामकण्टकाः । __ तूष्णीकः उपेक्षेत, न ता मनसि कुर्यात् ॥२५॥ टीका-'सोच्चाणं' इत्यादि। दारुणाः-दारयन्ति-विदारयन्ति संयमधैर्यमिति दारुणाः दुःसहाः, मनसि वनापातकारिका इत्यर्थः, प्रामकण्टकाम्यामा इन्द्रियाणां समूहस्तस्य कण्टका इव कण्टकाः =दुःखोत्पादकत्वेन प्रतिकूलाः परुषा-रूक्षाः कठोराः, भाषाः वचनानि, श्रुत्वा खलु तूष्णीकः मौनावलम्बी सन् , उपेक्षेत-ता भाषा अवधीरयेत्-नाद्रियेत। 'उवेहिजा' जाता है। इनके इस व्यवहार को मुझे समताभाव से सहन करना चाहिये, क्योंकि इससे मेरे अधिक कर्मों की निर्जरा होगी, इस निर्जरा में यह मेरा उपकारी है। अतः इस उपकारी के प्रति मैं देष करूँगा यह मेरी कितनी अज्ञानता होगी। ऐसा विचार कर साधु आक्रोशपरीषह पर विजय प्राप्त करे ॥ २४ ॥ उपरोक्त अर्थ को स्पष्ट करते हुए कहते हैं-'सोच्चाणं'-इत्यादि. अन्वयार्थ-(दारुणा-दारुणाः) संयमरूपी धैर्यको विदारणकरने वाली मन में वज्र के तुल्य दुस्सह आघात पहुँचाने वाली तथा (गामकंटगाग्रामकंटकाः) इन्द्रियों को कंटकतुल्य दुःख की उत्पादक होने से प्रतिकूल (फरसा-परुषाः) रूक्ष-कठोर ऐसी (भासा-भाषा:) लोगों की-असभ्य व्यक्तियोंकी भाषाओं-वचनों को (सोच्चाण-श्रुत्वा खलु) सुनकर मुनि (तुसिणीओ उवेहेज्जा-तूष्णीकः उपेक्षेत) चुपचाप रहा हुवा-मौन धारण સમતાભાવથી સહન કરવું જોઈએ. કેમકે એથી મને અધિક કર્મોની નિજેરા થશે. એ વિચાર કરી સાધુ આક્રોશ પરીષહ ઉપર વિજય પ્રાપ્ત કરે. ૨૪ उपतमथन स्पष्ट ४२ai ४ छ-' सोच्चा णं' त्याहि. भ-क्याथ-दारुणा-दारुणाः सयभ३पी धै। विहा२६ ४२पापाजी -मनमा १० तस्य मायात पडेयापाणी गामकंटगा-प्रामकंटक: तयाछन्द्रियान ४८४ समान भने उत्पादन ४२नार बाथी प्रतिभ्रूण फरसाः-परुषाः ३६ ठार शवी भासा-भाषाः ससस्य बना वयनाने सोच्चाणं-श्रुत्वा खलु सलजीत मुनि तुसिणीओ उवेहेज्जा-तूष्णीकः उपेक्षेत यु५०५ २७ी, मौन धार५ ४रीत उ० ५५ ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #489 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३४ उत्तराध्ययनसूत्रे इत्यस्यैवार्थं विशदीकुर्वन् प्राह - 'न ताओ मणसी करे ' इति । ताः भाषा मनसि न कुर्यात् =न स्थापयेत् । ' अज्ञानवशादनेन संयमधैर्यापहारिण्यो भाषा उक्ता अत्र नास्त्यस्य दोषः किं तु ममैव पूर्वार्जितकर्मणः फलमेतत्' इति विचार्य तादृशभाषाया अनादरणेन तद्भाषिणि द्वेषं न कुर्यादिति भावः । अत्र दृष्टान्तः प्रदर्श्यते एकदा क्षमाधरनामकः कश्चिद्दुश्चरतपश्चर्यापरायणो मुनिरासीत् । तद्गुणानुरागेण कश्विदेवः प्रीत्या तमभिवन्द्याब्रवीत् मम योग्यं कार्यमावेदनीयं भवद्भिः । अन्यदा कदाचिन्मार्गे गच्छन मुनिः स्वाभिमुखागतेन केनचिच्चाण्डालेन सोपहासमुक्त:- अहो ! अकर्मण्य ! भिक्षुक ! क्व गच्छसि १ । एतद् दुर्वचनं निशम्य करता हुआ उस तरफ उपेक्षाभाव धारण करे, किन्तु (ताओ मणसी न करे - ताः मनसि न कुर्यात् ) उन वचनों को अपने मन में स्थान न देवे । " अज्ञानवशसे ही इसने संयम धैर्य को अपहरण करने वाली भाषा का प्रयोग किया है सो इस में इसका दोष नहीं है किन्तु मेरे ही पूर्वोपार्जित पापकर्मों का यह फल है " । यह समझकर उस परुष भाषा बोलने वाले पर द्वेषबुद्धि न करे । दृष्टान्त-दुश्चरतपश्चर्या करने में लीन क्षमाधर नामक एक मुनि थे । उनके गुणों में अनुरागी होने से कोई एक देव वंदनाकर उनसे बोला कि यदि मेरे योग्य कोई कार्य हो तो आप मुझ से अवश्य कहें, यह मैं आप से हाथ जोड़ कर प्रार्थना करता हूं । एक समय की बात है कि वे मुनि कहीं जा रहे थे। रास्ते में सन्मुख आता हुआ उन्हें एक चाण्डाल मिला। उसने मुनिराज को त२५ उपेक्षाभाव धारषु रे परंतु ताओ मणसी न करे ताः मनसि न कुर्यात् તેના વચનાને પોતાના મનમાં સ્થાન ન આપે. અજ્ઞાનવશતાથી તેણે સંયમ ધૈર્યનું અપમાન કરનાર ભાષાના ઉપયાગ કર્યાં છેતા તેમાં એને દોષ નથી. પરંતુ મારા પૂર્વોપાર્જીત પાપ કર્મોનુ' જ એ ફળ છે. આવું સમજીને એ અસભ્ય ભાષા માલવાવાળા ઉપર દ્વેશબુદ્ધિ ન કરે. દૃષ્ટાંત-ક્ષમાધર નામના દુષ્કર તપશ્ચર્યાં કરવામાં લીન એવા એક મુનિ હતા. તેમના ગુણેાના અનુરાગી એવા કાઈ એક દેવે વંદના કરીને એમને કહ્યું કે, મારા ચાગ્ય કાઈ કાર્ય હાય તે આપ મને અવશ્ય કહો એમ હુ આપને હાથ જોડી પ્રાથના કરી કહુ છુ એક વખત તે મુનિ ચાંક ઈ રહ્યા હતા. રસ્તામાં સામેથી આવતા એક ચંડાલ મળ્યું. તેણે મુનિરાજને ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર ઃ ૧ Page #490 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रियदर्शिनी टीका अ० २ गा० २५ आक्रोशपरीषहजये क्षमाघरमुनिदृष्टान्तः ४३५ जातकोपः सन् मुनिरब्रवीत् — उन्मत्तस्त्वमसि किम् ? । ततस्तेन प्रचण्डकोपावेशेन चाण्डालेन कथितम् - अरे भिक्षुक ! किं प्रलपसि ? कोऽन्यस्त्वत्समो मलिनदेहः क्षुत् - पिपासादिवेदनाग्रस्तो लुञ्चितशिरा गृहे गृहे गृहपाल इवाहारमन्वेषयन् भ्रमसि ? अरे ! अकर्मण्य ! पूर्वकृतकर्मणो विपाकमनुभवन्नपि न लज्जसे । कृषिवाणिज्यादिकर्म कर्तुमसमर्था एव मुखोपविद्धमुखवस्त्रिका पात्रहस्ताः बहवो भिक्षुकास्त्वादृशा उदरपूरणकामा ग्रामानुग्रामं पर्यटन्ति । अरे दुर्भग ! पुत्रदारादिभिः देखते ही हँसी करते हुए कहा कि हे अकर्मण्य भिक्षुक ! तू कहां जा रहा है। मुनि ने ज्यों ही इस प्रकार के उसके दुर्वचन सुने तो मुनि को क्रोध आ गया, और कहने लगा-क्या तू इस समय उन्मत्त हो रहा है। मुनि के वचन सुनकर चांडाल के भी कोप का ठिकाना न रहा। उसने चिड़कर मुनिको कहा - " अरे भिक्षुक ! क्या बकता है ? तेरे जैसा मलिन देह वाला और कौन होगा ? खाते कमाते नहीं बना सो मुंड़ मुंडाकर मुनि बन गया और घर घर में कुत्ते की तरह भीख मागने के लिये फिरने लगा है । शरम नहीं आती, करते धरते कुछ नहीं बनता सो निकल गये साधु बनने को । पूर्व में दान नहीं दिया सो तो उसका यह फल भोगना पड़ रहा है कि दर दर के भिखारी बन रहा है, फिर भी अकड़ से ऐंठता है ? जरा शर्म कर, तुम्हारे जैसे बहुत से कार्य करने में असमर्थ होकर मुंह बांध कर पेट भरने के लिये गांव गांव भटकते हैं। ऐसा कह कर जब वह चला गया तो कोप જોઈને હાંસી કરતાં કહ્યું કે, હું અકર્મણ્ય ભિક્ષુક ! તું ક્યાં જઈ રહ્યો છે. મુનિએ જ્યારે તેનાં આવા ધ્રુવચન સાંભળ્યાં ત્યારે તેને ક્રોધ આવી ગયે। અને કહેવા લાગ્યા કે, શું તુ આ સમયે ઉન્મત્ત ખની રહ્યો છે? મુનિનું વચન સાંભળીને ચાંડાલના કોષનુ ઠેકાણુ ન રહ્યું અને તેણે ચિડાઇને મુનિને કહ્યું અરે ભિક્ષુક ! તું શું ખકે છે ? તારા જેવા મલીન દેહવાળા ખીજો કાણુ છે? ખાતાં કમાતાં ન આવડ્યુ' એટલે મુંડા મુંડાવીને મુનિ ખની ગયા, અને ઘર ઘરમાં કુતરાની માફ્ક ભીખ માગવા લાગ્યા છે, શરમ નથી આવતી ? કાંઈ કામ કરતાં આવડતું નથી એટલે સાધુ બનવા નિકળી પડા, પૂર્વભવમાં દાન નહીં દીધુ હાય એટલે તે એનું આ ફળ ભાગવવું પડે છે. અને ઘરઘરના ભિખારી અની રહ્યો છે. છતાં પણુ અક્કડ થઇને ફરે છે. જરા લાજ તારા જેવા અનેક કાર્ય કરવામાં અસમર્થ હાઇને માં બાંધીને પેઢ ભરવા માટે ગામ ગામ ભટકે છે. આમ કહી જ્યારે તે ચાયા ગયા ત્યારે ક્રોધના ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર ઃ ૧ Page #491 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययनसूने परित्यक्ता निर्गतिकाः सन्तः प्रव्रज्यामभ्युपगताः । इत्युक्त्वा तस्मिन् गतवति सति कोपावेशादन्तर्दधमान इव मुनिः स्वस्थानं गतः । क्रमेण कोपप्रशमे सति मुनिना पश्चात्तापः कृतः। ___ तदनन्तरमसौ देवस्तस्य मुनेः समीपे समागत्य तमभिवन्ध तत्पुरोऽवस्थितो बदति-भवतः संयमयात्रा मुखेन निर्वहति किम् ?। शान्तात्मना मुनिना सस्मितं मोक्तम्-यदा संयमयात्रा चाण्डालेन बाधिता, तदा क्व गतस्त्वमासीः ? देवेन कथितम् --यदा युवयोः कलहो जातस्तदाऽहमलक्षितः कौतुकं द्रष्टुकामस्तत्रैवासम् । किं तु तदा मया विशेषः कोऽपि नोपलब्धः, यथाऽसौ चाण्डालस्तथैव भवान् । के आवेश से वे मुनि भी भीतर ही भीतर जलते हुए अपने स्थान पर आ गये।जब कोप शांत हुआ तो उनको इस विषय का बड़ा ही पश्चात्ताप हुआ। इस के बाद वह देव मुनि के पास आकर नमस्कार करके बैठ गया और बोला-आपकी संयमयात्रातो सुखपूर्वक है ? शान्तात्मा मुनिने मुस्कराते हुए प्रत्युत्तर में कहां कि जिस समय इस संयमयात्रा में चाण्डाल ने विघ्न डाला था उस समय तुम कहां गये थे । देवने जवाब दिया-जब आप दोनोंका कलह हो रहा था उस समय मैं अदृश्य होकर वहीं पर था। मुनिने कहा फिर आपने उस परिस्थिति में मेरी सहायता क्यों नहीं का? इस प्रकार मुनि के कहने पर प्रत्युत्तरमें देवने कहा कि-मुझे उस समय सहायता करने लायक कोई विशेषता आप में लक्षित नहीं हुई। उस समय जैसा वह चाण्डाल मुझे प्रतीत हुआ वैसे ही आप भी मुझे प्रतीत हो रहे थे फिर सहायता किसकी करना। देव के इस उत्तर से આવેશથી તે મુનિ અંદરને અંદર બળતા બળતા પિતાના સ્થાન ઉપર ગયા. જ્યારે તેમને ફોધ શાંત થયા ત્યારે તેમને આ વિષયમાં ભારે પશ્ચાત્તાપ થયા. આ પછી પેલા દેવ મુનિની પાસે આવીને નમસ્કાર કરીને બેઠા અને કહ્યું, આપની સંયમયાત્રા તે સુખપુર્વક છે ને? શાંત આત્મા મુનિએ અંદરથી હસતાં હસતાં પ્રત્યુત્તરમાં કહ્યું કે, જે સમયે આ સંયમયાત્રામાં ચંડાલે વિદ્ધ નાખ્યું તે સમયે તમે કયાં ગયા હતા ? દેવે જવાબ આપ્યો જ્યારે આપ બંનેને કલહ ચાલી રહ્યો હતો ત્યારે હું અદશ્ય રૂપે ત્યાં જ હતું. તે પછી એ પરિસ્થિતિમાં તમે મારી સહાયતા કેમ ન કરી? આ પ્રકાર મુનિના કહેવાથી પ્રત્યુત્તરમાં દેવે કહ્યું, મને તે સમયે સહાયતા કરવા લાયક કોઈ વિશેષતા આપવામાં ન દેખાઈ. એ વખતે જેતે ચાંડાલ મને દેખાય તેવા જ આપ મારી દષ્ટિમાં દેખાતા હતા. પછી સહાયતા કેની કરવી? દેવના આ ઉત્તરથી ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #492 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रियदर्शिनी टीका. अ० २ गा० २६ वधपरीषहजयः मुनिनोक्तम्-तेन मम तुल्यता कथं ज्ञाता ? । देवेनोक्तम्-एकेन कोपेनैव, अतस्तस्य शिक्षा न कृता, इदानीमाज्ञापयतु कीदृशी शिक्षा तस्मै कर्तव्या । मुनिः माहनासौ दण्डनीयः, किंतु-सर्वथोपेक्षणीयः, यतः साधूनामयं धर्म:-आक्रोशपरीपहः सोढव्य इति । एवमुक्तोऽसौ देवस्तस्य मुनेः सेवायां सानुरागं तस्थौ। एवमन्यैरपि मुनिभिराक्रोशपरीषहः सोढव्यः ॥ २५ ॥ मुनि को बड़ा ही विस्मय हुआ और कहने लगे कि मुझ में और चांडालमें समानता का अनुभव कैसे किया ?। देव ने कहा-एक क्रोध से आपके अन्दर उस समय क्रोधरूप चांडाल प्रविष्ट होया हुआ था, और वह तो चांडाल था ही, अतः सहायता करने जैसी बात उस समय मुझे उचित प्रतीत नहीं हुई इसलिये सहायता नहीं की, और न उसे भी कुछ दण्डादिरूप शिक्षा ही दी, हां ! अब कहिये उसे कैसी शिक्षा दी जाय । मुनिराज ने कहा कि अब क्या आवश्यकता है जो अज्ञानी होते हैं वे उपेक्षा के ही पात्र हैं इसलिये उसको दण्डादिरूप शिक्षा प्रदान करने की कोई जरूरत नहीं है । मुनियों का तो यह आचार ही है कि वे आक्रोशपरीषह को सहन करे । मुनि की इस बात को सुनकर देव बड़ा ही अनुरागी होकर उनकी सेवा में रहने लगा। इस कथा से मुनि. यों को यही शिक्षा ग्रहण करनी चाहिये कि आक्रोशपरीषह सहन करना यह मुनिराजों का कर्तव्य है ॥ २५ ॥ સનિને ઘણું આશ્ચર્ય થયું અને કહેવા લાગ્યા. મારામાં અને ચંડાલમાં સમાનતાને અનુભવ તમને કેવી રીતે થયો? દેવે કહ્યું એક ક્રોધથી-આપની અંદર તે સમયે ક્રોધ રૂપી ચંડાલ પ્રવિષ્ટ થયા હતા. અને તે તે ચંડાલ હરે જ. આથી સહાયતા કરવા જેવી વાત મને તે સમયે ઉચિત ન લાગી. એ માટે સહાયતા ન કરી, અને તેને પણ દંડ આદિ રૂપ કાંઈ શિક્ષો નકરી. હા! કહો એને કઈ રીતે શિક્ષા કરવામાં આવે! મુનિ મહારાજે કહ્યું કે, હવે શું આવશ્યક્તા છે. જે અજ્ઞાની હોય છે તે ઉપેક્ષાને પાત્ર જ છે. આ માટે તેને દંડાદિકરૂપ શિક્ષા આપવાની કોઈ જરૂરત નથી. મુનિઓને તે આચારજ છે કે, તેઓ આક્રોશપરીષહને સહન કરે. મુનિની આ વાત સાંભળીને દેવ ઘણા અનુરાગી બની તેની સેવામાં રહેવા લાગ્યા. આ કથાથી મુનિઓએ એ જ શિક્ષા ગ્રહણ કરવી જોઈએ કે, આક્રોશપરીષહ સહન કરવું તે મુનિરાજોનું કર્તવ્ય છે. જે ૨૫ છે ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #493 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययनसूत्रे कश्चिदाक्रोशमात्रेणाऽतुष्टो दुष्टः संयतस्य वधमपि कुर्यादतो वधपरीषहमाहमूलम् हेओ नै संजले भिक्खू, मणपि नै पओसएँ । तितिक्खं परंमं नेच्चा, भिक्खुधम्मं विचिंतए ॥ २६ ॥ छाया - हतो न संज्वले भिक्षुः मनोऽपि न प्रद्वेषयेत् । तितिक्षां परमां ज्ञात्वा, भिक्षुधम्मं विचिन्तयेत् ॥ २६ ॥ टीका -' हओ ' इत्यादि । न 7 भिक्षुः = मुनिः हतः = केनापि दुष्टेन मुष्टियष्ट्यादिना ताडितः सन् संज्वलेत्=न क्रुध्येत्, तथा मनोऽपि न प्रद्वेषयेत् = द्वेषयुक्तं न कुर्यात्, तितिक्षां क्षान्ति, ४३८ कोई दुष्ट पुरुष आक्रोशमात्र से संतुष्ट नहीं होकर मुनि का वध भी करने लगता है इसलिये अब तेरहवें वधपरीवह को कहते हैं-' हओ न संजले ' - इत्यादि. अन्वयार्थ - ( भिक्खू - भिक्षुः) मुनि (हओ - हतः) किसी भी दुष्टके द्वारा यष्टिमुष्टि आदि से ताडित हो जाय तौ भी ( न संजले - न संज्वलेत) क्रोध से तपायमान नहीं होवे । तथा ( मपि न पओसए-मनोऽपि - न प्रद्वेषयेत् ) मन को भी दूषित नहीं करे, किन्तु ( तितिक्ख - तितिक्षाम् ) उत्तम क्षमा को ( परमं - परमाम् ) दशविध धर्मो में सर्वोत्कृष्ट (नच्चाज्ञात्वा ) जानकर ( भिक्खू - भिक्षुः ) वह साधु (धम्मं विचितए - धर्म विचिन्तयेत् ) उत्तम क्षमादिरूप साधु के कर्तव्य का, अथवा अपने आत्मस्वरूप का विचार करे कि क्षमामूलक ही धर्म है । यह जो मुझे निमित्त बना कर के कर्मों का उपचय कर रहा है उस में मेरा ही કોઈ દુષ્ટ માણસ આક્રોશ માત્રથી સ ંતેષ ન પામવાથી સુનિના વધ પણ छु२वा बागे छे. ये भ!टे हवे तेरमा वधपरीषडने हे छे. 'हओ न संजले' - इत्यादि. मन्वयार्थ- भिक्खू - भिक्षुः भुनि हओ - हतः अ या दुष्ट द्वारा साडी गडाचाटुथी ताडित था लय तो पशु न संजले - न संज्वलेत् अधथी तथी न लय मणपि न पओसए - मनोऽपि न प्रद्वेषयेत् भनने पशु दूषित न रे तितिक्खं-तितिक्षां उत्तम क्षमाने परमं परमां दशविध धर्माभां सर्वोत्कृष्ट नच्चा--ज्ञात्वा लगीने भिक्खू - भिक्षुः ते साधु धम्मं विचितए - धर्मे विचिन्तयेत् ઉત્તમ ક્ષમાહિરૂપ સાધુના કર્તવ્યના તથા પોતાના આત્મસ્વરુપના વિચાર કરે કે, ક્ષમા એ જ ધર્મ છે. આજે મને નિમિત બનાવીને કર્મીના ઉપચય કરી ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર ઃ ૧ Page #494 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रियदर्शिनी टीका अ० २ गा. २६-२७ वधपरीषहजयः परमां दशविधेषु धर्मेषु प्राधान्यात् प्रकृष्टां, ज्ञात्वा मुनिः, भिक्षुधर्मक्षान्त्यादिकं स्वात्मस्वरूपं वा विचिन्तयेत् , यथा-क्षमामूल एवं धर्मः, यच्च मां निमितीकृत्यायं कर्मोपचिनोति, तत्र ममैव पूर्वकर्म कारणमिति ममैव दोषः, तस्मादेनं प्रति कोपो नोचित इति ॥२६॥ पूर्वोपार्जित कर्म कारण है अतः इसमें मेरा ही दोष है इसलिये इसके प्रति कोप करना मुझे उचित नहीं है। ___ भावार्थ-मुनि जनों की यह विचारधारा कितनी सुन्दर है। वजहृदय वाला शत्रु भी इस विचार के सामने नतमस्तक होकर अपनी क्रूरता का परित्याग कर देता है। एक तरफ ताडना मारणा आदि क्रियाएँ हो रही हैं तो दूसरी ओर उस पर प्रतीकार न करते हुए अपने पूर्वापार्जित कर्म को ही बलवान माना जा रहा है कि पूर्वोपार्जित कर्मों का यह फल मुझे मिल रहा है, इस बेचारे का क्या दोष है। अफसोस केवल उस मुनि आत्मा में इसी बातका हो रहा है कि जो यह प्राणी मेरा निमित्त लेकर नवीन कर्मों का बंधक बन रहा है। इस प्रकार मन तक में भी जहां प्रतिकार करने की भावना का उदय निषिद्ध बतलाया गया है वहां और अन्य प्रतिकारों के करने की तो बात ही क्या हो सकती है। महात्मा का यहां कितना अच्छा उपदेश है कि वह ताडित होने पर भी अपनी उत्तम क्षमाको न छोड़े। कुल्हाडा રહેલ છે. તેમાં મારાં જ પૂર્વોપાત કર્મ કારણરૂપ છે. આથી તેમાં મારે જ દેવ છે માટે તેના પ્રતિ ક્રોધ કરવો મને ઉચિત નથી, ભાવાર્થ-મુનિઓની આ વિચારધારા કેટલી સુન્દર છે વા હૃદયવાળે શત્રુ પણ આ વિચાર સામે નતમસ્તક બની પોતાની કુરતાને ત્યાગી દે છે. એક તરફ ધાકધમકી અને માર મારવાની હદ સુધીની ક્રિયાઓ થાય છે, ત્યારે બીજી તરફ આને પ્રતિકાર ન કરાતાં પોતાના પૂર્વોપાર્જીત કર્મોને જ બળવાન માનવામાં આવે છે. “પૂર્વોપાજીત કર્મોનું ફળ મને મળી રહ્યું છે. એ બિચારાને કેઈજ દેષ નથી” મુનિના આત્મામાં અફસોસ ફક્ત એ વાતને થાય છે કે, આ પ્રાણી મને નિમિત્ત બનાવીને નવા કર્મોને બંધ બાંધી રહેલ છે. આ પ્રમાણે મનમાં પણ પ્રતિકાર કરવાની ભાવનાના ઉદયને નિષેધ માતાવવામાં આવેલ છે, ત્યાં અન્ય પ્રતિકાર કરવાની તે વાત જ ક્યાં રહી? મહાત્માને આ કે સુન્દર ઉપદેશ છે કે તેને ધાકધમકી કેઇના તરફથી અપાય અથવા માર મારવામાં આવે તે પણ પોતાની ઉત્તમ ક્ષમાને ન ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #495 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययनसूत्रे उक्तमेवार्थ प्रकारान्तरेणाहमूलम-समेणं संजयं दंतं, हणेजा कोई कथइ । नैत्थि जीवस्स नासोति', एवं पेहेज संजए ॥२७॥ छाया-श्रमणं संयतं दान्तं, हन्यात् कोऽपि कुत्रापि । नास्ति जीवस्य नाश इति, एवं प्रेक्षेत संयतः ॥ २७ ॥ टीका-'समणं' इत्यादि कोऽपि कश्चिन्मनुष्यः, कुत्रापि-प्रामादौ, संयतं षट्काययतनावन्तं, दान्तम् चंदन वृक्ष को काट भी डाले पर चंदनवृक्ष का जो उसके मुख को भी सुवासित करने का काम है वह उसे नहीं छोड़ता। नहीं तो वह चंदन ही नहीं। महात्मा भी अपने शत्रु के प्रति इसी कर्तव्य का निर्वाह करते हैं नहीं तो वे महात्मा ही नहीं हैं। धन्य है महात्मा! तेरे इस शुभाध्यवसाय को । न्योछावर है त्रैलोक्य का राज्य इस पवित्र भावना पर । क्या ही सुन्दर विचार धारा है । इसी विचारधारा के बल पर महावीर प्रभु के शासन में सर्वोत्कृष्टता रही हुई है। प्रत्येक मोक्षाभिलाषी को यह अभिनंदनीय वंदनीय विचारधारा अपनाने योग्य है ॥२६॥ वधपरीषहको किस भावना से सहन करे सो कहते हैं-'समण'-इत्यादि ____ अन्वयार्थ-(कोई-कोऽपि) कोई अज्ञानी (कस्थइ-कुत्रापि) कहीं पर भी (संजयं-संयतम् ) षटकाय के जीवों की जतना करनेवाले (दंत-दान्तम् ) છોડે. કુહાડ ચન્દન વૃક્ષને કાપી નાખે છતાં ચન્દન વૃક્ષમાં જે સુવાસિતતાને ઉત્તમ ગુણ છે તે પિતાને કાપનાર કુહાડાને પણ આપે છે. જે એમ ન કર તે તે ચંદન શેનું ? મહાત્મા પણ પિતાના શત્રુ તરફ આવું જ વર્તન રાખે છે. નહીં તો એ મહાત્મા શાના ? ધન્ય છે મહાત્મા ! તમારા આ શુભ વ્યવસાયને! આ પવિત્ર ભાવના પર ત્રણ લોકનું રાજ્ય પણ છાવર છે, કેવી સુન્દર વિચારધારા છે! આ વિચાર ધારાના બળ ઉપર શ્રી મહાવીર પ્રભુના શાસનમાં સર્વોત્કૃષ્ટત રહેલ છે. પ્રત્યેક ક્ષાભિલાષીએ આ અભિનંદનીય વંદનીય વિચારધારાને અપનાવવી જોઈએ ૨૬ वा साथी १५५शेषडने सडन ४२पाने ४ छ-समणं त्याल. स-यार्थ-कोई-कोऽपि मज्ञानी कत्थइ-कुत्रापि याये ५५ संजयंसंयतम् ५८४ाय वानुतन ४२नारा दंत-दान्तम् पाय धन्द्रिय भने मनन नि ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #496 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रियदाशना टीका. अ० २ गा० २७ वधपरीषहजये स्कन्दकाचार्यदृष्टान्तः ४४१ =इन्द्रियनोइन्द्रिय दमनशीलम् श्रमणं-तपस्विनं मुनि हन्यात्=पुष्टियष्टयादिना ताडयेत , सदा संयतः मुनिः, जीवस्य आत्मनज्ञानरूपस्य नाशः नास्तिन्न भवति शरीरस्यैव नाशात् , इत्येवं प्रक्षेत=चिन्तयेत् ।। पांच इन्द्रिय एवं मन को निग्रह करने वाले (समण-श्रमणम् ) श्रमण-तपस्वी मुनि को (हणेज्जा-हन्यात्) यष्टि मुष्टि आदि द्वारा मारे । उस समय (संजए-संयतः) वह मुनि (जीवस्स नासो नत्थिजीवस्य नाशः नास्ति ) "ज्ञानस्वरूप आत्मा का नाश नही होता है किन्तु उसका पयायान्तर होता है अतः शरीरका ही नाश होता है (एवं पेहेज्ज एवं प्रेक्षेत )ऐसा विचार करे। भावार्थ-आत्मा को क्रोधी तब होना चाहिये कि जब उसकी चिज वस्तु का विनाश हो । जैसे संसारी लोग अपनी वस्तु के विनाश होने पर क्रोधी या दुःखी हुआ करते है दूसरों की वस्तुओं के विनाश मे नहीं। इसी प्रकार महात्मा को भी किसीके द्वारा तादित होने पर या मारे जाने पर यह विचार करना चाहिये कि यह शरीर पुद्गला का है अतः यह मेरी निजवस्तु नहीं है परवस्तु है। इसके विनष्ट होनेपरामैं वयो क्रोधी या दुःखी बनूं? मेरी मिज की वस्तु जो ज्ञानादिक गुण हैं वे तो इस के आघात से नष्ट नहीं होते हैं वे तो सदा अक्षय ही रहते हैं इस लिये क्रोधी या दुःखी होने की मुझे किश्चित् मात्र भी आवश्यकता नहीं है। ४२ना। समणं-श्रमणम् अभY त५पी भुनिन हपोज्जा हन्यात् सा पा ५२. रेथी भारे ये सभये सजये संयतः ते मुनि जीवस्स नासो नत्मि जीवस्य नाशा नास्ति જ્ઞાન સ્વરૂપ આત્માને નાશ થતો નથી પરંતુ એ પર્યાયાન્તરિત હોય છે, આથી शरीरनी ४ नाश थाय छ एवं पहेज्ज-एवं प्रक्षेत वा वियार ४रे, - ભાવાર્થ –આત્માએ ક્રોધિત તો ત્યારે થવું જોઈએ કે જ્યારે તેની પિતાની વસ્તુને વિનાશ થતો હેય. જેમ સંસારી લોક પિતાની વસ્તુઓને વિનાશ થતા કોધિત અને દુઃખ થયા કરે છે, બીજાની વસ્તુઓના વિનાશમા નહી. આ પ્રકારે મહાત્માને પણ કોઈ તરફથી માર મારવામાં આવે કે ધાક ધમકી આપવામાં આવે ત્યારે તેણે વિચાર કર જોઈએ કે, આ શરીર પુદ્ ગલનું છે, આ કારણે તે મારી પિતાની વસ્તુ નથી, પારકી વસ્તુ છે. એને વિનાશ થવાથી હું શા માટે ક્રોધી અથવા દુખી બનું? મારી પિતાની જે વસ્તુ જ્ઞાનાદિક ગુણ છે તે એના આઘાતથી નાશ પામતી નથી. એ તે સદાય અક્ષય જ રહે છે. આથી ક્રોધી અથવા દુખી થવાની મારે લેશ માત્ર પણ આવશ્યકતા નથી. उ० ५६ ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #497 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४२ उत्तराध्ययनसूत्रे अत्र दृष्टान्तः प्रदयते श्रावस्तीनगया रिपुमर्दननाम्नो राज्ञः पुत्रोधारिणीदेव्या अङ्गजातः स्कन्दकनामकः कुमार आसीत् । अस्य भगिनी पुरन्दरयशा नाम्नी । सा कुम्भकारकटकनामके पुरे दण्डकिनाम्ने नृपतये पित्रा प्रदत्ता । तस्य दण्डकिभूपस्य पुरोहितः पालकनामा ब्राह्मणो मिथ्यादृष्टिरासीत् । ___ एकदा मुनिसुव्रतस्वामी विंशतितमस्तीर्थंकरः श्रावस्तीनगया समवस्तः, तस्य देशनां श्रुत्वा स्कन्दककुमारः श्रावको जातः । एकदा कदाचिदसौ पालकपुरोहितः श्रावस्तीनगर्यामागतः। स राजसभायामाहतसिद्धान्तं खण्डयितुं प्रवृत्तः तदा दृष्टान्त-श्रावस्ती नगरी में रिपुमर्दन नाम का एक राजा राज्य करता था। उसकी धर्मपत्नी का नाम धारिणी था।धारिणीदेवी से राजा के एक कुमार का जन्म हुवा, जिसका नाम स्कन्दक था। स्कन्दक के एक बहिन भी थी। उसका नाम पुरन्दरयशा था। कुंभकारकटक नाम के पुर में दण्डकी नामक राजा के साथ उसका विवाह हुवा था । दण्डकी राजा का एक ब्राह्मण पुरोहित था। इसका नाम पालक था। यह मिथ्यादृष्टि था। एक समय की बात है कि वे बीसवें तीर्थङ्कर श्री मुनिसुव्रतस्वामी श्रावस्ती नगरी में पधारे । उनकी देशना को सुनकर स्कन्दककुमार ने श्रावकधर्म अंगीकार किया। किसी समय पालक पुरोहित श्रावस्ती नगरी में आया। राजसभा में बैठकर उसने जैनसिद्धान्त को खण्डन करने वाली वात प्रारंभ की। जब वह बोल चुका तय उसकी बात को દષ્ટાંત–શ્રાવસ્તી નગરીમાં રીપુદમન નામને એક રાજા રાજ્ય કરતે હતું. તેને ધારિણી નામની એક રાણી હતી. ધારિણદેવીથી રાજાને એક કુમારને જન્મ થયે, જેનું નામ સ્કંદક હતું, &દકને એક બહેન પણ હતી. તેનું નામ પુરંદરયશા હતું. કુંભકારકટક નામના નગરના દંડકી નામના રાજાની સાથે તેને વિવાહ કરવામાં આવેલ હતું. દંડકી રાજાને એક બ્રાહ્મણ પુરોહિત હતે. તેનું નામ પાલક હતું. તે મિથ્યાદિષ્ટી હતે. આ એક સમયની વાત છે કે જ્યારે વીસમા તીર્થકર શ્રી મુનિસુવ્રત સ્વામી શ્રાવસ્તી નગરીમાં પધાર્યા. તેમની દેશના સાંભળીને સ્કંદકકુમારે શ્રાવકધર્મ અંગિકાર કર્યો. કેટલેક વખતે પાલકપુરેશહિત શ્રાવસ્તી નગરીમાં આવ્યા. રાજસભામાં બેસીને જૈન સિદ્ધાંતનું ખંડન કરવાવાળી વાતની શરૂઆત કરી. જ્યારે તેણે વાત પુરી કરી ત્યારે તે વાત સાંભળીને ત્યાં બેઠેલા ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #498 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४३ प्रियदर्शिनी टीका. अ० २ गा. २७ वधपरीषहजये स्कन्दकाचार्यदृष्टान्तः श्रावकत्रतधारी स्कन्दककुमारं आईतसिद्धान्तं समर्थयन् तं निरुत्तरं कृतवान् । तेन कारणेन पालकपुरोहितस्य स्कन्दककुमारं प्रति महान् विद्वेषो जातः । एकदाsसौ स्कन्दककुमारः पञ्चभिः शतैः कुमारैः सह मगवतो मुनिसुव्रतस्वामिनः समीपे देशनां श्रुत्वा दीक्षां गृहीतवान् । भगवता ते पञ्चशतकुमारकास्तस्य शिष्यत्वेन निश्रिताः कृताः । ततोऽसौ स्कन्दकाचार्योऽन्यदा भगवन्तं पृच्छतिभगवन ! कुम्भकारकटकपुराभिमुखं विहर्तुमिच्छामि, भगवानाह - वरं तत्र गम्यताम्, किंतु तत्रोपसर्गे मारणान्तिकः । पुनस्तेनोक्तम्-भगवन् ! वयमाराधकाः, किंवा विराधकाः । भगवता कथितम् एकं त्वां विना सव आराधकाः सन्ति । सुनकर वहां पर बैठे हुए श्रावकव्रतधारी स्कन्दककुमार ने जैनसिद्धान्त का समर्थन करते हुए उसको निरुत्तर कर दिया, इससे पालक स्कन्दककुमार का महान् विद्वेषी बन गया । कुछ काल के बाद स्कन्दककुमार ने पांचसौ कुमारों के साथ भगवान मुनि सुव्रतस्वामी के समीप धार्मिकदेशना सुनकर दीक्षा ली । उन पांचसौ कुमारों को भगवानने उनकी नेश्राय (अधीनता) में कर दिया । अब वे स्कन्दक मुनि स्कन्दकाचार्य हो गये । स्कन्दकाचार्य ने एक दिन भगवान से पूछा कि भगवन् ! मैं यहां से कुम्भकारकटक पुर की तरफ विहार करना चाहता हूं यदि आपकी आज्ञा हो तो । भगवान ने कहा जैसा तुम्हें सुख हो वैसा करो परन्तु तुम को वहां मरणान्तिक उपसर्ग का साम्हना करना पडेगा। फिर इस बात को सुनकर स्कन्दक ने प्रभु से पूछा कि प्रभो ! हम सब आराधक हैं या विराधक ? भगवान ने कहा तुम्हारे सिवाय सब ही आराधक हैं। भगवान के मुख से इस શ્રાવકત્રતધારી સ્કંદકુમારે જૈનસિદ્ધાંતને સમર્થન કરતાં તેને નિરૂત્તર બનાવી દીધા. આથી પાલક સ્કઢકકુમારના મહાન વિરોધી બની ગયા. કેટલાક સમય પછી કદકકુમારે પાંચ કુમાશની સાથે ભગવાન મુનિસુવ્રતસ્વામી પાસેથી ધાર્મિક દેશના સાંભળીને દીક્ષા અંગીકાર કરી, એ પાંચસા કુમારીને ભગવાને કકુમારની દેખરેખ નીચે રાખ્યા, આથી તે સ્ક ંદકમુનિ સ્ક ંદકાચાર્ય ખની ગયા, સ્કંદકાચાર્ય. એક દિવસ ભગવાનને પૂછ્યું કે, હે ભગવંત ! હું અહિંથી આપની આજ્ઞા હોય તે કુંભકારકટકપુર તરફ વિહાર કરવાની ઈચ્છા રાખુ છું. ભગવાને કહ્યું, જે રીતે તમને સુખ થાય એ રીતે કરશે. પરંતુ તમારે ત્યાં મરણાંતિક ઉપસર્ગ ના સામના કરવો પડશે. તે વાત સાંભળીને સ્ક ંદકે પ્રભુને પૂછ્યું, કે હું પ્રભેા ! અમે બધા આરાધક છીએ કે વિરાધક? ભગવાને કહ્યું, કે તમારા શીવાય બધા આરાધક છે. ભગવાનના ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર ઃ ૧ Page #499 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययनसूत्रे एवं भगवता कथितोऽषि स्कन्दकाचार्यो भाविवशात् पञ्चशतशिष्यपरिवारसहितः कुम्भकारकटकपुरं प्रति विहारं कृतवान् । पालकब्राह्मणेन तद् विहारवार्ता श्रुता" अत्रागच्छति स्कन्दकाचार्यः" इति। ततोऽसौ पूर्व वरमनुस्मृत्य तन्निर्यातनाथ यत्रोद्याने स्कन्दकाचार्य आगन्तुकस्तत्परितो विविधशस्त्रास्त्राणि प्रच्छत्ररीत्या भूयौं निखन्य रातः सघोपमागत्य यूत्ते स्वामिन् ! स्कन्दकाचार्यः पञ्चशतशिष्यरिवारैः सह साधुवेषेण इह समायाति, स भवदीयराज्यं हर्तुमिच्छति, वतोऽसौ भवदीयोहमनस्य चतुर्दिक्षु रात्रौ पच्छन्नो भूत्वाऽस्त्रशस्त्रानि भूम्यन्तर्निहितानि, तद्वृत्तं कथंचिमया ज्ञातम् , तत्र गत्वा पश्यन्तु भवन्तः पुरोहितवचनं श्रुत्वा राज्ञा तत्र गत्या भविष्यत् को सुनकर भी स्कन्दकाचार्य ने भाविवशात् पांचसौ शियों के साथ कुम्भकारकटकपुर की ओर विहार कर दिया। पालक पुरोहितने उनके विहार की वार्ता खुनी तो उसको ज्ञात हो गया कि स्कन्दकाचार्य विहार कर यहाँ आ रहे हैं । उसने उनके साथ अपना पूर्व वैर याद कर "बदला लेने का अवसर आगया है " इस अभिप्राय से उसने जिस उद्यान में स्कन्दकाचार्य आकर उतरे थे उस में जमीन खुदवाकर नीचे विविध शस्त्र एवं अस्त्र गुप्तसति से गढ़या दिये। पश्चात राजा के पास आकर फिर वह कहने लगा कि हे स्वामिन् ! यहां पांच सौ शिष्यों के परिवार से स्कन्दकाचार्य सायु के वेश में आये हुए है। वे आप के राज्य को हरण करना चाहते हैं । इस लिये उम्हों ने गुसरीति से उद्यान में चारों ओर अस्त्र शस्त्र भूमि में गढ़वा दिये हैं। यह बात रात्रि में मैमे छुपकर देखी है। आप की जो विश्वास न हो ती મેઢાથી આ ભવિષ્યવાણી સાંભળીને પણ કુંદકાચા ભાવિવશાતુ ૫૦૦ શિષ્યોની સાથે કુંભકારકટ કપુરની તરફ વિહાર કરી દીધા. પાલકપુરેહિત તેમના વિહારની વાત સાંભળીને જાયું સ્ક દકાચાર્ય વિહાર કરતા કરતા આ તરફ આવી રહ્યા છે. તેણે પિતાનું અગાઉનું તેમની સાથેનું વૈર યાદ કરીને “બદલો લેવાને અવસર આવી ચુક્યા છે” આવા અભિપ્રાયથી જે બગીચામાં કંદકાચાર્ય આવીને ઉતર્યા હતા તેની અંદસ્ની જમીન ખેદાવીને તેની નીચે જુદી જુદી જાતનાં શસ્ત્ર અશ્વ દાટી દીધાં. પછી રાજાની પાસે આવીને તે કહેવા લાગ્યો કે, પાંચસે શિષ્યોના પરિવાર સાથે કંદકાચાર્ય સાધુના વેશમાં અહિ આવ્યા છે. તે આપનુ રાજ્ય લઈ લેવા ઈચ્છે છે. કેમકે, તેમણે ગુપ્ત રીતે બગીચામાં ચારે બાજુ શસ્ત્ર અશ્વ દટાવી રાખ્યાં છે. આ વાત મેં રાત્રિના વખતે છુપી રીતે જોઈ લીધી છે. આપને જે વિશ્વાસ ન હોય તો આપ ખુદ ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #500 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रियदर्शिनी टोका. अ० २ गा. २७ वधपरीषरुजये स्कन्दकाचार्यदृष्टान्तः ४५ भूम्यन्तर्गतानि तानि शस्त्राखाणि विलोकितानि। ततोऽसौ नृपः कोपावेशेन पुरोहितमब्रवीत्-हे पालक ! सर्वानेतान् साधूनहं तवाधीनान करोमि, यथेच्छसि तथा कुरु । एवमुक्तोऽसौ दुष्टभावसमन्वितः पुरोहितः सर्वान् मुनीन् परितः समाक्रम्य एकैकं मुनि तिलादिपीडनयन्त्रे संस्थाप्य पीडयितुं प्रत्तः । ते स्वात्मकल्याणार्थिनो मुनयस्तं वधपरीषहं सम्यक् परिषह्यान्तसमये केवलज्ञानं प्राप्य मोक्षं गताः । तत्र ४९८ चतुःशताष्टनवतिसंख्यका मुनयः पीडनयन्त्रे पीडितास्तथापि स्कन्दकाचार्येण समभावं समालम्ब्य तव स्थितम् । तदा स्वस्मादन्य एक एव मुनिरवशिष्टः, तमपि पीडनयन्त्रे स्थापयितुमुद्यतस्तदा स्कन्दकाचार्येणोक्तम्स्वयं चलकर देख सकते हैं। पुरोहित की बात सुनकर राजा उद्यान में आया और वहां उसने भूमि के भीतर गढे हुए अनेक अस्त्र शस्त्र देखे। इस स्थिति से राजा को बड़ा ही कोप बढ़ा और उसने कोप के ही आवेश में तन्मय होकर पुरोहित से कहा, पालक ! इन सब साधुओं को मैं तुम्हारे आधीन करता हूं। तुम जैसा भी समझो इनके साथ वैसा करो। राजा ने जब ऐसा कहा तब पुरोहित के आनंद का पार न रहा । उसने शीघ्र ही चारों ओर से सब मुनियों को घिरवा दिया और एक एक मुनि को कोल्हू (घाणी) में पीलने लगा। चारसोअठानवे(४९८) मुनियोंने समभाव से वधपरीषहको सहन करके अंत समयमें केवलज्ञान प्राप्तकर मुक्ति को प्राप्त किया। स्कन्दकाचार्य और पक पालमुनि पीलनेके लिये अपशिष्ट रहे । जब पालक ने उस मुनि को पीलने के लिये कोल्हू में रखने को उद्यन हुवा तो इतने में स्कंन्दकाचार्य ने उससे कहा कि જઈને જોઈ શકે છે. પુહિતની વાત સાંભળીને રાજા બગીચામાં ગયા અને ત્યાં જમીનની અંદર દાટેલાં અનેક શસ્ત્ર અસ્ત્ર જોયાં. આથી રાજાને ખૂબ ક્રોધ ચડે અને ક્રોધના આવેશમાં આવીને તેણે પુરોહિતને કહ્યું, પાલક! આથી બધા સાધુઓને હું તમારે હવાલે કરૂં છું. તમેને ઠીક લાગે તેમ તેને ફેંસલે તમે કરો. રાજાએ જ્યારે આ પ્રમાણે કહ્યું ત્યારે પુરોહિતના આનંદનો પાર ન રહ્યો. તેણે તરત જ ચારે તરફથી તે મુનિઓને ઘેરી લઈ પકડીને એક પછી એક મુનિને ઘાણીમાં પલવાનું શરૂ કર્યું. ૪૯૮ મુનિઓએ સમભાવથી વધપરીષહને સહન કરીને અંત સમયે કેવળજ્ઞાનને પ્રાપ્ત કરીને મુક્તિને પામ્યા. સકંદકાચાર્ય અને એક મુનિ પીલવા માટે બાકી રહ્યા. જ્યારે પાલકે તે મુનિને પીલવા માટે ઘાણમાં નાખવા પ્રવૃત્ત થયા ત્યારે સ્કંદકાચાચે તેને કહ્યું કે, આ તે કોમળ. ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #501 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४६ ४४६ उत्तराध्ययनसूत्रे अयमस्ति कोमलकायो बालकः, तस्मादयं त्वया न हन्तव्यः मम समक्षे पीडनयन्त्रेऽस्य स्थापने पीडा मम जायते, मुश्चनम् । स्कन्दकाचार्यवचनं श्रुत्वाऽसौ राजपुरोहितः पालकब्राह्मणो वदति-राजसभायां त्वया पराजितोऽहम् , अतो यावदधिकादप्यधिकं दुःखं तव स्यात् तदेव कार्य मम कर्तव्यम् । इत्युक्त्वाऽसौ तं बालमनगारं स्कन्दकाचार्यस्य समक्षमेव पीडनयन्त्रे संस्थाप्य तत्पीडनं कृतवान् । स बालोऽप्यनगारस्तत्र वधपरीषहं सम्यक् परिषह्य केवलज्ञानं प्राप्य मोक्षं गतः । तदा स्कन्दकाचार्यों रोषावेशेन निदानं कृतवान्-“यदि मम तपःसंयमस्य फलं भवेत् , तदा एतेषां सर्वेषां दुःखदायको भवेयम्" इति । अथाऽसौ स्कन्दकायह इस समय कोमलकाय बालक है अतः तुम इसे छोड़ दो। इसे कोल्हू में रखते हुए देखकर मुझे पीड़ा होती है, अतः यह मारने योग्य नहीं है । स्कन्दकाचार्य के इस प्रकार वचन सुनकर पालक उनसे कहने लगा-सुनो-तुमने मुझे पहिले राजसभा में परास्त किया था, अतः उसके उपलक्ष में अधिक से अधिक जो कष्ट हो सकता है वह मैं तुमको दूं ऐसा ही मेरा निर्णय है । इस में जरा भी इधर उधर नहीं करना चाहता हूं । इस प्रकार कह कर उसने उस बालक मुनि को भी स्कन्दकाचार्य के सामने ही कोल्हू में रखकर पील दिया। उस बालक अनगार ने भी खुशी खुशी से वधपरीषह सहन करके अंत में केवलज्ञान प्राप्त कर मुक्ति को प्राप्त कर लिया। उस समय स्कन्दकाचार्य ने रोश के आवेश में आकर यह निदान किया कि “यदि मेरे तप एवं संयम का फल होता हो तो मैं इन सब को दुःख देने वाला होऊँ ।" કાય બાળક છે, માટે એને છોડી દો. એને ઘાણીમાં રાખેલ જોઈને મને પીડા થાય છે માટે તે મારવાને યોગ્ય નથી. સ્કંદકાચાર્યનું આ પ્રમાણેનું વચન સાંભળીને પાલક પુરોહિત કહેવા લાગ્યો કે, સાંભળો! તમે મને અગાઉ રાજસભામાં પરાજીત કરેલ હતું જેથી તેના ઉપલક્ષમાં હું અધિકમાં અધિક કષ્ટ જે હોય તે હું તમને આપીશ એ મારે નિર્ણય છે. તેમાં જરા પણ હું ફેરફાર કરવા ઈચ્છતું નથી. આ પ્રમાણે કહીને તેણે તે બાળક મુનિને કંઇકાચાર્યની સામે જ ઘાણીમાં નાખીને પીલી નાખ્યો. આ બાળ અનગાર પણ ખુશીથી વધપરીષહ સહન કરીને અંતમાં કેવળજ્ઞાન પ્રાપ્ત કરીને મુક્તિ પામ્યા. આ સમયે દકાચા રેષના આવેશમાં આવીને આ પ્રમાણે નિદાન કર્યું કે, જે મારા તપ અને સંયમનું ફળ થતું હોય તે હું આ બધાને દુઃખ દેવાવાળા બનું. પાલકે છેવટે સ્કંદકાચાર્યને પણ ઘાણીમાં પીલીને ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #502 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रियदर्शिनी टीका. अ० २ गा० २८-२९ याचनापरीषहजयः ४७ चार्य तत्र यन्त्रे निपीड्य हतवान् । स स्कन्दकाचार्यों मृत्वाऽन्निकुमारदेवत्वेनसमुत्पन्नो भूत्वाऽवधिज्ञानेन स्वपूर्वभववृत्तं ज्ञात्वा कोपावेशेन नृपपुरोहितामात्यादि सहितं कुम्भकारकटकपुरं सदेशं भस्मसात् कृतवान् । दण्डकिभूपस्य स देशो दण्डकारण्यनाम्ना पश्चात् प्रसिद्धो जातः । एवमन्यैरपि मुनिभिर्वधपरीषहः सोढव्य एच, न तु स्कन्दकाचार्यवत् कोपाविष्टैर्भवितव्यम् ॥ २७ ॥ अथ याचनापरीषहजयं प्राहमूलम् -दुकरं खलु भो ! निच्चं, अणगारस्स भिक्खुंणो । संव्वं सें जाइयं होई, नैत्थि किंचि"अजाइयं ॥२८॥ छाया-दुष्करं खलु भो ! नित्यम् , अनगारस्य भिक्षोः। सर्व तस्य याचितं भवति, नास्ति किंचिद् अयाचितम् ॥ २८ ॥ टीका-दुक्करं' इत्यादि । खलु-निश्चयेन भो! इति सम्बोधनम् , हे जम्बूः ! अनगारस्य गृहरहितस्य पालक ने अन्त में स्कन्दकाचार्य को भी कोल्हू में पील कर नष्ट कर दिया। स्कन्दकाचार्य मर कर निदान के प्रभाव से अग्निकुमार जाति के देव हुए। देवपर्याय में अवधिज्ञान द्वारा अपने पूर्वभव का वृत्तान्त जानकर उस देवने क्रोध के आवेश में आकरके नृप पुरोहित एवं अमात्य आदि सहित समस्त कुंभकारकटकपुर को भस्मसात् कर दिया। दण्डकीभूप का वह देश दण्डकारण्य नाम से प्रसिद्ध हुआ। इस कथा से मुनियों को यही शिक्षा लेना चाहिये कि वे वधपरीषह को समभाव से सहन करे । जिस प्रकार उनमुनियों ने वधपरीषहको सहा उसी प्रकार अन्य मुनियोंको भी वधपरीषह सहन करना चाहिये। स्कन्दकाचार्य की तरह कोपाविष्ट नहीं होना चाहिये ॥ २७॥ તેને નાશ કર્યો. સ્કંદકાચાર્ય મરીને નિદાનના પ્રભાવથી અગ્નિકુમાર દેવ જાતીમાં ઉત્પન્ન થયા. દેવપર્યાયમાં પિતાના અવધીજ્ઞાનથી પોતાના પૂર્વભવનું વૃત્તાંત જાણીને તે દેવ કોધના આવેશમાં આવીને રાજ પુરોહિત અને અમાત્ય સહિત સમસ્ત કુંભકારકટકપુરને ભસ્મીભૂત બનાવી દીધું. દંડકી રાજાને તે દેશ પછીથી દંડકારણ્ય તરીકે પ્રસિદ્ધ થયો. આ કથાથી મુનિઓએ શિક્ષા ગ્રહણ કરવી જોઈએ કે, વધુ પરીષહને સમભાવથી સહન કરે. જે પ્રકારે મુનિઓએ વધપરીષહને સહન કર્યો એ પ્રકારે સહન કરે સ્કંદકાચાર્યની માફક કે પાયમાન થવું ન જોઈએ મારા ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #503 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८ _ उत्तराध्ययनसूत्रे भिगो पुनः नित्य-सर्वदा-पावजीवमित्ययः, दुष्करं दुःखेन क्रियमाणं कठिनं भवति । किं दुष्करं भवति ? इत्याह-सव्वं इत्यादि, तत् सर्वम्-आहारोपकरणादिकं वस्तु तस्य याचित-याचितमेव भवति, किंचिदपि दन्तशोधनादिकमपि अयाचितं नास्ति न गृह्यते तस्मात् कष्टं मुनिजीवनमिति ।। २८ ।। उक्तार्थमेव सविशदं वर्णयतिमूलम्-गोयरेग्गपविट्ठस्स, पाणी नों सुप्पसारए । सेओ अगारवासात्ति, इइ भिक्खू ने चितए ।॥२९॥ छाया-गोचराग्रप्रविष्टस्य, पाणिः नो सुमसार्यः । श्रेयान् अगारवासः इति, इति भिक्षुर्न चिन्तयेत् ।। २९ ॥ टीका-'गोयरग्गः' इत्यादि। गोचराग्रप्रविष्टस्य-गोचरः गोरिव चरणं गोचरः भिक्षाचर्या, यथा-ज्ञाताज्ञातविशेषमपहायैय गौः प्रवर्तते, तथा साधुरपि ज्ञाताशातकुलेषु भिक्षार्यम् तस्याग्रं प्रधान, यतोऽसौ एषणायुक्तो गृह्णाति, न तु गौरिव यथा कथंचित् , तस्मिन् गोचराग्ने प्रविष्टस्य, मुनेः पाणिः हस्तः नो सुप्रसार्यनैव सुखेन प्रसारयितु ___अब सूत्रकार चौदह वे याचनापरीषह को सहन करने का उपदेश करते हैं-दुक्करं खलु'- इत्यादि। ____ अन्वयार्थ-( खलु) निश्चय से (भा-भोः) हे जंबू! (अणगारस्स भिषखूणो-अनगास्स्य भिक्षोः) गृहरहित भिक्षुको (सव्यं आइय होइ-सर्व याचित भवति) समस्त वस्तुएँ याचित ही होती है। (किंचि अजाइय नत्यि किंचित् अयाचितं नास्ति) कोई भी वरतु अयाचित नहीं होती है। इसलिये मुनिजीवन (दुकरं-दुष्करम् ) बड़ा ही दुष्कर हैं। विना दिये तो वह दन्तशोधनादिक भी तृण तक भी नहीं ले सकते हैं ॥ २८ ॥ હવે ચૌદમો યાચનાપરીષહ સહન કરવાને ઉપદેશ સૂત્રકાર કહે છે— 'दुक्करं खलु' त्याहि. मन्वयार्थ -खलुनिश्चयथा भो-योः पू! अणगारस मिक्खुणो अनगावस्य भिक्षोः गृड २डित मिनी सन्य जाइयं होइ सव्वण्याचितं भवति समस्त पस्तुमा यायित साया छ. किंचि अजाइयं नस्थि किंचिन् अयाचितं नास्ति ५५ १२४ અયાચિત નથી, માટે મુનિજીવન ટુ -ટુ ઘણું જ દુષ્કર છે. કોઈના આપ્યા વગર તે દાત ને સાફ કરવા માટે તણખલું પણ લઈ શકતા નથી. ૨૮ છે. ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #504 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रियदर्शिनी टीका. अ० २ गा० २९ याचनापरीषहजये वज्रप्रियमुनिदृष्टान्तः ४४९ शक्यः, नहि मुनिः कस्यापि गृहस्थस्य सम्बन्धीति भावः । इति = अतो हेतोः, अगारवासः=गार्हस्थ्यम् श्रेयान् = श्रेष्ठः, इति= एतद्, भिक्षुः = मुनिर्न चिन्तयेत, किंतु गृहवासो हि बहुसावद्ययुक्तस्तथा ज्ञानावरणीयाद्यष्टविधकर्मबन्धस्य कारणम्, स कथमपि श्रेयस्करो न भवतीति विचारयेत् । फिर सूत्रकार पूर्वोक्त अर्थको ही विशद करते हैं- 'गोयरग्ग०' - इत्यादि । अन्वयार्थ - (गोयरग्गपविट्ठस्स-गोचराग्रप्रविष्टस्य) ज्ञात अज्ञातकुलों में गोचरी के लिये प्रविष्ट हुए साधु का (पाणी-पाणिः) हाथ (नो सुप्पसारए - नो सुप्रसार्यः) सुप्रसार्य नहीं है, क्यों कि मुनि किसी गृहस्थ का संबंधी नहीं है, इसलिये (अगारवासो सेओ-अगारवासः श्रेयान् ) इसकी अपेक्षा गृहस्थ जीवन श्रेष्ठ है, ऐसा (भिक्खू न चिंतए - भिक्षु न चिन्तयेत् ) भिक्षुको नहीं विचारना चाहिये, क्यों कि गृहवास बहुसावद्ययुक्त तथा ज्ञानावरणीय आदि अष्टविध कर्मों के बंध का कारण है अतः वह किसी प्रकार श्रेयस्कर नहीं माना जा सकता है । भावार्थ- गोचरी के लिये ज्ञात अज्ञात कुलों में गये हुए साधु को ऐसा नहीं विचार करना चाहिये कि यहां मैं किसके सामने हाथ फैलाऊँ - कोई मेरा संबंधी तो है नहीं। संबंधी से भागने में कोई शर्म की बात नहीं है । इससे तो अच्छा गृहवास ही है कि जिसमें हर एक से हर एक चीज मांगने में कोई संकोच नहीं होता है । साधु का ऐसा सूत्रार पूर्वोक्त अर्थाने ४ दूरी सभलवे छे— 'गोयरग्ग' इत्यादि. अन्वयार्थ - गोयरग्गपविट्ठस्स - गोचराप्रप्रविष्टस्य भऐसा अगर मनश्या भुणेोभां गोखरी भाटे नारा साधुन पाणी-पाणिः डाथ नो सुप्पसारए - नो सुप्रसार्यः सुप्रसार्य नथी. उभडे, भुनि अर्ध गृहस्थना संबंधी नथी तेथी अगारवासो सेओ- - अगारवासः श्रेयान् ते अपेक्षा गृहस्थ भवन श्रेष्ठ छे थेवे। लाव भिक्खू न चितए - भिक्षुः न चिन्तयेत् लिक्षुओ साववोन लेये. उभडे, गृहवास मडु सावधયુક્ત તથા જ્ઞાનાવરણીય આદિ આઠે કર્મોના બંધનુ કારણ છે. આથી તે કોઈ પ્રકારે શ્રેયસ્કર માનવામાં આવેલ નથી. ભાવાર્થ ગોચરી માટે જાણીતા કે અજાણ્યા કુળમાં જતા સાધુએ એવે વિચાર ન કરવા જોઇએ કે, હું ત્યાં કાની સામે હાથ લાંખા કરૂ ? કાઈ મારા સબંધી તા નથી. સબંધી પાસે માગવામાં ફાઈ શરમની વાત નથી. આથી તે ગૃહસ્થાશ્રમ સારી કે જેમાં એક બીજાથી ચીજ માગવામાં સ કેચ થતા નથી. उ० ५७ ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર ઃ ૧ Page #505 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५५० उत्तराध्ययनसूत्रे अत्र दृष्टान्तः प्रदर्श्यते दशमतीर्थकरश्रीशीतलनाथस्वामिशासने तद्वंशीयो वज्रमियनामा भूपतिबभूव । स दीक्षां गृहीत्वा मासमासक्षपणस्य पारणं करोति स्म । स प्रथममासक्षपणपारणे भिक्षाचर्यायां प्रविष्टश्चिन्तयति-कथमद्य याचयामि, वज्रप्रियनामधारकोऽहमिक्ष्वाकुवंशीद्भवेष्वपि अग्रसरस्तथा जातिकुलसंपन्नोऽस्मि, पुनरुच्चनीचमध्यमकुलेषु हस्तपसारणं ममासिधारावत् कठिनम् । यस्य चरणे राज्ञां मुकुटको टयः परिलसन्ति स्म, यस्याज्ञां मन्दारकुसुममालामिव जनाः सादरं धारयन्ति स्म, विचार इसलिये प्रशस्य नहीं है कि गृहस्थाश्रम बहुसावद्य कर्मों से युक्त होता है तथा उससे ज्ञानावरणीयादिक अष्टविध कर्मों का बंध होता है। दृष्टान्त-दशवें तीर्थंकर श्रीशीतलनाथस्वामी के शासनकाल में इनका ही वंशज एक वज्रप्रिय नामका राजा था। उसने धार्मिक उपदेश श्रवणकर दीक्षा धारण कर ली थी। मुनि धनकर उन्होंने खूब तपश्चर्या की। मास२ खमण की तपस्या करने लगे । एक समय की बात है कि जब उनके प्रथम मासक्षपण का पारणा था तो स्वयं भिक्षाचर्या के लिये गये। उस समय उन्होंने विचार किया कि मैं आज कैसे याचना करूँगा? मेरा वंश तो ऐसा नहीं है कि जिसमें किसीने याचना की हो । मैं तो इक्ष्वाकुवंशजों में अग्रेसर हूं। मैं जातिकुलसंपन्न हूं। उच्च नीच एवं मध्यम कुलों में हाथ फैलाना मेरे लिये तो असिधारा के समान कठिन प्रतीत होता है। जिन मेरे चरणों में राजाओं के मुकुट नमते रहे थे, સાધુને આ વિચાર એટલા માટે ઠીક નથી કે, ગૃહસ્થાશ્રમ ઘણા સાવદ્ય કર્મોથી ભરેલ છે. તથા એનાથી જ્ઞાનાવરણીય આદિ આઠ કર્મોને બંધ થાય છે. દૃષ્ટાંત–દસમા તીર્થંકર શ્રી શીતળનાથ સ્વામીના શાસન કાળમાં તેમના જ વંશને એક વાપ્રિય નામને રાજા હતો. તેણે ધાર્મિક ઉપદેશ સાંભળીને દીક્ષા ગ્રહણ કરી. મુનિ બનીને તેણે ખૂબ તપશ્ચર્યા કરી. માસ માસ ખમણની તપશ્ચર્યા કરવા લાગ્યા. એક સમયની વાત છે, જ્યારે તેમનું પહેલા માસ ખમણનું પારાયું હતું એટલે તે અંગે પિતે ભિક્ષાચર્યા માટે ગયા. તે સમયે તેમણે વિચાર કર્યો કે, હું આજ કેની પાસે યાચના કરીશ? મારે વંશ તે એ નથી કે જે યાચના કરે. હું તે ઈવાકુવંશને અગ્રેસર છું. જાતિકુળ સંપન્ન છું. ઉચ્ચ નીચ મધ્યમ કુળમાં હાથ ફેલાવ એ મારા માટે તરવારની ધાર માફક કઠીન છે. મારા ચરણમાં જે રાજાઓના મુગટ નમતા હતા, જેની ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #506 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रियदर्शिनी टीका. अ० २ गा० ३० अलाभपरीषहजयः यस्य दर्शनेन च स्वजन्म सफलं मन्यन्ते स्म, येन मया राज्ञा पुरतः कदापि हस्तो न प्रसारितः, सोऽहमिदानीं तेषां कुले तथा हीनदीनकुलेषु च कथं करं प्रसारयामि । यदि गृहवासमङ्गीकरोमि, तदा तु खलु मम वीरप्रतिज्ञैव नष्टा भवति । ज्ञानदर्शनचारित्रेभ्यश्च पतितो भवामि, ततश्चानन्तसंसारद्धिः स्यात् , तत्रापि नरकनिगोदेष्वनन्तदुःखभोगानन्तरमपि रत्नत्रयं दुर्लभं स्यात् । तत्र रत्नत्रये-दर्शनेन विना ज्ञानं नास्ति, ज्ञानेन विना चारित्रं न भवति, चारित्रेण विना मोक्षो न लभ्यः, तस्माद् याचनापरीषहः सर्वथा मया सोढव्यः, इति विचिन्त्य प्रासुकैषणीयभिक्षाजिसकी आज्ञा कल्पवृक्ष के फूलोंकी माला के समान मनुष्य सादर मस्तक पर धारण किया करते थे, जिसके देखने से लोग अपने को सफल जन्मवाला मानते थे-आज वही मैं उन लोगों के घरों में जाकर कैसे मांगने के लिये हाथ फैलाऊँगा। मैंने आजतक तो किसी राजा के भी सामने हाथ नहीं फैलाया। फिर संयमके विषय में विचारने लगे कि-यदि इस संकोच से मैं गृहवास को स्वीकार कर लेता हूं तो मेरी सावद्यत्यागरूप वीरप्रतिज्ञा नष्ट होती है । ज्ञान दर्शन एवं चारित्र से भी पतित हो जाता हूं । इसका फल यह होगा कि मेरा अनन्त संसार बढ़ेगा। अनन्तसंसारी होने पर नरक निगोद के अनंतदुःखों को भोगने के बाद भी ज्ञान, दर्शन, चारित्ररूप रत्नत्रय की प्राप्ति मुझे दुर्लभ ही रहेगा, क्यों कि दर्शन के विना ज्ञान नहीं और ज्ञान के विना चारित्र नहीं, तथा चारित्र के अभाव में मुक्ति की प्राप्ति नहीं होती है। इसलिये याचनापरीषह मुझे सर्वथा सहन करना ही चाहिये । इस प्रकार विचार આજ્ઞા કલ્પવૃક્ષના કુલેની માળા સમાન મનુષ્ય આદર સાથે માથા ઉપર ધારણ કરતા હતા, જેને જોઈને લોકે પિતાને સફળ જન્મવાળા માનતા હતા. આજ તેજ હું એ લોકેના ઘરોમાં જઈ ભીક્ષા માગવા માટે કેવી રીતે હાથ લાંબો કરૂં ? મેં આજ સુધી કઈ રાજા સામે પણ હાથ લાંબો કર્યો નથી. પછી સંયમના વિષયમાં વિચાર કરવા લાગ્યા કે-જે આ સંકેચથી હું ગૃહવાસને સ્વીકારી લઉં તે મારી સાવદ્ય ત્યાગરૂપ વીરપ્રતિજ્ઞા નાશ પામે છે. તેનું ફળ એ આવશે કે, મારે અનંત સંસાર વધશે. અનંત સંસારી બનાવથી નરક નિગદનાં અનંત દુઃખેને ભગવ્યા પછી પણ જ્ઞાન,દશન ચારિત્રરૂપ રત્નત્રયની પ્રાપ્તિ મને દુર્લભજ રહેશે. કેમકે, દર્શન વીના જ્ઞાન નહીં, અને જ્ઞાન વગર ચારિત્ર નહીં, અને ચારિત્રના અભાવમાં મુકિતની પ્રાપ્તિ નહીં. માટે યાચનાપરીષહ મારે સર્વથા સહન કરવું જ જોઈએ. આ પ્રકારને વિચાર ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #507 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५२ उत्तराध्ययनसूत्रे मुपादाय संयमयात्रां निर्वहन् कालमासे कालं कृत्वा स्वकल्याणं साधितवान् । एवमन्यैरपि मुनिभिर्याचनापरीपहः सोढव्यः ॥ २९ ॥ याचनायां मवृत्तस्य मुनेः कदाचिल्लामान्तरायोदयात् भिक्षाया अलाभः स्यात्, इत्यलाभपरीषहजयं प्राह मूलम् परे घास मेसेज्जा, भोयेणे परिनिट्ठिएँ । लद्धे पिंडे अलंद्धे वा, नाणुतप्पेजें पंडिएं ॥३०॥ छाया - परेषु ग्रासम् एषयेत्, भोजने परिनिष्ठिते । लब्धे पिण्डे अलब्धे वा, नानुतप्येत पण्डितः ॥ ३०॥ टीका- 'परेसु' इत्यादि । पण्डितः - भिक्षुधर्ममर्मज्ञः संयतः, भोजने = ओदनादौ, परिनिष्ठिते = निष्पन्ने सत्येव परेषु = गृहस्थेषु ग्रासं पिण्डम् एषयेत् = गवेषयेत् । ततश्च पिण्डे= आहारेऽकर उसने प्रासु एषणीय आहार की याचना की । याचना में प्राप्त आहार को लेकर अपनी संयमयात्राका निर्विघ्न रीति से निर्वाह करते२ अन्तमें वे आयु समाप्त होनेपर कालधर्मको प्राप्तकर आत्माका कल्याण किया ||२९|| याचना में प्रवृत्त मुनि को कदाचित् लाभान्तराय के उदय से भिक्षा का लाभ न हो सके तो उसे पन्द्रहवें अलाभपरीषह को जीतना चाहीये अब यह बात सूत्रकार प्रदर्शित करते हैं- 'परेसु' इत्यादि । अन्वयार्थ - (पंडिए - पंडितः ) भिक्षुधर्म के मर्म का ज्ञाता संयमी साधु (भायणे - भोजने ) ओदनादिक भोजन (परिनिडिए - परिनिष्ठिते ) निष्पन्न होने पर ही (परेसु परेषु) गृहस्थों के घर विषे (घासं-ग्रासम् ) पिण्डकी ( एसेज्जा - एषयेत् ) गवेषणा करे (पिंडे लद्धे अलद्वे वा - કરીને તેમણે પ્રાસુક એષણીય આહારની યાચના કરી. અને યાચનાથી પ્રાપ્ત થયેલા આહારને લઇને પેાતાની સંયમયાત્રાનું નિર્વિઘ્ને નિર્વાહ કરતાં કરતાં અંતમાં તેઓએ આયુની સમાપ્તિ થતાં, કાળધમ પામી આત્માનું કલ્યાણુ કર્યું. રા યાચનામાં પ્રવૃત્ત મુનિને કદાચીત લાભાન્તરના ઉડ્ડયથી ભિક્ષાને લાભ મળી શકતા ન હોય તેા તેથી હવે પંદરમા અલાભપરીષહને જીતવા જોઈએ मेवात डुवे सूत्रार अहर्शित ४रे छे.' परेसु ' त्याहि. , मन्वयार्थ-पंड़िए-पंडितः लिक्षुधर्मांना भर्मना ज्ञाता संयमी साधु भोयणेभोजने मोहना लोटन परिनिट्ठिए- परिनिष्ठिते निष्पन्न होवाथी ४ परेसु परेषु गृहस्थाना घेर ४४ घास - प्रास पिन्डनी एसेज्जा - एषयेत् गवेषणा ४२ पिण्डे ल ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર ઃ ૧ Page #508 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रियदर्शिनी टीका अ० २ गा. ३१ अलाभपरोषहजयः ४५३ निष्टे स्वल्पे वा लब्धे सति, अलब्धे वा नानुतप्येत=' भाग्यहीनोऽस्मि, भिक्षाऽपि न लभ्यते' इत्यादिरूपं संतापं न कुर्यादित्यर्थः । 'परिनिट्ठिए' इति विशेषणेन भोजनकाल एवं गच्छेदिति सूचितम् । 'घासं' इत्यनेन भ्रमरवृत्या ग्राह्यमिति बोधितम् ।। ३० ॥ तर्हि किं कुर्यादित्याह-~ मलम्-अजेवाहं न लब्भामि, अवि लाभो सुंए सिया । जों एवं पडिसंचिक्खे,अलोभो तं न तजए ॥३१॥ छाया-अद्यैवाहं न लभे, अपि लाभः श्वः स्यात् ।। ___ य एवं प्रतिसमीक्षते, अलाभस्तं न तर्जयेत् ॥ ३१ ॥ पिण्डे लब्धे अलब्धे वा) उस समय यदि थोड़ा आहार मिले अथवा बिलकुल भी न मिले तो भी वह (नाणुतप्पेज्ज-नानुतप्येत ) “मैं भाग्यहीन हूं मुझे भिक्षा भी नहीं मिली" इत्यादिरूप संताप न करे । “परिनिहिर" इस विशेषणद्वारा सूत्रकार की साधु के लिये यह सूचना है कि वे गोचरी के लिये भोजनकाल में ही निकले । “घासं" इस पद से गृहस्थों के यहां से जो भी आहार ग्रहण किया जाय वह भ्रमरवृत्ति से किया जाय, यह सूचित किया है। भावार्थ-साधु को गोचरी के लिये भोजनकाल में ही निकलना चाहिये, उस समय यदि भोजन अल्प मिले या बिलकुल भी न मिले तो इस विषय में किसी भी प्रकार का उसे मन में संताप नहीं करना चाहिये ॥ ३०॥ अलद्धे वा-पिण्डे लब्धे अलब्धे वा थे समये तर थोडं मान भणे अथ। मीसस न भणे ५ ते नाणुतप्पेज्ज-नानुतप्येत भाग्यहीन छु.. मन मिक्षा ન મળી” એવી રીતે સંતાપ ન કરે પરિનિgિ એ વિશેષણદ્વારા સૂત્રકાર સાધુ માટે એવું સૂચન કરે છે કે, તે ગોચરી માટે ભોજન સમયે જ નિકળે શા આ પદથી ગૃહસ્થને ત્યાંથી જે કંઈ આહાર ગ્રહણ કરવામાં આવે તે ભ્રમરવૃત્તિથી સ્વીકાર કરે જોઈએ. આ સૂચના આપવામાં આવે છે. ભાવાર્થ–સાધુએ ગોચરી માટે ભોજન કાળમાં જ નિકળવું જોઈએ તે સમયે જે મળે અગર ન મળે તો પણ આ વિષયમાં તેના મનમાં કઈ પ્રકારને સંતાપ થ ન જોઈએ. જે ૩૦ ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #509 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५४ टीका- ' अज्जेवाहं ' इत्यादि । अहम्, अद्वैत्र=अस्मिन्नेव दिने न लभे-न प्राप्नोमि अपि सम्भावयामि श्वः = आगामिदिने, इदमुपलक्षणम् तेन अन्यस्मिन् कस्मिंश्चिदागामिनि दिने इत्यर्थः, लाभः स्यात् = आहारादिप्राप्तिर्भविष्यति, एवंम् अनेनोक्तप्रकारेण यः साधुः प्रतिसमीक्षते = चिन्तयति - अलाभे सत्यनुद्विग्नः सन् संयमयात्रां निर्वहतीत्यर्थः । तं मुनिम्- अलाभः =अलाभपरी पहः, न तर्जयेत् = कथमपि पराजयं कर्तुं न शक्नुया 'अज्जेवाहं - इत्यादि । अन्वयार्थ - (अहं अहम् ) मुझे (अज्जेव न लग्भामि-अद्यैव न लभे ) आज यदि आहार का लाभ नहीं हुआ है (अवि-अपि) तो (सुए - श्वः) आगामी दिन में उपलक्षण से और भी किसी अन्य दिवस में (लाभो सिया - लाभः स्यात्) उसका लाभ हो जायगा । ( एवं - एवम् ) इस प्रकार से ( जो - यः ) साधु ( पडिसंचिक्खे प्रतिसमीक्षते ) विचार लेता है, ( तं तम् ) उसके लिये ( अलाभो - अलाभः ) अलाभपहीषह (न तज्जए - न तर्जयेत् ) कभी भी संतापित नहीं कर सकता है । इसका तात्पर्य यह है - याचना करने पर भी यदि गृहस्थ-दाता की इच्छा होगी ता ही देगा, नहीं होगी तो नहीं देगा । यदि वह नहीं देता है तो इसमें साधु के लिये अपरितुष्ट होने की बात ही कौन सी है। जो साधु इस प्रकार की विचारधारा से युक्त होता है वह भिक्षा का लाभ न होने पर भी समचित्त बना रहता है, उसके मन में विकृति नहीं आती है । इसी से वह अलाभपरीषह का विजेता बन जाता है। 6 उत्तराध्ययन सूत्रे , अज्जेवाहं ' त्याहि. मन्वयार्थ - अहं अहम् भने अज्जेव न लब्भामि-अद्यैव न लभे भा४ ले लोभनने। साल थये। नथी अघि-अपि तो सुए श्वः आगामी द्विवसभां उपलक्षथी मीन या अर्ध दिवसे लाभो सिया-लाभः स्यात् भेने। साल भजशे एवं - एवम् मा प्रहारे जो - यः साधु पडिसंचिक्खे - प्रतिसमीक्षते वियारी से छे त - तम् तेने भाटे अलाभोअलाभः असालपरीषडु उट्ठी पशु संताय आयनार मनतो नथी. भानुं तात्पर्य से छे કે, યાચના કરવા છતાં પણ જો ગૃહસ્થ દાતાની ઈચ્છા હશે તે આપશે. નહી હાય તા નહીં આપે. જો તે આપે નહિ. તે સાધુ માટે તેમાં અસતષ લાવવાની વાત જ કયાં છે, જે સાધુ આ પ્રકારની વિચારધારાથી યુકત છે તે ભિક્ષાને લાભ ન થવાથી પણ સમચિત્ત બની રહે છે. તેના મનમાં વિકૃતી આવતી નથી. તેનાથી અલાભપરીષહના વિજેતા મની રહે છે. ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર ઃ ૧ Page #510 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रियदर्शिनी टीका. अ० २ गा० ३१ अलाभपरीषहजये ढंढणमुनिदृष्टान्तः ४५५ दित्यर्थः । अयं भावः -- याचिते सति गृहस्थः स्वेच्छया दद्यात् न वा दद्यात्, तत्र कोsस्य संतोषो न यच्छति सति । एवं भावनया लाभाभावेऽपि मुनिना समतसैव अविकृतस्वान्तेनैव भवितव्यमित्यलाभपरी पहो विजितो भवतीति । भावार्थ - अलाभपरीषह पर विजय पाने के लिये साधु की विचारधारा कैसी होनी चाहिये यह बात इस गाथा द्वारा सूत्रकार ने प्रदर्शित की है। वे कहरहे हैं कि साधु जब गोचरी के लिये किसी सद्गृहस्थ के यहां जाता है और आहारादिककी याचना करता है तो उसकी इच्छा की पूर्ति होना न होना यह साधु के हाथ की बात नहीं है। गृहस्थ की भावना होगी तो वह देगा नहीं होगी तो नहीं देगा । साधु की कोई इस में जबर्दस्ती तो है नहीं, अतः ऐसी परिस्थिति में जब कि साधु को आहार का लाभ न हो तो उसका कर्तव्य है कि वह अपनी आत्मा को व्यर्थ में क्लेशित न करे, और न उस पर रुष्ट परिणति ही धारण करे। विचार यह करे कि -आज नहीं मिला तो कल मिल जायगा, कल भी न मिला तो परसों मिल जायगा. इसमें सोच फिकर करने की बात ही कौन सी है। दाता का भाव होगा तो देगा, नहीं होगा तो नहीं देगा । इस तरह जो साधु वर्तता रहना है वह वीर मुनि अलाभ परीषह को अवश्य जीत लेता है । ભાવા-મલાભપરીષહ ઉપર વિજય મેળવવા માટે સાધુની વિચારધારા કેવી હાવી જોઈએ એ વાત આ ગાથા દ્વારા સૂત્રકારે પ્રદર્શિત કરેલ છે. તે કહે છે કે, સાધુ જ્યારે ગેાચરી માટે કોઈ ગૃહસ્થને ઘેર જાય અને આહા રાદિકની યાચના કરે તેા તેની ઇચ્છાની પૂતી થવી કે ન થવી તે સાધુના હાથની વાત નથી. ગૃહસ્થની ભાવના હોય તેા આપે, નહી હોય તે આપવાના નથી. સાધુની કાઈ જબરજસ્તી હાઈ શકે નહિ. આથી આવી પરિસ્થિતિમાં કોઈ સાધુને આહારના લાભ ન થાય તે તેનું વ્ય છે કે તે પોતાના આત્માને નકામા કલુષિત ન કરે. અને ન તે તેના ઉપર ગુસ્સે કરે. વિચાર એ કરે કે, આજ ન મળ્યુ' તેા કાલે મળશે. કાલે નહીં મળે તે પરમ દિવસ મળશે. આમાં ફિકર ચિં'તા કરવાની હોય જ નહિ.. દાતાના ભાવ હશે તે આપશે, નહી હાય તા નહી આપે. આ પ્રકારે જે સાધુ વતા રહે છે તે વીર મુનિ અલાભપરીષહુને અવશ્ય જીતી લે છે. ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર ઃ ૧ Page #511 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तगण्ययनसूत्रे अत्र दृष्टान्तः प्रदर्श्यते विन्ध्याचलप्रदेशे हुण्डनामके ग्रामे निर्धनः कृशशरीरः कुटुम्बबहुलः सौवीर नामा कृषीवल आसीत् । तत्र विन्ध्याचलवर्तिना गिरिसेननृपतिना पश्चाशत्संख्यकानि हलानि वाहयितुं वारकेण पञ्चाशत्संख्यका हलवाहका नियोजिताः । तत्रैकदा सौवीरकृषीवलस्य वारकः समायातः । तस्मिन् दिने क्षेत्रे वृषभान्नीत्वा हलेषु योजयित्वा क्षेत्रं कर्षितवान् । वृषभाः श्रान्ताः अतिस्थग्नाः क्षुत्पिपासाव्याकुला ग्रीष्मातपसंतप्ता हलमुक्तावस्थां प्रतीक्षमाणाः स्वाहारमभिलषन्ति, पश्यन्ति च पुनः ___ दृष्टान्त-विन्ध्याचल प्रदेश में एक हुण्ड नाम का ग्राम था। उस में एक निर्धन सौवीर नाम का किसान रहता था। कुटुंम्ब यहुत होने की वजह से उसे सदा इसके लालन पालन की चिंता घेरे रहती थी इसलिये चिन्ता के मारे इसका शरीर कृश हो गया था। विंध्याचलवर्ती गिरिसेन राजाने बारीर से पांचसौ हलों को जोतने के लिये पांचसौ हलवाहक-हाली-नियुक्त कर रखे थे। सौवीर कृषीवल (किसान) की भी एक दिन बारी आई । उस दिन उसने खेत में बेल ले जाकर और उन्हें हल में नियुक्त कर उस खेत को जोतना प्रारंभ कर दिया । खेत जोततेर बैल थक गये वे बीचर में खडे भी होने लगे। ग्रीष्मकाल के ताप से अतिशय संतप्त होकर वे क्षुत्पिपासा से अत्यंत व्याकुल हो गए और इस बात की प्रतीक्षा करने लगे कि कब हम हल से मुक्तहोवें और कब घास आदि खाकर अपनी क्षुधा को शांत करें। इसो अभिप्राय से वे वेचारे बार बार अपने हाली सौवीर के मुखकी ओर भी દાંત–વિંધ્યાચળ પ્રદેશમાં એક હુંડ નામનું ગામ હતું. તેમાં એક નિર્ધન સોવીર નામને ખેડુત રહેતું હતું. કુટુંબ મેટું હોવાના કારણે તેને સદા તેના પાલન પિષણની ચિંતા રહ્યા કરતી હતી. આ ચિંતાના બોજાના કારણે તેનું શરીર ઘસાઈ ગયું હતું. વિંધ્યાચળ પ્રદેશના ગિરિમેન રાજાએ વારા પાડીને પાંચસે હળે જોડવા માટે પાંચસો ખેડુતેને નિયુકત કરી રાખ્યા હતા. સૌવીર ખેડૂતને પણ એક વખત વારે આવ્યો. એ દિવસે તેણે ખેતરમાં બળદ લઈ જઈને હળ તૈયાર કરી ખેડવાનું શરૂ કર્યું. ખેતર ખેડતાં ખેડતાં બળદ થાકી ગયા અને વચમાં વચમાં ઉભા રહેવા લાગ્યા. ઉનાળાના સખ્ત તાપથી અતિશય સંતપ્ત થઈને ભૂખ તરસથી તે ઘણા વ્યાકુળ બની ગયા. અને એ વાતની પ્રતીક્ષા કરવા લાગ્યા કે, કયારે અમને હળથી મુકત કરવામાં આવે અને કયારે ઘાસ વગેરે ખાઈ ભૂખને શાંત કરીએ. આવા ભાવથી તે બીચારા વારંવાર પોતાના માલીક સોવીરના મોઢા તરફ જોતા હતા. પરંતુ તેમની આ ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #512 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रियदर्शिनी टीका. अ० २ गा० ३१ भलाभपरिषहजये ढंढणमुनिदृष्टान्तः ४५७ पुनः सौवीरमुखम् । परंतु सौवीरस्तान् न मुञ्चति । तेन भक्तपानवेलायामेकचासोऽधिकः कर्षितस्तेन वृषभाणां भक्तपानान्तरायो जातः, ततश्चान्तरायकर्म सौवीरेण बद्धम् । अथाऽसौ मृत्वा वहुकालं संसारे परिभ्रम्य, कदाचिद् गोपालदारकभवे वने गावारयन् कस्मिंश्चित्तरुतले बद्धसदोरकमुखवत्रिकं पटकायपालकं मुनिं दृष्टवान् । तत्र तद्देशनां निशम्य स सौवीरस्तस्मिन् गोपालदारकभवे प्रव्रजितः । तदनन्तरं कालमासे कालं कृत्वा सौधर्मकल्पे देवत्वेन समुत्पन्नः । ततश्रयुतोऽसौ द्वारदेखने लगते थे, परन्तु सौवीर ने उनकी इस परिस्थिति पर जरा भी ध्यान नहीं दिया और न उन्हें छोड़ा ही । प्रत्युत उनके खाने पीने के समय में उसने एक चास (हलरेखा) और अधिक जोता । इससे सौवीर को प्रबल अंतराय कर्म का बंध हुआ । कुछ काल के बाद मर कर उस पर्याय से पर्यायान्तरित हुआ । बहुत काल तक इसने संसार परिभ्रमण किया । संसारपरिभ्रमण करते२ किसी समय यह गवाल के घर में जन्मा । बडा होने पर गायों को चराता था। एक दिन जंगल में इसकी दृष्टि वृक्ष के नीचे बैठे हुए एक मुनिराज पर जो षट्काय के जीवों को यतना करने में तत्पर थे, तथा मुख पर जिनके दोरासहित मुखका बंधी हुई थी उन पर पड़ी। उनके पास पहुँचकर इसने उनसे धर्मदेशना सुनी। उसका प्रभाव इसकी आत्मा पर इतना पड़ा कि यह उसी समय दीक्षित हो गया। साधुचर्या का ठीकर तरह निर्वाह करते हुए वह मृत्यु के अवसर में कालधर्म पाकर सौधर्म देव પરિસ્થિતિ ઉપર સૌવીરે નતા જરા પણ ધ્યાન આપ્યું કે નતા તેમને ધુંસરીથી છેડયા. વધારામાં તેમના ખાવા પીવાના સમયને વખતે એક ચાસ વધારે ખેડાવ્યા, આથી સૌવીરને પ્રમળ અંતરાયકના અંધ થયા. ઘેાડા સમય પછી સૌવીર ખેડૂત મરીને પર્યાયથી પર્યાયાન્તરિત થયા. ઘણા કાળ સુધી તેણે સંસારમાં પરિભ્રમણ કર્યું. સંસારપરિભ્રમણ કરતાં કરતાં કાળાંતરે તે એક ગાવાળને ત્યાં જનમ્યા. મેાટા થતાં તે ગાયાને ચરાવતા હતા. એક દિવસ જંગલમાં તેની દષ્ટી ઝાડની નીચે બેઠેલા એક મુનિરાજ ઉપર પડી, જે ષટકાયના જીવાની રક્ષા કરવામાં તત્પર હતા. તેમના મેાઢા ઉપર દ્વારા સાથે એક મુખવસ્ત્રિકા બાંધેલી હતી. તેની પાસે પહોંચીને તેમની પાસેથી ધમ દેશના સાંભળી. એને પ્રભાવ તેના આત્મા પર એવા પડયા કે તે એજ સમયે દીક્ષિત બની ગયા. સાધુચર્યાને ઠીક ઠીક નિર્વાહ કરતાં કરતાં તે મૃત્યુના અવસરે કાળધમ પામ્યા અને તે સૌધમ દેવ ३० ५८ ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર ઃ ૧ Page #513 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययनसूत्रे कायां श्रीकृष्णवासुदेवगृहे पुत्रत्वेन समुत्पन्नः । स च ढंढणनाम्ना प्रसिद्धो जातः । अथैकदा स ढंढणकुमारः श्रीमेमिनाथ तीर्थकरस्य समीपे प्रत्रजितः। भिक्षाचर्यायां प्रवृत्तोऽसौ श्रीकृष्णस्य पुत्रोऽपि त्रिजगद्गुरोस्तीर्थकरस्य शिष्योऽपि स्वर्गलक्ष्मीजित्वरसंपत्समन्वितायां विशालायां द्वारकायां नगर्यां महेभ्यानां भवनेष्वषि पर्यटन लाभान्तरायवशात् किंचिदपि मासुकैषणीयं न लभते । ततोऽसौ क्षुधापिपासया शुष्कशरीरः श्रीनेमिनाथस्वामिनं तदलामकारणं पृष्टवान् श्रीनेमिनाथ स्वामिना कथितम्-वत्स ! अस्माद् पूर्व नवनवतिलक्ष-नवनवतिसहस्र-नवशत-नवनवति ९९,९९,९९९ तमे भवे त्वं विन्ध्याचलपदेशे हुण्डकग्रामें सौवीरनामा कृषीवल लोक में देवपने से उत्पन्न हुवा। वहां की स्थिति समाप्त होने पर यह वहां से च्यवकर छारिकामगरी में श्रीकृष्ण वासुदेव के घर पुत्ररूप से उत्पन्न हुआ और वहां इसका नाम ढंढणकुमार रक्खा गया। इस ढंढणकुमार ने श्रीनेमिनाथतीर्थकर के समीप धर्मदेशना सुनकर दीक्षा अंगीकार की। भिक्षाचर्या करने को वे स्वयं जाते थे। श्रीकृष्ण के पुत्र एवं त्रिजगद्गुरु तीर्थकर नेमिनाथ प्रभु के शिष्य होने पर भी उस विशाल द्वारिका नगरी में इनको बडे२ सेठ साहूकारोंके घरों में जाने पर भी लाभान्तराय कर्म के उदय से थोडे से भी प्रासुक एषणीय आहार का लाभ नहीं होता, अतः ये दिन प्रतिदिन शुष्क शरीर होने लगे । भगवान् नेमिनाथ के पास जाकर एकदिन इन्होंने आहार के अलाभ का कारण पूछा तो भगवान् ने कहा कि वत्स! तूं इस भव से पहिले निन्यानवे लाख निन्यानवे हजार नौ सो निन्यानवें ९९,९९,९९९ भव में विंध्याचल प्रदेश में हुण्डक ग्राम में सौवीर नाम લેકમાં દેવપણે ઉત્પન્ન થયા. ત્યાંની સ્થિતિ સમાપ્ત થતાં તે ત્યાંથી ચવીને દ્વારિકા નગરીમાં શ્રી કૃષ્ણ વાસુદેવને ઘેર પુત્ર રૂપે ઉત્પન્ન થયા અને ત્યાં તેમનું નામ ઢઢણ રાખવામાં આવ્યું. આ ઢંઢણકુમારે શ્રીનેમીનાથ તીર્થંકર પાસે ધર્મદેશના સાંભળી દીક્ષા ગ્રહણ કરી. ભિક્ષાચર્યા કરવા માટે તે સ્વયં જતા હતા. શ્રીકૃષ્ણના પુત્ર તેમજ ત્રીજગન્નુરૂ તીર્થકર નેમીનાથ પ્રભુના શિષ્ય હોવા છતાં પણ તે વિશાળ દ્વારિકા નગરીમાં તેને મોટા મોટા શેઠ શાહુકારેના ઘરમાં જવા છતાં પણ લાભાંતરાય કર્મના ઉદયથી થોડા પણ પ્રાસુક આહારને લાભ મળતું ન હતું. આથી એ દિનપ્રતિદિન શુષ્ક શરીરવાળા બનવા લાગ્યા. ભગવાન નેમીનાથ પાસે જઈને એક દિવસ તેમણે આહારના અલાભનું કારણ પૂછ્યું, ભગવાને કહ્યું કે, હે વત્સ ! તું આ ભવથી પહેલાં નવાણું લાખ નવાણું હજાર નવસો નવાણુના ૯૯૯૯ ભવમાં વિંધ્યાચળ પ્રદે ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #514 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रियदर्शिनी टीका अ० २ गा. ३१ अलाभपरीषहजये ढंढणमुनिदृष्टान्तः आसीः । तत्र भवे हलयोजितवृषभाणां भोजनपानान्तरायस्त्वया कृतः। तदन्तरायकर्माऽस्मिन् भवे इदानीमुदितम्, अतोऽयमलाभपरीषहस्त्वया सोढव्यः । तदनु ढंढणकुमारेण स्वपूर्वभववृत्तान्तं श्रुत्वा तदन्तरायकर्म क्षपयितुं गाढसंवेगेन सोत्साहमभिग्रहो गृहीतः - अद्यप्रभृति मया परलाभो न ग्राह्य इति । तदनन्तरमभिग्रहमुपादाय स प्रतिदिनं भिक्षार्थमटति, परंतु - लाभान्तरायोदयान्न किंचित् प्राप्नोति, तथापि नो द्विग्नो भवति, नापि चान्यं निन्दति किन्तु, नित्यमदीनमानसः सन् स्वं कर्मैवाचिन्तयत् । ४५९ के एक किसान की पर्याय में था । उस समय तूने हल में जुते हुए बैलों के भोजन पान में अन्तराय डाला था । वह अंतराय कर्म इस भव में तुम्हारे इस समय में उदय में आया है इसलिये इस अलाभ परीषह को तुझे सहन करना चाहिये । भगवान् द्वारा इस प्रकार कहे गये अपने पूर्वभव के वृत्तान्त को सुनकर ढंढणकुमार मुनिने उस बद्ध अन्तराय को नष्ट करने के निमित्त बडे ही उत्साह के साथ गाढ़ वैराग्य से युक्त अन्तःकरण होकर ऐसा अभिग्रह ग्रहण किया कि आज से लेकर मैं परलाभ को ग्रहण नहीं करूँगा " अर्थात् दूसरे के निमित्त से मिला हुवा आहार पानी नहीं ग्रहण करूँगा । इस प्रकार अभिग्रह ग्रहण कर वे प्रतिदिन भिक्षाचर्या को जाते परन्तु लाभान्तराय कर्म के उदय से उनको किञ्चित् भी आहार का लाभ नहीं होता, परन्तु फिर भी इस परिस्थिति में भी उनके चेहरे पर उद्विग्नता के चिह्न जरा भी दिखलाई नहीं पड़ते वे उद्विग्नचित्त नहीं होते और न 46 શમાં હૂંડક ગામમાં સૌવીર નામથી એક ખેડુતના પર્યાયમાં હતા. તે સમયે તે હળમાં જોડેલા બળદને લેાજન પાનમાં અંતરાય નાખ્યો હતા. તે અંતરાય ક્રમ આ ભવમાં તમારા માટે આ સમયે ઉદયમાં આવેલ છે. માટે આ અલાભપરીષહને તમારે સહન કરવા જોઈએ, ભગવાન તરફથી કહેવામાં આવેલ આ પ્રકારના પોતાના પૂર્વભવના વૃત્તાંતને જાણી ઢઢણુકુમાર મુનિએ આ અસ ખદ્ધ અંતરાયના નાશ કરવા માટે ખૂબ જ ઉત્સાહથી ગાઢ વૈરાગ્યયુકત અંતઃકરણવાળા બની એવા અભિગ્રહ ધારણ કર્યો કે, “ આજથી હું પરલાભને ગ્રહણ નહીં કરૂં, '' અર્થાત્ બીજાના નિમિત્તથી મળેલ આહાર પાણી ગ્રહણ નહીં કરૂ. આ પ્રકારના અભિગ્રહ ગ્રહણ કરી તે પ્રતિદિન ભિક્ષાચર્યો માટે જતા પરંતુ લાભાન્તરાય કર્માંના ઉદ્દયથી તેમને થાડા પણુ આહારના લાભ મળતા નહી'. ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર ઃ ૧ Page #515 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६० उत्तराध्ययनसूत्रे __ अथान्यदा श्रीकृष्णवासुदेवः श्रीनेमिनाथस्वामिनं पृष्टवान्-भगवन् ! अष्टा दशसहस्रेषु श्रमणेषु कोऽस्ति दुष्करकारकः?, श्रीनेमिनाथस्वामिना प्रोक्तम्-सर्व श्रमणदुष्करकारकाः, ढंढणमुनिस्तु अतिदुष्करकारकः । श्रीकृष्णेनोक्तम्-कथम्?, श्रीनेमिनाथस्वामी प्राह-अलाभपरीषहस्य सम्यक् सहनेन । ततो भक्तिभरेण संजातरोमाञ्चः श्रीकृष्णोऽवदत्-प्रभो ! महात्मा ढंढणमुनिः क्व विद्यते ?।श्री भगवानाह-भिक्षार्थं द्वारकापुरों गतः, नगर्या प्राविशन्नेव तं द्रक्ष्यसि। तद्वचनं श्रुत्वा श्रीकृष्णः श्रीनेमिजिनं प्रणम्य चलितः । ततः पुरद्वारे प्रविशन् श्रीकृष्णः किसी दूसरे की निन्दा ही करते । निन्दा करते भी तो अदीनमन होकर अपने अशुभ कर्म की। ___ एक दिन की बात है कि श्रीकृष्ण वासुदेव ने श्रीनेमिनाथप्रभु से पूछा कि भगवन् ! इन अठाहर हजार मुनियों में इस समय दुष्करकारक कौन है । प्रभु ने कहा सब ही श्रमण दुष्करकारक हैं परन्तु ढंढणमुनि विशेष रीति से दुष्करकारक है । वासुदेव ने कहा यह क्यों ? प्रभुने कहा अलाभपरीषह के सम्यक् सहन करने से । यह सुनते ही श्रीकृष्ण का समस्त शरीर भक्ति के आवेश से रोमांचित हो गया। श्रीकृष्ण ने कहा-प्रभो! महात्मा ढंढणमुनि इस समय कहां विराजमान हैं । प्रभु ने उत्तर में कहा कि वे इस समय भिक्षा के लिये द्वारिका में गये हैं । तुम्हें वहां जाते ही वे मिल जावेंगे। भगवान् की बात सुनकर वासुदेव श्रीकृष्ण नेमिनाथ भगवान को वंदना करके वहांसे चलेगये। આ પરિસ્થિતિમાં પણ તેમના ચહેરા ઉપર ઉદ્ધીગ્નતાનું ચિહ્ન દેખાતું નહીં. એ ઉદ્ધીગ્નચિત્ત ન બનતા. અને બીજા કેઈની નિંદા પણ કરતા નહીં. નિંદા કરતા તો તે ફકત પિતાના અશુભ કર્મની. એક દિવસની વાત છે કે, શ્રી કૃષ્ણ વાસુદેવે શ્રી નેમીનાથ પ્રભુને પૂછયું. કે, ભગવન્! આ અઢારહજાર મુનિઓમાં આ સમયે દુષ્કર સ્થિતિ કેણ ભોગવે છે? પ્રભુએ કહ્યું કે, બધા શ્રમણ દુષ્કર કષ્ટ ભોગવે છે છતાં ઢંઢણમુનિ આ બધાથી વધુ દુષ્કર સ્થિતિમાં છે. વાસુદેવે કહ્યું એમ કેમ? પ્રભુએ કહ્યું કે, અલાભપરીષહને સમ્યક્ સહન કરવાથી. આ સાંભળતાં જ શ્રી કૃષ્ણનું શરીર ભકિતના આવેશથી રોમાંચિત બની ગયું અને કહ્યું, પ્રભુ ! મહાત્મા ઢંઢણ મુનિ આ સમયે કયાં બિરાજે છે ? પ્રભુએ ઉત્તરમાં કહ્યું કે, તે આ સમયે દ્વારિકામાં ભિક્ષા માટે ગયા છે, તમને ત્યાં જતાં જ ભેટો થઈ જશે. ભગવાનની આ વાત સાંભળી વાસુદેવ શ્રીકૃષ્ણ નેમીનાથ ભગવાનને વંદના કરી ત્યાંથી ચાલી નીકળ્યા. ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #516 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रियदर्शिनी टीका अ० २ गा. ३१ अलाभपरीषहजये ढंढणमुनिदृष्टान्तः ४६१ कृशशरीरं शान्तचेतसं ढंढणमुनिं दृष्टवान् । ततस्तद्गुणाकृष्टोऽतिमुदितः श्रीकृष्णो हस्तिस्कन्धादवतीर्य महीतलमिलन्मौलिस्तं ववन्दे । तदा तेन वन्द्यमानोऽसौ ढंढणमुनिः केनचिदिभ्येन दृष्टः । तदा तेनेभ्येन चिन्तितम्-अहो ! एष महात्मा श्रीकृष्णेन वन्द्यते । एवं चिन्तयत एव तस्येभ्यस्य गृहे ढंढणमुनिः प्रविष्टः । तेनोत्कृष्टभावेन मोदकैः प्रतिलम्भितः। ततोऽसौ ढंढणमुनिः श्रीनेमिनाथस्वामिनः समीपं गत्वा भिक्षा प्रदय पृच्छतिभगवन् ! मम लाभान्तरायः क्षीणः किम् ?, श्रीनेमिनाथस्वामिना प्रोक्तम्-न तव उस समय उन्हों ने कृशशरीर एवं शान्तचित्त ढंढणमुनि को पुरद्वार में प्रवेश करते हुए देखा । देखते ही वे अपने गजराज से नीचे उतरे और झुककर उनको वंदना करने लगे। कृष्णवासुदेव को वंदना करते हुए उस समय किसी सेठ ने देख लिया। देखते ही उसने विचार किया कि जिस महात्मा को वंदना ये वासुदेव कर रहे हैं वह कोई साधारण साधु नहीं हैं, ऐसा विचार कर ही रहा था कि ढंढणमुनि इतने में उसी सेठ के घर में प्रविष्ट हुए । उसने बडे ही उत्कृष्टभावों से सम्पन्न होकर ढंढणमुनि को मोदकों की भिक्षा दी । भिक्षा लेकर वे वापिस अपने स्थान पर आ गये और जो कुछ भिक्षा में उनको मिला था वह उन्हों ने श्रीनेमिनाथ भगवान् को दिखलाया। दिखलाकर फिर भगवान् से उन्हों ने पूछा कि हे भगवान् ! मेरा लाभान्तराय कर्म क्षीण हो चुका है क्या ?। भगवान् ने कहा अभी नहीं, भिक्षा में जो ये એ સમયે તેમણે કુશશરીરવાળા અને શાંતચિત્ત ઢંઢણ મુનિને દ્વારિકાપુરીના દ્વારમાં પ્રવેશ કરતી વખતે જોયા. જોતાં જ પિતાના હાથી ઉપરથી નીચે ઉતરી ઢઢણમુનિ પાસે જઈ પહોંચ્યા અને નીચા નમી વંદના કરી. કૃષ્ણ વાસુદેવને વંદના કરતા કેઈ શેઠ જોઈ ગયા અને મનમાં વિચાર કર્યો છે, જે મહાત્માને વાસુદેવ વંદના કરી રહ્યા છે તે કઈ સાધારણ સાધુ ન હોવા જોઈએ. જ્યાં શેઠ એ વિચાર કરી રહ્યા હતા ત્યાં ઢઢણમુનિ એજ શેઠને ઘેર ભિક્ષા માટે જઈ પહોંચ્યા. એણે ખૂબ જ આદર ભાવથી ઢઢણમુનિને લાડુની ભિક્ષા આપી. ભિક્ષા લઈ તે પિતાના સ્થાન ઉપર પહોંચ્યા અને પિતાને જે કાંઈ ભિક્ષામાં મળ્યું હતું તે તેમણે ભગવાન શ્રી નેમીનાથને બતાવ્યું. ભગવાનને બતાવીને પછી તેમણે પૂછ્યું કે, ભગવન્! મારૂં લાભાન્તરાય કર્મ ક્ષીણ થઈ ગયું કે કેમ ? ભગવાને કહ્યું, ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #517 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६२ उत्तराध्ययनसूत्रे कर्म क्षीणम् , अयं तु वासुदेवस्य लाभः, यतः श्रीकृष्णस्त्वां वन्दितवान् , अतस्ते मोदकान् श्रेष्ठी दत्तवान् । तद्वचनं श्रुत्वा ढंढणमुनिः 'परलाभो न कल्पते' इत्युक्त्वा रागद्वेषवर्जितो मूर्छारहितः सन् नगराद् बहिर्गत्वा मासुकस्थण्डिले मोदकान् यतनया परिष्ठाप्य, तापदैन्यायकरणेन लाभान्तरायकर्म क्षपयन् क्षपकश्रेणिमारुह्य केवली जातः। एवमन्यैरपि मुनिभिरलाभपरीषहः सोढव्यः ॥ ३१ ॥ अलाभादन्तप्रान्ताद्याहारलाभाद् वा शरीरे रोगा उत्पद्यन्ते, अतः षाडशं रोगपरीषहजयं माहमूलम्-नच्चों उप्पइयं दुक्खं, वेयणाए दुट्टिए । अंदीणो ठावए पन्नं, पुट्टो तत्थऽहियासए ॥३२॥ मोदकों का लाभ तुम्हें हुआ है वह लाभ तुम्हारा नहीं है किन्तु यह लाभ वासुदेव का है, कारण कि तुम को कृष्ण ने वंदना की इसलिये सेठ ने तुमको ये मोदक वहराये, अतः तुम्हारे इस लाभ में निमित्त कृष्ण हैं । ढंढणमुनि ने भगवान् के इन वचनों को सुनकर "परलाभ मुझे कल्पता नहीं है " ऐसा कहकर रागद्वेष से एवं मूर्छा से वर्जित होते हुए नगर के बाहर जाकर किसी प्रासुक भूमि में उन मोदकों को यतनापूर्वक परिठवदिया । ताप एवं दीनता के नहीं करने से लाभान्तरायकर्म को नष्ट करते हुए उन ढंढणमुनिने क्षपकश्रेणी पर आरोहण कर केवलज्ञान प्राप्त कर लिया। इसी तरह अन्यमुनियों को भी अलाभ परिषह को सहन करना चाहिये ॥३१॥ હજી સમય બાકી છે. ભિક્ષામાં લાડવાને લાભ તમને થયો છે તે લાભ તમારે નથી પરંતુ એ લાભ વાસુદેવને છે. કારણ કે કૃષ્ણ તમારી વંદના કરી આ જોઈને શેઠે તમને લાડવા વહેરાવ્યા છે. આથી તમારા આ લાભમાં નિમિત્ત કૃણ બન્યા છે. ઢઢણમુનિએ ભગવાનનાં આ વચન સાંભળી બીજાને લાભ મને કપતે નથી” એમ કહી રાગદ્વેષ અને મૂચ્છથી વજીત રહી નગરની બહાર જઈ કઈ પ્રાસુક ભૂમિમાં એ લાડવાને યતના પૂર્વક છોડી દીધા. તપ અને ભિક્ષામાં દીનતા ના કરવાથી લાભાનતરાય કર્મને નષ્ટ કરતાં એ ઢંઢણમુનિએ ક્ષપકશ્રેણી પર આરેહણ કરી કેવળજ્ઞાન પ્રાપ્ત કર્યું. આ રીતે અન્ય મુનિઓએ પણ અલાભ परीष ने सहन ४२ता २२ मे. ॥ ३१ ॥ ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #518 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६३ - १० ११ प्रियदर्शिनी टीका अ० २ गा. ३२ रोगपरीषहजयः छाया-ज्ञात्वा उत्पतितं दुःखं, वेदनया दुःखार्तितः । अदीनः स्थापयेत् प्रज्ञां, स्पृष्टस्तत्र अधिसहेत ॥ ३२ ॥ टीका-" नच्चा" इत्यादि । वेदनया वेदनीयकर्मणा दुःखं=श्वासकासादिषोडशविधरोगसम्बन्धिकं कष्टम् उत्पतितम् उत्पन्नं भवतीति ज्ञात्वा दुःखार्तितः = भाविदुःखशङ्कयाऽऽर्तभावं गतः अदीनः = दैन्यभावरहितः सन् प्रज्ञा=बुद्धिं स्थापयेत्=भाविदुःखशङ्कया चलन्ती बुद्धि स्थिरीकुर्यात् । तथा यदि साधुः स्पृष्टः श्वास-कास-ज्वर-दाहकुक्षिशूल-भगन्दरा-शौंजीण-दृष्टिरोग-मूर्धशूला-रुच्य-क्षिशूल-कर्णशूल-कण्डू___आहार के अलाभ से अथवा अन्तप्रान्त आहार के लाभ से शरीर में रोग उत्पन्न हो जाता है इसलिये सोलहवां रोगपरीषह साधु को जीतना चाहिये, यह बात सूत्रकार कहते हैं-'नच्चा' इत्यादि । अन्धयार्थ-(वेयणाए-वेदनया) वेदनीय कर्म के उदय से (दुक्खदुःखं) श्वास कास आदि सोलह प्रकार के रोग संबंधी दुःख ( उप्पइयंउत्पतितम् ) उत्पन्न होता है ऐसा (नच्चा-ज्ञात्वा ) जानकर (दुहहिएदुःखार्तितः) भावी दुःख की आशङ्का से आर्त भाव को प्राप्त हुआ मुनि (अदीणो-अदीनः) दैन्यभाव से रहित होकर (पन्न ठावए-प्रज्ञा स्थापयेत् ) भावी दुःख की आशङ्का से चलित होती हुई अपनी बुद्धि को स्थिर करे। यदि साधु (पुटो-स्पृष्टः) श्वास, कास, ज्वर, दाह, कुक्षिशूल, भगन्दर, अर्श, अजीर्ण, दृष्टिरोग मूर्धशल, अरुचि, नेत्रशूल આહારના અલાભથી અથવા અહિતકર્તા (અપગ્ય) આહારથી શરીરમાં રેગ થવા સંભવ છે તેથી સેળ રેગપરીષહ સાધુએ જીત જોઈએ એ वात सूत्र१२ ४ छ—'मच्चा' छत्याल, ___qयाथ-वेयणाए-घेदमया वहनीय भन। यथा दुक्खं-दुःखम् श्वास पास मास प्रारना । सधी हु: ५ उप्पइयं-उत्पतितम्, अत्पन्न थाय छ मेनु नच्चा-ज्ञात्वा की दुहट्टिए-दुःखार्तितः मावी भनी माशाथी मातापर प्रात ४२नार मुनि अदीणो-अदीनः छैन्य माथी २डित मनी पन्नं ठावए-प्रज्ञा स्थापयेत् लावी हुमनी माथी यहीत थती पोतानी मुद्धिन स्थिर ४२. 24 ने साधु पुट्ठो-स्पृष्टः १ श्वास, २ ४॥स, 3 w१२, ४ ४, ५ ५४is, ૬ ભગન્દર, ૭ હરસ, ૮ અજીર્ણ, ૯ દષ્ટિગ, ૧૦ મુર્ધશૂળ, ૧૧ અરૂચિ, ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #519 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४ उत्तराध्ययनसूत्रे दररोग -कुष्ठे-ति षोडशविधरोगातङ्कराक्रान्तो भवेत् , तर्हि तत्र-तस्मिन् समये स साधुः तान् रोगातङ्कान् अधिसहेत-" यदधुनाऽहं व्याधिना बाध्यमानोऽस्मि तदेतन्मम स्वस्यैव पूर्वकृतकर्मणः फलम् " इति समभावमवलम्ब्य रोगपरीषहसहनं कुर्यादित्यर्थः ॥ ३२॥ कर्णशल, कण्डू-खजुहट, उदररोग, और कुष्ठ, इन सोलह प्रकार के रोगों से आक्रान्त हो, तो (तत्थ-तत्र) उस समय वह साधु ( अहियासए-अधिसहेत ) उन रोगों को शान्तिपूर्वक सहन करे अर्थात्'मैं जो इस समय व्याधि से आक्रान्त हूं यह मेरे पूर्वभव में किये हुए कर्मों का फल है ऐसा विचार कर मुनि रोगपरीषहको समभाव से सहन करे ।। ३२ ॥ भावार्थ-इस गाथा के द्वारा सूत्रकार साधु को रोगपरीषह सहन करने का उपदेश दे रहे हैं । वे कहते हैं कि-संसारी एवं मुनियों में रोगों को सहन करने की विचारधारा में बड़ा अन्तर रहता है। संसारी तो प्रायः रोगों के उत्पन्न होते ही अधीर हो जाते हैं तब संयमी जन उनका साम्हना बड़े ही धर्य से करते हैं । रोगों से पीडित होने पर भी साधु को अपनी बुद्धि अस्थिर बनानी नहीं चाहिये-प्रत्युत अस्थिर होने पर उसे मानसिक बल द्वारा स्थिर कर धर्मध्यान में लीन बनाये रखना चाहिये। तथा विचार भी ऐसा करना चाहिये-“ये जो ૧૨ નેત્રશૂળ, ૧૩ કર્ણશળ, ૧૪ ખસ ખુજલી, ૧૫ ઉદરરોગ, અને ૧૬ કે. मा सो प्रा२ना रोगथी व्यापता थाय तो तत्थ-तत्र से समये ते साधु अहियासए-अधिसहेत थे शमन शांतिपूर्व सन ४२. अर्थात-ई । समय रे વ્યાધિથી પીડિત થઈ રહ્યો છું એ મારા પૂર્વભવનાં કરેલાં કર્મને બદલો છે” એ વિચાર કરી મુનિ રોગને સમભાવથી સહન કરે છે ૩૨ છે ભાવાર્થ-આ ગાથા દ્વારા સૂત્રકાર સાધુને રેગપરીષહ સહન કરવાને ઉપદેશ આપે છે, તેઓ કહે છે કે –સંસારીઓ અને મુનિઓને રોગોમાં તેને સહન કરવાની વિચારધારામાં ભારે અંતર હોય છે. સંસારી તો રેગોને ઉત્પન્ન થતાં જ અધિરા થઈ જાય છે ત્યારે સંયમી જન તેને અત્યંત વૈર્યથી સામને કરે છે. રોગથી પિડીત હોવા છતાં પણ સાધુએ પોતાની બુદ્ધિને અસ્થિર નહીં થવા દેવી જોઈએ. પરંતુ અસ્થિર થાય ત્યારે તેને માનસિક બળદ્વારા સ્થિર કરીને લીન બનાવી રાખવી જોઈએ. અને વિચાર પણ એ કરે જોઈએ ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર: ૧ Page #520 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रियदर्शिनी टीका. अ० २ गा. ३३ रोगपरीषद्दजये कालवैशिकदृष्टान्तः रोगाक्रान्तस्य मुनेः कर्तव्यमाह - मूलम्-तेगिच्छं नाभिनंदिजा, संचिक्खत्तगवेसए । 66 छाया - चिकित्सां नाभिनन्देत् संतिष्ठेत आत्मगवेषकः । " एतत् 'खु ' तस्य श्रामण्यं, यन्न कुर्यात् न कारयेत् ॥ ३३ ॥ टीका-' तेगिच्छं ' इत्यादि । ऐ खु तस्स सामन्नं, जं' नें कुडेजा ने कारेंए ॥ ३३ ॥ " मुनिः, चिकित्सां = रोगप्रतीकारं, नाभिनन्देत् = नानुमोदेत । अनुमतिनिषेधाचिकित्सायाः करणं कारणं तु दूरत एव प्रतिषिद्धम् । किं तु आत्मगवेषकः = आत्मानम् - आत्मकल्याणं गवेषयति-संयमरक्षणेनेति आत्मगवेषकः स्वात्मकल्याणार्थे चारिपालकः सन् संतिष्ठेत् = समाधिना तिष्ठेत् । ' खु ' = यस्मात् एतत् तस्य = श्रमकुछ मुझे रोगादिक हो रहे हैं वे सब मेरे ही अशुभ कर्मोंके फल हैं ॥३२॥ रोगाक्रान्त मुनि के कर्तव्य को सूत्रकार इस गाथाद्वारा कहते हैंतेगिच्छं ' इत्यादि । 9 अन्वयार्थ - मुनि (ते गच्छं - चिकित्साम् ) रोग के प्रतीकार की (नाभिनंदिज्जा - न अभिनंदेत्) अनुमोदना नहीं करे। मुनि जब चिकित्सा तक की अनुमोदना नहीं करता है तो उसकी चिकित्सा करना और कराना तो बहुत दूरकी बात है । किन्तु ( अन्तगवेसए - आत्मगवेषकः ) जो संयम की रक्षा से आत्मकल्याण का गवेषक है उसका कर्तव्य है कि वह (संचिक्खे - संतिष्ठेत्) रोगादिक अवस्था में भी समाधि भाव से रहे । (खु - यस्मात् ) क्यों कि ( तस्स - तस्य ) उस मुनि का ( एयं - एतत् ) यही જે કાંઈ મને રાગ આદિ થયેલ છે તે મધાં મારા અશુભ કર્મોનુ ३१ छे." ॥ ३२ ॥ આ ४६५ રાગાક્રાંત મુનિનું કર્તવ્ય શું છે તે સૂત્રકાર આ ગાથા દ્વારા કહે છે. 'afries' Seals. मन्वयार्थ - भुनि तेगिन्छ - चिकित्साम् रेजिना प्रतिहारनी नाभिनंदिज्जाનમિત્તત્ અનુમેદના ન કરે. મુનિ જ્યારે ચિકિત્સા સુધીની અનુમેાદના નથી કરતા ત્યારે તેની ચિકિત્સા કરવી અથવા કરાવવી ઘણી દૂરની વાત છે. ગત્ત વેસ - आत्मगवेषकः ने संयमनी रक्षाद्वारा यात्भयाशुना गवेष होय छे तेनु उर्तव्य छे है, संचिक्खे-संतिष्ठेत् रोगादि अवस्थामा सभाधीलावथी रहे खु- यस्मात् भ है, तस्स-तस्य भे भुनिनुं एयं एतत् ४ सामण्ण - श्रामण्यम् श्रभयुपशु छे उ० ५९ ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર ઃ ૧ Page #521 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - उत्तराध्ययनसूत्रे णस्य, श्रामण्यं श्रमणधर्मः, यत्-चिकित्सां स्वयं न कुर्यात् , अन्येन वा न कारयेत् , उपलक्षणत्वात् कुर्वन्तमन्यं नानुमोदेत, इत्यपि बोध्यम् । इदं जिनकल्पिकापेक्षयाऽभिहितम् । स्थविरकल्पापेक्षया तु सावधचिकित्सा वर्जिता, निरवद्यचिकित्साया अपि ऐच्छिकं वर्जनम् । अत्र दृष्टान्तः प्रदर्श्यते___ मथुरानगयीं शत्रुवित्रासी जितशत्रुनामा भूपतिरासीत् । तेन सर्वाङ्गसुन्दरी कालानाम्नी वेश्या स्वान्तःपुरे स्थापिता। तस्यां राज्ञः पुत्रो जातः। तेन जितशत्रु भूपतिना कालावेश्याया अगजातोऽयमिति हेतोस्तस्य “कालवैशिक " इति नाम तो (सामण्णं-श्रामण्यम् ) श्रमणपना है (जं न कुज्जा न कारए-यत्न कुर्यात् न कारयेत्) जो वह स्वयं भी चिकित्सा न करे और न दूसरों से करावे । तथा उपलक्षण से करने वाले दूसरे की अनुमोदना न करे। यह जो इस प्रकार कहा गया है वह जिनकल्पी साधुओं की अपेक्षासे कहा गया है। स्थविरकल्पियों की अपेक्षा तो सावद्य चिकित्सा ही वर्जित है। निरवद्यचिकित्सा चाहे तो वे करावे न चाहें नहीं करावे यह उनकी इच्छा पर निर्भर है। दृष्टान्त-मथुरा नगरी में शत्रु को त्रास पहुँचाने वाला जितशत्रु नाम का एक राजा था। उसने काल नाम की एक सर्वाङ्ग सुन्दरी वेश्या को अपने अन्तःपुर में रखी थी। उस वेश्या के एक पुत्र उत्पन्न हुआ। राजाने इस पुत्र का नाम इस ख्याल से कालवैशिक रखा कि लोगों में इसकी प्रसिद्धि “यह कालवेश्या से पैदा हुआ है" इस रूप से हो न त ज नकुज्जा न कारए-यत् न कुर्यात् न कारयेत् स्वयं वित्सिा न કરે અગર બીજાઓ પાસે ન કરાવે, તથા ઉપલક્ષણથી બીજા કરવાવાળાઓની અનુદના ન કરે. એજ પ્રમાણે કહેવામાં આવેલ છે તે જનકલ્પી સાધુઓની અપેક્ષાથી કહેવામાં આવેલ છે. સ્થવિરકલ્પિઓની અપેક્ષાએ તે સાવદ્ય ચિકિત્સા જ વજીત છે. નિરવદ્ય ચિકિત્સા ચાહે તે તે કરાવે અને ન ચાહે તે ન કરાવે. તે તેની ઈચ્છા પર નિર્ભર છે. દષ્ટાંત–મથુરા નગરીમાં શત્રુઓને ત્રાસ પહોંચાડવાવાળા જીતશત્રુ નામના એક રાજા હતા. તેણે કાલ નામની એક સર્વાગ સુંદર વેશ્યાને પિતાના અંતઃપુરમાં રાખેલ હતી. તે વેશ્યાથી તેને એક પુત્ર ઉત્પન્ન થયે. રાજાએ એ પુત્રનું નામ એ ખ્યાલથી કાલશિક રાખ્યું કે એ કાલ વેશ્યાથી પેદા થયેલ છે.” ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #522 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रियदर्शिनी टीका अ० २ गा. ३३ रोगपरीषहजये कालवैशिकदृष्टान्तः ४६७ कृतम् । तस्य कलवैशिकस्य ज्येष्ठा भगिनी जितशत्रुभूपतिना मुद्गशैलनामकनगराधिपाय हतशत्रुनाम्ने नृपाय प्रदत्ता। अन्यदा कदाचित् स कालवैशिककुमारो निशि शृगालशब्दं श्रुत्वा स्वसेवकान् पृच्छति-कस्यायं शब्दः श्रूयते ?, सेवका अब्रुवन्-शृगालस्य, ततः कुमारो ब्रूते तं बद्ध्वा मत्समीपे समानयत, तैः शृगाल आनीतः । क्रीडनप्रियोऽसौ कुमारस्तं यष्टया पुनः पुनस्ताडयति। कालवैशिककुमारेण ताड्यमानोऽसौ शगालः 'खि-खी' शब्दं कुर्वन्नुच्चैराक्रन्दति । तं शब्दं श्रुत्वाऽसौ सहर्ष हसति । एवं ताडितः शृगालः कालं कृत्वा अकामनिर्जरया व्यन्तरदेवो जातः । जाय कालवैशिक की एक बड़ी बहिन थी जिसका व्याह राजा ने मुद्गशेल नामक नगर के अधिपति हतशत्रु के साथ किया था। एक दिन की बात है कि कालवैशिककुमार ने रात्रि में शृगाल का शब्द सुनकर अपने सेवकों से पूछा कि यह शब्द किसका सुनाई दे रहा है ? नौकरों ने कहा कि यह शब्द शगाल का सुनाई पड़ रहा है। कुमार ने कहा उसको बांधकर मेरे पास ले आओ। तब वे शगाल को बांधकर ले आये और कालवैशिककुमार को सौंप दिया। कुमार खेलने का शोकिन था इसलिये वह शुगाल को बार२ लकड़ी का घोदा मारता था। जैसे२ कुमार उसको लकड़ी का घोदा मारता था तैसे२ वह दुःखित होकर " खी खी" शब्द करता हुआ जोर से चिल्लाता था। उसके शब्द को सुनकर कुमार बड़ा हर्षित होता था और वह खूब हँसता था। इस प्रकार कुमारसे ताडित वह शृगाल मर कर अकाम निर्जरा से व्यन्तरदेव हो गया। એની લોકોને જાણ થાય. કાલવૈશિકને એક મોટી બહેન હતી. જેનો વિવાહ રાજાએ મુગલ નગરના અધિપતિ હતશત્રુ રાજા જે કર્યો હતો. એક સમયની વાત છે કે કાલશિક કુમારે રાત્રિના વખતે શીયાળને શબ્દ સાંભળી પિતાના સેવકને પૂછયું કે, આ શબ્દ શેને સંભળાઈ રહ્યો છે? સેવકોએ કહ્યું કે, આ શબ્દ શીયાળને સંભળાય છે. કુમારે કહ્યું કે તેને બાંધીને મારી પાસે લઈ આવો. સેવકો તેને બાંધીને કુમાર પાસે લઈ આવ્યા. અને કાલશિક ને સોંપી દીધું. કુમાર ખેલવાને ભારે શોખીન હતો એટલે તે શીયાળને વારંવાર લાકડીના ગોદા મારવા લાગ્યા. જેમ જેમ કુમાર તેને લાકડીના ગોદા મારવા साया तम तम त हुयी थी ....भी....श५४ ४री. रथी थोडावा લાગ્યું. તેના શબ્દો સાંભળીને કુમાર ઘણે ખુશી થતું હતું અને જોરથી હસતે હતું. આ પ્રમાણે કુમારથી મારવામાં આવેલ તે ગાલ મરીને અકામ નિજ રાથી વ્યંતરદેવ થઈ ગયું. ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #523 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૮ उत्तराध्ययनसूत्रे क्रमेण यौवने वयसि प्राप्ते स कालवैशिककुमारः कदाचित् प्रभासनामकाचाfer समीपे धर्मं श्रुत्वा जातवैराग्यः प्रव्रज्यां गृहीतवान् । स चैकदा एकाकिविहारप्रतिमां प्रतिपन्नो ग्रामानुग्रामं विहरन् मुद्गशैलाख्यं नगरं गतः । तदा तस्यमहामुनेरशेरोगः समुत्पन्नः । स तेन व्याधिना पीड्यमानोऽपि धीरमानसो मनसाऽपि चिकित्सां नेच्छति । चिकित्सायाः करणं कारणं तु तेन दूरत एव निराकृतम् ।' व्याधिः कदा निवर्तिष्यते ' इत्यपि न चिन्तितम्, किंतु 'स्वकृतकर्मणः फलमेतदिति भावयन्नसौ रोगजनितवेदनां सहते स्म । एकस्मिन् दिने जब कुमार यौवन अवस्था में आया तो उसने प्रभास नामक आचार्य के पास धार्मिक उपदेश सुनकर विषयों से विरक्त हो दीक्षा धारण करली । श्रुतज्ञानका खूब अभ्यास किया। जब वे मुनि आगमिक ज्ञान से विशिष्ट ज्ञानी बन चुके तो उन्हों ने एकाकिविहार की प्रतिमा को अंगीकार कर ग्रामानुग्राम बिहार करना प्रारंभ किया । विहार करते २ ये एक दिन मुद्गशैल नामक नगरी में आये। वहां इन्हें बवासीर की बीमारी उत्पन्न हो गई इससे इन्हें अधिकाधिक कष्ट हुआ तो भी उस व्याधि की चिकित्सा के लिये इनका मन भी नहीं हुआ । 'इस व्याधि की निवृत्ति कब होगी' इतना तक भी संकल्प उनके दिल में नहीं उठा, पर यह विचार अवश्य हुआ कि यह स्वकृत- अपने किये हुवे कर्म का फल है । इस प्रकार के दृढ अध्यवसाय से उन्हों ने रोगजनित वेदना को बड़ी ही शूरवीरता से सहन किया। एक दिन की કુમાર જ્યારે યૌવન અવસ્થામાં આળ્યે ત્યારે પ્રભાસ નામના આચાની પાસેથી ધાર્મિક ઉપદેશ સાંભળીને વિષયેાથી વિરકત થઈ ને દીક્ષા ધારણ કરી શ્રુતજ્ઞાનના ખૂખ અભ્યાસ કર્યાં. જ્યારે તે મુનિ આગમિકજ્ઞાનથી વિશિષ્ટ જ્ઞાની બની ચુકયા ત્યારે તેમણે એકાકી વિહારની પ્રતિમાને અંગીકાર કરી એક ગામથી બીજે ગામ વિહાર કરવાના પ્રારંભ કર્યો. વિહાર કરતાં કરતાં એક દિવસ મુગરૌલનગરમાં આવ્યા. ત્યાં તેમને હરસની બીમારી ઉત્પન્ન થઇ તેનાથી તેમને અત્યંત કષ્ટ થયું. પરંતુ આ વ્યાધિની ચિકિત્સા કરાવવાની ઇચ્છા પણ તેમને થઈ નહીં. આ વ્યાધિ કયારે મટશે, એવા સંકલ્પ પણ તેના દિલમાં ઉકયા નહીં. પર ંતુ એ વિચાર તેમના મનમાં અવશ્ય થયા કે, પાતાના કરેલા કર્મનું આ ફળ છે. આ પ્રમાણે દૃઢ અધ્યવસાયથી તે રાગથી ઉત્પન્ન થયેલી વેદનાને ખૂબ શૂરવીરતાથી સહન કરતા હતા. ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર ઃ ૧ Page #524 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रियदर्शिनी टीका. अ० २ गा० ३३ रोगपरीषहजये कालवैशिकदृष्टान्तः ४६९ मिक्षार्थ पर्यटन् हतशत्रनृपस्य भवनं प्रविष्टः। तत्र तस्य कालवैशिकमहामुने रझरोग तत्सांसारिकभगिनी ज्ञात्वाऽर्थीहरौषधमिश्रां भिक्षां प्रददौ । तेन चाजानता सा भिक्षा गृहीता। आहारसमये कृताऽऽहारेण तेन तदन्तर्गतमौषधं ज्ञाखा जातानुतापेन चिन्तितम् 'अहो ! अजानता मयाऽनुचितमेतत्कृतम् यचिकित्सामनिच्छता मया औषधमिश्रा भिक्षा गृहीता भुक्ता च । ईदृशाहारार्थिनां मुनीनां खलु अभिग्रहस्य भङ्गोऽधिकरणस्य ग्रहणं च स्यात् तस्मादद्यप्रभृति आहारमेव परित्यजामि" इति विचिन्त्य मुद्गशैलनगरतो निर्गत्य गिरिमारुह्यात्मबलसम्पन्नो मुनिः पादपोपगमनं कर्तुं व्यवसितः।। बात है कि जब वे भिक्षा के लिये पर्यटन करते२ हतशत्रु राजा के महल में जा बहुँचे तो उनकी संसारी बहिन ने उनके बवासीर रोग उत्पन्न हुआ जानकर औषधमिश्रित उनको भिक्षा दी कि जिससे यवासीर का रोग मिट जाय । अनजानपनमें इन्हों ने वह भिक्षा लेली। आहार करते समय इनको मालूम हुआ कि यह आहार औषधमिश्रित है । मुनि को इस बात का बड़ा पश्चात्ताप हुआ । विचार करने लगे कि यह काम अच्छा नहीं हुआ, जो मैंने चिकित्सातक करवाने की भावना से रहित होकर भी औषधमिश्रित आहार लिया और खा भी लिया। इस प्रकार के आहार से मुनियों के अभिग्रह का भंग अवश्य होता है, अतः आज से मैं अब आहार ही नहीं लूंगा। इस प्रकार विचार कर वे मुनिराज मुद्गशैल नगरसे निकल कर किसी पर्वत पर चले गये और वहां आत्मबलसंपन्न होकर पादपोपगमन संथारा करने की तैयारी करने लगे। એક દિવસની વાત છે કે, જ્યારે ભિક્ષા માટે પર્યટન કરતાં કરતાં હતશત્રુ રાજાના મહેલમાં જઈ પહોંચ્યા. ત્યાં તેની સંસારી બહેને તેને હરસની બીમારી થયેલ છે એમ જાણીને ઔષધથી મિશ્રીત એવી ભિક્ષા આપી કે જેથી તેને હરસનો રોગ મટી જાય. અજાણ પણે તેમણે એ ભિક્ષા લઈ લીધી. આહાર કરતી વખતે તેમને ખબર પડી કે, આ આહાર તે ઔષધી મિશ્રીત છે. મુનિને આ બાબતનો ઘણો પશ્ચાત્તાપ થયો. વિચાર કરવા લાગ્યા. આ કામ ઠીક નથી થયું. જે હું ચિકિત્સા કરાવવાની ભાવનાથી રહિત હોવા છતાં ઔષધમિશ્રીત આહાર મેં લીધે અને ખાઈ પણ લીધે. આ પ્રકારના આહારથી મુનિઓના અભિગ્રહને અવશ્ય ભંગ થાય છે. આથી હું આજથી આહાર જ નહીં લઉં, આ પ્રમાણે વિચાર કરીને તે મુનિરાજ મુદ્દગૌલ નગરથી નીકળી કેઈ પહાડપર ગયા અને ત્યાં આત્મબળથી સંપન્ન થઈને પાદપિગમન સંથારે કરવાની તૈયારી કરવા લગયા. ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર: ૧ Page #525 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७० उत्तराध्ययनसूत्रे अथ यः शृगालजीवो कालवैशिकेन संसारावस्थायां हतः, तस्य व्यन्तरदेवभवं प्राप्तस्य तदानीं विमाने गच्छतस्तत्र पादपोपगमनाय संस्थितस्य मुनेरुपरि गगने विमानगतिः प्रतिरुद्धा, तदा स व्यन्तरदेवोऽवधिना पूर्वभववृत्तं ज्ञात्वा वैरनिर्यातनेच्छया तत्र कालवैशिकमुनेः समीपे विकुर्वणशक्तथा स शिशुका शृगाली विकुर्विता । सा शृगाली 'खि-खि' इति शब्दं कुर्वती तस्य महामुनेर्गात्रं दन्तैदशति । तस्य इतने में एकव्यन्तरदेव - जो पूर्वभवमें शृगाल था, जिसका इन मुनि ने अपनी कुमारावस्था में ताड़न तर्जन आदि किया था, और जो इनके ताड़न तर्जन आदि के कारण अकामनिर्जरा से मर कर व्यन्तर हो गया था, वह व्यन्तरदेव-विमानमें बैठ कर कहीं दूसरी जगह जा रहा था उसका विमान वहां आ पहुँचा, जहां ये मुनिराज पादपोपगमन संथारा धारण किये हुए थे। उनके ऊपर से होकर जाने में उस विमान को गति रुक गई । विमान को जाते२ रुका हुआ देखकर व्यन्तरदेव को बड़ा आश्चर्य हुआ। उसने अवधिज्ञान से विमान की गति के रुकने में कारण मुनिराज का वह समस्त पूर्व भव का वृत्तान्त जान लिया। उससे मुनि के ऊपर बहुत क्रोध उसका बढने लगा। अपने पूर्वभव में मृत्यु के कारण मुनि को जानकर उस व्यन्तरदेव ने बदला लेने के अभिप्राय से उन मुनिराज के समीप अपनी वैक्रिय शक्तिके द्वारा एक बच्चे सहित शृगालो बनाकर खड़ी कर दी। उस शृगा. लोने 'खो-खी' शब्द करते हुए उन मुनिराज के समस्त शरीरको अपने એટલામાં વ્યંતરદેવ કે જે પૂર્વભવમાં શગાલ હતા, જેનું આ મુનિરાજે પિતાની કુમાર અવસ્થામાં તાડન તર્જન કરેલ અને એ તાડન તર્જનના પરિણામે અકામનિજેરાથી મરીને વ્યંતર થયેલ તે વિમાનમાં બેસીને કેઈ બીજે સ્થળે જઈ રહેલ હતા. એનું વિમાન ત્યાં આવી પહયું કે જ્યાં મુનિરાજે પાદપપગમન સંથારો ધારણ કરેલ હતા. ત્યાંથી પસાર થતા તે વિમાનની ગતી અટકી ગઈ. વિમાનને એકદમ અટકેલું જેઈને વ્યંતરદેવને ખૂબ આશ્ચર્ય થયું. તેણે અવધીજ્ઞાનથી વિમાનની ગતી રોકાવાના કારણરૂપ મુનિરાજને પૂર્વભવને સમસ્ત વૃત્તાંત જાયે. એનાથી મુનિ ઉપર તેને ક્રોધ એકદમ વધવા લાગે. પિતાના પૂર્વભવના મૃત્યુના કારણરૂપ મુનિરાજ જ છે તેમ જાણીને તે વ્યંતરદેવે બદલે લેવાની ઈચ્છાથી તે મુનિરાજની પાસે પિતાની વૈક્રિયશક્તિ દ્વારા એક બચ્ચાવાળી પ્રબળ શિયાળને ઉત્પન્ન કર્યું. એ શિયાળ “ખી ખી” શબ્દ કરીને પિતાના તીક્ષ્ણ દાંતથી મુનિરાજના શરીરને કાપવા લાગ્યું. કરડ્યા પછી ફરીથી ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #526 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रियदर्शिनी टोका अ० २ गा० ३४ तृणस्पर्शपरीषहजयः ४१ मुनेरमुपसर्ग कर्तुं कर्णकठोरं नीरसं शब्दमहर्निशं निरन्तरं करोति । स च व्यन्तरदेवस्तं मुनि शृगालवधरूपं पापं स्मारयति । तदा स तां शृगालीकृतां तथाऽर्थीरोगकृतां च घोरां दुःसहामुज्ज्वलां वेदनां धैर्येण समभावेन च सहमान आसीत् । एवं पञ्चदश दिनानि घोरपरीषहोपसर्ग परिषह्य स कालवैशिकमुनिः शुक्लध्यानेन केवली भूत्वा कर्मक्षयं कृत्वा मोक्षपदं प्राप । एवमन्यैरपि मुनिभिः समभावेन रोगपरीपहः सहनीयः ॥ ३३ ॥ अथ सप्तदशं तृणस्पर्शपरीषहजयं प्राहमूलम्-अचेलगस्स लूंहस्स, संजयस्सै तस्सिणो । तणेसु सयमाणस्स, होज्जा गायविराहणा ॥३४॥ छाया-अचेलकस्य रूक्षस्य, संयतस्य तपस्विनः । तृणेषु शयानस्य, भवति गात्रविराधना ॥ ३४ ॥ तीक्ष्ण दांतों द्वारा काटने लगी, तथा काट खाने के बाद फिर वह उनके चारों ओर घूम२ कर कर्णकटुक विरस शब्द करने लगी। इस प्रकार वह तब तक करती रही कि जब तक उनका मृत्यु न हुआ। उस व्यन्तरदेव ने भी मुनि के लिये शगाल को वध करने रूप पाप का स्मरण करा कर दुःखित करने की भी खूब२ चेष्टा की। इस प्रकार उन मुनिराज ने उस शृगाली की की हुई, व्यन्तरदेव को की हुई, तथा बवासोर की घोर दुःसह वेदना को धैर्यपूर्वक समभाव से सहते हुए पन्द्रह दिन व्यतीत कर दिये। पश्चात् शुक्लध्यान के प्रभाव से केवली हो कर सर्व कर्मक्षय कर के मुक्ति को प्राप्त किया। इसी तरह अन्य मुनिजनों को भी समभाव से रोगपरीषह को सहन करना चाहिये ॥ ३३ ॥ તેની ચારે બાજુએ ઘુમીને કાનને અપ્રિય એવા કર્કશ શબ્દો બોલવા લાગ્યું. આ પ્રકારે તે ત્યાં સુધી કરતું રહ્યું કે, જ્યાં સુધી તેનું મૃત્યુ ન થયું, એ વ્યંતરદેવે પણ મુનિ માટે શગાલના વધ કરવારૂપ પાપનું સ્મરણ કરી, કરાવીને દુઃખીત કરવાની ખૂબ ચેષ્ટા કરી, આ પ્રકારે તે મુનિરાજે શ્રગાલીની મારફત થયેલી અને વ્યંતરદેવે કરેલી અને હરસની ઘોર દુઃસહ વેદનાને વૈર્યપૂર્વક સમભાવથી સહેતાં ૧૫ દિવસ વ્યતિત કર્યા પછી શુકલધ્યાનના પ્રભાવથી કેવળી બની સર્વ કર્મ ક્ષય કરી મુકિત પામ્યા. આવી રીતે અન્ય મુનિજનોએ સમભાવથી રોગપરીષહ સહન કરવું જોઈએ. જે ૩૩ છે ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #527 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७२ " टीका -' अलगस्स - इत्यादि । अचेलकस्य = सर्वथा वस्त्ररहितस्य जिनकल्पिकस्य, तथा शास्त्रमर्यादातिरिक्तवखरहितस्य स्थविरकल्पिकस्य चेत्यर्थः । आगमे हि अल्पमूल्यकाल्पवस्त्रस्य मर्यादितस्यैव धारणात् स्थविरकल्पिकोऽप्यचैलक एवास्तीति प्रागचैलकपरीपहमकरणे निर्णीतम् । तथा उभयविधस्य मुनेस्तृणस्पर्शपरीषहेऽन्यान्यपि कारणानि सन्तीति प्रदर्शयितुमाह - ' लहस्स इत्यादि । रूक्षस्य = तैलाभ्यङ्गादिवर्जनाद् अस्निग्धशरीरस्येत्यर्थः संयतस्य= निरतिचारसंयमाऽऽराधनतत्परस्य तपस्विनः = तपश्चरणशीलस्य, अनशनादितपःसमाचरणात् कृशशरीरस्येत्यर्थः मुनेः, तृणेषु-दर्भा दिषु तदुपरिशयानस्य उपलक्षणत्वादासीनस्य चेत्यर्थः गात्रविराधना = शरीरे तृणस्पर्शजन्या पीडा भवति ॥ ३४ ॥ " उत्तराध्ययन सूत्रे " अब सूत्रकार सतरहवां तृणस्पर्शपरीषहजय का विवेचन करते हैं'अचेलगस्स ' इत्यादि । अन्वयार्थ - (अचेलगस्स - अचेलकस्य ) सर्वथा वस्त्ररहित जिनकल्पिक, तथा शास्त्र की मर्यादा के अतिरिक्त वस्त्र नहीं रखने वाले स्थविरकल्पिक मुनि के ( लूहस्स - रूक्षस्य ) कि जिन का तेल आदि की मालिश करना वर्जित होने से शरीर बिलकुल रूक्ष हो रहा है, एवं (संजयस्स - संयतस्य ) जो निरतिचार संयमकी आराधना करने में तत्पर रहते हैं, तथा (तवसिणो- तपस्विनः) अनशन आदि तपों के करनेवाले होने से कृश शरीर वाले हैं, और जो (तणेसु सयमाणस्स - तृणेषु शयानस्य ) दर्भादिक तृणों के ऊपर सोते हैं उपलक्षण से उपर बैठते हैं उनके (गाय विराहणा- गात्रविराधना ) शरीर में तृणस्पर्शजन्य पीड़ा होती है । હવે સૂત્રકાર સત્તરમાં તૃણુસ્પ પરીષહ જીતવાનું વર્ણન કરે છે. 'अचेलगरस' - त्याहि. अन्वयार्थ—अचेलगत्स - अचेलकस्य सर्वथा वस्त्र रहित अनहिप, तथा शास्त्रनी भर्याद्वाथी अतिरिक्त वस्त्र न रामवावाजा स्थविरदिप भुनि लहस्सક્ષક્ષ્ય જેને તેલ આદિની માલીશ કરવાનું વંત હાવાથી શરીર ખીલ ३क्ष मनी जयेस छे. संजयस्स - संयतस्य भने के निरतियार संयमनी अराधना ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર ઃ ૧ वामां तप्तर रहे छे तबसिणो- तपस्विनः तथा अनशन याहि तथ उरनार हावाथी दृश शरीरवाजा छे भने ने तणेसु सयमाणस्स - तृणेषु शयानस्य हर्लाहि वृशोनी उपर सुवे छे, उपलक्षथी उपर मेसे छे, तेभना गायविहारणा - गात्रविराधना शरीरमां तृथुस्पर्शजन्य पीडा थाय छे. Page #528 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रियदर्शिनी टीका अ० २ गा. ३५ तृणस्पर्शपरीषहजयः तृणस्पर्शपीडायां मुनिना यत् कर्तव्यं तद् बोधयितुमाहमूलम्-आयवस्स निवाएणं, अउँला हवेइ वेर्यणा । एवं नचा नं सेवंति", तंतु तणंतजिया ॥३५॥ छाया-आतपस्य निपातेन, अतुला भवति वेदना । एवं ज्ञात्वा न सेवन्ते, तन्तुजं तृणतर्जिताः॥ ३५ ॥ टीका-'आयवस्स' इत्यादि । भावार्थ-अचेलक पद से यहां स्थविरकल्पिक को भी जो अचेलक कहा है वह इसी अभिप्राय से कि वे शास्त्रमर्यादा के अनुसार ही वस्त्र रखते हैं, उससे अधिक नहीं आगम में स्थविरकल्पिक के लिये अल्पमूल्य वाले प्रमाणोपेत वस्त्रों का रखना मर्यादित है उनको ही ये धारण करते हैं। अतः इस अवस्था में भी ये अचेलक ही माने जाते हैं, इस विषय का विशेषरूप से खुलासा छठे अचेलक परीषह के प्रकरण में किया जा चुका है । मुनि को तैलादिक की मालिश करना वर्जित है। तथा ये तपश्चर्या करते रहते हैं, इसलिये इनका शरीर रूक्ष हो जाता है । रूक्ष शरीर में खून अल्प होने से तृणस्पर्श आदि की वेदना अधिक होती है, अतः ऐसी अवस्था में साधु का कर्तव्य है कि वह उस वेदना को समभाव से सहन करे ॥ ३४ ॥ जब तृणस्पर्श से पीडा हो तब मुनि को क्या करना चाहिये सो कहते हैं-'आयवस्स' इत्यादि। ભાવાર્થ—અલક પદથી અહિં સ્થવિરકલ્પિકને જે અલક કહ્યા છે. તે એવા અભિપ્રાયથી કે તે, શાસ્ત્ર મર્યાદાની અનુસાર વસ્ત્ર રાખે છે. તેનાથી અધિક નહીં. આગમમાં સ્થવિરકલ્પિક માટે અલ્પમૂલ્યવાળાં પ્રમાણપત વસ્ત્રોને રાખવાં મર્યાદિત છે, એને જ તેઓ ધારણ કરે છે. આથી આ અવસ્થામાં પણ તે અચેલક જ માનવામાં આવે છે. આ વિષયને વિશેષરૂપથી ખુલાસો પહેલાં છઠ્ઠા અલકપરીષહના પ્રકરણમાં આપવામાં આવી ગયેલ છે. મુનિએ તેલ આદિનું માલીસ કરવું વજીત છે. તથા તપસ્યા કરતા રહે છે. આથી તેમનું શરીર રૂક્ષ થઈ જાય છે. રૂક્ષ શરીરમાં લેહી ખૂબ ઓછું હોવાથી તૃણસ્પર્શની વેદના અધિક થાય છે. આથી એવી અવસ્થામાં સાધુનું કર્તવ્ય છે કે, તે વેદનાને સમભાવથી સહન કરે. ૩૪ છે જ્યારે તૃણસ્પર્શથી પીડા થાય ત્યારે મુનિએ શું કરવું જોઈએ તે सूत्रा२ ४९ छे–'आयबस्स'-त्या. उ०६० ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #529 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययनसूत्रे आतपस्य= धर्मस्य निपातेन = संपातेन, अतुला = महती दुःसहा वेदना भवति, आतपोत्पन्नस्वेदक्लेदवशात् तृणक्षते क्षारसेचनेन समुत्पन्ना वेदनेव वेदना भवतीति भावः । एवम् = अनेन प्रकारेण ज्ञात्वाऽपि तुणतर्जिताः - दर्भादितृणक्षता मुनयः तन्तुजं -सूत्रनिर्मितं कार्पासिकम् उर्णातन्तुनिर्मितं कम्बलादिकं वा वस्त्रम् आच्छानवस्त्रं न सेवन्ते | ४७४ " अयं भावः - शयने आसने च शुषिरवर्जिततृणस्य दर्भादेः परिभोगोऽनुज्ञातो जिनकल्पिकानां स्थविरकल्पिकानां च । तत्र जिनकल्पिकानां मुनीनां दृढसंहननपूर्वगतज्ञान - तीक्ष्णोपयोगनिद्राल्पत्वाद्यनेकमखरगुणसम्पन्नत्वेन स्पन्दनचलनादि अन्वयार्थ - ( आयवस्स - आतपस्य ) घाम-धूप के ( निवाएणंनिपातेन) पड़ने से जो शरीर में पसीना आता है, वह पसीना तृणक्षत अर्थात् शरीर में तृण के चुभने से उत्पन्न हुए घाव में लगता है, तब ( अउला वेणा हवइ- अतुला वेदना भवति ) महावेदना होती | ( एवं नच्चा - एवं ज्ञात्वा ) ऐसी वेदना का अनुभव करके भी (तणतज्जिया - तृणतर्जिताः) दर्भादिजन्य घाव वाले मुनि (तंतुजंतन्तुजम् ) ऊर्णादिक तन्तुओं से निर्मित कम्बलादिक तथा कपास से निर्मित वस्त्रादिकरूप आच्छादन वस्त्र का सेवन नहीं करते है । इसका भाव यह है - शयन और आसन में निश्छिद्र दर्भादिक तृणों का परिभोग जिनकल्पिक तथा स्थविरकल्पिक दोनों के लिये अनुज्ञात है। जिस में जिनकल्पी मुनि दृढसंहनन, पूर्वो का ज्ञान, तीक्ष्ण उपयोग तथा अल्पनिद्रा आदि अनेक प्रखर गुणवाले होने से अन्वयार्थ - आयवस्स - आतपस्य धाम तडछाना नित्राएणं-निपातेन पडवाथी शरीरमां જે પરસેવા આવે છે તે પરસેવા તૃણુક્ષત અર્થાત્ શરીરમાં તૃણુના સ્પર્શથી ઉત્પન્ન थयेला धावभां लागे छे त्यारे अडला वेयणा हबई - अतुला वेदना भवति लारे वेहना थाय छे एवं नच्चा एवं ज्ञात्वा सेवी बेहनानो अनुभव उरीने पशु तणतज्जिया- तृणतर्जिताः लोहिनन्य घाव वाणा भुनिखे तंतुअं- तन्तुजम् उनना तांता गोथी मनाવેલ કમ્મલ - આદિ તથા કપાસથી બનાવેલ વસ્ત્રાદિકનુ` આચ્છાદન ન કરવું જોઈએ. એના ભાવ આ પ્રમાણે છે, શયન અને આસનમાં છિદ્રો વગરના દર્ભ આદિ ખડના પરિભાગ જીનકલ્પિક તથા સ્થવિરકલ્પિક અનેને માટે અનુ જ્ઞાત છે, જેમાં જીનકલ્પિ મુનિ તેને દૃઢતાથી સહન કરીને, પૂર્વનુ જ્ઞાન, તીક્ષ્ણ ઉપયાગ, તથા અલ્પનિંદ્રા આદિ પ્રખર ગુણવાળા હેાવાથી તેના શરીરનું હલન ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર ઃ ૧ Page #530 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रियदर्शिनी टीका. अ० २ गा. ३५ तृणस्पर्शपरीषहजये भद्रमुनिदृष्टान्तः ४७५ क्रिया सर्वदा सोपयोगाऽल्पा च भवतीत्यागन्तुकद्वीन्द्रियादिजीवानां विराधना न संभवत्यतस्ते वस्त्रं न सेवन्ते । स्थविरकल्पिकास्तु सापेक्षसंयमिनो भवन्त्यतस्ते तानि दर्भादीनि दणानि भूमावास्तीय तत्रागन्तुककन्थुपिपीलिकादिजन्तुविराधना निवारगाय प्रान्तभागेषु वेष्टनं यथा स्यात्तथा तदुपरि संस्तारकं निधाय शेरते, आसते च। एवं यः कठोरकुशदर्भादितृणसंस्पर्श सम्यक् सहते तेन मुनिना तृणस्पर्शपरीपहो विजितो भवति । अत्र दृष्टान्तः प्रदर्श्यते__ श्रावस्तीनगर्यां जितशत्रुनृपस्य भद्रनामकः पुत्र आसीत् । स चैकदा पद्मनामकाचार्यस्य समीपे धर्म श्रुत्वा प्रवजितः । क्रमाद् बहुश्रुतो भूत्वाऽन्यदा कदाचिउनके शरीर की हलनचलन आदि क्रिया उपयोगपूर्वक तथा अल्प होती है इससे उनके आगन्तुक हीन्द्रियादिक जीवों की विराधना का प्रायः संभव नहीं है इसलिये वे वस्त्र का सेवन नहीं करते हैं । स्थविरकल्पिकमुनि प्रायः ऐसे न होने से दर्भादिक वृणों को भूमि पर बिछा कर उसमें आगन्तुक कुन्थु पिपीलिका आदि जन्तुओं की विराधना निवारण करने के लिये प्रान्त भागों में वेष्टन जिस प्रकार हो जाय इस रूप से उस के ऊपर संस्तारक बिछाकर सोते हैं और बैठते हैं। इस प्रकार जो कठोर कुशदर्भादिक तृणस्पर्श को अच्छी तरह सहन करता है वह मुनि तृणस्पर्शपरीषह का विजेता कहलाता है। _____ दृष्टान्त-श्रावस्ती नगरी में जितशत्रु नाम के राजा का भद्र नाम का एक पुत्र था । पद्मनामक आचार्य के पास उसने एक समय धर्म का उपदेश सुनकर दीक्षा धारण करली । क्रम से आगमों का ચલન આદિ ક્રિયા ઉપગ પુરતી અને અલ્પ હોય છે. તેનાથી આવનાર ઈિન્દ્રિયાદિક જીવોની વિરાધના થવાને સંભવ નથી. આ માટે તે વસ્ત્રનું સેવન કરતા નથી. સ્થવિરકલ્પિક મુનિ એવા ન હોવાથી દર્માદિક તૃણને ભૂમિ ઉપર બીછાવી તેમાં આવવાવાળા કંથવા, પીપાલીકા, આદિ જંતુઓની વિરાધનાનું નિવારણ કરવા માટે પ્રાન્ત ભાગમાં કાપા ન પડે તે માટે તેના ઉપર વસ્ત્ર બિછાવીને સુવે છે અને બેસે છે. આ પ્રકારે જે કઠેર કુશ-દર્માદિક તૃણસ્પર્શને સારી રીતે સહન કરે છે તે મુનિ તૃણસ્પર્શ પરીષહના વિજેતા કહેવાય છે. - દૃષ્ટાંત-શ્રાવસ્તી નગરીમાં જીતશત્રુ નામના રાજાને ભદ્ર નામના પુત્ર હતે. પદ્મ નામના આચાર્યની પાસે તેણે એક સમય ધર્મને ઉપદેશ સાંભળી દીક્ષા ધારણ કરી લીધી. ક્રમથી આગમને અભ્યાસ કરી જ્યારે તે બહુશ્રુત ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #531 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययन सूत्रे देकाकिविहारप्रतिमां प्रतिपन्नः सन्नप्रतिबद्धविहारं विहरति स्म । स चैकदा विहरन् क्वापि राज्यान्तरे गतः । राजपुरुषाः “ हेरिकोऽय " - मितिज्ञात्वा तं गृहीत्वा पमच्छुः - ब्रूहि कस्त्वं ? केन गुप्तचारत्वाय प्रहितोऽसि १ । स भद्रमुनिः प्रतिमाधारित्वात् किमपि नोत्तरं ददौ । ततस्ते कुपितास्तं भद्रमुनिं क्षुरेण तक्षयित्वा असिधारातुल्यैः क्षुरधारातुल्यैः कुन्ताग्रतुल्यैस्तीक्ष्णधारैर्देर्भेर्गाढमावेष्टय क्षारवर्तित कृत्वा, गर्ते निपात्य स्वस्थानं गतवन्तः । अतितीक्ष्णाग्रैः कुशैर्विध्यमाने क्षारजलैश्व अभ्यास कर जब वह बहुश्रुत हो गया तब उसने एकाकिविहार प्रतिमा अंगीकार कर अप्रतिबद्ध विहार करना प्रारंभ कर दिया । एक दिन की बात है कि ये मुनिराज विहार करते २ दूसरे किसी राज्य में जा पहुँचे । राजपुरुषों ने उन्हें “ यह कहीं का गुप्तचर है " ऐसा समझकर पकड़ लिया, और पूछने लगे- कहो कौन हो ? किसने तुम्हें खुफिया पुलिस के बतौर यहां भेजा है। राजपुरुषों को यह बात सुनकर प्रतिमाधारी होने से मुनिराज ने कुछ भी उत्तर नहीं दिया । मुनिराज की इस मौन परिस्थितिका अवलोकन कर वे सब के सब उन पर बहुत अधिक कुपित हुए। उन्हों ने प्रकृतिभद्र उन मुनिराज को प्रथम क्षुरा से घायल कर पश्चात् तलवार की धार के समान, क्षुरा की धार के समान, एवं भाले की नोंक के समान तीक्ष्ण अनीवाले दर्भों से गाढ वेष्टित करके और ऊपर से नमक मिला हुआ जल छिड़ककर के एक खड्डे में उनको डाल दिया, और वे सब के सब अपने२ स्थान पर चले गये । अति तीक्ष्ण अनीवाले कुशों से वींधे गये शरीर का प्रत्येक अवयवगत સભ મની ગયા ત્યારે તેમણે એકાકી વિહાર પ્રતિમા અંગિકાર કરી, અપ્રતિષદ્ધ વિહાર કરવાના પ્રારંભ કર્યા. એક દિવસની વાત છે કે, આ મુનિરાજ વિહાર કરતા કરતા બીજા કાઈ રાજ્યમાં જઈ પહોંચ્યા રાજપુરૂષાએ તેને “ આ કોઈ રાજ્યના ગુપ્તચર છે ’ એમ સમજીને પકડી લીધા અને એને પુછવા લાગ્યા કહા તમે કેણુ છે ? કાણે તમને ગુપ્ત બાતમીદાર તરીકે અહિ' માકલેલ છે ? રાજ પુરૂષાની એ વાત સાંભળી પ્રતિમા ધારી હોવાથી મુનિરાજે કાંઈ પણ ઉત્તર ન આપ્યા. મુનિરાજની આ મૌન પરિસ્થીતિ જોઈ સઘળા તેના ઉપર ખૂબ જ ક્રોષિત બન્યા. તેએએ પ્રકૃતિભદ્ર તે મુનિરાજને પ્રથમ છરાથી ઘાયલ કરી પછી તરવારની ધાર જેવા, છરાની ધાર જેવા, અને ભાલાની અણી જેવા તીક્ષ્ણ અણીવાળા દર્ભોથી ગાઢ વ્યથિત કરીને ઉપરથી મીઠાનું પાણી છાંટી એક ખાડામાં નાખી દીધા અને બધા રાજપુરૂષ પાત પેાતાને સ્થાને ચાલ્યા ગયા. અતિ તીક્ષ્ ણીવાળા દર્ભના પાનથી વીંધાયેલા શરીરના પ્રત્યેક અવયવમાંથી માંસ, ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર ઃ ૧ Page #532 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रियदर्शिनी टीका अ० २ गा० ३६ जलपरीषहजयः ४७७ शरीरे प्रत्येकावयवस्य मांसे विदीर्यमाणेऽपिक्षोभवर्जितः शान्तरसनिमग्नो महामुनिः क्षमानिधिः कलुषध्यानमकुर्वाणः समाधिभावेन प्रबलामुज्ज्वलां दुःसहां घोरातिघोरवेदनां सहते स्म । इत्थं तृणस्पर्शपरीषहं विजित्य क्षपकणिमारुह्य केवली. भूत्वा शिवपदं प्राप । एवमन्यैरपि मुनिभिस्तृणस्पर्शपरीषहः सोढव्यः ॥ ३५ ॥ अथाष्टादशं जल्लपरीषहजयं पाहमूलम्-किलिण्णगाए मेहावी, पंकेण व रएण वा । प्रिंसु वा परितावेणं, सायं 'नो परिदेवए ॥३६॥ छाया-क्लिन्नगात्रः मेधावी, पङ्केन वा रजसा वा। ग्रीष्मे वा परितापेन, सातं नो परिदेवयेत् ।। ३६॥ टीका-'किलिण्णगाए' इत्यादि। मेधावी-स्नानपरित्यागमर्यादावर्ती मुनिः, ग्रीष्मे, वा शब्दात-शरदि, मांस क्षारजल से विदीर्ण होने पर भी क्षोभ से वर्जित एवं शांत रस में निमग्न, ऐसे उन क्षमा के निधि मुनिराज ने कलुशध्यान नहीं करते हुए समाधिभाव से उस घोरातिघोर प्रबल दुःसह वेदना को सहन किया। इस प्रकार उन्हों ने तृणस्पर्शपरीषह को जीतकर अन्त में क्षपकश्रेणी पर आरोहण करके केवलज्ञान की प्राप्ति से शिवपद प्राप्त कर लिया। इसी तरह अन्य मुनियों को भी तृणस्पर्शपरीषह सहन करना चाहिये ॥ ३५॥ अब अठारवें जल्लपरीषह को जीतने के लिये सूत्रकार कहते हैं'किलिण्णगाए' इत्यादि। अन्वयार्थ-(मेहावी - मेधावी ) स्नानपरित्यागरूप मर्यादा में रहने वाला मुनि (घिसु-ग्रीष्मे ) ग्रीष्मकाल में (वा-वा) तथा शरत्काल ખારા પાણીથી વિદીર્ણ થવાથી, ક્ષોભથી વજીત અને શાંત રસમાં નિમગ્ન એવા તે ક્ષમાનિધિ મુનિરાજે કલુષભાવ ન રાખતાં સમાધીભાવથી એ ઘોર અતિ ઘેર સહ વેદનાને સહન કરી. આ પ્રકારે તેઓએ તૃણસ્પર્શ પરીષહને જીતીને અંતમાં ક્ષપકશ્રેણી પર ચડીને કેવળજ્ઞાનની પ્રાપ્તિથી શિવપદ પ્રાપ્ત કરી લીધું. આ રીતે અન્ય મુનિરાજેએ તૃણસ્પર્શ પરીષહ સહન કરે જોઈ એ રૂપા હવે અઢારમે જલ્લમલપરીષહ જીતવા માટે સૂત્રકાર કહે છે – 'किलिण्णगाए' त्याहि. भ-पयार्थ-मेहावी-मेधावी स्नान परित्या॥३५ भाडामा २४ा भुनिपिंसु ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #533 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७८ ___ उत्तराध्ययनसने वर्षासु वा, परितापेन-उष्णस्पर्शन, हेत्वर्थे तृतीया । पडून वा-प्रस्वेदादाीभूतेन मलेन वा, रजसा वा-परिशुष्य काठिन्यं प्राप्तेन मलेन वा, यद्वा-रजसाधूल्या, क्लिन्नगात्र-व्याप्तदेहः, सन् सात-सुखं समाश्रित्य न परिदेवयेत्-“हा! मममलापगमः कथं कदा वा भविष्यती" - ति कृत्वा न विलपेत् , विलापं न कुर्यादिति भावः ॥ ३६॥ में और वर्षाकाल में (परितावेणं-परितापेन ) उष्णस्पर्श द्वारा आये हुए (पंकेण व-पङ्केन वा) प्रस्वेद द्वारा गीले हुए मैल से (रएण वारजसा वा) या पसीने में संसक्त धूलि से (किलिण्णगाए-क्लिन्नगात्रः) व्याप्त शरीर होने पर भी (सायं नो परिदेवए-सातं नो परिदेवयेत् ) " हा मेरे इस मैल का निवारण कैसे और कब होगा" ऐसा विचार कर विलाप नहीं करे । किन्तु उस हालत में उस परीषह को अच्छी तरह सहन करे, इसका नाम जल्लपरीषह जय है। भावार्थ-ग्रीष्मकाल में या वर्षाकाल में अधिक गर्मी पड़ने से शरीर में अधिक पसीना आया करता है । उससे शारीरिक मैल ढीला पड़ जाता है । रगड़ने से वह चिपका हुआ मैल शरीर से अलग हो जाता है । पुनः उसी स्थान पर उड़ी हुई रज आकर लग जाती है। उससे शरीर में आकुलता होती रहती है। इस आकुलता से न घबरा कर जो मुनि उस मैल से संसक्त होने का परीषह सहन करते हैं उसोका नाम जल्लपरीषहजय है । साधु स्वप्न में भी यह विचार न ग्रीष्मे Sनगानी *तुमा तथा वा-वा १२६४10 मने वर्षामा परितावेणं-परितापेन SuperN द्वारा मासा पंकेण व-पङ्केन वा ५२सेवा द्वारा सा भतथी रएण वा-रजसा वा मगर ५२सेवामा समेत धूथी किलिण्णगाए-क्लिन्नगात्रः व्याप्त शरीरमना छतi ५६ सायं नो परिदेवए-सातं नोपरिदेवयेत् भा। मामे निवारण કેમ અને કયારે થશે” એ વિચાર કરી વિલાપ ન કરે. પરંતુ તેવી હાલતમાં તે પરીષહને સારી રીતે સહન કરે તેનું નામ જલમલ પરિષહ જય છે. ભાવાર્થ–પ્રીમકાળમાં યા વર્ષાકાળમાં અધિક ગરમી પડવાથી શરીરમાં અધિક પરસેવે વળે છે. તેનાથી શરીર ઉપર મેલ ઢીલા પડે છે ચોળવાથી તે ચૅટેલ મેલ શરીરથી છુટા પડે છે. ફરી એજ સ્થળે ઉડતી રજ આવીને ચાટે છે તેનાથી શરીરમાં આકુળતા થતી રહે છે. આથી એ આકુળતાથી ન ગભરાતાં જે સુનિ તે મેલને સંસક્તપરીષહ સહન કરે છે એનું નામ જલ્લમલ ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #534 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रियदर्शिनी टीका. अ० २गा. ३७ जलपरीषहजयः मूलम् - वेऍज्ज निज्जरापेही, ओरियं धम्म णुसरं । जाँव सरीरभेओर्त्तिं, जेल्लं कोण धारे ॥३७॥ छाया - वेदयेत् निर्जरापेक्षी, आर्य धर्मम् अनुत्तरम् । यावत् शरीरभेदः, इति जल्लं कायेन धारयेत् । टीका- 'वेएज' इत्यादि । ४७९ निर्जरापेक्षी = आत्यन्तिककर्मक्षयाभिलाषी मुनिः, आर्य - हेयोपादेयस्वरूपनिरूपकम्, अनुत्तरं न विद्यते उत्तरम् - उत्कृष्टं यस्मात् सोऽनुत्तरस्तं सर्वोत्तममित्यर्थः । धर्म - श्रुतचारित्ररूपं प्राप्तः इति शेषः । वेदयेत्-पक्रमात् जलजनितं दुःखं सहेत । इममर्थं विशदीकुर्वन् प्राह - 'जाब सरीरभेओ ' इत्यादि । इति = अतो देतो:। यावत् - यावता कालेन शरीरभेदः = देहपातः स्यात् तावत्कालपर्यन्तं, जल-मलं, कायेन शरीरेण धारयेत् । करे कि - " हा ! इस मेल के निवारण से मुझे साता अर्थात् सुख का अनुभव कब और कैसे होगा ?" इस प्रकार विलाप न करे || ३६ ॥ ' वेएज्ज ' इत्यादि । अन्वयार्थ - (निज्जरापेही - निर्जरापेक्षी ) आत्यन्तिक रूप से कर्मों के क्षयका अभिलाषी मुनि (आरियं-आर्यम्) हेय एवं उपादेय के स्वरूप का निरूपक (अणुत्तरं - अनुत्तरम्) सर्वोत्कृष्ट - जिससे श्रेष्ठ और कोई दूसरा नहीं है- सर्वोत्तम ऐसे ( धम्मं - धर्मम् ) श्रुतचरित्ररूप धर्म को प्राप्त कर ( वेएज्ज - वेदयेत् ) मेल के दुःख को सहन करे । उसका कर्तव्य है कि ( जाव शरीरभेओप्ति यावत् शरीरभेद इति) जब तक शरीर का भेद नहीं होता है-मृत्यु द्वारा शरीर का वियोग नहीं પરીષહય છે. સાધુ સ્વપ્નામાં પણ સુખના અનુભવ કયારે અને કેમ થશે. આ પ્રકારના વિલાપ ન કરે ॥૩૬॥ 'वेएज्ज - त्याहि. વાના मन्वयार्थ -- निज्जरापेही - निर्जरापेक्षी आत्यंति ३५थी भेना क्षय ४२मलियाषी भुनि आरियं - आर्यम् डेय मने उपायना स्वइपना निश्च अणुत्तरं - अनुत्तरम् सर्वोत्कृष्ट नेनाथी श्रेष्ट मीले अ नथी. सर्वोत्तम सेवा धम्मं - धर्मं श्रुतयारित्र३५ धर्मने प्राप्त कुरी बेएज्ज-वेदयेत् भवना दुःमने सहन अरे तेनु, उतव्य छे जाब शरीरभेओप्ति यावत् शरीरभेदः इति नयां सुधी શરીરના ભે નથી થતા મૃત્યુ દ્વારા શરીરના વિયેગ થતા નથી ત્યાં સુધી ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર ઃ ૧ Page #535 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८० उत्तराध्ययनसूत्रे दृश्यन्ते हि केचिद् दावानलदग्धस्थाणुवत् कालवर्णाः शीतवातादिभिरुपहता धूलिव्याता मलिनदेहा मनुष्याः। तेषामकामनिर्जरया नास्ति कश्चिद् गुणः, मम तु मलधारणेन महान गुणः, इति मत्वा मलापनयनाय स्नानाधभिलापमपि न कदाचित् कुर्यादित्यर्थः । उक्तश्च न शक्यं निर्मलीकर्तुं गात्रं स्नानशतैरपि । अश्रान्तमिव स्रोतोभि,-नवभिर्मलमुगिरत् ॥ १ ॥ होता है तब तक वह (काएण-कायेन) शरीर से (जल्लं धारए-जल्लं धारयेत् ) मेल को धारे । उसे यह विचार करते रहना चाहिये कि इस संसार में ऐसे अनेक प्राणी-मनुष्य देखे जाते हैं। जो दावानल से दग्ध स्थाणु की तरह बिलकुल कृष्णवर्ण होते हैं । उनका शरीर शीतवात आदि से सदा पीडित होता रहता है। धूलि से व्याप्त होने के कारण अत्यन्त मलिन होता है । परन्तु फिर भी इनको इसकी चिन्ता नहीं होती है। अकाम निर्जरा से इनको इतना सब कुछ सहन करने पर भी कोई लाभ नहीं । मेरे लिये तो इस मैल धारण करने से महान् लाभ है, अतः इसके दूर करने के लिये मुझे स्नान आदि सावधक्रियाओं की अभिलाषा स्वप्न तक में भी नहीं करनी चाहिये। कहा भी है न शक्यं निर्मलीकर्तु, गात्रं स्नानशतैरपि । अश्रान्तमिव स्रोतोभि,-नवभिर्मलमुद्गिरत् ॥१॥ कारण-कायेन ते शरीरथी जल्लं धारए-जल्लं धारयेत् मलने समे. तेथे को વિચાર કરતા રહેવું જોઈએ કે, સંસારમાં એવાં અનેક પ્રાણી, મનુષ્ય દેખવામાં આવે છે જે દાવાનળથી દગ્ધ પાણાની જેવા તદન કાળ સ્વરૂપના જ હોય છે. તેનું શરીર શીત, વાત આદિથી સદા પીડિત રહે છે. ધૂળથી ભરેલું હેવાને કારણે અત્યંત મલીન હોય છે, છતાં પણ એમને એની ચિંતા હતી નથી. અકામનિજરાથી એમને એટલું બધું સહન કરવા છતાં પણ કોઈ લાભ નથી. મારા માટે તે આ મેલને પરીષહ સહન કરવાથી મહાન લાભ છે, આથી તેને દૂર કરવા માટે મારે સ્નાન આદિ સાવઘક્રિયાઓની અભિલાષા સ્વપ્ન પણ ન કરવી જોઈએ. કહ્યું પણ છે. – न शक्यं निर्मलीकत, गात्रं स्नानशतैरपि। अश्रान्तमिव स्रोतोमि, नवनिर्मलमुगिरत् ॥१॥ ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #536 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रियदर्शिनी टोका अ० २ गा. ३७ जल्लपरीषहजयः अन्यच्च-अत्यन्तमलिनो देहो, देही चात्यन्तनिर्मलः । उभयोरन्तरं ज्ञात्वा, कस्य शौचं विधीयते ॥ २ ॥ इति । अत्यन्तमलिनो देहो, देही चात्यन्तनिर्मलः। उभयोरन्तरं ज्ञात्वा, कस्य शौचं विधीयते ॥२॥ क्यों कि मातापिता के रजवीर्य से यह शरीर अपवित्र ही खभावतः उत्पन्न हुआ है। जब कारण स्वयं अशुचिस्वरूप है तो उसका कार्यरूप यह शरीर शुचि कैसे हो सकता है । प्याज को या लहसुन को क्षीरसमुद्र के जल से प्रक्षालित करने पर भी जैसे उसमें निर्गन्धता नहीं आ सकती है उसी प्रकार हजारों बार स्नान करने पर भी इस अपवित्र शरीर में भी निर्मलता-शुचिता नहीं आ सकती है, क्यों कि यह निरन्तर नौ द्वारों से मल को बहाता ही रहता है। देह का जब स्वभाव ऐसा है तो फिर इसकी शुचिविधायक साधन ही यहां कौन से एकत्रित किये जा सकते हैं । जो मैं हूं वह तो पवित्र हूं अत्यंत निर्मल हूं। जिस प्रकार वस्तुस्थिति से विचार करने पर शौचा. लय में रहा हुआ आकाश अपवित्र न हो सकता है उसी प्रकार इस अपवित्र देह में निवास करने वाला यह आत्मा भी अपवित्र नहीं होता है, वह तो सदा अत्यंत निर्मल है । इस प्रकार शरीर और आत्मामें अन्तर जानकर ज्ञानी सदा ऐसा विचार करता रहे की मैं अब अत्यंतमलिनो देहो, देही चात्यन्तनिर्मलः। उभयोरन्तरं ज्ञात्वा, कस्य शौचं विधीयते ॥२॥ કેમકે, માતા પિતાના રજવિર્યથી આ શરીર અપવિત્ર જ સ્વભાવતઃ ઉત્પન્ન થયેલ છે. જ્યારે કારણ સ્વયં અશુચિ સ્વરૂપ છે તે તેના કાર્ય રૂપ આ શરીર શુચિરૂપ કઈ રીતે ગણાય, ડુંગળીને અથવા લસણને સમુદ્રના પાણીથી ધોવાથી પણ તેમાં નિગ"ધતા આવી શકતી નથી તેવી રીતે હજારે વાર સ્નાન કરવા છતાં પણ આ અપવિત્ર શરીરમાં નિર્મળતા-શુચિતા આવતી નથી. કેમકે, આ શરીર નિરંતર નવ દ્વારથી મળને બહાર કાઢયા જ કરે છે. દેહને જ્યારે સ્વભાવ એવે છે તે પછી એના શુચિ વિધાયક સાધન જ કયાંથી મેળવી શકાય. જે હું છું તે તે સદા પવિત્ર જ છું, અત્યંત નિર્મળ છું, જે પ્રકારથી વસ્તુ સ્થિતિને વિચાર કરવા છતાં, શૌચાલયમાં રહેલું આકાશ અપવિત્ર બની શકતું નથી તેવીજ રીતે દેહમાં નિવાસ કરવાવાળે આ આત્મા પણ અપવિત્ર છે તે નથી. તે તે સદા નિર્મળ જ છે. આ પ્રકારે શરીર અને આત્મામાં અંતર જાણ જ્ઞાની એ સદા ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #537 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८२ उत्तराध्ययनसूत्रे अत्र दृष्टान्तः प्रदश्यते- चम्पानगर्या सुनन्दनामा धनाढ्यो वणिक् श्रावक आसीत् । स बहुविधपण्यैर्व्यवहारकरणेन जाताभिमानो विवेकरहितः कदाचिदेकदा साधुं दृष्ट्वा निन्दति स्म-अहो ! शरीरसंस्कारवर्जिताः अभद्रवेषा धूलिधूसरा धर्मादिसमुत्पन्नमलानपनयनेन मलिनशरीराः पुनरपि स्ववेषं भव्यमेव मन्यमाना विहरन्ति । स चैवं स्नानादिक से किसकी शुचि करूँ ? जिस शरीरकी शुचि इन स्नानादि क्रियाओं से करना चाहता हूं वह तो स्वभाव से ही अपवित्र है, तथा आत्मा पवित्र होने से उसकी शुचि करने का प्रयास व्यर्थ है । ऐसा समझकर साधु जल्लपरीषह को सहन करे। दृष्टान्त-चंपानगरी में सुनंद नामका एक धनाढय वैश्य आवक रहता था। इसका व्यापार खूब चलता था। अनेक चीजों का रोजगार यह किया करता था। इससे दुकानदारी में इसको अधिक लाभ होता था, इसलिये इसे अपनी दुकानदारी का बहुत कुछ अभिमान था। विवेक से रहित होने के कारण एक दिन की बात है कि इसने किसी एक साधु को देखकर उसकी भारी निंदा की। कहने लगा-देखो तो सही ये शरीर के संस्कार से बिलकुल वर्जित रहते हैं, इनका वेष भी भद्रपुरुषों जैसा नहीं होता है, शरीर पर तो इनके धूल चढ़ी रहती है। ये नहाते धाते नहीं हैं। रात दिन पसीना आते रहनेसे कपडे भी इनके बुरी तरह से दुर्गन्ध देने लगते हैं। शरीर भी पसीने से तर हो जाने के વિચાર કરતે રહે કે, હું હવે સ્નાન આદિથી કેની શુદ્ધિ કરૂં? જેની શુદ્ધિ આવી સ્નાનાદિક ક્રિયાઓથી કરવા ચાહું છું તે તે સ્વભાવથી જ અપવિત્ર છે. તથા આત્મા પવિત્ર હોવાથી એની શુચિ કરવાને પ્રયાસ વ્યર્થ છે એવું સમજીને સાધુ જળપરીષહને સહન કરે. દષ્ટાંત-ચંપાનગરીમાં સુનંદ નામને એક ધનાઢ્ય વૈશ્ય-શ્રાવક રહેતે. હતું. તેને વેપાર ખૂબ ચાલતું હતું. અનેક ચીજો ને રોજગાર તે કરતો હતો તેનાથી દુકાનદારીમાં તેને અધિક લાભ થતે હતો. તેને પિતાની દુકાનદારીનું ઘણું અભિમાન હતું. વિવેકથી રહિત હોવાના કારણે એક દિવસની વાત છે કે, તેણે કઈ એક સાધુને જોઈને તેની ખૂબ નિંદા કરી, કહેવા લાગ્યું કે, જુઓ તો ખરા! આ શરીરના સંસ્કારથી તદ્દન વજીત રહે છે. તેને વેષ પણ ભદ્ર પુરૂષ જે નથી. શરીર ઉપર તો ધૂળ ચૂંટેલી રહે છે, એ નાતા ધોતા નથી, રાત દિવસ પરસેવે આવતા હોવાથી તેમનાં કપડાં પણ દુર્ગધ મારતાં હોય છે અને શરીર પણ પરસેવોથી તર હોવાને કારણે મેલથી ભરેલું રહે છે. તે ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #538 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रियदर्शिनी टीका. अ० २ गा. ३७ जलपरीषहे विशुद्धमतिमुनिदृष्टान्तः ४८३ मुनिनिन्दया दुष्कर्म बद्धवान् । कालमासे कालं कृत्वा श्रावकत्वात् सौधर्मे कल्पे देवत्वं प्राप्तवान् । ततश्च्युतश्वासौ कौशाम्बीनगरे इभ्यस्य वसुचन्द्रश्रेष्ठिनः पुत्रोऽभवत् । स श्रेष्ठपुत्रो विशुद्धमतिनाम्ना प्रसिद्धो जातः । स चैकदा विशाखाचार्यसमीपे धर्मं श्रुत्वा प्रव्रजितः । अन्यदा कदाचित् तस्य विशुद्धमतिमुनेः पूर्वभवकृतमलिनमुनिनिन्दोपार्जितकर्मोदयाद् देहेऽतिदुर्गन्धः समुत्पन्नः । शटितसर्पादिमृतकगन्धादप्यधिकं विशुद्धमतिमुनिदेहभवं दुर्गन्धं कोऽपि सोढुं नाशकत् । सर्वो लोकस्तद्वपुः स्पृष्टवायुनाऽपि व्याकुलीकृतः सन्नितस्ततः पलायते । कारण मैल से भरा रहता है । फिर भी ये लोग अपने को बहुत ऊँचा समझते रहते हैं और इधर से उधर भटकते रहते हैं । इस प्रकार मुनि की निंदा से उसने गाढ़ दुष्कर्म का बंध कर लिया, और श्रावक होने की वजह से वह मर कर सौधर्म देवलोक में देवपर्याय से उत्पन्न हुवा। वहां से च्यवकर यह कौशाम्बी नगरी में वसुचंद्र नामक इभ्य- शेठ का पुत्र हुआ । उसका नाम विशुद्धमति रक्खा गया । एक दिनकी बात है कि विशुद्धमति ने विशाखाचार्य के पास धर्म श्रवणकर दीक्षा ले ली । कालान्तर में विशुद्धमति मुनिके शरीर में सुनंद वणिक्के भवमें की गई मुनिनिन्दा से उपार्जित पापकर्म के उदय से अति दुर्गन्ध आने लगी । सडे हुए सांप आदिकी जैसी दुर्गन्ध होती है उससे भी अधिक दुर्गन्ध इनके शरीर की थी, अतः उस दुर्गन्ध को सहन करने के लिये कोई भी समर्थ नहीं हुआ। उसके शरीर को स्पर्शकर जो वायु आता था लोग उस वायु से भी घबरा जाते थे । પણ આ લેાકા પાતાને ખૂબજ ઉંચા સમજે છે અને અહીં તહીં ભટકતા રહે છે. આ પ્રકારની મુનિની નિંદાથી તેણે ગાઢ દુષ્કર્મના બંધ કરી લીધા અને શ્રાવક હાવાના કારણે તે મરીને સૌધર્મ દેવલાકમાં દેવ પર્યાયથી ઉત્પન્ન થયા. ત્યાંથી ચવીને તે કૈાશામ્બી નગરીના વસુચંદ્ર નામના ઈલ્ય શેઠના પુત્ર થયેા. તેનું નામ વિશુદ્ધમતિ રાખવામાં આવ્યું. એક દિવસની વાત છે કે, વિશુદ્ધમતિએ વિશાખાચાર્યની પાસે ધમ શ્રવણ કરી દીક્ષા લઈ લીધી કાળાન્તરમાં વિશુદ્ધમતિ મુનિના શરીરમાં સુનંદવણી. કના ભવમાં કરાયેલ મુનિ નિંદાથી ઉપાર્જન કરેલ પાપકમના ઉદયથી અતિ દુર્ગંધ આવવા લાગી. સડેલા સપ વગેરેની જે દુર્ગંધ આવે છે તેનાથી પણ અધિક દુર્ગંધ તેના શરીરની હતી. આથી એ દુ ધને સહન કરવા કાઈ સમર્થ ન બન્યુ, તેના શરીરને સ્પર્શ કરીને જે પવન આવતા તે પવનથી પણ લેાકા ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર ઃ ૧ Page #539 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययनस्त्रे यत्र यत्रासौ भिक्षार्थ याति तत्र तत्र लोकस्तद्गन्धेन विमना भवति । मुनिश्च तिरस्कार प्राप्नोति तथाप्यसौ जल्लपरीषहं सहते। तदनन्तरं विशाखाचार्यस्तमब्रवीत्-वत्स ! त्वद्देहदोर्गन्ध्याद् भृशमुद्वेगो जनानां जायते, तस्मादुपाश्रय एव त्वया स्थातव्यं, न तु बहिग्रहस्थसंनिधौ गन्तव्यम् । इत्थं तद्वचनं निशम्य विशुद्धमतिमुनिस्तस्मिन्नेवोपाश्रये स्थितः । अन्तमान्ताहारेण दुर्बलशरारोऽसौ विशुद्धमतिमुनिः स्वगुरुं प्रार्थ्य तदाज्ञामादाय पादपोपगमनं कृत्वा स्वकल्याणं साधयामास । एवमन्यमुनिभिर्जल्लपरीषहः सोढव्यः ॥ ३७॥ जहां जहां ये भिक्षा के लिये जाते वहांर लोग उनके शरीर की दुर्गन्ध से व्याकुल हो उठते । इस दुर्गन्ध के कारण मुनिराज का भी तिरस्कार होने लगा। फिर भी उन्हों ने इस तर्फ ध्यान नहीं दिया और जल्लपरीषह को जीतने में ही वे अपनी सारी शक्ति लगाते रहे। विशाखाचार्य ने एक दिन इनसे कहा वत्स ! तुम्हारे शरीर की दुर्गन्ध से लोगों में बड़ा असन्तोष फैल रहा है वे बडे उद्विग्न होते हैं, इसलिये तुम अब कहीं न जाकर सिर्फ उपाश्रय में ही रहा करो। इस प्रकार गुरु महाराज के वचन सुनकर विशुद्धमति मुनिराज अब उपाश्रय में ही रहने लगे-बाहर गृहस्थों के यहां आना जाना बंद कर दिया । अन्त प्रान्त आहार से इनका शरीर भी दुर्बल हो गया था, अतः अपने गुरु महाराज से प्रार्थना कर इन्हों ने उनकी आज्ञानुसार पादपोपगमन संथारा धारण कर लिया और अपना कल्याण साध कर ગભરાઈ જતા હતા. જ્યાં જ્યાં એ ભિક્ષા લેવા જતા ત્યાં ત્યાં લોકે એના શરીરની દુર્ગધથી વ્યાકુળ બની જતા. અને આ દુર્ગધના કારણે જ્યાં ત્યાં મુનિરાજને પણ તિરસ્કાર થવા લાગે. તે પણ તેમણે એ તરફ ધ્યાન ન આપ્યું. અને જળપરીષહ જીતવામાં જ પોતાની બધી શક્તિ લગાડી રહ્યા. વિશાખાચા તેને એક દિવસ કહ્યું, હે વત્સ! તમારા શરીરની દુર્ગધથી લોકેમાં ઘણે અસંતોષ ફેલાઈ રહ્યો છે. આથી ઘણા ઉદ્વિગ્ન બને છે, માટે તમે હવે કયાંય ન જતાં ફકત ઉપાશ્રયમાં જ રહ્યા કરે. આ પ્રકારનું ગુરુમહાજનું વચન સાંભળીને વિશુદ્ધમતિ મુનિરાજ હવે ઉપાશ્રયમાં જ રહેવા લાગ્યા. બહાર ગૃહસ્થને ત્યાં જવા આવવાનું બંધ કરી દીધું. અન્ત પ્રાન્ત આહારથી તેમનું શરીર પણ દુબળ થઈ ગયું, અંતે પોતાના ગુરુમહારાજને પ્રાર્થના કરી તેમની આજ્ઞા અનુસાર પદ્ધપિયગમન સંથાર ધારણ કર્યો. આથી પિતાનું ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #540 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रियदर्शिनी टीका. अ० २ गा० ३८ सत्कार पुरस्कारपरीष हजयः - अथैकोनविंशतितमं सत्कारपुरस्कारपरीषहजथं प्राहमूलम् — अभिवाय मब्र्भुद्वाणं, सामी कुज्जा निमंतणं । जे ताइं पंडिसेवंति ने तेसिं पीए मुंणी ॥३८॥ छाया - अभिषादम् अभ्युत्थानं, स्वामी कुर्यात् निमन्त्रणम् । ये तानि प्रतिसेवन्ते, न तेभ्यः स्पृहयेत् मुनिः ॥ ३८ ॥ टीका- 'अभिवाय ० ' इत्यादि । स्वामी राजादिकः, अभिवादम् - अभिवादनम् - 'शिरोनमन चरणस्पर्शनादिपूर्वकमभिवादये प्रणमामी' त्यादिवचनरूपं पुरस्कारं, तथा-अभ्युत्थानम् = अभिमुखमुत्थानम् - ससंभ्रममासनं परित्यज्योत्थानरूपं पुरस्कारं च, तथा-निमन्त्रणम् - आहारादिग्रहणाय प्रार्थनम् अद्य मद्गृहे भिक्षा ग्रहीतव्या ' इत्यादिवचनरूपं C ४८५ " जन्ममरण से सदा के लिये विमुक्त हो गये । इसी तरह अन्य मुनियों को भी जलपरीषह सहन करना चाहिये || ३७ ॥ अब उन्नीसवां सत्कारपुरस्कारपरीषहजय को सूत्रकार कहते हैं'अभिवार्य' - इत्यादि । अन्वयार्थ - यदि ( सामी - स्वामी) राजा आदि (अभिवायं अन्भुद्वाणं निमंतणं - अभिवादनं अभ्युत्थानम् निमंत्रणं) अभिवादन - अपने मस्तक को झुकाकर चरणस्पर्श करते हुए नमस्कार करें, तथा अभ्युस्थान - मुनि को आते देखकर बडे आदरभाव से अपने आसन का परित्याग कर वे उठ खड़े हों और मुनि के सन्मुख जावें, तथा-निमंत्रण - आहार आदि के ग्रहण करने के लिये प्रार्थना करें कि महाराज ! आज आप मेरे घर पर भिक्षा लें, इस प्रकार अभिवादन, अभ्युत्थान કલ્યાણ સાધીને જન્મમરણથી સદાને માટે વિમુક્ત બની ગયા. આ રીતે અન્ય મુનિઓએ પશુ જળપરીષહુને સહન કરવા જોઈ એ. ૫ ૩૭ હવે એગણીસમા સત્કારપુરસ્કારપરીષહ જીતવાને સૂત્રકાર કહે છે. 'अभिवाय'' त्याहि. अन्वयार्थ-यहि सामी- स्वामी राम वगेरे अभिवार्य अग्भुवाणं निमंतणं- अभिवादनं अभ्युत्थानम् निमंत्रणम् पोताना भस्तने जुडावी या स्पर्श पुरी नमस्ठा२४२, તથા અભ્યુત્થાન-મુનિને આવતા જોઇને ઘણા આદરભાવથી પેાતાના આસનને પરિત્યાગ કરી તે ઉઠીને ઉભા રહે અને મુનિની સામે જાય, તથા નિમંત્રણઆહાર આદિ ગ્રહણ કરવા માટે પ્રાર્થના કરે કે, મહારાજ ! આજ આપ મારા धरे लिक्षा त्या. या अारे अलिवाहन, मल्युत्थान तथा निमंत्रषु कुज्जा - कुर्यात् ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર ઃ ૧ Page #541 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८६ उत्तराध्ययनसूत्रे सत्कारं कुर्यात् , तानि=अभिवादादीनि ये स्वयूथवर्तिनः अवसन्नपार्श्वस्थादयः, परतीथिका दण्डिशाक्यादयो वा द्रव्यलिङ्गिनः प्रतिसेवन्ते-आगमनिषिद्धान्यपि स्वीकुर्वन्ति, तेभ्यः-ऋद्धिरससातगृद्धियुक्तेभ्यः, मुनिः अनगारः न स्पृहयेत् , राजादिकृतसत्कारपुरस्कारौ प्रतिसेवमानान् द्रव्यलिङ्गिनः साधून विलोक्य-"अहो! पुण्यशालिनोऽमी पार्श्वस्थादयः शाक्यादयश्च यदेतादृशं वन्दनाभ्युत्थानादिसत्कारं प्राप्नुवन्ति, अतोऽहमप्येतादृशो भवामी"-ति मुनिस्तत्साम्यं न वाञ्छेदित्यर्थः।३८॥ अमुमेवार्थ विशदयतिमूलम् -अणुकसाई अप्पिच्छे, अन्नाएंसी अलोलुए। रसेंसु नाणुंगिज्झिज्जा, नाणुतप्पिज पंण्णवं ॥३९॥ तथा निमंत्रण (कुज्जा-कुर्यात् ) करे और (ताई-तानि) उनको (जेये) जो स्वयूथवर्ती अवसन्न पासत्थ आदि, अथवा परतीर्थिक दण्डिशाक्यादिक द्रव्यलिङ्गी साधु (पडिसेवंति-प्रतिसेवन्ते) सेवन करते हैं उनको स्वीकार करते हैं तो (मुणी तेसिं न पीहए-मुनिः तेभ्यः न स्पृहयेत् ) मुनि उन ऋद्धिरससातगृद्धियुक्तों की स्पृहा न करे राजा आदि द्वारा किये गये सत्कार पुरस्कार को प्रतिसेवन करने वाले अवसन्नपार्श्वस्थादि द्रव्यलिङ्गी साधुओं को देखकर "अहो ! ये अवसन्न पार्श्वस्थादिक तथा शाक्यादिक बडे ही पुण्यशाली हैं जिससे ये इस प्रकार के वन्दन अभ्युत्थान आदि सत्कार को पाते हैं अतः मैं भी इनके जैसा होऊं तो अच्छा हो" इस प्रकार अणगार-मुनि उनकी समानता की अर्थात् उनके जैसा होने की वाच्छा नहीं करे ॥ ३८॥ 32 ने ताई-तानि मेमने जे-ये रेस्क्यूथती असन यास माह मया ५२तिथी ४ ६.१, या द्रव्यविंगी साधु पडिसेवंति-प्रतिसेवन्ते सेवन ४२ छसेना स्वी॥२ ४२ छे मुणी तेसिं न पीहए-मुनिः तेभ्यःन स्पृहयेतू तो भुनिये ઋદ્ધિરસ સાત ગૃદ્ધિયુક્તની પૃહા ન કરે. રાજા આદિ દ્વારા કરાયેલા સત્કાર પુરસ્કારનું પ્રતિસેવન કરવાવાળા અવસન્ન પાર્શ્વ સ્થાદિ દ્રવ્યલિંગી સાધુઓને જોઈને “અહી” એ અવસગ્ન પાર્શ્વસ્થાદિક તથા શાક્યાદિક ઘણા જ પુન્યશાળી છે, જેથી તે આ પ્રકારનાં વંદન અલ્પત્થાન આદિ સંસ્કાર પામે છે. એથી હું પણ એમના જેવો થાઉં તે સારું થાય. આ પ્રકારે અણગાર મુનિ તેમની સમાનतानी अर्थात तमना २ थवानी छन । २. ॥ ३८॥ ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #542 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 3 प्रियदर्शिनी टीका. अ० २ गा० ३९ सत्कारपुरस्कारपरीषहजयः ४८७ छाया-अनुत्कशायी अल्पेच्छः, अज्ञातैषी अलोलुपः । रसेषु नानुगृध्येत् , नानुतप्येत प्रज्ञावान् ॥ ३९ ॥ टीका--'अणुक्कसाई' इत्यादि । अनुत्कशायी-अनुत्क:-अनुत्कण्ठितः शेते, धातूनामनेकार्थत्वाद् वर्तते इत्येवं शीलः सत्कारादिवाञ्छारहित इत्यर्थः, यद्वा-माकृतत्वाद्-'अणुकषायी' इतिच्छाया । अल्पकषायी-कषायरहित इत्यर्थः-वन्दनादिकमकुर्वते न क्रुध्यति, वन्दनादौ कृते वा न मानं कुरुते न वा तदर्थं शीतोष्णाऽऽतापनादिभिर्मायां करोति, न चापि तत्र लोभं करोतीति भावः। अत एव-'अल्पेच्छः'=धर्मोपकरणमात्राभिलाषी, न तु सत्कारपुरस्काराभिलाषीत्यर्थः । अत एवं-अज्ञातैषी-अज्ञाता-जातिश्रुतादिभिरपरिचितो भूत्वा एषयति-गवेषयति पिण्डादिकं, यः स तथा, यद्वाअज्ञाते=अज्ञातकुले एषयति गवेषयति पिण्डादिकं यः स तथा, तत्र हेतुं प्रदर्शयति अब सूत्रकार इसी अर्थ को विशद करते हैं-'अणुक्कसाई' इत्यादि । अन्वयार्थ-(अणुकसाई-अनुत्कशायी ) सत्कार आदि की अभिलाषा रहित अथवा अल्पकषाय वाला-सत्कारादि विषयक कषायभावं रहित, अर्थात्-वंदना आदि नहीं करने वाले के प्रति क्रोध नहीं करने वाला, तथा वन्दनादि करने पर अभिमान नहीं करने वाला, तथा मान सन्मान आदि के निमित्त शीत, उष्ण, आतापना आदि द्वारा मायाचार नहीं करने वाला. तथा उस विषय में लोभ-कषाय भी नहीं करने वाला, (अप्पिच्छे-अल्पेच्छः) तथा अल्पइच्छावाला दर्भोपकरणमात्र की अभिलाषा वाला सत्कारपुरस्कार आदि की अभिलाषा वाला नहीं, तथा (अन्नाएसी-अज्ञातैषी) जाति एवं श्रुत आदि से अपरिचित होकर शुद्ध पिंडादिक की गवेषणा करने वाला, अथवा-अज्ञातकुल में वे सूत्र४२ ॥ अथ ने २५ष्ट ४रै छ–'अणुक्कसाई ' त्याहि. सन्क्याथ-अणुक्कसाई-अनुत्कशायी सत्४।२ माहिनी मनिषाथी २डित અથવા અપ કષાયવાળા-સત્કારાદિ વિષયક કષાયભાવ રહિત, અર્થાત્ વંદના આદિ ન કરનાર તરફ ક્રોધ નહીં કરવાવાળા તથા વંદનાદિ કરવાથી અભિમાન નહીં કરવાવાળા તથા માન સન્માન આદિ નિમિત્ત શીત, ઉષ્ણ, આતાપના આદિ દ્વારા માયાચાર નહીં કરવાવાળા તથા એ વિષયમાં લેભ કષાય પણ नही ४२पावाणा अप्पिच्छे-अल्पेच्छः तथा-२६५ छावा-धर्ना५४२९॥ भत्रिनी અભિલાષાવાળા-સત્કાર પુરસ્કાર આદિની અભિલાષાવાળા નહીં તથા અનાણી अज्ञातैषी onfi A२ श्रुत माथी अपरिथित मनीन शुद्ध वाहिनी गवेषणा ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #543 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययन सूत्रे -'अलोलुए ' इति । अलोलुपः = सरसाहारादिषु रसनेन्द्रियादिलोलुपतावर्जितः, तथा - प्रज्ञावान् = हेयोपादेयविवेचननिपुणवुद्धिमान्, रसेषु = रसादिषु, नानुगृध्येत् = मनोज्ञरसादिभिः सत्कारे पुरस्कारे च कृते तत्र मूर्छा न कुर्यात् । नानुतप्येत्= सत्कारपुरस्कारयोरभावे विषादं न कुर्यात् । अयं भावः-भक्तपानवस्त्रपात्रादीनां लाभः सत्कारः, गुणोत्कीर्तनं वन्दनाभ्युत्थानासनप्रदानादिव्यवहारश्च पुरस्कारः । तत्र सत्कारपुरस्कारमाप्तौ सत्यां गृद्धि न कुर्यात्, तयोरभावे द्वेषं न कुर्यात् नापि च मनस्तापेनात्मानं दूषयेत्, किंतु दैन्यवर्जनेन तदनाकाङ्क्षया च सत्कारपुरस्कारपरीषदः सोढव्यः, इत्येवं सद्भावासभेदेन द्विविधोऽयं परीषहः सोढव्य इति । उक्तञ्च " ૪૦ गवेषणा करने वाला, तथा (अलोलुए- अलोलुपः ) सरस आहारादिक में रसना - इन्द्रिय की लोलुपता से रहित ऐसा ( पण्णवं - प्रज्ञावान् ) हेय और उपादेय के विवेचन करने में निपुण बुद्धिवाला मुनि (रसेसु नाणुगिज्झिज्जा - रसेषु नानुगृध्येत्) मनोज्ञ रसादि के द्वारा सत्कारपुरस्कार होने पर रसादि में मूर्च्छा-मृद्धि भाव नहीं करे, तथा मनोज्ञ रसादि के नहीं मिलने पर विषाद नहीं करे । भावार्थ - इसका सारांश यह है कि-भक्त, पान, वस्त्र एवं पात्रादिकका लाभ सत्कार है, तथा गुणों का कथनरूप तथा वन्दना अभ्युस्थान एवं आसनप्रदानरूप जो व्यवहार है वह पुरस्कार है । साधु को सत्कार पुरस्कार की प्राप्ति होने पर गृद्धि और इनके अभाव में द्वेष नहीं करना चाहिये, और न मनके संताप से अपने आपको दूषित ही કરવાવાળા અથવા અજ્ઞાત કુળમાં આહારની ગવેષણા કરવાવાળા તથા अलोलुए- अलोलुपः सरस माहाराहि मां रसनाइन्द्रियनी बोलुपताथी रहित खेवी पण्णवं- प्रज्ञावान् डेय ने उपादेयतुं विवेशन अश्वामां नियु। मुद्धिवाजा भुनि, रसेसु नाणुगिज्झिज्जा - रसेषु नानुगृध्येत् भनेोज्ञ रसाहि द्वारा सत्मार५२२४२ ઢાવા છતાં રસાદિમાં મૂર્છા-ગૃદ્ધિભાવ ન કરે. તથા મનેાસ રસાદિ નહીં મળ વાથી વિષાદ ન કરે. खाने। सारांश थे छे है-लउत, पान, वस्त्र, भने यात्राहिने। साल સત્કાર છે, તથા ગુણાના કથનરૂપ, તથા વંદના અભ્યુત્થાન અને આસનપ્રદાન રૂપ જે વહેવાર છે, તે પુરસ્કાર છે. સાધુને સત્કારપુરસ્કારની પ્રાપ્તિ ઢાવાથી મૃદ્ધિ અને તેના અભાવમાં દ્વેષ ન કરવા જોઈએ. તેમ મનના સંતાપથી પાતે ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર ઃ ૧ Page #544 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रियदर्शिनी टोका अ२ गा.३९ सत्कारपुरस्कारपरीषहे सुधर्मशीलमुनिदृष्टान्तः ४८९ उत्थाने वन्दने दाने, न मवेदभिलाषुकः। असत्कारे न दीनः स्यात् , सत्कारे स्यान्न हर्षवान् ॥१॥ इति । अत्र दृष्टान्तः प्रदश्यते अरुणाचार्यः शिष्यपरिवारेण सह मथुरानगर्या समवसृतः। तत्रारिमर्दनो नाम भूपतिरासीत् , इन्द्रदत्तनामकस्तस्य पुरोहितस्तत्र निवसति । स जिनशासनविरोकरना चाहिये, किन्तु दीनता के परिहार से एवं सत्कारपुरस्कार की अनाकांक्षा से सत्कारपुरस्कार इन दोनों को सहन करते रहना चाहिये । इस प्रकार सद्भाव और असद्भाव के भेद से दो प्रकारका यह परीषह साधु को सहन करने योग्य बतलाया गया है । कहा भी है उत्थाने वन्दने दाने, न भवेदभिलाषुकः। असत्कारे न दीनः स्यात्, सत्कारे स्यान्न हर्षवान् ॥१॥ भावार्थ-वस्त्र पात्रादिक का लाभ हो चाहे न हो, कोई वंदनादिक करे या न करे, इस तर्फ लक्ष्य न देना और न इस विषयक हर्ष विषाद करना। चाहे कोई सत्कार करे चाहे न करे सब में समभाव रहना सो सत्कारपुरस्कारपरीषहजय है। दृष्टान्त-एक समय अरुणाचार्य अपने शिष्यपरिवार के साथ मथुरा नगरी में आये हुए थे। उस समय वहां अरिमर्दन राजा का राज्य था। राजा के पुरोहित का नाम इन्द्रदत्त था। यह उसी नगरी પિતાને દૂષિત ન કરે, પરંતુ દીનતાના પરિહારથી અને સત્કારપુરસ્કારની અનાકાંક્ષાથી સત્કારપુરસ્કાર આ બંને ને સહન કરતા રહેવું જોઈએ. આ પ્રકારે સદુભાવ અને અસદ્દભાવના ભેદથી બે પ્રકારને આ પરીષહ સાધુએ સહન કરવા યોગ્ય બતાવેલ છે. કહ્યું છે કે उत्थाने वंदने दाने, न भवेदभिलाषुकः। असत्कारे नदीनः स्यात् , सत्कारे स्यान्न हर्षवान् ॥१॥ ભાવાર્થ-વસ્ત્ર પાત્રાદિકને લાભ હોય અગર ન હોય, કેઈ વંદના આદિ કરે કે ન કરે, એ તરફ લક્ષ ન આપવું. અથવા ન આ વિષયમાં હર્ષ વિષાદ કરે. ચાહે કઈ સત્કાર કરે, ચાહે ન કરે સઘળામાં સમભાવ રહેવો તે સત્કારપુરસ્કાર પરીષહ જય છે. દષ્ટાંત—એક સમયે અરૂણાચાર્ય પોતાના શિષ્ય પરિવાર સાથે મથુરા નગરીમાં વિચરતા હતા. એ વખતે ત્યાં અરિમર્દન રાજાનું રાજ્ય હતું. રાજાના પુરોહિતનું નામ ઈન્દ્રદત્ત હતું. તે એજ નગરીમાં રહેતા હતા. જનશાસન પ્રત્યે उ० ६२ ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #545 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४९० उत्तराध्ययसूत्रे धित्वात् स्वगवाक्षस्थः सन्नधो व्रजन्तमरुणाचार्यस्य शिष्यं सुधर्मशीलनामकं मुनिं दृष्ट्वा धर्मद्वेषादचिन्तयत्-' अस्य मुनेः शिरसि पादं निक्षिपामि ' इति एवं विचिन्त्य, स तन्मस्तकोपरि स्वपादमवलम्बितं कृतवान् । ___यदा यदा भिक्षार्थ स्थण्डिलभूमौ वा मुनिस्तद्भवनाऽऽसन्नमार्गेण गच्छति, तदा तदाऽसौ पुरोहितः स्वगवाक्षे उपविश्य मुनिमस्तकोपरि पादधारणबुद्धया स्वपादौ तत्रावलम्बितौ कृत्वा हृष्टो भवति। एवं निरन्तरं कुर्वाणं दृष्ट्वाऽपि शान्तरससमुद्रोऽसौ मुनिर्मनसाऽपि नाकुप्यत् । एकदा मुनिमस्तकोपरि पादं निक्षिपन् स में रहता था। जिन शासन के प्रति इसका विरोध सदा से चला आता था। एक दिन की बात है कि जब यह अपने मकान के झरोखे में बैठा हुआ था उसी समय इसने अरुणाचार्य के एक शिष्य को कि जिनका नाम सुधर्मशील मुनि था दृष्टि को झुकाकर जाते हुए देखा । देखकर धर्म के प्रति द्वेष होने की वजह से इसने उसी पख्त विचार किया कि आज मैं इस मुनि के मस्तक पर पैर रखुं । ऐसा विचार कर झरोखे के पास से निकलते हुए मुनि के सिर के ऊपर अपने पैर लटका दिये। एक दिन उस नगर के सेठ ने कि जिसका नाम सुभद्र था इस पुरोहित को मुनि के मस्तक के ऊपर पैर रखते हुए देख लिया । मुनि के मस्तक ऊपर पुरोहित पैर इस तरह रखता था कि मुनि जबर भिक्षा के लिये या शौच के लिये उसके मकान की खिड़की के पास के मार्गसे हो कर निकलते तबर यह पुरोहित अपने मकानकी उस खिड़की में बैठ जाता और चलते हुए मुनि के मस्तक ऊपर अपने दोनों पैर તેને વિરોધ સદા ચાલ્યો આવતો હતો. એક દિવસની વાત છે કે, જ્યારે તે પિતાના મકાનના ઝરૂખામાં બેઠેલ હતો તે સમયે તેણે અરૂણાચાર્યના એક શિષ્યને કે જેનું નામ સુધમશીલ મુનિ હતું તેને નીચે માથું રાખી જતા તેણે જોયા. જેઈને ધર્મના તરફ ઢેષ હોવાના કારણે તેણે તે વખતે વિચાર કર્યો કે, આજ હું આ મુનિના મસ્તક ઉપર પગ રાખું. એ વિચાર કરી ઝરૂખાની પાસેથી નિકળતા મુનિના માથા ઉપર પિતાના પગ લટકાવ્યા. એક દિવસ એ નગરના જ સુભદ્ર નામના શેઠે આ પુરોહિતને મુનિના માથા ઉપર પગ રાખતા જોઈ લીધા. મુનિના માથા ઉપર પુરોહિત પગ એવી રીતે રાખતા કે, મુનિ જ્યારે જ્યારે ભિક્ષા માટે અગર શૌચ માટે તેના મકાનની ખડકીની પાસેના માર્ગેથી નીકળે ત્યારે ત્યારે તે પુહિત પિતાના મકાનની ખડકીમાં બેસી રહેતો, અને ચાલતા મુનિના માથા ઉપર પિતાના પગ રાખતે. ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #546 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रियदर्शिनी टीका अ०२ गा०३९ सत्कारपुरस्कारपरीषहे सुधर्मशीलमुनिदृष्टान्तः ४९१ पुरोहितस्तन्नगरश्रेष्ठिना सुभद्रनामकेन श्रावकेण दृष्टः। स सुभद्रश्रावको गुरोरपमानमसहमानोऽरुणाचार्यसमीपं गत्वा वदति-भदन्त ! पुरोहितकृतो भवदपमानो मया न सह्यते, यतो भवदीयशिष्यस्य मस्तकोपरि इन्द्रदत्तपुरोहितेन पादो निक्षिप्तः, तस्मादस्य यथोचितशासनं कर्तुमिच्छामि । आचार्येणोक्तम्-देवानुप्रिय ! यथा नृपादिकृते सत्कारे पुरस्कारे च न प्रमोदः क्रियतेऽस्माभिः, तथा तदभावे देषदैन्यादिकमपि न क्रियते, जैनधर्मद्वेषादसौ तथा करोति । अस्माभिस्त्वेष परीषहः सोढव्य एवं । रखने की इच्छा से पसार देता इससे वे मुनि के माथे ऊपर हो जाते थे। इस कार्य से पुरोहित को बड़ा मजा आता । पुरोहित की इस प्रवृत्ति को देखकर भी मुनिके चित्त में जरा भी विकृति नहीं आती, क्यों कि वे शान्तरस के समुद्र थे। किन्तु सुभद्र श्रावक को पुरोहित की यह बात सहन नहीं हुई। गुरु का अपमान देखकर उसका मन तिलमिला उठा। वह शीघ्र ही अरुणाचार्य के पास पहुँचकर कहने लगा-भदन्त ! पुरोहित द्वारा होता हुआ आपका अपमान मुझसे सहन नहीं किया जाता है, क्यों कि वह आप के शिष्य के मस्तक पर कई दिन से पैर जो रख रहा है, इसलिये मैं उसे इसका उचित उत्तर देना चाहता हूं। सुभद्र सेठ की बात सुनकर आचार्यमहाराज ने कहा कि देवानुप्रिय ! हम लोग जिस प्रकार नृपादिकद्वारा क्रियमाण सत्कारपुरस्कार में प्रसन्न नहीं होते हैं उसी प्रकार उसके अभाव में द्वेष एवं दैन्यादिक भी આ ક્રિયા એવી રીતે કરતે કે, પગ લાંબા કરી પસારતે કે જેથી તે મુનિના માથા ઉપર આવે. આ કાર્યમાં પુરોહિતને ખૂબ મજા આવતી. પુરોહિતની આ પ્રકારની પ્રવૃત્તિને જોઈને મુનિના મનમાં જરા પણ વિકૃતિ આવતી ન હતી. કારણ કે, તેઓ શાંતરસના સમુદ્ર હતા. પરંતુ સુભદ્રાવકથી પુરોહિતનું આ વર્તન સહન ન થયું ગુરુનું અપમાન જોઈને એનું મન ખૂબ વ્યગ્ર થઈ ગયું. તે તરત જ અરૂણાચાર્યની પાસે પહોંચીને કહેવા લાગ્યા, હે ભદન્ત! પુરેહિતથી થતું આપનું અપમાન મારાથી સહન થતું નથી કેમકે, તે આપના શિષ્યના મસ્તક પર કેટલાક દિવસથી પગ રાખી અસાતના કરે છે. હું તેને આને ઉચિત ઉત્તર આપવા ચાહું છું. સુભદ્રશેઠની વાત સાંભળીને આચાર્ય મહારાજે કહ્યું કે, દેવાનુપ્રિય! અમે લેકે જે પ્રકારે નૃપાદિક દ્વારા કરાયેલા સત્કારપુરસ્કારમાં પ્રસન્ન નથી થતા, તેવી રીતે તેના અભાવમાં શ્રેષ અને દૈન્ય આદિક પણ ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #547 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययन सूत्रे 9 एकदा गुरोः समीपमागत्य सुभद्रश्रावको वदति - भदन्त ! पुरोहितेन नूतनं भवनं निर्मापितं, तत्राऽसौ राजानं भोजयितुं निमन्त्रयति । तदा स आचार्यः पूर्वे उपयोगं दत्वा कथयति - देवानुप्रिय ! यदा राजा भवने प्रवेशं करिष्यति तदैव स्वया करं धृत्वा राजा भवनाद् बहिर्निःसारणीयः, तद्भवनं कुमुहूर्ते निर्मापितं येन राज्ञः प्रवेशसमये निश्चयेन तत् पतिष्यति । एतच्छ्रुत्वा सुभद्रश्रावकस्तस्मिन् भवने नहीं करते हैं । यह पुरोहित जो कुछ करता है वह जैनधर्म के प्रति अपने द्वेष से करता है। हमारा तो यही आचार है कि हमें यह परीषह सहन करना ही चाहिये । आचार्य महाराज की बात सुनकर सेठ अपने घर चला गया । पुनः एक समय आकर सुभद्र श्रावक ने आचार्य महाराज को यह खबर सुनाई कि पुरोहित ने एक नूतन भवन बनवाया है सो आज उसके प्रवेश के उत्सव में उस ने राजा को भोजन के लिये आमंत्रित किया है। मैं चाहता हूं कि पुरोहित का यह व्यवहार जो उसने मुनिराज के साथ किया है वहां जाकर चुपके २ राजा को सुनाया जाय । आचार्य महाराज ने सेठ की इस बात पर ध्यान न देकर उसे इस बात से सचेत किया कि देखो जब राजा पुरोहित के नूतन भवन में प्रवेश करने लगे तो तुम उसी समय उनका हाथ पकड़ कर मकान से बाहर निकाल लेना, क्यों कि वह भवन कुमुहूर्त में बना है, और ज्यों ही राजा उसमें प्रविष्ट होगा त्यों ही वह उस समय गिर पडेगा । मरते को बचाना अपना काम है, आचार्य महाराज की बात ४९२ કરતા નથી. આ પુરાહિત જે કાંઇ કરે છે તે જૈનધમ તરફના તેના દ્વેષને લઈને કરે છે. અમારી તા એ આચાર છે જ કે, અમારે આ પરીષહું સહુન કરવા જ જોઈ એ. આચાર્ય મહારાજની વાત સાંભળીને શેઠ પેાતાને ઘેર ચાલ્યા ગયા. ફરીથી એક વખતે આવીને સુભદ્રાવકે આચાર્ય માહારાજને એવી ખબર આપી કે, પુરાહિત એક નવું મકાન બનાવ્યું છે. અને આજ તેના વાસ્તુ મુહૂતમાં તેણે રાજાને ભેાજન માટે આમંત્રણ આપેલ છે. હું ચાહું છું કે, પુરહિતના આ વહેવાર જે તેણે મુનિરાજની સાથે કર્યાં છે, તે ત્યાં જઈને રાજાને ચુપકીદીથી કહેવામાં આવે. આ પ્રકારની શેઠની વાત ઉપર ધ્યાન ન આપતાં આચાર્ય મહારાજે જોઈ ને કહ્યું કે એ મકાન એવા કુમુહૂત માં તૈયાર કરવામાં આવ્યું છે કે તે મુહૂતને દિવસે જ પડી જવાનું છે. માટે રાજા જે સમયે એમાં દાખલ થવા જાય તે સમયે તમે તેમના હાથ પકડીને બહાર ખેંચી લેજો. મરતાને બચાવવા તે આપણા ધમ છે. આચાર્ય મહારાજની આ વાત સાંભળી શ્રાવક સુભદ્ર શેઠે ત્યાંથી નિકળી પુરેાહિતના નવા ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર ઃ ૧ Page #548 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रियदर्शिनी टीका. अ०२ गा०३९ सत्कारपुरस्कार परीब हे सुधर्मशीलमुनिदृष्टान्तः ४९३ राज्ञः प्रवेशसमये तद्रक्षार्थं गतः । तत्र भवने राजा यदैव प्रविशति, तदैव स करं धृत्वा वेगेन राजानमाकृष्य भवनाद्बहिर्निःसारयति, नृपे निःसारिते सत्येव तद्भवनं समूलं निपतितम् । नृपेणोक्तम् - कथमेतद्भवता विदितम् । श्रावकः प्राह-मम गुरुदेवेन केनचित् कथाप्रसङ्गेन बोधितम् - कुमुहूर्तनिर्मार्पितं भवनं नृपस्य प्रवेशका ले पतितं भविष्यतीति । इत्युक्तत्वा श्रावको नृपतिं निवेदयति- राजन् ! अयं पुरोहितः सुनकर श्रावक सुभद्र सेठ प्रवेश होने के समय राजा की रक्षा करने के अभिप्राय से उस मकान पर गया । ज्यों ही राजा ने आकर उस भवन के भीतर प्रवेश करना चाहा कि सुभद्र सेठ ने उनका हाथ पकड़ वहां से शीघ्र ही राजा को बाहिर की ओर खेंच लिया । राजा के बाहर होते ही वह मकान पूरा का पूरा गिरपड़ा। राजा ने जब परिस्थिति देखी तो उसे बड़ा ही आश्चर्य हुआ। राजा ने हाथ पकड़ कर बाहिर निकालने का कारण पूछा तो सुभद्रसेठ ने सब बात उन्हें स्पष्ट कह सुनाई । राजाने प्रसन्न होकर सुभद्र सेठ से पूछा सुभद्र ! तुम्हें इस बात का पता कैसे पड़ा ? सुभद्र सेठ ने कहा महाराज ! किसी प्रसङ्ग पर आज मेरे गुरुमहाराज ने मुझ से यह बात कही कि कुमुहूर्त में निर्मापित यह भवन नृप के प्रवेश करते समय गिर जायगा । राजा को इस पर बड़ा सन्तोष हुआ । उन्होंने आचार्य महाराज के अतिशय ज्ञान की बहुत प्रशंसा की और वहीं से उन्हें परोक्ष वंदन किया । इतने में ही सुअवसर देख મકાને પહોંચ્યા અને રાજાના આવવાની પ્રતિક્ષા કરવા લાગ્યા. રાજાએ આવી એ મકાનમાં પ્રવેશ કરવા શરૂ કર્યાં એટલે રાજાને ખચાવીલેવાના અભિપ્રાયથી તેની પ્રતિક્ષા કરી રહેલ સુભદ્ર શેઠે રાજાના હાથ પકડી આગળ વધતા અટકાવી દ્વીધા અને ઘેાડા પાછા ખેંચી લીધા. રાજાના બહાર ખેંચાઈ જવાની સાથેાસાથ જ એ આખુએ મકાન કડડભુસ કરતુ જમીનદોસ્ત બન્યું. રાજાને આ પરિસ્થિતિ જોઈ ખૂબજ આશ્ચય થયુ. તેણે સુભદ્રશેઠને તેનું કારણ પૂછ્યું ત્યારે તેણે સઘળી વાત રાજાને કહી સંભળાવી. રાજાએ પ્રસન્ન થતાં કહ્યું કે, આ વાતની જાણ કઇ રીતે થઇ ? સુભદ્રશેઠે જણાવ્યું કે, આજ મારા ગુરુદેવ સાથે વતચિતમાં આ પ્રસંગની વાત ઉપસ્થિત થતાં તેઓશ્રીએ કહ્યું કે, પુરાહિતના એ મકાનના પાયા એવા મુહૂત માં નાખવામાં આવ્યા છે કે રાજાના પ્રવેશ થતાંજ એ આખુ એ મકાન જમીનદોસ્ત થવાતુ. રાજાને આ વાતથી ઘણાજ સ ંતાષ થયા. એણે આચાર્ય મહારાજના ગાય એવા જ્ઞાનની ખૂબજ પ્રસશા કરી અને ત્યાંથી જ એમને પરોક્ષ વદન કર્યું. આ વખતે સુઅવસર જોઈ સુભદ્ર શેઠે ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર ઃ ૧ Page #549 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४९४ उत्तराध्ययनसूत्रे .9 1 कुमुहूर्ते भवनं निर्माय भोजनार्थं भवन्तमामन्त्रितवान् मम गुरुदेवं चानेन पथा गच्छन्तं दृष्ट्वा गवाक्ष देशावस्थितोऽयं प्रत्यहं तन्मस्तकोपरि धर्मद्वेषात पादं निक्षिपति । एतद्वचनं श्रुत्वा नृपस्तस्य दुष्टभावसंपन्नस्य पुरोहितस्य पादच्छेदरूपं दण्डं कर्तुं स्वभृत्यानाज्ञापयत् । इयं राजाज्ञानगरे तत्कालमेव प्रसृता, अरुणाचार्येणापि श्रुता । ततः करुणार्द्रचित्तः स मुनिः स्वशिष्येण नृपतिं प्रबोध्य तं पुरोहितमरक्षयत् । एवमन्यैरपि मुनिभिः सुधर्मशीलमुनिवत् सत्कारपुरस्कार परीषहः सोढव्य इति ॥ ३९॥ कर सुभद्र सेठ ने राजा को मुनि के प्रति हुए पुरोहित का व्यवहार भी आद्योपान्त सब स्पष्ट कर के सुना दिया, कहा कि - हे राजन् ! आपके इन पुरोहित ने इस भवन का निर्माण कुमुहूर्त में कराया है और उसमें प्रवेश के उत्सव पर आपको भोजन के लिये आमंत्रित किया है । मेरे गुरु महाराज इस भवन की झरोखे के पास से जब २ होकर निकलते हैं तब २ यह धर्म के द्वेष से झरोखे में बैठ कर " मुनिके माथे ऊपर दोनों पैर, मेरे रहे " इस भावना से पैर पसार दिया करता है । सुभद्र श्रावक की इस बात को सुनकर राजा ने "यह पुरोहित दुष्टभाव संपन्न है " यह जान लिया और अपने नौकरों को यह आदेश दिया कि इसके दोनों पैर काट डालो | यह राजाज्ञा नगर में वायुवेग से फैल गयी । अरुणाचार्य को भी यह बात मालुम हुई तो उन्हों ने अपने शिष्य द्वारा राजा को समझा बुझा कर पुरोहित को बचा लिया। इस कथा से यही शिक्षा પુરોહિતદ્વારા મુનિપ્રત્યે કરાતા અપમાનીત વ્યવહારની વાત વિગતથી રાજા સમક્ષ રજુ કરી અને કહ્યુ કે, હે રાજન્! આપના આ પુરેહિતે આ મકાનનું નિર્માણુ કુમુહૂર્તમાં કર્યું" અને તેમાં પ્રવેશના ઉત્સવ ઉપર આપને ભેાજન માટે આમંત્રણ આપેલ છે. મારા ગુરુમહારાજ આ મકાનના ઝરૂખાપાસેથી જ્યારે જ્યારે નિકળે છે ત્યારે ત્યારે પુરોહિત ધર્મના દ્વેષથી ઝરૂખામાં બેસી એમના માથા ઉપર “ મારા મને પગ રહે” આ ભાવનાથી પગ લાંમા કરી દે છે. સુભદ્ર શેઠેની વાત સાંભળી રાજાએ “આ પુરાહિત દુષ્ટ ભાવનાથી ભરેલ છે” આ વાત જાણી લીધી, અને પેાતાના નાકરાને હુકમ કર્યાં કે, પુરોહિતના બન્ને પગ કાપી નાખેા. આ પ્રમાણેની રાજાની આજ્ઞા વાયુવેગથી નગરમાં ફેલાઈ ગઈ અને તે અરૂણાચાય મુનિના જાણવામાં આવતા તેઓએ પેાતાના શિષ્ય મારફત રાજાને સમજાવી પુરાહિતને બચાવી લીધા. આ કથાથી એ જાણી ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર ઃ ૧ Page #550 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४९५ %3D प्रियदर्शिनी टीका. अ० २ गा.४१-४१ प्रज्ञापरीषहजयः अथ विंशतिसमं प्रज्ञापरीषहमाह-- मूलम् -से' य नणं मएँ पुव्वं, कम्माऽणाणफला कैंडा। जेणाहं नाभिजाणामि, पुट्ठो केणई कण्हुइ ॥४०॥ अह पच्छो उईज्जंति, कम्माऽणाणफला कडी। ऍवमासासि अप्पाणं, नच्चा कम्मविवागयं ॥४१॥ छाया-अथ नूनं मया पूर्व, कर्माणि अज्ञानफलानि कृतानि । येनाहं नाभिजानामि, पृष्टः केनचित् कस्मिंश्चित् ॥ ४० ॥ अथ पश्चाद् उदीयन्ते, कर्माणि अज्ञानफलानि कृतानि ।। एवम् आश्वासय आत्मानं, ज्ञात्वा कर्मविपाककम् ॥४१॥ टीका-'से य नूणं' इत्यादि, 'अहपच्छा' इत्यादि। अथ च नून-निश्चयेन, मया पूर्व-पूर्वकाले-पूर्वभवे इत्यर्थः, अज्ञानफलानि= अज्ञानोत्पादकानि, कर्माणि ज्ञानावरणीयकर्माणि, कृतानि धर्माचार्यगुरुश्रुतज्ञाननिन्दाध्ययनबाधादिभिरुपार्जितानि । उक्तञ्चमिलती है कि सुधर्मशील मुनि की तरह प्रत्येक मुनि को सत्कारपुरस्कार परीषह सहन करते रहना चाहिये ॥३९॥ अब बीसवा प्रज्ञापरीषहको सूत्रकार बतलाते हैं'से य नृणं इत्यादि। 'अह पच्छा' इत्यादि। अन्वयार्थ-प्रज्ञापरीषहको जीतनेके लिये साधु विचार करे कि (नूणंनूनम् )निश्चयसे (मए-मया) मैंने (पुव्वं-पूर्वम् ) पूर्वभवमें (अण्णाणफला कम्मा कडा-अज्ञानफलानि कर्माणि कृतानि) धर्माचार्य गुरु महाराज और श्रुतज्ञान की निंदा करने से तथा किसी के ध्यान अध्ययन में विघ्न डालनेसे अज्ञानोत्पादक ज्ञानावरणीय आदि कर्मों का उपार्जन किया है। શકાય છે કે, સુધર્મશીલ મુનિની જેમ પ્રત્યેક મુનિએ સત્કારપુરસ્કાર પરીષહ सहन ४२ता २ न . ।। 36॥ હવે વીસમા પ્રજ્ઞાપરીષહને સૂત્રકાર બતાવે છે‘से य नूणं' इत्याहि. 'अह पच्छा' त्याहि. अन्वयार्थ-प्रशापरीषडन यता भाटे साधु विया२ ४२ है, नूणं-नूनं निश्चयथी मए-मया में पुव्वं-पूर्व पूनम अण्णाणफला कम्मा कडा-अज्ञातफलानि-कर्माणि कृतानि धर्मायार्य शुरुमहरा भने श्रुतज्ञाननी निही ४२१मां તથા કેઈના ધ્યાન અધ્યયનમાં વિદ્ધ નાખવાનું, આજ્ઞાનોત્પાદક જ્ઞાનાવરણીય ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #551 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५९६ उत्तराध्ययनसूत्रे नाणस्स नाणिणं चिय, निंदा पदोसमच्छरेहि य । उवधायणविग्धेहिं, नाणग्यं बज्झए कम्मं ॥ १॥" छाया-ज्ञानस्य ज्ञानिनां चैव, निन्दापद्वेषमत्सरैश्च । उपधातनविघ्नैः, ज्ञानघ्नं बध्यते कम ॥१॥ येन यस्मात् कारणात् , केनचित्-जिज्ञासुना, कस्मिश्चित्-जीवादितत्त्वविषये, पृष्टोऽहं नाभिजानामि अज्ञानवशात् प्रश्नस्योत्तरं कर्तुं न शक्नोमीत्यर्थः । पूर्वोपार्जित-ज्ञानावरणीय-कर्मोदयात् मया ज्ञानं न लभ्यते, अतः प्रश्नोत्तरं कर्तुमसमर्थो भवामीति भावः । उक्तञ्च-- ( जेण-येन ) जिसके कारण से ( केणइ-केनचित् ) किसी जिज्ञासु के द्वारा (कण्हुइ-कस्मिंश्चित् ) किसी भी जीवादिक तत्त्व के विषय में (पुट्ठो-पृष्टः) पूछे जाने पर (अहं) मैं (नाभिजाणामि-नाभिजानामि) कुछ भी नहीं जान सकता हू, अर्थात् अज्ञानवश उसके प्रश्न का कुछ भी उत्तर नहीं दे सकता हूं। कहा भी है "नाणस्स नाणिणं चिय, निंदा पदोसमच्छरेहिं य। उवघायण विग्घेहि, नाणग्घं वज्झए कम्मं ॥१॥" ज्ञान एवं ज्ञानियों की निंदा करने से, उनमें षिषुद्धि रखने से, उनके साथ मत्सरभाव रखने से, उनका उपघात करने से अथवा ज्ञान के साधनों में अथवा ज्ञानियों के ज्ञानोपार्जन में विघ्न करने से जीव ज्ञाननाशक कर्म का बंध करता है। माहि भानु S 1 ४रेस छ जेण-येन मेन रथी केणइ-केनचित् अध ज्ञासु द्वारा कण्हुइ-कस्मिंश्चित् ५ वा तत्वना विषयमा पुट्ठो-पृष्ठ पुछपामा माथी अहं नाभिजाणामि-नाभिजानामि is ते नथी અર્થાત્ અજ્ઞાનવશ એમના પ્રશ્નને કાંઈ પણ ઉત્તર આપી શકતા નથી. કહ્યું પણ છે કે – "नाणस्स नाणिणं चिय, निंदा पदोसमच्छरेहिं य। उवधायण विग्धेहि, नाणग्धं वज्झए कम्मं ॥" જ્ઞાન અને જ્ઞાનીની નિંદા કરવાથી, એમનામાં શ્રેષબુદ્ધિ રાખવાથી, એની સાથે મત્સરભાવ રાખવાથી, એને ઉપઘાત કરવાથી અથવા જ્ઞાનના સાધનમાં અથવા જ્ઞાનીના જ્ઞાનોપાર્જનમાં વિદ્ધ કરવાથી જીવ જ્ઞાનનાશક કર્મને બંધ કરે છે. ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #552 -------------------------------------------------------------------------- ________________ %3 प्रियदर्शिनी टीका. अ० २ गा० ४०-४१ प्रज्ञापरीषहजयः ४९७ "सुहासुहाणि कम्माणि, सयं कुव्वंति देहिणो । सयमेवोव जंति, दुहाणि य सुहाणि य ॥१॥" छाया-शुभाशुभानि कर्माणि, स्वयं कुर्वन्ति देहिनः । स्वयमेवोपभुञ्जते, दुःखानि च सुखानि च ॥ १॥४०॥ ____ भावार्थ-साधु के ऊपर सब ही का विश्वास होता है। प्रत्येक व्यक्ति उनसे अपनी जिज्ञासाका समाधान जानने का अभिलाषी तथा उत्सुक रहता है, इस परिस्थिति में यदि कोई जिज्ञासु पुरुष मुनि के पास आकर जीवादितत्त्वविषयक अपनी शंका की निवृत्ति करना चाहे और वह साधु से इस विषय में प्रश्न करे, और मुनि उसका उत्तर नहीं दे सके तो उस मुनि को चाहिये कि अपनी आत्मा में संक्लिष्ट परिणाम न करे, किन्तु समभाव से इस प्रकार सोचे कि मेरे ज्ञानावरणीयादिक कर्मों का कितना तीव्र उदय है जो ज्ञान के साधन होने पर भी मुझे ज्ञान की प्राप्ति नहीं हुई है। बुद्धि में इस प्रकार की मंदता का कारण मेरे-पूर्व में गुर्वादिक की निंदा आदि से उपार्जित ज्ञानावरणीयादिक कर्म ही हैं। इस में किसी का दोष नहीं है । जैसे कहा भी है "सुहासुहाणि कम्माणि, सयं कुव्वंति देहिणो॥ सयमेवोव जंति, दुहाणि य सुहाणि य ॥१॥" देही-आत्मा-शुभ और अशुभ कर्मों को स्वयं उपार्जित करता है और उनके फल सुख दुःखादिक को स्वयं ही भोगता है ॥४०॥ - ભાવાર્થ–સાધુના ઉપર દરેકને વિશ્વાસ હોય છે, પ્રત્યેક વ્યક્તિ પિતપિતાની જીજ્ઞાસાનું સમાધાન એમની પાસેથી મેળવવાના અભિલાષી તથા ઉત્સુક રહે છે. આ પરિસ્થિતિમાં જે કંઈ જીજ્ઞાસુ પુરૂષ મુનિની પાસે આવી જીવાદિતત્વ વિષયક પિતાની શંકાનું નિવારણ કરવા ઈચ્છે અને તે સાધુને આ વિષયમાં પ્રશ્ન કરે અને મુનિ એને ઉત્તર ન આપી શકે તો એ મુનિ પિતાના આત્મામાં શંકાશિત વૃત્તિ ન જાગવા દે પરંતુ સમભાવથી એવું વિચારે કે, મારા જ્ઞાનાવરણીયાદિક કર્મોને કેટલો તીવ્ર ઉદય છે કે જે જ્ઞાનના સાધન હેવા છતાં પણ મને જ્ઞાનની પ્રાપ્તિ થઈ શકી નથી. બુદ્ધિમાં આ પ્રકારની મંદતાનું કારણ મેં-પૂર્વભવમાં ગુરુ આદિની નિંદા વગેરેથી ઉપાજીત કરેલ જ્ઞાનાવરણીયાદિક કર્મ જ છે. એમાં કોઈને દોષ નથી. જેમ કહ્યું પણ છે– "सुहासुहाणि कम्माणि, सयं कुव्वंति देहिणो। सयमेवोवसुंजंति, दुहाणि य सुहाणि य ॥१॥" આત્મા શુભ અને અશુભ કર્મોને સ્વયં ઉપાજીત કરે છે, અને એના स्१३५ सुभ माहिने स्वयं लोगवे छे. ॥४०॥ उ० ६३ ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #553 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४९८ उत्तराध्ययनसूत्रे 'अह पच्छा ' इति। ___ अथ अज्ञानफलानि अज्ञानोत्पादकानि कर्माणि कृतानि तानि पश्चात्-अबाधोत्तरकालम् , 'उदीयन्ते 'अज्ञानरूपेण अलर्क-मूषिकविषविकारवद् उदितानि भवन्ति, एवम् अमुना प्रकारेण कर्मविपाककं कर्मणः फलं, ज्ञात्वा हे शिष्य ! आत्मानम् आश्वासय स्वस्थीकुरु, 'स्वयं कृतानामेव ज्ञानावरणीयकर्मणां कुत्सितं फलमेतत् , यदहं न जानामि-प्रश्नोत्तरमिति विज्ञाय स्वस्थो भव, न तु तनिमित्तकं विषादं कुरु इत्यर्थः । 'कम्मा' इति बहुवचनं कर्मबन्धहेतूनां बहुत्वात् । ____ अन्वयार्थ-(कडाऽनाणफला कम्मा-कृतानि अज्ञानफलानि कर्माणि) गुर्वादिकोंकी निंदा आदिसे पूर्वभवमें उपार्जित तथा ज्ञानमें अंतराय डालने वाले-ज्ञान के निरोधक-ऐसे ज्ञानावरणीयादिक कर्म अपने अबाधाकाल के बाद (उइज्जंति-उदीयन्ते) पागल कुत्ते अथवा पागल चूहेके विष के विकार की तरह अज्ञानरूप से उदय में आते हैं। (एवं कम्मविवागयंएवं कर्मविपाककम् ) इस प्रकार कर्म के फल को (नच्चा-ज्ञात्वा) जानकर हे शिष्य ! (अप्पाणं आसासि-आत्मानं आश्वासय) तुम अपनी आत्मा को कुछ नहीं आने पर-दूसरों के प्रश्नों का उत्तर नहीं दे सकने पर धैर्य बधाओ-इस निमित्त को लेकर विषाद मत करो। भावार्थ-प्रज्ञापरीषह को जीतने के लिये सूत्रकार साधुओं के लिये शिक्षा देते हैं कि जो जैसा करता है उसे फल भी वैसा ही मिलता है। बबूल का झाड बोने पर कोई उससे आम्रफल प्राप्ति की आशा करे तो व्यर्थ है । इसी प्रकार पूर्वभव में जिस जीव ने जिन २ अन्वयार्थ -कडाऽनाणफला कम्मा-कृतानि अज्ञानफलानि कर्माणि पूनम ગુરુ આદિની નિંદાથી ઉપાજીત તથા જ્ઞાનમાં અંતરાયનાખવારૂપ-જ્ઞાનના નિરોધકसेवा ज्ञानावरणीयाहि भ पोताना वितरण ५छी उइज्जति-उदीयन्ते य॥ કુતરાના અથવા વકરેલા ઉંદરના વિષના વિકારની માફક અજ્ઞાન રૂપથી ઉદયમાં भाव छ. एवं कम्मविवागयं-एवं कर्मविपाककम् मा प्रारे ४मना २ नच्चा-ज्ञात्वा मी शिष्य ! अप्पाणं आसासि-आत्मानं आश्वासय तमे पोताना मात्मामां કાંઈ ન આવવાથી બીજાના પ્રશ્નોને ઉત્તર આપી શકતા નથી એ. જાણીને આ બધાના નિમિત્તને લઈ વિષાદ ન કરે. ભાવાર્થ–પ્રજ્ઞાપરીષહને જીતવા માટે સૂત્રકાર સાધુઓ માટે શિક્ષા રૂપથી કહે છે કે, જે જેવું કરે છે, તેને તેવું ફળ મળે છે. કોઈ બાવળનું ઝાડ વાવીને તેમાંથી આંબાના ફળની આશા રાખે તે તે વ્યર્થ છે. ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #554 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रियदर्शिनी टीका अ० २ गा० ४०-४१ प्रज्ञापरीषहजयः ४९९ इदं गाथायुग्मं प्रज्ञाया अपकर्षमाश्रित्य व्याख्यातम् । इदमुपलक्षणं- यदि ज्ञानावरणीयकर्मणां क्षयोपशमात् प्रज्ञाया उत्कर्षः स्यात् तदा तनिमित्तकं मदं न कुर्यादित्यपि बोध्यमिति । उक्तं हि । कारणों द्वारा जिन २ कर्मों का बन्ध किया है वे वे कर्म अवाधाकाल के बाद उस जीव के उदय आते रहते हैं । जब हे आत्मन् ! गुर्वादिक की निंदा करने से, शास्त्रों का अवर्णवाद बोलने से, उपघात से अर्थात् ज्ञानादिक के साधनों का नाश करने से, ज्ञान की अन्तराय देने से तूने तीव्र ज्ञानावरणीयादिक कर्मों का बंध किया है, तो उनका फल भी तुझे वैसा ही भोगना पडेगा। इसमें कोई के हाथ की बात नहीं है। जिन ज्ञानावरणीयादिक कमौं का तूने बंध किया है वे उन उन रूप में ही उदय आवेंगे । अतः यदि तेरे से कोई जीवादिक तत्त्वों के विषय में कुछ पूछता है और तुझे उस विषय का कोई उत्तर ज्ञान में नहीं झलकता है इससे तू आत्मा में हीनता की भावना मत कर, और न खेद ही कर, किन्तु अपने आत्मा को धैर्य बंधा और इस प्रकार समझा कि यह तेरे ही किये हुए कर्म हैं अतः तुझे ही भोगना पडेगा । फिर इसमें हर्षविषाद करने की जरूरत क्या है ? । इस प्रकार इस परिणति से आत्मा प्रज्ञापरीषह को बहुत अच्छी तरह सहन कर सकता है। આ પ્રકારે પૂર્વભવમાં જે જીવે છે જે કારણે દ્વારા જે જે કર્મોને બંધ કર્યો હોય તે તે કર્મ અબાધાકાળની બાદ તે તે જીવને ઉદયમાં આવે છે. આથી હે આત્મન ! ગુરુ આદિની નિંદા કરવાથી, શાસ્ત્રોને અવર્ણવાદ બલવાથી, ઉપઘાતથી અર્થાત્ જ્ઞાનાદિકનાં સાધનને નાશ કરવાથી જ્ઞાનમાં અંતરાય નાખવાથી, તેં તીવ્ર જ્ઞાનાવરણીયાદિક કર્મને બંધ કર્યો છે તે તેનું ફળ પણ તારે તેવુંજ. ભેગવવું પડશે. તેમાં કોઈના હાથની વાત નથી. જે જ્ઞાનાવરણીય કર્મોને તે બંધ કર્યો છે, તે તેવા તેવા રૂપમાંજ ઉદયમાં આવશે. આથી જે તને કઈ છવાદિક તના વિષયમાં કાંઈ પુછે છે તે તને એ વિષયને કઈ જ્ઞાનભર્યો ઉત્તર જડતું નથી તે તેનાથી તે પોતાના આત્મામાં હિનતાની ભાવના અને ખેદ કરીશ નહીં. પરંતુ પોતાના આત્મામાં ધયે રાખ અને એ પ્રકારે સમજાવી કે, આ તારાંજ કરેલાં કર્મ છે. એથી એ તારે જ ભોગવવા પડશે. પછી આમાં હર્ષ વિષાદ કરવાની જરૂર જ શું છે ? આ પ્રકારે આ પરિણતીથી આત્મા પ્રજ્ઞા परीषन भूम०४ सारी रीत सन ४३ श छ. गाथाभा “कम्मा" ये माई. ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #555 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०० उत्तराध्ययसूत्रे पूर्वपुरुषसिंहानां विज्ञानातिशय सागरानन्त्यम् । " श्रुखा सांप्रत पुरुषाः, कथं स्वबुद्धया मदं यान्ति ॥ १ ॥ यद्वा - इह तन्त्रेणार्थद्वयसंभवः अनेकार्थबोधनेच्छातः सकृदुच्चारणं तन्त्रम् । अथ च - तन्त्रन्यायेनार्थद्वयस्य युगपत्संभवः - तन्त्रं च दैर्घ्यप्रसारितास्तन्तवः, ततो यथा - दैर्घ्यप्रसारितमेकं सूत्रमनेकस्य तिरश्वीनस्य तन्तो: संग्राहि, तथा यदेकया गाथा में " कम्मा यह जो बहुवचनान्त शब्द का प्रयोग किया गया है वह कर्मों के बंध के हेतु अनेक हैं, इस आशय को प्रगट करने के लिये किया है। चालीस और इकतालीसवी गाथा का जो इस प्रकार विवेचन किया गया है वह बुद्धि की मन्दता को लक्ष्य में लेकर किया है । यदि ज्ञानावरणीय कर्मों के क्षयोपशम से प्रज्ञा का उत्कर्ष आत्मा में हो तो उस समय साधु को इस प्रज्ञानिमित्तक मद - अहंकार नहीं करना चाहिये । यह बात भी उपलक्षण से समझ लेनी चाहिये। कहा भी हैपूर्वपुरुषसिंहानां विज्ञानातिशयसागरानन्त्यम् । श्रुत्वा साम्प्रतपुरुषाः, कथं खबुद्धया मदं यान्ति ॥ १ ॥ पहिले के श्रेष्ठ पुरुषों के असाधारण विज्ञान की बातों को सुनकर ऐसा कौन पुरुष होगा जो अपने ज्ञान का मद - अहंकार करेगा । इसलिये बुद्धि की प्रकर्षता का भी मद नहीं करना चाहिये । तन्त्र न्याय से प्रज्ञा के उत्कर्ष अपकर्षरूप दोनों अर्थ भी युगपत् विवक्षित हो सकते हैं। जैसे एक लंबा फैला हुआ डोरा तिरछे फैले हुए अनेक વચનાત્મક શબ્દના પ્રયેાગ કરેલ છે તે કમ'ના અધના હેતુ અનેક છે તેવા આશય તાવવા માટેજ કરેલ છે. ચાળીસ અને એકતાળીસમી ગાથામાં જે આ પ્રકારે વિવેચન કરેલ છે તે બુદ્ધિની મંદતાને લક્ષમાં લઈ ને કરેલ છે. જો કદી જ્ઞાનાવરણીય કર્માંના ક્ષચાપશમથી પ્રજ્ઞાના ઉત્કર્ષ આત્મામાં હોય તે તે સમયે સાધુએ આ પ્રજ્ઞા નિમિત્તક મર્દ અહંકાર ન કરવા જોઇએ. આ વાત પશુ ઉપલક્ષણથી સમજી લેવી જોઈએ. કહ્યું પણ છે— पूर्वपुरुषसिंहानां विज्ञानातिशयसागरानन्त्यम् । 9 श्रुत्वा साम्मतपुरुषाः, कथं स्वबुद्ध्या मदं यान्ति ॥ १ ॥ પહેલાં શ્રેષ્ટ પુરૂષાની અસાધારણ વિજ્ઞાનની વાતા સાંભળીને એવા ચૈા પુરૂષ હશે કે જે પેાતાના જ્ઞાનના મઢ અહંકાર કરશે ? આથી બુદ્ધિની પ્રકાઁતાના પણ મદ ન કરવા જોઇએ. તંત્ર ન્યાયથી પ્રજ્ઞાના ઉત્કર્ષ અપક રૂપ અને અર્થ પણ યુગપત્ વિશ્વક્ષિત બની શકે છે. જેમ એક લાંબા ફેલાએલા દેશ આડા અવળા ફેલાએલા ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર ઃ ૧ Page #556 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रियदर्शिनी टीका. अ०२ गा० ४०-४१ प्रशापरीषहजयः गाथया अनेकार्थस्याभिधानं स तन्त्रन्यायः, तद्विवक्षया प्रज्ञाया उत्कर्षमाश्रित्यापि भगवता गाथाद्वयं कथितम् । उपलक्षणस्वे तु तात्पर्यग्राहकतया प्रमाणान्तरं श्रुतमपेक्षणीयं स्यात्, अतस्वन्त्राश्रयणादिह व्याख्याद्वयं क्रियते । तत्र प्रज्ञाया उत्कर्ष - पक्षे एवं गाथाद्वयं व्याख्यायते— ५०१ प्रज्ञोत्कर्षता एवं चिन्तनीयम् - अथ नूनं मया पूर्व कर्माणि = ज्ञानप्रशंसाज्ञानिवैयावृत्यादिरूपाण्यनुष्ठानानि, ज्ञानफलानि = ज्ञानमिह विमर्शपूर्वको बोधस्तत्फलकानि, कृतानि येन हेतुना - केनापि = अविवक्षित विशेषेण सर्वेणापीत्यर्थः, कस्मिंश्चित् = यत्र कुत्रापि वस्तुनि विषये पृष्टः अहं, ना मनुष्यः, विशिष्टमनुष्यत्व - मनुभवन् अभिजानामि । तन्तुओं का वस्त्रादिक में संग्राहक होता है उसी प्रकार एक गाथा द्वारा युगपत् अनेक अर्थों का भी संग्रह होता है, यही तन्त्र न्याय है । इस विवक्षा से इन दोनों गाथाओं द्वारा प्रज्ञा का उत्कर्ष लेकर भी प्रज्ञापरीषह का कथन हो सकता है। इसी अभिप्राय से सूत्रकार ने ये दोनों गाथाएँ कही हैं । बुद्धि की प्रकर्षता को लेकर व्याख्यानइस प्रकार है www मैने पूर्वभव में ज्ञानप्रशंसा, ज्ञानियों की वैयावृत्त्य आदिरूप शुभ कर्म किये हैं इसलिये इनका फल मुझे विमर्शपूर्वक बोधरूप में मिला है । इसलिये इस के प्रभाव से मैं जब कोई मुझ से किसी भी विषय की अपनी जिज्ञासा समाधान करने के रूप में उपस्थित करता है उसकी उस जिज्ञासा का यथोचित समाधान कर देता हूं, इससे उस पूछने वाले को सन्तोष हो जाता है । इसलिये सूत्रकार इकतालीसवीं गाथा द्वारा ऐसे श्रुतशाली - साधु को यह समझाते हैं कि हे साधो ! અનેક તાણાવાણાને વજ્રરૂપમાં ફેરવનાર બને છે, તે પ્રકારે એક ગાથા દ્વારા યુગપત્ અનેક અર્થાના પણુ સંગ્રહ થાય છે આ તંત્ર ન્યાય છે આ વિવક્ષાથી આ બન્ને ગાથાઓ દ્વારા પ્રજ્ઞાના ઉત્કર્ષ લઈને પણ પ્રજ્ઞાપરીષહતું કથન બની શકે છે, આ અભિપ્રાયથી ભગવાન સૂત્રકારે આ બન્ને ગાથાઓ કહી છે. બુદ્ધિની પ્રકર્શતા અતાવનાર વ્યાખ્યાન આ પ્રકારનુ` છે. મેં પૂર્વભવમાં જ્ઞાન પ્રશંસા, જ્ઞાનિઓની વૈયાવૃત્તિ આદિ રૂપ શુભ કર્મ કરેલ છે. એનું ફળ મને વિમ પૂર્વક ખાધરૂપમાં મળેલ છે. આ કારણે એના પ્રભાવથી જ્યારે કાઈ મારી પાસે કાઈ પણ વિષયની પેાતાની જીજ્ઞાસા સમા ધાન કરવાના રૂપમાં ઉપસ્થિત કરે છે ત્યારે હું એ જીજ્ઞાસાનુ યયેાચિત સમાશ્વાન કરી દઉં છુ. આથી એ પૂછવાવાળાને સંતેષ થાય છે, આ માટે સૂત્રકાર એકતાળીસમી ગાથાદ્વારા એવા શ્રુતશાળી-સાધુને એમ સમજાવે છે કે, હે સાથેા ! ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર ઃ ૧ Page #557 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०२ उत्तराध्ययनसूत्रे तत्र-श्रुतमदो न कर्तव्य इति बोधयितुमाह- अह पच्छा' इत्यादि । अथ= उत्कर्षभावनानन्तरम् , एवं विभावनीयम्-मया पूर्वभवे कृतानि ज्ञानफलानि कर्मागि पश्चात् अबाघोत्तरकालम् , इदानीम्, उदीयन्ते-उदितानि भवन्ति, एवं कर्मविपाककं ज्ञात्वाऽऽत्मानम् आश्वासय-आत्मनि शान्ति स्थापय, न तु तनिमित्तकं मदं कुरु । अयं भावः-श्रुतमदो हि ज्ञानावरणीयकर्मणः कारणम् , तच्चावश्यवेधम् , तदुदये च कुतो ज्ञानम् , तस्माच्छ्रुतमदो न कर्तव्यः । यतः--" नाणं मयदप्पहरं, मज्जइ जो तेण तस्स को वेज्जो । अमियं जस्स विसायइ, तस्स तिगिच्छा कहं किज्जइ" ॥१॥ छाया--ज्ञानं मददर्पहरं, माद्यति यस्तेन तस्य को वैद्यः । अमृतं यस्य विषायते, तस्य चिकित्सा कथं क्रियते ॥१॥ इत्येवं चिन्तनेन शान्ति प्राप्नुहोति ।। वस्तुतस्तु-गाथाद्वयमिदं युग्मकम् । ' से ' अथ नूनं निश्चयेन मया पूर्व-पूर्व भवे-अज्ञानफलानि कर्माणि कृतानि येन कारणेनाहं केनापि जिज्ञासुना कस्मिंश्चित् जीवाजीवादिस्वरूपविषये पृष्टः सन् नाभिजानामि मन्दबुद्धित्वाज्जीतुमने यदि पूर्वभव में ज्ञान के साधनों का अनुष्ठान करके यदि इस भव में दूसरों की अपेक्षा कुछ विशिष्ट ज्ञान प्राप्त कर लिया है, तो तुम इस ज्ञानरूप श्रुत का मद मत करो, किन्तु अपनी आत्मा में शांतिभाव से रहो-आत्मा को समझाते रहो कि कहीं ऐसा न हो जाय कि मद करने से आत्मा ज्ञानावरणीय आदि कर्म का बन्ध करले। इस कर्म के बंध में जब इसका उदय अपनी अबाधाकाल के बाद में आता है तो जीव यथार्थ ज्ञान से रहित हो जाता है, इसलिये हे शिष्य तुं श्रुत का मद मतकर । तात्पर्य इन दोनों गाथाओं का यह है कि जिस समय आत्मा में प्रज्ञा की हीनता हो तो मुनि को ऐसा તમે કદાચ પૂર્વભવમાં જ્ઞાનના સાધનનું અનુષ્ઠાન કરી જે આ ભાવમાં બીજાની અપેક્ષાએ કાંઈ વિશિષ્ટ જ્ઞાન પ્રાપ્ત કરેલ છે તો તમે એ જ્ઞાનરૂપ શ્રતને મદ ન કરે. પણ તમારા આત્મામાં શાંતિભાવથી રહે આત્માને સમજાવતા રહો કે કયાંય એવું ન બની જાય કે, મદ કરવાથી આત્મા જ્ઞાનાવરણીય આદિ કર્મોનું બંધન કરી લે. એ કર્મના બંધમાં જ્યારે એને ઉદય પિતાની અબાધાકાળની પછી આવે છે ત્યારે જીવ યથાર્થ જ્ઞાનથી રહિત થઈ જાય છે. આ માટે છે શિષ્ય! તું શ્રતને મદદન કર. આ બન્ને ગાથાનું તાત્પર્ય એ છે કે, જે સમયે આત્મામાં પ્રજ્ઞાની હિનતા હોય ત્યારે મુનિએ એ વિચાર ન કરવો જોઈએ ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #558 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रियदर्शिनी टीका. अ० २ गा.४०-४१ प्रज्ञाऽपकर्षे भद्रमतिमुनिदृष्टान्तः ५०३ वादिस्वरूपं निरूपयितुं न समर्थोऽस्मि । एवम् अमुना प्रकारेण कर्मविपाक-पूर्वोपार्जित-ज्ञानावरणीयकर्मफलं ज्ञात्वा आत्मानम् आश्वासयेत्युत्तरगाथया सम्बन्धः अयमर्थ:-हे शिष्य ! बुद्धिमान्धविषये विषादमकृत्वा, तपः संयमाराधने प्रवृत्तो भव । तपःसंयमाराधनेन हि केवलज्ञानप्राप्तिरपि भवितुमर्हतीति सोत्साहं तत्समाराधने तत्परो भवेति भावः। अथ-प्रज्ञाप्रकर्षे पश्चात्-कदाचित्तथाविधज्ञानावरणीयक्षयोपशमानन्तरं 'कम्माणाणफला' इत्यस्य कर्माणि ज्ञानफलानि इति च्छाया तत्र - ज्ञानफलानिजीवाजीवादिस्वरूपनिर्णयजनकानि कर्माणि कृतानि-पूर्वभवोपार्जितानि उदीयन्ते तदा एवम् अमुना प्रकारेण कर्मविपाकं ज्ञानावरणीयक्षयोपशमजन्यं प्रज्ञामकर्षरूपं कर्मफलं ज्ञात्वा हे शिष्य ! आत्मानम् आश्वासय-ज्ञानमदं परित्यज्य स्वस्थीकुरु । पूर्वकृतशुभकर्मणा मम ज्ञानावरणीयकर्मणः क्षयोपशमो जातस्तेन सूक्ष्म-सूक्ष्मतरसूक्ष्मतममपि जीवादिस्वरूपं सम्यग् जानामि, तथा केनापि पृष्टः सन् तस्मै सम्यगवबोधयितुं समर्थोऽस्मीति विचारणया प्रज्ञामदं परिहरेत्यर्थः । विचार नहीं करना चाहिये कि मैं कुछ नहीं जानता हूं-मूर्ख हूं जहाँ तहां मेरा पराभव होता है। इस विचार से आत्मा में परिताप होता है, इस प्रकार विचार नहीं करना यह प्रज्ञापरीषह है। अथवा श्रुतज्ञान की विशिष्टता आत्मा में होने पर उस समय उस मुनि को उसका मद नहीं करना चाहिये कि-मैं विशिष्टज्ञानसंपन्न हूं, प्रत्येक व्यक्ति मेरे पास अपनी २ जिज्ञासा का समाधान करने के लिये आते हैं । प्रत्येक आत्मा को मुझ से कितना लाभ होता रहता है । इस प्रकार का मद नहीं करना चाहिये । प्रज्ञा का मद करना इस लिये निषिद्ध है कि यह जो ज्ञान प्राप्त हुआ है वह ज्ञानावरणीयकर्म के क्षयोपशम से प्राप्त हुआ है । इसका मैं क्यों मद करूँ। इस प्रकार કે, હું કાંઈ જાણતો નથી, મૂર્ખ છું, જ્યાં ત્યાં મારો પરાભવ થાય છે. આ વિચારથી આત્મામાં પરિતાપ થાય છે માટે આ પ્રકારને વિચાર ન કરે તે પ્રજ્ઞાપરીષહ છે. અથવા શ્રુતજ્ઞાનની વિશિષ્ટતા આત્મામાં થવાથી તે સમયે તે મનિએ તેનો મદ ન કરવું જોઈએ કે હું, વિશિષ્ટ જ્ઞાન સંપન્ન છું. પ્રત્યેક વ્યક્તિ મારી પાસે પોતપોતાની જીજ્ઞાસાનું સમાધાન કરવા આવે છે. પ્રત્યેક આત્માને મારાથી કેટલે લાભ થાય છે? આ પ્રકારને મદ ન કર જોઈએ. પ્રજ્ઞાનો મદ કરવાને આ માટે નિષેધ છે કે, જે જ્ઞાન પ્રાપ્ત થયું છે તે જ્ઞાનાવરણીય કર્મના ક્ષયોપશમથી પ્રાપ્ત થયેલ છે. અને હું કઈ રીતે મદ કરી ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #559 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०४ उत्तराध्ययनसूत्रे अस्य गाथाद्वयस्यायं निष्कर्षः-प्रज्ञाया अपकर्षे 'नाहं किंचिज्जानामि, मूर्योऽस्मि, यत्र तत्र पराजितो भवामि ' इत्येवं परितापो न कर्तव्यः उत्कर्षे श्रुतमदो न कर्तव्यः । किन्तु कर्मविपाकोऽयमिति ज्ञात्वाऽऽत्मनः स्थिरीकरणेन द्विविघोऽपि प्रज्ञापरीषहः सोढव्यः। अत्र प्रज्ञापकर्षे दृष्टान्तः प्रदश्यते-- पुष्पदन्ताचार्यः शिष्यपरिवारेण सह चम्पानगर्या समवसृतः। तेषु शिष्येषु भद्रमतिनामकः शिष्योऽतीवमन्दमतिरासीत् । स आवश्यकसमाप्त्यनन्तरं दशवैकालिकसूत्राभ्यासार्थ प्रवृत्तः, परन्तु तदा तस्य प्रबलज्ञानावरणीयान्तरायकोंदयो जातस्ते नैकमप्यक्षरं न स्मरति, ततोऽसौ चिन्तयति-अहमस्मि पूर्वधराचार्यस्य शिष्यः, आचार्यो वात्सल्येन मामध्यापयति, अन्ये मुनयश्चापि प्रेम्णा मामक्षरं आत्मा को अपने स्वभाव में स्थिर करते हुए प्रज्ञा के प्रकर्ष को सहन करना यह भी प्रज्ञापरीषह है। इस तरह प्रज्ञा के उत्कर्ष और अपकर्ष के भेद से यह परीषह दो प्रकार का हो जाता है। यह दोनों प्रकार का परीषह सहन करना मुनि के लिये आवश्यक है। प्रज्ञा के अपकर्ष में दृष्टान्त-किसी समय पुष्पदन्ताचार्य शिष्यपरिवार के साथ चंपानगरी में आये। इनकी इस शिष्यमंडली में भद्रमति नाम का एक शिष्य अतीव मंदमति था । एक दिन की बात है कि उसने आवश्यक की समाप्ति के बाद दशवैकालिकसूत्र का अभ्यास करना प्रारंभ किया । परन्तु उस समय उसके प्रबल ज्ञानावरणीयकर्म का उदय होने से एक भी अक्षर उसको याद नही होता। इसने विचार किया कि पूर्वधर आचार्य का मैं शिष्य हूँ वात्सल्यभाव શકું? આ પ્રકારે આત્માને પિતાના સ્વભાવમાં સ્થિર કરીને પ્રજ્ઞા પ્રકાશ સહન કરે તે પણ પ્રજ્ઞાપરીષહ છે, આવી રીતે પ્રજ્ઞાનો ઉત્કર્ષ અને અપકશના ભેદથી આ પરીષહ બે પ્રકારનો બને છે. આ બન્ને પ્રકારના પરીષહ સહન કરવા મુનિને માટે આવશ્યક છે. પ્રજ્ઞાના અપકર્ષનું દષ્ટાંત– કઈ એક સમયે પુષ્પદંતાચાર્ય શિષ્ય પરીવાર સાથે ચંપાનગરીમાં આવ્યા. આ શિષ્ય મંડળીમાં ભદ્રમતિ નામને એક શિષ્ય ઘણે મંદમતી હતે. એક દિવસની વાત છે કે, તેણે આવશ્યકની સમાપ્તિ બાદ દશવૈકાલિક સૂત્રને અભ્યાસ કરો શરૂ કર્યો. પરંતુ તે સમયે તેને પ્રબળ જ્ઞાનાવરણીય કર્મને ઉદય થવાથી એક પણ અક્ષર યાદ રહેતું નહીં. તેણે વિચાર કર્યો કે, હું પૂર્વધર આચાને શિષ્ય છું, વાત્સલ્યભાવથી તેઓ મને શાસ્ત્રાધ્યયન કરાવે છે. બીજા મુનિઓ ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #560 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रियदर्शिनी टीका अ० २ गा० ४०-४१ प्रज्ञापकर्षे भद्रमतिमुनिदृष्टान्तः ५०५ बोधयति, तथापि मम तत् स्मृतिपथं नायाति, अत्र कश्चित् मुनिः सकृदेव श्रुत्वा धारयति, कश्चिद् द्विवारं, कश्चित् त्रिवारम् । __केनचित्-शतं शतं गाथा प्रत्यहमभ्यस्ताः, केनचित् द्वे द्वे शते । कश्चिदेकपूर्वघरः, कश्चिद् द्विपूर्वधरो यावच्चतुर्दशपूर्वधरः संजातः, परन्तु महानिष्ठुरोऽतीव निर्बुद्धिरहमस्मि, शतशोऽभ्यासे कृतेऽपि धारणा न भवति । मम पूर्वजन्मोपार्जितं ज्ञानावरणीयं कर्म, तथा ज्ञानान्तरायरूपं कर्म तीव्रतया संपत्युदयावस्थां प्राप्तम् , से वे मुझे पढाते हैं, अन्य मुनि भी मुझ पर विशेष अनुग्रह रखते हैं, वे भी समय २ पर मुझे बचवाते हैं तो भी मुझ को याद नहीं होता। हमारे में कोई तो मुनिराज ऐसे हैं जो एक बार भी सुनकर याद कर लेते हैं, कोई २ ऐसे हैं जिन्हें दो बार कहने से याद हो जाता है।कोई २ऐसे हैं जो तीन बार सुनकर विषय को अच्छी तरह याद करलेते हैं। कितने ऐसे हैं जो एक ही दिन में सौ-सौ १००-१०० गाथाएँ याद कर लेते हैं। कोई २ ऐसे हैं जो दो सौ २००-दो सौ २०० गाथाएँ तक कंठस्थ कर लेते हैं। कोई एक पूर्वधर हैं। कोई दो पूर्वधर है। कोई तीन, कोई चार, कोई पांच, कोई छह, कोई सात और कोई आठ आदि से लेकर चौदह पूर्वतक के पाठी हैं, किन्तु इन सब में एक मैं ही ऐसा मन्दबुद्धि हुं जिसको कुछ नहीं आता है। बुद्धिहीन बना हुआ हूँ। सौ बार याद करने पर भी धारणा होती ही नहीं है। क्या करूँ पूर्वोपार्जित ज्ञानावरणीयकर्म का ही इस समय तीव्र उदय પણ મારા ઉપર વિશેષ ભાવ રાખે છે અને સમય સમય ઉપર તેઓ મને બતાવે છે, તે પણ મને યાદ રહેતું નથી. અમારામાં કેટલાક મુનિરાજ એવા છે કે, તેઓ એકવાર સાંભળીને તેને કંઠસ્થ કરી લે છે, કેઈ કઈ એવા છે કે તેમને બે વખત કહેવાથી યાદ થઈ જાય છે, કેઈ કોઈ ત્રણ વાર સાંભન્યાથી વિષયને સારી રીતે યાદ કરી લે છે. કેટલાક એવા પણ છે કે જે એક જ हिवसमा १००-१०० (सौ-से) थामे या ४री छ. ४ ४ २००-२०० ( બસો-બસો) ગાથાઓ કંઠસ્થ કરી લે છે. કોઈ કઈ પૂર્વધર છે, કે બે પૂર્વધર છે, કઈ ત્રણ, કેઈ ચાર, કેઈ પાંચ, કેઈ છે, કેઈ સાત, કેઈ આઠ આદિથી લઈને ચૌદ પૂર્વ સુધીના પાઠી છે આ બધા વચ્ચે હું એકજ એ મંદબુદ્ધિને છું કે મને કાંઈ પણ આવડતું નથી. હું બુદ્ધિહિન બનેલે શું ? વખત યાદ કરવા છતાંયે ગ્રહણ કરી શકતું નથી. શું કરું? પૂર્વોપાત જ્ઞાનાવરણીય કમજ આ સમયે તીવ્ર ઉદયમાં આવેલ છે. એને જ આ પ્રતાપ છે, उ० ६४ ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #561 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०६ उत्तराध्ययनसूत्रे तस्मान्मया प्रज्ञाया असद्भावरूपोऽयं परीषहः सोढव्यः, न तु कस्मिंश्चित् ईर्ष्या द्वेषो वा करणीयः, एवं विचिन्त्य प्रत्यहं पठति, पुनः पुनरभ्यस्यति च, परं तु धारणा न भवति, 'धम्मो मंगलमुकिट' इति गाथा द्वादशवर्षाणि अभ्यस्ता, परं तु तस्या एकस्या अपि गाथायाः स्मृतिस्तस्य नाभूत् , अभ्यासकाले धारितेव सा तस्य भवति, परं त्वल्पकाल एव पुनस्तां विस्मरति । तदाऽसौ पुनरध्यवस्यतिपुनरपि द्वादशवर्षाणि कालमभ्यासार्थ यापयिष्यामि, येन केनापि प्रकारेण गाथामेतां कण्ठस्थीकरिष्याम्येव । इत्येवं निश्चित्य प्रज्ञाऽपकर्षपरीषहं सहमानः शुभाध्यवसायेन प्रशस्तध्यानेन क्षपकश्रेणिमारुह्य स भद्रमुनिः केवलज्ञानं प्राप्तवान् । हो रहा है, उन्हीं का यह काम है, अतः प्रज्ञा का असद्भावरूप यह परीषह मुझे शांति के साथ सहन करना चाहिये, इसी में मेरा कल्याण है, किसी के साथ इर्षा या द्वेष करने से कोई लाभ नहीं । इस प्रकार भद्रमति मुनि घार २ विचार करता और अपने पूर्वोपार्जितकों की निन्दा करता था, परन्तु उसने अपना पढ़ना और याद करना बंद नहीं किया। अकेले "धम्मो मंगलमुकिट" इस गाथा को ही उसने लगा. तार बारह वर्षतक याद किया-रटा, पर तो भी उस को यह गाथा याद नहीं हुई । जिस समय यह याद करने बैठता उस समय तो यह याद हो जाती पर ज्यों ही यह याद करना बंद कर देता अथवा क्रिया करने में उपयोग लगाता तो शीघ्र ही उस गाथा को भूल जाता था। यह फिर भी उसको याद करना और पढ़ना नहीं छोड़ता और विचार करता कि यदि यह गाथा इन बारह १२ वर्षों में कंठस्थ नहीं हुई तो अब आगे के १२ वर्षों में कंठस्थ हो जायेगी, क्या चिंता जैसे भी हो આથી પ્રજ્ઞાને આ અદ્ભાવરૂપ પરીષહ મારે શાંતિથી સહન કરવો જોઈએ. તેમાં જ મારૂં કલ્યાણ છે. કેઈની સામે ઈર્ષા અથવા ઠેષ કરવાથી કેઈ લાભ નથી. આ પ્રકારે ભદ્રમતિ મુનિ વારંવાર વિચાર કરતા અને પિતાના પૂર્વેપાજીત કર્મોની નિંદા કરતા. પણ પિતાના પઠન-પાઠન આદિને તેણે બંધ ન કર્યો. "धम्मो मङ्गलमुक्किह" मे मे थाने मेस तेणे मा२ वर्ष सुधी या ४ गोज्यु છતાં પણ તેને એ ગાથા યાદ ન થઈ. જે સમય તે યાદ કરવા બેસતા તે તે વખતે યાદ રહી જતી પણ એ પછી યાદ કરવાનું બંધ કરી ક્રિયામાં ગુથાતાં તે ગાથા ભૂલાઈ જતી. છતાં પણ તે એને યાદ કરવાનું છોડતા નહીં. અને વિચાર કરતા કે, આ બારવર્ષમાં યાદ ન થઈ તે આવતા બારવર્ષમાં જરૂર યાદ થઈ જશે. ચિંતા શા માટે કરવી જોઈએ. જે રીતે બનશે તે રીતે પણ ગાથાને ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #562 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रियदर्शिनी टीका. अ०२ गा. ४०-४१ प्रज्ञाप्रकर्षे कालकाचार्यदृष्टान्तः ५०७ प्रज्ञाप्रकर्षे दृष्टान्तः प्रदश्यते-- एकदा-कालकाचार्यः प्रमादवतः स्वशिष्यानुज्जयिन्यां विहाय धारावासनगरे स्वशिष्यस्य सागरचन्द्रमुनेः समीपे समागतः । सागरचन्द्रस्तं सामान्यसाधुबुद्धया जानाति कालकाचार्योऽपि न किंचित् परिचयं ददाति । अथाऽन्यदा सागरचन्द्रमुनिनाऽऽगमनिर्णीततत्त्वस्वरूपव्याख्याने कृते सति लोकास्तं प्रशंसन्ति, तदा सागरचन्द्रमुनिः कालकाचार्य प्रति प्राह-मव्याख्यानं सकेगा, इस गाथा को तो याद करके ही छोड़ने का भाव है। इस प्रकार निश्चय करके प्रज्ञापकर्षकरूप परीषह को सहन करते हुए उस भद्रमुनि ने शुभाध्यवसायजन्य प्रशस्त ध्यान से क्षपकश्रेणी को अरोहण कर केवलज्ञान को प्राप्त किया। प्रज्ञा के प्रकर्ष में दृष्टान्त इस प्रकार है-एक समय कालकाचार्य प्रमादशील अपने शिष्योंको उज्जयिनी नगरीमें छोड़कर धारावासनगर में स्वशिष्य सागरचंद्रमुनि के पास आ गये। सागरचंद्रशिष्यने उनके साथ सामान्य साधुके जैसा ही व्यवहार किया, गुरु जैसा नहीं। कालकाचार्यने भी इस बात पर कुछ भी ध्यान नहीं दिया और अपना परिचय भी नहीं दिया। एक दिन की बात है कि जब सागरचंद्रमुनि ने आगमनिर्णीत तत्त्वों के स्वरूप को समझाते हुए व्याख्यान दिया तो सुनकर लोगों को अपार आनंद आया,-सबने प्रवचन की मुक्तकंठ से प्रशंसा की। सागरचंद्रमुनि ने अपरिचित गुरु के समीप आकर कहा-आपने યાદ કર્યો જ છુટકે, તે મનોભાવ છે. આ પ્રકારને નિશ્ચય કરીને પ્રજ્ઞાઅપકર્ષ પરીષહને સહન કરતાં કરતાં તે ભદ્રમુનિએ શુભ અધ્યવસાય જન્ય પ્રશસ્ત ધ્યાનથી ક્ષપકશ્રેણી ઉપર ચડી કેવળજ્ઞાન પ્રાપ્ત કર્યું. પ્રજ્ઞાના પ્રકાશમાં દષ્ટાંત આ પ્રકારનું છે– એક સમય કાલકાચાર્ય પ્રમાદશિલ પોતાના શિષ્યોને ઉન્મેનિ નગરીમાં મૂકીને ધારાવાસ નગરમાં સ્વશિષ્ય સાગરચંદ્ર મુનિની પાસે આવ્યા. સાગરચંદ્ર શિષ્ય તેમની સાથે સામાન્ય સાધુ જે વહેવાર કર્યો, ગુરુ શિષ્ય જે નહીં. કાલકાચાચે આ વાત ઉપર કાંઈ ધ્યાન ન આપ્યું, અને પિતાને પરિચય પણ ન આપ્યો. એક દિવસની વાત છે કે, જ્યારે સાગરચંદ્ર મુનિએ આગમ નિર્ણત તના સ્વરૂપને સમજાવવાનું વ્યાખ્યાન આપ્યું તે સાંભળીને લોકોને અપાર આનંદ થયો. સઘળાએ પ્રવચનની મુકતકંઠે પ્રસંશા કરી. સાગરચંદ્ર મુનિએ અપરિચિત ગુરુની સમીપ આવીને કહ્યું. આપે આજ મારું તાત્વિક પ્રવચન ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #563 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०८ उत्तराध्ययन सूत्रे " 9 श्रुतं भवद्भिः कीदृशं तत् ? तेनोक्तम् - शोभनम्, कालकाचार्येण सह तस्य तर्कमाश्रित्य वादः प्रवृत्तः । सागरचन्द्रमुनिस्तस्य तुल्यतया प्रत्युत्तरं कर्तुमसमर्थो जातस्ततोऽतीव चमत्कारं स प्राप्तवान् । इतश्च कालकाचार्यस्य शिष्याः स्वगुरुपरित्यक्ताश्चतुर्विध संधै स्तिरस्कारं प्राप्य, लज्जिताः सन्तः स्वगुरुं गवेषयन्ति । ते ग्रामानुग्रामं विहरन्तः कालकाचार्यवाती प्रतिग्रामं प्रतिनगरं प्रतिस्थलं पृच्छन्तः क्रमेण धारावासनगरं समागताः । शिष्यआज मेरा तात्त्विक प्रवचन तो सुना है ? वह कैसा हुवा । कालकाचार्य ने कहा अच्छा हुवा, बातचीत के सिलसिले में ही गुरु शिष्य का तर्कशास्त्र पर परस्पर में वाद्विवाद छिड़ गया। सागरचंद्रमुनि को यह पता नहीं था कि ये मेरे गुरु महाराज कालकाचार्य हैं । सागरचंद्र मुनि कालकाचार्य की तर्कणाओं का प्रत्युत्तर नहीं दे सका अतः वह कालकाचार्य के अगाध ज्ञान से विशेष प्रभावित हुआ 1 1 उधर से जब अपने शिष्यों को उज्जयिनी में छोड़कर कालकाचार्य आगये तो उन शिष्यों का वहाँ के चतुर्विधसंघने बड़ा ही तिरस्कार किया । वे सबके सब लज्जित होने लगे । सबने विचार किया कि गुरु महाराज का पता लगाना चाहिये कि वे कहाँ पधारे हैं । विचार निश्चित कर सबने वहाँ से गुरु महाराज की गवेषणा करने के लिये विहार कर दिया । ग्रामानुग्राम विचरते हुए उन्हों ने प्रत्येक जगह में, प्रत्येक ग्राम में, प्रत्येक शहर में कालकाचार्य का पता लगाया तथा उनकी खबर भी पूछी। पूछते२ ये सब के सब धारावास नगर की ओर સાંભળ્યું? તે કેમ હતું ? કાલકાચાર્યે કહ્યું, સારૂ હતુ. વાતચીતની ચર્ચામાં જ ગુરુ શિષ્યને તર્કશાસ્ત્ર ઉપર પરસ્પરમાં વાદવિવાદ થયા. સાગરચંદ્ર મુનિને એ ખ્યાલ ન હતા કે આ મારા ગુરુમહારાજ કાલકાચાય છે. સાગરચંદ્ર મુનિ કાલકાચાર્યની તક ધારાઓના પ્રત્યુત્તર આપી શકવા નહી. આથી તે કાલકાચાય ના અગાધ જ્ઞાનથી ખૂષ પ્રભાવિત અની ગયા. આ તરફ ઉજ્જૈનીમાં રહેલા તે શિષ્યાને ત્યાંના ચતુર્વિધ સંઘે ઘણા તિરસ્કાર કર્યાં. તે સઘળા આથી ખૂબજ શરમાયા. અને બધાએ મળી એ વિચાર કર્યો કે, ગુરુમહારાજના પત્તો મેળવવા જોઇએ કે તેએ કર્યાં વિચરે છે. વિચાર નક્કી કરી એ શિષ્યાએ ગુરુમહારાજની તપાસ માટે વિહાર કર્યાં. શ્રામાનુગ્રામ વિચરણ કરતાં તેમણે પ્રત્યેક જગ્યાએ, પ્રત્યેક ગામમાં, પ્રત્યેક શહેરમાં, કાલકાચાર્ય મહારાજની પૃચ્છા કરી. અને તેમની ખબર પૂછી. પૂછતાં પૂછતાં ખબર મળી જતાં તે સઘળા ધારાવાસ નગર તરફ્ વિહાર ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર ઃ ૧ Page #564 -------------------------------------------------------------------------- ________________ " प्रियदर्शिनी टीका अ०२ गा. ४१-४२ प्रज्ञाप्रकर्षे कालकाचार्यदृष्टान्तः ५०९ सहितः कालकाचार्य आगच्छति इति बुद्धया सागरचन्द्रमुनिस्तत्रागच्छतां कालकाचार्य शिष्याणां संमुखे समागतः । स तत्र परितो विलोक्याचार्यमदृष्ट्वा, तान समागतान् मुनीन् पृच्छति-भो मुनयः ! क्ा वर्तन्ते पूज्यचरणाः, सागर चन्द्रसुनेरेतद्वचनं निशम्य हताशाः सर्वे मुनयः साश्रुनेत्राः सगद्गदं प्रोक्तवन्तः - इतभाग्यानस्मान् परित्यज्य गुरुचरणाः क्व गता इति वयं न विद्मः, भवता ज्ञायते किम् ? | सागरचन्द्रमुनिनोक्तम्-तं न विद्या वयम् किं तु एकः कोऽपि वृद्धः संप्रति वर्तते उपाश्रये । ततः सर्वे गुरुभक्त्युद्रेकात् तद्विरहखिन्ना उपाश्रये आगताः । सागरमुनिनाऽङ्गुल्या निर्देशेन प्रदर्श्य कथितम् - अयमागन्तुको महानुभावः । शिष्यास्तदैव चल दिये । सागरचंद्रमुनि को जब पता चला कि सशिष्य गुरु महाराज कालकाचार्य विहार करते हुए यहां आरहे हैं तो वे उनका स्वागत करने के लिये सामने गये। वहां उन मुनियों में गुरु महाराज को नहीं देखा तब उसने उन अपने गुरुभाईओं से पूछा कि पूज्य गुरु महाराज तो दिखते नहीं हैं कहो वे इस समय कहां हैं । तब मुनियों ने सागरचंद्रमुनि के वचन सुनकर हताश एवं आंसू डालते हुए गहूद कंठ से बोले हतभाग्य हमलोगों को छोड़कर गुरु महाराज कहां चले गये हैं यह हम नहीं जानते हैं । कहो आप को मालूम है क्या ? सागरचंद्रमुनि ने कहा उन्हें तो हम जानते नहीं हैं किन्तु एक कोई वृद्ध महात्मा इस समय उपाश्रय में अवश्य ठहरे हुए सागर चंद्रमुनि की इस बात को सुनकर समस्त शिष्य जो गुरु महाराज के विरह से खेदखिन्न बने हुए थे गुरुभक्ति के उद्रेक से प्रेरित होकर उपाश्रय में पहुँचे । सागरचंद्रमुनि ने अंगुली के इशारे से કરવા લાગ્યા, સાગરચંદ્ર મુનિને એ ખખર મળ્યા કે, ગુરુમહારાજ કાલકાચાર્ય શિષ્યા સાથે વિહાર કરતા કરતા અહીં પધારે છે ત્યારે તે તેમનું સ્વાગત કરવા સામે ગયા. ત્યાં એ મુનિએમાં ગુરુમહારાજને ન જોયા ત્યારે તેણે પેાતાના એ ગુરુભાઈઓને પૂછ્યું કે પૂજ્ય ગુરુમહારાજતા દેખાતા નથી કહેા, તે આ સમયે કયાં છે ? સાગરચંદ્ર મુનિનાં આ વચન સાંભળતાં તે શિષ્ય હતાશ બની ગયા અને આંસુભરી આંખે ગદ્ગદ્ કંઠથી એલ્યા, હતભાગી અમા બધાને છેડીને ગુરુમહારાજ કર્યાં ચાલ્યા ગયા છે એ અમે જાણતા નથી. કહા કહેા આપને ખખર છે? સાગરચંદ્ર મુનિએ કહ્યુ, એમને હું ઓળખતા નથી પરંતુ એક વૃદ્ધ મહાત્મા આ વખતે ઉપાશ્રયમાં રાકાયેલા છે. સાગરચ'દ્રની આ વાત સાંભળી સઘળા શિષ્યા જે ગુરુમહારાજના વિરહથી ખેખિન્ન અનેલ હતા, તે સઘળા ગુરુભક્તિના ભાવથી પ્રેરિત અની ઉપાશ્રયમાં પહેાંચ્યા, સાગર ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર ઃ ૧ Page #565 -------------------------------------------------------------------------- ________________ E ५१० उत्तराध्ययनसूत्रे हृष्टतुष्टाः ससंभ्रमं हर्षवशविसर्पदयाः, 'इमे एव मम गुरवः' इति वन्दितवन्तः। सागरचन्द्रमुनिस्तदा कालकाचार्य परिचिते पश्चात्तापं कुर्वन् वदति-भगवन् ! मया श्रुतनिधीनां तत्रभवतां भवतामाशातना कृता, क्षमस्व ।। कालकाचार्येणोक्तम् --हे वत्स ! श्रुतमदो न कर्तव्यः । एवमन्यैरपि कालकाचार्यवत् प्रज्ञाप्रकर्षे मदाकरणेन प्रज्ञापरीषहः सोढव्यः ॥४१॥ ___मतिश्रुतरूपपरोक्षज्ञानमाश्रित्य प्रज्ञापरीषहो वर्णितः । अथेदानीमवध्यादिरूपं प्रत्यक्षज्ञानमाश्रित्य तदभावरूप एकविंशतितमोऽज्ञानपरीषहः प्रोच्यतेमूलम्-निरगं मि विरओ, मेहुणांओ सुसंवुडो। जो सक्खं नाभिजाणामि, धम्मं कल्लाण पावगं ॥४२॥ छाया-निरर्थकम् अहं विरतः, मैथुनात् सुसंवृतः। यः साक्षात् नाभिजानामि, धर्म कल्याणं पापकम् ॥ ४२ ॥ बतलाकर कहा कि देखो ये हैं वे आगन्तुक महानुभाव । वे शिष्य सब के सब उसी समय अपार हर्ष से उत्फुल्लहृदय होकर हृष्ट तुष्ट होते हुए बडे ही आदर से “ यही है हमारे गुरु महाराज" कह कर उनके चरणों में गिर कर वंदना करने लगे। सागरचंद्रमुनि उस समय कालकाचार्य के परिचित होने पर पश्चात्ताप करता हुआ उनसे बोला भगवन् ! श्रुतनिधि पूज्य आपकी मेरे द्वारा आशातना हुई है, अतः मैं उसकी क्षमा चाहता हूं, आप क्षमा करें । कालकाचार्य ने कहा वत्स ! श्रुतज्ञान का मद नहीं करना चाहिये । इस कथा से यही शिक्षा मिलती है कि कालकाचार्य की तरह प्रज्ञा के प्रकर्ष में मद नहीं करने से प्रज्ञापरीषह का जय होता है ॥४१॥ ચંદ્ર મુનિએ આંગળીના ઈશારાથી બતાવીને કહ્યું કે, જુઓ આ છે તે આવેલા મહાનુભાવ! આથી તે સઘળા શિષ્યો તે સમયે અપાર હર્ષથી પ્રફુલ્લિત બની ખુશી થતાં થતાં ખૂબજ આદરથી “આ જ છે અમારા ગુરુમહારાજ” કહીને તેમના ચરણમાં પડીને વંદન કરવા લાગ્યા. સાગરચંદ્રમુનિ એ સમયે કાલકાચાર્યના પરિચયથી પશ્ચાત્તાપ કરતાં કરતાં તેમને કહેવા લાગ્યા, ભગવંત! કૃતનિધિ પૂજ્ય મારાથી આપની અશાતના થઈ છે. આથી હું તેની ક્ષમા ચાહું છું. આપ મને ક્ષમા કરો. કોલકાચાર્ય* કહ્યું, વત્સ ! શ્રુતજ્ઞાનને મદ ન કર જોઈએ. આ કથાથી એ જાણવાનું મળે છે કે, કાલકાચાર્યની માફક પ્રજ્ઞાના પ્રકમાં મદદનહીં કરવાથી પ્રજ્ઞાપરીષહને જય થાય છે. ૪૧ ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #566 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -- प्रियदर्शिनी टीका. अ० २ गा. ४२-४३ अज्ञानपरीषहजयः 'निरट्टगं' इत्यादि। निरर्थकम् व्यर्थम् मि अहं मैथुनात्=कामसुखाद् विस्तः निवृत्तः। प्राणातिपातादिविरमणं विहाय यन्मैथुनमात्रोपादानं तत्तस्य दुस्त्यजत्वबोधनार्थम् । दुस्त्यजमैथुनात् प्रतिनिवर्तनेनाहं दुष्कर कार्य व्यर्थमेव कृतवानिति भावः। तथा-निरर्थक सुसंवृतः = इन्द्रियनोइन्द्रियव्यापारनिरोधेन मुष्ठुसंवरयुक्तः । योऽहं कल्याणंशुभं, पापकम्-अशुभ, धर्म-वस्तुस्वभावं साक्षात्=परिस्फुटं यथा स्यात् तथा, ना. भिजानामि अवध्यादिज्ञानाभावेन प्रत्यक्षतया सर्वथा न जानामीत्यर्थः । इति भिक्षुर्न चिन्तयेत् । 'इइ भिक्खू न चिंतए' इत्युत्तरगाथा(४४)स्थेन सह सम्बन्धः । मतिश्रुतरूप परोक्षज्ञान को आश्रित कर प्रज्ञापरीषह का सूत्रकारने यह वर्णन किया है। अब अवधि आदि रूप जो प्रत्यक्ष ज्ञान हैं उनके अभावरूप इक्कीसवां अज्ञानपरीषह का वर्णन किया जाता है_ 'निरढगंमि' इत्यादि। अन्वयार्थ-(निरद्वगंमि मेहुणाओ विरओ-निरर्थकमहं मैथुनात् विरतः ) व्यर्थ ही मैं कामसुख से विरक्त हुआ हूं। (सुसंवुडो-सुसंवृतः) व्यर्थ ही मैंने इन्द्रियों एवं मन को अपने अभिलषित विषयों से हटाकर सुसंवृत किया है। (जो-यः) जो मैं अभीतक भी (कल्लाणं पावगं धम्मं सक्खं नाभिजाणामि-कल्याणं पापकं धम्म साक्षात् नाभिजानामि) शुभ तथा अशुभ वस्तुस्वभावरूप धर्म को अवधि आदि प्रत्यक्ष ज्ञानों के अभाव में साक्षात्-स्पष्टरूप से नहीं जानता हूं । इस प्रकार भिक्षु विचार न करे । " इइ भिक्खू न चिंतए" यह आगे गाथा चौवालीस ४४वीं में कहा गया वाक्य यहां योजित कर लेना चाहिये । મતિકૃત રૂપ પરોક્ષજ્ઞાનને આશ્રિત કરી પ્રજ્ઞાપરીષહનું સૂત્રકારે આ વર્ણન કરેલ છે. હવે અવધિ આદિરૂપ જે પ્રત્યક્ષજ્ઞાન છે તેના અભાવરૂપ मेवीसमा मज्ञानपरीष वर्णन ४२वामां आवे छे-'निरहगंमि' त्याह. स-क्याथ-निरट्टगंमि मेहुणाओ विरओ-निरर्थकमहं मैथुनात् विरतः आमसुमने छोडीन ईनामा वित अन्य। छु सुसंवुडो-सुसंवृतः धन्द्रियो भने भनन तना અભિલર્ષિત વિષયથી હટાવીને મેં વ્યર્થ સુસંવૃત કરેલ છે, જે આજ સુધી પણ ईकल्लाणं पावगं धम्मं सक्ख नाभिजाणामि-कल्याणं पापकं धम्म साक्षात् नाभिજ્ઞાનામિ શુભ તથા અશુભ વસ્તુ સ્વભાવરૂપ ધર્મને અવધિ આદિ પ્રત્યક્ષ જ્ઞાનના અભાવથી સાક્ષા–સ્પષ્ટરૂપથી જાણતા નથી. આ પ્રકારનો વિચાર ભિક્ષુ ન ४२ इइ भिक्खू न चिंतए २ मा मतावामां आवे ४४ भी यार्नु ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #567 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५१२ उत्तराध्ययनसूत्रे अयं भावः मया वृथा मैथुनविरमणं कृतम्, वृथैव चेन्द्रियाणि विजितानि यदहं शुभमशुभं वा वस्तुस्वभावं प्रत्यक्षरूपेण नाभिजानामीत्येवं चिन्तनेन मुनिर्विपादं न कुर्यात् । ' मि' इत्यार्थत्वात् प्रथमार्थे द्वितीया ॥ ४२ ॥ किञ्च मूलम् तवोवहाणमादाय, पडिमं पडिवज्जेओ । ७ एवं पि विहरओ में, छउमं ने नियंइ ॥ ४३ ॥ छाया -- तपउपधानमादाय, प्रतिमां प्रतिपद्यमानस्य । एवमपि विहरतो मे, छद्म न निवर्तते ॥ ४३ ॥ इस गाथा में एक मैथुन मात्र का ही ग्रहण इसलिये किया है कि अहिंसा आदि सब की अपेक्षा यह दुस्त्यज होता है इसलिये मुनि विचारता है कि ऐसे दुष्कर त्याग करने पर भी मुझे कुछ लाभ नहीं हुआ । भावार्थ - इसका भाव यह है कि अवधि आदि प्रत्यक्ष ज्ञानों की प्राप्ति के अभाव में भिक्षु को अपनी आत्मा के लिये इस प्रकार के विचार से विषादित नहीं करना चाहिये कि मुझे ब्रह्मचर्य का पालन तथा तपश्चर्या करते २ बहुत काल हो चुका है अभी तक भी मुझे वस्तु का वास्तविक शुभाशुभ स्वभाव स्पष्ट रीति से बतलाने वाले प्रत्यक्ष ज्ञानों में से एक भी किसी ज्ञान की प्राप्ति नहीं हुई है । यह दीक्षा ब्रह्मचर्यव्रत और तपश्चर्या आदि मैंने व्यर्थ धारण किये । इसकी अपेक्षा तो संसारदशा में ही आनन्द था ॥ ४२ ॥ વાકય અહિ' ચાજીત કરી લેવું જોઈએ. એ ગાથામાં એક મૈથુન માત્રનુ એટલા માટે ગ્રહણ કરવામાં આવેલ છે કે, અહિંસા આદિ બધાની અપેક્ષા એ દુસ્યજ હોય છે. આ માટે મુનિ વિચારતા હાય છે કે, આવા દુષ્કર ત્યાગ કરવા છતાં પણ મને કાંઈ લાભ થયા નહીં. ભાવા-આના ભાવ એ છે કે, અવધિ આદિ પ્રત્યક્ષ જ્ઞાનાની પ્રાપ્તિના અભાવમાં ભિક્ષુએ પેાતાના આત્મા માટે આ પ્રકારને વિચાર કરી કદી વિષાદિત બનવું ન જોઈ એ—કે, મને બ્રહ્મચર્યનું પાલન અને તપશ્ચર્યાં કરતાં કરતાં ઘણા સમય ગયા તેમ છતાં પણ વસ્તુના વાસ્તવિક શુભાશુભ સ્વભાવ સ્પષ્ટ રીતે બતાવ. નાર પ્રત્યક્ષ જ્ઞાનામાંથી કોઈ એક પણ જ્ઞાનની પ્રાપ્તિ થવા પામી નથી. આ દીક્ષા, બ્રહ્મચર્યવ્રત અને તપશ્ચર્યાં વગેરે મે નકામાં ધારણ કર્યાં છે. આની અપેક્ષા તા સૌંસાર દશામાં જ આનંદ હતા ! ૪૨ ।। ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર ઃ ૧ Page #568 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रियदर्शिनी टीका. अ० २ गा. ४३ अशानपरीषहजयः टीका--'तवोवहाणमादाय' इत्यादि । तपा=यवमध्यचन्द्रप्रतिमा-वज्रमध्यचन्द्रप्रतिमादिकम् , उपधान-साभिग्रहं तपः आदाय स्वीकृत्य चरित्वेत्यर्थः, अभिग्रहविशेषरूपां मासिक्थादिकां, प्रतिपद्यमानस्य प्रतिपन्नस्य अङ्गीकृतवतः, एवमपि विशिष्टचर्ययाऽपि, विहरतः निष्पतिवन्धं विचरतः, मे=मम, छद्म-छादयतीति छद्म-ज्ञानावरणीयादिकं कर्म, न निवर्तते नापगच्छति, इति भिक्षुर्न चिन्तयेत् , इत्युत्तरगाथास्थेन सह सम्बन्धः । अयं भावः-अहं यवमध्यचन्द्रप्रतिमादिकं तपः करामि, तथा साभिग्रहं तपः किंच-'तवोवहाणमादाय' इत्यादि । अन्वयार्थ (तवोवहाणमादाय-तपउपधाम् आदाय) यवमध्यचन्द्रप्रतिमा, वज्रमध्यचन्द्रप्रतिमा आदिक तप को तथा साभिग्रह तप रूप उपधान को स्वीकार कर के, तथा उनका आचरण करके (पडिमपडिवज्जओ-प्रतिमा प्रतिपद्यमानस्य) अभिग्रहविशेषरूप मासिक्या दिक प्रतिमा को अंगीकार करने वाले (मे-मम) मेरा जो कि ( एवं पि विहरओ-एवमपि विहरतः) इस प्रकार की विशिष्टचर्या से मुक्ति के मार्ग में विचरण कर रहा हूं (छउमं-छद्म) ज्ञानावरणीयादिक कर्मों का आवरण तो भी (न नियइ-न निवर्तते) निवर्तित नहीं होता है । इस प्रकार भिक्षु विचार नहीं करे। ये दो ४२-४३ गाथाएँ अवधि आदि प्रत्यक्ष ज्ञान की प्राप्ति के विषय में कही गई हैं। तात्पर्य यह है कि मैं यवमध्यचन्द्रप्रतिमा आदिक तप करता हूँ य–'तवोवहाणमादाय' त्याहि अन्वयार्थ-'तवोवहाणमादाय '-तपउपधान आदाय य१मध्ययं प्रतिभा –વજમધ્યચન્દ્ર પ્રતિમા આદિક તપને તથા સાભિગ્રહતરૂપ ઉપધાનને સ્વીકાર કરી तथा तनुं मायण ४री पडिम पडिवज्जओ-प्रतिमां प्रतिपद्यमानस्य मनिवड विशेष३५ भासियाहि प्रतिभान मी२ ४२वा मे-मम हुरे -एवं पि विहरओएवमपि विहरतः मा प्रा२नी विशिष्ट यर्याथी भुलितना भागमा विय२६५ ४॥ रह्यो छु छउमं-छद्म छत ज्ञानावरणीय भानु मा१२ न नियट्टइ-न निवर्तते ३२ नथी. २॥ प्रारन विया भिक्षु न ४२. - બેંતાલીસ અને તેંતાલીસ આ બે ગાથાઓ અવધિ આદિ પ્રત્યક્ષ જ્ઞાનની અપ્રાપ્તિના વિષયમાં કહેવામાં આવેલ છે. તાત્પર્ય આ છે કે- હું યવમધ્ય ચંદ્રપ્રતિમા આદિક તપ કરૂં છું તથા उ०६५ ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #569 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५१४ उत्तराध्ययनसूत्रे करोमि, प्रतिमा समाचरामि, एवं मोक्षमार्गे विचरामि, तथापि-अवधि-मनः पर्ययरूप-प्रत्यक्षज्ञानवान् न भवामि' इति न चिन्तयेत् । इत्येवमज्ञानस्य सद्भावे विषादाकरणेनाज्ञानपरीषहः सोढव्य इति । ___ यद्वा-इहापि तन्त्रन्यायेन गाथायुग्मस्यार्थद्वयं बोध्यम् । तत्र-अज्ञानसद्भावपक्षमाश्रित्य व्याख्याऽभिहिता । अथ ज्ञानसद्भावपक्षमाश्रित्य व्याख्या प्रदर्श्यते___ ज्ञानसद्भावे-अवधिमनःपर्ययज्ञानसद्भावेऽपि केवलज्ञानाप्राप्तौ भिक्षुरेवं न चिन्तयेत्-यदहं व्यर्थमेव मैथुनाद् विरतः निवृत्तः । परमलक्ष्यकेवलज्ञानमद्यापि तथा अभिग्रह भी करता हूँ एवं भिक्षुप्रतिमा का पालन भी करता हूं इस प्रकार मैं मोक्षमार्ग में ही विचरण कर रहा हूँ तो भी मुझे अभीतक अवधिमनःपर्ययरूप प्रत्यक्ष ज्ञानकी प्राप्ति नहीं हुई है इस प्रकारसे साधुको विचार नहीं करना चाहिये। इस तरह अवधिमनःपर्ययरूप ज्ञानकी प्राप्ति के अभाव में विषाद नहीं करना इसी का नाम अज्ञानपरीषहका जीतना है। अथवा तन्त्रन्याय से भी इन दोनों गाथाओं का अर्थ जानना चाहिये । उस में अज्ञान के सद्भाव पक्ष को लेकर पहले व्याख्या की गई है अब ज्ञान के सद्भाव पक्ष को लेकर व्याख्या की जाती है, वह इस प्रकार है अवधिमनःपर्ययज्ञान के सद्भाव में केवलज्ञान की प्राप्ति न होने पर साधु इस प्रकार विचार नहीं करे कि-मैंने जो मैथुन जैसे दुष्कर कार्यों का परित्याग किया है प्राणातिपातादिक का विरमण किया है અભિગ્રહ પણ કરું છું. આ પ્રકારથી હું મોક્ષમાર્ગમાં જ વિચરણ કરી રહ્યો છું તે પણ મને હજી સુધી અવધિમનપર્યયરૂપ જ્ઞાનની પ્રાપ્તિ થઈ નથી. આ પ્રકારને સાધુએ વિચાર ન કરવું જોઈએ. આ રીતે અવધિમન:પર્યયરૂપ જ્ઞાનની પ્રાપ્તિના અભાવમાં વિષાદ ન કરવો જોઈએ. આનું જ નામ અજ્ઞાન પરીષહને જીત એ છે. અથવા–તંત્ર ન્યાયથી પણ આ બને ગાથાઓના અર્થ જાણવા જોઈએ. એમાં અજ્ઞાનના સભાવપક્ષને લઈ પહેલાં વ્યાખ્યા કરવામાં આવી છે હવે જ્ઞાનના સદૂભાવ પક્ષને લઈ વ્યાખ્યા કરવામાં આવે છે, તે આ પ્રકારે છે. અવધિમનઃપર્યયજ્ઞાનના સદુભાવમાં કેવળજ્ઞાનની પ્રાપ્તિ ન થવાથી સાધુ આ પ્રકારને વિચાર ન કરે કે મેં મિથુન જેવા દુષ્કર કાર્યોને પરિત્યાગ કર્યો છે, પ્રાણાતિપાતાદિકનું વિરમણ કર્યું છે, તથા ઇન્દ્રિય ને (મન) ઈન્દ્રિયને ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #570 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रियदर्शिनी टीका अ० २ गा. ४३ अशान परीषहजयः ५१५ = 1 मया नोपलब्धम् । तदनुपलब्धौ च दुस्त्यजमैथुनात् प्रतिनिवर्तनं मम व्यर्थम् । तथा निरर्थकं सुसंवृत्तः इन्द्रियनोइन्द्रियव्यापारनिरोधेन सुष्ठुसंवरयुक्तोऽभवम् योsहं कल्याणं पापकं वा धर्म = वस्तुस्वभावं साक्षात् = परिस्फुटं नाभिजानामि अभि - सर्वथा निरवशेष विशेषपूर्वकं न जानामि । अयं भावः- “ जे एगं जाणइ, से सव्वं जाणइ, जे सव्वं जाणइ, से एगं जाणह इत्यागमवचनाच्छद्मस्थोऽहं किमप्येकमपि वस्तुस्वरूपं न तत्त्वतो जानामि, यदि साक्षात् समस्तभावस्वभावावभासकं केवला लोकं न लब्धवान् तर्हि किमनेनाल्पेन मुकुलितवस्तुस्वरूपज्ञानेन, इत्येवं विषादं न कुर्यादिति । " तथा - तपउपधानादिभिर्निर्जरा हेतुभिरपि छद्मस्थावस्था न निवर्तते = निरवशेषं न क्षीयते, किं तर्हि ममानेन क्रियाकलापेन ? इति विचिन्त्य मुनिर्विषादं न कुर्यात् । तथा इन्द्रिय नोइन्द्रिय का निग्रह भी किया है वे सब निरर्थक हैं। क्यों कि अभीतक मुझे शुभाशुभ वस्तु का संपूर्णरूप से ज्ञान कराने वाला केवलज्ञान तो प्राप्त हुवा ही नहीं है । उसके न होने पर इस द्रव्य क्षेत्र काल एवं भाव की मर्यादा को लेकर वस्तु के स्वरूप को प्रकट कराने वाले इन अवधिमन:पर्ययज्ञान से क्या लाभ है । इस प्रकार विचार कर साधु अपनी आत्मा को दुःखित नहीं करे । तथा - निर्जरा के कारण इन तप एवं उपधान आदि के आचरण करने से मुझे लाभ ही क्या हुआ, क्यों कि अभीतक मेरी छस्थावस्था तो दूर नहीं हुई है । समस्त ज्ञानावरणीयकर्म नष्ट होकर जब तक केवलज्ञान प्राप्त नहीं होता तबतक छद्मस्थावस्था रहती है । अतः केवलज्ञान की प्राप्ति का अभावस्वरूप अज्ञानपरीषह साधु को जीतना चाहिये । तथा तप एवं उपधान आदि जो निर्जरा के हेतु हैं उनसे मेरे નિગ્રહે પણ કર્યાં છે. તે મધુ' નિરક છે. કેમકે, હજી સુધી મને શુભાશુભ વસ્તુનું સંપૂર્ણ રૂપથી જ્ઞાન કરાવનાર કેવળજ્ઞાન તા પ્રાપ્ત થયું નથી. તેના ન હાવાથી આ દ્રવ્ય ક્ષેત્ર કાળ અને ભાવની મર્યાદાને લઈને વસ્તુના સ્વરૂપને પ્રગટ કરાવનાર આ અવધિમનઃ યજ્ઞાનથી શું લાભ છે ? આ પ્રકારના વિચાર કરી સાધુ પાતાના આત્માને દુઃખી ન કરે. તથા-નિર્જરાનું કારણ આ તપ અને ઉપધાન આદિનું આચરણ કરવાથી મને લાભ શુ થયા ? કેમકે, હજી સુધી મારી છદ્મ અવસ્થા દૂર થઈ નથી. જ્યાં સુધી જ્ઞાનાવરણીય કર્મના નાશ થઈ કેવળજ્ઞાન પ્રાપ્ત ન થાય ત્યાં સુધી છદ્મસ્થ અવસ્થા રહે છે. આથી કેવળજ્ઞાનની પ્રાપ્તિના અભાવ સ્વરૂપ અજ્ઞાનપરીષહ સાધુએ જીતવા જોઈએ. તથા તપ અને ઉપધાન આદિ જે નિજ રાના હેતુ છે ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર ઃ ૧ Page #571 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययनसूत्रे अत्राऽज्ञानसद्भावपक्षे दृष्टान्तः प्रदर्यते___ एकदा चतुर्ज्ञानसम्पन्नो भद्रगुप्ताचार्यः शिष्यपरिवारेण सह ग्रामानुग्रामं विहरन् श्रावस्तीनगर्या तिन्दुकोद्याने समवसृतः । तत्र वसुमित्रनामकः श्रेष्ठी तस्य समीपे धर्म श्रुत्वा प्रव्रजितः। ततः स एकादशाङ्गान्यधीतवान् । स चानिशमुग्रं तपश्चरति, उग्रं विहारं करोति, उत्कृष्टाचारं पालयति, यतनया चरति, यतनया तिष्ठति, यतनया उपविशति यतनया शेते, यतनया भुङ्क्ते, यतनया भाषते । ___ तत्र सुवीरनामको नृपतिर्भद्रगुप्ताचार्यस्य संनिधावागत्य तं वन्दित्वा पर्युपास्ते । ज्ञानावरणीयादिक कर्म सर्वथा नष्ट नहीं हुवे हैं तो इस क्रियाकलाप से मुझे क्या लाभ हुवा ? ऐसा विचार कर साधु विषाद नहीं करे । अज्ञान के सद्भाव पक्ष में दृष्टान्त-एक समय चतुर्ज्ञानसंपन्न भद्रगुप्त आचार्य शिष्यपरीवार के साथ ग्रामानुग्राम विचरते हुए श्रावस्ता नगरी में तिन्दुक उद्यान में आये । वहा वसुमित्र नाम के एक सेठ ने उनसे धर्मकथा सुनकर दीक्षा धारण की । ग्यारह अंगों को पढ़कर उन्हों ने अच्छी तरह ज्ञान प्राप्त किया। सदा उग्र तपस्या करना, उग्र विहार करना, उत्कृष्ट आचार का पालन करना, यतना से उठना, यतनासे बैठना, यतनासे सोना, यतना से आहार करना और यतना से बोलना, चलना, इस तरह प्रत्येक क्रिया, इनकी यतना से होने लगी। श्रावस्ती नगरी का राजा कि जिनका नाम सुवीर था प्रतिदिन भद्रगुप्त आचार्य के पास वंदना एवं पर्युपासना करने के लिये आते थे। તેનાથી મારાં જ્ઞાનાવરણીયાદિક કર્મ સર્વથા નાશ પામેલ નથી. તે આ યિા કરવાથી મને શું લાભ થ? એ વિચાર કરી સાધુ વિષાદ ન કરે. અજ્ઞાનના સદ્ભાવ પક્ષમાં દષ્ટાંત– એક સમય ચતુર્દાનસંપન્ન ભદ્રગુપ્ત આચાર્ય શિષ્ય પરિવારની સાથે રામાનુગ્રામ વિચરતા શ્રાવસ્તી નગરીનાં તિન્દુક ઉદ્યાનમાં આવ્યા. ત્યાં વસુમિત્ર નામના એક શેઠે તેમને ધર્મ ઉપદેશ સાંભળી દીક્ષા ધારણ કરી. અગીઆર અંગેને ભણીને તેમણે સારી રીતે જ્ઞાન પ્રાપ્ત કર્યું. સદા ઉગ્ર તપસ્યા કરવી, ઉગ્રવિહાર કર, ઉત્કૃષ્ટ આચારનું પાલન કરવું, યતનાથી ઉઠવું, યતનાથી બેસવું, યતનાથી આહાર કર, યતનાથી બેલવું, યતનાથી ચાલવું, આ રીતે તેમની પ્રત્યેક કિયાઓ યતનાપૂર્વક થવા લાગી. શ્રાવસ્તી નગરીને રાજા કે જેનું નામ સુવીર હતું તે દરરોજ ભદ્રગુપ્ત આચાર્યની પાસે વંદના અને પપાસના કરવા માટે આવતા હતા. આચાર્ય ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #572 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५१७ प्रियदर्शिनी टीका. अ० २ गा० ४३ अज्ञानसद्भावे वसुमित्रमुनिदृष्टान्तः तदा भद्रगुप्तार्यस्तमब्रवीत् - राजन ! बन्धमोक्षस्वरूपं प्रष्टुं समागतोऽसि किम् ? | राज्ञा प्रोक्तम्- भदन्त ! सत्यं भवदीयवचनम् । ततोऽसौ भद्रगुप्ताचार्यश्चतुर्भिर्ज्ञानैस्तं बन्धमोक्षस्वरूपोपदेशेन परितोषयति स्म । तदा सुवीरनृपतिर्जातवैराग्यः सन् प्रव्रज्यां गृहीतवान् । तदा वसुमित्रमुनिर्भद्रगुप्ताचार्यस्याद्भुतं चतुर्ज्ञानप्रभावमवलोक्य मनसि चिन्तयति-अहो ! आत्मनो वीर्यं महदद्भुतम् - यदन्तर्मुहूर्तमात्रेणैव ज्ञानावरणीयाआचार्य महाराज भी उन को धर्मदेशना देते थे । राजा के हृदय में एक दिन बंध और मोक्ष के यथार्थ स्वरूप को जानने की जिज्ञासा हुई, वे शीघ्र ही आचार्य महाराज के पास आये और वंदना एवं पर्युपासना कर समीप बैठे । आचार्य महाराज ने उनसे कहा कहो हे राजन् ! आज बंध और मोक्ष का यथार्थ स्वरूप पूछने को आये हो क्या ? राजाने बड़े विनय के साथ दोनों हाथ जोड़कर कहा- हाँ भदन्त ! | चार ज्ञान के धारी आचार्य महाराज ने राजा को बंध और मोक्ष का यथार्थ स्वरूप अच्छी तरह समझाया । उपदेश में स्पष्ट किये गये बंध और मोक्ष के स्वरूप को सुनकर राजा को बड़ा ही आनंद आया। राजा अपनी वैराग्य भावना से आचार्य महाराज के पास दीक्षा धारण करली | वसुमित्र मुनि जिनका नाम संसारी अवस्था में वसुमित्र सेठ था, उन्हों ने भद्रगुप्त आचार्य के चार ज्ञानों का प्रभाव देखकर मन में विचार किया - अहो ! आत्मा की शक्ति अचिन्त्य है, इसके बल से મહારાજ પણ તેમને ધર્મદેશના આપતા હતા. રાજાના હૃદયમાં એક દિવસ બંધ અને મેાક્ષના યથાર્થ સ્વરૂપને જાણવાની જીજ્ઞાસા થઈ. તે તુરત જ આચાર્ય ની પાસે આવ્યા અને વંદના કરી સામે બેઠા. આચાર્ય મહારાજે તેમને કહ્યુ, કહે રાજન્! આજ બંધ અને મેક્ષનું યથાર્થ સ્વરૂપ પુછવાને આવ્યા છે ને ? રાજાએ વિનય સાથે બન્ને હાથ જોડીને કહ્યુ, હા ! ચાર જ્ઞાનના ધારક આચાય મહારાજે રાજાને જ્ઞાન અને ધનુ' યથાર્થ સ્વરૂપ સારી રીતે સમજાવ્યું. ઉપદેશમાં કહેવામાં આવેલ બંધ અને મેાક્ષના સ્વરૂપ ને સાંભળીને રાજાને ઘણા આનદ થયા અને વૈરાગ્ય ભાવના જાગૃત થતાં રાજાએ આચાય મહારાજ પાસે દીક્ષા અગીકાર કરી. વસુમિત્રમુનિ કે જેમનું સ’સારી અવસ્થામાં નામ વસુમિત્ર શેઠ હતું. તેમણે ભદ્રગુપ્ત આચાય ના ચાર જ્ઞાનના પ્રભાવ જોઈને મનમાં વિચાર કર્યાં, અહા ! આત્માની શક્તિ અચિંત્ય છે. તેના બળથી આત્મા એક અંતર્મુહૂતમાં જ જ્ઞાના ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર ઃ ૧ Page #573 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययनसूत्रे यष्टविधकर्मरजोऽपनीय, अयमात्मा सर्वज्ञः सर्वदर्शी भवति । मया तु एकादशाङ्गान्यधीतानि, एवं निरतिचारं श्रुतज्ञानमाराधितम् । निःशङ्कित-निष्काङ्क्षितादि भेदैदर्शनाचारोऽप्याराधितः, समिति गुप्तिभिः प्रशस्तयोगयुक्तो भूत्वा चारित्राचारः समाराधितः, अग्लानतया द्वादशविधैरनशनादितपोभिस्तपआचारः समाराधितः । एषु ज्ञानाचारादिषु चतुर्षु ज्ञानाचारः कालविनयादिभे दैरष्टविधः, दर्शनाचारः खलु निःशङ्कित - निष्काङ्गितादि भेदैरष्टविधः, चारित्राचारः समिति - गुप्तिपालनात्मकोsष्टविधः, तथाऽनशनादिद्वादशविधस्तपआचारस्तेषु सर्वेषु षट्त्रिंशद्विधेष्वाचारेषु आत्मा एक अन्तर्मुहूर्त में ही ज्ञानावरणीयादिक आठ प्रकार की कर्मरज को नष्ट कर सर्वज्ञ सर्वदर्शी हो जाता हैं। मैंने ग्यारह अंग पढे हैं उनका खूब मनन किया है इस प्रकार निरतिचार श्रुतज्ञान की आराधना की है। निःशंकित एवं निःकांक्षित आदि भेदों से युक्त दर्शनाचार का यथावत् पालन किया है। समिति गुप्तियों द्वारा प्रशस्त उपयोग युक्त होकर चारित्राचार का भी अच्छी तरह आराधन किया है । अग्लानभाव से अनशन आदि बारह प्रकार के तपों का अनुष्ठान करने से तप आचार को भी अच्छी तरह पाला है । इसी तरह काल विनयादिक के भेद से आठ प्रकार के ज्ञानाचार, निःशंकित, निःकांक्षित आदि भेद से आठ प्रकार के दर्शनाचार, समिति गुप्ति आदि के पालनस्वरूप आठ प्रकार के चारित्राचार एवं चोवीस तथा अनशनादि बारह प्रकार का तप, इस प्रकार छत्तीस ३६ भेदवाले इस ५१८ , વરણીયાદિક આઠ પ્રકારની ક°રજને નાશ કરી સર્વાંગ સષિ બની જાય છે. મેં અગીયારઅંગના અભ્યાસ કર્યો છે. તેનુ ખૂબ મનન કર્યું' છે. એ પ્રકારે નિરતિચાર શ્રતજ્ઞાનની આરાધના કરેલ છે. નિઃશકિત અને નિઃકાંક્ષિત આદિ ભેદોથી યુક્ત દનાચારનું યથાવત્ પાલન કર્યુ છે. સમિતિ ગુપ્તિએ દ્વારા પ્રશસ્ત ઉપયેાગયુક્ત બનીને ચારીત્રાચારનું પણ સારી રીતે આરાધન કર્યું" છે અગ્લાનભાવથી અનશન આદી ૧૨ પ્રકારના તાનુ' અનુષ્ઠાન કરવાથી તપ આચારને પણ સારી રીતે પાળેલ છે. એવી રીતે કાલ વિનયાર્દિકના લેઢથી આઠ પ્રકારના જ્ઞાનાચાર, નિઃશકિત, નિ:કાંક્ષિત, આદિ ભેદથી આઠ પ્રકારના દશનાચાર, સમિતિગુપ્તિ આદિના પાલન સ્વરૂપ આઠ પ્રકારના ચારિત્ર આચાર અને ચાવીસ તથા અનશન અગ્નિ ખાર પ્રકારનું તપ આ પ્રકારે છત્રીસ ભેદવાળા આ આચારને ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર ઃ ૧ Page #574 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रियदर्शिनी टीका अ० २ गा. ४३ अज्ञानसद्भावे वसुमित्रमुनिदृष्टान्तः ५१९ अगोपितबलवोर्येण, अर्थात्-परिपूर्णस्वशक्तिमयोगेण सोपयोगं पराक्रमणेन वी चारोऽपि समाराधितः । एतानि षट्त्रिंशदाचाररूपोधानानि वीर्याचारवारिणा निरन्तरपरिसेचनेन हरितीकृतानि शुभभावनानिरीक्षणैः शोभया भरितीकृतानि तथाप्यद्यावधि मम ज्ञानावरणीय-कर्मणां क्षयाभावादवध्यादिरूपं प्रत्यक्षज्ञानं न जातम् , अतोऽहमपि पुनस्तथा यतिष्ये, यथा तन्ममावश्यं भविष्यत्येव । तस्मादधुना विषादाकरणेनाज्ञानपरीषहं सहमानः पुनरपि वीर्याचारं निरविचारं निरतिशयं आचार को परिपूर्ण अपनी शक्ति के प्रयोग से उपयोगपूर्वक तल्लीन होकर पालन किया है। इसीका नाम वीर्याचार है। मैंने इन पांचों आचारों का सम्यक् रीति से पालन किया है। छत्तीसभेदविशिष्ट इस आचाररूप उद्यान को वीचाररूप निर्मल जल से मैंने निरन्तर सिंचित कर हरा-भरा रखा है। शुभ भावनाओं से इसे शोभित किया है । तो भी अभीतक ज्ञानावरणीयकमों के क्षय नहीं होने से मुझे अवधि आदि प्रत्यक्ष ज्ञान की प्राप्ति नहीं हुई है, इसलिये मैं फिर इस प्रकार का यत्न करूँ कि जिससे मुझे इस प्रत्यक्ष ज्ञान की प्राप्ति अवश्य हो जाय । इस प्रकार सोचकर वसुमित्र मुनि ने पुनः यह विचार किया कि प्रत्यक्षज्ञान की प्राप्ति नहीं होने का मुझे इस समय कुछ भी विषाद नहीं करना चाहिये, क्यों कि विषाद करने से अज्ञान परीषह विजित नहीं होता है, अतः विषाद को नहीं लाकर अज्ञान परीषह सहन करना यह साधुमार्ग है, इसलिये वीर्याचार की પરિપૂર્ણ પિતાની શક્તિના પ્રયોગથી ઉપગપૂર્વક તલ્લીન બની પાલન કર્યું છે, તેનું નામ વિયચાર છે. મેં આ પાંચે આચારનું સમ્યક્ રીતિથી પાલન કર્યું છે. છત્રીસ ભેદ વિશિષ્ટ આ આચારરૂપ ઉદ્યાનને વિચાર રૂપ નિર્મળ જળથી મેં નિરં. તર સિંચિત કરી હર્યુંભર્યું રાખ્યું છે. શુભ ભાવનાઓથી તેને શેબિત કર્યું છે. તે પણ હજી સુધી જ્ઞાનાવરણીયકર્મોને ક્ષય ન થવાથી મને અવધિ આદિ પ્રત્યક્ષજ્ઞાનની પ્રાપ્તિ થયેલ નથી. આ માટે હું ફરી એ પ્રકારને યત્ન કરું કે, જેનાથી મને આ પ્રત્યક્ષ જ્ઞાનની પ્રાપ્તિ અવશ્ય થઈ જાય. આ પ્રકારથી વિચારીને વસુમિત્ર મુનિએ ફરીથી એ વિચાર કર્યો કે પ્રત્યક્ષજ્ઞાનની પ્રાપ્તિ ન થવાને મારે આ સમયે કોઈ પણ વિષાદ ન કરવો જોઈએ. કેમકે, વિષાદ કરવાથી અજ્ઞાનપરીષહને જતા નથી. આથી વિષાદ ન લાવતાં અજ્ઞાનપરીષહ સહન કરે એ સાધુમાર્ગ છે. આ માટે વીર્યાચારની નિરતિચાર ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #575 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययन सूत्रे सम्यगाराधयामि इत्येवं विचिन्त्य प्रशस्तध्यानेन शुभाध्यवसायेन अवधिं मनःपर्ययं च संप्राप्य क्षपकश्रेणिमारुह्य केवळी जातः । एवमन्यैरपि मुनिभिरज्ञानपरीषहः सोढव्यः । अथाऽज्ञानाऽसद्भाव(ज्ञानसद्भाव ) पक्षे दृष्टान्तः प्रदश्यते उग्रविहारी चतुर्ज्ञान चतुर्दशपूर्वधारी जिनवचनानुगामी गौतमस्वामी शिष्यपरिवारेण सह ग्रामानुग्रामं विहरन् भास्करवदज्ञानान्धकारं विध्वंसयन् स्याद्वाद - सिद्धान्तं स्थापयन् क्षान्त्यादिधर्मं प्रद्योतयन् चार्वाकादिपाखण्डमतं खण्डयन् विचरति स्म । एवं विहरन् गौतमस्वामी चम्पानगर्यां पूर्णभद्रोद्याने समवसृतः । निरतिचार सम्यक् आराधना करते २ प्रत्यक्ष ज्ञानकी प्राप्ति मुझे हो जायगी । इस प्रकार विचार करके उसने प्रशस्तध्यान के हेतुभूत शुभ अध्यवसाय से अवधि एवं मनःपर्यय ज्ञान को प्राप्त कर लिया, तथा क्षपकश्रेणी पर अरोहण कर केवलिपद को भी प्राप्त कर लिया । इसी तरह अन्यमुनियों को भी अज्ञानपरीषह सहन करना चाहिये । ५२० अज्ञान के असद्भाव (ज्ञान के सद्भाव) पक्षमें दृष्टान्त इस प्रकार हैउग्र विहार करने वाले, मति, श्रुत, अवधि एवं मनः पर्ययज्ञान के धारी, चौदह पूर्व के पाठी, एवं जिनवचन के अनुसार चलने वाले गौतमस्वामी शिष्यपरिवार के साथ ग्रामानुग्राम विहार करते हुए, सूर्य के समान भव्यों के अज्ञानरूप अन्धकार को ध्वस्त करते हुए, स्याद्वाद सिद्धान्त की विजयपताका फरकाते हुए, क्षान्ति आदि धर्मका उद्योत करते हुए एवं भौतिकवादी चार्वाक आदि मत का निराकरण करते हुए बिहार करते २ चंपानगरी के पूर्णभद्र उद्यान में पधारे । સમ્યક્ આરાધના કરતાં કરતાં પ્રત્યક્ષ જ્ઞાનની પ્રાપ્તિ મને થઈ જશે. આ પ્રકારના વિચાર કરી તેણે પ્રશસ્ત ધ્યાનના હેતુભૂત શુભ અધ્યવસાયથી અવધિ અને મનઃપયજ્ઞાનને પ્રાપ્ત કર્યું", તથા ક્ષપકશ્રેણી ઉપર આરૂઢ થઈ કેવળ પદને પણ પ્રાપ્ત કરી લીધું. આ પ્રકારે અન્ય મુનિએએ પણ અજ્ઞાનપરીષહુ જીતવા જોઈએ— જ્ઞાનના સદ્ભાવ પક્ષમાં દૃષ્ટાંત આ પ્રકારનું છે.- उथ विहार ४२वावाणा, भति, श्रुत, अवधि भने भन:पर्ययज्ञानना धारी, ચૌદ પૂર્વના પાઠી, અને જીનવચન અનુસાર ચાલવાવાળા ગૌતમસ્વામી શિષ્ય પરિવારની સાથે ગ્રામાનુગ્રામ વિહાર કરતા, સૂર્યની માફ્ક ભચૈાના અજ્ઞાનરૂપ અંધકારને દૂર કરતા સ્યાદ્વાદસિદ્ધાંતની વિજયપતાકા ફરકાવતા, ક્ષાંતિ આદિ ધમના ઉદ્યોત કરતા કરતા અને ભૌક્તિકવાદિ ચાર્વાક આદિ મતનું નિરાકરણ કરતા કરતા, વિચરણ કરતા કરતા, ચંપાનગરીના પૂર્ણ ભદ્ર ઉદ્યાનમાં પધાર્યાં. ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર ઃ ૧ Page #576 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रियदर्शिनी टीका. अ० २ गा० ४३ अज्ञानाऽसद्भावे सोमभद्रदृष्टान्तः ५२१ एकदा सोमभद्रनामा कश्चिदधर्मानुयायी, अधर्मसेवी, अधर्मिष्ठः, अधर्मख्याति रधर्मानुरागी, अधर्मप्रलोकी, अधर्मजीवी, अधर्मप्रजनकः, अधर्मप्रचारकः, सकलशास्त्रदर्शी तत्त्वाविमर्शी प्रकाण्डकुतर्ककेसरी शास्त्रार्थ कर्तुं तत्र गौतमस्वामिसंनिधौ समागतः। तयोः शास्त्रार्थविषये विवादः प्रवृत्तः, परस्परं खण्डनमण्डनकरणे प्रवृत्तयोस्तयोरेकस्य कस्यापि जयः पराजयो वा नाभूत् । गौतमस्वामी शास्त्रार्थविषये स्वबुद्धिप्रतिभावलेन नास्तिकमतं निराकर्तुमुधतः, सोऽपि नास्तिका स्वबुद्धिकौशलेन गौतमस्वामिनः स्पर्धया वाग्जालं वितन्वन परिषदि तत्पदर्शितयुक्ति एक दिन की बात है कि सोमभद्र नामका कोई एक विशिष्ट विद्वान् शास्त्रार्थ करने के लिये उनके पास आया। यह जैनधर्म से अतिरिक्त धर्म का अनुयायी था, अधर्मसेवी था, अधर्मिष्ठ था, अधर्माख्यायी था, अधर्मानुरागी था, अधर्मप्रलोकी था, अधर्मजीवी था, अधर्मप्ररंजक था, अधर्मप्रचारक था, सकलशास्त्रदर्शी होने पर भी तत्त्व-अविमर्शी था, इसलिये प्रकाण्डकुतर्ककेसरी था। गौतमस्वामी एवं सोमभद्र का परस्पर शास्त्रार्थ के विषय में विवाद प्रारम्भ हुवा । एक दूसरे के खंडन मंडन करने में प्रवृत्त हुए। इन दोनों में जब किसी का भी जय और पराजय नहीं हुआ तब गौतमस्वामी ने शास्त्रार्थ के विषय में अपनी प्रतिभा के बल पर नास्तिकमत का निराकरण करना प्रारंभ कर दिया। सोमभद्र ने भी जो नास्तिकमत का पक्षपाती था जब अपने मत का खंडन होते देखा तो उसने सिर्फ अपनी बुद्धि की ही कुशलता से गौतमस्वामी की युक्तियों का स्पर्धा के वश सभा के એક દિવસની વાત છે કે, સોમભદ્ર નામને કેઈ એક વિશિષ્ટ વિધાન શાસ્ત્રાર્થ કરવા માટે તેમની પાસે આવ્યા. તે જૈનધર્મથી અતિરિકત ધમને અનુયાયી હતે. અધર્મસેવી હતું, અધર્મિષ્ટ હતું, અધર્માધ્યાયી હતા, અધર્માનુરાગી હતું, અધર્મપ્રલે કી હો, અધર્મજીવી હતું, અધર્મ પ્રરંજક હતું, અધર્મ પ્રચારક હતું, સકળ શાસ્ત્ર દશી હોવા છતાં પણ તત્વ-અવિમશી હતે. આ માટે પ્રકાંડતક કેસરી હતે. ગૌતમસ્વામી અને સમભદ્રને પરસ્પર શાસ્ત્રાર્થના વિષયમાં વિવાદ શરૂ થયો. એક બીજાનું ખંડન મંડન કરવામાં પ્રવત બન્યા. આ બન્નેમાંથી જ્યારે કેઈને પણ જય અને પરાજય ન થયે ત્યારે ગૌતમસ્વામીએ શાસ્ત્રાર્થના વિષયમાં પિતાની પ્રતિભાના બળ ઉપર નાસ્તિકમતનું નિરાકરણ કરવાનું શરૂ કરી દીધું. સમભદ્ર કે જે નાસ્તિક મતને પક્ષપાતી હતો તેણે જ્યારે પિતાના મતનું ખંડન થતું જોયું તો તેણે ફક્ત પોતાની બુદ્ધિની કુશળતાથી સ્પર્ધાને વશ થઈ ગૌતમસ્વામીની યુક્તિઓને उ०६६ ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #577 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૧૨૨ उत्तराध्ययनसूत्रे खण्डनात् प्रतिनिवृत्तो नाभूत , परंतु अन्ततस्तदुक्तयुक्तिप्रतियुक्तिस्वरूपं खण्डयितुमसमर्थः सन् मनसि विचारयति-" सत्यम् अयमस्ति गौतमस्वामी महान् विद्यानिधिः, यदीदृशं मम मनोगतं भावं गौतमस्वामी कथयिष्यति तदाऽहमस्य शिष्यो भविष्यामि" इति । गौतमस्वामी मनःपर्ययज्ञानधारकतया तदानीमेव परिषदि वदति-" अस्य तर्ककेसरिणो मनसि संपति अयं विचारः समायातः-"सत्यमयं गौतमस्वामी महान् विद्यानिधिः परत्वेवं मम मनोगतं विचारं गौतमस्वामी यदि कथयेत् तर्हि तस्य शिष्यो भविष्यामी"ति । इत्युक्त्वा पुनस्तं नास्तिकं पृच्छति-कथय किमयं विचारबीच खंडन करना प्रारंभ कर दिया, परन्तु गौतमस्वामी ने जब उसकी युक्तियों का पूरे तोर से खंडन किया तो वह उसको संभालने में समर्थ नहीं हो सका । गौतमस्वामी के अगाध ज्ञान को देखकर उस समय उसके मन में यही विचार आया कि वास्तव में ये गौतमस्वामी विशिष्ट विद्यानिधान हैं, परन्तु यदि ये मेरे इस मनोगत भाव को बतला देवें तो मैं इनका शिष्य हो जाऊँगा? गौतमस्वामी मनापर्ययज्ञान के धारी थे, अतः उसी समय वे इसके मानसिक विचार को स्पष्टरूप से जान गये । उन्हों ने उसी समय सभा के बीच में कहा कि इस तर्ककेसरी सोमभद्र के मन में इस प्रकार का विचार उत्पन्न हुआ है कि "ये गौतमस्वामी महान् विद्या के निधान हैं यदि ये मेरे इस अभिप्राय को बतला दे तो मैं इनका शिष्य हो जाऊँगा"। गौतमस्वामी ने ऐसा कह कर उस सोमસભાની વચમાં ખંડન કરવાને પ્રારંભ કરી દીધે. પરંતુ ગૌતમસ્વામીએ જ્યારે તેની યુકિતઓનું પુરી રીતે ખંડન કર્યું ત્યારે તે પિતાની જાતને સંભાળવામાં સમર્થ ન બન્યો. ગૌતમસ્વામીના અગાધ જ્ઞાનને જોઈ એ સમય એના મનમાં એ વિચાર આવ્યો કે, વાસ્તવમાં આ ગૌતમસ્વામી વિશિષ્ટવિદ્યાનિધાન છે. પરંતુ જે તેઓ મારા આ મનેભાવને બતાવી આપે તે હું એમને શિષ્ય બની જાઉં. ગૌતમસ્વામી મન:પર્યયજ્ઞાનના ધારી હતા. આથી એજ વખતે તેમણે એના માનસિક વિચારને સ્પષ્ટ રૂપથી જાણી લીધા. અને એજ વખતે સભાની વચમાં કહ્યું કે, આ તકેસરી સેમભદ્રના મનમાં એ પ્રકારને વિચાર ઉત્પન્ન થયે છે કે, “આ ગૌતમસ્વામી મહાન વિદ્યાનાનિધાન છે તેઓ જે મારા આ અભિપ્રાયને બતાવી આપે તે હું તેમને શિષ્ય બની જાઉં.” ગૌતમસ્વામીએ એવું કહીને સમભદ્રને કહ્યું કે, કહે મહાનુભાવ ! તમારા મનમાં આ વિચાર ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #578 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रियदर्शिनी टीका अ० २ गा. ४३ अशानाऽसद्भावे सोमभद्रदृष्टान्तः ५२३ स्तव हृदये जातो न वा ? । तदाऽसौ नास्तिकस्तद्वचनं स्वीकुर्वन् वदति-भदन्त ! भवान् सत्यं वदति मम मनस्ययमेव विचारः मादुरासीत् । इत्युक्त्वाऽसौ गौतमस्वामिनः शिष्यो भूत्वा दीक्षितो जातः । तेन शिष्येणान्यैश्च शिष्यपरिवारैः सह ग्रामानुग्राम विहरन् गौतमस्वामी राजगृहनगरे गुणशिले चैत्ये भगवतः श्रीवर्धमानस्वामिनः संनिधौ समागतः । भगवन्तं वन्दित्वा नमस्कृत्य गौतमस्वामी चतुर्ज्ञानगमकुर्वन् सविनयं ब्रवीति-हे भगवन् ! अयं भगवत्मभावादेव सन्मार्गे समायातः। ततो भगवता श्रीवर्धमानस्वामिना श्रमणनिर्ग्रन्थानाहूय कथितम्-भो ! मुनयः ! गौतमभद्र से पूछा कि-कहो महानुभाव ! तुम्हारे मन में यह विचार उत्पन्न हुआ या नहीं ?। तब सोमभद्र ने गौतमस्वामी के इस कथन को स्वीकार करते हुए कहा-भदन्त ! आपने बिलकुल ही यथार्थ कहा है, मेरे मन में ऐसा ही विचार उत्पन्न हुआ था। इस प्रकार अपने हृदयंगम अभिप्राय को प्रगट करते हुए उसने गौतमस्वामी के पास दीक्षा धारण करली और उनका शिष्य हो गया। मुनि सोमभद्र एवं अन्य शिष्यों के साथ ग्रामानुग्राम विहार करते हुए गौतमस्वामी राजगृह नगर के गुणशिलचैत्य में भगवान् वर्धमान स्वामी के पास आये। वंदना एवं नमस्कार कर के गौतमस्वामी ने अपने में रहे हुए चतुर्ज्ञान की विशिष्टता का गर्व न करके प्रभु से बड़े विनय के साथ कहा-भगवन् ! यह सोमभद्र मुनि आपके ही प्रभाव से सन्मार्ग में आया है। भगवान श्रीवर्धमानस्वामी ने श्रमणनिर्ग्रन्थों को बुलाकर कहा कि हे मुनियों ! देखो चार ઉત્પન્ન થયેલ કે નહીં? ત્યારે સમભદ્ર ગૌતમસ્વામીના આ કથનને સ્વીકાર કરીને કહ્યું, ભદંત! આપે બીલકુલ યર્થાથે કહ્યું છે. મારા મનમાં આ જ વિચાર ઉત્પન્ન થયો હતો. આ પ્રકારે પોતાના હૃદયમાંના અભિપ્રાયને પ્રગટ કરીને તેણે ગૌતમસ્વામીની પાસે દીક્ષા ગ્રહણ કરી લીધી. અને તેમના શિષ્ય બની ગયા. મુનિ સેમભદ્ર અને બીજા શિષ્ય સાથે ગ્રામાનુગ્રામ વિહાર કરતા કરતા ગૌતમસ્વામી રાજગૃહ નગરના ગુણશિલચત્યમાં ભગવાન વર્ધમાન સ્વામીની પાસે આવ્યા. વંદના અને નમસ્કાર કરી ગૌતમ સ્વામીએ પિતાનામાં ચારજ્ઞાન વિશિષ્ટતાને ગર્વ ન કરતાં પ્રભુને ઘણા વિનય સાથે કહ્યું, ભગવન! આ સમભદ્રમુનિ આપના જ પ્રભાવથી સન્માર્ગમાં આવ્યા છે. ભગવાનશ્રી વર્ધમાન સ્વામીએ શ્રમણનિન્થાને બેલાવીને કહ્યું કે, હે મુનિએ ! જુઓ ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #579 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययनसूत्रे श्रतुआनचतुर्दशपूर्वधारकः स्वज्ञानप्रभावादनेकयुक्तिपतियुक्तीः पदय, मत्तगजेन्द्रमिव सोमभद्रं वशीकृत्य दीक्षितं कृत्वाऽऽनीतवान् । अयं गौतमस्य प्रयत्ने नैव मोक्षमार्गमाश्रितः, तथापि गौतमो विनयातिशयं कुर्वन् ज्ञानगर्व न वहति, नच केवलज्ञानामाप्तौ विषादं करोति । यथा गौतमेनाऽवधिमनःपर्ययज्ञानपरीषहं तन्मदाकरणेन केवलज्ञानाप्राप्तिविषयकविषादाकरणेन च परिषह्य तदुपरि विजयः मातस्तथाऽन्यैरपि मुनिभिरज्ञानाभावपरीषहः सोढव्यः ॥ ४३ ॥ अथ द्वाविंशतितम दर्शनपरीषहजयं प्राहमूलम् नत्थि नेणं परे लोएं इंड्ढी वा वि तवस्सिंणो । अदुवा 'वंचिओ मि-त्ति, ईई भिक्खू न चिंतए ॥४४॥ छाया-नास्ति नूनं परो लोकः ऋद्धिर्वाऽपि तपस्विनः । ____ अथवा वञ्चितोऽस्मीति इति भिक्षुन चिन्तयेत् ॥ ४४॥ ज्ञान के धारी एवं चतुर्दशपूर्व के पाठी गौतम ने अपने प्रभाव से ही मत्तगजराज की तरह इस सोमभद्र को अनेक युक्ति प्रयुक्तियों द्वारा वश में कर के दीक्षित किया है, और यहां ये इस को ले आये हैं, गौतम का ही यह प्रयत्न है जो यह मोक्षमार्ग में आ गया है, फिर भी गौतम को अपने विनयातिशय से इस बात का जरा भी गर्व नहीं है । तथा केवलज्ञान की अप्राप्ति के विषय में विषाद भी नहीं है । जिस तरह गौतम ने अवधिमनःपर्ययज्ञान के परीषह को उनका मद नहीं करने से तथा केवलज्ञान की अप्राप्ति में विषाद नहीं करने से जीता है उसी तरह तुम सब मुनियों को भी अज्ञानाभाव अर्थात् ज्ञान का सद्भाव परीषह जीतना चाहिये ॥४३॥ ચાર જ્ઞાનના ધારી અને ચોદપૂર્વના પાઠી ગૌતમે મત્ત ગજરાજની માફક વૈરવિહારી અને યુક્તિ પ્રયુક્તિઓના સ્વામી એવા આમને પોતાના જ્ઞાનવડે વશ કરીને દીક્ષિત કરેલ છે. અને તેને અહીં લઈ આવેલ છે. ગૌતમને જ આ પ્રયત્ન છે કે જે આ મોક્ષમાર્ગમાં આવેલ છે. છતાં પણ ગૌતમને પિતાના વિનય અતિશયથી આ વાતને જરા પણ ગર્વ નથી તથા કેવળજ્ઞાનની અપ્રાપ્તિના વિષયમાં વિષાદ પણ નથી. જેવી રીતે ગૌતમે અવધિમન:પર્યયજ્ઞાનના પરીષહને મદ નહીં કરવાથી તથા કેવળજ્ઞાનની અપ્રાપ્તિમાં વિષાદ નહીં કરવાથી જીતેલ છે. આ રીતે તમે સઘળા મુનિઓએ પણ અજ્ઞાન અભાવ અર્થાત જ્ઞાનને સદભાવ છત જોઈ એ. ૪૩ છે ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #580 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रियदर्शिनी टीका. अ० २ गा० ४४ दर्शनपरिषहजयः टीका' नत्थि नृणं ' इत्यादि । परो लोकः = परभवः - जन्मान्तरम्, नूनं = निश्चयेन नास्ति = न भवति । अयं भावः - शरीरं हि भूतात्मकं तदिहैव नश्यति, शरीरे वर्तमानस्य चैतन्यस्यापि भूतधर्मत्वादेव शरीरेण सह नाशसंभवात् । शरीरव्यतिरेकेण आत्मनः प्रत्यक्षतोऽनुपलभ्यमानत्वाच्च जन्मान्तरं न भवतीति निश्वेतव्यमिति । यद्वा - नूनमिति संभावनायाम् परलोकः स्वर्गादिर्नास्तीति संभावयामि, यतः परलोके गतः कोऽपि नात्रा - गत्य वदति, तस्मात् प्रत्यक्षाभावान्नास्ति परलोक इति । वा=अथवा, अपि = इहापि - बतलाते हैं ५२५ अब सूत्रकार बाईसवां दर्शनपरीषहजय को 'नथि नूणं' - इत्यादि । अन्वयार्थ - ( परे लोए नृणं नस्थि- परः लोकः नूनं नास्ति ) निश्चय से जन्मान्तर नहीं है - यह शरीर भूतात्मक है, इसलिये यह तो यहां ही विनष्ट हो जाता है । इस शरीर में जो चैतन्य वर्तमान है वह भी भूतों का धर्म होने से शरीर के साथ ही नाश को प्राप्त हो जाता है। दूसरे शरीर से भिन्न आत्मा नामक कोई पदार्थ है, यह किसी भी प्रत्यक्ष प्रमाण से साबित नहीं होता है अतः परलोकी (परलोक जाने वाला आत्मा) का अभाव होने से परलोक का अभाव स्वतः सिद्ध है, अर्थात् जन्मान्तर नहीं है । अथवा " नूनं " यह पद संभावना में भी प्रयुक्त किया जाता है इस अपेक्षा परलोक-स्वर्गादिक जो माने जाते हैं सो वे भी नहीं हैं, ऐसी संभावना होती है, क्यों कि कोई ऐसा तो है नहीं जो परलोक में जाकर पश्चात् यहां आ कर यह कहे कि मैं अमुक હવે સૂત્રકાર ખાવીસમા દર્શનપરીષહને જીતવાનું અતાવે છે— 'afer qui' Seule. अन्वयार्थ -परे लोए नूणं नत्थि - परलोकः नूनं नास्ति निश्चयथी ४न्मान्तर નથી. આ શરીર ભૂતાત્મક છે, આ માટે તે તે અહિં જ વિનષ્ટ થઈ જાય છે. આ શરીરમાં જે ચૈતન્ય વર્તમાન છે તે પણ ભૂતાને ધમ હેાવાથી શરીરની સાથેાસાથ નાશ પામે છે, ખીજુ શરીરથી ભિન્ન આત્મા નામના કાઈ પદાર્થ છે, એ કાઈ પણ પ્રત્યક્ષ પ્રમાણથી ઓળખી શકાતા નથી. આથી પરલેાકીના (પરલેાક જવાવાળા આત્મા) અભાવ હાવાથી પરલેાકના અભાવ સ્વતઃ સિદ્ધ छे. अर्थात् ४न्मान्तर नथी. अथवा 'नून' या यह संभावनाभां पातु प्रयुक्त કરાય છે. આ અપેક્ષા પરલેાક, સ્વર્ગાદિક જે માનવામાં આવે છે તે પણ નથી એવી સંભાવના થાય છે. કેમકે, કોઇ એવા તા છે જ નહીં જે પરલેાકમાં ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર ઃ ૧ Page #581 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययनसूत्रे शब्दो भिन्नक्रमः अतोऽयमर्थः-तपस्विनोऽपि मम ऋद्धिः आमर्शषध्यादिलब्धिरूपा नास्ति=न विद्यते, तस्या अप्यनुपलभ्यमानत्वात् । प्रसङ्गादिह लब्धिभेदा उच्यन्ते१ आमौंषधिः, २ विमुडोषधिः, ३ खेलौषधिः, ४ जल्लौषधिः, ५ सौंषधिः, ६ संभिन्नश्रोतोलब्धिः, ७ अवधिलब्धिः, ८ ऋजुमतिलब्धिः, ९ विपुलमतिलब्धिः, १० चारणलब्धिः, ११ आशीविषलब्धिः, १२ केवलिलब्धिः, १३ गणधरलब्धिः, १४ पूर्वधरलब्धिः, १५ अर्हल्लब्धिः, १६ चक्रवर्तिलब्धिः, १७ बलदेवलब्धिः, १८ वासुदेवलब्धिः, १९/१ क्षीरास्रवलब्धिः , १९/२ मध्वास्रवलब्धिः , १९/३ सर्पिरास्रवलब्धिः, २० कोष्ठबुद्धिलब्धिः, २१ पदानुसारिलब्धिः, २२ स्वर्ग से आया हूं, इसलिये प्रत्यक्ष से उनकी उपलब्धि का अभाव होने से परलोक नहीं है। (वा) अथवा (तवस्सिणो इड्ढी अवि-तपस्विनः ऋद्धिः अपि ) तपस्वी जन को ऋद्धिकी प्राप्ति हो जाती है यह भी बात ठीक नहीं है, क्यों कि ऋद्धियों अर्थात् लब्धियों की सिद्धि भी प्रत्यक्षममाण से होती नहीं है। लब्धियां २८ प्रकार की हैं वे ये हैं___ आमषिधि १, विप्रुडोषधि २, खेलौषधि ३, जल्लौषधि ४, सवैषधि ५, संभिन्नश्रोतोलब्धि ६, अवधिलब्धि ७, ऋजुमतिलब्धि ८, विपुलमतिलब्धि ९, चारणलब्धि १०, आशीविषलब्धि११, केवलिलब्धि१२, गणधरलब्धि १३, पूर्वधरलब्धि १४, अहल्लन्धि १५, चक्रवर्तिलब्धि१६, बलदेवलब्धि १८, क्षीरास्रवलब्धि १९।१, मध्वास्रवलब्धि १९।२, सर्पिरास्रवलब्धि १९।३, कोष्ठबुद्धिलब्धि २०, पदानुसारिलब्धि २१, बीजबुજઈ પાછે અહિં આવી તે એમ કહે કે હું અમુક સ્વર્ગમાં જઈને આવ્યો છે. આ માટે પ્રત્યક્ષથી તેની ઉપલબ્ધીને અભાવ હોવાથી પરલોક નથી. અથવા सवस्सिणो इडढी अवि त५वामान *द्धियोनी प्राप्ति थ य छे ये पात ५९ ઠીક નથી. કેમકે, ઋદ્ધિાની સિદ્ધિ પણ પ્રત્યક્ષ પ્રમાણુથી થતી નથી. ઋદ્ધિ ૨૮ પ્રકારની છે. તે આ પ્રમાણે છે. (१) भाभशैषिधि, (२) विध्रुषधि, (3) मेतोषधि, (४) aौषधि, (५) सौषधि, (६) सलिन्नश्रोतासन्धि, (७) Aqधिधि , (८) *तुमति सन्धि, (6) विधुतमतिvिध, (१०) या२धि , (११) माशीविषधि , (१२) aslelee, (१३) १५२८, (१४) पूर्व ५२धि , (१५) Really, (१६) यdिavध, (१७) Haalve, (१८) वासुदेव , (१८) क्षारास. avध, मध्वासन्धि , ससिपाधि, (२०) ४भुद्धिसधि, (२१) यहानु. ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #582 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रियदर्शिनी टीका अ० २ गा. ४४ दर्शनपरीषहेऽष्टाविंशतिलब्धिवर्णनम् ५२७ बीजबुद्धिलब्धिः, २३ तेजोलेश्यालब्धिः, २४ आहारकलब्धिः,२५ शीतलेश्यालब्धिः, २६ वैक्रियलब्धिः, २७ अक्षीणमहानसिकलब्धिः, २८ पुलाकलब्धिः। भव्यत्वाभव्यत्वविशिष्टानां पुरुषाणां च यावत्यो लब्धयो भवन्ति, वा एवम्-भव्यपुरुषाणामेताः पूर्वोक्ता सर्वा अपि लब्धयो भवन्ति । अहंश्चक्रवर्तिवासुदेवबलदेवसंभिन्नश्रोतश्चारणपूर्वधरगणधरपुलाकाऽऽहारकलब्धिलक्षणा एतादश लब्धयो भव्यस्त्रीणां नैव भवन्ति । शेषास्त्वष्टादशलब्धयो भव्यस्त्रीणां भवन्ति । ___ यच्च मल्लिस्वामिनः स्त्रीत्वेऽपि तीर्थंकरत्वमभूत् तदाश्चर्यभूतत्वान गण्यते । तथा -अनन्तरोक्ताअहंदाद्या आहारकपर्यन्ता दश लब्धयः, केवलि-ऋजुमति-विपुलमति द्धिलब्धि २२, तेजोलेश्यालन्धि २३, आहारकलब्धि २४, शीतलेश्यालब्धि२५, वैक्रियलब्धि२६, अक्षीणमहानसीकलब्धि२७, पुलाकलब्धि २८॥ अब भव्यत्वभावविशिष्ट एवं अभव्यत्वभावविशिष्ट पुरुष को जितनी जितनी लब्धियां होती हैं वे कहते हैं भव्यत्वभावविशिष्ट पुरुषों के ये सभी लब्धियां होती हैं । भव्य स्त्रियों के अहल्लब्धि १, चक्रवर्तिलब्धि २, वासुदेवलब्धि ३, बलदेवलब्धि ४, संभिन्नश्रोतोलब्धि ५, चारणलब्धि ६, पूर्वधरलब्धि ७, गणधरलब्धि ८, पुलाकलब्धि ९, एवं आहारकलब्धि १०, ये दस लब्धियां नहीं होती हैं। बाकी अवशिष्ट अठारह लब्धियां भव्य स्त्रियों के भी होती हैं। जो मल्लिस्वामी के स्त्रीपना होने पर भी तीर्थकरत्व वहां हुआ वह अच्छेरा-आश्चर्य होने की वजह से गिना नहीं जाता है। ये १३ तेरह लब्धियां अभव्यपुरुषों के नहीं होती हैं-केवलिलब्धि, ऋजुસારિલબ્ધિ, (૨૨) બીજબુદ્ધિલબ્ધિ, (૨૩) તેજેતેશ્યાલિબ્ધિ, (૨૪) આહારકલબ્ધિ, (२५) शीतवेश्यावध, (२६) वैठियाधि, (२७) सक्षी मानसिsalor, (२८) yaurali. હવે ભવ્યત્વભાવવિશિષ્ટ અને અભવ્યત્વભાવ વિશિષ્ટ પુરૂષોને જેટલી જેટલી લબ્ધિઓ થાય છે તે બતાવે છે. ભવ્યત્વભાવ વિશિષ્ટ પુરૂષને આ બધી લબ્ધિઓ થાય છે. ભવ્ય સિને ૧ અéલ્લબ્ધિ, ૨ ચક્રવર્તિલબ્ધિ, ૩ વાસુદેવલબ્ધિ, ૪ બલદેવલબ્ધિ, ૫ સંભિન્નશ્રોતેલબ્ધિ, ૬ ચારણલબ્ધિ. ૭ પૂર્વધરલબ્ધિ, ૮ ગણધરલબ્ધિ, ૯ જુલાકલબ્ધિ, અને ૧૦ આહારકલબ્ધિ. આ દશ લબ્ધિ થતી નથી. બાકીની અઢાર લબ્ધિ ભવ્ય સ્ત્રીઓને પણ થાય છે. જેમ મલ્લિ સ્વામીને સ્ત્રીપણું હોવા છતાં પણ તીર્થકરત્વ તેમને થયું. તે અચ્છેરા-આશ્ચર્ય થવાની ગણત્રીમાં ગણવામાં આવતું નથી. આ તેર લબ્ધિઓ અભવ્ય પુરૂષને થતી નથી ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #583 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२८ उत्तराध्ययनसूत्रे -लब्धयश्चैतास्त्रयोदश लब्धयः पुरुषाणामप्यभव्यानां नैव भवन्ति, शेषाः पञ्चदश लब्धयस्तु भवन्ति । अभव्यस्त्रीणामप्येतास्त्रयोदश लब्धयो न भवन्ति, मधुक्षीरास्रवलधिरपिचतुर्दशी तासां नैव भवति । शेषाश्चतुर्दशलब्धयस्तु तासामपि भवन्ति। अथासां व्याख्या प्रदर्यते-आमशौषधिः-आमर्शी हि हस्तादिना स्पर्शः, स एवं औषधिः, करादिसंस्पर्शमात्रादेव व्याध्यपनयनसामर्थ्यम् ॥ १॥ विगुंडोषधिः-यन्माहात्म्यान्मूत्रपुरीषावयवमात्रमपि रोगराशिमणाशाय संपद्यते सुरभि च सा ॥ २॥ मतिलब्धि, विपुलमतिलब्धि तीन ये तथा भव्य स्त्रियों के जिन दश १० ऋद्धियों का अभाव बतलाया गया है वे। इस प्रकार १३ तेरह लब्धियों का अभव्यपुरुषों के अभाव रहता है। बाकी १५ लब्धियां होती हैं। इसी तरह अभव्यस्त्रियों के भी ये ही १३ तेरह लब्धियां नहीं होती हैं । तथा क्षीरास्रव एवं मध्वास्रव नामकी भी लब्धि उनके नहीं होती है। इस प्रकार तेरह १३ पूर्वोक्त और १४ चौदहवीं क्षीरानव, मध्वास्रव सपिरास्रवरूप का उनकेअभाव जानना चाहिये। बाकी १४ चौदह लब्धियां अभव्यस्त्रियों के होती हैं। इन लब्धियों की व्याख्या की जाती है-हस्त आदि द्वारा स्पर्श होने का नाम आमर्श है। यह स्पर्श ही जिनका औषधि का काम करता है वह आमशैषिधि है। इस लब्धि के धारी को जो रोगी अपने हस्तादिक से छू लेता है उसका वह रोग छूते ही नष्ट हो जाता है १, जिस के प्रभाव से मूत्र, पुरीष, आदि भी रोगराशिके विनाश करने में औषકેવલીલબ્ધિ, ઋજુમતિલબ્ધિ, વિપુલમતિલબ્ધિ, ત્રણ આ તથા ભવ્ય સ્ત્રીઓને જે દશઋદ્ધિઓને અભાવ બતાવેલ છે તે આ પ્રકારની તેર લબ્ધિઓને અભવ્ય પુરૂષને અભાવ રહે છે. બાકી પંદર લબ્ધિઓ થાય છે. આ રીતે અભવ્ય સ્ત્રીઓને પણ આ તેર લબ્ધિઓ થતી નથી. તથા ક્ષીરસવ અને મધ્વાસવ સપિરાસ્ત્રવ નામની પણ તેને થતી નથી. આ રીતે તેર પૂર્વોક્ત અને ચૌદમી ક્ષીરાસાવ મદવાસવ લબ્ધિને તેને અભાવ જાણવું જોઈએ. બાકી ચૌદ લબ્ધિઓ અભવ્ય સ્ત્રીઓને થાય છે. આ લબ્ધિઓની વ્યાખ્યા કહેવામાં આવે છે,-હાથ આદિ દ્વારા થવાનું નામ આમર્શ છે. આ સ્પર્શ જ જેને ઓષધિનું કામ કરે છે તે આમ ઔષધિ છે. આ લબ્ધિના ધારીને જે રેગી પોતાના હાથથી અડે છે એને એ રાગ અડતાં જ નાશ પામે છે. (૧) જેના પ્રભાવથી મૂત્ર, પુરીષ, આદિ રેગ વિનાશ કરવામાં ઔષધિનું કામ કરવા લાગે છે તથા તેમાં સુગંધ આવવા ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #584 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रियदर्शिनी टीका अ० २ गा. ४४ दर्शनपरीषहेऽष्टाविंशतिलब्धिवर्णनम् ५२९ खेलौषधिः-यत् प्रभावात् श्लेष्मा सर्वरोगापहारकः सुरभिश्च भवति सा ॥३॥ जल्लोषधिः- जल्लो-मळः कर्णवदननासिकानयनजिह्वासमुद्भवः शरीरसमुद्भवश्व, स एव ओषधिर्भवति यत्पभावात् सा ॥४॥ सौंषधिः-यत्प्रभावात् सर्वे विमूत्रकेशनखादय ओषधयो भवन्ति सा ॥५॥ संभिन्नश्रोतोलब्धिः -यत्मभावात् सर्वैरपि शरीरावयवः सुस्पष्ट शृणोति सा । यद्वा-'संभिन्नस्रोतस् ' इतिच्छाया । अत्र स्रोतस् शब्द इन्द्रियवाचकः, तेन यत्प्रभावात्-एकैकमिन्द्रियं सर्वेषामिन्द्रियाणां कार्य संपादयति सा। यथा-कर्णेनैव श्रवणदर्शनघ्राणरसनस्पर्शनकार्याणि लब्धिप्रभावात् सम्पादयति ॥ ६॥ ___ अवधिलब्धिः-अवधिज्ञानमेव लब्धिः-अवधिलब्धिः । अरूपिद्रव्यं विहाय धिका काम करने लग जाते हैं, तथा उनमें सुगंध आने लगती है, इस का नाम विमुडोषधि है २ । जिसके प्रभाव से श्लेष्मा सर्वरोग का अपहारक हो जाता है उस का नाम खेलौषधि है । इसके प्रभाव से श्लेष्म भी सुगंधवाला हो जाता है ३। जिसके प्रभावसे कान, मुख, नासिका, नयन, एवं जिह्वा का मैल, तथा शरीरका मैल औषधि जैसा परिणमित होता है उसका नाम जल्लोषधि है ४।जिसके प्रभावसे विष्टा, मूत्र, केश, तथा नख आदिक औषधि जैसे हो जाते हैं उसका नाम सौंषधि है ५। जिसके प्रभावसे समस्त शारीरिक अवयवों द्वारा सुना जाय,अथवा एक ही इन्द्रिय जिसके प्रभाव से अन्य इन्द्रियों का काम करने लग जाय उस का नाम संभिन्नातोलब्धि है। जिसके यह लब्धि होती है वह एक कर्ण इन्द्रिय से ही अवशिष्ट इन्द्रियों के काम-दर्शनादिक करने की शक्तिवाला हो जाता है ६। जिसके प्रभाव से अमूर्तिक द्रव्य को छोड़ कर मूर्तिक द्रव्यको जानने की सामर्थ्य आत्मामें प्रकट हो जाती है उसका नाम લાગે છે. તેનું નામ વિમુડ ઓષધિ છે. (૨) જેના પ્રભાવથી કલેષ્મા સર્વ રેગોને નાશ કરનાર છે તેનું નામ ખેલૌષધિ છે, તેના પ્રભાવથી શ્લેષ્મ પણ सुगया थ/ जय छ. (3) २ प्रमाथी आन, माटु, ना, नए भने છભનો મેલ તથા શરીરને મેલ, ઔષધિની જેમ પરિણમિત બને છે તેનું नाम र मौषधि छे. (४) न प्रमाथी विष्टा, भूत्र, वाण, नभ, माहि ઔષધિ જેવા થઈ જાય છે તેનું નામ સર્વોષધિ છે. (૫) જેના પ્રભાવથી શરીરનાં તમામ અવયવ દ્વારા સંભળાય અથવા એક જ ઈન્દ્રિય જેના પ્રભાવથી બીજી ઈન્દ્રિયનું કામ કરવા લાગી જાય તેનું નામ સંભિન્નશ્રોતોલબ્ધિ છે. જેને આ લબ્ધિ હોય છે તે એક કર્ણ ઇન્દ્રિયથી જ અવશિષ્ટ ઈન્દ્રિયોનાં उ०६७ ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #585 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५३० उत्तराध्ययनसूत्रे रूपिद्रव्यविषयकमिन्द्रियनिरपेक्षं मनःप्रणिधानवीर्यकं प्रतिविशिष्टक्षयोपशमनिमितकं देवमनुष्यतिर्यङ्नारकस्वामिकं ज्ञानं भवति यत्प्रभावात् सा ।। ७ ॥ जुमतिलन्धिः-ऋजुः सामान्य-विशेषरहितं, देशकालाधनेकपर्यायवजितं, संज्ञिना चिन्तितं, तग्राहिणी मतिः-ऋजुमतिः, सैव लब्धिः। सा चघटोऽनेन चिन्तितः, इत्येवं संज्ञिमनोद्रव्यपरिच्छेदः ॥८॥ विपुलमतिलब्धिः -विशुद्धतरः संपूर्णमनुष्यक्षेत्रवर्तिसंज्ञिपञ्चेन्द्रियमनोद्रव्यप्रत्यक्षीकरणहेतुर्मनःपर्ययज्ञानविशेषः। यथा-परेण चिन्तितं घटं प्रसंगतो बहुभिः अवधिलब्धि है, यह अवधि, इन्द्रिय और मनकी सहायता से उपत्न नहीं होता है। अवधिज्ञानावरणीय कमेंके प्रतिविशिष्ट क्षयोपशम से उत्पन्न होता है । देव, मनुष्य, नरक एवं तीर्यश्च, इस प्रकार चारों गतियों के जीव इस के स्वामी हो सकते हैं ७। जिस के प्रभाव सेदेश, काल आदि अनेक पर्यायों से वर्जित पदार्थ का सामान्य ज्ञान होता है, और जो संज्ञी जीव के द्वारा चिन्तित पदार्थ को ग्रहण करता है उसका नाम ऋजुमतिलब्धि है । जैसे जिसने अपने मन के द्वारा घट का विचार किया तो ऋजुमतिलब्धि वाला उसे शीघ्र बतला देगा कि इसने घट का विचार किया है ८ । जिसके प्रभाव से मनुष्यक्षेत्रवर्ती समस्त संज्ञी पंचेन्द्रिय जीवों के मनोद्रव्य को साक्षात् करनेवाला जो विशुद्धतर ज्ञान होता है उसका नाम विपुलमतिलब्धि है। यह मनःपर्यय ज्ञान का एक भेद है। जैसे किसी ने घट का विचार किया કામ દર્શનાદિક કરવાની શક્તિવાળા બની જાય છે. (૬) જેના પ્રભાવથી અમુર્તિક દ્રવ્યને છોડીને મુર્તિક દ્રવ્યને જાણવાનું સમર્થ આત્મામાં પ્રગટ થાય છે. તેનું નામ અવધિલબ્ધિ છે. આ અવધિ ઈન્દ્રિય અને મનની સહાયતાથી ઉત્પન્ન થતા નથી. અવધિ જ્ઞાનાવરણીય કર્મના પ્રતિવિશિષ્ટ પશમથી ઉત્પન્ન થાય છે, દેવ, મનુષ્ય, નરક અને તિર્યંચ આ ચાર ગતીના છે તેના સ્વામી બની શકે છે.(૭) જેને પ્રભાવ દેશ, કાલ આદિ અનેક પર્યાયથી વજીત સામાન્ય જ્ઞાન થાય છે. અને જે સંજ્ઞી જીવ દ્વારા ચિતિત પદાર્થને ગ્રહણ કરે છે. અને તેનું નામ ઋજુમતિલબ્ધિ છે. જે જેણે પિતાના મનની સાથે વિચાર કર્યો છે તે જુમતિ લબ્ધિવાળા તેને તુરત બતાવી શકે છે કે આણે મનમાં આ વિચાર કર્યો છે.(૮) જેના પ્રભાવથી મનુષ્ય ક્ષેત્રવર્તી સમસ્તસંઘની પંચેન્દ્રિય જીવોના મને દ્રવ્યોને સાક્ષાત કરવાવાળું જે વિશુદ્ધતરજ્ઞાન હોય છે. તેનું નામ વિપુલમતિલબ્ધિ છે આ મન:પર્યયજ્ઞાનનો એક ભેદ છે. જેમ કેઈએ મનમાં વિચાર કર્યો હોય તે આ લબ્ધિવાળા તેને પ્રસંગવશ એવા ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #586 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रियदर्शिनी टीका अ० २ गा० ४४ दर्शनपरीषहेऽष्टाविंशतिलब्धिवर्णनम् ५३१ पर्या यैरुपेतं जानाति, तत्र घटोऽयं द्रव्यतः सौवर्णः, क्षेत्रतो मरुदेशीयस्तथा गृहाभ्यन्तरस्थः, कालतस्त्रैमासिकः, भावतः-सुसंस्थानचाकचिक्यादियुक्तः, आकारण महान् , इत्यादि प्रचुरविशेषणविशिष्टं जानाति ॥ ९॥ चारणलब्धि:-आकाशगमनशक्तिः॥ १०॥ आशीविषलब्धिः -आशी:-अनुग्रहः, विष-निग्रहः, तद्रूपा लब्धिः, निग्रहानुग्रहसामर्थ्यमित्यर्थः ॥ ११॥ केवलिलब्धिः-केवलिनः केवलज्ञानसिद्धिः ॥१२॥ गणधरलब्धिः-गणधरत्वप्राप्तिः ॥ १३ ॥ पूर्वधरलब्धिः -पूर्वधरत्वमाप्तिः॥ १४ ॥ अहल्लब्धिः-अर्हत्त्वप्राप्तिः॥१५॥ चक्रवर्तिलब्धिःहै तो इस लब्धिवाला उसे प्रसंगवश इस रूप से स्पष्ट जान लेता है कि इसने द्रव्य की अपेक्षा सुवर्ण का, क्षेत्र की अपेक्षा मरुदेश का अथवा घर के भीतर का, काल की अपेक्षा तीन मास का, एवं भाव की अपेक्षा अच्छे आकार का, अथवा चाकचिक्यादि रूप से युक्त घट का चिन्तन किया है। इस प्रकार विपुलमतिलब्धि वाला घटको अनेक विशेषां से विशिष्ट जान सकता है तब कि ऋजुमतिलब्धि वाला इस प्रकार से घट को नहीं जान सकता है वह तो उसे सामान्यरूप से ही जानता है ९ । आकाश में गमन करने की शक्ति जिस लब्धि द्वारा उत्पन्न हो जाती है वह चारणलब्धि है १० । जिसके प्रभाव से अनुग्रह और निग्रह करने की शक्ति प्रगट हो जावे वह आशीविषलब्धि है ११ । केवलियों के जो केवलज्ञान की सिद्धि होती है उसका नाम केवलिलब्धि है १२ । गणधरपद की प्राप्ति होने में जो कारण होती है वह गणधरलब्धि है १३ । पूर्वधरत्व की प्राप्ति पूर्वधरलब्धि । १४, अर्हत्पद की प्राप्ति अहल्लब्धि १५, चक्रधरत्व की प्राप्ति चक्रवर्तिતેવા રૂપથી સ્પષ્ટ જાણી લે છે કે, તેણે દ્રવ્યની અપેક્ષા, સુવર્ણના ક્ષેત્રની અપેક્ષા, મરૂદેશના અથવા ઘરની અંદરના કાળની અપેક્ષા ત્રણ માસનું અને ભાવની અપેક્ષા સારા આકારનું અથવા ચળકાટ ચકચકાટાદિ રૂપથી યુક્ત ઘટ જાણે છે. આ પ્રકારે વિપુલમતિ લબ્ધિવાળા ઘટને અનેક વિશેષણથી વિશિષ્ટ જાણે શકે છે. ત્યારે જુમતિ લબ્ધિવાળા આ રીતે ઘટને જાણી શકતા નથી. તે તે એને સામાન્યરૂપથી જ જાણે છે. (૯) આકાશમાં ઉડવાની શકિત જે લબ્ધિદ્વારા ઉત્પન્ન થાય છે તે ચારણલબ્ધિ છે. (૧૦) જેના પ્રભાવથી અનુગ્રહ અને નિગ્રહ કરવાની શકિત પ્રગટ થાય છે તે આશીવીપલબ્ધિ છે. (૧૧) કેવલીઓને કેવળજ્ઞાની લબ્ધિ થાય છે તેનું નામ કેવળલબ્ધિ છે. (૧૨) ગણ ધર પદની પ્રાપ્તિ થવામાં જે કારણ હોય છે તે ગણધરલબ્ધિ છે. (૧૩) પૂર્વધરત્વની પ્રાપ્તિ પૂર્વધરલબ્ધિ. (૧૪) અર્હસ્પદની પ્રાપ્તિ અહંલબ્ધિ. (૧૫) ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #587 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५३२ उत्तराध्ययन सूत्रे चक्रधरत्वप्राप्तिः ॥१६॥ बलदेवलब्धिः - बलदेवत्वमाप्तिः ||१७|| वासुदेवलब्धिः - वासुदेवस्वप्राप्तिः ||१८|| क्षीरास्रवलब्धिः - यत्मभावाद्वचनं क्षीरवन्मधुरं भवति ।। १९।१ ॥ मध्वास्त्रवलब्धिः - यत्मभावाद्वचनं मधुतुल्यं भवति ॥ १९॥२ ॥ सर्पिरास्रवलब्धिः - यत्प्रभावाद्वचनं घृतवत् स्निग्धमरूक्षं भवति ||१९| ३ || कोष्ठबुद्धिलब्धि: - यथा कोष्ठके धान्यं प्रक्षिप्तं तदवस्थमेव चिरमप्यवतिष्ठते, न किमपि कालान्तरेऽपि गलति, एवं यस्मिन् पुरुषे श्रुतज्ञानं निक्षिप्तं तदवस्थमेव चिरकालं तिष्ठति न कदापि विस्मरति यत्मभावात् सा ||२०|| पदानुसारिणी लब्धिः - यश्मभावात् पुनरेकमपि श्रुतपदमवधार्य शेषमश्रुतमपितदवस्थमेव श्रुतमवगाहते सा ॥ २१ ॥ बीजबुद्धिलब्धिः - यथा - एकस्माद् बीजान्महातरुरुत्पद्यते, लब्धि १६, बलदेव पद की प्राप्ति बलदेवलब्धि १७, वासुदेव पद की प्राप्ति वासुदेवलब्धि १८, क्षीर जैसे मीठे वचनों की प्राप्ति जिसके प्रभाव से हो वह क्षीरास्रवलब्धि, मधुतुल्य मधुर वचनों का होना वह मध्वास्रवलब्धि, सिग्ध एवं अरूक्ष वचन जिसके प्रभाव से हो वह सर्पिरास्रव लब्धि है १९ । जिस प्रकार कोठे में रक्खा हुवा धान्य ज्यों का त्यों बहुत काल तक रहता है-बिगडता नहीं है, उसी प्रकार जिसके प्रभाव से प्राप्त श्रुत भी ज्यों का त्यों स्थिर रहे विस्मृत न हो उसका नाम कोष्ठबुद्धिलब्धि है २० जिसके प्रभाव से श्रुत का एक पद भी अवधारित होने पर शेष नहीं सुना हुवा भी श्रुत अवधारित हो जाय इस का नाम पदानुसारिणीलब्धि है २१ । जिस प्रकार एक छोटे से भी बीज से विशाल काय वृक्ष उत्पन्न हो जाता है, उसी प्रकार उत्पाद, व्यय, ચક્રધરત્વની પ્રાપ્તિ ચક્રવર્તિ લબ્ધિ. (૧૬) ખલદેવપદની પ્રાપ્તિ ખળદેવલબ્ધિ. (૧૭) વાસુદેવ પદની પ્રાપ્તિ વાસુદેવલબ્ધિ. (૧૮) ખીર જેવાં મીઠા વચનેાની જેના પ્રભાવથી થાય તે ક્ષીરાસ્રવલબ્ધિ. મધુતુલ્ય મધુર વચનાનું અનવું તે મવાસવલબ્ધિ. સિગ્ન અને અરુક્ષવચન જેના પ્રભાવથી થાય તે પેિરાસવલબ્ધિ છે. (૧૯) જે રીતે કાઠીમાં રાખેલું અનાજ જેમનુ તેમ ઘણા સમય સુધી રહે છે. છતાં બગડતું નથી. તે પ્રકારે જેના પ્રભાવથી પ્રાપ્ત શ્રુત પણ જ્યાંનુ' ત્યાં સ્થિર રહે, વિસ્મૃત ન બને, તેનું નામ કાષ્ટબુદ્ધિલબ્ધિ છે. (૨૦) જેના પ્રભાવથી શ્રુતનુ એક પદ પણ અવધારીત થવાથી આગળ ન સાંભળેલ પણ શ્રુત અવધારીત થઈ જાય તેનુ નામ પદાનુસારીણીલબ્ધિ છે. (૨૧) જે રીતે એક નાના ખીજથી વિશાળકાય વૃક્ષ ઉત્પન્ન થાય છે. તે પ્રકારે ઉત્પાદ, ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર ઃ ૧ Page #588 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रियदर्शिनी टीका. अ० २ गा. ४४ दर्शनपरीषहेऽष्टाविंशतिलब्धिवर्णनम् ५३३ तथा-उत्पादव्ययध्रौव्ययुक्तं सदित्यादिरूपमर्थप्रधानं पदमर्थपदं, तदेकं बीजभूतमर्थपदमनुसृत्य शेषमपि तथैव प्रभूततरमर्थपदं जानाति यत्प्रभावात् सा ॥ २२॥ तेजोलेश्यालब्धिः - यत्मभावादनेकयोजनप्रमाणक्षेत्राश्रितवस्तुदहनदक्षतीव्रतेजोनिसर्जनशक्तिरुत्पद्यते सा । इह यः खलु शमी-क्षमाशीलो मुनिनिरन्तरमपानकं षष्ठतपः करोति, पारणकदिने च सनखकुल्माषमुष्टया जलचुलुके नैव एकेन आत्मानं यापयति, पुनरातापनां करोति तस्य षण्मासान्ते तेजोलेश्यालब्धिरुत्पद्यते ॥२३॥ आहारकलब्धिः -आहारकशरीरकरणशक्तिः । आहारकशरीरं चस्फटिकवदुज्ज्वलं हस्तपमाणमेकस्मिन् भवे द्विः, संसारे चतुर्वारं कृत्वा मोक्षमवश्यं एवं ध्रौव्य युक्त सत् है, इत्यादिरूप एक भी अर्थ प्रधानपद के अनुसरण से शेष प्रभूततर अर्थपद भी इसी तरह ज्ञात हो जावें वह बीजबुद्धिलब्धि है। २२ जिसके प्रभाव से अनेकयोजनप्रमाण क्षेत्र में रही हुई वस्तु को जलाने वाले तेज को निकाल ने की शक्ति उत्पन्न हो जाती है इसका नाम तेजोलेश्यालब्धि है, जो शमी-क्षमाशीलमुनि निरन्तर चौविहार षष्ठ तप करता है, और पारणा के दिन सनखकल्माषमुष्टि अर्थात्-सीझे हुए एक मुट्ठी भर उडद खाकर उसी समय एक चुल्लू भर पानी पीता है, और आतापना लेता है, इस प्रकार छह महिने तक लगातार करता रहता है तो उसके तेजोलेश्यालब्धि उत्पन्न हो जाती है । २३ आहारक-शरीर के उत्पन्न होने की लब्धि का नाम आहारकलब्धि है। आहारक शरीर स्फटिकमणि के जैसा उज्ज्वल तथा एक हाथ का होता है । एक भव में इसकी प्राप्ति जीव को दो बार, तथा संसार अवस्था में चार बार तक होती है, पश्चात् वह जीव मुक्ति વ્યય, અને પ્રીવ્ય યુક્ત સત છે રૂપ એક પણ અર્થ પ્રધાનપદના અનુસરણથી શેષ પ્રભુતારઅર્થ પદ પણ તેવી રીતે જ્ઞાત થઈ જાય તે બીજબુદ્ધિ લબ્ધિ છે. (૨૨) જેના પ્રભાવથી અનેક જન પ્રમાણક્ષેત્રમાં રહેલી વસ્તુઓને જાણનાર તેજને કાઢવાની શકિત ઉત્પન્ન થાય છે તેનું નામ તેજેતેશ્યાલબ્ધિ છે. જે શમી-ક્ષમાશીલ મુનિ નિરંતર વિહાર છઠ્ઠ તપ કરે છે અને પારણાના દિવસે બાફેલા એક મુઠીભર અડદ ખાઈને એજ વખતે એક ચાપવું પાણી પીવે છે અને આતાપના લે છે આ પ્રકાર લગાતાર છ મહિના સુધી કરતા રહે છે તે તેને તેલેશ્યાલબ્ધિ ઉત્પન્ન થાય છે. (૨૩) આહારક શરીરના ઉત્પન્ન થવાની લબ્ધિનું નામ આહારકલબ્ધિ છે, આહારક શરીર સ્ફટિકમણીના જેવું ઉજ્વળ અને એક હાથનું હોય છે. એક ભવમાં તેની પ્રાપ્તિ જીવને બે વાર તથા સંસાર અવસ્થામાં ચાર વાર થાય છે. પછીથી એ ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #589 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५३४ उत्तराध्ययनसूत्रे प्रयाति । कश्चिच्चतुर्दशपूर्वधारी ऋद्धिं प्राप्य तीर्थंकरसमीपे प्रेषणार्थमाहारकशरीरं करोति । तत्र प्रेषणं निगोदादिसंशयविच्छेदनार्थ, सूक्ष्मार्थनिर्णयार्थम् ऋद्धिदर्शनार्थ, प्राणिरक्षणार्थ, छद्मस्थोपग्रहार्थ च भवति । उक्तश्च - पाणिदय - ऋद्धिदरिसण, छउमत्थोवग्गणहेउं वा । सुहुमत्थ संसयच्छे, - यत्थं गमणं जिणस्सते ॥ १ ॥ इदमत्र बोध्यम् - भाहारकशरीरं यत्र स्थाने लब्धिधारी मुनिः प्रेपयति, तत्र भगवतोऽनुपस्थितौ तस्मादाहारकशरीरादूनहस्तं शरीरं निःसरति, तदेव भगवतः को अवश्य प्राप्त कर लेता है । चतुर्दश पूर्व का पाठी कोई मुनि आहारक लब्धि को प्राप्तकर तीर्थकर के समीप में भेजने के लिये आहारक शरीर की रचना करता है । निगोदादिसंबंधी संशय को दूर करने रूप सूक्ष्म अर्थ का निर्णय करने के लिये १ ऋद्धि के दर्शन करने के लिये २ प्राणियों की रक्षा करने के लिये ३ और छद्मस्थों का उपकार करने के लिये ४ इस शरीर का तीर्थकर के पादमूल में गमन होता है । कहा भी है" पाणिदय - रिद्धिदंसण, -छउमत्थोवग्गहण हेउ वा । सुहुमत्थसंसयच्छेयत्थं गमणं जिणस्संते ॥ १ ॥ " छाया - प्राणिदया - ऋद्धिदर्शन - छद्मस्थोपग्रहणहेतुं वा । सूक्ष्मार्थसंशयच्छेदार्थे गमनं जिनस्यान्ते || " आहारक शरीर को जिस स्थान में लब्धिधारी मुनि भेजता है वहां यदि भगवान् न हों तो उस आहारक शरीर से एक हाथ से कुछ જીવ અવશ્ય મુકિત પ્રાપ્ત કરી લ્યે છે. ચૌદપૂર્વના પાઠી કાઈ મુનિ આહારક લબ્ધિને પ્રાપ્ત કરી તીર્થંકરના સમીપમાં મેાકલવા માટે આહારક શરીરની રચના કરે છે. નિગેાદાદિ સંબંધિ સંશયને દૂર દૂર કરવા માટે, સૂક્ષ્મ અને નિય કરવા માટે, ઋદ્ધિનાં દર્શન કરવા માટે, પ્રાણીઓની રક્ષા કરવા માટે, અને છદ્મસ્થાના ઉપકાર કરવા માટે આ શરીરનું તીથંકરના પાદમૂલમાં ગમન थाय छे. उधुं पशु छे. " पाणीदय - ऋद्धिदरिसण, छउमत्थोवरगहण हेउं वा । सुहुमत्य-संसयच्छेयत्थं, गमणं जिणस्सते ॥ " छाया - प्राणीदया ऋद्धिदर्शन, - छनस्थोपग्रहणहेतुं वा । सूक्ष्मार्थसंशयच्छेदार्थ, गमनं जिनस्यान्ते ॥ આહારક શરીરને જે સ્થાનમાં લબ્ધિધારી સુનિ મેાકલે છે ત્યાં જો લગવાન ન હાય તા તે આહારક શરીરથી એક હાથ એછુ (મુંડહાથ ) શરીર ખીજી ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર ઃ ૧ Page #590 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५३५ - 9 प्रियदर्शिनी टीका. अ०२ गा० ४४ दर्शन परीष हेऽष्टाविंशतिलब्धिवर्णनम् संनिधौ गत्वा स्वकार्य संपाद्य हस्तप्रमाणशरीरे प्रविशति । तच्चाहारकशरीरं स्वमूलभूते शरीरे पुनलींनं भवति ॥ २४ ॥ शीतलेश्यालब्धिः - परमकारुण्यवशादनुग्राह्यं प्रति तेजोलेश्यामशमन हे तुशीतल ते जो विशेषविमोचनसामर्थ्यम् ॥ २५ ॥ वैक्रियलब्धिः – वैक्रियशरीरकरणशक्तिः । सा चानेकविधा - अणुत्व - महत्व - लघुत्वगुरुत्व-प्राप्ति - प्राकाम्ये- शित्व - वशित्वा- प्रतिघातित्वाऽन्तर्धान- कामरूपित्वादिमेदात् ॥ २६॥ अक्षीणमहान सीलब्धिः - महानसम् - अन्नपाकस्थानं, तदाश्रितस्वादन्नमपि महानसमुच्यते तच्च यत्प्रभावात् अक्षीणं = स्वल्पमप्यन्नं पात्रे पतितं पुरुषशतसहस्रैरपि तृप्त्या शुक्तं न क्षीयते, यावत् स्वेन तदन्नं न भुज्यते सा ॥२७॥ कम शरीर और निकलता है, वही भगवान के पास जाकर अपने कार्य को संपादित कर पूर्व के हस्तप्रमाण शरीर में समा जाता है, और वह पूर्व - हस्त प्रमाण शरीर भी फिर वहां से लौट कर अपने मूल शरीर में समाजाता है २४ । परम करुणा के वश से दया करने योग्य प्राणी के प्रति तेजोलेश्या के प्रशमन का हेतु जो शीततेजविशेष को निकालने की शक्ति है उसका नाम शीतलेश्यालब्धि है २५ । वैक्रियशरीर को करने की शक्ति का नाम वैक्रियलब्धि है । यह लब्धि अणुत्व, महत्व, लघुत्व, गुरुत्व, प्राप्ति, प्राकाम्य, ईशित्व, वशित्व, अप्रतिघातित्व, अन्तर्धान, कामरूपित्व आदि के भेद से अनेक प्रकार की है २६ । महानस - शब्द का अर्थ यद्यपि रसोईघर है तो भी तदाश्रित होने से अन्न को भी महानस कह दिया गया है इसलिये महानस शब्द से अन्न समझना નીકળે છે તે ભગવાનની પાસે જઈ ને પેાતાના કાર્યને સંપાદિત કરી પૂના હસ્ત પ્રમાણ શરીરમાં સમાઇ જાય છે. અને તે પૂર્વહસ્ત પ્રમાણુ શરીર પણ ત્યાંથી પાછ’ ફરી પોતાના મૂળ શરીરમાં સમાઈ જાય છે. (૨૪) ૫૨મ કરૂણાના વશથી દયા કરીને ચેાગ્ય પ્રાણી તરફ તેજોલેશ્યાના પ્રશમનના હેતુ, જે શીત તેજ વિશેષને કાઢવાની શક્તિ છે તેનું નામ શીતલેશ્યાલબ્ધિ છે. (૨૫) વૈક્રિયશરીરને મનાવવાની शक्तिनु नाम वैडियसम्धि छे. या सम्धि आयुत्व, भडत्व, लघुत्व, गु३त्व, प्राप्ति, आठअभ्य, ईशित्व, वशित्व, अप्रतिघातित्व, अन्तर्धान, अभ३यित्व महिना बेहथी અનેક પ્રકારની છે. (૨૬) મહાનસ શબ્દના અર્થ જો કે રસાઈ ઘર છે તા પણ તદ્યાશ્રીત હૈાવાથી અન્નને પણ મહાનસ કહેવાયેલ છે. માટે મહાનસ શબ્દથી અન્ન સમજવુ' જોઈ એ. આથી આ અન્ન લેાજન સામગ્રી જેના પ્રભાવથી અક્ષીણુ-સ્વલ્પ ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર ઃ ૧ Page #591 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययनसूत्रे पुलाकलब्धिः-तपाश्रुतहेतुका प्रवचनलाघवादिप्रयोजने जिनशासनविरोधिनः सबलवाहनस्य चक्रवर्त्या देरपि पुलाकवनिःसारकरणे समर्था या शक्तिः सा ॥२८॥ __ अथवा-इति अनेन-केशलुञ्चनेन पञ्चमहाव्रताङ्गीकारेण, यातनात्मकेनानशनादिना तपसा, पृथिवीकायादिसप्तदशविधसंयमेन महाकष्टपददीक्षाग्रहणेन वेत्यर्थः, वश्चितोऽस्मि-कामसुखादपवर्जितोऽस्मीत्यर्थः । उक्तं चचाहिये अतः यह अन्न-भोजनसामग्री जिसके प्रभाव से अक्षीणस्वल्प भी अन्न पात्र में पडे तो भी उससे हजारों मनुष्य भरपेट आहार करले फीर भी खूटे नहीं, जब तक कि वह स्वयं आहार न करले, ऐसी शक्ति का नाम अक्षीणमहानस लब्धि है २७ । प्रवचन की लघुता के समय जिनशासन का विरोधी सेना और वाहनसहित चक्रवर्ती भी होवे तो वह भी जिसके प्रभाव से पुलाक (दानारहित घास का पुला) की तरह निःसार कर दिया जाता है ऐसी शक्ति का नाम पुलाकलब्धि है, यह लब्धि तप एवं श्रुत हेतुक होती है २८ । इस प्रकार ये अठाईस लब्धिया जो बतलाई गई हैं वे, अथवा इनमें से कोई एक लब्धि भी मुझे प्राप्त नहीं हुई है। इसी प्रकार केश ढुंचन करना पंचमहाव्रतों का पालन करना, यतनात्मक अनशनादिक तपों का तपना, पृथिवीकायादिकों की रक्षा करने रूप सत्तरह १७ प्रकार के संयम का पालना, महाकष्टप्रद दीक्षा का ग्रहण करना, इन सब बातों से मैं ठगा गया हूं-अर्थात् सांसारिक विलासता से मुख પણ અનન પાત્રમાં પડે તે પણ તેનાથી હજારે મનુષ્ય પેટભરીને આહાર કરી લે છતાં પણ ખૂટે નહીં ત્યાં સુધી તે પોતે આહાર ન કરી લે. આવી શક્તિનું નામ અક્ષીણમહાનસલબ્ધિ છે. (૨૭) પ્રવચનની લઘુતાના સમયે જીન શાસનના વિરોધી સેના અને વાહન સહિત કેઈ ચક્રવતિ હોય તો તે પણ જેના પ્રભાવથી પુલાકની માફક નિઃસાર કરી દેવામાં આવે છે. એવી શક્તિનું નામ પુલાકશક્તિ छ. An all त५ भने श्रुत हेतु डाय छे. (२८) આ પ્રકારે એ અઠ્યાવીસ લબ્ધિઓ જે બતાવવામાં આવી છે તે અથવા આમાંથી એક લબ્ધિ પણ મને પ્રાપ્ત થયેલ નથી. આ રીતે કેશને લેચ કરે પાંચ મહાવ્રતનું પાલન કરવું, યતનાત્મક અનશનાદિક તપને તપવા, પૃથ્વીકાયાદિકેની રક્ષા કરવારૂપ સત્તર પ્રકારના સંયમનું પાલન, મહાકષ્ટપ્રદ દીશાને ગ્રહણ કરવી, આ સઘળી વાતેથી હું ઠગા છું. અર્થાત્ સંસારીક વિલાસતાથી ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #592 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रियदर्शिनी टीका. अ० २ गा० ४४ दर्शनपरीषहे भूतवादिप्रकरणम् ५३७ " तपसि यातनाचित्राः संयमो भोगवञ्चना" इत्यादि । इति = एतद्, भिक्षुः, न चिन्तयेत् न विचारयेत् । अस्य चिन्तनस्य संयमघातकत्वेन तुच्छत्वात् । तथाहि - यदुच्यते -जन्मान्तरं नास्ति, शरीरस्य भूतसमुदायात्मकत्वात् भूतधर्मस्वाश्चैतन्यरूपस्यात्मनः शरीरेण सहैव नाशात्, इति, तदसत् - न वयं शरीरस्य जन्मान्तरानुगामित्वमङ्गीकुर्मः, किस्वात्मन एव स चात्मा नास्ति भूतधर्मः, तथाहिमोड़ कर जो मैं इन कष्टप्रद निःसार कार्यों की आराधना में लग गया हूं वह सब व्यर्थ है । कहा भी है तपांसि यातनाश्चित्राः, संयमो भोगवंचना " इत्यादि । अर्थात्-तप एक विचित्र प्रकार का कष्ट है, भागों से ठगाना है । भूतवादी बनकर भिक्षु को इस प्रकार का विचार नहीं करना चाहिये । क्यों कि इस प्रकार की विचारधारा सर्वथा तुच्छ बतलाई गई है। इसीका विचार अब यहां से किया जाता है। संयम जो है वह जो भूतवादी यह कहता है कि " जन्मान्तर नहीं है क्यों कि यह शरीर भूतों का समुदायस्वरूप है और चैतन्यरूप आत्मा भी भूत का धर्म है। उसका विनाश भी शरीर के विनाश के साथ ही हो जाता है। " सो इसका इस प्रकार का कहना ठीक नहीं है । क्यों कि हम लोग अर्थात् जैन- शरीर को परलोक में जानेवाला नहीं मानते हैं, हम तो परलोक में जानेवाली एक आत्मा को ही मानते हैं । वह आत्मा भूतों का धर्म नहीं है । जब भिन्न २ अवस्था में भूतों से મહુ મરડીને હું' આ કષ્ટપ્રદ નિ:સાર કાર્યોની આરાધનામાં લાગી ગયેા ते संघ व्यथ छेउ छे " तपांसि यातनाश्वित्राः संयमो भोगव चना " इत्याहि. અર્થાત્ તપ એક વિશિષ્ટ પ્રકારનુ કષ્ટ છે સયમ જે છે તે ભેાગેાને ઠગનાર છે. ભૌતિકવાદી બની ભિક્ષુએ આ પ્રકારના વિચાર નહી કરવા જોઈ એ. કેમકે, આ પ્રકારની વિચારધારા સર્વથા તુચ્છ બતાવવામાં આવી છે તેના વિચાર હવે અહીં કહેવામાં આવે છે. 66 પહેલાં જે ભૌતિકવાદીએ એવું કહ્યુ` છે કે, “ જન્માંતર નથી કેમકે આ શરીર ભૂતાના સમુદાય સ્વરૂપ છે અને ચૈતન્યરૂપ આત્મા પણ ભૂતાનો ધર્મ છે. તેના વિનાશ પણ શરીરના વિનાશની સાથે થાય છે.’” તેનું તેવા પ્રકારનું કહેવુ' ઠીક નથી. કેમકે, અમે લેક અર્થાત જૈનશરીરને પરલેાકમાં જવા વાળું માનતા નથી. અમે તા એક આત્મા ભૂતના ધર્મ નથી. જ્યારે જુદી જુદી उ० ६८ ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર ઃ ૧ Page #593 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५३८ उत्तराध्ययनसूत्रे एकैकस्य पृथिव्यादेः पृथक्त्वे चैतन्योत्पत्तिन भवति चेत् तर्हि पृथिव्यादिसमुदाया दपि चैतन्यं न भवितुमर्हति । यथैकस्मात् सिकताकणात् तैलं नोत्पद्यते, तेन सिकतासमुदायादपि न भवति तैलोत्पत्तिः किंच-चैतन्यस्य भूतधर्मत्वस्वीकारे मरणाभावः स्यात् , मृतकायेऽपि पृथिव्यादिभूतानां सद्भावात् , न च मृतकाये वायोस्तेजसो वा अभावान्मरणसद्भावः इति वाच्यम्, यतः मृतकाये शोफोपलब्धेर्न वायोरभावः । पक्तिस्वभावस्य च कोथस्य (शटनस्य) दर्शनानाग्नेरभाव इति । अथ सूक्ष्मः कश्चिद् चैतन्य की उत्पत्ति नहीं होती है तो उनके सवुदाय में चैतन्य की उत्पत्ति कैसे हो सकती है, जैसे एक सिकता (रेती) के कण से जब तैल नहीं निकलता है तो समुदाय से तैल निकल सकेगा यह बात कौन बुद्धिमान मान्य कर सकता है । दूसरी बात यह भी है कि जब चैतन्य को भूतों का धर्म माना जायगा तो मरण का अभाव प्रसक्त होता है, क्यों कि मृतकाय में भी पृथिवी आदि भूतों का सद्भाव तो रहता ही है । यदि मृत शरीर में मरणसद्भाव ख्यापित करने के लिये यह कहा जाय कि “ वहां पर वायु एवं तेज का अभाव है इसलिये इन दो तत्त्वों का अभाव होने से वहां भी मरण का सद्भाव अंगीकार किया जाता है" सो ऐसा कहना इसलिये उचित नहीं है कि मृतकाय में भी शोफ (सूजन) की उपलब्धि होने से वायु का वहां असद्भाव नहीं माना जा सकता है। अग्नितत्व का भी वहां इसी तरह अभाव नहीं माना जा सकता है, क्यों कि इसके अभाव में અવસ્થામાં ભૂતેથી ચૈતન્યની ઉત્પત્તિ નથી થતી તો તેના સમુદાયમાં ચૈતન્યની ઉત્પત્તિ કેવી રીતે થઈ શકે? જેમ રેતીના એક કણમાંથી તેલ નીકળી શકતું નથી તે રેતીના ઢગલામાંથી તેલ નીકળી શકે તેવું કેણ કહી શકે ? બીજી વાત એ પણ છે કે, જે ચિતન્યને ભૂતને ધર્મ માનવામાં આવે તે મરણને અભાવ પ્રસક્ત થાય છે. કેમકે, મૃતકાયમાં પણ પૃથ્વી આદિ ભૂતને સદ્દભાવ તે રહેલે જ છે. જે મરણ શરીરમાં મરણ સદ્દભાવ ખ્યાપિત કરવા માટે એમ કહેવામાં આવે કે, “ત્યાં વાયુ અને તેજને અભાવ છે માટે આ બન્ને તને અભાવ હોવાથી ત્યાં પણ મરણને સદ્ભાવ અંગિકાર કરવામાં આવે છે.” તે એમ કહેવું એ માટે ઉચિત નથી કે, મૃતકામાં પણ સુજનની ઉપલબ્ધિ હોવાથી વાયુને ત્યાં અસદુભાવ માની શકાતો નથી. અગ્નિતત્વને પણ ત્યાં તેવી રીતે અભાવ નથી માનવામાં આવતો કેમકે, તેના અભાવમાં એનું સડવું બનતું નથી, જે કદાચ એ ઉપર એમ કહેવામાં આવે કે, “સૂમ વાયુ તથા અગ્નિ ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #594 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रियदर्शिनी टीका अ० २ गा० ४४ दर्शनपरीषहे भूतवादिप्रकरणम् ५३९ वायुविशेपोऽनिर्वा ततोऽप त इति मन्यते, तर्हि जीव एव नामान्तरेण स्वीकृतो भवति, अस्तु यत् किंचिदेतत्, कथमपि भूतसहुदायमात्रेण न चैतन्याविर्भाव इति सिद्धम्, पृथिव्यादिषु एकत्र व्यवस्थापितेष्वपि चैतन्यानुपलब्धेः। अथ कायाकारपरिणतौ सत्यां तदभिव्यक्तिरिष्यते, तदपि न, यतो लेप्यमयपुत्तलिकायां समस्तभूतसद्भावेऽपि जडत्वमेवोलभ्यते, तदेवमन्वयव्यतिरेकाभ्यामालोच्यमानो उसका सड़ना हो नहीं सकता हैं। यदि इस पर यों कहा जाय कि “ सूक्ष्म वायु तथा अग्नि वहां से अपगत हो चुकी है अतः शरीर में मरण का व्यवहार हो जायगा" सो ऐसा कहना आत्मा के ही सद्भाव का ख्यापक माना जाता है । तुम जिसे सूक्ष्म वायु या अग्नि कहते हो हम उसे आत्मा कहते हैं। भूतसमुदाय से चैतन्य का आविर्भाव इसलिये भी सिद्ध नहीं होता है कि एक ही जगह इन चारों को स्थापित करने पर भी उनसे चैतन्य की उप ब्धि नहीं होती है। यदि भूतवादी इस पर यों कहे कि “जब ये भूत कायाकार परिणत होते हैं तब ही जाकर इन से चैतन्य की अभिव्यक्ति होती है" सो ऐसा कहना भी इस लिये उचित नहीं है कि लेप्यमयपुत्तलिका में समस्तभूतों का सद्भाव होने पर भी वहां चैतन्य की उपलब्धि नहीं होती है, किन्तु जड़ता ही उपलब्ध होती है। कार्यकारणभाव अन्वयव्यतिरेक के सद्भाव में ही बनता है । इस प्रकार यहाँ भूत और चैतन्य का अन्वयव्यतिरेक घटित नहीं होता है, अतः भूतों का कार्य ત્યાંથી અપગત થઈ ગયેલ છે, આથી શરીરમાં મરણને વહેવાર થવાને છે” તે એવું કહેવું તે આત્માના સદુભાવને ખ્યાપક મનાય છે. તમે સૂક્ષ્મ વાયુ અગરતે અગ્નિ કહે છે. અમે તેને આત્મા કહીયે છીએ ભૂત સમુદાયથી ચિતન્યને આવિર્ભાવ એ માટે પણ સિદ્ધ નથી થતું કે, એકજ જગ્યાએ તે ચારેને ભેળા કરવા છતાં પણ તેમાં ચિતન્યની ઉપલબ્ધિ થતી નથી. જે કદાચ ભૂતવાદી આ ઉપર એવું કહે કે, “જ્યારે એ ભૂતકાય આકાર પરિણત હોય છે ત્યારે જ જઈને તેનાથી ચિતન્યની અભિવ્યક્તિ થાય છે.” તે એવું કહેવું પણ એ માટે ઠીક નથી કે, લેપ્યમય પુતલીકામાં સમસ્ત ભૂતને સદભાવ હેવા છતાં પણ ત્યાં ચૈતન્યની ઉપલબ્ધિ થતી નથી પરંતુ જડતાજ ઉપલબ્ધ થાય છે. કાર્યકારણ ભાવ અન્વય વ્યતિરેકના સદ્દભાવમાં જ બને છે. આ પ્રકાર અહિં ભૂત અને ચૈતન્ય અન્વય વ્યતિરેક ઘટીત થતો નથી માટે ભૂતનું કાર્ય ચૈતન્ય છે તે કઈ પ્રકારે સિદ્ધ થતું નથી. આ માટે આ ચિતન્ય ગુણ ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #595 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४० उत्तराध्ययनसूत्रे नायं चैतन्याख्यो गुणो भूतानां भवितुमर्हति । तस्मात् पारिशेष्याच्चैतन्यमात्मनो धर्म इति सिद्धान्तोऽनुसरणीयः । यदप्युक्तम् - आत्मनः प्रत्यक्षतो नुपलभ्यमानत्वादिति तदप्यसदेव सर्वेषां स्वात्मा स्वप्रत्यक्ष एव, ज्ञानादीनामात्मगुणानां प्रत्यक्षानुभवात् घटमहं जानामीत्याद्यनुभवस्य सर्वसिद्धत्वात् । यथा घटादीनां रूपादयः प्रत्यक्षत योपलभ्यन्ते, तथाऽऽत्मनोऽपि ज्ञानसुखादयो गुणाः कस्य न सन्ति प्रत्यक्षानुभवगोचराः, किंतु सर्वेषामावालवृद्धानां प्रत्यक्षानुभवगोचराः सन्त्येव । उक्तंच - 'आत्ममत्यक्ष आत्माऽयम्' इत्यादि । चैतन्य है यह किसी प्रकार सिद्ध नहीं होता है इसलिये यह चैतन्यगुण पारिशेष्यात् ( अनुमानविशेष से) आत्मा का ही एक धर्म है, इसी से आत्माका सद्भाव ख्यापित होता है यह सिद्धान्त अनुसणीय है । तथा और भी जो ऐसा कहा है कि " आत्मा की प्रत्यक्ष से अनुपलब्धि होने की वजह से सत्ता ज्ञात नहीं होती है " सो ऐसा कहना भी ठीक नहीं है क्यों कि प्रत्येक संसारी जीवों को अपनी २ आत्मा का स्वानुभव से प्रत्यक्ष होता है, कारण कि उसके ज्ञानादिक गुणों का प्रत्यक्ष अनुभव होता रहता है । " मैं घट को जानता हूं" यह अनुभव तो सब को ही होता है। जिस प्रकार घटादिकों के रूपादिक गुण प्रत्यक्ष से उपलब्ध हैं उसी प्रकार आत्मा के भी ज्ञानादिक गुण समस्त जीवों को प्रत्यक्ष से अनुभवित हो रहे हैं। ऐसा कोई भी जीव नहीं है चाहे वह बालक हो चाहे वृद्ध कि जिसे इन का प्रत्यक्ष से अनुभव न होता हो। कहा भी है- 'आत्मप्रत्यक्ष आत्माऽयम् " इत्यादि । 66 અનુમાન વિશેષથી આત્માના જ એક ધમ છે. આથી જ આત્માને સદ્ભાવ સ્થાપિત થાય છે. આ સિદ્ધાંત અનુસરણીય છે. તેમ વધુમાં એમ પણ કહ્યું છે કે, “ આત્માની પ્રત્યક્ષથી અનુપલબ્ધિ હાવાના કારણે સત્તા જ્ઞાત થતી નથી. ” તેવું કહેવું પણ ઠીક નથી. કેમકે, પ્રત્યેક સંસારી જીવાને પાત પેાતાના આત્માના સ્વાનુભવથી પ્રત્યક્ષ થાય છે. કારણ કે, તેને જ્ઞાનાદિક ગુણાના પ્રત્યક્ષ અનુભવ થતા રહે છે. 1 હું ઘટને જાણું છું આ અનુભવ તા દરેકને થાય છે. જેવી રીતે ઘટાક્રિકના તથા રૂપાકિના ગુણ પ્રત્યક્ષથી ઉપલબ્ધ છે જેવી રીતે આત્માને પણ જ્ઞાનાદિક ગુણુ સમસ્ત જીવાને પ્રત્યક્ષથી અનુભવિત થઈ રહે છે. એવા કાઈ પણ જીવ નથી, ભલે તે ખાળક अथवा वृद्ध होय नेने तेना प्रत्यक्षथी अनुभव न थते। होय, उछु छे है- "आत्मप्रत्यक्ष आत्माऽयम् ” इत्यादि । के यानी उपर येभ अडेवामां यावे हैं, ܕܕ ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર ઃ ૧ Page #596 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रियदर्शिनी टीका अ० २ गा. ४४ दर्शनपरीषहे भूतवानिप्रकरणम् ५४१ ननु न यं दृष्टिगोचरो भवतीत्यतो नास्तीत्युच्यते ? नायमप्येकान्तः, उक्तं हि " न च नास्तीह तत सर्वे, चक्षुषा यन्न गृह्यते।" अन्यथा चैतन्यमपिन दृष्टिगोचरीभवंतीति भूतधर्मत्वेन, तदप्यसत् स्यात् । अथ यदि तत् स्वसंविदितम् , अतः सदित्युच्यते, तर्हि अयमात्माऽपि स्वसंविदित एव भवतीति विद्यमानो भवतु। यतः आत्येव चात्मा प्रत्यक्षो, जीवो ह्यात्मानमात्मना। ____ अहमस्मीति संवेत्ति, रूपादीनि यथेन्द्रियैः ॥ १॥ इति ॥ ___ यदि इस पर यों कहा जाय कि-" यह आत्मा दृष्टिगोचर नहीं होता है इस लिये यह नहीं है" सो यह कथन एकान्ततः सत्य नहीं माना जा सकता। " न च नास्तीह तत्सर्व, चक्षुषा यन्न गृह्यते" जो चक्षु से गृहीत नहीं होता है वह नहीं है, ऐसा मत कहो, अर्थात् जो वस्तु चक्षु से नहीं दिखाई दे वह भी है ऐसा कहो । नहीं तो तुम्हारे मतसे चैतन्य भी दृष्टिगोचर नहीं होता है अतः वह भूत का धर्म है यह बात असत्माननी पडेगी। इस पर यदि यह कहा जाय कि "वह तो स्वसंवेदन प्रत्यक्ष का विषय है अतः उसे सत् मान लिया जावेगा" तो आत्मा भी स्वसंवेदित है इस लिये इसे भी सत् मानना चाहिये। यतः-"अस्त्येव चात्मा प्रत्यक्षो, जीवो ह्यात्मानमात्मना । अहमस्मीति संवेत्ति, रूपादीनि यथेन्द्रियैः ॥१॥ अर्थात् अत्मा प्रत्यक्ष से है क्यों कि जीव ही आत्मा से आत्मा को "मैं हूँ" इस प्रकार संवेदन (अनुभव) करताहै, जैसे इन्द्रियों से रूपादिकका આત્મા દષ્ટાગોચર થતું નથી માટે આ નથી” તે આ કહેવું એકાન્તતઃ सत्य मानवामा मातु नथी. “ नच नास्तीह तत्सर्व चक्षुषा यन्न गृह्यते "२ ચક્ષુથી ગૃહિત થતું નથી, તે નથી. એવું ન કહે. અર્થાત્ જે વસ્તુ ચક્ષથી ન દેખાય તે પણ છે એમ કહો નહીં તે તમારા મતથી ચૈતન્ય પણ દષ્ટીગોચર થતું નથી. માટે તે ભૂતને ધર્મ છે એ વાત અસત્ય માનવી પડશે. આ ઉપર જે કદાચ એમ કહેવામાં આવે કે, “તે તે સ્વસંવેદન પ્રત્યક્ષને વિષય છે આથી એને સાચું માની લેવામાં આવે” તે આત્મા પણ સ્વસંવેદિત છે આ માટે તેને પણ સત્ માન જોઈએ. કહ્યું પણ છે– "अस्त्येव चात्मा प्रत्यक्षो, जीवो ह्यात्मानमात्मना। अहमस्मीति संवेत्ति, रूपादीनि यथेन्द्रियैः ॥१॥" अर्थात्-मात्मा प्रत्यक्षथी छे. भ3, 40 मात्माथी मात्माने "छु' मा પ્રકારનો સંવેદન (અનુભવ) કરે છે. જેમ ઇન્દ્રિઓથી રૂ૫ આદિનું સંવેદને થાય છે. ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #597 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४२ ___ उत्तराध्ययनसूत्रे अलमधिकेन, यथा चैतन्यमस्तीति मन्यते, तथा ऽऽत्माऽस्तीत्यपि मन्तव्यः । तथा चोक्तम् ज्ञानं स्वस्थं परस्थं वा यथा ज्ञानेन गृह्यते । ज्ञाता स्वस्थः परस्थो वा, तथा ज्ञानेन गृह्यताम् ॥ १॥ अथाऽऽत्मसत्त्वे तदभावे सर्वसम्बन्ध्यनुपलम्भस्य हेतुत्वं न सम्भवतीत्युच्यते, यतोऽयमप्यसिद्धो हेतुः, अहमस्मीत्यनुभवस्य सद्भावात् , सर्वेषां प्राणिनां हि स्वस्य स्वस्यात्मन उपलम्भः प्रतिषेद्धमशक्यः, केवलिनां च सर्वात्मनामुपलभः प्रतिषेद्धपशक्यः। संवेदन होता है। जिस प्रकार उक्त कथन से चैतन्य का सदभाव माना जाता है उसी प्रकार आत्माका भी सद्भाव मानना चाहिये । कहा भी है “ज्ञानं स्वस्थं परस्थं वा, यथा ज्ञानेन गृह्यते । ज्ञाता स्वस्थो परस्थो वा, तथा ज्ञानेन गृह्यताम्" ॥१॥ जिस प्रकार अपने में रहा हुआ ज्ञान, तथा दूसरे में रहा हुआ ज्ञान, ज्ञान से जाना जाता है उसी प्रकार अपने और दूसरे में रहे हुए ज्ञाता (आस्मा ) को भी ज्ञान से ग्रहण कर लेना चाहिये ॥१॥ आत्मा के अभाव में जो अनुपलम्भरूप हेतु दिया गया है। सो आत्मा का अनुपलंभ सब को होता है, यदि ऐसा कहा जाय तो यह हेतु असिद्ध हो जाता है, क्यों कि सब को आत्मा का अनुपलम्भ है एक तो यह बात इन्द्रियजन्य प्रत्यक्ष से जान नहीं सकते दूसरे प्रत्येक प्राणी को " अहमस्मि" इत्याकारक स्वसंवेदनरूप प्रत्यक्ष से उस की उपलब्धि જે રીતે આ કથનથી ચિતન્યને સદ્ભાવ માની લેવામાં આવે એ જ રીતે આત્માને પણ સદ્દભાવ માન જોઈએ. કહ્યું પણ છે – "ज्ञानं स्वस्थं परस्थं वा, यथाज्ञानेन गृह्यते। ज्ञाता स्वस्थो परस्थो वा, तथा ज्ञानेन गृह्यताम् ॥१॥" જે રીતે પિતાનામાં રહેલું જ્ઞાન તથા બીજામાં રહેલું જ્ઞાન જ્ઞાનથી જાણી શકાય છે એવી રીતે પોતામાં અને બીજામાં રહેલા આત્માને પણ જ્ઞાનથી સમજી લેવું જોઈએ. આત્માના અભાવમાં જે અનુપલક્ષ્મરૂપ હેત આપેલ છે તે આત્માને અનુપલંભ દરેકને થાય છે. તેવું જે કહેવામાં આવે તે આ હેતુ અસિદ્ધ બની જાય છે કેમકે, સઘળાને આત્માનું અનુપલંભ છે. એક તે આ વાત ઈન્દ્રિયअन्य प्रत्यक्षथी यी नयी शsdi मील प्रत्ये: प्राधीन " अहमस्मि " त्याल ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #598 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रियदर्शिनी टीका. अ० २ गा० ४४ दर्शनपरीषदे भूतवादिप्रकरणम् ५४३ यदपि - ऋद्धिर्वा तपस्विनो नास्तीत्युक्तं, तदपि निष्प्रमाणकम् । ऋद्धेरभावेऽनुपलम्भो हेतुरुक्तः सोऽपि स्वसम्बन्धो, सर्वसम्बन्धी वा ? तत्र स्वसम्बन्धी नियतदेशकालापेक्षयाऽन्यथा वाऽनुपलम्भः स्यात्, तत्र प्रथमपक्षे क्वचित् कदाचित् पञ्चमारकापेक्षया भरत क्षेत्रापेक्षया ऋद्धेरनुपलम्भस्योपलम्भस्य चास्माकमपि संमतत्वात् । द्वितीयपक्षे तु हेतोरनैकान्तिकता, यथा देशविप्रकृष्टानां मेरुप्रभृतीनां कालविप्रकृष्टानां पितामहादीनामनुपलम्भेऽपि सस्यात् । दृश्यते च क्वचित् कदाचिलब्धिप्रभावाच रणधूलिस्पर्शादि मात्रेण व्याधि प्रशमनादिः । ततश्वेाऽपि भरतादौ होती है । केवलियों को तो सब आत्माका उपलम्भ होता है, यह तो निषेध नहीं किया जा सकता । तथा लब्धियों की असत्ता प्रकट करने के लिये भी आपने जो अनुपलं भरूप हेतु कहा है सो वह भी ठीक नहीं है । यहां पर अनुपलंभ स्वसंबंधी ग्रहण किया है या सर्वसंबंधी । स्वसंबंधी अनुपलंभ भी कैसा ? नियतदेशकालापेक्ष, अथवा अनियत देशकालापेक्ष ? प्रथमपक्ष में सिद्धसाधनता है । अर्थात् यह बात तो हम भी मानते हैं कि इस पंचमकाल के अंदर भरतक्षेत्र में लब्धियों का अनुपलम्भ है । द्वितीयपक्ष में हेतु अनैकान्तिक है । देशविप्रकृष्ट मेर्वादिकों का, कालविप्रकृष्ट पितामह आदिकों का अनुपलम्भ होने पर भी उनका सद्भाव माना जाता है । कहीं २ कभी २ लब्धि के प्रभाव से चरणधूलि के स्पर्श आदि करने मात्र से व्याधि की शांति होती हुई देखी जाती है। उसी तरह यहां भरत आदि क्षेत्रों में भी पहिले समय में लब्धियों का सद्भाव કારણે સ્વ સ ંવેદન રૂપ પ્રત્યક્ષથી તેની ઉપલબ્ધિ થાય છે. કેવલીઓને તે બધા આત્માના ઉપલભ થાય છે. આના તે નિષેધ થઈ શકે તેમ નથી. અર્થાત્—ઋદ્ધિએની અસતા પ્રગટ કરવા માટે પણ આપે જે અનુપલભ રૂપ હેતુ કહેલ છે તે પણ ઠીક નથી. આ સ્થળે અનુપલભ સ્વ સબધી ગ્રહણ કરેલ છે, કે સ સંબંધી ? સ્વ સંધિ અનુપલભ પણ કેવા? નિયત દેશકાળ અપેક્ષ કે અનિયત દેશકાળ અપેક્ષ. પ્રથમ પક્ષમાં સિદ્ધ સાધુનતા છે. અર્થાત્ એ વાત અમે પણ માનીએ છીયે કે, આ પંચમકાળની અંદર ભરતક્ષેત્રમાં ઋદ્ધિએના અનુપલ ભ છે. ખીજા પક્ષમાં હેતુ અનૈકાન્તિક છે. દેશવિપ્રકૃષ્ટ મેઢિ કેનું કાલવિપ્રકૃષ્ટ પિતામહ આદિનું અનુપલભ હાવા છતાં પણ તેના સદ્દભાવ માનવામાં આવે છે. કાઈ કાઈ સ્થળે કદી કદી લબ્ધિના પ્રભાવથી ચરણરજના સ્પર્શ આદિ કરવા માત્રથી વ્યાધિની શાંતિ થતી જોવામાં આવે છે. એજ રીતે અહિં ભરત આદિ ક્ષેત્રામાં પણ પહેલા સમયમાં લમ્પિ ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર ઃ ૧ Page #599 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययनसूत्रे कालान्तरेsaid काले, महाविदेहेषु च सर्वकालमृद्धीनामपि सद्भावात् । सर्वसम्बन्धी अनुपलम्भस्तु असिद्ध एव । यदपि " कामसुखाद् वञ्चितोऽस्मी " - त्युक्तं तदप्यसमीक्षितम्, विषयसुखं हि रागद्वेषमोहजननद्वारेण अतृप्तिकाहाशोकविपादादिभिर्विविधकर्मबन्धहेतुत्वेन च चतुर्गतिभ्रमण कारकत्वेन बहुलदुःखजनकत्वात् प्रेक्षावतां तत्त्ववेदिनामनुपादेयम् । विषसंपृक्तादृशं कामसुखं कस्य विवेकिनो मनो रमयेत् न कस्यापि । 9 यदपि - तपसो यातनात्मकत्वमुक्तं, तदप्यसत्-सकलदुःखमूळ कर्मक्षयहेतुत्वात्, मनइन्द्रिययोगानामहानिकारकत्वेन तपसो यथाशक्ति विधानात । उक्तं हिथा तथा विदेहक्षेत्र में सर्वदा लब्धियों का सदभाव रहता है। सर्वसंबंधी अनुपलम्भ तो असिद्ध ही है अर्थात् सर्व सम्बन्धी अनुपलंभ लब्धियों की अभावात्मकता प्रकट करने में असमर्थ है। " मैं कामसुख से वंचित हो गया हूं" जो यह बात कही है वह भी ठीक नहीं है क्यों कि विषयसुख रागद्वेष मोह की उत्पत्ति का कारण होने से, अतृप्ति, कांक्षा, शोक एवं विषाद आदि को उत्पन्न करते रहते हैं, इनसे विविध कर्मों का बंध होता रहता है, उस के उदय से जीव चारों गतियों में भ्रमण करता २ अनेक दुःखपरम्परा को वहां भोगता रहता ५४४ अतः काम को सुख मानना यह भ्रम है । इसी लिये तत्त्वज्ञानियों के लिये ये उपादेय नहीं हैं । विचार किया जाय तो विषमिश्रित अन्नकी तरह ये कामसुख किस विवेकी के मन को आनंद पहुँचा सकते हैं, अर्थात् किसी को भी नहीं । तप को यातनात्मक कहना इसलिये अनुઆના સદ્ભાવ રહે છે. સસંધિ અનુપલ ભ તા અસિદ્ધ જ છે, અર્થાત્ સર્વ સંધિ અનુપલંભ ઋદ્ધિએની અભાવાત્મકતા પ્રગટ કરવામાં અસમર્થ છે. “હું' કામસુખથી વંચિત ખની ગયા ...' આ વાત કહી છે તે પણ ઠીક નથી. કેમકે, વિષયસુખ રાગદ્વેશ મેાહની ઉત્પત્તિનુ દ્વાર હાવાથી અતૃસિકાંક્ષા સુખ શાક અને વિષાદ આદિને ઉત્પન્ન કરતાં રહે છે, તેનાથી વિવિધ ક્રાના બંધ થતા રહે છે. તેના ઉદયથી જીવ ચારે ગતીએમાં ભ્રમણ કરતાં કરતાં અનેક દુઃખ પરંપરાને ત્યાં ભાગવતા રહે છે. માટે કામને સુખ માનવું એ ભ્રમ છે. આથી તત્વજ્ઞાનીએ માટે એ ઉપાદેય નથી. વિચારવામાં આવે તે વિષમિશ્રીત અન્નની માફક એ કામ સુખ કયા વિવેકીના મનને આનંદ પહેાંચાડી શકે છે ? અર્થાત્ કોઈને પશુ નહીં. તપને યાતનાત્મક કહેવું એ માટે અનુચિત છે કે, એનાથી ફાઈને પણ કષ્ટ પહાંચતું નથી. આ કારણે તે ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર ઃ ૧ Page #600 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रियदर्शिनी टीका. अ० २ गा० ४४ दर्शनपरीषहे भूतवादिप्रकरणम् ५४५ मनइन्द्रिययोगाना,-महानिः कथिता जिनैः।। यतोऽत्र तत्कथं तस्य, युक्ता स्याद् दुःखरूपता १ ॥१॥ केशलुञ्चनादीनामपि किंचित् पीडाजनकत्वेऽपि समीहितार्थमापकत्वेन दुःख दायकत्वं नास्ति । तदुक्तम् "दृष्टा चेष्टाऽर्थसंसिद्धौ, कायपीडाऽप्यदुःखदा । रत्नादिवणिगादीनां, तद्वदत्रापि भाव्यताम्" ॥१॥ चित है कि उस से किसी को भी कष्ट नहीं पहुंचता है प्रत्युत यह सकल दुःखों के मूल कारण कर्मों का क्षय करनेवाला है। मन, इन्द्रिय तथा, योग इन को हानि न पहुंचने पावे इस रूप से यथाशक्ति तपस्या करने का विधान है। कहा भी है मनइन्द्रिययोगाना,-महानिः कथिता जिनैः। ___ यतोऽत्र तत्कथं तस्य, युक्ता स्यात् दुःखरूपता ॥१॥ तपमें मन और इन्द्रियों के योगों की हानि नहीं होती है, ऐसा भगवानने फरमाया है तो फिर तपमें दुःखरूपता कैसे मानी जाय, अर्थात् तप दुःखरूप नहीं है किन्तु सुखरूप है ॥ १॥ यद्यपि केशलंचन आदि क्रियाएँ किंचित् पीडाजनक हैं तो भी समीहित अर्थ की सिद्धिके कारण होने से उनमें सर्वथा दुःखदायकता नहीं है। कहा भी है दृष्टा चेष्टार्थसंसिद्धौ, कायपीडाप्यदुःखदा। रत्नादिवणिगादीनां, तदत्रापि भाव्यताम् ॥ १॥ સકળ દુખનું મૂળ કારણ અને કમેને ક્ષય કરનાર છે. મન ઇન્દ્રિય તથા યોગ અને હાની ન પહોંચે તેવા રૂપથી યથાશક્તિ તપસ્યા કરવાનું વિધાન છે. કહ્યું પણ છે – मनइन्द्रिययोगाना,-महानिः, कथिता जीनैः। यऽतोत्र तत्कथं तस्य, युक्ता स्यात् दुःखरूपता ॥१॥ તપમાં મન અને ઈન્દ્રિયેના ગેની હાની થતી નથી એવું ભગવાને ફરમાવ્યું છે. તે પછી તપમાં દુઃખરૂપતા કેમ માનવામાં આવે ? અર્થાત તપ દુઃખ રૂપ નથી પરંતુ સુખરૂપ છે. કેશ લોચન આદિ ક્રિયાઓ જે કે પિડાજનક કહેવાય છે તે પણ સમીહિત સિદ્ધિનું કારણ હેવાથી તેનામાં સર્વથા દુઃખદાયકતા નથી. કહ્યું પણ છે - दृष्टा चेष्टार्थ संसिद्धौ, कायपीडाप्यदुःखदा। रत्नादिवणिगादीनां, तद्वदत्रापि भाव्यताम् ॥१॥ ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #601 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययनसूत्रे इत्थमत्रानुमानप्रयोगः-यत् इष्टार्थप्रसाधकं, न तत् कायपीडाकरत्वेऽपि दुःखदायकं, यथा रत्नवणिजामध्वश्रमादि । इष्टार्थप्रसाधकं च तपः। न चाऽस्याप्यसिद्धता, प्रशमहेतुत्वेन तपसस्तत्परिपक्तितारतम्यात् परमानन्दतारतम्यस्यानुभूयमानत्वेन तत्मकर्षे तस्यापि प्रकर्षाऽनुमानात् । प्रयोगश्च-यत्तारतम्येन यस्य तारतम्यं तस्य प्रकर्षे तत्मकर्षः, यथाऽग्नितापप्रकर्षे काश्चनविशुद्धिप्रकर्षः, अनुभूयते च प्रशमतारतम्येन परमानन्दतारतम्यम् , लोकप्रतीतत्वाच ॥ ४४ ॥ __इसलिये ऐसा अनुमान बनाना चाहिये कि जो इष्ट अर्थ का प्रसाधक होता है वह काय का पीड़ा कारक होने पर भी दुःखदायक नहीं होता है, जैसे रत्नव्यापारियों का मार्गश्रम देशाटन का परिश्रम, इसलिये तप भी इष्ट अर्थ का प्रसाधक हैं अतः यह भी दुःखदायक नहीं है। तप में इष्टार्थप्रसाधकता असिद्धि नहीं है, क्यों कि तप प्रशम का हेतु है । तप द्वारा प्रशमभाव की जैसी २ तरतमता आत्मा में होगी वैसी२ परमानंद की तरतमता भी आत्मा में अनुभवित होगी इसलिये प्रशम के प्रकर्ष में परमानंद का भी प्रकर्ष अनुमित होता है। जैसे अग्नि के ताप के प्रकर्ष में काश्चन की विशुद्धि का प्रकर्ष, प्रयोग से देखा जाता है। अतः परम्परा रूप से तप इष्ट अर्थ का प्रसाधक सिद्ध होता है, क्यों कि तप प्रशम का कारण, प्रशम परमानंद का कारण इस प्रकार बनता है ॥४४॥ આ માટે એવું અનુમાન બનાવવું જોઈએ કે, જે ઈષ્ટ, અથના પ્રસાદક હોય છે–તે કાયાને પીડા કારક હોવા છતાં પણ દુઃખ દાયક થતા નથી. જેમકે રત્નવ્યાપારીઓને માર્ગશ્રમ દેશાટનને પરિશ્રમ–આ માટે તપ પણ ઈષ્ટ અર્થને પ્રસાધક છે. માટે એ પણ દુઃખદાયક નથી. તપમાં ઈટાથે પ્રસાધ. કતા અસિદ્ધ નથી, કેમકે, તપ પ્રશમને હેતુ છે. તપ દ્વારા પ્રશમભાવની જેવી જેવી તારતમ્યતા આત્મામાં હશે તેવી તેવી પરમાનંદની તરતમતા પણ આત્મામાં અનુભવિત થશે. આ માટે પ્રશમના પ્રાર્શમાં પરમાનંદને પણ પ્રકાશ અનુમિત થાય છે. જેમ અગ્નિના તાપના પ્રકર્થમાં કાંચનની શુદ્ધિને પ્રકાશ પ્રગથી દેખાય છે. આથી પરંપરા રૂપથી તપ પ્રશમનું કારણ, પ્રશમ પરમાનંદનું કારણ આ પ્રકારથી બને છે ૪૪ | ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #602 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रियदर्शिनी टीका. अ० २ गा. ४५ दर्शनपरीषहे दृढमतिमुनिदृष्टान्तः ५४७ तथामूलम् अभू जिणा अस्थि जिणा, अदुवा वि भविस्सइ । मुंसं ते एवं महिंसु, इंई भिक्खू ने चिंतएँ ॥ ४५ ॥ छाया-अभूवन जिनाः सन्ति जिनाः, अथवाऽपि भविष्यन्ति । मृषा ते एवमाहुः, इति भिक्षुनै चिन्तयेत् ॥ ४५ ॥ टीका-'अभू जिणा' इत्यादि। जिनाः-रागादिजयिनः-केवलिनः, अभूवन् अतीतकाले, 'जिनाः सन्ति'वर्तमानकाले जिना विद्यन्ते विदेहेषु इत्यर्थः । अथवा-जिना भविष्यन्ति, भरतादिषु इत्यपि। अपि शब्दो भिन्नक्रमः, ते जिनास्तित्ववादिनः, एवम्-उक्तरीत्या मृषा= मिथ्या-अलीकम् , असत्यमर्थम् , आहुः वदन्ति, इति भिक्षुर्न चिन्तयेत् , अनुमानादि प्रमाणैर्जिनानां कालत्रयवर्तित्वसिद्धेः। अयं भावः-मिथ्यात्वमोहनीयोदयप्रभावात् कथंचिदसम्यक्त्वे समुत्पन्ने प्रत्यक्षा तथा-'अभू जिणा' इत्यादि। __ अन्वयार्थ-(जिणा-जिनाः) रागादिक के जीतने वाले केवली भगवान् (अभू-अभूवन् ) अतीतकाल में हुवे हैं (जिणा अत्थि-जिनाः सन्ति) वर्तमानकाल में जिन हैं (अदुवा वि भविस्सइ-अथवाऽपि भविष्यति) अथवा भविष्यत्काल में होंगे। ( एवं-एवम् ) इस प्रकार जो कहते हैं (ते मुसं आहंसु-ते मृषा आहुः) वे मिथ्या कहते हैं, (इइ भिक्खू न चिंतए-इति भिक्षुः न चिन्तयेत् ) इस प्रकार भिक्षु विचार नहीं करे, कारण कि अनुमानादिक प्रमाणों से जिनका त्रिकाल में अस्तित्व सिद्ध होता है। भावार्थ-आत्मामें जब मिथ्यात्वमोहनीयका उदय रहता है तब उसके तथा-'अभू जिणा' त्यादि. ___मन्वयार्थ:-जिणा-जिनाः शाहिननना पसी समपान अभू-अभूवन् मतीमा यया जिणा अस्थि-जिनाः सन्ति वर्तमानमा छ अदुवा वि भविस्सई-अथवाऽपि भविष्यति मा भविष्यत् भा थशे एवं-एवम् मा Rk२ वामां आवे छे ते मुसं आहंसु-ते मृषा आहुः ते मिथ्या ४रे छ. इइ भिक्खू न चिंतए-इति भिक्षुः न चिंतयेत् मा ४२ विया२ मिक्षु न ४२. કારણ કે, અનુમાનાદિક પ્રમાણેથી જેનું ત્રિકાળમાં અસ્તિત્વ સિદ્ધ થયું છે. ભાવાર્થ આત્મામાં જ્યારે મિથ્યાત્વ મેહનિયને ઉદય હેય છે ત્યારે તેના ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #603 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४८ उत्तराध्ययनसूत्रे दिपमाणैः सद्भावनया तन्निराकृत्य सम्यक्त्वरक्षणे नैव दर्शनपरीषहः सोढव्य इति । अत्र दृष्टान्तः प्रदर्श्यते अवन्तीनगर्या वैश्रवणाचार्यः शिष्यपरिवारेण सह समवसृतः । तस्य दृढमति नामकः शिष्य आसीत् , स उग्रतपस्वी उग्रविहारी उत्कृष्टक्रियापालकथासीत् , अन्तमान्ताहारेणायमोदरिकादि तपः करोति, वीरासनादिकं करोति, ग्रीष्मकाले प्रचण्डसूर्यातापना सेवते । शीतकाले शीतस्पर्श सहते स्म, केवलं चोलपट्टक, मुखोप्रभाव से सम्यक्त्व की प्राप्ति का अभाव होने पर जीव ऐसा मानता है कि जिन आदि परोक्षपदार्थ नहीं हैं । अतः उनका प्रत्यक्ष न होने पर भी अन्य अनुमानादिक प्रमाणों द्वारा उनकी सत्ता सिद्ध होती है, इसलिये उनकी सद्भावना से उनकी असंभावतारूप मिथ्यात्वपरिणति का परिहार करते हुए साधु को अपने सम्यक्त्व का रक्षण करते रहना चाहिये। इसी का नाम दर्शनपरीषह जय है। ___ दृष्टान्त-वैश्रवणाचार्य अपने शिष्य परिवार के साथ विहार करते हुए किसी समय अवन्ती नगरी में पधारे। उन शिष्यों में दृढमति नाम का एक शिष्य था जो उग्रतपस्वी, उग्रविहारी एवं उत्कृष्टरूप से प्रत्येक क्रिया का पालन करता था । अन्त प्रान्त आहार से यह अवमोदरिका आदि तपों को तपता था । वीरासन आदि आसनों को करता था। ग्रीष्मकाल में प्रचण्ड सूर्य की अतापना लेता था। शीतकाल में शीतस्पर्श को सहता था । केवल चोलपट्टक तथा मुख पर પ્રભાવથી સમ્યકત્વની પ્રાપ્તિનો અભાવ હોવાના કારણે જીવ એવું માને છે કે, જીન આદિ પરોક્ષ પદાર્થ નથી. આથી તે પ્રત્યક્ષ ન હોવાથી અન્ય અનુમાનાદિક પ્રમાણે દ્વારા તેની સત્તા સિદ્ધ હોય છે. આ માટે તેની સદૂભાવનાથી તેની અસંભવતારૂપ મિથ્યાત્વ પરિણતીને પરિહાર કરીને સાધુએ પોતાના સમ્યકત્વનું રક્ષણ કરતા રહેવું જોઈએ તેનું નામ દર્શનપરીષહ જય છે. દષ્ટાંત–વૈશ્રવણાચાર્ય પિતાના શિષ્ય પરિવાર સાથે વિહાર કરતાં કરતાં એક સમય અવની નગરીમાં પધાર્યા. તેમના શિષ્યમાં દઢમતિ નામે એક શિષ્ય હતે. જે ઉગ્રતપસ્વિ, ઉગ્રવિહારી અને ઉતકૃષ્ટ રૂપથી પ્રત્યેક ક્રિયાઓનું પાલન કરતા હતા. અન્તપ્રાન્ત આહારથી તે અવમદરિકા આદિ તપ તપતે હતા. વીરાસન આદિ આસને કરતે હતે, ગ્રીષ્મકાળમાં પ્રચંડ સૂર્યની આતાપના લેતે હતે, શીતકાળમાં ઠંડીના સ્પર્શને સહન કરતે, ફકત ચલપટ્ટો અને ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #604 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रियदर्शिनी टोका अ०२ गा. ४५ दर्शनपरीषहे दृढमतिमुनिदृष्टान्तः ५४९ परि सदोरकमुखवत्रिकां च बिभ्रत् , संपूर्णशरीरमनावृतं कृत्वा हेमन्ते रात्रौ उत्थितां एव तिष्ठति, जिनवचने सम्यक श्रद्धालुरासीत् । ___ एकदा कश्चिन्मिथ्यात्वी देवस्तत्रागत्य वैक्रयिकं नन्दनवनमिवोद्यानं प्रदय, दृढमतिमुनिमब्रवीत् - हे मुने ! अस्यामातापनायां को लाभः, किं निरर्थकमेतद कष्टं वहसि, नास्ति परलोकः, आगम्यताम् , मया सहाऽस्य नन्दनवनसमानोधानस्य सुखमनुभूयताम् । यदाऽसौ दृढमतिमुनिवर्वीरासनमध्यास्ते, तदा वैक्रियपुष्पशय्यप्रदश्य स देवो वदति-अत्रास्यताम् , किमर्थ कष्टमावहसि, नास्ति परलोकः। यदाऽसौ तपस्यति, तदास देवः स्ववेक्रियशक्त्या विविध मिष्टान्न निर्माय तस्य बुभुक्षामुसदोरकमुखवस्त्रिका को धारण कर एवं समस्त शरीर को अनावृत रखकर हेमन्त ऋतु में रात्रि के समय को खडे २ व्यतीत करता था। जिनवचन में इसे अप्रतिम श्रद्धा थी। एक समय की बात है कि कोई मिथ्यात्वी देव वहां आया और उसने अपनी वैक्रियशक्ति से नंदनवनके समान एक उद्यान की रचना कर दृढमति मुनि से कहा हे मुने! इस आतापना से क्या लाभ है। निरर्थक आप इस कष्ट को सहन करते हो । परलोक आदि कुछ भी नहीं है, अतः आओ और मेरे साथ इस नंदनवन के समान उद्यान के सुख का यथेच्छ अनुभव करो। जिस समय दृढमति मुनि वीरासन से विराजते तो वह देव वैक्रियपुष्पशय्या की रचना कर उनसे कहता कि इस आसन में बैठने में क्या लाभ है इस पुष्प की शय्या पर आप विराजो । जिस को लक्षित कर यह आप कर रहे हो, हे मुनि वह कुछ भी नहीं है। इसी तरह जब यह तप तपते तो वह अपनी સરકમુખવસ્ત્રિકાને ધારણ કરી સારાએ શરીરને ખુલ્લું રાખી હેમન્ત ઋતુમાં રાત ભર ઉન્ને પગે રહેતે હતો, જીન વચનમાં એને અપ્રતિમ શ્રદ્ધા હતી. એક સમયની વાત છે કે, કઈ મિથ્યાત્વી દેવ ત્યાં આવ્યું અને તેણે પિતાની ક્રિયશક્તિથી નંદનવન જેવું સુંદર ઉદ્યાન બનાવી દીધું. અને દઢમતિ મુનિને કહ્યું કે, હે મુનિ! આ આતાપનાથી શું લાભ છે? નિરર્થક આ૫ આ કષ્ટને સહન કરે છે ! પરલોક વગેરે કાંઈ પણ નથી. આથી મારી સાથે આ અને આ નંદનવન સમાન ઉદ્યાનના સુખને યથેચ્છ અનુભવ કરે. જે સમયે દઢમતિ મુનિ વીરાસનમાં વિરાજીત થતા ત્યારે તે દેવ વૈકિય પુપશગ્યાની રચના કરી એનાથી કહેતા કે, આ આસનથી બેસવામાં ક્યા લાભ ? આ પુષ્પની શૈયા ઉપર આપ બીરાજે. જેનું લક્ષ કરીને આપ આ બધું કરી રહ્યા છે તેવું હે મુનિ કાંઈ છે જ નહીં. આ રીતે તપ તપતા ત્યારે પણ તે દેવ પિતાની ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #605 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५५० उत्तराध्ययनसूत्रे त्पाघ वदति-मुने! किं बुभुक्षया प्राणान् गमयसि ! भुक्ष्व विविधानि मिष्टान्नानि, यदर्थमेतत् कष्टमङ्गीकरोषि स नास्ति परलोकः । यदाऽसौ मुनिरुग्रविहारं करोति, तेन च श्रान्तो भवति, तदा स देवः स्ववैक्रियशक्त्या शिबिकां वाहकैर्नीयमानां प्रदय वदति-मुने ! यानमारुह्यताम् , अलमनेन कष्टकरेण पादचारेण, नास्ति परलोकः । उष्णकाले स्वशक्त्या घोरपिपासामुत्पाद्य शीतलसुगन्धिनिर्मलजलपूर्णजलाशयं तदीयदृष्टिगोचरीकुर्वन् स देवस्तं मुनीमब्रवीत्-मुने ! पिब शीतलमिदं वैक्रियशक्ति के प्रभाव से विविध मिष्टान्नों को तयार कर और उन्हें बुभुक्षित बनाकर कहने लगता हे मुने! क्यों भूख से व्यर्थ में इन प्यारे प्राणों को नष्ट करना चाहते हो । जिसके निमित्त तुम यह कष्टपरंपरा सह रहे हो वह तो कुछ है ही नहीं, अतः विविध इन मिष्टानों को भोगो। जब मुनिराज उपविहारी होते और श्रान्त हो जाते तो यह देव उस समय शिविका की रचना कर उन्हें इस प्रकार दिखाता कि यह शिविका अनेक पुरुषों द्वारा अपने कंधो पर उठाई जा रही है, और फिर कहने लगता कि महाराज आप थक चुके हैं अतः इस शिविका पर चढ़कर विहार करिये। कष्टप्रद इस पैदल चलने से क्या लाभ ? इसे छोड़िये । उष्णकाल में अपनी शक्ति के प्रभाव से मुनि को घोर पिपासा उत्पन्न कर और शीतल सुरभि निर्मल जल से परिपूर्ण जलाशय की रचना करके मुनि को दिखाता हुआ कहने लगता વૈક્રિયશક્તિના પ્રભાવથી વિવિધ મિષ્ટાન્ન તૈયાર કરી તેને વિભૂષિત બનાવી કહેવા લાગતા હે મુનિ! શા માટે વ્યર્થમાં ભૂખ અને તરસથી આ પ્યારા પ્રાણેને નષ્ટ કરી રહ્યા છે? જે નિમિત્તથી તમે આ બધાં કષ્ટ સહન કરે છો એવું કાંઈ પણ નથી. આથી આ વિવિધ મિષ્ટાન્નોને આગે. જ્યારે મુનિરાજ ઉગ્ર વિહારી બનતા અને શ્રાન્ત બની જતા તે તે દેવ એ સમયે શિબિકા (પાલખી)ની રચના કરી એને બતાવતે અને કહેતે આ શિબિકા અનેક પુરૂષો દ્વારા પિતાના ખભે ઉઠાવવામાં આવી રહી છે. મહારાજ આપ થાકી ગયા છે જેથી આ શિબિકામાં બેસી જાઓ. અને વિહાર કરો. કષ્ટપ્રદ એવા પગપાળા ચાલવાથી શું લાભ મળવાનું છે? એને છોડી દે. ઉણકાળમાં પિતાની શક્તિના પ્રભાવથી મુનિરાજ ને પાણીની ખૂબ તરસ ઉત્પન્ન કરાવી, શિતળ સુરભી નિર્મળ જળથી પરિપૂર્ણ જળાશયની રચના કરી મુનિને દેખાડીને કહે કે, હે મુનિ! જુઓ આ કેવું સુંદર તળાવ ભર્યું છે. આપને ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #606 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रियदर्शिनी टीका अ० २ गा० ४५ दर्शनपरीषहे दृढमतिमुनिदृष्टान्तः ५५१ मधुरं वारि, किमात्मनः पिपासाऽऽकुलीकरणेन, नास्ति परलोकः । इत्येवं विविधपरीपहानुत्पाद्य स देवस्तस्य मुनेः सम्यक्त्वमपनेतुं प्रवृत्तः, तथापि स दृढमतिमुनिस्तपःसंयमाराधनाद् लेशतोऽपि विचलितो नाभूत् । तदाऽसौ मेरुरिवाप्रकम्पः सागर इव गम्भीरः सन् विचारयति-भगवतः सर्वज्ञतया नद्वचनं सत्यं संदेहरहितं ध्रुवं नित्यं परमकल्याणसाधकं श्रद्धेयमेवास्ति । एभ्यः पौगलिकसुखेभ्यः किमपि कि हे मुनि ! देखो यह कितना सुन्दर तालाब भरा हुआ है। आपको इस समय घोर पिपासा की वेदना हो रही है अतः आप शीतल मधुर जल का पान कर पिपासा को शान्त करो। व्यर्थ में पिपासा से आत्मा को आकुलित करने से क्या लाभ है ? परलोक नहीं है। इस प्रकार इस देव ने मुनिराज के लिये अनेक परीपहों को उत्पन्न कर उनको सम्यक्त्व से पतित करने के निमित्त अनेक प्रयत्न किये तो भी वे मुनिराज सम्यक्त्व से रंचमात्र भी चलायमान नहीं हुए । प्रत्युत संयम एवं तप की आराधना करने में मेरु के समान अप्रकंप होकर एवं सागर के समान गंभीर बनकर अधिक से अधिक दृढ बनते रहे। साथ में यह भी इन्हों ने विचार करने में कसर नहीं रखी कि भगवान् वीतराग होने से, तथा सर्वज्ञ होने से कभी भी असत्य वचन वाले नहीं हो सकते हैं, इनका प्रत्येक वचन संदेहरहित ध्रुव सत्य है। जिन वचनों की आराधना से ही जीवों को निःश्रेयस मार्ग की प्रासि होती है, अतः यही एकान्ततः परमकल्याणसाधक है, और इसी આ સમય ખૂબ જ તરસ લાગી રહી છે, આથી આ શિતળ મધુર જળનું પાન કરીને તમારી તરસને છીપાવે. તરસથી આત્માને નકામે પીડીત કરવાથી શું લાભ ? પરલોક છે જ નહીં. આ પ્રકારે તે દેવે મુનિરાજ માટે અનેક પરીષહો ઉત્પન્ન કર્યા અને તેમને સમ્યકત્વથી પતિત બનાવવા ખૂબ પ્રયત્ન કર્યા તે પણ એ મુનિરાજ લેશ માત્ર પણ ચલાયમાન થયા નહીં. અને પિતાના સંયમ અને તપની આરાધનામાં મેરની માફક અડગ રીતે ઉભા રહ્યા અને સાગરની માફક ધીર ગંભિર બની અધિક દઢ બનતા ગયા. સાથે સાથે તેમણે એ પણ વિચાર કરવામાં કસર ન રાખી કે ભગવાન વીતરાગી સર્વજ્ઞ હોવાને કારણે કદી પણ અસત્ય વચનવાળા હોઈ શકતા નથી. એમનું પ્રત્યેક વચન સંદેહ રહીત ધ્રુવ–સત્ય છે. જીનવચનની આરાધનાથી જ જીવને નિશ્રેયસ (મેક્ષ) માર્ગની પ્રાપ્તિ થાય છે. જેથી તેને વિશ્વાસ કરે એગ્ય છે. આથી આજ એક માત્ર પરમ કલ્યાણનું સાધન છે. આ પદ્ગલિક સુખેથી જીવેનું ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #607 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५५२ उत्तराध्ययनसूत्रे कल्याणं नास्ति । मयाऽनादिभवसमागतं मिथ्यात्वमपनीय सम्यक्त्वं लब्धम् । तदेव पुनः पुनरात्मनि दृढीकृत्य ज्ञानावरणीयाद्यष्टविधकर्मरजः समुत्सारन केवविप्राप्तिपूर्वकं मोक्षपदं मम लब्धव्यमस्ति । अलमनेन तुच्छेन विषयसुखेन । इति विमृश्य तपःसंयमसमाराधनपूर्वक निरतिचारसम्यक्त्वरक्षणेन दृढमति मुनिर्दर्शनपरी पहं परिषा, क्षपकश्रेणिमारुह्य, केवलित्वं लब्ध्वा स्वात्मकल्याणं साधितवान् । एवमन्यैरपि मुनिभिर्दर्शनपरोषहः सोढव्यः । का विश्वास करना योग्य है । इन पौगलिक सुखों से जीवों का कुछ भी आत्महित नहीं हो सकता है । मैंने बड़ी कठिनता से अनादि भवों से संसक्त मिथ्यात्व का अपनयन कर सम्यक्त्व का लाभ किया । इसलिये यह दुर्लभता से प्राप्त होने वाली वस्तु ( सम्यक्त्व ) का नाश न होने पावे, इस प्रकार सचेष्ट होकर मुझे बार २ इस को निज आत्मा में दृढ करते रहना चाहिये, और ज्ञानावरणीय आदि अष्ट प्रकार कर्मरजके निवारण से केवलित्वकी प्राप्तिपूर्वक मुक्ति पदका लाभ करना चाहिये इसी में मेरा कल्याण है । इन तुच्छ वैषयिक सुखों के सेवन से कौनसा निज का लाभ हो सकता है। इस प्रकार विचार कर तप एवं संयम की आराधना करते हुए दृढमति मुनिराज ने निरतिचार सम्यक्त्व की रक्षा से दर्शनपरीषह को सहन किया और क्षपकश्रेणी पर आरूढ हो कर केवलिपदका लाभ कर अपना आत्मकल्याण कर लिया। इसी प्रकार अन्य मुनिजनों को भी दर्शनपरिषहजयी बनना चाहिये । કાંઈ પણ આત્મહિત થઈ શકવાનું નથી. મેં ભારે કઠીનતાથી અનાદિ ભવાથી સંસક્ત મિથ્યાત્વનું અપનયન કરી સમ્યકત્વના લાભ કર્યાં છે. આ માટે આ દુર્લભતાથી પ્રાપ્ત થયેલ વસ્તુ સમ્યકત્વના નાશન થાય એ રીતે સચેત બનીને મારે વારવાર એને મારા પોતાના આત્મામાં દૃઢ કરતા રહેવું જોઇએ. અને જ્ઞાનાવરણીય આદિ આઠ પ્રકારની કર્મ રજના નિવારણથી કેવલિત્વની પ્રાપ્તિપૂર્વક મુક્તિ પદના લાભ મેળવવા જોઈ એ. આ કરવામાં જ મારૂં કલ્યાણ છે. તુચ્છ એવાં વૈયિક સુખાના સેવનથી મને કચેા લાભ થવાના છે? આ પ્રકારના દૃઢ વિચાર કરી તપ અને સંયમની આરાધના કરતાં દૃઢમતિ મુનિરાજે નિરતિચાર સમ્યકત્વની રક્ષાથી દર્શનપરીષહ સહન કરી ક્ષપકશ્રેણી ઉપર આરૂઢ ખની કેવલીપદને લાભ કરી પેાતાના આત્માનું કલ્યાણ કર્યું. આ રીતે અન્ય મુનિજનાએ પણ દર્શનપરીષહુ જયી બનવું જોઇએ. ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર ઃ ૧ Page #608 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रियदर्शिनी टीका अ० २ गा. ४५ परीपहावतरणम् अथ परीषहावतरणमाह एते धर्मस्यान्तरायकारणभूताः द्वाविंशतिपरीषहाः सोढव्या इत्युक्तम् । तत्रज्ञानावरणीय-वेदनीय-दर्शनमोहनीय-चारित्रमोहनीया-ऽन्तरायाणां कर्मणामुदयादेते सर्वे परीषहाः प्रादुर्भवन्ति । चतसृषु कर्मप्रकृतिषु ज्ञानावरणीय-वेदनीय-मोहनीया -न्तरायेषु द्वाविंशतिः परीषहाः समवतरन्ति, इतरासु चतसृषु-दर्शनावरणीयाऽऽ. युष्क-नाम-गोत्रेषु परीषहा नोत्पधन्ते । (भग०८ । ८) यः सूक्ष्म संपरायः सूक्ष्मलोभपरमाणुसद्भावात् न वीतरागत्वं प्राप्तः स दशमगुणस्थानवर्ती उपशमश्रेणिसंपन्नोवा क्षपकश्रेणिसंपनो वा तस्य संयतस्य, तथा छअस्थवीतरागयोर्गुणस्थानभेदेन द्विविधयोरेकादशद्वादशगुणस्थानवर्तिनोश्च संयतयोश्चतुर्दश अब परीषहों का अवतरण कहते हैं यद्यपि धर्मके सेवन करने में ये बाईस परीषह अन्तरायरूप हैं साधु को इन को सहन करते रहना चाहिये, यह बात बत्लाई जा चुकी है। अब कौन २ से परीषह किस २ कर्म के उदय से होते हैं यह बतलाया जाता है-ज्ञानावरणीय, वेदनीय, मोहनीय (दर्शनमोहनीय चारित्रमो. हनीय ) एवं अन्तराय, इन चार कर्मों के उदय से ये २२ बाईस परीषह उत्पन्न होते हैं । दर्शनावरणीय आयु नाम एवं गोत्र, इन चार को के उदय में परीषह उत्पन्न नहीं होते हैं। (भग० श ८ उ०८) सूक्ष्मलोभ परमाणु के सद्भाव से जो वीतरागता को प्राप्त नहीं हुआ है ऐसा दशमगुणस्थानवर्ती जीव चाहे वह उपशमश्रेणी में स्थित हो चाहे क्षपकश्रेणी में उसके तथा छद्मस्थ वीतराग के ११ ग्यारहवें एवं હવે પરીષહેનું અવતરણ કહેવામાં આવે છે– ધર્મનું સેવન કરવામાં કદાચ આ બાવીસ પરીષહ અંતરાયરૂપ થાય છતાં સાધુએ એને સહન કરતા રહેવું જોઈએ. આ વાત સમજાવવામાં આવી. હવે કયા કયા પરીષહ ક્યા ક્યા કર્મના ઉદયથી થાય છે એ બતાવવામાં આવે છે-જ્ઞાનાવરણીય, વેદનીય, મેહનીય, (દર્શન મોહિનીય ચારિત્ર મોહનીય) અને અંતરાય આ ચાર કર્મોના ઉદયથી આ બાવીસ પરીષહ ઉત્પન્ન થાય છે. દર્શનાવરણીય, આયુ, નામ, અને ગોત્ર આ ચાર કર્મોના ઉદયથી પરીષહ ઉત્પન્ન થતા નથી. स. स. ८, 6. ८ સૂકમલભ પરમાણુના સદૂભાવથી જે વીતરાગતાને પ્રાપ્ત નથી થયા એવા દશગુણ સ્થાનવતી જીવ ચાહે તે ઉપશમ શ્રેણીમાં સ્થિત હોય, ચાહે ક્ષક શ્રેણીમાં તથા છદ્મસ્થ વીતરાગના અગીયાર અને બારમા ગુણસ્થાનાવતી અને उ०७० ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #609 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - उत्तराध्ययनसूत्रे परीषहाः सम्भवन्ति-क्षुत्पिपासा-शीतोष्ण-दंशमशक-चर्या प्रज्ञा-ऽज्ञाना-लाभ-शय्यावध-रोग-तृणस्पर्श-मलनामकाः । तेषकर्षतो युगपद् द्वादशैव परीषहा वेद्यन्ते, शीतोष्णयोः चर्याशय्ययोश्च विरोधात् तयोस्तयोर्मध्ये एकैकस्यैव संभवात् । तेषां दशमैकादशद्वादशगुणस्थानवत्तिनामुक्तचतुर्दशेभ्योऽन्येऽष्टौ परीषहाः - अचेला१रति २-स्त्री ३-निषद्या ४-ऽऽक्रोश ५-याचना ६-सत्कारपुरस्कार ७-दर्शनाख्याः ८ न भवन्ति । तत्र सूक्ष्मसंपरायस्य मोहनीयकमेदियाभावात् , एकादशगुणस्थानवतिसंयते उपशान्तमोइत्वात् , द्वादशगुणस्थानवतिसंयते तु क्षीणमोह१२ बारहवें गुणस्थानवी जीवों के १४ चौदह परीषह होते हैं। वे ये है-क्षुधा १, तृषा २, शीत ३, उष्ण ४, दंशमशक ५, चर्या ६, प्रज्ञा ७, अज्ञान ८, अलाभ ९, शय्या १०, वध ११, रोग १२, तृणस्पर्श १३, मेल १४ । इनमें एक जीवके एक साथ बारह ही परीषहों का अधिक से अधिक रूपमें वेदन होता है, क्यों कि शीत उष्ण परीषह में से या तो शीत का ही वेदन होगा या उष्ण का, युगपत् दोनों का नहीं । इसी तरह चर्या और शय्या में भी किसी एक का । इस प्रकार १४ चौदह की जगह १२ बारह परीषहों का एक जीव की अपेक्षावेदन जानना चाहिये । दशवें ग्यारहवें एवं बारहवें गुणस्थानों में ये ८ आठ परीषह नहीं होते हैं । वे ये हैं-अचेल १, अरति २, स्त्री ३, निषद्या ४, आक्रोश ५, याचना ६, सत्कारपुरस्कार ७, और दर्शन ८। सूक्ष्मसंपराय गुणस्थानमें मोहनीय कर्मके उदय का अभाव होने से, ११ ग्यारहवें गुणस्थान में मोह का उपशांत अवस्था होने से, तथा १२ बारहवें गुणस्थान में मोह की यौह परीष थाय छे, ते ॥छे भूमी, तरस२, 13, ४, ६ ४४५, यर्या, प्रज्ञा७, अज्ञान८, AIME, शय्या१०, १११, १२, तृणु५ १३, भेत१४. આ ચૌદમાંથી કાં તે એક અથવા એક સાથે બાર પરીષહેને અધિકથી અધિકરૂપમાં જીવનેવેદન થાય છે, કેમકે, ઠંડી અને ઉણુ પરીષહમાંથી કાં તે ઠંડીની વેદના થાય છે અથવા ઉણની વેદના થાય છે યુગપત એકી સાથે બનેને નહીં. આ રીતે ચયી અને શય્યામાં પણ કેઈ એકને પરીષહ થાય છે. આમ ચૌદમાંથી ૧૨ બાર પરીષહેનું એક જીવની અપેક્ષાએ વેદન જાણવું દશમા, અગીયારમા અને બારમાં ગુણસ્થાનમાં આ આઠ પરીષહ આવતા નથી. તે આ છે અચેલ,૧ અરતિસ્ત્રી, કનિષદ્યા, ૪ આક્રોશ, ૫ યાચના, ૬ સત્કારપુરસ્કાર, ૭ અને દર્શન.૮ સૂક્રમ સાંપરાય ગુણસ્થાનમાં મોહનીયકર્મના ઉદયને અભાવ હોવાથી અગ્યારમાં ગુણસ્થાનમાં મેહનીય ઉપશાંત અવસ્થા હેવાથી તથા બારમા ગુણસ્થાનમાં મોહની ક્ષીણતા ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #610 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रियदर्शिनी टीका. अ० २ गा० ४५ परीषहावतरणम् त्वादिति विवेकः । ज्ञानावरणीय-दर्शनावरणीय-मोहनीया-ऽन्तरायेषु घातिकर्मसु क्षयमात्यन्तिकमुपगतेषु केवलित्वं प्राप्तस्य वेदनीयकर्मनिमित्तका एव एकादशपरीषहाः संभवन्ति, तद् यथा-क्षुत्पिपासा-शीतोष्ण-दंशमशक-चर्या-शय्या-वध-रोगतृणस्पर्श-मनपरीषहाः। तत्रासौ युगपत् नव परीषहान् उत्कर्षतो वेदयति, शीतोष्णयोः चर्याशय्ययोश्चद्वयोर्द्वयोरेकदा वेदनाया अभावात् । बादरकषाययुक्तस्य उपशमकस्य क्षपकस्य वा क्षुत्पिपासादयः सर्वे परीषहाः संभवन्ति । ज्ञानावरणीयोदये द्वौ प्रज्ञाऽज्ञानपरीषहौ भवतः। चारित्रमोहनीयोदये-सप्त क्षीणता होने से ये आठ परीषह नहीं हैं। ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणाय, मोहनीय एवं अन्तराय, ये चार घातिया कर्म हैं, इनका जब आत्यन्तिक क्षय होता है तब आत्मा केवलोअवस्थासंपन्न होता है। उस समय उस केवलज्ञानविशिष्ट आत्मा के वेदनीय कर्म के उदय से ११ ग्यारह परीषह होते हैं, वे ये हैं-क्षुधा १, पिपासा २, शीत ३, उष्ण ४, दंशमशक ५, चर्या ६, शय्या ७, वध ८, रोग ९, तृणस्पर्श १०, और मेल ११, केवलीअवस्था में आत्मा उत्कर्ष की अपेक्षा से युगपत् ९ नौ परीषहों का वेदन करता है, शीत उष्ण में से किसी एक का, चर्याशय्या में से किसी एक का । बादरकषाय से युक्त जीव के अथवा उपशमक अथवा क्षपक के क्षुधा तृषा आदि २२ परीषह होते हैं। फिर भी युगपत् एक जीव के एक काल में बीस परीषह तक ही हो सकते हैं। __ ज्ञानावरणीय कर्म के उदद्य में प्रज्ञापरीषह और अज्ञानपरीषह, હોવાથી એ આઠ પરીષહ આવતા નથી. જ્ઞાનાવરણીય, દર્શનાવરણીય, મોહનીય અને અંતરાય આ ચાર ઘાતીય કર્મ છે. એનું જ્યારે આત્યંતિક ક્ષય થઈ જાય છે ત્યારે આત્મા કેવલી અવસ્થા સંપન્ન થાય છે. એ સમય એ કેવલજ્ઞાન વિશિષ્ટ આત્માને વેદનીય કર્મના ઉદયથી અગીયાર પરીષહ થાય છે તે આ છે ભૂખ, तरस२, 13, SY४, शमश:५, न्याह, शय्या७, १५८, २, तृस्पश१० અને મેલ૧૧ કેવલી અવસ્થામાં આત્મા ઉત્કર્ષની અપેક્ષાથી યુગપત્ નવ પરીષહેની વેદના ભગવે છે. શીત ઉષ્ણમાંથી કેઈ એકની, ચર્યા શય્યામાંથી કેઈ એકની, બાદર કષાયથી યુક્ત જીવને અથવા ઉપશામક અથવા ક્ષેપકને ભૂખ તરસ આદિ બાવીસ પરીષહ હોય છે. છતાં પણ યુગપત એક જીવના એક કાળમાં વીસ પરીષહ સુધી જ થઈ શકે છે. જ્ઞાનાવરણીય કર્મોના ઉદયમાં પ્રજ્ઞાપરીષહ અને અજ્ઞાનપરીષહ એ બે ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #611 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययनसचे अचेला-रति-खी-निषधा-ऽऽक्रोश-याचना-सत्कारपुरस्कारपरीषहाः भवन्ति । दर्शनमोहनीयोदये-एका दर्शनपरीषहा-वेदनीयोदये-एकादश क्षु-त्पिपासा-शीतोष्ण दंशमशक-चर्या-शव्या-वध-रोग-तृणस्पर्श-मलाख्याः परीषहाः उत्पद्यन्ते । लाभान्तरायोदये-एकः अलामपरीषहः । अष्टविधर्मबन्धकस्य, तथाऽऽयुर्वर्जितसप्तविधकर्मबन्धकस्य च संयतस्य द्वाविंशतिः परीषहाः संभवन्ति, तत्र स उत्कर्षतो युगपद् विंशतिपरीपहान् वेदयति । यत्र समये शीतपरीषहं वेदयति न तदोष्णपरीपहम् , यदा चोष्णपरीषहं वेदयति, न तदा शीतपरीषहं , तयोः परस्परमत्यन्तविरोधेन एकदा एकत्रासम्भवात् । तथा यस्मिन् समये चर्यापरीषहम् वेदयति, न तदा निषद्यापरीषहम् , यदा निषद्या परीषहं वेदयति न तदा चर्यापरीषहं, चर्यानिषद्यापरीषहयोरपि परस्परमत्यन्तविरोधेन एकदा एकत्रासंभवात् । ये दो परीषह होते हैं। चारित्रमोहनीय के उदय में अचेल १; अरति २, स्त्री ३, निषद्या ४, आक्रोश ५, याचना ६, सत्कारपुरस्कार ७, ये ७ सात परीषह होते हैं । दर्शनमोहनीय के उदय में एक दर्शनपरीपह, वेदनीय के उदय में ११ ग्यारह परीषह-क्षुधा १, तृषा २, शीत ३, उष्ण ४, दंशमशक ५, चर्या ६, शय्या ७, वध ८, रोग ९, तृणस्पर्श १०, और मेल ११ होते हैं। लाभान्तराय के उदय में एक अलाभ परीषह उत्पन्न होता है। आठों प्रकार के कर्म का बन्धक तथा आयु सिवाय सात कर्मों का बन्धक जो संयत है उसके २२ बाईस परीषह होते हैं । एक काल में जीव अधिक से अधिक २० वीस परीषहों का वेदन कर सकता है, क्यों कि चर्या और निषद्या में से किसी एक का, शीत एवं उष्ण में से किसी एक एक का ही वेदन होगा, दोनों का युगपत् नहीं, कारण कि इनका परस्पर एक साथ रहने में विरोध है । પરીષહ છે. ચારિત્ર મહનીયના ઉદયમાં અચેલ, ૧ અરતિ, ૨ સ્ત્રિ, ૩ નિષદ્યા,૪ આક્રોશ ૫ યાચના, ૬ સત્કારપુરસ્કાર, ૭ આ સાત પરીષહ હોય છે. દર્શનમોહનીયના ઉદયમાં એક દશનપરીષહ, વેદનીયના ઉદયમાં ૧૧ અગીયાર પરીષહ, भूस, १ तरस, २४ी, 3 Ge, ४ शमश४, ५ यर्या, ६शया, ७१५, ८२१, ૯ તૃણપર્શ ૧૦ અને મેલ ૧૧ હોય છે. લાભાંતરાયના ઉદયમાં એક અલાભ પરીષહ ઉત્પન્ન થાય છે. આઠ પ્રકારના કર્મના બંધક તથા આયુ શિવાય સાત કર્મોના બંધક જે સંયત છે તેને ૨૨ બાવીસ પરીષહ હોય છે. એક કાળમાં એક જીવ અધિકમાં અધિક ૨૦ વીસ પરીષહનું વેદન કરી શકે છે. કેમકે, ચર્થી અને નિષઘામાંથી કેઈ એકનું ઠંડી અને ઉણુમાંથી કઈ એકનું જ વદન થતું હોય છે. બન્નેનું યુગપતું નહીં. કારણ કે, તેને પરસ્પર એક સાથે રહેવામાં વિરોધ છે. ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #612 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रियदर्शिनी टीका. अ० २ गा ४५ परीषहावतरणम् ५५७ ननु आत्यन्तिकशीतस्पर्शे सति वहिसान्निध्ये, तथा - शरीरस्यैकस्मिन् भागे छायाश्रितेऽपरस्मिन् भागे सूर्यकिरणप्रतप्ते सति एकस्य पुरुषस्य एकस्यां दिशि शीतम्, अन्यस्यां चोष्णमित्येवं द्वयोरपि शीतोष्णपरोषहयोर्युगपत् संभवोऽस्तीति चेत्, उच्यते - अत्र परीषहे कालकृतशीतोष्णयोर्ग्रहणम्, अतो नास्त्येतत्प्रभाamra इति । शंका- शीतस्पर्श और उष्णस्पर्श का जो आपने परस्पर विरोध बतलाया है वह जचता नहीं है, क्यों कि आत्यंतिक शीतस्पर्श होने पर भी अग्नि के समीप में, तथा शरीर का एक भाग छायाश्रित होने पर, दूसरा भाग सूर्य की किरणों से तप्त होने पर एक ही पुरुष को एक दिशा में शीत का, अन्य दिशा में उष्ण का अनुभव युगपत् होता है, इस प्रकार शीत और उष्णस्पर्श का एक ही पुरुष में देशादिक की अपेक्षा एक साथ सद्भाव पाये जानेसे इनमें आप विरोध कैसे कहते हैं । उत्तर - इस प्रकार की आशंका यहां नहीं करना चाहिये। क्यों कि यहां जो शीत उष्ण परीषह का युगपत् विरोध बतलाया गया है वह काल की अपेक्षा से बतलाया गया है। शीतकाल में शीतपरीषह का उष्णकाल में उष्णपरीषह का सद्भाव रहता है । शीतकाल में उष्णकाल नहीं होता और उष्णकाल में शीतकाल नहीं होता, अतः इस अपेक्षा से यहां इस प्रश्न के होने का अवकाश ही नहीं है । શું કા—શીતપશ અને ઉષ્ણસ્પર્શના જે આપે પરસ્પર વિરાધ બતાવેલા છે તે ખરાખર નથી, કેમકે, અત્ય ંતિક ઠંડીના સ્પર્શ હાવાથી પણુ અગ્નિના સાંનિધ્યમાં તથા શરીરના એક ભાગ છાયાશ્રિત હાવાથી, ખીજે ભાગ સૂર્યનાં કિરણાથી તુસ હાવાથી, એકજ માણસને એક દિશામાં ઠંડીના અને બીજી દિશામાં ઉષ્ણુના અનુભવ યુગપત્ થાય છે. આ રીતે ઠંડી અને ઉષ્ણુસ્પર્શના એક જ માણસમાં દેશાદિકની અપેક્ષા એક સાથે સદ્ભાવ દેખાતાં આમાં આપ વિરોધ કેવી રીતે કહેા છે? ઉત્તર—આ પ્રકારની આશંકા અહિં ન કરવી જોઈએ કેમકે, અહિ' જે ઠંડી અને ઉષ્ણુ પરીષહના યુગપત્ વિરાધ બતાવવામાં આવેલ છે તે કાળની અપેક્ષાથી બતાવવામાં આવેલ છે. શીતકાળમાં ઠંડીના પરીષહ અને ઉણુકાળમાં ઉષ્ણુપરીષહના સદ્ભાવ રહે છે. શીતકાળમાં ઉષ્ણકાળ હાતા નથી અને ઉષ્ણુકાળમાં શીતકાળ હાતા નથી. આથી આ અપેક્ષાએ અહિંયાં આ પ્રશ્ન થવાના અવકાશ જ નથી. ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર ઃ ૧ Page #613 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययनसो ननु भगवता 'आयुर्मोहनीयवर्जितषइविधकर्मबन्धकः सूक्ष्मसंपरायसंयत उत्कर्षतो युगपद् द्वादश परीपहान् वेदयति' इत्युक्तम् , तत्र यदा शय्यापरीषहं वेदयति, न तदा चर्यापरीषहम् , यदा चर्यापरीषहं वेदयति, न तदा शय्यापरीषहम् , इति कथितम् , कथं तर्हि-सप्तविधकर्मबन्धकोष्टविधकर्मबन्धकश्च संयतो युगपद् विंशतिपरीषहान् वेदयेत् । यतश्चर्यया सह शय्यानिषधयोर्विरोधेन चर्यासदावे शय्यानिषद्ययोरसंभवात् , एकोनविंशतेरेव परीषहाणां वेदनसंभव इति शंका-भगवान् ने “आयु एवं मोहनीय वर्जित छह कमों का बंध करनेवाला सूक्ष्मसंपराय गुणस्थानवाला संयत उत्कर्ष की अपेक्षा युगपत् १२ बारह परीषहोंका वेदन करता है" ऐसा कहा है सो उसमें जिस समय वह शय्यापरीषहका वेदन करता है उस समय वह चर्यापरीषहका वेदन नहीं करता है, और जिस समय चर्यापरीषह का वेदन करता है उस समय शय्यापरीषह का वेदन नहीं करता सो इस प्रकार की विवक्षा से वहाँ चौदह परीषहों के सामान्य कथन में उत्कर्षक की अपेक्षा बारह परीषह का वेदन करना ठीक बैठ जाता है, परन्तु जो आयुवर्जित सात प्रकार के अथवा आठ प्रकार के कर्मों का बंधक संयत है उसके चर्या के साथ शय्या और निषद्या का विरोध होने से चर्या के सद्भाव में शय्या और निषद्या का संभव हो नहीं सकता है ऐसी परिस्थिति में इस संयत के जो उत्कर्षक की अपेक्षा २० बीस परीषहों का सद्भाव बतलाया है वह कैसे संगत हो सकता है, क्यों શંકા–ભગવાને “આયુ અને મોહનીય વર્જીત છ કર્મોને બંધ કરવાવાળા સૂક્ષ્મ સંપરાય સંયત ઉત્કર્ષની અપેક્ષા યુગપત્ બાર પરીષહનું વેદન કરે છે.” એવું કહ્યું છે તો તેમાં જે સમય તે શય્યાપરીષહનું વેદન કરે છે. તે સમય તે ચર્યાપરીષહનું વેદન કરતા નથી. અને જે સમય ચર્યાપરી હનું વેદન કરે છે તે સમય શય્યા પરીષહનું વેદન નથી કરતા. આ પ્રકારની વિવિક્ષાથી ચૌદ પ્રકારના પરીષહના સામાન્ય કથનમાં ઉત્કર્ષની અપેક્ષા બાર પરીષહનું વેદન કરવું બરાબર બંધ બેસતું છે. પરંતુ આયુવત જે સાત પ્રકારના અથવા આઠ પ્રકારના કર્મોના બંધક સંયત છે–એની ચર્યા સાથે શય્યા અને નિષસ્થાને વિરોધ હોવાથી ચર્યાના સદૂભાવમાં શય્યા અને નિષવાને સંભવ થઈ શકતું નથીએવી પરિસ્થિતિમાં આ સંવત કે જે ઉત્કર્ષની અપેક્ષાએ વીસ પરીષહને સદભાવ બતાવેલ છે. તે કઈ રીતે સંગત થઈ શકે ? ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #614 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रियदर्शिनी टीका अ० २ गा. ४५ परोषहावतरणम् चेदुच्यते - सूक्ष्मसंपरायस्य चारित्रमोहनीय दर्शनमोहनीयं सत्तामात्रं वर्तते, न तु परीषहहेतुभूतः सूक्ष्मोऽपि मोहनीयोदयोऽस्तीति न मोहनीयजन्यपरीषहो भवति, ततश्च षड्विधबन्धकस्य मोहनीयोदयाभावेन सर्वत्रौत्सुक्यनिवृत्तिभवति, औत्सुक्यनिवृत्त्या च विहारपरिणामाभावः, तेन शय्यापरीषहवेदनसमये चर्याया अभावः । अत्र तु-मोहनीयोदयाद् बादररागवत्त्वेन औत्सुक्यं विहारपरिणामरूपं संभवति, तदा शय्यापरीषहवेदनसमये चर्यापरीषहं परिणामरूपेण वेदयति, अतो विंशतिपरीषहान् वेदयतीति कथनं सम्यगेव । कि शय्या और निषद्या में से एक फिर घट जाने से वीस की जगह १९ उन्नीस परीषहों के वेदना का ही सद्भाव कहना चाहिये ? उत्तर-सूक्ष्मसंपराय संयत के चारित्रमोहनीय एवं दर्शनमोहनीय केवल सत्तामात्र है, परीपह का हेतुभूत थोड़ा सा भी मोहनीय का उदय वहां नहीं है कि जिससे वहां मोहनीय के उदय से होने वाला परीषह हो सके, अतः छह कर्मों का बंधक जो संयत है उसके मोहनीय कर्म के उदय के अभाव से सर्वत्र औत्सुक्य की निवृत्ति हो जाती है । औत्सुक्य की निवृत्ति से विहार करने के परिणाम की भी निवृत्ति हो जाती है, इससे शय्यापरीषह के वेदन के समय में वहां चर्या का अभाव है परन्तु जो सप्तविध कर्म का अथवा अष्टविध कर्म का बंधक है उसके मोहनीय का उदय है इससे बादर रागवाला होने से उसके विहारपरिणामरूप औत्सुक्यभाव संभवित होता है। उस समय वह शय्यापरीषह के वेदन के समय में चर्यापरीषह को परिणामકારણ કે શમ્યા અને નિષામાંથી એક ઘટિ જવાથી વીસને બદલે ઓગણીસ પરીષહાના વેદનને જ સદૂભાવ કહેવું જોઈએ. ઉત્તર–સૂક્ષ્મ સાંપરાય સંયતના ચારિત્ર મેહનીય અને દર્શનમોહની. યની કેવળ સત્તા માત્ર છે. પરીષહના હેતુભૂત થોડો પણ મોહનીયને ઉદય ત્યાં નથી કે જેનાથી ત્યાં મેહનીયના ઉદયથી આવનાર પરીષહ થઈ શકે. આથી છ કર્મોના બંધક જે સંયત છે તેના મોહનીય કર્મના ઉદયના અભાવથી સર્વત્ર ઔસુજ્યની નિવૃત્તિ થઈ જાય છે. સુયની નિવૃત્તિથી વિહાર કરવાના પરિણામની પણ નિવૃત્તિ થઈ જાય છે. આથી શય્યાપરીષહના વેદનના સમયે ત્યાં ચર્યાને અભાવ છે પરંતુ જે સાત પ્રકારના કર્મોને અથવા આઠ પ્રકારના કર્મોને બંધક છે તેને મોહનીયને ઉદય છે. આ કારણે બાદર રાગ વાળા હોવાથી એના વિહાર પરિણામ રૂપ સુણ્યભાવ સંભવીત બને છે. એ સમયે તે શય્યાપરીષહના વેદના સમયમાં ચપરીષહને પરિણામરૂપથી વેદિત ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #615 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - उत्तराध्ययनसूत्रे ननु अनिवृत्तियादरसंपरायस्य मोहनीयसंभवानामष्टानामपि परीषहाणां कथं संभवः ? यतो दर्शनसप्तकोपशमे बादरकषायस्य दर्शनमोइनायोदयाभावेन दर्शनपरीपहाभावात् सप्तानामेव संभवो नाष्टानाम् , अथ दर्शनमोहनीयोदयाभावेऽपि दर्शनमोहनोयसत्ताऽपेक्षया दर्शनपरोषहोऽपि स्यादित्युच्यते, तर्हि उपशमकत्वे सूक्ष्मसंपरायस्यापि मोहनीयसत्तासद्भावात् कथं तज्जनिताः सर्वेऽपि परीषहा न भवन्तीति न्यायस्य समानत्वात् ? । ____ अत्रोच्यते-दर्शनसप्तकोपशमस्योपर्येव नपुंसकवेदाधुपशमकाले अनिवृत्ति बादरसंपरायो भवति, स च दर्शनसप्तकान्तर्गतस्य दर्शनत्रयस्य मिथ्यात्व-मिश्ररूप से वेदित करता है। इस कारण वह २० वीस परीषहों का वेदन करता है, यह कथन समीचीन ही है। शंका-जो संयत अनिवृत्ति बादर संपराय वाला है उसके मोहनीय से संभवित आठ परीषहों की संभावना कैसे हो सकती है? क्यों कि दर्शनसप्तक के उपशम होने पर उस बादर कषाय वाले संयत के दर्शनमोहनीय के उदय के अभाव से दर्शनपरीषह तो होगा नहीं, इसलिये वहां आठ की जगह ७ सात परीषह ही संभवित होते हैं, फिर आठ की संभावना कैसे कही गई है ? यदि दर्शनमोहनीय के उदय के अभाव में भी दर्शनमोहनीय की सत्ता की अपेक्षा से दर्शनपरीषह भी है ऐसा कहा जाय तो उपशमक होने पर सूक्ष्मसंपराय वाले के भी मोहनीय की सत्ता के सद्भाव से उसके उदय से होनेवाले सर्व परीषह नहीं मानना चाहिये क्यों कि न्याय सर्वत्र समान होता है। કરે છે આ કારણે તે વીસ પરીષહોનું વેદન કરે છે આ કથન સમીચીન જ છે. શંકા–જે સંયત અનિવૃત્તિ બાદર સંપરાયવાળા છે તેના મોહનીયથી સંભવિત આઠ પરીષહેની સંભાવના કેવી રીતે બની શકે? કેમકે દર્શનસતકનું ઉપશમ થવાથી એ બાદર કષાયવાળા સંયતના દર્શન મેહનીયના ઉદયના અભાવથી દર્શનપરીષહ તે થશે નહીં. આ માટે ત્યાં આઠની જગ્યાએ સાત પરીષહ જ સંભવીત દેખાય છે. છતાં આઠની સંભાવના કેમ કહેવાઈ છે? કદાચ દર્શન મોહનીયના ઉદયના અભાવમાં પણ દર્શન મોહનીયની સત્તાની અપેક્ષા દર્શનપરીષહ પણ છે. એવું કહેવામાં આવે તે ઉપશામક હોવા છતાં સૂક્ષ્મ સંપરાયવાળાને પણ મોહનીયની સત્તાના સદુભાવથી તેના ઉદયથી થનાર સર્વ પરીષહ ન માનવા જોઈએ. કારણ કે, ન્યાય સર્વત્ર સમાન હોય છે. ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #616 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रियदर्शिनी टीका. अ० २ गा० ४५छमस्थपरीषहाणां मेदाः सम्यक्त्व-मोहनीयरूपस्य बृहति भागे उपशान्ते, शेषे चानुपशान्ते एवं स्यात् । नपुंसकवेदं चासौ दर्शनत्रयस्य शेषांशेन सहोपशमयितुं प्रवर्तते, ततश्च नपुंसकवेदोपशमावसरे अनिवृत्तिबादरसंपरायस्य सतो दर्शनमोहनीयस्य प्रदेशत उदयोऽस्ति, न तु दर्शनमोहनीयस्य सत्तामात्रम् , ततस्तनिमित्तको दर्शनपरीषहस्तस्यास्ति, ततश्चाष्टायपि परीषहान् वेदयति।। उत्तर-यह अनिवृत्तिवादरसंपराय वाला संयम दर्शनससक के उपशम होने के ऊपर ही नपुंसकवेदादिक के उपशमकाल में होता है। इसके दर्शनमोहनीय का उदय प्रदेश की अपेक्षा से माना गया है। वह इस प्रकार - दर्शनसप्तक के अन्तर्गत जो मिथ्यात्व, मिश्र, सम्यक्त्वमोहनीय, ये तीन दर्शन हैं, इनका अधिक से अधिक जब उपशमन हो जाता है तथा कुछ भाग अनुपशान्त रहता है तब नपुंसकवेद को यह इसी अनुपशान्त दर्शनत्रय के भाग के साथ २ उपशांत करने के लिये प्रवृत्त होता है, इसलिये नपुंसकवेद के उपशमन के काल में इस अनिवृत्तिबादसंपराय वाले संयत के दर्शनमोहनीय का प्रदेश की अपेक्षा से उदय माना गया है, अतः दर्शनमोहनीय का इसके केवल सत्तामात्र ही नहीं है, प्रदेशोदय भी है । इससे उसके दर्शनमोहनीय उदय जन्य परीषह है ऐसा मानना चाहिये इससे वहां बह आठ परीषहों का वेदन करता है। ઉત્તર–આ અનિવૃત્તિ બાદર સંપરાયવાળા સંયમદર્શનસસકને ઉપશમ થવાના ઉપર જ નપુંસકદાદિકના ઉપશમ કાળમાં થાય છે. એના દર્શનમેહનીયને ઉદય પ્રદેશની અપેક્ષાથી માનવામાં આવેલ છે તે આ પ્રકારેદર્શન સપ્તકના અંતર્ગત જે મિથ્યાત્વ, મિશ્ર, સમ્યક્ત્વ મેહનીય આ દર્શનત્રય છે. એમને અધિકથી અધિક ભાગ જ્યારે ઉપશાંત થઈ જાય છે તથા છેડા ભાગ અનુશાંત રહે છે ત્યારે નપુંસકવેદને આ એજ અનુપશાન્ત દર્શનત્રયના ભાગની સાથે સાથે ઉપશાંત કરવા માટે પ્રવૃત્ત થાય છે. આ માટે નપુંસક વેદના ઉપશમના કાળમાં આ અનિવૃત્તિ બાદર સંપાયવાળા સંયતના દર્શન. મેહનીયના પ્રદેશની અપેક્ષાથી ઉદય માનવામાં આવેલ છે. આથી દર્શન મોહનીયને એમાં કેવળ સત્તા માત્ર નથી, પ્રદેશદય પણ છે. આથી એના દર્શન મોહિનીય ઉદયજન્ય દર્શનપરીષહ છે. એમ માનવું જોઈએ. આથી ત્યાં તે આઠ પરિષહેનું વેદન કરે છે. उ०७१ ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #617 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययनस्वे एते च परीषहा द्विविधा:-द्रव्यपरीषहा भावपरीषहाश्च । तत्र द्रव्यपरीपहा नाम ये इहलोक निमित्तका वधबन्धमादयः परवशादधिसह्यन्ते ते । भावपरीषहा ये संसारोच्छेदनार्थमनाकुलेन मनसाऽधिसबन्ते । अत्र शास्त्रे भावपरीषहाणामेवाधिकारा। अथ छन्मस्थपरीषहाणां भेदाः___ ज्ञानावरणीयादिघातिकर्मचतुष्टयं छद्म, तत्र तिष्ठतीति छअस्था कषायसहितः, स पञ्चमिः परीपहादिसहनालम्बनरूपैः स्थानैरुदितान् परीषहोपसर्गान् सम्यक तत्कषायोदयनिरोधाऽऽदिना सहेत-विचलितो न भवेत् , क्षान्त्या क्षमेत, अदीनतया तितिक्षेत, अध्यासीत परीषहादावेव आधिक्येनासीत, न चले। - ये परीषह दो प्रकार के हैं-एक द्रव्यपरीषह दूसरा भावपरीषह । इस लोकसंबंधी जो वध बंधन आदिक परवशता से सहन किये जाते हैं वे द्रव्यपरीषह हैं। संसार बंधन को नष्ट करने के लिये भव्य संयमीजनों द्वारा जो विना किसी आकुलता के सहन किये जाते हैं वे भावपरीपह हैं। इस शास्त्र में इन्हीं भावपरीषहों को सहन करने का उपदेश है, और उसी निमित्त यह अधिकार है। ___छद्मस्थपरीषहों के भेद-ज्ञानावरणीय आदि चार घातियाकर्म का नाम छम है । इस छन में जो रहता है उसका नाम छमस्थ है। ऐसा संयमी जीव कषायसहित होता है । उसे पांच स्थानों से उदित परीषहों एवं उपसर्गों को कषाय के उदय का निरोध आदि करते हुए सहन करना चाहिये । शान्तिभाव से अविचलित होकर उसे उस समय घबराना नहीं चाहिये । परीपह आदि के स्थान में ही अपने आपको આ પરીષહ બે પ્રકારના છે–એક દ્રવ્યપરીષહ બીજે ભાવપરીષહ. આ લોક સંબંધી જે વધ બંધન આદિક પરવશતાથી સહન કરવામાં આવે છે તે દ્રવ્યપરીષહ છે. સંસાર બંધનને નષ્ટ કરવા માટે ભવ્ય સંયમી જને દ્વારા જે કોઈ પ્રકારની વ્યાકુળતા વગર સહન કરવામાં આવે છે તે ભાવપરીષહ છે. આ શાસ્ત્રમાં તે ભાવપરીષહેને સહન કરવાને ઉપદેશ છે અને એ નિમિત્તે આ અધિકાર છે. छ५२०५शेषलोन लेहજ્ઞાનાવરણીય આદિ ચાર ઘાતીયા કર્મનું નામ છ% છે. આ છઘમાં જે રહે છે તેનું નામ છદ્મસ્થ છે. એવા સંયમી જીવ કષાય સહીત છે. એને પાંચ સ્થાનોથી ઉદિત પરીષહ અને ઉપસર્ગોને કષાયના ઉદયને નિરોધ આદિ સમજીને સહન કરવા જોઈએ શાંતિભાવથી અવિચલીત બનીને તેણે એ સમયે તેનાથી ગભરાવું ન જોઈએ. પરીષહ આદિના સ્થાનમાં જ પિતે પિતાને અધિકથી ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #618 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रियदर्शिनी टीका. अ० २ गा० ४५ उद्मस्थपरीषहाणां मेदाः तत्र प्रथमं स्थानम् - उदितकर्मा । उदितं प्रवलं वा कर्म - मिथ्यात्वमोहनीयादि यस्य स तथा, खलु अयं पुरुष उन्मत्तकभूतो मदिरादिना विप्लुतचित्त इवास्ति, तेन कारणेन 'मामयमाक्रोशति वा, अपहसति वा, निच्छोटयति-हस्तादौ गृहीत्वा बलात् क्षिपति वा, दुर्वचनैर्निर्भत्सयति वा, रज्ज्वादिना बध्नाति वा, कारागार - प्रवेशनादिना रुणद्धि वा, छविच्छेदं - छवेः शरीरावयवस्य हस्तादेश्छेदं करोति वा, मारणस्थानं नयति वा, मारयति वा, अपद्रावयति वा, उपद्रवं करोति वा, वस्त्रं, अधिक से अधिक समय तक रखना चाहिये ताकि उनके सहन करने की क्षमता आत्मा में आती रहे। पांच स्थानों में सर्वप्रथम स्थान उदितकर्मा है - मिथ्यात्व मोहनीय आदि कर्म जिसका प्रबलरूप से उदय में आरहा है ऐसा जीव उदितकर्मा है । इस प्रथमस्थान को लेकर जब परीषह एवं उपसर्गों का निपात संयत के ऊपर हो तब उसे यह विचार करना चाहिये कि यह पुरुष उदितकर्मा है - इसका मिथ्यात्वमोहनीयादिक कर्म प्रबलरूप से उदय में आरहा है, इसलिये यह उन्मत्त जैसा हो रहा है-मदिरा के पान से जिस प्रकार मनुष्य होश हवाश खो बैठता है उसी तरह का यह बना हुआ है, इसी कारण यह मेरे प्रति रुष्ट हो रहा है, मेरी हँसी मजाक करता है, हाथ पकड़ कर मुझे खेचता है, दुर्वचनों से मेरा तिरस्कार करता है, रस्सी आदि से मुझे बांधता है, कारागार में मुझे बंध करता है, मेरे शरीर के अवra को छेदता है, वधस्थान पर मुझे ले जाता है, मारता है, मुझे यहां ५६३ અધિક સમય સુધી રહેવુ જોઇએ. જેથી તેને સહન કરવાની સમતા આત્મામાં આવતી રહે. પાંચ સ્થાનમાં સર્વપ્રથમ સ્થાન ઉદિત કર્મો છે. મીથ્યાત્વ માહનીય આદિ ક્રમ જેનું પ્રમળ રૂપથી ઉદયમાં આવી રહેલ છે એવા જીવ ઉદ્વૈિત કર્યાં છે. આ પ્રથમ સ્થાનને લઈને જ્યારે પરીષહ અને ઉપસોના નિપાત સાધુ સંયતની ઉપર હોય ત્યારે તેણે એ વિચાર કરવા જોઈ એ કે આ પુરૂષ ઉદિત કર્યાં છે. તેનું મિથ્યાત્વ માહનીયાદિક કમ પ્રબળ રૂપથી ઉદયમાં આવી રહેલ છે આથી જ તે ઉન્મત્ત જેવા મની રહેલ છે. મદિરાના પાનથી જેવી રીતે મનુષ્ય શુદ્ધિ બુદ્ધિ ખાઈ બેસે છે એવી રીતનું આ બનેલ છે. આ કારણથી તે મારા તરફ રૂષ્ટ ખની રહેલ છે, મારી હાંસી મજાક કરે છે, હાથ પકડીને મને ખેંચે છે. દુચનાથી મારા તિરસ્કાર કરે છે, દોરડા આદિથી મને ખાંધે છે, કારાગારમાં મને બંધ કરે છે, મારા શરીરના અવયવાને છેદે છે, વષસ્થાન ઉપર મને લઈ જાય છે, મારે છે, મને ત્યાંથી ભગાડે છે, મારા ઉપર ઉપદ્રવ ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર ઃ ૧ Page #619 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६४ उत्तराध्ययन सूत्रे पात्रं, कम्बलं, पादप्रोव्छनं, सदोरकमुखवस्त्रिकां रजोहरणं वा आच्छिनत्ति= बलादुद्दालयति वा, विच्छिनत्ति - विच्छिन्नं करोति दूरे व्यवस्थापयति वा, अथवा वस्त्रमीषच्छिनत्ति- आच्छिनत्ति, विशेषेण छिनत्ति - विच्छिनत्ति । भिनत्ति = पात्रं स्फोटयति वा, अपहरति = चोरयति वा । इदं चाक्रोशादिकमत्र आक्रोशवधाभिधानपरीषहद्वयरूपं मन्तव्यम् । उपसर्गविवक्षायां तु मानुष्यकमाद्वेषिकाद्युपसर्गरूपमिति प्रथमं स्थानम् । तथा - अयं परीषहोपसर्गकारी, मिथ्यात्वादिकर्मवशवर्ती पुरुषो यक्षाऽऽविष्टः = देवाधिष्ठितः तेन कारणेन मामाक्रोशतीत्यादि । इति द्वितीयं स्थानम् । तथा - मम तद्भववेदनीयं कर्म उदितमस्ति, ते नैष मामाक्रोशतीत्यादि । तेनैव मानुष्यकेण भवेन वेद्यते = अनुभूयते यत्तत्, तद्भववेदनीयम् । इति तृतीयं स्थानम् । से भगाता है, मेरे ऊपर उपद्रव करता है, वस्त्र, पात्र, कम्बल, पादप्रोच्छन, दोरासहित मुखवस्त्रिका रजोहरण आदि मेरे छुड़ाता है, और छुड़ाकर उन्हें दूर फेंक देता है, अथवा उन्हें झटकता है उन्हें फोड़ता है, चुराता है । ये आक्रोश आदि यहां पर आक्रोश एवं वधपरीषहरूप मानना चाहिये। जिस समय उपसर्ग की विवक्षा में ये आक्रोशादिक हों उस समय इनको मनुष्यकृत अथवा किसी द्वेषीकृत उपसर्ग में परिगणित करना चाहिये । इस प्रकार यह प्रथमस्थान है । द्वितीय स्थान में यह विचार करना चाहिये कि मिथ्यात्वादिकर्मवशवर्ती यह परीषह एवं उपसर्गकारी पुरुष किसी देव से अधिष्ठित हो रहा है । इसी कारण यह मुझे आक्रोश आदि से पीडित कर रहा है । यह द्वितीय स्थान है । १रे छे, वस्त्र, यात्र, उभ्भस, याहयोग्छन, होरा सहित भुग्भवस्त्रि, रोडराय આદિ મારી પાસેથી ખસેડે છે, ખસેડીને તેને દૂર ફેંકી ઢે છે, અથવા તેને ઝાટકે છે, તેને ફાડે છે, ચારાવે છે, એ આક્રોશ આદિ સર્વને આ સ્થળે આક્રોશ અને વધ પરીષહરૂપ માનવા જોઈ એ. જે સમયે ઉપસની વિવક્ષામાં એ આક્રોશ આફ્રિક થાય તે સમયે એને મનુષ્યકૃત અથવા કોઈ દ્વેષીકૃત ઉપસમાં પરિગણીત કરવુ જોઈએ. એ પ્રકારે આ પ્રથમ સ્થાન છે. ખીજા સ્થાનમાં–એ વિચાર કરવા જોઈ એ કે, મિથ્યાત્વ આદિ કર્મના વશવતી આ પરીષહ અને ઉપસ કારી પુરૂષ કાઈ દેવથી અધિષ્ઠિત થઈ રહેલ છે. આ કારણથી મને આક્રોશ વગેરેથી પીડા આપી રહેલ છે. આ બીજું સ્થાન છે. ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર ઃ ૧ Page #620 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रियदर्शिनी टीका अ० २ गा. ४५ केवलीपरीषहाणां भेदाः तथा-एष बालः पापभयरहितत्वात् करोतु नाम आक्रोशनादि, मम पुनर सहमानस्य अक्षममाणस्य अतितिक्षमाणस्य अनध्यासमानस्य, सर्वथा असावादि पापकर्म संपद्यते । इति चतुर्थ स्थानम् । तथा-एष बालः पापभयरहितत्वात् करोतु नाम आक्रोशनादिकं, मम पुनः खलु सम्यक सहमानस्य यावत् अध्यासमानस्य किं संपद्यते, अयं तावत् पापं बध्नाति मया च एकान्तेन निर्जरा क्रियते । इति पञ्चमं स्थानम् । __ तृतिय स्थान में ऐसा विचार करें कि यह तो बाल है, पाप के भय से रहित होने के कारण भले ही यह आक्रोश आदि करता रहे, परन्तु मेरा कर्तव्य तो इनको सहन करने का ही है । यदि मैं इनको सहन नहीं करता हूं-सहन में साहस को छोड़ देता हूं, इनसे यदि घवरा जाता हूं तो मुझे असाता आदि पापकर्म का नियमतः बंध होगा। इस प्रकार यह चतुर्थ स्थान है। पंचमस्थान में संयमी को ऐसा विचार करना चाहिये कि यह परीषह एवं उपसर्गकारी व्यक्ति पाप के भय से रहित होने के कारण बाल है, इसकी इच्छा है यह आक्रोशादिक करे । इससे मेरा बिगडता क्या है ? मुझे तो उल्टा फायदा ही है, क्यों कि उपसर्ग और परीपह को समतापूर्वक सहन करनेवाले के एकान्ततः कमों की निर्जरा होती है, परन्तु यह उपसर्ग परीषहकारी पुरुष पाप का बंध करता है । यह पंचम स्थान है। ત્રીજા સ્થાનમાં-એવો વિચાર કરે કે, આ તે બાળ છે, પાપના ભયથી રહિત થવાના કારણે ભલે એ આક્રોશ અદિ કરતો રહે પરંતુ મારું કર્તવ્ય તે એને સહન કરવાનું જ છે. જે હું તેને સહન કરતું નથી. તે સહિષગુતાના ગુણથી વિમુખ થાઉં છું. જે તેનાથી હું ગભરાઈ જાઉ છું, તે મને અસાતા આદિ પાપ કર્મને નિયમતઃ બંધ થશે. આ પ્રકારે આ ચોથું સ્થાન પણ છે. પાંચમા સ્થાનમાં-સંયમીએ એ વિચાર કરવો જોઈએ કે, આ પરીષહ અને ઉપસર્ગ કરનાર વ્યક્તિ પાપના ભયથી રહિત હેવાના કારણે બાળ છે. તેની ઈચ્છા છે કે, આ આક્રોશ આદિ કરે પણ તેથી મારું બગડે છે ? મને તે એથી ઉલટે ફાયદેજ છે. કારણકે ઉપસર્ગ અને પરીષહને સમતા પૂર્વક સહન કરનારને એકાન્તતઃ કર્મોની નિર્જરા થાય છે. પરંતુ દયાની વાત એ છે કે ઉપસર્ગ પરીષહકારી પુરૂષ તે કેવળ પાપનેજ બંધ કરે છે. આ પાંચમું સ્થાન છે. ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #621 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६६ उत्तराध्ययनसूत्रे इत्येतैः पञ्चमिः स्थानश्छद्मस्थसंयतः उदितान् परीषहोपसर्गान् सम्यक् सहेत, क्षमेत, तितिक्षेत, अध्यासीत । अथ केवलिपरोषहाणां भेदाः पञ्चभिः स्थानैः केवली उदितान् परीषदोपसर्गान् सम्यक सहेत यावत्अध्यासीत । तद् यथा-क्षिप्तचित्तः पुत्रशोकादिना नष्टचित्तः खलु अयं पुरुषः, तेन कारणेन-एष पुरुषो मामाक्रोशति वा तथैव यावत् अपहरति वा। इति प्रथम स्थानम् । ___ तथा-अयं पुरुषो हर्षाधिक्याद् दृप्तचित्तोऽस्ति, पुत्रजन्मादि जनितहर्षेण गर्वितोऽस्ति, तेन कारणेन एष पुरुषो मामाक्रोशति यावत् अपहरति वा । इति द्वितीय स्थानम् । ___इस प्रकार इन पूर्वोक्त पांच स्थानों से उदित परीषह एवं उपसर्गों को सम परिणाम से युक्त हो कर साधु को सहन करना चाहिये । उन से घबराना नहीं चाहिये। केवलीपरीषहों के भेद केवली पांच स्थानों से उदित परिषहों को सहन करते हैं, यावत् अध्यासित करते हैं - अर्थात् सम्यकरूपसे सहन करते हैं । प्रथम स्थानमें वे यह विचार करते हैं कि-यह पुरुष पुत्रशोक आदि से विक्षिसचित्त है-इसका चित्त ठिकाने पर नहीं है इस कारण यह मेरे प्रति आक्रोश आदि कर रहा है। द्वितीयस्थानमें वे यह विचार करते हैं कि यह पुरुष हर्षातिरेकसे हप्तचित्त है-पुत्रोत्पत्ति आदि जनित हर्ष से गवित हो रहा है इस कारण यह मेरे प्रति आक्रोश आदि चेष्टाएँ कर रहा है। આ પ્રકારનાં એ પૂર્વોકત પાંચ સ્થાનેથી ઉદિત પરીષહ અને ઉપસર્ગોને સમપરિ ણામથી યુકત બનીને સાધુએ સહન કરવા જોઈએ. એનાથી ગભરાવું ન જોઈએ. કેવલીપરીષહના ભેદ– કેવલી પાંચ સ્થાનોથી ઉદિત પરીષહેને સહન કરે. યાવત્ અધ્યાસિત કરે. પ્રથમ સ્થાનમાં તે વિચાર કરે કે આ પુરૂષ પત્રક આદિથી ચિત્તભ્રમ સ્થિતિમાં છે. જેનું ચિત્ત ઠેકાણે નથી તે કારણે તે મારા ઉપર આકાશ આદિ કરી રહેલ છે. બીજા સ્થાનમાં તે એ વિચાર કરે કે, આ પુરૂષ હર્ષના આવેશમાં કુલાઈ ગયેલ છે, પુત્રોત્પત્તિ વગેરેના કારણથી તે હર્ષથી છકી ગયેલ છે. આ કારણે એ મારા તરફ આક્રોશ વગેરે ચેષ્ટાઓ કરે છે. ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #622 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रियदर्शिनी टीका अ०२ गा. ४५-४६ अध्ययनोपसंहारः तथा—यक्षाविष्टः खलु अयं पुरुषः, तेन कारणेन एष पुरुषो मामाकोशति यावत्-अपहरति वा । इति तृतीय स्थानम् । तथा-मम पुनः खलु तद्भववेदनीयं कर्म उदितम् । तेन कारणेन एष पुरुषों मामाकोशति यावत्-अपहरति वा । इति चतुर्थ स्थानम् । तथा-मां पुनः खलु सम्यक् सहमानं क्षममाणं तितिक्षमाणम् अध्यासमान दृष्ट्वा बहवोऽन्ये छमस्थाः श्रमणा निर्ग्रन्था उदितान् परीषहोपसर्गान् एवं सम्यक् सहिष्यन्ते यावत् अध्यासिष्यन्ते । इति पञ्चमं स्थानम् ॥ ___ इत्येतैः पञ्चभिः स्थानः केवली उदितान् परीषहोपसर्गान् सम्यक् सहेत यावत् अध्यासीत । एतत् स्थानाङ्गसूत्रे स्पष्टम् । (स्था ५ ठा. १ उ०) ॥ ४५ ॥ ____ तृतीयस्थान में वे यह विचार करते हैं कि यह परीषह एवं उपसर्गकारी व्यक्ति यक्षाविष्ट हो रहा है इस कारण मेरे प्रति आक्रोश आदि कर रहा है। __चतुर्थस्थान में वे ऐसा विचार करते हैं कि मेरे इसी भव का वेदनीय कर्म उदित हो रहा है इस कारण यह पुरुष मेरे प्रति आक्रोशा. दिक कर रहा है। _____पंचमस्थान में ऐसा विचार करते हैं-मुझे इन परीषह एवं उपसर्गों को अच्छी तरह सहन करते हुए देखकर अन्य अनेक छअस्थ श्रमण निर्ग्रन्थ उदितपरीषहों एवं उपसर्गोको सहन करेंगे, उनके सहन करने में चलायमान नहीं होवेंगे-सहन करते समय धैर्य धारण करेंगे। इस प्रकार इन पांच स्थानों से परीषहों एवं उपसर्गों को सहन आदि करते हैं । यह स्थानासूत्र में स्पष्ट लिखा हुआ है । (स्था.५ उ.१॥४॥ ત્રીજા સ્થાનમાં એ વિચાર કરે કે, આ પરીષહ અને ઉપસર્ગ કરનાર વ્યક્તિ યથાવિષ્ટ થઈ રહેલ છે. આ કારણે તે મારા તરફ આક્રોશ વગેરે કરી રહેલ છે. રોથા સ્થાનમાં એવો વિચાર કરે છે કે, મારાં આ ભવનાં વેદનીય કર્મ ઉદયમાં આવેલ છે, અને તે કારણને લઈ આ પુરૂષ મારા તરફ આક્રોશ કરી રહેલ છે. પાંચમા સ્થાનમાં એ વિચાર કરે છે કે, મને આવા પરીષહ અને ઉપસર્ગોને સારી રીતે સહન કરતાં જોઈને અન્ય અનેક છઘસ્થ નિગ્રન્થ શ્રમણ ઉદિત પરીષહ અને ઉપસર્ગોને સહન કરશે. તેના સહન કરવામાં ચલાયમાન નહીં થાય અને સહન કરતી વખતે ધર્મ ધારણ કરતા રહેશે. આ પ્રકારે એ પાંચે સ્થાનેથી પરીષહ અને ઉપસર્ગોને સહન કરે. આ સ્થાનાગસૂત્રમાં સ્પષ્ટ લખેલ છે. (સ્થા. પ ઉ૦૧) ૪૫ ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #623 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १ . उत्तराध्ययनसूत्रे अध्ययनार्थमुपसंहरनाहमलम-एए परीसहा सव्वे, कॉसवेणं पवेइया । जे भिक्खू 0 विहम्मेज्जी, पुट्ठोकणइ कण्हुइ ॥४६॥त्तिबेमि॥ ॥बीयं परिसहज्झयणं समत्तं ॥ छाया-एते परीषहाः सर्वे, काश्यपेन प्रवेदिताः। ___ यान् भिक्षुर्न विहन्येत, स्पृष्टः केनापि कस्मिंश्चित् ॥४६।। इति ब्रवीमि ॥ टीका-'एए' इत्यादि। एते सर्वे परीषहाः काश्यपेन-काश्यपगोत्रोत्पन्नेन भगवता श्रीवर्धमानस्वामिना तीर्थकरेण प्रवेदिताः-प्रतिबोधिताः । यान्=परीपहान् ज्ञात्वा भिक्षुः केनापि परीषहेण कस्मिंश्चित् स्थाने स्पृष्टः सन् 'न विहन्येत=न पराजितो भवेत् , संयमात् अब अध्ययन के अर्थ का उपसंहार करते हुए सूत्रकार कहते हैं'एए' इत्यादि। अन्वयार्थ-(एए परीसहा-एते पराषहाः) ये २२ बाईस परीषह (कासवेण-काश्यपेन ) काश्यपगोत्रोत्पन्न तीर्थकर भगवान् श्रीमहावीर स्वामीने (पवेड्या-प्रवेदिताः' कहे हैं। (जे-यत्) जिनको जानकर (भिक्खू-भिक्षुः) भिक्षु (केणइ-केनापि) किसी भी परीषह से (कण्हुइ-कुत्रचित्) किसी स्थान में आक्रान्त होने पर (ण विहम्मेज्जा-न विहन्येत) पराजित नहीं હવે અધ્યયનના અર્થને ઉપસંહાર કરતાં સૂત્રકાર કહે છે – 'एए' त्यादि मन्वयार्थ-एए परीसहा-एते परीषहाः २ मावीस परीषड कासवेण-काश्यपेन ४।२५५पन्न तीथ ४२ भगवान श्री महावीर स्वाभा-ये पवेइया-प्रवेदिताः ४ख छ. जे-यत्नेने angीन भिक्खू-भिक्षुः । ५७ भिक्षु केणइ-केनापि पशषडया कण्हुइ-कुत्रचित् ।। स्थानमा unia थपाथी ण विहम्मेज्जा-न विहन्येत सयमयी भिक्षु पतित न थाय. " इति ब्रवीमि " 0 प्रारंभु ! मपान र ४घु છે તેવું જ મેં કહ્યું છે. મારી પતાની બુદ્ધિની કલ્પનાથી કાંઈ પણ કહેલ નથી. ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #624 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रियदर्शिनी टीका अ० २ गा. ४६ द्वितीयाध्ययनसमाप्तिः पतितो न भवेदित्यर्थः । इति ब्रवीमि-भगवता यथा प्रतिबोधितं, तथा कथयामि न तु स्वबुद्धया प्रकल्प्येति भावः ॥ ४६ ॥ इति श्रीविश्वविख्यात-जगद्वल्लभ-प्रसिद्धवाचक-पञ्चदशभाषाकलितललितकलापालापक-प्रविशुद्धगधपद्यनैकग्रन्थनिर्मायकवादिमानमर्दक-श्रीशाहूछत्रपति- कोल्हापुरराजप्रदत्त" जैनशास्त्राचार्य "-पदभूषित-कोल्हापुरराजगुरुबालब्रह्मचारि-जैनाचार्य-जैनधर्मदिवाकर-पूज्यश्रीघासीलालवतिविरचितायां श्रीमदुत्तराध्ययनमूत्रस्य प्रियदर्शिन्याख्यायां व्याख्यायां परीषहनामकं द्वितीयमध्ययनं सम्पूर्णम् ॥ २॥ -(०)होवे-संयम से पतित नहीं होवे। " इति ब्रवीमि" इस प्रकार हे जम्बू। भगवान ने जैसा कहा है मैंने वैसा ही कहा है। अपनी बुद्धि से कल्पित कर कुछ नही कहा है। ___ भावार्थ-अध्ययन की समाप्ति करते हुए सूत्रकार कहते हैं कि जो साधु इन परीषहों से पराजित नही होता है वह संयम को ठीक २ आराधना करता है । ये बाईस परीषह मैंने नहीं कहे हैं, भगवान् महावीरने कहे हैं। अतः इनका स्वरूप जानकर इनके सहन करने में प्रत्येक संयत को सावधान रहना चाहिये। ॥ यह द्वितीय परीषहअध्ययन समाप्त हुआ ॥२॥ ભાવાર્થ—અધ્યયનની સમાપ્તિ કરતાં સૂત્રકાર કહે છે કે, જે સાધુ આ પરીષહેથી પરાજીત નથી થતાં, તે સંયમની ઠીક ઠીક આરાધના કરે છે. આ બાવીસ પરીષહ મેં કહ્યા નથી ભગવાન મહાવીરે કહ્યા છે આથી એનું સ્વરૂપ જાણીને તેને સહન કરવામાં પ્રત્યેક સંતે સાવધાન રહેવું જોઈએ. આ બીજું પરીષહ નામનું અધ્યયન સમાપ્ત થયું રા उ०७२ ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #625 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५७० उत्तराध्ययनसूत्रे ॥ अथ तृतीयमध्ययनम् ॥ परीषहनामकं द्वितीयमध्ययनमुक्तम् । अथ तृतीयं चतुरङ्गीयमध्ययनं प्रारभ्यते । अस्य चायमभिसम्बन्धः - इहानन्तराध्ययने परीषाहाः सोढव्या इत्युक्तम्, तत्र किमालम्बनं कृत्वा ते सोढव्याः ? ' इत्याकाङ्क्षायां चतुर्णामङ्गानां दुर्लभत्वमेव तत्रालम्बनमिति बोधयितुं चतुरङ्गीयनामकमिदं तृतीयमध्ययनमुच्यते, तत्रादौ तेषां नामानि निर्दिशन्नाह - 4 तृतीय अध्ययन परीषामक द्वितीय अध्ययन कहा जा चुका है। अब चतुरंगीयनामक तृतीय अध्ययन प्रारंभ होता है । द्वितीय अध्ययन के बाद इस अध्ययन का प्रारंभ करने का सूत्रकार का यह उद्देश्य हैं कि जो द्वितीय अध्ययन में " परीषह सहन करना चाहिये " ऐसा कहा है सो वहां पर ऐसा प्रश्न होता है कि "इन परीषहों को किसका अवलम्बन लेकर सहन करना चाहिये " । इसके समाधान निमित्त ही इस तृतीय अध्ययन का प्रारंभ है । इसमें यह बतलाया जायगा कि चार परमउत्कृष्ट अंगों की प्राप्ति महादुर्लभ है। ये चार अंग बड़े पुण्य से मिले हैं, ऐसा समझकर मुनि परीषहों को सहन करते हैं, वे ही चार अंग यहां अवलम्बन - आधार रूप है अतः उन चार अंगोंको यहां बतलाते हैं'चन्तारि - इत्यादि । અધ્યયન ત્રીજું પરીષહુ નામનું ખીજું અધ્યયન કહેવાઈ ગયું. હવે ચતુર'ગિય નામનુ ત્રીજું અધ્યયન શરૂ થાય છે. ખીજા અધ્યયન પછી આ ત્રીજા અધ્યયનના પ્રારંભ કરવાના સૂત્રકારના એ ઉદ્દેશ છે કે, ખીજા અધ્યયનમાં “ પરીષહુ સહન કરવા જોઈએ ” એવુ કહેલ છે. તેમાં એવા પ્રશ્ન ઉત્પન્ન થાય છે કે, આ પરીષહેાને કાનું અવલંબન લઈ ને સહન કરવા જોઇ એ. એના સમાધાન નિમિત્તે જ આ ત્રીજા અધ્યયનના પ્રારભ છે. આમાં એ વાત બતાવવામાં આવે છે કે, ચાર પરમ-ઉત્કૃષ્ટ અંગાની પ્રાપ્તિ મહા દુર્લભ છે. એ ચાર અંગ ઘણા પુન્યથી મળે છે. એવું સમજીને મુનિ પરીષહાને સહન કરે. એ ચારે અંગ અહી અવલંબન આધાર રૂપ છે. આથી એ ચાર અગાને અહીં અતાવવામાં આવેલ છે. ' चत्तारि ' इत्याहि. ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર ઃ ૧ Page #626 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रियदर्शिनी टीका अ० ३ गा. १ अङ्गचतुष्टयस्य दुर्लभत्वम् मूलम् - चत्तारि परमंगाणि, दुलहाणीह जंतुणो । माणुसतं सुई सद्धा, संजमम्मि ये वीरियं" ॥१॥ छाया - चत्वारि परमाङ्गानि, दुर्लभानि इह जन्तोः । मानुषत्वं श्रुतिः श्रद्धा, संयमे च वीर्यम् ॥ १ ॥ टीका - ' चत्तारि ' इत्यादि । इह = संसारे चत्वारि परमाङ्गानि - परमाणि उत्कृष्टानि, अङ्गानि = साधनानिमुक्तिमाप्तिकारणानि, जन्तोः = प्राणिनः, दुर्लभानि - दुःखेन लभ्यानि, नरकनिगोदाद्यनन्तजन्ममरणानन्तरप्राप्यत्वात् । तानि धर्मप्राप्तेः प्रधानकारणानि चत्वारि । कानि ? इत्यत आह- ' माणुसतं ' इत्यादि । मानुषत्वं = मनुष्यजन्म, श्रुतिः= धर्मस्य श्रवणम्, श्रद्धा = धर्मे रुचि, च = पुनः संयमे आस्रवविरमणरूपे विरतिलक्षणे सप्तदशविधे वीर्यं विशेषेण ईरयति प्रवर्तयति आत्मानं तासु तासु क्रियासु इति वीर्य = सामर्थ्यम् । एतानि चत्वारि जीवस्य दुर्लभानि सन्तीति । ५७१ अन्वयार्थ - ( इह ) इस संसार में ( चत्तारि परमंगाणि चत्वारि परमाङ्गानि ) मुक्तिप्रापक ये चार अंग ( जंतुणो-जन्तोः ) प्राणि को ( दुल्लहाणि - दुर्लभानि ) महादुर्लभ हैं- नरक निगोदादिक में अनन्त जन्म कर लेने के बाद जीवों को प्राप्त होते हैं । धर्मप्राप्ति के प्रधान कारण चार अंग ये हैं- ( माणुसतं मानुषत्वम्) १ मनुष्यजन्म, (सुई - श्रुतिः) २ धर्म का श्रवण, (सद्धा - श्रद्धा ) ३ धर्म में श्रद्धा रुचि (य-च) और ( संजमम्मिय वीरियं - संयमे वीर्यम् )४ आस्रव का विरमणरूप जो १७ सत्रह प्रकार का संयम है उसमें विशेषरूप से शक्ति के अनुरूप प्रवृत्ति । ये चार बातें जीवके लिये प्राप्त होना महादुर्लभ हैं । अन्वयार्थ – इह मा संसारभां चत्तारि परमंगाणि - चत्वारि परमाङ्गानि भुति आपनार मे यार अंग जंतुणो-जंतोः प्रणीने दुल्लहाणि - दुर्लभानि भड्डा दुर्बल છે. નરક નિગેાદાદિકમાં અનંત જન્મ કરી લીધા પછી જીવાને પ્રાપ્ત થાય छे. धर्म आप्तिनुं प्रधान आशु मा यार मंग छे माणुसत्तं मानुष्यत्वम् १ भनुष्य ४न्भ, सुई - श्रुतिः २ धर्मनुं श्रवसद्धा श्रद्धा 3 धर्मभां श्रद्धा-३थी य च मने संजयम्मि वीरियं-संयमे वीर्यम् ४ भावना विरभा३य ने सत्तर प्रहारनो संयभछे તેમાં વિશેષરૂપથી શક્તિની અનુરૂપ પ્રવૃત્તિ આ ચારે વાતા જીવ માટે પ્રાપ્ત થવી મહા કુલ છે. ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર ઃ ૧ Page #627 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५७२ उत्तराध्ययनसूत्रे एतदङ्गचतुष्टयं हि गिरिषु मेरुरिव, तरुषु कल्पतरुरिव, धातुषु सुवर्णमिव, पानेषु पीयूषमिच, मणिषु चिन्तामणिरिव, प्रामाणिकपुरुषेषु तीर्थकर इव, धेनुषु कामधेनुरिव, मनुष्येषु चक्रवर्तीव, देवेषु शक्र इव प्रधानमस्तीति सूचनार्थ 'परमंगाणि' इत्यत्र परमेति विशेषणम् । ननु मानुषत्वादीनां कथं परमाङ्गत्वम् निर्जराया एवं मुक्तिप्राप्तौ साक्षात् कारगत्वेन प्राधान्यादिति चेत् ? उच्यते-मानुषत्वादिचतुष्टयं विना निर्जराया अनुस्पत्त्या तदपेक्षया मानुषत्वादिचतुष्टयस्य प्रथमोपादेयतया मुख्यत्वादुत्कृष्टत्वमस्ति । ये चार अंग, पर्वतों में जैसे मेरु प्रधान है, बृक्षों में जैसे कल्पवृक्ष प्रधान है, धातुओं में जैसे सुवर्ण प्रधान है, पेय पदार्थों में जैसे अमृत प्रधान है, मणियों में जैसे चिन्तामणि प्रधान है, प्रामाणिक पुरुषों में जैसे तिर्थकर प्रधान है, गायों में जैसे कामधेनु प्रधान है, मनुष्यों में जैसे चक्रवर्ती प्रधान है और देवों में जैसे इन्द्र प्रधान है उसी प्रकार ये चार अंग प्रधान हैं । इसी बात को द्योतन करने के लिये सूत्रकारने "परम" यह विशेषण दिया है। प्रश्न-मानुषत्व आदि में परमाङ्गता-प्रधानता कैसे हो सकती है। क्यों कि मुक्ति की प्राप्ति में निर्जरा ही साक्षात्कारण होती है अतः निर्जरा की प्रधानता है। उत्तर-यद्यपि मुक्ति की प्राप्ति में साक्षात्कारण निर्जरा है परन्तु निर्जरा निराश्रय तो होगी नहीं, अतः मानुषत्वादि चार के विना जब निर्जरा नहीं बन सकती है तो यह बात स्वतः सिद्ध होती है कि જેવી રીતે પર્વતેમાં મેરુ પ્રધાન છે, વૃક્ષમાં જેમ કલ્પવૃક્ષ પ્રધાન છે, ધાતુમાં જેમ સુવર્ણ પ્રધાન છે, પીવાના પદાર્થોમાં જેમ અમૃત પ્રધાન છે, મણીઓમાં જેમ ચિતામણી પ્રધાન છે, પ્રામાણિક પુરુષોમાં જેમ તી કર પ્રધાન છે, ગાયોમાં જેમ કામધેનુ પ્રધાન છે, મનુષ્યમાં જેમ ચકવર્તી પ્રધાન છે, અને દેશમાં જેમ ઇદ્ર પ્રધાન છે, આવી રીતે આ ચાર અંગ प्रधान छे. या वातन समता भाटे सूत्र “परम" से विशेष मापेर छे. પ્રશ્ન–મનુષ્યત્વ આદિમાં ૫રમાંગતા–પ્રધાનતા કઈ રીતે હોઈ શકે કેમકે, મુક્તિની પ્રાપ્તિમાં નિર્જરા જ સાક્ષાત્ કારણ હોય છે. આથી નિજાની પ્રધાનતા છે. ઉત્તર–કદાચ મુક્તિની પ્રાપ્તિમાં સાક્ષાત્કારણ નિર્જરા છે પરંતુ નિરા નિરાશય તે રહે નહીં આથી માનુષત્વાદિ ચાર અંગ વગર નિર્જરા બની શકતી નથી. આથી આ વાત સ્વતઃ સિદ્ધ થાય છે કે, નિર્જરાની અપેક્ષા એ આ ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #628 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रियदर्शिनी टीका. अ० ३ गा.१ अङ्गवतुष्टस्य दौर्लभ्ये दशदृष्टान्ताः ५७३ मानुषत्वादिषु चतुर्पु कस्याप्येकस्यामावे मोक्षो न संभवतीत्यतउक्तं 'चत्तारि' इति । धर्मश्रवणं विनाऽपि यस्य श्रद्धा दृश्यते सा जन्मान्तरीयश्रवणजन्यैवेति नास्ति शङ्कावसरः । मृदं विना घट इव, तन्तून् विना पट इव, काष्ठं विना शकटमिव मानुषत्वादिचतुष्टयं विना मोक्षो न भवति। निर्जरा की अपेक्षा ये चार अंग सर्वप्रथम उपादेय होने के कारण मुख्य हैं । इसलिये उनमें ही उत्कृष्टता आती है। इन चारों में से यदि एक भी अंग का अभाव रहता है तो मुक्ति का लाभ जीव को नहीं हो सकता है। यही बात “चत्तारि" इस विशेषण से पुष्ट की गई है। प्रश्न-धर्म के श्रवण से ही जीव को धर्म में श्रद्धा होती है ऐसा ऐकान्तिक नियम नहीं है, क्यों कि प्रायः ऐसे भी जीव देखे जाते हैं कि जो धर्म का श्रवण तो नहीं करते हैं फिर भी उनकी धर्म में अटूट श्रद्धा रहती है। ____उत्तर–प्रश्न ठीक है। परन्तु उसका उत्तर यह है कि-जो जीव ऐसे हैं कि धर्म श्रवण किये विना भी धर्म में श्रद्धाशाली होतेहैं उन्हों ने पहिले भव में धर्मश्रवण किया है, उसीका प्रताप है । मिट्टी के विना जैसे घट उत्पन्न नहीं हो सकता है, तन्तुओं के विना जेसे वस्त्र नहीं बन सकता है, काष्ठ के विना जैसे शकट का निर्माण ચાર અંગ સર્વ પ્રથમ ઉપાદેય થવાના કારણે મુખ્ય છે. આ કારણે તેનામાં ઉત્કૃષ્ટતા આવે છે. આ ચારમાંથી જે એક પણ અંગને અભાવ રહે તે भूठितना दाल बने शत। नथी. या पात "चत्तारि" से विशेषरथी નક્કી કરવામાં આવેલ છે. પ્રશ્નધર્મના શ્રવણથી જ જીવને ધર્મમાં શ્રદ્ધા થાય છે એ એકાન્તિક નિયમ નથી. કેમકે, ઘણા એવા જીવ જોવામાં આવે છે કે, જે ધર્મનું શ્રવણ કરતા નથી છતાં પણ એની ધર્મમાં અતૂટ શ્રદ્ધા રહે છે. ઉત્તર–પ્રશ્ન ઠીક છે. પરંતુ એને ઉત્તર એ છે કે,–જે જીવ એવા છે કે જે ધમનું શ્રવણ કર્યા વગર પણ ધર્મમાં શ્રદ્ધાવાળા છે, એમણે આગલા ભવમાં ધર્મ શ્રવણ કરેલું હોય છે આથી જ આ ભવમાં ધર્મમાં જે શ્રદ્ધા છે તે પરભવને વિશે સાંભળેલા ધર્મ શ્રવણને પ્રતાપ છે. માટી વગર જેમ ઘડો બની શકતું નથી, તંતુએ વગર જેમ વસ્ત્ર બની શકતું નથી, લાકડા વગર જેમ શકટનું નિર્માણ ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર: ૧ Page #629 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययनसूत्रे मानुषत्वं दुर्लभमित्यत्र दश दृष्टान्ताः प्रदर्श्यन्ते, तद् यथा - चोल्लकः १, पाशकः २, धान्यं ३, द्यूतं ४, रत्नं ५, स्वप्नः ६, चक्रं ७, कूर्मः ८, युगं ९, परमाणुः १० । ५७४ अथ प्रथमश्वोल्लकदृष्टान्तः - चोल्लको भोजनं तदुपलक्षितो दृष्टान्तः प्रोच्यतेकाम्पिल्यन गरे ब्रह्मनामको नृपतिरासीत्, तस्य भार्या चुलनीनाम्नी, पुत्रो ब्रह्मदत्तनामकः । तस्मिन् ब्रह्मनृपतौ मृते सति तत्पुत्रस्य ब्रह्मदत्तस्य बाल्यावस्थां विलोक्य ब्रह्मनृपसुहृद् दीर्घपृष्ठनामको नृपस्तद्राज्यं रक्षति । तदनन्तरं स नहीं हो सकता है उसी तरह इन मानुषत्व आदि चार अंगों की प्राप्ति हुए विना मुक्ति की प्राप्ति जीव को नहीं हो सकती है । " मानुषत्वं दुर्लभं " मनुष्यपन की प्राप्ति महादुर्लभ है, इस विषय में दश दृष्टान्त कहे जाते हैं, जैसे- चोल्लक १, पाशक २, धान्य ३, छूत ४, रत्न ५, स्वप्न ६, चक्र ७, कूर्म ८, युग ९ परमाणु १० । चोल्लक नाम भोजनका है। इससे उपलक्षित होने से चोल्लक को भी दृष्टान्त कह दिया गया है । यह प्रथम चोल्लकदृष्टान्त इस प्रकार है कांपिल्य नगर में ब्रह्म नाम का राजा था । इसकी स्त्री का नाम चुलनी और पुत्र का नाम ब्रह्मदत्त था । राजा ब्रह्म के काल प्राप्त हो जाने के बाद ब्रह्मदत्त की बाल अवस्था देखकर " राज्य में अव्यवस्था न फैल जाय " इस दृष्टि से राजा ब्रह्म के मित्र दीर्घपृष्ठ नाम के राजा ने उसके राज्य को संभाल लिया। जब कुछ समय व्यतीत हो गया થઈ શકતું નથી, એજ રીતે આ માનુષત્વ આદિ ચાર અગાની પ્રાપ્તિ થયા વિના મુકિતની પ્રાપ્તિ જીવને થઈ શકતી નથી. मानुषत्वं दुर्लभ मनुष्यपथानी प्राप्ति महादुर्लभ छे, या विषयभां ह दृष्टांत हेवामां आवे छे. नेम-योट्स १, पाश २, धान्य 3, धूत ४, रत्न थ, स्वप्न ६, ७, ८, युग है, पर भालु १०. ચાલક નામ ભાજનનુ છે એથી ઉપલક્ષિત થવાથી ચોલકનું પણ દૃષ્ટાંત કહેવામાં આવેલ છે. આ પ્રથમ ચૌલકષ્ટાંત આ પ્રકારનુ છે. કાંપિલ્ય નગરમાં બ્રહ્મનામના રાજા હતા. તેની સ્ત્રીનું નામ ચુલની અને પુત્રનું નામ બ્રહ્મદત્ત હતું. રાજા બ્રહ્મની કાળપ્રાપ્તિ પછી, બ્રહ્મદત્તની માળ અવસ્થા જોઈ ને “ રાજ્યમાં અવ્યવસ્થા ન ફેલાઈ જાય” આ દૃષ્ટીથી રાજા બ્રહ્મના મિત્ર દિપૃષ્ટ નામના રાજાએ તેના રાજ્યને સભાળી લીધુ. શેઢા ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર ઃ ૧ Page #630 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रियदर्शिनी टीका. अ० ३ गा० १ अङ्गचतुष्टयदोलन्ये चोलकाधान्तः १ ५७५ चुलन्यामासक्तो जातः । तयोर्दुश्चरितं ब्रह्मदत्तेन विदितम् । ब्रह्मदत्तेन काकहंसी युगलं पिष्टमयं मैथुनपरायणं निर्माय शूलपोतं कृत्वा ताभ्यां प्रदर्शितम् । तथागोनस-पद्मनागिनीयुगलं पिष्ठमयं कृत्वा वाचा तर्जयति-रे दुष्ट ! दुराचारिन्! गोनस ! किं पनागिन्या सह रमसे ? तत्फलं भुक्ष्व, इत्युक्त्वा तदुभयं प्रज्वलज्ज्चलने प्रक्षिपति । एवं दुष्कर्मनिवृत्त्यर्थ ब्रह्मदत्तप्रदर्शितं दण्डं विलोक्यापि तौ दुष्कर्मकरणान निवृत्तौ । ततश्चुलन्या दीर्घपृष्ठनृपेण च परस्परं विचार्य ब्रह्मदत्तस्य विवाहः तो वह दीर्घपृष्ट चुलनी के मोह में फँस गया। चुलनी और दीर्घपृष्ठ के दुश्चरित की बात ब्रह्मदत्त के कान तक भी पहुंच गई । ब्रह्मदत्त ने उन दोनों को शिक्षा देने के अभिप्राय से आटे का एक, मैथुन में परायण काक और हँसी का जोडा निर्मापित कर और उसे शूल में पिरो. कर उन दोनों को दिखलाया । तथा गोनस (फणरहित सर्प) और पद्मनागिनी का भी एक जोड़ा आटे से उसने तयार किया, और उन्हीं के समक्ष कहने लगा रे-दुष्ट ! दुराचारी गोनस ! तुझे लज्जा नहीं आती जो तू पद्मनागिनी के साथ रमता है ? अरे अधम ! तू अब अपने किये हुए कर्म का फल भोग । इस प्रकार वाणी से तर्जित कर उसने उन दोनों को जलती हुई अग्नि में डाल दिया। इस प्रकार दुष्कर्म की निवृत्ति के लिये ब्रह्मदत्त के द्वारा प्रदर्शित दण्ड को देखकर भी रानी और दीर्घपृष्ठ अपने अनर्थविधायक दुष्कर्म से पीछे नहीं हटा । સમય વિતી ગયા બાદ તે દિપૃષ્ટ ચુલનીના મેહમાં ફસાઈ ગયે. ચુલની અને દિર્ઘ પૃષ્ટની આ દુરિત્રની વાત બ્રહ્મદત્તના કાન સુધી પહોંચી ગઈ બ્રહ્મદને એ બંને ને શિક્ષા દેવાના અભિપ્રાયથી આટામાંથી (લોટમાંથી) એક મિથુનમાં પરાયણ કાક અને હંસલીનું જોડું નિર્માણ કરી તેને શુલ્યમાં પરોવીને તે બન્નેને બતાવ્યું. તથા ફેણ વગરને સાપ અને પનાગણનું પણ એક જોડું આટામાંથી લોટમાંથી બનાવી તૈયાર કર્યું. અને તેની સામે । यो, रेट! हुयारिगोनस (३१ २डित स५)! तने साल नयी આવતી કે તું, પદ્મનાગણની સાથે રમી રહ્યો છે. અરે અધમ! તે હવે પોતાના કરેલા કર્મનું ફળ ભેગવ. આ પ્રકારે કહીને એ બંને ને તેણે ભડભડતી અગ્નિમાં નાખી દીધા. આ પ્રકારે દુષ્કર્મની નિવૃત્તિ માટે બ્રહ્મદત્ત દ્વારા પ્રદર્શિત દંડને જોઈને રાણી અને દિર્ઘ પૃષ્ટ પિતાના અનર્થ વિધાયક દુષ્કર્મથી પાછા ન ફર્યા. એક દિવસની વાત છે કે, આ બનેએ એકાંતમાં ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #631 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५७६ उत्तराध्ययनसूत्रे कारितः । ततः कपटप्रबन्धेन ब्रह्मदत्तमारणार्थं जतुगृहं कारितम् । तदा धनुनामका ब्रह्मनृपतेर्मन्त्री तत् कपटं ज्ञातवान् । स च नदीतीरात् तद्गृहाभ्यन्तरेऽधः पृथिव्यां सुरङ्गां निर्माय नदीतटे सुरङ्गाद्वारे तुरंगमद्वयं स्थापयित्वा स्वपुत्रं वरधनुनामकं जतुगृहनिर्माणकारणं ज्ञापयति । ततो निःसरणार्थं निर्मापितां सुरां च दर्शयति । सरधनुः स्वपित्राज्ञया ब्रह्मदत्तानुचरोऽभवत् । अन्यदा कदाचित् जनन्या प्रेरितो ब्रह्मदत्तस्तस्मिन् जतुगृहे सुप्तः, वरधनुश्च एक दिन की बात है कि इन दोनोंने एकान्त में इस प्रकार की गुप्तमंत्रणा की कि ब्रह्मदत्त का विवाह कर देना चाहिये। ऐसा ही हुआ ब्रह्मदत्त का विवाह कर दिया गया । तथा ब्रह्मदत्त को मारने के लिये कपट से एक लाक्षागृह - लाख का महल भी बनवा कर तैयार कराया गया। राजा ब्रह्म के मंत्री को उनकी यह कपट रचना ज्ञात हो गई । मंत्री का नाम धनु था । उसने नदी के तीर से लेकर उस लाक्षागृह के भीतर तक पृथिवी के नीचे एक सुरंग बनवाई। जब सुरंग बनकर तैयार हो चुकी तो नदी के तट पर कि जहां सुरंग से बाहर निकल ने का द्वार था दो घोडे खडे करवा दिये और अपने पुत्र से कि जिसका नाम वरधनु था लाक्षागृह के निर्माण का कारण प्रकट कर दिया । तथा यहां से निकलने के लिये जो सुरंग बनाई गई थी उसका भी भीतरी दरवाजा उसे दिखला दिया । वरधनु अपने पिता की आज्ञा से ब्रह्मदत्त का अनुचर बन गया । एक दिन की बात है कि अपनी माता એવા પ્રકારની ગુપ્ત મંત્રણા કરી કે, બ્રહ્મદત્તના વિવાહ કરી દેવા. અને એ પ્રમાણે બ્રહ્મદત્તના વિવાહ કરી દેવામાં આળ્યેા. આ પછી બ્રહ્મદત્તને કપટથી મારવા માટે એક લાખાગૃહ ( જોગણીના મહેલ ) અનાવી તૈયાર કર્યાં રાજા બ્રહ્મના મંત્રીને તેમની આ કપટ રચના જાણવામાં આવી ગઇ. મંત્રીનું નામ ધનુ હતુ. તેણે નદીના કાંઠાથી લઇને એ લાખાગૃહની અંદર સુધીનુ એક ભેાંયરૂ તૈયાર કરાવ્યું. જ્યારે ભૈયરૂ તૈયાર થઈ ગયુ` ત્યારે નદીના કાંઠા ઉપર ૐ જ્યાં ભેયારમાંથી બહાર નીકળવાના રસ્તા રાખ્યા હતા તે સ્થળે એ ઘેાડા તૈયાર રખાવ્યા. અને પેાતાના પુત્ર કે જેનું નામ વરધનુ હતુ તેને લાખાગૃહની સમસ્ત વાતથી જાણકાર કરી તેમાંથી નિકળવા માટે જે ભેાંયરૂ બનાવવામાં આવેલ હતુ તેની સઘળી માહિતી આપી નીકળવા માટેના દરવાજો તેને બતાવી દીધા. એક દિવસની વાત છે કે, કુમાર બ્રહ્મદત્ત તેની માતાના કહેવાથી તે લાખાગૃહ ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર ઃ ૧ Page #632 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रियदर्शिनी टीका अ० ३ गा० १ अङ्गचतुष्टयदौर्लभ्ये चोलकदृष्टान्तः १ ५७७ तत्समीपे प्रकोष्ठकान्तरे शयनार्थ गतः। तदाऽर्धरात्रे जनन्याऽग्निसंयोजनाद तज्जतुगृहं प्रदीपितम्। ब्रह्मदत्त उत्थितः। तदा वरधनुब्रह्मदत्तं वदति-नाथ ! प्रासादः प्रज्वलति, भवान् निःसरतु । इति तद्वचनं श्रुत्वा ब्रह्मदत्तो ब्रवीति-प्रदर्शय मार्गम् , तदा वरधनुर्वदति नाथ ! अयमस्ति सुरङ्गामार्गः, पादाघातेन सुरङ्गाद्वारवर्तिशिलापट्टकं चूरय, ब्रह्मदत्तेन तथा कृते सति उभौ तेनैव सुरङ्गापथेन निम्मृत्य बहिद्वारावस्थिततुरङ्गमौ समारुह्य देशान्तरं गतौ । द्वारा प्रेरित होने पर ब्रह्मदत्त उस लाक्षागृह में जाकर सो गया। वरधनु भी उसी के समीप एक प्रकोष्ठक में सो गया । जब आधी रात होने का समय आया तो चुलनी माता ने उस लाक्षागृह में आग लगा दी मकान जलने लगा। ब्रह्मदत्त एकदम उठा। वरधनु ने शीघ्र पास आकर ब्रह्मदत्त से कहा-नाथ! महल जल रहा है, अपन यहां से शीघ्र चले जावें । वरधनु के वचन सुनकर ब्रह्मदत्तने कहा-बताओ मार्ग कहां है ? ब्रह्मदत्त के वचन सुनकर वरधनु ने कहा-नाथ! यह रहा सुरंग का मार्ग । इसके द्वार पर जो यह पत्थर की शिला का ढक्कन लगा हुआ है इसे आप पैरों से हटा दीजिये और बाहर निकल जाईये। ब्रह्मदत्त ने ऐसा ही किया। सुरंग के द्वार पर लगे हुए पत्थर को पैर से हटाकर वे और वरधनु दोनों सुरंगमार्गसे बाहर निकल आये और बाहर के द्वारपर खडे हुए दोनों घोड़ोंपर चढ़कर वहांसे दूसरे देशको चले गये। મહેલમાં સુવા માટે ગયે. મંત્રીને પુત્ર વરધનું પણ તેની સાથે તે મહેલમાં ગ અને તેની સાથે એ મહેલમાં તે પણ એક આસન ઉપર સુતે જ્યારે અરધી રાતને પ્રારંભ થઈ ચુકયે ત્યારે દુષ્કમિણી એવી કુમારની માતા ચુલનીએ તે લાખાગૃહમાં આગ લગાડી. મહેલ સળગવા લાગ્યો, બ્રહ્મદત્ત એકદમ ઉઠશે. વરધનએ એ વખતે તેની પાસે આવીને કહ્યું, નાથ! મહેલ સળગી રહ્યો છે. આપણે અહીંથી તુરત જ નીકળી જવું જોઈએ. વરધનુનાં વચન સાંભળીને બ્રહ્મદરે કહ્યું કે માગ કયાં છે? બતાવે. બ્રહ્મદત્તનું વચન સાંભળીને વરધનુએ કહ્યું, નાથ! આ રહ્યો બહાર નીકળવાને રસ્તે. અહીં જે પત્થરનું ઢાંકણુ લડેલું છે તેને આપ પગથી દૂર કરે અને પછી ભોંયરામાં ઉતરી બહાર નીકળી જાઓ. બ્રહ્મદત્ત એ પ્રમાણે કર્યું. ભૈયાના મુખદ્વારના પત્થરને દૂર કરી કુમાર બ્રહ્મદત્ત અને વરધનુ બને ભયરાના રસ્તે બહાર નીકળી ગયા અને બહારના દ્વાર પાસે તૈયાર રાખવામાં આવેલા ઘોડા ઉપર બેસી બન્ને જણ દૂર દેશમાં ચાલ્યા ગયા. उ०७३ ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #633 -------------------------------------------------------------------------- ________________ % E ૧૭૮ उत्तराध्ययनसूत्रे ___ अत्यन्तदूरपथभ्रमणजनितश्रपादश्वौ मृतौ । पादचारेण ब्रह्मदत्तो वरधेनुना सह पृथिव्यामटति । ततो दीर्घपृष्ठनृपस्य भयात् पृथक पृथक् भूत्वा तौ पर्यटतः। अथ ब्रह्मदत्तः पर्यटन् निधनवेषेण क्वचिद् वृक्षतले उपविष्टः। तदा केनचित् सामुद्रिकविद्यावता विप्रेण मार्गे ब्रह्मदत्तचरणन्यासं दृष्ट्वा मुदितचित्तः शीघ्रगत्या तत्र वृक्षतले समायातः । तत्र निर्धनवेषेण वर्तमानं ब्रह्मदत्तमवलोक्य स विनो रोदिति । तं ब्रह्मदत्तः पृच्छति-हे विप्र ! कथं रोदिपि ?, सामुद्रिकशास्त्रज्ञोऽसौ विम आह-अद्य मम विद्या असदर्थबोधिका जाता, भदच्चरणलक्षणं भवतश्चक्रवर्तित्वमावे___ अत्यन्त दूर तक अधिक वेग से चलने के कारण उनके घोडे बहुत थक गये थे इसलिये उनका पेट फूल गया और दोनों घोडे मर गये । ब्रह्मदत्त और वरधनु दोनों ही पैदल जंगलमें धूमने लगे, पर दीर्घपृष्ठ राजा का भय हृदय में बना हुआ था। इसलिये उन्हों ने अब अलग २ होकर चलना ही अच्छा समझा । ब्रह्मदत्त चलते २ एक किसी वृक्ष के नीचे आकर ठहर गया । इतने में वहां एक सामुद्रिक शास्त्र का वेत्ता ब्राह्मण जो उसी रस्तेसे होकर कहीं जा रहा था मार्गमें ब्रह्मदत्त के चरणचिह्नों को देखकर बड़ा ही प्रसन्न हुआ, और चरणचिह्नों को लक्षित कर वह उस स्थान पर आपहुँचा जहां ब्रह्मदत्त वृक्ष के नीचे बैठा हुआ था । ब्रह्मदत्त की निर्धन अवस्था देखकर ब्राह्मण को रोना आगया । ब्राह्मण को रोते देखकर ब्रह्मदत्त ने पूछा हे ब्राह्मण ! क्यों रो रहे हो ? सामुद्रिक शास्त्रज्ञ उस ब्राह्मण ने कहा कि मैंने जो सामुद्रिक ઘણા વેગથી લાંબી મજલ કાપવાથી તેમના ઘડા થાકી ગયા અને એથી એ ઘોડાઓનું પેટ ફુલી જતાં અને ઘેડા મરી ગયા. વરધનુ અને બ્રહ્મદત્ત બને પગપાળા જંગલમાં ફરવા લાગ્યા. આ રીતે ફરવાથી દીર્ઘપૃષ્ટ રાજા તરફથી ભય આવી પડશે તેવી દહેશતથી બન્ને જણાએ જુદા જુદા ચાલવાનું રાખ્યું. બ્રહ્મદત્ત ચાલતાં ચાલતાં કોઈ એક વૃક્ષની નીચે જઈ પહોંચે અને ત્યાં રોકાઈ ગયે. આ સમયે સામુદ્રિકશાસ્ત્રજ્ઞાનને જાણકાર એક બ્રાહ્મણ કે જે એ રસ્તેથી જઈ રહ્યો હતે તેણે માર્ગમાં બ્રહ્મદત્તનાં ચરણનાં ધૂળમાં પડેલાં પગલાનાં ચિહેને જોઈને ખૂબ પ્રસન્નતા અનુભવી અને ચરણ ચિહેને લક્ષમાં રાખતે રાખતે તે જે સ્થળે કુમાર બ્રહ્મદત્ત હતું ત્યાં આવી પહોંચે.બ્રહ્મદત્તની નિર્ધન અવસ્થા જોઈને બ્રાહ્મણની આંખમાં આંસુ આવી ગયાં. બ્રાહ્મણને રેતાં જેઈ બ્રહ્મદે કહ્યું, હે બ્રાહ્મણ શા માટે રહે છે? સામુદ્રિક શાસ્ત્રના જાણકાર તે બ્રાહ્મણે કહ્યું કે, મેં આજ સુધી ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #634 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रियदर्शिनी टीका. अ० ३ गा० १ अङ्गचतुष्टयदौर्लभ्ये चोलकदृष्टान्तः १ ५७९ दयति किंतु भवान् निधनावतारो मिलितः । ब्रह्मदत्तो वदति-अहमस्मि चक्रवर्ती, यदा मम राज्यप्राप्तिः स्यात्तदा भवता ममान्तिकमागन्तव्यम्। कालान्तरे ब्रह्मदत्तेन चक्रवर्तिराज्यं प्राप्तम् , द्वादश वर्षाणि राज्याभिषेको त्सवः मारब्धः । सामुद्रिकशास्त्रज्ञोऽसौ विप्रस्तदुत्सवसमाचारं प्राप्य तत्रागतः । शास्त्र का अभीतक अध्ययन किया है वह आज बिलकुल गलत साबित हो रहा है इसलिये मैं रो रहा हूं। आपके चरणों में जो चिह्न बने हुए हैं उनसे यह बात ज्ञात होती है कि आपको चक्रवर्ती होना चाहिये पर आपकी तो यह दशा है कि इस समय आपके पास खाने तक को अन्न भी नहीं है। आपका यह वेष दरिदियों जैसा है। अवस्था आपकी निर्धन है। ऐसे मालूम पड़ता है कि मानों आप में निर्धनताने ही अवतार लिया है। ब्राह्मण की बात सुनकर ब्रह्मदत्त ने कहा-तुम्हारा सामुद्रिक शास्त्र मिथ्या नहीं है दुःखी मत होओ, मैं वास्तव में चक्रवर्ती ही हूं। जब मुझे राज्य की प्राप्ति हो तो उस समय तुम मेरे पास आना। कालान्तर में ब्रह्मदत्त को चक्रवर्तिपद की प्राप्ति हुई। ब्रह्मदत्त चक्रवर्ती बन गये । बारह वर्ष का राज्याभिषेक बड़ा हो ठाट बाट से मनाया जाने लगा। इसी अवसर में उस ब्राह्मण ने जब यह समाचार सुना तो वह भी वहां पर आगया पर वह ब्रह्मदत्तसे मिल नहीं सका। સામુદ્રિક શાસ્ત્રનું જે અધ્યયન કર્યું છે તે આજે બીલકુલ નકામું માલુમ પડયું છે. આ માટે હું રેઈ રહ્યો છું. આપના ચરણમાં જે ચિન્હ જોવામાં આવે છે તેનાથી એવી વાત સિદ્ધ થાય છે કે, આપ ચકવત બનવા જોઈએ. પરંતુ આપની તે એ દશા છે કે, આ સમયે આપની પાસે ખાવાને અન્ન પણ નથી. આપને આ વેશ દ્રરિદ્રીઓના જેવું છે. આપની અવસ્થા નિધન છે. એવું માલુમ પડે છે કે, આપનામાં નિર્ધનતાએ અવતાર લીધે છે, બ્રાહ્મણની વાત સાંભળી બ્રહ્મદત્ત કહ્યું. આ તમારૂં સામુદ્રિક શાસ્ત્ર મિથ્યા નથી, દુઃખી ન બને. વાસ્તવમાં ચકવતી જ છું જ્યારે મને રાજ્યની પ્રાપ્તિ થાય એ સમયે તમે મારી પાસે આવજે. સમયના વહેવા સાથે બ્રહ્મદત્તને ચકવતિ પદ પ્રાપ્ત થયું. રાજ્યમાં ૧૨ વર્ષ સુધી તેના રાજ્યાભિષેકને ઉત્સવ ઠામઠામ મનાવા લાગ્યું. એ બ્રાહ્મણે જ્યારે આ પ્રસંગના શુભ સમાચાર જાણ્યા છે તે પણ ત્યાં આવી પહોંચે, પણ તે બ્રહાદત્તને મળી શક્યો નહીં. બ્રહાદત્ત ચકવતી સાથે તેને મેળાપ ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #635 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८० उत्तराध्ययनसूत्रे ब्रह्मदत्तचक्रवर्तिनो दर्शनं मम कथं स्यादिति पृष्टः कश्चित् श्रेष्ठो तं विमं मार्ग दर्शयति । अथोत्सवसमये चक्रवर्ती गजमारूह्य बहिनिःसरति । स विप्रस्तदा जनसमूहमध्ये वंशाग्रे पादत्राणमाला संयोज्य तं वंशमुत्थाप्य स्थितवान् । चक्रवर्ती स्वराज्यैश्वर्यशोभां समन्ताद् विलोकयन् वंशाग्रसंलग्नामुपानमालामपश्यत् । ततः कोपारुणनेत्रश्चक्रवर्ती भृत्यैस्तमाहूय पृच्छति-किमेतत् त्वया मर्तुमाचरितम् । विमः प्राह-नहि मर्नु, किंतु जीवितुम् । चक्रवर्ती वंशोत्थापनकारणं विज्ञाय ब्रह्मदत्त चक्रवर्ती से अब मेरा मिलाप कैसे हो? इस बात को उसने किसी वहीं के सेठ से पूछा तो उसने उसे मिलाप का रस्ता भी बतला दिया। उत्सव के समय चक्रवर्ती हाथी पर चढ़कर आ रहे थे, भीड़ काफी थी । ब्राह्मण ने मिलाप का मार्ग सोचा, उसके अनुसार एक वांस पर जूतों की माला लटका कर और उस वांस को भीड़ के बीच में ऊपर उठा कर वह खड़ा हो गया। चक्रवर्ती अपने राज्य के ऐश्वर्य की शोभा का चारों ओर से निरीक्षण करते हुए चल रहे थे। उन्हों ने इस दृश्य को ज्यों ही देखा इकदम देखते ही आंखों में क्रोध की लाली उतर आई, नौकरों के जरिये उस ब्राह्मण को बुलवाकर पूछा, अरे! इस सुन्दर अवसर पर यह तूने क्या काम किया है ? मालूम पड़ता है तेरी मौत आगई है। ब्राह्मण ने चक्रवर्ती की बात सुनकर कहा यह काम मैंने अपनी मौत को बुलाने के लिये नहीं किया है, किन्तु जीने के लिये किया है । जब चक्रवर्ती वंशोत्थापन के कारण से કઈ રીતે થાય આ વાત તેણે ત્યાંના કેઈ શેઠને પૂછી તે તેણે મેળાપ માટે રસ્તે બતાવ્યું. ઉત્સવના સમયે ચકવતી હાથી ઉપર બેસી આવી રહ્યા હતા. ભીડ ખૂબ હતી, બ્રાહ્મણે મેળાપને માર્ગ વિચાર્યું. આ અનુસાર તે એક વાંસ ઉપર લટકાવેલ જેડાની માળા સાથે તે લોકોની ભીડમાં હાથમાં વાંસડો ઉંચે રાખીને ઉભે રહ્યો. ચકવર્તી પિતાના રાજ્યની એશ્ચર્યની શેભાને ચારે તરફ દછી ફેરવી જોઈ રહેલ હતા, તેમણે આ દષ્ય જોયું અને જોતાં જ એકદમ આંખમાં ક્રોધની લાલીમા છવાઈ ગઈ. નેકરે દ્વારા એ બ્રાહ્મણને બોલાવી પૂછયું. અરે! આ સુંદર અવસર ઉપર તું આવું કામ કેમ કરી રહ્યો છે? માલુમ પડે છે કે તારૂં મત આવ્યું છે. ચકવતીની વાત સાંભળી બ્રાહ્મણે કહ્યું, આ કામ મેં મારા માતના બેલાવવાથી નથી કર્યું, પરંતુ જીવવા માટે કરેલ છે. આ પછી ચક્રવતી વશેલ્થાપનના કારણથી યથાર્થ રૂપથી ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #636 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रियदर्शिनी टीका. अ० ३ गा० १ अङ्गचतुष्टयदौर्लभ्ये चोल्लकदृष्टान्तः १ ५८१ परितुष्टो भूत्वा गजोपरि स्वपार्श्व तमुपवेश्य ब्रवीति-हे विम! स्वाभीष्टं ब्रूहि, सोऽवदत् भार्या पृष्ट्वा कथयामि । ततस्तेन स्वगृहमागत्य भार्या पृष्टा। भार्या मनसि चिन्तयति-धनागमे त्रीणि नश्यन्ति जीर्ण गृहं, जीर्णा भार्या, जिर्ण मित्रम् । इति विचार्य सा प्राह - एकैकस्मिन् दिने एकैकगृहे पायसभोजनं भवतु, इत्येव प्रार्थनीयम् । ततोऽसौ विप्रश्चक्रवर्तिसंनिधौ समागत्य तदेव प्रार्थितवान् । चक्रवर्ती यथार्थरूप में परिचित हो चुके, तब वे बडे प्रसन्न हुए। उन्हों ने उस ब्राह्मण को शीघ्र ही हाथी पर अपने पास बैठा कर कहा कि कहो विप्रदेव ! तुम क्या चाहते हो ? उसने कहा महाराज ! मैं क्या चाहता हूं यह बात तो अपनी भार्या से पूछकर आपसे कहूंगा। चक्रवर्ती से वह घर जाने की आज्ञा लेकर घर आगया । घर पर आकर उसने अपनी पत्नी से समस्त वृत्तान्त कह दिया । पत्नी ने सुनकर विचार किया कि यदि यह धनवान बन जायगा तो मुझे अवश्य छोड़ देगा, क्यों कि धन के आने पर तीन चीजे छोड़ दी जाती हैं-१जूना घर, २ जूनी भार्या और ३ जूनां मित्र । इसलिये इससे कह दिया जाय कि हमें तो प्रतिदिन एकर घर पर खीर का भोजन मिलता रहे, ऐसी व्यवस्था हो जानी चाहिये । बस इस प्रकार विचार कर ब्राह्मणी ने अपने पति से यही बात कही और कहा कि जाकर तुम राजा से यही मांगो अपने लिये और वस्तु को क्या करना है । ब्राह्मण ने अपनी पत्नी की सलाह मान कर चक्रवर्ती से यही मांगा। चक्रवर्ती ने ब्राह्मण से कहा પરિચિત બનતાં ખૂબજ પ્રસન્ન થયા અને તેમણે બ્રાહ્મણને એજ વખતે પિતાના હાથી ઉપર બેસાડી લઈને પૂછયું, કહે વિપ્રદેવ તમે શું ચાહો છે? જવાબમાં તે બ્રાહ્મણે કહ્યું, મહારાજ ! હું શું ચાહું છું તે વાત મારી સ્ત્રીને પૂછળ્યા પછી આપને કહીશ. ચકવતીની આજ્ઞા લઈ તે પોતાને ઘેર ગયે. ઘેર પહોંચી તેણે પિતાની સ્ત્રીને સઘળે વૃત્તાંત કહી સંભળાવ્યો. સ્ત્રીએ સઘળી બીના સાંભળીને વિચાર કર્યો કે, મારો પતિ ધનવાન બની જશે તો એ મને અવશ્ય છડી દેશે. કેમકે, ધનના આવવાથી ત્રણ ચીજો ભુલાઈ જાય છે. એક તે જુનાં ઘર, બીજું સ્ત્રી, ત્રીજું જુનામિત્ર આ માટે એને એમ માગવાનું કહેવામાં આવે છે, અમને પ્રતિદિન એક એક ઘેરથી ખીરનું ભેજન મળતું રહે એવી વ્યવસ્થા કરવામાં આવે. આ પ્રકારને વિચાર કરી બ્રાહ્મણીએ પિતાના પતિને એ વાત કહી અને કહ્યું કે, તમે રાજા પાસે જઈને એ પ્રમાણે માગો. આપણે બીજી વસ્તુની શું જરૂર છે ? બ્રાહ્મણે સ્ત્રીની સલાહ માનીને રાજા પાસે જઈ તેની સ્ત્રીના કીધા પ્રમાણે જ માગ્યું. ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #637 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८२ उत्तराध्ययनसूत्रे पाह-किमिदं प्रार्थयसि ? ग्रामो, नगरं, वा कोशो वा याच्यताम् । स विप्रोऽवदत्इदमेव ममेप्सितम् , ततश्चक्रवर्तिना तत्स्वीकृतम् । प्रथमदिने चक्रवर्तिनो भवने परमसुस्वादु पायसं लब्धम् । तत्र काम्पिल्यनगरे चक्रवर्त्याज्ञयाऽसौ विप्रः प्रत्येकगृहे भोजनं क्रमेण प्रतिदिनं लभते, तथाप्यसौ गृहाणामन्तं न पाप, कथं तर्हि तस्य समस्त भरतक्षेत्रवर्तिषु गृहेषु एकैकगृहे क्रमेण प्रतिदिनं भोजनप्राप्त्यनन्तरं पुनश्चक्रवर्तिभवने यह तुमने क्या चीज मांगी है, गांव मांगो नगर मांगो या कोशखजाना मांगो। सुनकर ब्राह्मण ने कहा हमें इन चीजों की आवश्यकता नहीं है। हमारी इच्छा तो जो है वह आप से निवेदित कर दी है। चक्रवर्ती ने ब्राह्मणकी बात स्वीकार करली । चक्रवर्तीने स्वयं सबसे पहिले दिवस इसके लिये परम स्वादिष्ट बढ़िया खीर अपने महल में तैयार करवाई। ब्राह्मण ने बडे आनंद के साथ खाई । क्रम२ से अब यह उस कांपिल्य नगर में सब के घर एकर दिन खीर के भोजन के लिये जाने लगा, परन्तु वहां इतने अधिक घर थे कि इसके जीवनभर तक भी जीमते२ घरों के वारे नहीं समाप्त हो सकते थे । तथा छह खंड की पृथिवी का अधिपति चक्रवर्ती होता है इसलिये यद्यपि उसके जीमने का नंबर छह खंडों में नियत कर दिया गया था, पर जब कांपिल्य नगर के घरों की ही समाप्ति नहीं हो सकी तो भरतक्षेत्र भर के घरों का बारा उसके कैसे प्राप्त हो सकता था ? अतः वह बड़ा ही चिन्तित रहने लगा। वह विचारता रहता कि कब समस्त घरों का बारा मेरा समाप्त ચક્રવતીએ બ્રાહ્મણને કહ્યું કે તમે આ શું માગ્યું? ગામ, નગર અથવા તે ધન દેલત જે જોઈ એ તે માગી. બ્રાહ્મણે કહ્યું કે, મહારાજ ! મને એવી કઈ ચીજની જરૂરીઆત નથી. અમારી જે ઈચ્છા છે તે આપની સમક્ષ રજુ કરી છે. ચક્રવતીએ બ્રાહ્મણની વાતને સ્વીકાર કરી અને પિતાના મહેલમાં તેને માટે સ્વાદિષ્ટ એવી ખીર તૈયાર કરાવી. બ્રાહ્મણે ખૂબ જ આનંદથી તે ખાધી. ક્રમે ક્રમે તે કાંપિલ્ય નગરમાં બધાને ત્યાં એક એક દિવસ ખીરના ભેજન માટે જવા લાગે. પરંતુ ત્યાં એટલાં બધાં ઘરે હતાં કે એના જીવન સુધી જમતાં જમતાં ઘરને વારે સમાપ્ત થઈ શકે તેમ ન હતું. તેમાંવળી ચકવતી તે છ ખંડ ધરતીને અધિપતી હોય છે. આથી તેના જમવાને નંબર છ ખંડેમાં નક્કી કરી આપેલ હતે પણ જ્યારે એકલા કાંપિત્ય નગરનાં જ ઘરો તે પુરાં કરી શકે તેમ ન હતું ત્યાં ભરતક્ષેત્રના વિસ્તારનાં ઘરોને વારે તો કયાંથી જ આવે? આથી તે ખૂબ જ ચિંતા કરવા લાગ્યો. તે વિચારવા લાગ્યું કે, જ્યારે સમસ્ત ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #638 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रियदर्शिनी टीका. अ० ३ गा. १ अङ्गचतुष्टदौर्लभ्ये बोल्लकदृष्टान्तः १ ५८३ भोजनं लब्धव्यम्, समस्तभरतक्षेत्रान्तर्गतगृहाणां बाहुल्यात् । एवं यथा चक्रवर्तिनो भवनेऽनुपमं पायसं प्राप्तुमिच्छतस्तस्य विप्रस्य तद् दुर्लभं तथा मनुष्यजन्म दुर्लभम् । अत्र संग्रह श्लोक : - ( शार्दूलविक्रीडितवृत्तम् ) भुक्तं स्वादुरसं द्विजेन भवने श्रीब्रह्मदत्तस्य यत्, क्षेत्रेऽस्मिन् भरतेऽखिले प्रतिगृहे भुक्त्वा पुनस्तद्गृहे । जातं तस्य यथा मनोऽभिलषितं तद् भोजनं दुर्लभं, संसारे भ्रमतः पुनर्नरभवो जन्तोस्तथा दुर्लभः ॥ १ ॥ ॥ इति प्रथमचोलकदृष्टान्तः ॥ १ ॥ हो, और कब मुझे पुनः चक्रवर्ती के घर पर बढिया खीर खानेको मिले, परन्तु न समस्त छह खण्ड के घरों का बारा उसका समाप्त हो और न पुनः चक्रवर्ती के घर की खीर उसको मीले । जैसे इस ब्राह्मण को पुनः वह खीर भोजन दुर्लभ हो गया उसी प्रकार यह मनुष्यजन्म भी बड़ा दुर्लभ है । यह प्रथम दृष्टान्त है । इस पर यह संग्रह श्लोक हैभुक्तं स्वादुरसं द्विजेन भवने श्रीब्रह्मदत्तस्य यत्, क्षेत्रेऽस्मिन् भरतेऽखिले प्रतिगृहे भुक्त्वा पुनस्तद्गृहे । जातं तस्य यथा मनोऽभिलषितं तद्भोजनं दुर्लभं । संसारे भ्रमतः पुनर्नरभवो जन्तोस्तथा दुर्लभः ॥ १ ॥ इस श्लोक में इस कथा का सार बतलाया गया है । अर्थात् जिस प्रकार ब्रह्मदत्तचक्रवर्ती के घर पर एक बार बढिया खीर का भोजन ઘરાના વારા પુરા થાય અને કયારે મને ચક્રવતી'ના મહાલયમાં ફરીથી ઉત્તમ એવી ખીર ખાવાના પ્રસગ મળે? આ રીતે ન તા સમસ્ત છ ખંડના ઘરાના તેના વારા પુરા થાય અને ન ચક્રવર્તીને ત્યાં ફરીથી ખીર ખાવા જવાના પ્રસંગ મળે. આ રીતે તે બ્રાહ્મણને ફરીથી ચક્રવતીને ત્યાં ખીર ખાવાના પ્રસંગ પ્રાપ્ત ન થયેા. તેવી જ રીતે આ મનુષ્ય જન્મ પણ ઘણું. દુર્લભ છે. આ પ્રથમ દૃષ્ટાંત છે એના ઉપર આ સગ્રહ શ્લેાક છે. भुक्तं स्वादुरसं द्विजेन भवने श्रीब्रह्मदत्तस्य यत् । क्षेत्रेऽस्मिन् भरतेऽखिले प्रतिगृहे भुक्त्वा पुनस्तद्गृहे ॥ जातं तस्य यथा मनोऽभिलषितं तद्भोजनं दुर्लभं । संसारे भ्रमतः पुनर्नरभवो जन्तोस्तथा दुर्लभः ॥ १ ॥ આ શ્લાકમાં આ કથાના સાર બતાવવામાં આવેલ છે. અર્થાત્ જે રીતે બ્રહ્મદત્તચક્રવતીના ઘરે એકવાર ઉત્તમ ખીરનું લેાજન કરીને તે બ્રાહ્મણને ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર ઃ ૧ Page #639 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८५ उत्तराध्ययनसूत्रे अथ द्वितीयः पाशकदृष्टान्तः प्रोच्यतेपाशको धूतोपकरणविशेषः, स एव दृष्टान्तः-पाशकदृष्टान्तः, स चैवम् गोल्लदेशे चणकनामके ग्रामे बहु शीलवतगुणवतविरमणप्रत्याख्यानपौषधोपवा सादि श्रावकधर्म पालयन् चणकनामको ब्राह्मग आसीत् । स बद्धसदोरकमुखवत्रिका सन्नुभयकालं सामायिकपतिक्रमणं कुर्वन्नासीत् । अन्यदा कदाचित् तस्य गृहे सुव्रतकर उस ब्राह्मण को उसी घरपर पुनः भोजन करने की अभिलाषा हुई परन्तु उसकी पूर्ति होनी बड़ी ही मुश्किल थी क्यों कि जब तक उनके साम्राज्यभर के घरों का बारा वह समाप्त नहीं कर लेता तब तक उसको पुनः चक्रवर्ती के घर का नंबर प्राप्त नहीं हो सकता। इसी प्रकार इस संसार में भ्रमण करने वाले इस जीव को पुनः नरभव मिलना बड़ा दुर्लभ है। यह प्रथम चोल्लकदृष्टान्त हुआ ॥१॥ अब दूसरा पाशकदृष्टान्त कहते हैंजुआ खेलने का जो उपकरण विशेष होता है जिसको हिन्दी में पासा कहते हैं उसका नाम पाशक है । उसका दृष्टान्त इस प्रकार है गोल्लदेशस्थ चणक नाम के ग्राम में बहु शील व्रत गुण अर्थात् व्रतप्राणातिपातादिविरमण, प्रत्याख्यान-पौषधोपवास आदि श्रावकधर्म को पालन करने वाला चणक नाम का एक ब्राह्मण रहता था। यह दोनों काल मुख पर डोरे से मुखपत्ति बाँधकर सामायिक एवं प्रति क्रमण किया करता था। एक दिन की बात है कि उसके घर पर एक ચક્રવતિને ત્યાં ખીરનું ભજન ફરીથી કરવાની ઈચ્છા જાગી પરંતુ તેની એ ઈચ્છા પૂર્ણ થઈ શકી નહી. કેમકે, એના સામ્રાજ્યભરનાં ઘરોને વારો તે પૂર્ણ ન કરી લે ત્યાં સુધી તેને ફરી ચકવતીને ત્યાં ખીર ખાવા માટે જવાને વારે પ્રાપ્ત થતું ન હતું. એ પ્રકારે આ સંસારમાં ભ્રમણ કરવાવાળા આ જીવને પુનઃ મનુષ્ય અવતાર મળ મહા દુર્લભ છે. આ પ્રથમ ચૌલક દૃષ્ટાંત બતાવેલ છે. હવે બીજું પાશક દષ્ટાંત કહેવામાં આવે છે– જુગાર ખેલવામાં જેને ઉપયોગ કરવામાં આવે છે તેને પાસા કહે છે. તેનું નામ પાશક છે. તેનું દષ્ટાંત આ પ્રકારનું છે.– ગલ્લ દેશમાં ચણક નામના ગામમાં ઘણા જ શીલ વત ગુણ સંપન્ન અને વ્રત પ્રાણાતિપાતાદિ વિરમણ પ્રત્યાખ્યાન પિષધ ઉપવાસ વગેરેથી શ્રાવક ધર્મનું પાલન કરવાવાળા ચણક નામનો એક બ્રાહ્મણ રહેતું હતું. એ બન્ને વખત મોઢા ઉપર દેરા સાથેની મુખવસ્ત્રિકા રાખીને સામાયિક અને પ્રતિક્રમણ કરતે હતો. એક દિવસની વાત છે કે, તેને ઘેર સુવ્રત નામના એક મુનિરાજ ભિક્ષા ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #640 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८५ प्रियदर्शिनी टीका अ० ३ गा. १ अङ्गचतुष्टयदौर्लभ्ये पाशकदृष्टान्तः २ नामा मुनिभिक्षार्थ समागतः । तदा चणकब्राह्मणस्य दन्तसहितः पुत्रो जातः । बालकं मुनेः समीपमानीयाऽब्रवीत् - 'भदन्त । अयं दन्तसहितो जातः किमस्य फलं भविष्यति । मुनिः प्राह - अयं दन्तसहितः समुत्पन्नस्तस्मादयं राजा भविष्यति । चणको मुनेर्वचनं निशम्य चिन्तयति-अयं राजा भूत्वा नरकं यास्यति । इत्येवं विचिन्त्य बालकस्य दन्तान् घृष्टवान् । पुनरेकदा कालान्तरे सुव्रतमुनिश्वणकस्य गृहे समागतः ततश्चणकब्राह्मणो मुनिं प्राह - भदन्त ! अस्य बालकस्य दन्ता घृष्टाः । मुनिर्वदति-दन्तेषु घृष्टेषु बालकोऽयं राजा न स्यात्, किं तु सर्वाधिकारसंपन्नः सचिवो भविष्यति । चणकेन सुव्रत नाम के मुनिराज भिक्षा के लिये आये । उस समय उस ब्राह्मण के यहां दांत सहित एक पुत्र उत्पन्न हुआ था । चणक ने उस बालक को मुनि के समीप लाकर कहा - भदन्त ! यह बालक दांतसहित उत्प न्न हुआ है इसका क्या फल होना चाहिये सो कृपा कर कहिये । सुनकर मुनिराज ने कहा- यह जो दाँतोंसहित उत्पन्न हुआ है उसका यह फल है कि यह राजा होगा । चणक ने मुनि के वचन सुनकर विचार किया कि यदि यह राजा होगा तो दुर्गति का भागी हो जायगा इसलिये उसने उसके दांतों को घिस दिया । कालान्तर में वे ही सुव्रतमुनि एक दिन चणक के घर पर पुनः पधारे। मुनिराज को आये देखकर चणक ने उनसे कहा - भदन्त ! इस बालक के दांतों को मैंने घिस दिया है । चणक की बात सुनकर मुनिराज ने कहा- दांतों को घिसे जाने से यद्यपि यह बालक राजा नहीं हो सकेगा तो भी राजा जैसा होगा, अर्थात् राजा का सर्वाधिकार માટે આવ્યા. તે વખતે એ બ્રાહ્મણને ઘેર જન્મ વખતે દાંત સહિત એક પુત્ર જન્મ્યા હતા, ચણુક એ ખાળકને મુનિ પાસે લઇ આવ્યા અને કહ્યુ', ભદત! આ બાળક દાંત સાથે ઉત્પન્ન થયા છે. એનુ શુ' ફળ હાવુ જોઈએ ? સાંભળી મુનિરાજે કહ્યું કે, દાંત સહીત ઉત્પન્ન થયેલ આ બાળકનુ ફળ એ છે કે, તે રાજા થશે. ચણકે મુનિનુ` વચન સાંભળીને મનમાં વિચાર કર્યું કે, જો આ બાળક રાજા થશે તે દ્રુતિ ભાગવનાર બનશે. આથી તેણે તે ખાળકના દાંત ઘસી નાખ્યા. વખત જતાં તે સુવ્રત મુનિ એક દિવસ ચણકને ત્યાં ફરીથી પધાર્યાં. મુનિરાજને આવેલા જોઈને ચણકે તેમને કહ્યું હે ભદત! મેં આ દાંતાને ઘસી નાખ્યા છે. ચણુકની વાત સાંભળીને મુનિરાજે કહ્યું, દાંતાના ઘસી નાખવાથી જો કે તે રાજા ભલે ન ખની શકે તા પણુ તે રાજા જેવા થશે. અર્થાત બાળકના उ० ७४ ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર ઃ ૧ Page #641 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययनसूत्रे तस्य बालकस्य 'चागक्य' इति नाम कृतम् । स चतुर्दश विद्या अधीतवान् । तस्य यौवने वयसि विवाहः कारितः। चाणक्यस्य श्वशुरो धनाढ्य आसीत् । कदाचित् तस्य गृहे पुत्रस्य परिणयोत्सवः संजातः । तद् वृत्तं विदित्वा चाणक्यस्य भार्या पितुर्भवनं गता। सा गच्छन्ती पतिमवोचत-भवताऽपि तत्रागन्तव्यम् । चाणक्यो वदति-अहं निर्धनोऽस्मि, स धनाढ्योऽस्ति, स ममादरं न करिष्यति, मां निधनं मत्वा तेन नाहं निमन्त्रितः, संपन्न प्रधान बनेगा। चणक ने उस बालक का नाम चाणक्य रखा। चाणक्य ने १४ चौदह विद्याएँ पढी। पढकर जब चाणक्य योग्यता संपन्न हो गया तब युवा होने पर पिताने इसका विवाह कर दिया। चाणक्य का श्वशुरपक्ष धनसंपन्न था। किसी एक समय चाणक्य के ससुराल में विवाह होनेवाला था। चाणक्य की भार्या को जब यह वृत्तान्त ज्ञात हुआ तो वह विवाह में संमिलित होने के लिये पतिगृह से अपने पिता के घर आई । जिस समय यह पतिगृह से पितगृह आई थी तब इसने अपने पति चाणक्य से चलते २ यह कहा था कि आप भी संमिलित होने के लिये वहां आवें । चाणक्य ने उसके प्रत्युत्तर में उससे कहा कि मैं निर्धन हूं-वे धनिक हैं वहां विना बुलाये आने पर मेरा कोई आदर नहीं होगा। यही कारण है कि ससुरने मुझे विवाहका आमंत्रण तक भी नहीं भेजा है । चाणक्य की यह રાજાને સર્વ અધિકાર સંપન્ન એ સર્વાધિકારી પ્રધાન બનશે. ચણકે એ બાળકનું નામ ચાણક્ય રાખ્યું. ચાણક્ય ચૌદ વિદ્યાને અભ્યાસ કર્યો. આ પછી તે વિદ્યાથી સંપન્ન બની ગયેલ અને ગ્ય વયે પહોંચે ત્યારે તેના પિતાએ તેને વિવાહ કરી દીધું. ચાણક્યને શ્વસુરપક્ષ ધન સંપન્ન હતે. કેઈ એક સમય ચાણક્યના શ્વસુરપક્ષમાં લગ્ન પ્રસંગ હતો. ચાણક્યની પત્નિએ જ્યારે આ હકીકત જાણી ત્યારે તે લગ્ન પ્રસંગમાં સામેલ થવા માટે પતિને ત્યાંથી નીકળી પિતાના પિતાના ઘેર આવી. જે સમય તે પિતાના પતિને ત્યાંથી નીકળેલી ત્યારે તેણે પિતાના પતિ ચાણક્યને પણ લગ્ન પ્રસંગમાં આવવાનું કહેલું. જેના પ્રત્યુતરમાં ચાણક્ય જણાવેલું કે, હું નિધન છું એ ધનવાન છે. ત્યાં બોલાવ્યા વગર જવાથી મારો ગ્ય આદર ન પણ થાય અને મારી નિર્ધન અવસ્થા એ પણ એક કારણ છે કે જેને લઈ મને લગ્નનું આમંત્રણ પણ આપવામાં આવેલ નથી. ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #642 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रियदर्शिनी टीका. अ० ३ गा० १ अङ्गचतुष्टय दौर्लभ्ये पाशकदृष्टान्तः २ ५८७ चाणक्ये नैवमुक्ता भार्या पुनस्तत्राऽऽगन्तुं पतिं प्रार्थितवती । ततः स्वभार्यानुरोरोधेन चाणक्योsपि पश्चात् तत्र गतः । ग्रामाद् बहिः क्वचिद् वृक्षतले चाणक्यः स्थित्वा श्वशुरं प्रति संदेशं प्रेषयति । श्वश्रूः श्वशुरश्च चाणक्यं प्रति तदुत्तरं दत्तवन्तौत्वया दिवसेऽत्र नागन्तव्यम्, रात्रौ भवनस्य पश्चाद्भागवर्तिना मार्गेणागन्तव्यम् । चाणक्यस्तच्छ्रुत्वा तथैव रात्रौ गतः । श्वश्रूः श्वशुरथ भवनस्यावस्तनभूमिका यां चाणक्यं भोजयतः । अन्यान् सम्बन्धिनस्तु भवनोपरितनभूमिकायाम् । श्वश्रूश्वाक्या शुष्कं रुक्षं भोजनीयं परिवेषयति, अन्येभ्यस्तु विविधानि मिष्टान्नानि । बात सुनकर उसकी भार्या ने पुनः उनसे यही प्रार्थना की कि आप इस बात का विचार न कर वहां अवश्य आवें । भार्या के इस प्रकार के अनुरोध करने पर चाणक्य भी पीछे से वहां गया। उसने श्वशुरगृह में पहुँचने के पहिले बाहिर ही किसी वृक्ष के नीचे ठहर कर श्वशुर के पास अपने आनेका समाचार भेजा । सास ससुर ने चाणक्य के प्रति उत्तररूप संदेश भेजा कि आप आये बहुत अच्छा किया परन्तु आप यहां दिनमें नआवें, रात्रि में आवें, सो भी मकान के पीछे के मार्ग से आवें - साम्हने के मार्ग से नहीं । चाणक्यने ऐसा ही किया। वे रात्रि में श्वशुरगृह पर पहुंचे। सास और श्वशुरने चाणक्य को भोंयरे में बैठाकर भोजन कराया। बाकीजो और संबंधीजन थे उन सबको मकान की छतपर बैठाकर भोजन कराया | चाणक्य के लिये सासुजी ने जो भोजन परोसा था वह इकदम बिलकुल शुष्क एवं रूक्ष था । दूसरे महेमानों के लिये जो भोजन परोसा गया था वह विविध प्रकार के मिष्टान्नों से युक्त था । चाणक्य ચાણક્યનું આ વચન સાંભળી તેની પત્નિએ એવી પ્રાર્થના કરી કે, તમે આવી વાતને વિચાર ન કરતાં લગ્નમાં જરૂરથી આવે. પત્નિના આવા આગ્રહને વશ બની પાછ ળથી ચાણુષ્ય લગ્ન પ્રસંગમાં સામેલ થવા ત્યાં ગયા. એણે સાસરાને ત્યાં પહેાંચતાં પહેલાં ગામની ભાગાળે કોઇ એક વૃક્ષ નીચે રોકાઈને સાસરાને પેાતાના આવવાના ખુખર માકલ્યા. સાસુ સસરાએ તેના આવવાના સમાચાર જાણી તેને કહેવરાવ્યું કે, તમે આવ્યા તે ઠીક કર્યું'. પરંતુ તમે દિવસના ભાગમાં અહિં આવશે। નહીં'. રાતના વખતે અને તે પણુ મકાનના પાછલા ભાગમાં થઈ ને આવજે. ચાણક્યે એમ જ કર્યું. તે રાતના વખતે સાસરાને ઘેર પહેાંચ્યા. સાસુ સસરાએ તેને મકાનના ભેાંયતળીયે બેસાડીને ભાજન કરાવ્યું. જ્યારે બાકીના મહેમાનને એક સાથે સમાશહમાં ઉપરના માળે લેાજન કરાવ્યું. ચાણકયને આપવામાં આવેલ ભાજન પશુ સાવ નિરસ અને શુષ્ક હતું. જ્યારે બીજા મહેમાનને સ્વાદિષ્ટ મિષ્ટ ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર ઃ ૧ Page #643 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८८ उत्तराध्ययन सूत्रे एवमपमानितो भूत्वा सभार्य चाणक्यः स्वगृहं समागतः । तदा चाणक्येन चिन्तितम् - श्वशुरेण मम निर्धनत्वादपमानः कृतः । इति विचिन्त्य धनमर्जयितुं चाणक्यः पाटलिपुत्र नगरे नन्दनाम्नो नृपस्य समीपे योगिवेषेण गतः । पूर्वाह्णे राज्यकार्यालये प्रविष्टः, तदा तस्य दासी कार्यालयं संमार्जयन्ती पश्यति -चाणक्यः सिंहासने तुम्बीपात्रं स्वासनं च स्थापयति । नन्दनृपस्य भृत्याश्चाणक्यं तिरस्कृत्य बहिर्निःसारयन्ति । तदा चाणक्येन प्रतिज्ञा कृता - नन्दनृपस्य राज्यं समूलं नाशयिष्यामि । अपना इस प्रकार का वहां निरादर देख कर भार्या को साथ में लेकर अपने घर पर वापिस आ गया। आकर उसने विचार किया कि श्वशुर ने जो मेरा निरादर किया है उसका कारण मेरी यह निर्धनता है, अतः धन कमाने का प्रयत्न करना चाहिये । इस प्रकार विचार करने के बाद यह धन कमाने के लिये पाटलीपुत्र नगर में नन्द नाम के राजा के पास योगी का वेष धारण कर पहुँचा । पूर्वाह्न अर्थात् दिन के पूर्व भाग में चाणक्य ने कचहरी में प्रवेश किया, एक उस कचहरी की दासी ने जो उस समय उस कचहरी को झाड़ रही थी चाणक्य को देखा, चाणक्य ने वहां एक ओर सिंहासन के ऊपर अपना तुम्बीपात्र और आसन रख दिया । नन्द राजा के नौकरों ने यह देखकर चाणक्य को धक्का देकर एवं तिरस्कार कर के वहाँ से बाहिर निकाल दिया । चाणक्य ने इस अपमान से क्रुद्ध होकर वहीं पर यह प्रतिज्ञा की, कि मैं इस नन्दनृप के राज्य का समूल विनाश कर दूंगा । इस प्रकार कह લેાજન જમાડયું. ચાણકય આ પ્રકારની પેાતાના પ્રત્યેની વર્તણુંક જોઈને પેાતાની પત્નિને લઈને પોતાને ઘેર પાછા ફર્યાં. ઘેર આવીને તેણે મનમાં એવા વિચાર કર્યો કે, સાસુસસરાએ મારૂ જે અપમાન કર્યું તેનું કારણુ મારી નિર્ધનતા જ છે. આથી ધન કમાવવાના મારે પ્રયત્ન કરવા જોઇએ. આ પ્રમાણે વિચાર કર્યાં પછી તે ધન કમાવા માટે પાટલીપુત્ર નગરમાં નંદ રાજાની પાસે યાગીના વેશ ધારણ કરી પહેાંચી ગયા. દિવસના પહેલા પ્રહરમાં ચાણક્યે રાજકચેરીમાં પ્રવેશ કર્યાં. એ વખતે રાજકચેરીની દાસી કચેરીને સાસુફ કરી રહી હતી. તેણે ચાણક્યને જોયા. ચાણક્યે ત્યાં એક સિંહાસન ઉપર પેાતાનુ' તુ ખીપાત્ર અને આસન રાખી દીધું. નંદ રાજાના નાકરાએ આ જોઈને ચાણક્યને ધક્કા મારીને તથા તેને તિરસ્કાર કરીને ખહાર કાઢી મુકયા. ચાણુયે આ અપમાનથી ક્રોધિત થઈને ત્યાંજ પ્રતિજ્ઞા કરી કે, હવે હું આ નંદરાજાના રાજ્યના સમૂળગેાજ વિનાશ કરી નાખીશ. આ પ્રમાણે નિણૅય કરીને તે ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર ઃ ૧ Page #644 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रियदर्शिनी टीका अ० ३ गा. १ अङ्गचतुष्टय दौर्लभ्ये पाशकदृष्टान्तः २ ५८९ ततश्चाणक्यस्तस्य नन्दनृपस्य राज्ये भ्रमन् मयूरनामके लघुग्रामे समागतः, तत्र मयूरपालको निवसति । तत्र मयूरपालकस्य सगर्भायां भार्यायाचन्द्रपानदोहदो जातः । सा दोहदालाभेन कृशशरीरा खिन्ना संजाता । संन्यासिवेषेण चाणक्यस्तत्र भ्रमन मयूरपालकस्य गृहे समायातः । दोहदालाभेन मयूरपालकस्य भार्या कृशां दीनां विलोक्य चाणक्यो व्रते भो ! मयूरपालक ! अहमस्या दोहदं पूरयिष्यामि, यदाऽस्याः पुत्रोऽष्टवर्षवयस्क ः स्यात् तदा मम शिष्यत्वेन भवता समर्पणीयः । मयूरपालकेन तद् वचनं स्वीकृतम् । ततश्चाणक्यः सच्छिद्रं मण्डपं कारयित्वा तस्यो - कर वह चाणक्य वहां से चलकर नंद राजा के राज्य के ही अन्तर्गत मयूर नाम के किसी एक छोटे से गांव में चला गया। वहां एक मयूरों को पालने वाला मयूरपालक नामक पुरुष रहता था । उसकी भार्या गर्भवती थी ! उसे चन्द्र को पीने का दोहला उत्पन्न हुआ था । दोहले की पूर्ति न हो सकने के कारण शरीर से वह विशेष कृश हो गई थी । तथा चिन्तित भी रहती थी । चाणक्य भी इधर उधर घूमता घामता मयूरपालक के घर आया । मयूरपालक की पत्नी को ज्यों ही उसने दोहद की पूर्ति न हो सकने के कारण कृशशरीर एवं खेदखिन्न जाना तो कहने लगा हे मयूरपालक ! तुम्हारी धर्मपत्नी के चन्द्र पीने के दाहद की पूर्ति मैं कर सकता हूं यदि तुम हमारी इस शर्त को कबूल कर सको तो, शर्त यह है कि जब इसका बालक आठ वर्ष का हो जाय तो तुम उसे मुझे दे देना, मैं उसे अपना शिष्य बना लूंगा । मयूरपालक ने चाणक्य की शर्त स्वीकार करली | ચાણક્ય ન દરાજાના રાજ્યની અ ંદર આવેલા મયૂર નામના એક નાનકડા ગામમાં ચાલ્યા ગયા. ત્યાં મેારને પાળવાવાળા મયૂરપાલક નામના એક પુરૂષ રહેતા હતા. તેની સ્ત્રી ગર્ભવતી હતી. તેને ચંદ્ર પિવાની ઈચ્છા ઉત્પન્ન થઈ હતી. તે ઈચ્છા પરિપૂર્ણ ન થઈ શકવાના કારણે તે શરીરે અત્યંત દુઃખની થઈ ગઈ તથા ચિંતાતુર રહેતી હતી. ચાણક્ય પણ આમ તેમ ફરતાં ફરતાં મયૂરપાલકને ઘેર આવી પહેાંચ્યા. મયૂરપાલકની સ્ત્રીને તેની ઇચ્છા પરિપૂર્ણ ન થઈ શકવાના કારણે શરીરે દુખળી તેમજ ચિંતાતુર દેખીને તે કહેવા લાગ્યા, મયૂરપાલક તારી પત્નિને ચંદ્ર પીવાની જે ઈચ્છા થઇ છે તે હું પરિપૂર્ણ કરી શકું તેમ છું પણ તું મારી એક શરતને કબુલ કરેતા જ. શત એ છે કે, જ્યારે તારી પત્નિને અવતરનાર બાળક આઠ વર્ષના થાય ત્યારે તે ખાળક મને સેાંપી દેવા પડશે. તેને મારો શિષ્ય બનાવીશ. મયૂરપાલકે ચાણુષ્યની શ'ના સ્વીકાર કર્યાં. ચાણયે ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર ઃ ૧ Page #645 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययनसूत्रे प्रमागे तच्छिद्राच्छादनार्थ कंचिदेकं पुरुष गुप्तरीत्या नियोज्य छिद्रस्याधस्तात् सितामिश्रपयःपूर्ण स्थालं स्थापितवान् । अथ मध्यरात्रे तच्छिद्रद्वारेण तत्र स्थाले चन्द्रप्रतिबिम्बसंपाते सति मयूरपालभार्या तत्र नोत्वा चाणक्यः स्थालगतं चन्द्रप्रतिबिम्ब प्रदर्शयन् पाह-अयं चन्द्रः पीयताम् । ततः सा चन्द्रप्रतिबिम्बसहितं स्थालमुत्थाप्य दुग्धं पिबति, तस्मिन्नेव समये छिद्रसमीपस्थः पुरुषः शनैः शनैछिद्रमाच्छादयति । चाणक्य ने अब उसके चन्द्र पीने के दोहले की पूर्ति करने का प्रयत्न प्रारंभ कर दिया। इसमें उसने एक सछिद्र मंडप तयार करवाया। उसके उर्ध्वभाग में गुप्तरीति से एक पुरुष की उसने नियुक्ति की, जो उस छिद्र के पास जाकर बैठ गया। जहां छिद्र था ठीक उसी के नीचे उसने मिश्री से मिश्रित कर एक दूध का भरा हुआ थाल रख दिया । मध्यरात्रि में उस छिद्र के द्वारा उस थाल में चन्द्र का प्रतिबिंब ज्यों ही पड़ा कि चाणक्य ने मयूरपालक की भार्या को वहां बुलवा लिया। उसके आनेपर चाणक्य ने उसको उस थाल में रहे हुए प्रतिविम्ब को दिखलाया और कहने लगा देखो यह रहा चन्द्र, पी जाओ। उस ने उसी समय चन्द्रप्रतिबिम्बसहित थाल को उठा कर उसमें का दूध पीना प्रारंभ कर दिया । ज्यों २ यह दूध पीती जाती थी त्यों २ छिद्र के पास बैठा हुआ वह मंडप के ऊपर रहा व्यक्ति उस छिद्र को वीरे २ बन्द करता जाता था। जब वह पूरा दूध पी चुकी तो उसने भी उस छिद्र को पूरी बंन्द कर दिया। इस प्रकार चाणक्य ने उसके चन्द्र હવે ચંદ્ર પીવાની મયૂરપાલકની પત્નિની ઈચ્છાને પરિપૂર્ણ કરવાના પ્રયત્નની શરૂઆત કરી દીધી. આમાં તેણે એક છિદ્રવાળે મંડપ તૈયાર કરાવ્યું તેના ઉર્વભાગમાં ગુપ્ત રીતે એક પુરૂષને તે છિદ્ર પાસે બેસાડશે. જ્યાં છિદ્ર હતું ત્યાં બરાબર તેની નીચે સાકરથી મિશ્રીત કરેલ દૂધથી ભરેલો એક થાળ રાખે. મધ્યરાત્રીએ આ છિદ્ર દ્વારા તે થાળીમાં ચંદ્રનું જ્યારે પ્રતિબિંબ પડ્યું ત્યારે ચાણ મયૂરપાલકની સ્ત્રીને ત્યાં બોલાવી. અને થાળીમાં દેખાતા ચંદ્રને બતાવી કહ્યું કે, લે આ રહ્ય ચંદ્ર! પી જાઓ. તેણીએ તે વખતે ચંદ્રના પ્રતિબિંબવાળ થાળને ઉઠાવીને તેમાંનું દૂધ પીવાની શરૂઆત કરી. જેમ જેમ તે દૂધ પીતી ગઈ તેમ તેમ તે છિદ્રની પાસે બેઠેલ તેમજ તે મંડપની ઉપર છુપાઈ રહેલ તે વ્યક્તિએ તે છિદ્રને ધીરે ધીરે બંધ કરવા માંડયું. જ્યારે તેણુએ બધું દૂધ પી લીધું ત્યારે તેણે પણ છિદ્રને પુરેપુરૂં બંધ કરી દીધું. ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #646 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रियदर्शिनी टीका. अ० ३ गा० १ अङ्गचतुष्टयदौर्लभ्ये पाशकदृष्टान्तः ५९१ एवं चाणक्येन तस्याश्चन्द्रपानदोहदः सफलीकृतः । तदनु चाणक्यो रसायनादिभिर्धनार्जनं कर्तुं प्रवृत्तः। इतश्च समये प्राप्ते सति संपूर्णदोहदायास्तस्याः पुत्रो जातः । जनन्या दोहदपूर्तिसमये चन्द्रस्य गोपनात् पित्रा तस्य बालकस्य 'चन्द्रगुप्त' इति नाम कृतम् । चन्द्रगुप्तः क्रीडनकाले बालकैः सह राजनीति मदर्शयन् क्रीडति। यदा चन्द्रगुप्तोऽष्टवर्षवयस्को जातः, तदा पुनश्चाणक्यस्तत्रागतः । ततो विदित. स्वजन्मवृत्तान्तोऽसौ चन्द्रगुप्तश्चाणक्यं प्राह-भो मुनीन्द्र ! भवान् स्वेन सह मां नयतु । चाणक्यो वदति-त्वत्पिता त्वां प्रतिषेत्स्यति । चन्द्रगुप्तो वदति-मम पिता पीने के दोहले की पूर्ति करने में सफलता प्राप्त करली । वह भी अपने दोहले की पूर्ति से विशेष प्रसन्न हुई। इसके बाद चाणक्य ने रासाय. निक क्रिया द्वारा धन का उपार्जन करना प्रारंभ कर दिया। इस तरफ जब पूरे नौ मास व्यतीत हो चुके तब दोहले की पूर्ति से प्रसन्न हुई उस मयूरपालक की पत्नी के पुत्र उत्पन्न हुआ। माता की गर्भावस्था में चंद्र को गोपन करने से पिताने उसका नाम चन्द्रगुप्त रखा। धीरे २ जब चन्द्रगुप्त बालकों के साथ क्रीडा करने के लायक हो गया तब वह उनके साथ खेलते समय राजनीति का प्रदर्शन करने लगा। जिस समय चन्द्रगुप्त की अवस्था आठ वर्ष की हो गई उस समय चाणक्य मयूरपालक के घर पर आया चाणक्य ने चंद्रगुप्त को उसकी उत्पत्ति के वृत्तान्त से विदित कर दिया। चन्द्रगुप्त को जब अपनी उत्पत्ति का वृत्तान्त विदित हो चुका तो उसने चाणक्य से कहा हे महात्मा ! आप मुझे अपने ही साथ ले चलिये । चाणक्य ने कहा तुम्हारा पिता આ પ્રમાણે ચાણયે તેણીની ચંદ્ર પીવાની ઈચ્છાને પરિપૂર્ણ કરવામાં સફળતા મેળવી પિતાની ઈચ્છાની પરિપૂર્ણતાથી મયૂરપાલકની પત્નિ ખૂબ પ્રસન્નતામાં રહેવા લાગી. આ પછી ચાણયે રસાયણીક ક્રિયાઓ દ્વારા ધન મેળવવાની શરૂઆત કરી દીધી. આ તરફ જ્યારે પુરા નવ મહિના વીતી ગયા ત્યારે પિતાની ઈચ્છાની પૂર્તિથી પ્રસન્ન થયેલી તે મયૂરપાલકની પત્નિએ પુત્રને જન્મ આપે. પિતાએ તેનું નામ ચંદ્રગુપ્ત રાખ્યું. સમય જતાં જ્યારે ચંદ્રગુપ્ત બાળકની સાથે રમવાને લાયક થયે ત્યારે તેણે બાળકની સાથે ખેલતી વખતે રાજનીતિનું શિક્ષણ આપવા માંડયું. યથા સમયે જ્યારે ચંદ્રગુપ્ત આઠ વર્ષને થયો ત્યારે ચાણક્ય મયૂરપાલકને ઘેર આવી પહોંચ્યા. ચાણક્ય ચંદ્રગુપ્તને તેના જન્મ કાળનું વૃત્તાંત કહ્યું ચંદ્રગુપ્ત પિતાના જન્મકાળનું વૃત્તાંત જાણ્યું ત્યારે તેણે ચાણક્યને કહ્યું, હે મહાત્મા! આપ મને આપની સાથે લઈ જાઓ, ચાણક્ય ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #647 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५९२ उत्तराध्ययनसूत्रे पूर्वमेव मां दत्तवान् । ततश्चाणक्यश्चन्द्रगुप्तं सह नीत्वा पाह-तव राज्यलाभं करिप्यामि । ततश्चाणक्यो वनं गत्वा रसायनेन द्रव्यं निर्माय तत्पभावात् सेनां संगृहीतवान् । सैनिकैः सह स पाटलिपुत्रनगरे नन्दनृपतिमाक्रमते स्म । नन्दनृपतिश्चाणक्यस्य पराजयं कृतवान् । चन्द्रगुप्तेन सह चाणक्यस्ततोऽपमृत्य क्वचित् प्रच्छन्नो भूत्वा स्थितः । नन्दनृपतेः कश्चित् सैनिकोऽश्वमारुह्य चाणक्यं ग्रहीतुमागतः। चाणक्यस्तं विलोक्य चिन्तयति-अयं तु मां ग्रहीतुं प्रत्यासन्नो भवति, बालकोऽयं चन्द्रमेरे साथ चलने में तुम्हें निषेध करेगा। चन्द्रगुप्त ने कहा-निषेध क्यों करेगा ? पिता ने तो मुझे आपको पहिले से ही दे दिया है । चंद्रगुप्त की बात सुनकर चाणक्य ने चंद्रगुप्त को अपने साथ ले लिया। कहा-चलो मै तुम्हें राज्य की प्राप्ति कराऊँगा। चन्द्रगुप्त को साथ लेकर चाणक्य वन में पहुँचा । रसायन से उसने वहां द्रव्य को खूब इकट्ठा किया और उसके प्रभाव से उसने वहीं पर सेना का संग्रह करना भी प्रारंभ कर दिया। जब सेना अच्छी तरह संगृहीत हो चुकी तो चाणक्य ने सेना को लेकर पाटलिपुत्र में जाकर राजा नन्द के ऊपर आक्रमण कर दिया। राजा नन्द ने चाणक्य को पराजित कर वहां से निकाल दिया। चाणक्य भी परास्त होकर चन्द्रगुप्त को साथ लेकर वहां से चला गया और किसी जगह गुप्तरूप से जाकर छिप गया। राजा नन्द ने चाणक्य को पकड़ ने के लिये ऊसके पीछे एक अपना घुड़सवार भेजा। घुड़सवार को अपना पीछा करते हुए देखकर चाणक्य ने विचार किया કહ્યું કે તારા પિતા તને મારી સાથે મોકલવામાં અડચણ ઉભી કરશે ચંદ્રગુપ્ત કહ્યું અડચણ શા માટે કરશે? પિતાએ તે પહેલેથી જ મને આપને સુપ્રત કરેલ છે. ચંદ્રગુપ્તની વાત સાંભળીને ચાણયે ચંદ્રગુપ્તને પિતાની સાથે લઈ લીધે અને કહ્યું, ચાલે ! હું તમને રાજ્યની પ્રાપ્તિ કરાવીશ. ચંદ્રગુપ્તને લઈ ચાણક્ય વનમાં ગયા. રસાયણ પ્રયોગથી ત્યાં તેણે ખૂબ દ્રવ્ય એકઠું કર્યું અને એની સહાયથી સેના એકઠી કરવાનો આરંભ કરી દીધે. સેનાને લઈને પાટલીપુત્ર પહોંચી નંદરાજા ઉપર આક્રમણ કર્યું. યુદ્ધમાં રાજાનંદે ચાણક્યને પરાજ્ય કરીને ભગાડી મૂક્યા. ચાણક્ય હારી જવાથી ચંદ્રગુપ્તને સાથે લઈ ત્યાંથી ચાલી નીકળ્યા અને કઈ છુપા સ્થળે જઈ રહેવા લાગ્યા. રાજા નંદે ચાણક્યને પકડવા માટે તેની પાછળ એક ઘોડેસ્વારને મોકલ્યો. ઘોડેસ્વાર પિતાને પીછો પકડી રહ્યો છે. જાણીને ચાણક્ય વિચાર કરવા લાગ્યા કે તે મને પકડવા ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #648 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रियदर्शिनी टीका. अ० ३ गा० १ अङ्गचतुष्टयदौर्लभ्ये पाशकष्टान्तः ५९३ गुप्तः कथं मया सह गन्तुं प्रभवति । इत्येवं विचार्य स तत्र सरस्तटे वस्त्रं धावमानस्य रजकस्यान्तिके गत्वा वदति-अरे रजक ! नन्दनपतेः सैनिकास्त्वां हन्तुमागच्छन्ति । रजकस्तद्वचनं श्रुत्वा तद्भयात् ततः पलायितः । चाणक्यस्तानि वस्त्राणि धावमानस्तत्र संस्थितः, चन्द्रगुप्तोऽपि तत्रैवान्यभागे जले प्रविश्य प्रच्छन्नोऽभवत् । अश्वाadrsat नन्दराज पुरुषस्तत्रागत्य पृच्छति - अरे रजक ! चाणक्यः क्व गतः १ रजकवेषधारी चाणक्यः प्राह - जळे प्रविष्टः ततोऽसौ नन्दराजपुरुषस्तस्य कृतरजकि यह तो मुझे पकड़ने के लिये बिलकुल ही पास आ चुका है, यह चन्द्रगुप्त बालक है मेरे साथ दौड़ सकता नहीं है अतः एक उपाय करना चाहिये कि जो साम्हने के तालाब पर धोबी कपडे धो रहा है उसको किसी बहाने से वहां से भगा देना चाहिये और स्वयं को उसका काम करने लग जाना चाहिये तभी रक्षा हो सकती है। ऐसा विचार कर चाणक्य उस धोबी के पास आकर कहने लगा कि अरे धोबी ! तूं देखता नहीं है राजा के सैनिक तुझे मारने के लिये आ रहे हैं। धोबी ने ज्यों ही चाणक्य की इस बात को सुना कि वह वहां से एकदम भाग गया । चाणक्य ने अपनी नीति में सफलता प्राप्त की और उस धोबी के जो कपडे वहां धोने के लिए पडे हुए थे उन्हें धोना प्रारंभ कर दिया । चन्द्रगुप्त भी वहीं पर एक किनारे पानी में जाकर छुप गया । वह आश्वारूढ राजपुरुष जो इनके पीछे पड़ा हुआ था वहां पर आ पहुँचा। उसने आते ही उससे पूछा कि अरे धोबी ! चाणक्य कहां गया है । रजकवेषधारी चाणक्य ने कहा कि वह अभी जल में घुस માટે તદૃન નજીક આવી ગયેલ છે. આ બાળક ચંદ્રગુપ્ત મારી સાથે દોડી શકશે નહી', માટે એના કાંઇક ઉપાય કરવા જોઈએ. સામા તળાવ ઉપર ધેાખી કપડાં ધોઈ રહ્યો છે, તેમને કાઇ પણ બહાને ત્યાંથી ભગાડી દે અને પેતે તે કામ કરવા લાગી જાય કે જેથી રક્ષા થાય આવા વિચાર કરીને ચાણક્ય તે ધેામીની પાસે જઇને કહેવા લાગ્યા, કે હું ધામી! તું જોતા નથી કે રાજાનેા સૈનિક તને મારવા માટે આવી રહ્યો છે! ધાબી ચાણકયની આ વાત સાંભળીને ત્યાંથી એકદમ ભાગવા લાગ્યા. ચાણક પેાતાની નીતિને મળેલી સફળતા જોઈ ને તે ધેાખીનાં જે કપડાં ત્યાં ધેાવા માટે પડયાં હતાં તેને ધાવા લાગ્યા. ચ'દ્રગુપ્ત પણુ કિનારા ઉપર પાણીમાં જઇને છુપાઈ ગયા. એટલામાં પેલા ઘેાડેસ્વાર રાજપુરૂષ જે તેમની પાછળ પડયા હતા તે ત્યાં આવી પહોંચ્યા. તેણે આવીને પૂછ્યું', અરે ધેાખી ! ચાણક્ય કઈ બાજુએ ગયા ? ધામી વેશધારી ચાણક્યે કહ્યું કે, તે હમણાં જ પાણીમાં ઉતરી ગયેા છે. તેની उ० ७५ ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર ઃ ૧ Page #649 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५९४ उत्तराध्ययन सूत्रे कवेषस्य चाणक्यस्य हस्ते स्व खङ्गं हयं च दत्वा जले प्रविशति । तस्मिन्नेव समये रजकरूपश्चाणक्यस्तेन खङ्गेन तस्य नन्दराजपुरुषस्य शिरश्चिच्छेद । ततश्चाणक्यश्चन्द्रगुप्तेन सह स्थानान्तरं गतः । कस्मिंश्चिद् ग्रामे भिक्षार्थं गृहस्थगृहे गत्वा पश्यति - एका वृद्धा स्थालके पायसं परिविष्य बालकाय भोक्तुं ददाति । तेन बालकेन स्थालकस्य मध्यभागे हस्तो निक्षिप्तः । प्रतप्तपायसस्पर्शेन तस्य हस्तो दग्धः, तेनासौ क्रन्दति । वृद्धा वदति - रे मूढ ! त्वं चाणक्य इव किमाचरसि । एतद् वचनं श्रुत्वा वृद्धां चाणक्यः प्राह - मातः ! किमनुचितं चाणक्येन कृतम्, गया है। सवार ने ज्यों ही यह बात सुनी तो वह अपने घोडे से नीचे उतर पड़ा और कहने लगा कि तुम मेरे इस घोड़े को और तलवार को पकडे रहो, जबतक मैं जलमें घुस कर उसे पकड लाता हूं। इतने में ही चाणक्य ने उसकी ही तलवार से उसको मार दिया । चाणक्य वहां से चंद्रगुप्त को साथ लेकर किसी दूसरे स्थान पर चला गया । एक समय की बात है कि चाणक्य जब भिक्षा लेने के लिये किसी दूसरे गांव में एक गृहस्थ के घर पर गया हुआ था तब उसने वहां देखा कि एक वृद्धा ने थाली में गर्म खीर परोस कर खाने के लिये किसी बालक को दी और उस बालक ने उस गर्म खीर से युक्त थाली के बीचोबीच हाथ डाल दिया सो गर्म खीर के उष्णस्पर्श से उस बालक का हाथ जल गया इससे वह रोने लगा। उसको रोता देखकर वृद्धा ने कहा कि रे मूढ ! तू चाणक्य की तरह क्यों होता जा रहा है । वृद्धा के ये वचन सुनकर चाणक्य ने उससे कहा हे माता ! चाणक्य આ વાત સાંભળીને તે પાતાના ઘેાડા ઉપરથી નીચે ઉતર્યાં અને કહેવા લાગ્યા, મારા આ ઘેાડાને અને તરવારને તમે સાચવા ત્યાંસુધીમાં હું હમણાં જ તેને પાણીમાંથી પકડી લાવું છું. ઘેાડા અને તરવાર હાથ કરીને ચાણકયે તરવારથી પેલા સ્વારને મારી નાખ્યા. એને મારીને ચાણક્ય ચંદ્રગુપ્તને સાથે લઈ કાઈ ખીજા સ્થળે ચાલ્યા ગયા. એક સમયની વાત છે કે જ્યારે ચાણુક્ય ત્યાં સ્થિર થઈ ભિક્ષા લેવા માટે કાઈ ખીજા ગામે એક ગૃહસ્થને ત્યાં ગયા. ત્યાં તે ભિક્ષા માટે પહોંચ્યા, એજ વખતે એક વૃદ્ધા થાળીમાં ગરમા ગરમ ખીર પીરસી બાળકને ખવરાવવાની તૈયારી કરી રહેલ હતી. ખાળકે ખીર ખાવાની ઉતાવળમાં તે ગરમ ખીરથી ભરેલી થાળીની વચ્ચેા વચ્ચે હાથ નાખ્યો. ગરમ ખીરના સ્પર્શથી બાળકના હાથ દાન્ત્યા અને રાવા લાગ્યા. આ જોઈ વૃદ્ધાએ તે ખાળકને કહ્યું, કે અરે મૂઢ! ચાણકયના જેવા તુ કેમ થતા જાય છે ? વૃદ્ધાનાં આ વચન સાંભળી ચાણક્યે તે વૃદ્ધાને પૂછ્યું કે હે માતા ! ચાણુમ્સે એવું કર્યુ ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર ઃ ૧ Page #650 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रियदर्शिनी टीका अ० ३ गा. १ अङ्गचतुष्टयदौर्लभ्ये पाशकदृष्टान्तः २ ५९५ वृद्धा प्राह - भोजने राज्यग्रहणे च प्रथमं प्रान्तभागे हस्तो निक्षेपणीयः । एतद्वचनं श्रुत्वा चाणक्यो हिमगिरिं गतवान् । तत्र पर्वतनामको नृपतिरासीत् । तस्य समीपं गत्वा चाणक्योऽवदत्-पाटलिपुत्र नगरे नन्दनृपतिना सह युद्धे भवान् सहयोगं दद्यात् तर्हि तद राज्यं भवते दास्यामि । तदा पर्वतेन तस्य वचनं स्वीकृतम् । ततश्चाणक्यः पर्वतश्च चन्द्रगुप्तेन सह पाटलिपुत्रनगरमागस्य नन्दं विजित्य राज्यं गृहीतवन्तौ । तदा नन्दनृपतिर्धर्मद्वारेण निःसतुं प्रार्थयति, चन्द्रगुप्तेन तत्मार्थनं स्वीकृत्य कथितम् - एकस्मिन् रथे यावद् द्रव्यं समाविशति, तावद् द्रव्यमुपादाय ने क्या अनुचित किया है ? | वृद्धा ने कहा भोजन एवं राज्यग्रहण में प्रथम प्रान्तभाग में हाथ डालना चाहिये । वृद्धा के वचन सुनकर चाणक्य हिमगिरि जाकर वहां के राजा पर्वत से मिला। उससे चाणक्य ने कहा पाटलिपुत्र नगर में नन्दनृपति के साथ यदि युद्ध मैं आप हमें सहयोग प्रदान करें तो वहां का आधा राज्य हम आपको देंगे । चाणक्य की बात सुनकर पर्वत ने युद्ध में सहायता देना कबूल कर लिया । चंद्रगुप्त को लेकर चाणक्य और पर्वत दोनों मिल कर पाटलिपुत्र आये । वहां नंन्द राजा के ऊपर इन्हों ने धावा बोल दिया । नन्द को परास्त कर उसका राज्य ले लिया । उस समय नन्द ने धर्मद्वार से निकलने के लिये प्रार्थना की। चंद्रगुप्त ने उसकी प्रार्थना को स्वीकार करते हुए कहा - एक रथ में जितना द्रव्य हो सकता हो उतने द्रव्य को અનુચિત કામ કર્યુ છે ? વૃદ્ધાએ કહ્યું કે, લેાજન અને રાજ્ય ગ્રહણમાં પ્રથમ એક છેડેથી હાથ નાખવા જોઇએ. વૃદ્ધાનુ' આ વચન સાંભળી તેને નમન કરીને ચાણક્ય ત્યાંથી ચાલતા થયા. આ પછી ચાણક્યે હિમગિરિ જઇ ત્યાંના રાજા પર્વતની મુલાકાત લીધી અને તેને કહ્યુ` કે, પાટલીપુત્રના રાજા નંદુની સામે અમે યુદ્ધ કરવા ઇચ્છીયે છીએ. એ યુદ્ધમાં તમે જો અમને સાથ આપશે તા તે જીતેલા રાજ્યના અરધા ભાગ તમને આપવામાં આવશે. ચાણક્યની આ વાત સાંભળી પર્વત રાજાએ ચંદ્ધમાં સહાયતા દેવાનુ` કબુલ કર્યું. ચંદ્રગુપ્તને લઈ ને ચાણકય અને પર્વત બન્નેએ પાટલીપુત્ર ઉપર આક્રમણ કર્યુ ". સામસામી લડાઈ થઇ જેમાં રાજા નંદ હારી ગયા, તેના રાજ્યના કમજો ચંદ્રગુપ્તે સભાળી લીધા. આ સમયે નદે ધમ દ્વારથી નિકળવા માટે પ્રાથના કરી. ચંદ્રગુપ્તે તેની પ્રાર્થનાને સ્વીકાર કરીને કહ્યું કે, એક રથમાં જેટલું દ્રવ્ય સમાઇ ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર ઃ ૧ Page #651 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययनसूत्रे भार्यापुत्रादिभिः सह भवानिःसरतु । नन्देन तथैव कृतम्। तदा रथस्थिता नन्दस्य पुत्री निर्गच्छन्ती चन्द्रगुप्तं सानुरागं पश्यति, तदा नन्दः स्वपुत्री पाह-पुत्रि ! अभीष्टं चेचन्द्रगुप्तं वरय । ततोऽसौ नन्दपुत्री चन्द्रगुप्तस्य रथे समारोहति, तदा नव संख्यका रथचक्रस्य अरा भग्नाः । चन्द्रगुप्तस्तद्भङ्गममङ्गलं विज्ञाय नन्दपुत्री प्रतिषेधयति । चाणक्यश्चन्द्रगुप्तं वदति-इदं महन्मङ्गलम् , नवसंख्यका अरा भग्ना इति नवपुरुषपर्यन्तं राज्यं स्थास्यति । ततश्चन्द्रगुप्तः पर्वतश्चाणक्यश्च सर्वे राजभवनं प्रविष्टाः । लेकर आप अपने स्त्रीपुत्रादिकसहित यहां से चले जाये । चन्द्रगुप्त की आज्ञानुसार नन्द ने वैसा ही किया। जिस समय नन्द राज्य से बाहर होकर बालबच्चेसहित चलने लगा उस समय रथ में बैठी हुई नन्द की पुत्री सुचन्द्रा ने बडे ही अनुराग से चंद्रगुप्त की ओर देखा। चंद्रगुप्त की ओर अनुराग से देखनेवाली अपनी पुत्री को देखकर नंद ने कहा कि हे पुत्री ! यदि तेरी इच्छा हो तो तूं इस चंद्रगुप्त को वरले। पिता की बात सुनकर पुत्री चंद्रगुप्त के रथ पर जाकर बैठ गई। जिस समय यह उसके रथ पर बैठी उसी समय चंद्रगुप्त के रथ के पहिये के नौ आरे टूट गये। चंद्रगुप्त ने ज्यों ही अपने रथ के पहिये की यह हालत देखी तो उसने इसमें अमंगल माना और नन्द की पुत्री को उस में बैठने से निषेध कर दिया। चाणक्य ने इस बात को देखकर चंद्रगुप्त से कहा कि तुम जिसे अमंगल समझ रहे हो वह बडा भारी શકે તેટલું લઈ આપ આપના સ્ત્રી પુત્રાદિકને લઈ અહીંથી ચાલ્યા જાવ. નંદે ચંદ્રગુપ્તની આજ્ઞાનુસાર કર્યું. જે સમયે રાજા નંદ પિતાના પરિવાર સહિત રાજ્ય છોડીને જવા લાગ્યા. તે સમયે રથમાં બેઠેલ નંદની પુત્રી સુચન્દ્રાએ ચંદ્રગુપ્તની સામે ભારે અનુરાગથી દ્રષ્ટિ ફેંકી. ચંદ્રગુપ્ત તરફ અનુરાગથી જોઈ રહેલ પિતાની પુત્રીને ઉદ્દેશીને નંદે કહ્યું કે, હે પુત્રિ! જે તારી ઈચ્છા હોય તે તું ખુશીથી ચંદ્રગુપ્તને વરી લે. પિતાની આ વાત સાંભળી સુચંદ્રા તે રથમાંથી ઉતરી ચંદ્રગુપ્તના રથ ઉપર ચઢી ગઈ. જેવી તે ચંદ્રગુપ્તના રથ ઉપર જઈને બેઠી તેવા જ ચંદ્રગુપ્તના રથના પઈડાના નવ આરા તૂટી ગયા. ચંદ્રગુપ્ત પિતાના રથનાં પૈડાને આ બનાવ જોતાં તેના મનમાં અમંગળની શંકા જાગી અને એથી નંદની પુત્રીને રથ ઉપર ચઢવાની ના પાડી. ચાણકયે આ જોઈ ચંદ્રગુપ્તને સમજાવ્યું કે, તમે જેને અમંગળ માને છે તે અમંગ ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #652 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रियदर्शिनी टीका. अ० ३ गा० १ अङ्गचतुष्टयदौर्लभ्ये पाशकहष्टान्तः २ ५९७ चाणक्यस्तदा नन्दराज्यस्य द्वौ मागौ कृत्वा पर्वताय चन्द्रगुप्ताय चैकैकं भाग प्रदत्तवान् । नन्देन स्वभवने विषकन्या स्थापिता । तत्र पर्वतनृपस्तां विलोक्य मोहितो जातः, तस्याः स्पर्शमात्रेण पर्वतनृपो विषाक्रान्तः संजातः । तद्विषापहारार्थ चन्द्रगुप्तः प्रवृत्तः, स चाणक्येन प्रतिषेधितः, तदनन्तरं पर्वतनृपो मृतः। तदा चन्द्रगुप्तस्य राज्यमखण्डं संजातम् । अथ नन्दराज्यान्तर्गताः शत्रुलोकाश्चौर्यादिभिरुपद्रवं कुर्वन्ति । चाणक्यश्चौराणां मंगल है। चक्र के जो नव आरे टूट गये हैं उससे यह सूचित होता है कि नौ पीढी पर्यन्त यह राज्य स्थिर रहेगा । इसके बाद चाणक्य, पर्वत और चंद्रगुप्त राज्यभवन में प्रविष्ट हो गये। चाणक्य ने उस मिले हुए नन्दराज्य के दो भाग किये। एक भाग पर्वत के लिये और दूसरा भाग चन्द्रगुप्त के लिये दिया। नंद के भवन में एक विषकन्या पाली हुई थी। पर्वत इस कन्या को देखकर उस पर मोहित हो गया। ज्यों ही उसने उसका स्पर्श किया कि उसका समस्त शरीर विष से व्यास हो गया। पर्वत के समस्त शरीर में व्याप्त विष को दूर करने के लिये चंद्रगुप्त ने प्रयत्न करना चाहा, परन्तु चाणक्य ने उसे इसके लिये मना कर दिया अतः वह उससे दूर रहने लगा। बाद में पर्वत मर गया। पर्वत के मरते ही चंद्रगुप्त का एकछत्र राज्य हो गया। राज्य परिवर्तित होने से अब नंदराज्यान्तर्गत लोकों ने चोरी आदि उपद्रव करना प्रारंभ कर दिया। चाणक्य ने चोरों को दमन ગળરૂપ નથી પરંતુ ભારે મંગળરૂપ છે. ચક્રના જે નવ આર તૂટી ગયા છે એનાથી એ સૂચિત થાય છે કે, તમારી નવી પેઢી સુધી આ રાજ્ય અચલ અને સ્થિર રહેશે. પછી ચાણક્ય, રાજા પર્વત અને ચંદ્રગુપ્ત બધા રાજભવનમાં ગયા. નંદરાજાના એ રાજ્યના ચાણયે બે ભાગલા પાડયા, એક ભાગ રાજા પર્વતને અને એક ચંદ્રગુપ્તને સુપ્રત કરવામાં આવ્યું. નંદના રજભવનમાં એક વિષકન્યા ઉછેરવામાં આવી હતી. પર્વત એને જોઈ એના ઉપર મહીત બની ગયો. તેણે એ કન્યાના શરીરને સ્પર્શ કર્યો કે તરત જ તેના સમસ્ત શરીરમાં વિષ પ્રસરી ગયું. પર્વતના શરીરમાં પ્રસરી ગયેલા વિષને દૂર કરવા ચંદ્રગુપ્ત તત્પર બન્ય એજ વખતે ચાણક્ય તેને તેમ કરતાં અટકાવ્યો. આથી તેણે તેમ કરવું માંડી વાળ્યું. વિષના ભારે પ્રકાથી પર્વતનું મૃત્યુ થયું. પર્વતના મૃત્યુને કારણે રાજા નંદનું સમગ્ર રાજ્ય ચંદ્રગુપ્તના એક છત્ર નીચે આવી ગયું. રાજ્યનું પરિવર્તન થવાથી રાજ્યનું શાસન બદલાતાં કેટલાક લેકેએ ચેરી આદિ ઉપદ્રવને પ્રારંભ કરી દીધો. ચાણકયે ચેરી આદિ ઉપદ્રવ કરનારાઓ સામે ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર: ૧ Page #653 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५९८ ___ उत्तराध्ययनसूत्रे दमनाथ विचिन्तयन् कदाचिद् नगरतो बहिनिःसृतः सन् पश्यति-नलदामनामा कुविन्दः पुत्रं मत्कोटकैर्दष्टं दृष्ट्वा कोपाविष्टो भूत्वा तेषां विलमन्वेषयति । चाणक्यस्तथाकुर्वन्तं कुविन्दं दृष्ट्वा पृच्छति-कुविन्द ! किमन्वेषयसि ? कुविन्दः माह-मत्पुत्रदंशदायिनां मत्कोटकानां गृहम् , एवं तद्वृत्तं विदित्वा चाणक्यो मनसि विचारयति- योग्योऽयं कुविन्दो वैरनिर्यातनस्य । इति मनसि विचार्य तमेव नगराध्यक्ष कृतवान् । एकदा कोशपूरणार्थ चाणक्यः सुवर्णप्राप्तिकामो देवाराधनं कृतवान् । देवः करने का बहुत कुछ विचार किया पर समझ में नहीं बैठा । एक दिन इसी विषय का विचार करते २ चाणक्य नगर से बाहर जा पहुंचे। पहुँचते ही वहां एक नलदाम नामक कुविन्द (जुलाहे ) को देखा जो अपने पुत्र को काटने वाले मकोडों के बिल की तलास करने में बडे क्रोध से अभिभूत होकर इधर उधर फिर रहा था । चाणक्य ने इस प्रकार से तलाशी करने में प्रयत्न करते हुए देखकर कुविन्द से पूछा कि हे कुविन्द ! कहो क्या हूंढ रहे हो ? कुविन्द ने कहा मेरे पुत्र को एक मकोडे ने काट लिया है सो मैं उसके घर को देख रहा हूं। इस प्रकार कुविन्द की बात सुनकर चाणक्य ने मन में विचार किया कि यह कुविन्द वैर का बदला लेने में योग्य है । इस प्रकार विचार कर चाणक्य ने उसे नगर का कोतवाल बना दिया । एक समय की बात है कि खजाने की पूर्ति करने के निमित्त चाणक्य ने किसी देव की आराधना की। चाणक्य की आराधना से સખ્ત હાથે કામ લેવાને તેમજ દમનને કરડે વીંઝવાને વિચાર કર્યો, પરંતુ તેમ કરવું અત્યારના સંજોગોમાં તેને ઉચિત ન લાગ્યું. એક દિવસ આજ બાબ. તને વિચાર કરતાં કરતાં ચાણકય નગરની બહાર જતા હતા, ત્યાં રસ્તામાં એક સ્થળે એક નલદામ નામના કુવિન્દ (વણકર)ને જોયા. જે પોતાના પુત્રને કરડનારા મકોડાનું દર શોધી રહ્યો હતો. તેને ચાણકયે પૂછયું, કુવિન્દ શું શોધી રહ્યો છે? ઘણા જ ક્રોધના આવેશથી અહીં તહીં ફરી રહેલા કુવિજે કહ્યું, મારા પુત્રને એક મંડાએ કરડી ખાધેલ છે, હું તેના ઘરને ગોતી રહ્યો છું. આ પ્રકારની ફવિન્દની વાત સાંભળી ચાણક્ય વિચાર્યું કે, આ માણસ બદલે લેવામાં ગ્ય છે. આમ વિચારી તેને સમજાવી પછીથી ચાણયે તેને નગરના કેટવાળાની જગાએ નીચે. એક સમયની વાત છે-રાજ્યના ખજાનાને ભરપુર બનાવવા ચાણયે ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #654 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रियदर्शिनी टीका अ० ३ गा० १ अङ्गचतुष्टयदौर्लभ्ये पाशकदृष्टान्तः २ ५९९ प्रसन्नो भूत्वा चाणक्याय जयप्रदान् पाशकान् ददौ । तदनन्तरं चाणक्येन दीनारपूर्णस्थालेन सह पाशकान् दवा कश्चिद् द्यूतपटुः पुरुषो द्यूतार्थ नगरे प्रेषितः । दीनारपूर्ण स्थालं पाशकानपि गृहीत्वाऽसौ पुरुषः पुराभ्यन्तरे भ्रमन् वदति - यद्यहं जयामि, तर्हि दीनारमेकं गृह्णामि । यदि मामन्यो जयति, तदा दीनारपूर्णमिदं स्थालं ददामि इति । ततो बहवो जना द्यूतक्रीडार्थं समागताः । सर्वे तेन पुरुषेण पराजिता, तं पाशकहस्तं पुरुषं विजेतुमसमर्था जाताः । यथा तस्य पाशकहस्तपुरुषस्य पराजयो दुर्लभस्तथा संसारे खलु मनुष्यजन्म दुर्लभम् । देव प्रसन्न भी हो गया । प्रसन्न होकर देव ने चाणक्य के लिये जय कराने वाले चार पासे वरदानरूप में दिये । इसके बाद चाणक्य ने स्वर्णमुद्रा सोनामुहर से परिपूर्ण एक थाली को उन पासों के साथ२ किसी द्यूतक्रीडा में निपुण पुरुष को देकर उसको नगर में जुआ खेलने के लिये भेजा । सोनामुहरों से पूर्ण थाल को तथा पासों को लेकर वह पुरुष नगर में यह अवाज देते हुए फिरने लगा कि यदि मैं जीत जाता हूं तो पराजित हुए व्यक्ति से सिर्फ एक ही सोनामुहर लेता हूं, और यदि हार जाता हूं तो जीतने वाले को सोनामुहरों से पूर्ण यह थाल का थाल दे देता हूं। उसकी इस घोषणा को सुनकर अनेक जन धूतक्रीडा के लिये आने लगे । जुआ खेलना प्रारंभ हो गया । उस पुरुष ने सब को जीत लिया, इस को कोई भी पराजित न कर सका। सारांश - जिस प्रकार इस देवप्रदत्त पासों के प्रभाव से उस पुरुष का पराजित होना કાઈ દેવની આરાધના કરી. ચાણક્યની આરાધનાથી પ્રસન્ન થઈ દેવે ચાણક્યને વિજય અપાવનાર એવા ચાર પાસા તેને આપ્યા. આ પછી ચાણકયે વરદાનના રૂપમાં મળેલા એ પાસાના પ્રયાગ કરવાનું વિચારી એક થાળમાં સુવર્ણ મુદ્રાઓ ભરી દ્યૂતક્રિડામાં નિપુણુ એવા એક પુરૂષને પાસા સાથે તે થાળ આપી નગરીમાં જુગાર રમવા મેાકલ્યા. સેાનામહારથી ભરેલ થાળ તથા પાસા લઇ તે પુરૂષ નગરમાં ઘેાષણા કરતા ફરવા લાગ્યું. કે જો કોઈ મને દાવમાં હરાવે તા સેાનામહેારથી ભરેલ આ થાળ આપી દઉ' અને સામે માણસ હારે તે તેણે મને ફક્ત એક જ સેનામહાર આપવી. એની આવી ધૈષણા સાંભળીને અનેક માણસે જુગાર રમવા આવવા લાગ્યા. જુગાર રમવાના પ્રારંભ થઈ ચુકયેા. તેણે રમવા આવનાર દરેકને જીતી લીધા પણ તેને કોઈ પરાજીત કરી શકયુ નહી. સારાંશ-દેવના આપેલ પ્રસાદરૂપ પાસાના પ્રભાવથી જેવી રીતે એ ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર ઃ ૧ Page #655 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६०० उत्तराध्ययनसूत्रे अत्र संग्रहः श्लोकः-(शार्दूल विक्रीडितवृत्तम् ) देवाराधनलब्धपाशकवरान् स्थालं च रत्नै तं, चाणक्येन वितीर्य कोऽपि पुरुषः स्वीये पुरे प्रेषितः। सर्वेषां स च तत्पुराधिवसतां जातो यथा दुर्जयः, संसारे भ्रमतः पुनर्नरभवो जन्तोस्तथा दुर्लभः ॥ इति द्वितीयः पाशकदृष्टान्तः ॥ २॥ अथ तृतीयो धान्यदृष्टान्तःप्रोच्यते-- भरतक्षेत्रे द्वात्रिंशत्सहस्रदेशसमन्वितेऽनेकग्रामनगरपत्तनादिसहिते प्रशस्त वृष्टौ सत्यां कृषिकर्मदक्षैः कृषीवलैः सर्वधान्यबीजेधूप्तेषु समुत्पन्नान् निरुपद्रवं निष्पन्नान् शालि-गोधूम-चणक-मुद्-माष-तिलाणुक-राजमाष-कलाय-यवदुर्लभ बना उसी प्रकार इस संसार में यह मनुष्यजन्म बड़ा दुर्लभ है। संग्रह श्लोक देवाराधनलब्धपाशकवरान् स्थालं च रत्न तम्, चाणक्येन वितीर्य कोऽपि पुरुषः स्वीये पुरे प्रेषितः । सर्वेषां स च तत्पुराधिवसतां जातो यथा दुर्जयः, संसारे भ्रमतः पुनर्नरभवो जन्तोस्तथा दुर्लभः ॥२॥ यह दूसरा पाशकदृष्टान्त हुआ ॥२॥ तृतीय धान्यदृष्टान्त इस प्रकार है-अनेक ग्राम, नगर, पत्तन आदि से सहित इस ३२ बतीस हजार देशवाले भरतक्षेत्र में वृष्टि के होने पर कृषि कर्म में दक्ष किसान लोग शालि, गोधूम, चणक, मुग, પુરૂષને પરાજીત બનાવ મહાદુર્લભ હતું એવીજ રીતે આ સંસારમાં આ મનુષ્ય જન્મ મહાદુર્લભ છે. સંગ્રહ પ્લેક देवाराधनलब्धपाशकवरान्, स्थालं च रत्न तम्, चाणक्येन वितीर्य कोऽपि पुरुषः स्वीये पुरे प्रेषितः। सर्वेषां स च तत्पुराधिवसतां जातो यथा दुर्जयः, संसारे भ्रमतः पुनर्नरभवो जन्तोस्तथा दुर्लभः ॥२॥ આ બીજું પાશક દષ્ટાંત થયું છે ૨ ત્રીજું ધાન્યષ્ટાંત આ પ્રકારનું છે. અનેક ગ્રામ, નગર, જંગલ વગેરે દરેક સ્થળે ૩૨ હજાર દેશવાળા આ ભરતક્ષેત્રમાં વરસાદ વરસતાં ખેતીના કામમાં રચ્યા પચ્યા રહેનાર ખેડુતે ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #656 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रियदर्शिनी टीका अ० ३ गा० १ अङ्गचतुष्टयदौर्लभ्ये धान्यदृष्टान्तः ६०१ व्रीहि- कगु - कोद्रव - मकुष्ठका - ढकी - वल्ल- कुलत्थ-शण - चीनक-मसूरा - तसीकलम्बषष्ठिका - मक्का - बर्जरीत्यादिबहुभेदभिन्नान् संपूर्ण भरत क्षेत्रमध्यगान् धान्यराशीन् कोऽपि देवः स्वशक्त्या संमील्याभ्रंलिहं तत्पुञ्जं कुर्यात् तत्र मस्यैकपरिमितसर्षपं निक्षिप्य सर्वं धान्यं संमिश्रयेत् तदनन्तरं जराजर्जरां विगलन्नेत्रां कम्पमानगात्रामेni वृद्धां तान् सर्षपान् धान्यराशिभ्यः कणशः पृथक कृत्य प्रस्थं पूरयितुं समादिशेत् तदा तस्यास्तत्पृथकरणं यथा दुष्करं भवेत् तथा मनुष्यभवात् प्रच्युतस्य प्रमादिनः पुनर्मनुष्यजन्म दुर्लभमिति ॥ , उडद, तिल, राजमाष ( चौला), मटर, मोंठ, बाजरा आदि समस्त धान्यों को बो देवें और वे जब अपने समय पर निरूपद्रवरुप से पककर तैयार हो जायें तब कोई देव इस समस्त धान्यराशि की उड़ावनी अर्थात् - तुष साफ करके एक बहुत अधिक ऊँची जो मानो आकाश को भी स्पर्श करती हो ऐसी ढेरी लगा दे। फिर उसमें एक प्रस्थप्रमाण सर्षप मिलाकर किसी वृद्धा को कि जिसे कम दीखता हो तथा शरीर भी जिसका कंपित हो रहा हो यह आदेश दे कि तू इस ढेरी में उस प्रस्थप्रमाण सर्षप को अलग २ छांट दे। तो जैसे ढेरी में उस प्रस्थप्रमाण सर्षप का एक २ कण करके छांटना बडा मुश्किल है, उसी प्रकार मनुष्य भव के छूट जाने पर पुनः उसका मिलना जीव को बड़ा दुर्लभ है । शोभा, घ, यथा, भग, मह, तल, योजा, भह, दुधी, मारो, लुवार વગેરે સમસ્ત ધાન્યનાં વાવેતર કરવાના કામમાં લાગી જાય છે. વવાયેલ તે સમગ્ર ધાન્ય તેના યાગ્ય સમયે ઉપદ્રરહીત પાકીને તૈયાર થઈ જાય ત્યારે કૈાઈ દેવ એ સમસ્ત ધાન્યરાશીની ઉડાવશી અર્થાત્ તુલસાફ કરીને એક ખૂબ અધિક ઉ ંચે માનેા કે આકાશને પણ સ્પશ કરી જાય એવા માટા એક ઢગલે કરી દે, પછી તેમાં એક પ્રસ્થપ્રમાણુ સરસવ મેળવીને કાઈ વૃદ્ધા કે જેને ઓછું દેખાતું હોય, તથા શરીર પણ જેનું કંપતું હોય તેને કહેકે, તું આ ઢગલા માંથી એ પ્રમાણપ્રસ્થ સરસવને ખાળી ખેાળીને અલગ પાડી આપતા જેમ એ ઢગલામાંથી એ પ્રસ્થપ્રમાણ સરસવના એકેક કણ કરીને જુદા પાડવા ઘણું મુશ્કેલ છે છતાં પણ તે શકય અને તે પણ મનુષ્યભવ પુરા થતાં ફરીથી મનુષ્ય ભવ પામવા આત્માને ઘણા જ દુર્લભ છે. उ० ७६ ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર ઃ ૧ Page #657 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६०२ उत्तराध्ययनसचे अत्र संग्रहः- (शार्दूलविक्रीडितवृत्तम् ) देवः कोऽपि पुरा समस्तभरतक्षेत्रस्य धान्यावलि पिण्डीकृत्य च तत्र सर्षपकणान् , प्रस्थोन्मितान मीलयेत् । पस्थं पूरयितुं पुनर्विभजनं तेषां यथा दुर्लभ, संसारे भ्रमतः पुनर्नरभवो जन्तोस्तथा दुर्लभः ॥ ३ ॥ इति तृतीयो धान्यदृष्टान्तः ॥ ३ ॥ अथ चतुर्थो घूतदृष्टान्तः___ अङ्गदेशे रत्नपुरे रिपुमर्दनो नाम राजाऽऽसीत्। तस्याष्टोत्तरसहस्रस्तम्भालतं सभाभवनमासीत् । स्तम्भे स्तम्भे चाष्टोत्तरसहस्र १००८ कोणाः सन्ति । एकदा तस्य राज्ञः पुत्रो वसुमित्रनामको राज्याकाङ्क्षया चिन्तयति-राजा वृद्धः, तं हत्वा राज्यं गृह्णामि, तद् वृत्तं मंत्रिणा ज्ञातम् , राज्ञे च निवेदितम् । राज्ञाऽपि पुत्रमाहूय संग्रह श्लोक देवः कोपि पुरा समस्तभरतक्षेत्रस्य धान्यावलिं, पिण्डीकृत्य च तत्र सर्षपकणान् प्रस्थोन्मितान् मीलयेत् । प्रस्थं पूरयितुं पुनर्विभजनं तेषां यथा दुर्लभं, संसारे भ्रमतः पुनर्नरभवो जन्तोस्तथा दुर्लभः ॥ ३॥ यह तीसरा धान्यदृष्टान्त है ॥ ३॥ चौथा धूत का दृष्टान्त इस प्रकार है-अंगदेश में रत्नपुर नाम का एक नगर था। रिपुमर्दन वहां का राजा था । उसका जो सभामंडप था वह एक हजार आठ १००८ खंभों से सुशोभित था । एक २ स्तंभ के एक हजार आठ १००८ कोने थे। राजा के पुत्र का नाम वसुमित्र था। एक दिन संघ8 sal:-देवः कोपि पुरा समस्त भरतक्षेत्रस्य धान्यावलिं, पिण्डीकृत्य च तत्र सर्षपकणान् प्रस्थोन्मितान् मीलयेत्। प्रस्थं पूरयितुं पुनर्विभजनं तेषां यथा दुर्लभ, संसारे भ्रमतः पुनर्नरभवो जन्तोस्तथा दुर्लभः ॥३॥ આ ત્રીજું ધાન્યદષ્ટાંત છે. તે ૩ છે ચોથું વ્રતનું દૃષ્ટાંત આ પ્રકારનું છે. અંગ દેશમાં રત્નપુર નામનું એક નગર હતું. તેમાં રિપુમર્દન નામે રાજા રાજ્ય કરતા હતા. તે નગરને વિશે જે સભા મંડપ હતું તે એક હજાર આઠ ૧૦૦૮ થાંભલાથી સુશોભિત હતે. એક એક સ્તંભને એક હજાર ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #658 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रियदर्शिनी टीका अ० ३ गा. १ अङ्गचतुष्टयदौर्लभ्ये घ्तदृष्टान्तः ६०३ कथितम्-हे पुत्र ! अस्मिन् कुले पितरि मृते पुत्रो नृपासनं लभते । इमं वंशपरम्परानुगतं क्रमं यो न सहते स द्यूतं खेलयति । यदि जयति तदा तस्मै राज्यं दीयते । धूतक्रीडनविधिश्चैवं वर्तते-पुत्रस्यैकवारं दायो भवति, राज्ञस्तु यथेच्छया । अपरं चअष्टोत्तरसहस्रस्तम्भानामेकैकस्तम्भेऽष्टोत्तरसहस्रकोणाः सन्ति, तेष्वेकैककोणेऽष्टोवसुमित्र ने विचार किया कि राजा वृद्ध हो चुके हैं । इनसे यथावत् राज्य का काम काज होता नहीं है, और ये अभीतक भी मुझे राज्य का अधिकारी बना नहीं रहे हैं अतः अच्छा हो कि राजा को मार कर राज्य का उत्तराधिकार प्राप्त कर लिया जाय । वसुमित्र के इस रहस्य को मंत्री ने जान लिया, और राजा से भी कह दिया। राजा ने वसुमित्र को बुलाकर कहा कि बेटा! इस कुल की यह रीति चली आ रही है कि जबतक पिता मौजूद रहता है तब तक पुत्र को राज्य का अधिकार नहीं प्राप्त हो सकता है । पिता के मरने पर ही पुत्र राज्य का अधिकारी होता है। इस प्रकार कुलक्रम से चले आये हुए इस क्रम को जो सहन नहीं कर सकता है वह जुआ खेल कर इस क्रम पर विजय पा सकता है। अर्थात् जो जुए में जीतता है उसको ही राज्य का अधिकारी बना दिया जाता है। जुआ खेलने की विधि इस प्रकार है-पुत्र का दाव एक बार होता है और राजा का उसकी इच्छानुसार । दूसरी बात यह है कि ये जो सभाभवन के एक हजार आठ १००८ खंभे हैं और આઠ ૧૦૦૮ ખૂણ હતા. રાજાને એક પુત્ર હતો અને તેનું નામ વસુમિત્ર હતું. એક વખત વસુમિત્રે વિચર કર્યો કે, રાજા વૃદ્ધ થઈ ગયા છે. તેનાથી યથાવત્ રાજ્યનું કામકાજ થતું નથી. એમ છતાં પણ તેઓ મને રાજ્યાધિકાર સપતા નથી. આથી રાજાને મારી, રાજ્યને ઉત્તરાધિકાર પ્રાપ્ત કરી લઉં. વસુમિત્રનું આ રહસ્ય મંત્રીના જાણવામાં આવ્યું, અને એ વાત રાજાને કહી દીધી. રાજાએ આથી પિતાના પુત્રને બોલાવીને કહ્યું કે, બેટા! આપણા કુળની એ રીત ચાલી આવે છે કે, જ્યાં સુધી બાપ જીવતા હોય ત્યાં સુધી પુત્રને રાજ્યને અધિકાર પ્રાપ્ત થતું નથી. બાપના મરવા પછી જ પુત્ર રાજ્યને અધિકારી બને છે. આ પ્રકારે કુળક્રમથી ચાલ્યા આવતા એ રીવાજને જે સહન કરી શકો નથી તે જુગાર રમી આ કમની સામે વિજય મેળવી શકે છે. અર્થાત જે જાગારમાં જીતે છે તેને રાજ્યને અધિકારી બનાવી દેવામાં આવે છે. જુગાર રમવાની વિધી આ પ્રકારની છે. પુત્રને દાવ એક વખત હોય છે, અને રાજાને તેની ઈચ્છા અનુસાર, બીજી વાત એ છે કે, જે સભાભવનના એકહજાર આઠ૧૦૦૮ થાંભલા ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર: ૧ Page #659 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६०४ उत्तराध्ययनसूत्रे तरसहस्रवार विजिते सति तनैव क्रमेण सर्वे स्तम्भा विजिता भवेयुः, तत्राप्यष्टोतरसहस्रवारविजयकरणे देवात् तन्मध्ये पराजयः स्यात् तदा सर्वे विजिताः कोणा अविजिताः भवन्ति, सदपि ब्रह्मचर्यभङ्गे सर्व महाव्रतमिव, अत: पुनरादित एव सर्वे कोणा विजेतव्याः, एवं त्वमपि कुरु । इति पिर्तुवचनं श्रुत्वा वसुमित्रश्चिन्तयति-धूतादेव राज्यं लभ्यं पुनः किमर्थ पितरं हन्मि, इति विचार्य राज्ञा सह धूतक्रीडायो प्रवृत्तः, तथापि जयो दुर्लभो जातः तस्य वसुमित्रस्यैतत् कार्य यथा दुष्करं, तथा मनुष्यत्वमपि दुर्लभम् । इनके जो प्रत्येक के एक हजार आठ १००८ कोने हैं उन कोनों में से एक २ कोने को एक हजार आठ १००८ बार जीत जाता है। इसी क्रम से ये समस्त खंभे जब जीत लिये जाते हैं तब जाकर वह विजयी कहलाता है। यदि सब कोने जीत भी लिये जायें और एक भी कोना यदि जीता न जा सके तो जीते हुए भी सब कोने नहीं जीते समझे जा सकते हैं, और उन सब को पुनः जीतने के लिये द्यूत का आरंभ करना पड़ता है । जैसे एक बार भी यदि गृहीत ब्रह्मचर्य खडित हो जाता है तो समस्त महाव्रत खंडित माना जाता है । इस प्रकार पिता के वचन को सुनकर वसुमित्र ने विचार किया कि जब चूत क्रीडा में जीत होने से राज्य मिलता है तो फिर पिता के मार ने से क्या लाभ । इस प्रकार विचार कर पिता के साथ जुआ खेलने में प्रवृत्त हो गया। परन्तु उसे विजय पूर्वोक्त प्रकार से जैसे दुष्कर बनी उसी प्रकार यह मनुष्यभव भी पुनः प्राप्त होना प्राणी के लिये दुर्लभ जानना चाहिये। છે અને એ પ્રત્યેકને એકહજાર આઠ૧૦૦૮ ખુણ છે એ ખુણામાંથી એક એક ખુણાને એકહજારઆઠ ૧૦૦૮વાર જીતવામાં આવે છે. આ ક્રમથી તે સઘળા થાંભલા જ્યારે જીતવામાં આવે ત્યારે તે વિજયી કહેવાય છે. કદાચ બધા ખુણ જીતી લેવામાં આવે અને એકાદ ખૂણે જીતવામાં બાકી રહે તે બધા ખુણા ન છતાયેલા જ મનાય છે. અને એ બધાને જીતવા માટે ફરીથી જુગાર રમવું પડે છે. જેમ એકવાર પણ ગ્રહણ કરેલ બ્રહ્મચર્ય ખંડિત થઈ જાય તે સમસ્ત મહાવ્રત ખંડિત માનવામાં આવે છે. આ પ્રકારનાં પિતાનાં વચન સાંભળીને વસુમિત્રે વિચાર કર્યો કે, ત્યારે જુગાર રમવામાં જીત થવાથીજ જો રાજ મળતું હોય તે પિતાને મારવાથી લાભ શું થવાને ? આ પ્રકારને વિચાર કરી વસુમિત્ર પિતાની સાથે જુગાર ખેલવામાં પ્રવૃત્ત બન્યા. પરંતુ તેને ઉપરોક્ત પ્રકારથી વિજય મેળવ દુષ્કર મળે તેવી જ રીતે આ મનુષ્યભવ પુનઃ પ્રાપ્ત થવો પ્રાણી માટે દુર્લભ જાણવું જોઈએ. ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #660 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रियदर्शिनी टीका. अ० ३ गा० १ अङ्गवतुष्टयदौलभ्ये रत्नदृष्टान्तः ५ ६०५ अत्र संग्रहः-(शार्दूल विक्रीडितवृत्तम् ) स्तम्भानां हि सहस्रमष्टसहितं प्रत्येकमष्टोत्तरं । कोणानां च सहस्रमेषु जयति धूते पितु यः सुतः। साम्राज्यं लभते स, तस्य विजयो द्यूते यथा दुर्लभः। संसारे भ्रमतः पुनर्नरभवो जन्तो स्तथा दुर्लभः ॥२॥ इति चतुर्थो द्यूतदृष्टान्तः ॥ ४॥ अथ पञ्चमो रत्नदृष्टान्तः __ धनसमृद्धे पुरे रस्नकोटिप्रभुधनदनामा वणिक् प्रतिवसति स भूमौ रत्नानि निखन्य तदुपरि पर्यकं निधाय शयनं करोति । स विश्वासाभावेन पुत्रानपि तानि न प्रदर्शयति । स्वधनानुरूपं वेषं भवनादिकं च न करोति, व्यापारकरणे धनानि हस्तादपगतानि भविष्यन्तीति बुद्धया व्यापारमपि न करोति । संग्रह श्लोक स्तम्भानां हि सहस्रमष्टसहितं प्रत्येकमष्टोत्तरं, कोणानांच सहस्रमेषु जयति राते पितु यः सुतः। साम्राज्यं लभते स तस्य विजयो द्यूते यथा दुर्लभः संसारे भ्रमतः पुनर्नरभवो जन्तोस्तथा दुर्लभः॥४॥ यह चौथा द्यूतदृष्टान्त है ॥४॥ पांचवा रत्न दृष्टान्त इस प्रकार है-धनसमृद्ध नामका एक नगर था। उसमें एक करोड रत्नों का मालिक धनद नामका वणिक रहता था। वह जमीन में गडे हुए रत्नों के ऊपर पलंग बिछाकर सोया करता था। उसको अपने पुत्रों तक का भी विश्वास नहीं था सब स्तम्भानां हि सहस्रमष्टसहितं प्रत्येकमष्टोत्तरं , कोणानां च सहस्रमेषु जयति द्यूते पितु यः सुतः ॥ साम्राज्यं लभते स तस्य विजयो ते यथा दुर्लभः संसारे भ्रमतः पुनर्नरभवो जन्तोस्तथा दुर्लभः ॥ ४ ॥ આ ચોથું ધૃતદષ્ટાંત છે. . ૪ . પાંચમું રત્નદષ્ટાંત આ પ્રકારનું છે ધનસમૃદ્ધ નામનું એક નગર હતું, તેમાં એક કરોડ રન્નેને માલિક એવે ધનદ નામને વણિક રહેતું હતું. તે જમીનમાં દાટી રાખેલા રત્ન ઉપર પલંગ પાથરીને સુઈ રહેતું હતું. જેને પિતાના પુત્રને પણ વિશ્વાસ ન હતું, તેથી ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #661 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६०६ उत्तराध्ययनसूत्रे कदाचित् सम्बन्धिनः कार्यवशादामन्त्रणपत्रं समागतम् । तत्र गन्तुं प्रस्थितो धनदस्तद्रत्नरक्षणाय वसुपियं स्वकनिष्ठपुत्रं सूचयति । तदनन्तरं धनदे गृहानिःमृते सति वसुप्रियस्य भ्रातरः सर्वे गृहे समागताः। वसुप्रियः पितृमुचितं रत्नस्थानं भ्रातृन् कथयति । तैर्भूमि खनित्वा रत्नान्युद्धृतानि । सर्वे हृष्टचित्ताः इसलिये वह रत्नों को वे कहां २ रखे हुए हैं पुत्रों को नहीं बतलाया था। जैसा यह धनपति था उसके अनुरूप न इसका मकान था और न रहन सहन भी। व्यापार भी यह इसलिये नहीं करता था, यह मानता था कि व्यापार करने में जो धन लगाया जाता है वह हाथ से चला जाता है। उसकी पुनः प्राप्ति कोई निश्चित नहीं होती है। । एक समय की बात है कि किसी संबंधी का इसके पास बुलाने के लिये आमंत्रण पत्र आया। जब यह वहां जाने को तयार हुआ तब रत्नों की रक्षा करने के लिये इसने सब से छोटे पुत्र को कि जिसका नाम वसुप्रिय था, नियुक्त कर दिया। तब कहां कितने २ रत्न रखे हुए हैं यह बात भी उसको बतला दी। धनद जब चला गया और वस्तुप्रिय रत्नादिक की रक्षा करने लगा तब सब भाई मिलकर वसुप्रिय के पास आये और बातों बातों में उसने उन अपने भाईओं को रत्न रखने के समस्त स्थानों को बतला दिया। उन्हों ने जमीन खोद कर રત્નને તેણે ક્યાં કયાં રાખ્યાં છે તે પિતાના પુત્રને પણ બતાવતું ન હતું. જે તે ધનપતી હતો તેને અનુરૂપ તેને રહેવાનું મકાન ન હતું તેમ તેની રહેણી કરણ પણ તેને અનુરૂપ ન હતી. તે વેપાર પણ કરતે નહીં કારણ કે તેની માન્યતા એવી હતી કે, વેપારમાં જે ધન રોકવામાં આવે તે હાથથી ચાલ્યું જાય છે. અને ગયેલું ધન ફરીથી મળવાનું નિશ્ચિત હોતું નથી. એક સમયની વાત છે કે, જ્યારે તેને બોલાવવા માટે તેના કેઈ સંબંધીનું આમંત્રણ આવ્યું. જ્યારે તે ત્યાં જવા માટે તૈયાર થયો ત્યારે તેણે રત્નની રક્ષા માટે પિતાને સૌથી નાના પુત્ર કે જેનું નામ વસુપ્રિય હતું તેને નિયુક્ત કર્યો. અને કઈ કઈ જગ્યાએ કેટલાં રને રાખ્યાં છે, એ વાત પણ તેને બતાવી દીધી. તે ધનદ જ્યારે બહારગામ ગયે ત્યારે વસુપ્રિય રત્નાદિકની રક્ષા કરવા લાગ્યો. બધા ભાઈઓ એકઠા મળીને વસુપ્રિયની પાસે આવ્યા અને વાત વાતમાં વસુપ્રિયે પિતાના ભાઈઓને રત્નનાં બધાં ઠેકાણાં બતાવી દીધાં. તેમણે જમીન ખોદી ને કાઢી લીધાં. દરેકને રત્નની પ્રાપ્તિ થવાથી અપાર ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #662 -------------------------------------------------------------------------- ________________ " प्रियदर्शिनी टीका. अ० ३ गा० १ अङ्गचतुष्टयदौर्लभ्ये रत्नदृष्टान्तः ५ ६०७ सन्तस्तन्नगरागतानामन्यान्यदेशवासिनां श्रेष्ठिनां हस्ते रत्नानि विक्रीय वाणिज्यार्थं पण्यत्रस्तूनि क्रीतवन्तः तैर्वाणिज्यकार्यं प्रसारयन्ति स्म । ततस्तत्पुत्राः कोटिध्वजा जाताः । चिरेण तेषां पिता गृहमागतः । स स्वस्थापितानि रत्नान्यदृष्ट्वा वसुप्रियं पुत्रं पृच्छति - अरे ! केन मम रत्नानि गृहीतानि ? | वसुप्रिय आहसर्वैर्भ्रातृभिरपहृतानि । ततः पुत्रवाक्यं श्रुत्वा धनदः कोपाविष्टः सन्नब्रवीत् - रे लक्ष्मीकन्दकुद्दालकाः । यूयं मद्गृहानिर्गच्छत तानि विक्रीतरत्नानि समानीय मद्गृहे स्थापयन्तु, अन्यथा गृहे नागन्तव्यम् । यथा तेषां रत्नानां पुनरानयनं धनदपुत्राणां दुष्करं, तथा मनुष्यत्वमपि दुर्लभम् || रत्नों को निकाल लिया । सर्वो को रत्न की प्राप्ति से अपार हर्ष हुआ । जो दूसरे देश के वणिग्जन व्यापार के लिये नगर में आये हुए थे उनके लिये वे सब रत्न उन लोगों ने बेच दिये और अपनो पुंजी बनाकर फिर वे सब के सब व्यापार करने में लग गये । इनका व्यापार कार्य खूब चला। सब के सब कोटिध्वज हो गये । कालान्तर में धनद घर पर वापिस आया। उसने अपने रखे हुए रत्नों की ज्यों ही संभाल की वे उसको नहीं मिले तब उसने वसुप्रिय पुत्र से पूछा । किसने मेरे रत्नों को लिया है। वसुप्रिय ने कहा- सब भाईओं ने । वसुप्रिय की बात सुनकर धनद को बहुत ही अधिक क्रोध आ गया । गुस्से में आकर उसने कहा- तुम सब के सब लक्ष्मीरूपी कन्द को उखाड़ने के लिये कुद्दाली के समान हो अतः तुम्हारी अब भलाई इसी में है कि तुम सब मेरे घर से निकल जाओ । नहीं तो बेचे हुए रत्नों को वापिस लाओ । जब तक रत्न नहीं आवे तब तक याद હ થયા. ખીજા દેશના વિષ્ણુકજના વેપાર માટે નગરમાં આવ્યા હતા તેમને આ લેાકાએ બધાં રત્ના વેચી દીધા અને પોતપાતાની પુંજી મનાવી લઇને દરેક જણુ વેપાર કરવા લાગ્યા. તેમના વેપાર ખૂબ ચાલ્યા. બધા કરોડપતી બની ગયા કાળાન્તરે ધનદ પાછા ઘેર આવ્યા, ત્યારે તેણે પાતે રાખેલાં રત્નાની જે તે સ્થળે તપાસ કરી તેા તે તેને મળ્યાં નહીં. ત્યારે તેણે વસુપ્રિયને પૂછ્યું, કાણે મારાં રત્નને લીધાં છે ? વસુપ્રિયે કહ્યુ', બધા ભાઈ એએ રત્ના વહેચી લીધાં છે. વસુપ્રિયની વાત સાંભળીને ધનદને એકદમ ક્રાધ ચડયા અને ગુસ્સામાં આવીને તેણે કહ્યુ', તમે બધા લક્ષ્મીરૂપી કદને ઉખાડનારા કાદાળી જેવા છે. આથી તમા બધા મારા ઘરમાંથી ચાલ્યા જાવ એમાંજ તમે સઘળાની ભલાઈ છે, નહિતર વેચેલાં રત્નાને પાછાં લાવે. જ્યાં સુધી રત્ના પાછાં નહી આવે ત્યાં ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર ઃ ૧ Page #663 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६०८ उत्तराध्ययनसूत्रे अत्र संग्रह-(शार्दूलविक्रीडितवृत्तम् ) तातेऽन्यत्र गते धराऽन्तरगतान्यादाय रत्नानि यद् , विक्रीतानि सुतैर्विदेशिवणिजां हस्तेषु पश्चात् ततः। रत्नान्यानयतेति तातकथने, तत्मापणं दुष्करं, संसारे भ्रमतः पुनर्नरभवो जन्तोस्तथा दुर्लभः ॥५॥ इति पञ्चमो रत्नदृष्टान्तः ॥५॥ अथ षष्ठः स्वप्नदृष्टान्तः आसीत् पाटलिपुत्रनगरे मूलदेवनामकः क्षत्रियः । स स्वाभ्युदयार्थ देशान्तरं गन्तुं प्रस्थितः । मार्गे गच्छतस्तस्य कश्चित् कार्पटिकः सहचरोऽभवत् । मूलदेवः खलु रखना घर में तुम्हारे लिये स्थान नहीं है। इस दृष्टान्त से यह समझना चाहिये कि जैसे उन विक्रीत रत्नों की प्राप्ति उन पुत्रों के लिये दुष्कर हुई उसी तरह से हाथ से निकला हुआ मनुष्य जन्म भी महा दुर्लभ है। इस दृष्टान्त का सार प्रदर्शक श्लोक इस प्रकार है तातेऽन्यत्रगते धरान्तरगतान्यादाय रत्नानि यत्, विक्रीतानि सुतैविदेशिवणिजां हस्तेषु पश्चात्ततः। रत्नान्यानयतेति तातकथने तत्प्रापणं दुष्करम् , संसारे भ्रमतः पुनर्नरभवो जन्तोस्तथा दुर्लभः ॥ यह पांचवां रत्नदृष्टान्त है ॥५॥ छठा स्वप्नदृष्टान्त इस प्रकार है-पाटलिपुत्र नगर में मूलदेव नाम का एक क्षत्रिय रहता था। वह किसी समय अपने भाग्य की સુધી યાદ રાખો કે, તમારા માટે ઘરમાં કેઈ સ્થાન નથી. એટલા માટે આ દષ્ટાંતથી એમ સમજવું જોઈએ કે, વેચેલા રત્નોની પ્રાપ્તિ તે પુત્રોને માટે જેમ દુષ્કર થઈ તેમ હાથમાંથી નિકળી ગયેલ મનુષ્યજન્મ પણ ફરી પ્રાપ્ત થ મહાદુર્લભ છે. सड ४-तातेऽन्यत्रगते धरान्तरगतान्यादाय रत्नानि यत् , विक्रीतानि सुतैर्विदेशिवणीजां हस्तेषु पश्चात्ततः । रत्नान्यानयतेति तातकथने तत्प्रापणं दुष्करम् , संसारे भ्रमतः पुनर्नरभवो जन्तोस्तथा दुर्लभः ॥ આ પાંચમું રત્નદષ્ટાંત છે. જે ૫ છે છઠું સ્વપ્નદૃષ્ટાંત આ પ્રકારથી છે પાટલીપુત્ર નગરમાં મૂલદેવ નામને એક ક્ષત્રિય રહેતો હતો. તે એક સમય પોતાના ભાગ્યની વૃદ્ધિ માટે ઘેરથી બીજા દેશમાં જવા નીકળે. ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર: ૧ Page #664 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रियदर्शिनी टीका. अ० ३ गा० १ अङ्गचतुष्टयदौर्लभ्ये स्वप्नदृष्टान्तः ६ ६०९ जिनवचनानुरागी धर्मे दृढमतिरासीत् । मूलदेवः कार्पटिकश्चोभौ काश्चनपुरनगरादहिः सरसस्तटे रात्रौ तिष्ठतः । तत्र सुप्तेन मूलदेवेन रात्रिशेषे स्वप्नो दृष्टःमुखे चन्द्रः प्रविष्ट इति । तदानीमेव तत्र सुप्तेन कार्पटिकेनापि तादृश एव स्वप्नो दृष्टः । स्वप्नदर्शनानन्तरं तौ विनिद्रौ जातौ। कार्पटिको वदति-स्वप्नावस्थायां मम मुखे चन्द्रः प्रविष्ट इति मया दृष्टः। मूलदेवः प्राह-अयं स्वप्नो रक्षणीयः, साधारणजनानामग्रे नायं प्रकाशनीयः । स्वप्नोत्थितयोस्तयोमनः प्रसन्नमभवत् । सूर्योदयानन्तरमेव तौ काञ्चनपुरनगरे प्रविष्टौ । वृद्धि के लिये दूसरे देश को घर से चला । मार्ग में जाते २ एक कार्पटिक ने इसका साथ कर लिया। मूलदेव जिन बचन में श्रद्धालु था। चलते २ ये दोनों कांचनपुर नगर के बहार रहे हुए किसी एक तालाब के तीर पर रात्रि को ठहर गये । मूलदेव को रात्रि के शेषभाग में एक स्वप्न दिखाई दिया। जिसमें उसने देखा कि मेरे मुख में चन्द्रमा प्रविष्ट हो गया है। उसी समय कार्पटिक ने भी इसी तरह का स्वप्न देखा । स्वप्न देखने के बाद दोनों जग गये । आपस में बातचीत होने लगी कार्पटिक ने कहा आज मैंने स्वप्न में चन्द्रमा को अपने मुख में प्रवेश करता हुआ देखा है। मूलदेव ने उसका स्वम सुनकर उससे कहा यह स्वप्न गोपनीय है, हर एक आदमी के सामने इसको प्रकाशित नहीं करना। जब प्रातः काल हो चुका तब ये दोनों उठे उस समय वे बडे ही प्रसन्न मालूम देते थे, क्यों कि इनका मन बडा प्रसन्न था। सूर्योदय के अनन्तर फिर इन दोनों ने कांचनपुर नगर में प्रवेश किया। માર્ગમાં ચાલતાં ચાલતાં તેને એક ભુવાને સાથ થઈ ગયો. મૂળદેવ જન વચનમાં ખૂબ શ્રદ્ધાળુ હતે ચાલતાં ચાલતાં અને કાંચનપુર નગરની બહારના એક તળાવના કાંઠા ઉપર રાતના રોકાઈ ગયા. મૂળદેવને રાત્રીના પાછલા ભાગમાં એક સ્વપ્ન દેખાયું. જેમાં તેણે જોયું કે, જાણે તેના મોઢામાં ચંદ્રમાએ આવીને પ્રવેશ કર્યો છે. આજ સમયે તેની બાજુમાં સુતેલા ભુવાએ પણ તેવું જ સ્વપ્ન જોયું. સ્વપ્ન જોયા પછી અને જાગી ગયા. આપસમાં વાતચીત કરવા લાગ્યા ભુવાએ કહ્યું, આજે મેં સ્વપ્નમાં ચંદ્રમાને મારા મોઢામાં પ્રવેશ કરતાં જો મૂલદેવે તેના સ્વપ્નાનું કથન સાંભળીને કહ્યું કે, આ સ્વપ્ન ખાનગી રાખવા જેવું છે. દરેક આદમીની સામે આને પ્રકાશિત ન કરવું જોઈએ. જ્યારે સવાર થયું ત્યારે બન્ને ઉઠયા તે સમયે તેઓ ઘણા પ્રસન્ન માલુમ પડતા હતા. કેમકે, તેમનાં મન ઘણાં પ્રસન્ન હતાં. સૂર્યોદય પછી બને જણાએ કાંચનપુર નગરમાં પ્રવેશ કર્યો. उ०७७ ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #665 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययनसूत्रे तत्र मूलदेवः स्वप्नपाठकस्य गृहे गत्वा विनयेन स्वप्नपाठकं पृच्छतिमुखे चन्द्रः प्रविष्ट इति स्वप्नो मया दृष्टः किमस्य फलं भविष्यति ? । तेनोक्तम्प्रथमं मम कन्यकया सह विवाहमङ्गीकरोषि चेत्तदाऽस्य स्वप्नस्य फलं वक्ष्यामि । मूलदेवेन तदङ्गीकृतम् , स स्वप्नपाठकः स्वपुत्री प्रदाय जामातृसम्बन्धं विधाय भोजनं कारयित्वा मूलदेवं वदति-इतः सप्तमे दिवसे भवानस्य नगरस्य राजा भविष्यति। ___ कार्पटिकस्तु स्वकीयस्वप्नवृत्तं तत्र नगरे साधारणलोकानां पुरः प्रकाशितवान् , मूलदेव ने वहां स्वप्न के फल को कहने वाले विद्वान के घर की तलाश की। जब उसको इसका पता लग गया तो वह बडे ही विनय के साथ स्वमपाठक के घर गया और वहां विनीतभाव से उसने स्वप्नपाठक से पूछा-महानुभाव ! आज मैंने रात्रि के पिछले पहर में चन्द्रमा को मुख में प्रवेश करते हुवे देखा है इसका फल क्या होगा। कृपाकर कहिये । मूलदेव की बात सुनकर स्वप्नपाठक ने कहा कियदि तुम पहिले मेरी कन्या के साथ अपना विवाह करना मंजूर करो तो मैं इसका फल तुम्हें बतला सकता हूं। मूलदेव ने स्वप्नपाठक की बात अंगीकार करली । स्वप्नपाठक ने अपनी पुत्री का विवाह उसके साथ कर दिया। मूलदेव अब स्वप्नपाठक का जमाई बन गया। स्वप्नपाठक ने जमाई का आदरसत्कार किया और भोजन करा कर कहा आज से सातवें दिन आप इस नगर के राजा हो जायेंगे। इधर कार्पटिक ने अपना स्वप्न नगर के साधारण से भी साधारण व्यक्ति को सुनाना शुरू कर दिया। लोकों ने भी उससे यही कहा कि મલદેવે ત્યાં સ્વપ્ન ફળના કહેવાવાળા વિદ્વાનના ઘરની તપાસ કરી, તેને પત્ત મેળવી સ્વપ્ન પાઠકને ઘેર ગયે અને ત્યાં વિનીત ભાવથી તેણે સ્વપ્ન પાઠકને પૂછ્યું, મહાનુભાવ! આજ મેં રાત્રિના પાછલા પહોરમાં ચંદ્રમાને મુખમાં પ્રવેશ કરતે જે છે. તેનું ફળ શું હશે ? તે કૃપાકરીને કહે. મૂળદેવની વાત સાંભળીને સ્વપ્ન પાઠકે કહ્યું કે, જો તમે પહેલાં મારી કન્યાની સાથે તમારા વિવાહ કરવાનું મંજુર કરે તે જ હું તમને તેનું ફળ બતાવું. મૂળદેવે સ્વપ્ન પાઠકની વાત સ્વીકારી લીધી. સ્વપ્ન પાઠકે પિતાની પુત્રીને વિવાહ તેની સાથે કરી દીધે. મૂળદેવ હવે સ્વપ્ન પાઠકને જમાઈ બની ગયો. સ્વપ્ન પાઠકે જમાઈને આદરસત્કાર કર્યો અને ભેજન જમાડીને કહ્યું કે આજથી સાતમે દિવસે તમે આ નગરના રાજા થશે. બીજી બાજુ ભુવાએ પિતાનું સ્વપ્ન નગરના સાધારણથી સાધારણ માણસને પણ સંભળાવવું શરૂ કરી દીધું. લોકેએ તેને એમ ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #666 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रियदर्शिनी टीका. अ. ३ गा. १ अङ्गचतुष्टयदौलम्ये स्वप्नदृष्टान्तः ६ ६११ लोकैः कथितम्-शुक्रस्य रात्रौ स्वमो दृष्टः, अद्य शनिवासरः, तेन कारणेन घृतगुडसहितं रोटकं तैलं च मिलिष्यति। यत्र यत्र गृहस्थगृहे कापटिको भिक्षार्थ गच्छति, तत्र तत्र शनिदिवसे प्रचुर तादृशं रोटकं तैलं च तेन लब्धम् । अथ पुत्ररहितस्तन्नगरनृपः स्वायुषः क्षयेण मृतः । तस्मिन् मृते सति मन्त्रि प्रभृतयस्तदा व्यवस्थां कृतवन्तः-इयं राजहस्तिनी यस्य गले पुष्पमालां दद्यात् स एवं राजा भविष्यति । इत्येवं निश्चिते सति हस्तिनी स्वशुण्डया पुष्पमालां नीत्वा मनुष्यपरिवारः सह नगरे प्रतिमार्ग भ्रमन्ती वनं गता । सा तत्र वृक्षच्छायायामपविष्टस्य मूलदेवस्य गले पुष्पमालां ददौ। ततो मनुष्यवृन्दैः सह राजमन्त्रिणो मूलदेवं तुमने शुक्र की रात्रि में यह स्वप्न देखा है, आज शनिवार है, इस कारण तुमको घृत गुड सहित रोट एवं तैल मिलेगा। अब जिस२ घरमें वह कार्पटिक भिक्षा के लिये गया वहां २ उसको वही चीज खूब मिली । जब छह दिन पूरे हुए उसी रात में उस नगर का राजा मर गया। राजा के कोई पुत्र नहीं था इसलिये जब वह मरा तब मन्त्रियों ने राज्य की व्यवस्था के लिये ऐसा विचार किया कि यह राजा की हथिनी जिसके गले में पुष्पमाला डाले वही राजा समझा जाय । इस प्रकार का विचार जब पूर्णरूप से निश्चित हो चुका तब हथिनी को अपनी सूंड में पुष्पमाला देकर छोड़ा। नगर के प्रत्येक मार्ग में वह घूमती रही । उसके साथ मनुष्यों का समुदाय भी बहुत था। घूमते २ वह जंगल में पहुँची। मूलदेव उस समय एक वृक्ष के नीचे छाया में बैठा हुआ था। हथिनी ने पहुंचते ही मूलदेव के गले में वह पुष्पमाला डाल दी। કહ્યું કે, શુકની રાત્રીમાં આ સ્વપ્ન દેખાયું છે. આજે શનીવાર છે. એ કારણે તમને ઘી ગેળ સાથે રોટલો અને તેલ મળશે. હવે જ્યાં જ્યાં એ ભિક્ષા માટે ગમે ત્યાં ત્યાં તેને એ ચીજો ખૂબ પ્રમાણમાં મળી. જ્યારે છ દિવસ પુરા થયે એક રાત્રિએ તે નગરને રાજા મરી ગયે. રાજાને કોઈ પુત્ર ન હતે. મંત્રીઓએ રાજ્યની વ્યવસ્થા માટે એવી મસલત કરી કે રાજાની હાથણું જેના ગળામાં પુષ્પમાળા પહેરાવે તેને રાજગાદી સુપ્રદ કરવી. આ પ્રકારને જ્યારે પૂર્ણ રૂપથી નિર્ણય લેવા ત્યારે હાથણીની સુંઢમાં પુષ્પમાળા આપીને તેને છુટી મુકી. નગરના દરેક માર્ગ ઉપર તે ફરતી હતી, તેની પાછળ માણસોને સમૂહ પણ ચાલ્યો આવતું હતું. ઘૂમતાં ઘૂમતાં તે જંગલ તરફ વળી. મૂળદેવ આ વખતે ત્યાં એક વૃક્ષની છાયામાં બેઠો હતો. હાથણીએ ત્યાં પહોંચીને મૂળદેવના ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #667 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६१२ उत्तराध्ययनसूत्रे तामेव हस्तिनी सादरं समारोह्य नगरं प्रवेशयन्ति । कार्पटिकस्तु-मनुष्यवृन्दैः सह हस्तिनीसमारूढं प्राप्तराज्यं मूलदेवं विलोक्य चन्द्रपानस्वप्नाराधनेन मूलदेवस्य राज्यलाभो जातः, इति बुद्धया स्वात्मानं निन्दयन् पश्चात्तापं करोति-धिगूमाम् , मन्दलोकानां पुरस्तात् स्वप्नप्रकाशनेन मया स्वप्नो निष्फलीकृतः, तस्मात् पुनरहं तत्रैव सरस्तीरे शयिष्ये, तदा राज्यप्राप्तिकरं स्वप्नं पुनः पश्यामीति विचिन्त्य राज्यलक्ष्मी काङक्षमाणः पुनः पुनस्तत्र स्वपिति । __यथा कार्पटिकस्य तत्स्वप्नदर्शनं दुर्लभं, तथा मनुष्यदेहात् पच्युतस्य प्रमादिनः पुनर्मनुष्यत्वं दुर्लभम् । हथिनी ने पुष्पमाला मूलदेव के गले में डाली देखकर मन्त्रियों ने मूलदेव को उसी समय उस हथिनी पर बैठा कर बडे आदर के साथ उनका नगर में प्रवेश कराया। _____ कार्पटिक ने मनुष्यवृन्दों के साथ मूलदेव को हस्तिनी पर बैठा एवं वहां का राजा बना हुआ देखकर " चन्द्रमापानरूप स्वप्न के आराधन के प्रभाव से मूलदेव को राज्य का लाभ हुआ है" इस विचार से अधिक से अधिक पश्चात्ताप किया-मुझ अभागे को धिक्कार है जो मैंने सब लोकों के सामने अपने स्वप्न को प्रकाशित कर निष्फल बनाया। अब वह पुनः इस विचार से राजलक्ष्मी की प्राप्ति की आशा से उस स्थान पर बार २ सोने लगा कि कब वह चन्द्रस्वप्न मुझे दिखलाई दे और कब मुझे राज्य की प्राप्ति हो। इस दृष्टान्त से यही समझना चाहिये कि जिस प्रकार कार्पटिक का ગળામાં પુષ્પમાળા પહેરાવી દીધી. હાથણીએ મૂળદેવને પુષ્પમાળા પહેરાવેલી જોઈને મંત્રીઓએ મૂળદેવને તે સમયે તે હાથણું ઉપર બેસાડીને ઘણું આદરસત્કારની સાથે તેને નગરપ્રવેશ કરાવ્યું. ભુવાએ મનુષ્યના ટોળાની વચ્ચે મૂલદેવને હાથણીપર બેઠેલ તેમજ ત્યાંને રાજા બનેલો જોઈને તેને લાગ્યું કે સ્વપ્નના આરાધનના પ્રભાવથી મૂલદેવને રાજ્યને લાભ થયો છે. આ વિચારથી તેને ઘણું જ પશ્ચાત્તાપ થયો અને મનમાંને મનમાં બડબડ કે, મને અભાગીને ધીક્કાર છે કે, મે સઘળા લેકેની સામે મારા સ્વપ્નને પ્રકાશીત કરી નિષ્ફળ બનાવ્યું. આ પછી જ્યાં તેને સ્વપ્ન આવ્યું હતું ત્યાં રાજલક્ષ્મીની આશાથી રોજ રાત્રીના સુઈ જવા લાગ્યા, જ્યારે સ્વપ્નમાં મને ચંદ્ર દેખાય અને કયારે અને રાજ્યની પ્રાપ્તી થાય. આ દષ્ટાંતથી એ સમજવું જોઈએ કે, જે પ્રકારે ભુવાને તે સર્વપ્નની ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #668 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रियदर्शिनी टीका अ० ३ गा. १ अङ्गचचतुष्टय दौर्लभ्ये चक्रदृष्टान्तः ७ ६१३ दृष्ट्वा अत्र संग्रह श्लोकः - ( शार्दूलविक्रीडितवृत्तम्) स्वप्ने कार्य टिकेन रात्रिविगमे चन्द्रं मुखान्तर्गतं, सर्वजनात निगदितं लब्धं न राज्यं फलमू स्वप्नस्तस्य पुनः स तत्र शयितस्यासीद् यथा दुर्लभः, संसारे भ्रमतः पुनर्नरभवो जन्तोस्तथा दुर्लभः ॥ १ ॥ I ॥ इति षष्ठः स्वमदृष्टान्तः ॥ ६ ॥ अथ सप्तमश्चक्रदृष्टान्तः -चक्रोपलक्षितो दृष्टान्तः, राधावेधदृष्टान्त इत्यर्थः । स चैत्रम् — मथुरानगय जितशत्रु नामको भूपतिरासीत् । इन्दिरानाम्नी तस्य पुत्री चतु:उस स्वप्न की प्राप्ति पुनः दुर्लभ हुई उसी प्रकार इस मनुष्यजन्म से प्रच्युत प्रमादी जीव को पुनः मनुष्यभव की प्राप्ति दुर्लभ है। इस कथा का भावदर्शक श्लोक इस प्रकार है स्वप्ने कार्पटिकेन रात्रिविगमे चन्द्रं मुखान्तर्गतं, दृष्ट्वा सर्वजनाग्रतो निगदितं लब्धं न राज्यं फलम् । स्वप्नस्तस्य पुनः स तत्र शयितस्यासीद्यथा दुर्लभः, संसारे भ्रमतः पुनर्नरभवो जन्तोस्तथा दुर्लभः ॥ १ ॥ यह छट्टा स्वप्नदृष्टान्त है ॥ ६ ॥ सातवां चक्र दृष्टान्त इस प्रकार है - इसका दूसरा नाम राधावेध दृष्टान्त भी है - मथुरा नगरी में जितशत्रु नाम का राजा रहता था । इसकी एक कन्या थी, जिसका नाम इन्दिरा था । यह चौंसठ कलाओं પ્રાપ્તિ દુર્લભ બની તે રીતે આ મનુષ્યજન્મથી પ્રદ્યુત પ્રમાદીજીવને ક્રી મનુષ્યભવની પ્રાપ્તિ દુલભ છે. આ કથાના ભાવદક àાક આ પ્રકારના છે. स्वप्ने कार्पटिकेन रात्रिविगमे चन्द्रं मुखान्तर्गतं, दृष्ट्वा सर्व जनामतो निगदितं लब्धं न राज्यं फलम् । स्वप्नस्तस्य पुनः स तत्र शयितस्यासीद्यथा दुर्लभः, संसारे भ्रमतः पुनर्नरभवो जन्तोस्तथा दुर्लभः ॥ १ ॥ છઠ્ઠું' સ્વપ્નદૃષ્ટાંત છે. સાત' ચક્રદૂષ્ટાંત આ પ્રકારનું છે. આનું બીજુ નામ રાધાવેધ દૃષ્ટાંત પણ છે. મથુરા નગરીમાં જીતશત્રુ નામના એક રાજા રાજ્ય કરતા હતા. તેને એક કન્યા હતી જેનુ' નામ ઈન્દિરા હતુ. તે ચેાસઠ કળાઓમાં કુશળ હતી એક ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર ઃ ૧ Page #669 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६१४ उत्तराध्ययनसूत्रे षष्टिकलाभिज्ञा जाता । जितशत्रुनृपस्तस्याः विवाहयोग्यं वयो विलोक्य चिन्तयति -यः खलु राजकुमारो धार्मिकः कलाकुशलः सकलनीतिशास्त्रनिपुणो राधावेधसाधनसमर्थः स्यात् स एव योग्यो वरः स्यादस्याः इति विचिन्त्य, तेन राज्ञा स्वयंवर. मण्डपः कारितः। तत्संनिधौ चैकमुच्चतरः स्तम्भः स्थापितः । तस्य स्तम्भस्योर्ध्वभागेऽनुलोमेन चत्वारि, विलोमेन च चत्वारि लोहचक्राणि निवेशितानि । तेषां चक्राणामुपरि राधानाम्ना प्रसिद्धा काष्ठमयी भ्रमन्ती पुत्तलिका स्थापिता । तत्राधस्तात् तैलपूर्णकटाहश्च स्थापितः । यः खलु राधाया वामनयनं शरेण विध्येत् स एवं मत्कन्यकाया इन्दिराया वरः स्यादिति जितशत्रुणा घोषणारूपेण प्रतिज्ञातम् । की ज्ञाता थी। जिस समय जितशत्रु ने विवाहयोग्य इसकी अवस्था देखी तो विचार किया कि-जो राजकुमार धार्मिक, कलाकुशल, सकलनीति शास्त्र में निष्णात एवं साथ में राधावेधसाधन में भी समर्थ हो वही इस कन्या का पति होने योग्य है । इस प्रकार विचार कर राजा ने स्वयंवरमंडप रचाया और उसके पास ही एक ओर एक बड़ा ऊँचा खंभा भी खडा करवाया। पश्चात् उसने उस खंभे के उर्ध्वभाग में लोहे के चार चक्र अनुलोम-सुलटे फिरने वाले और चार चक्र विलोम-उलटे फिरनेवाले लगवा दिये । फिर उन चक्रों के भी ऊपर राधा नाम की एक काष्टमयी घूमती हुई पुत्तली रखवा दी । खंभे के ठीक नीचे के भाग में तैल से भरा हुआ एक कडाह भी रखवा दिया। जब इस प्रकार से स्वयंवरमंडप की पूर्ण तयारी हो चुकी तब उसने यह घोषणारूप में अपनी प्रतिज्ञा प्रकट करवाई कि जो व्यक्ति राधा के वामनयन को बाण से बेध देगा वही मेरी कन्या इन्दिरा का पति સમયે જીતશત્રુએ તેની વિવાહગ્ય વય જોઈને વિચાર કર્યો કે, જે રાજકુમાર ધાર્મિક, કળાકુશળ, સકળ નીતિશાસ્ત્રમાં નિષ્ણાત અને સાથે સાથે રાધાવેધ સાધવામાં પણ સમર્થ હોય તેજ આ કન્યાને પતિ થવા ગ્ય છે. આ પ્રકારનો વિચાર કરી રાજાએ સ્વયંવરમંડપ ર અને તેની પાસે જ એક ખૂબ જાડો ઉંચે તંભ પણ ઉભું કરાવ્યું. એ પછી તેણે તે સ્તંભના ઉર્વ ભાગમાં લોઢાના ચાર ચક સીધાં ફરવાવાળાં અને ચાર ચક્ર અવળાં ફરવા વાળાં ગોઠવાવ્યાં પછી તે ચકોની ઉપર પણ રાધા નામની ફરતી લાકડાની પુતળી ગોઠવાવી સ્તંભના છેક નીચા ભાગમાં તેલથી ભરેલી એક કડાઈ રખાવી. જ્યારે આ પ્રકારે સ્વયંવરની સંપૂર્ણ તૈયારી થઈ ચુકી ત્યારે તેણે એક હશે. ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #670 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६१५ प्रियदर्शिनी टीका. अ० ३ गा. १ अङ्गचतुष्टयदौर्लभ्ये चक्रदृष्टान्तः ७ ततस्तेन नृपतिना निमन्त्रिता बहवो राजानो राजकुमाराच देशाद् देशान्तरादपि तत्र सोत्साहं समागताः । सर्वेषु राजसु राजकुमारेषु च मण्डपे समुपविष्टेषु जितशत्रुनृपस्तत्रागत्य वदति - यो राधापुत्तलिकाया वामनेत्रं शरेण विध्येत तस्मै मया कन्यका दातव्येति । राज्ञो वचः श्रुत्वा एकैकमुत्थितो नृपादिकस्तत्र राधावेधनाय शरं धनुषि संयोज्य प्राक्षिपत् । स च शरः कस्यचिदेकेन चक्रेणास्फालय भग्नः सन् भूमौ निपतितः कस्यचिदेकं चक्रमतिक्रान्तः कस्यचिद् द्वे, कस्यचित श्रीणि, अन्येषां तु लक्ष्यादन्यत्रैव निर्गतः कोऽपि राधावेधं साधयितुं नाशकत् । होगा । राजा ने इस प्रकार अपना भाव प्रकट कर सब राजाओं एवं राजपुत्रों के लिये स्वयंवरमंडप में आनेका आमंत्रण भेज दिया । राजा से आमंत्रित हो बडे उत्साह से अनेक राजा और राजकुमार देश देशान्तर से उत्साहपूर्वक आये और स्वयंवरमंडप में बैठ गये । जब समस्त राजा और राजपुत्र अच्छी तरह अपने २ स्थानों पर बैठ गये तब राजा जितशत्रु वहां आये और कहने लगे कि जो इस भ्रमण करती हुई राधा पुतलिका के वामनेत्र को बाण से वेधित करेगा वही मेरी पुत्री का पति होगा- अपनी पुत्री मैं उसे ही परणाऊँगा । राजा के इस प्रकार वचन सुनकर वे राजा तथा राजकुमार आदि राधावेध साधने के लिये उठे और अपने २ धनुष पर बाण रख कर राधावेध साधने के अभिप्राय से बाण को छोडने लगे। इनमें से किसी का बाण एक चक्र से टकरा कर, किसी का दूसरे चक्र से टकरा कर और અહાર પાડી પેાતાની મહેચ્છા પ્રગટ કરી કે, જે વ્યક્તિ રાધાના ડાબા નેત્રને માણથી વીંધશે તે મારી રાજકન્યા ઇન્દિરાના પતિ ખનશે. રાજાએ આ પ્રકારે ઢંઢેરા પીટાવીને સઘળા રાજાઓ અને રાજપુત્રાને સ્વયંવર મંડપમાં આવવાનુ આમંત્રણ મેાકલાળ્યું. રાજાનું આમંત્રણ મળતાં ઘણા ઉત્સાહથી અનેક અને રાજકુમારો દેશ દેશાંતરથી ઉત્સાહપૂર્વક આવ્યા અને સ્વયંવર મંડપમાં બિરાજ્યા. જ્યારે સર્વ રાજાએ અને રાજપુત્રો સારી રીતે પાતે પાતાના સ્થાન ઉપર બેસી ગયા ત્યારે રાજા જીતશત્રુ ત્યાં આવ્યા અને કહેવા લાગ્યા કે, જે કાઇ વ્યક્તિ આ ફરતી રાધા પુતળીના ડાબા નેત્રને ખાણુથી વિધશે તેને મારી પુત્રી વરમાળા પહેરાવશે અને તેનેજ હું મારી પુત્રી પરણાવીશ, રાજાનુ રાજા આ પ્રકારનું વચન સાંભળીને મંડપમાં બિરાજીત થએલા રાજા તથા રાજકુમાર વગેરે રાધાવેધ સાધવા માટે ઉઠયા અને પોતપાતાના ધનુષ્ય ઉપર ખાણુ ચઢાવીને રાધાવેધ સાધવાના લક્ષ્યથી ખાણુને છેડવા લાગ્યા. તેમાંથી કોઈનું ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર ઃ ૧ Page #671 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययनसूत्रे __ अथेन्द्रपुराधीशस्येन्द्रदत्तनाम्नो नृपस्य पुत्रो जयन्तकुमारः सोत्साहमुत्तिष्ठति, लोकाः करतालीप्रदानपूर्वकमुपहसंन्तो वदन्ति-अहो ! इमे वीरा धनुर्धरा यत्र न क्षमास्तत्रास्य कुमारस्य कीदृशं साहसम्?, किमनेन कर्तुं शक्यते?, एवं वदत्सु तनगर वास्तव्येषु मनोज्ञरूपलावण्यसंपन्नो जयन्तकुमारः स्तम्भस्य संनिधौ गत्वा धनुषि शरं संयोज्य, तैलपूर्णकटाहसंक्रान्तचक्रप्रतिबिम्बान्तरालमार्गेण राधावामनेत्रप्रतिबिकिसीका तीसरे चक्र से टकरा कर टूट कर नीचे गिर पडा। लक्ष्यस्थान तक किसी का भी बाण नहीं पहुँच सका। किसी २ का बाण तो लक्ष्य से भी उचटकर आगे निकल गया । इस प्रकार राधावेध किसी के भी द्वारा साध्य नहीं हो सका। इतने में इन्द्रपुर का राजा इन्द्रदत्त का पुत्र जयन्तकुमार बडे उत्साह से अपने स्थान से उठा । उसके उठते ही लोगों ने करतलध्वनि से पहिले तो उसकी हँसी करने लगे, फिर कहने लगे-देखो ये एक नवीन वीरपुरुष आये हैं, जहां ऐसे २ इन वीर धनुर्धारियों की भी नहीं चली वहां बिचारे इस कुमार की क्या चलेगी जो यह साहस दिखला ने को खडा हुआ है। लोग जब इस तरह से जयन्तकुमार की हँसी करने में तत्पर हो रहे थे कि कुमार सब के देखते २ ही उस स्तंभ के पास पहुंच गया। पहुँचते ही उसने पहिले अपने धनुष पर बाण चढाया। चढाकर फिर वह तैलपूर्णकडाह में पडे हुए चक्र के प्रतिबिम्ब को देखने लगा । देखते २ चक्र के બાણ પહેલા ચક્ર સાથે અથડાઈને તો કેઈનું બીજા એક સાથે અથડાઈને કેઈનું ત્રીજા ચક્ર સાથે અથડાઈને તુટીને નીચે પડી જતાં પણ લક્ષ્ય સ્થાન સુધી કેઈનું પણ બાણ જઈ શકયું નહીં. કેઈક ઈનાં બાણ તે લક્ષ્યથી પણ ઉપર થઈને આગળ નિકળી ગયાં. આ પ્રકારે રાધાવેધ કોઈનાથી પણ સાધ્ય ન થઈશ. એટલામાં ઇંદ્રપુર નગરના રાજા ઈન્દ્રદત્તનો પુત્ર જયંતકુમાર ઘણા ઉત્સાહથી પોતાના સ્થાનેથી ઉઠયા તેના ઉઠતાંજ લેકોએ તેની હાંસી ઉડાવવા માંડી અને પછી કહેવા લાગ્યાજુઓ આ એક નવીન વીરપુરુષ આવેલ છે. જ્યાં મોટા મોટા વીર ધનુર્ધારીઓનું પણ ન ચાલ્યું ત્યાં આ બિચારા કુમારનું શું ચાલવાનું છે. જે આ સાહસ બતાવવા ઉઠ્યો છે. લેકે જ્યારે આવી રીતે યંત કુમારની હાંસી ઉડાવવામાં તત્પર બની રહ્યા હતા ત્યારે કુમાર બધાના જોતજોતામાં તે સ્તંભની પાસે પહોંચી ગયા અને પહોંચતાં જ તેણે પહેલાં પોતાના ધનુષ્ય ઉપર બાણ ચડાવ્યું અને પછી તેલથી ભરેલ કડાઈમાં પડતા ચકના પ્રતિબિંબને જેવા લાગ્યા. જોતાં જોતાં ચકના અંતરાલમાથી પછી તેણે રાધા પુતળીની ડાબી ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #672 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६१७ 1 प्रियदर्शिनी टीका. अ० ३ गा० १ अङ्गवतुष्टयदौर्लभ्ये चक्रदृष्टान्तः ७ म्ब निवेशितदृष्टिरुर्ध्वमुष्टिर्भवति, तदा जयन्तकुमारस्य कलाचार्यस्तं पृच्छतिपश्यसि किं दृष्टिगतं भवति ? जयन्तकुमारः माह- केवलं पुत्तलिकाया वामनेत्रम्, न तु किंचिदन्यत् । तद्वचनं श्रुत्वा गुरुः परितुष्टो जातः । ततोऽसौ जयन्तकुमारस्तैलपूर्ण कटाहगतं प्रतिबिम्बितं वामनेत्रं पश्यन् निश्चलेन मनसा करें स्थिरीकृत्य हस्तलाघवं दर्शयन् सद्यः शरं व्यमुचत् । स शरवक्रान्तरालेन सवेगं निर्गच्छन् पुत्तलिकाया वामनेत्र कनीनिकामविध्यत् । ततस्तस्य करस्थैर्य लघु हस्तस्वादिकं वर्णयन्तो लोकाः प्रमुदिता जयजयध्वनिं प्रकुर्वन्ति । तदा जितशत्रुपुत्री इन्दिरा अन्तराल मार्ग से फिर उसने राधा पुत्तली के वामनेत्र का प्रतिfare देखा | देखकर उसने फिर धनुष को चढाने के लिये हाथ की मुट्ठी ऊँची की। इतने में उसके कालाचार्य बीच ही में उससे पूछा जयन्त ! तुम्हें इस समय क्या दिख रहा है ? । जयन्त ने कहा- गुरुमहाराज ! मुझे इस समय पुत्तली के वामनेत्र सिवाय और कुछ नहीं दिख रहा है । जयन्तकुमार के वचन सुनकर कलाचार्य के हर्ष का ठिकाना नहीं रहा । जयन्त ने तैलपूर्ण कडाह में पडे हुए पुत्तली के वामनेत्र के प्रतिबिम्ब को लक्ष्यकर शीघ्र ही निश्चल मन से हाथ को संभालते हुए उस ओर धनुष से बाण छोड दिया । छूटते ही बाण ने चक्र के अन्तराल से निकलते हुए उस पुत्तली के वामनेत्र की कनीनिका को वेध दिया। उपस्थित जनताने जयन्तके लक्ष्यवेधकी निपुणता की एवं हस्तलाघव की बहुत अधिक प्रशंसा की। सब के सब बड़े ही प्रसन्न हुए। जयन्त की चारों ओर से जयध्वनिपूर्वक बधाई होने लगी । આંખનું પ્રતિબિંબ જોયું. જોઈ ને તેણે ધનુષ્યને ચડાવવા માટે હાથની મુઠી ઉંચી કરી. એ વખતે તેના કળાચા૨ે વચમાં જ તેને પૂછ્યું' જ્યંત તમને આ સમયે શું દેખાય છે? જયતે કહ્યું: ગુરુમહારાજ મને આ સમયે પુતળીની ડાખી આંખ સિવાય ખીજું કંઇ દેખાતું નથી. જ્યંતકુમારનાં વચન સાંભળીને કલાચાય હર્ષિત અન્યા. જ્યતે તેલ ભરેલ કડાઈમાં પડતા પુતળીના ડાખા નેત્રના પ્રતિષિ`મને લક્ષ્ય કરી તરત જ નિશ્ચલ મનથી હાથને સભાળીને તે તરફ માણુ છેાડયુ ખાણ છુટતાં જ ચક્રના અંતરાલથી નીકળીને પુતળીની ડાબી આંખની કીકીનું વેધન કર્યું. ભેળી થયેલી જનતાએ જય'તકુમારના લક્ષ્યવેષની પ્રશંસા કરી અને હાથકુશળતાની ઘણીજ પ્રશંસા કરી. સઘળા ખૂબજ પ્રસન્ન થયા. જ્યંતની ચારે ખાજુથી જયધ્વની પૂર્વક વધાઈ થવા લાગી. ઇન્દિરા પણુ પાતાના ભાગ્યને વખાણુતી જયંતના ગળામાં વરમાળા उ० ७८ ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર ઃ ૧ Page #673 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययनसूत्रे जयन्तकुमारस्य कण्ठे पुष्पमालां ददौ । यथा राधावेधो दुष्करस्तथा मनुष्यदेहाच्च्युतस्य प्रमादिनः पुनमनुष्यत्वं दुर्लभमिति । अत्र संग्रहश्लोकः-( शार्दूलविक्रीडितवृत्तम् ) राधायावदनादधः क्रमवशाच्चक्राणि चत्वार्यपि, भ्राम्यन्तीह विपर्ययेण खलु तद्वामाक्षिवेधो यथा। प्राप्तो दुष्करतां नरेन्द्रतनयापाणिग्रहाकाजिणां, संसारे भ्रमतः पुनर्नरभवो जन्तोस्तथा दुर्लभः ॥१॥ इति सप्तमश्चक्रदृष्टान्तः ॥७॥ अथाष्टमः कूर्मदृष्टान्तः अगाधजलपरिपूर्णः सहस्रयोजनविस्तीर्णः सलिलजन्तुसंभृतः सुशोभितः इन्दिरा भी अपने भाग्य की सराहना करती हुई जयन्त के गले में वरमाला डालकर अपने आपको धन्य मानन लगी। इस दृष्टान्त का भाव केवल इतना ही है कि जिस प्रकार राधावेध साधना दुष्कर कार्य है उसी प्रकार मनुष्य जन्मको हारा हुआ प्रमादी प्राणी को पुनः मनुष्यजन्मकी प्राप्ति दुर्लभ है। इस दृष्टान्तका भावप्रदर्शकश्लोक इस प्रकार है राधाया वदनादधुः क्रमवशात् चक्राणि चत्वार्यपि, भ्राम्यन्तीह विपर्ययेण खलु तद्वामाक्षिभेदो यथा । जातो दुष्करतां नरेन्द्रतनयापाणिग्रहाकांक्षिणाम् । संसारे भ्रमतः पुननरभवो जन्तोस्तथा दुर्लभः ॥१॥ यह सातवा चक्रदृष्टान्त है ॥७॥ आठवाँ कूर्म (कच्छप ) का दृष्टान्त इस प्रकार है-अगाधजल से પહેરાવીને પિતે પિતાને ધન્ય માનવા લાગી. આ દષ્ટાંતને ભાવ એટલે છે કે, જે રીતે રાધાવેધ સાધના અત્યંત કઠીન અને દુષ્કર છે એજ રીતે મનુષ્ય જન્મને હારી ગયેલ પ્રમાદી પ્રાણીને પુનઃ મનુષ્યજન્મની પ્રાપ્તિ દુર્લભ છે. આ દૃષ્ટાંતને ભાવપ્રદર્શક શ્લેક આ પ્રકાર છે. राधाया वदनादधः क्रमवशात् चकाणि चत्वार्यपि, भ्राम्यन्तीह विपर्ययेण खलु तद् वामाक्षि भेदो यथा। जातो दुष्करतां नरेन्द्रतनयापाणिग्रहाकाक्षिणाम, संसारे भ्रमतः पुनर्नरभवो जन्तोस्तथा दुर्लभः ॥१॥ मा सातभुयष्टांत छ. ॥७॥ આઠમું કુમ કાચબા (ક૭૫) નું દૃષ્ટાંત આ પ્રકારનું છેઅગાધ જળથી પરિપૂર્ણ એવો એક (ધર) હેજ હતું, જેને વિસ્તાર એક ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #674 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रियदर्शिनी टीका अ० ३ गा. १ अङ्गचतुष्टयदौर्लभ्ये कर्मदृष्टान्तः ८ ६१९ एको हूद आसीत् । तदुदकं च परस्परसम्बद्धशैवालजालैश्छादितमभवत् । तत्र स्वापत्यसंततिसमन्वितः कच्छपः प्रतिवसति । अन्यदा कदाचित् तत्र सान्द्र शैवालमध्ये हृदोपान्तस्थितजम्बूविटपिनः सुपक्वफलसंपातेन शैवालतन्तुविच्छेदाच्छिद्रमभवत्, तस्मिन्नेव समये तत्रस्थिताऽसौ कूर्मस्तत्कालजातच्छिद्रमाश्रित्य ग्रीवां बहिष्करोति । तदनु खल्वसौ निर्मलगगनमण्डलमण्डनायमान तारागणसमन्वितसुषमासम्पन्नशारदपूर्णशशाङ्कबिम्बमवलोक्य साश्चर्य मनसि चिन्तयति -अहो ! किमिदं विलोक्यते । कीदृशमिदमदृष्टपूर्व नयनान्दजनकम् ? । इत्येवं परिपूर्ण एक द्रह था। जिसका विस्तार एक हजार योजन का था। इसमें अनेक जलचर जीव रहते थे। यह बड़ा सुन्दर था। इसका जल परस्पर संबद्ध शैवालसमूह से आच्छादित था। इसमें एक कच्छुआ अपने बच्चों के साथ रहता था। एक समय की बात है कि उस द्रह के किनारे पर जो जामुन के वृक्ष खडे हुए थे उनके कुछ जम्बूफल उस शैवालजाल के ऊपर गिरे । उनके गिरने से उस शैवालजाल के बीच में शैवाल के तन्तुओं के टूट जाने से छिद्र हो गया। उसी समय कछुए ने जो उस शैवालजाल के नीचे रहता था उस छिद्र से अपनी गर्दन को बाहर निकाला। बाहर निकालते ही उसने स्वच्छ आकाश में आकाश का मण्डनस्वरूप एवं तारागणों से सुशोभित परमशोभासंपन्न ऐसे शरदकालीन पूर्णचन्द्रमा के बिम्ब को देखा। देखते ही उसे बड़ा भारी आश्चर्य हुआ। विचार ने लगा-अहा ! यह क्या दिखाई देता है ? मैंने तो आज तक ऐसा नेत्रों को अपूर्व आनन्द देने वाला હજાર જન જેટલું હતું. તેમાં અનેક પ્રકારના જળચર જીવ રહેતા હતા. તે ધરે પૂબજ સુંદર હતું. તેનું જળ શેવાળ સમૂહથી આચ્છાદિત હતું એમાં એક કાચ પિતાનાં બચ્ચાંઓ સાથે રહેતો હતો. એક સમયની વાત છે કે, તે ધરાના કાંઠે જાંબુડાનાં વૃક્ષો હારબંધ ઉગ્યાં હતાં તે પૈકીના એક વૃક્ષ ઉપરથી થોડાં જાબુફળ શેવાળ ઉપર પડયાં. આ રીતે જાંબુડાના પડવાથી જળ ઉપર આચછાદિત થયેલી શેવાળમાં છિદ્ર પડી ગયાં. આ વખતે એ શેવાળની નીચે રહેતા કાચબાએ જાંબુને લઈને શેવાળમાં પડેલા છિદ્રમાંથી પિતાની ડેક બહાર કાઢી. પિતાની ડોકને શેવાળમાંથી બહાર કાઢતાં જ કાચબાએ સ્વચ્છ આકાશમાં તારાગણેથી સુશોભિત પરમ શભાસંપન્ન એવા શરદકાળના પૂર્ણ ચંદ્રમાના પ્રકાશને જે. જોતાં જ તેને ઘણું જ આશ્ચર્ય થયું અને તે મને મન વિચારવા લાગ્યું કે, અહા! આ શું દેખાઈ રહ્યું છે? મેં આજ સુધી તેને આનંદ દેવાવાળે આવે ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર: ૧ Page #675 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२० उत्तराध्ययनसूत्रे विचिन्त्य स कूर्मः स्ववन्धूनपि तद् दर्शयितुं जले निमज्य यावता कालेन तैः सह पुनरायाति तावत् पुनः समीरसंयोजितशेवालैस्त छिद्रमाच्छादितम् । यथा तच्चन्द्रमण्डलदर्शनं पुनस्तस्य कूर्मस्य दुर्लभं तथा मनुष्यदेहाच्च्युतस्य प्रमादिनः पुनर्मनुष्यत्वं दुर्लभमिति । अत्र संग्रह श्लोकः - ( शार्दूलविक्रीडितवृत्तम्) दृष्ट्ा कोऽपि हि कच्छपो ह्रदमुखे शैवालबन्धच्युते, पूर्णेन्दुं मुदितः कुटुम्बमिह तं द्रष्टुं समानीतवान् । पदार्थ नहीं देखा है, यह कितना सुन्दर है । इस प्रकार विचार कर उसने इस अपूर्व वस्तु को अपने परिवार को भी दिखाने का विचार किया, अतः वह पानी में डुबकी लगाकर अपने परिवार के पास पहुँचा और उनको साथ में लेकर ज्यों ही यह वहां आया कि वह शैवालजाल हवा के लगने से फिर से ज्यों का त्यों परस्पर में मिल गया । इस दृष्टान्त से हम को यह शिक्षा मिलती है कि जिस प्रकार हवा के झोकों के लगने से शैवाल के तन्तु आपस में मिल गये और छिद्र का अभाव हो गया, अतः उस अभागे कछुए को पुनः चंद्रदर्शन होना दुर्लभ हुआ, उसी प्रकार मनुष्यजन्म को हारे हुए प्रमादी प्राणी को पुनः मनुष्यजन्म मिलना महा दुर्लभ है । इस दृष्टान्त का भावसंग्रह श्लोक इस प्रकार है दृष्ट्वा कोऽपि हि कच्छपो इदमुखे शैवालबन्धच्युते, पूर्णेन्दुं मुदितः कुटुम्बमिह तं द्रष्टुं समानीतवान् । અપૂર્વ પદાર્થ કદી પણ જોચે નથી..આ કેવા સુંદર છે ? આ પ્રકારના વિચાર કરી, એ અપૂવ વસ્તુ પોતાના પરિવારને પણ બતાવવાના વિચાર કર્યાં અને પાણીમાં ડુબકી મારી તે પેાતાના પિરવારની પાસે પહોંચ્યા. અને તેને સાથે લઈ તે ઉપરોક્ત સ્થળે પહોંચ્ચા ત્યારે તે શેવાળ કે જેમાં જાપુને લઈ છિદ્ર પડયું હતું. તે પવનને કારણે પુરાઈ જતાં શેવાળની સપાટી ફરીથી સંધાઇ ગઇ તેથી કાચબા અને તેના પરિવારને ફરીથી ચંદ્રનાં દન ન થયાં. એ પ્રકારે મનુષ્ય જન્મને હારી ગયેલ પ્રમાદી પ્રાણીને મનુષ્ય જન્મ મળવા મહા દુર્લભ છે. આ દૃષ્ટાંતના ભાવસંગ્રાહક શ્લાક આ પ્રમાણે છે.— दृष्ट्वा कोऽपि हि कच्छपो हदमुखे शैवालबन्धच्युते, पूर्णेन्दुं मुदितः कुटुम्बमिह तं द्रष्टुं समानीतवान् । ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર ઃ ૧ Page #676 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रियदर्शिनी टीका अ० ३ गा. १ अङ्गचतुष्टयदौर्लभ्ये युगदृष्टान्तः ९ शैवाले मिलिते यथैव शशिनः संदर्शनं दुर्लभ, संसारे भ्रमतः पुनर्नरभवो जन्तोस्तथा दुर्लभः ॥ १ ॥ इत्यष्टमः कूर्मदृष्टान्तः ॥ ८ ॥ ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર ઃ ૧ ६२१ अथ नवमो युगदृष्टान्तः प्रोच्यते असंख्ययोजनविस्तीर्णो वलयाकारः सहस्रयोजनगम्भीरः स्वयंभूरमणसमुद्रोऽस्ति । तस्य प्राच्यां दिशि कोऽपि देवो युगं प्राक्षिपत् तस्य युगस्य कीलिकां पश्चिमायां दिशि । यथा तस्मिन् समुद्रे भ्राम्यन्स्यास्तस्याः कीलिकायास्तेन युगेन शैवाले मिलिते यथैव शशिनः संदर्शन दुर्लभम्, संसारे भ्रमतः पुनर्नरभवो जन्तोस्तथा दुर्लभः ॥ १ ॥ यह आठवा कूर्मदृष्टान्त हुआ ॥ ८ ॥ नौवां युगदृष्टान्त इस प्रकार है - यह दृष्टान्त कल्पना से संबंध रखता है । असंख्यात द्वीप और समुद्रों के बाद एक अन्तिम द्वीप और समुद्र है । अन्तिम समुद्र का असंख्यात योजन का विस्तार है । गहराई भी इसकी एक हजार योजन की है । इसमें कल्पना करो कि कोई एक देव पूर्व दिशा की ओर एक जुआ-गाडी का अवयवविशेष जो बैलों के कन्धों पर रखा जाता है-डाल दे, और पश्चिम दिशा की ओर उसकी कीलिका - सेल - डाल दे । अब यह कीलिका उस समुद्र में उस दिशा से बहती हुई चली आवे और वहते हुए जुआ के साथ शैवाले मिलिते यथैव शशिनः संदर्शनं दुर्लभम्, संसारे भ्रमतः पुनर्नरभवो जन्तोस्तथा दुर्लभः ॥ १ ॥ આ આઠેમુ કૂદૃષ્ટાંત છે. ૫૮૫ નવમું યુગદૃષ્ટાંત આ પ્રકારનું છે— આ દૃષ્ટાંત કલ્પનાથી સબંધ રાખે છે. અસંખ્યાત દ્વીપ અને સમુદ્રો પછી એક છેલ્લા દ્વીપ અને સમુદ્ર છે. એ છેલ્લા સમુદ્રના વિસ્તાર અસખ્ય ચેાજનના છે. ઉંડાઈ પણ તેની એક હજાર ચેાજનની છે. આમાં કલ્પના કરો કે, કેાઈ એક દેવ પૂર્વદિશા તરફ એક ધાંસર કે જે ગાડીમાં બળદના કાંધ ઉપર રાખવામાં આવે છે તે નાખી દે અને પશ્ચિમ દિશા તરફથી એ ધેાંસરાની લાકડીએ નાખી દે. પશ્ચિમ દિશાએ નાખેલી ધેાંસાની એ સાંબેલ વહેતાં વહેતાં ચાલી આવે અને તે ધંસરી સાથે મળી જાય. જે રીતે આ વાત Page #677 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२२ उत्तराध्ययनसूत्रे सह संघटनमेव दुर्लभं, तस्य युगस्य छिद्रे पुनः प्रवेशस्तु तत्रापि दुर्लभस्तथा मनुष्यभवात्मच्युतस्य प्रमादिनः पुनर्मनुष्यजन्म दुर्लभमिति । अत्र संग्रहः- (शार्दूलविक्रीडितवृत्तम् ) प्राच्यब्धौ युग-कीलिका विनिहिता क्षिप्तं युगं पश्चिमे, यद्वद् दुर्लभमेव तत्र वहतोः संमीलनं तद्वयोः । शम्यायास्तु पुनयुगस्य विवरे तस्याः प्रवेशो यथा, संसारे भ्रमतः पुनर्नरभवो जन्तोस्तथा दुर्लभः ॥१॥ इति नवमो युगदृष्टान्तः ॥९॥ अथ दशमः परमाणुदृष्टान्त: केनाऽपि क्रीडापरेण देवेन मणिक्यमयं स्तम्भं वज्रेण चूर्णीकृत्य परमाणुमिल जावे तो जिस प्रकार यह बात बहुत दुर्लभ है और इससे भी अधिक दुर्लभ यह है कि वह कीलिका वहते २ उस जुए के छेद में प्रविष्ट हो जावे यह बात दुर्लभ है । इसी तरह मनुष्य भव से प्रच्युत प्रमादी जीव को पुनः मनुष्यभव की प्राप्ति होना दुर्लभ है। इसका भावप्रदर्शकश्लोक इस प्रकार है प्राच्यब्धौ युगकीलिका विनिहिता क्षिप्तं युगं पश्चिमे, यदुर्लभमेव तत्र वहतोः संमीलनं तवयोः। शम्यायास्तु पुनर्युगस्य विवरे तस्याः प्रवेशो यथा, संसारे भ्रमतः पुनर्नरभवो जन्तोस्तथा दुर्लभः॥१॥ यह नौवां युगदृष्टान्त है ॥९॥ ઘણી જ દુર્લભ છે અને તેનાથી પણ અધિક દુર્લભ તે એ છે કે, ઘસરાની તે સાંબેલો વહેતાં વહેતાં તે ધંસરાના વીંધમાં જોડાઈ જાય એ વાત દુર્લભ છે. આ રીતે મનુષ્યભવથી પ્રયુત પ્રમાદી જીવને ફરીથી મનુષ્યભવની પ્રાપ્તિ थवी न छे. તેના ભાવને દર્શાવતે ક આ પ્રકારનો છે– पाच्यब्धौ युगकीलिका विनिहिता क्षिप्तं युगं पश्चिमे, यद्वहुर्लभमेव तत्र वहतोः संमीलनं तद्वयोः। सम्यायास्तु पुनर्युगस्य विवरे तस्याः प्रवेशो यथा, संसारे भ्रमतः पुनर्नरभवो जन्तोस्तथा दुर्लभः ॥ १॥ આ નવમું યુગદ્રષ્ટાંત છે. જે ૯ ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #678 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रियदर्शिनी टीका. अ० ३ गा० १ अङ्गचतुष्टय दौर्लभ्ये परमाणुदृष्टान्तः १० ६२३ तुल्यं तच्चूर्ण नलिकान्तर्निधाय मेरुशिखरं समारुह्य फूत्कृतसमीरणैस्तच्चूर्ण सकलं सर्वतः समुडायितम् । अथ तेन देवेन विक्षिप्तास्ते परमाणवः प्रचण्डपवनोद्धृताः सर्वासु दिक्षु दूरं गता एकैकशो विभिन्नाः पतिताः । यथा तान् परमाणून् सर्वतः संचित्य तैः पुनः स्तम्भनिष्पादनं लोकस्य दुष्करें, तथा मनुष्यभवात् प्रच्युतस्य प्रमादिनः प्राणिनो मनुष्यजन्म दुर्लभमिति ॥ दसवां परमाणु दृष्टान्त इस प्रकार है - यह दृष्टान्त भी कल्पना से संबंध रखने वाला है-जैसे क्रीडावश किसी देव ने माणिक्यनिर्मित एक स्तम्भ को वज्र के प्रहार से तोडा । पश्चात् उसे इतना पीसा कि उसका चूरा चूरा हो गया। चूर्ण जैसा जब वह बन चुका तब उस चूर्ण को उसने एक नलिका में भरा और सुमेरु पर्वत के शिखर पर खडे होकर उसको सब तरफ फुंक से उड़ा दिया । वे सब के सब उस स्तम्भके परमाणु जो उस देव ने अपनी फूंक से इधर उधर उड़ा दिये हैं और वायुके प्रबल झोंको ने उनकोप्रत्येक दिशा में ले जाकर और भी दूर फेंक दिये। उन सब के सब परमाणुओं को एकत्रित कर के फिर से जैसे उस स्तम्भ का उसी रूप से निर्माण करना दुष्कर है उसी तरह मनुष्यभव से प्रच्युत 'जीव को मनुष्यभव की पुन: प्राप्ति होना दुर्लभ है દસમું' પરમાણુદૃષ્ટાંત આ પ્રકારનું છે. ચૂર્ણ જેવા જ્યારે તે સુમેરૂ પર્વતના શિખર દીધા. એ સ્ત ંભના આ દૃષ્ટાંત પણ કલ્પનાથી સંબંધ રાખવાવાળું છે. જેમ રમતના તારથી કાઈ દેવે માણિકયથી ભરેલા એવા એક સ્તંભને વજ્રના પ્રહારથી તાડી નાખ્યો. પછી તેને એટલે પિસ્યા કે, તેના ચૂરેચૂરા થઈ ગયા. થઈ ગયા ત્યારે તે લુકાને તેણે એક નળીમાં ભર્યાં અને ઉપર ઉભા રહીને ચારે બાજુ તે ભુકાને કુંકથી ઉડાડી ભુકા રૂપે બનેલા સઘળા પરમાણુઓને તે દેવે પેાતાની કુંકથી ચારે કાર ઉડાવી દીધા અને વાયુએ પ્રમળ વેગથી દરેક દિશામાં લઈ જઈને દૂર ફેંકી દીધા. દૂર દૂર જ્યાં ત્યાં ફૂંકાઈ ગયેલા એ સઘળા પરમાણુને એકત્રિત કરી ફરીથી સ્તંભનું નિર્માણ કરવું દુષ્કર છે તેવીજ રીતે આ મનુષ્યભવને હારી બેઠેલેા જીવ ફ્રી મનુષ્ય જન્મની પ્રાપ્તિ કરી શકતા નથી. ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર ઃ ૧ Page #679 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२४ उत्तराध्ययनसूत्रे अत्र संग्रहः-(शार्दूलविक्रीडितवृत्तम् ) चूर्णीकृत्य पराक्रमान्मणिमयं स्तम्भं सुरः क्रीडया, मेरौ सन्नलिकासमीरवशतः क्षिप्त्वा रजो दिक्षु तत् । स्तम्भस्तैः परमाणुभिः सुमिलितैलॊके यथा दुष्करः, संसारे भ्रमतः पुनर्नरभवो जन्तोस्तथा दुर्लभः ॥ १॥ ॥ इति दशमः परमाणुदृष्टान्तः ॥१०॥ तत्र मानुषत्वं कथं दुर्लभं तदर्शयितुमाहमूलम् समावन्ना णं संसारे, नाणागोत्तासु जाईसु । कम्मा नाणाविहा कंट, पुढो विस्संभया पंया ॥२॥ छाया-समापन्नाः खलु संसारे, नानागोत्रासु जातिषु । कर्माणि नानाविधानि कृत्वा, पृथक् विश्वभृतः प्रजाः ॥ २॥ टोका-'समावन्ना ण' इत्यादि । 'ण' इति वाक्यालङ्कारे। संसारे नानागोत्रासुबहुविधकुलसंपन्नासु, जातिषु इसका भावप्रदर्शक श्लोक इस प्रकार है चूर्णीकृत्य पराक्रमान्मणिमयं स्तंभं सुरः क्रीडया, मेरौ सन्नलिका समीरवशतः क्षिप्त्वा रजो दिक्षु तत् । स्तम्भस्तैः परमाणुभिः सुमिलित लोके यथा दुष्करः, संसारे भ्रमतः पुननरभवो जन्तोस्तथा दुर्लभः॥१॥ ___ यह दसवां परमाणुदृष्टान्त है ॥१०॥ मनुष्यभव दुर्लभ कैसे है ? इस बात को सूत्रकार प्रकट करते हैं"समावन्नाण"-इत्यादि। अन्वयार्थ-गाथा में " ण" यह शब्द वाक्यालंकार में प्रयुक्त તેને ભાવ દર્શાવાત લૈક આ પ્રકાર છે. चूर्णीकृत्य पराक्रमान्मणिमयं स्तंभं सुरः क्रीडया, मेरौ सन्नलिका समीरवशतः क्षिप्त्वा रजो दिक्षुतत् । स्तम्भस्तैः परमाणुमिः सुमिलितै लाके यथा दुष्करः, संसारे भ्रमतः पुनर्नरभवो जन्तोस्तथा दुर्लभः॥१॥ આ દસમું પરમાણું દષ્ટાંત છે. ૧૦ મનુષ્યભવ દુર્લભ કેમ છે, આ વાતને સૂત્રકાર પ્રગટ કરે છે– 'समावन्नाण ' त्याहिઅન્વયાર્થ–ગાથામાં “બ” આ શબ્દ વાયાલંકારમાં પ્રયુક્ત થયો ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #680 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रियदर्शिनी टीका. अ० ३ गा. २ मनुष्यजन्मनो दौलभ्यम् =एकेन्द्रियादिषु समापन्नाःयाप्ताः, प्रजाः जन्तवः, नानाविधानि अनेकप्रकाराणि कर्माणि-ज्ञानावरणीयादीनि, कृत्वा पृथक् एकैकशः लोकाकाशस्यैकैकप्रदेशे एकैकयोनिसमुत्पन्नतया सूक्ष्मपृथिव्यादिस्थावरकायैलॊकाकाशस्य संभृतत्वात् विश्वभृतः सर्वस्थानपूरकाः भवन्ति । उक्तश्च नत्थि किर सो पएसो, लोए वालग्गकोडिमेत्तो वि । जम्मणमरणावाहा, जत्थ जिएहिं न संपत्ता ॥१॥ छाया-नास्ति किल स प्रदेशो, लोके बालाग्रकोटिमात्रोऽपि । जन्ममरणाबाधा, यत्र जी वैर्न संप्राप्ता ॥ १ ॥ हुआ है । (संसारे-संसारे) संसार में (नाणागोत्तासु-नानागोत्रातु) अनेक प्रकार के कुलों से संपन्न (जाइसु-जातिषु) एकेन्द्रियादिक योनियों में (समावन्ना-समापन्नाः) उत्पन्न हुए (पया-प्रजाः) ये जीव (नाणाविहा-नानाविधानि ) अनेक प्रकारके (कम्मा कडु-कर्माणि कृत्वा) ज्ञानावरणीयादिक कर्मों का बंध कर (पुढो--पृथक् ) लोकाकाश के एक प्रदेश में एक एक योनि में उत्पन्न होकर (विस्संभया-विश्वभृतः) उस के समस्त स्थानों को भर दिया है । उक्तञ्च नास्थि किर सो पएसो, लोए बालग्गकोडिमेत्तो वि । जम्मणमरणाबाहा, जत्थ जिएहिं न संपत्ता ॥१॥ छाया-नास्ति किल स प्रदेशो, लोके बालाग्रकोटिमात्रोऽपि जन्ममरणाबाधा, यत्र जीवन सम्प्राप्ता ॥१॥ लोकाकाश का ऐसा कोई सा भी प्रदेश नहीं बचा जा इस जीव छ. संसारे संसारमा नाणागोत्तासु-नानागोत्रासु मने ॥२गोथी संपन्न जाइसु-जातिषु मेन्द्रियाहि योनिमामा समावन्ना समापन्ना उत्पन्न यये पया-प्रजाः से १ नाणाविहा-नानाविधानि मन ४१२ना कम्माकट्ठ-कर्माणि-कृत्वा ज्ञाना१२. थीयाहि भनि। म ४२॥ पुढो-पृथक् दे शना प्रत्ये प्रदेशमा ४ योनीमा उत्पन्न थऽ विस्स भया विश्वभृतः सेना समस्त स्थानाने भरी घेत छ. युं ५ छ नत्थि किर सो पएसो लोए वालग्गकोडिमेत्तो वि। जम्मणमरणाबाहा जत्थ जिएहिं न संपत्ता ॥१॥ छाया-नास्ति किल स प्रदेशो, लोके बालाग्रकोटि मात्रोऽपि । जन्ममरणाबाधा, यत्र जीवन सम्पाप्ता ॥१॥ કાકાશમાં એ કેઈપણ પ્રદેશ નથી બચ્ચે કે, જે પ્રદેશ જીવે પિતાના उ० ७९ ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #681 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२६ उत्तराध्ययनसूत्रे अयं भावः-मानुषं जन्म लब्ध्वाऽपि प्रमादकृतदुष्कर्मप्रभावादेकेन्द्रियादिजातिप्राप्त्या चक्रवर्तिपायसादिवत् पुनर्मानुषत्वं दुर्लभमिति ॥ २॥ एतदेव स्पष्टयतिमलम-एगया देवलोएसु, नरएंसुवि एगया। एगेया आंसुरं कायं, अहा कम्महिं गच्छइ ॥३॥ ने अपने जन्म मरण से न भर दिया हो। जीव ने सूक्ष्मपृथिवीकायादि स्थावर काय में उत्पन्न होकर लोकाकाश का प्रत्येक प्रदेश को तैल से तिल की तरह भर दिया है । इसलिये मनुष्यजन्म पाकर भी जो प्रमादी होकर दुष्कर्मों का उपार्जन करते हैं वे उनके प्रभाव से एकेन्द्रियादिक जाति की प्राप्ति से चक्रवर्ती के पायस आदि की तरह मनुष्यभव की प्राप्ति को दुर्लभ बनालेते हैं भावार्थ-मनुष्यभव पाकर भी प्राणी का कर्तव्य है कि वह प्रमादी नहीं बने । प्रमाद के कारण ज्ञानावरणीयादिक कर्मों का बंध होने से इस जीव का एकेन्द्रियादिक योनियों में जन्म होता है । इसमें इसका अनन्तकाल निकल जाता है। अतः पुनः मनुष्यभव की प्राप्ति दुर्लभ बन जाती है। तात्पर्य कहने का यह है कि मनुष्यभव सार्थक करने का यही उपाय है कि प्रमादी न बना जाय ॥२॥ જન્મમરણથી ન ભરી દીધો હોય. જીવે સૂક્ષ્મ પૃથ્વી કાયાદિ સ્થાવર કાયમાં ઉત્પન થઈ થઈને કાકાશના પ્રત્યેક પ્રદેશને તલના તેલની માફક ભરી દીધેલ છે. આ માટે મનુષ્યજન્મ મળવા છતાં પણ જે પ્રમાદી બની દુષ્કર્મોનું ઉપાર્જન કરે છે, તે એના પ્રભાવથી એકેન્દ્રિયાદિક જાતીની પ્રાપ્તિથી ચક્રવતીના દુધપાક વગેરેની માફક ફરી મનુષ્યભવની પ્રાપ્તિને દુર્લભ બનાવે છે. ભાવાર્થ–મનુષ્યભવ મેળવીને પણ પ્રાણીનું કર્તવ્ય છે કે, તે પ્રમાદી ન બને. પ્રમાદના કારણે જ્ઞાનાવરણીયાદિક કર્મોને બંધ થવાથી આ જીવને એકે. ન્દ્રિયાદિક જેવી નીઓમાં જન્મ થાય છે. તેમાં તેને અનંત કાળ નીકળી જાય છે. આથી મનુષ્યભવની પ્રાપ્તિ દુર્લભ બની જાય છે. તાત્પર્ય કહેવાનું એ છે કે, મનુષ્યભવ સાર્થક કરવાનું એક માત્ર ઉપાય એ છે કે, આપણે પ્રમાદી ન બની અને જ્યાં સુધી મુક્તિની પ્રાપ્તિ ન થાય ત્યાં સુધી મનુષ્યભવની જ ફરી ફરી પ્રાપ્તિ થતી રહે એ પ્રયત્ન તે કરવું જોઈએ. જે ૨ છે ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #682 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२७ प्रियदर्शिनी टीका. अ० ३ गा. ३ जीवस्यानेकजातिषु भ्रमणम् छाया-एकदा देवलोकेषु, नरकेष्वपि एकदा। एकदा आसुरं काय, यथा कर्मभिः गच्छति ॥ ३ ॥ टीका-'एगया' इत्यादि। जीवः, एकदा-एकस्मिन् काले शुभकर्मानुभवकाले देवलोकेषु-सौधर्मादिषु यथाकर्मभिः तद्गत्यनुरूपैश्चेष्टितैः सरागसंयमदेशविरत्यकामनिर्जराबालतपःकर्मभिः गच्छति । एकदा-अशुभकर्मोदयकाले, नरकेषु रत्नप्रभादिषु यथाकर्मभिः महारम्भमहापरिग्रहपञ्चेन्द्रियवधकुणपाहारैगच्छति । एकदा आसुरम्-असुरसम्बन्धिनं, कार्य=निकायम् असुरकुमारभावमित्यर्थः, यथा कर्मभिः सरागसंयमादिभिः, गच्छति-माप्नोति । उपलक्षणखाज्ज्योतिर्व्यन्तरयोरपि गच्छतीति बोध्यम् ॥ ३॥ उपरोक्त कथन को स्पष्ट करते हुए कहते है-' एगया'-इत्यादि । अन्वयार्थ-यह जीव (एगया-एकदा) कभी तो शुभ कर्म के अनुभवन काल में (देवलोएसु-देवलोकेषु) सौधर्म आदि देव लोक में (अहाकम्मेहिं - यथाकर्मभिः) 'सरागसंयम, देशविरति, अकामनिर्जरा एवं बालतप आदिरूप उस गति के कर्म के कारणों से (गच्छइ-गच्छति) जन्म लेता है । (एगया-एकदा) कभी अशुभकर्म के अनुभवनकाल में (नरएसु-नरकेषु ) रत्नप्रभा आदिक नरकों में (अहाकम्मे हिंयथाकर्मभिः) महा आरंभ, महापरिग्रह, पंचेन्द्रियवध कुणप (मांस) आहार आदि करने से (गच्छइ-गच्छति) जाता है। (एगया-एकदा) ઉપરોક્ત કથનને વધારે સ્પષ્ટ કરતાં કહે છે – “एगया " त्याहि. मन्वयार्थ-सा एगया-एकदा या२४ तो शुभ माना अनुभव मां देवलोएसु-देवलोकेषु सौधम माहि मां अहाकम्मे हि-यथाकर्मभिः सरास સંયમ, દેશવિરતિ, અકામ નિર્જરા, અને બાલતપ આદિરૂપ એ ગતીનાં કર્મોનાં ४॥२॥थी गच्छइ-गच्छति भले छे. एगया-एकदा ४थारे अशुभ भना अध्यभा नरएसु-नरकेषु रत्नप्रभा मा िनमा अहाकम्मेहि-यथाकर्मभिः मा. મહાઆરંભ, મહાપરિગ્રહ, પચેંદ્રિયવધ કુણપ (માંસ) આહાર આદિ કરવાથી (१) “ चउहि ठाणेहि जीवा देवाउयत्ताए कम्मं पगरे ति, तं जहा-सराग संजमेणं, संजमासंजमेणं, बालतवोकम्मेणं, अकामणिज्जराए"। (स्था. स्था. ४ उ. ४ एवं औपातिक सूत्रेऽपि ) (२) "चउहि ठाणेहिं जीवाणेरइयत्ताए कम्मंपकरें ति, तं जहा-महारंभाए महापरिग्गाहाए, पंचिंदियवहेणं, कुणिमाहारेणं (स्था० स्था० ४ उ ४. एवम् औपातिकसूत्रेऽपि) ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #683 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२८ उत्तराध्ययनसूत्रे मूलम-एगया खत्तिओ होई, तओ चंडॉल बुकसो । तओ कार्ड पेयंगो अं, तओ कुंथु पिवीलियों ॥४॥ छाया-एकदा क्षत्रियो भवति, ततश्चण्डालः बुक्कसः । ततः कीटः पतङ्गश्व, ततः कुन्थुः पिपीलिका ॥ ४ ॥ टीका---'एगया खत्तिओ' इत्यादि। एकदा-एकस्मिन् काले जीवः क्षत्रिय राजा भवति, ततः तदनन्तरं स चाण्डालो भवति, ततश्च बुक्कसो भवति । बुक्कसः वर्णसंकरजातिविशेषः। ब्राह्मकभी (आसुरं कायं-आसुरं कायम् ) असुरकुमार आदि पर्यायो में सराग संयम आदि कर्मों के करने से जन्म धारण करता है। भावार्थ-इस जीव का किसी खास योनि में स्थिर रूप से रहना निश्चित नहीं है। अपने २ कर्तव्यों के अनुसार भिन्न २ योनियों में जीव को जन्ममरण करना पड़ता है। यही बात मूत्रकार ने इस गाथा द्वारा प्रदर्शित की है। सरागसंयम आदि जैसा शुभ क्रियाओं की आराधना करने से यह जीव कभी तो सौधर्म आदि देवलोक में उत्पन्न हो जाता है, कभी भवनवासी व्यन्तर आदि देवों में जन्म ले लेता है। कभी महारंभ महापरिग्रहादिक से उत्पन्न हुए अशुभ अध्यवसाय द्वारा नरकों में जन्म लेता है॥३॥ _ 'एगया खत्तिओ' इत्यादि। __ अन्वयार्थ-यह जीव (एगया-एकदा ) कभी (खत्तिओ-क्षत्रियः) राजा (होइ-भवति) हो जाता है ( तओ-ततः) कभी (चंडालबोकसी गच्छइ-गच्छति तय छे. एगया-एकदा यारे४ आसुरं कायं-आसुरं कायम् ससुरકુમાર આદિ પર્યાયામાં સરાગ સંયમ આદિ કર્મોના કરવાથી જન્મ ધારણ કરે છે. ભાવાર્થઆ જીવનું કઈ ખાસ પેનીમાં સ્થિરરૂપથી રહેવું નિશ્ચિત નથી. પોતપોતાના કર્તવ્ય અનુસાર જુદી જુદી યોનીઓમાં જીવને જન્મ મરણ કરવું પડે છે. આ વાત સૂત્રકારે આ ગાથા દ્વારા પ્રદર્શિત કરેલ છે. સરાગ સંયમ આદિ જેવી શુભ કિયાની આરાધના કરવાથી આ જીવ કયારેક તે સૌધર્મ આદિ દેવલોકમાં ઉત્પન્ન થાય છે, કયારેક ભવનવાસી વ્યન્તર દેવામાં જન્મ લે છે, ક્યારેક મહાઆરંભ, મહાપરિગ્રહ આદિકથી ઉત્પન્ન થયેલા અશુભ અધ્યવસાય દ્વારા નર્કમાં જન્મ લે છે. एगया खत्तिओ-इत्यादि. मन्वयार्थ-मा ७१ एगया-एकदा च्यारे४ खत्तिओ-क्षत्रियः २ होइभवति थाय छ, तओ-ततः च्यारे चंडालबोकसो-चंडालः बोकसः या थाय छ, ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #684 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रियदर्शिनी टीका अ० ३ गा. ४ जीवस्यानेकजातिषु भ्रमणम् ६२९ णेन शूद्रायां जातो निषादः, ब्राह्मणे नैव वैश्यायां जातश्चाम्बष्ठ इत्युच्यते, तत्र निषादेनाम्बष्ठयां जातस्तु बुक्कस उच्यते । इह च क्षत्रिय-चाण्डाल-बुक्कस-पदानामुपलक्षणत्वाद् यथाक्रमं उच्चनीचसंकीर्णजातयो ग्राह्याः। ततः कीट: द्वीन्द्रियजन्तुविशेषः भवति, च-पुनः पतङ्गः शलभश्चतुरिन्द्रियजन्तुविशेषः भवति, ततश्च कुन्थुर्भवति, कुन्थुः त्रीन्द्रियजन्तुविशेषः, यः प्रचलनादेव दृश्यो भवति, ततः पिपीलिकाः कीटिका 'चीटी' इति भाषापसिद्धाः, त्रीन्द्रियजातिविशेषः भवति । अत्र कीटादयः शब्दाः सकलतियग्भेदोपलक्षकाः ॥ ४ ॥ -चंडालः बोकसः) चांडाल होता है कभी बुक्कस-वर्णसंकर रूप से उत्पन्न होता है बाह्मण के समागम से जो शूद्र स्त्री की संतान होती है उसे निषाद कहते हैं। ब्राह्मण के समागम से वैश्य की स्त्री के जो संतान होती है उसे अम्बष्ठ कहते हैं । निषाद के द्वारा जो अम्बष्ठा स्त्री के संतान-पुत्र होता है उसका नाम बुक्कस कहा गया है। गाथा में रहे हुए क्षत्रिय चांडाल एवं बुक्कस ये पद उपलक्षक है अतः इनसे यथाक्रम उच्च नीच संकीर्ण जातियों का ग्रहण हो जाता है (तओततः) कभी यह जीव (कीडपयंगो य-कीटः पतंगश्च ) कीट-दीन्द्रियादिक जन्तु विशेष, एवं पतंग - शलभ चतुरिन्द्रियादिकजन्तुविशेष हो जाता है ( तओ-ततः ) कभी (कुंथु पिवीलिया-कुंथुः पिपीलिका) कुंथुतेन्द्रिय जीव जो चलने से ही दिखता है और कभी पिपीलिका-चीटी हो जाता है । अर्थात् कभी यह जीव द्विन्द्रियजीवों में जन्म लेता है કયારેક વર્ણસંકર રૂપથી ઉત્પન્ન થાય છે. બ્રાહ્મણના સમાગમથી શૂદ્ર સ્ત્રીને જે સંતાન થાય છે તેને નિષાદ કહેવામાં આવે છે. બ્રાહ્મણના સમાગમથી વૈશ્ય સ્ત્રીને જે સંતાન થાય તેને અંબષ્ટ કહે છે. નિષાદથી જે અમ્બકા સ્ત્રીને સંતાનપુત્ર થાય છે તેનું નામ બોક્કસ કહેવામાં આવે છે. ગાથામાં રહેલા ક્ષત્રિય ચંડાલ અને બેન્કસ એ પદ ઉપલક્ષક છે. આથી આનાથી યથાક્રમ ઉચ્ચ નીચ स8 ज्ञातियानु ड नय छे. तओ-ततः यारे४ मा ७५ कीडपयंगो य-कीटः पतंगश्च श्रीट विन्द्रियान्तुि विशेष भने यता-शम यार धन्द्रियाविशेष तरीभ पामे छे. तओ-ततः ४२॥२४ कन्थुपिवीलीयाकुथुः पिपीलिकाः शुन्थु-त्र न्द्रिय ७१ यासाथी ४ माय छ ते કન્યવા તરીકે કે કીડી તરીકે જન્મ પામે છે. અર્થાત આ જીવ ક્યારેક બેઈન્દ્રિયમાં, ત્રણ ઈન્દ્રિયમાં અને ક્યારેક ચાર ઈન્દ્રિયજીમાં જન્મ લે છે. ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #685 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६.० उत्तराभ्ययनसूत्रे मलम्-एवमावदृजोणासु, पाणिणो कम्मकिव्विसा। न निविजंति संसारे, संव्वढेसु व खत्तिया ॥५॥ छाया-एवम् आवर्तयोनिषु, पाणिनः कर्मकिल्विषाः। न निर्विद्यन्ते संसारे, सर्वार्थेषु इव क्षत्रियाः॥ ५॥ टीका-' एवम्' इत्यादि। कर्मकिल्बिषाः कर्मभिर्मलिनाः प्राणिनः संसारे-भवे एवम्-अमुना प्रकारेण, आवतयोनिषु श्रावर्तन-पुनःपुनःपरिभ्रमणेन स्पृष्टा योनयः आवर्तयोनयस्तासु चतुरशीतिलक्षप्रकारासु, तत्र पृथिव्यप्तेजोवायुकायेषु प्रत्येकं सप्त सप्त लक्षाः, दश लक्षाः प्रत्येकवनस्पतिषु, निगोदजीवेषु च चतुर्दश लक्षाः, द्वि-त्रि-चतुरिन्द्रियेषु प्रत्येकं द्वे द्वे लक्षे, तिर्यङ्नारकदेवेषु प्रत्येकं चतस्रश्चतस्रो लक्षाः मनुजेषु चतुर्दश लक्षाः, कभी तेन्द्रिय जीवों में और कभी चतुरिन्द्रिय जीवों में जन्म लेता है। इस प्रकार इस संसार में प्रमादी जीव भ्रमण करता ही रहता है। इस कीटादिक शब्द के उपलक्षणसे समस्त तोर्यश्चजाति के भेदोपभेदों का ग्रहण जानना चाहिये ॥४॥ 'एवम्' इत्यादि। अन्वयार्थ-(कम्मकिविसा-कर्मकिल्बिषाः) कर्मों से मलिन (पाणिणो-प्राणिनः) प्राणी (संसारे-संसारे) संसार में (एवं-एवम्) उक्त प्रकार से भ्रमण करते हुए (आवजोणीसु-आवतयोनिषु ) इम चौरासी लाख योनियों में (पृथिवीकाय की सातलाख, अपकाय की सात लाख, तेजस्काय की सात लाख, वायुकाय की सात लाख, प्रत्येक वनस्पति की दश लाख, निगोदजीवों की चौदह लाख, द्विन्द्रिय, तेन्द्रिय चतुरिन्द्रिय की दो दो लाख, तिर्यञ्च, देव एवं नारकी की चार चार એ પ્રકારે આ સંસારમાં પ્રમાદી જીવ ભ્રમણ કરતું જ રહે છે આ કીટાદિક શબ્દના ઉપલક્ષણથી સમસ્ત તિર્યંચ જાતીના ભેદપભેદનું ગ્રહણ જાણવું જોઈએ. ૪ " एवमू०"-त्याहि. मन्वयार्थ-कम्मकिव्विसा-कमकिल्बिषाः भाथी भसीन पाणिणो-प्राणिनः प्राणी संसारे--संसारे संसारभा एव-एवम् ४ ४२थी अभय ४२di ४२di आवजोणीसु-आवर्तयोनिषु मा प्यारासी साम योनीमामा (पृथ्वीजयनी सातवास, અપકાયની સાત લાખ, તેજસ્કાયની સાત લાખ, વાયુકાયની સાત લાખ, પ્રત્યેક વનસ્પતિની દસ લાખ, નિગદ ની ચૌદ લાખ, બે ઈન્દ્રિય, ત્રણ ઈન્દ્રિય, ચાર ઈન્દ્રિય,ની બે લાખ અને તિર્યચ, દેવ અને નારકીની ચાર ચાર લાખ, ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #686 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रियदर्शिनी टीका. अ० ३ गा० संसारस्वरूपवर्णनम् ६३१ एवं चतुरशीतिलक्षसंख्यका योनयस्तासु, इत्यर्थः । न निर्विद्यन्ते = अस्मात् पर्यटनात् कदा मोक्षो भविष्यतीति नोद्विजन्ते उद्वेगं न प्राप्नुवन्ति । केषु क इव सर्वार्थेषु = सर्वे च ते अर्थाः, सर्वास्तेषु हिरण्य-सुवर्ण-मणि- मुक्ताफल-वज्र वैर्य-ग्रामनगर- कोश- कोष्ठागार - भूमि - गजाश्चादिषु सर्वविभवेषु प्राप्तेष्वपि क्षत्रियाः राजान इव । अयं भावः - यथा सर्वेषु विषयेषु प्राप्तेष्वपि राजानः संतोषं नाप्नुवन्ति, किंतु तत्माप्त्यर्थमेत्र पुनः पुनः प्रवर्तन्ते । एवं तासु तासु योनिषु पुनः पुनरुत्पतिमनुभवन्तोऽपि जीवाः पुनः पुनः ज्ञानावरणीयाद्यष्टविधकर्म कुर्वन्तस्तत्तद् योनि प्राप्त्यर्थमेव प्रवर्तन्ते तस्मान्मनुष्य जन्म दुर्लभम् इति । लाख, तथा मनुष्य की चौदह लाख, इस प्रकार इन चौरासी लाख योनियों - उत्पत्ति स्थाना में ) ( न निविज्जंति - न निर्विद्यन्ते) ' इस संसार परिभ्रमण से मेरा कब मोक्ष होगा' इस प्रकार कभी भी निर्वेद-उद्वेग को प्राप्त नहीं होते हैं। (व इच) जैसे (सवद्वेसु खत्तिया सर्वार्थेषु क्षत्रियाः) हिरण्य सुवर्ण, मणि, मुक्ताफल, वज्र वैडूर्य, ग्रात, नगर, कोश एवं कोष्ठागार, भूमि, गज अश्व आदि प्राप्त विभवोमें क्षत्रिय लोग उद्वेग (उदासीनता) को प्राप्त नहीं होते हैं । तात्पर्य इसका यह है कि जैसे युद्ध कर २ के समस्त देशों का राज्य प्राप्त होने पर भी क्षत्रिय लोग उद्वेग (उदासीनता) को प्राप्त नहीं होते हैं, किन्तु उनकी प्राप्ति के लिये ही वे बार २ चेष्टा किये करते हैं उसी प्रकार उन उन योनियों में बार २ जन्म मरण के दुःखों का अनुभव करते हुए भी ये जीव पुनः पुनः ज्ञानावरणीयादिक अष्टविध कर्मों का बन्ध करते हुए उन २ योनियों की प्राप्ति करने के लिये तथा मनुष्योनी यौद्ध बाम, या प्रारे मे थे।रासी बाम योनीमां 'न निविज्जंति - न निर्विद्यन्ते या संसार परिश्रमाथी भारो म्यारे भोक्ष थशे ?' मे अहारे तेने अर्ध लतनी चिंता थती नथी. व-इव प्रेम सम्बद्वेसु खन्तिया - सर्वार्थेषु क्षत्रियाः द्वीरा भाषेऊ, सुवाषु, भाषी, भुस्ताइज, वन, वैडूर्य, ग्राम, नगर, है।श भने मुष्टागार, ભૂમિ, ગજ, અશ્વ, આદિ પ્રાપ્ત વૈભવામાં રચ્યાપચ્યા રહેતા ક્ષત્રિયાને કાઇ ઉદ્વેગ થતા નથી. તાત્પ એનું એ છે કે, જેમ યુદ્ધ કરી કરીને સમસ્ત દેશનું રાજ્ય પ્રાપ્ત થવા છતાં પણ ક્ષત્રિયોને કોઈ ઉદ્વેગ થતા નથી પરંતુ તેની પ્રાપ્તિને માટે જ એ વારંવાર પ્રયત્ન કરતા રહે છે. એવી રીતે ચાનીઓમાંવારવાર જન્મ મરણને અનુભવ કરવા છતાં પણ એ જીવ ફરી ફરી જ્ઞાનાવરણીયાદિ આઠે પ્રકારના કર્મોના અંધ કરીને તે તે ચાનીઓની પ્રાપ્તિ કરવામાં જ ફ્રીયાશીલ રહે છે. ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર ઃ ૧ Page #687 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६३२ उत्तराध्ययन सूत्रे संसारः खलु सकलदुःखैकहेतुः । अयं कस्य विवेकिनो मनो रमयति, नैव कस्यापि । अयं कदली स्तम्भवत् संध्यारागवच्चापात एव मनोहरः, स्वराज्यमिव क्षणभङ्गुरः, अत्र कामभोगरूपा वाटिका, विविधमनोरथरूपा वृक्षाः, आशारूपाः शतसहस्त्रशाखाः, तदुपरि मनोमर्कटः सुखरूपं फलं गवेषयन् पुनः पुनरुत्प्लते । तथापि सुखरूपं फलं न लभते । यत्र कालरूपः खलः सर्वान् प्राणिनो विषतिसागरे निपातयति । जन्मरूपो रिपुरात्मान पीडयति, जरा राक्षसी मर्दयति । हो चेष्टाशील होते रहते हैं । इसलिये मनुष्यजन्म दुर्लभ है । यह संसार समस्त दुखों का एक हेतु है । यह किस विवेकी के मन को आनन्द उत्पन्न कर सकता है, किन्तु किसी को भी नहीं कदली के स्तम्भ एवं सन्ध्याराण के समान यह संसार अल्पकाल के लिये मनोहर मालूम पड़ता है । स्वप्नराज्य की तरह यह क्षणभंगुर है । इसमें यह कामभोगरूप वाडी है, जिसमें मनोरथरूप वृक्ष खडे हुए हैं। आशा तृष्णारूपी हजारों शाखाएँ हैं । इनके ऊपर मनरूपी बन्दर सुखरूप फल की तलाश में रातदिन इधर से उधर कूदता फिरता है तो भी उसको सुखरूप फल की प्राप्ति नहीं होती है । कालरूपी दुष्टजन यहां समस्त प्राणियों को विपत्तिरूप सागर में डुबाता रहता है । जन्मरूपी शत्रु सदा यहां इस जीव को कष्ट पहुँचाता रहता है। जरा रूपी राक्षसी प्राणियों का मर्दन करती है अर्थात् प्राणी मात्र को दुःखित આત્મહિત ભૂલી જાય છે અને પુદ્ગલેાના સુખમાં આસક્ત બને છે. આટલા માટે મનુષ્યભવ તેમના માટે દુર્લભ ખની રહે છે. આ સંસાર સમસ્ત દુ:ખાના એક હેતુ છે. એ કેાઈ વિવેકીના મનને આનંદ ઉત્પન્ન કરી શકે છે, પરંતુ કેાઈ ને કેળના સ્તંભની અને સંધ્યારાગની માક આ સંસાર અલ્પકાળ માટે મનેાહર જણાય છે. સ્વપ્ન રાજ્યની માફ્ક આ સંસાર ક્ષણભંગુર છે. તેમાં આ કામલેગરૂપ વાડી છે, જેમાં મનેારથરૂપ વૃક્ષ ઉભાં છે, આશાતૃષ્ણારૂપ હજારા શાખાએ છે, એમાં વળી મનરૂપી વાંદરા સુખરૂપ ફળની તપાસમાં રાત અને દિવસ અહિંથી તહી કૂદતા ફરે છે છતાં પણુ તેને સુખરૂપ ફળની પ્રાપ્તિ થતી નથી. કાળરૂપી દુષ્ટ જન તેને ( સમસ્ત પ્રાણીઆને) વિપત્તિરૂપ સાગરમાં ડુબાડતા રહે છે. જન્મરૂપી શત્રુ સા આ જીવન કષ્ટ પહેાંચાડતા રહે છે. જરા રૂપી રાક્ષસી પ્રાણીઓનુ` મન કરે છે, અર્થાત્ પ્રાણીમાત્રને દુઃખી કરે છે. પ્રાણીઓનું એવું કેાઈ વધુ આયુષ્ય પશુ નથી, ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર ઃ ૧ Page #688 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रियदर्शिनी टीका अ० ३ गा० ५ संसारस्वरूपवर्णनम् ६३३ आयुष्यं स्वल्पं चञ्चलं च, यौवनमपि विधुदिव चपलम् । प्राणिनो विषयचिन्तया प्रस्ताः, सम्बन्धिनो बन्धनरूपाः, भोगा आदौ किंपाकफलमिव मनोरमाः परिणामदारुणाः, इन्द्रियाणि कषायसाहाय्येनात्मानं नरकनिगोदादिषु भ्रामयन्ति । चतुरशीतिलक्षसंख्यकासु योनिषु रागद्वेषमोहाभिभूतैर्जन्तुभिर्विषयतृष्णया परस्परं भक्षणेन ताडनेन मारणेन बन्धनेन अभियोगेन, आक्रोशेन च तीव्रदुःखानि शतसहस्रशः प्राप्यन्ते । यथा विषवल्लरी रक्तपल्लवा चञ्चलभ्रमरसंकुला सौन्दर्येण मनोहरति करती है। प्राणियों की ऐसी कोई विशेष आयु भी नहीं है। जितनी है भी उसका उतने समय तक रहने का कोई निश्चय भी नहीं है। यौवन भी विद्युत् के समान चपल है। जितने भी इस संसार के पदार्थ हैं वे सब के सब विषयचिन्ता से युक्त बने हुए हैं। संबंधीजन जितने भी हैं वे सब इस जीव के लिये बन्धन स्वरूप हैं । ये भोग भी सेवन करते समय ही मनोरम प्रतीत होते हैं, परिणाम में ये किंपाक फलकी तरह जीव के शत्रु बन जाते हैं। कषाय की सहायता से ये इन्द्रियां जीव को नरक एवं निगोद आदि के दारुण दुःखों को भोग ने के लिये विवश कर देती हैं। चौरासी लाख योनियों में रागद्वेष मोह से अभिभूत हुए ये प्राणी विषयतृष्णा के कारण से पारस्परिक लक्षण से, ताडन से, मारण से, बन्धन से, अभियोग से एवं आक्रोश से तीव्र से तीव्र दुःखों को लाखों बार भोगते रहते हैं। जिस प्रकार विषवल्ली रक्त पल्लवों से युक्त होकर चंचल भ्रमरों की गुंजार से गुंजित होती हुई देखनेवाले मनुष्यों के मन को लुभाती है उसी प्रकार ये જેટલું છે તેટલા સમય સુધી રહેવાને તેને કોઈ નિશ્ચય પણ નથી. યૌવન પણ વિધુતની માફક ચપળ છે, આ સંસારના જેટલા પણ માગ છે તે બધા વિષય ચિંતાથી યુક્ત બનેલા છે. જેટલા સંબંધીજન પણ છે તે બધા આ જીવ માટે બંધન સ્વરૂપ છે. ભોગ વિલાસ પણ સેવન કરતી વખતે મનેરમ્ય લાગે છે. પરિણામે એ કડવાફળની જેવા આત્માના શત્રુ બની જાય છે. કષાયની સહાયતાથી એ લોલુપી ઈન્દ્રિય જીવને નરક અને નિગોદ આદિના દારૂણ દુઓને ભેગવવા માટે વિવશ બનાવી દે છે. ચોરાસી લાખ યોનીઓમાં રાગ, શ્રેષ, મોહથી ઘેરાયેલે એ આત્મા વિષય તૃષ્ણાના કારણથી, પારસ્પરિક લક્ષણથી, તાડનથી, મારણથી, બંધનથી, અભિયોગ અને આક્રોશથી તીવથી તીવ્ર ઇખોને લાખાવાર ભેગવતે રહે છે. જેમ વિષવલ્લી રક્ત પલ્લવોથી યુક્ત થઈ ચંચલ ભ્રમરની ગુંજારવથી ગુંજીત થતે જેનાર મનુષ્યના મનને લોભાવે છે. એજ उ०८० ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર: ૧ Page #689 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६३४ उत्तराध्ययन सूत्रे मनुष्याणाम्, तथा विषया अप्यनुकूलतया मनो हरन्ति सर्वेषाम् । वर्षाकाले जलबुदबुदा इव, कराञ्जलिगता आर इव सम्पदः क्षणनश्वराः सन्ति । यथा - स्वच्छजलपरिपूर्णगम्भीरगर्ते प्रतिबिम्बभावापन्नं तत्तटवर्तिवृक्ष - च्छाया-लता- पत्र-पुष्पादिकं किमपि कार्य साधयितुं न शक्नोति तथा संसारान्तर्गतं वस्तुजातम् किमपि स्वात्मकल्याणाय न भवति । एवमनन्तदुःखसंभृते संसारेऽनन्तानन्तदुः खमनुभवन्तोऽपि नोद्विजते सर्वार्थेषु लब्धेष्वपि राजान इत्र प्राणिनः । अतो मनुष्यजन्मदुर्लभम् । 1 विषयसुख भी अनुकूल होने से सब को सुहावने लगते हैं, सब के चित्त लुभाते रहते हैं । वर्षाकाल में जैसे जल का बुदबुदा देखते २ नष्ट हो जाता है, और अंजलि का जल जैसे क्षणभर में झर जाता है उसी प्रकार से यह वैभव भी क्षगविनश्वर जानना चाहिये। जैसे स्वच्छ जल से परिपूर्ण गंभीर खड्डे में प्रतिबिम्बरूप से पतित उसके तटवर्ती वृक्ष की छाया लता पत्र पुष्पादिक कुछ भी कार्य साधक नहीं हो सकते हैं, उसी तरह संसार के अन्तर्गत वस्तुओं का समूह भी आत्मकल्याण का कुछ भी साधक नहीं होता है । इस प्रकार अनंत दुःखों से भरे हुए इस संसार में अनन्त दुखों का अनुभव करते हुए भी संसारी जीव प्राप्त अर्थ में अधिकतर लुभाने वाले राजा की तरह प्रतिदिन उन्हीं संसारवर्धक वैषयिक सुखों में लुभाते रहते हैं। आत्मकल्याण कैसे होगा इसकी थोड़ी सी भी चिन्ता नहीं करते हैं । इसलिये यदि मनुष्यजन्म पाया है तो कुछ कर लेना चाहिये, नहीं तो इस मनुष्य પ્રકારથી આ વિષયસુખ પણુ અનુકૂળ હતાં સઘળાને સુખરૂપ લાગે છે. બધાના ચિત્તને લાભાવે છે, વર્ષાકાળમાં પાણીના પરપેટાની જેમ જોત જોતામાં નાશ પામે છે અને હાથમાં લીધેલ પાણી જેમ ક્ષણભરમાં ચાલ્યું જાય છે. એજ પ્રકારથી આ વૈભવ પણ ક્ષણભરમાં નાશ પામનાર સમજવા જોઈએ. જેમ સ્વચ્છ જળથી ભરેલા ઊંડા ખાડામાં પ્રતિબિંબ રૂપથી પતિત તેની પાસેના वृक्षनी छाया, सत्ता, चांदडा, पुष्य वगेरे, पशु अर्थसाध थतां नथी. એવી રીતે સંસારના અંતર્ગત વસ્તુઓના સમૂહ પણ આત્મકલ્યાણમાં કાંઇપણ સાધક મનતા નથી. આ પ્રકારનાં અનંત દુઃખોથી ભરેલા આ સંસારમાં અનત દુઃખાના અનુભવ કરવા છતાં પણ સંસારી જીવ પ્રાપ્ત અર્થમાં અધિકતર àાભાવનારા રાજાની માફ્ક દરરોજ તેની સંસારવ ક વિષયી સુખામાં લેાભાતા રહે છે. આત્માનું કલ્યાણુ કઈ રીતે થશે તેની ઘેાડી પણ ચિંતા કરતા નથી. આટલા માટેજ મનુષ્યજન્મ મળેલ છે તે તેનુ` કાંઈક સાર્થક કરી લેવું જોઈ એ. ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર ઃ ૧ Page #690 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रियदर्शिनी टीका. अ० ३ गा० ६ जीवस्यैकेन्द्रियादिषु भ्रमणम् तस्मान्मनुष्यजन्म लब्ध्वा संसारस्वरूपं भावयेत्-अहो ! ईदृशं दुःखस्थानमन्यत् किमपि नास्ति यादृशः संसारः ॥ ५॥ जन्म छुट जाने के बाद इसकी पुनः प्राप्ति दुर्लभ है, अतः मनुष्य का कर्तव्य है कि वह मनुष्यजन्म प्राप्त कर संसार के स्वरूप का अवश्यर विचार करता रहे, उसको सोचना चाहिये कि ऐसा दुःख का स्थान और कोई दूसरा नहीं है जैसा की यह संसार है। भावार्थ-कर्म से कदर्थित ये संसारी जीव चौरासी लक्ष योनियों में भ्रमण करते हुए भी पुनः उसी चक्कर में फंसने के अभिलाषी होते रहते हैं। यह चक्कर कैसे बंद होगा इसकी चिन्ता ही नहीं करते हैं। जैसे कोई क्षत्रिय बार बार युद्ध करने पर भी युद्ध से अरुचि नहीं लाता है। उसी प्रकार ये संसारी जीव भी सांसारिक अनंत दुःखों से अरुचि न लाकर ज्ञानावरणीय कर्मों को पुनः पुनः बढाने की ओर ही अग्रेसर बने रहते हैं। इन को इस बात का पता नहीं कि इस मनुव्यभव से ही इन अनंत दुःखों का अंत होता है, अतः इस भवसे यदि ये दुःख नहीं नष्ट किये गये तो फिर दूसरा कौन ऐसा भव है जो इन दुःखों का अन्त करनेवाला हो सकेगा, अतः मिले हुए मनुष्य भव નહીં તે આ મનુષ્યજન્મ પુરે થતાં તેની પ્રાપ્તિ ફરી થવી દુર્લભ છે. આથી મનુષ્યનું કર્તવ્ય છે કે, જ્યારે મહાદુર્લભ એ મનુષ્યજન્મ તેને પ્રાપ્ત થયો છે તે સંસારના સાચા સ્વરૂપને અવશ્ય અવશ્ય વિચાર કરતો રહે. તેણે વિચારવું જોઈએ કે, જે આ સંસાર છે તેના જેવું દુઃખનું સ્થાન બીજું કઈ નથી. ભાવાર્થ-કર્મથી કદાચ સંસારી જીવ ચેરાસી લાખ યેનીઓમાં ભ્રમણ કરવા છતાં પણ ફરી એજ ચક્કરમાં ફસાય-ખૂંચી જાય તેવાં કાર્યોમાં તે રત રહે છે પણ એ ચક્કર કઈ રીતે બંધ થાય તેની ચિંતા કરતું નથી. જેમ કે ક્ષત્રિય વારંવાર યુદ્ધ કરવા છતાં તેના દિલમાં યુદ્ધની અરૂચી જાગતી નથી. તેવી રીતે સંસારી જીવ પણ સંસારના અનંત દુખેને જાણવા છતાં તેને પ્રત્યે અરૂચી ન લાવતાં જ્ઞાનાવરણીય કર્મોને ફરી ફરી વધારવાની તરફ જ તેની મુખ્ય પ્રવૃત્તિ બની રહે છે. તેને એ વાતને ખ્યાલ પણ નથી આવતું કે, આ મનુષ્યભવદ્વારા જ તે અનંત દુઃખાને અંત લાવી શકાય છે. એ કારણે આ ભવદ્વારા જ જે તે દુઃખ નષ્ટ કરવામાં નહીં આવે તે ફરી એ કયો ભવ છે કે, આ દુઃખને અંત લાવવામાં ઉપયોગી થાય ? આથી મહાપૂણ્યના ઉદયથી અપ્રાપ્ય એવા મળેલા મનુષ્યભવને સફળ બનાવવા તરફ લક્ષ દેવું ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #691 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 3 उत्तराध्ययनसूत्रे मूलम् कम्मसंगेहिं संमूढा, दुःक्खिया बहुवेयणा । अमाणुसासु जोणीसु, विणिहम्मंति पाणिणो॥६॥ छाया-कर्मसंगैः संमूढाः, दुःखिता बहुवेदनाः । ____ अमानुषीषु योनिषु, विनिहन्यन्ते प्राणिनः ॥ ६॥ टीका-'कम्मसंगेहिं' इत्यादि।। कर्मसंगः=ज्ञानावरणीयादि कर्मसंयोगैः, संमूढाः-तत्त्वातत्वविवेकरहिताः, दुःखिताः-विविधदुःखजालजनकरोगशोकादिसमाक्रान्ताः, बहुवेदनाः मन्द तीव्रतीव्रतर-पीडायुक्ताः पाणिनः, अमानुषीषु-एकेन्द्रिय-द्वीन्द्रिय-त्रीन्द्रिय-चतुरिन्द्रियमनुष्यभिन्नपञ्चेन्द्रियरूपासु च, योनिषु कर्मभिः विनिहन्यन्ते पुनः पुनरुत्पद्यन्ते । अतो मानुषत्वं दुर्लभमिति भावः ॥ ६॥ को सफल बनाने की ओर लक्ष्य देना यही सव से प्रथम कर्तव्य है ॥५॥ "कम्मसंगेहिं" इत्यादि अन्वयार्थ-(कम्मसंगेहि-कर्मसंगैः) ज्ञानावरणीयादिक कर्मों के संयोग से (संमूढा-संमूढाः ) तत्त्वातत्त्व के विवेक से विकल बने हुए अतएव (दुक्खिया-दुःखिताः) विविधदुःखजनक ऐसे रोग, शोक आदि से समाकान्त एवं (बहु वेयणा-बहु वेदनाः) मन्द, तीव्र, तीव्रतर पीडाओं से युक्त ये (पाणिणो-प्राणिनः) संसारी प्राणी (अमाणुसासु जोणीसुअमानुषीषु योनिषु) एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय एवं मनुष्य भिन्न पञ्चेन्द्रिय इन योनियों में (विणिहम्मंति-विनिहन्यन्ते ) पुनः पुनः जन्ममरणजनित दुःख पाते हैं । इसलिये मनुष्यभव हुर्लभ है। જોઈએ અને તે પ્રાણીમાત્રનું એક માત્ર સૌ પ્રથમ કર્તવ્ય છે. પ ા “कम्मसंगेहि "-त्याहि. अन्वयार्थ-कम्मसंगेहिं-कर्मसंगैः ज्ञानावरणीय मा भर्भाना साथी संमूढा-संमूढाः तत्वातत्वना विवस्थी, वि४१ मने तमा दुक्खिया-दुखिताः विविध मनपा २, A माहिथी समाzid मन बहु वेयणा-बहु वेदनाः भ, तीव्र, तीव्रतर, पीडामोथी युद्धत - पाणिणो-प्राणिनः संसारी प्राणी अमाणुसासु जोणीसु-अमानुषीषु योनिषु सन्द्रिय, मेन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, यार ४न्द्रिय, मने मनुष्य भिन्न पाय धन्द्रिय मा योनीमामा विणिहम्मंति-विनिहन्यन्ते ફરી ફરી જન્મ મરણ જનીત દુઃખ પામે છે. એટલા માટે મનુષ્યભવ દુર્લભ કહ્યો છે. ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #692 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रियदर्शिनी टीका. अ० ३ गा० ७ जीवस्य मनुष्यत्वप्राप्तिक्रमः ६३७ कथं तर्हि मानुषत्वं प्राप्नोतीत्याहमूलम्-कम्माणं तु पहाणाए, आणुपुट्विं कयाइ वि। जीवा सोहिमणुप्पत्ता, औययंति मणुस्सयं ॥ ७॥ छाया-कर्मणां तु प्रहाण्या, आनुपूर्व्या कदाचिदपि । जीवा शोधिमनुप्राप्ताः, आददते मनुष्यताम् ॥ ७॥ टोका-'कम्माणं' इत्यादि। तु-पुनः आनुपूा-अनुक्रमेण, कर्मणां मनुष्यगतिविघातकानामनन्तानुबन्धिक्रोधादिरूपाणाम् , प्रहाण्या क्षयेण-अपगमेन, जीवाः मागिनः, आनुपूत =अनुक्रमेण पृथिवीकायादिक्रमेणेत्यर्थः, शोधिम् अशुभकर्मापगमरूपां शुद्धिम् , भावार्थ-प्राप्त मनुष्यभव यदि प्रमादी होकर यों ही गुमा दिया जाता है तो फिर इस जीव को कर्मो के प्रभाव से तत्वातत्त्वविवेक रहित बनकर अनेक अमानुषीय योनियों में अनेक प्रकार के कष्टों का साम्हना करते हुए उत्पन्न होते रहते हैं। इसलिये मिले हुए इस मनुष्यभव को व्यर्थ मत जाने दो, नहीं तो पुनः इसका मिलना दुर्लभ है॥६॥ मनुष्यभव प्राप्त कैसे होता है यह बात सूत्रकार बतलाते हैं"कम्माणं" इत्यादि अन्वयार्थ--(आणुपुव्वी-आनुपूा ) अनुक्रम से (कम्माणं-कर्मणाम्) मनुष्यगतिविघातक अनंतानुबंधी क्रोधादि कर्मों की पहाणाए-प्रहाण्या प्रहाणि-क्षयसे (जीवा जीवाः) जीव (आणुपुवी-आनुपूर्व्या ) पृथिवी ભાવાર્થ–પ્રાપ્ત મનુષ્યભવ જે પ્રમાદી બની એમને એમજ ગુમાવી દેવાય તે પછી આ જીવને કર્મોના પ્રભાવથી તત્વાતત્વવિવેકરહીત બની અનેક અમા નષિય યોનીઓમાં અનેક પ્રકારનાં કષ્ટોને સામને કરતાં કરતાં ઉત્પન્ન થતા રહે છે. પણ મનુષ્યભવ પામ દુર્લભ રહે છે. માટે મળેલા આ મનુષ્યભવને વ્યર્થ જવા ન દેવું જોઈએ. જીવને ફરી ફરી મનુષ્યભવ મળ દુર્લભ છે. દા મનુષ્યભવ કેવી રીતે પ્રાપ્ત થાય છે તે સૂત્રકાર બતાવે છે – 'कम्माणं' इत्यादि मन्या-आणुपुवी-आनुपूर्व्या मनुभथी कम्माणं-कर्मणाम् मनुष्याती विधात मनवानुमचा आधा भान। पहाणाए-प्रहाण्याक्षयथी जीवा-जीवाः ७१ आणुपुत्री-आनुपूर्व्यापीयाना भथी सोहिं-शोधिम् अशुभ माना म. ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #693 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६३८ उत्तराध्ययनसूत्रे अनुपाप्ताः सन्तः, कदाचिदेव, न तु सर्वदा, अत्र तु-शब्द एवार्थकः । मनुष्यताम् आददते-गृहन्ति-प्राप्नुवन्तीत्यर्थः । अयं भावः-प्रकृतिभद्रतया, प्रकृतिविनीततया, सानुक्रोशतया (सदयतया) अमत्सरितया मनुष्येषु प्राणिन उत्पद्यन्ते । अपि चविशिष्टशुद्धिहेतुभिस्तनुकषायत्वादिभिर्मनुष्यायुर्वन्धो भवति । उक्तञ्च पयईए तणुकसाओ, दाणरओ सीलसंजमविहूणो। मज्झमगुणेहिं जुत्तो मणुयाउं बंधए जीवो ।। २॥ छाया-प्रकल्या तनुकषायो, दानरतः शीलसंयमविहीनः । मध्यमगुणैर्युक्तो मनुजायुर्बध्नाति जीवः ॥ १ ॥ इति ॥ ७ ॥ कायादिक के क्रमसे (सोहिं-शोधिम् ) अशुभ कर्मों के अपगमरूप शुद्धि को प्राप्त होते हुए (कयाइ वि-कदाचिदपि) कभी कभी हीसर्वदा नहीं, (मणुस्सयं आययंति-मनुष्यतां आददते) मनुष्यभव को प्राप्त करते हैं। प्राणी स्वाभाविक भद्रपरिणामी हो, स्वाभाविक विनीत हो, दयालु हो, मत्सरभाव से रहित हो तो वह मरकर मनुष्यपर्याय को प्राप्त करता है। विशिष्ट शुद्धि का कारण जो कषायों की मंदता है उससे भी मनुष्यायुका बंध प्राणी को होता है। उक्तंच पयईए तणुकसाओ दाणरओ सीलसंजमविहूणो। मज्झमगुणेहिं जुत्तो मणुयाउं बंधए जीवो ॥ १ ॥ छाया-प्रकृत्या तनुकषाया दानरतः शीलसंयमविहीनः । मध्यमगुणैर्युक्तो मनुजायुर्वध्नाति जीवः ॥१॥७॥ विशिष्ट पुण्य के उदय से किसी जीव को मनुष्यभव की प्राप्ति हो भी जाय तो भी धर्म का सुनना दुर्लभ है इस बात को सूत्रकार भ३५ शुद्धिने प्रात ४शन कयाइ वि-कदाचिदपि qua मणुस्सयं-मनुष्यता भनुष्यसन आययंति-आददते प्रात ४२ छ. प्राणी स्वाभावि भद्र परिणामी हाय, સ્વાભાવિક વિનીત હોય, દયાળુ હોય, મત્સરભાવથી રહિત હોય તે તે મરીને મનુષ્યપર્યાયને પ્રાપ્ત કરે છે. વિશિષ્ટ શુદ્ધિનું કારણ જે કષાયની મંદતા છે તેનાથી પણ મનુષ્ય આયુને બંધ પ્રાણીને થાય છે. કહ્યું પણ છે पयइए तणुकसाओ दाणरओ सीलसंजमविहूणो। मज्झम गुणेहिं जुत्तो मणुयाउं बंधए जीवो ॥१॥ छाया-प्रकृत्या तनुकषायो दानरतः शीलसंयमविहीनः। मध्यमगुणैर्युक्तो मनुजायुर्वध्नाति जीवः ॥१॥७॥ વિશિષ્ટ કર્મના ઉદયથી કઈ જીવને મનુષ્યભવની પ્રાપ્તિ થઈ પણ જાય. તે પણ ધર્મને સાંભળ દુર્લભ છે આ વાતને સૂત્રકાર બતાવે છે-- ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #694 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . . . . प्रियदर्शिनी टीका अ० ३ गा. ८ मनुष्यत्वलामेऽपि धर्मश्रवणस्य दोलभ्यम् १९ कस्यचिद् विशिष्टपुण्यस्योदयेन मानुषत्पलाभेऽपि श्रुतिदुर्लभेत्याहमूलम्-माणुस्सं विग्गहं ल , सुई धम्मस्स दुल्लहा । जं सोचा पडिवैजंति, तवं खंतिमहिंसयं ॥६॥ छाया–मानुष्यं विग्रहं लब्ध्वा, श्रुतिधर्मस्य दुर्लभा । यं श्रुत्वा प्रतिपद्यन्ते, तपः क्षान्तिम् अहिंस्रताम् ॥ ८॥ टीका-'माणुस्सं ' इत्यादि। मानुष्यं मनुष्यभवसम्बन्धिनं, विग्रह-शरीरं, लब्ध्वा प्राप्य, धर्मस्य= श्रुतचारित्रलक्षणस्य, श्रुतिः श्रवणं, दुर्लभा, यं धर्म श्रुत्वा, तपा=अनशनादि द्वादशविधम् , इन्द्रियजयं वा, शान्ति क्रोधजयरूपां, उपलक्षणमेतन्मानादिजयस्यापि, अहिंस्रताम् अहिंसकत्वम् , अनेन प्रथमव्रतमुक्तम् , इदमप्युपलक्षणम्-मृषावादादत्तादानमैथुनपरिग्रहविरमणस्य, प्रतिपद्यन्ते प्राप्नुवन्तीत्यर्थः । धर्मस्य श्रवणं हि मिथ्यात्वतिमिरमणाशकं, श्रद्वाज्योति प्रकाशकं, तत्त्वातत्त्वविवेचकं, पीयूषपानमिव कहते हैं-"माणुस्सं" इत्यादि । अन्वयार्थ-(माणुस्सं विग्गहं लर्बु-मानुष्यकं विग्रहं लब्ध्वा) मनुष्यभव संबंधी शरीर को पाकर भी (धम्मस्त सुई दुल्लहा-धर्मस्य श्रुतिः दुर्लभा) श्रुतचारित्ररूप धर्मका श्रवण दुर्लभ है। (जं सोच्चा-यं श्रुत्वा) जिस धर्म की सुनकर प्राणी (तवं खंतिमहिंसयं-तपः क्षान्तिम् अहिंस्रताम् ) अनशन आदि बारह १२ प्रकार के तप को, अथवा इन्द्रियनिग्रह को, क्रोध जयरूप क्षांति को, उपलक्षण से मान आदि कषाय के विजय को, तथा अहिंसक भाव को, उपलक्षण से मृषावाद, अदत्तादान, मैथुन एवं परिग्रह से विरमणरूप व्रत को (पडिवज्जति-प्रतिपद्यन्ते) प्राप्त करते हैं। धर्म का श्रवण जीव के मिथ्यात्वरूप तिमिर का विनाशक, श्रद्धारूप ज्योति का प्रकाशक, तत्त्व अतत्त्व का विवेचक, अमृतपान के समान 'माणुस्स' त्याह भ-क्याथ-माणुस्स विग्गहं लद्धं-मानुष्यकं विग्रहं लब्ध्वा मनुष्यमप समाधी शरीरने भगवान ५५ धम्मस्स सुई दुल्लहा-धर्मस्य श्रुतिः दुर्लभा श्रुत यात्रि३५ यमन श्रय दुम छ. जसोच्चा-यं श्रुत्वा २ चमन सामजीन प्राथी तवं खंतिमहिंसयं-तपः क्षान्तिम् अहिंस्रताम् अनशनाहि मा२ १२ १२ना तपने અથવા ઈન્દ્રિયનિગ્રહને, ક્રોધજ્યરૂપ, શાંતિને ઉપલક્ષણથી માન આદિ કષાયના વિજયને તથા અહિંસક ભાવને ઉપલક્ષણથી મૃષાવાદ, અદત્તાદાન, મિથુન અને पश्थिी वीरभ ३५ व्रतने पडिवज्जति-प्रतिपद्यन्ते प्रात ४२ छ. धर्मन શ્રવણ જીવને મિથ્યાત્વરૂપી અંધકારને નાશ કરનાર, શ્રદ્ધારૂપ તિને પ્રકા ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #695 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - ६४० - उत्तराध्ययनसूत्रे हितावहं, चश्चन्द्रचन्द्रिकेव हृदयाहादक, स्वमदृष्टवस्तुनः पुनर्जाग्रदवस्थायां तल्लाभवत् प्रमोदजनकं, भूमिगतनिधानप्राप्तिरिव सुखजनकं, सकलसंतापहारकम् । तस्माद् धर्मः श्रोतव्य इति भावः ॥८॥ श्रुतिलाभेऽपि श्रद्धा दुर्लभेत्याहमूलम्-आहच्च सर्वणं लधु, संद्धा परमदुल्लहा । सोच्चा नेयाउयं मंग्गं, बहवे परिभस्सइ ॥९॥ छाया कदाचित् श्रवणं लब्ध्वा, श्रद्धा परमदुर्लभा । श्रुत्वा नैयायिकं मार्ग, बहवः परिभ्रश्यन्ति ॥ ९ ॥ एकान्ततः हितविधायक, निर्मल चादनी के समान हृदय को आनंद उत्पन्न करने वाला, स्वप्न में दृष्ट पदार्थ की जागृत अवस्था में प्राप्ति होने की तरह प्रमोदजनक, भूमि में गडे हुए निधान की प्राप्ति के समान सुखजनक एवं समस्त संताप का अपहारक होता है, इसलिये धर्म अवश्य श्रवण करने योग्य है। ___भावार्थ--मनुष्यभव पाकर भी जीव को श्रुतचारित्ररूप धर्म का श्रवण बडे भाग्य से मिलता है। धन्य वे पुरुष है जो इस प्रकार से अपने जीवन को सफल करते हैं, क्यों कि धर्म के श्रवण से ही यह जीव को मालूम होता है कि हमारा क्या कर्तव्य है क्या अकर्तव्य है ? हिंसादिक पाप अकर्तव्य हैं, तथा प्रणातिपातादि विरमणरूपकर्तव्य हैं। तप पालो योग्य हैं एवं कषायादिक परित्याग करने योग्य हैं ॥८॥ શક, તત્વ અતત્વને વિવેચક અમૃત પાન સમાન, એકાન્તતઃ હિત વિધાયક, નિર્મળ ચાંદની સમાન હૃદયને ઉત્પન્ન કરવાવાળા, સ્વપ્નમાં દુષ્ટ પદાર્થની જાગ્રત અવસ્થામાં પ્રાપ્તિ થવાની માફક, પ્રમાદ જનક ભૂમિમાં દટાયેલા ધનની પ્રાપ્તિ સમાન, સુખ જનક અને સમસ્ત સંતાપને અપહારક બને છે. માટે ધર્મ અવશ્ય શ્રવણ કરવા ગ્ય છે. ભાવાર્થ–મનુષ્યભવ મેળવીને પણ જીવને શ્રુતચારિત્રરૂપ ધર્મનું શ્રવણ ભાગ્યના ઉદયથી જ મળે છે. એ પુરૂષને ધન્ય છે કે જે આ પ્રકારથી પિતાના જીવનને સફળ બનાવે છે. કેમકે ધર્મનું શ્રવણ કરવાથી જ આ જીવને ખબર પડે છે કે મારૂં કર્તવ્ય શું છે અને અકર્તવ્ય શું છે હિંસાદિક પાપ એ અકતવ્ય છે, અને એનાથી પ્રાણાતિપાતાદિ વિરમણરૂપ કર્તવ્ય છે. તપ પાળવા છે, અને કષાયાદિક પરિત્યાગ કરવા ગ્ય છે. આટલા ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #696 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रियदर्शिनी टीका. अ० ३ गा० ९ धर्मश्रवणेऽपिश्रद्धाराहित्येनधर्माद्भशनम् ६४१ टीका-' आहच्च' इत्यादि । कदाचित् श्रवण-धर्मश्रवणं लब्ध्वाऽपि श्रद्धाधर्मविषयिका रुचिः, परमदुर्लभाऽस्ति । श्रद्धा हि संसारसागरतरणतरणिः, मिथ्यात्वतिमिरहरणधुमणिः, स्वर्गापवर्गसुखचिन्तामणिः, क्षपकश्रेणिसरणिः, कर्मरिपुदमनी, केवलज्ञानकेवलदर्शनजननी । श्रद्धायाः परमदुर्लभत्वे हेतुमाह-' बहवे ' इत्यादि । . ___बहवो मनुष्या नैयायिकं-न्याये पञ्चसमवायकारणे भवं नैयायिक पश्चसम__ धर्मश्रवण की प्राप्ति के बाद सूत्रकार अब श्रद्धा की दुर्लभता दिखलाते हैं--'आहच्च'-इत्यादि । ___ अन्वयार्थ--(आहच्च-आहत्य ) कदाचित् (सवणं लटुं-श्रवणं लब्ध्वा) धर्मका श्रवण भी प्राप्त हो जाय तो भी (सद्धा परमदुल्लहा -श्रद्धा परमदुर्लभा) धर्म में श्रद्धा-रुचि-होना परम दुर्लभ है। यह श्रद्धा संसाररूपी सागर से पार कराने के लिये नौका जैसी है, मिथ्यात्वरूपी तिमिर को दूर करने के लिये मणि-सूर्य जैसी है। स्वर्ग एवं मोक्ष के सुखों को देने के लिये चिन्तामणिरत्न जैसी है। क्षपक श्रेणी पर आरूढ होने के लिये निसरणी जैसी है। कर्मरूपी शत्रु को परास्त करने वाली है, एवं केवल ज्ञान केवल दर्शन को उत्पन्न करने के लिये जननी जैसी है। यह श्रद्धा परम दुर्लभक्यों है ? यह बात स्वयं सूत्रकार कहते हैं (बहवे-बहवः) संसारमें ऐसे भी कितनेक मनुष्य हैं जो ધર્મ શ્રવણની પ્રાપ્તિ બાદ સૂત્રકાર હવે શ્રદ્ધાની દુર્લભતા સમજાવે છે – 'आहच्च' त्याहि. म-क्याथ-आहच्च-आहत्य आथित सवणं लधु-श्रवणं लब्ध्वा धमनु श्रय प्रात 25 जय तो ५९ सद्धा परमदुल्लहा-श्रद्धा परमदुर्लभा मां श्रद्धा રૂચી થવી એ પરમ દુર્લભ વાત છે. આ શ્રદ્ધા સંસારરૂપી સાગરથી પાર ઉતારનાર નૌકાનું કામ કરે છે. મિથ્યાત્વ રૂપી ઘોર અંધકારને દૂર કરી માણસના હૃદયમાં સૂર્ય તેજનાં કિરણે જે પ્રકાશ પહોંચાડે છે. સ્વર્ગ અને મોક્ષનાં સુખને આપવા માટે ચિંતામણીરત્ન જેવી છે. ક્ષપકશ્રેણી ઉપર આરૂઢ થવા માટે એ નીસરણી જેવી છે. કર્મરૂપી શત્રુને નાશ કરવા માટે એ અતુલ બળવાળી છે. અને કેવળજ્ઞાનદશનને ઉત્પન્ન કરવા માટે એ જનની જેવી છે. આ શ્રદ્ધા પરમ દુર્લભ કેમ છે? આ વાત સ્વયં સૂત્રકાર બતાવે છે. તેઓ हेछ हैबहवे-बहवः संसारमा सेवा पण सा मनुष्य छ २ नेयाउयं. उ०८१ ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #697 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४२ उत्तराध्ययनसूने बायकारणवादरूपं जैनदर्शनं, यद्वा-न्याययुक्तं मागं सम्यगदर्शनादिरूपं मार्ग= मोक्षमार्ग श्रुत्वा परिभ्रश्यन्ति-मोक्षमार्गात् पच्युता भवन्ति । अत्र दृष्टान्ताः-जमालिप्रभृतयो निह्नवाः। __ अथ के ते जमालिप्रभृतयः ? इत्युच्यते-जमालिप्रभृतयः सप्त प्रवचननिहवाःमिथ्यात्वाभिनिवेशाज्जिनोक्ततत्त्वापलापकास्त्यक्तसम्यग्दर्शना अभूवन् । तत्र जमालिः प्रथमः, स बहुरतः-बहुषु समयेषु रतः सक्तः, प्रभूत समयैः कार्योत्पत्तिर्भवति, नत्वेकेन समयेनेति प्ररूपयति ॥ १ ॥ तिष्यगुप्तो द्वितीयः-स जीवप्रदेशिकः -जीवः प्रदेश एवं यस्य स जीवप्रदेशः, स एव जीवप्रदेशिकः, चरमप्रदेश एव जीव इति प्ररूपयति ॥२॥ तृतीय आषाढः स तु अव्यक्तिकः, अव्यक्तम्-अस्फुटं वस्तु (नेयाउयं मग्गं-नैयायिकं मार्ग) पंचसमवायकारणवादरूप जैनदर्शन को, अथवा सम्यग्दर्शनादिरूप न्याययुक्त मार्ग-मोक्षमार्ग को (सोच्चाश्रुत्वा) सुनकर भी उसमें श्रद्धानहीं होने से (परिभस्सइ-परिभ्रश्यन्ति) उस मोक्षमार्ग से भ्रष्ट हो जाते हैं इसलिये श्रद्धा को दुलभ बतलाई है। इस विषय में दृष्टान्तस्वरूप जमालि निव आदि समझना चाहिये। जमालि आदि कौन हैं ? इस विषय को यहां प्रदर्शित किया जाता है। ये जमालि आदि सात व्यक्ति निह्नव-प्रवचन को छिपाने वाले हुए हैंमिथ्यात्व के अभिनिवेश से जिनोक्त तत्त्व के अपलापक-सम्यग्दर्शन से रहित हुए हैं। इनमें सर्वप्रथम जमालि हुए हैं, इनकी मान्यता यह है कि अनेकसमयों से द्रव्य की उत्पत्ति होती है, एक समय से नहीं? द्वितीय निहव तिष्यगुप्त हुए हैं, इनकी ऐसी मान्यता है कि जीवका एक अन्तिम प्रदेश ही जीवस्वरूप है २ । तृतीय निहव आषाढ हुए हैं, इनकी मगं-नैयायिक मार्ग पांय सभवाय४।२६पा६३५ नशन मथा सभ्य शनाहि३५ न्याययुत भाग-भाक्ष भागने साये सोच्चा-थत्वा सांसजीने ५६ सनामा श्रद्धा नवाथी परिभस्सइ-परिभ्रश्यन्ति से मोक्षमाथी भ्रष्ट थर्ड જાય છે. આ માટે શ્રદ્ધાને દુર્લભ બતાવેલ છે. આ વિષયમાં દષ્ટાંતસ્વરૂપ જમાલિ નિદ્રવ આદિ સમજવા જોઈએ. જમાલિ આદિ કેણ હતા એ વિષયને અહિં પ્રદર્શિત કરવામાં આવે છે. એ જમાલિ આદિ સાત વ્યક્તિ પ્રવચનનિધ્રુવ છુપાવવાવાળા હતા. મિથ્યાત્વના અભિનિવેશથી જીત તત્વના અપક્ષાપક – સમ્યગ્રદર્શનથી રહિત હતા. એમાં સર્વ પ્રથમ જમાલિ હતા. એમની માન્યતા એ હતી કે અનેક સમયેથી દ્રવ્યની ઉત્પત્તિ થાય છેએક સમયથી નહી. (૧) દ્વિતીય નિવ તિષ્યગુપ્ત હતા, એમની એવી માન્યતા હતી કે, જીવને એક અંતિમ પ્રદેશ જ જીવ ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #698 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रियदर्शिनी टीका. अ० ३ गा० ९ श्रद्धादौर्लभ्ये जमालिदृष्टान्तः १ ६४३ यस्य सः, संयतादिज्ञाने संदिग्धबुद्धिः । ३ । अश्वमित्रश्चतुर्थः सामुच्छेदिकः, स उत्पादानन्तरमेव वस्तुनः समुच्छेदः - विनाशो भवतीति प्ररूपयति । ४ । गङ्गाचार्यः पञ्चमो द्वैक्रियः - स एकस्मिन् समये क्रियाद्वयानुभवो भवतीति प्ररूपयति । ५ । पलूकः षष्ठखैराशिकः, स जीवा - जीव-नोजीव - भेदात् त्रयो राशयः सन्तीति प्ररूपयति । ६ । गोष्ठःमाहिलः स्थविरः सप्तमोsवद्धिकः स च जीवेन स्पृष्टं कर्म अबद्धं प्ररूपयति ॥ ७ । तत्र जमालेर्वृत्तान्तः प्रोच्यते क्षत्रियकुण्डपुरे भगवतः श्रीवीरवर्धमानस्वामिनो भगिन्याः सुदर्शनायाः पुत्रः क्षत्रिया ऐसी मान्यता है कि संयत आदि का ज्ञान सदा संदिग्ध रहता है, कौन संयत है कौन नहीं इसका यथार्थ निश्चय नहीं हो सकता है, इस प्रकार ये अव्यक्तवादी हैं ३ | चतुर्थ निहब - अश्वमित्र हैं, इनकी ऐसी मान्यता है कि उत्पाद के अनन्तर ही वस्तु विनष्ट हो जाती है ४ । पंचम निह्नव गंगाचार्य हैं, इनकी ऐसी मान्यता है कि एक समय में दो क्रियाओं का अनुभव होता है ५। छठवां निहव षडुलूक हैं, इनकी ऐसी मान्यता है कि जीव अजीव एवं नोजीव, इस प्रकार तीन राशि हैं ६ । गोष्ठ माहिल स्थविर सातवां निहव हैं, इनकी ऐसी मान्यता है कि जीव के स्पृष्ट कर्म सदा उससे अबद्ध रहता है ७ । जमालि का वृत्तान्त इस प्रकार है- जमालि भगवान् वर्धमान स्वामा की बहिन सुदर्शना के पुत्र थे। ये क्षत्रियकुण्डपुर का निवासी क्षत्रिय थे । भगवान् वीर प्रभु की पुत्री जो प्रियदर्शना थी उसका સ્વરૂપ છે. (૨) તૃતીય નિદ્ભવ આષાઢ હતા એમની એવી માન્યતા હતી કે, સંયત આદિનુ જ્ઞાન સદા સંદિગ્ધ રહે છે. કાણુ સંયત છે ? કાણુ સંયત નથી ? એના યથાથ નિશ્ચય થઈ શકતા નથી. આ પ્રકારથી તેઓ અવ્યક્તવાદી હતા. (૩) ચતુર્થાં નિહ્નવ અશ્વમિત્ર હતા એમની એવી માન્યતા હતી કે, ઉત્પાદના અન તરજ વસ્તુના નાશ થઈ જાય છે. (૪) પંચમ નિહ્નવ ગંગાચાય હતા, એમની એવી માન્યતા હતી કે, એક સમયમાં એ ક્રિયાઓના અનુભવ થાય છે. (૫) છડા નિહ્નવ ષડુલક હતા એમની એવી પણ માન્યતા હતી કે, જીવ, અજીવ અને ના જીવ આ રીતે ત્રણ પ્રકારની રાશી છે. (૬) સાતમા નિહ્નવ ગેાઇમાહિલસ્થવિર હતા એમની એવી પણ માન્યતા હતી કે, સૃષ્ટ કમ હમેશાં તેનાથી અમદ્ધ રહે છે. જમાલિનું વૃતાંત આ પ્રકારે છે—જમાલિ ભગવાન વમાન સ્વામીની ખહેન મુન્નુનાના પુત્ર હતા. તે ક્ષત્રિય હતા અને ક્ષત્રિયકુન્તપુરના નિવાસી હતા. ભગવાન વીરપ્રભુની પુત્રી જે પ્રિયદના હતી, તેના તેઓ ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર ઃ ૧ Page #699 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययनसूत्रे जमालिरासीत् । श्रीवीरवर्धमानस्वामिनः पुत्री प्रियदर्शना जमालेः भार्याऽभवत् । एकदा कदाचित् भगवान् श्रीवोरवर्धमानस्वामी तत्र क्षत्रियकुण्डपुरे समवस्तः। जमालिर्थिया सह तं वन्दितुं समागतः। भगवद्देशनया जातवैराग्योऽसौ जमालिग्रॅहमागत्य पित्रोरनुज्ञा गृहीत्वा पञ्चशतक्षत्रियकुमारैः सह प्रव्रज्यां गृहीतवान् । अयं भगवतः श्रीमहावीरस्य केवलज्ञानप्राप्त्यनन्तरं चतुर्दशे वर्षे प्रवजितः । तदा तस्य भार्या प्रियदर्शनाऽपि भगवतः श्रीवीरवर्धमानस्वामिनः समीपे स्त्रीसहस्रेण सह प्रबजिता। ततः पञ्चशतसंख्यकान् साधून जमालिमुनये, तस्यै प्रियदर्शनासाव्यै च साध्वीसहस्रं शिष्यतया भगवान् प्रददौ । अथ जमालिमुनिः श्रीवर्धमानस्वामिना सह विहरन् दुश्चरं तपस्तेपे, एकादशाङ्गानि चाधीतवान् । ये पति थे। एक दिन की बात है कि वीर श्रीवर्धमान स्वामी क्षत्रियकुण्डपुर में पधारे । जमालि अपनी पत्नी प्रियदर्शना के साथ उनको वंदना करने के लिये आये । भगवान् ने इनको धर्मदेशना दी। दिव्य धर्मदेशना का पान कर जमालि को वैराग्य जागृत हो गया। घर पर आकर इन्हों ने अपने माता पिता से आज्ञा लेकर पांचसौ क्षत्रियकुमारों के साथ दीक्षा अंगीकार करली । उस समय भगवान् को केवल ज्ञान प्राप्त हुए को चौदह वर्ष व्यतीत हो चुके थे। पति को दीक्षित देखकर प्रियदर्शना ने भी एक हजार स्त्रियों के साथ दीक्षा अंगीकार करली। प्रभु ने पांचसौ मुनियों को जमालिमुनि की नेसराय में करदिये, एवं एक हजार साध्वियों को प्रियदर्शना साध्वी की नेसराय में कर दी। पांचसो जमालि के शिष्य और एक हजार साध्वियां प्रियदर्शना की शिष्याएँ हुई । जमालिमुनि ने श्री वर्धमानપતિ હતા. એક સમયની વાત છે કે, શ્રી વીર વર્ધમાનસ્વામી દીક્ષા લીધા પછી ક્ષત્રિયકુડપુરમાં પધાર્યા. જમાલિ પિતાની પત્ની પ્રિયદર્શનાની સાથે તેમને વંદના કરવા માટે આવ્યા. ભગવાને તેમને ધર્મદેશના આપી. દિવ્ય ધર્મ દશનાનું પાન કરતાં જમાલિને વૈરાગ્ય જાગૃત થયો. ઘેર આવી પોતાનાં માતાપિતાની આજ્ઞા લઈ તેમણે પાંચસો ક્ષત્રિય કુમારે સહિત દીક્ષા અંગિકાર કરી. આ સમયે ભગવાનને કેવળજ્ઞાન પ્રાપ્ત થયા ને ચૌદ વર્ષ વિતી ગયાં હતાં. પતિને દીક્ષિત થયેલા જોઈ પ્રિયદર્શનાએ પણ એક હજાર સ્ત્રીઓ સહિત દીક્ષા અંગીકાર કરી. પ્રભુએ પાંચસો મુનિઓને જમાલિ મુનિની નેસરાયમાં કરી દીધા. અને એક હજાર સાધવીઓને પ્રિયદર્શના સાધવીની નેસરાયમાં કરી દીધી. જમાલિના પાંચસે શિષ્ય થયા અને એક હજાર સાધ્વીઓ પ્રિય દર્શનાની શિષ્યા થઈ જમાલિ મુનિએ શ્રી વર્ધમાન સ્વામીની ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #700 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रियदर्शिनी टीका. अ० ३ गा. ९ श्रद्धादौर्लभ्ये जमालिदृष्टान्तः ६४५ अथान्यदा जमालिमुनिर्भगवतः श्रीवीरवर्धमानस्वामिनं वन्दित्वा नमस्कृत्य कृताञ्जलिः सन् पप्रच्छ - भगवन् ! भवदाज्ञयाऽन्यत्र विहर्तुमिच्छामि ? तदा भगवता पृथग्विहारे जमाले भादर्शनात् मौनमवलम्बितम् । जमालिस्तु अप्रतिषिद्धमजुमतं भवतीति मत्वा भगवन्तं वन्दित्वा नमस्कृत्य पञ्चशतशिष्यैः सह तदन्तिकात् प्रतिनिष्क्रामति । अथाsil पञ्चशतैरनगारैः सह ग्रामानुग्रामं विहरन् श्रावस्ती नगर्यां कोष्ठकनामके उद्याने समागतः । तत्र यथाप्रतिरूपमवग्रहं गृहीत्वा संयमेन तपसाऽऽत्मानं भावयन् विहरति । स्वामी के साथ विहार करते २ खूब तो तपश्चर्या की और ग्यारह अंगों का अध्ययन भी कर लिया । किसी समय जमालि मुनि ने भगवान श्री वर्धमानस्वामी को दोनों हाथ जोड़कर वन्दना एवं नमस्कार कर के पूछा कि हे भगवान् ! आपकी आज्ञा से मैं दूसरी जगह विहार करना चाहता हूं । जमालि की बात सुनकर भगवान् ने इस अभिप्राय से कि इनका पृथग् विहार लाभकारी नहीं है, उनको कुछ भी उत्तर नहीं दिया किन्तु मौन रहे । भगवान् ने जब जमालि से कुछ भी नहीं कहा तो उन्हों ने यह समझकर कि " अप्रतिषिद्धं अनुमतम् " अप्रतिषिद्ध अनुमत होता है, वहाँ से प्रभु को वन्दना नमस्कार करके अपने पांचसौ शिष्यों को साथ लेकर विहार कर दिया । पांचसो शिष्यो के साथ ग्रामानुग्राम विहार करते हुए वे श्रावस्ती સાથે વિહાર કરતાં કરતાં ખૂબ તપશ્ચર્યા કરી અને અગ્યાર અગાના અભ્યાસ પણ કરી લીધે. કોઇ એક સમયે જમાલિમુનિએ ભગવાન શ્રી વર્ધમાન સ્વામીને બે હાથ જોડીને વંદના નમસ્કાર કરીને પૂછ્યું કે, હે ભગવત ! આપની આજ્ઞાથી હું બીજી જગ્યાએ વિહાર કરવા ઈચ્છું છું. જમાલિની આ વાત સાંભળીને ભગવાન એમનેા જુદા વિહાર લાભકારી નથી. એવા અભિપ્રાયથી મૌન રહ્યા અને ઉત્તર ન આપ્યા. ભગવાને જ્યારે જમાલિને કાંઈ કહ્યુ નહી. ત્યારે तेभो खेभ समल सीधु ङे, " अप्रतिषिद्धं अनुमत' भवति " भौन से अनुभती છે, એમ સમજીને ત્યાંથી પ્રભુને વંદના નમસ્કાર કરીને પેાતાના પાંચસે શિષ્યે સાથે પ્રભુથી અલગ વિહાર કરી દીધા. પાંચસેા શિષ્યાની સાથે ગ્રામાનુગ્રામ વિહાર કરતાં કરતાં તે શ્રાવસ્તી ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર ઃ ૧ Page #701 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययनसूत्रे ततः खलु श्रमणो भगवान् महावीरोऽन्यदा कदाचित् पूर्वानुपूर्व्याचरन् यावत् सुखंसुखेन विहरन् यत्रैव चम्पानगरी यत्रैव पूर्णभद्रनामकमुद्यानं तत्रैवोपागतः, उपागत्य यथाप्रतिरूपमवग्रहं गृहीत्वा संयमेन तपसाऽऽस्मानं भावयन् विहरति । ततः खलु तस्य जमालेरनगारस्य शरीरेऽन्तप्रान्तरूक्षतुच्छाहारैरन्यदा कदाचित् विपुलरोगातङ्कः प्रादुर्भूतः । तदा स उपवेष्टुमशक्तःसन्ननगारान् पाह-मम संस्तारकः शीघ्रं क्रियताम् । ते मुनयः संस्तारकं कर्तुं प्रवृत्ताः । जमालिस्तान् पुनः पुनः पृच्छति-संस्तारकः कृतो नो वा भवद्भिः ? त ऊचुः--संस्तारकः कृतो नगरी के कोष्ठक नामक उद्यान में आये । वहां वनपाल से वसति की आज्ञा ग्रहण कर संयम एवं तप से अपनी आत्मा को भवित करते हुए विचरने लगे। श्रमण भगवान महावीर ने भी कोई समय पूर्वानुपूर्वी से ग्रामानुग्राम विहार करते हुए वे चंपानगरी के पूर्णभद्रनामक उद्यान में पधारे और यथाप्रतिरूप अवग्रह (वसति की आज्ञा ) ग्रहण कर संयम एवं तप से आत्मा को भवित करते हुए विचरने लगे। इधर जमालि के शरीर में अन्त प्रान्त रूक्ष एवं तुच्छ आहार के लेने से अनेक प्रकार के रोग उत्पन्न हो गये । इससे ये बैठने में भी अशक्त बन गये। इस स्थिति में इन्हों ने अपने शिष्यों से कहा-मेरे लिए संस्तारक शीघ्र कर दो। मुनियों ने संस्तारक करना प्रारंभ कर दिया। નગરીના કેપ્ટક નામના બાગમાં આવી પહોંચ્યા. ત્યાં વનપાલ પાસેથી આજ્ઞા લઈને ઉતર્યા. અને તે સ્થળે સંયમ અને તપથી પિતાની આત્માને ભાવિત કરતાં કરતાં વિચારવા લાગ્યા. શ્રમણ ભગવાન મહાવીર પણ કઈ સમય પૂર્વાનુપૂવથી ગ્રામાનુગ્રામ વિહાર કરતા કરતા ચંપાનગરીના પૂર્ણભદ્ર નામના બાગમાં પધાર્યા. અને યથાપ્રતિરૂપ અવગ્રહ (વસતીની આજ્ઞા) લઈને સંયમ અને તપથી આત્માને ભવિત કરતાં કરતાં વિચરવા લાગ્યા. આ તરફ જમાલિના શરીરમાં અન્ત, પ્રાન્ત, રૂક્ષ તેમજ તુચ્છ આહાર લેવાથી અનેક પ્રકારના રોગો ઉત્પન્ન થયા, આ રોગના કારણે તેઓ બેસવામાં પણ અશક્ત બની ગયા આ સ્થિતિમાં તેમણે પોતાના શિષ્યોને કહ્યું કે, મારે માટે જદી સંસ્તારક (પથારી) કરી દે. મુનિઓ સસ્તારકની તૈયારી કરવા લાગ્યા જમાલિએ તેમને વારંવાર પૂછવા માડયું કે, સંસ્મારક કર્યો કે નહીં? ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #702 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रियदर्शिनी टीका अ० ३ गा०९ क्रियमाणकृतविषयक विधारः ६७ नास्ति, किं तु क्रियते, एवमुक्ते सति स जमालिमिथ्यात्वमोहनीयोदयात् सम्यत्वपरिभ्रष्टः सन् व्यचिन्तयत्-क्रियमाणं कृतमिति जिनोक्तं सत्यं न भवितुमर्हति, यतोऽयं संस्तारकः क्रियमाणो न कृतः संस्तीर्यमाणोऽपि न संस्तृत इत्युच्यते । इति मनसि विचिन्त्य तत्र सर्वान् मुनीनाहूय जमालिः प्राह-यत् क्रियमाणं तत् कृतम् , यञ्चलत् तचलितम् , यदुदीर्यमाणं तदुदीरितम् , इत्यादि श्रीमहावीरस्वामिना यद् भाषितं तत् खलु मिथ्या, क्रियमाणे संस्तारके शयनरूपार्थसाधकत्वा. भावेन कृतत्वाभावात् । जमालि ने उनसे बार २ पूछना शुरु किया कि संस्तारक किया या नहीं ? उन्हों ने कहा संस्तारक अभी नहीं किया है कर रहे हैं। इस प्रकार जब उन्हों ने कहा तब मिथ्यात्वमोहनीय के उदय से सम्यक्त्व से पतित होकर जमालि ने विचार किया कि “क्रियमाणं कृतम्" जो किया जा रहा है वह “किया गया" ऐसा जो जिन भगवान ने कहा है वह सत्य नहीं हो सकता है, क्यों कि संस्तारक क्रियमाण है वह " कृतः" किया गया ऐसा नहीं कहा जा सकता है। उसी तरह यह तो अभी “ संस्तीर्यमाण" है बिछाया जा रहा है, इसे "संस्तृतः" बिछ गया है, ऐसे कैसे कह सकते हैं। इस प्रकार विचार कर उन्हों ने अपने समस्त शिष्यों को बुलाकर कहा कि देखो भगवान् वीर प्रभु जो ऐसा कहते हैं कि “क्रियमाणं कृतम्" " यच्चलत् तत् चलितम् " " यदुदीयमाणं तदुदीरितम्" जो क्रियमाग है वह किया गया है, जो चल रहा है वह चल चुका है, जो उदय में आ શિષ્યોએ કહ્યું કે, સસ્તારક હજું કરેલ નથી પરંતુ કરીએ છી એ આ પ્રકારે જ્યારે શિવેએ કહ્યું, ત્યારે મિથ્યાત્વ મેહનીયના ઉદયથી સમ્યકત્વથી પતિત थईन मानिये विया२ ४य है, “क्रियमाणं कृतं" ४२पामा मावे छ त “થઈ ચૂકયું” એવું જે જીન ભગવાને કહ્યું છે તે સત્ય ઠરતું નથી. કેમ કે सा२४ डियमा ते “कृतः” य यूथ्युंछ सेम ४डी शय नहि. मा प्रभाग २ मा "संस्तीर्यमाण" छे-पीछावामां मावछ यन બીછાવી દીધલ છે એમ કેમ કહી શકાય ? આ પ્રમાણે વિચાર કરીને તેમણે પિતાના સમસ્ત શિષ્યોને બોલાવીને કહ્યું કે, જુઓ ભગવાન વીર પ્રભુ જે એમ ४. छे , “क्रियमाणं कृतम् " " यच्चलत् तत् चलितम् ” “ यदुदीर्यमाणं तदु. दीरितम्" यमाय छ त थ यूयु छ, २ -याली २ छ, ते यादी ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #703 -------------------------------------------------------------------------- ________________ દુલ उत्तराध्ययन सूत्रे कृते संस्तारके शयनाद्यर्थक्रियाकारित्वं विद्यते, करणसमये तु नास्ति तादृशी अर्थक्रिया, अतः क्रियमाणं कृतमिति व्यपदेशः कथं स्यात् ? । किञ्च क्रियमाणमिति वर्तमानव्यपदेशः, कृतमिति च भूतव्यपदेशः, वर्तमानत्वं भूतत्वं च परस्परविरुमिति परस्परविरुद्धयोस्तयोरेकता न स्यात्, वर्तमानध्वंसप्रतियोगित्वस्य भूतस्वादिति महावीरस्वामिना यत् प्रतिपादितम् -' करेमाणे कडे चलमाणे चलिए ' रहा है वह उदय में आचुका है " सो वह सब मिथ्या है, कारण कि क्रियमाण संस्तारक में शयनरूप अर्थक्रिया के प्रति साधकत्व का अभाव होने से वहां कृतत्व नहीं आ सकता है । संस्तारक ( बिस्तर) करने के बाद ही उसमें शयनादिरूप अर्थ क्रियाकारिता आती है, परन्तु संस्तारक करने के समय में उसमें उस प्रकार की अर्थक्रियाकारिता नहीं है, फिर " क्रियमाणं कृतम् " - क्रियमाण कृत होता है यह व्यपदेश कैसे हो सकता है ? | और भी - " क्रियमाणम् " यह वर्तमान काल का कथन है और 66 कृतम् " यह भूतव्यपदेश है। भूत और वर्तमान परस्पर विरुद्ध है, और परस्पर विरुद्ध दो पदार्थों की एकता नहीं हो सकती है, क्यों कि वर्त काल में विद्यमान जो ध्वंस उसके विरोधी का नाम है भूत, एतादृश भूत और वर्तमान ये दोनों एक अधिकरण में नहीं रह सकते हैं । फिर जो महावीर स्वामी ने कहा है कि क्रियमाणं कृतम्, चलत् चलितम् ચુકયું છે, જે ઉદયમાં આવી રહેલ છે તે ઉદયમાં આવી ચુકેલ છે, એ બધું સઘળું મિથ્યા છે. કારણ કે, ક્રિયમાણુ સંસ્તારકમાં શયનરૂપ અ ક્રિયામાં સાધકત્વના અભાવથી ત્યાં કરેલ છે એમ આવી શકતું નથી, સંસ્તારક (પથારી) કર્યાં પછી જ તેમાં શયનાદિરૂપ " क्रियाकारिता " આવે છે. પરન્તુ સસ્તારક કરતી વખતે તે તેમાં તેવા પ્રકારની अर्थक्रिया कारिता' यावती नथी. तो पछी क्रियमाणं कृतम् - डियभाष द्रुत थाय छे, मेवा વ્યવહાર કેવી રીતે થઈ શકે? वजी " क्रियमाणम् ” से वर्तमान अजनु उथन छे. ते " " कृतम् એ ભૂતકાળના વ્યવહાર છે, ભૂત (કાળ) અને વર્તમાન એ અને પરસ્પર વિરૂદ્ધ અથવાળાં છે. એટલે પરસ્પર વિરૂદ્ધ એવા બે પદ્યાર્થીની એકતા થઈ શકતી નથી. કેમકે વમાનકાળથી વિરૂદ્ધ ભૂત ( કાળ ) છે, એવા પ્રકારના ભૂત અને વર્તમાન એ અને એક અધિકરણમાં રહી શકતા નથી. તેા પછી મહાवीर स्वामी ने मधुं छे है, "क्रियमाणं कृतम् ” “ 'चलत् चलितम् " - विगेरे ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર ઃ ૧ Page #704 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रियदर्शिनी टीका. अ०३ गा० ९श्रद्धादोलभ्येक्रियमाणकृतविषयकविचारः ६९ इत्यादि, तत्सर्वमसंबद्धमेवेति । एवं मिथ्यात्वमोहनीयोदयात् जमालिमुन्मार्गगतं ज्ञात्वा स्थविरा अवदन्-जमाले ! भगवत आशयं न जानासि, भगवान् आप्तः, विगतदोषसत्यवक्ता, तन्मतमनेकान्तवादात्मकम् , एकोपि पदार्थः अपेक्षाभेदेन अनेकरूपो भवति, यथा एक एव पुरुषः अपेक्षाभेदेन जामाता श्यालकः पुत्रः पिता च । तथैव प्रकृतेऽपि क्रियमाणत्वेपि संस्तारके कृतत्वं संभवति । पटस्य क्रियमाणतायां कृतः पटः' इत्यादिवत् । ननु कथं क्रियमाणं पटादिकं कृतं स्यादिति चेतत्रोच्यते-पटस्योत्पद्यमानताकाले प्रथमतन्तुप्रवेशे उत्पद्यपान एव पट उत्पन्नो -' इत्यादि' सो यह श्रद्धेय नहीं है। इस प्रकार भाग्यदोष से जमालि को विपरीत मार्ग में जाते हुए देखकर स्थविरों ने कहा-हे जमालि ! आप भगवान के आशय को नहीं जानते हो । भगवान सर्व दोष-रहित यथार्थवक्ता हैं। भगवान का मत अनेकान्तरूप है। एक ही पदार्थ अपेक्षा-भेद से अनेकरूप होता है । जैसे एक ही पुरुष श्वशुर की अपेक्षा से जामाता कहलाता है, बहनोई की अपेक्षा साला कहलाता है पिता की अपेक्षा से पुत्र कहलाता है, पुत्र की अपेक्षा से पिता कहा लाता है। उसी प्रकार प्रकृत में आपका विस्तर हो भी रहा है, हो भी गया है, ऐसा कह सकते हैं । जैसे कि पट की क्रियमाणता में भी कृतत्व का व्यवहार होता है उसी तरह । पुनः प्रश्न करता है कि जो क्रियमाण है वह कृत कैसे हो सकता है ? इसका उत्तर देते हैं-पर के उत्पत्तिकाल में प्रथम तंतु के प्रवेश समय में भी वह उत्पन्न होता ही है તે શ્રદ્ધા કરવા ગ્ય નથી. આ પ્રમાણે ભાગ્યદેષથી વિપરીત માગે જતા જમાલીને જોઈ તે સ્થવિરોએ તેઓને કહ્યું કે હે જમાલિ! તમે ભગવાનના આશયને જાણતા નથી. ભગવાન સર્વદેષ રહિત સાચું બોલવાવાળા છે. ભગવાનને મત અનેકાન્ત રૂપ છે. એક જ પદાર્થ અપેક્ષા ભેદથી અનેકરૂપ થાય છે. જેમાં એક જ પુરુષ સસરાની આગળ જમાઈકહેવાય છે. બનેવીની આગળ સાળે કહેવાય છે. અને પિતા આગળ પુત્ર કહેવાય છે. અને તે જ પુરુષ પુત્ર આગળ પિતા કહેવાય છે. એવી જ રીતે પ્રસ્તુતમાં આપની પથારી થઈ રહી છે. થઈ પણ ગઈ છે. એવું કહેવામાં આવે છે. જેવી રીતે પટની ક્રિયમાણુતામાં કૃતત્વને વ્યવહાર થાય છે તેવી જ રીતે. शथी प्रश्न ४२ छ ?- क्रियमाण छे ते कृत वारीत ? એનો ઉત્તર આપતાં કહે છે કે-પટના ઉત્પત્તિકાળમાં પ્રથમ તતુના પ્રવેશ સમયે પણ તે ઉત્પન્ન થાય જ છે. કેમકે પ્રથમત—પ્રવેશ કાળથી જ “પટ उ० ८२ ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર: ૧ Page #705 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - ६५० उत्तराध्ययनसुत्रे भवति, उत्पद्यमानता च पटस्य प्रथमतन्तुप्रवेशकालादारभ्यैव भवति तदैव 'पट उत्पद्यते इति व्यवहारदर्शनात् । उत्पनत्वमपि तस्य पटस्य तत्काले एवं, तथाहि-उत्पत्ति क्रियाकाले-प्रथमतन्तुपवेशे एवासौ उत्पन्नोऽभूत् , अन्यथा उत्पत्तिक्रियाकाले यदि तस्य पटस्योत्पत्तिर्न स्वीक्रियेत तदा प्रथमक्रिया निरर्थिका स्यात् , कार्यकरणमेव धर्मः क्रियायाः। यदि प्रथमक्रिया उत्पत्तिरूपं कार्य न कुर्यात् तदा सा निरथिकैव स्यात् , उत्पाद्योत्पादनमेव क्रियाया धर्मः । एवं यथा प्रथमक्षणे पटो नोत्पन्नस्तथा द्वितीयक्षणेऽपि नोत्पन्न एवं, तृतीयादावपि क्षणे नोत्पन्न इति अंतिम क्रिययापि अनुत्पन्न एवं स्यात् , युक्तेः सर्वत्र समानत्वात् । यदा तु प्रथमादिक्रियया न किमपि फलमुत्पादितं तदा अन्त्यया फलं स्यादिति प्रत्याशामात्रमेव, दृश्यते चान्त्यतन्तु' क्यों कि प्रथमतंतुप्रवेश-काल से ही 'पट उत्पन्न होता है। ऐसा व्यवहार देखने में आता है । तथा उत्पन्नत्व भी उस पट में उस काल से ही है, क्यों कि उत्पत्तिक्रियाकाल में प्रथम तन्तु के प्रवेश होने पर ही पट उत्पन्न हो गया, यदि उस पट की उत्पत्ति स्वीकार नहीं करें तो वह प्रथम क्रिया निरर्थक हो जायगी, कारण कि कार्योत्पाद ही क्रिया का धर्म है । यदि ऐसा माने कि प्रथम क्षण में पट उत्पन्न नहीं हुआ तो इसी तरह द्वितीय क्षण में भी उत्पन्न नहीं होगा, तृतीय क्षण में भी उत्पन्न नहीं होगा, इस तरह से अंतिम क्रिया तक पट की उत्पत्ति नहीं होगी, क्यों कि युक्ति सर्वत्र समान है। ___ यदि प्रथम क्रिया से कुछ भी फल नहीं हुआ तो अन्तिम क्रियासे भी उत्पादरूप फल का होना असंमव ही है, परन्तु देखने में आता है कि ઉત્પન્ન થાય છે” એવો વ્યવહાર જોવામાં આવે છે. તથા ઉત્પન્ન થવાનું પણ તે પટમાં તે કાળથી જ છે, કેમકે ઉત્પત્તિક્રિયાકાળમાં પ્રથમતત્ત્વના પ્રવેશ થતાની સાથે જ પટ ઉત્પન્ન થઈ ગયું, જે તે પટની ઉત્પત્તિને સ્વીકાર ન કરીએ તે તે પ્રથમક્રિયા નિરર્થક થઈ જશે. કારણ કે કાર્યની ઉત્પત્તિ જ ક્રિયાને ધર્મ છે. કદાચ જે એમ માનીએ કે પ્રથમ ક્ષણમાં પટ ઉત્પન્ન થયું નથી. તે એવી જ રીતે બીજી ક્ષણમાં પણ ઉત્પન નહિં થાય, તેમ જ ત્રીજી ક્ષણમાં પણ ઉત્પન્ન થશે નહીં. એવી જ રીતે અંતિમકિયા સુધી પટની ઉત્પત્તિ થશે નહીં, કેમકે ક્રિયા સર્વત્ર એકસરખી હોય છે. જે પ્રથમ કિયાથી કંઈ પણ ફલ ન થયું તે અતિમ ક્રિયાથી પણ ઉત્પાદરૂપ ફલનું થવું અસંભવ જ છે. પરંતુ જોવામાં આવે છે કે અન્તિમ ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #706 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रियदर्शिनी टीका. अ०३ गा. ९श्रद्धादौलभ्ये क्रियमाणकृतविषयकविचारः ६५१ प्रवेशे पटस्योत्पत्तिरिति प्रथमसमयादारभ्य किञ्चित् कार्य सर्वैरपि क्षणैः कृतमिति मन्तव्यम् । यदि मथमक्रियया नोत्पन्नः पटस्तदा उत्तरक्रिययापि नोत्पमः स्यादिति सर्व दैव पटानुत्पत्तिप्रसंगः, स च न कस्यापि इष्टः, अतः प्रथमतन्तुपवेशकाले एव किंचिदुत्पमपटस्य यावान् अंशो नोत्पन्नः स एवाशः उत्तरक्रियया उत्पाधते यदि पुनरुत्पधेत तदा एकदेशेनैव उत्पादनं क्रियाया इति स्वीकर्तव्यम् । यदि प्रथमां. शोत्पादननिरपेक्षा द्वितीयादिक्रिया तदैव द्वितीया फलवती स्यात् , नान्यथा, ततश्च यथा उत्पधमान एव पट उत्पन्नः, तथा क्रियमाणमेव संस्तारकं कृतमितिअन्तिम तन्तु के प्रवेश होने पर पट की उत्पत्ति होती है इसलिये 'पट उत्पन्नः'-ऐसा व्यवहार होता है, अतः ऐसा मानो कि प्रथम समय से लेकर कुछ २ कार्य सभी क्षणों में होता है। यदि कदाचित् प्रथम क्रिया से पट उत्पन्न नहीं हुआ तो द्वितीय से भी उत्पन्न नहीं होगा, तृतीय से भी नहीं होगा, इस प्रकार अन्तिम क्रिया से भी नहीं होगा तो पट की कभी भी उत्पत्ति नहीं होगी। परन्तु यह किसी को भी इष्ट नहीं है। अतः प्रथमतंतुप्रवेशकाल में भी थोड़ा पट उत्पन्न हुआ, और जो अंश अनुत्पन्न है वह बितीयादि क्षणों में होता है। इस प्रकार यह सिद्धान्त होता है कि क्रिया को एक देश से ही उत्पादकत्व है, और यह आपको भी मानना पडेगा। यदि प्रथम अंश के उत्पादन से निरपेक्ष द्वितीय क्रिया को मानोगे तभी द्वितीयादि क्रियायें सार्थक होंगी, अन्यथा नहीं । तब जैसे प्रथम क्रिया से उत्पन्न होते हुए पट की उत्पत्ति द्वितीयादि क्रिया से होती हैं उसी प्रकार तन्तुना प्रवेश प्तानी साथे ४ ५८नी उत्पत्ति थाय छे. मेट भाटे “पटः उत्पन्नः " वो व्यवहार थाय छे. ट स भान न , प्रथम સમયથી લઈને દરેક ક્ષણે કંઈક કંઈક કાર્ય થાય છે જ. જે કદાચ પ્રથમ ક્રિયાથી પટ ઉત્પન ન થયું તે બીજીથી પણ ઉત્પન્ન થશે. નહીં. અને ત્રીજીથી પણ ઉત્પન્ન થશે નહિ. તેવી જ રીતે અન્તિમ ક્રિયાથી પણ થશે નહીં, અને એ રીતે તે પટની કોઈ રીતે ઉત્પત્તિ થશે જ નહીં. પરંતુ એ વાત કઈ માની શકે તેમ નથી. એટલે પ્રથમતતુપ્રવેશકાળમાં પણ પટને શેડો ભાગ ઉત્પન્ન થયો, અને જે અંશ ઉત્પન્ન નથી કે, તે બીજી ત્રીજી વિગેરે ક્ષણમાં થાય છે. આ રીતે એ વાત સિદ્ધ થાય છે કે ક્રિયાના એક દેશથી જ ઉત્પાદન કત્વ છે. અને એ વાત તમારે પણ માનવી પડશે. જે પ્રથમ અંશના ઉત્પાદનથી નિરપેક્ષ દ્વિતીય ક્રિયાને માનશે ત્યારે જ દ્વિતીયાદિક્રિયાઓ સાર્થક થશે. અન્ય રીતે નહીં. તે જેવી રીતે પ્રથમ ક્રિયાથી ઉત્પન્ન થતા પટની ઉત્પત્તિ દ્વિતીયાદિ ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #707 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६५२ उत्तराध्ययनसूत्रे वक्तुं शक्यते । व्यवहारनये तु प्रथमक्रियाकालादारभ्यांन्तिमक्रियाकालपर्यन्तम्त्पन्न इति व्यपदेशो भवति, निश्चयनये तु अन्तिमक्रियासमये एवोत्पन्न इति व्यवहारो भवतीति । हे जमाले ! निश्चयनयव्यवहारनयौ आश्रित्यैव भगवतो महावीरस्य प्रवचनं क्रियमाणं कृतमिति न तु एकनयापेक्षं भगवतो वचनं, येन भवतां विरोधाभासो भातीति, _____ अथवा-प्रकारान्तरेण जमालेः पूर्वपक्ष उन्नेयः। तथाहि-क्रियमाणस्य कार्यस्य यदि कृतत्वं मन्यते । तदा-कृतमेव क्रियमाणं भवतीत्यायातम्। ततश्च पूर्वनिष्पन्नस्यैव पुनः क्रियाया उत्पत्तिरभ्युपेयेत, इति-चिरोत्पन्नस्यापि पदार्थस्य पुनरुत्पादः स्यात् । परन्तु कृतस्य क्रियमाणता प्रमाणविरुद्धा। अत्राज्यमनुमान प्रयोगः-कृतं क्रियमाणं न भवति । क्रियमाण भी आपके संस्तारक को "कृत" कह सकते हैं। हे जमालि ! व्यवहार नय को लेकर तो प्रथम क्रियाकाल से लेकर अन्तिम क्रियाकाल तक 'उत्पन्न' यह व्यवहार होता है और निश्चय नय को लेकर तो अन्तिम क्रिया के समय में ही 'उत्पन्न' ऐसा व्यवहार होता है। हे जमालि ! निश्चय नय और व्यवहारनय को लेकर ही भगवान महावीर ने 'क्रियमाणं कृतम्'-क्रियमाण कृत है-ऐसा कहा है, एक नय को लेकर भगवानने नहीं कहा है। आपको जोविरोधाभास मालुम होता है वह एक नय की अपेक्षा से, दोनों नय की अपेक्षा से तो कोई विरोध नहीं है। ___ अथवा-जमालि के पूर्व पक्ष का प्रकान्तर से अनुगम करना चाहिये, सो इस प्रकार-यदि क्रियमाण कार्य में कृतत्व मानते हैं तो याथी थाय छ त “क्रियमाण" ५५] मापन सताने कृत ४ी शाय છે. હે જમાલિ ! વ્યવહારનયને સ્વીકારતાં પ્રથમ ક્રિયાકાળથી માંડીને તે અંતિમ ક્રિયાકાળ સુધી “ઉત્પન્ન ” એ વ્યવહાર થાય છે, અને નિશ્ચય નયને સ્વીકારતાં તે અંતિમ ક્રિયાના સમયમાં જ “ઉત્પન્ન” એવે વ્યવહાર થાય છે. માટે હે જમાલિ! નિશ્ચય અને વ્યવહાર એ બને નયને સ્વીકારીને तो सवान महावीरे ‘क्रियमाणं कृतम्'-क्रियमाण कृत् । मे १२भाव्यु छ. એક નયને સ્વીકારીને ભગવાને ફરમાવ્યું નથી. આપને જે વિરોધાભાસ દેખાય છે તે તે એક નયની અપેક્ષાના કારણેજ છે. બે નયની અપેક્ષાએ તે કેઈ વિરોધ નથી. અથવા જમાલિના પૂર્વપક્ષને પ્રકારાન્તરથી અનુગમ (જાણપણ) કરે જોઈએ, તે આવી રીતે જે ક્રિયમાણ કાર્યમાં કૃતત્વ માનશે તે તેને અભિપ્રાય એ થયે કે દાત કાર્ય પણ જિરમાન ગણાય ત્યારે તે આપ પૂર્વોત્પન્નની ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #708 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रियदर्शिनी टीका अ०३ गा० ९ श्रद्धादौलभ्ये क्रियमाणकृतविषयक विचारः ६५३ अत्रायमनुमानप्रयोगः - कृतं क्रियमाणं न भवति कृतत्वात् पूर्वनिष्पन्नघटवदिति । यद् विद्यमानं तन केनचित् क्रियते यथा पूर्वनिष्पन्नो घटः । यदि कृतमेव क्रियमाणं मन्यते तदा बहो दोषाः स्युः, तथाहि यदि कृतमपि क्रियते इति मन्यते, तर्हि कृतोऽपि घटः पुनः पुनः सततं क्रियताम् कृतत्वाविशेषात् एवं चानवरतं घटोत्पत्तिक्रियाया एव सच्चात् कदाचिदपि क्रियापरिसमाप्तिर्न स्यात् । एवं सत्येकस्यापि कार्यस्य निष्पत्तिर्न स्यात् ॥ १ ॥ " इसका अभिप्राय यह हुआ कि कृत कार्य भी क्रियमाण होता है, तब तो आप पूर्वोत्पन्न की ही पुनः क्रिया द्वारा उत्पत्ति स्वीकार करते हैं, ऐसी स्थिति में बहुत पूर्व उत्पन्न हुए पदार्थ की भी फिर से उत्पत्ति होने लगेगी, परन्तु कृत की क्रियमाणता प्रमाणविरुद्ध है । यहां अनुमान प्रयोग इस प्रकार बनाना चाहिये - " कृतं क्रियमाणं न भवति कृतत्वात् पूर्वनिष्पन्नघटवत् " अर्थात् जिस प्रकार पूर्वनिष्पन्न घट में क्रियमाण ऐसा व्यवहार नहीं होता है उसी प्रकार जो कृत होता है वह क्रियमाण नहीं होता है, क्यों कि वह कृत है । तथा " यदिद्यमानं तन केनचित् क्रियते, यथा पूर्वनिष्पन्नो घटः " जो विद्यमान है वह किसी के द्वारा किया नहीं जा सकता है जैसे पूर्वनिपन्न (पहले बना हुआ ) घट | यदि कृत ही क्रियमाण माना जाय तो इसमें अनेक दोष आते हैं, वे इस प्रकार से यदि कृत पदार्थ में भी “क्रियते " इस प्रकार का व्यवहार माना जाय तो कृत किया गया भी जो घट है उस में भी पुनः पुनः करने का प्रसंग प्राप्त होता है, क्यों कि उसमें कृतत्व की कोई विशेषता नहीं है । इस प्रकार निरन्तर घटोत्पत्तिरूप क्रिया के જ સ્ક્રીને ક્રિયા દ્વારા ઉત્પત્તિના સ્વીકાર કરી છે. એ સ્થિતિમાં બહુ પહેલાં થયેલ પદાર્થની ઉત્પત્તિ ફરીથી થવા માંડશે, પરતુ તની ક્રિયમાળા પ્રમાણથીવિરૂદ્ધ છે. यहि अनुमान प्रयोग या प्रकारे मनावय। लेड से " कृतं क्रियमाणं न भवति कृतत्वात् पूर्व निष्पन्न घटवत् ” अर्थात् ने अमारे पूर्व निष्यन्न घटनां वियमाणु એવા વહેવાર ન થતા હાય તા તે કાર્ય ક્રિયમાણુ ખની શકતું નથી. કારણ કે, તે કૃત છે. જે વિદ્યમાન છે તે કાઇના દ્વારા કરવામાં આવતું નથી. જેમ પૂર્વ નિષ્પન્ન ઘટ ! જો કૃતને જ ક્રિયમાણુ માનવામાં આવે તે એમાં અનેક દોષ આવે છે. या अारे ले द्रुत पहार्थमा पशु “ क्रियते " मा अमरनो वहेवार मानवामां આવે તે કરવામાં આવેલ જે ઘટ છે એમાં પણ ફરી ફરી કરણના પ્રસંગ प्राप्त थाय छे. भ है, मां तत्वनी अर्ध विशेषता नथी. या प्रकारे निरं ન ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર ઃ ૧ Page #709 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययन सूत्रे यदि कृतमपि क्रियते, तदाऽन्येऽपि दोषाः सन्ति, तथाहि - यदि कृतमपि क्रियते, अर्थात् क्रियमाणं कृतं मन्यते तदा घटादिकार्योत्पादनार्थं मृन्मर्दनचक्रभ्रमणादिकायाः क्रियाया वैफल्यं स्यात्, तस्मिन् काले कार्यस्य घटस्य कृतत्वाभ्युपगमात् तस्य प्रागेव सत्वात् ॥ २ ॥ किञ्च कृतं क्रियते इति यन्मन्यते तत्र प्रत्यक्षविरोधः यस्मादुत्पत्तेः पूर्व मृत्पिण्डावस्थायामविद्यमानं, पश्चात् कुम्भकारादिव्यापारे घटादिकायंजायमानं दृश्यते उत्पत्तिकाले, तस्मादकृतमेव क्रियमाणं भवति ॥ ३ ॥ ६५४ सद्भाव से कभी भी वहां भवन होने रूप क्रिया की परिसमाप्ति नहीं हो सकने के कारण किसी भी कार्य की पूर्णरूप से निष्पत्ति नहीं हो सकेगी। यह कार्य अनिष्पत्तिरूप प्रथम दोष है ॥ १ ॥ यदि कृत भी " क्रियते " ऐसा माना जाय अर्थात् जो हो चुका है वह भी किया जाता है ऐसा ही पक्ष स्वीकार किया जाय तो इसका यह भी तात्पर्य होता है कि जो क्रियमाण है-हो रहा है वह हो चुका ऐसा कहा जाता है तो इस पक्ष में यह सब से प्रबल दोष उपस्थित होता है कि घटादि कार्य की उत्पत्ति के लिये जो मिट्टा का मर्दन चाक का भ्रमण आदि क्रियाएँ की जा रही हैं ये सब निष्फल हो जाती हैं, क्यों कि क्रियमाण अवस्था में भी घट कृत तो हो चुका तब उसके वर्तमान होने से निष्पन्न करने की क्या आवश्यकता रही ? यह दूसरा पक्ष है ॥२॥ और भा-" कृतं क्रियते " यह व्यवहार इसलिये भी दूषित साबित होता है कि जबतक घट उत्पन्न नहीं हो जाता है तब तक वह मृत्पिंड તર ઘટોત્પત્તિરૂપ ક્રિયાના સદ્ભાવથી કદી પણ ત્યાં ભવન-થવારૂપ ક્રિયાની પરિસમાપ્તિ ન થઇ શકવાના કારણે કાઈ પણ કાર્યની પૂર્ણ રૂપથી નિષ્પત્તિ થઈ શકશે નહી. આ કાય અનિષ્પત્તિરૂપ પ્રથમ દોષ છે. ।। ૧ । ले मृत पशु "क्रियते” शुभ मानवामां खावे अर्थात ने जनी गयेस છે તે પણ કરવામાં આવી રહ્યું છે તેવા સ્વીકાર કરવામાં આવે તે તેનુ એ તાપ થાય છે કે, જે ક્રિયમાણુ છે બની રહ્યું છે તે ખની ચુકયુ' એમ કહેવામાં આવે છે તે આ પક્ષમાં એ ખવાથી માટી દ્વેષ ઉપસ્થિત થાય છે. ઘટાદિકાર્યની ઉત્પત્તિ માટે જે માટીનું મન અને ચાકનું ભ્રમણ આદિ ક્રિયાઓ કરવામાં આવે છે તે બધી નિષ્ફળ બની જાય છે. કેમકે, ક્રિયમાણુ અવસ્થામાં પણ ઘટ કૃત તા થઈ ગયા તા એનુ' વર્તમાન થવાથી નિષ્પન્ન કરવાની કઈ આવશ્યકતા રહી? આ મીજો મુદ્દો. ॥ ૨ ॥ वजी-" कृतं क्रियते " या व्यवहार भेटवा माटे पशु दूषित साथीत થાય છે કે, જ્યાં સુધી ઘટ ઉત્પન્ન નથી થતે ત્યાં સુધી તે માટીના પડની ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર ઃ ૧ Page #710 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रियदर्शिनी टीका. अ० ३ गा. ९ श्रद्धादौर्लम्ये क्रियमाणकृतविषयकविचारः ६५५ _____ अथ यस्मिन्नेव समये घटादिकार्य प्रारभ्यते, तस्मिन्नेव समये निष्पद्यते, अतो निष्पन्नमेव तत् क्रियते इति चेन्नैवम् , यस्मात् घटादिकार्याणामुत्पद्यमानानामसंख्येयसमयरूपो दीर्घ एवं निवर्तनक्रियाकालो दृश्यते, अतो न यस्मिन्नेव -अवस्था में अविद्यमान रहता है, कुंभकारादिक के व्यापार के बाद ही वह उत्पन्न हुआ माना जाता है । इसलिये जो अकृत होता है वही किया जाता है कृत नहीं किया जाता, ऐसा मानना चाहिये। यह तीसरा पक्ष है। ___यदि कोई " कृतं क्रियते" इस व्यवहार को सत्य साबित करने के लिये ऐसा कहे कि-जिस समय में घटादिक कार्य बनना प्रारंभ होता है वह उसी समय में निष्पन्न हो जाता है इसलिये जब निष्पन्न ही घट किया जाता है तय “कृतमेव क्रियते" इस प्रकार के व्यवहार में कौनसी बाधा आती है ? सो ऐसा कहना भी ठीक नहीं है, क्यों कि उत्पद्यमान घटादिक कार्यों की उत्पत्तिरूप क्रिया का वह समय असंख्यातसमयरूप बहुत भारी काल है। ऐसा नहीं है कि जिस समय घट बनना प्रारंभ होता है वह उसी समय निष्पन्न हो जाता हैं। इसके बनने में तो बहुत समय लगता है। मिट्टी का लाना, उसका पिंड बनाना, उसे चक्र पर रखना शिवक आदि पर्याय में उसे परिणमित करना, इस प्रकार घट की उत्पत्ति होने में बहुत अधिक समय लग जाता है, અવસ્થામાં ઘટ તરીકે તે અવિદ્યમાન રહે છે. કુમ્ભકારાદિકના વ્યાપાર બાદ જ તે ઉત્પન્ન થયેલ માનવામાં આવે છે. આ માટે જે અકૃત હોય છે તેજ કરવામાં આવે છે. કૃત નથી કરાતું એવું માનવું જોઈએ. આ ત્રીજો મુદ્દો છે. તે ૩ છે “कृतं क्रियते" 21 व्यवहारने सायो सामीत ४२१। भाटे से કહે કે જે સમયમાં ઘટાદિ બનાવવાના કાર્યને પ્રારંભ થાય છે તે એ સમયમાં १३ थाय छे भाट न्यारे नि०५न्न घट ४२वामां माव छ. त्यारे "क्रियते" આ પ્રકારના વ્યવહારમાં કઈ બાધા આવે છે તેથી એમ કહેવું એ પણ ઠીક નથી. કેમકે, ઉપદ્યમાન ઘટાદિક કાર્યોની ઉત્પત્તિરૂપ ક્રિયાને તે સમય અસં. ખ્યાત સમયરૂપ ઘણે ભારે કાળ છે. એવું નથી કે, જે સમયે ઘટ બનવાને પ્રારંભ થાય છે તે તેજ સમયે નિષ્પન્ન થઈ જાય છે. તેના બનવામાં તે ઘણે સમય લાગે છે. માટીને લાવવી, તેને કચરીને તેને પિંડ બનાવે, તે પછી તેને ચાકડા ઉપર ચઢાવ, તેને આકાર આપવો, આ રીતે ઘટની ઉત્પત્તિ થવામાં ઘણું જ લાંબે સમય લાગે છે. આથી જે સમયે ઘટને બનાવવાનો ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #711 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६५६ उत्तराध्ययनसूत्रे समये घटादि प्रारभ्यते, तस्मिन्नेव समये निष्पद्यते, मृदानयनतत्पिण्डविधानचक्रारोपणशिवकादिविधानादिभिश्चिरकालेनैव तदुत्पत्तिर्भवति ॥ ४ ॥ अस्तु दीर्घः कार्यनिवर्तनक्रियाकालः क्रियायाः प्रथमसमय एव कार्य निष्पद्यते, इति चेन्न, यदि क्रियायाः प्रथमसमय एवं कार्य निष्पयेत, तहि तत् तत्रैवोपलभ्येत, न चारम्भसमय एव घटादिरूपं कार्य दृश्यते, नापि शिवकस्थास-कोश-कुशूलादिसमये दृश्यते । किंतु दीर्घक्रियाकालस्यान्ते घटादिरूपं कार्य दृश्यते, तस्मात् क्रियाया आरम्भकाले कार्य निष्पद्यते, इति कथनं न युक्तम् , तस्य अतः "जिस समय में घट का बनना प्रारंभ होता है वह उसी समय में बन जाता है" यह कहना अनुचित है। यह चौथा पक्ष है॥४॥ यदि कोई फिर भी ऐसा कहे कि कर्म को निर्वर्तन करने वाली क्रिया का काल भले ही अधिक हो इसमें हमें कोई आपत्ति नहीं है, परन्तु क्रिया से जो कार्य निष्पन्न होना होता है वह उस क्रिया के प्रथम समय में ही निष्पन्न हो जाता है, सो ऐसा कहना भी ठीक नहीं है। कारण कि यदि क्रिया के प्रथम समय में ही कार्य निष्पन्न हो जाता है तो वह उस समय ही दिखना चाहिये-परन्तु ऐसा तो होता नहीं है, और न विवक्षित कार्य कोश कुशल शिवक स्थासक आदि समयों में प्रतीत होता है, किन्तु दीर्घक्रियाकाल के अन्त में ही निष्पन्न हुआ दिखलाई देता है। इसलिये ऐसा मानना कि क्रियाके आरंभकाल में ही घट बनकर तैयार हो जाता है, यह कथमपि-किसी तरह भी युक्तियुक्त પ્રારંભ થાય છે એ જ સમયે તે બની જાય છે એમ કહેવું અનુચિત છે. આ થે મુદ્દો છે. છે ૪ જો કે ફરી પણ એમ કહે કે, કમને નિવર્તન કરવાવાળી ક્રિયાને કાળ ભલે અધિક હોય એમાં અમને કોઈ વાંધો નથી. પરંતુ ક્રિયાથી જે કાર્ય નિષ્પન્ન થવું જોઈએ તે એ ક્રિયાના પ્રથમ સમયમાં જ નિષ્પન્ન બની જાય છે. તેમ કહેવું પણ ઠીક નથી. કારણ કે, જે ક્રિયાના પ્રથમ સમયમાં જ કાર્ય નિષ્પન્ન થઈ જાય છે, તે તે તે સમયે જ દેખાવું જોઈએ પરંતુ એવું તે બનતું નથી. અને વિવક્ષિત કાર્ય, કેશ, કેદાળી, આકાર, સ્થાસક આદિ સમયમાં પ્રતીત થતું નથી. પરંતુ દીર્ધ ક્રિયાકાળના અંતમાં જ નિષ્પન્ન થયેલ દેખાય છે. આ માટે એવું માનીએ કે ક્રિયાના આરંભ કાળમાં જ ઘટ બનીને તયાર થઈ જાય છે. તે આ કેઈ પણ રીતે માની શકાય તેવું નથી. આથી ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #712 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रियदर्शिनी टीका अ०३ गा. ९ श्रद्धादौर्लभ्ये क्रियमाणकृतविषयकविचारः ६५७ तदानीमदर्शनात् । दीर्घक्रियाकालस्यान्ते तु कार्य भवितुमर्हति, तदानीमेव तस्य दर्शनात् । तदेवं न निर्वर्तनक्रियाकाले कार्यमस्ति, अनुपलभ्यमानत्वात् , किंतु तनिष्ठाकाल एव तदस्ति, तत्रैवोपलभ्यमानत्वात् , क्रियाकालनिष्ठाकालयोश्चात्यन्त. भेदात् , अतः क्रियमाणं कृतं न भवति । सर्वलोकप्रत्यक्षानुभवसिद्धमेवैतत् ॥५॥ इति जमालेः पूर्वपक्षः। एवं मार्गविच्युतं जमालिं प्रति स्थविराः प्रोचुः–आर्य ! किं विरुद्धवचनं वदसि ?, रागद्वेषरहितानां सर्वज्ञानां जिनानां वचने दोषलेशोऽपि नास्ति, नहि ते मृषा भाषन्ते । आर्य ! " कृतं न क्रियते, कृतत्वात् , कृतघटवत्" इति कुतर्कमानहीं हो सकता है, अतः " अनुपलभ्यमानत्वात् निर्वर्तनक्रियाकाले विवक्षितघटरूपं कार्य नास्ति इति मन्तव्यम्" जब यह बात निश्चित हो जाती है तो यह बात भी स्वतः मान लेनी पड़ती है कि कार्य अपने निष्ठाकाल में ही बनकर तयार होता है, क्यों कि वहीं पर उसकी उपलब्धि होती है । क्रियाकाल एवं निष्ठाकाल इन दोनों में अत्यन्त भेद है इसलिये क्रियमाण कृत नहीं कहा जा सकता। यह बात सर्वजन साक्षिक भी है । यह पांचवा पक्ष है, यह हुवा जमालि का पूर्व पक्षा॥५॥ ___इस प्रकार जमालि द्वारा स्थापित इस पूर्वपक्ष को सुनकर स्थविरों ने उनको मार्ग से च्युत जाना और इसलिये वे उनसे कहने लगे किहे आर्य ! विरुद्ध वचन आप क्यों कहते हैं ? रागद्वेषरहित सर्वज्ञ जिन भगवान के वचन अन्यथा नहीं होते हैं उनमें दोष का अंश भी संभवित नहीं हो सकता है । साधारण पुरुषों की तरह वे मिथ्याभाषी " अनुपलभ्यमानत्वात् निर्वर्तनक्रियाकाले विवक्षितघटरुपं कार्य नास्ति इति मंतव्यम्" જ્યારે આ નિશ્ચિત બની જાય છે તે એ વાત પણ આપ મેળે માની લેવી પડે છે કે, કાર્ય પિતાના એગ્ય વખતે જ બનીને તૈયાર થાય છે. કેમકે, તે સ્થળે તેની ઉપલબ્ધિ થાય છે. ક્રિયાકાળ અને નિષ્ઠાકાળ આ બન્નેમાં અત્યંત ભેદ છે. આ માટે ક્રિયા મા કહી શકાય નહીં. આ વાત સર્વજનથી સાક્ષીભૂત છે. આ પાંચમે મુદો. આ થયે જમાલિને પૂર્વપક્ષ. . ૫ આ પ્રકારે જમાલિ દ્વારા સ્થાપિત એ પૂર્વપક્ષને સાંભળીને વિરેએ જાણ્યું કે જમાલમુનિ ભગવાનના માર્ગથી ચલિત થયા છે. અને તે માટે તેઓ તેમને કહેવા લાગ્યા કે, હે આર્ય ! વિરોધ વચન આપ કેમ કહો છે? રાગદ્વેષરહિત સર્વજ્ઞ જીન ભગવાનનું વચન અન્યથા થતું નથી. તેમાં દોષને અંશ પણ સંભવિત થતું નથી. સાધારણ પુરૂષની માફક તે મિથ્યાભાષી પણ નથી. આપે જે અસત્કાર્યવાદને उ०८३ ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #713 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययनसूत्रे श्रित्याsसत्कार्यवादिना भवताऽभिधीयते, अकृतं खलु क्रियमाणं भवतीति, तत्र वयं सत्कार्यवादिनो ब्रूमः - निष्यमाणमेतद्भवदीयवचनम् । अकृतम् ( अविद्यमानं ) घटादिकार्य न क्रियते, असस्वात्, आकाशकुसुमवत् । यदि अकृतम् (अविद्यमानम् ) अपि क्रियते, तर्हि शशविषाणमपि क्रियताम्, अकृतत्वाविशेषात् (अविद्यमानत्वाविशेषात् ) । अपि च ये नित्यकरणादयो दोषाः सत्कार्यवादे प्रदत्तास्ते खल्वसरकार्यवादेऽपि तव सन्ति । विद्यमाने वस्तुनि करणक्रियाया अङ्गीकारे पुन:पुनरनवरतं करणक्रियाया अतिप्रसङ्गात् क्रियाया अपरिसमाप्तिः क्रियाया वैफल्यं नहीं हैं । आपने जो असत्कार्यवाद को लेकर कुतर्क का आश्रय करते हुए ऐसा कहा है कि - ' कृतं न क्रियते कृतस्वात्, कृतघटवत्' अर्थात्कृत होने से कृत किया नहीं जाता है जैसे कृत घट, अकृतं खलु क्रियमाणं भवति ' अर्थात् अकृत ही क्रियमाण होता है सो आपका यह कथन कथंचित् सत्कार्यवादी हमलोगों के चित्त में उतरता नहीं है भला आप को यह विचारना चाहिये जो सर्वधा असत् होता है-द्रव्य दृष्टि से भी जिसकी सत्ता कायम नहीं है ऐसा असत् पदार्थ कभी भी निष्पन्न नहीं हो सकता है । यदि इस प्रकार का भी पदार्थ निष्पन्न होने लगे तो शश विषाण को भी उत्पन्न होना चाहिये । दूसरे द्रव्य की अपेक्षा सत् को कार्य मानने पर जो आपने नित्यकरण होने की प्रसक्तिरूप दोष दिये हैं सो ये सभी दोष आपके असत्कार्यवाद में भी आते हैं, आपने जो यह कहा है कि विद्यमान वस्तु में करनेरूप क्रिया को अंगीकार करने पर पुनः पुनः अनवरत उस करनेरूप क्रिया का अतिप्रसंग प्राप्त होता है स्वीहारी हुतुनो आश्रय सर्धने येवु अधुं छे हैं, कृतं न क्रियते कृतत्वात् શ્વેત બટર્ અર્થાત્ કૃત થવાથી કૃત કરેલ મનાતુ નથી જેવી રીતે કૃત ઘટ, अकृतं खलु क्रियमाणं भवति अर्थात् न्यारे अछूत ४ डियमाणु होय छे. मेथी આપનું આ કથન કથČચિત્ સત્કાર્ય વાદી અમારા લેાકેાના દિલમાં ઉતરતુ' નથી. આપે એ વિચારવું જોઈ એ કે, જે સર્વથા અસત્ હોય છે દ્રવ્યદૃષ્ટિથી પણજેની સત્તા કાયમ નથી એવા અસત્ પદાથ કઢી તૈયાર થઈ શકતા નથી. જો કદી આ પ્રકારના પણ પદાર્થ પુરા થયેલા માનવામાં આવે તેા ખવિષાણુ (ગધેડાંને શીગડાં) પણ ઉત્પન્ન થવાં જોઇએ. દ્રવ્યની અપેક્ષા સત્ને કાર્ય માનવાથી જે આપે નિત્યકરણ હાવાના પ્રશસ્તીરૂપ દોષ આપ્યા છે, તે સઘળા દોષ આપના અસતકાર્ય વાદમાં પણ આવે છે. આપે જે એમ કહ્યું કે, વિદ્યમાન વસ્તુમાં કરવારૂપ ક્રિયાને ગિકાર કરવાથી ફરી ફરી અનવરત એ કરવારૂપ ક્રિયાના સ ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર ઃ ૧ , Page #714 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रियदर्शिनी टीका. अ०३ गा० ९ श्रद्धादौलभ्ये क्रियमाणकृतविषयक विचारः ६५९ चेति दोषद्वयं यदुक्तं, तद् भवन्मतेऽपि शक्यते वक्तुम् , यथाऽस्मत्स्वीकृते कृतपक्षे दोषा भवता प्रदीयन्ते, तथा भवदङ्गीकृते अप्यकृतपक्षेऽपि एते दोषाः आपतन्ति । तथाहि-यद्यकृतम्-(अविद्यमानं) क्रियते, तर्हि नित्यमेव क्रियताम् , शश विषाणकल्पस्यासतः करणं कथमुपरमेत। तादृशे कार्ये समुत्पाये क्रियाया वैफल्यमपि तव दुर्वारम् , असतः कदाप्युत्पत्त्यभावात् । इससे प्रथम तो करण-क्रिया की वहां कभी भी समाप्ति नहीं हो सकती है १, दूसरा वहां करणक्रिया की विफलता भी आती है २ । जब पदार्थ स्वयं मौजूद है तो वहां करनेरूप क्रिया सफलित कैसे हो सकती है ? इस प्रकार कृत करण मानने पर आपने ये जो क्रिया की असमाप्ति १ और क्रिया की विफलता २ ये दो दोष दिये हैं सो ये दोनों दोष आपके मन्तव्य में भी आते हैं, और वे इस प्रकार से यदि " अविद्यमान ही किया जाता है। यह बात ही एकान्ततः स्वीकार की जाय तो उसको भी नित्य ही होते रहना चाहिये, क्यों कि जो शश विषाण की तरह सर्वथा असत् है उसकी करनेरूप क्रिया का विराम कैसे हो सकता है। दूसरे असत् की जब उत्पत्ति ही नहीं होती है तो असत्कार्य की उत्पत्ति में क्रिया की सफलता भी कैसे हो सकती है । वह तो वहां बिलकुल निष्फल ही होगी, क्यों कि उसकी उससे उत्पत्ति तो हो नहीं सकती है, कारण वह असत् है इसलिये। અતિ પ્રસંગ પ્રાપ્ત થાય છે. તેનાથી પ્રથમ તે કરણ ક્રિયાની ત્યાં કદી પણ સમાપ્તિ થતી નથી. બીજું ત્યાં કરણ ક્રિયાની વિફળતા પણ આવે છે જ્યારે પદાર્થ સ્વયં મેજુદ છે તે ત્યાં કરવારૂપ કિયા ફળીભૂત કેમ થઈ શકે? આ પ્રકારથી કૃતને કરણ માનવાથી આપે જે ક્રિયાની અસમાપ્તિ અને ક્રિયાની વિફળતારૂપ બે દેષ આપેલ છે તે આ બન્ને દેષ આપના મંતવ્યમાં પણ આવે છે. અને તે આ પ્રકારથી–જે “અવિદ્યમાન જ કરવામાં આવે છે” આ વાત જ એકાન્તતઃ સ્વીકાર કરવામાં આવે તે તેને પણ નિત્ય જ બની રહેવું જોઈએ. કેમકે જે શશવિષાણુની (સસલાના શીંગ) માફક સર્વથા અસત્ છે. તેના કરવારૂપ કરવાને વિરામ કઈ રીતે હોઈ શકે? બીજા અસની જ્યારે ઉત્પત્તિ થતી નથી તે અસત કાર્યની ઉત્પત્તિમાં ક્રિયાની સફળતા પણ કેવી રીતે હોઈ શકેએ તે તદન નિષ્ફળ જ થવાની. કેમકે, તેનાથી ઉત્પત્તિ તે બની શકતી નથી. કારણ તે અસત છે માટે. ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #715 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६० उत्तराध्ययनसूत्रे भवत्सम्मते दोषास्तुल्या एव नहि, प्रत्युत कष्टतरकाः, यतः-अस्मत्पक्षे विद्यमाने वस्तुनि पर्यायविशेषाधानद्वारेण कथंचित् करणक्रिया उपपद्यत एव, भवन्मते तु अविद्यमाने वस्तुनि अयं न्यासः सर्वथा न सम्भवति, सर्वथा असत्त्वात् , खरविषाणवत् । इति पक्षद्वयस्योत्तरम् ॥ १॥२॥ अथ सत्कार्यवादे यस्तृतीयो दोषः प्रदत्तः-प्रत्यक्षविरोध इति सोऽपि भवन्मते कथंचित् सत्कार्य की उत्पत्ति का तात्पर्य यह है कि विवक्षित कार्य द्रव्यरूप से तो सत् है परन्तु पर्यायरूप से तो असत् है अतः इस अपेक्षा वस्तु विद्यमान है तो भी वह विवक्षित पर्याय की अपेक्षा से विद्यमान नहीं भी है इसलिये विवक्षित पर्यायरूप उसे उत्पन्न करने के लिये करणरूप क्रिया सार्थक मानी जाती है। परन्तु जो इस बात को ही एकान्ततः मान्य करता है कि "सर्वथा असत् के ही उत्पाद होने पर करण-क्रिया को सफलता होती है उसका वह बड़ा भ्रम है। यहां उसकी किसी भी अपेक्षा से सफलता साबित ही नहीं हो सकती है, क्यों कि जब वस्तु सर्वथा असत् है तो वह द्रव्यदृष्टि से भी असत् है, इसलिये सर्वथा तुच्छाभाव स्वरूप होने से शशविषाण की तरह उसका स्वप्न में भी उत्पाद नहीं हो सकता है। ॥ यह प्रथम के दो पक्षों का उत्तर हुआ ॥१॥२॥ सत्कार्यवाद में जो प्रत्यक्षविरोधरूप तीसरा दोष दिया गया है, यह भी आपके ही मत में दुनिवार है, वह इस तरह से यदि कारण कि કહેવાયેલ સત્કાર્યની ઉત્પત્તિનું તાત્પર્ય એ છે કે, વિવક્ષિત કાર્ય દ્રવ્યરૂપથી તે સત છે. પણ પર્યાય રૂપથી અસત્ છે. આથી એ અપેક્ષાએ વસ્તુ વિદ્યમાન હોવા છતાં પણ તે વિવક્ષિત પર્યાયની અપેક્ષાથી વિદ્યમાન થતું નથી. આ માટે વિવક્ષિત પર્યાયરૂપ તેને ઉત્પન્ન કરવા માટે કારણરૂપ કિયા સાર્થક માનવામાં આવે છે. પરંતુ જે આ વાતને એકાન્તતઃ માન્ય કરે છે કે, “સર્વથા અસતનું જ ઉત્પાદન થવાથી કરણકિયાની સફળતા બને છે” એ તેને મેટો ભ્રમ છે. ત્યાં તેની કઈ પણ અપેક્ષાથી સફળતા સાબીત થતી નથી. કેમકે, જ્યારે વસ્તુ જ સર્વથા અસત છે તે તે દ્રવ્યદષ્ટીથી પણ અસત છે. આ માટે સર્વથા તુચ્છાભાવ સ્વરૂપ હોવાથી સસલાના શિંગડાની માફક તેનું સ્વપ્નામાં પણ ઉત્પન્ન થવું સંભવ નથી. આ પ્રથમના બે મુદ્દાને ઉત્તર થયે. ૧ાારા સત કાર્યવાદને જે પ્રત્યક્ષ વિરોધરૂપ ત્રીજે દેષ આપવામાં આવેલ છે તે પણ આપનાજ મતમાં વાળી ન શકાય તેમ છે. તે આ રીતે જે કરણની ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #716 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रियदर्शिनी टीका अ० ३ गा० ९ श्रद्धादौलभ्येक्रियमाण कृतविषयकविचारः ६६१ दुर्वारः, तथाहि-यदि पूवम् (कारवापत्वापात् ) असत् ( अविद्यमानं ) कार्य जायते, तर्हि मृत्पिण्डाद् कुम्भवत् , शशशृङ्गमपि जायमानं किं न दृश्यते, असत्त्वा विशेषात् ? । अथ शशशृङ्गमुत्पद्यमानमपि न दृश्यते, तर्हि घटोऽपि तथैवास्तु, उत्पधमानत्वाविशेषात् । अथवा-मृत्पिण्डात् पटोऽपि उत्पद्यताम् , असत्वाविशेषात्॥३॥ अपेक्षा भी कार्य असत् है, और वह उससे उत्पन्न होता है तो जिस प्रकार मृतपिंड से घट उत्पन्न होता है उसी तरह शशशंग भी उससे उत्पन्न होते दिखना चाहिये, क्यों कि जिस प्रकार मृत्पिड में घट विद्यमान नहीं है उसी प्रकार शशविषाण भी वहां विद्यमान नहीं है फिर अविद्यमान की अविशेषता होने पर भी मृत्पिड से घट ही क्यों उत्पन्न होता है शशशृंग क्यों नहीं है। यदि इसके ऊपर ऐसा कहा जाय कि शशशंग भी मृत्पिडसे उत्पन्न होता है परन्तु वह दिखता नहीं है तो हम भी यह कह सकते हैं कि इसी तरह उससे जायमान घट भी नहीं दिखना चाहिये, अतः यह मानना ही चाहिये कि अपने कारण में किसी अपेक्षा कार्य रहा हुआ है तभी जाकर वह उससे ही उत्पन्न होता है अन्य से नहीं । नहीं तो फिर क्या है चाहे जिससे चाहे जैसा पदार्थ उत्पन्न होने लगेगा। ऐसी स्थिति में मृत्तिका से पट की भी उत्पत्ति माननी पड़ेगी ॥३॥ અપેક્ષાથી કાર્ય અસત છે અને તે એનાથી ઉત્પન્ન થાય છે. તે જ રીતે માટીના પિંડથી ઘટ ઉત્પન્ન થાય છે. એ જ રીતે સસલાને શીંગડાં પણ થતાં દેખાવાં જોઈએ. કેમકે જે રીતે માટીના પિંડમાં ઘટ વિદ્યમાન નથી એજ રીતે સસલાને પણ શીંગડાં વિદ્યમાન નથી. પછી અવિદ્યમાનની વિશેષતા હેવાથી પણ મૃત પિંડથી ઘટ જ કેમ ઉત્પન્ન થાય છે? સસલાનાં શીંગ કેમ નહીં ? જે આ અંગે એમ કહેવામાં આવે કે, સસલાનાં શિંગ પણ માટીના પિંડાથી ઉત્પન્ન થાય છે પરંતુ તે દેખતાં નથી તે અમે પણ એમ કહી શકીએ કે, એ રીતે એનાથી તૈયાર થનાર ઘટ પણ ન દેખાવો જોઈએ. આથી એ માનવું જોઈએ કે, પોતાના કારણમાં કેઈ અપેક્ષા કાર્ય રહેલ છે ત્યારે જ તે તેમાંથી ઉત્પન્ન થાય છે. બીજાથો નહીં. એમ ન હોય તે પછી ગમે તે ચીજથી ગમે તે પદાર્થ ઉત્પન્ન થવા લાગશે. આવી સ્થિતિમાં માટીથી પટની પણ ઉત્પત્તિ માનવી પડશે. છેડા ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #717 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययनसूत्रे ___ यदुक्तं-घटादीनां दीर्घ एव निर्वर्तनाक्रियाकालो दृश्यते, इति, अर्थात्मृदानयनमर्दनपिण्डविधानादिकालः सर्वोऽपि घटनिवर्तनक्रियाकाल इति भवता मन्यते, तदप्ययुक्तमेव, तत्र प्रतिसमयमन्यान्येव मृत्पिण्डशिवकादीनि कार्याणि आरभन्ते, निष्पाधन्ते च, कार्यस्य करणकालनिष्ठाकालयोरेकत्वात् । घटस्तु पर्यन्तसमय एवारभ्यते, तत्रैव च निष्पद्यते इत्यस्य निर्वर्तनक्रियाकालो दी? नास्ति एवं च-घटो मृद्रव्यस्य पर्याय इति मन्यस्व ॥ ४ ॥ घटादिकों की उत्पत्तिरूप क्रिया का काल दीर्घ ही है, अर्थात् मिट्टी का लाना, उसका मसलना, फिर उसका पिण्ड बनाना, इत्यादि कार्यों का जितना भी काल है वह सब घट की निर्वर्तनरूप क्रिया का ही काल है, ऐसा जो आप कहते हैं सो भी उचित नहीं है, क्यों कि वह घट का काल नहीं है वहां तो प्रतिसमय अन्य अन्य ही मृत्तिंड, शिवकादिक कार्य प्रारंभ होते जाते हैं और बनते जाते हैं अतः वह उसका काल है । कार्य का कारणकाल और निष्ठाकाल दोनों एक होते हैं। घट तो पर्यन्त समय में ही आरंभ होता है और उसी समय में वह बनकर तयार होता है । इसलिये यह काल कि जिस समय में शिवका आदि कार्य हो रहे हैं घट का काल नहीं माना जा सकता है । घट का काल वही माना जायगा कि जिसमें वह बनकर तयार हुआ है। इसलिये ऐसा कहना कि-घट का निर्वृत्तिकाल बहुत दीर्घ है, उचित नहीं है, अतः घट अपने उपादानकारणस्वरूप होने से मिट्टीस्वरूप द्रव्य की एक पर्याय है॥४॥ ઘટ આદિની ઉત્પત્તિરૂપ કિયાને કાળ દીર્ઘ જ છે. માટીને લાવવી, તેને મસળવી, તેને પિંડ બનાવ, ઈત્યાદિ કાર્યોને જેટલે પણ કાળ છે, તે સઘળે ઘટની તૈયાર થવારૂપ ક્રિયાને જ કાળ છે. એવું જે આપ કહે છે તે પણ ઠીક ઉચિત નથી. કેમકે તે ઘટને કાળ નથી ત્યાં તે પ્રતિ સમય જુદા જુદા માટીના પિડ, શિવકાદિક કાર્ય પ્રારંભ થતું રહે છે, અને બનતાં જાય છે. આથી તે એને કાળ છે. કાર્યને કારણે કાળ અને નિષ્ઠાકાળ બને એક હોય છે. ઘટ તે સમયમાં જ આરંભ થાય છે. અને એ જ સમયે તે બનીને તૈયાર થઈ જાય છે. આ માટે તે કાળ કે જે સમયમાં શિવકા આદિ કાર્ય થાય છે. તે ઘટને કાળ માનવામાં આવતું નથી. ઘટનો કાળ એજ માનવામાં આવે કે, જેટલા સમયમાં તે બનીને તૈયાર થયેલ છે. આ માટે એમ કહેવું કે, ઘટને તૈયાર થવાને કાળ ખૂબ લાંબે છે તે ઉચિત નથી. આથી ઘટ પિતાના ઉપાદાન કારણરૂપ હોવાથી માટી રૂપી દ્રવ્યની એક પર્યાય છે. પાકા ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #718 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रियदर्शिनी टोका. अ० ३ गा० ९ श्रद्धादौर्लभ्येक्रियमाणकृतविषयक विचारः ६६३ ननु - क्रियासमयः सर्वोऽपि क्रियमाणकालः तत्र च क्रियमाणं घटादिरूपं वस्तु नास्त्येव, उपरतायां तु क्रियायां योऽनन्तरसमयः स कृतकालस्तत्रैव कार्य निष्पत्तेः, अतः कृतमेव कृतमुच्यते न तु क्रियमाणं कृतमितिचेदुच्यतेसाध्वेतत् किंतु इदं प्रष्टव्योऽसि भवन्मते किं क्रियया कार्य क्रियते, अक्रिया वा ? | " यदि क्रियया, तर्हि तव मते इयमन्यत्र, कार्य तु अन्यत्र, इति कथमुपपद्येत । शंका- क्रिया का सब ही समय क्रियमाण का काल है, उसमें क्रियमाण घटादिरूप वस्तु है ही नहीं । जब क्रिया समाप्त हो जायगी तब जो अनन्त समय होगा वही कृत का काल कहलायगा क्यों कि उसमें ही कार्य की निष्पत्ति होती है, इसलिये "क्रियमाणं कृतं " ऐसा व्यवहार कैसे हो सकेगा-कृत ही कृत ऐसा व्यवहार होना चाहिये । शंका तो यह ठीक है परन्तु हम आपसे इस विषय में केवल इतना ही पूछना चाहते हैं कि क्रियाद्वारा कार्य किया जाता है कि अक्रियाद्वारा। यदि कहो कि क्रियाद्वारा कार्य किया जाता है तो क्रिया किसी काल में होती है, और कार्य किसी और दूसरे समय में होता है यह बात कैसे बन सकेगी ? क्यों कि कार्य जिस समय में है वहां क्रिया नहीं, और जिस समय में क्रिया है वहां कार्य नहीं । ऐसा तुम स्वयं कह रहे हो - सो यह बात इस पक्ष में घटित नहीं होती है । ऐसा तो होता नहीं है कि छेदन क्रिया तो खदिरमें और उसका कार्य छेद हो पलाश वृक्षमें । શકા—ક્રિયાના સઘળા સમય ક્રિયમાણ કાળ છે, તેમાં ક્રિયમાણ ઘટાદિરૂપ વસ્તુ છે જ નહી'. જ્યારે ક્રિયા પુરી થાય ત્યારે જે અનંતર સમય હશે તે જ કૃતના आज अडेवाशे डेभङे, तेभांन अर्यनी निष्यत्ति होय छे. आ भाटे "क्रियमाणं कृतम् " એવા વહેવાર કેમ થઈ શકે? કૃત જ કૃત છે એવા વહેવાર હોવા જોઇએ. ઉત્તર-શંકા તા એ ઠીક છે પણ અમે આપને આ વિષયમાં કેવળ એટલુંજ પૂછવા માગીએ છીએ કે, ક્રિયા દ્વારા કાર્ય કરવામાં આવે છે કે અક્રિયા દ્વારા ? જો કહે! કે, ક્રિયા દ્વારા કાર્ય કરાય છે તે ક્રિયા કયા કાળમાં થાય છે? અને કાય કાઈ ખીજા સમયમાં થાય છે એ વાત કઈ રીતે બની શકે ? કેમકે, કાય જે સમયમાં છે ત્યાં ક્રિયા નથી. અને જે સમયમાં ક્રિયા છે ત્યાં કાર્ય નથી. એવું તમે પાતે કહી રહ્યા છે તે આ વાત આ પક્ષમાં ટકી શકતી નથી. એવું તા થતું નથી કે, છેદન ક્રિયા તા થાય ખદીરમાં અને તેને કાય છેઃ હાય પલાશ વૃક્ષમાં? જ્યાં ક્રિયા હશે ત્યાં તેનું કાય હશે. પણ આપ જે એવુ’ કહા ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર ઃ ૧ Page #719 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - - - -- उत्तराध्ययनसूत्रे तथाहि-तवमते यस्मिन् समये क्रियायाः संम्बन्धः, तदन्यसमये कायस्य सम्बन्धः इति नोपपद्यते, खदिरे हि छेदनक्रिया, पलाशे तु तत्यायभूतच्छेदः इति केनाप्युच्यमानं न युज्यते । किंच-क्रियाकाले कार्य न भवति, किंतु पश्चाद् भवति, इति भवन्मते क्रिया उत्पत्स्यमानस्य कार्यस्य विघ्नभूता भवति । यतः यावत् कालं क्रिया प्रवर्तते तावति काले कार्य नोत्पद्यते, तस्मात् क्रियैव सर्वानर्थमूलं स्यात् , ततो भवन्मते विपययज्ञानवतामेव प्रवृत्तिः स्यात् । ____ अथ यदि क्रियैव कार्य करोति, केवलं तनिष्पत्तिमा क्रियाविरामे भवति, तेन क्रियायाः कार्यान्तरायत्वं नापद्येत, इति चेत्-उच्यते जहाँ क्रिया होगी वहीं पर उसका कार्य होगा। अतः आप जो ऐसा कहते हो कि क्रियमाण के काल में कार्य नहीं और जो अनन्तर समय है वहां क्रियमाण वस्तु नहीं वह तो कृत का काल है, सो ऐसा कहना कैसे अच्छा माना जा सकता है ? ___ और भी–क्रिया के काल में कार्य नहीं होता है किन्तु वह पीछे से होता है इस प्रकार के कथन से यह बात भी साबित होती है कि क्रिया ही आगे उत्पन्न होने वाले कार्य में विघ्नभूत है, क्यों कि जब तक क्रिया होती रहती है तब तक तो वह कार्य होता नहीं है बाद में क्रिया की उपरति में होता है । इसलिये मालूम पडता है कि आपके मत में विपरीत ज्ञान की ही प्रवृत्ति होती है। ___यदि " कार्य तो क्रिया ही करता है परन्तु कार्य की निष्पत्ति ही उसके विराम होने पर होती है इस लये क्रिया में कार्य के प्रति अन्तराय नहीं आती है" ऐसा कहा जाय तो इस पर यही कहा जा सकता કે, ક્રિયામાણના કાળમાં કાર્ય નહીં અને જે અનંતર સમય છે ત્યાં ક્રિયમાણ વસ્તુ નહીં. એ તે કૃતને કાળ છે. તે એવું કહેવું કઈ રીતે સારૂં માની શકાય. કિચ-ક્રિયાના કાળમાં કાર્ય થતું નથી પરંતુ તે પછીથી થાય છે આ પ્રકારનું કહેવાથી એ વાત પણ સાબિત થાય છે કે, ક્રિયા જ આગળ ઉત્પન થનાર કાર્યમાં વિનભૂત છે. કેમકે, જ્યાં સુધી ક્રિયા થતી રહે ત્યાં સુધી તે તે કાર્ય થતું જ નથી. એ પછી ક્રિયાની ઉપતિમાં થાય છે. એથી માલુમ પડે છે કે, આપના મનમાં વિપરીત જ્ઞાનવાળાની જ પ્રવૃત્તિ થાય છે. જે “કાર્ય તે ક્રિયા જ કરે છે પરંતુ કાર્યની નિષ્પત્તિજ તેને વિરામ થવાથી જ થાય છે. આ માટે ક્રિયામાં કાર્ય પ્રતિ અંતરાય આવતું નથી.” ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #720 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रियदर्शिनी टीका. अ० ३ गा. ९ श्रद्धादौर्लभ्येक्रियमाणकृतविषयकविचारः ६६५ ___ यद्येवं, तर्हि कार्य कुर्वत्या अपि क्रियायाः कार्यस्य को विरोधः, येन क्रियाकाले कार्य नोत्पद्येत किंतु क्रियाकालमतिवायैव समुत्पद्येत, यदि कार्य क्रियोपरमेऽपि जायते, तर्हि क्रियाकाले तु कार्येण अवश्यमेवोत्पत्तव्यम् , कार्यमुत्पादयन्स्याः क्रियायाः कार्योपकारकत्वेन पुत्रस्य जनन्या इव विरोधाभावात् । तस्मात् क्रियाकाले एव कार्य निष्पद्यते इति युक्तम् । ___किंच-क्रियोपरमे कार्यमुत्पद्यते, इति भवन्मते क्रियाया अनारम्भेऽपि कार्य कस्मान स्यात् , क्रियानारम्भ-तदुपरमयोरर्थतोऽभिन्नत्वात् । क्रियाया उपरम नामो है कि फिर इस प्रकार के कथन से कार्य को करने वाली क्रिया से कार्य का क्या विरोध हो सकता है कि जिससे क्रिया काल में कार्य उत्पन्न नहीं होता है-उसके बाद में होता है, ऐसा आपका कथन अच्छा माना जा सके । यदि कार्य क्रिया के बाद में भी होता है, तो इसका तात्पर्य यह भी हो सकता है कि कार्य क्रिया काल में अवश्य ही होना चाहिये। जिस प्रकार माता और पुत्र का कोई विरोध नही होता है, उसी प्रकार कार्य को उत्पन्न करने वाली क्रिया का कार्य के साथ भी विरोध कैसे हो सकता है । इसलिये यही मानना चाहिये कि क्रिया काल में ही कार्य उत्पन्न होता है। ___और भी-यदि क्रिया के विराम में कार्य उत्पन्न होता ऐसा माना जाय तो जिस समय क्रिया का अनारंभ है, उस समय भी कार्य क्यों नहीं होता है। क्रियाका उपरम और अनारंभ ये दोनों बातें एकार्थक हैं। એવું કહેવામાં આવે તે એની સામે એ કહેવામાં આવે કે આ પ્રકારના કથનથી કાર્યને કરવાવાળી ક્રિયાથી કાર્યને કઈ રીતે વિરોધ થઈ શકે કે જેનાથી ક્રિયાકાળમાં કાર્ય ઉત્પન્ન થતું નથી ? એના પછી જ થાય છે, એવું આપનું કથન બરોબર માનવામાં આવે. જે કાર્ય ક્રિયાની પછીથી થાય છે તે એનું તાત્પર્ય એ પણ થઈ શકે કે કાર્ય ક્રિયા કાળમાં અવશ્ય થવું જ જોઈએ.. જે રીતે માતા અને પુત્રને કેઈ વિરોધ થઈ શકતું નથી એજ રીતે કાર્યને ઉત્પન્ન કરનાર કિયાને કાર્યની સાથે વિરોધ કઈ રીતે થઈ શકે? આથી એ માનવું જોઈએ કે, ક્રિયાકાળમાં જ કાર્ય ઉત્પન્ન થાય છે. ફરી જે ક્રિયાના વિરામમાં કાર્ય ઉત્પન્ન થાય એવું માનવામાં આવે તે જે સમયે ક્રિયાને અનારંભ હોય તે સમયે પણ કાર્ય કેમ થતું નથી ? કાર્યને ઉપરમ અને અનારંભ આ બનને વાતે એકાWક છે. ચાહે ક્રિયાને ઉપરમ કહે उ०८४ ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #721 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ED उत्तराध्ययनसूत्रे क्रियाया अभावः, स यथा क्रियायाः परिसमाप्ती, तथा क्रियाया अनारम्भेऽपि । ____ अथ यदि अक्रियया कार्य क्रियते, इति द्वितीयः पक्ष आश्रीयते, तर्हि हिमवन्मेरुसमुद्रादिवद् घटादयोऽप्यकृता एव स्युः, तद्वत् तेषामपि कारणभूतक्रियामन्तरेणैव सद्भावापत्तेः । मोक्षार्थ तपास्वाध्यायादीनां विधानं साधूनां व्यर्थ स्यात्, तव मते क्रियामन्तरेणैव सर्वकार्योत्पत्तेः । अतो भुवनत्रयवर्तिनः सर्वेऽपि लोकास्तूष्णींभावमाश्रित्य निरुद्योगा निराकुलास्तिष्ठन्तु, क्रियारम्भमन्तरेणैव ऐहिकामुष्मिकसकलसमीहितसिद्धेः। न चैवं भवति, तस्मात् क्रियैव कार्यस्य कर्ती, क्रियाचाहे क्रिया का उपरम कहो या चाहे अनारम्भ कहो दोनों में कोई अर्थभेद तो है नहीं। भले ही शब्दभेद रहे । क्रिया का उपरम अर्थात् क्रिया का अभाव वह जैसा उसकी परिसमाप्ति में होता है उसी प्रकार उसकी अनारम्भ अवस्था में भी वह है। ___अक्रिया कार्य को करती हैं यह द्वितीयपक्ष यदि स्वीकार किया जावे तो जिस प्रकार सुमेरुपर्वत हिमवान् पर्वत एवं समुद्र आदि विना किये हुए ही हैं उसी प्रकार घटादिक भी विना किये हुए ही मान लेने पडेंगे, क्यों कि इनकी कारणभूत क्रिया के अभाव में भी सद्भूति तो देखी जा रही है । साधुओं को मोक्ष के लिये तप एवं स्वाध्याय आदि का जो विधान है वह भी फिर व्यर्थ मानना चाहिये, क्यों कि आपके मन्तव्यानुसार क्रिया के विना ही समस्तकार्यों की उत्पत्ति का पक्ष स्वीकार किया जा रहा है। इसलिये आपकी मान्यतानुसार तो समस्त तीनों लोक के जीवों को चुपचाप होकर ही बैठ रहना चाहिये-कुछ भी कामकाज नहीं करना चाहिये, क्योंकि અથવા અનારંભ કહે બનેમાં કોઈ અર્થ ભેદ નથી શબ્દમાં ભલે હોય ક્રિયાને ઉપરમ અર્થાત ક્રિયાને અભાવ તે જેમ એની પરિ સમાપ્તિમાં થાય છે, એજ રીતે એની આરંભ અવસ્થામાં પણ તે છે. અકિયા કાર્યને કરે છે એ આ બીજો પક્ષ જે સ્વીકારવામાં આવે તે જે રીતે સુમેરૂ પર્વત હિમવાન પર્વત અને સમુદ્ર વગેરે વગર કયે થયેલ છે, એ પ્રકારે ઘટાદિકને પણ કર્યા વગર થયેલ માની લેવા પડે. કેમકે, એની કારણભૂત ક્રિયાના અભાવમાં પણ સર્ભતિ તે જોવામાં આવે છે. સાધુઓ માટે મોક્ષને મેળવવા તપ અને સ્વાધ્યાય વગેરેનું જે વિધાન છે તે પણ પછી વ્યર્થ માનવું જોઈએ. કેમકે, આપના મંતવ્ય અનુસાર ક્રિયાના વગર જ સમસ્ત કાર્યોની ઉત્પત્તિને પક્ષ જે સ્વીકાર કરવામાં આવે છે. આથી આપની માન્યતા અનુસાર તે ત્રણે લોકના જીએ ચુપચાપ થઈને બેસી રહેવું જોઈએ, કાંઈ પણ કામકાજ ન કરવું જોઈએ. કેમકે, એમનાં જેટલાં આ લોક અને ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #722 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रियदर्शिनी टीका. अ० ३ गा. ९ श्रद्धादौर्लभ्ये क्रियमाणकृतविषयक विचारः ६६७ काल एव कार्य भवति, न तु तदुपरमे । अतः क्रियमाणमेव कृतं भवतीति स्थितम् । किंच- यदि भवन्मते क्रियान्तसमय एवाभिमतकार्यनिष्पत्तिः, तत्रापि प्रथमसमयादारभ्य कार्यस्य कियताऽप्यंशेन निष्पत्तिरेष्टव्या । अन्यथा कथमकस्मादन्तिमसमये सा निष्पत्तिर्भवेत् । उक्तश्च - " आद्यतन्तुप्रवेशे च, नोतं किंचिद् यदा पटे । अन्त्य तन्तुप्रवेशे च, नोतं स्यान्न पटोदयः ॥ १ ॥ तस्माद्यदि द्वितीयादि - तन्तुयोगात् प्रतिक्षणम् । किंचित्किञ्चिदुतं तस्य यदुतं तदुतं हि तत् ॥ २ ॥ " इति ॥ उनके जितने भी इस लोकसंबंधी एवं परलोकसंबंधी काम हैं वे सब विना कुछ किये ही सिद्ध हो जायेंगे । परन्तु ऐसा तो होता नहीं है । इसलिये यह मानना ही पड़ता है कि क्रिया ही कार्य की करने वाली है, अर्थात् क्रिया काल में ही कार्य होता है । तथा - यदि आपके मतानुसार क्रिया के अन्तिम क्षण में ही कार्य की निष्पत्ति होती है, तो भी आप को क्रिया के प्रथम समय से लेकर ही कार्य के थोडे २ अंश की निष्पत्ति माननी होगी । अन्यथा अन्तिम समय में कार्य की आकस्मिक निष्पत्ति कैसे होगी ? किन्तु नहीं होगी । इसलिये क्रिया के प्रत्येक क्षण में कार्य का थोड़ा थोड़ा अंश बनता है, अन्तिम समय में कार्य पूर्णतया निष्पन्न होता है, ऐसा मानना ही चाहिये । कहा भी है यदि पट में प्रथमतन्तु के प्रवेश होने पर पट का कुछ अंश का बुना जाना न मानें तो अन्तिम तन्तु के प्रवेश होने पर पट के कुछ પરલેાક સ`ખ'ધી કામ છે તે બધાં કાર્ય કર્યાં વગર જ સિદ્ધ થઈ જવાનાં. પરંતુ એમ બનતું નથી આથી એ માનવું પડે છે કે, ક્રિયાજ કાર્યાં કરવાવાળી છે. ક્રિયાકાળમાં જ કાય થાય છે. તથા–જો કદાચ આપના મત અનુસાર ક્રિયાની અંતિમ ક્ષણમાં જ કાર્યની નિષ્પત્તિ થાય છે તેા, પણ આપે ક્રિયાના પ્રથમ સમયથી માંડીને જ કાર્યના ચાડા થાડા અંશની નિષ્પત્તિ માનવી પડશે. એના વગર છેલ્લી ઘડીમાં કાયની આકસ્મિક નિષ્પત્તિ કઈ રીતે થાય ? ન જ થાય! આ માટે ક્રિયાની પ્રત્યેક ક્ષણમાં કાના ચાડો થાડો અંશ બને છે અને અ ંતિમ સમયે કા પૂર્ણ थतां तैयार थाय छे. येवु मानवं लेह मे. उधु पशु छे. કદાચ પટમાં પ્રથમ તંતુના પ્રવેશ થવાથી પઢના વણાટના થાડા પશુ ભાગ વાચા ન માનવામાં આવે તેા છેલ્લા તંતુને પ્રવેશ થતાં પટના ફાઈ ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર ઃ ૧ Page #723 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६८ उत्तराध्ययनसूत्रे अनुमानप्रयोगश्वेत्थम् यद्यस्याः क्रियाया आधसमये न भवति तत्तस्या अन्त्यसमयेऽपि न भवति, यथा घटक्रियाया आदिसमये तु अनिष्पधमानः पटोऽन्त्यसमयेऽपि न भवति, अन्यथा घटान्तसमयेऽपि पटोत्पत्तिः स्यादिति । एवं च " यथा वृक्षो धवश्चेति न विरुद्धं मिथो द्वयम् । क्रियमाणं कृतं चेति न विरुद्धं तथोभयम् ॥१॥” इति ॥ भी अंश का चुना जाना नहीं माना जा सकता और न पट की निष्पत्ति ही मानी जा सकती है । इसलिये द्वितीय आदि तन्तु के संयोग से प्रत्येक क्षण में पट का कुछ न कुछ अंश बुना ही जाता है, वह बुना हुआ पटांश पट ही है । इसका साधक अनुमान इस प्रकार है जो कार्य जिस क्रिया के आदि क्षण में नहीं होता है वह उसके अन्तिम क्षण में भी नहीं होगा, जैसे घट क्रिया के आदि क्षण में न होता हुआ पट उस क्रिया के अन्तिम क्षण में भी नहीं होता है। अन्यथा घट क्रिया के अन्तिम क्षण में पट की भी उत्पत्ति होने लगेगी। इसलिये क्रिया के प्रत्येक क्षण में कार्य के कुछ न कुछ अंश की निष्पत्ति होती है और अन्तिम क्षणमें वह कार्य पूर्ण होता है। इससे यह सिद्ध होता है कि क्रियमाण कृत ही है। इसमें एकान्ततः विरोध नहीं है। कहा भी है जैसे वृक्ष और धव ये दोनों परस्पर विरुद्ध नहीं हैं, वैसे ही क्रियमाण और कृत भा परस्पर विरुद्ध नहीं है। પણ ભાગને વણાયેલે માનવામાં ન આવે. અને એથી પટનું તૈયાર થવાનું પણ માનવામાં ન આવે આ માટે બીજા આદિ તંતુઓના સંયોગથી પ્રત્યેક ક્ષણમાં પટને કાંઈને કાંઈ ભાગ વણાતો રહે છે, તેથી વણાયેલે ભાગ પણ પટને અંશ જ છે. આનું સાધક અનુમાન આ પ્રકારનું છે. – જે કાર્ય ક્રિયાની શરૂઆતમાં થતું નથી તે એની અંતિમ ક્ષણે પણ થતું નથી. જેમ ઘટ ક્રિયાની શરૂઆતમાં, ન દેનાર ઘટ એ કિયાની અંતિમ ક્ષણમાં પણ હેત નથી. અન્યથા ઘટ કિયાના અંતિમ ક્ષણમાં ઘટની પણ ઉત્પત્તિ થવા લાગશે. આ માટે ક્રિયાની પ્રત્યેક ક્ષણમાં કાર્યના કાંઈને કાંઈ અંશની તૈયારી થાય છે. અને અંતિમ ક્ષણે તે કાર્ય પૂર્ણ થાય છે. આથી એ સિદ્ધ થાય છે કે ક્રિયમાણ કૃત જ છે. આમાં એકાન્તતઃ વિરોધ નથી. કહ્યું પણ છે જેમ વૃક્ષ અને તેના ભાગોમાં પરસ્પર વિરૂદ્ધતા નથી તેવી જ રીતે ક્રિયમાણ અને કૃતિમાં પણ પરસ્પર વિરોધ નથી. ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #724 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रियशिनी टीका. अ०३ गा० ९ श्रद्धादौर्लभ्ये क्रियमाणकृतविषयक विचारः ६६९ अस्यानुमानप्रयोगश्चेत्थम्-यद् येनाविनाभूतं न तत् एकान्तेन भिते, यथा वृक्षत्वात् धवत्वम् । एवं कृतत्वाविनाभूतं क्रियमाणत्वमपि कृतत्वाद् नैकान्ततो भिन्नमिति बोध्यम् । हे आय! एतत् प्रवचनरहस्यं मन्यस्व । पुनस्ते स्थिविराः प्रोचुः आर्य ! क्रियमाणं कृतमिति सर्वज्ञस्य वचनं प्रमाणमेव । यत्तु भवता पोच्यतेसर्वज्ञोऽप्यनृतं वदतीति, तत सतां न श्रवणीयम् , तत् सत्यं वचनं मा दषय । अनेन दुष्कर्मणा संसारकानने भवतो भ्रमणं मा भूत् , एकस्यापि जिनोक्तवचनस्योत्थापने जनो मिथ्यात्वं लभते, तस्मादिदं शीघ्रमालोचय । इसका साधक अनुमान इस प्रकार है-जो जिससे भिन्न होकर नहीं रहता वह उससे एकान्तत भिन्न नहीं होता, जैसे वृक्षत्व से धवत्व एकान्ततः भिन्न नहीं है। उसी प्रकार कृतत्व से एकान्ततः भिन्न हो कर क्रियमाणत्व भी नहीं रहता। ऐसा समझना चाहिये । अतः ‘क्रियमाणं कृतम्' यह भगवद्वचन सर्वथा सुसंगत है । इसलिये हे आर्य ! यह प्रवचन का रहस्य है इसको आप मानो। फिर उन स्थविरों ने कहा-आर्य ! " क्रियमाणं कृतम्" यह जो सर्वज्ञ भगवान् का वचन है वह प्रमाण ही है। इसलिये आप जो ऐसा कहते हैं कि "सर्वज्ञ भी झूठ बोलते हैं " सो आपका यह अवर्णवादरूप कथन सज्जनों को सुनने के योग्य नहीं हो सकता है। भगवान् सर्वज्ञ का वचन तो त्रिकाल में भी दूषित नहीं होता है, इसे आप दूषित करने की कैसे चेष्टा करते हैं। जो इस प्रकार की दुश्चेष्टा करते हैं वे उससे उत्पन्न होनेवाले दुष्कर्म के प्रभाव से संसाररूपी कानन-अटवी એનું સાધક અનુમાન આ પ્રકારનું છે–જે જેનાથી ભિન્ન બની નથી રહેતા તે તેનાથી એકાન્તતઃ ભિન્ન હોતા નથી. જેમ વૃક્ષથી તેના બીજા ભાગે એકાન્તતઃ ભિન્ન નથી. એજ રીતે કૃતત્વથી એકાતતઃ ભિન્ન થતાં ક્રિયમાણત્વ પણ २.तुनथी से सम.न . माथी “क्रियमाणं कृतम् " मा भगवान क्यन સર્વથા સુસંગત છે. આ માટે તે આર્ય! આ પ્રવચનનું રહસ્ય છે તેને આપ માને. ३२से स्थविरेशमे ४ह्यु-मार्य ! " क्रियामाण कृतम् " २ सज्ञ ભગવાનનું વચન છે તે પ્રમાણે જ છે. આથી આ૫ જે એવું કહે છે કે, “સર્વજ્ઞ પણ જુઠું બોલે છેઆપનું એ અવર્ણવાદરૂપ વચન સજ્જનેએ સાંભળવા એગ્ય નથી. ભગવાન સર્વજ્ઞનું વચન તે ત્રણકાળમાં પણ દૂષિત નથી હોતું. એને દૂષિત કરવાની આપ કઈ રીતે ચેષ્ટા કરી શકે? જે આ પ્રકારની ખેતી ચેષ્ટા કરે છે, તે એનાથી ઉત્પન્ન થનાર દુષ્કર્મના પ્રભાવથી ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #725 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६७० उत्तराध्ययनस्त्रे तैः स्थविरैः स्वशिष्यैरेवमुक्तोऽपि जमालिः स्वदुराग्रहं न त्यक्तवान् । तदा तं विहाय केचिन्मुनयो भगवतः श्रीमहावीरसंनिधौ गताः तत्र ये । केचिज्जमालेवचसि श्रद्धां कृतवन्तस्ते तत्रैव जमालिमुनेरन्तिके स्थिताः। ___ अथ प्रियदर्शना साध्वी सहस्रसाध्वीपरिवृता ग्रामानुग्राम विहरन्ती प्रसङ्गवशात् तत्र श्रावस्तीनगर्या ढंकनाम्नः कुम्भकारस्य शालायां समायाता ।सा जमालिं वन्दितुं समागता । जमालिमुनिस्तदग्रेऽपि स्वमतं प्ररूपितवान् । तदनु सहस्रसाध्वीमें भ्रमण करते हैं, इसलिये आप इस दशा के पात्र न बने । हमारा सबका यही सानुरोध निवेदन है कि आप इस की आलोचना कर लें, ता कि जिनवचन के उत्थापनजनित मिथ्यात्व कर्म आपका निवृत्त हो जाय। इस प्रकार जमालि मुनि को उनके समस्त शिष्यों ने समझाया फिर भी उन्हों ने अपना दुराग्रह नहीं छोड़ा, शिष्यों ने जब देखा कि जमाली अपने दुराग्रह से पीछे नहीं मुड़ रहे हैं, तो उन्हों ने उन का साथ छोड़ दिया। कितनेक तो भगवान महावीर प्रभु के पास आगये और जिन्हे जमालि के वचनों में श्रद्धा थी वे उन्हीं के पास रहे। प्रियदर्शना साध्वी भी सहस्र साध्वियों से परिवृत होती हुई ग्रामानुग्राम विहार करती २ प्रसङ्गवशात् उस श्रावस्ती नगरी में आई और ढंककुंभार की शाला में आकर ठहर गई। पश्चात् सशिष्या वह अपने गुरु जमालि को वंदना करने के लिये गई। जमालि ने सुदर्शना साध्वी સંસારરૂપી અટવીમાં ભ્રમણ કરે છે. આ માટે આપ એ દશાને પાત્ર ન બનો. અમારૂં સઘળાનું સાનુરોધ નિવેદન છે કે, આપ તેની આલોચના કરી .કે જેથી જીનવનના ઉત્થાપન જનીત મિથ્યાત્વ કર્મ આપનાં નિવૃત્ત બની જાય. આ પ્રકારે જમાલિ મુનિના સમસ્ત શિષ્યોએ તેમને સમજાવવા છતાં પણ પિતાને દુરાગ્રહ છોડે નહીં. શિષ્યએ જાણ્યું કે, જમાલિ પિતાના દુરાગ્રહથી જરા પણ પાછા હટતા નથી ત્યારે તેઓએ તેમને સાથ છોડી દીધો. કેટલાક તે ભગવાન મહાવીર પ્રભુ પાસે પહોંચી ગયા અને જેમને જમાલિના વચન ઉપર શ્રદ્ધા હતી તે જમાલિની સાથે રહ્યા. - પ્રિયદર્શના સાધ્વી પણ પિતાની એક હજાર સાધ્વીઓ સાથે એકત્રિત રીતે ગ્રામાનુગ્રામ વિહાર કરતાં કરતાં પ્રસંગવશાત શ્રાવસ્તી નગરીમાં પધાર્યા. અને ઢક કુંભારની શાળામાં ઉતર્યા. આ પછી પિતાની શિષ્યાઓ સાથે પોતાના ગુરુ જમાલિની વંદના કરવા ગયાં. જમાલિએ પ્રિયદના સાધ્વીને પણ ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #726 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रियदर्शिनी टीका. अ० ३ गा. ९ श्रद्धादौर्लभ्ये क्रियमाणकृतविषयकविचारः ६७१ परिवृता प्रियदर्शना जमालिमुनेवचः सत्यं मन्यमाना वसतिं समागता । तया शय्यातरस्य ढङ्कम्याऽग्रेऽपि तन्मतं प्रोक्तम् ढङ्कन मिथ्यात्वमुपगतेयमिति मत्वा तस्याः प्रतिबोधनायान्यदा चपाकाग्निमध्ये मृद्धाजनोद्वर्तनपरावर्त ने कुर्वता तत्रासन्नपदेशे स्वाध्यायं कुर्वत्याः प्रियदर्शनायाः शाटिकाप्रान्तभागेऽङ्गारः प्रक्षिप्तः । प्रियदर्शनया साव्या स्ववस्त्रं दह्यमानं दृष्ट्वा प्रोक्तम्-मम वस्त्रं दग्धम् , कुम्भकारेणोक्तम्को भी अपने मत से परिचित कर दिया। प्रियदर्शना ने उसके मत को खूब सराहना की। उसे सत्य मानकर वह वापिस अपने स्थान पर लौट आई । सुदर्शना की जमालि के मत में श्रद्धा बढ़ गई । सुदर्शना ने जिस कुंभार की शाला में वह ठहरी हुई थी उससे भी जम लि के मत के विषय में बातचीत की। ढंककुंभार ने प्रियदर्शना की बातचीत से यह जान लिया कि यह भी मिथ्यात्व की ओर झुक रही है। अतः इसे इस दुष्कर्मसे पीछे हटाना चाहिये । इस प्रकार के विचार से प्रेरित होकर उसने उसकी शाटिका के एक भाग में जब कि वह वहीं पर पास के स्थान में बैठी हुई स्वाध्याय कर रही थी अंगार रख दिया। अंगार रखने में उसका अभिप्राय उसे समझाना मात्र था। जिस समय इसने उसकी शाटिकाके प्रान्त भागमें अंगार प्रक्षिप्त किया था वह उस समय कुंभारके अबाडा के बीच रखे हए मिट्टी के वर्तनों को उलट पटल कर रहा था। सुदर्शना ने जब अपनी शाटिका को जलती हुई देखा तो कहने लगी कि मेरे नेसराय की चादर जल गयी है। प्रियदर्शना की बात सुनकर कुंभार પિતાના મતથી વાકેફ કર્યા. પ્રિયદર્શનાએ તેના મતની પ્રસંશા કરી અને તેને સત્ય માની તે પોતાના સ્થાન ઉપર પાછાં ફર્યા. પ્રિયદર્શનાની જમાલિના મતમાં શ્રદ્ધા દઢ બની. જે કુંભારની શાળામાં તે ઉતર્યા હતાં તેને પણ જમાલીના મતના વિષયમાં વાતચિત કરી. ટંકકુંભારે પ્રિયદર્શનની આવી વાતચિતથી એ જાણી લીધું કે, આ સાધિ પણ મિથ્યાત્વની તરફ ઢળી રહ્યાં છે. આથી એને એ દુષ્કર્મથી પાછી વાળવાં જોઈએ. આ પ્રકારના વિચારથી પ્રેરિત બની, જ્યારે તે સાવિ તેની પાસેના સ્થાનમાં બેસી સ્વાધ્યાય કરી રહ્યાં હતાં ત્યારે તેમની ચાદરના એક ભાગમાં અંગાર લગાડી દીધું. અંગાર લગાડવામાં તેને આશય તેમને સમજાવવા પુરત જ હતો. તેમની ચાદરના એક ભાગમાં અંગાર લગાડીને તુરતજ તે કુંભાર નિંભાડામાં રાખેલાં માટીનાં વાસણેને ઉલટ સુલટ ફેરવવા લાગી ગયા. સાવિ પ્રિયદર્શનાએ જ્યારે પિતાની ચાદરને સળગતી જોઈ તે, કહેવા લાગ્યાં કે, હે ઢંક! જે તારા પ્રમાદથી મારા નેસરાયની ચાદર બળી ગઈ ! પ્રિયદર્શનાની વાત સાંભળી કુંભારે કહ્યું કે, સાધ્વીજી દહામાનને ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #727 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६७२ उत्तराध्ययनसूत्रे हे साध्वि ! दह्यमानं दग्धमिति न मन्यते भवती किं पुनरुच्यते दग्धमिति । एवं कुम्भकारवचो निशम्य प्रियदर्शना साधी विगलितमिथ्यादर्शना प्राह-अहो ! देवानुप्रिय ! भवता-मम सम्यकू प्रतिबोधः प्रदत्तः । अतः परं तया जगत्कल्याणकरं जिनवचनं प्रमाणम् , इति निश्चित्य तदने मिथ्यादुष्कृतं दत्तम् । अथाऽसौ प्रियदर्शना साध्वी सहस्रसाध्वीपरिवृता पुनर्जमालिमुनेः संनिधौ गत्वा जिनमतानुयायिनीयुक्तीः प्रावोचत् । तद्वचनैरपि जमालिमुनिः स्वदुराग्रह न स्यक्तवान् सुगन्धिद्रव्यवासनैरपि लशुनो दुर्गन्धमिव । ने कहा कि साध्वीजी ! दह्यमान को आप दग्ध तो मानती नहीं हैं, फिर आप ' शाटिका जल गई' ऐसा क्यों कहती हैं ? इस प्रकार कुंभार के वचन को सुनकर प्रियदर्शना साध्वी का मिथ्यात्वरूप तिमिर नष्ट हो गया। फिर वह बोली अहो देवानुप्रिय ! आपने मुझे अच्छा प्रतियोध दिया। इस के बाद उस प्रियदर्शना ने जगत्कल्याणकारक जिनवचन को प्रमाण मानकर उस कुंभार के सामने ही अपने मिथ्यात्व की आलोचना करली। हजार साध्वियों से परिवृत होकर पुनः प्रियदर्शना साध्वी जमालि के समीप पहुँची और जिनमत में लाने के लिये उसने उसके सामने अनेक जिनमतपोषक युक्तियों का प्रदर्शन किया परन्तु जमालि अपने दुराग्रह से लेशमात्र भी विचलित नहीं हुआ। सच बात है लहसुन को हजारों सुगंधित द्रव्यों के बीच में रख भी दिया जाय तो भी वह अपनी स्वाभाविक दुर्गध का परित्याग नहीं करता है। આપ દૂધ તે માનતાં જ નથી તે પછી આપ આવું કેમ કહે છે? આ પ્રકારનું કુંભારનું વચન ન સાંભળીને પ્રિયદર્શના સાધ્વીનું મિથ્યાત્વરૂપી અંધારું નાશ પામ્યું. અને તે બેલ્યાં, અહો દેવાનુપ્રિય! આપે મને સારો પ્રતિબંધ આપે. આ પછી પ્રિયદર્શનાએ જગત કલ્યાણ કારક જીન વચનને પ્રમાણ માની એ કુંભારની સામે જ પિતાના મિથ્યાત્વની આલોચના કરી. હજાર સાધ્વીઓથી પરિવૃત થઈને ફરીથી પ્રિયદર્શના સાધ્વી જમાલિની પાસે પહોંચ્યાં અને તેને જનમતમાં લાવવા માટે તેમણે અનેક રીતે પ્રયત્ન કર્યો પરંતુ જમાલિ પિતાના દુરાગ્રહથી જરા પણ પાછા ન રહ્યા. સાચી વાત છે કે, લસણને હજારો સુંગંધિત દ્રવ્યની વચમાં રાખે તે પણ તે પિતાની સ્વભાવિક દુધને ત્યાગ કરતું નથી. ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #728 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रियदर्शिनी टीका. अ० ३ गा० ९ जमालि प्रति गौतमस्य प्रश्नः ६७३ ततः सपरिवारा सा, गतशेषाः साधवश्च तं दुर्मतं जमालिमुनि परित्यज्य चम्पानगाँ भगवतः श्रीमहावीरस्य संनिधौ गताः । ततः खलु स जमालिमुनिरन्यदा कदाचिद् रोगातङ्केभ्यो विमुक्तः सन् हृष्टतुष्टो जातः । तदनन्तरं श्रावस्तीनगर्याः कोष्ठकोधानात् प्रतिनिष्क्रम्य पूर्वानुपूर्व्याचरन् ग्रामानुग्रामं द्रवन् चम्पानगर्यां भगवत्संनिधौ समागतः । स श्रमणं भगवन्तं श्रीमहावीरं वंदित्वा नमस्कृत्यैवमब्रवीत्-भगवन् ! यथा भवतः शिष्या बहवश्छनस्था एव पृथग् विहरन्ति परलोकं गताच, तादृशो नाहमस्मि, यतोऽहं सम्माप्तकेवलज्ञानदर्शनो जिनोऽहेनस्मि । ___ एवं जमालिमुनिना प्रोक्ते सति गौतमस्वामी तं पृच्छति-जमाले ! केवलीजातोऽसि चेत् तदा द्वयोः प्रश्नयोरुत्तरं वद-" शाश्वतो लोकः, किंवा अशाश्वतो लोकः ?, शाश्वतो जीवः किं वा अशाश्वतो जीवः ?"। इसके बाद वह साध्वी जमालि के पास से वापिस आकर वह तथा जो साधु उनके पास थे वे भी उनसे जुदे होकर चंपानगरी में भगवान् श्री महावीर के पास में आगये। धीरे २ जमालिमुनि भी रोग एवं आतंकों से विमुक्त होकर शरीर से नीरोग हो गये । बाद में उन्हों ने श्रावस्ती नगरी के कोष्ठक उद्यान से प्रस्थान कर दिया और ग्रामानुग्राम विचरण करते हुए वे महावीर प्रभु के समीप आये। भगवान् को वंदना एवं नमस्कार कर बोले -भगवान् ! जैसे आपके अनेक शिष्य छनस्थ अवस्था में परलोक को प्राप्त हुए हैं वैसा मैं नहीं हूं। मुझे केवल ज्ञान एवं केवलदर्शन प्राप्त हो चुका है अतः मैं अर्हत जिन हो गया हूं। આ પછી તે સાધ્વી જમાલીની પાસેથી પાછાં ફર્યા અને જમાલિ પાસે જે સાધુ બાકી રહ્યા હતા તે પણ જમાલિથી જુદા પડી ચંપાનગરીમાં ભગવાનશ્રી મહાવીર સ્વામીની પાસે પહોંચી ગયા. ધીરે ધીરે જમાલી મુનિ પણ રોગ અને આતંકોથી મુક્ત બની ગયા. શરીર પણ તંદુરસ્ત બની ગયું. બાદમાં તેઓએ શ્રાવસ્તીનગરીના કોષ્ટક ઉદ્યાનમાંથી પ્રસ્થાન કર્યું, અને પૂર્વાનુમૂવી પદ્ધતિ અનુસાર પ્રામાનુગ્રામ વિચરણ કરતાં કરતાં તે મહાવીર પ્રભુની પાસે પહોંચ્યા. ભગવાનને વંદના અને નમસ્કાર કરી કહ્યું, ભગવન! જેમ આપના અનેક શિષ્ય છદ્મસ્થ અવસ્થામાં પરલોકને પ્રાપ્ત થયા છે તે હું નથી. કારણ કે મને તે કેવળજ્ઞાન અને કેવળદર્શન પ્રાપ્ત થઈ ચુકેલ छ. माथी हु महत O गया . उ० ८५ ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #729 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६७४ उत्तराध्ययनस्वे अथाऽसौ तदुत्तरं दातुमशक्तः सन् मौनमाश्रयत् । ततो भगवान् जमालिमाहहे जमाले! अस्य प्रश्नस्योत्तरं दातुं छन्नस्था अपि सहस्रशिष्या मम समर्थाः सन्ति यथा-अहम् , किंतु ते एवं न वदन्ति, यथा त्वं वदसि । इदमुत्तरं जानीहिलोको जीवश्च सदा शाश्वतः, अशाश्वतोऽपीति । तथाहि-द्रव्यरूपेण लोकः शाश्वत उच्यते, प्रतिक्षणं पर्यायपरिवर्तनेन तु अशाश्वतः । द्रव्यरूपेण जीवोऽपि शाश्वतः कथ्यते । देवमनुष्यतिर्यङ्नरकपर्यायपरावृत्त्या तु अशाश्वत उच्यते । जमालि मुनि ने जब ऐसा कहा तब गौतमस्वामी ने उनकी बात सुनकर उनसे कहा हे जमालि ! तुम यदि केवली हो गये हो तो हमारे दो प्रश्नों का उत्तर दो-बोलो लोक शाश्वत है कि अशाश्वत है ? जीव शाश्वत है कि अशाश्वत है ?, गौतम के इन प्रश्नों का जब उनसे कोई उत्तर नहीं बना तो वह चुपचापहो गये, उनको चुप देखकर भगवान ने जमालि से कहा-हे जमालि ! देखो इन प्रश्नों के उत्तर देने के लिये मेरे हजार शिष्य समर्थ हैं तो भी वे ऐसा नहीं कहते हैं जैसा कि तुम कहते हो। इन प्रश्नों का उत्तर इस प्रकार है-जीव एवं लोक सदा शाश्वत भी है एवं अशाश्वत भी है । द्रव्यरूप से लोक शाश्वत कहा गया है। प्रतिक्षण पर्यायों के परिवर्तन से अशाश्वत भी कहा गया है । इसी तरह द्रव्यदृष्टि से जीव भी शाश्वत, एवं पर्यायदृष्टि से-देव मनुष्य तिर्यञ्च एवं नरक पर्यायों के परिवर्तन की अपेक्षा से अशाश्वत जानना चाहिये। જમાલિ મુનિએ આ પ્રમાણે કહ્યું ત્યારે ગૌતમ સ્વામીએ તેની આ વાત સાંભળી તેને કહ્યું, હે જમાલિ! તમે જે કેવળી થઈ ગયા છે તે અમારા બે પ્રશ્નોને જવાબ આપે. કહે–લેક શાશ્વત છે? જીવ શાશ્વત છે કે અશાશ્વત ? ગૌતમ સ્વામીના આ પ્રશ્નોને ઉત્તર જમાલિથી આપી શકાશે નહી અને તે ચુપ થઈ ગયા ત્યારે તેને ચુપ જઈ ભગવાને કહ્યું –જમાલિ! જુઓ આ પ્રશ્નોને ઉત્તર આપવા માટે મારા એક હજાર શિષ્ય સમર્થ છે. તે પણ તેઓ એવું કહેતા નથી કે જેવું તમે કહે છે. એ પ્રશ્નોને ઉત્તર આ પ્રકાર છે.-જીવ અને લેક સદા શાશ્વત છે અને અશાશ્વત પણ છે. દ્રવ્યરૂપથી લેક શાશ્વત કહેવાય છે, પ્રતિક્ષણ પર્યાના પરિવર્તનથી અશાશ્વત પણ કહેવાય છે. આ રીતે દ્રવ્ય દૃષ્ટિથી જીવ પણ શાશ્વત છે અને પર્યાયદષ્ટિથી–દેવ, મનુષ્ય, તિર્યંચ અને નરક પર્યાથોના પરિવર્તનની અપેક્ષાથી–અશાશ્વત જાણવું જોઈએ. ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #730 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रियदर्शिनी टीका अ० ३ गा. ९ जमालेमरणम् तद्गतिविषये गौतमप्रश्नच ६७५ ___ ततो जमालिर्भगवद्वचनं श्रुत्वाऽपि दुराग्रहवशात् तत्र श्रद्धां न कृतवान् । भगवतोऽन्तिकाद् विनिर्गत्य भूमौ स्वच्छन्दं विचरति । निक्त्वात् बहुभिः कुमतोक्तिभिर्लोकान् कुतर्क प्रतिबोधयति । एवं जमालिबहुवत्सरान् श्रामण्यं पालयित्वा प्रान्तेऽर्धमासिकी संलेखनां कृत्वा तदतिचारमनालोच्य मृतः । स तदनु षष्ठे देवलोके किल्विषिकदेवो जातः । ___ एकदा गौतमस्वामी भगवन्तं पृष्टवान्-भदन्त ! जमालिरुपतपा आसीत् , स का गतिं गतः ? । भगवानाह-स षष्ठे कल्पे किल्विषिक देवो जातः । गौतमः प्राह इस प्रकार भगवान् के वचन सुनकर भी दुराग्रह के वश से जमालि ने अपना कदाग्रह नहीं छोड़ा-भगवान् के वचन में श्रद्धा नहीं की। वहां से विहार कर अब वह स्वच्छंदरूप से देशोदेश विहार करने लगे, और भी अनेक कुयुक्तियों द्वारा लोकों को कुतर्क का उपदेश करने लगे। इस प्रकार अनेक वर्षों तक जमालि ने श्रवण अवस्था का पालन किया। अन्त में पन्द्रह १५ दिन की संलेखना धारण करके वे मर गये। मरते समय भी इन्हों ने अतिचारों की आलोचना नहीं की इसलिये मरकर यह छठवें देवलोक में किल्विषिक जाति के देव हुए। ___एक समय की बात है कि गौतमस्वामी ने प्रभु से पूछा-भगवन् ! जमालि मर कर किस गति को गया है ?, भगवान ने कहा कि वह छठवें देवलोक में किल्विषिक जाति का देव हुआ है। गौतम ने આ પ્રકારનાં ભગવાનનાં વચન સાંભળીને પણ દુરાગ્રહને વશ બનેલ જમાલિએ પિતાને કકકો જ ખરો” એવો વૃથા હઠાગ્રહ ચાલુ રાખ્યું અને ભગવાનના વચનમાં શ્રદ્ધા ન કરી. ત્યાંથી વિહાર કરીને જમાલિ સ્વછંદ રૂપથી દેશ દેશમાં વિહાર કરવા લાગ્યા. પોતે જ્યાં જ્યાં વિહાર કર્યો ત્યાં ત્યાં અનેક કુતર્કોથી લોકોને ઉપદેશ આપવા માંડશે. આ રીતે ઘણા વર્ષો સુધી જમાલિએ શ્રમણ અવસ્થાનું પાલન કર્યું. અને પંદર દિવસની સંખના ધારણ કરી તેમણે દેહ છે. મરતી વખતે પણ તેમણે અતિચારની આલોચના ન કરી. આથી મરીને તે છઠ્ઠા દેવલોકમાં કિત્વિક જાતિના દેવ થયા. એક સમયે ગૌતમસ્વામીએ પ્રભુને પૂછયું કે, ભગવન! જમાલિ ઉગ્ર તપસ્વી હતા, તેઓ મરીને કઈ ગતિમાં ગયા છે? ભગવાને કહ્યું કે, તે છઠ્ઠા દેવલોકમાં કિષિક જાતિના દેવ થયેલ છે. પ્રભુની વાત સાંભળી ફરી ગૌતમ ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #731 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६७६ उत्तराभ्ययनसूत्रे ___ कथं घोरतपस्विनस्तस्य सा गतिः ? भगवानाह-निह्नवत्वेन, धर्माचार्यादेविरोधाद् तीव्रतपश्चरणशीलोऽप्यसौ तां गति प्राप्तवान् । पुनगौतमः प्राहस्वामिन् ! स ततश्चयुत्वा क यास्यति ?, भगवानाह-ततश्च्युतोऽसौ तिर्यमनुष्यनारक-देवरूपेषु चतुर्गतिक-संसारेषु दीर्घकालं भ्रमित्वा चिरेण सिद्धि प्राप्स्यति । जमालिवद् बहूनां मुनीनां श्रदाऽपगता भवतीति श्रद्धा दुर्लभेति बोध्यम् ॥ इति प्रथमनिलवजमालिदृष्टान्तः ॥१॥ अथ द्वितीयनिह्नवतिष्यगुप्त दृष्टान्तः प्रोच्यतेभगवतः श्रीमहावीरस्वामिनः केवलज्ञानोदयकालादारभ्य षोडशवर्षाण्यतीतानि प्रभु की बात सुनकर कहा कि भगवन् ! वह तो उग्रतपस्वी था उसकी इतनी छोटी गति क्यों हुई है। प्रभु ने कहा वह निहव -जिन वचनों का अपलापक-होने से अपने धर्माचार्य आदि से भी वह उग्र विरोध रखता था इसलिये तपस्वी होने पर भी उसने इस गति को प्राप्त किया है । गौतम ने फिर प्रभु से कहा-भगवन् ! वह वहां से च्यवकर अब कहां जायगा ? भगवान् ने कहा वह वहां से च्यवकर तिर्यच्च मनुष्य नारकदेवरूप चतुर्गतिक संसार में दीर्घकालतक भ्रमण कर बहुत काल के बाद सिद्धि को प्राप्त करेगा। जमालि की तरह अनेक मुनियों की भी श्रद्धा हट जाती है इसलिये श्रद्धा दुर्लभ है ऐसा समझना चाहिये। इस प्रकार यह प्रथमनिह्नव जमालि का दृष्टान्त हुआ।॥ १ ॥ સ્વામીએ પૂછયું, ભગવંત! તે તે ઉગ્ર તપસ્વી હતા, એની આવી નાની ગતિ કેમ થઈ? પ્રભુએ કહ્યું, તે નિવ-જીન વચના અપલા૫ક થવાથી પિતાના ધર્માચાર્યનો પણ તેણે વિરોધ કરેલો આથી દીર્ઘતપસ્વી હોવા છતાં પણ તેણે એ ગતિ પ્રાપ્ત કરી છે. ગૌતમસ્વામીએ કરી પૂછયું કે, ભગવંત! તે ત્યાંથી અવીને હવે કયાં જશે? ભગવાને કહ્યું, તે ત્યાંથી આવીને તિર્યંચ, મનુષ્ય નરકદેવરૂપ ચતુગંતિક સંસારમાં ભ્રમણ કરી ઘણુ કાળ પછી સિદ્ધિને પ્રાપ્ત કરશે. જમાલિની જેમ ઘણા મુનિઓની શ્રદ્ધા ઓછી થાય છે આથી તે દુર્લભ છે એવું સમજવું જોઈએ. આ રીતે એ પ્રથમ જમાલિ નિકૂવાન્ત પૂરું થયું ? ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #732 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रियदर्शिनी टीका. अ० ३ गा० ९ तिष्यगुप्तस्य निह्नवत्वे कारणम् १७७ तदा राजगृहे नगरे गुणशिले उद्याने चतुर्दशपूर्वधरोवसुनामक आचार्यः समागतः । तस्य तिष्यगुप्ता नाम शिष्य आसीत् । स पूर्वाध्ययनतत्परः कस्मिंश्चित समये आत्मप्रवादनामकं सप्तमं पूर्व पठति, आत्मप्रवादनामकं पूर्वमधीयानस्य तिष्यगुप्तमुनेस्यं सूत्रालापकः समायातः, तद् यथा___“एगे भंते जीवपएसे जीवेत्ति वत्तव्वं सिया ? णो इणद्वे समझे । एवं दो तिणि जाव दस संखेज्जा। असंखेज्जा भंते ! जीवपएसा जीवत्ति वत्तव्वं सिया ? णो इणढे समझे। एगपएसूणे विणं जीवे नो जीवेत्ति वत्तव्वं सिया । से केणं अटेणं ? जम्हा णं कसिणे पडिपुण्णे लोगागासपएसतुल्ले जीवे जीवेत्ति वत्तव्वं सिया ?, से तेण?णं " इति ॥ अब द्वितीय निहवतिष्यगुप्तकी कथा कही जाती है, वह इस प्रकारसे है_ भगवान महावीर को केवलज्ञान की उत्पत्ति होने पर जब सोलह १६ वर्ष व्यतीत हो गये तब राजगृह नगर में गुणशिलनामक उद्यान में चौदह पूर्वधारी वसु नाम के आचार्य आये। इनके शिष्य तिष्यगुप्त नाम के थे। ये पूर्वो के अध्ययन करने में तत्पर थे, किसी समय जब ये सातवां आत्मप्रवाद पूर्व पढ़ रहे थे उस समय इनको उसका यह मूत्रालापक पढने में आया, वह यह है___“एगे भंते जीवपएसे जीवेत्ति वत्तव्वं सिया? णो इणद्वे समझे। एवं दो तिण्णि० जाव दस संखेज्जा असंखेज्जा भंते ! जीवपऐसा जीवेत्ति वत्तव्वं सिया ? णो इणढे समठे। एगपएसूणे विणं जीवे नो जीवेत्ति वत्तव्वं सिया? से केणं अट्ठणं ? जम्हा णं कसिणे पडिपुण्णे હવે બીજા નિવ તિષ્યગુપ્તની કથા કહેવામાં આવે છે તે આ પ્રકારની છે ભગવાન મહાવીરને કેવળજ્ઞાનની ઉત્પત્તિ થયાને જ્યારે સેળ વર્ષ વીત્યાં ત્યારે રાજગૃહ નગરમાં ગુણશિલ નામના ઉદ્યાનમાં ચૌદપૂર્વના ધારક એવા વસુ નામના આચાર્ય આવ્યા. એમને તિષ્યગુપ્ત નામના શિષ્ય હતા તે પૂર્વેના અધ્યયન કરવામાં તત્પર હતા ! એક સમય જ્યારે તે સાતમું આત્મપ્રવાદ પૂર્વ ભણી રહ્યા હતા એ વખતે એને સાતમા પૂર્વનું સૂવાલાપક વાંચવામાં આવ્યું તે આ છે– " एगे भंते जीवपएसे जीवेत्ति वत्तव्य सिया? णो इणडे समद्धे ! एवं दो तिण्णि जाव दस संखेज्जा असंखेज्जा भंते ! जीवपएसा जीवेत्ति वत्तव्यं सिया? णो इण? समझे। एगपएसूणे विणं जीवे नो जीवेत्ति वत्तव्यं सिया ? सेकेणं अटेणं ? जम्हाणं कसिणे ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #733 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૬૭૮ उत्तराध्ययनसूत्रे छाया - एको भदन्त ! जीवप्रदेशो जीव इति वक्तव्यं स्यात् ? नो अयमर्थः समर्थः । एवं द्वौ त्रयो० यावद् दश संख्याताः । असंख्याता भदन्त ! जीवप्रदेशा जीव इति वक्तव्यं स्यात् ? नो अयमर्थः समर्थः । एकम देशोनोऽपि खलु जीबो नो जीव इति वक्तव्यं स्यात् ? असौ केनार्थेन ? यस्मात्खलु कृत्स्नः प्रतिपूर्णो लोकाकाशप्रदेश तुल्यो जीवो जीव इति वक्तव्यं स्यात् ? असौ तेनार्थेन " इति । " असुं चालापकमधीयानस्य “ कस्यापि नयस्येदमपि मतं, न तु सर्वनयानाम् इत्येवम जानत स्तिष्यगुप्तमुने मिध्यात्वोदयाद् दर्शनविपर्यासः संजातः । तदा जीव प्रदेशविषये तस्येत्थं मतिर्जाता - एक - द्विव्यादयः संख्येयाः असंख्येयाः प्रदेशाः लोगागासपएस तुल्ले जीवे जीवेत्ति वत्तव्धं सिया से तेणद्वेणं" । इति । छाया - एको भदन्त ! जीवप्रदेशो जीव इति वक्तव्यं स्यात् ? नो अयमर्थः समर्थः । एवं द्वौ त्रयो यावद् दश संख्याताः असंख्याताः भदन्त ! जीवप्रदेशा जीव इति वक्तव्यं स्यात ? नो अयमर्थः समर्थः । एकप्रदेशोनोऽपि खलु जीवो नो जीव इति वक्तव्यं स्यात्, असौ केनार्थेन ? यस्मात् खलु कृत्स्नः प्रतिपूर्णो लोकाकाशप्रदेशतुल्यो जीवो जीव इति वक्तव्यं स्यात्, असौ तेन अर्थेन " इति । इस प्रकार इस आलापक को पढ़ने के बाद किसी एक नय की विवक्षा से ऐसा भी हो सकता है अतः यह मत "किसी एक नय का है, सर्व नयों का नहीं है !" इस बात को न समझ कर मिथ्यात्व के उदय से उन तिष्यगुप्त मुनिके दर्शन में विपर्यासता आगई। इसलिये उनको उस समय जीव के प्रदेशविषय में इस प्रकार का ध्यान बंध गया कि एक पडिपुणे लोगागासपएस तुल्ले जीवे जीवेत्ति वतव्वं सिया ? से तेणं अद्वेणं " । इति । छाया - एको भदन्त ! जीव प्रदेशो जीव इति वक्तव्यं स्यात् ? नो अयमर्थः समर्थः एवं द्वौ त्रयो यावद् दश संख्याताः असंख्याताः भदन्त ! जीवमदेशा जीव इति वक्तव्यं स्यात् १ नो अयमर्थः समर्थः ! एकप्रदेशो नोऽपि खलु जीवो नो जीव इति वक्तव्यं स्यात् ? असौ केनार्थेन ? यस्मात् खलु कृत्स्नः प्रतिपूर्णी लोकाकाशम देशतुल्यो जीवा जीव इति वक्तव्यं स्यात् असौ तेन अर्थेन " । इति । આ પ્રકારે એ આલાપકને ભણ્યા પછી કોઈ એક નયના અભિપ્રાયથી એમ પણ થઈ શકે છે.આથી આ મત કાઇ એક નયનાછે, સવ નચાના નથી.” આ વાતને ન સમજીને મિથ્યાત્વના ઉદયથી તે તિષ્યગુપ્ત મુનિના દર્શનમાં વિષયતા આવી ગઈ આથી તેમને એ સમયે જીવના પ્રદેશ વિષયમાં એ પ્રકારનું ધ્યાન બંધાઈ ગયું કે, એક બે ત્રણ વગેરે સંખ્યાત્ત અસંખ્યાત પ્રદેશ જીવ નથી. ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર ઃ ૧ Page #734 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रियदर्शिनी टीका म०३ गा. ९ जीवविषये धर्माचार्यतिष्यगुप्तयोः संवादः ६७९ खल्लु जीवो न भवति, " एगे भंते ! जीवपएसे" इत्याधालापके निषिद्धत्वात् । एवं यावदेकेनापि प्रदेशेन हीनो जीवो न भवति, अत्रैवालापके प्रतिषिद्धत्वात् । यावन्तो जीवस्य प्रदेशाः सन्ति, तेष्वेकस्यापि प्रदेशस्य न्यूनत्वेऽवशिष्टजीवप्रदेशा जीवन्यपदेशं न लभन्ते । ऊने वस्तुनि पूर्णव्यपदेशो न भवति । यावन्तः प्रदेशा लोकाकाशस्य सन्ति, तत्तुल्या असंख्याता निरवशेषमदेशजीवस्य सन्ति । तस्मात् येन केनापि चरमपदेशेन स जीवः परिपूर्णः क्रियते स एवं प्रदेशो जीवः, न तु शेषप्रदेशाः, एतत्सूत्राऽऽलापक प्रामाण्यात् । इत्येवं विरुद्धमर्थ प्रतिपन्नस्तिष्यगुप्तमुनिर्धर्माचार्यमब्रवीत्-योकेनापि प्रदेशेन विहीनाः सकला अपि जीवप्रदेश दो तीन आदि संख्यात असंख्यात प्रदेश जीव नहीं है क्यों कि “एगे भंते ! जीवपएसे" इस आलापक में इसका निषेध किया गया है। इसी तरह एक भी प्रदेश से हीन भी जीव नहीं होता है यह बात भी इसी आलापक में प्रतिषेध करने में आई है । तात्पर्य इसका यह है कि जितने जीव के प्रदेश होते हैं उनमें से यदि एक भी प्रदेश कम हो तो यह जीव नहीं हो सकता है । अर्थात्-उसके अवशिष्ट प्रदेश जीव नहीं कहलासकते हैं। वस्तु में यदि जरा सी भी कमी हो तो वह पूरी वस्तु कैसे कही जा सकती है। जितने प्रदेश लोकाकाश के हैं उतने ही प्रदेशअसंख्यात प्रदेश-एक जीव के हैं इसलिये जिस किसी अन्तिम प्रदेश से वह जीव परिपूर्ण होता माना जाता है वही अन्तिम प्रदेश जीब है। अवशिष्ट प्रदेश जीव नहीं है, क्यों कि इसमें यही सूत्रालापक प्रमाणभूत है। इस प्रकार अपनी कल्पना से विरुद्ध अर्थ को कल्पित कर तिष्यगुप्त भ -" एगे भंते ! जीवपएसे" ये मामा५४मा तना निषेध ४२पामा આવેલ છે. આ રીતે એક પણ પ્રદેશથી જીવ હીન પણ થતો નથી. આ વાત પણ આલાપકમાં પ્રતિષેધ કરવામાં આવી છે. એનું તાત્પર્ય એ છે કે, જીવના જેટલા પ્રદેશ હોય છે એમાંથી જે એક પણ પ્રદેશ ઓછો હોય તે જીવ થઈ શકતો નથી. અર્થાત્ તેના અવશિષ્ટ પ્રદેશ જીવ કહેવાતા નથી. વસ્તુમાં જે જરા પણ ઓછપ હોય તે તે પુરી વસ્તુ કહેવાતી નથી. કાકાશના જેટલા પ્રદેશ છે એટલા જ પ્રદેશ અસંખ્યાત પ્રદેશ એક જીવના છે. આથી જે કોઈ અંતિમ પ્રદેશથી તે જીવ પરિપૂર્ણ થતે માનવામાં આવે છે તે જ અંતિમ પ્રદેશ જીવ છે. અવશિષ્ટપ્રદેશ જીવ નથી. કેમકે તેમાં એજ સૂત્રાલાપક પ્રમાણભૂત છે. આ રીતે પિતાની કલ્પનાથી વિરૂદ્ધ અર્થને કલ્પિત કરી તિષ્યગુપ્ત ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #735 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययनसूत्रे जीवव्यपदेशं न लभन्ते, तदा स एकैकश्चरमप्रदेशो जीवनाम्ना वक्तव्यः, यतस्तस्य प्रदेशस्य सद्भावे एव जीवत्वं भवति । ततस्तं वसुनामको धर्माचार्यः प्राह-वत्स ! किमयुक्तं ब्रवीषि ?। (१) यदि तब प्रथमप्रदेशो जीवो न संमतस्तर्हि भवदभिमतोऽन्त्यप्रदेशोऽपि न जीवः, प्रदेशत्वा. विशेषात् प्रथमाधन्यप्रदेशवत् । इति । (२) अथवा-तव मतेऽन्त्यप्रदेश एवं जीवः, प्रथमादिप्रदेशस्तु न जीवः, अत्र कस्तव विशेषहेतुः ?, येन प्रदेशत्वे तुल्येऽपि अन्तिमो जीवः, न प्रथमादिरिति?, ने धर्माचार्य के पास जाकर कहा कि यदि एक भी प्रदेश से विहीन होने पर सकल अवशिष्ट जीवसंज्ञा को प्राप्त नहीं होते हैं तो उस एक अन्तिम प्रदेश को ही जीव कहना चाहिये, क्यों कि उस एक प्रदेश के सद्भाव में ही अन्य प्रदेशों में जीव का व्यपदेश होता है। तिष्यगुप्त की इस प्रकार बात सुनकर वसु आचार्य ने कहा वत्स! यह तुम क्या अयुक्त बात कह रहे हो? (१) यदि तुम्हें प्रथम प्रदेश में जीव संमत नहीं है,तो तुम जिस अन्तिम प्रदेश को जीव मानते हो वह भी प्रदेशत्व की अविशेषता से जीव नहीं होगा। जैसे प्रथम आदि अन्य प्रदेश तुम्हारी दृष्टि से जीव नहीं है। (२) अथवा तुम्हारे मन्तव्यके अनुसार अन्त्यप्रदेश ही जीव है, प्रथमप्रदेश जीव नहीं है इसमें युक्ति क्या है। जिस तरह प्रदेशता प्रथमप्रदेश में है उसी प्रकार प्रदेशता अन्तिम प्रदेश में भी है, तब यदि प्रदेધર્માચાર્યની પાસે જઈ કહ્યું કે, કદાચ એક પણ પ્રદેશથી વિહિન થતાં સકલ અવશિષ્ટ જીવપ્રદેશ જીવ સંસાને પ્રાપ્ત થતા નથી. તે તે અંતિમ પ્રદેશને જ જીવ કહેવા જોઈએ. કેમકે, એ એક પ્રદેશના સદુભાવમાં જ બીજા પ્રદેશમાં જીવન વ્યપદેશ થાય છે. તિષ્યગુપ્તની આ વાત સાંભળીને વસુ આચાર્યે કહ્યું, વત્સ! તમે આ કેવી અજુગતી વાત કરી રહ્યા છો ? જે તમને પ્રથમ પ્રદેશ જીવ સંમત નથી તે તમે જે અંતિમ પ્રદેશને જીવ માને છે તે પણ પ્રદેશત્વની વિશેષતાથી જીવ ન થાય. જેમ પ્રથમ આદિ અન્ય તમારી દૃષ્ટીથી જીવ નથી. (૨) અથવા તમારા મત અનુસાર અંત્યપ્રદેશ જ જીવ છે, પ્રથમ પ્રદેશ જીવ નથી આમાં યુક્તિ શું છે ? જે રીતે પ્રથમ પ્રદેશમાં પ્રદેશતા છે, તે જ રીતે પ્રદેશના અંતિમ પ્રદેશમાં પણ છે. તે પ્રદેશત્વ હેતુને લઈ કદાચ ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #736 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रियदर्शिनी टीका अ०३ गा०९ जीवविषये धर्माचार्य तिष्यगुप्तयोः संवादः ६८१ अथ विवक्षितासंख्यातप्रदेशराशेरन्त्यः प्रदेशः पूरण इति विशेषसद्भावतः स एवं जीवो न तु प्रथमादिः, इति मन्यसे, तदयुक्तम् , यतो यथाऽन्त्यः प्रदेशः पूरकः तथा एकैकः प्रथमादिप्रदेशोऽपि तस्य विवक्षितजीवप्रदेशराशेः पूरक एव, एकमपि प्रदेशमन्तरेण तस्याऽपरिपूर्तेः ॥२॥ ___ (३) एवं च सर्वपदेशानां पूरकत्वेऽनिष्टमापतति-तथाहि सर्वजीवप्रदेशानां विवक्षिताऽसंख्यातपरिमाणपूरकत्वेऽन्त्यपदेशवत् प्रत्येकं जीवत्वात् प्रत्येकजीवोऽसंख्यातजीवः स्यात् (१)। शत्व हेतु को लेकर यदि अन्त्यप्रदेश में जीव सिद्ध किया जाता है तो इसी तरह प्रथमप्रदेश में भी इसी हेतु द्वारा जीव सिद्ध किया जायगा " तब प्रथम प्रदेश में जीव नहीं है अन्तिम प्रदेश में ही जीव है" ऐसा कहना कहां तक युक्ति युक्त माना जा सकता है। इस पर यदि यों कहा जाय कि विवक्षित असंख्यात प्रदेशराशि का अन्त्यप्रदेश पूरण है इसलिये वही जीव माना जायगा-प्रथमादिप्रदेश नहीं, क्यों कि वे पूरण नहीं हैं, तो इस प्रकार का कथन भी ठीक नहीं है, क्यों कि जिस प्रकार अन्त्यप्रदेश पूरण है उसी तरह एक एक प्रथमादिप्रदेश भी उस विवक्षित जीव की प्रदेशराशि का पूरक है । क्यों कि यदि एक भी प्रदेश की न्यूनता हो तो उस विवक्षित जीवप्रदेशराशि की पूर्ति नहीं हो सकती है। (३) इस प्रकार सर्वप्रदेशों में पूरणता मानने पर अनिष्टापत्ति आती है, वह इस तरह से-समस्त जीवप्रदेशों में विवक्षित असंख्यात परिमाण અન્યપ્રદેશમાં જીવ સાબિત કરવામાં આવે તે આજ રીતે પ્રથમ પ્રદેશમાં પણ તે હેતુ દ્વારા જીવ સાબિત કરવામાં આવે ત્યારે પ્રથમ પ્રદેશમાં જીવ નથી. અંતિમપ્રદેશમાં જ જીવ છે એવું કહેવું યુક્તિ યુક્ત કયાં સુધી માની શકાય ? આ અંગે એમ કહેવામાં આવે કે વિવક્ષિત અસંખ્યાત પ્રદેશ રાશીને અંત્યપ્રદેશ પૂરક છે આ માટે તે જ જીવ માનવામાં આવશેપ્રથમ આદિ પ્રદેશ નહીં કેમકે તે પૂરક નથી તે આ પ્રકારે કહેવું એ પણ ઠીક નથીકેમ કે, જે રીતે અન્ય પ્રદેશ પૂરક છે એ રીતે એક એક પ્રથમ આદિ પ્રદેશ પણ એ વિક્ષિત જીવની પ્રદેશ રાશીને પૂરક છે. કેમ કે, જે એક પણ પ્રદેશની ન્યૂનતા હોય તે તે વિવક્ષિત જીવ પ્રદેશ રાશીની પૂતિ બની શકતી નથી, (૩) આ પ્રકારે સર્વ પ્રદેશમાં પૂર્ણતા માનવાથી અનિષ્ટ આપત્તિ આવે છે. તે આ રીતે છે.-સમસ્ત જીવ પ્રદેશમાં વિવક્ષિત અસંખ્યાત પરિउ०.८६ ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #737 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययनसूत्रे अथवा-प्रथमादिप्रदेशवत् अन्त्यप्रदेशस्यापि अजीवत्वे सर्वथा जीवाभावः प्रसज्यते (२)। किंच-यद्येक एव प्रदेशो जीवत्वं पूरयति, तर्हि पूर्णस्य जीवस्य कर्तव्याऽर्थसम्पादनरूपा क्रिया एकस्मात् प्रदेशात् स्यात् , न त्वेवं दृश्यते, यथैकस्मात् तन्तोः पटस्य कार्यमावरणादिरूपं नोपलभ्यते (३) ___ अथ पूरकत्वे समानेऽपि अन्त्यप्रदेश एव जीवः, शेषास्तु प्रदेशा अजीवा इत्याप्र हो न मुच्यते, तर्हि राजवद्भवतो भाषणम् । यत् प्रतिभासते तदेव जल्पति । तथा च सति-विपर्ययोऽपि कस्मान स्यात् , आधः प्रदेशो जीवः, अन्त्यस्त्वजीव इति(४) अथवा-राजवत् स्वच्छन्दभाषित्वात् भवन्मते विषमत्वं कुतो न स्यात् । केचित् प्रदेशाः जीवाः, केचित्तु अजीवाः, इति (४) । अथवा-सर्वविकल्पसिद्धिः को पूरकता होने पर अन्त्यप्रदेश की तरह प्रत्येक प्रदेश में जीवत्व हो जाने से प्रत्येक जीव असंख्यातजीववाला हो जायगा (१)। अथवा प्रथमादि प्रदेश की तरह अन्त्यप्रदेश में भी अजीवत्व मानने पर सर्वथा जीवका अभाव प्रसक्त होता है। (२) और भी-यदि एक ही प्रदेश जीवत्व की पूर्ति करता है तो ऐसी स्थिति में पूर्ण जीव के द्वारा होने वाली अर्थ संपादनरूप क्रिया एक ही प्रदेश से हो जानी चाहिये-परन्तु ऐसा होता तो दिखता नही है। कहीं सम्पूर्णवस्त्र से होने वाली अर्थक्रिया उसके एक तन्तु से थोडे ही हो सकती है (३)। ___ अथवा-राजा की तरह स्वच्छंदभाषी होने से तुम्हारे मत में विषमता कैसे नहीं होगी-कितनेक प्रदेश जीव हो जायेंगे और कितनेक अजीव हो जायेंगे (४)। માણની પૂરકતા હોવાથી અન્યપ્રદેશની માફક પ્રત્યેક પ્રદેશમાં જીવત્વ થઈ જવાથી પ્રત્યેક જીવ અસંખ્યાત જીવવાળ થઈ જશે. (૧) અથવા પ્રથમ જીવ આદિ પ્રદેશની માફક અંત્યપ્રદેશમાં પણ અજીવત્વ માનવાથી સર્વથા જીવન અભાવ પ્રસક્ત થાય છે. (૨) કિચ—જે એક જ પ્રદેશ જીવત્વની પૂર્તિ કરે છે તે એવી સ્થિતિમાં પણ પૂર્ણ જીવ દ્વારા થનારી અર્થ સંપાદન રૂપ ક્રિયા એક જ પ્રદેશથી થઈ જવી જોઈએ. પરંતુ એવું થતું જોવામાં આવતું નથી, કયાંઈ સંપૂર્ણ વસ્ત્રથી થનારી અર્થ કિયા તેના એક તંતુથી थोडी थश छ ? (3) અથવા–રાજાની માફક સ્વછંદ ભાષી થવાથી તમારા મતમાં વિશેષતા કેમ નહીં આવે? કેટલાક પ્રદેશ જીવ થશે ત્યારે કેટલાક અજીવ થઈ જશે. (૪) ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #738 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रियदर्शिनी टीका. अ० ३ गा० ९ जीवविषये धर्माचार्यतिष्यगुप्तयोः संवादः ६८३ कस्मान भवति, स्वेच्छया सर्वपक्षाणामपि वक्तुं शक्यात् (५)। इति तृतीयपक्षे विकल्पपञ्चकम् ॥ ३ ॥ (४) किंच-यत् प्रथमादिप्रदेशसमुदाये सर्वथा जीवत्वं नास्तीति मन्यसे, तदा एकस्मिन्नन्त्यप्रदेशेऽपि जीवत्वं न स्यात् , यथा सिकताकणसमुदायेषु तैलं नास्तीति प्रत्येककणेऽपि तैलं नास्ति । तहि जीवत्वं कथमेकस्मिन्नेवान्त्यप्रदेशे समायातमिति । (५) किंच-भवन्मतेऽन्त्यप्रदेशे सर्वथा पूर्णो जीवोऽस्ति, तदन्येषु प्रथमादिप्रदेशेषु देशतो जीवोऽस्ति, इति विशेषो यदुच्यते, तन्न युक्तम्-अन्त्योऽपि प्रदेशो भवन्मते देशत एव जीव इति वाच्यम् , प्रदेशत्वात् , प्रथमादिप्रदेशवत् (१) । अथवा-सर्व विकल्पों की सिद्धि भी क्यों न हो जायगी क्यों कि अपनी इच्छा से सब ही पक्ष कह सकने योग्य हो सकते हैं (५)। ॥ये तीसरे पक्ष के पांच विकल्प हुए ॥३॥ (४) और भी-जो प्रथमादिप्रदेशसमुदाय में सर्वथा जीवत्व नहीं है ऐसा माना जाय तो एक अन्त्यप्रदेश में भी जीवत्व कैसे आसकता है, जब बाल के समुदाय में तैल नहीं है, तो भला उसके एक कण में तैल का सद्भाव कैसे माना जासकता है। (५) और भी-तुम्हारे मन्तव्यके अनुसार अन्त्यप्रदेश में ही सर्वथा पूर्णरूपसे जीव है बाकी प्रथमादिप्रदेशो में देशतः जीव है इस प्रकार का विशेष जो तुम कहो तो यह भी कहना ठीक नहीं है क्यों कि इस प्रकार के कथनसे प्रदेश की अपेक्षा प्रथमादिप्रदेश की तरह अन्त्यप्रदेश में भी जीव अंशतः-देशता-ही साबित हो सकेगा (१) અથવા–સર્વ વિકલ્પની સિદ્ધિ પણ કેમ ન થઈ જાય કેમ કે, પિતાની ઈચ્છાથી સર્વ પક્ષ કહેવા લાયક બની જાય છે. (૫) ॥ त्रीत पक्षना पाय वि४६५ थया. (3) (૪) કિંચ-જે પ્રથમાદિ પ્રદેશ સમુદાયમાં સર્વથા જીવત્વ નથી, એવું માનવામાં આવે તે એક અન્ય પ્રદેશમાં પણ છવત્વ કઈ રીતે આવી શકે ? જેમ રેતીના સમુદાયમાં તેલ નથી. તે પછી તેના એક કણમાં તેલનો સદુભાવ કેમ માની શકાય ? (૫)કિચ–તમારા મત અનુસાર અંત્યપ્રદેશમાં જ સર્વથા પૂર્ણ રૂપથી જીવ છે બાકી પ્રથમ આદિ પ્રદેશોમાં દેશતઃ જીવ છે, આ પ્રકારનું વિશેષ જે તમે કહે તો પણ કહેવું ઠીક નથી. કેમકે, આ પ્રકારનું કહેવું પ્રદેશની અપેક્ષાએ પ્રથમાદિ અંત્યપ્રદેશમાં પણ જીવ અંશત દેશતા-જ સાબીત થશે (૧) ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #739 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६८४ उत्तराध्ययनसूत्रे ___ अथ यदि अन्त्यप्रदेशे संपूर्णो जीव इति मन्यसे, तर्हि तत्र संपूर्णतायाः सद्भावे यो हेतुः स प्रथमादिप्रदेशेषु समान एव, तुल्यधर्मकत्वात् । अतस्तेष्वपि प्रतिपदेशं संपूर्णजीवत्वमन्त्यमदेशवत् समापोत (२)। इति पञ्चमपक्षे विकल्पद्वयम् ॥५॥ (६) चरमत्वादस्य चरमप्रदेशस्यैव जीवत्वं मन्यते, तद्भिन्नेषु प्रदेशेषु जीवत्वं प्रतिषिध्यतेऽस्माभिस्तदप्ययुक्तम् , चरमत्वम्-अन्तिमत्वम् , तदपि प्रदेशस्याऽऽपेक्षिकमेव स्यात् , आपेक्षिकं च कदाचिदप्येकत्रनियतं न स्यात् , अपेक्षावशात् सर्वस्यापि प्रदेशस्य चरमत्वसम्भवात् । तस्मादेकेन त्वद्विवक्षितेन चरमेण प्रदेशेन विना ____ यदि अन्त्यप्रदेश में संपूर्ण जीव माना जायगा तो उस प्रदेश में जीव की संपूर्णता साबित करने वाला जो भी हेतु होगा वही हेतु प्रथमादि प्रदेशो में भी उसका समानरूप से साधक बन जायगा । इसलिये अन्तिम प्रदेश की तरह प्रतिप्रदेश में संपूर्णजीव मानने का प्रसंग प्राप्त होगा (२)। ये पांचवे पक्ष के दो विकल्प हुए ॥५॥ (६) चरम होने से चरम प्रदेश में ही जीवत्व यदि माना जायगा, और बाकी भिन्न प्रदेशो में जीवत्व नहीं माना जायगा, तो ऐसा कथन ठीक नहीं माना जा सकता है, क्यों कि अन्तिम प्रदेशमें जो चरमता है वह वहां आपेक्षिक है। जो आपेक्षिक होता है वह एक जगह नियत नहीं माना जा सकता । अपेक्षा के वश से सर्व प्रदेशो में चरमता आसकती है । इसलिये तुम्हारे द्वारा विवक्षित एक चरम प्रदेश યદિ અત્યપ્રદેશમાં સંપૂર્ણ જીવ માનવામાં આવે તે એ પ્રદેશમાં જીવની સંપૂર્ણતા સાબીત કરનાર જે પણ હશે તે જ હેતુ પ્રથમ આદિ પ્રદેશમાં પણ એના સમાનરૂપથી સાધક બની જશે. આ કારણે અંતિમ પ્રદેશની માફક પ્રતિપ્રદેશમાં સંપૂર્ણ જીવ માનવાને પ્રસંગ પ્રાપ્ત થશે. (૨) છે આ પાંચમાં પક્ષના બે વિકલ્પ થયા. પાપા () ચરમ હોવાથી ચરમ પ્રદેશમાં જ જીવત્વ જે માનવામાં આવે અને બાકી બીજા પ્રદેશમાં જીવત્વ ન માનવામાં આવે તે એ કહેવું બરાબર નથી. કેમકે, અંતિમ પ્રદેશમાં જે ચરમતા છે તે ત્યાં આપેક્ષિક છે. જે આપેક્ષિક હોય છે તે એક જગ્યાએ નિયત માનવામાં આવતા નથી. અપેક્ષાના વશથી સર્વ પ્રદેશમાં ચરમતા આવી શકે છે. આ માટે તમારા તરફથી વિવક્ષિત એક ચરમ પ્રદેશ વિના જેમ અપર પ્રદેશ ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #740 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रियदर्शिनी टीका अ० ३ गा. ९ जीवविषये धर्माचार्यतिष्यगुप्तयोः संवादः ६८५ यथाऽपरे प्रदेशास्तव मते जीवत्वं न प्राप्नुवन्ति, तथा जीवतया त्वद्विवक्षितोऽपि चरमः प्रदेशस्तैः प्रदेशैविना जीवत्वं न प्राप्नुयात् । सर्वेषां प्रदेशानामप्यापेक्षिकचरमत्वसिद्धेः (१)। अथ प्रथमादिप्रदेशेषु जीवत्वं न मन्यते, तर्हि चरमप्रदेशेऽपि भवन्मते जीवत्वं न स्यात् । तथाहि-अन्त्यप्रदेशोऽपि न जीवः, प्रदेशत्वात् , प्रथमादिप्रदेशवत् (२)। इति षष्ठपक्षस्य विकल्पद्वयम् ॥६॥ तिष्यगुप्तः माहः-ननु इयं प्रतिज्ञा आगमवाधिता, यतः पूर्वोक्तालापकरूपे श्रुते के विना जैसे अपर प्रदेश तुम्हारे मन्तव्यके अनुसार जीवरूप नहीं माने जाते हैं उसी तरह जिस चरम प्रदेशको तुम जीवरूपसे विवक्षित कह रहे हो ऐसा वह चरम प्रदेश भी उन द्वितीयादि प्रदेशों के विना जीवस्वरूप नहीं माना जा सकता है, क्यों कि अपेक्षा से सर्व प्रदेशो का चरमत्व पहले सिद्ध हो चुका है। यदि प्रथमादिप्रदेशों में जीव नहीं माना जायगा तो चरम प्रदेश में भी तुम्हारी मान्यतानुसार जीवपना नहीं आ सकता है। प्रयोग-" अन्त्यप्रदेशोऽपि न जीवः प्रदेशत्वात् प्रथमादिप्रदेशवत्" प्रथमादि प्रदेश की तरह अन्त्यप्रदेश भी प्रदेश होने से जीवस्वरूप नहीं हो सकता है (२) ये छठे पक्ष के दो विकल्प हुए ॥६॥ तिष्यगुप्त कहता है-आप इस अनुमान प्रयोग से जो अन्त्यप्रदेश में जीवत्व का निषेध करते हैं सो आपका यह कथन आगम से बाधित होता है, क्यों कि पूर्वोक्त आलापकरूप आगम में प्रथमादि प्रदेशों में તમારા માનવા મુજબ જીવરૂપ માનવામાં આવતા નથી એજ રીતે જે ચરમ પ્રદેશને તમે જીવરૂપથી વિવક્ષિત કરી રહ્યા છે તેવા તે ચરમ પ્રદેશ પણ એ દ્વિતીયાદિ પ્રદેશ વિનાના જીવ સ્વરૂપ માનવામાં આવતા નથી. કેમકે, અપેક્ષાથી સર્વ પ્રદેશનું ચરમત્વ પહેલાં સિદ્ધ થઈ ચુકેલ છે. (૧) પ્રથમ આદિ પ્રદેશમાં જે જીવ ન માનવામાં આવે તે ચરમ પ્રદેશમાં પણ તમારી માન્યતા અનુસાર જીવપણું આવી શકતું નથી. प्रयाग-"अन्त्यप्रदेशोऽपि न जीवः प्रदेशत्वात् प्रथमादिप्रदेशवत्" प्रथम माह પ્રદેશની માફક અત્યપ્રદેશ પણ પ્રદેશ હેવાથી જીવ સ્વરૂપ બની શકતા નથી. - આ છઠ્ઠા પક્ષના બે વિકલ્પ થયા. ૬ તિષ્યગુપ્ત કહે છે – આપ આ અનુમાન પ્રાગથી અન્ય પ્રદેશમાં જીવત્વને નિષેધ કરે છે, તે આપનું એ કહેવું આગમથી બાધિત થાય છે. કેમકે, પૂર્વોક્ત આલાપકરૂપ આગમમાં પ્રથમાદિ પ્રદેશમાં જીવત્વ નથી એવું ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #741 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६८६ उत्तराध्ययन सूत्रे प्रथमादिपदेशा जीवत्वेन निषिद्धाः, न पुनरन्स्य प्रदेशः " अनिषिद्धमनुमतं भवती - " ति न्यायात्, तत्र जीवत्वानुज्ञानात् । अतः प्रथमादिपदेशवत् अन्त्यस्यजीवत्वनिषेधो न शास्त्रानुमत इति चेत् — उच्यते 9 (७) आचार्यः माह – अन्त्यप्रदेशोऽपि श्रुते जीवत्वेन निषिद्धोऽस्ति यतः - " एगे भंते ! जीवपए से जीवेत्ति वत्तव्यं सिया ? णो इणट्ठे समट्ठे । " इति तत्रैवोक्तम् । तस्मात् यदि श्रुतं भवतः प्रमाणं तदा भवन्मतेऽन्य प्रदेशस्यापि जीवत्वं न वाच्यम्, एकत्वात् प्रथमाद्यन्यतरप्रदेशवत् ( १ ) । जीवत्व नहीं है ऐसा स्पष्टरूप से कहा गया है । तथा अन्त्यप्रदेश में जीव है ऐसा विधान किया गया है, क्यों कि जो अनिषिद्ध होता है, वह अनुमत समझा जाता है इससे ऐसा ज्ञात होता है कि अन्त्य - प्रदेश में जीवत्व की मान्यता शास्त्रसंमत है । इसलिये मैं कह रहा हूं कि प्रथमादिप्रदेशों की तरह अन्त्यप्रदेश में जीवत्व का निषेध शास्त्रानुमत नहीं है। (७) आचार्य कहते हैं - ऐसा नहीं है, अन्त्यप्रदेश में जीव है यह बात भी शास्त्र में निषद्ध की गई है, क्यों कि " एगे भंते! जीवपएसेजीवेति वक्तव्व सिया ? णो इणट्ठे समट्ठे " यह पाठ भी वहीं पर आया है, सो यदि तुम को श्रुत में प्रमागता अभीष्ट है तो तुम को " अन्त्य - प्रदेश में जीव है " ऐसा नहीं कहना चाहिये, क्यों कि प्रथमादि अन्यतर प्रदेश की तरह एक प्रदेशता अन्त्य के प्रदेश में भी स्थित है । (१) । સ્પષ્ટ રૂપથી કહેવામાં આવ્યુ છે. તથા અન્યપ્રદેશમાં જીવ છે એવું વિધાન કરવામાં આવેલ છે. કેમકે, જે અનિષિદ્ધ હોય છે તે અનુમત સમજવામાં આવે છે. આથી એવું જાણી શકાય છે કે, અન્ત્યપ્રદેશમાં જીવની માન્યતા શાસ્ત્ર સંમત છે. આથી હું એવું કહું છું કે, પ્રથમ આદિ પ્રદેશેાની માફક અન્યપ્રદેશમાં જીવત્વના નિષેધ શાસ્રાનુમત નથી. (૭) આચાર્યં કહે છે એવુ નથી. અન્યપ્રદેશમાં જીવ છે એ વાત પણ शास्त्रमां निषिद्ध १२वामां आवे छे. भ, "एगे भते ! जीवपएसे जीवेत्ति वत्तव्वं सिया ? णो इणट्टे समट्ठे " या पाठ पशु त्यांन यावेस छे, साथी ले તમને શ્રુતમાં પ્રમાણુતા અભીષ્ટ છે તે તમારે અન્ત્યપ્રદેશમાં જીવ છે” તેમ ન કહેવુ જોઇએ. કેમકે, પ્રથમાર્દિક અન્યતર પ્રદેશની માફક એક પ્રદેશતી મત્સ્યના પ્રદેશમાં પણ સ્થિત છે. (૧) 66 ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર ઃ ૧ Page #742 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रियदर्शिनी टीका. अ० ३ गा०९ जीवविषये धर्माचार्यतिष्यगुप्तयोः संवादः ६८७ किंचयदि श्रुतं प्रमाण मन्यते तर्हि सर्वेऽपि जीवप्रदेशाः परिपूर्णाः जीवस्वेन श्रुते उक्ताः, न त्वेक एव चरमप्रदेशः। उक्तं हि तत्रैव-" जम्हा णं कसिणे पडिपुण्णे लोगागासपएसतुल्ले जीवे त्ति वत्तव्वं सिया"। अतः श्रुतमामाण्यादन्त्यप्रदेश एव न जीवत्वेनेष्टव्यः किंतु सर्व प्रदेशाः समुदिताः प्रतिपूर्णी जीव इति मन्तव्यम् । (२) यथा-एकोऽपि तन्तुः समस्तपटोपकारी भवति, तं विना समस्तपटाभावात् , परंतु स एकस्तन्तुः समस्तपटो न भवति, किंतु-सर्वेऽपि तन्तवः समुदिता संपूर्णपटव्यपदेशं लभन्ते, इति लोके प्रसिद्धिः । तथा एको जीवप्रदेशोऽपि जीवो न भवति, किंतु सर्वेऽपि जीवप्रदेशाः समुदिता जीव इति । ___ और भी-तुम यदि श्रुत को प्रमाण मानते हो तो सम्मिलित समस्त जीवप्रदेश ही जीव है, ऐसा शास्त्र में कहा है, एक चरम प्रदेश ही जीव है ऐसा नहीं कहा है । देखो वहीं पर ऐसा कहा हे-" जम्हा णं कसिणे पडिपुण्णे लोगागासपएसतुल्ले जीवेत्ति वत्तव्वं सिया"। इस लिये श्रुतप्रमाण से तुम को अन्त्यप्रदेश ही जीव है ऐसा दुराग्रह छोड़ देना चाहिये। ऐसा मानना चाहिये कि सम्मिलित समस्त प्रदेश ही जीव है(२) जिस प्रकार एक भी तन्तु समस्त पट का उपकारी होता है, क्यों कि उसके विना समस्त पट नही कहला सकता, किन्तु इसका तात्पर्य यह थोडे ही होता है कि वह तन्तु ही समस्त पट हो जाता है। समस्त तन्तुओं का समुदाय ही एक पूरा पट कहलाता है, ऐसी बात लोक में प्रसिद्ध है, उसी तरह एक जीवप्रदेश भी जीव नहीं है किन्तु समुदित समस्त जीवप्रदेश ही एक जीव है। તમે જે કૃતને પ્રમાણ માનતા હે તો સમ્મિલિત સમસ્ત પ્રદેશ જ જીવ છે એવું શાસ્ત્રમાં કહ્યું છે. એક ચરમ પ્રદેશ જ જીવ છે તેવું डस नथी. नुस। ०४ १४या से छे-“ जम्हाणं कसिणे पडिपुण्णे लोगागासपयेसतुल्ले जीवेत्ति वत्तव्वं सिया' माथी श्रुत प्रभाथी अन्त्य પ્રદેશ જ જીવ છે એ દુરાગ્રહ તમારે છેડી દેવું જોઈએ. એવું જ માનવું ये, सम्मिलित समस्त प्रदेश ४ १ . (२) । જે રીતે એક પણ તંતુ સમસ્ત પટને ઉપકારી હોય છે કેમકે, તેના વગર સમસ્ત પટ કહેવાતું નથી. પરંતુ એનું તાત્પર્ય એ થોડું જ થાય છે કે, એ તંતુ જ સમસ્ત પટ બની જાય છે. સમસ્ત તંતુઓને સમુદાય જ એક પૂરે ૫ટ કહેવાય છે. આ વાત લેકમાં પ્રસિદ્ધ છે, એ જ રીતે એક જીવ. પ્રદેશ પણ જીવ નથી પરંતુ સમુદિત સમસ્ત જીવપ્રદેશ જ એક જીવ છે. ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #743 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययनस्ने किंच-'घटोऽयम्' इति व्यवहारो यथैकस्मिन् परमाणौ न भवति तथा'अयमात्मा' इत्यात्मनोऽपि निर्देशः खल्वेकस्मिन् प्रदेशे न भवति (३) इति सप्तमपक्षस्य विकल्पत्रयम् ॥७॥ (८) ननु कस्य नयस्यैवं मतम् ? इति चेत् , उच्यते-एवंभूताख्यस्य नयस्येदं मतम् । एवं भूतत्वं च-पदानां व्युत्पत्यर्थान्वयनियतार्थबोधकत्वेनाभ्युपगन्तव्यम् । नियमच कालतो देशतश्चेति न समभिरूढेऽतिव्याप्तिः। ए भूतनयमाश्रित्यभगवता-" जम्हा णं कसिणे पडिपुण्णे लोगागासपएसतुल्ले जोवेत्ति वत्तव्वं " इत्युक्तम् । तेन यावन्तोऽसंख्यातप्रदेशा लोकाकाशतुल्याः जीवस्य सन्ति, ते सर्व समुदिता एवं प्रदेशाः पूर्णो जीवः, नत्वेकश्वरमो वा प्रथमो वा द्वितीयादि और भी-जिस प्रकार एक परमाणु में " घटोऽयम्" इत्याकारक व्यवहार नहीं होता है उसी तरह एक जीवप्रदेश में भी "अयं आत्मा" इत्याकारक व्यवहारका निर्देश नहीं हो सकता है (३) ये सातवें पक्ष के तीन विकल्प हुए ।। ७॥ (८) इस प्रकार का वह किस नय का अभिमत है ?, उत्तर-इस प्रकार का यह अभिमत एवंभूत नय का है । व्युत्पत्ति से लभ्य अर्थ के संबंध से जिस में नियतार्थबोधकता (निश्चित अर्थ को समझाने की शक्ति) हो वही एवंभूतनय है। नियतार्थबोधकता इस में काल की एवं देश की अपेक्षा से जानना चाहिये । इस प्रकार समभिरूढनय से इसकी अतिव्यासि नहीं होती है । इसी एवंभूतनय को आश्रित कर भगवान ने "जम्हाणं कसिणे पडिपुण्णे लोगागासपएसतुल्ले जीवेत्ति वत्तव्वं सिया" यह सूत्रालापक कहा है। इस २ प्रारे ४ ५२भामा “घटोऽयम् " त्या४।२४ पडेपार थत नथी तवी शत में प्रदेशमा ५५ " अयं आत्मा" त्या४।२४ पडेपार - निश-थ शत नथी. (3) सातमा पक्षन । ऋण वि४६५ च्या. ॥७॥ (८) मा प्रा२नी च्या नयना मलिभत छ ? ઉત્તર–આ પ્રકારને એ અભિમત એવંભૂત નયને છે. વ્યુત્પત્તિથી લભ્ય અર્થના સંબંધથી જેમાં નિયતાથ બોધતા (નિશ્રીત અને સમજવાની શક્તિ) હોય તે એવંભૂત નય છે. નિયતાર્થ બેધકતા તેમાં કાળની અને દેશની અપેક્ષાથી જાણવી જોઈએ. આ પ્રકારે સમભિરૂઢ નયથી તેની અતિવ્યાપ્તિ થતી नथी. 20 भूत नयने साश्रीत ४ मगवान "जम्होणं कसिणे पडिपुण्णे लोगागासपयेसतुल्ले जीवेत्ति वत्तव्वं सिया" मा सूत्रादाय ४९ छे. माथी ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #744 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रियदर्शिनी टीका. अ० ३ गा०९ जीवविषये धर्माचार्यतिष्यगुप्तयोः संवादः ६८९ एकैकः प्रदेशो जीव इति मन्तव्यम् । लोकाकाशप्रदेशतुल्यादिना भगवत्प्रदर्शितव्युत्पत्यर्थाऽसंख्यातप्रदेशसम्बन्धरूपस्य कालादिना नियतस्यार्थस्य बोधकत्वं निरवशेषप्रदेशसद्भावे एव भवितुमर्हति । न तु अन्त्यप्रदेशमात्र एव जीव इति मन्यस्व । __ अथ "ग्रामो दग्धः, पटो दग्धः" इत्यादि न्यायादेकदेशेऽपि संपूर्णवस्तूपकारण जितने असंख्यातप्रदेश लोकाकाश के तुल्य एक जीव के हैं वे सब समुदितप्रदेश ही एक पूर्ण जीव है। एक केवल चरमप्रदेश अथवा प्रथमप्रदेश या द्वितीयादिक एक एक प्रदेश जीव नहीं है। एवंभूत नय में त्युत्पत्ति से लभ्य अर्थ के संबंध से नियतार्थबोधकता तभी आ सकती है कि जब निरवशेष प्रदेश के सद्भाव में जीव माना जाय। नहीं तो नियतार्थबोधकता नहीं आ सकती है, क्यों कि लोकाकाश आदि के द्वारा जो इसके प्रदेशों की तुल्यता कही है वह अर्थ तभी यहां घटित हो सकता है कि जब एक जीव कालादिक के द्वारा नियत असंख्यात प्रदेशों के समुदायरूप हो । तात्पर्य इसका यही है कि जीव-शब्द का अर्थ जब एवंभूत नय की अपेक्षा विचारकोटि में आयगा तब वह असंख्यातप्रदेशविशिष्ट होगा तो ही इसका विषय माना जा सकेगा-अन्यथा नहीं। एक द्वितीय आदि भिन्न २ प्रदेशस्वरूप जीव-शब्द का अर्थ एवंभूत की अपेक्षा नहीं माना जा सकता। शंका-जिस प्रकार "ग्रामो दग्धः, पटो दग्धः" ग्राम जल गया वस्त्र જેટલા અસંખ્યાત પ્રદેશ કાકાશની તુલ્ય એક જીવના છે તે સઘળા સમુદિત પ્રદેશ જ એક પૂર્ણ જીવ છે. એક કેવળ ચરમપ્રદેશ અથવા પ્રથમ પ્રદેશ અથવા બીજા કોઈ એક એક પ્રદેશ જીવ નથી. એવંભૂતનયમાં વ્યુત્પત્તિથી લભ્ય અર્થને સંબંધથી નિયતાર્થ બોધકતા ત્યારે આવે છે કે, જ્યારે નિરવ શેષ પ્રદેશના સદૂભાવમાં જીવ માનવામાં આવે. નહીં તો નિયતાર્થ બેધકતા આવી શકતી નથી. કેમકે, લોકાકાશ. આદિ દ્વારા જે તેના પ્રદેશની તુલ્યતા બતાવી છે તે અર્થ ત્યારે જ અહીં ઘટીત થઈ શકે કે, જ્યારે એક જીવ કાલાદિકના દ્વારા નિયત અસંખ્યાત પ્રદેશના સમુદાયરૂપ હોય, તાત્પર્ય આનું એ છે કે, જીવ શબ્દને અર્થ જ્યારે એવંભૂત નયની અપેક્ષા વિચાર કેટીમાં આવશે ત્યારે તે અસંખ્યાત પ્રદેશ વિશિષ્ટ હશે તે જ તેને વિષય માની શકાશે. એ વગર નહીં. એક બીજાથી જુદા જુદા પ્રદેશ સ્વરૂપ જીવ શબ્દને અર્થ એવંભૂતની અપેક્ષા માનવામાં આવતું નથી. श-2वी शत “ग्रामो दग्धः, पटो दग्धः " ॥भमणी आयु. १ मनी उ०८७ ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #745 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६९० उत्तराध्ययनसूत्रे चारादन्त्यप्रदेशलक्षणैकदेशेऽपि संपूर्णजीवबुद्धिः स्यात् , इति चेत् , तर्हि प्रथमादिप्रदेशेऽपि उपचारात् तवम ते जीवत्वापत्तिः, न्यायस्य तुल्यत्वात् । अयं त्वत्पक्षमङ्गीकृत्य दोषः प्रदत्तः । वस्तुतस्तु उपचारादपि त्वत्पक्षो नोपपद्यते-एक एवान्त्यप्रदेश उपचारेण जीवो न भवितुमर्हति, किं तु देशोने एवं जीवोपचारो युज्यते । यथा-स्वल्पैस्तन्तुभिख्ने पटे पटोपचारो दृश्यते, नत्वेकस्मिस्तन्तुमात्रे । जल गया, इस प्रकार का व्यवहार गांवके एवं वस्त्र के एक देश जल जाने पर सम्पूर्णगांव तथा वस्त्र में उपचार से माना जाता है, उसी प्रकार यहांपर भी अन्तिमप्रदेश में जीव का व्यवहार मुख्यतया मानने पर इतर प्रदेशों में वह उपचार से मान लिया जायगा ?।। उत्तर-इस प्रकार का कथन ठीक नहीं माना जा सकता, क्यों कि इस प्रकार के कथन से वास्तविक अर्थ की सिद्धि तो हो नहीं सकती है। जिस प्रकार गांव के एक प्रदेश में समस्त गांव का उपचार मानकर गांव जल गया ऐसा कह दिया जाता है, उसी प्रकार अन्त्यप्रदेश में जीव का उपचार मान लिया जायगा सो ऐसा कथन तुम्हारे मन्तव्य से विरुद्ध पडता है, क्यों कि तुम तो वहां मुख्यरूप से संपूर्ण जीव मान रहे हो। अतः इस प्रकार के कथन से अपसिद्धान्त नाम के निग्रहस्थान में तुम्हारा पतन है। दूसरे उपचार मुख्यार्थ का साधक नहीं हुआ करता है। जब तुम अन्तिम प्रदेश में जीवका उपचार करोगे तो इसका ગયું, આ પ્રકારને વહેવાર ગામ અને વસ્ત્રના એક ભાગ બળી જવાથી સંપૂર્ણ ગામ અને વસ્ત્રમાં ઉપચારથી માનવામાં આવે છે. એ રીતે અહીં પણ અંતિમ પ્રદેશમાં જીવને વહેવાર મુખ્યતયા માનવાથી બીજા પ્રદેશોમાં તે ઉપચારથી માની લેવામાં આવશે? उत्तर-20 शत ४३ अराम नथी. भाडे, मारी पाथी वास्त. વિક અર્થની સિદ્ધી થઈ શકતી નથી. જે રીતે ગામના એક ભાગમાં સમસ્ત ગામને ઉપચાર માનીને ગામ બળી ગયું એવું કહેવામાં આવે છે. તે જ રીતે અત્યપ્રદેશમાં સમસ્ત જીવન ઉપચાર માની લેવામાં આવશે તેવું કહેવું તમારા મન્તવ્ય વિરૂદ્ધનું છે કેમકે, તમે તે ત્યાં મુખ્યરૂપથી સંપૂર્ણ જીવ માની રહ્યા છે આથી આ પ્રકારનું કહેવાથી અપસિદ્ધાંત નામના નિગ્રહસ્થાનમાં તમારું પતન છે. બીજું ઉપચાર મુખ્ય અર્થને સાધક નથી થતે જ્યારે તમે અંતિમ પ્રદેશમાં જીવને ઉપચાર કરશે તે એને અર્થ એ પણ થઈ ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #746 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रियदर्शिनी टीका. अ० ३ गा.९ अप्रतिबुद्धतिष्यगुप्तस्य बहिष्कारः ६११ तस्मात् सर्वेष्वात्मप्रदेशेषु जीवत्वं व्याप्तं पुष्पे गन्ध इव, क्षीरे घृतमिव, तिले तैलमिवेति निश्चितम् । वत्स ! श्रद्धत्स्व भगवद्वाक्यं विधत्स्व सफलं जनुः । एवं दयालुना धर्माचार्येण प्रतिबोधितोऽपि कदाग्रहग्रस्तस्तिष्यगुप्तस्तत् कुमतं तात्पर्य यह भी तो हो जाता है कि प्रथमादिप्रदेश में भी जीव है। जैसे गांव का एक देश जला तभी तो जाकर उस में समस्त गवि का उपचार किया गया। इसी प्रकार अन्तिमप्रदेशरूप एक देश में समस्त जीवका व्यवहार भी तो तभी हो सकेगा कि जब वह प्रथमादि असंख्यात प्रदेशमय ही जीव है ऐसा ही मानना चाहिये। केवल अन्तिमप्रदेश में ही समस्त जीव है ऐसा नहीं मानना चाहिये, तथा जिस प्रकार स्वल्प तन्तुओं से विहीन पट में पट का उपचार किया जाता है एक तन्तु में नहीं, उसी प्रकार कुछ कम प्रदेशविहीन जीव में ही जीव का उपचार करना योग्य हो सकता है सिर्फ एक अन्तिमप्रदेश में ही नहीं। इसलिये जिस प्रकार पुष्पमें गन्ध दूध में घृत, तिल में तैल व्याप्त होकर रहता है उसी प्रकार अपने समस्त प्रदेशों में एक जीव व्याप्त होकर रहता है। यह मानना ही युक्तिसंगत है । इसलिये हे तिष्यगुप्त ! तुम भगवान् के वचनों पर विश्वास लाओ और अपने जन्म को सफलित करो। इस प्रकार दयालु धर्माचार्य ने तिष्यगुप्त को खूब समझाया परन्तु જાય છે કે, પ્રથમ આદિ પ્રદેશમાં જીવ છે. જેમ ગામને એક ભાગ બને. ત્યારે તે સમસ્ત ગામનું નામ અપાયું. આજ રીતે અન્તિમપ્રદેશરૂપ એક દેશમાં સમસ્ત જીવને વહેવાર પણ ત્યારે થઈ શકે કે જ્યારે તે પ્રથમ આદિ ઈતર પ્રદેશની સાથે સંબંધિત થાય. તેના વગર નહીં. આથી પ્રથમાદિ અસંખ્યાત પ્રદેશમય જે જીવ છે એવું જ માનવું જોઈએ. કેવળ અંતિમપ્રદે. શમાં જ સમસ્ત જીવ છે એવું માનવું ન જોઈએ. તથા–જેમ થેડા તંતુઓથી વિહીન પટમાં પટને ઉપચાર કરાય છે. એક તંતુથી નહીં. તેવી રીતે થોડા ઓછા પ્રદેશ વિહીન જીવમાં જ જીવને ઉપચાર કરે એગ્ય થાય છે. ફક્ત એકલા અંતિમ પ્રદેશમાં જ નહીં. આ માટે જે પ્રકારે પુષ્પમાં ગંધ, દૂધમાં ઘી, તલમાં તેલ, વ્યાપ્ત બનેલ રહે છે એવી જ રીતે પિતતાના સમસ્ત પ્રદેશમાં એક જીવ વ્યાપ્ત થઈને રહે છે. આ માનવું એજ યુક્તિ સંમત છે. આ માટે હે તિષ્યગુસ! તમે ભગવાનના વચન ઉપર વિશ્વાસ લાવે અને પિતાના જન્મને સફળ બનાવો. આ રીતે દયાળુ ધર્માચાર્યો તિજ્યગુપ્તને ખૂબ સમજાવ્યું. પરંતુ તિષ્યગુપ્ત ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #747 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६९२ उत्तराध्ययन सूत्रे न त्यक्तवान् । ततो धर्माचार्यैः कायोत्सर्गपूर्व स वहिष्कृतः पृथिव्यां स्वमतं प्रचारयन् पर्यटति | अन्यदा स तिष्यगुप्तः स्वपरिवारपरिवृतो ग्रामानुग्रामं पर्यटन् आमलकल्पायां नगमासालवने समायातः । तस्यां नगर्यो श्रीजिनेन्द्रचरणारविन्दमधुत्रतो मित्रश्रीनामकः श्रावक स्तिष्यगुप्तमुनिमागतं श्रुत्वाऽन्यश्रावकैः सह तत्रोद्याने समायातः । यथाविधि प्रणम्य स तद्देशनां शुश्राव । स तिष्यगुप्तस्तं निह्नवं विज्ञाय मनसि चिन्तयति -' इममवसरे दृष्टान्तेन बोधयिष्यामि ' इति । तिष्यगुप्त ने अपना कदाग्रह नहीं छोड़ा । धर्माचार्य ने जब यह देखा तो उन्हों ने उसको कायोत्सर्गपूर्वक पृथक् कर दिया । तिष्यगुप्त भी बहिष्कृत होकर देशोदेश विचरने लगा और अपने मत का प्रचार करने लगा । किसी एक समय ग्रामानुग्राम विहार करते हुए वे तिष्यगुप्त अपने शिष्यपरिवारसहित आमलकल्पा नगरी के आम्रसाल वन में आये । तिष्यगुप्त को आम्रसाल वन आये हुए सुनकर वहाँ का श्रावक कि जिसका नाम मित्रश्री था और जिनेन्द्र भगवान के चरण कमल का जो मधुकर था अन्यश्रावक जनों के साथ उस उद्यान में आया । सविधि वन्दन कर वह तिष्यगुप्त की धार्मिक देशना सुनने लगा । तिष्यगुप्त ने अपने विचार से मित्रश्री श्रावक को निह्नव जान कर अपना असर उस पर डालने के अभिप्राय से दृष्टान्तपुरस्सर समझाना प्रारंभ किया । मित्रश्री सेठ भी उनकी देशना सुनकर बापिस अपने स्थान पर आ गया । પોતાના હઠાગ્રહ ન છોડયા ધર્માચાર્યે જ્યારે આ પરિસ્થિતિ જાણી ત્યારે તેમણે કાર્યોત્સગ પૂર્વક શિષ્ય તરીકે છુટા કરી દીધા. પેાતાના ધર્માચાય થી છુટા કરાએલ તિષ્યનુસ ગ્રામાનુગ્રામ વિચરવા લાગ્યા અને પેાતાના મતના પ્રચાર કરવા લાગ્યા. કોઈ એક સમય ગ્રામાનુગ્રામ વિહાર કરતાં કરતાં તે તિષ્યગુસ પેાતાના શિષ્યપરિવાર સહિત આમલકલ્પા નગરીના આમ્રસાલ વનમાં આવ્યા. તિષ્યગુપ્તને આમ્રસાલવનમાં આવેલા સાંભળીને ત્યાંના શ્રાવક કે, જેનું નામ મિત્રશ્રી હતું અને જીનેન્દ્રભગવાનના ચરણ કમળના જે પ્રેમી હતા તે બીજા શ્રાવકની સાથે તે વનમાં ગયા. સવિધિ પ્રણામ કરી તે તિષ્યગુપ્ત મુનિની ધાર્મિક દેશના સાંભળવા લાગ્યા. તિષ્યષુપ્તે પોતાના વિચારથી મિત્રશ્રી શ્રાવઅને નિવ જાણીને તેના ઉપર પેાતાની અસર પાડવાના અભિપ્રાયથી દૃષ્ટાંત દાખલા દલીલે આપવાના પ્રારંભ કરી દીધા, મિત્રશ્રી શેઠ તેમની દેશના સાંભળ્યા પછી પેાતાના સ્થાન ઉપર પાછા ફર્યો. ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર ઃ ૧ Page #748 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रियदर्शिनी टोका अ० ३ गा०९ मित्रश्रीश्रावकेण तिष्यगुप्तस्य प्रतिबोधः ६९३ ____ अन्यदा मित्रश्रीश्रावकः शिष्यपरिवारैः सह निष्यगुप्तमुनि भिक्षाचर्यायां पर्यटन्तं वदति-अध भवन्तो मद्गृहं पुनन्तु । ततस्ते तद्गृहं गताः । तदनु स यथा कल्प्यमोदकादि बहुविधाऽशनपानखाद्यस्वाद्यसंभृतानि भाजनानि तत्पुरः स्थापयित्वा एकैकस्य मोदकादेरंशं तिलप्रमाणमेकैकं तस्मै प्रदत्तवान् । इत्थं कूरस्य सूपस्य शाकस्याप्येकैकं सिक्थमर्पितवान् । तथा क्षीरस्य घृतस्य जलस्य च विन्दुमेकं, पटस्य तन्तुमात्रं प्रदत्तवान् । तदा सशिष्यस्तिष्यगुप्तो मनसि भावयति- अयं केनापि कारणेन पूर्वमेवं ददाति, पश्चात् पूर्ण प्रदास्यति। एवं भावयतस्तस्य मुनेः पुरस्तादसौ स्वयं नमन् स्वबन्धून प्राह-भो ! यूयमेतान् मुनिवरान् वन्दध्वम् । स पुनः एक समय की बात है कि जब तिष्यगुप्त अपने शिष्यपरिवारके साथ भिक्षाचर्या के निमित्त नगर में आये हुए थे तब मित्रश्री सेठने उनसे कहा महाराज ! आज तो आप मेरा घर पवित्र करें। मित्रश्री सेठकी प्रार्थना सुनकर तिष्यगुप्त वहां गये, मित्रश्रो सेठने कल्पनीय मोदकादिक वस्तुओंसे सज्जित कर अनेक थाल वहां रख दिये, और उनमें से एक २ कल्पनीय वस्तुका तिल २ बराबर अंश निकाल २ कर उनको देने लगा. इसी तरह दाल भात शाक आदि का भी एक २ सीथ उनको दिया। दूध घृत जल को भी बिन्दुप्रमाण में दिया । वस्त्र का भी एक तन्त दिया। उसकी इस प्रकार दानशीलता देखकर तिष्यगुप्त ने विचार किया-यह किसी कारण वश ही ऐसा दे रहा है पश्चात् सम्पूर्ण चीज दे देगा, मुनि तिष्यगुप्त इस प्रकारका विचार कर हो रहे थे कि मित्रश्री सेठ उनको नमन कर अपने बन्धुओं से कहा कि-आप लोग इन એક સમય જ્યારે તિષ્યગુપ્ત પોતાના શિષ્ય પરિવાર સાથે ભિક્ષાચર્યા માટે નગરમાં આવ્યા હતા ત્યારે મિત્રશ્રી શેઠે તેમને કહ્યું, મહારાજ ! આજ તે આપ મારું ઘર પવિત્ર કરે.શેઠની વિનંતી સાંભળી તિષ્યગુપ્ત શેઠને ત્યાં ગયા. મિત્રશ્રી શેઠે કહે નીયમેદકાદિક વસ્તુઓથી સજીત કરી ઘણુ થાળ ત્યાં રાખી દીધા. અને તેમાંથી એક એક કલ્પનીય વસ્તુનો તલ તલ જેટલો ભાગ કાઢીને તેમને આપવા માંડે. આજ शहाण, मात, ४, पगेरेन। ५९ मे मे ४१ तेभने माया. मीर, घी, પાણી, વગેરે પણ બીંદુ પ્રમાણમાં આપ્યું. વસ્ત્રને પણ એક તાંતણો આપે. એની આ પ્રકારની દાનશીલતા જોઈને તિષ્યગુપ્ત વિચાર કર્યો–આ કેઈ કારણ વશ થઈને જ આ પ્રમાણે આપી રહેલ છે. પછીથી બધી વસ્તુઓ આપશે. મુનિ તિષ્યગુપ્ત આ પ્રકારના વિચાર કરી રહ્યા હતા ત્યારે મિત્રશ્રી શેઠે તેમને નમન કરી પોતાના બંધુઓને કહ્યું કે, આપ લોક પણ આ મુનિરાજેને વંદના કરે. ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #749 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययनसूत्रे शिष्यपरिवारसहितं तिष्यगुप्तमुनि प्राह-भदंत ! अद्य मया मुनयः प्रतिलाभिताः । अतः कृतार्थोऽस्मि, कृतलक्षणोऽस्मि, कृतपुण्योऽस्मि, इत्यादि । ___ ततस्तिष्यगुप्तमुनिमित्रश्रीश्रावकं माह-कथं त्वया धर्षणा कृता ?, तेन श्रावकेणोक्तम्-मया धर्षणा न कृता । भवन्मते-अन्तिमेऽवयवे दत्ते पूर्णोऽवयवी दत्तो भवति, यथाऽन्तिमे प्रदेशे जीवः पूर्णोऽस्ति, तथा सर्वोऽप्यवयवी चरमावयवे पूर्णतया वर्तते । यदि जिनवचनं सत्यमिति भवताऽभ्युपगम्यते, तदा तन्मतमाश्रि. त्यभवते भैक्षं दातव्यं भवेत् । मुनिराजों को वंदना करो। पश्चात् सपरिवार मुनि तिष्यगुप्त से भी उसने कहा भदन्त ! आज मैंने मुनियों को दान दिया इसलिये मैं कृतार्थ कृतलक्षण एवं कृतपुण्य अपने आपको मान रहा है। तिष्यगुप्त मुनिने इस परिस्थिति को देखकर मित्रश्री सेठसे कहा कि यह तो ठीक है परन्तु यह तो बताओ कि तुमने यह मेरी आशातनाअनादर क्यों की है ? श्रावक मित्रश्रीने कहा-इसमें आशातना की कौन सी बात है। आपका तो सिद्धान्त ही ऐसा है कि एक अन्तिम अवयव में सम्पूर्ण अवयवी रहता है, अतः एक अंतिम अंश दिया जाने पर सम्पूर्ण अवयवी दे दिया जाता है। इसी अभिप्राय से मैं ने ऐसा किया है जिस प्रकार अंतिम प्रदेश में पूर्ण जीव है उसी प्रकार पूर्णमोदादिक अवयवी भी अपने चरम अवयव में रहा हुआ है । आपकी दृष्टि में यदि जिनवचन सत्य हो तो ही मैं उसके अनुसार आप को भिक्षा दे सकता हूं। પછી તિષ્યગુપ્ત મુનિ અને તેમના શિષ્ય પરિવાર મુનીઓને ઉદ્દેશીને કહ્યું કે, ભદન્ત! આજ મેં મુનિઓને દાન દીધું એથી હું કુતાર્થ કૃત લક્ષણ અને કૂતપૂર્ણ મારી જાતને માની રહ્યો છું. જ આ પરિસ્થિતિ જોઈને તિષ્યગુપ્તમુનિએ મિત્રશ્રી શેઠને કહ્યું કે, એ તે ઠીક છે. પરંતુ એ તે બતાવે કે તમે આ રીતે મારી આશાતના-અનાદર શા માટે કર્યો છે? શ્રાવક મિત્રશ્રીએ કહ્યું–આમાં અનાદરની કઈ વાત છે? આપને તે સિદ્ધાંત જ એ છે કે, એક અંતિમ અવયવમાં સંપૂર્ણ અવયવી રહે છે. આથી એક અંતિમ અંશ આપવામાં આવ્યાથી સંપૂર્ણ અવયવી આપ્યા બરાબર છે. આ અભિપ્રાયથી મેં આમ કરેલ છે. જે રીતે અંતિમ પ્રદેશમાં પૂર્ણ જીવ છે એજ રીતે પૂર્ણ મેદકાદિક અવયવી પણ પિતાના ચરમ અવયવમાં રહેલ છે. આપની દૃષ્ટિમાં જે જિન વચન સત્ય હોય તે જ હું તે અનુસાર આપને ભિક્ષા આપી શકું છું. ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #750 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रियदर्शिनी टीका अ.३ गा०९ द्वितीयनिहवसमाप्तिः, तृतीयनिय प्रारम्भः १९५ मित्रश्रीश्रावकस्यैतद्वचनं श्रुत्वा सपरिवारस्तिष्यगुप्तमुनिः सबुद्धः सन् पाहमहाश्रावक ! सत्येयं प्रेरणा त्वया कृता, अथ भगवतः श्रीवीरवर्धमानस्य वाक्यं मम प्रमाणम् , तदुत्थापनजनितं मम मिथ्यादुष्कृतमस्तु । ___ ततः प्रमुदितो मित्रश्रीश्रावकस्तं तिष्यगुप्तमुनि पूर्ण यथोचितभैक्षं प्रदत्तवान् । परिवार सहितस्तिष्यगुप्तमुनिस्तमतिचारमालोच्य शुद्धिं गतः । यदनेन बोधिलब्ध. स्तदस्य महद्भाग्यम् । अतः श्रद्धा परमदुर्लभेति बोध्यम् । ॥ इति द्वितीयनिह्नवदृष्टान्तः ॥२॥ मित्रश्री श्रावक के इस वचन को सुनकर सपरिवार तिष्यगुप्त मुनि प्रवुद्ध होकर उससे कहने लगे-सुश्रावक ! तुमने यह प्रेरणा मुझे ठीक की है। वर्धमानस्वामी के वचन मुझे प्रमाण हैं। उनके उत्थापन करने से उत्पन्न हुआ मेरा दुष्कृत मिथ्या होओ। मित्रश्री सेठ ने जब इस प्रकार अपनी भूल को सुधार ने वाले उनके वचन सुने तो उसको बड़ा हर्ष हुआ। उसी समय उसने उनको पूर्ण सामग्री की भिक्षा दी। परिवारसहित तिष्यगुप्त ने अपने अतिचार की आलोचना कर शुद्धि प्राप्त की, जो तिष्यगुप्त ने बोधिका लाभ कर लिया वह उसका बड़ा भाग्य समझना चाहिये । इसीलिये तो कहा गया है कि-श्रद्धा परम दुर्लभ है। ॥ यह दूसरे तिष्यगुस्त निह्नव का दृष्टान्त हुआ ॥२॥ મિત્રશ્રી શ્રાવકનાં આ પ્રકારનાં વચનને સાંભળી તિષ્યગુપ્તમુનિ સપરિવાર બોધ પામી તેને કહેવા લાગ્યા. સુશ્રાવક ! તમે આ પ્રેરણા મને ઠીક કરી, વર્ધમાન સ્વામીનાં વચન મને પ્રમાણ છે. તેમનાં વચનને અનાદર કરવાથી ઉદ્દભવેલું મારું આ દુષ્કૃત્ય મીથ્યા થાઓ. આ રીતે પિતાની ભૂલને સુધારવાવાળાં તિષ્યગુપ્ત મુનિનાં વચન સાંભળી મિત્રશ્રી શેઠને ઘણો જ હર્ષ થયું. એ વખતે તેણે તેમને પૂર્ણ સામગ્રીની ભિક્ષા આપી. તિષ્યગુપ્તમુનિએ સપરિવાર પિતાના અતિચારની આલેચના કરી શુદ્ધિ પ્રાપ્ત કરી. અને બધીને લાભ કરી લીધો. આ તેમનું મોટું ભાગ્ય સમજવું જોઈએ. આ માટે જ કહેવામાં આવેલ છે કે, “શ્રદ્ધાપરમ દુર્લભ છે.” ॥ An Milan तिघ्यगुप्त नियनु दृष्टांत थयु ॥२॥ ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #751 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययनसूत्रे अथ तृतीयनिहवदृष्टान्तः प्रोच्यते___ भगवतः श्रीमहावीरस्वामिनो निर्वाणसमयाच्चतुर्दशाधिकद्विशत २१४ वर्षेषु व्यतीतेषु आषाढाचार्यः श्वेताम्बिकानगीं पोलासनामकोद्याने स्वगच्छसहितोऽवस्थितः। तत्राऽसौ बालग्लानादिप्रतिजागरणादिलक्षणावश्यककर्तव्यरूपमागाढ. योग शिष्यान् शिक्षयति । तदनु ततो विहरन् आषाढचार्यों महारण्ये महातरुतले निवासं कृतवान् , तत्र रात्रावकस्माद् हृदयशूलेन मृतः । स सौधर्मकल्पे देवत्वेन समुत्पन्नः । स चावधिज्ञानोपयोगात् पुनरपि बालवयस्कान् विनीतान् स्वशिष्यान् शिक्षयितुं स्वाङ्गे प्रविष्टः। रात्रिप्रतिक्रमणसमये रात्रिशेषे तेन साधवो जागरिताः। पूर्ववदागाढयोग स शिक्षयति । तृतीय निह्नव अषाढाचार्यशिष्य का दृष्टान्त इस प्रकार है भगवान महावीर के निर्वाण समय से दो सौ चौदह २१४ वर्ष जब व्यतीत हो चुके उस समय अषाढाचार्य श्वेताम्बिका नगरी में पोलास नामक उद्यान में अपने शिष्यपरिवार सहित आकर विराज रहे थे। वहां पर वे अपने शिष्यों को बालग्लानादिक साधुओं की सेवा करना आदिरूप आगाढ़ योग की शिक्षा देते थे। फिर एक समय वहां से विचरते हुए एक भयंकर अटवी में पहुंचे और विशाल वृक्ष के नीचे निवास किया। वहां रात्रि में अकस्मात् हृदयशूल की वेदना से उनका देहांत हो गया। मरकर वे प्रथम स्वर्ग सौधर्मकल्प में देव हुए। अन्तर्मुहूर्त में वहां तरुणावस्था संपन्न होकर उन्हों ने अवधिज्ञान से अपनी पूर्व अवस्था जानली, और अपने शिष्यों को बालवयस्क और ત્રીજા નિદ્ભવ આષાઢાચાર્યશિષ્યનું દષ્ટાંત આ પ્રકારનું છે ભગવાન મહાવીરના નિર્વાણ સમયને જ્યારે ૨૧૪ બસો ચૌદ વર્ષ વીતી ગયાં તે સમયે, આષાઢાચાર્ય તામ્બિકા નગરીમાં પિલાસ નામના ઉદ્યાનમાં પિતાના શિષ્ય પરિવાર સહિત આવીને રહ્યા હતા. તે સ્થળે તેઓ પિતાના શિષ્યને બાલલાનાદિક સાધુઓની સેવા કરવા રૂપ આગાઢયોગનું શિક્ષણ આપી રહ્યા હતા. એક સમયે ત્યાંથી વિચરતાં એક ભંયકર વનમાં પહોંચ્યા અને ત્યાં એક વિશાળ વૃક્ષની નીચે નિવાસ કર્યો. રાત્રિમાં અકસ્માત હદય શુળની વેદનાથી તેમને દેહાંત થઈ ગયે. મરીને તેઓ પ્રથમ સ્વર્ગ–સૌધર્મ કપમાં દેવ થયા. અન્તરમુહૂર્તમાં ત્યાં તરૂણાવસ્થા સંપન્ન બની તેઓએ અવધિજ્ઞાનથી પિતાની પૂર્વ અવસ્થા જાણી લીધી. આ પછી પોતાના શિષ્યોને ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #752 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रियदर्शिनी टीका अ० ३ गा ९ अध्यक्तत्वे आषाढाचार्यशिष्यकथा ६९७ एकदा सर्वेषु साधुषु आगाढयोगं संप्राप्तेषु देवरूप आषाढाचार्यों वदतिक्षम ध्वम् , अवतिना मया भवतां वन्दनादि न कृतम् , भवद्भिस्तु कृतं वन्दनादि मया स्वीकृतम् । तस्मिन् दिवसे रात्रौ हृदयशूलेन मृतोहं सौधर्मकल्पे देवत्वं प्राप्य पुनर्भवतां योगशिक्षणार्थ स्वाङ्गे प्रविष्टः, इतः परं कृतकृत्योऽहं निजास्पदं गच्छामि, इत्युक्त्वा स देवलोकं गतः। विनीत जानकर पूर्व की तरह शिक्षा देने के अभिप्राय से अपने मृत शरीर में प्रविष्ट हो गये । रात्रि प्रतिक्रमण के समय में रात्रि के शेष रहने पर उन्हों ने साधुओं को जगाया । जगा कर उनको वे पूर्व की तरह अगाढ योग की शिक्षा देने लगे। ___एक समय की बात है कि जब इनके समस्त शिष्य आगाढ योग को प्राप्त कर चुके थे तब देवरूप अषाढाचार्य ने कहा कि आप लोग मुझे क्षमा करो, क्यों कि अव्रती मैंने आप लोगोंकी वंदनादि कृतिकर्म नहीं किया है परन्तु आपने मुझको वन्दनादि किया और उसको मैंने स्वीकार भी किया है। कहने लगे कि उस दिन मैं रात्रि के समय अकस्मात् हृदयशूल की वेदना से मर गया था, मर कर मैं प्रथम स्वर्ग में देव हुआ हूं। अवधिज्ञान से अपने पूर्वभव को जानकर मैं ने आप लोगों को योग की शिक्षा देने के लिये अपने ही मृत शरीर में प्रवेश किया है। अब मैं कृत कृत्य बनकर अपने स्थान पर जा रहा हूं। इस प्रकार कह બાલ્યવયના અને વિનીત જાણીને પૂર્વની રીતે શિક્ષા આપવાના અભિપ્રાયથી પોતાના મૃત શરીરમાં પ્રવિષ્ટ થઈ ગયા. રાત્રિ પ્રતિક્રમણ સમયમાં રાત્રિના છેલા પ્રહરમાં તેમણે શિષ્યને જગાડયા અને અગાઉની માફક તેમને આગાઢ રોગનું શિક્ષણ આપવા માંડયા. એક સમયે જ્યારે તેમના સઘળા શિષ્યો આગાઢ યોગને પ્રાપ્ત કરી ચુકયા હતા ત્યારે દેવરૂપ આષાઢાચાર્યે કહ્યું કે આપ સઘળા મને માફ કરે. કેમકે, અવતી એવા મેં આપને વંદનાદિ કૃતકર્મ કરેલ નથી. પરંતુ આપે જ મને વંદન આદિ કરેલ છે. અને મેં તેને સ્વીકાર કરેલ છે. આ પ્રમાણે કહીને તેઓ કહેવા લાગ્યા કે,–તે દિવસે રાત્રીના સમયે અકસ્માત મને હદયશૂળની વેદના થયેલી જેથી હું મરી ગયે. મરીને પ્રથમ સ્વર્ગમાં હું દેવ થયો છું. અવધિજ્ઞાનથી મારા પૂર્વભવને જાણીને હું આપ સઘળાને ભેગની સંપૂર્ણતા શિક્ષા આપવા માટે મારા મૃત શરીરમાં પ્રવેશ કરી તમને સંપૂર્ણતઃ બનાવી उ० ८८ ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #753 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययनसूत्र ते मुनयस्तदङ्ग परिष्ठाप्य कायोत्सर्ग विधाय चिन्तयति-अज्ञानात् स देवोऽस्माभिर्वन्दितः, अतस्तदन्योऽपि न ज्ञायतेऽस्माभिर्देवो वा संयतो वा, अन्योऽपि कश्चिद् अस्मान् न जानाति वयं साधवस्तदन्ये वा, इति । अतो "नास्ति किंचिभिर्णयकारकं ज्ञानम्-अव्यक्तमेव सर्व वस्तु" इति तत्ववेदिभिर्वक्तव्यम् , यथा मृषावादो न स्यादसंयतवन्दनं च न स्यात् । इत्येवं विचिन्त्य संशयमिथ्यात्वमापनाः अव्यक्तभावं स्वीकृत्य, परस्परं वन्दनं न कृतवन्तः । अव्यक्तमेव सर्व वस्तु' कर वह देव उस शरीर को वहीं छोड़ कर अपने स्थान पर चले गये। मुनियों ने मिल कर उनके शरीर की परिष्ठापना की एवं कायोत्सर्ग कर के फिर इस प्रकार को विचार किया कि देखो-अज्ञान से अपने सबने उन देव को वंदना की है, अतः अब दूसरा भी यह कैसे निश्चय किया जा सकता है कि यह संयत है कि देव है । तथा दूसरे जन भी अपन को यह नहीं जान सकते हैं कि ये देव हैं या साधु हैं। इससे ऐसा ही ज्ञात होता है कि समस्त वस्तुएँ अव्यक्त ही हैं। तथा अपने लिये ऐसा ही कहना चाहिये कि जिससे मृषावाद भी न हो सके और असंयत को वन्दना भी न हो सके। इस प्रकार विचार कर वे संशय-मिथ्यात्व के चक्कर में पड़ गये। अव्यक्तभाव को स्वीकार कर उन्हों ने परस्पर में वन्दना करना भी छोड़ दिया, और सर्वत्र यही कहने लगे कि वस्तु का निर्णय करने वाला कोई ज्ञान नहीं है, હવે હું મારા સ્થાન ઉપર જઈ રહ્યો છું. આમ કહી તે દેવ એ શરીરને ત્યાં છેડી દઈ પિતાના સ્થાને ચાલ્યા ગયા. મુનિઓએ મળીને તેમના શરીરની પરિષ્ઠાપના કરી અને કાર્યોત્સર્ગ કરીને પછી એ પ્રકારને વિચાર કર્યો કે, જુઓ. અજ્ઞાનથી આપણે સઘળાએ તે દેવને વંદના કરી છે. આથી હવે બીજી પણ કઈ રીતે નિશ્ચય કરી શકાય કે, આ સાધુ છે કે દેવ છે. તેમ બીજા લેકે પણ આપણને જાણી શકતા નથી કે, આ દેવ છે કે, સાધુ! આથી એ બંધ થાય છે કે, સમસ્ત વસ્તુઓ અવ્યક્ત જ છે. તેમ આપણે માટે એમ જ કહેવું જોઈએ કે, જેનાથી મૃષાવાદ પણ ન બને અને અસંયતને વંદના પણ ન થઈ શકે. આ પ્રકારને વિચાર કરી તેઓ સંશય મિથ્યાત્વના ચકકરમાં પડી ગયા. અવ્યક્ત ભાવને સ્વીકાર કરી તેઓએ પરસ્પરમાં વંદના કરવાનું પણ છેડી દીધું. અને દરેક સ્થળે से ज्या, वस्तु निणय ४२नार ३४ ज्ञान नथी. माटे "अवतव्यमेव ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #754 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रियदर्शिनी टीका अ० ३ गा. ९ अव्यक्तत्वनिराकरणे स्थविरोपदेशः ६९९ इति मतं लोकानां पुरतः प्ररूपणां कुर्वन्तः सार्धमेव सर्वे मुनयो यथारुचि विहरन्ति । ___केचिदन्ये स्थविरास्तान विरुद्धमर्थ प्रतिपन्नान् प्राह-भवद्भिर्यन्मन्यते-ज्ञानेन किंचिदपि वस्तु निश्चेतुं न शक्यते, अतः 'सर्व वस्तु अव्यक्तम्' इति, तन्न समीचीन, युक्तिविरोधात् । यतः वस्तुनिर्णयकरं ज्ञानमेवास्ति तथैव लोके दृश्यते । पूर्व ज्ञानेन हिताहितं निश्चित्य पश्चात् काचित् क्रिया क्रियते तस्मात् सर्वस्यापि ज्ञानस्य निश्चयकारिताऽस्तीति मन्तव्यम् । इसलिये “अव्यक्तमेव सर्व वस्तु" सर्व वस्तु अव्यक्त ही है। इस प्रकार की प्ररूपणा करते हुए ही वे सब एक साथ मिलकर ग्रामोग्राम विहार करने लगे। कितनेक मुनियों ने जब यह देखा कि ये सब विरुद्ध अर्थ की प्ररूपणा कर रहे हैं तो उनसे कहा कि आप लोग जो ऐसा कहते हैं कि "ज्ञान से किसी भी वस्तु का निश्चय नहीं हो सकता है अतः सर्व वस्तुएँ अव्यक्त हैं" सो आपका यह सिद्धान्त समीचीन नहीं है, क्यों कि इसमें युक्ति से विरोध आता है । पहिले आप लोगों को यह निश्चय कर लेना चाहिये कि समस्त वस्तुओं का निर्णय एक अविसंवादी ज्ञान से ही होता है । हित और अहित का निर्णय करके ही जीव पीछे किसी भी क्रिया के करने में प्रवृत्त हुआ करते हैं। अतः ज्ञान का स्वभाव निश्चियकारिता है कह आपको मानने में कोई विवाद नहीं होना चाहिये। सर्व वस्तु” हरे१४ मध्यरत छ. २॥ ४२नी ५३५। २di કરતાં તેઓ સઘળા એક સાથે મળી ગ્રામાનુગ્રામ વિહાર કરવા લાગ્યા. કેટલાક મુનિઓએ જ્યારે આ જોયું ત્યારે તેમણે જાણ્યું કે, આ સઘળા વિરૂદ્ધ અર્થની પ્રરૂપણ કરી રહ્યા છે. આથી એમને કહ્યું કે, આપ લે કે એવું કહે છે કે, “જ્ઞાનથી કઈ પણ વસ્તુને નિશ્ચય થઈ શકતો નથી આથી સર્વ વસ્તુઓ અવ્યક્ત છે” આપને આ સિદ્ધાંત સર્વમાન્ય નથી. કેમકે, તેમાં યુક્તિથી વિધિ આવે છે. પહેલાં આપ લેકેએ એ નિશ્ચય કરી લેવું જોઈએ કે, સમસ્ત વસ્તુઓને નિર્ણય એક અવિસંવાદી જ્ઞાનથી જ થાય છે. હિત અને અહિતનો નિર્ણય કરીને પછીથી જ જીવ કેઈ પણ ક્રિયા કરવામાં પ્રવૃત્ત થાય છે. આથી જ્ઞાનને સ્વભાવ નિશ્ચય કારક છે એ આપને માનવામાં કોઈ વિવાદ ન હોવો જોઈએ. ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #755 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७०० उत्तराध्ययनसूत्रे किञ्च-यदि ज्ञानं सर्वथा निश्चयकारकं न स्यात् , तर्हि भक्तपानादेरपि निश्चयः कथं भवति ' इदं शुद्धम् , इदमशुद्धम् , इदं निर्जीवं इदं सजीवम्' इत्यादिरूपो निश्चयो ज्ञानं विना न भवति । ___ अथ भक्तपानादेनिर्णयकारकं ज्ञानं भवतीति व्यवहारादेवोच्यते, तर्हि व्यवहारादेव साध्वादेरपि वस्तुनो निर्णयकारकं ज्ञानमेवास्तीति मन्यस्व । ननु भक्तपानानां विषये सर्वा प्रवृत्तिर्व्यवहाराद्भवितुमर्हति, न तु साधूनां विषये ? इति चेत् , साधूनां व्यवहारोच्छेदे सति तीर्थस्यापि समुच्छेदः स्यादिति । तस्माद् भवन्तोऽपि व्यवहारं स्वीकुर्वन्तु । दूसरे-ज्ञान यदि सर्वथा निश्चय कराने वाला न माना जाय तो भक्तपानादिकका भी निश्चय कैसे हो सकता है। ज्ञान ही तो यह शुद्ध है, यह अशुद्ध है, यह निर्जीव है यह सजीव है इत्यादिरूप निश्चय कराता है। यदि इस पर अव्यक्तवादी यों कहे कि भक्तपानादिक का निर्णय कारक ज्ञान है यह सब व्यवहार से ही कहा जाता है तो इसी तरह साधु आदि का निर्णयकारक ज्ञान भी व्यवहार से होता है यह भी मान लेना चाहिये। ___ भक्तपान के विषय में जो प्रवृत्ति होती है वह तो व्यवहार से हो सकती है किन्तु साधुओं के विषय में नहीं हो सकती। यदि ऐसा कहा जाय तो साधुओं के व्यवहार का ही उच्छेद हो जायगा साधुव्यवहार का उच्छेद होनेपर तीर्थका भी उच्छेद प्राप्त होता है । इसलिये आपलोग भी व्यवहार को स्वीकार करें। બીજું-જ્ઞાન જે સર્વથા નિશ્ચય કરાવનાર ન માનવામાં આવે તે આહાર પાનાદિકને પણ નિશ્ચય કેમ થઈ શકે ? જ્ઞાન જ આ શુદ્ધ છે, આ અશુદ્ધ છે, આ નિજીવ છે, આ સજીવ છે, ઈત્યાદિરૂપ નિશ્ચય કરાવે છે. આ સામે કેઈ અવ્યક્તવાદી એમ કહે કે, આહાર પાનાદિકનું નિર્ણય કારક જ્ઞાન છે. આ સઘળું વહેવારથી જ કહેવામાં આવે છે. તે આ પ્રમાણે સાધુ આદિનું નિર્ણયકારક જ્ઞાન પણ વહેવારથી થાય છે. આ પણ માની લેવું જોઈએ. આહાર પાણીના વિષયમાં જે પ્રવૃત્તિ થાય છે તે વહેવારથી જ થઈ શકે છે. પરંતુ સાધુએના વિષયમાં થઈ શકતી નથી, એવું જે કહેવામાં આવે તે સાધુઓના વહેવારને જ ઉરછેદ થઈ જાય. સાધુ વહેવારને ઉછેદ થવાથી તીથને પણ ઉછેદ પ્રાપ્ત થાય છે. માટે આપલેક પણ વહેવારને સ્વીકાર કરે. ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #756 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रियदर्शिनी टीका. अ० ३ गा० ९ अव्यक्तानां बलभद्रनृपेण प्रतिबोधः ७०१ एवं स्थविरैः प्रतिबोधिता अपि ते मुनयः स्वदुराग्रहं न त्यक्तवन्तः । ततस्तैः स्थविरैः कायोत्सर्गपूर्वकं बहिष्कृता ग्रामानुग्रामं विहरन्तः स्वमतप्रचारं कुर्वन्तो राजगृहनगरे गुण शिलोद्याने समागताः । तत्र मौर्यवंशीयो बलभद्रनामको नृपः "" अव्यक्तह्निवा अत्र पुरे समागताः ' इति श्रुत्वा तान् प्रतिबोधयितुं स्वभटैर्गुणशिलोद्यानात् बद्ध्वा समानायितवान् । यष्टिमुष्ट्यादिभिभेटैस्ताडितास्ते वदन्ति भो ! राजन् ! त्वं श्रमणोपासकः, वयं श्रमणाः कस्मादस्माकमनर्थं कारयसि ? । भूपेनोक्तम् - एवं मा वदन्तु भवन्तः, ܕܐ इस प्रकार स्थविरों से प्रतिबोधित होने पर भी उन लोगों ने अपने दुराग्रह का परित्याग नहीं किया । अतः उन सबने कायोत्सर्गपूर्वक उनका बहिष्कार कर दिया । बहिष्कृत होकर वे सब के सब ग्रामानुग्राम विचरते हुए और अपने मत की पुष्टि करते हुए राजगृह नगर में गुणशिलोद्यान में आये । वहाँ एक मौर्यवंशीय बलभद्र नाम के राजा ने " अव्यक्त निह्नव इस पुर में आये हुए हैं " ऐसा सुनकर उनको प्रतिबोधित करने के लिये अपने सुभटों से बंधवा कर मंगाया । भट लोग उनको लेने के लिये पहुँचे । यष्टिमुष्टि आदि के प्रहारों से खूब ताडित कर वे उनको राजा के पास ले आये। आते ही उन्हों ने राजा से कहा कि महाराज ! आप श्रमणोपासक हैं, और हम श्रमण हैं । हमारे उपर आप अनर्थ क्यों करवा रहे हो । श्रमणों की बात सुनकर राजा ने कहा- आप આ પ્રકારે સ્થવિરાથી પ્રતિખેાધિત થવા છતાં પણ તે લેાકાએ પેાતાના દુરાગ્રહના ત્યાગ કર્યાં નહી. અને એ સઘળાએ કાયાત્સગ પૂર્વક તેમના બહિષ્કાર કર્યાં. મહિષ્કૃત થવાથી તે સઘળા ગ્રામાનુગ્રામ વિચરતા વિચરતા પેાતાના મતની પુષ્ટિ કરતા કરતા રાજગૃહ નગરમાં ગુણુશીલ ઉદ્યાનમાં આવ્યા. રાજગૃહ નગર ઉપર મૌર્ય વંશીય બલભદ્ર નામના રાજાનું આધિપત્ય હતું. પેાતાને ત્યાં અવ્યક્ત નિવને આવેલા જાણીને શ્રમણાપાસક તે રાજવીએ ગુણુશીલઉદ્યાનમાં ઉતરેલા એ અવ્યક્તનિ વાને પ્રતિષ્ઠિત કરવાના ઉદ્દેશથી પોતાના સુભટો દ્વારા આંધીને હાજર કરવાના હુકમ કર્યાં. રાજ્યના માણસે તેમને પકડી લાવવા માટે ઉદ્યાનમાં પહોંચ્યા અને બધાને પકડી આંધી લેવાની સાથે ગડદા પાટુ વગેરેના પ્રહારથી ખૂબ ત્રાસ આપ્યા. પછી રાજાની સામે લઈ જઈ રજી કરતાં એ પકડી મંગાવવામાં આવેલા નિહ્નવાએ રાજાની સમક્ષ ઉપસ્થિત થતા કહ્યું કે, હે રાજન! આપ તા શ્રમણાપાસક છે અને અમે શ્રમણુ છીએ. અમારા ઉપર શા માટે અનથ કરાવી રહ્યા છે ? શ્રમણાની વાત સાંભળી ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર ઃ ૧ Page #757 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७०२ उत्तराध्ययनसूत्रे भवतामव्यक्तं मतम् , तदनुसारेण नाहं निश्चिनोमि-यूयं श्रमणाश्चोराश्चरटा वा वयं श्रमणोपासका अन्ये वा स्म इति, इत्येवं तेन भूपेन बोधं प्राप्ताः कथित. वन्तः-राजन् ! भवानस्मान् सन्मार्गे स्थापितवान् । राजा प्राह-भो महाभागाः ! भवतः प्रतिबोधयितुं मया यदाचरितं तत्सर्व क्षन्तव्यं भवद्भिः। ते मिथ्या दुष्कृतं दत्त्वा तेषु स्थविरेषु मिलिताः॥ इति तृतीयाषाढाऽऽचार्यशिष्यनिह्नवदृष्टान्तः ॥३॥ अथ चतुर्थनिहवाऽश्वमित्रदृष्टान्तः प्रोच्यते भगवतः श्रीमहावीरस्वामिनो निर्वाणसमयाद् विंशत्यधिकद्विशत २२० वर्षेषु लोग ऐसा मत कहो-आपका तो मत अव्यक्त है इसके अनुसार हम यह कैसे निश्चय कर सकते हैं कि आप श्रमण हैं कि चोर या लूटेरे हैं, और हम श्रमणोपासक हैं या अन्य कोई । इस प्रकार जब उस राजा ने कहा तो उनको बोध हो गया। राजा द्वारा बोध को प्राप्त हुए उन श्रमणों ने कहा-महाराज ! आपने हमलोगों को सन्मार्ग में लगा दिया यह अच्छा किया। राजा ने कहा कि आप लोगों को सन्मार्ग में लाने के लिये-प्रतिबोधित करने के लिये-जो कुछ हमारे द्वारा करवाया गया है उसे आप क्षमा करे । फिर वे मुनि मिथ्यादुष्कृत देकर स्थविरों में संमिलित हो गये। यह तीसरा अषाढाचार्य शिष्य निह्नव दृष्टान्त हुवा चतुर्थ निहव अश्वमित्र की कथा इस प्रकार है भगवान महावीर स्वामी को मोक्ष गये हुए जब २२० दोसो बीस वर्ष રાજાએ કહ્યું કે આપ એવું કહી શકતા નથી–આપને તે અવ્યક્ત મત છે આથી હું કેમ માની શકું કે, આપ શ્રમણ છે અથવા તે ચેર, લુંટારા છે? અને હું શ્રમણોપાસક છું કે બીજે કઈ ? રાજાનું આ પ્રકારનું કથન સાંભળતાં તે સઘળાને બંધ થઈ ગયો, પોતાની ભૂલ સમજાઈ ગઈ. અજ્ઞાનનાં પડળ દૂર થઈ જતાં એ શ્રમણોએ રાજાને કહ્યું, મહારાજ ! આપે અને આજે સાચે માર્ગ બતાવ્યો છે તે ઘણું જ સારું કર્યું. રાજાએ કહ્યું કે, આપ લેકેને સમાગે લાવવા માટે મારા તરફથી જે કાંઈ કરવામાં આવેલ છે તેની મને ક્ષમા કરે. રાજા દ્વારા પ્રતિબંધિત બનેલા એ મુનિઓ મિસ્યા દુષ્કૃત્ય દઈને વિરે સાથે મળી ગયા, છે આ ત્રીજા અષાઢાચાર્ય શિષ્ય નિકૂવનું દષ્ટાન થયું મારા ચોથા નિદ્ભવની કથા આ પ્રકારની છે ભગવાન મહાવીર સ્વામીને મેક્ષમાં ગયાને બસ વીસ વર્ષ વીતી ચૂક્યાં ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #758 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रियदर्शिनी टीका. अ० ३ गा० ९ अश्वमित्रस्य क्षणिकवादस्वीकरणम् ७०३ व्यतीतेषु मिथिलायां लक्ष्मीगृहोद्याने महागिरिशिष्यस्य कौडिन्यस्य शिष्योऽश्वमित्रमुनिः पूर्वपठनोधत आसीत् । स चान्यदा दशलक्षाधिकैककोटिपदपरिमाणकस्य विद्याऽनुप्रवादनामकस्य दशमपूर्वस्य नैपुणिकनामकवस्तु पठनिममालापकं पठितवान्___“ सम्वे पड़प्पन्नसमया नेरइया वोच्छिज्जिसंति एवं जाव वेमाणिय ति, एवं वितियाइसमएसु वत्तव्वं ” इति । ___ छाया-सर्वे प्रत्युत्पन्नसमया नैरयिका व्युच्छेत्स्यन्ति, एवं यावद् वैमानिका इति एवं द्वितीयादि समयेषु वक्तव्यम् । इति। तदा स एवं रूपमालापकमधीयानो मिथ्यालमुगतः सन्नेचं प्रवचनविरुद्धमर्थ विचिन्तयति स्मव्यतीत हो चुके थे तब मिथिला नगरी के लक्ष्मीगृहोद्यान में महागिरि आचार्य के शिष्य जो कौडिन्य थे उनके शिष्य अश्वमित्र मुनि पधारे। ये पूर्वो के पठन पाठन में तत्पर थे । जब एक करोड दसलाख पद वाले विद्यानुप्रवादनामक दशमपूर्वकी नैपुणिकनामक वस्तु का अध्ययन कर रहे थे तब वहां उनको यह आलापक पढने को मिला "सव्वे पडिप्पुन्नसमया नेरइया वोच्छिज्जिस्संति एवं जाव वेमाणियत्ति एवं बितियाइसमएसु वत्तव्वं" इति । __छाया-सर्वे प्रत्युपन्नसमया नैरयिका व्युच्छेत्स्यन्ति । एवं यावत् वैमानिका इति, एवं द्वितीयादिसमयेषु वक्तव्यम् ” इति । ___इस आलापक को पढते ही उनके चित्तमें मिथ्यात्वका उदय हो जाने से प्रवचनविरुद्ध अर्थ की कल्पना जग उठी। उन्होंने धर्माचार्य से कहाહતાં એ સમયે મિથિલા નગરીને લક્ષમીગૃહ ઉદ્યાનમાં મહાગિરિ આચાર્યના શિષ્ય કોંડિન્ય હતા તેમના શિષ્ય અશ્વમિત્ર મુનિ પધાર્યા અશ્વમિત્ર મુનિ પૂના પઠન પાઠનમાં ખૂબ જ તત્પર હતા. જ્યારે એક કરોડ દસલાખ પદવાળા વિદ્યાનુપ્રવાદ નામના દશમાપૂર્વની નૈપુણિકનામની વસ્તુનું અધ્યયન કરી રહ્યા હતા ત્યાં તેમને આ આલાપક વાંચવામાં આવ્યું – "सव्वे पडिप्पपुन्नसमया नेरइया वोच्छिज्जिस्संति एवं जाव वेमाणियत्ति एवं वितियाइसमाएसु वत्तव्वं " इति । छाया-" सर्वे प्रत्युत्पन्नसमया नैरयिका व्युच्छेत्स्यन्ति । एवं यावत् वैमानिका इति, एवं द्वितीयादिसमयेषु वक्तव्यम्" इति । આ આલાપકને ભણતાં જ તેમના ચિત્તમાં મિથ્યાત્વને ઉદય થઈ જતાં પ્રવચન વિરૂદ્ધ અર્થની કલ્પના જાગી પડી. તેમણે ધર્માચાર્યને કહ્યું– ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #759 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७०४ उत्तराध्ययनसूत्रे वर्तमानक्षणवतिनो नरयिकादयो वैमानिकान्ताः सर्वेऽपि चतुर्विंशतिदण्डकजीवाः क्षणान्तरे व्युच्छेत्स्यन्ति तस्मात् सर्वेऽपि जीवादयः पदार्थाः प्रतिक्षणं समुच्छेद यान्ति । किंच-यत्रार्थक्रियाकारित्वं तदेव वस्तुनः सत्त्वम् । यत्रार्थक्रियाकारित्वं नास्ति, न तत् सत्वम् । यद्यर्थक्रियाकारित्वाभावेऽपि सत्त्वं मन्येत तर्हि शशशृङ्गादीनामपि सत्ता स्वीकर्तव्या स्यात् , अतो " यदेवार्थक्रियाकारि तदेव परमार्थस"-दिति सिद्धान्तो निष्पद्यते । अर्थक्रियाकारित्वरूपं सत्त्वं क्षणविनश्वरपदार्थेष्वेव संभवति, न तु नित्येषु । नित्यपदार्थेष्वर्थक्रियाकारित्वं चेत् स्वीक्रियेत, तर्हि ते नित्यपदार्थाः किं क्रमशोऽयक्रियाकारिणो भवन्ति ? किं वा योगपधेन ?, यदि क्रमशोऽर्थक्रियाकारित्वं तर्हि तेषां नित्यत्वं व्याहन्येत । किंच- वर्तमान क्षणवर्ती नैरयिक आदि वैमानिकान्त चौवीस दंडक के जीव क्षणान्तर में व्युच्छिन्न हो जायेंगे । इसलिये ऐसा मानना चाहिये कि समस्त जीवादिकपदार्थ प्रतिक्षण में नष्ट हो रहे हैं। स्थिर नहीं हैं। तथा जहां अर्थक्रियाकारिता है वही सत्व है। इसके अतिरिक्त-जहां अर्थक्रियाकारिता नहीं है वहां सत्त्व नहीं है । यदि जो कार्य को नहीं करने वाला है उसमें भी सत्त्व माना जाय तो शशशंग आदि पदार्थो में भी सत्व मान लेना पडेगा, अतः " यदेव अर्थक्रियाकारि तदेव परमार्थसत्" यही सिद्धान्त स्थिर होता है। अर्थक्रियाकारितारूप सत्व क्षणविनश्वर पदार्थ के अतिरिक्त नित्य पदार्थ में कथमपि आ नहीं सकताइस विषय में नित्यपदार्थवादियों से पूछा जाय कि-नित्यपदार्थ क्रम से अर्थक्रिया करता है, या युगपत् अर्थक्रिया करता है ? यदि વર્તમાન ક્ષણવતી નૈરયિક આદિ વૈમાનિક પર્યત ચેવિસ દંડકના જીવ ક્ષણાન્તરમાં વ્યછિન્ન થઈ જશે. આથી એવું માનવું જોઈએ કે, સઘળા જીવાદિક પદાર્થ પ્રતિક્ષણમાં નષ્ટ થઈ રહ્યા છે. સ્થિર નથી. અને જ્યાં અર્થ ક્રિયા કારિતા છે તે જ સત્વ છે. આથી અતિરિક્ત-જ્યાં અર્થ ક્રિયા કારિતા નથી તે સત્વ નથી. જે કાર્ય કરનાર નથી તેમાં પણ સત્વ માનવામાં આવે તે શશશ્ચંગ ( सससाना श) वगेरे पहाभा पशु सत्व भान पडरी माथी “ यदेव अर्थक्रियाकारि तदेव परमार्थ सत्" । सिद्धांत सिद्ध थाय छे. या કારિતા રૂપ સત્વ ક્ષણભંગુર પદાર્થના અતિરિક્ત નિત્યપદાર્થમાં કઈ દિવસ આવી શકતું નથી. કેમકે, નિત્ય પદાર્થવાદીઓથી એવું પુછવામાં આવે છે, નિત્યપદાર્થ કમથી અર્થ ક્રિયા કરે છે કે, યુગપત્ (એકી સાથે) અર્થ ક્રિયા કરે છે? જો એમ કહેવામાં આવે કે, ક્રમથી અર્થ ક્રિયા કરે છે તે આ ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર: ૧ Page #760 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रियदर्शिनी टीका अ० ३ गा. ९ अभ्यमित्रधर्माचार्ययोः संवादः क्रमशः कालान्तरवर्त्तिसमस्वार्थक्रियाकारित्वमशक्यम्, नित्यपदार्थानामेकस्वभातया समस्तार्थक्रियाणामेकत्वमसङ्गात् । यदि तेषां भिन्नस्वभावत्वं स्वीक्रियेत, तर्हि स्वभावरिया एक स्वभावत्वद्दानौ तेषामनित्यत्वमापद्येत । अथ यौगपद्येनार्थक्रियाकारित्वं स्वीक्रीयेत तर्हि एकस्मिन्नेव क्षणे सर्वा अर्थक्रियाः संपद्येरन्, ततश्च द्वितीया दिक्षणेऽर्थक्रियाकर्तृत्वाभावात्तेषामवस्तुत्वमापद्येत । किंच एकस्मिन् क्षणे समस्तार्थक्रियाकारित्वाभावः प्रत्यक्षसिद्ध एव, अतः क्षणिकस्यैव वस्तुनोऽर्थ कहा जाय कि क्रम से अर्थक्रिया करता है, तो इस प्रकार की मान्यता मैं उसमें freera की हानि आती है। दूसरे कालान्तरवर्ती समस्त अर्थक्रियाएँ उस क्रम से हो भी कैसे सकती हैं, क्यों कि नित्य जब एक स्वभाववाला है तो उसी स्वभाव से वह समस्त अर्थक्रियाएँ करेगा, इस अपेक्षा समस्त अर्थक्रियाओं में एकता आनेका प्रसंग प्राप्त होगा । यदि उसमें भिन्न २ स्वभावता मानी जाय तो फिर इस तरह से स्वभाव परिवर्तन होने से एकस्वभावताकी हानि होगी, और इस वजहसे वहां अनित्यता माननी पडेगी । यदि यह कहा जाय कि नित्य पदार्थ युगपत् अर्थक्रिया करता है तो यह कहना भी ठीक नहीं है, क्यों कि जब वह एक ही क्षण में समस्त कार्यों को कर देगा तो द्वितीयादिक क्षण में वह क्या करेगा? इस अपेक्षा उसमें अवस्तुस्वापत्ति माननी पडेगी । तथा एक ही क्षण में उसमें कार्य - अकारणता प्रत्यक्षसिद्ध है । इसका कारण यह मानना चाहिये कि क्षणिक वस्तु ही कार्य करती है अतः પ્રકારની માન્યતામાં તેમાં નિત્યત્વની હાની આવે છે. ખીજું કાલાન્તરવતિ સમસ્ત અક્રિયાએ તેના ક્રમથી થઈ પણુ કેમ શકે ? કેમકે, નિત્ય જ્યારે એક સ્વભાવવાળા છે તા એ જ સ્વભાવથી તે સમસ્ત અક્રિયા કરશે આ અપેક્ષા સમસ્ત અક્રિયાઓમાં એકતા હૈવાના પ્રસંગ પ્રાપ્ત થશે. જો તેમાં ભિન્ન ભિન્ન સ્વભાવતા માનવામાં આવે તા તે રીતે તે સ્વભાવ પરિવર્તન હાવાથી એક સ્વભાવની હાની થશે. અને તેના કારણે ત્યાં અનિત્યતા માનવી પડશે. જો એમ કહેવામાં આવે કે, નિત્ય પદાર્થ યુગપત્ અથક્રિયા કરે છે તા એવુ કહેવુ. પણ ઠીક નથી. કેમકે, જ્યારે તે એક જ ક્ષણમાં સમસ્ત કાને કરી દેશે તે ખીજી ક્ષણમાં તે શું કરશે ? આ અપેક્ષા એ તેમાં અવસ્તુત્વા પત્તિ માનવી પડશે, તથા એક જ ક્ષણમાં તેમાં કાર્યની અકરણતા પ્રત્યક્ષ સિદ્ધ છે. તેનું કારણ એ માનવુ' જોઈ એ કે, ક્ષણિક વસ્તુ જ કાર્ય કરે છે. उ० ८९ ७०५ ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર ઃ ૧ Page #761 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७०६ उत्तराध्ययनसूत्रे क्रियाकारित्वं स्वीकर्तव्यम् । एवं च 'सर्व वस्तु क्षणिकम्' इत्येव मन्तव्यम् । वस्तुनः प्रतिक्षणं समुच्छेदो निरन्वयनाशो भवति । यथा विद्युज्जलबुबुदादिपदार्थानामिति । एवं वदन्तं तमश्वमित्रमुनि कौडिन्यनामको धर्माचार्यः माह-वत्स! प्रतिक्षणं वस्तुनः सर्वथा नाशं मा स्वीकुरु । वस्तुनः प्रतिक्षणं नाशः कथंचित् अन्यान्यपर्यायोत्पत्तिनाशापेक्षयैव भवति न तु सर्वथानाशरूपो निरन्वयनाशो भवति । पदार्थस्य सर्वथा निरन्धयनाशाऽभ्युपगमे तु क्षणान्तरे तथारूपः पदार्थः प्रत्यक्षेण कथं दृश्यते। पदार्थ क्षणिक हैं । क्षणिक का मतलब है निरन्वय विनाश । वस्तु प्रतिक्षण उत्पन्न होती रहती है और प्रतिक्षण ही नष्ट होती रहती है, जैसे विजली या जलधुवुद आदि पदार्थ । ___अश्वमित्र मुनि की इस बात को सुन धर्माचार्य कौडिन्य ने कहावत्स ! प्रतिक्षण वस्तु के सर्वथा विनाश को तुम स्वीकार मत करो। यह बात तो सिद्धान्त अभिमत है कि वस्तु सदा एकसी हालत में नहीं रहती है, उसमें प्रतिक्षण नवीन पर्यायों का उत्पाद एवं पूर्व २ पर्यायों का विनाश होता रहता है। इस अपेक्षा से उसका कथंचित् विनाश भी माना गया है। इस प्रकार की स्वीकृति से यह तात्पर्य नहीं निकलता है कि वस्तु का सर्वथा निरन्वय विनाश हो जाता है। पदार्थ का निरन्वय विनाश तो त्रिकालमें भी नहीं हो सकता है । यदि पदार्थ का निरन्वय विनाश माना जाय तो द्वितीयादिक क्षणान्तर में जो पदार्थ का ज्यों का त्यों प्रत्यक्ष होता है वह नहीं हो सकता। એટલા માટે પદાર્થ ક્ષણિક છે. ક્ષણિકને અર્થ નિરન્વય વિનાશ થાય છે. વાસ્તુ પ્રતિક્ષણ ઉત્પન્ન થતી રહે છે. અને પ્રતિક્ષણે નાશ થતી રહે છે. જેમકે આકાશમાંની વિજળી અથવા પાણીને પરપોટ વગેરે પદાર્થો જેવી રીતે ક્ષણજીવી છે તેની માફકજ અશ્વમિત્ર મુનિની આ વાત સાંભળીને ધર્માચાર્ય કૌડિન્ટે કહ્યું, હે વત્સ ! પ્રતિક્ષણ વસ્તુના સર્વથા વિનાશને તમે સ્વીકાર ન કરો. એ વાત તે સિદ્ધાંતથી સ્વીકારાયેલી છે કે, ચિજમાત્ર સદા એક જ હાલતમાં કદી રહેતી નથી. તેમાં પ્રતિક્ષણ નવા નવા પર્યાયે ઉમેરાતા જાય છે અને પહેલાંના પર્યાયને ક્ષય થતું જ રહે છે. આ અપેક્ષાએ તેને કંઈક અંશે વિનાશ પણ માનવામાં આવે છે. આ પ્રકારને સ્વીકાર કરવાથી એવું તાત્પર્ય નિકળતું નથી કે, વસ્તુને સર્વથા નિરવ વિનાશ થાય છે. પદાર્થને નિરન્વય વિનાશ તે ત્રણે કાળમાં પણ થતો નથી. છતાં પણ જે પદાર્થને નિરન્વયે વિનાશ માનવામાં આવે તે બીજીજ ક્ષણે એ પદાર્થ જેમને તેમ પ્રત્યક્ષ દેખાય છે તે શકય નથી. ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #762 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रियदर्शिनी टीका अ० ३ गा. ९ अश्वमित्रधर्माचार्ययोः संवादः ७०७ किंच-वस्तुनः प्रतिक्षणं सर्वथा नाशं स्वीकरोषि, तर्हि ऐहिकः पारत्रिकश्च सर्वोऽपि व्यवहारः कथं स्यात् ?, तथाहि भोक्ता कोऽप्यन्यः, तृप्तिस्तु कस्याप्यन्यस्य इति कथमुपपधेत । तथा अन्यः पन्थानं गच्छति, अन्यस्तु गमनश्रममनुभवेत् । अन्यो घटादीनान् पश्यति, अन्यस्य तद्विषयकं ज्ञानं स्यात् । अन्यो दुष्कर्म करोति, अपरो नरके गच्छेत् । अन्यश्चारित्रं पालयति, अन्यो मोक्षमधिगच्छेत् । इति क्षणिकवादाङ्गीकारे तव मते सर्व विपरीतं स्यात् , न चैतत् कचिद् दृष्टमिष्टं वा । और भी-वस्तु का प्रतिक्षण सर्वथा विनाश यदि तुम स्वीकार करते हो तो ऐसी हालत में इसलोकसंबंधी एवं परलोकसंबंधी समस्त ही व्यवहार व्युच्छिन्न मानना पड़ेगा। भोक्ता कोई होगा और तृप्ति किसी दूसरे को होगी, कारण कि जिसने भोजन किया है वह तो एक क्षण के बाद निरन्वयरूप से नष्ट हो गया, और अब जो इसके बाद उत्तर क्षणरूप व्यक्ति हुआ है उसको तृप्ति होगी। मार्ग कोई दूसरा चलेगाश्रम का अनुभव होगा किसी अन्य को। घटादिक पदार्थो को देखेगा दूसरा, तद्विषक ज्ञान होगा किसी दूसरे को । दुष्कर्म करेगा कोई और नरक जावेगा और ही कोई । चारित्र पालन करेगा और कोई और मोक्ष जायगा और कोई । इस प्रकार क्षणिकवाद के अंगीकार करने में सर्व ही बातें विपरीतरूप में परिणत हो जायेंगी, परन्तु इस तरह का व्यवहार न तो किसी ने देखा है और न किसी को इष्ट ही है, और न इस प्रकार के व्यवहार का साधक कोई प्रमाण ही है। इसलिये વિશેષતઃ–વસ્તુને પ્રતિક્ષણ સર્વથા વિનાશ થાય છે, તેવું જે તમે સ્વીકારતા હે તે એવી હાલતમાં આ લોક સંબંધી અને પરલેક સંબંધી સઘળે વહેવાર જ છિન્ન ભિન્ન માનવો પડશે. વસ્તુને ભક્તા કેઈ એક હશે અને તેની તૃપ્તિ કેઈ બીજાને થશે. કારણ કે, માનેકે જેણે ભેજન કર્યું તે તે એક ક્ષણ પછી નિરન્વયરૂપના કારણે નષ્ટ થઈ ગયે, જ્યારે એના પછી બીજી જ ક્ષણે જે વ્યક્તિ થઈ એને જ તૃપ્તિ થશે. પગે કેઈ એક ચાલશે જ્યારે તેને થાક બીજાને લાગશે. એમ તે ઘટ વગેરે પદાર્થને કેઈ જેશે અને તેના વિષેનું જ્ઞાન કેઈ બીજાને થશે. દુષ્કર્મ કેઈ કરશે અને તેને બદલે નરકમાં કઈ બીજા જશે. ચારિત્રનું પાલન કરશે કેઈ અને તેને બદલે મેક્ષમાં કેઈ બીજે જ પહોંચી જશે. આ પ્રકારના ક્ષણીકવાદને જે સ્વીકાર કરવામાં આવે તે સઘળી વાતે વિપરીત રૂપમાં ફેરવાઈ જશે. એટલા માટે આ પ્રકારને વહેવાર ન તે કેઈએ જે છે કે, ન તે કેઈને પસંદ છે, વળી આ પ્રકારના વહેવારને સાચે કરાવવા માટે કઈ પ્રમાણ પણ નથી. ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #763 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७०८ उत्तराध्ययनसूत्रे तस्मात्-वस्तुनोऽनुक्षणं सर्वथा नाश इति न युक्तम् , किं तु पर्यायपरिवर्तनेनैवानुक्षणं द्रव्यस्य नाशः, इति मन्तव्यम् । दशमे पूर्वे यदुक्तं नारकादीनां व्युच्छेद इति, तत्र व्युच्छेदः पर्यायान्तरसंप्राप्तिरूपः । यतः जैनानामखिलं वस्तु, द्रव्यतः शाश्वतं भवेत् । अपरापरपर्याय-परावृत्तेस्त्वशाश्वतम् ॥ १॥ इत्येवं धर्माचार्यैः प्रतिबोधितोऽपि सोऽश्वमित्रः स्वदुराग्रहं न त्यक्तवान तदा धर्माचार्यस्तं 'निह्नवोऽयम् ' इति मत्वा कायोत्सर्गपूर्वकं बहिष्कृतवान् । वस्तुका प्रतिक्षण सर्वथा नाश मानना युक्तियुक्त नहीं है। किन्तु यही मानना चाहिये कि पर्याय के परिवर्तन से ही प्रतिक्षण वस्तु का नाश होता है । दशमपूर्व में जो नारकी आदि का व्युच्छेद कहा है उसका अभिप्राय सर्वथा नाश से नहीं है, किन्तु पर्याय से पर्यायान्तरित होता है, ऐसा है क्यों कि जैनशास्त्र की यह मान्यता है ___ " जैनानामखिलं वस्तु, द्रव्यतः शाश्वतं भवेत्। अपरापरपर्यायपरावृत्ते त्वशाश्वतम् ॥ १॥" समस्त पदार्थ द्रव्य की अपेक्षा शाश्वत एवं पर्याय की अपेक्षा अशाश्वत हैं। इस प्रकार धर्माचार्य द्वारा प्रतिबोधित होने पर भी अश्वमित्र ने अपने दुराग्रह का त्याग नहीं किया। धर्माचार्य ने उसको इस मान्यता से निह्नव जानकर कायोत्सर्गपूर्वक गच्छ से बाहिर कर दिया। गच्छसे આથી વસ્તુને પ્રતિક્ષણ સર્વથા નાશ થાય છે તેમ માનવું તે વ્યાજબી નથી. પરંતુ એમ જ માનવું જોઈએ કે, પર્યાયના પરિવર્તનથી જ પ્રતિક્ષણ વસ્તુને નાશ થાય છે. દશમપૂર્વમાં નારકી આદિને જે વિચછેદ કહ્યો છે તેને હેતુ એ નથી કે તેને સર્વથા નાશ થાય છે પરંતુ એક પર્યાયથી બીજી પર્યાયાન્તરિત થાય છે. કારણ કે જૈનશાસ્ત્રની એ તે માન્યતા જ કે, " जैनानामखिल वस्तु, द्रव्यतः शाश्वतं भवेत् , अपरापरापर्यायपरावृत्तत्वशाश्वतम् ॥ १॥" સઘળા પદાર્થ દ્રવ્યની અપેક્ષાએ શાશ્વત અને પર્યાયની અપેક્ષાએ અશાશ્વત છે. ધર્માચાર્ય તરફથી આટ આટલે પ્રતિબંધ આપવા છતાં પણ અશ્વમિત્રે પિતાને દુરાગ્રહ ન છે. તેની આ જાતની માન્યતાથી તેને નિદ્વવ (સૂત્રને સત્ય અર્થને બદલે અવળો અર્થ કરનાર) જાણીને ધર્માચાર્યું કાર્યોત્સર્ગ પૂર્વક તેને ગ૭ બહાર મૂકી દીધું. ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #764 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रियदर्शिनी टीका अ० ३ गा.९ पञ्चमगङ्गाचार्यनिह्नवदृष्टान्तः ७०९ ततोऽसौ लोके समुच्छेदवादोक्त्या स्वकीयकुमतं व्युद्ग्राहयन् भूमौ पर्यटति । अथान्यदाऽसौ सपरिवारः पर्यटन् राजगृहे समागतः । तत्र-राज्ञः शुल्काध्यक्षाः श्रावकोत्तमा आसन् । ते च सामुच्छेदिकनिहवानागतान् ज्ञात्वा मनसि चिन्तयन्ति-कर्कशेनापि कर्मणा एतान् बोधयामः इति विचिन्त्य ते राजपुरुषाः कशादिभिस्तेषां ताडनं कुर्वन्ति । ततस्ते मुनयः प्राहुः-यूयं श्रावकाः, वयं साधवः कथं कुट्यन्ते युष्माभिः, श्रावकाः वदन्ति-भवन्मते वयं न श्रावकाः ये भवद्भिदृष्टास्ते गच्छ से बाहिर होकर इन्हों ने स्वेच्छापूर्वक विहार किया और वे सर्वत्र अपने समुच्छेदवाद की प्ररूपणा एवं पुष्टि करने लगे। किसी एक समय ये सपरिवार विचरते हुए राजगृह नगरमें आये। उस समय वहां राज्य के चुंगीघर में काम करने वाले श्रावक थे। जब उन्हों ने सुना कि समुच्छेदवादी निह्नव यहां आये हुए हैं, तो उन्हों ने विचार किया कि कर्कश-कठोर से भी कठोर कर्म द्वारा इनको समझाना चाहिये । इस प्रकार निश्चय कर वे सब राजपुरुष उनके पास आये और चाबुक आदि के प्रहारों से उनको खूब ताडित करने लगे। मुनियों ने जब उनका ऐसा अनुचित व्यवहार देखा तो कहने लगे कि आप लोग तो श्रावक हो और हम लोग साधु हैं अतः व्यर्थ में हमें क्यों मारते हो । उनकी बात सुनकर उन श्रावकों ने कहा कि खूब कहा-आप लोगों के मतानुसार न हम श्रावक हैं और न आप ગચ્છથી બહાર થયા પછી અલ્પમિત્ર મુનીએ સ્વેચ્છાપૂર્વક વિહાર કરવા માંડે. અને તે જ્યાં જ્યાં ગયા ત્યાં ત્યાં પોતાના સમુછેદવાદની પ્રરૂપણા અને પુષ્ટિ કરવા લાગ્યા. કઈ એક સમયે વિચરતાં વિચરતાં તે પરિવાર સહિત રાજગૃહ નગરમાં પધાર્યા. તે સમયે ત્યાંના રાજ્યના જકાત ખાતાના કર્મચારીઓ શ્રાવકે હતા. તેમણે સાંભળ્યું કે, સમુચછેદવાદી નિહ્નવ અહિં પધાર્યા છે, તે તેઓએ વિચાર કર્યો કે, કર્કશ-કઠોરથી પણ કઠોર કાર્ય દ્વારા તેમની બુદ્ધિ ઠેકાણે લાવવી જોઈએ. આ પ્રકારને વિચાર કરી તે સઘળા રાજપુરૂષે તેમની પાસે આવ્યા અને ચાબુક વિગેરેના પ્રહારથી તેમને ખૂબ મારવા લાગ્યા. મુનિઓએ જ્યારે રાજપુરૂષને આવે અનુચિત વહેવાર જે એટલે કહેવા લાગ્યા કે, આપ લોકે તે શ્રાવક છે અને અમે સાધુએ છીએ, તે અમને વ્યર્થ શા માટે મારે છે? અશ્વમિત્ર અને તેમના સાધુઓની આ વાત સાંભળીને તે શ્રાવકેએ કહ્યું કે, વાહ! આપના મત અનુસાર ન તે અમે શ્રાવક છીએ કે ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #765 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७१० उत्तराध्ययनसूत्रे भवन्मते विनष्टाः, वयं तु नवीना एवोत्पन्नाः, ये भवन्तः पूर्वमस्माभिदृष्टास्ते भवन्मते विनष्टाः यूयं तु नवीना एवं, भवन्मते क्षणक्षयित्वात् सर्वस्य वस्तुन इत्येवं तैः शिक्षितः प्रतिबोधितश्च ।। इति चतुर्थाऽश्वमित्रनिह्नवदृष्टान्तः॥४॥ अथ पञ्चमगङ्गनिहवदृष्टन्तः प्रोच्यते भगवतः श्रीमहावीरस्वामिनो निर्वाणसमयाद् अष्टाविंशत्यधिकद्विशतवर्षेषु २२८ व्यतीतेषु द्वैक्रियनिहवो जातः । उल्लुकाख्याया नद्याः पूर्वस्मिन् पुलिने उल्लुकातीरनामकं नगरमासीत् , तस्या एवं नद्या द्वितीयपुलिने धूलिप्राकाराऽऽवृतनगरविशेषरूपं खेटस्थानमासीत् । साधु हो । आपने जिन्हें देखा है वे तो नष्ट ही हो गये हैं, हम तो नवीन ही उत्पन्न हुए हैं । तथा हमलोगों ने जिन आपलोगों को पहिले देखा है वे भी आप लोग नहीं है, वे तो आपके सिद्धान्तानुसार विनष्ट हो चुके हैं। आप तो नवीन ही उत्पन्न हुए हैं, क्यों कि आपका मत ही क्षण-क्षय का प्रतिपादक है, समस्तपदार्थ क्षणविनश्वर है, यह आपका अभिमत है । इस प्रकार उनके द्वारा शिक्षित होकर वे सब के सब प्रतिबोधित हो गये । यह चौथे अश्वमित्र निवका दृष्टान्त हुआ॥४॥ पंचम गंगाचार्य निह्नव का वृत्तान्त इस प्रकार है भगवान महावीर को मुक्ति गये जब २२८ दोसोअट्ठाईस वर्ष व्यतीत हो चुके तब टेक्रिय निह्नव हुआ। उस समय उल्लुकातीर नाम का नगर था । और द्वितीय तट पर धूलि के कोट से परिवृत एक नगरविशेष के ન તે તમે સાધુ છે. આપે જેને જોયા છે તેને તે નાશ થઈ ગયે છે. અમે તે નવીન જ ઉત્પન્ન થયા છીએ. તેજ પ્રમાણે અમારામાંના જેમણે આપ લેકેને પહેલાં જોયા છે તે પણ આપ લેકે નથી. આપના સિદ્ધાંત અનુસાર તે તે નાશ પામ્યા છે. આપ તે કેઈ નવા જ ઉત્પન્ન થયા છે. કેમકે, આપને મત જ ક્ષણ ક્ષયને પ્રતિપાદક છે. સર્વ પદાર્થો ક્ષણ વિનાશી છે. એ આપને અભિમત છે. આ પ્રમાણે એ શ્રાવકે દ્વારા શિક્ષણ મેળવી. તે સઘળા પ્રતિબંધિત થયા. આ ચોથું દ્રષ્ટાંત અશ્વમિત્ર નિદ્ભવનું થયું. ૪ હવે પાંચમા ગંગાચાર્ય નિવ્રુવનું દષ્ટાંત આ પ્રકારનું છે ભગવાન મહાવીરને નિર્વાણ પાપે માંડ માંડ ૨૨૮ બસ અઠાવીસ વર્ષ વીત્યાં હશે. તે સમયે દ્રકિય નિહવ થયા. તે સમયે ઉલુકા નદીના પૂર્વ કિનારે એક ઉલ્લકાતીર નામનું એક નગર હતું. જ્યારે બીજા કિનારે ધુળના ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #766 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रियदर्शिनी टीका म. ३ गा. ९ गणाचार्यस्य निवत्वे कारणम् ११ तत्र महागिरिशिष्यो धनगुप्तनामको मुनिश्चातुर्मास्यामवस्थितः । धनगुप्ताचार्यस्य शिष्यो गङ्गनामकः आचार्यस्तु उल्लुकानद्याः पूर्वतटवर्तिनि उल्लुकातीरनाम के नगरे समवस्थितः। तदनन्तरं शरत्काले धर्माचार्यवन्दनाथ गच्छन् गङ्गाचार्यों नदीमुत्तरीतुं नद्यां प्रविष्टः । स च खल्वाटः, अतस्तस्य शिरसि प्रखरभास्करकिरणसंपर्कात् तापः संजातः, चरणयोश्च शीतलजलसंपर्कतः शैत्यं संजातम् । ततोऽत्रान्तरे कथमपि मिथ्यात्वमोहनीयोदयात् तस्य मनसि विचारः समुत्पन्नः-अहो ! एकस्मिन् समये एकैव क्रियाऽनुभूयते इति सूत्रोक्तिः कथं घटते, यतोऽहमधुना शीतमुष्णं च युगपद जैसा खेटक था। वहां महागिरि के शिष्य धनगुप्त नाम के मुनि ने चतुर्मास किया। इन धनगुप्त आचार्य के एक शिष्य थे जिनका नाम गंग था, और ये भी स्वयं आचार्य थे, उन्हों ने उल्लुका नदी के पूर्वतट पर वसे हुए उल्लुकातीरनगर में चतुर्मास किया। एक दिन की बात है कि शरत्काल में धर्माचार्य को वन्दना करने के लिये गंगाचार्य जा रहे थे। मार्ग में नदी पड़ती थी। उन्हों ने उस नदी को पार करने के लिये उसमें प्रवेश किया। ये खल्वाट-गंजे थे अतः प्रखर सूर्य की किरणों के आतप से इनका मस्तक तप रहा था। ज्यों हो इनको शीतल जल का संपके हआ तो इनके चरणों में शीतलता आ गई। मिथ्यात्वकर्म के उदय से इसी बीच इनके मन में इस प्रकार का विचार जागृत हो गया कि एक समय में एक जीव एक ही क्रिया का अनुभव करता है, इस प्रकार आगम का आदेश है परन्तु કેટથી બાંધેલો એક ખટક-કો હતો. ત્યાં મહાગિરિના શિષ્ય ધનગુપ્ત નામના મુનિરાજે ચાતુર્માસ કર્યું. એ ધનગુપ્ત આચાર્યને એક શિષ્ય હતે. જેનું નામ ગંગ હતું અને તે પણ ખુદ આચાર્ય હતા. તેમણે ઉલુકા નદીના પૂર્વ કિનારા ઉપર આવેલી ઉત્સુકા નગરીમાં ચાતુર્માસ કર્યું. શરદૂતને એ સમય હતો. કોઈ એક દિવસે ગંગાચાર્ય પતાના ધર્માચાર્યને વંદના કરવા માટે જઈ રહ્યા હતા. માર્ગમાં નદી આવતી હતી. તેમણે સામે કાંઠે જવા માટે નદીમાં પ્રવેશ કર્યો. તેમના માથામાં ટાલ હતી, તે કારણે પ્રખર સૂર્યનાં કિરણોના આતાપથી તેમનું મસ્તક તપી રહ્યું હતું. બીજી બાજુ એમના ચરણેને શીતળ જળને સપર્શ થતાં એમના ચરણોમાં શીતળતાને અનુભવ થવા માંડે. મિથ્યાત્વ કર્મના ઉદયથી એ સમયે તેમના મનમાં એવા પ્રકારને તક જાગ્યો કે, આગમ તે બતાવે છે કે એક સમયમાં એક જીવ એક જ ક્રિયાને અનુભવ કરે છે, પરંતુ વર્તમાનકાળે મારા આ ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #767 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७१३ उत्तराध्ययनसूत्रे अनुभवामि, अतोऽनुभवविरुद्धत्वादिदमागमोक्तं न प्रमाणम्, इति विचिन्त्य गङ्गाचार्योधनगुप्ताचार्यस्य समीपं गत्वा स्वाभिमायमाह-भदन्त । ममैकस्मिन्नेव समये शीतोष्णानुभवः संजातः, अतो यदुक्तमागमे युगपत् क्रियाद्वयस्यानुभवो न भवतीति, तन्न प्रमाणम् , यतः-युगपत् क्रियाद्वयसंवेदनमस्ति, अनुभवसिद्धस्वात्,मम चरणशिरोगतशीतोष्णक्रियासंवेदनवत् , इति। ततो धनगुप्ताचार्यस्तमाहवर्तमान इस अनुभव से यह बात सत्य प्रतीत नही होती है, क्यों कि मैं इस समय में शीतस्पर्श एवं उष्णस्पर्श का युगपत्-एकसाथ अनुभव कर रहा हूं, अतः स्वानुभव से विरुद्ध होने के कारण यह आगमोक्त कथन प्रमाणभूत नहीं है। इस प्रकार विचार करते २ ये अपने गुरुमहाराज धनगुप्त आचार्य के पास पहुँच गये। वहां पहुंचते ही इन्हों ने अपना अभिप्राय गुरुमहाराज से कहा। भदन्त ! मुझे एक ही समय में शीतस्पर्श एवं उष्णस्पर्श का अनुभव हुआ है, इसलिये आगम में जो ऐसा कहा है कि क्रियाद्वय का युगपत् अनुभव एक जीव को नहीं होता है, वह मेरी दृष्टि से अप्रमाण है। एक जीव के एक ही समय में क्रियाय का संवेदन होने से यह अनुमान प्रयोग बन जाता है कि-" युगपत्क्रियाद्रयस्य संवेदनमस्ति अनुभवसिद्धत्वात् ममचरणशिरोगतशीतोष्णक्रियासंवेदनवत्" अर्थात्-एक समय में दो क्रियाओंका संवेदन होता है, क्यों कि यह अनुभव सिद्ध है, जैसे मेरे पैरों में शीतसंवेदन और मस्तक में उष्णसंवेदन हुआ है । धनगुप्त સવ અનુભવથી એ વાત સત્ય લાગતી નથી. કારણ કે, આ સમયે ઉઠણતા અને શીતળતા બન્નેને એક સાથે હું અનુભવ કરી રહ્યો છું. માટે હું જે અનુભવી રહ્યો છું તેનાથી વિરૂદ્ધ એવું આગમમાં દર્શાવાએલું કથન પ્રમાણભૂત નથી જ. આ પ્રકારને વિચાર કરતાં કરતાં પોતાના ગુરુ મહારાજ ધનગુપ્ત આચાર્યની પાસે જઈ પહોંચ્યા. ત્યાં પહોંચતાં જ પિતાને અનુભવેલ અભિપ્રાય ગુરુ મહારાજને કહ્યો. ભદન્ત ! મને એક જ સમયમાં શીતળતા અને ઉણુતાને અનુભવ થયો છે. એટલા માટે આગમમાં જે એવું ફરમાવ્યું છે કે, બે ક્રિયાને એકી સમયે યુગપતુ અનુભવ એક જીવને થતો નથી તે મારી દષ્ટિએ પ્રમાણભૂત ઠરતું નથી. આથી કરીને એક જીવને એક જ સમયે કિયાદ્રયનું સંવેદન થતું હોવાથી મારા અનુભવે આ અનુમાન પ્રયોગ બની જાય છે કે, “ युगपत् क्रियाद्वयस्य संवेदनमस्ति अनुभवसिद्धत्वात् मम चरणशिरोगतशीतोष्ण क्रियासंवेदनवत्" अर्थात्-४ समयमा से लियामातुं स वहन ५५५ थाय छे. જેમ મેં મારા પગેમાં શીતસંવેદન અને મસ્તકમાં ઉsણસંવેદન અનુભવ્યું, ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #768 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रियदर्शिनी टीका अ० ३ गा० ९ एकसामयिक क्रियाद्वये गुरुशिष्ययोः संवादः ७१३ वत्स ! उपयोगयुगं युगपत्नोपपद्यते, छायातपवत् युगपत् क्रियाद्वयानुभवस्वयाऽभ्युपगम्यते स तव क्रमेणैव संपद्यते न तु युगपत् । परंतु तत् स्वया न लक्ष्यते, समयावलिकादेः कालस्य सूक्ष्मत्वात्, तथा मनसश्चातिचलत्वेनाऽतिसूक्ष्मतया शीघ्रसंचारस्वात् । तस्मादनुभवसिद्धत्वादित्यसिद्धोऽयं हेतुः ॥ १ ॥ " किंच - मनः सूक्ष्मातीन्द्रियपुद्गलस्कन्धनिर्वृतत्वात् सूक्ष्मम् शीघ्रसंचारस्वभावत्वात् शीघ्रसंचारि च । एवंभूतं मनः यस्मिन् श्रोत्रादिद्रव्येन्द्रियविषये शब्दादौ आचार्य ने गंगाचार्य की बात सुनकर कहा कि वत्स ! एक काल में एक जीव के दो उपयोग संभवित नहीं होते हैं जैसे छाया और आतप । एक साथ दो क्रियाओं का अनुभव तुम जो मान रहे हो सो वह भ्रम है । क्रियाद्वय का अनुभव तो क्रम २ से ही होता है, परन्तु वह लक्षित नहीं होता है, क्यों कि समय आवली आदि जो काल है वह अतिसूक्ष्म है । तथा मन भी अतिचंचल एवं सूक्ष्म है इसलिये उसका संचार शीघ्र होने से ऐसा मालूम पड़ता है कि दो क्रियाओं का युगपत् अनुभव हो रहा है इसलिये " अनुभवसिद्धत्वात् " यह हेतु असिद्ध है । मन सूक्ष्म इसलिये है कि वह सूक्ष्म, अतीन्द्रिय पुद्गल स्कंध से निर्वर्तित-रचित हुआ है । उसका स्वभाव शीघ्र संचरण करने का है। इस स्वभाववाला यह मन जिस श्रोत्रइन्द्रिय आदिके विषयभूत शब्दा प्रभा તેમ એ અનુભવ સિદ્ધ વાત છે. ધનગુપ્તઆચાર્ય ગંગાચાર્યની આ ઘેની વાત સાંભળીને કહ્યુ', હે વત્સ ! એક સમયમાં એક જીવને એ ઉપયાગ સંભવિત થતા નથી જેમકે છાયા અને તડકા, એકી સાથે એ ક્રિયાઓના અનુભવ જેને તમે માની રહ્યા છે. તે તમારા ભ્રમ છે. ક્રિયાયના અનુભવ તા ક્રમ ક્રમથી જ થાય છે. પરંતુ તે લક્ષિત થતા નથી. કેમકે, સમય આવલી સમયનાક્રમ આદિ જે કાળ છેતે અતિ સૂક્ષ્મ છે. તેજ પ્રમાણે મન પણ અતિ ચંચલ અને સૂક્ષ્મ છે. એટલા માટે તેના સંચાર વેગવત હોવાથી એવું જણાય છે કે જાણે એ ક્રિયાઓના યુગપત્ અનુભવ થઈ રહ્યો છે. પણ એ ભ્રમ છે. આથી તમારા अनुभवसिद्धत्वात् " मा नवा सिद्धांत असिद्ध छे. << મન સૂક્ષ્મ એ માટે છે કે તે સૂક્ષ્મ, અતીન્દ્રિય પુર્નંગલ સ્કધથી નિવૃતિ રચિત થયેલ છે. તેના સ્વભાવ શીઘ્ર સંચરણુ કરવાના છે. આ પ્રકારના સ્વભાવવાળું આ મન જે શ્રોત્રેન્દ્રિય વગેરેના આ વિષયભૂત શખ્વાદિકમાં જે સમયે સંયુક્ત उ० ९० ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર ઃ ૧ Page #769 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७१४ उत्तराध्ययनसूत्रे यस्मिन् काले संयुज्यते तस्मिन् काले तस्यैव विषयस्य ज्ञाने हेतुर्मनो भवति । यस्मिन् काले यस्मिन् विषये द्रव्येन्द्रियेण सह मनो न संयुज्यते, तस्मिन् काले तस्य विषयस्य ज्ञानं नोत्पद्यते । यतः शब्दादिषु विद्यमानेष्वपि तत्र मनोयोगाभावात् कस्यापि तद्विषयकं ज्ञानं न भवति । कोऽपि युगपत् द्वे क्रिये ववाऽपि नैव संवेदयते । इत्थमत्र प्रयोगः-'इह पादशिरोगतशीतोष्णवेदने युगपत् न क्यापि कोऽपि संवेदयते भिनदेशत्वात् , विन्ध्यहिमगिरिशिखरस्पर्शनक्रियाद्वयवत् । यतोऽनुभवसिद्धत्वाद् ' इत्यसिद्धोऽयं हेतुः । दिक में जिस समय में संयुक्त होता है उस समय में उसी विषय के ज्ञान का हेतु मन होता है । जिस काल में जिस विषय में द्रव्येन्द्रिय के साथ मन संयुक्त नहीं होता है उस काल में उस विषय का ज्ञान नहीं होता है । यद्यपि उस काल में शब्दादिक विषय विद्यमान भी रहें तो भी उनके साथ मनोयोग का अभाव होने से किसी को भी तविषयक ज्ञान नहीं होता है । ऐसा कोई भी व्यक्ति नहीं है जिसे एक ही काल में दो क्रियाओं का कहीं पर भी संवेदन होता हो। इसकी सिद्धि इस अनुमान प्रयोग से होती है-" इह पादशिरोगतशीतोष्णवेदने युगपत् न क्वापि संवेद्येते, भिन्नदेशत्वात्, विन्ध्यहिमगिरिशिखरस्पर्शनक्रियाव्यवत्" अर्थात् यहां पैर और शिर में रहे हुए शीत और उष्ण का संवेदन एक समय में नहीं होता है, क्यों कि वे दोनों भिन्न २ देशवर्ती है-जैसे विन्ध्यगिरि और हिमगिरि के शिखर की स्पर्शनरूप दो क्रियाएँ, इसलिये “ अनुभवसिद्धत्वातू" यह हेतु असिद्ध हो जाता है । થાય છે તે સમયે જ્ઞાનને હેતુ મન બને છે. જે કાળે જે વિષયમાં દ્રવ્યન્દ્રિયની સાથે મન સંયુક્ત નથી થતું તે કાળે તે વિષયનું જ્ઞાન–ભાન થતું નથી. છતાં પણ જે કદાચ તે કાળમાં શબ્દાદિક વિષય વિદ્યમાન-હયાત રહે તે પણ એની સાથે મનેયોગને અભાવ હોવાથી કોઈને પણ તે વિષયનું જ્ઞાન થતું નથી. એવી કઈ પણ વ્યક્તિ નથી કે જેણે એક જ સમયે બે ક્રિયાઓનું કયાંય પણ સંવેદન અનુભવ્યું હોય. આની સિદ્ધિ આ અનુમાન प्रयोगथी थाय छे , " इह पादशिरोगतशीतोष्ण वेदने युगपत् न क्वापि संवेदयते भिन्नदेशत्वात् विन्ध्यहिमगिरिशिखरस्पर्शनक्रियाद्वयवत् ” अर्थात्-मही ५ અને માથામાં થતું શીત અને ઉષ્ણુનું સંવેદન એક સમયમાં થતું નથી. કેમકે, તે બને અલગ અલગ દેશવર્તી છે. હિમગિરિ અને વિધ્યગિરિના शिमरना स्पर्श न३५ ध्यास भ म समय थती नथी. साथी " अनुभव सिद्धत्वात् ॥ २॥ तु मसिद्ध मनी लय छे. ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #770 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रियदर्शिनी टीका. अ०३ गा.९ एकसामयिकक्रियाद्वये गुरुशिष्ययोः संवादः ७१५ किञ्च-जीवः खलु उपयोगमयः स येन केनाऽपि स्पर्शनादीन्द्रियेण करणभूतेन यस्मिन् शीतोष्णाद्यन्यतरविषये यस्मिन् काले उपयुज्यते तन्मयोपयोग एवं भवति, नान्यथोपयुक्तो भवति । एकस्मिन् काले एकत्रैवार्थे उपयुक्तो जीवः संभवति न तु अर्थान्तरे, सांकर्यादिदोषप्रसङ्गात् । तस्माद् युगपत् क्रियाद्वययोगोऽसिद्ध एवं । ननु एकस्मिन्नर्थे उपयुक्तोऽर्थान्तरेऽपि किं नोपयुज्यते, इत्यत्राह-एकार्थस्योपयोगमात्रे व्यापृतशक्तिकः कथं युगपद् अर्थान्तरे उपयोगं कर्तुं प्रभवेत् ? न कथंचित् , सांकर्यादिदोषप्रसङ्गात् । ___और भी-जीव उपयोगस्वरूप है । वह जिस किसी भी कारणभूत स्पर्शइन्द्रिय के द्वारा जिस शीत उष्ण आदि विषय में जिस समय उपयुक्त होता है वह उसी उपयोगमय हो जाता है, इसलिये वह उसी विषय का ज्ञाता होता है, अन्य का नहीं, और जिस समय विवक्षित उपयोग नहीं होता उस समय वह विवक्षित पदार्थ का ज्ञाता भी नहीं होता है । एक काल में एक ही अर्थ में जीव उपयुक्त होता है दूसरे अर्थ में नहीं, कारण कि इस प्रकार की मान्यता से संकर आदि दोषों का प्रसंग प्राप्त होता है, इसलिये एक समय में दो क्रियाओं के साथ उपयोग का संबंध मानना सर्वथा अनुचित है, क्यों कि यह बात किसी भी प्रमाण से सिद्ध नहीं होती है । एक अर्थ में उपयुक्त आत्मा अर्थान्तर में भी उपयुक्त क्यों नहीं होता है । इसका समाधान यह है कि आत्मा की शक्ति ही ऐसी है जो एक ही अर्थ में एक समय उपयुक्त हो सकती है दूसरे पदार्थ में नहीं, क्यों कि यह बात ऊपर बतला दी વળી-જીવ ઉપયોગ સ્વરૂપ છે. તે જે કંઈ પણ કારણભૂત પશેન્દ્રિય દ્વારા જે શીત ઉષ્ણ આદિ વિષયમાં જે સમયે ઉપયુક્ત બને છે. તે પ્રમાણે એજ ઉપયોગમય બની જાય છે. આથી તે સમયે તે એજ વિષયને જાણકાર બને છે, બીજા વિષયનો નહીં. અને જે સમયે વિવક્ષિત ઉપયોગ વિશિષ્ટ નથી હોતે તે સમયે તે વિવક્ષિત પદાર્થને જ્ઞાતા પણ હેતે નથી. એક સમયને વિશે એક જ અર્થમાં જીવ ઉપયુક્ત બને છે. બીજા અર્થમાં નહીં. કારણ કે, આ પ્રકારની માન્યતાથી સંકર આદિ દેષ થવાને પ્રસંગ પ્રાપ્ત થાય છે. એટલા માટે એક સમયમાં બે ક્રિયાઓની સાથે ઉપયોગને સંબંધ માનવ સર્વથા અગ્ય છે. કારણ કે, આવી વાત કોઈ પણ પ્રમાણથી સિદ્ધ થતી નથી. એક અર્થમાં ઉપયુક્ત આત્મા અર્થાતરમાં પણ ઉપયુક્ત કેમ થતું નથી ? તેનું સમાધાન એજ છે કે. આત્માની શક્તિ જ એવી છે કે જે એક જ અર્થમાં पण ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #771 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययनसूत्रे किश्च-सर्वैरपि स्वप्रदेशैरेकस्मिन्नर्थे उपयुक्तस्य जीवस्य कः प्रदेश उद्वरितः, येनार्थान्तरोपयोग स व्रजेत् । यतो नास्त्येव स कश्चिदुद्वरितः प्रदेशः, येन तत्समकालमेव अर्थान्तरोपयोग स कुर्यात् । यथा वृश्चिकदंशने सति सा वेदना सर्वैः प्रदेशैरनुभूयते न तु कश्चित् प्रदेशोऽवशिष्टस्तद्वेदनानुपयुक्तः ॥ ननु युगपत् क्रियाद्वयोपयोगो न भवति चेत्तर्हि कथं तमहं संवेदयामि ? इति चेत् , उच्यतेगई है, कि ऐसा मानना संकर आदि दोषों का प्रसंग होता है। ___और भी-जीव जब किसी एक अर्थ में एक काल में उपयुक्त होता है, तो वह अपने समस्त प्रदेशों से उसमें उपयुक्त होता है। अब ऐसा और कोई प्रदेश नहीं बचता जो अर्थान्तर के उपयोग होने में कारण हो सके। अतः ऐसा नहीं होने से जीव एक काल में एक ही अर्थ में उपयुक्त होता है, यह सिद्धान्त ही ठीक है । देखो-जिस समय वृश्चिक आदि काटता है उस समय उसके काटने की वेदना का समस्त प्रदेशों द्वारा जीव अनुभव करता है, ऐसा ता कोई अवशिष्ट नहीं बचता है जो उस वेदना का अनुभवन करता हो। यदि एक साथ क्रियाय का उपयोग नहीं होता है तो मुझे उन दोनों क्रियाओं का एक साथ संवेदन क्यों होता है ? यदि इस प्रकार की शंका की जाय तो उसका समाधान इस प्रकार हैએક જ સમયે ઉપયુકત થઈ શકે છે, બીજા પદાર્થમાં નહીં. કેમકે, એ વાત ઉપર બતાવવામાં આવી છે કે એવું માનવાથી સંકર આદિ દોષ થવાને પ્રસંગ બને છે. વળી જીવ જ્યારે એક અર્થમાં એક કાળને વિશે ઉપયુક્ત થાય છે તે તે પિતાના સમસ્ત પ્રદેશથી તેમાં ઉપયુક્ત બને છે. પછી એ બીજો કોઈ પણ પ્રદેશ બાકી નથી રહેતો જે અર્થાન્તરને ઉપયોગ થવામાં કારણ ભૂત બની શકે. આથી તેવું ન થવાથી જીવ એક કાળમાં એક જ અર્થમાં ઉપયુક્ત થાય છે, આ સિદ્ધાંત જ સાચે છે. દાખલા તરીકે જે સમયે વિંછી વગેરે ડંખ મારે છે તે સમયે તેને ડંખની વેદના અનુભવ સઘળા પ્રદેશ દ્વારા જીવ કરે છે. એ કઈ પણ પ્રદેશ બાકી નથી રહેતું કે જે આ વેદનાના અનુભવથી બાકાત હેય! - આ રીતે જે એકી સાથે ક્રિયાયને ઉપયોગ નથી થતું, તે મને તેનું સંવેદન કેમ થાય છે? જે આ પ્રકારની શંકા કરવામાં આવે તે એનું સમાધાન આ પ્રમાણે છે – ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #772 -------------------------------------------------------------------------- ________________ D प्रियदर्शिनी टीका. अ०३ गा०९ एकसामयिकक्रियावये गुरुशिष्ययोः संवादः ७१७ ___ समयावलिकादिकालभेदस्य दुर्लक्ष्यतया कालभेदेन प्रवृत्तमपि क्रियाद्वयसंवेदनमुत्पलशतपत्रवेधवद् युगपत् प्रवृत्तमिव मन्यसे । उत्पलपत्रशतकमूर्धाधाक्रमेण व्यवस्थितं सुतीक्ष्णयाऽपि सूच्या समर्थेनापि वेधक; न समकालमेव विध्यते, किंतु कालभेदेन, उपर्युपरितने पत्रे त्वविद्वेऽधोऽधस्तनपत्रस्य वेधासंभवात् । तत्र वेधकर्ता वेधं युगपद्विहितमेव मन्यते, तद्वेधनकालभेदस्य सूक्ष्मतया दुरवबोधत्वात् । यथा वा--अलातचक्रं कालभेदेन दिक्षु भ्रमदपि भ्रमणकालभेदस्य सूक्ष्मतया दुरववोधत्वानिरन्तरभ्रमणमेव लक्ष्यते । एवमिहापि शीतोष्णक्रियाकालभेदस्य सूक्ष्मत्वेन दुरवबोधत्वाद् युगपदिव तदनुभवं भवान् मन्यते । देखो-जिस प्रकार कमल के ऊपरा-ऊपरी रखे गये सौ पत्ते जब तीक्ष्ण सुई आदि द्वारा वेधित किये जाते हैं तो ऐसा मालूत होता है कि ये सब के सब एक ही साथ विध गये हैं, अब विचारो क्या ये सब पत्ते एक ही साथ एक ही काल में विधे हैं ? नहीं, उनके वेधन में काफी समय लगा है, क्यों कि वे सब के सब क्रम २ से विधे हैं। इसी तरह समय आवली आदि जो व्यवहार काल के भेद हैं, ये अतिसूक्ष्म होने से छद्मस्थों के लिये दुर्लक्ष हैं, अतः इनमें कोइ भेद ज्ञात नहीं होता है । इसलिये क्रियावयका संवेदन उत्पल शतपत्रके वेधनकी तरहयुगपत् हुआ जैसा मान लिया जाता है । वास्तवमें यह संवेदन युगपत् नहीं हुआ है। ____ अथवा-जिस प्रकार अलात (अंगारा) चक्र जब घुमाया जाता है तो चारों दिशाओं में अग्नि का चक्कर युगपत् ज्ञात है, परन्तु उसका ધારકે કમળની સો પાંદડીઓ ઉપરા ઉપરી ગોઠવવામાં આવી હોય પછી જ્યારે તેને એક તીક્ષ્ણ સોય દ્વારા આરપાર વિંધવામાં આવે તે પ્રથમ દષ્ટિએ એવું માલુમ પડે છે કે, જાણે એ સઘળી પાંદડીઓ એક સાથે વિધવામાં આવી છે. હવે વિચાર કરે, આ સઘળાં પાન શું એક જ સમયે એક સાથે જ વિંધાયાં છે? ना, भीमद नहीतर विधवामां सारे। मेव। समय साया छे. भ, તે બધાં પાન ક્રમ પ્રમાણે એક પછી એક એ રીતે વિધાયાં છે. આજ પ્રમાણે સમય આવલી–સમયને કમ જે વહેવાર કાળને ભેદ છે તે અતી સૂક્ષમ હોવાથી છદ્મસ્થ માટે લક્ષ બહારની વાત છે. એથી તેમાં કેઈ ભેદ જણાતું નથી. એટલા માટે જ કિયાદ્વયનું સંવેદન કમળના સે પાંદડાના વેધનની માફક યુગપત થયું એવું માનવામાં આવે છે. પણ વાસ્તવમાં એ સંવેદન યુગપતું થયું નથી. અથવા–જેવી રીતે આગનું ચક જ્યારે ગેળ ફેરવવામાં આવે છે. ત્યારે ચારે કેર અગ્નિનું ચકકર યુગપત્ જણાય છે. પરંતુ તેનું ભ્રમણ ચારે દિશા ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #773 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७१८ उत्तराध्ययनसूत्रे यथा वा शुष्कशष्कुलिकाभक्षणे शष्कुलिकागतरूपरसगन्धस्पर्शशब्दानां सर्वेषामुपलब्धिरयुगपत् प्रवृत्ताऽपि योगपद्येन लक्ष्यते तथाऽत्रापि शिरापादादिभिः स्पर्शनेन्द्रियदेशैरिन्द्रियान्तरैश्च क्रमेण संयुज्यमानमपि मन एकस्मिन् काल एव संयुज्यमानं लक्ष्यते। इदमत्र तत्त्वम्-इह दीर्घा शुष्कां च शष्कुलिकां भक्षयतः कस्यचित् तद्रूपं चक्षुषा पश्यतो रूपज्ञानमुत्पद्यते, तद्गन्धं च घ्राणेन जिघ्रतो गन्धज्ञानम् , तद्रसं च भ्रमण चारों दिशाओं में युगपत् नहीं हो रहा है क्रमशः ही हो रहा है, परन्तु वहां कालभेद अतिसूक्ष्म होने से दुर्लक्ष्य होता है। इसी तरह शीतोष्णक्रियावय का संवेदन अतिसूक्ष्म होने से भेदविशिष्ट ज्ञात नहीं होता है अतः तुम्हारे द्वारा ऐसा मान लिया जाता है कि यह सब एक साथ एक ही काल में हो रहा है। __ अथवा-शुष्क शष्कुलिका (सूखी पुडी) के चबाने पर शकुलिकागत रूप, रस, गंध, स्पर्श एवं कटकट आदि शब्द की उपलब्धि अयुगपत् होती हुई भी जैसे युगपत् हो रही है ऐसी मालूम होती है, उसी तरह शिर पैर आदि स्पर्शनेन्द्रिय प्रदेशों द्वारा, और अन्य इन्द्रियों द्वारा क्रम २ से संयुज्यमान भी मन एक ही काल में संयुक्त हो रहा है, ऐसा मालूम पड़ता है। वास्तव में भिन्न २ समय में ही मन संयुक्त हो रहा है। ऐसा जानना चाहिये। __ इसका भाव यह है कि दीर्घ एवं शुष्क शष्कुलिका को खानेवाले એમાં યુગપતું થતું નથી હોતું, પણ ક્રમશઃ થતું હોય છે. પરંતુ ત્યાં કાળભેદ અતિ સૂક્ષ્મ હોવાને કારણે દુર્લક્ષ્ય થાય છે. આ રીતે શીતેણ ક્રિયાકયનું સંવેદન અતિસૂક્ષ્મ હોવાથી ભેદવિશિષ્ટ જણાતું નથી. આ કારણે તમારા દ્વારા એ માની લેવામાં આવે છે કે, આ સઘળું એકી સાથે એક જ કાળમાં થઈ રહ્યું છે. अथवा-सुस गमेसी पुरीना न्यापाथी पुरीमा २i ३५, २स, गध, સ્પર્શ અને કટકટ આદી શબ્દની ઉપલબ્ધિ અયુગપત્ થવા છતાં પણ જેમ યુગપત્ થઈ રહી છે એવું માલુમ પડે છે. એ જ રીતે માથું પગ આદિ સ્પશેન્દ્રિય પ્રદેશ દ્વારા અને અન્ય ઈન્દ્રિ દ્વારા ક્રમ કમથી સંયુજ્યમાન એવું મન એક જ કાળમાં સંયુકત થઈ રહ્યું છે એવું માલુમ પડે છે. વાસ્તવમાં ભિન્ન ભિન્ન સમયમાં જ તે મન સંચુંકત થાય છે એવું જાણવું જોઈએ. આ કહેવાને હેતુ એ છે કે, દીઘ અને સુકાઈ ગએલી પુરીને ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #774 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रियदर्शिनी टीका. अ०३ गा. ९ एकसामयिक क्रियाद्वये गुरुशिष्ययोः संवादः ७१९ रसनया आस्वादयतो रसज्ञानं, तत्स्पर्श च स्पर्शनेन वेदयतः स्पर्शज्ञानं, चर्वणादुत्पन्नं तच्छदं च शण्वतः शब्दज्ञानं जायते । एतानि पञ्चापि ज्ञानानि क्रमेणैव जायन्ते अन्यथा सांकर्यादिदोषप्रसङ्गात् मत्यादिज्ञानोपयोगकाले चावध्याद्युपयोगस्यापि प्राप्तेः, एकं च घटादिकमर्थं विकल्पयतोऽनन्तानामपि घटाद्यर्थविकल्पानां प्रवृत्तिप्रसङ्गाच्च । न चैतदस्ति । अतः क्रमेण जायमानान्यप्येतानि ज्ञानानि प्रतिपत्ता“ युगपदुत्पद्यन्ते " इति मन्यते, समयाऽऽवलिकाऽऽदिकालविभागस्य सूक्ष्मत्वात् । किसी पुरुष को चक्षु से उसका रूप देखते समय रूपज्ञान उत्पन्न होता है, घ्राण इन्द्रिय द्वारा उसके गंध का, रसना इन्द्रिय द्वारा उसके रस का, स्पर्शन इन्द्रिय द्वारा उसके स्पर्श का एवं चबाते समय उसके शब्द का ज्ञान होता है । इस प्रकार ये पांचों ही ज्ञान विचार करो तो उस खाने वाले व्यक्ति को क्रमशः ही होते हैं, परन्तु वहां ऐसा भान होता है कि ये सब ज्ञान एक ही साथ एक ही काल में हो रहे हैं। इन पांचों ज्ञानों का काल यदि क्रमशः न माना जाय तो मत्यादिज्ञान के उपयोग काल में अवधि आदि ज्ञान के उपयोग का भी सद्भाव मानना पडेगा । एक ही घटादिक पदार्थ को जानते समय अनन्त घटादिकों के जानने का प्रसंग प्राप्त होगा, परन्तु ऐसा तो होता नहीं है । प्रतिपत्ता - जानने वाला सिर्फ क्रम २ से होनेवाले इन ज्ञानों को “ये मुझे एक ही साथ एक काल में उत्पन्न हुए हैं " ऐसा समझ लेता है। उसकी इस ખાવાવાળા કોઈ પુરૂષને આંખાથી પુરીનું સ્વરૂપ જોતી વખતે રૂપ જ્ઞાન ઉત્પન્ન થાય છે. ઘ્રાણેન્દ્રિયથી એની ગંધના, રસનેન્દ્રિયથી એના રસના, સ્પશેન્દ્રિયથી એના સ્પના અને ચાવતી વખતે એના શબ્દનું જ્ઞાન થાય છે. આ રીતે એ પાંચેય જ્ઞાનના વિચાર કરો તા એ પુરી ખાવાવાળાને એક પછી એક એ રીતે જ્ઞાન થાય છે છતાં પણ તેને એવું ભાસે છે કે, એ બધાં જ્ઞાન તેને એકી સાથે અને એક જ કાળમાં થઈ રહ્યાં છે. આ પાંચે પ્રકારનાં જ્ઞાનના કાળ જે ક્રમશઃ થતા ન માનવામાં આવે તે મતિજ્ઞાન વિગેરે જ્ઞાનના ઉપયેાગ કાળમાં અવધિજ્ઞાન વિગેરે જ્ઞાનના ઉપયોગને પણ સદ્ભાવ થતા માનવે પડે. એક જ ઘટ (ઘડા) વિગેરે પદાર્થને નજરમાં લેતી વખતે અનંત ઘટ આદિના ખ્યાલ નજરમાં આવવાના પ્રસગ ઉભું થશે. પરંતુ એવુ તેા થતું નથી. જાણનાર વ્યકિત ફ્કત ક્રમે ક્રમે થનારા જ્ઞાનને આ જ્ઞાન મને એકી સાથે અને એકજ કાળમાં થયેલ છે, '' એવુ' સમજી બેસે છે. એની ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર ઃ ૧ Page #775 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - ७२० उत्तराध्ययनसूत्रे एवमिहापि शिरःपादादिभिः स्पर्शनेन्द्रियदेशैरिन्द्रियान्तरैश्च क्रमेण संयुज्यमानमपि मनः प्रतिपत्ता युगपत् संयुज्यमानमध्यवस्यति, न तु तत्वतोऽसौ मनसः स्वभावः । तथा चोक्तम्-'युगपज्ज्ञानानुत्पत्तिर्मनसो लिङ्गम्' इति । यदि चोक्तरीत्या सर्वेन्द्रियजनिते ज्ञाने क्रमेण संचरतो मनसः संचारो दुर्लक्षः, तर्हि कथमेकस्यैव स्पर्शनेन्द्रियमात्रस्य शीतवेदनोपयोगादन्यस्मिन्नुष्णवेदनोपयोगरूपे उपयोगान्तरे उत्पद्यमाने तत्संचारः सुलक्षः स्यात् । अत्रापि अलक्ष्यमाणः खलु मनसः क्रमेण संचारः, इति जनीहि ।। समझ का कारण एक ही समय आवलि आदि कालविभाग की सूक्ष्मताहै। इसी तरह शिर पैर आदि स्पर्शन इन्द्रिय के प्रदेशों से, तथा अन्य इन्द्रियों से क्रम २ से संयुज्यमान भी मन को प्रतिपत्ता-ज्ञाता ऐसा मान लेता है कि यह युगपत् संयुक्त हुआ है । परमार्थ दृष्टि से विचार किया जाय तो मन का ऐसा स्वभाव नहीं है। कहा भी है-“युगपज्ज्ञानानुत्पत्तिर्मनसो लिङ्गम्' अर्थात् एक साथ ज्ञान की अनुत्पत्ति ही मन का अस्तित्व प्रकट करने वाली है। उक्त पद्धति के अनुसार जब सर्व इन्द्रियों से जनित ज्ञान में क्रम से संचरण करने वाले मन का संचार दुर्लक्ष है तो फिर एक ही स्पर्शन इन्द्रिय मात्र के शीतवेदनारूप उपयोग से अन्य उष्णवेदनारूप उपयोगान्तरके उत्पन्न होने पर उसका संचार कैसे सुलक्ष हो सकता है ? किन्तु नहीं हो सकता। अर्थात् मन का क्रम से संचार ज्ञात नहींहोता है। આ જાતની માન્યતા–સમજણનું કારણ એક સમય–આવલિ (સમયને કમ) આદિ કાળ વિભાગની સૂક્ષ્મતા છે. આ જ પ્રમાણે મસ્તક, પગ વિગેરે સ્પશે. ન્દ્રિયના પ્રદેશોથી તથા અન્ય ઈન્દ્રિયથી ક્રમે ક્રમે સંયુજ્યમાન પણ મનને પ્રતિપત્તા-જ્ઞાતા એવું માની લે છે કે, આ યુગપત્ સંયુકત થયું છે. પરમાર્થ દછીથી વિચાર કરવામાં આવે તે મનને એ સ્વભાવ જ નથી. કહ્યું પણ છે– “युगपज्ज्ञानानुत्पत्तिर्मनसो लिङ्गम्' अर्थात् मे साथे शाननी मनुत्पत्ति મનના અસ્તિત્વને પ્રગટ કરનારી હોય છે. આગળ કહેલી પદ્ધતિ અનુસાર જ્યારે સર્વ ઈન્દ્રિય જનિત એવા જ્ઞાનમાં કમસર સંચરણ કરવાવાળા મનનો સંચાર દુર્લક્ષ છે, તે પછી એક જ સ્પર્શેન્દ્રિય માત્રની શીતવેદના રૂપ ઉપગથી અન્ય ઉષ્ણવેદનારૂપ ઉપગાન્તરના ઉત્પન્ન થવાથી તેને સંચાર સુલક્ષ થઈ શકે છે ? ના તેમ નથી થઈ શકતું. અર્થાત મનને ક્રમથી થતે સંચાર જાણી શકાતું નથી. ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #776 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रियदर्शिनी टीका अ०३ गा०९ एकसामयिकक्रियाद्वये गुरुशिष्ययोः संवादः ७२१ नन्वेकस्मिन्नर्थे उपयुक्तस्य मनसोऽर्थान्तरेऽप्युपयोगो युगपत् भवतीति स्वीकारे को दोषः १ उच्यते यस्य मनोऽन्यस्मिन्नर्थे उपयुक्तं स स्वपुरोऽवस्थितं हस्तिनमपि न पश्यति तस्मादेकस्मिन्नर्थे उपयुक्तं मनो न कदाचिदन्यार्थोपयोगं लभते । ननु श्रुतेऽवग्रहादीनामनुज्ञाने एकस्मिन्नुपयोगबहुताभिहिता, तर्हि कथमुच्यते -वस्तुनोऽनेकपर्यायाणां सामान्यरूपतया ग्रहणमात्रमेव ज्ञाने उपयोगयोग्यतामा. शंका-एक ही अर्थ में उपयुक्त मन का अर्थान्तर में भी उपयोग एक साथ होता है, ऐसा मानने में दोष क्या है ? सो कहो उत्तर-जिसका मन अन्य अर्थ में उपयुक्त हो रहा है उसके समक्ष हस्ती भी आकर उपस्थित हो जावे तो वह भी उसको नहीं दिखता है। इसलिये एक अर्थ में जुड़ा हुआ मन कभी भी अन्य अर्थ में उस समय उपयुक्त नहीं हो सकता है । ___ आगम में जब अवग्रह आदि के निरूपणावसर में एक समय में भी उपयोग का बाहुल्य कहा गया है, फिर आप कैसे कहते हैं किएक समय में अनेक उपयोग नहीं होता है ? । प्रतिवादी के इस शंका का समाधान सिद्धान्ती इस प्रकार करते हैं-तुम जो कहो कि आगम में एक समय में भी अनेक उपयोग होना माना गया है, सोऐसी बात नहीं है। तुमने वहां के आगमवचन का अभिप्राय नहीं समझा। वहां का શંકા–એક જ અર્થમાં ઉપયુક્ત મન અર્થાન્તરમાં પણ ઉપયોગ એક સાથે થાય છે. એવું માનવામાં દેષ શું છે તે તે બતા? ઉત્તર–જેનું મન અન્ય અર્થમાં ઉપયુક્ત થઈ રહેલ છે એની સામે હાથી પણ આવીને ખડે થઈ જાય તે પણ એ હાથી તેના જોવામાં નથી આવતો. એટલા માટે એક અર્થમાં-પદાર્થમાં જોડાયેલ મન કદી પણ એ જ સમયે અન્ય અર્થમાં-પદાર્થમાં ઉપયુક્ત થઈ શકતું નથી. આગમમાં જ્યારે અવગ્રહ વિગેરેના નિરૂપણાવસરમાં એક સમયમાં પણ ઉપગને બાહુલ્ય કહેવામાં આવેલ છે તે પછી આપ એમ કહે છે કે, એક સમયમાં અનેક ઉપયોગ નથી થતું? પ્રતિવાદીની આ શંકાનું સમાધાન સિદ્ધાંતિ આ પ્રકારે કરે છે–તમે જે એમ કહે કે, આગમમાં એક સમયમાં પણ અનેક ઉપયોગ હેવાનું સ્વીકારવામાં આવે છે તે તે એવી વાત નથી. તમે ત્યાં આગળ આગમવચનને અભિપ્રાય સમજ્યા નથી. ત્યાં આગળના ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #777 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययनसूत्रे अव्यवस्थापनमेवेत्यर्थः एकस्मिंस्तु वस्तुन्येककालमुपयोगानेकता क्यापि नास्ति, क्रमेणैवोपयोगानां भावादिति । ननु युगपदनेकार्थानां ग्रहणं भवताऽपि स्वीक्रियते, तर्हि शीतोष्णद्वये युगपद् गृह्यमाणे मम को दोषः स्यादितिचेत् उच्यते-हे वत्स! युगपदपि सामान्यरूपतया सेना-वन-ग्राम-नगरादिवदनेके ऽर्थाः गृह्यन्ते, इत्येतन निवारयामः, इह तु उपयोगद्वये विचारोऽयं प्रस्तुतः, स चोपयोग एकदा एक एव भवति, न त्वनेक इति ॥ अभिप्राय तो यही है कि-वस्तुगत अनेक पर्यायों का सामान्यरूप से ग्रहणमात्र होता है, अर्थात् ज्ञान में उपयोग की योग्यता मात्र स्थापित की जाती है, परन्तु एक वस्तु में एक समय में उपयोग की अनेकता तो कहीं भी नहीं कही गयी है, क्योंकि उपयोग क्रम से ही होता है। अतः एक समय में एक ही उपयोग होता है, दो नहीं, यह सिद्धान्त सिद्धमत है। ___गंगाचार्य शंका करते हैं कि-युगपत् अनेक अर्थों का ग्रहण करना तो आप भी मानते हैं फिर शीत उष्ण दोनों का एक साथ होने में हम को आप बाधक क्यों मानते हैं ?। धनगुप्त आचार्य उत्तर देते हैं, हे वत्स ! इसमें बाधक बनने की बात कौनसी है ? पदार्थों का ज्ञान सामान्य एवं विशेषरूप से होता है। जहां सामान्यरूप से ज्ञान होता है, वहां सेना वन ग्राम नगर आदि पदार्थों के ज्ञान की तरह अनेक अर्थ युगपत् भी ज्ञान द्वारा અભિપ્રાય તે આ પ્રમાણે છે કે-વસ્તુગત અનેક પર્યાનું સામાન્ય રૂપથી ગ્રહણ માત્ર થાય છે. અર્થાત-જ્ઞાનમાં ઉપગની યોગ્યતા માત્ર સ્થાપિત કરવામાં આવે છે. પરંતુ એક વસ્તુમાં એક સમયમાં ઉપગની અનેકતા તો કયાંય પણ કહેવામાં આવેલ નથી. કેમકે, ઉપગતે કમથી જ થાય છે. આથી એક સમયમાં એક જ ઉપગ થાય છે—બે નહીં. આજ સિદ્ધાંત સિદ્ધ મત છે. ગંગાચાર્ય શંકા કરે છે કે,-યુગપત અનેક અર્થોનું ગ્રહણ કરવું તે તે આપ પણ માને છે તે પછી શીત અને ઉષ્ણુ બન્નેનું એક સાથે જ્ઞાન થવામાં આપ શા માટે બાધક બને છે? ધનગુપ્ત આચાર્યો ઉત્તર આપતાં કહ્યું કે, હે વત્સ! આમાં બાધક થવાની વાત જ કયાં છે? પદાર્થોનું જ્ઞાન સામાન્ય અને વિશેષ રૂપથી જ થાય છે. જ્યાં સામાન્યરૂપથી જ્ઞાન થાય છે ત્યાં સેના, વન, ગામ, નગર વિગેરે પદાર્થોના જ્ઞાનની માફક અનેક અર્થ યુગ૫ત્ પણ જ્ઞાન દ્વારા ગ્રહણ કરાયા હોય છે. અહીં ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #778 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रियदर्शिनी टीका. अ०३ गा. ९ एकसामयिकक्रियाद्वये गुरुशिष्ययोः संवादः ७२३ युगपदनेकार्थग्रहणेऽभ्युपगम्यमाने कोऽयमेकानेकोपयोगभेदः ? अत्रोच्यतेयः सामान्योपयोगः स एकोपयोगः, स स्कन्धावारोपयोगवद्भवति यथा'स्कन्धावारोऽयम्' इत्येवं यः सामान्यमात्रग्राहक उपयोगः स एकोपयोग उच्यते। गृहीत होते हैं । यहां उपयोग भी सामान्यरूप से ही होता है. विशेषरूप से नहीं, अतः सामान्यरूप से अनेक अर्थ भी युगपत् ज्ञान के विषय होते हैं। इसका हम निवारण कब करते हैं। यहां तो दो उपयोग एक साथ हो सकते हैं या नहीं ? यह बात विचारकोटि में आरही है, अतः यहां इसकी पुष्टि की जा रही है कि एक काल में एक ही उपयोग होता है, दो नहीं। सामान्य पदार्थ का जब ग्रहण किया जाता है वहां उपयोग भी सामान्य ही होता है। उपयोग भी दर्शनोपयोग एवं ज्ञानोपयोग के भेद से दो प्रकार का होता है। सामान्यपदार्थ के ग्रहण करने में दर्शनोपयोग होता है, और विशेषपदार्थ के ग्रहण करते समय ज्ञानोपयोग होता है । दर्शन उपयोग का नाम एक उपयोग है और ज्ञानोपयोग का नाम अनेक उपयोग है। फिर गंगाचार्य शंका करते हैं-एक साथ अनेक पदार्थों का ग्रहण जब आप स्वयं स्वीकार कर रहे हो तो यह पता नहीं पड़ता कि ये एक अनेक उपयोग के भेद क्या है ? इनका तात्पर्य क्या है ? ઉપયોગ પણ સામાન્ય રૂપથી જ થાય છે-વિશેષરૂપથી નહીં. આથી સામાન્ય રૂપથી અનેક અર્થ પણ યુગપત્ જ્ઞાન વિષય બને છે, જેનું નિવારણ આપણે કયારે કરીએ છીએ? અહીં તે બે ઉપયોગ એક સાથે થઈ શકે છે કે નહીં? એ વાત વિચાર કેટીમાં આવી રહી છે. આથી અહીં એની પુષ્ટિ કરવામાં આવે છે કે, એક કાળમાં એક જ ઉપાય હોઈ શકે છે-બે નહીં. સામાન્ય પદાર્થ જ્યારે ગ્રહણ કરવામાં આવે છે ત્યાં ઉપયોગ પણ સામાન્ય જ હોય છે. ઉપગ પણ દર્શને પગ અને જ્ઞાનપયાગના ભેદથી બે પ્રકાર હોય છે. સામાન્ય પદાર્થ ગ્રહણ કરવામાં દર્શને પગ થાય છે. જ્યારે વિશેષ પદાર્થ ગ્રહણ કરતી વખતે જ્ઞાને પગ થાય છે. દર્શન ઉપગનું નામ એક ઉપયોગ છે. અને જ્ઞાનપગનું નામ અનેક ઉપયોગ છે. ફરી ગંગાચાર્યને શંકા થવા લાગી કે-એક સાથે અનેક પદાર્થોના ગ્રહ. ણને જ્યારે આપ પોતે જ સ્વીકાર કરે છે ત્યારે એ નથી સમજવામાં આવતું કે, એ એક અનેક ઉપયોગના ભેદ શું છે? એ કહેવાને હેત શું છે? ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #779 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२४ उत्तराध्ययन सूत्रे यस्तु प्रतिवस्तुविभागः - एते हस्तिनः, अमी अश्वाः, इमे रथाः, एते पदातयः, एते खकुन्तादयः, शिरस्त्राणकवचादयः, पटकुटिकाः, ध्वजाः, पताकाः ढक्का - शङ्खकाहलादयः, कर भरासभादयश्चेत्यादिको भेदाध्यवसायः सोऽनेकोपयोग उच्यते । 'मम वेदना वर्तते' इत्येवं सामान्यरूपतया युगपत् शीतोष्णरूपं ज्ञानद्वयं वर्तते, किन्तु - शीतोष्णवेदनाविशेषतया युगपदुपयोगद्वयं न भवति । पूर्वं सामान्यज्ञानसापेक्षं विशेषज्ञानं भवति । सामान्यस्या नेकविशेषाश्रयत्वात् । पूर्व वेदनासामान्यं गृहीत्वा धनगुप्त आचार्य उत्तर देते हैं-अच्छा वत्स ! सुनो-सामान्य उपयोग का नाम एक उपयोग है, इसका तात्पर्य यह है कि जैसेसेना वन आदि का जो ज्ञान होता है उसमें भिन्न २ पदार्थों का युगपत् ज्ञान नहीं होता है । एक साथ सामान्यतया सब का ज्ञान होता है । इसीका नाम सामान्य उपयोग एक उपयोग है। जहां प्रति वस्तु का अलग २ ज्ञान होता है जैसे ये हाथी हैं, ये घोडे हैं, ये रथ हैं, ये पदाति हैं, ये खङ्ग कुन्त आदि हथियार हैं, ये शिरस्त्राण हैं, ये कवच हैं, इत्यादि, इसका नाम अनेक उपयोग है । विशेष पदार्थों के ग्रहण में एक काल में एक ही उपयोग - ज्ञान उपयोग होता है । " मुझे वेदना हो रही है " यहां पर सामान्यरूप से एक साथ शीतोष्णरूप दो ज्ञान हैं किन्तु शीतउष्ण वेदना विशेषरूप से एक साथ दो उपयोग नहीं हैं । पहिले सामान्य ज्ञान होता है पश्चात् विशेषज्ञान होता है। विशेषज्ञान सामान्यज्ञानसापेक्ष ही होता है, ધનગુપ્તાચાર્ય ઉત્તર આપે છે કેઃ-હે વત્સ ! સાંભળે। સામાન્ય ઉપચેગનુ નામ એક ઉપયાગ છે. એ કહેવાનેા આશય એ છે કે, જેમ–સેના, વન, વિગેરેનું જે જ્ઞાન થાય છે તેમાં અલગ અલગ પદાર્થોનું યુગપત્ જ્ઞાન થતું નથી પણ એક સાથે સામાન્યતઃ સર્વ જ્ઞાન થાય છે. એનું નામ સામાન્ય ઉપયોગ એક ઉપયાગ છે. જ્યાં દરેક વસ્તુનુ અલગ અલગ જ્ઞાન થાય છે જેમકે આ હાથી છે, આ ઘેાડા છે, આ રથ છે, આ પદાતિ છે, આ ખડ્રગ કુંત આદિ હથીયાર છે, આ શિરસ્ત્રાણુ છે, આ કવચ છે, વિગેરે વિગેરે! આનું નામ અનેક ઉપયાગ છે. વિશેષ પદાર્થોના ગ્રહણમાં એક કાળમાં એક જ ઉપયાગ—જ્ઞાન-ઉપયેગ હોય છે. “ મને વેદના થઈ રહી છે ” અહી સામાન્ય રૂપથી એક સાથે શીતાણુ રૂપ એ જ્ઞાન છે. પરંતુ શીત-ઉષ્ણુ વેદના વિશેષરૂપથી એક સાથે એ ઉપયેગ નથી. પહેલાં સામાન્ય જ્ઞાન થાય છે અને પછીથી વિશેષજ્ઞાન થાય છે. ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર ઃ ૧ Page #780 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रियदर्शिनी टीका. अ० ३ गा. ९ अप्रतिबुद्धगङ्गाचार्यस्य बहिष्कारः ७२५ तत ईहां प्रविश्य 'शीतेयं पादयोर्वेदना' इति वेदनाविशेष निश्चिनोति । शिरस्यपि प्रथमं वेदनासामान्यं गृहीत्वा तत ईहां प्रविश्य 'उष्णेयमिह वेदना' इत्यध्यवस्यति। ततश्चैवं न क्वचिद् विशेषज्ञानानां युगपत् प्रवृत्तिसंभवः, सामान्यरूपतया तु समकालमपि विशेषाणां ग्रहणं भवेत् । यथा सेना, वनमित्यादि। विशेषाणां तु न युगपदुपयागः । तथा च-भिन्नकाले एवं शीतोष्णविशेषज्ञाने तस्माद् भ्रान्तिरेवेदं भवतो युगपत् शीतोष्णद्वयवेदनम् । क्यों कि सामान्य अनेक विशेषों का आश्रय होता है, इसलिये । जब यह बात है तो पहिले वेदनासामान्य का ग्रहण होगा-पश्चात् विशेष वेदना का । अतः पहिले वेदनासामान्य का ग्रहण करके उससे फिर ईहा में प्रविष्ट होकर " शीतेयं पादयोर्वेदना" मेरे पैरों में यह शीत. वेदना है, इस प्रकार से वेदनाविशेष का निश्चय किया जाता है। इसी प्रकार शिर में भी प्रथम वेदना सामान्य को ग्रहण कर पश्चात् ईहा में प्रविष्ट होकर "उष्णेयमिह शिरसिवेदना" मेरे शिर में यह उष्णवेदना हो रही है, इस प्रकार से उष्णवेदना का निश्चय किया जाता है। इस प्रकार कहीं पर भी एक साथ विशेषज्ञानों की युगपत् प्रवृत्ति नहीं हो सकती है। सामान्यरूप से भले ही एक साथ विशेषों का ग्रहण हो जाय इसमें कोई सिद्धान्तविरुद्ध जैसी बात नहीं है, जैसा कि सेना वन इत्यादि सामान्य बोध में होता है। विशेषों का ग्रहण युगपत नहीं हो सकता है, इसलिये ये शीतउष्ण विशेषज्ञान भिन्न વિશેષજ્ઞાન સામાન્યજ્ઞાન સાપેક્ષ જ હોય છે, કેમકે, સામાન્ય અનેક વિશે આશ્રય હેય છે આજ કારણને લીધે જ્યારે આજ વાત છે તે પહેલાં વેદના સામાન્યનું ગ્રહણ થાય છે, પછીથી વિશેષ વેદનાનું. આથી પહેલાં વેદના સામાन्यनु अडाण ४० येना पछी छडा प्रविष्ट छ “शीतेयं पादयोर्वेदना " मा। પગમાં આ શીત વેદના છે. આ પ્રમાણે વેદના વિશેષને નિશ્ચય કરવામાં આવે છે. આજ રીતે માથામાં પણ પ્રથમ વેદના સામાન્યને ગ્રહણ કરી પછીથી ઈહામાં प्रविष्ट थ" उष्णेयमिह शिरसि वेदना"-भा२। भस्तमा २ वेहना थ રહી છે. આ પ્રકારે ઉવેદનાને નિશ્ચય કરવામાં આવે છે. આ પ્રકારે ગમે ત્યાં પણ એક સાથે વિશેષજ્ઞાનેની યુગપત્ પ્રવૃતિ થઈ શકતી નથી. સામાન્ય રૂપથી ભલે એક સાથે વિશેનું ગ્રહણ થઈ જાય આમાં કંઈ સિદ્ધાંત વિરૂદ્ધ જેવી વાત નથી. જેમકે, સેના વન, વિગેરે સામાન્ય બેધમાં હોય છે. વિશે. પિનું ગ્રહણ યુગપત થઈ શકતું નથી. આથી આ શીત ઉષ્ણ વિશેષજ્ઞાન ભિન્ન ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #781 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२६ उत्तराध्ययनसूत्रे इत्यादियुक्तिशतैर्गुरुणा प्रज्ञापितोऽपि गंगाचार्यः स्वाग्रहं न त्यक्तवान् तदा गुरुणा कायोत्सर्गपूर्वकं बहिष्कृतोऽसौ ग्रामानुग्रामं विहरन् राजगृहनगरमागतः। तत्र वीरप्रभनामक उद्याने मणिनायकयक्षभवने उत्तीर्णः। तत्र लोकानां पुरतः ‘क्रियाद्वयस्य युगपदनुभवो भवति' इति स्वमतं प्ररूपयति । तदा मणिनायकयक्षः कोपमाविष्कुर्वन् मुद्रेण तं गङ्गाचार्य ताडयन् वदति-अरे ! अत्रैव समवसृतेन कालवर्ती हैं ऐसा मानना चाहिये । भ्रान्तिवश ही इनमें एक कालता प्रतीत होती है। इत्यादि सेंकडों युक्तियों से इस तरह प्रज्ञापित होने पर भी गंगाचार्य ने अपना दुराग्रह नहीं छोड़ा। धनगुप्ताचार्य ने जब गंगाचार्य को दुराग्रही बना देखा तो उन्हों ने उसको शीघ्र ही कायोत्सर्गपूर्वक गच्छ से बाहिर कर दिया। ___ बाहर होकर यह भी स्वेच्छापूर्वक इधर उधर विहार करने लगे। विहार करते २ एक समय ये राजगृह नगर में आये। वहां वीरप्रभ नामक उद्यान में जो मणिप्रभ नामके यक्ष का भवन था उसमें उतरे । "दो क्रियाओंका अनुभव एक ही साथ होता है। इस प्रकारकी मान्यता की प्ररूपणा लोगों के समक्ष वहां करने लगे। मणिप्रभनामक यक्षने इनकी इस असत्प्ररूणा से कुपित होकर उनको सचेत करने के लिये उनके ऊपर मुद्गर का प्रहार किया और कहने लगो-अरे तुम इस मत કાળવતી છે એવું માનવું જોઈએ. બ્રાતિવશજ તેમાં એક કાળપણું પ્રતીત થાય છે. આ પ્રકારે સેંકડો યુક્તિઓથી પ્રજ્ઞાપિત થવા છતાં પણ ગંગાચા પિતાને દુરાગ્રહ છેડો નહીં ધનગુપ્ત આચાર્યો જ્યારે ગંગાચાયને દુરાગ્રહી બનેલ જોયા તે તેઓએ તેને તરત જ કાયોત્સર્ગ પૂર્વક ગ૭ની બહાર મૂકી દીધા. ગઅછથી બહાર થવા છતાં પણ ગંગાચાર્ય સ્વેચ્છાપૂર્વક અહીં તહીં વિહાર કરવા લાગ્યા. વિહાર કરતાં કરતાં એક સમયે તેઓ રાજ્યગૃહ નગ. ૨માં પધાર્યા. ત્યાં વિરપ્રભ નામના ઉદ્યાનમાં મણિપ્રભ નામના એક યક્ષનું ભવન હતું તેમાં તેઓ ઉતર્યા. “બે ક્રિયાઓનો અનુભવ એક જ સાથે થાય છે આ પ્રકારની પિતાની માન્યતાની પ્રરૂપણ લોકોની સમક્ષ ત્યાં આગળ કરવા લાગ્યા. મણિપ્રભ નામના યક્ષે તેમની આ અસત્ પ્રરૂપણાથી ક્રોધાયમાન બની તેને ચેતવવા માટે તેના ઉપર મુગળને પ્રહાર કર્યો અને કહેવા લાગ્ય ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર: ૧ Page #782 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रियदर्शिनी टीका अ०३ गा.९ पञ्चमनिषस्यसमाप्तिः षष्ठस्यप्रारम्भः ७२७ भगवता श्रीमहावीरस्वामिना ‘क्रियाद्वयस्यानुभवो युगपन्नभवतीति समयस्य सूक्ष्मतया युगपदनुभवाभिमानो भ्रम एवेति देशितम् । किं तस्मादप्यधिकोऽसि ? यदेवं वदसि । तस्मात् परित्यजैनां कूटपरूपणाम्, अन्यथा त्वां मुद्रेण नाशयिप्यामि । इत्यादि तदुक्तभयवाक्ययुक्तिवचनैश्च प्रबुद्धोऽसौ मिथ्यादुष्कृतं दत्त्वा गुरुसमीपं गत्वा प्रतिक्रमणं कृतवान् ॥ इति पञ्चमगङ्गनिहवदृष्टान्तः ॥५॥ की प्ररूपणा व्यर्थ क्यों कर रहे हो । महावीर प्रभुने यहां बिराजकर इस बात की प्ररूपणा बहुत अच्छी स्पष्ट की है कि एक ही साथ क्रियाय का अनुभव किसी भी जीव को नहीं होता है, जो ऐसा कहते हैं वे भ्रम में हैं, भ्रम का कारण समय की अतिसूक्ष्मता है फिर तुम व्यर्थ में बकवाद क्यों करते फिर रहे हो ? क्या तुम ज्ञान में उनसे भी अधिक हो जो ऐसा समझ रहे हो और कहते फिर रहे हो । इसलिये भलाई तुम्हारी इसी में है कि तुम इस कूट-झूठ-प्ररूपणा को छोड़ दो, नहीं तो मैं तुम्हारा इसी मुद्गर से विनाश कर दूंगा। इस प्रकार यक्षकथित इन भयप्रद वचनों से तथा युक्तियुक्त वचनों से प्रतियुद्ध हो इन्होंने अपने दुराग्रह का परिहार करते हुए मिथ्यादुष्कृत देकर और गुरु के समीप पहुँच कर प्रतिक्रमण किया। ॥ यह पांचवें गंगनिहवका दृष्टान्त हुवा ॥५॥ અરે ! તમે આ મતની પ્રરૂપણું વ્યર્થ કેમ કરી રહ્યા છે? મહાવીર પ્રભુએ આંહીં બરાજીને આ વાતની પ્રરૂપણા ઘણી સારી રીતે સમજાવી છે કે, એક જ સાથે બે ક્રિયાને અનુભવ કઈ પણ જીવને થતો નથી, છતાં જે આવું કહે છે તે ભ્રમમાં પડેલા છે. ભ્રમનું કારણ સમયની અતિ સૂક્ષ્મતા છે. તે પછી તમે વ્યર્થમાં બકવાદ કેમ કરી રહ્યા છે? શું તમે જ્ઞાનમાં પ્રભુમહાવીરથી પણ અધિક છે કે તમે એવું સમજી બેઠા છે અને તેને કહેતા ફરે છે? આથી તમે આવી ક્રૂર, જુઠી પ્રરૂપણાને છેડી દે તેમાં જ તમારી ભલાઈ છે નહીં તે હું આ મુદ્દગળથી તમારે નાશ કરી નાખીશ. આ પ્રકારનાં એ યક્ષનાં ભયપ્રદ વચનથી તથા યુક્તિ યુક્ત વચનેથી પ્રતિબંધિત થયા અને તેમણે પિતાના દુરાગ્રહને પરિહાર કરતાં કરતાં મારું પાપ નિષ્ફળ થાઓ-મિચ્છામિ દુક્કડમ એ લઈને ગુરુની પાસે પહોંચીને પ્રતિક્રમણ કર્યું. છે આ પાંચમા ગંગનિદ્વવનું દષ્ટાંત પુરૂં થયું. પ. ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #783 -------------------------------------------------------------------------- ________________ OR उत्तराध्ययनसूत्रे अथ षष्ठनिवव रोहगुप्तदृष्टान्तः प्रोच्यते__ भगवतः श्रीमहावीरस्वामिनो निर्वाणसमयाच्चतुश्चत्वारिंशदधिकपच्चशत ५४४ वर्षेषु व्यतीतेषु अन्तरविकानगर्या बलश्रीनामनो नृप आसीत् । तत्रैकदा तस्यां नगर्यावहिर्भूतगृहनामकोद्याने परिवारसहितः श्रीगुप्ताचार्यः समागतः । तस्य शिष्या रोहगुप्तनामाऽन्यत्र ग्रामे स्थित आसीत् । स गुरुवन्दनार्थमन्तरञ्जिकायामागतः । तत्र नगर्यामेकः परिव्राजको विद्याबलगर्वसंयुतः समागतः । सच लोहपट्टिकाबद्धोदरः करे जम्बूशाखां दधानः सन् लोके विहरति । यदि लोकः पृच्छति-परिव्राजक ! किं प्रयोजनकमेतल्लोहपट्टिकया उदरे बन्धनम् ? किमर्थं च छठवें षडुलूक (रोहगुप्त) निह्नव की कथा इस प्रकार है भगवान महावीर स्वामी को मुक्ति गये ५४४ वर्ष पीछे अंतरंजिका नगरी में एक राजा हुआ, जिसका नाम बलश्री था। नगरी के बाहर एक भूतगृह नामका बगीचा था। उस में किसी समय शिष्यपरिवारसहित श्री गुप्ताचार्य महाराज पधारे । इनके एक शिष्य जिनका नाम रोहगुप्त मुनि था, वह उस समय किसी और दूसरे ग्राम में थे। जब इन्हों ने गुरुमहाराज का आगमन अंतरंजिका नगरी में सुना तो वे उनको वंदना करने के लिये वहां आये। उसी समय वहां एक परिव्राजक भी कि जिसको अपनी विद्या का विशेष अभिमान था आया। उसने अपने पेट को लौह की पट्टी से जकड़ रखाथा, तथा हाथ में जामुन के वृक्ष की एक डाली लिये हुए था। जब लोग उससे यह पूछते कि कहो महाराज! - છઠ્ઠા ષડૂલક (રેહગુપ્ત) નિદ્ભવની કથા આ પ્રકારની છે– ભગવાન મહાવીર સ્વામીના નિર્વાણ પામ્ય ૫૪૪ પાંચને ચુમાલીસ વર્ષ પછી અંતરંજીકા નગરીમાં એક રાજા થયા. જેનું નામ બલશ્રી હતું. નગરીની બહાર એક ભૂતગૃહ નામને બગીચો હતો. તેમાં કઈ એક સમયે શિષ્ય પરિ વાર સહિત શ્રી ગુણાચાર્ય મહારાજ પધાર્યા. તેમના શિષ્ય પૈકી એક શિષ્ય જેમનું નામ રેહગુપ્ત મુની હતું તેમાં તે સમયે કઈ એક બીજા ગામમાં હતા, જ્યારે તેમણે ગુરુમહારાજનું અંતરંજીકા નગરીમાં આગમન સાંભળ્યું તે તેઓ તેમને વંદના કરવા માટે ત્યાં આવ્યા. એ વખતે એક પરિવ્રાજક કે જેને પોતાની વિદ્યાનું વિશેષ અભિમાન હતું તે પણ આવ્યા હતા. તેમણે પિતાના પેટને એક લેઢાના પટાથી બાંધી રાખેલ હતું. તથા તેમના હાથમાં જાંબુના વૃક્ષની એક ડાળ હતી. જ્યારે કે તેને એ પૂછતા કે, કહે મહારાજ ! ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #784 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रियदर्शिनी टीका. अ० ३ गा०९ धादार्थगमने रोहगुप्तस्य विचारः ७२९ करे जम्बूशाखाधारणम् ? । तदाऽसौ प्रत्याह-मदीयमुदरं महाविद्यासंभारेण स्फुटितं भविष्यतीति मत्वा मया लौहपट्टकेन बद्धम् । जम्बूद्वीपे च मम प्रतिवादी कोपि नास्तीति सूचयितुं मया जम्बूशाखा हस्ते गृहीता। ततस्तेन परिव्राजकेन "नास्ति कश्चिन्मम प्रतिवादी” इत्युद्घोषणापूर्वकं पटहो वादितः। लोहपट्टबद्धपोट्टजम्बूक्षशाखायोगाच्च तस्य लोके “ पोशाल" इति नाम जातम् । ततो नगरी प्रविष्टो रोहगुप्तः पटहध्वनिपूर्विकामुद्घोषणां श्रुतवान् । आपने अपने पेट को किस कारण से लौह के इस पट्टे से बांध रखा है ? तथा यह जामुनवृक्ष की शाखा भी हाथ में क्यों ले रखी है। उस समय यह कहता कि मेरे इस पेट में अनेक विद्याएँ भरी पड़ी हैं अतः उनके भार से यह पेट फट न जाय इसलिये इसको इस लौह के पट्टे से बांध रखा है, तथा “ इस जंबूद्वीप में मेरा कोई भा प्रतिवादी नहीं रहा है" इस बात को सूचित करने के लिये यह जामुन के वृक्ष की डाली हाथ में ले रखी है । इसके बाद उस परिव्राजक ने उस नगर में पटहवादनपूर्वक ऐसी घोषणा की कि यहां पर भी मेरा कोई प्रतिवादी नहीं है। इस परिव्राजक का नाम पोदृशाल था। इसका कारण भी यही था कि लौह के पट्टे से इसका पेट बंधा रहता था, तथा जंबूवृक्ष की शाखा इसके हाथ में रहा करती थी, इसलिये लोगों में यह पोशाल इस नाम से विख्यात हुआ था। पोदृशालकी इस घोषणा को नगरी में प्रवेश करते समय रोहगुप्त ने सुनी।। આપે આપના પેટને લેઢાના પટાથી શા માટે બાંધી રાખ્યું છે ? તથા આ જાંબુના વૃક્ષની ડાળ હાથમાં શા માટે પકડી રાખો છે? ત્યારે તે કહેતા કે મારા આ પેટમાં અનેક વિદ્યાઓ ભરેલી છે. તેથી વિદ્યાના ભારથી આ પેટ ફાટી ન જાય એટલા ખાતર તેને આ લોઢાના પટાથી બાંધી રાખેલ છે. તથા “આ જમ્બુદ્વિપમાં મારે કઈ પ્રતિસ્પર્ધિ રહેલ નથી” આ વાતને સૂચિત કરવા માટે પ્રતિક તરીકે આ જાંબુના વૃક્ષની ડાળી મેં હાથમાં ધારણ કરેલી છે, આ પછી તે પરિવ્રાજકે તે નગરમાં મોટામોટા અવાજ કરી એવી ઘોષણા કરી કે, “આ સ્થળે પણ મારે કઈ પ્રતિસ્પર્ધિ નથી.” આ પરિવ્રાજકનું નામ પિટ્ટશાલ હતું. તેનું કારણ પણ એજ હતું કે લેઢાના પટાથી તેનું પેટ બાંધેલું રહેતું હતું, તથા જાંબુ વૃક્ષની શાખા તેના હાથમાં રહેતી હતી. આ ઉપરથી લેકમાં તે પિટ્ટશાલ એ નામથી જાણીતું હતું. પિઠ્ઠશાલની આ ઘાષણ નગરમાં પ્રવેશ કરતી વખતે રેહગુપ્ત સાંભળી. उ० ९२ ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #785 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७३० उत्तराध्ययनसूत्रे अथ रोहगुप्तो वदति-तेन परिव्राजकेन सह वादं करिष्यामीति । एवमुक्त्वा स गुरुं श्रीगुप्ताचार्यमपृष्ट्वाऽपि तामुद्घोषणां पटहबादनं च निवर्तयति । गुरुसमीपं चागत्यालोचयता तेन घोषणानिवारणरूपो वृत्तान्तः कथितः । आचार्येणोक्तम्त्वया युक्तं नाचरितम् , स हि परिव्राजको वादे त्वया पराजितोऽपि विधासु परमकौशलेन त्वामभिभविष्यति । एताः सप्त विद्यास्तस्य स्फुरन्ति। १ वृश्चिकविद्या, २ सर्पविद्या, ३ मूषकविद्या, ४ मृगविद्या, ५ वाराहीविद्या, ६ काकविद्या, ७ पोताकी (शकुनिका) विद्या, च। एताभिर्विद्याभिः स परिव्राजकस्तत्रोपद्रवं रोहगुप्तमुनि ने कहा कि मैं उस परिव्राजक के साथ वाद करूँगा। ऐसा कह कर उन्हों ने अपने गुरु श्री गुप्ताचार्य से विना पूछे ही उस घोषणा एवं पटह के बजने को रोक दिया। पश्चात् गुरु महाराज के पास आकर उन्होंने इस बात की आलोचना करते समय “मैंने आपसे विना पूछे ही परिव्राजक पोशाल की कृत घोषणा का निवारण कर दिया है" ऐसा कहा। ___आचार्य ने रोहगुप्त की बात सुनकर कहा-तुमने यह काम अच्छा नहीं किया । यद्यपि तुम उस परिव्राजक को वाद में पराजित कर दोगे तो भी वह विद्याओं में परम कुशल है इसलिये वह अपनी कुशलता से ही तुम्हारा पराभव कर देगा। उसके पास ये सात विद्याएँ हैं-वृश्चिकविद्या १, सर्पविद्या २, मूषकविद्या ३, मृगीविद्या ४, वाराहीविद्या ५,काकविद्या ६, और पोताकी (शकुनिका) विद्या ७, सो इन विद्याओं से वह परिव्राजक तुम्हारे ऊपर अनेक उपद्रव करेगा। गुरु महाराज की बात सुनकर રેહસ મુનિએ કહ્યું કે, “હું આ પરિવ્રાજકની સાથે વાદવિવાદ કરીશ. એ પ્રમાણે કહીને તેમણે પોતાના ગુરુને પૂછ્યા શિવાય એ ઘેષણ કરનાર તથા થાળી પીટનારને ભાવી દીધું. તે પછી ગુરુમહારાજની પાસે આવીને તેમણે એ વાતની આલોચના કરતાં કહ્યું કે, “મેં આપને પૂછ્યું વગર પરિવ્રાજક પટ્ટશાલની કરેલી ઘોષણાને બંધ કરાવી દીધી છે” આચાયે રેહશુતની આ પ્રમાણે વાત સાંભળીને કહ્યું કે, “તમે આ કાર્ય ઠીક ન કર્યું. કદાચ તમે એ પરિવ્રાજકને વાદવિવાદમાં પરાજીત કરી દેશે તે પણ તે (મંત્રી વિદ્યાઓમાં પરમ કુશળ છે, એટલે તે પોતાની કુશળતાથી જ તમને હરાવી દેશે. તેની પાસે સાત પ્રકારની વિદ્યાઓ છે. વૃશ્ચિકવિદ્યાન, સર્પવિ. ઘાર, મૂષકવિદ્યા૩, મૃગીવિદ્યા, વારાહીવિદ્યાપ, કાકવિદ્યા, અને શકુનિકાવિદ્યા૭, આ વિદ્યાઓના પ્રભાવથી તે પરિવ્રાજક તમારી ઉપર અનેક જાતના ત્રાસ વરતાવશે ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #786 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रियदर्शिनी टीका. अ०३ गा०९ रोहगुप्तस्य परिव्राजकेन सह वादः ७३१ करिष्यति । रोहगुप्तेनोक्तम् - यद्येवं तर्हि मम यथा वादे जयः स्यादुपद्रवश्च न कश्चिद् स्यात् तथा प्रसादः कार्यों भवद्भिः । ततो गुरुस्तस्मै मयूरी १, नकुली २, बिडाली ३, व्याघ्री ४, सिंही ५, उलूकी ६, उलावकप्रधाना च ७, एताः सप्तविद्याः परिव्राजकपराजयकारिणीस्त्वं गृहाण । इति गुरुणाऽभिहिते रोहगुप्तेन ताः सर्वा विद्या गृहीताः । तदनन्तरं रजोहरणं चाभिमन्त्र्य तस्मै दत्त्वा गुरुः प्राह – यदि अन्यदपि किंचित् तत्प्रणीतक्षुद्र विद्या कृतमुपसर्गजातमुपतिष्ठते तदा तन्निवारणार्थमेतन्मस्तकोपरि भ्रामणीयम् । ततः सुरेन्द्रस्याप्यजेयो भविष्यसि किमुत मनुष्य मात्रस्य तस्य । रोहगुप्त ने कहा- गुरु महाराज ! आप ऐसा आशीर्वाद देवें कि जिससे बाद में मेरा विजय हो जाय और उस के द्वारा मेरे ऊपर कोई उपद्रव भी न हो सके । गुरुमहाराज ने उसकी बात सुनकर उनको मयूरी १, नकुली २, बिडाली ३, व्याघ्री ४, सिंही ५, उलूकी ६, एवं उलावकप्रधाना ७, ये सात विद्याएँ उनको दीं, और यह कहा कि ये विद्याएँ परिव्राजक को पराजित करेगी। रोहगुप्त ने ये सब विद्याएँ ग्रहण कर लीं । पश्चात् रजोहरण को अभिमंत्रित कर देते हुए गुरुमहाराज ने कहा कि यदि कदाचित् कोई क्षुत्रविद्याकृत उपसर्ग तुम्हारे ऊपर वह करे तो तुम उस समय उसकी निवृत्ति के लिये इस रजोहरण को अपने मस्तक पर फेर लेना । उस समय यदि इन्द्र भी परास्त करना चाहेगा तो वह भी तुम्हें परास्त नहीं कर सकेगा, मनुष्य की तो बात ही क्या है । ગુરુમહારાજની વાત સાંભળીને રહગુપ્તે કહ્યુ' – ગુરુમહારાજ ! આપ એવા આશીર્વાદ આપેા કે, જેનાથી વાવિવાદમાં મારા નિશ્ચય વિજય થાય. અને તેને કારણે મારા ઉપર ઉપદ્રવના કોઇ ભય ઉભા ન થાય. ગુરુમહારાજે तेनी वात सांलणीने तेने भयूरी१, नडुसीर, मिसाडीनीउ, व्याधी४, सिड्डीय, धुव. ડની, અને ખાજની૭, એમ સાત પ્રકારની વિદ્યાએ તેને શીખવી. અને કહ્યુ` કે, આ વિદ્યાએ જ પરિવ્રાજકને પરાજીત કરશે. શહગુપ્તે એ સઘળી વિદ્યાએ ગ્રહણુ કરી લીધી. પછી રજોહરણને મંત્રીત કરી આપતાં ગુરુ મહારાજે કહ્યું કે, જો કદાચ કાઈ ક્ષુદ્ર વિદ્યાના ઉપસર્ગ તમારા ઉપર તે કરે તેા તમે તે વખતે તેના નિવારણ માટે આ રજોહરણને તમારા મસ્તક ઉપર ફેરવો. એવે સમયે જો ખુદ ઈંદ્ર પણ તમાને પરાસ્ત કરવા ચાહે તે પણ તમાને પરાસ્ત કરી શકશે નહીં, ત્યાં મનુષ્ય માત્રની તા વાત જ કયાં ? ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર ઃ ૧ Page #787 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययन सूत्रे अथ रोहगुप्त गुरुं वन्दित्वा राजसभां गतः । तत्रासौ वदति - वराकोऽयं परिव्राजकः किं जानाति, करोवयमेव यदृच्छया पूर्वपक्षम्, तमहं निराकरोमि । ततः परिव्राजकेन चिन्तितम् - अयमस्ति पूर्णविद्यावान् केनापि प्रकारेण मया जेतुमशक्यः, अतोऽस्यैव संमत पक्षं परिगृह्य वादं करोमि येनायं निराकर्तुं न शक्नुयात् । इत्येवं विचिन्त्य परिवाजको वदवि - इह जीवा अजीवाथ द्वावेव राशी, तथैवोपलभ्यमानत्वात्, शुभाशुभवत् इत्यादि । " ततो रोहगुप्तस्तद्बुद्धि पराभवितुमिमं स्वसिद्धान्तपक्षमपि निराकुर्वन् प्रत्याहअसिद्धोऽयं हेतुः, अन्यथोपलम्भात्, जीवा, अजीवा, नोजीवाश्चेति राशित्रयदर्शनात् । ७३२ , गुप्त गुरु को वंदना कर राजसभा में पहुंचा । पहुंचते ही वहां उसने कहा- बिचारा यह परिव्राजक क्या जानता है ? इसलिये जो भी इसकी इच्छा हो उसके अनुसार यह पूर्वपक्ष खुशी से करे, मैं उसका उत्तरपक्षरूप में निराकरण करूँगा । रोहगुप्त की बात सुनकर परिव्राजक ने विचार किया हां मालूम पड़ता है कि यह पूर्ण विद्यासंपन्न है, इसे जीतना मेरी शक्ति से बाहर की बात है, अतः इसके द्वारा संमतपक्ष ही ग्रहण कर इसके साथ बाद करना उचित होगा, ता कि यह उसे निराकृत नहीं कर सकेगा। इस प्रकार विचार कर परिव्राजक ने कहा- जीव एवं अजीव ये दो ही राशि हैं क्यों कि इसी तरह इनकी उपलब्धि होती है, जैसे शुभ और अशुभ | परिव्राजक के इस पक्ष को सुनकर रोहगुप्त ने उसे पराभवित करने के लिये इस स्वसिद्धान्त पक्ष का भी निराकरण करते हुए कहा कि नहीं तुम्हारा यह हेतु असिद्ध है, कारण कि दो राशि से भी રાહુગુપ્ત ગુરુને વંદના નમસ્કાર કરી રાજસભામાં પહેાંચ્યા. ત્યાં પાંચતાં જ તેમણે કહ્યું કે, આ બિચારા પરિવ્રાજક શુ જાણે છે ? આ માટે તે પહેલ કરે અને તેની જે ઈચ્છા થાય તે મુજબ તે ખુશીથી કરે. હું તેનું સામા પક્ષ ( પ્રતિષિ) તરીકે નિવારણ કરીશ. રાહગુપ્તની આ વાત સાંભળીને પરિવ્રાજક વિચારમાં પડયા કે હાં માલુમ પડે છે કે, જરૂર આ કોઈ પૂણ' વિદ્યા સ ́પન્ન છે.—તેને જીતવા એ મારી શક્તિની બહારની વાત છે. તા એની મારફત સંમત પક્ષ જ ગ્રહણ કરી તેની સાથે વાદ કરવા જ ચાગ્ય છે. જેથી એ તેને નિરાકૃત નહીં કરી શકે. આ પ્રમાણે વિચાર કરીને પરિત્રાજકે કહ્યું કે જીવ અને અજીવ એ એજ રાશી છે. કેમકે, આ રીતનીજ તેની ઉપલબ્ધિ હાય છે, જેવાકે શુભ અને અશુભ. પરિવ્રાજકના આ કથનને સાંભળીને શહાણુપ્તે તેને હરાવવા માટે આ સ્વસિદ્ધાંત પક્ષનું પણ નિરાકરણ કરતાં કહ્યું કે, ના, તમારા આ હેતુ અસિદ્ધ છે. કારણ કે, એ રાશીથી ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર ઃ ૧ Page #788 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रियदर्शिनी टीका अ०३गा०१ त्रिराशिस्थापनेन परिव्राजकपराजयः ७३३ तत्र जीवा नारकतिर्यगादयः, अजीवास्तु परमाणुघटादयः, नोजीवास्तु गृहगोधिकादीनां छिन्नपुच्छादयः। ततो जीवाऽजीवनोजीवरूपास्त्रयो राशयः, तथैवोपलभ्यमानत्वात् , उत्तममध्यमाधमवत् , इत्यादियुक्तिभिः प्रश्नं निराकृत्य परिव्राजकः पराजितो रोहगुप्तेन । ___ततोऽसौ वृश्चिकविद्यग रोहगुप्तविनाशार्थ वृश्चिकान् मुश्चति, तदा रोहगुप्तस्तत्प्रतिपक्षभूतमयूरीविद्यया मयूरान् मुश्चति । तैश्च वृश्चिकेषु निवारितेषु परिव्राजकः सन् मुञ्चति । तदा तनिवारणार्थं रोहगुप्तो नकुलान् विसृजति । एवं मूषिकाणां निवाअधिक की उपलब्धि होती है-१ जीव, २ अजीव एवं, ३ नोजीव, इस प्रकार तीन राशियों की उपलब्धि होने से इस हेतु में असिद्धता का समर्थन हो जाता है। नारक तीर्यच आदि जीव, परमाणु घट आदि अजीव, गृहगोधिका-विषमरा-छिपकली-आदि की कटी हुई पूंछ आदि नोजीव हैं। उत्तम, मध्यम एवं अधम की तरह ये तीन राशि हैं। इस प्रकार युक्तियों से अपने पक्ष का स्थापन करके रोहगुप्त ने परिव्राजक के पश्न का निराकरण कर उसे पराजित कर दिया। जब परिव्राजक पराजित हो चुका तो उसने रोहगुप्त को नष्ट करने के लिये वृश्चिकविद्या के प्रभाव से उसके ऊपर विच्छुओं को छोड़ा। रोहहगुप्त ने उनकी प्रतिपक्षभूत मयूरी विद्या के प्रभाव से मयूरों को छोड़ा। मयूरों द्वारा वृश्चिकोंका निवारण हो चुका तब परिव्राजक ने उस पर सो को छोड़ा। रोहगुप्त ने उनके निवारण करने के लिये नकुलों को छोड़ा। इसी तरह मूषिकों को પણ અધિકની ઉપલબ્ધિ હોય છે, ૧ જીવ, ૨ અજીવ અને ૩ ને જીવ. આ પ્રકારે ત્રણ રાશીઓની ઉપલબ્ધિ હોવાથી તમારા આ હેતુમાં અસિદ્ધતાનું સમર્થન થઈ જાય છે. નારકીય, તીચ વિગેરે જીવ, પરમાણુ, ઘટ, આદિ અજીવ, ગૃહોધિકા, વિષમરાહેઢગળી વિગેરેની કપાએલી પુંછડી વગેરે જીવ છે. ઉત્તમ, મધ્યમ અને અધમની માફક આ ત્રણ રાશીઓ છે. આ પ્રકારે યુક્તિપૂર્વક પોતાના પક્ષને મજબૂત કરી હગુપ્ત પરિવ્રાજકના પ્રશ્નનું નિરાકરણ કરી તેને પરાજીત કરી દીધે. પરિવ્રાજક જ્યારે હારી ગયે ત્યારે તેણે રેહગુપ્તને નાશ કરવા માટે વૃશ્ચિક વિદ્યાના પ્રભાવથી તેની ઉપર વિંછીઓ છેડ્યા. રોહગુપ્ત તેની સામે નિવારણ માટે મયૂરીવિદ્યાના પ્રભાવથી મોર છોડયા. મયુરોએ ભેગા થઈ વિંછી ખલાસ કર્યા ત્યારે પરિવ્રાજકે તેના ઉપર સને છોડયા. હગુપ્ત તેના નિવારણ માટે નેળીયાઓને છોડ્યા. આજ ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #789 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७३४ उत्तराध्ययनसूत्रे रणार्थ मार्जारान्, मृगाणां निवारणार्थ व्याघ्रान्, शूकराणां निवारणार्थ सिंहान् , काकानिवारणार्थ उलूकान्, पोताकीनां निवारणार्थ उलावकान् (श्येनान्) मुञ्चति। ततो गर्दभी मुक्ता । तां चागच्छन्तीं दृष्ट्वा रोहगुप्तेन रजोहरणं मस्तकोपरि भ्रामयित्वा तेनैव रजोहरणेन निवारिता सती सा गर्दभी परिव्राजकस्योपरि मूत्रपुरीपोत्सर्ग कृत्वा तिरोहिता जाता । ततः सभापतिना सभ्यैः समस्तलोकेन च निन्धमानोऽसौ परिव्राजको नगरानिःसारितः। ततोऽसौ षडुलूकापरनामको रोहगुप्तः पोशालं परिव्राजकं जित्वा गुरोः समीपमागत्य तं वन्दित्वा प्राइ–भदन्त ! परिगृहीतराशिद्वयपक्षः स परिव्राजको भगाने के लिये मार्जारों को, मृगों को भगाने के लिये व्याघ्रों को, शूकरो को भगाने के लिये सिंहों को, काकों को भगाने के लिये उल्लूओं को और पक्षियों को भगाने के लिये बाजोंको छोड़ा। पश्चात् गर्दभी को छोड़ा। गर्दभी को आती हुई देखकर रोहगुप्त ने मस्तक के ऊपर रजोहरण को फेरकर और उसी रजोहरण से उसे भगा दिया। गर्दभी पीछे लौट गई, और परिव्राजक्र के ऊपर ही मलमूत्र करके तिरोहित हो गई। सभापति, सभ्य तथा समस्त लोकोंने परिव्राजक की निंदा की और इसको नगर से बाहिर कर दिया। ____ इस के बाद षडुलूक कि जिसका दूसरा नाम रोहगुप्त है पोशाल परिव्राजक को पराजित कर अपने गुरु के पास आये। उनको वंदना की। फिर बोले-भदन्त ! परिव्राजक ने जीव अजीव इस प्रकार दो रशियों का પ્રમાણે ઉંદરને નાશ કરવા માટે, બીલાડીઓને, મૃગલાંને નાશ કરવા માટે વાઘને, સુવર (મુંડ) ને નાશ કરવા માટે સિંહને, કાગડાઓને નાશ કરવા માટે ઘુવડોને અને ચકલાંને નાશ કરવા માટે બાજને છોડયા. છેલે પરિવ્રાજકે ગધેડી છેડી. ગધેડીને આવતી જોઈ રહગુપ્ત માથા ઉપર રજોહરણને ફેરવ્યો. અને તેનાથી તેને મારી મારીને ભગાડી દીધી. ગધેડી પાછી ફરી. અને પરિવ્રાજકની ઉપર મળમુત્ર કરીને અદ્રશ્ય થઈ ગઈ. સભાપતિ હાજર રહેલા સભ્યોએ તથા સમસ્ત લોકોએ પરિવ્રાજકની નિંદા કરી અને તેને નગરની બહાર કાઢી મુકયે. આ પછી પડુક કે જેનું બીજું નામ રોહગુપ્ત છે તે પિટ્ટશાલ પરિ. વ્રાજકને પરાજીત કરી પિતાના ગુરુની પાસે પહોંચ્યા. ગુરુને વંદના નમસ્કાર કરી પછી કહ્યું કે, હે ભદન્ત ! પરિવાજને જીવ અજીવ આ બે રાશીઓને ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #790 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रियदर्शिनी टीका अ.३ गा०९ राशियनिषेधार्थ गुरोरुपदेशः नृपसभामध्ये वादे मया पराजितः। मया तृतीयं नोजीवराशि स्वीकृत्य, तत्र छिन्नं गृहगोधिकादीनां पुच्छमेव दृष्टान्ततया प्रदर्शितम् । एवं रोहगुप्तेनोक्ते सति गुरुः पाह-वत्स ! सुष्टु कृतं त्वया, यदासौ परिव्राजकः पराजितः, कि तु तत्रोत्तिष्ठता वया एतन्त्रोक्तम्-तृतीयो नोजीवराशिरित्ययं नास्त्यस्माकं सिद्धान्तः । जीवाजीवलक्षणराशिद्वयस्यैवास्मसिद्धान्तेऽभिहितत्वात् । तस्मात् तत्र परिषन्मध्ये गत्वा कथय नायमस्माकं सिद्धान्तः, किं तु तस्य परिव्राजकस्याभिमानभङ्गार्थ मया तबुद्धिं परिभूय स उपशमं नीत इति । एवं गुरुणा बहुशः कथितोऽसौ रोहगुप्तः प्राहपक्ष उपस्थित किया, मैने उसे राजसभा के बीच में जीव अजीव एवं नोजीव इस प्रकार तीन राशि का पक्ष स्थापित कर पराजित कर दिया है। नोजीव में मैंने गोधिका की छिन्नपुंछ को दृष्टान्त कोटि में रखा है। जब रोहगुप्त ने गुरु महाराज को अपने विजय की इस प्रकार बात कह कर सुनाई तो गुरुमहाराज ने कहा-वत्स ! तुमने यह काम तो अच्छा किया जो परिव्राजक को परास्त कर दिया, परन्तु जब तुम वहां से उठे तब ऐसा क्यों नहीं कहा कि “नोजीवराशि" का हमारा सिद्धान्त नहीं है। जीव अजीव, ये दो राशि ही हमारे सिद्धान्त में अभिहित हैं। इसलिये अब तुम सभा में जाकर ऐसा कहो कि यह हमारा सिद्धान्त नहीं है किन्तु उस परिव्राजक के मान को भंग करने के अभिप्राय से उसकी बुद्धि को तिरस्कृत करने के निमित्त मैंने ऐसा किया है, कि जिससे वह शांत हो जाय । इस प्रकार गुरु महाराज ने उसको बहुत २ समझाया પક્ષ ઉપસ્થિત કર્યો-મેં તેને રાજસભાની વચમાં જીવ, અજીવ અને જીવ આ પ્રકારની ત્રણ રાશીને મુદ્દો સ્થાપી પરાજીત કરી દીધું છે. જીવમાં ગળીની કપાયેલી પુંછડીને દષ્ટાંત રૂપે બતાવી છે. જ્યારે રેહગુપ્ત ગુરુમહારાજને પોતાના વિજયની આ પ્રકારની વાત કહી સંભળાવી ત્યારે ગુરુ મહારાજે કહ્યું કે, હે વત્સ! તમે એ કામ તે સારું કર્યું કે, પરિવ્રાજકને હરાવ્યો. પરંતુ તમે જ્યારે ત્યાંથી જીતીને ઉઠયા ત્યારે એવું કેમ ન કહ્યું કે જીવ રાશી” અમારા સિદ્ધાંતમાં નથી. ફક્ત જીવ અને અજીવ આ બેજ રાશી અમારા સિદ્ધાતમાં બતાવેલી છે. માટે તમે સભામાં જઈને ફરીથી એમ કહે કે, આ અમારા સિદ્ધાંતમાં નથી. પરંતુ એ પરિવ્રાજકના માનનું ખંડન કરવાના આશયથી તેમજ તેના ડહાપણને તોડી પાડવાના આશયથી જ મેં આમ કહેલ છે કે, જેથી તે ઠંડું થઈ જાય. આ પ્રકારે કરવા ગુરુમહારાજે તેને ઘણું ઘણું સમજાવ્યું છતાં પણ તેમ કરવા તેઓ તૈયાર ન થયા. અને ગુરુ ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #791 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७३६ उत्तराध्ययनसूत्रे भदन्त ! कथमयं विरुद्धसिद्धान्तः १, यदि नोजीवलक्षणतृतीयराशिस्वीकारे कोऽपि दोषः स्यात् तदाऽयं विरुद्धसिद्धान्तः स्यात् , न चैतदस्ति, तर्हि कथमपि विरुद्धसिद्धान्तवादित्वमारोप्य दोषपरिहारार्थ पुनी तत्र भवान् प्रेषयति । गुरुः प्राहअसतः प्ररूपणे जिनानामाशातना भवति, तस्मादेवं न वाच्यम् , एवं गुरुणा वार्यमाणोऽपि स्वाग्रहं न त्यक्तवान् , गुरुणा सह वादं कर्तुं प्रवृत्तः । तदनन्तरं श्रीगुप्ताचार्यों बलश्रीनृपस्य पर्षदि गत्वा पाह-अनेन मम शिष्येण परिव्राजकस्य पुरतो यदुक्तं तन्न समीचीनम् , यतः द्वावेव राशी विद्यते-जीवा तो भी वह नहीं माना, और गुरु महाराज से कहने लगा-भदन्त ! यह सिद्धान्त विरुद्ध कैसे है ? यदिनोजीवरूप तृतीय राशि स्वीकार करने में कोई दोष आता होवे तब तो यह सिद्धान्त से विरुद्ध माना जा सकता है, परन्तु ऐसा तो है नहीं तो फिर आप मुझपर सिद्धान्तविरुद्धवादित्व का आरोप कर क्यों मुझे वहां भेजना चाहते हैं। गुरु महाराजने रोहगुप्त की बात सुनकर कहा-देखो असत् की प्ररूपणा करने में जिन भगवान् की आशातना होती है, इसलिये ऐसा नहीं कहना चाहिये। इस प्रकार गुरु महाराज के द्वारा वारित होने पर भी रोहगुप्त ने अपने आग्रह का परित्याग तो नहीं किया प्रत्युत गुरुमहाराज के साथ भी वाद करने के लिये प्रवृत्त हो गया। इसके बाद स्वयं श्री गुप्ताचार्य बलश्री राजा की राजसभा में गये और जाकर कहने लगे कि इस मेरे शिष्य ने परिव्राजक के आगे जो कहा है कि एक तीसरी भी नोजीवराशि है वह उसने ठीक नहीं कहा है, क्यों कि મહારાજને ઉપરથી કહેવા લાગ્યા કે, ભદન્ત ! મારૂં આ કથન સિદ્ધાંત વિરૂદ્ધ કઈ રીતે છે? જો જીવ લક્ષણની ત્રીજી રાશીને સ્વીકાર કરવામાં કઈ દોષ આવતું હોય તે તે એ સિદ્ધાંતથી વિરૂદ્ધનું માની શકાય. પરંતુ એવું તે છે નહીં. તે પછી આપ મારા પર સિદ્ધાંત વિરૂદ્ધ વાત કરવાને આરેપ મુકી અને ત્યાં મોકલવા શા માટે દબાણ કરે છે? ગુરૂ મહારાજે રેહગુપ્તની વાત સાંભળીને કહ્યું. “જુઓ! અસત્યની પ્રરૂપણ કરવામાં જીન ભગવાનની આશાતના થાય છે માટે એમ ન કરવું જોઈએ.” આ પ્રકારે ગુરુ મહારાજના વારંવાર કહેવા છતાં પણ હગુપ્ત પિતાના હઠાગ્રહને છેડે નહીં અને ગુરુની સાથે વાદ કરવા પણ તત્પર થઈ ગયા. એ પછી શ્રી ગુપ્તાચાર્ય જાતે બલશ્રી રાજાની રાજસભામાં ગયા અને ત્યાં જઈને એને કહેવા લાગ્યા કે, મારા શિષ્ય હગુપ્ત પરિવ્રાજકની સામે એવું કહ્યું છે કે, એક ત્રીજી પણ જીવ રાશી છે. તે તે તેણે સાચું કહ્યું નથી. ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #792 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रियदर्शिनी टीका. अ० ३ गा० ९ गुप्ताचार्यरोह गुप्तयोर्वादः ७३७ " अजीवाचेति जिनैः कथितम् अनेन तु परिव्राजकं विजेतुं राशिश्रयं प्ररूपितम् । अद्याप्ययं सत्यमर्थ न जानाति, मया प्रतिबोध्यमानोऽयं विवादायोपतिष्ठते । भो राजन् ! तस्मादावयोर्वादमाकर्णय, भवादृशैर्विना सदसद्विवेको न स्यात् । ततो बलश्रीनृपतिनाऽभ्यनुज्ञातः श्रीगुप्ताचार्यस्तत्र रोहगुप्तमाह - ब्रूहि स्वमतम् । तदा रोहगुप्तो वदति - यथा जीवादजीवो भिन्नः, तथा नोजीवोऽपि जीवाजीवाभ्यां भिन्नः, तस्माद् ' जीवाजीवनोजीवरूपं राशित्रयमस्ति ' इति मम मतम् । यतो जीव अजीव इस प्रकार से दो ही राशि हैं, ऐसा ही जिनेन्द्र भगवान ने कहा है । परिव्राजक को जीतने के लिये ही सिर्फ शिष्य ने ऐसी प्ररूपणा की है कि राशित्रय है । इसे मैंने बहुत कुछ समझाया है परन्तु वह नहीं मानता है । मुझ से भी वादविवाद करने के लिये तैयार हो जाता है। इसलिये हे राजन् ! आप हम दोनों के बीच में मध्यस्थ बन जायें और वाद को सुनें। आप जैसों के विना सत् असत् का विवेक नहीं हो सकता है। श्री गुप्ताचार्य की बात बलश्री राजा ने स्वीकार कर ली और मध्यस्थ बनकर गुरुशिष्य के वाद को सुनने लगे। श्री गुप्ताचार्य ने रोहगुप्त से कहा- कहो तुम्हारा क्या मत है। रोहगुप्त ने कहा- जिस प्रकार जीव से भिन्न अजीव है, उसी तरह नोजीव भी जीव और अजीव इन दोनों से भिन्न है इसलिये जीव, अजीव नोजीव ये तीन राशियां हैं। ऐसा मेरा मत है। नोजीव में नो કેમકે, જીવ અને અજીવ એ પ્રકારની એ જ રાશી, છે એવુ ખુદ જીનેન્દ્રભગવાને ભાખ્યું છે, ફ્કત પિત્રાજકને જીતવા માટે જ મારા શિષ્ય એવી પ્રરૂપણા કરી છે કે રાશી ત્રણ છે. તેને મે' ઘણેા જ સમજાજ્ગ્યા પરંતુ તે માનતા નથી. મારી સાથે પણ વાદવિવાદ કરવા માટે તૈયાર થઈ જાય છે. આટલા માટે હું રાજન્! આપ અમારા બન્નેની વચમાં લવાદ અને અને અમારા વાવિવાદને સાંભળેા. આપ જેવા મધ્યસ્થ વગર સત્ય અને અસત્યના ભેદભાવ કેાઈ પારખી શકશે નહીં. શ્રી ગુપ્તાચાર્યની આ માગણી ખલશ્રી શજાએ સ્વીકારી લીધી, અને મધ્યસ્થી બનીને ગુરુ અને શિષ્યના વાદવિવાદને સાંભળવા લાગ્યા. શ્રી ગુપ્તાચાર્યે રાહગુપ્તને પૂછ્યું', ‘કહા તમારા શે। મત છે ?” રાહગુપ્તે કહ્યું-જે પ્રમાણે જીવથી અજીવ ભિન્ન છે, એજ રીતે નાજીવ’ પણ જીવ અને અજીવ આ મન્નેથી ભિન્ન છે. આથી કરીને જીવ, અજીવ અને નેાજીવ એમ ત્રણ રાશી છે, એવા મારા મત છે, ‘નાજીવ' શબ્દમાં ને? એ उ० ९३ ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર ઃ ૧ Page #793 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययनसूत्रे नोजीव इत्यत्र शब्दो देशनिषेधपरः न तु सर्वनिषेधपरः, नोजीवो जी वैकदेशः न तु सर्वस्यापि जीवस्याभावः । छिन्नं गृहगोधिकादिपुच्छं, पुरुषादीनां छिन्ना हस्तादयश्च जीवद्रव्यैकदेशरूपाः सन्ति। छिन्नं गृहगोधिकादिपुच्छं जीवाऽजीवेभ्यो मिन्नं, तथाहि-तज्जीवत्वेन व्यपदेष्टुं न शक्यते, तत्कायस्यैकदेशत्वेन तद्भिन्नस्वात् , अजीव इत्यपि वक्तुं न शक्यते स्फुरणादिभिस्तस्मादपि विलक्षणत्वात् । यस्मादेवम् , अतः पारिशेष्यानोजीव इत्युच्यते । यह शब्द देशनिषेधपरक है, सर्वनिषेधपरक नहीं। नोजीव शब्द का अर्थ इस विवक्षा से “ जीव का एक देश" ऐसा होता है। समस्त जीव का अभाव नोजीव का अर्थ नहीं होता है। छिपकली आदि की छिन्न पुच्छ, पुरुष आदि के कटे हुए हस्त आदि, ये सब नोजीव हैं, क्यों कि इनमें जीव का एक देश है। छिपकली की छिन्न-पूंछ जीव और अजीव से भिन्न है इसका कारण यह है कि यह समस्त जीवरूप से व्यपदेशित नहीं हो सकती है, क्यों कि वह उसके शरीर का एकदेश है, इसलिये वह उससे भिन्न है। अजीव भी उसे इसलिये नहीं कह सकते हैं कि उसमें स्फुरण आदि क्रियाएँ होती दिखती हैं, इसलिये वह उससे भी भिन्न है। जब यह बात है कि वह पूर्ण जीव नहीं और अजीव भी नहीं तो इन दोनों से अवशिष्ट होने के कारण वह नोजीव है, ऐसा कहा जाता है। શબ્દ દેશનિષેધપરક છે. સર્વનિષેધપરક નથી. જીવ શબ્દનો અર્થ આ અભિપ્રાયે “જીવને એક દેશ” એ પ્રમાણે થાય છે. જીવને અર્થ સમસ્ત જીવનો અભાવ એમ થતું નથી. ગરોળી વિગેરેની તુટેલી પૂછડી મનુષ્ય આદિના કપાયેલા હાથ, એ સઘળા નેજીવ છે. કારણ કે તેમાં જીવને એક દેશ છે. ગોળીની કપાયેલી પૂંછડી એ જીવ અને અજીવથી ભિન્ન છે. તેનું કારણ એ છે કે તે સમસ્ત જીવરૂપે કહી શકાતી નથી. કારણ કે તે એના શરીરને એક ભાગ છે, આથી તે એનાથી ભિન્ન છે. અજીવ પણ તેને એટલા ખાતર કહી ન શકાય કારણ કે, તેમાં સ્કુરણ (તરફડાટ) વિગેરે ક્રિયાઓ થતી દેખાય છે. માટે જ તે તેનાથી (અજીવથી) પણ ભિન્ન છે. હવે જ્યારે વાત આમ છે કે તે પૂર્ણ જીવ પણ નથી અને અજીવ પણ નથી તે એ બનેથી ભિન્ન હોવાને કારણે તે જીવ છે એવું કહી શકાય છે. ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #794 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रियदर्शिनी टीका अ. ३ गा० ९ गुप्ताचार्यरोहगुप्तयोर्वादः ७३९ किञ्च-धर्मास्तिकायादिदेशिनोऽपृथग्भूतोऽपि देशः सिद्धान्ते पृथय वस्तुत्वेन कथितः, किं पुनर्यच्छिन्नं जीवात् पृथक् कृतं गृहगोधिकादिपुच्छं पृथगू वस्तु न भविष्यति, अपि तु भविष्यत्येव । वच्च छिन्नत्वेन पृथग्भूतत्वात् , स्फुरणादिना च अजीवविलक्षणत्वात् , सामर्थ्यान्नोजीव इत्युच्यते। अजीवमरूपणां कुर्वता भगवता धर्मास्तिकायादीनाममूर्ताजीवानां दशविधत्वमुक्तम् । ___ " अजीवा दुविहा पण्णत्ता । तं जहा-रूवि-अजीवा य, अरूवि-अजीवा य । रूवि-अजीवा चउव्विहा पण्णत्ता । तं जहा-खंधा, देसा, पएसा, परमाणुपोग्गला। अरूवि-अजीवा दसविहा पन्नत्ता । तं जहा-धम्मत्थिकाए, धम्मत्थिकायस्स देसे धम्मत्थिकायस्स पएसे, एवं अधम्मत्थिकाए वि, आगासत्थिकाए वि, अद्धासमए"। ___ और भी-जब धर्मास्तिकायादिक देशी के अपृथग्भूत भी देश सिद्धान्त में पृथक् वस्तुरूप से कहे गये हैं तो क्या जीव से पृथक् हुई छिपकली की पूंछ पृथक् वस्तु नहीं कही जासकती है। छिन्न होने से वह सम्पूर्ण जीव से जुदी है, तथा स्फुरण आदि क्रियाविशिष्ट होने से वह अजीवसे भिन्न है। इससे यह बात सिद्ध हो जाती है कि वह नोजीव है। अजी की प्ररूपणा करते समय भगवान ने धर्मास्तिकायादिक अमूर्त अजीवों को दश प्रकार का कहा है___ "अजीवा दुविहा पण्णत्ता-तं जहारूवि-अजीवाय अरूवि-अजीवा य रुवि-अजीवा चउन्विहा पण्णत्ता - तं जहा-खंधा देसा पएसा परमाणुपोग्गला । अवि-अजीवा दूसविहा पण्णत्सा तं जहा-धम्मत्थिकाए, धम्मस्थिकायस्स देसे, धम्मत्थिकायस्स पऐसे, एवं अधम्मत्थिकाए वि आगासत्थिकाए वि अद्धासमये।" જ્યારે ધર્માસ્તિકાયાદિક દેશના અપૃથભૂત (છુટો ન પડેલો) દેશ પણ સિદ્ધાંતમાં પૃથક્ વસ્તુ સ્વરૂપથી કહેવાયેલ છે તે શું જીવથી છુટી પડેલી ગરોળીની પૂંછડી પૃથક્ વસ્તુ ન કહેવાય ? અલગ થવાથી તે સંપૂર્ણ જીવથી જુદી છે તથા સ્કુરણ આદિ ક્રિયા વિશિષ્ટ હોવાથી તે અજીવથી પણ ભિન્ન છે એથી એ વાત સિદ્ધ થાય છે કે તે “ જીવ' છે. અજીવની પ્રરૂપણ કરતી વખતે ભગવાને ધર્માસ્તિકાયાદિક અમૂર્ત અ ને દશ પ્રકારના કહ્યા છે "अजीवा दुविहा पण्णत्ता-तं जहा रूवि अजीवा य, अरूवि अजीवा य, रूवि अजीवा, चउव्विहा पण्णत्ता-तं जहा-खंधा देसा पएसा परमाणु पोग्गला । अरूवि अजीवा दसविहा पण्णत्ता-तं जहा - धम्मत्थिकाए, धम्मत्थिकायस्स देसे, धम्मत्थिकायस्स पएसे, एवं अधम्मत्थिकाए वि आगासत्थिकाए वि अद्धासमए।" ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #795 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७४० उत्तराध्ययनसूत्रे __छाया-"अजीवा द्विविधाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-रूप्यजीवाश्च, अरूप्यजीवाश्च । रूप्यजीवाश्चतुर्विधाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-स्कन्धाः, देशाः प्रदेशाः, परमाणुपुद्गलाः । अरूप्यजीवा दशविधाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-धर्मास्तिकायः, धर्मास्तिकायस्य देशः, धर्मास्तिकायस्य प्रदेशः, एवमधर्मास्तिकायोऽपि, आकाशास्तिकायोऽपि, अद्धासमयः तदेवं धर्मास्तिकायादीनां दशविधत्वकथनेन तद्देशस्य पृथगू वस्तुत्वमुक्तम् , अन्यथा दशविधत्वानुपपत्तेः । यदि धर्मास्तिकायादीनां देशस्तेभ्योऽपृथगू भूतोऽपि पृथग वस्तूच्यते, तर्हि गृहगोधिकादीनां छिन्नं पुच्छादिकं छिन्नत्वेन जीवात् पृथगभूतं सुतरा पृथग् वस्तु भवितुमर्हति । तच्च जीवाजीवविलक्षणत्वानोजीव इत्युच्यते । छाया-अजीवा द्विविधाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-रूप्यजीवाश्च अरूप्यजीवाश्च । रूप्यजीवाश्चतुर्विधाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-स्कंधाः देशाः, प्रदेशाः, परमाणुपुद्गलाः । अरूप्यजीवा दशविधाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-धर्मास्तिकायः, धर्मास्तिकायस्य देशः धर्मास्तिकायस्थ प्रदेशः, एवमधर्मास्तिकायोऽपि, आकाशास्तिकायोऽपि, अद्धासमयः" ॥ _इस प्रकार इस पाठ में धर्मास्तिकायादिकों की दशविधप्ररूपणा से उसके देश को पृथक् वस्तुरूप से प्रतिपादित किया गया है । नहीं तो जो इस प्रकार का कथन न माना जाय तो दश प्रकार की प्ररूपणा ही संपन्न नहीं होती है । धर्मास्तिकायादिकों का देश उनसे अपृथकूभूत है फिर भी वह जैसे उनसे पृथक्भूत मानकर वस्तुस्वरूप माना जाता है, इसी तरह गृहगोधिका आदि के छिन्नपुच्छादिक अवयव भी छिन्न होने से छाया-अजीवा द्विविधाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा, रूप्यजीवाश्च अरूप्यजीवाश्च । रूप्यजीवाश्चतुर्विधा प्रज्ञप्ताः तद्यथा--स्कंधाः देशाः प्रदेशाः परमाणुपुद्गलाः ! अरूप्यजीवा दशविधाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा धर्मास्तिकायः, धर्मास्तिकायस्य देशः, धर्मास्तिकायस्य प्रदेशः, एवम्-अधर्मास्तिकायोऽपि, आकाशास्तिकायोऽपि, अद्धासमयः"॥ - આ પ્રકારે આ પાઠમાં ધર્માસ્તિકાયાદિકેની દસ પ્રકારે પ્રરૂપણુથી તેના દેશને પથદ્ વસ્તુ સ્વરૂપથી પ્રતિપાદિત કરવામાં આવેલ છે. જે આ પ્રકારનું કથન ન માનવામાં આવે તે દશ પ્રકારની પ્રરૂપણું જ સંપન્ન થતી નથી. ધર્માસ્તિકાયાદિકને દેશ તેનાથી અપૃથફભૂત (અભિન્ન) છે. છતાં પણ તે જેમ તેનાથી પૃથફભૂત (ભિન્ન) વસ્તુ સ્વરૂપ માનવામાં આવે છે તેવી રીતે ગોળી વિગેરેની તુટેલી પૂંછડી વગેરે અવય પણ છવથી ભિન્ન થતાં તે એક પૃથફ ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #796 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७४१ प्रियदर्शिनी टीका अ० ३ गा० ९ गुप्ताचार्यरोहगुप्तयोर्वादः अपि च-समभिरूढनयानुसारेण जीवप्रदेशो नोजीवो भवितुमर्हति, अतः सिद्धान्तेऽपि नोजीवोऽस्तीति मन्यते । अनुयोगद्वारसूत्रे हि-प्रमाणद्वारान्तर्गतं नयप्रमाणं विचारयता भगवता प्रोक्तम् “समभिरूढो सदनयं भणइ-जइ कम्मधारएण भणसि तो एवं भणाहि-जीवे य से पएसे य, से पएसे नोजीवे " इति । छाया-समभिरूढः शब्दनयं भणति-यदि कर्मधारयेण भणसि, तर्हि एवं भण-जीवश्च स प्रदेशश्च, स प्रदेशो नोजीवः । इति ॥ तदनेन प्रदेशलक्षणो जी वैकद्रेशो नोजीव उक्तः। यथा घटैकदेशो नोघट इति । जीव से पृथक् होते हुए अवश्य पृथक् वस्तु हैं, ऐसा मानने में क्या विरोध हो सकता है। अतः वह जीव और अजीव इनसे विलक्षण होने से "नोजीव है" ऐसा कहा जाता है। ___और भी-समभिरूढनय की अपेक्षा से जीवप्रदेश नोजीव ही होना चाहिये तभी तो सिद्धान्त में "नोजीव है" ऐसा माना गया है। अनुयोगद्वारसूत्र में प्रमाणद्वारान्तर्गत नयप्रमाण का विचार करते समय भगवान ने कहा है "समभिरूढो सदनयं भणइ, जह कम्मधारएण भणसि तो एवं भणाहि-जीवे य से पएसे य, से पएसे नोजीवे" इति छाया-समभिरूढः शब्दनयं भणति, यदि कर्मधारयेण भणसि, तर्हि एवं भण-जीवश्च स प्रदेशश्च, स प्रदेशो नोजीवः । इति ।। . इस पाठ से यह कहा गया है कि प्रदेशलक्षण जीव का एक देश नोजीव है। जिस प्रकार घट का एक देश नोघट है। इस प्रकार વસ્તુ છે. એવું માનવામાં કર્યો વિરોધ હોઈ શકે ? આથી તે જીવ અને અજી. વથી કાંઈક જુદું જ હોવાથી “જીવ છે” એવું કહી શકાય. તે ઉપરાંત સમભિરૂઢનયની અપેક્ષાએ તે જીવપ્રદેશ નેજીવ જ હોવો જોઈએ. માટે સિદ્ધાંતમાં “જીવ છે.” એવું માનવામાં આવે છે. અનુગદ્વારસૂત્રમાં પ્રમાણદ્વારા અન્તર્ગત નયપ્રમાણને વિચાર કરતી વખતે ભગવાને કહ્યું છે ! "समभिरुढो सद्दनयं भणइ-जइ कम्मधारएण भणसि नो एवं भणाहि जीवे य से पएसे य, से पएसे नो जीवे " इति। छाया-समभिरुढः शब्दनयं भणति यदि कर्मधारयेण भणसि, तर्हि एवं भण जीवश्च स प्रदेशश्च, स प्रदेशो नोजीवः इति ॥ આ પાઠથી એમ કહેવામાં આવેલ છે કે, પ્રદેશ લક્ષણ જીવન એક દેશ નેજીવ છે. જેવી રીતે ઘટને એક દેશ ને ઘટ છે. આ રીતે યુક્તિ પૂર્વક ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #797 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨ उत्तराध्ययनसूत्रे तस्मादस्ति नोजीवलक्षणस्तृतीयराशिः, युक्त्याऽऽगमसिद्धत्वात् , जावाजीवादितत्ववत् । इति रोहगुप्तस्य पूर्वपक्षः। रोहगुप्तेनैवमुक्ते सति श्रीगुप्ताचार्यः माह यदि सत्यमेव तव सूत्रं प्रमाणं तर्हि तेषु तेषु सूत्रेषु जीवाजीवरूपौ द्वावेव राशी प्रोक्तौ । तथा च स्थानाङ्गसूत्रे दुवे राशी पण्णत्ता । तं जहा-जीवा चेव अजीवा चेव । छाया-द्वौ राशी प्रज्ञप्तौ । तद्यथा-जीवाश्चैव अजीवाश्चैव । तथाऽनुयोगद्वारसूत्रेऽप्युक्तम् कइविहा गं भंते दव्वा पण्णत्ता? गोयमा ! दुविहा पण्णत्ता। जहा-जीवदव्वा य अजीवदव्या य । युक्ति और आगम से सिद्ध होने के कारण नोजीवस्वरूप एक तृतीय राशि भी है। जैसे जीव और अजीव ये दो राशियों स्वतन्त्र हैं उसी प्रकार यह राशि भी स्वतन्त्र है । इस प्रकार रोहगुप्त ने अपने पूर्वपक्ष का स्थापन कर उसका युक्ति और आगम से समर्थन किया। श्रीगुप्ताचार्य ने रोहगुप्त के इस पूर्वपक्ष को सुनकर कहा कियदि तुम को सूत्र प्रमाण हैं तो देखो उन्हीं सूत्रो में जगह २ यही प्ररूपणा मिलती है कि जीव और अजीव ये दो ही राशियां हैं। स्थानाङ्गसूत्र में ऐसा ही कहा है-“दुवे राशी पण्णत्ते-तं जहा जीवा चेव अजीवा चेव"। छाया-द्वौ राशी प्रज्ञप्तौ । तद्यथा-जीवाश्चैव अजीवाश्चैव । तथा अनुयोगद्वारसूत्र में भी ऐसा ही कहा है-" कइविहाणं भंते दव्या पण्णत्ता? गोयमा! दुविहा पण्णत्ता।तं जहा जीवव्वा य अजीवव्वाय" અને આગમથી સિદ્ધ હવાનું પૂરવાર કર્યું કે નેજીવ સ્વરૂપ એ એક ત્રીજી રાશી પણ છે. જેમ જીવ અને અજીવ એ બે રાશી સ્વતંત્ર છે તેજ પ્રકારે આ રાશી પણ સ્વતંત્ર છે. આ પ્રકારે રોહગુપ્ત પિતાના નવા સિદ્ધાંતનું પ્રતિપાદન કરી તેનું યુક્તિપૂર્વક અને આગમમાં પ્રમાણભૂત છે એવું સમર્થન કર્યું. શ્રી ગુપ્તાચાર્યે રહગુપ્તના આ પૂર્વપક્ષને સાંભળીને કહ્યું કે, જે તમને સૂત્ર પ્રમાણભૂત લાગતું હોય તે, જુઓ ! એજ સૂત્રોમાં ઠેક ઠેકાણે એજ પ્રરૂપણ મળી આવે છે કે, જીવ અને અજીવ એ બેજ રાશી છે. સ્થાનાંગसभा मे ४थु छ.-" दुवे राशी पण्णत्ते-तं जहा जीवा चेव अजीवा चेव" छाया-" द्वौ राशि प्रज्ञप्तौ ! तद्यथा-जीवाश्चैव अजीवाश्चैव" तथा मनुयोग१२ सत्रमा ५९ अभ युछे-“कइविहाणं भते व्वा पण्णत्ता ? गोयमा! दुविहा पण्णत्ता तं जहा जीवव्वा य अजीव दव्वा य ।" छाया-कतिविधानि खलु ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર: ૧ Page #798 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रियदर्शिनी टीका. अ० ३ गा०९ गुप्ताचार्यरोहगुप्तयोदः छाया—कतिविधानि खल्लु भदन्त ! द्रव्याणि प्रज्ञप्तानि ? गौतम! द्विविधानि प्रज्ञप्तानि । तद्यथा-जीवद्रव्याणि च, अजीवद्रव्याणि च । तथोत्तराध्ययनसूत्रे चाभिहितम्"जीवा चेव अजीवा य एस लोए वियाहिए ॥" छाया-जीवाश्चैव अजीवाश्च एष लोको व्याख्यातः ॥ अन्येष्वपि सूत्रेषु तथा बहुशः प्ररूपितम् । नोजीवराशिस्तु तृतीयः सूत्रे कचिदपि नोक्तः, अतस्तत्मरूपणा कथं न श्रुताऽऽशातना स्यादिति । धर्मास्तिकायादीनां देशस्य पृथग्वस्तुत्वं वस्तुतो नास्ति, किंतु विवक्षामात्रे णैव तस्य भिन्नवस्तुखकथनमिति । एवं छिन्नपुच्छादिकमपि गृहगोधिकादिजीवादन्यो नास्ति, तत्सम्बन्धसद्भावात् । अतो जीव एव तत् छिन्नपुच्छादिकं, न तु ____ छाया-कतिविधानि खलु भदन्त! द्रव्याणि प्रज्ञप्तानि? गौतम! द्विविधानि प्रज्ञप्तानि तद्यथा-जीवद्रव्याणि च अजीवद्रव्याणि च । उत्तराध्ययनमूत्रमें भी ऐसा ही पाठ है-"जीवा चेव अजीवा य एस लोए वियाहिए" छाया-जीवाश्चैव अजीवाश्च एष लोको व्याख्यातः । इसी तरह अन्य सूत्रों में भी अनेक जगह इसी तरह के पाठ उल्लिखित हैं। नोजीवराशि तृतीय है, यह बात तो किसी भी मूत्र में प्ररूपित करने में नहीं आई है। इसलिये इस प्रकार की प्ररूपणा श्रुत की आशातनास्वरूप ही जानना चाहिये। यथार्थ मैं धर्मास्तिकायादिकों के देश में पृथकवस्तुता है हीनहीं, किन्तु विवक्षामात्र से ही देश पृथकवस्तुरूप में कहा गया है, अतः यह मानना चाहिये कि जिस प्रकार धर्मास्तिकायादिकों के देश यथार्थरूप में पृथक्वस्तुस्वरूप नहीं है, उसी प्रकार छिपकली आदि के छिन्न भदन्त ! द्रव्याणि प्रज्ञप्तानि । तद्यथा-जीव द्रव्याणि च अजीवद्रव्याणि च । उत्तराध्ययन सूत्रमा ५९ व ४ ५४ छ -“जीवाचेव अजीवा य एस लोए वियाहिए" छाया-जीवाश्चव अजीवाश्च ! एष लोको व्याख्यातः मारना બીજા સૂત્રોમાં પણ અનેક જગ્યાએ આ પ્રકારના પાઠને ઉલ્લેખ છે. નજીવ એ ત્રીજી રાશી છે એ વાત તે કઈ પણ સૂત્રમાં પ્રરૂપિત કરવામાં આવી નથી. માટે આ પ્રકારની પ્રરૂપણી આગળ સૂત્રની આશાતના રૂપે જ માનવી જોઈએ. યથાર્થમાં ધર્માસ્તિકાય વિગેરેના દેશમાં પૃથક્ વસ્તુપણું છે જ નહીં પણ અભિપ્રાય માત્રથી જ દેશ પૃથક્ વસ્તુ રૂપમાં કહેવામાં આવેલ છે. આથી એમ માનવું જોઈએ કે, જે પ્રકારે ધર્માસ્તિકાય વિગેરેના દેશ યથાર્થ રૂપમાં પૃથક્ વસ્તુ સ્વરૂપ નથી. એજ પ્રમાણે ગળી વિગેરેની કપાયેલી પૂંછડી ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #799 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७४४ उत्तराध्ययन सूत्रे नोजीवः । तथाहि - गृहगोधिकादीनां पुच्छादिके छिन्नेऽपि गृहगोधिकादेस्तत्पुच्छादिकस्य च यदन्तरालं तत्र जीवप्रदेशानां संयोगः सूत्र भगवता कथितः । तथा च भगवती सूत्रे - www "अह भंते! कुम्भे, कुम्मावलिया, गोहा, गोहावलिया, गोणे, गोणावलिया, मस्से मस्सा लिया, महिसे महिसावलिया एएसि णं दुहा वा तिहा वा असंखेज्जहा वा छिनाणं जे अंतरा ते विणं तेहिं जीवपएसेहिं फुडा ? । हंता, फुडा पुरिसे णं भंते । अंतरे हत्थेण वा, पाएण वा, अंगुलियाए वा, सलगाए वा, कद्रेण वा, किलिंचेण वा, आमुसमाणे वा, संमुसमाणे वा, आलिहमाणे वा, विलि पुच्छादिक अवयव भी जीव से भिन्न नहीं हैं। उसके साथ संबंध विशिष्ट होने से वे जीवस्वरूप ही हैं। इसलिये नोजीव राशि नहीं है। देखो - गृहगोधिकादिकों के पुच्छादिक अवयव जब छिन्न हो जाते है तब उन पुच्छादिक अवयवों एवं उस गृहगोधिका आदि के बीच में जीव प्रदेशों का संयोग बना रहता है, यह बात स्वयं भगवान् ने सूत्र में कही है - वहां का पाठ इस प्रकार है (6 'अह भंते! कुम्मा, कुम्मावलिया, गोहा, गोहावलिया, गोणे, गोणावलिया, मणुस्से, मणुस्सावलिया, महिसे महिसावलिया एएसि णं दुहा वातिहा वा असंखेज्जहा वा छिन्नाणं जे अंतरा ते वि णं तेहिं जीवपए सेहिं फुडा ? हंता फुडा । पुरिसे णं भंते । अंतरे हत्थेण वा पाएण वा, अंगुलियाए वा. कडेण वा, किलिंचेण वा, आमुसमाणे वा, संमुसमाणे वा, आलिहमाणे वा, विलिहमाणे वा, अण्णयरेण वा, तिक्खेणं વિગેરે અવયવ પણ જીવથી જુદા નથી. તેની સાથે સબંધ વિશિષ્ટ હાવાને કારણે તેઓ જીવ સ્વરૂપ જ છે. માટે ત્રીજી નાજીવરાશીનું અસ્તિત્વ જ નથી. જુઓ ! ગરાળીની પૂંછડી વિગેરે અવયવ જ્યારે કપાઈ જાય છે ત્યારે તે પૂછડી વિગેરે અવયવા અને તે ગરાની આદિની વચમાં જીવ પ્રદેશે ને સંચેગ મની રહે છે, આ વાત ખુદ ભગવાને સૂત્રમાં કહી છે. તે પાઠે આ પ્રકારે છે. अह भंते! कुम्मा, कुम्मावलिया, गोहा, गोहावलिया, गोणे गोणावलिया, मणुस्से, मणुस्सावलिया, महिसे, महिसावलिया, एएसि णं दुहा वा तिहा वा असंखेज्जहा वा छिन्नाणं जे अंतरा ते विणं तेहिं जीवपएसेहिं फुडा ? हंता फुडा ! पुरिसे णं भंते ! अंतरे हत्थेण वा, पाएण वा, अंगुलियाए वा, कट्टेण वा, किलिंचेण वा, आमुसमाणे वा, संमुसमाणे वा, आहि माणे वा, विलिमाणे वा, अष्ण ፡ ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર ઃ ૧ Page #800 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रियदर्शिनी टीका अ० ३ गा० ९ गुप्ताचार्यरोहगुप्तयोर्वादः हमाणे वा, अण्णयरेण वा, तिक्खेणं सत्थजाएणं आछिंदमाणे वा, विच्छिदमाणे वा, अगणिकायेणं समोडहमाणे तेसिं जीवपएसाणं किंचि आवाहं वा विवाहं वा उप्पाएइ छविच्छेयं वा करेइ ?। नो इणढे समढे । नो खलु तत्थ सत्थं संकमइ" इति । ( भग० श० ८ उ० ३) छाया-अथ भदन्त ! कूर्माः, कुर्मावलिका, गोधाः, गोधावलिका, गौः, गवावलिका, मनुष्याः मनुष्यावलिका, महिषः, महिषावलिका, एतेषां खलु विधा वा, त्रिधा वा, असंख्येयधावा छिन्नानां येऽन्तरास्तेऽपि खलु तै जीवप्रदेशैः स्पृष्टाः? हन्त स्पृष्टाः । पुरुषः खलु भदन्त ! अन्तरे हस्तन वा, पादेन वा, अङ्गुलिकया वा शलाकया वा काष्ठेन वा, किलिञ्चन वा आमृशन् वा, संमृशन् वा आलिखन् वा, विलिखन् वा, अन्यतरेण वा तीक्ष्णेन शस्त्रजातेन आच्छिन्दन् वा, विच्छिदन् वा अग्निकायेन समवदहन् वा तेषां जीवप्रदेशानां किंचिदाबाचं वा विवाधं वा उत्पादयति? छविच्छेदं वा करोति ? नो अयमर्थः समर्थः । नो खलु तत्र शस्त्रं संक्रामति ।" इति। सत्थजाएणं आछिंदमाणे चा, विच्छिदमाणे वा अगणिकाएणं समोडहमाणे तेसिंजीवपएसाणं किंचिआबाहं वा विवाहं वा उप्पाएइविच्छेयं वा करेइ ? नो इणद्वे समढे, नो खलु तत्थ सत्थं संकमइ” इति । (भग. श.८ उ. ३) छाया-अथ भदन्त ! कूर्माः कूर्मावलिका, गोधाः, गोधावलिका, गावः, गवावलिका, मनुष्याः मनुष्यावलिका, महिषाः महिषावलिका, एतेषांखलु द्विधा वा, त्रिधा वा, असंख्येयधा वा छिन्नानां येऽन्तरास्तेऽपि खलु तैर्जीवप्रदेशैःस्पृष्टाः ? हन्त ! स्पृष्टाः पुरुषः खलु भदन्त ! अन्तरे हस्तेन वा, पादेन वा, अङ्गुलिकया वा, काष्ठेन वा, किलिञ्चेन वा, आमृशन् वा, संमृशन् वा, आलिखन् वा, विलिवन् वा, अन्यतरेण वा, तीक्ष्णेन शस्त्रजातेन आच्छिदन वा, विच्छिन्दन वा, अग्निकायेन समवदहन वा, यरेण वा, तिक्खणं सत्थजाएणं आछिंदमाणेवा, विच्छिदमाणे वा, अगणि कायेणं समोडहमाणे त सिं जीवपएसाणं किचिअवाहं वा विवाहं वा, उप्पाएइ विच्छयं वा करेइ ? नो इणढे समढे नो खलु तत्थ सत्यं संकमइ" ।इति॥ भग० श. ८ उ०३ छाया-अथ भदन्त ! कूर्माः कूर्मावलिका, गोधाः गोधावलिका, गावः, गवावलिका, मनुष्याः मनुष्यावलिका, महिषाः महिपावलिका, एतेषां खलु, द्विधा वा, त्रिधा वा, असंख्येयधा वा छिन्नानां येऽन्तरास्तेऽपि खलु तैर्जीवप्रदेशः स्पृष्टाः १ हन्त ! स्पृष्टाः ! पुरुषः खलु भदन्त ! अन्तरे हस्तेन वा, पादेन वा, अ गुलिकया वा काष्ठेन वा, किलिञ्चेन वा, आमृशन् वा, संमृशन् वा, आलिखन् वा विलिखन् वा, अन्यतरेण वा, तीक्ष्णेन शस्त्रजातेन वा आच्छिन्दन् वा, विच्छिन्दन उ० ९४ ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #801 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७४६ उत्तराध्ययनसूत्रे रोहगुप्तः पृच्छति-यदि सूत्रे जीवप्रदेशानां तदन्तरालेऽपि सम्बन्धः प्रोक्तस्तर्हि तदन्तराले ते जीवप्रदेशाः कथं नोपलभ्यन्ते ? आचार्यों वदति-कार्मणशरीरस्य सूक्ष्मस्वात् , जीवप्रदेशानां चामूर्तत्वादन्तराले विद्यमाना अपि जीवप्रदेशा न दृश्यन्ते । रोहगुप्तः पृच्छति-ननु यथा घटे स्फुटिते सति तस्मात् पृथग्भूतं रथ्यागतं घटखण्डं घटैकदेशत्वानोघट इत्युच्यते, तथा गृहगोधिकादिपुच्छस्य जीवस्य छिन्नत्वात् पुच्छादिकं खण्डं तस्मात् पृथग्भूतत्वात् तदेकदेशत्वाच्च नो जीवः कथं नोच्यते ? इति। तेषां जीवप्रदेशानां किंचिदाबाधं वा, विवाधं वा, उत्पादयति, विच्छेद वा, करोति ?, नो अयमर्थः समर्थः, नो खलु तत्र शस्त्रं संक्रामति" इति । इस पाठ को सुनकर रोहगुप्तने कहा-यदि सूत्र में जीवप्रदेशों का कमलतन्तुओं के समान अन्तराल में भी संबंध कहा है, तो वे प्रदेश वहां उपलब्ध क्यों नहीं होते हैं ?। रोहगुप्त के इस तर्क को सुनकर आचार्य महाराज ने कहा कि कार्मण शरीर अतिसूक्ष्म और जीव के प्रदेश अमूर्त हैं इसलिये अन्तराल में विद्यमान भी उन प्रदेशों की उपलब्धि नहीं होती है। रोहगुप्त ने कहा-जैसे घट के फुट जाने पर उससे पृथक्भूत होकर गली में पड़ा हुआ उसका टुकड़ा घट का एकदेश होने के कारण नोघट कहा जाता है उसी तरह गृहगोधिकादिक के पुच्छादिक-अवयव भी कट जाने पर जीव के छिन्न हो जाने से तथा उससे पृथक्भूत हो जाने से उसी के एकदेश होने के कारण नोजीव क्यों नहीं कहा जायगा। वा, अग्निकायेन समदहन् वा, तेषां जीवप्रदेशानां किञ्चिदाबाचं वा, विबाधं वा उत्पादयति, विच्छेदं वा करोति !नो अयमर्थः समर्थः! नो खलु तत्र शस्त्रं संक्रामति" इति। સૂત્રને આ પાઠ સાંભળીને હગુખે કહ્યું–જે સૂત્રમાં જીવ પ્રદેશને કમલતંતુઓના સમાન અંતરાલમાં પણ સંબંધ રહ્યો છે. તે તે પ્રદેશ ત્યાં ઉપલબ્ધ કેમ નથી થતું? રહગુપ્તના આ જાતના તકને સાંભળી આચાર્ય મહારાજે કહ્યું કે, કાર્માણ શરીર અતિ સૂક્ષ્મ અને જીવને પ્રદેશ અમૂર્ત છે, એટલા માટે અન્તરાળમાં પણ વિદ્યમાન એવા એ પ્રદેશની ઉપલબ્ધિ થતી નથી. રહગુપ્ત કહ્યું–જેવી રીતે ઘડે ફુટી જવાથી તેના થએલા ટુકડા રસ્તામાં ફેંકી દેવાય છે અને તે ટુકડા ઘડાને એક દેશ હોવાને કારણે નોઘટ કહે. વામાં આવે છે, એ જ રીતે ગળીની પૂંછડી આદિ અવયવો પણ કપાઈ જવાથી જીવથી જુદા થઈ જવાથી તથા એનાથી પૃથભૂત થઈ જવાથી તેને એક દેશ હેવાના કારણે જીવ કેમ ન કહેવામાં આવે? ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #802 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रियदर्शिनी टीका. अ०३ गा. ९ गुप्ताचार्यरोहगुप्तयोर्वादः ७४७ आचार्यों वदति-नैतद् युक्तम्-घटादेः कपालादिविकारो यथा दृश्यते, तथा जीवस्य न दृश्यते, अपि च घटादेविनाशकारणानि वह्निशस्त्रादीनि सन्ति, तथा जीवस्य न सन्ति, जीवस्यामूर्तद्रव्यत्वात् अकृतकत्वाच्च तस्माज्जीवस्य खण्डशो नाशो न भवति । अतश्छिन्नपुच्छादौ जीवादन्यत्वं नास्ति, ततश्च जीवाजीवविलक्षणत्वाभावान्नोजीवत्वं नोपपद्यते । किंच-शस्त्रच्छेदादिना जीवप्रदेशस्य खण्डशो नाशे तस्य सर्वनाशः स्यात् । तथाहि-यत् खण्डशो नश्यति, तस्य सर्वनाशो दृष्टः, यथा घटादेः, त्वया घटादिवज्जीवो मन्यते, अतस्तद्वत् सर्वनाशः स्यात् । इस रोहगुप्त की तर्क का समाधान करते हुए आचार्य महाराज ने कहा यह कथन ठीक नहीं है-मूर्त घटादिक के कपाल आदि विकाररूप अवयव जिस प्रकार दिखलाई पड़ते हैं उस प्रकार अमूर्त जीव का विकार दिखलाई नहीं देता है। दूसरे-जैसे घटादिक के विनाश कारण बह्निशस्त्रा. दिक हैं उस तरह के जीव के विनाश कारण नहीं हैं, क्यों कि जीव अमूर्त द्रव्य है अकृतक है, इसलिये जीव का खण्डरूप से नाश नहीं होता है। छिन्न पुच्छादिक अवयवगत जीवप्रदेशों में जीव से भिन्नता नहीं है, इसलिये जीव अजीव से नोजीव में विलक्षणताभिन्नता का अभाव होने से तृतीयराशिता नहीं आ सकती है। और भी-यदि शस्त्रों द्वारा जीवप्रदेश का खण्डशः नाश माना जायगा तो जीव का सर्वनाश ही मानना पडेगा। जिसका खंडशः विनाश होता है, उसका सर्वनाश देखा जाता है जैसे घटादिक का। હગુપ્તના આ તર્કનું સમાધાન કરતાં આચાર્ય મહારાજે કહ્યું; તમારું આ કહેવું બરોબર નથી-મૂર્ત ઘટ આદિનાં ઠીકરાં આદિ વિકારરૂપ અવયવ જે પ્રકારે દેખાય છે એ પ્રકારે અમૂર્ત જીવન વિકાર દેખાઈ શકાતું નથી. બીજુ-જેમ ઘટાદિકના વિનાશનું કારણ વહ્નિશસ્ત્રાદિક છે પણ એ પ્રમાણે જીવના વિનાશનું કારણ નથી કેમકે જીવ અમૂર્ત દ્રવ્ય છે, અકૃતક છે. આ કારણે જીવને (ટુકડારૂપે) ખંડરૂપે નાશ થત નથી. આથી કપાયેલી પૂંછડી આદિ અવયવગત જીવપ્રદેશમાં જીવથી ભિન્નતા નથી. આટલા જ કારણે જીવ, અજીવથી જીવમાં વિલક્ષણતા-ભિન્નતાને અભાવ હોવાથી તે ત્રીજી રાશી થઈ શકતી નથી. કિંચ—જે શસ્ત્રો દ્વારા જીવપ્રદેશને ખંડશઃ (ટુકડે ટુકડે) નાશ માનવામાં આવે તે જીવને સર્વનાશ જ માનવે પડે. જેને ખંડશઃ વિનાશ થાય છે અને પરિણામે તે સર્વનાશ જ જોવામાં આવે છે. જેમકે-ઘટાદિકનું ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #803 -------------------------------------------------------------------------- ________________ % 3D ૭૪૮ उत्तराध्ययनसूत्रे नन्वस्तु सर्वनाशः, का हानिरिति चेत् , तन्न सम्यक्, सर्वनाशस्वीकारे जिनमतपरित्यागरूपदोषापत्तेः, जिनमते हि सद्रूपस्य जीवद्रव्यस्य सर्वथा विनाशः प्रतिषिद्धः, असतश्च सर्वथोत्पादोऽपि निषिद्ध एव । तथा चोक्तम् जीवाणं भंते । किं व ढंति हायंति, अवडिया, ?। गोयमा ! नो वड्दति नो हायति अवढिया।" ____ छाया—जीवाः खलु भदन्त ! किं वर्द्धन्ते, हीयन्ते, अपस्थिताः ? गौतम ! ना वर्द्धन्ते नो हीयन्ते अवस्थिताः। इत्यादि, तुम जीव को घटादिक के समान मान रहे हो अतः इसकी तरह उसका सर्वनाश तुम्हें मानने का प्रसंगप्राप्त होगा। यदि इस पर तुम ऐसा कहो कि जीव का सर्वनाश मानने में दोष ही क्या है ? मान लेना चाहिये सो इस प्रकार की युक्ति तुम्हे शोभा नहीं देती, कारण कि इस प्रकार के कथन से तो यह बात साबित होती है कि तुमने जिनमत का ही परिस्याग कर दिया है। जिनमत में सद्रप जीवद्रव्य का सर्वथा विनाश निषिद्ध है और सर्वथा असत् का उत्पाद भी निषिद्ध है। जैसे कहा है___“जीवाणं भंते ! किं वडढति हायति अवडिया? गोयमा! नो वड्दति नो हायंति, अवडिया"॥ ___ छाया-जीवाः खलु भदन्त ! किं वर्द्धन्ते, हीयन्ते, अवस्थिताः? गौतम ! नो वर्द्धन्ते नो हीयंते, अवस्थिता । इत्यादि । બને છે તેમ તમે જીવને ઘટાદિકની સમાન માની રહ્યા છે. આથી તે એની માફક તેને પણ સર્વનાશ માનવાને પ્રસંગ તમારા માટે ઉભે થશે. આ અંગે કદાચ તમે એવું પણ કહે કે, જીવને સર્વનાશ માનવામાં દેષ શું છે?-તે સમજી લેજો કે, આ પ્રકારનું તમારું કથન તમારા માટે રોભારૂપ નથી. કારણ કે, આ પ્રકારના કથનથી તે એ વાત સાબીત થાય છે કે, તમે જીનેશ્વરના મતને જ ત્યાગ કરી દીધું છે. જનમતમાં સદ્વપ છવદ્રવ્યને સર્વથા વિનાશ નિષિદ્ધ કહ્યો છે. અને સર્વથા અસના ઉત્પાદન પણ નિષેધ માન્ય છે. કહ્યું પણ છે કે "जीवाणं भंते! किंवढंति हायंति अवढिया ? गोयमा ! नो वड्दति नो हायंति, अवइिढिया"॥ ____ छाया-जीवा खलु भदन्त ! किंवद्धन्ते, हीयन्ते, अवस्थिताः ? गौतम ! नो वर्द्धन्ते नो हीयते, अविस्थिताः । इत्यादि ॥ ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #804 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रियदर्शिनी टीका अ०३ गा. ९ गुप्ताचार्य रोहगुप्तयोर्वादः ७४९ अतो जीवस्य सर्वथा नाशे स्वीक्रियमाणे जिनमतत्याग एव स्यात् । तथा-तत्सर्वनाशे मोक्षाभावः प्राप्नोति मुसुक्षोर्जीवस्य सर्वथा नाशात् । मोक्षाभावे च दीक्षादिकष्टानुष्ठानवैफल्यं, क्रमेण च सर्वेषामपि जीवानां सर्वनाशे संसारस्य शून्यत्वमापयेत। कृतस्य च शुभाशुभकर्मणः सर्वनाशः स्यात् , तस्माज्जीवस्य खण्डशो नाश इति न मन्तव्यम् । रोहगुप्तो वदति-गृहगोधिकादीनां छिन्नं पुच्छादिखण्डं पृथग्भूतं भवतीति प्रत्यक्षत एवं नाशो दृश्यते, इति, आचार्यो वदति - तदयुक्तम् , औदारिक शरीरस्यैव हि तत् खण्डं यत् प्रत्यक्षतो दृश्यमानमस्ति, न तु जीवस्य तत् खण्डम्, तस्यामूर्तद्रव्यत्वेन केनापि खण्डयितुमशक्यत्वात्। __इसलिये जीव का सर्वथा विनाश मानने पर जिनमत का परित्याग किया गया ही माना जायगा। तथा-जीव का सर्वनाश मानने पर एक यह बड़ी भारी आपत्ति आती है कि मोक्ष का अभाव मानना पडेगा। मोक्ष के अभाव में दीक्षादिक कष्टों को सहना भी व्यर्थ हो जायगा। क्रमशः जब समस्त जीवों का सर्वनाश हो जायगातो संसार का भी सद्भाव नहीं रह सकेगा। संसार के अभाव में शुभाशुभ कर्मों का भी सर्व विनाश मानना पडेगा। इसलिये जीव का खंडशः नाश मानना युक्तियुक्त नहीं है। रोहगुप्त ने पुनः कहा कि-गृहगोधिकादिक के छिन्न पुच्छादिकों का विनाश स्पष्ट रीति से प्रतीत होता है। अतः वह जीव का ही तो विनाश है। श्रीगुप्ताचार्य महाराज ने इस के ऊपर उत्तररूप में कहा-यह कहना આટલા માટે જીવને સર્વથા વિનાશ માનવાથી તમે જનમતને પરિત્યાગ કર્યો છે એમ માનવામાં આવે છે. વળી જીવને સર્વનાશ માનવાથી પણ એક ભારે મુશ્કેલી ઉભી થશે કે, જેને લઈને મોક્ષને અભાવ માનવો પડશે. મોક્ષને અભાવ માનવાથી દીક્ષાદિકનાં કષ્ટોને સહેવાં એ પણ નકામાં-અર્થ વિનાનાં બની જશે અને એ પ્રમાણે કમવાર સર્વ જીને સર્વનાશ થઈ જશે તે પછી સંસારનું અસ્તિત્વ પણ રહી શકશે નહીં સંસારના અભાવમાં શુભ અશુભ કર્મોને પણ સર્વવિનાશ માનવો પડશે. આ કારણે જીવને ખંડશઃ (४४४४) नाश भानवा योग्य नथी. રહગુપ્ત ફરીથી કહ્યું કે-ગળીની કપાયેલી પૂંછડી વગેરેને વિનાશ સ્પષ્ટ રીતે જ દેખાય છે. તે જ બતાવે છે કે જીવને વિનાશ છે જ. શ્રી ગુપ્તાચાર્ય મહારાજે તેને ઉત્તર આપતાં કહ્યું કે, તમારું આ પ્રમાણે કહેવું એ ઉચિત ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #805 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७५० उत्तराध्ययनसूत्रे रोहगुप्तः पृच्छति ननु जीवप्रदेशानां खण्डशो नाशेऽपि तत्संघातस्य नाशाभावान्न जीवस्य सर्वनाशः स्यादिति, यथा क्वचित् पुद्गलस्कन्धेऽन्यस्कन्धगतं खण्डं समागत्य मिलित्वा संयुज्यते, तद्भुतं च खण्डं भित्त्वाऽन्यत्र गच्छति एवं जीवस्यापि अन्यजीवखण्डं संबध्यते, तद्गतं तु भिद्यते, इत्येवं संघातभेदधर्मवत्त्वं जीवस्य इष्यते । इसलिये उचित नहीं है कि वहां औदारिकमूर्तशरीरका ही खंड हुआ है, और उसीका विनाश होता है, जीव का नहीं, क्यों कि वह तो अमूर्त है, अतः जो पुच्छादिक उससे भिन्न दिखते हैं वे औदारिक शरीर के ही खंड हैं जीव के नहीं। जीव तो अमूर्त है किसी से भी उसका खंड नहीं होता है। रोहगुप्त ने पुनः कहा-जीवप्रदेशों का खंडशः नाश मानने पर भी जीवका सर्वविनाश नहीं हो सकता, क्यों कि जीवप्रदेशों के संघात तो नाश होता नहीं है। जैसे किसी पुद्गल स्कंध में अन्यस्कंधगतखंड आकर के मिल जाता है तथा तद्गतखंड भिदकर उससे अलग होकर दूसरी जगह चला जाता है, तो पुद्गलस्कंध का सर्वथा नाश कहां होता है, इसी प्रकार जीव में भी अन्यजीव खंड संबंधित हो जाता है और तद्गत खंड उससे अलग हो जाता है, इस प्रकार संघातभेद धर्मवत्ता जीव में मानी जाती है अतः उस का सर्वविनाश नहीं हो सकता है। નથી કારણ કે ત્યાં દારિકમૂત શરીરને જ ખંડ ટુકડે થાય છે અને તેને જ વિનાશ થાય છે–જીવને નહીં કારણ કે જીવ તે અમૂર્ત છે. આથી જે કપાયેલી પૂંછડી વિગેરે તેનાથી ભિન્ન દેખાય છે તે ઔદારિક શરીરને જ ટુકડે છે–જીવને નહીં. જીવતે અમૂર્ત છે. તેના કકડા કરવા કેઈ સમર્થ નથી. ગુપ્ત ફરીથી કહ્યું કે, જીવ પ્રદેશને ખંડશા નાશ માનવાથી જીવને સર્વવિનાશ થઈ શકતું નથી કેમકે, જીવ પ્રદેશના સંઘાતને તે નાશ થત જ નથી. જેમ કેઈ પુદ્ગલકંધમાં બીજા સ્કંધગત ખંડ આવીને મળી જાય છે તથા તે મળી ગએલા ખંડને ભેદીને તેનાથી અલગ થઈને બીજી જગાએ ચાલ્યા જાય છે તે મુદ્દગલ સ્કંધને સર્વથાનાશ કયાં થાય છે? એ પ્રકારે જીવમાં પણ અન્યજીવ ખંડ સંબંધિત થઈ જાય છે અને તદ્દગત ખંડ તેનાથી અલગ થઈ જાય છે. આ પ્રકારે સંઘાતભેદ ધર્મવત્તા જીવમાં મનાય છે. આથી એને સર્વવિનાશ થઈ શકતું નથી. ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #806 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रियदर्शिनी टीका. अ० ३ गा. ९ गुप्ताचार्यरोहगुप्तयोर्वादः ७५१ ___ आचार्यों वदति-यदा शुभाशुभकर्मान्वितमेकं जीवस्य खण्डम् अन्यजीवस्य संबध्यते, अन्यसंबन्धिखण्डं तु तस्य संबध्यते, तदा तत्सुखादयोऽन्यस्य प्राप्नुवन्ति अन्यमुखादयस्तु तस्य, इत्येवं सर्वजीवानां परस्परं सुखादिगुणसांकर्य स्यात् । तथा-एकस्य कृतनाशः, अन्यस्य अकृताभ्यागम इत्यादयोऽपि दोषाः स्युः। रोहगुप्तः पृच्छति-ननु जीवस्य च्छेदे स्वीक्रियमाणे सर्वजीवानां परस्परमुखादिसांकर्य कृतनाशोऽकृताभ्यागमश्चेत्यादयो दोषाः स्युरिति मास्तु जीवस्य नाशापरपर्यायश्छेदः, किंतु-जीवादपृथग्भूतोऽपि जीवसंबद्धोऽपि जीवदेशो नोजीव इत्युच्यते, यथा धर्मास्तिकायादेरेकदेशो नोधर्मास्तिकायादिस्तद्वत् , । इसके ऊपर श्रीगुप्ताचार्य ने कहा कि जिस समय शुभ अशुभ कर्मों से अन्वित जीवका खंड अन्यजीव से बंधेगा, तथा अन्यजीव संबंधी खंड उस जीव से बंधेगा तो उस समय उस जीव के सुखादिक उस में प्राप्त हो जायेंगे, और इस के उस में जाकर प्राप्त हो जायेंगे, इस प्रकार परस्पर में समस्त जीवों के सुखादिकगुणों में संकरता की आपत्ति आजायेगी। इससे एक के कृतकर्म का विनाश और अन्य के अकृत कर्म का भोग भी मानना पड़ेगा। और भी अनेक दोष इस प्रकार की मान्यता में आते हैं। रोहगुप्त ने पुनः कहा कि यदि जीव का छेद स्वीकार किया जाय तो ही सर्व जीवों के सुखादिकोंका परस्पर में सांकर्य एवं कृतकर्म को नाश और अकृतकर्म का आगमन आदि दोष आते हैं, इसलिये पर्यायछेदरूप नाश जीव का नहीं मानना चाहिये-किन्तु जिस प्रकार धर्मास्तिकाया આ સામે શ્રી ગુણાચાર્યે કહ્યું કે, જે સમયે શુભ અશુભ કર્મોથી યુક્ત જીવને ખંડ અન્યજીવથી બંધાશે અને અન્યજીવ સંબંધી ખંડતે જીવથી બંધાશે તો તે સમયે તે જીવનમાં સુખ વિગેરે તેમાં પ્રાપ્ત થઈ જશે અને તેનાં તે બીજામાં મળી જઈને પ્રાપ્ત થશે. આ પ્રકારે પરસ્પરમાં સમસ્ત જીવોને સુખાદિક ગુણોમાં સંકરતાની આત ઉભી થશે તેનાથી તે એકના કરેલાં કર્મને વિનાશ અને બીજાના કર્યા વિનાના કમને ઉપગ પણ માનવો પડશે. બીજા પણ અનેક દેષ આ પ્રકારની માન્યતાથી ઉભા થાય છે. રેહગુપ્ત ફરીથી કહ્યું-જે જીવના છેદનને સ્વીકાર કરવામાં આવે તો જ સર્વજીવનમાં સુખાદિકને પરસ્પરમાં સાંકર્યું અને કૃતકર્મનાશ કરેલાં કર્મ નીષ્ફળ જાય અને અમૃતકર્મનું આગમન-નહીં કરેલાં કમ ઉદયમાં આવે વિગેરે દોષ લાગે છે માટે પર્યાય છેદરૂપ જીવને નાશ માન ન જોઈએ. ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #807 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययनसूत्रे आचार्यो वदति - यदि जीवप्रदेशो नोजीव इति मन्यसे तदा प्रतिप्रदेशं arter: सन्तीत्येकस्मिन्नात्मनि असंख्याता नोजीवाः स्युः, ततः सर्वेषामपि जीवानां प्रत्येकमसंख्यातनोजीवत्वप्रसङ्गात् तव मते क्वापि जीवो न स्यात् । ७५२ किंच - एवमजीवा अपि धर्मास्तिकायादयः द्वणुकस्कन्धादयो घटादयश्च प्रतिप्रदेश भेदात् अजीवैकदेशत्वात् तव मते सर्वे नोअजीवा भवेयुः घटैकदेशनोघटवदिति ततः क्वाप्यजीवो न स्यात्, परमाणूनामपि पुद्गलाऽस्तिकायरूपाऽजीदिकों का एक देश नोधर्मास्तिकाय माना जाता है उसी तरह जीव से अपृथक्रभूत एवं जीव से संबद्ध भी जीवदेश नोजीव माना जाय तो इसमें आप को क्या आपत्ति है ? । इस पर आचार्य महाराज ने कहा कि यदि एक जीवप्रदेश को नोजीव मानोगे तो प्रत्येक प्रदेश में बहुत जीव मानना पडेगा, इस प्रकार एक ही आत्मा में असंख्यात प्रदेश होने से असंख्यात नोजीव मानने का प्रसंग प्राप्त होगा । अतः प्रत्येक जीव में असंख्यात नोजीवत्व के प्रसंग से कहीं पर भी जीव नहीं हो सकेगा । और भी इसी तरह अजीव भी धर्मास्तिकायादिक तथा दधणुकस्कंधादिस्वरूप घटादिक प्रतिप्रदेश के भिन्न होने की वजह से तथा अजीव के एकदेश होने से तुम्हारे मतानुसार नोअजीव मानने पडेंगे, जिस प्रकार घट का एक देश नोघट माना जाता है। इसलिये कहीं पर भी पूर्ण अजीव संभवित नहीं हो सकेगा - सब ही अजीव पदार्थ नोअजीब ही मानने पडेंगे। पुद्गलास्तिकाय के एक देश होने से પરંતુ જે પ્રકારે ધર્માસ્તિકાય વિગેરેના એક દેશ નાધર્માસ્તિકાય માનવામાં આવે છે, તેવી રીતે જીવથી અપૃથક્ભૂત અને જીવથી સમૃદ્ધ એવા જીવ દેશ નાજીવ માનવામાં આવે તે તેમાં તમને શું વાંધા છે? આચાય મહારાજે રાહગુપ્તને જવાખ વાળ્યેા કે–જો એક જીવ પ્રદેશને નાજીવ માનશે તેા પ્રત્યેક પ્રદેશમાં ઘણા જીવ માનવા પડે તે એ પ્રકારે એકજ આત્મામાં અસંખ્યાત પ્રદેશ હાવાથી અસ ખ્યાત નાજીવ માનવાના પ્રસંગ પ્રાપ્ત થશે આથી પ્રત્યેક જીવમાં અસ`ખ્યાત નાજીવત્વના પ્રસંગથી કાઈ પણ સ્થળે જીવની શકયતા રહેશે નહી'. આ રીતે અજીવ પણ ધર્માસ્તિકાયાદિક તથા ધૈયણુક ( એ અણુના ) સ્કંધાદિ સ્વરૂપ ઘટાદિક પ્રતિપ્રદેશના જુદા થવાના કારણે તથા અજીવને એક દેશ હોવાથી તમારા મત અનુસાર નાઅજીવને માનવુ પડશે, એવી રીતે ઘટના એક દેશ નઘટ માનવામાં આવે છે. આ માટે કોઈ સ્થળે પણ પૂર્ણ ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર ઃ ૧ Page #808 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रियदर्शिनी टीका अ० ३ गा. ९ गुप्ताचार्यरोहगुप्तयोर्वादः ७५३ वैकदेशत्वेन तव मते नोअजीवत्वात् सर्वत्र नोअजीवानामेव संभवात् । ततश्च राजसदसि राशियनिरूपणं तव कथं संभवति नोजीव-नोअजीवलक्षणराशिद्वयस्यैव सद्भावात् । तस्माद् बहुदोषप्रसङ्गान्न जीवश्छिद्यत इति स्थितम् । किंच-छिद्यतां वा जीवस्तथापि-नोजीवो न सिध्यति, तथाहि-गृहगो. धिकादिजीवः पुच्छाद्यवयवच्छेदेन छिन्नोऽपि भवतु तथापि जीवलक्षणस्य स्फुरणादेः सद्भावात् पुच्छादिदेशः कथं नोजीवः स्यात् । संपूर्णोऽपि गृहगोधिकाजीवः स्फुरणादिलक्षणैरेव जीव इत्युच्यते, तानि स्फुरणादीनि छिन्ने पुच्छाद्यवयवे परमाणुओं को भी तुम्हारे मतानुसार नोअजीव माना जायगा। इस प्रकार सर्वत्र नोअजीव की ही संभवता होगी। फिर राशित्रय की कल्पना भी अस्तंगत हो जाने से राजसभा में जो तुमने राशित्रय की प्ररूपणा की है वह सुसंगत कैसे मानी जा सकेगी ? क्यों कि इस प्रकार के निरूपण से तो नोजीव एवं नोअजीव ये दो ही राशियों का सद्भाव ख्यापित होता है। इसलिये जीव के छेद में अनेक दोषों का सद्भाव आता है अतः उसका छेद नहीं मानना चाहिये। ___ अथवा-जीव का छेद रहे तो भी नोजीव सिद्ध नहीं हो सकता है-गृहगोधिकादिक का जीव पुच्छादिक अवयव के छेद से भले ही छिन्न हो आवे तो भी उसमें जीव के लक्षणरूप स्फुरण आदि के सद्भाव से वह पुच्छादिदेश नोजीव कैसे हो सकता है ? गृहगोधिका में संपूर्ण जीव है यह बात जीव के अविनाभावी स्फुरणादिकों द्वारा ही तो जानी અજીવ સંભવિત બનશે નહીં–સઘળા અજીવ પદાર્થને અજીવ જ માનવા પડશે પુદ્દગલાસ્તિકાયને એકદેશ હોવાથી પરમાણુંઓને પણ તમારા મત અનુસાર અજીવ માનવે પડશે. આ પ્રકારે સર્વત્ર નેઅજીવની જ સંભવતા રહેશે, પછી ત્રણ રાશીની પણ કલ્પના અસંગત થઈ જવાથી રાજસભામાં તમે જે ત્રણ રાશીની પ્રરૂપણ કરી છે, તે સુસંગત કઈ રીતે માની શકાશે ? કેમકે, આ પ્રકારના નિરૂપણથી તે જીવ અને અજીવ એ બેજ રાશીઓને સદભાવ સ્થાપિત થાય છે, આથી જીવના છેદમાં અનેક દેને સદ્ભાવ આવે છે માટે તેને વિચ્છેદ ન માનવે જોઈએ. અથવા-જીવને છેદ રહે તે પણ જીવ સિદ્ધ થતું નથી–ગોળીને જીવ પૂછડી વિગેરે અવયના છેદથી ભલે છિન્ન થઈ જાય તે પણ તેમાં જીવના લક્ષણરૂપ ફુરણ વિગેરેના સદ્દભાવથી તે પૂંછડી વિગેરે દેશ નિજીવ કઈ રીતે થઈ શકે? ગળીમાં સંપૂર્ણ જીવ છે એ વાત જીવના અવિનાભાવી (સર્વદા અસ્તિત્વવાળા) રકુરણ વિગેરે દ્વારા તે જાણી શકાય છે. સંપૂર્ણ કહેવાને उ० ९५ ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર: ૧ Page #809 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७५४ उत्तराध्ययनसूत्रे दृश्यन्ते, जीवलक्षण युक्तत्वाज्जीव एव भवितुमर्हति न तु नोजीव इति कल्पना । रोहतोवदति - जीवलक्षणसद्भावेऽपि पुच्छादिकस्य तदवयवस्य नोजीवत्वमिष्यते । आचाय वदति तर्हि अजीवस्यापि घटादेर्देशो नोअजीवः स्यात् जीवैकदेशनोजीववत् । रोहगुप्तो वदति - अस्त्वेवम्, मम न किंचिव विनश्यतीति । आचार्यः प्राह एवं स्वीक्रियमाणे ये भवता त्रय एव राशयः स्वीक्रियन्ते, - जाती है। संपूर्ण का तात्पर्य उसके अपने शरीर बराबर असंख्यात प्रदेशी जीव से है । पुच्छादिकों के छिन्न होने पर यही जीव स्फुरणादि लक्षणों से वहाँ पुच्छ में भी जाना जाता है। ऐसी बात तो है नहीं कि गृहगोधिका के शरीर में कुछ जीव है, और उसकी छिन्न पुच्छ में कुछ जीव है। जीव तो एक ही है। यदि ऐसा होता तो उसे नोजीव मानने में कोई अनौचित्य नहीं था । परन्तु ऐसा तो है नहीं, क्यों कि जीव को अमूर्त होने से उसको छेद नहीं होता है, अतः उसे नोजीव नहीं कह सकते हैं। रोहगुप्त ने पुनः आचार्य महाराज से कहा- माना जीव का लक्षण छिन्नादिक अवयवों में है तो भी उन छिन्नपुच्छादिक अवयवों को हम नोजीव ही मानेंगे। तब आचार्यने कहा - तो फिर जीव के एकदेश नोजीव की तरह अजीव घटादिक के देश को भी नोअजीव मानना पडेगा । रोहगुप्तने कहा- हां मान लेंगे, इसमें क्या हानि है ? | આશય એના પેાતાના શરીરની બરાબર અસંખ્યાત પ્રદેશી જીવથી છે. પૂ છડી વિગેરેનું છેદન થવાથી તેજ જીવ સ્ફુરણાદિ લક્ષણાથી ત્યાં પૂંછડીમાં પણ જાણુવામાં આવે છે. એવી વાત તા નથી કે, ગાળીના શરીરમાં કોઇ એક જીવ છે અને તેની કપાયેલ પૂછડીમાં કાઇ બીજો જીવ છે? જીવતા એક જ છે. જો એમ હાત તા તેને નાજીવ માનવામાં કોઈ હરકત ન હતી. પરંતુ એવું તા છે જ નહીં, કેમકે, જીવનું અમૂ પણું હાવાથી તેના છેદ થતા નથી. આથી તેને નાજીવ કહી શકાય નહી. રાહગુપ્તે ફ્રી આચાય મહારાજને કહ્યું ધારો કે જીવતુ' લક્ષણ છેદાયેલા અવ ચવામાં છે તે પણ તે છેદાયેલી પૂછડી આદિ અવયવને હું નાજીવ જ માનીશ ત્યારે આચાયે કહ્યું કે, તે પછી જીવના એક દેશ નેાજીવની માફક અજીવ ઘટાદિકના દેશને પણ અજીવ માનવા પડશે. રાહગુપ્તે કહ્યું, हा! मानी बशि. तेमां शुं तुम्शान थवानुं छे ? मायायें ह्यु-नुशान भ ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર ઃ ૧ Page #810 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रियदर्शिनी टीका अ० ३ गा. ९ गुप्ताचार्यरोहगुप्तयोर्वादः ७५५ ते तु नोपपद्यन्ते, किन्तु चत्वारो राशयस्तव मते स्युः, तद् यथा जीवाः, अजीवाः, नोजीवाः, नोअजीवाश्चेति । रोहगुप्तो वदति-अजीवस्यैकदेशः स्कन्धात् पृथगभूतोऽपि अजीव एवं, न तु नोअजीवः अजीवसमानजातिलिङ्गवत्वात् , तत्राजीवत्वं जातिः, पुल्लिङ्गलक्षणं च लिङ्गं, एतद् द्वयमपि अजीव-तद्देशयोः समानमेवास्ति, अतस्तद्देशोऽप्यजीव एव, न तु नोअजीव इति भवितुमर्हति । आचार्यः प्राह-यद्येवं तर्हि जीवदेशोऽपि जीवसमानजातिलिङ्गवत्त्वात जीव एवं स्यात् , न तु नोजीव इति, तथा च त्वदुक्तं राशित्रयं न सिध्यति ।। आचार्य ने कहा-हानि क्यों नहीं है। सब से बड़ी हानि है और वह यही है कि तुम जो तीन राशियां माननी चाहते हो उनकी जगह चार राशियां माननी पडेगी-१ जीव, २ अजीव, ३ नोजीव, ४ नोअजीव । रोहगुप्त ने कहा-अजीवराशि ही मानी जायगी नोअजीव राशि नहीं, कारण कि अजीव का एक देश स्कंध से पृथकूभूत होने पर भी अजीव ही कह लायगा, नोअजीव नहीं, क्यों कि उसकी अजीव के समान ही जाति एवं लिङ्ग है इसलिये, अजीवत्व जाति एवं पुल्लिङ्गलक्षण लिङ्ग, ये दोनों अजीव की तरह अजीव के एकदेश में भी रहते हैं। इसलिये नोअजीव वह नहीं कहा जायगा। . आचार्य ने कहा-ठीक है, यदि ऐसा ही है तो जीव का एकदेश भी जीवसमान जाति एवं लिङ्ग से विशिष्ट होने की वजह से जीव ही कहलायेगा नोजीव नहीं । अतः राशित्रय की मान्यता उचित नहीं है। નથી? ઘણું ભારે નુકશાન છે. અને તે એ છે કે તમે જે ત્રણ રાશીઓને માન્ય કરો છો તેની જગાએ ચાર રાશી માનવી પડશે. ૧ જીવ, ૨ અજીવ, ૩જીવ, અને અજીવ. રહગુપ્ત કહ્યું–અજીવ રાશી જ માનવામાં આવશે પણ અજીવ રાશી નહીં. કારણ કે, અજીવને એક દેશ સ્કંધથી પૃથફભૂત હોવાથી તે પણ અજીવ જ કહેવાશે, પરંતુ અજીવ નહીં કહેવાય, કેમકે, તેને અજીવની માફક જ જાતી અને લિંગ છે અજીવત્વ જાતી અને પુલ્લિગલક્ષણ લિંગ એ બને અજીવની માફક અજીવના એકદેશમાં પણ રહે છે. આથી તેને અજીવ ન કહી શકાય. આચાર્યે કહ્યું–ઠીક છે, જે એમ જ છે તે જીવને એકદેશ પણ જીવ સમાન, જાતી અને લિંગથી વિશિષ્ટ હોવાથી જીવ જ કહેવાય પણ જીવ નહીં. આથી તમારી ત્રણ રાશીની માન્યતા એગ્ય નથી. ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #811 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७५६ उत्तराध्ययनसूत्रे किञ्च-गृहगोधिकादिजीवावयवः पुच्छादिकश्छिन्नोऽपि जीव एव, स्फुरणादितल्लक्षणयुक्तत्वात् , यथा संपूर्णोऽच्छिन्नगृहगोधिकादिजीवः । तत्र पुच्छादिके तदवयवे देश एवेति कृत्वा जीवत्वं न मन्यसे संपूर्णस्यैव तव मते जीवत्वात् , तदा पुनरजीवस्यापि घटादेर्देशो नैवाजीवः स्यात् , संपूर्णस्यैवाजीवत्वात् । ततश्च अजीवदेशोऽपि 'नोअजीव' एवं स्यानत्वजीवः। तथा-सति स एवं राशि चतुष्टयप्रसङ्गः। ___ यदुक्तं समभिरूढनयानुसारेण जीवप्रदेशो 'नोजीव' इत्युच्यते, तद्प्ययुक्तम्-"जीवे य से पएसे य, से पएसे नोजीवे ।" ___ और भी-सजीव गृहगोधिकादि के अवयव जो पुच्छादिक हैं वे छिन्न भी हो गये हों तो भी जबतक उनमें स्फुरणादिक क्रिया होती रहती है तबतक वे जीव ही हैं जैसे संपूर्ण अच्छिन्न गृहगोधिका जीव है। यदि उसका छिन्न पुच्छादिक उसका अवयव है-एकदेश है, ऐसा मान कर उसे पूर्ण जीव न माना जाय और संपूर्ण को ही जीव माना जाय तो इस प्रकार की मान्यता से ३ राशि की जगह पूर्वोक्त चार राशियां माननी पडेगी १ जीव, २ अजीव, ३ नोजीव, ४ नोअजीव, क्यों कि जिस प्रकार जीव का एकदेश नोजीव माना जाता है, उसी प्रकार अजीव घटादिकका भी एकदेश नोअजीव मानना चाहिये । तथा जो पहिले यह कहा है कि समभिरूढनय के अनुसार जीवप्रदेश नोजीव कहा जाता है सो यह भी कथन ठीक नहीं है-"जीवे य से पएसे य. से पएसे नोजीवे" छाया-जीवश्च स प्रदेशश्च, स प्रदेशो સજીવ ગળીના અવયવ પૂંછડી વિગેરે જે કપાઈ ગયા હોય તે પણ જ્યાં સુધી તેમાં સ્કૂરણાદિક ક્રિયા થતી રહે છે ત્યાં સુધી તે જીવ જ છે. જે પ્રમાણે સંપૂર્ણ છેદાયા વગરની ગરોળીમાં જીવ છે તે પ્રમાણે જે તેની છેડાયેલ પૂછડી વગેરે તેનું અવયવ છે, એક દેશ છે એવું માનીને તેને પૂર્ણ જીવ ન માનવામાં આવે અને સંપૂર્ણને જ જીવ માનવામાં આવે તે આ પ્રકારની માન્યતાથી ત્રણ રાશીની જગાએ આગળ કહ્યા પ્રમાણે ચાર રાશીઓ જ માનવી પડશે, જીવ, અજીવ, ૩ને જીવ, અને અજીવ. કેમકે, જે પ્રકારે જીવને એક દેશ ને જીવ માનવામાં આવે છે એજ પ્રકારે અજીવ ઘટાદિકને પણ એકદેશ ના અજીવ માનવે પડશે. તથા પહેલાં જે એવું કહ્યું છે કે, સમભિરૂઢનયના અનુસાર જીવપ્રદેશ નેજીવ કહેવામાં આવે છે, તે એ કથન પણ ઠીક નથી. " जीवे य पएसे य, से पए से नोजीवे" छाया-" जीवश्च स प्रदेशश्च, स ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #812 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रियदर्शिनी टीका. अ०३ गा.९ गुप्ताचार्य रोहगुप्तयोर्वादः ७५७ __ छाया-जीवश्च स प्रदेशश्च स प्रदेशो नोजीवः । इत्यनुयोगद्वारोक्तसूत्रालापके समभिरूढनयोऽपि त्वदभिमतं जीवप्रदेशं नोजीवत्वेन नावबोधयति । तथाहि-समभिरूढनयो देशदेशिनोः कर्मधारयलक्षणं समानाधिकरणमेव समासं ब्रवीति न तु नैगमादिरिव तत्पुरुषम् । समानाधिकरणसमासश्च नीलोत्पलादीनामिव विशेषणविशेष्ययोर्भेद एव भवति । अतो ज्ञायते - जीवादन्यरूप एव देशो 'नोजीव' इति । एवं जीवनोजीवयोरभेदे तृतीयराशिस्तव न सिध्यति । जीवश्चासौ प्रदेशश्च जीवप्रदेशः, स एव जीवादव्यतिरिक्तो जीवप्रदेशो नोजीव इति समभिनोजीक" अनुयोगदार में उक्त इस सूत्रालापक में समभिरूढनय भी तेरे माने हुए जीवके प्रदेशको नोजीवपने प्रतिबोधित नहीं करता है। समभिरूढनय देश और देशी में कर्मधारयलक्षणवाले समानाधिकरण समास को ही बतलाता है, नैगमादिक नय की तरह तत्पुरुष समास को नहीं। यह समानाधिकरणसमास नीलोत्पल-नील एवं उत्पल आदिकोंकी तरह विशेषण और विशेष्यमें अभेद होने पर ही होता है। अतः जब "जीवदेश" यहां यह समास है तो इससे यह स्वतः ही ज्ञात होता है कि जीव और देश में परस्पर में अभिन्नता है। इसलिये जीव से अनन्य रूप ही देश नोजोच है । इस प्रकार जीव और नोजीव का अभेद होने से यह तुम्हारी मानी हुई नोजीवरूप तृतीय राशि सिद्ध नहीं होती है । " जीवश्चासौ प्रदेशश्च जीवप्रदेशः" इस प्रकार समानाधिकरणता इनमें है, अतः जीव से अव्यतिरिक्त जीवप्रदेश प्रदेशो नोजीवः " मनुयामा ४ामा मावेस ॥ सूत्रादायमा समलिરૂઠનય પણ તમારા માનેલા જીવના પ્રદેશને નજીવપણાથી બતાવતા નથી. સમભિરૂઢનય દેશ અને દેશમાં કર્મધારય લક્ષણવાળા સમાન અધિકરણ સમા. સને જ બતાવેલ છે. નૈગમાદિકનયની માફક તત્પરૂષ સમાસને આ સમાન અધિકરણ સમાસ નીલેમ્પલ–નીલ અને ઉત્પલ વિગેરેની માફક વિશેષણ અને વિશેષ્યમાં અભેદ હેવાથી જ થાય છે. આથી જ્યારે “છવદેશ” એ આ સમાસ છે તે આથી એ આપમેળેજ જાણી શકાય છે કે, જીવ અને દેશમાં પરસ્પરમાં અભિન્નતા છે. માટે જ જીવથી અનન્યરૂપ દેશ જ જીવ છે આ પ્રકારે જીવ અને જીવને અભેદ હોવાથી તમારી આ માનેલી છવરૂપ ત્રીજી राशी सिद्ध शती नथी. “ जीवश्चासौ प्रदेशश्च जीवप्रदेशः” मा आरनु સમાન અધિકરણતાઆમાં છે. આથી જીવથી અવ્યતિરિક્ત જીવ પ્રદેશ જ જીવ છે. ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #813 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययनसूत्रे रूढनयेन बोध्यते, न तु जीवदलं जीवात् पृथग् भूतं तत्खण्डं नोजीव इति त्वदभिमतम् । समभिरूढनयप्रतिबोधितस्य नोजीवस्य जीवराशावन्तर्भावात् तृतीयराशिस्तव न सिध्यति । एवं वादप्रतिवादाभ्यां तयोः षण्मासा व्यतीताः तदा राज्ञाऽभिहितम्-मम राजकार्य नश्यति, भवतां वादसमाप्तिर्न जाता, अतः परं संक्षेपेण वादं समापयन्तु भवन्तः। आचार्येणोक्तम्-अस्मिन् वादे निर्णय श्वः करिष्यामि, ततः प्रभाते राजादिही नोजीव है, उससे व्यतिरिक्त जीवप्रदेश नोजीव नहीं है, इस प्रकार का अभिप्राय इस समभिरूढनय का है। इससे यह बात बोधित नहीं होती है कि-जीव से पृथक्भूत जीव का खंड नोजीव है। इसलिये समभिरूढनय से प्रतिबोधित नोजीव जीवराशि में अन्तर्भूत होने से तुम्हारे द्वारा कथित तृतीय नोजीवराशि सिद्ध नहीं होती है। __ इस प्रकार जब गुरुशिष्य में वाद विवाद होते २ छह मास व्यतीत होगये तब राजा ने कहा-देखो-आप के इस वादविवाद में उपस्थित रहने के कारण मेरे द्वारा राज्य का काज यथावत् संचालित नहीं हो रहा है तथा पता नहीं कि आप लोगों का यह वादविवाद भी कबतक चले अतः मैं आप लोगों को यह अर्ज करता हूं कि-संक्षेप से अब आपलोग वाद विवाद करें और शीघ्र इसे समाप्त करें। ___ आचार्य ने कहा-इस वाद का निर्णय कल ही कर दिया जायगा। એનાથી વ્યતિરિક્ત જીવપ્રદેશ નેજીવ નથી. આ પ્રકારને અભિપ્રાય આ સમભિરૂઢનયને છે. એનાથી એ વાત ચોક્કસ થતી નથી કે, જીવથી પૃથભૂત જીવન ખંડ જીવ રાશીમાં અંતર્ભત થવાથી તમારી કહેલી ત્રીજી જીવ રાશી સિદ્ધ થતી નથી. આ પ્રકારે જ્યારે ગુરુશિષ્ય વચ્ચે વાદવિવાદ થતાં થતાં છ માસ પુરા થયા ત્યારે રાજાએ કહ્યું, જુઓ! આપના આ વાદવિવાદમાં હાજર રહેવાના કારણે મારા રાજ્યનું કામકાજ મારાથી જોઈએ તેવું સંચાલિત થતું નથી. તથા એ પણ જાણી શકાતું નથી કે, આપને આ વાદવિવાદ કયાં સુધી ચાલશે? માટે હું આપ લેકેને અરજ કરૂં છું કે, ટુંકાણમાં વાદવિવાદ કરે અને જલદી पूरे। 3. આચાર્યે કહ્યું-આ વાદને નિર્ણય કોલેજ કરી લેવામાં આવશે. આ ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #814 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७५९ प्रियदर्शिनी टीका अ० ३गा. ९ गुप्ताचार्येणरोहगुप्तस्य पराजयः जनपरिवृतः स आचार्यः कुत्रिकापणे समागतः । यत्र त्रैलोक्यवर्तिनः पदार्थाः क्रयविक्रयव्यवहारार्थं सन्ति स कुत्रिकापण इत्युच्यते । तत्र धनिकं प्रति स आचार्य: प्राह-' जीवान् देहि ' इत्युक्ते सति तत्र तद्धनिकेन कुमारकुमारीहस्त्यश्वादय अनेके जीवाः प्रदर्शिताः । ततः पुनस्तेनाचार्येणोक्तम् - अजीवान् देहि, इत्युक्ते सति घटपटादयः पदार्थाः प्रदर्शिताः । ततो 'नोजीवान् देहि ' इत्याचार्येणोक्ते कुत्रिकापणधनिकः माह - ' न सन्ति लोकत्रये नोजीवाः ' यद् वस्तु लोकत्रये भवति, तदेव कुत्रिकापणे भवति नान्यत् । तदा स श्री गुप्ताचार्यों रोहगुप्तमाह – जीवाजीवल इस प्रकार कह कर वे दूसरे दिन प्रातःकाल राजा आदि पुरजन से परिवृत होकर कुत्रिकापण - कुतियावण की दुकान पर पहुँचे जहाँ तीनलोक के समस्त पदार्थ क्रय विक्रयरूप व्यवहार के निमित्त रखे हुए थे। पहुँचते ही आचार्य महाराज ने दुकान के मालिक से कहा- जीव को दो, आचारूप ग्राहककी बात सुनकर उस दुकानदारने उन्हें कुमार, कुमारी, हाथी, घोड़े आदि समस्त जीव दिखला दिये। देखनेके बाद आचार्यने पुनः उस दुकानदार से कहा कि जीव तो देख लिये अब अजीवों को भी दिखलाओ, आचार्य महाराज की बात सुनकर दुकानदारने अजीवों को भी घट, पटादिक अजीवपदार्थों को भी दिखला दिया। देखकर पुनः आचार्य महाराज ने कहा- ये भी देखलिये अब नोजीवों को और दिखला दिजिये क्यों कि उनकी भी आवश्यकता है। दुकानदार आचार्य महाराज की इस बात को सुनकर उनसे कहने लगा- महाराज आप क्या कहते हैं પ્રકારે કહીને તે બીજા દિવસે પ્રાતઃકાળે રાજા વગેરે નગરવાસીઓના સમૂહ સાથે કુતિયાવણની (જ્યાં ત્રણે લેાકની ચીજો મળી શકે તેવી છે ) દુકાને પહેાંચ્યા. જ્યાં ત્રણે લેાકના સઘળા પદાર્થ વેચાતા હતા. ત્યાં પહેાંચતાં જ આચાર્ય મહારાજે દુકાનના માલીકને કહ્યું-જીવ આપે!! આચાય મહારાજની ગ્રાહક રૂપે આ વાત સાંભળીને દુકાનદારે તેમને કુમાર, કુમારી, હાથી, ઘેાડા આદિ સર્વ જીવા અતાવ્યા. તે જોયા પછી આચાર્યે ક્રીથી એ દુકાનદારને કહ્યુ` કે, જીવ તા જોઈ લીધા હવે અજીવ ખતાવા. આચાય મહારાજની વાત સાંભળીને દુકાનદારે અજીવ એવા ઘટ પાર્દિક અજીવ પદાર્થો પણ બતાવ્યા. એ જોયા બાદ ક્રીથી આચાય મહારાજે કહ્યું–કે, એ પણ જોઇ લીધા. હવે નાજીવ બતાવેા. કેમકે, તેની પણ જરૂરત છે. દુકાનદાર આચાય મહારાજની આ વાત સાંભળીને તેમને કહેવા લાગ્યા–મહારાજ આપ શું ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર ઃ ૧ Page #815 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७६० उत्तराध्ययनसूत्रे क्षणौ द्वावेव राशी, न तु तृतीयः, असत्त्वात् , खरविषाणवत् ।। एवं श्रीगुप्ताचार्येणोक्ते सति रोहगुप्तः पराजितः सन् 'अयं निहवः' इति कृत्वा जनैर्निन्दितः सन् राजसभातो निःसारितः। श्रीगुप्ताचार्यस्तु तस्मानरेन्द्रात् सर्वलोकाचोत्तमं सत्कार प्राप्तवान् । रोहगुप्तेन वैशेषिकमतं प्रकटीकृतं, षट् पदास्तेि नैव प्ररूपिताः, षडुलूकः स उच्यते ॥ ॥ इति षष्ठनिह्नव दृष्टान्तः ॥ ६ ॥ नोजीव तो लोकत्रय में भी नहीं हैं । इस कुत्रिकापण में वही चीज रहती है जो तीनलोक में होती है। जो इस में नहीं है समजो वह तीनलोक में कहीं पर भी नहीं है। दुकानदारकी इस बातको सुनकर आचार्य महाराज ने रोहगुप्त से कहा-सुना यह क्या कह रहा है ? यह कह रहा है कि जीव और अजीव ये दो ही राशि हैं, तीसरी नोजीव राशि खरविषाणकी तरह असत्त्व होनेसे नहीं है। इस प्रकार जब श्रीगुप्ताचार्यने कहा तब "रोहगुप्त पराजित हो गया है " ऐसा समझकर लोगों ने उस को निहव मानकर राजसभासे बाहर कर दिया, तथा उसकी निंदा भी वे लोग करने लगे। श्रीगुप्ताचार्यका लोगों ने एवं राजाने विशेष अभिनंदन करते हुए खूब सत्कार किया। गच्छ से बहिष्कृत होकर रोहगुप्तने वैशेषिक मत को चलाया, उसमें उसने भावात्मक छह पदार्थों की प्ररूपणा की इसी से इसका दूसरा नाम षडुलूक भी हो गया। ॥यह छठे षडुलूक (रोहगुप्त) निह्नव का दृष्टान्त हुआ॥ ६॥ કહે છે? જીવ તે ત્રણે લેકમાં પણ નથી. જે ચીજે ત્રણે લોકમાં અસ્તિત્વ ધરાવે છે તે સઘળી મારી દુકાને મળશે. જે ચીજ મારે ત્યાં ન મળે તે સમજી લેજો કે જે અહીં નથી. એ ચીજે ત્રણે લોકમાં કયાંય હશે નહિ, માટે તમને નહીં મળે. દુકાનદારની આ વાતને સાંભળીને આચાર્ય મહારાજે રહગુપ્તને કહ્યું-સાંભળ્યું! આ શું કહે છે? એ કહે છે કે, જીવ અને અજીવ એ એજ રાશી છે. ત્રીજી નાજીવ રાશી ગધેડાનાં શીંગડાંની માફક તેનું અસ્તિત્વ ન હોવાને કારણે તે નથી. આ પ્રકારે જ્યારે શ્રી ગુણાચાર્યે કહ્યું ત્યારે બહગુસ હારી ગયે.” એવું માનીને લેકેએ તેમને નિહ્નવ સમજી રાજસભામાંથી કાઢી મૂક્યા અને તેની નિંદા પણ કરવા લાગ્યા. લેકેએ અને રાજાએ શ્રી ગુણાચાર્યને અભિનંદન આપી ખૂબ સત્કાર કર્યો. રોહગુપ્ત ગચ્છથી બહિષ્કૃત થઈને વૈશેષિક મતની સ્થાપના કરી. તેમાં તેણે ભાવાત્મક છ પદાર્થોની પ્રરૂપણા કરી. તેનાથી તેનું બીજું નામ ષડુલુક પણ પડયું. ॥ २॥ पडसू ( शुस) निस्पनु दांत थयु.॥६॥ ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #816 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रियदर्शिनी टीका अ० ३ गा. ९ सप्तमनिह्नवगोष्ठमाहिलदृष्टान्तः ७६१ अथ सप्तमनिह्नवगोष्ठमाहिलदृष्टान्तः प्रोच्यते भगवतः श्रीमहारवीस्वामिनो निर्वाणसमयाचतुरशीत्यधिकपञ्चशत ५८४ वर्षेषु व्यतीतेषु दशपुरे नगरे इक्षुगृहनामकोधाने आर्यरक्षितनामक आचार्यः समायातः। तस्य त्रयः शिष्या आसन्-गोष्ठमाहिलः१, फल्गुरक्षित:२, दुर्बलिकापुष्पश्चेति ३। इतश्च मथुरानगर्यामक्रियावाद उत्थितः । तत्र तन्मतं निराकर्तुं कोऽपि प्रतिवादी नाभूदिति तत्रस्थसंघेन स आयरक्षिताचार्यों विज्ञापितः। आर्यरक्षिताचार्यस्तदा गोष्ठमाहिलं वादलब्धिमन्तं मत्वा तमेव सशिष्यं मथुरायां प्रेषितवान् । तेन तत्र गत्वा राज्ञः सदसि तमक्रियावादिनं चावाकं वादे निरुत्तरीकृतवान् । सातवें गाष्ठमाहिल निह्नव की कथा इस प्रकार है श्री वीर प्रभु को निर्वाण प्राप्त हुए पांचसौ चोरासी ५८४ वर्ष जब व्यतीत हो चुके तब दशपुर नगर में इक्षुगृह नाम के बगीचे में आर्यरक्षित आचार्य महाराज आये। इनके तीन शिष्य थे-१ गोष्ठमाहिल, २ फल्गुरक्षित, ३ दुर्बलिकापुष्प । इसी समय मथुरा नगरी में अक्रियावाद का प्रचार हो रहा था। इस प्रचार को रोकने के लिये वहां कोई भी प्रतिवादी बनने को तयार न हुआ अतः वहां के श्रीसंघ ने आचार्य आर्यरक्षित महाराज को इस की खबर दी। आचार्य महाराज ने वादलब्धि से युक्त गोष्ठमाहिल को जानकर सशिष्य उनको ही मथुरा नगरी भेज दिया। गोष्ठमाहिल ने पहुँचते ही राजसभा में उपस्थित होकर अक्रियावादी उस चार्वाकको बाद में परास्त कर दिया। गोष्ठमाहिल की विद्वत्ता से वहां की जनता बड़ी ही प्रसन्नचित्त हुई। जनता સાતમા ગઠામાહિલ નિદ્ભવની કથા આ પ્રકારની છે– શ્રી વિરપ્રભુને નિર્વાણ પામે પાંચસે ચોર્યાશી વર્ષ વીતી ચુક્યાં એ સમયે દશપુર નગરમાં ઈક્ષગૃહ નામના બગીચામાં આર્ય રક્ષિત આચાર્ય મહારાજ પધાર્યા. તેમને ત્રણ શિષ્ય હતા. (૧) ગેષ્ઠમહિલ, (ર) ફલ્યુરક્ષિત, (૩) દુર્બલિકાપુ૫. આ સમયે મથુરાનગરીમાં અક્રિયાવાદને પ્રચાર થઈ રહ્યો હતો. આ પ્રચારને રોકવા માટે ત્યાં કઈ પણ પ્રતિવાદી બનવા તૈયાર ન થયું ત્યારે ત્યાંના શ્રીસંઘે આચાર્ય આર્ય રક્ષિત મહારાજને તેના ખબર પહોંચાડ્યા. આચાર્ય મહારાજે આ માટે વાદલબ્ધિથી યુક્ત એવા ગોષ્ઠમાહિલને શિષ્ય સાથે મથુરા નગરીમાં મોકલ્યા. ગેસ્ડમાહિલે ત્યાં પહોંચીને તુરત જ રાજસભામાં હાજર થઈ અક્રિયાવાદી એવા ચાર્વાકને વાદવિવાદમાં હરાવી દીધો. ગેષ્ઠમાહિલની વિદ્વતાથી ત્યાંની જનતા ખૂબ પ્રસન્ન થઈ उ० ९६ ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #817 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - ___ उत्तराध्ययनसूत्रे ततो मथुरानगरनिवासिभिः श्रावकैः सादरं गोष्ठमाहिलः सन्मानितः स्वगुरोः समीपे गन्तुकामोऽभवत् । परंतु तत्रत्यसंघस्याग्रहवशाद् वर्षाचतुर्मास्यां तत्र स्थितः। इतश्च विश्ववन्दितः श्रीआयरक्षिताचार्यः स्वमरणसमयमासन्नं ज्ञात्वा चिन्तयति-योग्य एवं शिष्यः स्वपट्टके स्थापनीयः, अतः सर्वान् मुनीन् सर्वसंघं च पृच्छामि, इति चिन्तयित्वा स सर्वान् मुनीन् सर्वसंघं च समाहूय वल्लतैलघृतकुम्भदृष्टान्तान् वदति-यथा चणकसंभृतं कुम्भं रिक्तीकर्तुं अधोमुखीकृतात् तस्मात् कुम्मात् तदन्तर्गताः सर्वे चणकाः सत्त्वरं निर्यान्ति, एवं दुर्बलिकापुष्पस्य सूत्रार्थदाने वल्लने इनका खूब आदर सत्कार किया। कुछदिन वहां ठहरकर गोष्ठमाहिल ने अपने गुरु महाराज के पास आने का विचार किया। ज्यों ही ये गुरु महाराज के पास आने को तैयार होने लगे कि वहां के संघ ने इनको विशेष आग्रहकर अपने ही यहां ठहरा लिये। इतने में वर्षाकाल आगया। श्री संघ की विनंति से इन्हों ने वहीं पर चतुर्मास कर लिया। इधर आचार्य आर्यरक्षित का मरणकाल निकट आगया। इसलिये आचार्य महाराज ने अपना मरणकाल निकट आया जानकर विचार किया कि-योग्य शिष्य को ही अपने पाट पर स्थापित करना चाहिये इस के लिये मुझे सर्वसंघ एवं सर्व मुनियों से पूछ लेना चाहिये । ऐसा विचार कर उन्हों ने सर्वसंघ एवं सर्वमुनियों को बुलाया और बुलाकर उन सब के समक्ष वल्ल (चने) तैल एवं घृतकुम्भ के उदाहरणों को सुनाया और कहा-जिस प्रकार चनों से भरे हुए घडेको खाली करनेके लिये उस घडेको उल्टा किया जाता है इससे भरे हुए समस्त चने उससे नीचे गिर पड़तेहै, જનતાએ તેમને ખૂબ આદરસત્કાર કર્યો. થોડો સમય ત્યાં રોકાઈ ગોષ્ઠમાહિલે પિતાના ગુરુમહારાજ પાસે પાછા જવાનો વિચાર કર્યો. જ્યાં એ ગુરુમહારાજ પાસે જવા તૈયારી કરવા લાગ્યા ત્યારે ત્યાંના શ્રીસંઘે વિશેષ આગ્રહ કરી રોકી લીધા. એટલામાં ચાતુર્માસ બેસી ગયું. શ્રીસંઘની વિનંતીથી તેમણે ત્યાં જ ચાતુર્માસ કર્યું. આ તરફ આચાર્ય આરક્ષિત મરણ પથારીએ હતા. પિતાને મરણ કાળ નજીક આવેલ જાણી આચાર્ય મહારાજે વિચાર કર્યો કે મારે ઉત્તરાધિકારી તરીકે યોગ્ય શિષ્યને જ મારી જગાએ નિયુક્ત કરવો જોઈએ. આ અંગે મારે સર્વસંઘ અને સેવે મુનિઓને પૂછવું જોઈએ. એ વિચાર કરી તેમણે સર્વસંધ અને સર્વ મુનિઓને બોલાવ્યા અને એ સઘળાની સમક્ષ ચણા, તેલ અને ઘી ભરેલા ઘડાના ઉદાહરણે સંભળાવ્યાં અને કહ્યું-જે રીતે ચણાથી ભરેલા ઘડાને ખાલી કરવા માટે એ ઘડાને ઉધે વાળવામાં આવે છે તેમાં ભરેલા સઘળા ચણા નીચે પડી જાય છે. એ પ્રમાણે દુબલિકાપુષ્પને સૂત્રાર્થ ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર: ૧ Page #818 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रियदर्शिनी टीका अ० ३ गा०९ सप्तमनिह्नवगोष्ठमाहिलदृष्टान्तः ७६३ संभृतघटोपमः संजातोऽस्मि । तैलपूर्णघटादधोमुखीकृताद् यथा भूरितैलं निर्याति, किं तु तत्र घटे किंचित् तैलमवशिष्टं तिष्ठत्यपि, तथा फल्गुरक्षितस्य श्रुतदाने तैलकुम्भसदृशः संजातोऽस्मि । यथा घृतपूर्णघटादधोमुखीकृतात् स्तोकमेव घृतं निर्याति, भूयस्तु तत्र घटे तिष्ठत्येव, तथा गोष्ठमाहिलमुनेः सिद्धान्तमूत्राथदाने घृतघटोपमः संजातोऽस्मि । तस्माद् दुर्बलिकापुष्पमुनिः श्रुतसिन्धुपारदृश्वा गुणवानस्ति, यदि सर्वेषां संमतिर्भवेत् तदाऽयं गणधारी भवतु । इत्येवमाचार्येणोक्ते सति सर्वे तद्वचनं तथैवाङ्गीकृतवन्तः।। इसी प्रकार दुर्बलिकापुष्प को सूत्रार्थ के देने में मैं वल्लसंभृत घट के जैसा हुआ हूं। यद्यपि तैलपूर्ण घट को जब उल्टा कर दिया जाता है तो उससे अधिक से अधिक तैल बाहर निकल जाता है परन्तु फिर भी कुछ थोड़ा बहुत तैल उसमें भी बाकी बचा रहता है, उसी प्रकार फल्गुरक्षित को भी श्रुतप्रदान करने में मैं इस तैल घट के तुल्य हुआ हूं। जिस प्रकार घृतपूर्णघट को जब उल्टा किया जाता है तो उससे थोड़ाही धृत बाहिर निकलता है अधिक नहीं-अधिक तो उस घडे में ही भरा रहता है, उसी प्रकार गोष्ठमाहिल को सिद्धान्तसूत्रार्थ प्रदान करने में घृतघट के समान में हुआ हूं। इसलिये दुर्बलिकापुष्प मुनि श्रुतरूपी समुद्र के पारगामी हैं गुणवान हैं, इसलिये आप सब महानुभावों की जो संमति हो तो इसको गच्छाचार्य बना दिया जावे। इस प्रकार जब आचार्य महाराज ने कहा तो सब ने एक स्वर से उनके कथन को स्वीकार कर लिया। આપવામાં હું ચણાથી ભરેલા ઘડા જે રહ્યો છું. જો કે તેલથી ભરેલે ઘડો જ્યારે ઉંધે કરવામાં આવે છે તે તેમાંથી એકદમ બહાર નીકળી જાય છે, પરંતુ તે છતાં પણ થોડું ઘણું તેલ તેમાં રહી જાય છે. આ પ્રકારે ફઘુરક્ષિતને પણ શ્રતપ્રદાન કરવામાં આ તેલના ઘડા જે હું રહ્યો છું. જે રીતે ઘી ભરેલા ઘડાને ઉંધે વાળવામાં આવે છે તે એમાંથી થોડું જ ઘી બહાર નીકળે છે, વધુ નહીં. વધુ તે એ ઘડામાં જ રહે છે. એ પ્રકારે ગેઝમાહિલને સિદ્ધાંતસૂત્રાર્થ પ્રદાન કરવામાં હું ઘીના ઘડા સમાન રહ્યો છું. આટલા માટે દુર્બલિકાપુષ્પ મુનિ શ્રતરૂપી સમુદ્રના પારગામી છે, ગુણવાન છે. આથી આપ સઘળા મહાનુભાવોની સંમતિ હોય તે તેમને ગ૭ આચાર્યનું પદ આપવામાં આવે. આ પ્રકારે આચાર્ય મહારાજે જ્યારે કહ્યું ત્યારે સઘળાએ તેમનું કથન સર્વાનુમતે સ્વીકાર્યું. તે પછી આચાર્ય મહારાજે દુબલિકાપુ ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #819 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययनसूत्रे अथाचार्यः स्वशिष्यं दुर्बलिकापुष्पं प्रति माह-वत्स ! गच्छोऽयं मया त्वदङ्के स्थाप्यते, एनं यत्नेन रक्ष । गोष्ठमाहिले फल्गुरक्षिते च विशेषतो विनयेन वर्तितव्यं भवता, इत्युक्त्वा स आचार्यस्तं मुनीन्द्रं स्वपदे स्थापयित्वा भक्तप्रत्याख्यानेन स्वर्ग गतः ____ अथ गोष्ठमाहिलमुनिः स्वगुरुं दिवं गतं ज्ञात्वा मथुरातो दशपुरनगरं समागतः । आचार्येण दुर्बलिकापुष्पमुनिः स्वपट्टे स्थापित इति निशम्य जातामर्षः सन् पृथगुपाश्रये स्थितः । दुबलिकाषुष्पाचार्यस्तत्रागत्य वन्दित्वा सविनयं गोष्ठमाहिलबाद में आचार्य महाराज ने दुर्बलिकापुष्प मुनि से कहा-वत्स! इस गच्छ को मैं आज से तुम्हारी गोदी में स्थापित करता हूं अतः यत्न से इस की रक्षा करते रहना। गोष्ठमाहिल एवं फल्गुरक्षित, इन बड़ों का विशेषरूप से विनय करते रहना। ऐसा कहकर आचार्य महाराज ने दुर्बलिकापुष्पमुनि को अपने पद पर स्थापित कर दिया और स्वयं भक्तप्रत्याख्यान कर समाधिमरण धारण कर लिया। अन्त में वे कालधर्म पाकर स्वर्ग में देव हुए। गोष्ठमाहिल को जब अपने गुरु का मरणवृत्तान्त ज्ञात हुआ तो वह मथुरा से विहार कर दशपुर नगर आये। वहां आकर वे अपने गुरुभाईयों के पास नहीं ठहरे, कारण कि उनको यह ज्ञात हो चुका था कि गुरु महाराज ने अपने पद पर दुर्बलिकापुष्प मुनि को स्थापित कर दिया है इससे उसके चित्त में क्रोध की मात्रा ने स्थान कर लिया, अतः वे वहां किसी दूसरे ही उपाश्रय में जाकर ठहर गये। दुर्बलिकाમુનિને કહ્યું, વત્સ ! આ ગ૭ને આજથી તમારા હાથમાં સુપ્રત કરું છું, એટલે હવેથી તેનું યત્નપૂર્વક રક્ષણ કરવાની જવાબદારી તમારી છે. ગેષ્ઠ માહિલ અને ફલ્યુરક્ષિત તમારાથી મોટા છે તે તેમને વિશેષરૂપથી વિનય કરતા રહેજો. આમ કહીને આચાર્ય મહારાજે દુર્બલિકાપુષ્પ મુનિને પિતાની જગાએ આચાર્યપદે સ્થાપિત કરી દીધા. અને પિતે ભક્તપ્રત્યાખ્યાન કરી સમાધિપૂર્વક કાળધર્મ પામી સ્વર્ગમાં દેવ રૂપે ઉત્પન્ન થયા. ગાકમાહિલે જ્યારે પોતાના ગુરુના સમાધિપૂર્વક કાળધર્મ પામ્યાના સમાચાર જાણ્યા કે તરત જ તે મથુરાથી વિહાર કરી દશપુર નગર આવ્યા. ત્યાં આવીને પોતાના ગુરૂભાઈ એની સાથે ન ઉતર્યા કારણ કે, તેમના જાણવામાં આવ્યું કે ગુરૂમહારાજે આચાર્યપદે દુર્બલિકાપુષ્પ મુનિને સ્થાપિત કર્યા છે, તેથી તેમના ચિત્તમાં ક્રોધ ભભૂકી ઉઠયો અને તેથી તેમની સાથે ન ઉતરતાં તેઓ કોઈ બીજા ઉપાશ્રયમાં ઉતર્યા. દુર્બલિકાપુપને જ્યારે આ વાતની ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #820 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रियदर्शिनी टीका. अ० ३ गा० ९ सप्तमनिह्नवगोष्ठमाहिलदृष्टान्तः ७६५ मुनि माह-कथं पृथगुपाश्रये स्थीयते, एकत्रैव स्थानेऽस्माभिः स्थातव्यम् , इत्युतोऽपि गोष्ठमाहिलमुनिस्तथा स्थातुं नेच्छति, किंतु पृथगुपाश्रये एवं स्थितः । द्वितीये दिवसे दुबलिकापुष्पाचार्यः मूत्रवाचनार्थ गोष्ठमाहिलमुनेः समीपे स्वशिष्यान् प्रेषयति। ते शिष्या गोष्ठमाहिलमुनेः समीपं गत्वा प्रार्थयन्ति-सूत्रवाचनां कारयन्तु भवन्तः। गोष्ठमाहिलमुनिना तद्वचनं न स्वीकृतम् । तदा तैः शिष्यैराचार्यस्य समीपे वाचना गृहीता । वाचनावसाने विन्ध्यनामकः शिष्यः अशीतिसहस्राधिकैककोटिसंख्यकपदयुक्तं पुष्पाचार्य को जब बात ज्ञात हुई तो वे उनके पास आये और वन्दना करके गोष्ठमाहिल से कहने लगे । आपने पृथक उपाश्रय में स्थान क्यों किया ? हम सब को तो एक ही जगह रहना चाहिये। इस प्रकार आचार्य के कहने पर भी गोष्ठमाहिल ने उनकी बात पर कुछ भी ध्यान नहीं दिया और न कुछ कहा भी अलग ही ठहरे रहे । दूसरे दिन दुर्बलिकापुष्पाचार्य ने अपने शिष्यों को सूत्रवाचना लेने के लिये गोष्ठमाहिल के पास भेजा । शिष्य जाकर उनसे कहने लगे कि महाराज ! गुरु महाराज ने आपके पास हम को सूत्रवाचना लेने के लिये भेजे हैं, अतः प्रार्थना है कि आप हम को सूत्र की वाचना देवें । गोष्ठमाहिल ने उन शिष्यों की बात को अनसुनी करदी। शिष्य वापिस आगये और गुरुमहाराज से वाचना लेने लग गये। ____एक करोड अस्सी हजार १००८०००० पदवाले कर्मप्रवाद नामक જાણ થઈ ત્યારે તે તેમની પાસે જઈ પહોંચ્યા અને વંદના નમસ્કાર કરીને ગેષ્ઠમાહિલને કહેવા લાગ્યા. આપ જુદા ઉપાશ્રયમાં શા માટે ઉતર્યા? આપણે સઘળાએ તે એક જ સ્થળે રહેવું જોઈએ. આ પ્રકારે આ નવા આચાર્યના કહેવા છતાં પણ ગોષ્ઠમાહિલે તેમની વાત ઉપર કાંઈ ધ્યાન આપ્યું નહીં, તેમજ કાંઈ જવાબ પણ ન વા . અને જ્યાં ઉતર્યા હતા ત્યાં જ રહ્યા. બીજે દિવસે દુર્બલિકાપુષ્પાચાર્યે પિતાના શિષ્યોને સૂત્રવાચના (સૂત્રનાપાઠ) લેવા માટે ગેઝમાહિલ પાસે મોકલ્યા. શિષ્યો જઈને તેમને કહેવા લાગ્યા કે, મહારાજ ! ગુરુમહારાજે અને આપની પાસે સૂત્રવાચના લેવા માટે મોકલ્યા છે. આથી અમારી આપને વિનંતિ છે કે આપ અમને સૂત્રની વાચના (પાઠ) આપે. ગેઝમાહિલે એ શિષ્યની વાતને સાંભળી ન સાંભળી કરી અવગણ. શિ પાછા ફર્યા અને ગુરુમહારાજ પાસેથી વાચના (પાઠ) લેવા લાગ્યા. એક કરોડ એંશી હજાર ૧૦૦૮૦૦૦૦ પદવાળા કર્મપ્રવાદ નામના અષ્ટમ ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #821 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययनसूत्रे कर्मप्रवादनामकमष्टमं पूर्व पठन् गुरुं पृच्छति-केन प्रकारेण जीवेन कर्म बध्यते ?, आचार्येणोक्तम्-कर्म त्रिविधं बध्यते, बद्धं स्पृष्टं निकाचितं चेति । तत्र बद्धं यथा लोहतन्तुवेष्टितः सूचीकलापः, स्पृष्टं यथा ता एवं सूचिकाः कुट्टिताः सत्यः संश्लिष्टा भवन्ति तद्वत् , निकाचितं तु यथा वह्नितापेन कुट्टनैश्च ताः मूचिका एकत्वं मातास्तद्वत् । एवमात्मा पूर्व रागद्वेषपरिणामतः सकलैः प्रदे शैमा॑नावरणीयादिकं कर्म बध्नाति । परिणामवृद्धया तदेव कर्म स्पृष्टं भवति, संक्लिष्टपरिणामतस्तु तदेव कर्म निकाचितं भवति । जीवप्रदेशैर्बद्धमात्रं बद्धं कर्म तदैव विघटते, निन्दनायुपायैर्नश्यति, अष्टमपूर्व को पढ़ते हुए विंध्यनाम के एक शिष्य ने वाचना के पूर्ण होने पर गुरु से पूछा-जीव के साथ कर्मों का बंध किस प्रकार से होता है ? आचार्य महाराज ने कहा सुनो-कर्म तीन प्रकार के हैं-बद्ध, स्पृष्ट और निकाचित। जीव के साथ इन्हीं कर्मों का बंध होता है । लोहे के तार से वेष्टित जैसे सूईयों का कलाप-समूह होता है इसी तरह बद्धकर्म होते हैं। जैसे वे ही सूइयां जब खूब कूटी जाकर परस्पर में संश्लिष्ट हो जाती हैं इसी तरह के स्पृष्ट कर्म होते हैं। जैसे-अग्नि में तपाकर और कूटकर सूईयां-एक करदी जाती हैं इसी तरह का निकाचित कर्म होते हैं। आत्मा पहिले राग-द्वेषपरिणाम से सकल प्रदेशों द्वारा ज्ञानावरणीयादिक कर्मों का बंध करता है, पश्चात् परिणामवृद्धि से वही बद्धकर्म स्पृष्ट हो जाते हैं। संक्लिष्ट परिणामों से वही कर्म निकाचित हो जाते हैं। जीवप्रदेशों के साथ बद्धमात्र बद्धकर्म उसी समय दूर हो सकते हैं પૂર્વનું અધ્યયન કરતાં કરતાં વિંધ્યનામના એક શિષ્ય વાચના પૂર્ણ થતાં ગુરુને પૂછ્યું-જીવની સાથે કર્મોને બંધ કયા પ્રકારથી થાય છે? આચાર્ય મહારાજે કહ્યું–સાંભળે! કર્મ ત્રણ પ્રકારનાં છે. બદ્ધ, સ્પષ્ટ અને નિકાચિત. જીવની સાથે આજ કર્મોને બંધ હોય છે. લોઢાનતારમાંથી જેવી રીતે સાયને સમહ તૈયાર થાય છે, એજ રીતે બદ્ધ કર્મ થાય છે. જેમ તે જ સેયને સમુહ જ્યારે ખૂબ ટીપાયા પછી પરસ્પરમાં એકરૂપ થઈ જાય છે એજ રીતના સ્પષ્ટ કર્મ હોય છે. જેમ અગ્નિમાં તપાવીને અને ટીપીને સેને એક કરવામાં આવે છે એ જ રીતે નિકાચિત કમ હેાય છે. આમાં પહેલાં રાગદ્વેષ પરિણામથી સકળ પ્રદેશ દ્વારા જ્ઞાનાવરણીયાદિક કર્મોને બંધ કરે છે. પછી પરિણામવૃદ્ધિથી તેજ બદ્ધકર્મ પૃષ્ટ થઈ જાય છે. સંકિલષ્ટ પરિણામોથી એજ કર્મ નિકાચિત બની જાય છે. જીવપ્રદેશની સાથે બદ્ધમાત્ર બદ્ધકર્મ એ સમયે દૂર થઈ શકે છે. આત્માની સાક્ષીએ પિતાના કર્મોને ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #822 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रियदर्शिनी टीका. अ०३ गा. ९ सप्तमनिवगोष्ठमाहिलदृष्टान्तः ७६७ स्पृष्टं कर्म कालान्तरेण प्रायश्चित्तादिना निवर्तते, यथा आर्द्रमृत्पिण्ड-शुष्कमृत्पिण्डौ कुडचे प्रक्षिप्येते, तत्र य आर्द्रमृत्पिण्डः स कुडचे संलग्नो भवति एवं रागद्वेषपरिणामवृद्धया जीवे कर्माणि संलग्नानि भवन्ति । यस्तु शुष्कः स स्पृष्टः सन्नेव निवर्तते, एवं बद्धं कर्म तदैव निवर्तते । निकाचितं तु वह्नययः, पिण्डन्यायेन जीवेन सहकीभूतम् , उदयं प्राप्यैव चिरेणापि वेद्यते, नान्यथा इति गुरुसंनिधावधीत्य विन्ध्यमुनिर्गोष्ठमाहिलस्य समीपेऽन्यदा तथैव प्ररूपयति। आत्मसाक्षिक निंदना, गुरुसाक्षिकगर्हणा आदि उपायों से झड़ जाते है। स्पृष्टकर्म कालान्तर में प्रायश्चित्त आदि से दूर हो सकते हैं जैसे-गीली मिट्टी का पिंड और शुष्क मिट्टी का पिंड भीतपर डालने से जो गीली मिट्टी का पिंड होता है तो वहीं पर चिपक जाता है, इसी तरह रागद्वेषपरिणामों की वृद्धि से जीव में कर्म संलग्न हो जाते हैं-चिपक जाते हैं, वे स्पृष्ट कर्म हैं, और जो सूखी मिट्टी का पिंड है वहाँ से छूते ही नीचे गिर पड़ता है, उसी प्रकार बद्धकर्म उसी वख्त दूर हो जाते हैं। निका. चित कर्म जिस प्रकार लोहे के गोले में अग्नि के प्रवेश करने पर दोनों एकमेक से हो जाते हैं, इसी प्रकार जो कर्म जीव के साथ एकीभूत हो जाते हैं वे निकाचित हैं। ये विना भोगे नहीं छूटते हैं। इन का फल जीव को बहुतकालतक भी अवश्य भोगना पड़ता है। ये दूसरे रूप नहीं हो सकते हैं। इस प्रकार गुरुमहाराज के पास पढ़कर विन्ध्यमुनि किसी નીંદવાથી તેમજ ગુરુની સાક્ષિએ ગણા કરવા, આદિ ઉપાથી કર્મક્ષય થાય છે. પ્રુષ્ટકર્મ કાળાંતરમાં પ્રાયશ્ચિત્ત વિગેરે કરવાથી દૂર થઈ શકે છે જેમ-ભીની માટીને પિંડ અને સકી માટીને પિંડ ભીંત ઉપર નાખવાથી ભીની માટીને પિંડ હોય છે તે ત્યાં એંટી જાય છે, જ્યારે સુકી માટીને પીંડ ભીંત પર ચેટ નથી. આ પ્રમાણે રાગદ્વેષ પરિણામેની વૃધ્ધિથી જીવમાં કમ સંલગ્ન થઈ જાય છે.–ચોંટી જાય છે. તે સ્પષ્ટ કર્મ છે અને જે સુકી માટીને પિંડ છે તે ત્યાં અડતાં જ નીચે પડી જાય છે. બદ્ધકર્મ પણ એજ રીતે દુર થઈ જાય છે. નિકાચિત કર્મ જે રીતે લોઢાના ગેળાને અગ્નિમાં તપાવતાં લેતું અને અગ્નિ બંને એક રૂપ બની જાય છે. તેવી રીતે જે કર્મ જીવની સાથે એકરૂપ થઈ જાય છે તે નિકાચિત કર્મ છે. તે ઉદય આવ્યા વગર છુટતાં નથી. એનું પરીણામ જીવને ઘણા કાળ સુધી પણ અવશ્ય જોગવવું પડે છે. એ બીજા રૂપ થઈ શકતાં નથી. આ પ્રકારે ગુરુ ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #823 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७६८ उत्तराध्ययनसूत्रे एवं प्ररूपणां श्रुत्वा गोष्ठमाहिलो विन्ध्यमुनि प्राह-नैवं शास्त्रकृत्संमतम् , यथा कञ्चुकः कञ्चुकिनो देहं स्पृशति, किं तु देहेन सह श्लिष्टो न भवति, तथा कर्म जीवं स्पृशति न तु अविभागेन संमिलितं भवति, यदि जीवेन सहाविभागबद्धं भवेत् , तर्हि कर्म न वियुक्तं भवितुमर्हति, तथा च जीवस्य भवक्षयो न स्यादिति । विन्ध्येनोक्तम्-ममाचार्येणैवमाख्यातं मया तदुच्यते। गोष्ठमाहिलो वदति-त्वद् गुरुः किं विजानाति । ततः शङ्कितो भूत्वा विन्ध्यमुनिर्गुरुं पृच्छति-किमिदं मया सम्यकू समय गोष्ठमाहिलमुनि के पास गये-और पूछने पर उन के पास इसी तरह की प्ररूपणा की। विन्ध्यमुनि द्वारा कृत इस प्रकार की प्ररूपणा सुनकर गोष्ठमाहिल ने उनसे कहा इस प्रकार की प्ररूपणा शास्त्रकारों की दृष्टि से उचित नहीं है । जैसे कंचुक-अंगरखा पहिरने वाले की देह को छूता तो है परन्तु उससे श्लिष्ट नहीं होता है, इसी तरह कर्म जीव को छूता तो है परन्तु वे अविभागरूप से उसके साथ संमिलित नहीं होते हैं। यदि जीव के साथ वे अविभागरूप से संमिलित माना जायगा तो वे कभी भी उससे अलग नहीं हो सकेंगे, अलग नहीं हो सकने के कारण जीव को संसार का क्षय भी कभी नहीं होगा। गोष्ठमाहिल की इस बात को सुनकर विन्ध्यमुनिने उनसे कहा-मुझे तो आचार्य महाराज ने ही ऐसा समझाया है अतः मैं भी ऐसा ही कहता हूं। गोष्ठमाहिलने कहा-तुम्हारे મહારાજની પાસેથી બેધ મેળવીને વિંધ્ય મુનિ કોઈ એક સમયે ગેષ્ઠમાહિલ મુનિની પાસે ગયા અને પૂછ્યું. જવાબમાં તેમણે આ પ્રકારની પ્રરૂપણ કરી. વિધ્યમુનિએ કહેલી આ પ્રરૂપણ સાંભળીને ગેન્ડમાહિલે કહ્યું આ પ્રકારની પ્રરૂપણું શાસ્ત્રકારની દૃષ્ટિએ ઉચીત નથી. જેમ કંચુક-અંગરખું તેના પહેરવાવાળાના શરીરને અડકે છે પણ એનાથી એકરૂપ થતું નથી. એજ રીતે કર્મ આત્માને અડકે છે પરંતુ અવિભાગરૂપથી એની સાથે એકરૂપ થઈ શકતું નથી. જે જીવની સાથે તે પણ અવિભાગરૂપથી સંમિલિત માનવામાં આવે છે તે કદી પણ એનાથી અલગ થઈ શકે નહીં. તે પછી અલગ થઈ શકવાના કારણે જીવને સંસારના ભવ ભ્રમણને પણ ક્ષય ન જ થાય. ગોષ્ઠમાહિલની આ વાતને સાંભળીને વિંધ્યમુનિએ તેમને કહ્યું અને તે આચાર્ય મહારાજે જ એવું સમજાવ્યું છે, એટલા માટે જ હું એ પ્રમાણે કહું છું. ગેષ્ઠમહિલે કહ્યું તમારા ગુરુ જાણે છે જ શું ? ગાષ્ઠમહિલની આ ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #824 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रियदर्शिनी टीका अ०३ गा. ९ लमनिश्वगोष्ठमाहिलदृष्टान्तः ७६९ न श्रुतम् ? आचार्येणोक्तम्-त्वया सम्यक श्रुतम् , इदमित्यमेव नान्यथा । तदनु विन्ध्येन गोष्ठमाहिलोक्तं कथितम् । आचार्यों वदति-एतत् सर्व मिथ्या, यथा अय:पिण्डं वह्निः सर्वात्मना संबध्यते वियुज्यते च, एवं कर्माऽपि । न तु देहकञ्चुकवत् स्पृष्टमानं भवति । ___यद्यात्माऽन्यप्रदेशस्थं कर्मादायात्मानमनुवेष्टयेत् , तदा कञ्चुकोपमा घटेत, किंतु सूत्रविरोधादपसिद्धान्तः स्यात् । सूत्रे हि अन्यप्रदेशस्थस्य कर्मणो ग्रहणं निषिध्यते। गुरुने इसका मर्म नहीं जाना है। गोष्ठमाहिलकी बात सुनकर विन्ध्यमुनि को संदेह हो गया और जाकर अपने गुरुमहाराजसे कहा कि क्या मैंने पढ़ते समय पाठ आपके पास अच्छी तरह नहीं सुना है, जो इसका अर्थ इस प्रकार नहीं है, ऐसा गोष्ठमाहिलजी कह रहे हैं। गुरु ने सुनकर कहा-नहीं ऐसा नहीं है-तुमने पाठ ठीक सुना है, यह जैसा तुम कह रहे हो वैसा ही है। गोष्ठमाहिल जो कहते हैं वह ठीक नहीं है, मिथ्या है, जिस प्रकार लोहे के पिंड में अग्नि सर्वात्मना प्रविष्ट होती है और वियुक्त भी होती है ठीक इसी प्रकार कर्म भी आत्मप्रदेशों के साथ एक क्षेत्रावगाह होकर बंधते हैं और वियुक्त होते हैं। कंचुक जैसे शरीर पर स्पृष्टमात्ररूपमें रहता है इस प्रकार कर्म आत्मा में नहीं रहते हैं। कंचुक की उपमा तो तब सुसंगत बैठ सकती कि जब आत्मा अन्य प्रदेशस्थ कर्म को ग्रहण कर अपने आप में अनुवेष्टित करता। પ્રમાણે વાત સાંભળીને વિધ્યમુનિના મનમાં સંદેહ જાગ્યો અને તેણે જઈ પિતાના ગુરુમહારાજ ને કહ્યું કે મેં ભણતી વખતે આપની પાસેથી પાઠ બરોબર સાંભળે નથી, જેથી એને અર્થ એ પ્રકારને ન હોઈ શકે એનું ગેઝમાહિલજી કહી રહ્યા છે. આ સાંભળીને ગુરુએ કહ્યું–નહીં, એમ નથી તમે પાઠ સાંભળે છે તે બરાબર છે, અને તમે જેમ કહે છે તે જ બરાબર છે. ગેઝમાહિલજી જે કહે છે તે બરાબર નથી, મિથ્યાત્વ છે, જે રીતે લોઢાના પિંડમાં અગ્નિ સર્વાત્મના પ્રવિષ્ટ થાય છે અને વિયુક્ત પણ થાય છે. એજ પ્રમાણે કમ પણ આત્મપ્રદેશની સાથે એક ક્ષેત્ર અવગાહ થઈને બંધાય છે અને વિયુક્ત થાય છે. કંચુક જેમ શરીર ઉપર સ્પશ” રૂપે જ રહે છે, એજ રીતે કમ પણ આત્મામાં રહેતાં નથી. કંચુકની ઉપમા તે ત્યારે જ સુસંગત થઈ શકે કે જ્યારે આત્મા અન્ય પ્રદેશસ્થ કર્મને ગ્રહણ કરી તેને પિતાનામાં મેળવી પરંતુ એવી માન્યતા उ०९७ ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #825 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययन सूत्रे किञ्च - यदि कर्म कञ्चुकवद् बहिः स्थितं भवेत् तर्हि कर्महेतुका वेदनाऽपि अन्तरात्मनि कथं स्यात् ? । यदि फर्म संचरणशीलमिति मध्येऽपि संस्थितस्य कर्मणः फलमात्मन्यन्तर्वेदनाऽपि स्यादिति तेन मन्यते, तदा तदुक्तं कञ्चुकसादृश्यं व्याहतं स्यात्, यतः कञ्चुक बहिः स्पृष्ट एवं भवति, न तु देहान्तर्गतः, किंच - बहिरन्तश्च युगपद्वेदना न स्थात्, कर्मणस्तु वहिरन्तर्वा सम्बन्धाद् वेदना युगपत् संभवति । किंच - संचरणत्वं किन्तु ऐसी मान्यता तो है नहीं, क्यों कि इस प्रकार की मान्यता में अपसिद्धान्त नाम का निग्रहस्थान आता है। सूत्र में ' आत्मा अन्यप्रदेशस्थ कर्म का ग्रहण करता है यह बात निषेध करने में आई है । और भी - जैसे कंचुक बाहिर स्थित रहता है उसी तरह कर्म भी यदि आत्मा से बाहिर रहे तो उसके द्वारा होनेवाली वेदना भी आत्मा के बाहर ही होनी चाहिये । आत्मा के भीतर नहीं । यदि कहा जाय कि कर्म संचरण स्वभाववाला है इसलिये वह आत्मा के मध्यस्थित होकर उसको अन्तर्वेदना का हेतु हो जायगा, सो ऐसा कथन कंचुक के सादृश्य से व्याहत हो जाता है, क्यों कि कंचुक तो देह के बाहर ही में स्पृष्ट रहता है वह शरीर के भीतर तो कुछ प्रविष्ट होता नहीं है । दूसरे-यदि कर्म आत्मा से स्पृष्टमात्र रहते हैं यह बात ही मानी जाय तो एक साथ आत्मा को जो भीतर बाहिर में वेदना का अनुभव होता है वह नहीं होना चाहिये । यदि कर्मों को ७७० તા છે જ નહીં; કેમ કે, આ પ્રકારની માન્યતામાં અપસિધ્ધાન્ત નામનું નિગ્રહસ્થાન આવે છે. સૂત્રમાં આત્મા અન્ય પ્રદેશસ્થ કર્મને ગ્રહણ કરે છે આ વાતના નિષેધ કરવામાં આવેલ છે. હવે જેમ કચુક શરીર ઉપર છતાં શરીરમય નહીં એમ રહે છે, એજ રીતે કમ પણ આત્મા સાથે છતાં પણ આત્માથી અલગ રહે તે એના દ્વારા થનારી વેઢના પણ આત્માની બહાર થવી જોઇએ-આત્માની અંદર નહીં. જો એમ કહેવામાં આવે કે-કમ સંચરણુ સ્વભાવવાળાં છે, તે તે આત્માની મધ્યમા સ્થિત થઈ અને અંતવેદનાનું કારણુ ખની જાય એટલે એવું કથન કુંચૂકના દેષ્ટાન્તથી વિરૂધ્ધનું થઈ જાય છે કેમ કે, કંચુક તેા દેહની ઉપર જ સ્પર્શ કરીને રહે છે શરીરની અંદર તેના પ્રવેશ થતા નથી. હવે ખીજું જો કર્મ આત્માથી સ્પર્શીને માત્ર રહે છે એ વાત પણ માનવામાં આવે તા આત્માને જે અંદર અને બહાર એકી સાથે વેદનાના અનુભવ ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર ઃ ૧ Page #826 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रियदर्शिनी टीका. अ० ३ गा० ९ सप्तमनिह्नवगोष्ठमाहिलदृष्टान्तः ७७१ मन्यते चेत् , तर्हि जीवेन सह भवान्तरे कर्म न गच्छेत् , देहस्थनिःश्वासादिवायुवत् । ___ तस्माद् रागादिबन्धहेतूनां सद्भावात् संपूर्णात्मनि सर्वैः प्रदेशनिबद्धं कर्म भवतीति मन्यताम् । जीवेन सहाविभागसम्बन्धात् कदापि कर्मणः पृथग्भावो नैव स्यादिति तद्वचो नैव श्रद्धेयम् , यतः क्षीरनीरयोरविभागसम्बन्धवतोरपि हंसचन्चुना पृथग्भावो जायमानः प्रत्यक्षेण निरीक्ष्यते । संचरणस्वभाववाला माना जाय तो भवान्तर में जो कर्म जीव के साथ जाते हैं यह बात ठीक नहीं बैठ सकेगी, क्यों कि देह में स्थित वायु, आदि जैसे जीव के साथ नहीं जाते हैं। इसलिये ऐसा ही मानना चाहिये कि रागादिक बंध के कारणों के सद्भाव में संपूर्ण आत्मामें समस्त प्रदेशों के साथ कर्म निबद्ध होता है, स्पृष्टमात्र नहीं रहता। जीव के साथ कर्मों का अविभक्त संबंध है, इसलिये वह कभी भी जीव से पृथक् नहीं हो सकते, ऐसी जो गोष्ठमाहिल की तर्कणा है वह श्रद्धेय नहीं है। यह तो प्रत्यक्ष से स्पृष्ट प्रतीत होता है कि दूध और पानी अविभक्त हैं-परन्तु हंसकी चंचु उन्हें अलग २ कर देती है । इसलिये यह "जो अविभक्त हैं वे पृथक् नहीं हो सकते” कैसे एकान्ततः माना जा सकता है। इसी तरह सुवर्ण और सुवर्णपाषाण परस्पर में अविभक्त रहते हैं परन्तु अग्नि का संयोग उन्हें अलग २ कर देता है। થાય છે તે ન થવું જોઈએ. જે કર્મોને સંચરણ સ્વભાવવાળા માનવામાં આવે તે ભવાન્તરમાં (ભવ ભવમાં) કર્મ જીવની સાથે જાય છે એવી માન્યતા છે તે પણ ઠીક બેસી શકશે નહીં, કેમ કે એવી રીતે તે દેહમાં રહેલાં વાયુ વિગેરે પણ જીવની સાથે જતાં નથી. એટલા માટે એ માનવું જોઈએ કે, રાગાદિક બંધના કારણેના સદૂભાવથી સંપૂર્ણ આત્મામાં સમસ્ત પ્રદેશની સાથે કર્મ નિબધ હોય છે, સ્પશીને માત્ર રહેતાં નથી. જીવની સાથે કર્મોને અવિભક્ત સંબંધ છે. આ કારણે તે કદી પણ જીવથી જુદાં થઈ શકતાં નથી. એવા જે ગષ્ટમાહિલના તર્ક વિતર્ક છે તે, શ્રધ્ધા કરવા જેવો નથી. એમ તે પ્રત્યક્ષથી સ્પષ્ટ ખાત્રી થાય છે કે, દૂધ, અને પાણી અવિભક્ત છે પરંતુ હંસની ચાંચ તેને અલગ કરી દે છે આથી એ નિયમ જણાય છે કે જે અવિભક્ત છે તે જુદાં પડી શકતાં નથી તે સિધ્ધાન્તને કઈ રીતે એક સ્વરૂપ માનવામાં આવે, એજ પ્રમાણે સુવર્ણ અને કાચું સોનું (માટી સહિતનું) પરસ્પરમાં અવિભક્ત રહે છે પરંતુ અગ્નિને સંગ તેને અલગ અલગ કરી દે છે. ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #827 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७७२ ___ उत्तराध्ययनसूत्रे किंच - अश्महेमयोरविभागसम्बन्धवतोरपि वयादिसंयोगेन पृथग्भावः प्रत्यक्षेण दृश्यते । इत्यादि वचनं श्रुत्वा विन्ध्यमुनिनिःशङ्कः सन् गोष्ठमाहिलस्य समीपमागत्य शास्त्र सिद्धान्तं प्रोक्तवान् । परंतु गोष्ठमाहिलमुनिमिथ्यात्वोदयवशात् स्वाग्रह न त्यक्तवान्। ___ अन्यदा स विन्ध्यमुनिः चतुरशीतिलक्षपदात्मके नवमे पूर्वे प्रत्याख्यानाधिकारं पठन् मुनेः प्रत्याख्यानं वर्णयति--" पाणाइवायं पच्चक्खामि जावज्जीवाए" इत्यादि । तदा गोष्ठमाहिलः माह-"जावज्जीवाए" इति न वक्तव्यम् , यतःअपरिमाणकृतं प्रत्याख्यानं श्रेयः, कृतपरिमाणं तु दुष्टं, यावज्जीवमिति प्रोक्ते जब गुरु ने इस प्रकार समझाया तो विंध्यमुनि निशंकचित्त होकर गोष्ठमाहिल के पास आकर कहने लगे कि देखो शास्त्र का सिद्धान्त इस प्रकार है अतः आप का कथन उचित नहीं है। आप अपने आग्रह को छोड़ दो। विंध्यमुनि के इस प्रकार निवेदन करने पर गोष्ठमाहिलने कुछ भी ध्यान नहीं दिया और अपने आग्रहपर ही डटे रहे। एक समय की बात है कि विंध्यमुनि चौरासी लाख (८४०००००) पदवाले प्रत्याख्यानप्रवाद नामके नवमपूर्व के प्रत्याख्यान अधिकार का अध्ययन कर रहे थे उस में यह पाठ उन्हों ने पढ़ा कि “पाणाइवायं पच्चक्खामि जावज्जीवाए"। गोष्ठमाहिल ने इस पाठ को सुना और बोले कि इस पाठ में “ जावज्जीवाए" यह नहीं बोलना चाहिये, क्यों कि जिस प्रत्याख्यान में प्रमाण नहीं किया जाता है वही ठीक होता है। જ્યારે ગુરુએ આ પ્રકારે સમજાવ્યું ત્યારે વિધ્યમુનિની શંકા દૂર થઈ અને ગેડમાહિલની પાસે જઈ કહેવા લાગ્યા કે, જુઓ! શાસ્ત્રનો સિધ્ધાંત તે આ પ્રકાર છે, માટે આ૫ જે કહે છે તે પૈગ્ય નથી. આપ આપના દુરાગ્રહને છોડી દે. વિધ્યમુનિના આ પ્રકારના નિવેદન ઉપર ગેષ્ઠમાહિલે કાંઈ ધ્યાન આપ્યું નહીં અને પિતાના જ આગ્રહ ઉપર તે મક્કમ રહ્યા. એક સમયની વાત છે કે વિધ્યમુનિ ચર્યાશી લાખ (૮૪૦૦૦૦૦) પદવાળા પ્રત્યાખ્યાનપ્રવાદ નામના નવમપૂર્વના પ્રત્યાખ્યાન અધિકારનું અધ્યયન કરી રહ્યા હતા તેમાં આ પ્રમાણેને પાઠ તેમના વાંચવામાં આવ્યું કે, "पाणाइवायं पच्चक्खामि जावज्जिवाए" ०४ाडि २॥ पाने सामन्यो भने मोत्या है मा ५४भा " जायज्जिवाए " मेन मारने से, भरे પ્રત્યાખ્યાનમાં પ્રમાણ નથી કરવામાં આવતું તે જ ઠીક હેય છે. પ્રમાણવાળું ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #828 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रियदर्शिनी टोका अ० ३ गा ९ सप्तमनिह्नवगोष्ठमाहिलदृष्टान्तः ७७३ कालमानं स्वीकृतं भवति, तथा च प्रत्याख्यानस्य सावधिकत्वेनावधौ पूर्णे प्रत्याख्यातवस्तुन आशंसासंभवात् “ अहमग्रे हनिष्यामी"-त्याशंसारूपं दूषणं स्यात् , तस्माद् 'अपरिमाणेन सर्व प्राणातिपातं प्रत्याख्यामि त्रिविधं त्रिविधेने'-ति वाच्यं मुनिनेति। गोष्ठमाहिलेनैवमुक्ते सति विन्ध्यमुनिटुंलिकापुष्पाचार्य पृच्छति-भदंत ! गोष्ठमाहिलमुनि वज्जीवमिति प्रत्याख्याने वक्तुं नेच्छति । ___आचार्यः प्राह-प्रत्याख्यानस्य कालावधिकत्वमवश्यं कार्यम् , अन्यथा मर्यादाविरहाद् अकार्यसेवनं स्यात् , अपि चोत्सूत्रप्ररूपणापत्तिस्ततश्चानन्तसंसारः स्यात् । प्रमाणवाला प्रत्याख्यान श्रेयस्कर नहीं होता। यावज्जीव कहने से प्रत्या. ख्यान प्रमाणोपेत हो जाता है। काल का प्रमाण इस शब्द से स्पष्टरूप में कथित होता है। और भी-प्रत्याख्यान में सावधिकता आने से अवधि की पूर्णता होने के बाद प्रत्याख्यान वस्तु में आशंसा-आकांक्षा-का संभव होने से " मैं आगे मारूँगा" इस प्रकार का दूषण लगता है, इसलिये मुनि को तो ऐसा ही कहना चाहिये कि “मैं त्रिविध त्रिकरणसे विना किसी प्रमाण के समस्त प्राणातिपात का प्रत्याख्यान करता हूं।" गोष्ठमाहिल की इस तर्क को सुनकर विंध्यमुनि ने जाकर आचार्य महाराज दुईलिकापुष्पमुनिसे पूछा कि भदंत ! गोष्ठमाहिल मुनि प्रत्याख्यान में “जावज्जीवाए" नहीं कहना चाहिये ऐसा कहते हैं। विध्यमुनि की बात सुनकर आचार्य महाराज ने कहा कि प्रत्याख्यान में काल की अवधि अवश्य करनी चाहिये, अन्यथा मर्यादा का विरह होनेसे પ્રત્યાખ્યાન શ્રેયસકર નથી હોતું. યાજિવ કહેવાથી પ્રત્યાખ્યાન પ્રમાણપત થઈ જાય છે. કાળનું પ્રમાણ આ શબ્દથી સ્પષ્ટ રૂપમાં કથિત થાય છે. પ્રત્યાખ્યાનમાં સમય મર્યાદા આવવાથી અવધિની પૂર્ણતા થયા પછી પ્રત્યાખ્યાત કરેલી વસ્તુમાં આશંસા-આકાંક્ષાને સંભવ હોવાથી “હું આગળ મારીશ” આ પ્રકારનું દૂષણ લાગે છે આથી મુનિએ તે એવું કહેવું જોઈએ કે હું વિવિધ ત્રિકરણથી કઈ પણ પ્રમાણ વગર સમસ્ત પ્રાણાતિપાતનું પ્રત્યાખ્યાન કરૂ છું. ગેન્ડમાહિલના આ તકને સાંભળીને વિંધ્યમુનિએ જઈને આચાર્ય મહા२।४ हुमानि५ मुनिने ५ यु , महन्त! ४माहिद मुनि "जावज्जिवाए " से प्रत्याभ्यानमा नउने ये भ ई छ. विध्यमुनिनी पात સાંભળી આચાર્ય મહારાજે કહ્યું કે, પ્રત્યાખ્યાનમાં કાળની અવધિ અવશ્ય કરવી જોઈએ. એ પ્રમાણે ન કરાતાં મર્યાદાને વિરહ થવાથી અકાર્ય સેવન પણ ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #829 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७७४ उत्तराध्ययमसूत्रे अथ गोष्ठमाहिलमुनिस्तथाऽभिनिवेशाद् दुर्बलिकापुष्पाचार्येण सह वादार्थ समागत्य स्वमतं वर्णयति । आचार्यः माह-अहो आर्य ! कालावधियुक्तं यावज्जीवं प्रत्याख्यानं देवादिभवे व्रतभङ्गदोषवारणार्थ क्रियते, देवादिभवे व्रतप्रसङ्गाभावात् । एवमुक्तेऽपि गोष्ठमाहिलमुनिः स्वाग्रहं न मुश्चति । तदा सर्वसंधेन मिलित्वा कायोअकार्य सेवन भी हो सकता है। तथा ऐसा करने से उत्सूत्रप्ररूपणा करने की आपत्ति आती है इससे उस जीव को अनन्त संसार हो जाता है। गोष्ठमाहिल मुनि ने इस प्रकार के अभिनिवेश के यशसे दुर्घलिका पुष्पाचार्य के पास आकर इस विषय पर उनसे वादविवाद करना प्रारंभ कर दिया। आचार्य ने कहा अहो आय! यावज्जीवरूप काल की अवधियुक्त जो प्रत्याख्यान किया जाता है उसका मतलब यह हैं कि संयमी आत्मा मर कर यदि देवादिभव में पहुँच जाता है ,तो वह वहां व्रतभंग के दोष का भागी नहीं हो सकता है, क्योंकि वहां व्रतप्रसंग का अभाव है। मनुष्यभव में जो इसने व्रत लिये है वे उस मनुष्यभव तक ही गृहीत व्रतों का निरतिचार रूप से-निर्दोषरूप से-पालन करने वाला है, अन्य देवादिभव में नहीं। यही बात इस यावज्जीवपद से लक्षित होती है। इस प्रकार आचार्य महाराज द्वारा समझाने पर भी गोष्ठमाहिल ने अपने दुराग्रह का परित्याग नहीं किया। जब संघने गोष्ठमाहिल की यह हालत देखी तो संघ ने मिल कर कायोत्सर्गद्वारा एक देवी का થઈ જાય છે, તથા એમ કરવાથી ઉત્સુત્ર પ્રરૂપણ કરવાની આપત્તિ આવે છે. આમ કરવાથી તે આ જીવને અનંત સંસારની વૃદ્ધિ થાય છે. ગેઝમાહિલ મુનિ આ પ્રકારના અભિમાનથી છકી જઈને દુબલિકાપુષ્પાચાર્યની પાસે આવી એ વિષય ઉપર એમની સાથે વાદવિવાદ શરૂ કર્યો આચાર્યે કહ્યું, અહે આર્ય ! યાજિવરૂપ કાળની અવધિયુક્ત જે પ્રત્યા ખ્યાન કરવામાં આવે છે એનું કારણ એ છે કે, સંયમી આત્મા મરીને જે દેવ વિગેરે ભવને પામે છે તે ત્યાં તે વતભંગના દોષને ભાગી નથી બનતે કારણ કે ત્યાં વ્રત નિયમને અભાવ છે. મનુષ્યનાભવમાં એમણે જે વ્રત નિયમ લીધાં છે તે એને મનુષ્યભવ સુધી જ લીધેલા વ્રતને નિરતિચાર રૂપથી-નિર્દોષ રૂપથી–પાલન કરવાવાળા છે, પણ દેવ વિગેરે અન્ય ભવમાં એ શક્ય નથી. આ વાત આ વાવન્નિવ પદને હેતુ છે. આ પ્રકારે આચાર્ય મહારાજે સમજાવવા છતાં પણ ગેઝમાહિલે પિતાના દુરાગ્રહને ન છોડ. જ્યારે સંઘે ગોઝમાહિલની આ હાલત જોઈ ત્યારે સંઘે ભેગા મળીને કાર્યોત્સર્ગ ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #830 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रियदर्शिनी टीका. अ० ३ गा० ९ सप्तमनिहवगोष्ठमाहिलपृष्टान्तः ७५ त्सर्गेण देवी आकृष्टा । सा आगता प्राह-आदिशतु सङ्घः। संघो वदति-हे देवि! महाविदेहे गत्वा तीर्थकरं पृच्छ-दुर्बलिकापुष्पाचार्यप्रमुखः संघो यद् वदति तत् सत्यम् , किमुत गोष्ठमाहिलोक्तम् , एतनिश्वेतु सङ्घः कायोत्सर्गेण स्थितः । सा महाविदेहतीर्थकरं पृष्ट्वा समागता वदति-सङ्घः सम्यग्वादी, अन्यस्तु मिथ्यावादी निवः । गोष्ठमाहिलमुनिस्तदा देवीवाश्येऽपि श्रद्धां न करोति वदनि च-एषा मिथ्या वदति, न तत्र गता । ततः संवेन गोष्ठमाहिलमुनिस्तिरस्कृतो बहिष्कृतः । स चानालोचि. ताप्रतिक्रान्तश्च कालमासे कालं कृत्वा प्रथमकल्पे देवत्वेन समुत्पन्नः । ततः संसारे परिभ्रम्य मोक्षं यास्यति । इति सप्तमनिहवगोष्ठमाहिलदृष्टान्तः ॥ ७ ॥ आकर्षण किया। देवी ने आकर कहा-संघ आज्ञा देवे मैं किसलिये बुलाई गई हूं। संघने कहा हे देवि ! तीर्थकर के पास जाकर पूछो कि दुबलिकाचार्य प्रमुख संघ जो कहता है वह सत्य है कि गोष्ठमाहिल कहता है वह सत्य है। इस बात को निश्चय करने के लिये संघ ने कायोस्सर्ग किया है। वह देवी वहां से विदेहक्षेत्र में तीर्थकर के पास गई और पूछकर वह यहां से वापिस आई। संघ से बोली-जो संघ कहता है वह सत्य है। दूसरा मिथ्यावादी निहव है। इस प्रकार देवी के कहने पर भी गोष्ठमाहिल को उसके वचन में विश्वास नहीं हुआ। बोला-यह तो मिथ्या बोलती है, क्यों कि यह वहां गई ही नहीं है। संघ ने जब गोष्ठमाहिल की इस प्रकार की बातें सुनी तो उसको संघ से बहिष्कृत कर પૂર્વક એક દેવીનું આરાધન કર્યું. દેવીએ આવીને કહ્યું, સંઘની શી આજ્ઞા છે? મને શા માટે લાવવામાં આવી છે? સંઘે કહ્યું કે હે દેવી! તીર્થકરની પાસે જઈને પૂછે કે, દુર્બલિકા પુષ્પાચાર્ય પ્રમુખ સંઘ જે કહે છે તે સત્ય છે કે, ગેઝમાહિલ કહે છે તે સત્ય છે? આ વાતને નિર્ણય કરવા માટે શ્રી સંઘ કાર્યોત્સર્ગ કરેલ છે અને આપને તસ્દી આપી છે. આ પ્રમાણેની હકીકત જાણી તે દેવી ત્યાંથી મહાવિદેહ ક્ષેત્રમાં તીર્થકરની પાસે ગઈ અને પ્રશ્નને ઉત્તર મેળવીને ત્યાંથી પાછી ફરી અને શ્રીસંઘને જણાવ્યું કે, શ્રીસંઘ જે કહે છે તે સત્ય છે, જ્યારે બીજો મિથ્યાવાદી નિદ્ભવ છે. આ પ્રકારે દેવીના કહેવા છતાં પણ ગોઝમાહિલને દેવીના વચનમાં વિશ્વાસ ન બેઠે. અને તેણે કહ્યું કે, એ દેવી તે ખોટું બોલે છે, કેમ કે એ ત્યાં તિર્થંકર પાસે ગઈ જ નથી. સંઘે જ્યારે ગોષમાહિલની આ પ્રકારની વાત સાંભળી ત્યારે તેને સંઘ બહાર ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #831 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७७६ उत्तराध्ययनसूत्रे एवमन्येऽपि सूत्रार्थापलापका निवास्तदन्तर्गता विज्ञेयाः। यथा-वोटिका:दिगम्बराः, जैनाभासा दण्डिनः, साम्प्रतिकास्तेरापंथधारकभिक्खूप्रभृतयश्च । तत्र बोटिक (दिगम्बर ) निहवदृष्टान्तः प्रोच्यते___ भगवतः श्रीमहावीरस्वामिनो निर्वाणसमयानवाधिकषट्शत६०९वर्षेषु व्यतोतेषु रघुवीरपुरे दीपकोधाने आर्यकृष्णाचार्यः समवसृतः । तत्र नगरे रिपुमर्दननामकस्य राज्ञः समीपे शिवभूतिनामको मल्लः समायातः, स श्रावस्तीनगरी वास्तव्यस्य श्रीभद्रमल्लस्य पुत्रः सहस्रमल्लापरनामक आसीत् । स रिपुमर्दननृपं दिया। अन्त में वह अनालोचित अप्रतिकान्त अवस्था में ही मरकर प्रथम कल्प में देव हुआ। यह सातवें गोष्ठमाहिल निहव की कथा हुई ॥७॥ इस प्रकार और भी जो सूत्रार्थ के अपलाप करनेवाले हैं वे सब निहवों की कोटि में ही गर्भित जानना चाहिये । जैसे दिगम्बर तथा जैनाभास दंडी एवं तेरापंथधारक भिक्खूजी वगैरह । दिगम्बरों की उत्पत्ति विषयक कथा इस प्रकार है__ भगवान् महावीर स्वामी को मोक्ष गये हुए जब छहसौ नौ ६०९ वर्ष व्यतीत हो चुके तब रघुवीर पुर के दीपकोद्यान से आर्य कृष्णाचार्य आये । इस नगर में रिपुमर्दन नाम के राजा का शासन था। राजा के पास शिवभूति नाम का एक मल्ल आया। इसका दसरा नाम सहस्रमल्ल था। यह श्रावस्ती नगरी के रहनेवाले श्रीभद्रमल्ल का મુકી દીધું. અંતમાં તે આલેચના કર્યા વગર અને પ્રતિક્રમણ કર્યા વિના મરીને પ્રથમ કલ્પમાં દેવ થયા. છે આ સાતમા ગેઝમાહિલ નિતવની કથા થઈ છે૭ આ રીતે જે બીજાએ સૂત્રાર્થને અવળે અર્થ કરવાવાળા છે તે સઘળા નિદ્ધની કટીના જાણવા જોઈએ. જેમ દિગમ્બર તથા જૈનાભાસ દંડી અને તેરાપંથધારક ભિખુજી વગેરે. ! દિગંમ્બરોની ઉત્પત્તિ વિષયક કથા આ પ્રકારની છે. જે ભગવાન મહાવીર સ્વામીને મોક્ષ પધાર્યો ત્યારે છ નવ (૬૦૯) વર્ષ વીતી ચુક્યાં ત્યારે રઘુવીરપુરના દીપકેદ્યાનમાં આર્ય કરુણાચાર્ય પધાર્યા આ રઘુવીરપુર નગરમાં રિપુમર્દન નામે રાજા રાજ્ય કર હિતે. રાજાની પાસે શિવભૂતિ નામે એક મલ્લ આવ્યો. એનું બીજું નામ સહઅમલ હતું. એ શ્રાવસ્તી નગરીમાં રહેતા શ્રી ભદ્રમલને પુત્ર હતા. તેણે રાજાને કહ્યું ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #832 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रियदर्शिनी टीका अ० ३ गा० ९ बोटिक (दिगम्बर) निह्नवदृष्टान्तः ७७७ वदति-राजन् ! तव सेवां कर्तुमिच्छामि, राज्ञा कथितम्-परीक्षानन्तरं तव सेवावसरं दास्यामि। अन्यदा राज्ञा स कृष्णचतुर्दश्यामाहूतः कथितश्च, अस्यां रात्रौ श्मशाने गत्वा तत्र तिष्ठ । स तद्वचनात् तत्र गतः । नृपेण तत्रान्ये पुरुषास्तस्य भयोत्पादनार्थ मच्छन्चरीत्या पश्चात् प्रेषिताः । राजपुरुषाः श्मशाने गत्वा व्याघ्रवेतालादिशब्दैभयमुत्पादयन्ति, तथाप्यसौ न बिभेति, किंतु निःशङ्क एव तत्र स्थितः । स च पुत्र था। आते ही शिवभूति ने राजा से कहा राजन् ! मैं आपकी सेवा करना चाहता हूं। राजाने कहा-पहिले मैं तुम्हारी परीक्षा करूँगा पश्चात् तुम्हें सेवा करने का अवसर दूंगा। किसी एक समय राजाने उसे कृष्णचतुर्दशी के दिन बुलाया। बुलाकर कहा-आज तुम रात्रि में श्मशान में जाकर बैठो । राजा की बात सुनकर शिवभूतिमल्लने वैसा ही किया । राजाने उसकी परीक्षा लेने के अभिप्राय से ऐसा काम किया कि कुछ अपने राजकर्मचारियों को श्मशान में गुप्तरीति से भेज दिये । और उनसे कह दिया कि-तुम सब वहां पर शिवभूति को डराने के लिये ऐसे काम करो कि जिससे उसको वहां भय जागृत हो जाय । सेवको ने जाकर वहां वैसा ही काम किया। व्याघ्र, वेताल आदि के शब्दोंद्वारा उसको अधिक से अधिक डराने का प्रयत्न किया तो भी शिवभूति डरा नहीं प्रत्युत ज्यों २ इन लोगोंने उसको डराने का प्रयत्न किया त्यों २ यह सुदृढ बनता गया और एक आसन पर जमकर बैठा रहा। जब राजકે,-રાજન! હું આપની સેવા કરવા માગું છું, રાજાએ કહ્યું કે-હું પહેલાં તમારી પરીક્ષા કરીશ એ પછી જ તમને મારી સેવામાં રાખીશ. કઈ એક સમયે તેને રાજાએ અંધારીયાની ચૌદસને દિવસે બોલાવ્યું અને કહ્યું કે, આજની રાત તમે સ્મશાનમાં ગાળે. રાજાને આદેશ સાંભળીને શિવભૂતિ મલે એ પ્રમાણે કર્યું. રાજાએ તેની પરીક્ષા લેવાના આશયથી પિતાના કેટલાક રાજકર્મચારીઓને ગુપ્ત રીતે સ્મશાનમાં મોકલી દીધા, અને તેમને કહ્યું કે તમે બધા શિવભૂતિને ડરાવવા માટે એવી ગોઠવણ કરે છે, જેથી શિવભૂતિ ભયભીત બની જાય. સેવકે એ ત્યાં જઈને રાજાએ કહ્યા પ્રમાણે કર્યું. વાઘ, અને વિતાલના અવાજે કરી કરી એને ડરાવવાના ઘણા પ્રયત્ન કર્યો તે પણ શિવભૂતિ જરાએ ડર્યો નહીં. પરંતુ જેમ જેમ એ લકોએ એને ડરાવવા પ્રયત્ન કરવા માંડે તેમ તેમ તે દઢ નિશ્ચયી બનતે ગ, અને એક આસન ઉપર સ્થિર બેસી ગયા. જ્યારે રાજ્ય કર્મચારીઓ उ०९८ ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #833 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७७८ उत्तराध्ययनसूत्रे प्रभाते राज्ञः समीपमागत्य वदति-अहं श्मशाने रात्री निर्भयतया स्थितः। राजपुरुषा अपि वदन्ति-अस्माभिर्भये प्रदर्शितेऽपि निर्भय एवायं तत्रावस्थितः। तदा नृपतिः स्वसेवायां तं नियोजयति स्म । ___अन्यदा नृपतिः स्वसैनिकान् मथुरां ग्रहीतुं प्रेषयति, तैः सह-शिवभूतिमपि प्रेषयति । मार्गे गच्छद्भिस्तैः परस्परमुक्तम्-भोः ! वयं राजानमपृष्ट्वा प्रस्थिताः, का कर्मचारी अपने काम में सफलित नहीं हुए तो वे सब वहां से वापिस चले आये। प्रातःकाल होते ही शिवभूति भी वहां से चला आया और राजा के पास आकर कहने लगा कि राजन् ! मैं आपकी आज्ञानुसार निर्भय होकर रातभर श्मशानमें रहा। इतने में राजपुरुषों ने भी आकर राजा को समाचार दिया कि हम लोगों ने हर एक प्रकार से शिवभूति को भय प्रदर्शित करने में कसर नहीं रखी, परन्तु यह तो जरा भी भय से विचलित नहीं हुआ। राजा ने राजकर्मचारियों की बात सुनकर शिवभूति को निर्भय मान उसको अपनी सेवा में रख लिया। किसी एक समय की बात है कि राजा ने अपने सैनिकों को आदेश दिया कि वे मथुरानगरीकी ओर धावा बोल देवें । राजा का आदेश पाकर सैनिकोने मथुरानगरी की ओर प्रयाण कर दिया। साथ में राजा की तर्फ से शिवभूति को भी जाने का आदेश मिला। रास्ते में जाते २ इन लोगों ने परस्पर में इस प्रकार विचार किया-अरे भाई ! यह तो कहो कि अपन પિતાના કામમાં–તેને ડરાવવામાં સફળ ન થયા ત્યારે તે બધા ત્યાંથી પાછા કર્યા. સવાર થતાં શિવભૂતિ સ્મશાનમાંથી પાછા ફર્યો અને રાજાની પાસે આવીને કહેવા લાગ્યો રાજન ! હું આપની આજ્ઞા અનુસાર નિર્ભય થઈને આખી રાત્રિ સ્મશાનમાં રહ્યો છું. એજ સમયે રાજકર્મચારીઓએ પણ આવીને રાજાને સમાચાર આપ્યા કે, અમે લેકેએ અનેક પ્રકારે શિવભૂતિને ડરાવવામાં કાંઈ ક્યાસ રાખી નથી. પરંતુ એ જરા પણ ડર્યો નહીં. રાજકર્મચારીઓની આ વાત સાંભળી શિવભૂતિને નિડર માની પિતાની સેવામાં રાખી લીધે. કેઈ એક સમયે રાજાએ પિતાના કર્મચારીઓને હુકમ કર્યો કે, તેઓ મથુરા નગરી પર ચઢાઈ કરે, રાજાને આદેશ મળતાં સનિકે એ મથુરા નગરી તરફ પ્રયાણ કરી દીધું. રાજાએ તેમની સાથે પોતાના તરફથી શીવભૂતિને પણ જવાને હુકમ કર્યો. જતાં જતાં રસ્તામાં એ લોકેએ એવો વિચાર કર્યો કે, અરે ભાઈ ! એ તે કહે કે આપણે કઈ મથુરા નગરી ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #834 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૭૭૨ प्रियदर्शिनी टीका अ० ३ गा. ९ बोटिक ( दिगम्बर) निह्नवदृष्टान्तः मथुराऽस्माभिग्रह्येति । तत्र शिवभूतिः प्राह - द्वे अपि मथुरे ग्रहीष्यामः, यत्र ग्रहणं भवतां दुष्करं, तत्राहं यास्यामि । एवमुक्त्वा शिवभूतिः पाण्डुमथुरायां गतः । तत्र गत्वा बलेन तां जग्राह । ततो द्वितीयामपि मथुरां विजित्य शिवभूतिस्तैः सैनिकैः सह नृपसमीपे समायातः । नृपेणोक्तम् - सुदुष्करं कार्यं कृतवानसि, अतः परितुष्टोऽस्मि, ब्रूहि स्वमनोगतम् । शिवभूतिः प्राह – सर्वत्र मम स्वेच्छा भ्रमणं देहि । नृपेण तत् प्रदत्तम् । को कौनसी मथुरा पर धावा बोलना है । चलते समय राजा से इस बात को तो अपन लोगों ने पूछा ही नहीं है। सबकी बात सुनकर शिवभूति ने कहा कि इसकी क्या चिन्ता- चलो दोनों ही मथुरा पर धावा बोल देंगे। आप लोगों को जिस पर जाना दुष्कर प्रतीत होता हो, वह मेरे जुम्मे रहे। इस प्रकार कह कर शिवभूति सैनिकों को साथ लेकर सर्वप्रथम पाण्डुमथुराकी ओर बढ़ा और उसको विजितकर द्वितीयमथुराकी ओर भी चला। उसको भी उसने जीत लिया । पश्चात् सैनिकोंके साथ वापिस अपने स्थान पर लौट आया। राजा के पास आकर उसने दोनों मथुराओं को जीतने की खबर सुनाई । सुनकर राजा ने कहा- धन्यवाद् आपने बहुत ही बड़ा भारी दुष्कर कार्य साधा है इससे मुझे बड़ी भारी प्रसन्नता है, कहो तुम्हें इसके फलस्वरूप क्या देना चाहिये । सुनकर शिवभूति ने अपने मनोगत भावको प्रकट कर दिया और कहा कि मेरा ઉપર ચડાઈ કરવી છે? નીકળતી વખતે આ વાત આપણે રાજાને તે પૂછી પણ નહીં. બધાની વાત સાંભળીને શિવભૂતિએ કહ્યું કે એમાં ચિન્તા શા માટે ? ચાલા અને મથુરા ઉપર ચઢાઈ કરીશું'. આપને જ્યાં ચઢાઈ કરવાનું વધુ કઠણ લાગતું હોય તા તેની જવાબદારી મારા શિર ઉપર છે. આ પ્રમાણે કહીને શિવભૂતિ સૈનિકોને સાથે લઇ પ્રથમ પાંડુ મથુરાની તરફ ઉપડયા અને એને જીતી લઈને ખીજી મથુરા ઉપર પણ એણે ચઢાઇ કરી. અને તેને પણ જીતી લીધી. વિજયી બન્યા પછી સૈનિકો સાથે પોતાના સ્થાને પાછા ફર્યાં. રાજાની પાસે આવીને તેણે અને મથુરાને જીતી લીધાની વાત કહી સંભળાવી, આ સાંભળી રાજાએ કહ્યુ. ધન્યવાદ ! તમે ઘણું જ સારૂં' કામ કર્યું, ઘણું દુષ્કર કાર્ય પાર પાડયું. છે આથી હું તમારા ઉપર ખૂબ જ પ્રસન્ન થયા છું કહે! તમાને શુ' પુરસ્કાર ઈનામ આપુ' ? એ સાંભળીને શિવભૂતિએ પાતાના મનના ભાવ પ્રગટ કર્યાં અને કહ્યું કે, કાઇ પણ પ્રકારની શકટોક વગર ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર ઃ ૧ Page #835 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययनसूत्रे अथासौ स्वेच्छया सर्वत्र भ्रमन् रात्रौ वा प्रभाते वा मध्याह्ने वाऽन्त्यप्रहरे वा समायाति, कदाचित् स्वगृहे नागच्छत्यपि । दिवसे यावद् गृहे नागच्छति, तावत् तस्य भार्या न भोजनं करोति, रात्रौ यावन्नायाति सा तावन्न शेते । ७८० अन्यदा कदाचित् सा खिन्ना श्वश्रूं प्रति वदति - हे मातस्तव पुत्रोऽर्धरात्रे कदाचिचरमे प्रहरे, कदाचिन्नायात्यपि, दिवसेऽपि रात्रावपि च कालेऽतिक्रान्त एवं सर्वत्र स्वेच्छानुसार विना किसी प्रतिबंध के आना जाना हो, इसकी आज्ञा आपकी तरफ से मिलनी चाहिये । राजा ने शिवभूति की बात स्वीकार करली | बस अब क्या था - शिवभूति स्वेच्छानुसार इधर उधर फिरने लगा। रात्रि में, दिन में प्रातःकाल मध्याह्नकाल में तथा अंतिमप्रहर में जहां इच्छा होती चल देता और जब इच्छा होती वापिस आता । कभी २ नहीं भी आता । दिन में जबतक शिवभूति घर पर नहीं आता तबतक उसकी पत्नी भोजन नहीं करती, तथा रात्रिमें जबतक नहीं आता तबतक नहीं सोती । शिवभूति की इस प्रकार स्वेच्छाचार प्रवृत्ति से जब यह विशेष तंग आगई तो एक दिन अपनी सास से कहने लगी- सामुजी ! आप के पुत्र तो विशेष स्वच्छंद हो गये हैं। आप उनसे कुछ कहती ही नहीं है। कभी तो ये अर्धरात्रि गये बाद घर पर आते हैं, और कभी अन्तिम હું સર્વ જગ્યાએ મારી ઇચ્છા અનુસાર જઈ આવી શકું તેવી આજ્ઞા આપના તરફથી મળવી જોઈએ, રાજાએ શિવભૂતિની વાત સ્વીકારી લીધી. પછી શુ અન્યું ? શિવભૂતિ પેાતાની ઇચ્છા અનુસાર જ્યાં ત્યાં ફરવા लाग्यो रात्रि, हिवसे, प्रातः अणे, मध्याह्न अणे तथा अंतिम प्रहरमां જ્યારે અને જ્યાં જવાની ઈચ્છા થતી ત્યારે તે ત્યાં પહોંચી જતા, અને તેની મરજી મુજખ ઈચ્છા થાય ત્યારે પાછા ફરતા કાઈ કાઈ વખત ગમે ત્યાં શકાઈ જતા. દહાડે જ્યાં સુધી શિવભૂતિ ઘેર પાછે ન આવતા ત્યાં સુધી તેની સ્રી લેાજન કર્યા વિના રાહ જોઈને બેસી રહેતી. રાત્રીના સમયે પણ તે જ્યાં સુધી ઘેર ન આવતા ત્યાં સુધી તેની રાહ જોઈને બેસી રહેતી. શિવભૂતિની આ પ્રકારની સ્વેચ્છાચાર પ્રવૃત્તિથી જ્યારે એ ખૂબ જ કંટાળી ગઈ ત્યારે તેણે એક દિવસ પેાતાની સાસુને કહ્યું કે, સાસુજી ! આપના પુત્ર ખૂબ જ સ્વચ્છંદી થઈ ગયેલ છે આપ તેને કેમ કાંઇ કહેતાં નથી ? કાઈ કોઈ વખત મધરાતે તા કાઈ વખતે પાછલી રાત્રે તે ઘેર આવે છે ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર ઃ ૧ Page #836 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७८१ प्रियदर्शिनी टीका. अ० ३ गा० ९ बोटिक ( दिगम्बर) निह्नवदृष्टान्तः तव पुत्रः समायाति, अहं कदाचिन्निद्रातुरा, कदाचित् क्षुधातुरा च तिष्ठामि । तदा श्वश्रवा निगदितम् - अस्यां रात्रौ द्वारं पिधाय त्वया शयनीयम्, अहमत्र जाग्रती तिष्ठामि, पुत्रवध्वा तथैवाऽऽचरितम् । शिवभूतिर्मध्यरात्रे समायातः स वदति - द्वारमुद्घाटय, तदा जनन्या कथितम्, अस्मिन् समये यत्र गृहे द्वारमुद्घाटितं भवति तत्र गम्यताम् । स रोषावेशेन निर्गच्छति । तत्र नगरे प्रतिगृहद्वारं भ्रमता सेन कृष्णाचार्यस्योपाश्रय एवोद्घाटितो दृष्टः । तत्र गत्वाऽऽचार्य वन्दित्वा स वदति प्रहर में, तथा कभी २ नहीं भी आते हैं । तात्पर्य कहने का यह है कि समयानुसार नहीं आते जाते हैं। जब मनमें आया तब आ गये-नहीं तो नहीं आये। दिवस हो चाहे रात्रि हो बेसमय ही ये आते हैं। मैं तो इनसे बड़ी परेशानी भोगती रहती हूं-न समय पर खा पाती हूं और न समय पर सो पाती हूं। बहू की बात सुनकर सासुजीने कहा- बेटी ! आज रात्रि को तूं तो घरका दरवाजा बंद कर के सो जाना और मैं जागती रहूंगी। सासुजी की बात सुनकर पुत्रवधू ने वैसा ही किया । शिवभूति अर्धरात्रि गये बाद घर पर आया । आते ही उसने पत्नी से कहा कि - किवाड़ खोलो। शिवभूति की बात सुनकर बीच ही में माता ने कहा कि जहां के किवाड़ खुले हुए हों वहीं पर जा। माता की यह बात सुनकर उसको इकदम क्रोध आ गया और उसी आवेश में वह वहां से चल दिया। हर एक घर के द्वारों को देखते हुए वह जा रहा था कि અને કાઈ કઈ વખત તા બિલકુલ ઘેર આવતા જ નથી, એટલે કે, કાઈ દિવસ વખતસર ઘેર આવતા જ નથી, જ્યારે મનમાં આવે ત્યારે ઘેર આવે, મનમાં ન આવે તે ન આવે, દહાડો હાય કે રાત હાય હેંમેશાં સમય એસમયે તે આવે છે. હવે તે હું તેમનાથી હેરાન હેરાન થઇ ગઈ ૐ, નથી સમયસર ખાવાનું ઠેકાણું પડતું, કે નથી સુવાનું મળતું. વહુની વાત સાંભળીને સાસુએ કહ્યું કે બેટી ! આજે રાતના ઘરના દરવાજે અધ કરીને તું સુઈ જજે અને હું જાગતી રહીશ. સાસુજીની વાત સાંભળીને પુત્રવધૂએ એમ જ કર્યુ”. શિવભૂતિ મધરાત વિત્યા પછી ઘેર આવ્યેા આવતાં જ પત્નીને કમાડ ખેાલવાનું કહ્યું, શિવભૂતિના અવાજ સાંભળીને માતાએ કહ્યું કે, જ્યાંનાં કમાડ ખુલ્લાં હોય ત્યાં જા. માતાની આ વાત સાંભળીને તેને એકદમ ક્રોધ ચઢચા અને ક્રોધના આવેશમાં તે ત્યાંથી ચાલી નીકળ્યેા. દરેક ઘરનાં કમાડ તરફ્ દૃષ્ટિ કરતાં કરતાં તે જઈ રહ્યો હતા એટલામાં ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર ઃ ૧ Page #837 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७८२ उत्तराध्ययनसूत्रे भदन्त ! मां प्रव्रजितं कुरु । आचार्यस्तं प्रव्राजयितुं नेच्छति। ततस्तेन स्वयमेव लोचः कृतः । सङ्घन साधुवेषः प्रदत्तः । ततः कृष्णाचार्येण सह मिलितः। स कृष्णाचार्यः शिवभूतिमुनिनाऽन्यैश्च मुनिभिः सह ग्रामानुग्रामं विहरन् कालान्तरेण पुनस्तत्रैवागतः। राजा तद्वन्दनार्थमागतः । ततः शिवभूतिमुनिगुरोराज्ञया भिक्षाचर्या गतः। राजा तस्मै रत्नकम्बलं दत्तवान् । रत्नकम्बलं गृहीत्वा गुरुसमीपे समायातः। बहुमूल्यको रत्नकम्बलोऽनेन गृहीतः यः साधोर्न कल्पते, इति मत्वाऽऽचार्येण शिवइतने में उसे कृष्णाचार्य का उपाश्रय उघाडे द्वार वाला खुल्ला दिख पड़ा। उपाश्रय में जाकर वंदना करके उसने आचार्य से कहा-भदन्त ! आप मुझे दीक्षा दे दीजिये। आचार्य ने उस को दीक्षित न होने की अपनी संमति प्रदर्शित की। बाद में उसने स्वयं ही अपने हाथों से केशलोंच कर लिया। संघ ने उसी समय इसको साधु का वेष दे दिया। साधु पद से विशिष्ट होकर शिवभूति आचार्यमहाराज के पास जा पहुँचा। शिवभूति मुनि के साथ तथा अन्यमुनियों के साथ आचार्यमहाराज ने वहां से विहार कर दिया। ग्रामानुग्राम विचरते हुए आचार्यमहाराज कालान्तर में उसी रघुवीर पुर में आये। मुनिराजों का आगमन सुनकर राजा उनको वंदना करने के लिये आया। शिवभूतिमुनि अपने गुरुमहाराज की आज्ञा ले कर भिक्षाचर्या के लिये गया । राजाने उसको एक रत्नकम्बल दिया। शिवभूति उस कम्बल को लेकर गुरु के पास आया। रत्नकम्बल को તેણે કૃષ્ણાચાર્યના ઉપાશ્રયનાં દ્વાર ખુલ્લાં જોયાં. ઉપાશ્રયમાં જઈ વંદના કરીને તેણે આચાર્યને કહ્યું ભદન્ત ! આપ મને દીક્ષા આપો. આચાર્ય મહારાજે તેને દીક્ષિત ન થવા સમજાવ્યું છતાં પણ તેણે પિતાના હાથથી પિતાના વાળને લગ્ન કર્યો તે પછી સંઘે તેને સાધુને વેશ આપે સાધુને વેશ ધારણ કરીને શિવભૂતિ આચાર્ય મહારાજની પાસે જઈને રહ્યો. આ પછી શિવભૂતિ મુનિ અને અન્ય મુનિઓની સાથે આચાર્ય મહારાજે ત્યાંથી વિહાર કર્યો, પ્રામાનુગ્રામ વિચરતાં કેટલાક સમયે એ રઘુવીરપુરમાં પાછા પધાર્યા. મુનિરાજનું આગમન સાંભળીને રાજા તેમને વંદના કરવા આવ્યા. શિવભૂતિ મુનિ પિતાના ગુરુની આજ્ઞા લઈને ભિક્ષાચર્યા કરવા માટે નીકળ્યા. રાજાને ત્યાં જતાં રાજાએ તેને એક રત્નકંબલ આપી. શિવભૂતિ એ કંબલ લઈને ગુરુની પાસે આવ્યા. રત્નકંબલ જોઈને આચાર્ય મહારાજે વિચાર્યું ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #838 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रियदर्शिनी टीका. अ० ३ गा० ९ बोटिक ( दिगम्बर) निह्नवदृष्टान्तः ૭૧ भूतिमुनौ उपाश्रयाद् बहिर्गते सति रत्नकम्बलं खण्डशः कृत्वा श्लेष्मवखार्थे मुनिभ्यस्तद्रत्न कम्बलखण्डानि दत्तानि । तदनु शिवभूतिमुनिः समागतः, एतद्वृत्तं विज्ञाय सकषायः सन् आचार्य पृच्छति-मम निश्रितकम्बलः क्वास्ति ? गुरुणा कथितं - बहुमूल्य वस्त्रधारणं साधूनां परिग्रहो भवति, अतस्तं खण्डशः कृत्वा मया साधुभ्यः श्लेष्मवस्त्रार्थं स प्रदत्तः । एतन्निशम्य शिवभूतिना प्रोक्तम्- यदि बहुमूल्यकवस्त्रधारणं साधूनां परिग्रहस्तदाऽल्पमूल्य कवस्त्रधारणमपि परिग्रहः स्यादेव, परिग्रहे देखकर आवाय महाराज ने विचारा कि साधुओं के लिये बहुमूल्य की वस्तु का लेना कल्पता नहीं है। ऐसा सोचकर जब शिवभूतिमुनि उपाश्रय से बाहिर गया हुआ था तब आचार्य महाराज ने उस कम्बल के टुकडे २ करवा कर अन्य साधुओं को एक २ टुकड़ा श्लेष्म पोंछने के लिये दे दिया । जब शिवभूति उपाश्रय में आया तो उसको इस बात की खबर पड़ते ही कषायपरिणति जागृत हो गई, जाकर उसने आचार्य महाराज से पूछा- मेरी नेसराय की रत्नकम्बल कहां है । गुरु महाराज ने कहा- सुनो बहुमूल्यवाले वस्त्रों का धारण करना साधुओं के कल्प से बाहर है अतः मैंने उसके टुकडे २ करके अन्य साधुओं को एक २ टुकड़ा श्लेष्म पोंछने के लिये दे दिये हैं। गुरु महाराज की इस बात को सुनकर शिवभूति ने कहा कि यदि बहुमूल्यवाले वस्त्रों का धारण करना साधुकल्प से बाहर है अर्थात् वह परिग्रह है - तो फिर इसी तरह अल्पमूल्यवाले वस्त्रों का धारण करना साधु की समाचारी से बाहर मानना કે, સાધુઓ માટે બહુમુલ્યવાન વસ્તુ લેવી કલ્પતી નથી. એવું વિચારીને જ્યારે શિવભૂતિ મુનિ ઉપાશ્રયથી બહાર ગયા હતા ત્યારે આચાર્ય મહારાજે તે કબલના ટુકડે ટુકડા કરાવી બીજા સાધુઓને એકેક ટુકડા નાક લુછવા માટે આપી દીધા. જ્યારે શિવભૂતિ મુનિ ઉપાશ્રયમાં આવ્યા ત્યારે તેમને એ વાતની ખબર પડી. ખખર પડતાં જ તેમનામાં કષાય પરિણિત ( ક્રોધ ) જાગૃત થઈ જતાં તેણે આચાર્ય મહારાજને કહ્યું મારી વહારી લાવેલી રત્નક ખલ કયાં છે ? મચાયે કહ્યું સાંભળે! મહુમૂલ્યવાન—કી ંમતી – વસ ધારણ કરવા સાધુઓને ન ખપે. આથી મેં તે રત્નક ખલના ટુકડે – ટુકડા કરીને સાધુઓને એક એક ટુકડા નાક સાફ કરવા આપી દીધેલ છે. ગુરુમહારાજની આ વાત સાંભળીને શિવભૂતિએ કહ્યુ` કે, જો મહુમૂલ્યવાન વસ્ત્રનું ધારણ કરવું સાધુના આચારની બહાર છે અર્થાત એ પરિગ્રહ છે–તા પછી અલ્પમૂલ્યવાળા સામાન્ય વસ્ત્રાનું ધારણ કરવું એ પણ સાધુની સમાચારીથી ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર ઃ ૧ Page #839 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७८४ उत्तराध्ययनसूत्रे सति च मोक्षाभावः । इत्थं च वस्त्राणां सर्वथा त्याग एवं श्रेयः। किमनेनाल्पमूल्यबहुमूल्यवस्त्रग्रहणाग्रहणविचारेण । एवं श्रुत्वा कृष्णाचार्यः कथयति-वत्स ! अयं वस्त्राभावरूपः कल्पो जिनकल्पिकानां युज्यते, तद्वर्णनं यथा-जिनकल्पिको द्विविध:-सपात्रकः करपात्रकश्च, सवेलकः, अचेलकश्च, तत्र परिधानवस्त्रं सदोरकमुखवत्रिका चेति वस्त्रद्वयमात्रधारकः सचेलकः । सर्वथा वस्त्ररहितोऽचेलकः । चाहिये-परिग्रहरूप मानना चाहिये और जब यह अल्पमूल्यवाले नियमित वस्त्रों का धारण करना भी परिग्रहरूप हुवा, तो फिर परिग्रहावस्था में मुक्ति की प्राप्ति का अभाव होगा। इससे तो यही सिद्ध होता है कि वस्त्रों का सर्वथा परित्याग ही श्रेयसाधक-मोक्षसाधक है। फिर अल्पमूल्यक वस्त्र ग्रहण करना चाहिये, बहुमूल्य वस्त्र नहीं, इस प्रकार का विचारविमर्श व्यर्थ ही है। शिवभूति की इस प्रकार की कपोलकल्पित तर्क सुनकर आर्य कृष्णाचार्य ने उसको समझाया कि सर्वथा वस्त्र का त्याग करना यह जिनकल्पियों का आचार है। जिनकल्पियों का स्वरूप इस प्रकार हैजिनकल्पि दो प्रकार के होते हैं, १ सपात्रक, २ करपात्रक। तथा सचेल और अचेल । इनमें वस्त्रका धारण करना तथा दोरे से मुखवत्रिका मुँह पर बाँधना इस प्रकार दो उपकरणों का धारण करना यह आचार सचेल जिनकल्पियों का है। सर्वथा वस्त्र का परित्याग कर देना यह आचार अचेल जिनकल्पियों का है। આચારથી બહાર માનવું જોઈએ—પરિગ્રહરૂપ માનવું જોઈએ. જ્યારે અલ્પમૂલ્યવાળા નિયમિત વસ્ત્રોને ધારણ કરવાં એ પણ પરિગ્રહરૂપ થયું તે પછી પરિગ્રહ અવસ્થામાં મોક્ષની પ્રાપ્તિને અભાવ થશે. એનાથી તે એ જ સિદ્ધ થાય છે કે, વસ્ત્રને સર્વથા પરિત્યાગ જ શ્રેયસ્સાધક-મેક્ષ સાધક છે. આથી અલ્પમૂલ્ય વસ્ત્ર ગ્રહણ રાખવાં જોઈએ. અને બહુમૂલ્યવાળાં ન રાખવા આ પ્રકારને વિચારવિમર્શ જ વ્યર્થ છે. શિવભૂતિને આ પ્રકારને કપિલકલ્પિત તર્ક સાંભળીને આચાર્ય કૃષ્ણાચાર્યે તેને સમજાવ્યું કે સર્વથા વસ્ત્રને ત્યાગ કરવો એ જીનકપિઓને આચાર છે. જીનકલ્પિઓનું સ્વરૂપ આ પ્રકારનું છે. જનકલ્પિ બે પ્રકારના હોય છે. ૧ સપાત્રક, ૨ કરપાત્રક તથા સચેલ અને અચેલ તેમાં શરીર ઉપર વસ્ત્ર ધારણ કરવું તથા દેરાસહિત મુખવસ્ત્રિકા મોઢા ઉપર બાંધવી આ રીતે બે ઉપકરણોને ધારણ કરવાં એ આચાર સચેલ જનકતિઓને છે, સર્વથા વસ્ત્રોને પરિત્યાગ કરે એ આચાર અચેલ જીનકલિપને છે. ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #840 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रियदर्शिनी टीका. अ० ३ गा० ९ बोटिक ( दिगम्बर ) निह्नवदृष्टान्तः ७८५ एवं जिनकल्पिकवर्णनं श्रुत्वा शिवभूतिः पृच्छति-तर्हि कथमसौ जिनकल्पिकमार्गः साम्प्रतं नाश्रीयते ? । आचार्येणोक्तम्-स मार्गः साम्प्रतं व्युच्छिन्नोऽस्ति । शिवभूतिः प्राह–स तु व्युच्छिन्नोऽल्पसत्त्वानां न तु समर्थानाम् । किञ्च-ययेष मार्गोऽनुष्ठीयते तदाऽस्य व्युच्छेदोऽपि न स्यात् , अतो मोक्षार्थिना एष मार्गोऽनुष्ठेयः, यतः सर्वथा परिग्रहवर्जितत्वमेव श्रेयः । आचार्येणोक्तम्-धर्मोपकरणमे वैतत् , न तु परिग्रहः । जिनकल्पिकस्तु प्रथमसंहननादिगुणवानेव भवति, इदानीं तु प्रथमसंहननादिगुणाभावात् जिनकल्पिकमार्गों नानुष्ठीयते । एतद्रीत्या बहुशः प्रतिबोधितोऽपि शिवभूतिमुनिस्तत्र श्रद्धां न कृतवान् , इस प्रकार आचार्य द्वारा जिनकल्प का वर्णन सुनकर शिवभूति ने पूछा-तो फिर आजकल यह जिनकल्पियों का मार्ग आचरित क्यों नहीं किया जाता है ? । आचार्यने कहा-यह मार्ग इस समय व्युच्छिन्न हो गया है। शिवभूतिने पुनः कहा-यह व्युच्छिन्न तो अल्पसत्त्व प्राणियों के लिए है किन्तु समों के लिये नहीं, तथा यदि यह मार्ग अनुष्ठित कर लिया जाय तो फिर इसका व्युच्छेद भी नहीं होगा, अतः मोक्षार्थियों को तो इस मार्ग का सेवन अवश्य करना चाहिये, क्यों कि बात भी कुछ ऐसी ही समझमें आती है कि परिग्रह का सर्वथा वर्जन करना ही श्रेयस्कर मार्ग है। शिवभूति की बात सुनकर आचार्य महाराज ने कहा-यह धर्मोपकरण है, अतः यह परिग्रह नहीं है । यह तो धर्मोपकरण होने से ग्राह्य है। जिनकल्प प्रथम संहनन आदि गुणवाले जीव के ही होता है। इस पंचमकाल में वह प्रथम संहनन आदि गुण जीवों में नहीं है, इस लिये जिनकल्पिक मार्ग આ પ્રકારે આચાર્ય પાસેથી જનકલ્પનું વર્ણન સાંભળીને શિવભૂતિએ પૂછયું તે પછી આજ કાલ એ જીનકલ્પિઓને માર્ગ કેમ આચરવામાં આવતો નથી? આચાર્યે કહ્યું એ માગ આ સમયે છિન્નભિન્ન થઈ ગયેલ છે. શિવભૂતિએ ફરીથી કહ્યું-વિચછેદ નિર્બળ મનના પ્રાણીઓ માટે છે, સમર્થ પુરૂષ માટે નહીં. વળી જે એ માર્ગ અપનાવી લેવામાં આવે તે પછી એને વિચછેદ પણ નહીં થાય આથી મેક્ષાથી ઓએ તે એ માર્ગનું સેવન અવશ્ય કરવું જોઈએ કેમ કે એ વાત સમજી શકાય એવી છે કે પરિગ્રહને સર્વથી ત્યાગ કરે એ જ સર્વ રીતે શ્રેયસ્કર માર્ગ છે. શિવભૂતિની આ વાત સાંભળીને આચાર્ય મહારાજે કહ્યું આ તે ધર્મ ઉપકરણ છે, માટે તે પરિગ્રહ નથી. વળી ધર્મ ઉપકરણ હોવાને કારણે જ તે ગ્રાહ્ય છે જનકલ્પ પ્રથમસંહનન આદિ ગુણવાળા જીવન માટે જ હોઈ શકે, આ પંચમ કાળમાં તે પ્રથમ સંહનન આદિ ગુણ માં છે જ નહિ માટે જીનકલ્પિક उ० ९९ ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #841 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययनसूत्रे प्रत्युतामर्षवशात् स्ववस्त्रं त्यक्त्वा एकाकी भूत्वा वनं गतः । अत्र द्वितीयाध्ययने त्रयोदशगाथाव्याख्यानावसरे जिनकल्पिक मार्गस्य सविस्तरं वर्णनं कृतं जिज्ञासुना तत्र द्रष्टव्यम् । अथोद्याने स्थितस्य शिवभूतिमुनेर्वन्दनार्थं तद्भगिनी उत्तरानाम्नी तत्र समागता । वस्त्रधारणेन मोक्षो न भवतीति तदुपदेशात् तयाऽपि वस्त्रं परित्यक्तम् । अन्यदा कदाचित् सा तत्र रघुवीरपुरे भिक्षार्थं गता, तदा स्वगृहस्योपरिभूमिकायां अनुष्ठित नहीं हो सकता है। इस प्रकार आचार्य ने शिवभूतिको अनेक प्रकार से समझाया परन्तु शिवभूतिने अपना दुराग्रह नहीं छोड़ा। क्रोधके आवेशमें आकर यह वस्त्र का परित्याग कर अकेला ही वन की ओर चला गया । इसी सूत्र के द्वितीय अध्ययन में तेरह १३ वीं गाथा के व्याख्यान के अवसर में जिनकल्पिकमार्ग का सविस्तृत वर्णन किया जा चुका है अतः जिज्ञासु को वहां पर यह विषय देख लेना चाहिये । शिवभूति की बहिन जिस का नाम उत्तरा था उस को जब यह खबर पड़ी तो वह अपने भाई शिवभूति को वंदना करने के लिये वहां पहुँची । वस्त्र के धारण करने से मुक्ति नहीं होती है इस प्रकार का शिवभूति का उपदेश सुन कर उत्तरा ने भी अपने गृहीत वस्त्र का परित्याग कर दिया और बिल्कुल नग्न हो गई। एक दिन की बात है कि जब यह रघुवीरपुर में भिक्षा के लिये निकली तो इस को अपने घर ७८६ માર્ગ આચરણમાં મુકી શકાતા નથી. આચાર્ય શિવભૂતિને અનેક રીતે સમજાવ્યા, પરંતુ શિવભૂતિએ પેાતાના દુરાગ્રહ ન છોડયા અને ક્રોધના આવેશમાં આવીને પાતે પહેરેલાં વચ્ચેાના પરિત્યાગ કરી, કાંઇ પણ સાથે લીધા વિના એકલા જ વન તરફ ચાલ્યા ગયા. આ સૂત્રમાં બીજા અધ્યયનમાં ૧૩ મી ગાથાના વ્યાખ્યાનના અવસરમા જીનકલ્પિકમાતું સવિસ્તર વર્ણન કરવામાં આવેલ છે. જીજ્ઞાસુએએ આ વિષય એ સ્થળે જોઇ લેવા. શિવભૂતિની બહેન જેનું નામ ઉત્તરા હતું, તેને જ્યારે આ ખખર પડી તા તે પેાતાના ભાઈ શિવભૂતિને વંદ્યના કરવા માટે વનમાં જઈ પહોંચી. વસ્ત્રોને ધારણ કરવાથી મુકિત મળતી નથી એ પ્રકારના શિવભૂતિને ઉપદેશ સાંભળીને ઉત્તરાએ પણ પાતે ધારણ કરેલાં વસ્ત્રઓને ત્યાગ કરી દીધા, અને નગ્ન અની ગઈ. એક દિવસ જ્યારે તે રઘુવીરપુરમાં ભિક્ષા માટે નીકળી તે વખતે એક વેશ્યા પેાતાના મકાનના ગોખમાં બેઠી હતી. તેણે ઉત્તરા સાધ્વિને ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર ઃ ૧ Page #842 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रियदर्शिनी टीका अ० ३ गा० ९-१० संयमवीर्यस्य दुर्लभत्वम् ७८७ स्थितया कयाचिद् वेश्यया तां विवस्त्रां विलोक्य तस्या उपरि शाटिका निक्षिप्ता । तया शाटिका परिधृता । तां परिहितवस्त्रां विलोक्य शिवभूतिना पृष्टा-कथं शाटिका परिहिता ? । भगिन्या प्रोक्तम्-नग्नतया मया स्थातुं न शक्यते । शिवभूतिना चिन्तितम्-स्त्रीणां मोक्षो नास्ति, लज्जाया अपरिहार्यत्वात् , तासां वस्त्रधारणस्यावश्यकत्वात् । अथ शिवभूतिना द्वौ शिष्यो संगृहीतौं-बोटिकः, कोट्टवीरश्चेति । तौ स्वमतं प्रतिबोध्य प्रवाजितवान् । ततो बोटिकमतं मिथ्यादर्शनं प्रवृत्तम् । इति बोटिक (दिगम्बर) निह्नवदृष्टान्तः ॥ ८ ॥ ___ एतत्त्रयप्राप्तावपि संयमवीर्यस्य दुर्लभत्वमाहकी छत पर बैठी हुई किसी वेश्या ने देखा । देखते ही उस ने इसके ऊपर एक साड़ी ऊपर से डाल दी । उत्तरा ने उस साड़ीको पहिर लिया। साड़ी पहिरी हुई उत्तरा को जब शिवभूति ने देखा तो वह कह ने लगा अरे ! साड़ी क्यों पहिर ली । उत्तरा ने कहा कि मुझ से नग्न नहीं रहा जाता है । शिवभूति ने उत्तरा की बात सुनकर विचार किया कि स्त्रियों को इसी लिये मुक्ति नहीं होती है । क्यों कि वे लज्जा का परित्याग नहीं कर सकती हैं। लजा निवारण के निमित्त उनको वस्त्र का धारण करना अपरिहार्य है । शिवभूति ने दो शिष्य बनाये १ बोटिक, २ कोहवीर। इन दोनों को उसने अपने मत में दीक्षित कर लिया। उन से ही यह बोटिक मत मिथ्यादर्शनस्वरूप प्रवृत्त हुआ है। ॥ यह बोटिक ( दिगम्बर ) निह्नव की कथा हुई ॥ ८॥ અલક-નગ્ન અવસ્થામાં જોતાં જ તેણે મેડી ઉપરથી એક સાડી તેની એબ ઢાંકવા નાખી. ઉત્તરાએ પોતાની એબ ઢાંકવા તે સાડીને પહેરી લીધી. ભિક્ષાચર્યા પતાવી સાડી સહિત ઉત્તર શિવભૂતિ પાસે પહોંચી. શિવભૂતિએ સાડી સહિત ઉત્તરાને જોઈ ત્યારે તેને પૂછયું કે ઉત્તર તમે સાડી કેમ પહેરી? ઉત્તરાએ જવાબ આપે કે, મારાથી નગ્ન રહેવાતું નથી. શિવભૂતિએ ઉત્તરાની વાત સાંભળીને વિચાર કર્યો કે, સ્ત્રિઓ લાજ મર્યાદાને પરિત્યાગ કરી શકતી નથી. લજજાના નિવારણ અર્થે તેમનું વસ્ત્ર ધારણ કરવું એ અપરિહાય છે, માટે ઓિ ને મોક્ષની શક્યતા જ નથી. તે પછી શિવભૂતિએ પોતાના બે શિષ્ય બનાવ્યા એક બેટિક અને બીજે કે દ્રવીર, આ બંનેને તેણે પિતાના મત અનુસારની દીક્ષા આપી. જેનાથી આ કટિકમત મિથ્યા દશન સ્વરૂપ પ્રવર્તક થયો છે. આ બેટિક (દિગમ્બર) નિનવની કથા થઈ છે ૮ ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #843 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययनसूत्रे मूलम्-सुइं च लधुं सद्धं च, वीरियं पुण दुलहं । बहवे रोयमाणा वि", नो यणे पडिवैजए ॥ १०॥ छाया-श्रुतिं च लब्ध्वा श्रद्धां च, वीर्य पुनर्दुर्लभम् । ____बहवः रोचमाना अपि, नो च तत् प्रतिपद्यन्ते ॥ १० ॥ टीका-'सुइच' इत्यादि। .. श्रुति-धर्मश्रवणं, च-अपि श्रद्धां-धर्मरुचिं, चकारात मनुष्यत्वं लब्ध्वा वीर्य -चारित्रपालने पराक्रमस्फोरणं पुनदुर्लभम् , वीर्य हि-कर्मरजःप्रक्षालकं जलमिव, भोगभुजङ्गविषनिवारण मन्त्र इव, कर्मघनाधनविकिरणे पवन इव, केवलज्ञानभास्करप्रकटने प्राची दिगिव, साधनन्तमुक्तिसाम्राज्याभिलषितप्राप्तौ कल्पतरुरिवास्ति । वीर्यवन्त एवं मोक्षप्राप्तावधिकारिणो भवन्ति । संयमवीर्यस्य दुर्लभत्वे हेतुमाह मनुष्यत्व, श्रुति और श्रद्धा, इन तीनों की प्राप्ति होने पर भी संयम में वीर्योल्लास का होना महादुर्लभ है, यह बात इस नीचे की गाथाद्वारा सूत्रकार बतलाते हैं-'सुइं च' इत्यादि। ___ अन्वयार्थ-(सुइंच सद्धं च लध्धुं-श्रुतिं च श्रद्धां च लब्ध्वा ) धर्मश्रवण, तथा श्रद्धा-धर्म में रुचि-एवं मनुष्यभव पाकर के भी (पुण वीरियं दुल्लहंपुनः वीर्य-दुर्लभम् ) चारित्र के पालन करने में वीर्योल्लास का होना दुर्लभ है। क्यों कि यह वीर्य कर्मरूपी धूलिको धोने के लिये पानी जैसा, भोगरूपी भुजंग के विषनिवारण करने के लिये मंत्र जैसा, कर्मरूपी मेघपटलको उड़ाने के लिये पवन जैसा, केवलज्ञानरूपी सूर्य को प्रकट करने के लिये पूर्वदिशा जैसा, साधनन्त मुक्तिरूप अभिलषित की प्राप्ति कराने के लिये कल्पवृक्ष जैसा है। जो वीर्यविशिष्ट होते हैं वे ही મનુષ્યત્વ, ધર્મશ્રવણ અને તેમાં શ્રદ્ધા થવી આ ત્રણેની પ્રાપ્તિ થવા છતાં પણ સંયમના માર્ગમાં પુરૂષાર્થ કરવામાં રત થવું એ મહાદુર્લભ છે. એ पात मा नीयनी ॥२॥ द्वा२। सूत्र४२ मताव छ. सुई च-त्यादि मन्वयार्थ -सुई च सद्धं च लध्धु-श्रुति च श्रद्धां च लब्ध्वा धर्म श्रवार तथा श्रद्धा धर्मभा३यी अने मनुष्यस पाभीन ५ पुण वीरियं दुल्लहं-पुनः वीर्य दुर्लभम् ચારિત્રનું પાલન કરવામાં પુરૂષાર્થ કર ઘણે દુર્લભ છે. કેમ કે, એ વીર્ય (પુરૂષાર્થ કર્મરૂપી ધુળને છેવા માટે પાણી સમાન, ભેગ રૂપી ભુજંગ (સ)નું ઝેર નિવારણ કરવા માટે મંત્ર સમાન, કમરૂપી મેઘપટલ (વાદળીને વિખેરવા માટે પવન સમાન, કેવળજ્ઞાન રૂપી સૂર્યને પ્રગટ કરવા માટે પૂર્વ દિશા સમાન સાઘનંત મોક્ષની અભિલાષાની પ્રાપ્તિ કરવા માટે કલ્પવૃક્ષ સમાન છે. મેક્ષની જે ધર્મકરણમાં વીર્ય વિશિષ્ટ (વધારે પરાક્રમી હોય છે તેને જ પ્રાપ્તિના ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #844 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रियदर्शिनी टीका अ० ३ गा. ११ मानुष्यत्वेऽपि वीर्यस्य दौर्लभ्यम् ७८९ 'बहवे' इत्यादि । चकारो ह्यर्थे, यतः बहवो जना रोचमाना अपि-धर्मे श्रद्धावन्तोऽपि 'ण' तद्-वीर्य नो प्रतिपद्यन्ते चारित्रमोहनीयकर्मोदयात् न प्राप्नुवन्तीत्यर्थः । श्रेणिका दिवत् ॥ १० ॥ मानुषत्वादेः फलमाहमूलम्-माणुसत्तम्मि आयाओ, जो धम्म सुच्च सदहे। तवस्सी वीरियं लछ, संवूडो णिzणे रेयं ॥११॥ छाया-मानुषत्वे आयातो, जो धर्म श्रुत्वा श्रद्धत्ते । तपस्वी वीर्य लब्ध्वा, संवृतः निधुनोति रजः॥ ११ ॥ टीका--'माणुसत्तम्मि' इत्यादि । ___ मानुषत्वे आयातः मनुष्यदेहे समागतः सन् यः जीवः, धर्म श्रुत्वा श्रद्धधर्मे श्रद्धावान् भवति, स तपस्वी-निदानाद्यभावात् प्रशस्ततपोयुक्तः, वीर्य मोक्षप्राप्तिके अधिकारी माने जाते हैं । ( रोयमाणा वि बहवे-रोचमाना अपि बहवः) क्यों कि अनेक मनुष्य संसार में ऐसे भी हैं जो धर्म में श्रद्धा तो रखते हैं परन्तु चारित्रमोहनीय कर्म के उदय से (नो य गं पडिवज्जए-नो च तत् प्रतिपद्यन्ते ) उस समय में वीर्योल्लास को प्राप्त नहीं कर सकते है अर्थात् संयममें पराक्रम नहीं फोड़सकते हैं। तात्पर्य यह है, कि-मनुष्यभव, धर्मश्रवण एवं श्रद्धा इन तीनों के पाने पर भी सब मनुष्य संयममें वीर्योल्लासवाले नहीं देखे जाते हैं, अतः यह दुर्लभ है।।१०।। मनुष्यभव आदि के फल को सूत्रकार कहते हैं-माणुसत्तम्मि इत्यादि । अन्वयार्थ-(माणुसत्तम्मि आयाओ-मानुषत्वे आयातः) मनुष्य देह में आया हुवा (जो-यः) जोजीव (धम्म सुच्चा सद्दहे-धर्म श्रुत्वा श्रद्धत्ते) अधिारी भानामांमाव छ. रोयमाणा वि बहवे-रोचमाना अपि बहवः भ मा સંસારમાં અનેક મનુષ્યો એવા પણ છે જે ધર્મમાં શ્રદ્ધા તો રાખે છે પરંતુ ચારિત્ર माडनीय भना यथी श्रद्धा वा छतां नो य णं पडिवज्जए-नोच तत् प्रतिપતે ધર્મ કરણ કરવામાં પુરૂષાર્થ કરી શકતા નથી. એટલે કે-સંયમમાં પરાક્રમ દેખાડી શકતાં નથી. તાત્પર્ય એ છે કે, મનુષ્યભવ, ધર્મશ્રવણ અને તેમાં થતી શ્રદ્ધા આ ત્રણે વસ્તુઓ પ્રાપ્ત કરવા છતાં પણ સઘળા મનુષ્ય સંયમના માર્ગે કરણ કરવામાં પુરૂષાર્થ કરતાં દેખાતા નથી. માટે જ તે દુર્લભ છે. તે ૧૦ मनुष्यम माहिना ने सूत्रा२ ४७ छ-माणुसत्तम्मि-त्याहि. अन्वयार्थ-माणुसत्तम्मि आयाओ-मानुष्यत्वे आयातः । मनुष्य हेमा मावल मेवा जो-यः२ ७१ धम्मं सुच्चा सद्दहे-धर्म श्रुत्वा श्रद्धस्ते धभर्नु श्रपरी तमां ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #845 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७९० उत्तराध्ययनसूत्रे लब्ध्वा संवृत्तः संवरयुक्तः सन् आस्रवं निरुध्येत्यर्थः, रजः बद्धं बध्यमानं च कर्म रूपं रेणु, निर्धनोति = नितरां धुनोति - अपनयति, तदपनयनाच्च मोक्षं प्राप्नोतीत्यर्थः॥ ११॥ मानुषत्वादेः पारत्रिकफलं कथितम् । इदानी मैहिकफलं बोधयितुमाह धर्म का श्रवण कर उसमें श्रद्धा करता है - श्रद्धाशाली होता है - वह (तवस्सी - तपस्वी ) निदान आदि शल्य से रहित प्रशस्त तप का आराधक और (संवुडो - संवृतः) आस्रव का निरोध करने वाला जीव ( वीरियं लढुं ) संयम में वीर्योल्लास को धारण कर ( रयं निदुणे - रजः निर्धुनोति ) बद्ध अथवा बध्यमान कर्मरूप धूलिका अपनी आत्मासे बिलकुल अलग कर देता है, अर्थात् - कर्मरजरहित होकर मुक्ति को प्राप्त कर लेता है । भावार्थ-तप से दो काम होते हैं-१ संवर और २ निर्जरा। ये दो ही तत्व मुक्ति के कारण हैं । जो आत्मा मनुष्यदेह को पाकर धर्म में रुचिशाली होता है वह तपस्वी बनकर निदान आदि शल्यरहित तप से आस्रव का निरोध कर संयम में वीर्योल्लास की अधिकता से बद्ध अथवा बध्यमान कर्मों का नाश करने वाला हो जाता है ॥। ११ ॥ मनुष्यत्व आदि का पारत्रिक फल कह दिया है । इस समय ऐहिक फल बतलाने के लिये यह गाथा कही जाती है—' सोही ' इत्यादि । श्रध्धा पुरे छे, - श्रध्धावान जने छे, ते तवस्सी - तपस्वी निहान आदि शस्यथी रडित प्रशस्त तपना आराध अने संवुडो-संवृतः स्त्रवने। निरोध वा वाणे व वीरियं लभ्धुं वीर्यं लब्ध्वा संयभमां वीर्योदयासने धार मेरी यं निधुणे - रजः निर्धुनोति युद्ध ( संधाई शुठेसां ) अथवा मध्यमान (नवां બંધાતાં) કમરૂપ ધૂળને પેાતાના આત્માથી બિલકુલ અલગ કરી દે છે. અર્થાત કાઁરજ રહિત થઇને મેાક્ષને પ્રાપ્ત કરી લે છે. ભાવાર્થ--તપથી એ કાર્ય થાય છે. એક સવર અને ખીજું નિજ રા એ બે તત્વ જ મેાક્ષનું કારણ છે. જે આત્મા મનુષ્યદેહને પાીને ધર્મીમાં રૂચીવાળે અને છે, તે તપસ્વી ની નિદ્યાન આદિ શયરહિત તપથી આસવના નિરાધ કરી સંયમમાં પ્રવૃત્ત ખનતાં મધ અથવા મધ્યમાન કર્મોના नाश पुरी शडे छे. ॥ ११ ॥ મનુષ્યત્વ આદિનાં પરલેાક સંબંધિ ફળ વિશે કહેવામાં આવ્યુ છે. આ સમયે ઐહિક ( આ લેાકનાં) ફળ ખતાવવા માટે આ ગાથા કહેવામાં આવે छे. सोही - त्याहि. ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર ઃ ૧ Page #846 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रियदर्शिनी टीका. अ० १३ गा. १२-३ चतुरङ्गीप्राप्तस्य मोक्षफलम् ७९१ मलम्-सोही उज्जुयभूयस्स, धम्मो सुद्धस्स चिट्ठइ । निव्वाणं परमं जाइ, घयंसित्तल पावए ॥ १२ ॥ छाया-शुद्धिः ऋजुभूतस्य, धर्मः शुद्धस्य तिष्ठति । निर्वाणं परमं याति, घृतसिक्त इव पावकः ॥१२॥ टीका-'सोही' इत्यादि। ऋजुभूतस्य सरलीभूतस्य मानुषत्वादिचतुरङ्गीप्राप्तस्य मोक्षं प्रति नैरन्तर्येण प्रवृत्तात्मन इत्यर्थः शुद्धिर्भवति, कषायकालुष्यापगमादिति भावः। तदनन्तरं शुद्धस्य-शुद्धि प्राप्तस्य धर्मः=क्षान्त्यादिस्तिष्ठति=स्थिरो भवति विचलितो न भवतीत्यर्थः। शुद्धिरहितस्य तु कषायोदयवशात् कदाचित् धर्मभ्रंशसंभवादिति भावः। धर्मस्थेये प्राप्ते चासौधर्मात्मा, घृतसिक्तः घृतेन हुतः, पावकः अग्निरिव तपस्तेजसा दीप्यमानः, परमम् उत्कृष्टं, निर्वाणं याति-मुक्ति प्राप्नोति-केवली भवतीत्यर्थः।।१२॥ अन्वयार्थ-(उज्जुयभूयस्स-ऋजुभूतस्य) सरलीभूत-मानुषत्व आदिचारों की प्राप्तिसे मोक्षके प्रति निरन्तर प्रवृत्तिशील आत्माकी (सोही-शुद्धिः) कषायजन्य कलुषता के नष्ट होने से शुद्धि होती है। तदनन्तर (सुद्धस्सशुद्धस्य) शुद्धि को प्राप्त हुए उस आत्मा के (धम्मो चिट्ठइ-धर्मः तिष्ठति) क्षान्ति आदिरूप धर्म स्थिर होता है। जो शुद्धि से विहीन आत्मा है वह कषायोदय के वश से कदाचित् धर्म से भ्रष्ट भी हो सकता है। जब ओत्मा में धर्म स्थिरता को पालेता है तब वह धर्मात्मा (घयसित्तव्य पावए-घृतसिक्त इव पावकः) धृत से सिक्त अग्नि की तरह तपके तेज से देदीप्यमान होता हुआ (परम निव्वाणं जाइ-परमं निर्वाणं याति) उत्कृष्ट-अपुनरावृत्तिरूप-मुक्ति को पालेता है॥१२॥ अब शिष्य को उपदेश करते हुए कहते हैं-'विगिंच' इत्यादि। मन्वयार्थ-उज्जुयभूयस्स-ऋजुभूतस्य मनुष्यत्व विगेरे या२ परतुनी प्राप्ति थत मोक्षनी त२३ नित२ प्रवृत्तिशीर मामानी सोही-शुद्धिः ४ायन्य शु. पता नष्ट पाथी शुद्धि थाय छे. सुद्धस्स-शुद्धस्य शुद्धिन प्रा यो पछी ते मात्मामा धम्मो चिदुइ-धर्मस्तिष्ठति क्षमा विगेरे ३५ धर्म स्थिर थाय छे. જે શુદ્ધિથી રહિત આત્મા છે તે કષાયના ઉદયને વશ કરીને કદાચ ધર્મથી ભ્રષ્ટ પણ થઈ જાય છે. જ્યારે આત્મામાં ધર્મ સ્થિર થઈ જાય છે ત્યારે તે धमात्मा धयसित्तव्य पावए-घृतसिक्त इव पावकः धीथी सीयामेता मनिनी भा४ तपन तथा हिप्यमान थछने परमं निव्वाणं जाइ-परंम निर्वाण याति એને ફરી જન્મ ન લેવો પડે એવા પરમ નિર્વાણ મોક્ષને પ્રાપ્ત કરે છે ૧૨ वे शिष्यने पहेश मापतi 2-'विगिच 'त्या. ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #847 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - ७९२ उत्तराध्ययनसूत्रे अथ शिष्यमुपदिशन्नाहमूलम्-विगिंच कम्मुणो हेर्ड, जसं संचिणु खंतिए । सरीरं पाढवं हिच्चा, उड्ढं पक्कमई दिसं' ॥ १३॥ छाया-वेविग्धि कर्मणः हेतु, यशः संचिनु क्षान्त्या। शरीरं पार्थिवं हित्वा, ऊर्वी प्रक्रामति दिशम् ॥ १३॥ टीका-'विगिंच' इत्यादि। हे शिष्य ! कर्मणः-अत्र प्रक्रमात् मानुषत्वप्रतिबन्धकस्य कर्मणः हेतुं कारणं मिथ्यात्वाविरतिकषाययोगादिकं, वेविग्धि-पृथक कुरु, तथा यशः यशस्करं संयम, विनयं चेत्यर्थः क्षान्त्या उपलक्षणं चैतत् तेन मार्दवादिभिरपि संचिनु-वर्धय रक्षयेत्यर्थः । तस्य मुख्यं फलमाह- सरोरं' इत्यादि। य एवं करोति, स पार्थिव अन्यदर्शनप्रसिद्धया पृथिवीविकारं शरीरं हित्वा त्यक्त्वा ऊची दिश-मोक्षं प्रति, प्रक्रामति-प्रकर्षण गच्छति ॥ १३॥ अन्वयार्थ-हे शिष्य ! (कम्मुणो-कर्मणः) मनुष्यभवके प्रतिबंधक कर्म के (हेउ-हेतुम् ) कारण-मिथ्यात्व, अविरति, कषाय एवं अशुभयोगादिकको (विगिंच-वेविग्धि) अपनी आत्मा से पृथकू करो। तथा-(जसं-यशः) यशस्कर संयम एवं विनय को (खंतिए-क्षान्त्या) क्षान्ति आदि के द्वारा (संचिणु-संचिनु) वढाओ-रक्षित करो। ऐसा जीव (पाढवं सरीरं हित्वा-पार्थिवं शरीरं हित्वा) पार्थिव-पौद्गलिक इस शरीर को छोड़कर (उड्ढं दिसं पक्कमई-उची दिशं प्रक्रामति) उर्ध्व दिशा की ओर-मोक्ष सन्मुख-मोक्ष के प्रति प्रयाण करता है। भावार्थ-इस गाथा द्वारा सूत्रकार यह प्रदर्शित कर रहे हैं कि जो सन्याथ-3 शिष्य ! कम्मुणो-कर्मणः भनुष्यसपना प्रतिमा-शना२ भना हेउ-हेतुम् ४१२0 मिथ्यात्प, मपिति, ४ाय भने अशुभयोविरेने विगिंचवेविधि मा चाताना मात्मामांथी हावा. तथा जसं-यशः यश३२ संयम मन विनयन खतिए-क्षान्त्या शान्ति विगेरे द्वारा संचिणु-संचिनु पधारे।२क्षित 3. मेवा १ पाढवं सरीरं हित्वा-पार्थिव शरीरं हित्वा पार्थिव-पृथ्वी G५२ri पौगात शरीरने छ। उल्नु दिसं पकमई-उर्ध्वा दिशम् प्रक्रामति ઉર્વ દિશા તરફ-મક્ષ સન્મુખ–મેક્ષના તરફ પ્રયાણ કરે છે. ભાવાર્થ-આ ગાથા દ્વારા સૂત્રકાર એવું પ્રદર્શિત કરે છે કે, જે ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #848 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रियदर्शिनी टीका अ० ३ गा० १४-१५ पुण्यकर्माधशेषे देवत्वप्राप्तिः ७९३ एवं तद्भवे मोक्षप्राप्तिरूपं फलमुक्त्वा कर्मावशेषे सति परभवे तत्फलमाहमूलम्-विसालिसेहिं सीलेहिं, जक्खा उत्तर-उत्तरा । महासुका व दिपंता, मन्नता अपुणञ्चवं ॥१४॥ छाया-विसदृशैः शीलैः, यक्षाः उत्तरोत्तराः। ___ महाशुक्ला इव दीप्यमानाः मन्यमाना अपुनश्च्यवम् ॥१४॥ टीका-विसालिसे हिं' इत्यादि। मुनयः विसदृशैः अनुपमैः, अत्युत्कृष्टैरित्यर्थः, शीलैः-चारित्रविनयरूपैः, यक्षाः-देवाः भूत्वा उत्तरोत्तराः यथोत्तरप्रधानाः, महाशुक्लाः अत्युज्ज्वलतयाऽति शुक्लवर्णाश्चन्द्रसूर्यादयः इव दिप्यमानाः प्रकाशमानाः, अपुनश्च्यवं स्वात्मनस्तदन्यभवे पुनरच्युतिं मन्यमानाः, 'उड्दं कप्पे चिटंति ' ऊर्ध्व कल्पेषु तिष्ठन्ति, इत्यग्रिमगाथया सम्बन्धः ॥ १४ ॥ आत्मा मिथ्यात्व आदि को अपनी आत्मा से पृथक् कर संयम आदि का संरक्षण करता रहता है वह आत्मा धर्म के द्वारा ही इस पौद्गलिक शरीर का परिहार कर के मोक्षसुख को पा लेता है ॥१३॥ इस प्रकार उसी भव में मोक्षप्राप्तिरूप फल कह कर अब सूत्रकार "यदि उस आत्माका कर्म अवशिष्ट हो तो परभव में उसको किस फल की प्राप्ति होती है ?” यह बतलाते हैं-'विसालिसेहि' इत्यादि । अन्वयार्थ-मुनिजन (विसालिसेहि-विसदृशैः) अनुपम (सीलेहि-शीलैः) चारित्रविनयरूप शीलों द्वारा (जक्खा-यक्षाः) देव होकर (उत्तरा उत्तराउत्तरोत्तराः) आगे २ के भवों में (महासुक्का व दिप्पंता-महासुक्ला इव આત્મા મિથ્યાત્વ વિગેરેને પિતાના આત્માથી દૂર કરી સંયમ વિગેરેનું જતન કરતે રહે છે તે આત્મા ધર્મ દ્વારા જ આ પૌગલિક શરીરને ત્યાગ કરી મિક્ષ સુખ પ્રાપ્ત કરવા ભાગ્યશાળી બને છે. ૧૩ છે આ પ્રકારે એજ ભવમાં મોક્ષ પ્રાપ્તિરૂપ ફળ કહીને હવે સૂત્રકાર “જે તે આત્માનું કર્મ બાકી હોય તે પરભવમાં તેને કેવાં ફળની પ્રાપ્તિ થાય छ." से सतावे छ. विसालिसेहि-त्याह. मक्याथ-मुनिशन विसालिसेहि-विसदृशैः मनु५म सीलेहि-शीलैः यात्रि. विनय. ३५ शी १२ जक्खा-यक्षाः ३१ ५७ उत्तरा उत्तरा-उत्तरोत्तराः मा ५२ थना सवमा महासुक्का व दिप्पंता-महासुक्ला इव दीप्यमानाः मति Gre ejalore १० १०० ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #849 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - ৪২৪ उत्तराध्ययनसूत्रे कीदृशास्ते यक्षा इत्याहमलम-अप्पिया देवकोमाणं, कामरूवविउव्विणो । उडूढं कप्पेसु चिट्ठति, पुवा वाससया बहू ॥१५॥ छाया-अर्पिता देवकामेभ्यः, नामरूपविकुर्वाणाः । ____ उर्व कल्पेषु तिष्ठन्ति, पूर्वाणि वर्षशतानि बहूनि ॥१५॥ टीका-'अप्पिया' इत्यादि । देवकामेभ्यः देवलोकसुखेभ्यः, अर्पिता:-अर्पिता इव पूर्वभवाऽऽचरितैर्ऋतैरुपस्थापिताः, पूर्वसुकृतानि साधून दिव्यमुखसंनिधौ नीत्वा दिव्यसुखेभ्यः समर्पय न्तीत्यर्थः । कामरूपविकुर्वाणा:-कामेन स्वेच्छया रूपं विकुर्वन्ति-विरचयन्तीत्येवंशीलाः, अमिलपितरूपनिर्माणकारिण इत्यर्थः । ऊर्ध्वम्-उपरि उपयुपरिंगतेषु कल्पेषु सौधर्मादिषु, अच्युतान्तेषु उपलक्षणत्वाद् ग्रैवेयकानुत्तरेषु च पूर्वाणि=बहूनि दीप्यमानाः) अति उज्ज्वलवर्णविशिष्ट चंद्र सूर्य की तरह प्रकाशमान होते हुए (अपुणच्च-अपुनश्चवम् ) अन्य किसी दूसरे भवों में अपनी उत्पत्ति न हो इस तरह की (मन्नंता-मन्यमानाः) अभिलाषा वाले होकर ऊपर २ के कल्पों में चिरकालतक निवास करते हैं। भावार्थ-उत्कृष्ट चारित्र विनयरूप शीलों को पालन करने वाले जीवों को जब तक मुक्ति की प्राप्ति में बाधक कर्म अवशिष्ट रहता है तब तक वे उत्तमोत्तम देवादिक पर्यायों को धारण करते रहते हैं ॥१४॥ वे देव किस प्रकार के होते हैं सो कहते हैं-'अप्पिया' इत्यादि। अन्वयार्थ-(देवकामाणं-देवकामेभ्यः) देवभवसंबंधी सुखों के लिये ही मानो (अप्पिया-अर्पिताः) समर्पित किये हैं अर्थात्-पूर्वभवमें आचरित यद्र सूर्यनी भा४ ४ाशमान थने अपुणच्चवं-अपुनश्चवम् मीत लवामा घातात मन देवो ५ मा प्रा२नी मन्नंता-मन्यमानाः मनिषा सेवdi સેવતાં ઉપર ઉપરના ઉચ્ચ કપમાં લાંબા સમય સુધી નિવાસ કરે છે. ભાવાર્થ-ઉત્કૃષ્ટ ચારિત્ર વિનયરૂપ શીલોનું પાલન કરવાવાળા જીવને જ્યાં સુધી મોક્ષની પ્રાપ્તિમાં તેનાં અવશિષ્ટ કમેં બાધક રહે છે ત્યાં સુધી તે ઉત્તમોત્તમ દેવાદિક પર્યાને ધારણ કરતા રહે છે. આ ૧૪ ये है। प्रारना डाय छ त सूत्रा२ मताव -अप्पिया-त्याहि. म-पयार्थ-देवकामाणं-देवकामेभ्यः पससमधीनां सुभान भयो अप्पिया-अपिताः समर्पित ४ा छ अर्थात्-पूर्व सभा ४२ai ५९य द्वारा से ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #850 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रियदर्शिनी टीका अ. ३ गा० १६ स्वर्गाच्च्युतस्य दशाङ्गभोगयुक्तकुलेजन्म ७९५ पूर्वाणि चतुरशीतिलक्षवर्षपरिमितमेकं पूर्वाङ्गम् । चतुरशीतिलक्षपूर्वाङ्गपरिमितमेकं पूर्व भवति । तत्तु सप्ततिलक्षकोटिषट्पंवाशत्सहस्रकोटिवर्ष-(७०५६००००००००००) परिमितं भवति । एवंप्रमाणानि बहूनि पूर्वाणीत्यर्थः, बहूनि असंख्यातानि वर्षशतानि यावन् तिष्ठन्ति । असंख्यातशतपूर्ववर्षाणि यावद् देवसुखानि भुञ्जते ॥ १५ ॥ मूलम्-तत्थ ठिच्चा जहाँठाणं, जक्खा आउक्खये चुंया । उवेति माणुसं जोणिं, से देसंगेभिजायए ॥१६॥ छाया-तत्र स्थित्वा यथास्थानं, यक्षा आयुःक्षये च्युताः। ___ उपयान्ति मानुषी योनि, स दशाङ्गोऽभिजायते ॥ १६ ॥ पुण्यों के द्वारा ही मानो उस स्थान पर लाकर रख दिये हैं, इसीलिये वहां (कामरूवविउविणो-कामरूपविकुर्वाणाः) अपनी इच्छानुसार रूप को बनाते हुए वे देव ( उडूढं कप्पेसु-अर्ध्वकल्पेषु ) ऊपर ऊपर के सौधर्म आदि कल्पों में-सौधर्म से लेकर अच्युतकल्प तक तथा उपलक्षणसे अवेयकों में एवं अनुत्तर विमानों में (पुव्वा बहू वाससयापूर्वाणि बहूनि वर्षशतानि ) कई पूर्वो तक-अर्थात्-चौरासी लाख वर्षों का एक पूींग होता है । चौरासी ८४ लाख पूर्वांगका एक पूर्व होता है, वह पूर्व सत्तरलाखकरोड छप्पनहजार करोड ७०५६०००००००००० सत्तर छप्पन और ऊपर दश शून्य, ऐसे चौदह अंकवाले वर्षों का होता है, इस प्रकारके बहुत पूर्वोतक, तथा असंख्यात सैकड़ों वर्षों तक (चिट्ठति -तिष्ठंति ) निवास करते हैं, अर्थात् वहां सुखों को भोगते हैं ॥ १५॥ __ 'तत्थ ' इत्यादि। स्थान प्राप्त ४२वामा मा०यु छ भेटवा माटे त्या कामरूवविउव्विणो-कामरूपवि. कुर्वाणाः पातानी छ। अनुसार ३५१ मनावीनत व उड्ड' कप्पेसु-उर्धकल्पेषु ઉપર ઉપરનાં સૌધર્મ આદિ કલ્પમાં – સૌધર્મથી લઈ અચુતક૫ સુધી तथा सक्षथी श्रेय मन मनुत्तर विमानामा पुव्वा बहू वाससया-पूर्वाणि बहूनि वर्षशतानि टवाय पूर्वा सुधी अर्थात यौरासीमा वर्षानु पूर्वा થાય છે, એવા ચૌર્યાશી લાખ પૂર્વીગનુ એક પૂર્ણ થાય છે તે પૂર્વ ૭૦૫૬૦૦૦૦૦૦૦૦૦૦ આ પ્રમાણે ચૌદ આંકવાળા વર્ષનું થાય છે. આવા પ્રકારનાં ઘણાં પૂર્વી સુધી તથા અસંખ્યાત સેંકડો વર્ષો સુધી નિવાસ કરે છે એટલે કે ત્યાં સુખોને ભેગવે છે. જે ૧૫ છે 'तत्थ'-त्यादि ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #851 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७९६ % 3D उत्तराध्ययनसूत्रे ___टीका-'तत्थ' इत्यादि। तत्र देवलोकेषु यथास्थानं स्थित्वा स्व-स्वयोग्यतानुसारेण स्थितिं प्राप्य, यक्षाः देवाः, आयुःक्षये सति देवभवात् च्युताः मानुषीं योनि-जातिम्, उपयान्तिाप्नुवन्ति । तत्र च स-सावशेषपुण्यकर्मा प्रत्येकजीवः, दशाङ्गा दश अङ्गानि यस्य स तथा, दशसंख्यकभोगोपकरणवान् , अभिजायते भवति ॥१६॥ अथ कानि तानि दशाङ्गानि ? इति जिज्ञासायामाहमलम्-खित्तं वत्थु हिरण्णं च, पसंवो दास-पोरसं । चत्तारि कार्मखंधाणि, तंत्थ से उववेजइ ॥१७॥ छाया-क्षेत्र वस्तु हिरण्यं च, पशवो दासपौरुषेयं । चत्वारः कामस्कन्धाः , तत्र स उपपद्यते ॥१७॥ अन्वयार्थ-(तत्थ ठिच्चा-तत्र स्थित्वा) उन देवलोकोंमें यथास्थान स्थित होकर अपनी २ योग्यता के अनुसार स्थिति को प्राप्तकर (जक्खायक्षाः ) वे देव (आउक्खये चुया-आयुःक्षये च्युताः ) वहां की आयु जब समाप्त हो जाती है तब वहाँसे च्यवकर (माणुसं जोणि उतिमानुषी योनि उपयान्ति) मनुष्यभवसंबंधी योनिमें आ कर जन्म लेते हैं। वहां पर (से-सः) वह प्रत्येक जीव अपने पुण्यकर्मके अवशेष रह जाने से (दसंगे भिजायए-दशाङ्गोऽभिजायते ) दश प्रकार के भोगोपभोगों की सामग्रीवाला होता है। भावार्थ-उत्कृष्ट चारित्र की आराधना का फल स्वर्गादिकों में भोग चुकने के बाद जीव वहां की स्थिति समाप्त करते ही मनुष्य में उत्पन्न होकर यहां अवशिष्ट-बचे हुए पुण्य के उदय को भोगता है। मन्वयार्थ-तत्थ ठिच्चा-तत्र स्थित्वा मे मां यथा- थान स्थित ४२ पात पानी योग्यता अनुसार स्थितिन प्रात ४री जखाः-यक्षाः ते दुव आउक्खये चुया-आयुःक्षये च्युताः त्यांनु आयुष्य न्यारे पूर्ण २४ तय छे त्यारे त्यांथी यवान माणुसं जोणि उवें ति-मानुषी योनिउपयांति मनुष्य सभा मनुष्यચિનીમાં આવીને જન્મ લે છે. અને ત્યાં - તે પ્રત્યેક જીવ પોતે पोतनi Y९५४मर्नु अवशेष २ही साथी दसंगे भिजायए-दशाङ्गोऽभिजायते દશ પ્રકારનાં ભેગ ઉપગના સાધન સંપન્નવાળા બને છે. | ભાવાર્થ–ઉત્કૃષ્ટ (ઉચ્ચતર) ચારિત્રની આરાધનાના ફળ સ્વર્ગાદિકમાં ભગવી ચુક્યા પછી જીવ ત્યાંની સ્થિતિ પૂર્ણ થયે મનુષ્ય નીમાં ઉત્પન્ન ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #852 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रियदर्शिनी टीका. अ० ३ गा० १७ दशाङ्गप्रदर्शनम् ও टीका-'खित्तं ' इत्यादि। क्षेत्र ग्रामोद्यानादि, वास्तु-खातोच्छ्रित-तदुभयरूपं, तत्र खातं-भूमिगृहादि, उच्छ्रितं-प्रासादादि, तदुभयं भूमिगृहोपरिस्थः प्रासादः, हिरण्य-सुवर्णम् उपलक्षणमेतद् रूप्यादीनामपि, पशवः गोमहिषी गजतुरङ्गमादयः। दासपौरुषेय-दासाःचेटकाश्चैटयश्च, पौरुषेया:-पुरुषाः पदातयश्च, एषां समाहारः दासपौरुषेयम् । एते चत्वारः चतुःसंख्यकाः, अत्र क्षेत्रं वास्तु चेत्येकः, हिरण्यमिति द्वितीयः, पशव इति तृतीयः, दासपौरुषेयमिति चतुर्थः, कामस्कन्धाः-कामा:-काम्यन्ते अभिलष्यन्ते इति कामाः कामभोगहेतवः, त एव स्कन्धाः तत्तत्पुद्गलसमूहाः यत्र भवन्ति, तत्र-तेषु कुलेषु, स उपपद्यते-उत्पद्यते । अनेन एकमङ्गमुक्तम् । 'कामखंधाणि' इति प्राकृतत्वानपुंसकनिर्देशः ॥ १७॥ अथावशेषाणि नवाङ्गानि बोधयितुमाहवहां उसको दस १० प्रकार की भोगोपभोग की सामग्री प्राप्त होती है। उस को कोई न्यूनता नहीं रहती ॥१६॥ उसी १० प्रकार की सामग्री को सूत्रकार इस गाथाद्वारा कहते हैं'खित्तं ' इत्यादि। अन्वयार्थ-(खित्त-क्षेत्रम् ) ग्राम, उद्यान आदि क्षेत्र (वत्थु-वास्तु) वास्तु भूमिगृह आदि, उच्छ्रित-प्रासाद आदि, उभय-भूमिगृह और उसके उपर बना हुआ प्रासाद (हिरण्णं-हिरण्यम् ) सुवर्ण-उपलक्षण से रूप्यादिक ( पसवो-पशवः ) गाय भैंस, हाथी घोडा आदि (दास पौरुसं-दासपौरुषेयम् ) चेटक चेटी, आदि दास, पदाति आदि पौरुषेय ये (चत्तारिचत्वारः) चार-१ क्षेत्रवास्तु, २ हिरण्य, ३ पशु, ४ दास-पौरुषेय, तथा (कामखंधाणि-कामस्कन्धाः) कामभोगके हेतुरूप स्कंध-पुद्गलसमूहजहां होते हैं ऐसे कुलों में वह जीव (उववज्जइ-उपपद्यते) उत्पन्न होता થઈ ત્યાં અવશિષ્ટ બચેલા પુણ્યના દશ પ્રકારનાં ભેગઉપભેગની સામગ્રી પ્રાપ્ત થાય છે, અને કઈ પ્રકારની ખોટ ન્યૂનતા રહેતી નથી. છે ૧૬ से इश मानी साभश्रीन सूत्रा२ मा ॥॥ द्वारा विछे-खितं-त्याही. स-यार्थ-खित्तं-क्षेत्रम् श्राम धान विगेरे क्षेत्र वत्थु-वास्तु भूमिगड माहि (१) छित (या) प्रासाई (मन) (२) उभय भूभिड भने तेन ५२ मनट प्रासा-भडालय (3) हिरण्णं-हिरण्यम् सुण लक्षाथी याहि पसवो-पशवः ॥य, लेस, हाथी, घोडा माहि. दास पौरुसं-दासपौरुषेयम् ये 2टी-माहास यहातिमा पी३षय चत्तारि-चत्वारः यार क्षेत्र परतु, डि२९य, पशु, हास-पी३षय-तथा कामखंधाणि-कामस्कन्धाः म लगना हेतु ३५ ४-शत समूहन्यां डाय छे सेवा पुणेमा त १ उववज्जइ-उपपद्यते ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #853 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययनसूत्रे मूलम्-मित्तवं नाईवं होई, उच्चांगोए ये वणवं। - अप्पायंके महीपण्णे अभिजाए जसो बैले ॥१८॥ छाया-मित्रवान ज्ञातिमान् , भवति, उच्चैर्गोत्रश्च वर्णवान् । अल्पातङ्क: महाप्रज्ञः. अभिजातः यशस्वी बली ॥१८॥ टीका-'मित्तवं' इत्यादि। स मित्रवान् भवतीत्यन्वयः १, तथा-ज्ञातिमान् भवति २ । एवम्-उच्चैात्रः उच्चैः उत्कृष्टं, गोत्रं-कुलं यस्य स तथा ३ । तथा-वर्णवान्-शरीरे सद्वर्णयुक्तः रूपलावण्यवानित्यर्थः ४। तथा-अल्पातङ्क: आतङ्करहितः, अल्पशब्दोऽभावार्थकः । नेरुज्यवानित्यर्थः५ । तथा-महामज्ञः-महती प्रज्ञा यस्य स तथा, पण्डित इत्यर्थः६। तथा-अभिजातः विनीतः ७। अत एव यशस्वी ख्यातिमान् ८ । तथा-बली-कार्यकरणं प्रति सामर्थ्यवान ९ । 'जसो' 'बले' इत्युभयत्र सौत्रत्वान्मत्वर्थीयप्रत्ययस्य लोपः॥१८॥ है। यह प्रथम अंग है १ इस गाथामें प्रथम अंग कहा गया है ॥ १७ ॥ अवशिष्ट नौ अंग इस गाथा द्वारा स्पष्ट करते हैं-'मित्त' इत्यादि। अन्वयार्थ-वह जीव (मित्त-मित्रवान् ) सन्मित्रोंसे युक्त होता है । (नाइवं-ज्ञातिमान् ) प्रशस्त जाति से संपन्न होता है ३। (उच्चागोए य-उच्चगोत्रश्च ) उत्कृष्ट कुल वाला होता है ४ । (वण्णव-वर्णवान्) शरीर में अच्छे वर्णवाला होता है-रूप्पलावण्य आदिसे संपन्न होता है ५। (अप्पायंके-अल्पातंकः) रोगादिरहित होता है ६। (महापण्णा-महाप्रज्ञः) विशिष्ट बुद्धिशाली होता है । (अभिजाए-अभिजातः) विनीत होता है ! (जसो-यशस्वी) ख्याति से युक्त होता है ९ । (बले-बली) प्रत्येक कार्य को करने की शक्ति से संपन्न होता है १०। इस गाथा में अवशिष्ट नौ अंगों को समझाया है॥१८॥ ઉત્પન્ન થાય છે, આ પ્રથમ અંગ છે. ૧ આ ગાથામાં પ્રથમ અંગ કહેલ છે. જે ૧૭ | पशिष्ट नवम माया द्वारा २५७८ ४२वामा मावस छ. मित्तवं-त्याहि. भ-पयार्थ-ते ७ मित्त-मित्रवान् सन्मित्राथा (सा। भित्र)यी युक्त भने २२. नाइवं-ज्ञातिमान् प्रशस्त ति सपन्न डाय छे3. उच्चागोए य-उच्चैर्गोत्रश्च या गाणी डाय छ ४. वण्णव-वर्णवान् ३५॥ शरीरपणे डाय छ,-३५९४१९यथी सरपूर डाय छ ५. अप्पायंकेअल्पातंकः राग वगेरेथी भुताय छे ६, महापण्णामहाप्रज्ञः विशिष्ट अधिशानी हाय छ ७, अभिजाए-अभिजातः विनात डाय छ ८. जसो-यशस्वी यशस्वी डाय छे. बले-बली प्रत्ये: ४ाय ४२वानी शहिताणे डाय છે. આ ગાથામાં અવશિષ્ટ નવઅંગે સમજાવેલ છે કે ૧૮ છે ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #854 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रियदर्शिनी टीका. अ० ३ गा० १९-२० भुक्तपुण्यकर्मणः सिद्धत्वम् ७९९ मूलम्--भुच्चो माणुस्सए भोएँ, अप्पंडिरूवे अहाउयम्। पुवं विसुध्धसध्धम्मे, केवलं बोहि बुज्झियों ॥१९॥ छाया-मुक्त्वा मानुष्यकान् भोगान् , अप्रतिरूपः यथायुष्कम् । पूर्व विशुद्धसद्धर्मः, केवलां बीधि बुद्ध्वा ॥१९॥ टीका-'भुच्चा' इत्यादि। स अप्रतिरूपा द्वितीयसदृशरहितः सन् यथायुः, आयुषोऽनतिक्रमेण, मानु: ध्यकान्-मनुष्यसम्बन्धिनः, भोगान्-अनुकूलशब्दादिविषयान् भुक्त्वा, पूर्व-पूर्वजन्मनि, विशुद्धसद्धर्मः-विशुद्ध निदानरहितः, सद्धर्मः शोभनधर्मो, यस्य स तथा, केवलां-निर्मलां बोधिसम्यक्त्वं बुद्ध्वा प्राप्य, अस्याग्रिमगाथायां सम्बन्धः।।१९।। मलम-चउरंगं दुल्लहं नञ्चा, संजम पडिज्जिया। तसा धुयकम्मंसे, सिद्धे हवइ ससिए ति बेमि ॥२०॥(युग्मं) छाया-चतुरङ्गीं दुर्लभां ज्ञात्वा, संयमं प्रतिपद्य । तपसा धुतकर्मी शः, सिद्धो भवति शाश्वतः ।। इति ब्रवीमि ॥२०॥ 'भुच्चा ' इत्यादि। अन्वयार्थ-वह जीव (अप्पडिस्वे-अप्रतिरूपः) निरुपम-उपमारहित वह (अहाउयं-यथायुष्कम् ) जितनी आयुका बंध इस पर्यायका उसको हुआ है उतनी ही पूरी आयु तक ( माणुस्सए भोए-मानुष्यकान् भोगान् ) मनुष्यभवसंबंधी भोगों को (भुच्चा-भुक्तवा) भोगकर ( पुव्वं विसुद्धसद्धम्मे-पूर्व विशुद्धसद्धर्मः) पूर्व जन्म में निदान आदि से रहित होने के कारण सद्धर्मशाली होता हुआ (केवलं-केवलाम् ) केवल-निर्मल ( बोहि -बोधिम् ) सम्यक्त्वको (बुज्झिया-बुद्ध्वा) पाकर-'चउरंग' इत्यादि। अन्वयार्थ-(दुल्लहं चउरंगं नच्चा-दुर्लभां चतुरङ्गी ज्ञात्वा ) दुर्लभ इस चतुरंगी को मनुष्वत्व, श्रुति, श्रद्धा और संयम में वीर्योल्लासको प्राप्तकर भुच्चा-त्याहि. स-याथ-ते ७१ अप्पडिरूवे-अप्रतिरूपः नि३५भ-उपमा २डित अहाउयंयथायुष्कम् तेरेटवा मायुष्यना मतेने या पर्यायना (मनुष्य सपना) थाय मेटा पूर्ण आयुष्य सुधी माणुस्सए भोए-मानुध्यकान् भोगान् मनुष्यम समाधी सोगान भुच्चा-भुक्त्वा मागवीर पुव्वं विसुद्धसद्धमे-पूर्व विशुधसध्धर्मः પૂર્વ જન્મમાં નિદાન આદિથી રહિત હોવાના કારણે સદુધર્મશાળી બનીને કહ્યું -केवलाम् १५ नि बोहि-बोधिम् सभ्यत्पने प्राप्त ४रीन.चाउरंग-त्या. मन्वयार्थ-दुल्लहं चउरंगं नच्चा- दुर्लभांचतुरगी ज्ञात्वा मा म यतु जान भनुष्यत्व, श्रुति, श्रध्धा भने सयममा प्रवृत्त मनी तथा संजमं पज्विज्जिया-संयम ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧ Page #855 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 800 उत्तराध्ययनसूत्रे ___टीका-'चउरंग' इत्यादि / दुर्लभां चतुरङ्गीं मानुषत्वं, श्रुतिः, श्रद्धा, संयमे वीर्य चेति चतुष्टयं ज्ञात्वा-माप्य, संयम प्रतिपद्य-अङ्गीकृत्य, तपसा धुतकर्माशा अपनीतकर्मावशेषः शाश्वतः सिद्धो भवति / सुधर्मा स्वामी जम्बूस्वामिनं प्रति तृतीयाध्ययनार्थमुक्त्वाऽन्ते पाह-हे जम्बूः ! इति =इदं भगवता यदुक्तं तदिदं ब्रवोमि, न तु स्व बुद्धया कल्पितं किंचित् कथयामि॥२०॥ इति श्रीविश्वविख्यात-जगद्वल्लभ-प्रसिद्धवाचक-पञ्चदशभाषाकलितललितकलापालापक-प्रविशुद्धगधपद्यनैकग्रन्थनिर्मायकवादिमानमर्दक-श्रीशाहूछत्रपति-कोल्हापुरराजप्रदत्त" जैनशास्त्राचार्य "-पदभूषित-कोल्हापुरराजगुरुबालब्रह्मचारि-जैनाचार्य-जैनधर्मदिवाकर-पूज्यश्रीघासीलालबतिविरचितायां श्रीमदुत्तराध्ययनसूत्रस्य प्रियदर्शिन्याख्यायां व्याख्यायां चतुरङ्गीयनामकं तृतीयमध्ययनं सम्पूर्णम् // 3 // के तथा (संजमं पडिवज्जिया-संयम प्रतिपद्य) संयम को अंगीकार करके (नवसाधुयकम्मंसे-तपसा धूतकर्माशः) एवं तप से अवशिष्ट कर्माश को नष्ट करके (सासए सिद्धे हवइ-शाश्वतः सिद्धो भवति) शाश्वत सिद्ध हो जाता है। सुधर्मास्वामी जंबूस्वामी के प्रति इस तृतीय अध्ययन के अर्थ को कह कर अन्त में उनसे कह रहे हैं कि-(त्तिबेमि-इति ब्रवीमि) हे जम्बू! जो यह मैंने कहा है सो भगवान के द्वारा कहा गया ही कहा है स्वधुद्धि से कल्पित कर नहीं कहा है // 20 // // इस प्रकार उत्तराध्ययन सूत्रकी प्रियदर्शिनी टीका में यह चतुरंगीय नामक तृतीय अध्ययन का हिन्दी भाषानुवाद संपूर्ण हुआ // 3 // प्रतिपद्य सयभने म४ि.२ ४शन तवसा धुयकम्मंसे-तपसा धूतकर्मा शः अने तपथी अपशिष्ट भमशन नष्ट ४रीने सासए सिधे हवइ-शाश्वतः सिद्धो भवति શાશ્વત સિધ્ધ થઈ જાય છે. સુધર્માસ્વામી જખ્ખસ્વામીને આ ત્રીજા અધ્યયનને અર્થ કહીને અંતમાં તેને छ, तिबेमि-इतिब्रवीमि म्यू! मा में घुछ तसगवान भा०यु છે તે જ મેં કહ્યું છે, મારી પોતાની બુધ્ધિથી કલ્પિત એવું કાંઈ કહ્યું નથી. 1920 આ પ્રકારે ઉત્તરાધ્યયનની પ્રિયદર્શની ટીકામાં આ ચતુરંગીય નામના ત્રીજા અધ્યયનને ગુજરાતી અનુવાદ સંપૂર્ણ થયા. 3 ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : 1